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देव
हुआ करते थे, एवं इंद्र के अश्वमेध यज्ञ का अश्व उड़ाने कितने प्रयत्न अन्य राजाओं से होते थे, इसका सारांत इतिहास पुराणों में दिया गया है। जन्म से मनुष्य हो कर, इंद्रपद प्र.स करनेवाले प्राचीन राजाओं में रजि, रजिपुत्र एवं नहुष, ये प्रमुख है । असुरो में से, प्रल्हाद, बलि, हिरण्यकशिपु ये राजा इंद्रपद प्राप्त करने में कामयाब हुए थे।
प्राचीन चरित्रकोश
मनुष्य वंश के राजाओं में 'राजसूय यज्ञ' किया जाता था, उसी प्रकार देवशति के राजा भी कर्तदर्शाने वाला यह यश करते थे। इस यश करनेवाले मनुष्य एवं देवाति के राजा समशः 'मनुष्यराजन् ' एवं 'देवरा जन् इन उपाधि से विभूषित किये जाते थे । प्राचीन चक्रवर्ति राजाओं में से, दिवोदास, वध्यश्व, वीतहव्य आदि सम्राट 'मनुष्यराजन् थे एवं दीर्घवम् पृथु कक्षीवत् आदि सम्राट् 'देवराजन् ' थे ( तां. बा. १८. १०.५)।
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देव, असुर, एवं मनुष्य ज्ञातियों में आपस में विवाह होते थे। पुराणों में प्रसिद्ध 'कच देवयानी प्रणय में, कल देवों के पुरोहित बृहति का पुत्र था, एवं देवयानी अमु के पुरोहित शुक की कन्या थी। अन्त में, देवयानी का विवाह सोमवंशी क्षत्रिय नृप ययाति से हुआ । ययाति की द्वितीय पत्नी एवं देवयानी की सौत शर्मिला, असुर राजा नृपान् की कन्या थी।
- ऋषि के पुत्र देवशाति में प्रविष्ट होने के कई उदाहरण भी प्राप्त है । भृगु ऋषि को पौलोमी नामक पत्नी से भुवन मौवन आदि बारह पुत्र हुएँ ये पुत्र भृगुदेव' • नाम से प्रसिद्ध हो गये ( मस्त्य. १९.५.१२-१४ ) ।
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| देव एवं असुरों के संग्राम की कथाएँ वेदकाल से पौराणिक काल तक अप्रतिहत रूप में प्राप्त होती हैं। इन संग्रामों में देवों द्वारा। किये गये बारह निम्नलिखित संग्राम विशेष तौर पर उलेखनीय है- ( १ ) नारासंद हिरण्यकशिपु हनन, ( २ ) वामन - बलिबंधन, (३) वराह - हिरण्याक्षहनन, समुद्रवीकरण, (४) अनइंद्र एवं प्रह्लाद का युद्ध, महादवराज्य, (५) तारकामय इंद्र द्वारा प्रह्लादपुत्र विरोचन का वध, (६) आकि इंद्र एवं आड़ियक का युद्ध · ( ७ ) त्रैपुर - शंकर एवं त्रिपुर का युद्ध (८) अंधक - शंकर एवं असुर, पिशाच तथा दानव का युद्ध, ( ९ ) वृघातक - वृत्र का वध, (१०) धात्र (प), (११) इंद्र एवं असुर का युद्ध, (१२) एवं दैयानव का युद्ध ( मत्स्य. ४७.४२-४५; ४६-७३; पद्म. स. १३.१८३-१९६ ) ।
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देव
पद्मपुराण में 'आबिक' के स्थान में 'आजाव' एवं 'धात्र ' के स्थान में 'ध्वजपात' संग्राम का निर्देश है। इन युद्धो में, देवज्ञाति के प्रमुख, इंद्र एवं शंकर बताये गये है। देव, पितर एवं मनुष्य ज्ञाति के मानवसंघ देवों के प्रमुख सहायक दर्शाये गये है । असुर ज्ञाति में हिरण्यकश्यपु, हिरण्याक्ष, बलि, प्रहाद, विरोचन, ऋत्र, विप्रचित्ति, नृप ये असुर प्रमुख थे। उनके अनुयायी में पिशाच, दानव एवं सुर प्रमुख थे ।
जिस में सामर्थ्य एवं शक्ति का साक्षात्कार है, वह हर एक व्यक्ति देव बन सकती है, ऐसी प्राचीन भारतियों की धारणा थी। इसी धारणा से अभि, वायु, आदि पंचमहा भूतों को देव मानने की प्रवृत्ति वैदिक काल में निर्माण हुआ । इनं पंचमहाभूतों से भी अधिक शक्ति 'ब्रह्म' में है, ऐसी धारणा उपनिषदों के काल में प्रचलित हुई। इसीलिये, उस काल में 'ब्रह्म' को देव कहने लगे । 'केनोपनिषद' में लिखा है कि, अग्नि, वायु आदि कितने भी सामर्थ्यशाली हो, उनकी शक्ति महद्भुत ब्रह्म के सामने कुछ भी नहीं है।
इस क्रम से, जिस में अधिक शक्ति हो, उसे देव मानने की प्रवृत्ति प्रस्थापित हुई। स्वायंभुव आदि मन्वन्तर में, सर्वश्रेष्ठ शासक राजा को 'इंद्र उपाधि प्राप्त हुई। नाना तरह के अधिकार धारण करनेवाले साध्य, तुषित, तप, भृगु आदि लोग देवशाति में शामिल किये गये। मानकों से जिन में अधिक सामर्थ्य था, वे यक्ष, गंधर्व, साध्य आदि ज्ञाति भी 'देवगण में गिने जाने लगी।
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संसार के आदिकरण को 'देव' कहलाने की प्रवृत्ति उपनिषत्काल में ही प्रचलित हुई । जनकसभा में विदग्ध शाकल्य ने याज्ञवल्क्य को पूछा, 'कति देवाः ' ( देव कितने है ) ? उत्तर में याज्ञवल्क्य ने कहा, 'संसार में एक ही देव है। पृथ्वी उसका शरीर है, अभि नेत्र है, ज्योति मन है । संसार के सारे जीवों का अधिष्ठान बना हुआ पुरुष पृथ्वी पर एक ही है, एवं वही केवल देव है।
दम (इंद्रियदमन ), दया, दान, इन तीन 'द' कारों से कोई भी मनुष्य देवत्त्व पा सकता है, ऐसी भी एक धारणा भारतीय संस्कृति में दृढमूल है । इसी तत्त्व के विशदीकरण के लिये, 'बृहदारण्यकोपनिषद' में एक कथा दी गयी है । एक समय देव, मनुष्य एवं दानव प्रजापति के पास ज्ञान के लिये गये। प्रजापति ने उन सब को 'द' अक्षर का उपदेश श्रेवप्राप्ति के लिये दिया । उस 'द' कार का अर्थ देव, दानव, एवं मनुष्यों ने अपने