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भृगुदास
प्राचीन चरित्रकोश
वायु एवं ब्रह्मांड में; एवं च्यवन और युधिजित् का निर्देश हर्यश्व (विष्णु. ४. १९.१५); भद्राश्च ( मत्स्य. केवल मत्स्य में प्राप्त है।
५०.४)। भृगुदास-भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। __इसे निन्मलिखित पाँच पुत्र थे:- मुद्गल, संजय ।
भृग्वंगिरस्-अथर्ववेद जाननेवाले ऋषिसमुदाय के (सृजय), बृहदिशु, यवीनर, का पिल्य (कपिल अथवा लिए प्रयुक्त सामूहिक नाम (गो. बा. १.३.१, श. ब्रा. कामलाव) । पच्छाल २. आर मम्याश्व दाख
कृमिलाश्व)। पंच्छाल २. और भाश्व देखिये । १.२.१.१३)। यह ऋषिसमुदाय प्रायः भृग एवं भृशाश्व-एक ऋषि, जिसके पुत्र का नाम देवअंगिरस्वंशीय ऋषियों से बना हुआ था। ऋग्वेद में कई प्रहरण था।
प्रहरण था। स्थानों पर इनका निर्देश अथर्वन् लोगों के साथ किया भृशंडिन्--एक मछुआ, जो दंडकारण्य में चौयकर्म गया है (ऋ. ८.३५.३; १०.१४.६)। किंतु भृगु, कर अपनी जीविका चलाता था। अथर्वन् एवं अंगिरस् ये विभिन्न वंश के लोग थे, ऐसा एक बार मुद्गल ऋषि दंडकारण्य में से जा रहे थे, जब भी निर्देश ऋग्वेद में प्राप्त है (ऋ. १.१३.६)। इसने उनकी राह रोंक दी । किन्तु मुद्गल ऋषि के ब्राह्मतेज
गोपथ ब्राह्मण के अनुसार, अथर्वन् एवं अंगिरस् ये के सामने यह निष्प्रभ हुआ। पश्चात् मुद्गल ने इसे भृगु के नेत्र माने गये है। यही कारण है कि, भृग्वंगिरस् उपदेश दिया, एवं श्रीगणेश की उपासना करने के अथर्ववेद का ही नामांतर माना जाता है (गो. ब्रा. १.२. | लिए कहा। २२)। अथर्वन् सांस्कारिक ग्रंथों में भी 'भग्वंगिरसः' यह मुद्गल के उपदेश के अनुसार, इसने एकाग्रचित्त शब्द अथर्ववेद के लिए प्रयुक्त हुआ है (ब्लूमफिल्ड- कर श्रीगणेश की उपासना की। इस उपासना के कारण, अथर्ववेद ९.१०.१०७)। याज्ञवल्क्य स्मृति में भग्वं- इसके दो भृकुटियों के बीच एक शुंड उत्पन्न हुयी, एवं गिरस् एवं अथर्वागिरस् ये शब्द 'अथर्ववेद' अर्थ से यह स्वयं श्रीगणेश जैसा दिखाई देने लगा (गणेश. १: प्रयुक्त हुये है, एवं हरएक राजपुरोहित इस वेदविद्या में ५७)। इसे गणेश स्वरूप मान कर स्वयं इंद्र इसके दर्शन. प्रवीण होना चाहिए, ऐसा कहा गया है । मनु के अनुसार, के लिए उपस्थित हुआ था (गणेश. १.६७)।' . अथर्ववेद में मंत्रविद्या को अधिकतर प्राधान्य दिये जाने मेडी--स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श.. के कारण, उस वेद को एवं उसे जाननेवाले लोगों को | ४५.१३)। समाज गिरी हुयी नजर से देखा करता था (मनु. ११. भेतृ--विकंठ देवों में से एक। . ३३)।
भेद-एक राजा, जो सुदास एवं तृत्सुभरतों के दस शतपथ ब्राह्मण में वसिष्ठ को 'अथर्व निधि' कहा गया शत्रुओं में से एक था। यमुना के तट पर हुए दाशराज्ञ है. एवं अथर्ववेद का निर्देश 'क्षत्र' नाम से किया गया युद्ध में, सुदास के द्वारा यह पराजित हुआ था (ऋ. ७. है (श. ब्रा. १४.८.१४.४) ।
१८.१८; ३३.३)। संभव है, यह अज, शिग्रु एवं यक्षु भंग-त्रिधामन् नामक शिवावतार का शिष्य । आदि लोगों का राजा था, जिनका भी,दाशराज्ञ युद्ध में ,गिन्-शिवगणों में से एक।
पराभव हुआ था ।रोथ के अनुसार, भेद एक जाति का
नाम था, जिसके राजा का नाम भी भेद था । किन्तु भुंगारीटी-एक शिवगण । अंधकासुर को शिवगणत्व
ऋग्वेद में भेद शब्द सदैव एकवचन में ही प्रयुक्त प्राप्त होने के बाद उसने यह नाम स्वीकार लिया था
हुआ है। (अंधक देखिये)।
___ अथर्ववेद के अनुसार, इन्द्र ने भेद राजा से एक भृत-भृगुकुल के मृग नामक गोत्रकार के लिए
गाय (वशा) माँगी थी, जिसे देने में इसने इन्कार कर उपलब्ध पाठभेद (मृग देखिये)।
दिया था। इस पाप के कारण, इसका नाश हुआ (अ. भृतकील-कुशिककुलोत्पन्न एक गोत्रकार।
वे. १३.७.४९-५०)। संभव है, ऋग्वेद में निर्दिष्ट अज भृम्यश्व-(सो. नील.) एक राजा, जो मुद्गल नामक एवं शिग्रु जातियाँ अनार्य रही हो, एवं उनका नेतृत्व राजा का पिता था (नि. ९.२४) । इसके नाम के लिए | करनेवाला यह राजा भी अनार्य हो । इसी कारण, इसे निम्नलिखित पाठभेद प्राप्त हैं:-वाह्याश्व (ह. वं. १.३२, एक दुष्ट मान कर इसके दुःखद अंत का वर्णन वैदिव ब्रह्म. १३.९५-९६); भाश्व (भा. ९.२१.३२-३३); | ग्रंथों में किया गया हो।
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