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________________ भृशु वारुणि उत्पत्ति हुयी। जन्म लेते ही इसने अपने मुँह से जो नाद निस्सृत किया, उसी कारण इसका नाम 'अथर्वन्' हुआ । आगे चलकर अथर्वन् एवं अंगिरस् से दस दस मिल कर बीस रूपे उत्पन्न हुए, जिन्हे ' अथर्वन् आंगिरस' नाम ऋषि प्राप्त हुआ। वेदोत्पत्ति अथर्वन् ऋषि के द्वारा ब्रह्मा को जो वेदमंत्र - दृष्टिगत हुए, उन्हीं के द्वारा 'अथर्ववेद' की रचना हुयी, एवं अंगिरस ऋषि के द्वारा दृष्टिगत हुए मंत्रों से 'आंगिरसवेद' का निर्माण हुआ । . ब्रह्मा के द्वारा पुष्कर क्षेत्र में किये गये यज्ञ में यह 'होता' था, एवं देवों के द्वारा तुंगक आरण्य में किये गये यज्ञ में यह आचार्य था। इन्हीं दोनों यज्ञों के समय इसने भीष्म पंचकत्रत किया था (पद्म. सू. ३४ स्व. २९ उ. १२४ ) । इसे संजीवनी विद्या अवगत थी, जिसके बाल से इसने जमदग्नि को पुनः जीवित किया था ( ब्रह्मांड. १.३० ) । ' प्राचीन चरित्रकोश . नहुष को शाप नहुष के अविवेकी व्यवहारों से - देवतागण एवं सारी प्रजा प्रस्त थी। उसे देख कर अगस्त्य ऋषि भृगु ऋषि से मंत्रणा लेने के लिए आया। इसने उसे राय दी कि तुम सभी सप्तऋषि हुष के रथ के वाहन बनो इस प्रकार सभी सप्तऋषियों ने नहुष के रथ को खींचा। रथ धीमा चल रहा था, अतएव नहुष ने क्रोध में आकर तेज चलने के लिए सर्प सर्प कहा, तथा एक छात अगस्य के मारी। इस समय अगस्त्य की जटाओं में भृगु विराजमान था, अतएव बात इसे लगी, तथा इसने नहुष को सर्प (नाग) बन जाने के लिए शाप दिया, तथा उसे इन्द्रपद से च्युत किया (म. अनु. ९९ देखिये) । 6 , नहुष एक बार हिमालय तथा विंध्य पर्वतों में अकाल पड़ा। उस समय यह हिमालय पर गया। यहाँ पर इसने एक विद्याधर दम्पति को देखा, जिसमें पति का मुख किसी शाप के कारण व्यान का था। उस दमति के द्वारा प्रार्थना किये जाने पर, इसने उस पुरुष को पौष शुद्ध एकादशी का व्रत करने के लिए कहा, जिसके द्वारा यह शाप से मुक्त हो संका (पद्म, उ. १२५ ) । भृगु वारुणि वीतहव्य को शरण देकर उसे ब्राह्मणत्व प्रदान कर उपदेश दिया था ( म. अनु. ३०.५७-५८ ) । इसी प्रकार निम्नलिखित विषयों पर इसके द्वारा व्यक्त किए गये विचारों में इसका दार्शनिक पक्ष देखने योग्य हैः- :शरीर के भीतर जठरानल तथा प्राण, अपान आदि बायुओं की स्थिति ( म. शां. १७८), सत्य की महिमा, असत्य फे दोष तथा लोग परलोक के दुःखसुख का विवेचन ( म. शां. १८३), परलोक तथा वानप्रस्थ एवं संन्यास का वर्णन आदि (म. शां. १८५ ) । इसने सोमकान्त राजा को गणेश पुराण भी बताया था ( गणेश १.९) । - • संवाद - महाभारत एवं पुराणों में, इसके अन्य राजाभ एवं ऋषियों के बीच तत्त्वज्ञान सम्बधी जो वार्ताएँ हुई, उनका स्थान स्थान पर निर्देश मिलता है। इसका एवं भरद्वाज का जगत की उत्पत्ति तथा विभिन्न तत्वों के वर्णन के संबन्ध में संवाद हुआ था (म. शां. १७५,४८३०) । इसने 6 । आश्रममृगलुंग नामक पर्वत पर भृगु ऋषि का आश्रम था, जहाँ इसने तपस्या की थी। इसी के ही कारण, इस पर्वत को भृगुतुंग' नाम प्राप्त हुआ था। तत्वज्ञान - तैत्तिरीय उपनिषद में एक तत्व के नाते भृगु वारुणि का निर्देश प्राप्त है। इसके द्वारा पंचकोशात्मक ब्रह्म का कथन प्राप्त है, जिसके अनुसार अन्न, प्राण, मन, विज्ञान एवं आनंद इस क्रम से ब्रा का वर्णन किया गया है ( तै. उ. ३.१.१ - ६ ) । किन्तु ब्रह्म की प्राप्ति केवल विचार से ही हो सकती है, ऐसा इसका अन्तिम सिद्धान्त था । । परिवार - भृगु को दिव्या तथा पुलोमा नामक दो पत्तियाँ थी। उन में से दिव्या हिरण्याकशिपु नामक असुर की कन्या थी ( ब्रह्मांड. ३.१.७४; वायु. ६५. ७३) । महाभारत में पुलोमा को भी हिरण्यकशिपु की कन्या कहा गया है। पुलोमा से इसे कुछ उन्नीस पुत्र हुए, जिनमें से बारह देवयोनि के एवं बाकी सात ऋषि थे। इससे उत्पन्न बारह देव निम्नलिखित :- भुवन, भावन, अंत्य, अंत्यायन, ऋतु, शुचि, स्वमूर्धन्, व्याज वसुद्र, प्रभव, अव्यय एवं अधिपति । पुलोमा से उत्पन्न सात ऋषि निम्नलिखित :- यवन, उशनस् शुक्र, बज्रशीर्ष, शुचि, औवं वरेण्य एवं सवन । ब्रह्मांड में उपर्युक्त सारे देव एवं ऋषि दिव्या के पुत्र कहे गये है, एवं फेवल च्यवन को पुलोमा का पुत्र बताया गया है ( ब्रह्मांड. ३.१.८९ - ९०,९२ ) । इसके पुत्रों में उशनस् शुक्र एवं च्यवन ये दो पुत्र अत्यधिक महत्वपूर्ण थे, क्यों कि, उन्हीसे आगे चल कर भृगु (भार्गव) वंश का विस्तार हुआ। इनमें से शुक्र का वंश दैत्यपक्ष में शामिल हो कर विनष्ट हो गया। इस तरह च्यवन ऋषि के परिवार से ही आगे चल कर ५८७
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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