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जयंत
प्राचीन चरित्रकोश
जयविजय
से उपेन्द्र
गये।
पर रा
जयंत-('सो. यदु. बृष्णि.) मत्स्य मत में वृषभ- | जयरात--कलिंग देश के भानुमत् राजा का भाई । पुत्र तथा पम मत में ऋषभपुत्र (पा. स. १३)। पद्म में | भारतीय युद्ध में इसका भीम ने वध किया (म. द्रो. १३०. इसीका नामांतर श्वफल्क रहा होगा ।
३१)। २. पांचालदेश का राजा ।। पांडवपक्षीय महारथी (म. जयवर्मन्--दुर्योधन पक्ष का राजा (म. द्रो. १३१. उ. १६८.१०)।
८६)। ३. इंद्र का पौलोमी से उत्पन्न पुत्र (म. आ. १०६.
जयविजय--कर्दम प्रजापति को देवहूती से उत्पन्न ४; भा. ६.१८.७)। देवासुर युद्ध में इसने कालेय |
पुत्र । ये बडे विष्णुभक्त थे । हमेशा अष्टाक्षर मंत्र का
जप तथा विष्णु का व्रत करते थे। इससे इन्हें विष्णु का राक्षस का वध किया (पद्म. स. ६६.)।
साक्षात्कार होता था। ये यज्ञकर्म में भी कुशल थे। ४. भीम का गुप्त नाम । जयेश देखिये। ५. धर्म ऋषि का मरुत्वती से उत्पन्न पुत्र। इसे उपेन्द्र
___ एकबार मरुत्त राजा के निमंत्रण से, ये उसके यज्ञ के लिये
गये। उसमें जय 'ब्रह्मा, ' तथा 'विजय' याजक हुआ। कहते थे (भा. ६.६.८)।
यज्ञसमाप्ति पर राजा ने इन्हें विपुल दक्षिणा दी। वह ६. दशरथ के अष्टप्रधानों में से एक (वा.रा. वा. ७)।
दक्षिणा ले कर घर आने के बाद, दक्षिणा का बँटवारा ७. एक रुद्र एवं रुद्रगण-1
करने के बारे में इनमें झगड़ा हुआ। अन्त में जय ने विजय ८. विष्णु का एक पार्षद (भा. ८.११.१७)।
को, 'तुम मगर बनोगे' ऐसा शाप दिया। विजय ने भी ९. त्रेतायुग में परमेश्वर का नाम (भा. ११.५.२६)।
जय को, 'तुम हाथी बनोगे' ऐसा शाप दिया। परंतु शीघ्र १०. यशस्विन् लौहित्य का नाम (जै. उ. ब्रा. ३.४२.१;
ही कृतकर्म के प्रति पश्चात्ताप हो कर, यह दोनों विष्णु की दक्ष जयंत लौहित्य देखिये)।
शरण में गये। विष्णु ने आश्वासन दिया, 'शाप समाप्त जयंत पाराशर्य--एक आचार्य । विपश्चित् का शिष्य | होते ही मैं तुम्हारा उद्धार करूँगा' । शाप के अनुसार, एक (जै. उ. ब्रा. ३.४१.१)।
मगर, तथा दूसरा हाथी बन कर, गंड़की के किनारे रहने जयंत वारक्य--कुबेर वारक्य का शिष्य । उसका
लगे। बाद में एक दिन हाथी कार्तिकस्नान के हेतु से गंड़की दादा केस वारक्य का शिष्य था (जै. उ. ब्रा. ३.४१.१)। नदी में उतरा । मगर ने उसका पैर पकड़ लिया।
| तब इसने विष्णु को पुकारा । विष्णु ने आ कर दोनों का २. सुयज्ञ शांडिल्य के नाम से भी एक जयंत वारक्य
उद्धार किया। उन्हें वह विष्णुलोक ले गया। पश्चात् जय का उल्लेख है (जै. उ. ब्रा. ४.१७.१)।
तथा विजय विष्णु के द्वारपाल बने (स्कन्द. २.४.२८; पद्म. जयंती-स्वायंभुव मन्वंतर के यज्ञ नामक इंद्र की |
उ. १११-११२)। केन्या, तथा ऋषभदेव राजर्षि की भार्या । इसे भरतादि
| बाद में सनकादि देवर्षियों को, विष्णुदर्शन के लिये इन्होंसौ पुत्र थे (भा. ५.४.८)।
ने जाने नही दिया। अतः उनके शाप से, वैकुंठ से पतित २. वर्तमान वैवस्वत मन्वंतर के पुरंदर नामक इंद्र की हो कर, ये असुरयोनि में गये । इनमें से जय ने हिरण्याक्ष कन्या, तथा वारुणि भृगु के पुत्र शुक्र की स्त्री । देवताओं का जन्म लिया। पृथ्वी सिर पर धारण कर के वह उसे के नाश के लिये, शुक्राचार्य उग्र तपश्चर्या कर रहे थे। तप | पाताल ले गया। तब वराह अवतार धारण कर के, विष्णु ने में विघ्न उपस्थित करने के लिये, इंद्र ने शुक्राचार्य के पास इसे | इसका वध किया एवं पृथ्वी की रक्षा की (भा. ३.१६.३२%, भेजा। वहाँ जाने पर जयंती ने उत्कृष्ट प्रकार से उसकी सेवा | पद्म. उ. २३७)। की। बाद में शंकर से शुक्राचार्य को वरप्राप्ति होते ही, उसने
| अश्वियों ने, 'तुम पृथ्वी पर तीन बार जन्म लोगे' इसका हेतु पहचाना। इसे साथ ले कर वह घर आया
ऐसा शाप इन्हे दिया। इन्होंने भी अश्वियों को, 'तुम भी और गृहस्थाश्रम का उपभोग करने लगा। इससे उसे
एक बार पृथ्वी पर जन्म लोगे' ऐसा शाप दिया । शाप के देवयानी नामक कन्या हुई (मत्त्य. ४७; पद्म. स. १३;
अनुसार, जयविजय ने क्रमशः हिरण्याक्ष तथा हिरण्यउशनस् देखिये)।
कश्यपु के रूप में जन्म लिया , बाद में रामावतार के समय ३. सुपेण राजा की कन्या । यह इसने राजपुत्र माधव । रावण तथा कुंभकर्ण, तथा कृष्णावतार में शिशुपाल तथा को दी थी (पन क्रि. ६)।
| वक्रदन्त नामों से ये प्रसिद्ध हुएँ।
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