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________________ ऋषभस्कंद प्राचीन चरित्रकोश एकलव्य ऋषभस्कंद--रामसेनाका एक वानर (वा. रा. यु. ऋषिवास-ऋजु देखिये। ४६)। ऋष्टिषण--एक आचार्य (नि. २.११)। । ऋषिकुल्या--ऋषभदेववंशीय भूमनू की दो पत्निओं ऋष्य--(सो. कुरु.) अजमीढवंशीय जलकुल में से एक । उसका पुत्र उद्गीथ । के देवातिथि का पुत्र । ऋषिज--उशिज का नामान्तर । ऋष्यशृग काश्यप--यह कश्यप का शिष्य है तथा ऋषिर्मित्रवर-अंगिरा गोत्र का एक प्रवर । इसे काश्यप पैतृक नाम भी प्राप्त है (जै. उ. ब्रा. ३. ऋषिमत्रवर-अंगिराकुल का एक गोत्रकार। ४०. १; वं. ना. २; ऋश्यशृंग देखिये)। ऋषिवामानव-अंगिराकुल का एक गोत्रकार ऋष्यशंग वातरशन--मंत्रद्रष्टा (ऋ. १०. १३६. तथा प्रवर। | ७)। एक-(सो. पुरूरवस्.) रय का पुत्र । लिये द्रोणाचार्य ने भीष्म के नातियों को धनुर्विद्या सिखाने एकजटा-सीतासंरक्षण के लिये नियुक्त राक्षसियों का काम स्वीकार किया । धृतराष्ट्र तथा पंडु के पुत्र उसकें में से एक (वा. रा. सं. २३)। पास विद्याध्ययन करने लगे। कुछ दिनों में द्रोणाचार्य के एकत--गौतम का ज्येष्ठ पुत्र (त्रित देखिये)। | अध्यापन कौशल्य की कीर्ति चारों ओर फैल गई। इससे एका नौधस--सूक्तद्रष्टा । इसे अनुक्रमणी में नौधस दूर दूर के देशों के राजपुत्र द्रोणाचार्य के पास विद्याध्ययन नोधःपुत्र कहा गया है (ऋ. ८. ८०)। एकयू का मंत्र के लिये आने लगे। एकलव्य भी विद्यार्जन के लिये में निर्देश है (ऋ. ८.८०.१०)। एकदिव् मूल शब्द द्रोणाचार्य के पास आया। परंतु व्याधपुत्र होने के कारण होगा। द्रोणाचार्य ने उसे पढ़ाना अमान्य कर दिया। तब किसी एकपर्णा--हिमवान की मेना से उत्पन्न तीन कन्या भी प्रकार का विषाद मन में न रखते हुए, द्रोणाचाय पर ओं में दूसरी । अपर्णा तथा पर्णा की भगिनी । यह असित दृढ विश्वास रखकर, नमस्कार कर के यह चला गया (म. ऋषि की पत्नी। इसे देवल नामक एक पुत्र था (ब्रह्मांड. आ. १२३.११) द्रोण के द्वारा विद्यादान अमान्य किये ३. ८. २९-३३; १०.१-२१, ह. व. १.१८)। जाने पर भी अपना निश्चय न छोडते हुए इसने द्रोण की ___एकपाटला-हिमवान् को मेना से उत्पन्न तीन एक छोटी प्रतिम मिट्टी की बनाई तथा उसे अपना गुरु कन्याओं में से एक। यह जैगीषव्य की पत्नी थी। इसके मान कर, उस प्रतिमा के प्रति दृढ विश्वास रखते हुए, पत्र शंख तथा लिखित । परंतु इन्हें अयोनिज विशेषण प्रतिमा के सामने अपना विद्याव्यासंग चालू रखा तथा लगाया गया है (ब्रह्माण्ड. ३.१०.२०-२१, ह. बं. १. विद्या में प्रवीण हो गया। द्रोणाचार्य ने उत्तम ढंग से १८. २४)। अपने शिष्यों को सिखाया था । सब शिष्यों से अधिक एकपाद-कश्यप को कद्रू से उत्पन्न पुत्र । द्रोण की प्रीति अर्जुन पर थी। उसने अर्जुन को आश्वाएकपादा--सीता के संरक्षण के लिये नियुक्त सन दिया था कि किसी भी शिष्य को मैं तुमसे अधिक राक्षसियों में से एक (म. व. २६४. ४४)। पराक्रमी नहीं बनाऊंगा। कुछ दिनों के बाद द्रोणाचार्य सब एकयावन् गांदम-एक आचार्य (पं. ब्रा. २१. शिष्यों के सहित कुत्ता आदि मृगयासामग्री ले कर मृगया १४. २०; ते. ब्रा. २. ७. ११)। ते. बा. में कांदम के लिये गये। शिकार करते समय कुत्ता उनसे काफी दूर पाठ है। एकलव्य के पास गया तथा बलाढ्य, कृष्णवर्णीय व्याध को एकलव्य-व्याधों का राजा । हिरण्यधनु का पुत्र। देखकर भौंकने लगा। तब उसे बिल्कुल जस्म न हो किन्तु द्रुपद से सहायता की अपेक्षा नष्ट होने पर चरितार्थ के उसका भौंकना बंद हो जावे, इस हेतु से, बड़ी कुशलता से, १००
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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