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नहुष
को पर दे दिया । घर आये त्वष्ट्ट का नहुष ने सम्मान किया था, एवं उस कार्य के लिये ' गवालंभन भी किया था (म. शां. २६०.६) ।
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इंद्रपदप्राप्ति — अपने पराक्रम, गुण एवं पुण्यकर्म के कारण, देवताओं को भी तुर्लभ 'इंद्रपद प्राप्त होने का सौभाग्य नहुष को प्राप्त हुआ। इतने में देवों का राजा इंद्र ने त्रिशिर नामक ब्राह्मण का वध किया। इस 'ब्रह्महत्या के पातक के कारण, पागल सा हो कर, इंद्र इधर उधर घूमने लगा एवं इंद्रपद की राजगद्दी खाली हो गयी।
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इस अवसर पर सारे देव एवं ऋषियों ने अपनी तपश्चर्या का बल नहुष को दे कर, इसे 'इंद्रपद ' प्रदान किया, एवं आशीवाद दिया, 'तुम जिसकी ओर देखोगे, उसके तेज का हरण करोंगे ' ( म. आ. ७०.२७ ) । इंद्रपद पर आरूढ होने के बाद कुछ काल तक, नहुष ने बहुत ही निष्ठा, नेकी, एवं धर्म से राज्य किया। स्वर्ग का राज्य प्राप्त होने के बाद भी यह देवताओं को दीपदान, प्रणिपात एवं पूजा आदि नित्यकर्म मनोभाव से करता रहा ।
प्राचीन चरित्रकोश
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किंतु बाद में, 'मे देवेंद्र हूँ' ऐसा तामसी अभिमान इसके मन में धीरे धीरे छाने लगा। फिर सारी धार्मिक विधियाँ छोड़ कर, यह मतिभ्रष्ट एवं विषयलेट बन गया। रोज भिन्न भिन्न उपवन में जा कर यह स्त्रियोंके साथ क्रीडाएँ करने लगा। इस प्रकार कुछ दिन बीतने पर, इसने भूतपूर्व इंद्र की पत्नी इंद्राणी को देखा । उसका मोहक रूपयौवन देख कर यह कामोत्सुक हुआ, एवं इसने देवों को हुकुम दिया, 'इंद्राणी को मेरे पास ले आओ' ( म. आ. ७५) ।
फिर डर के मारे भागती हुई इंद्राणी बृहस्पति के पास गयी । बृहस्पति ने उसे आश्वासन दिया, 'मैं नहुष से तुम्हारी रक्षा करूँगा' । बाद में सारे देवों के सलाह के अनुसार, इंद्राणी नहुष के पास आयी, एवं उसने कहा, 'आपकी माँग पूरी करने के लिये मुझे कुछ वक्त आप दें दे । उस अवधि में, मैं अपने खोये हुए पति को ढूँढ़ना चाहती हूँ' ।
नहुष
इंद्राणी नहुष के पास आयी, एवं उसने अपनी शर्त उसे बतायी। नहुष ने यह शर्त बड़े ही आनंद से मान्य की। इसने सप्तर्षिओं को अपने पालकी को जीत लिया, तथा स्वयं पालकी में बैठ कर, यह इंद्राणी से मिलने अपने घर से निकला । मार्ग में पालकी और तेज़ी से भगाने के लिये, कामातुर नहुष में सप्तर्षिओं में से अगस्त्य ऋषि को उत्ताप्रहार किया, एवं बड़े क्रोध से कहा, सर्प, सर्प' (' जल्दी चलो ' ) ।
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नहुष ने इंद्राणी की यह शर्त मान्य की फिर देवों की कृपा से, इंद्राणी ने इंद्र को ढूँढ निकाला, एवं सारा वृत्तांत उसे बता दिया | फिर इंद्र ने उसे कहा, तुम नहुष के पास जा कर उसे कहो, 'अगर सप्तर्पिओं ने जोती हुए पालकी में बैठ कर, तुम मुझे मिलने आओगे तो मैं तुम्हारा वरण करूंगी " ।
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इस पर अगस्त्य ऋषि ने इसे क्रोध से शाप दिया, 'हे मदोन्मत्त ! सप्तर्षिओं को पालकी को जोतनेवाला स्वयंही पृथ्वी पर दस हजार वर्षों तक सर्प बन कर पड़े रहेगी। अगस्त्य के इस शाप के अनुसार नहुष तत्कांस सर्प बन गया एवं पालकी के बाहर गिरने लगा। फिर अगस्त्य को इसकी दया आयीं, एवं उसने इसे उःशाप दिया, 'पांडुपुत्र युधिष्ठिर तुम्हें इस हीन सर्पयोनि से मुक्त कर देगा ( म. उ. ११.१७१ अनु. १५६-१५७१ मा. ६.१८.२-२३ दे. भा. ६.७-८ विष्णु. १,२४) । अगस्यस्वयं सप्तर्षियों में से एक नहीं था। किंतु उसके जटा संभार में छिपा हुआ भृगु ऋषि सप्तर्षियों में से एक था। संभवतः इसी भृगु के कारण अगस्त्य को नहुष ने अपने पालकी का वाहन बनाया होगा।
महाभारत के मत में, भृगु ऋषि के कारण ही नहुष का स्वर्ग से पतन हुआ था नहुष को सारे देवों ने तथा ऋषियों ने वर दिया था, तुम जिसकी ओर देखोगे, उसका तेज हरण कर लोगे । उस वर के कारण अन्य सप्तर्षियों के साथ, अगस्य ऋषि का तेज हुने हरण किया, एवं उसे अपने पालकी का वाहन बनाया। किंतु अगत्स्य की जटा में गुप्तरूप से बैठे भृगु को नहुष कुछ न कर सका, एवं उसका तेज कायम रहा। नहुष ने लत्ताप्रहार करते ही बाकी ऋषि चुपचाप बैठ गये। किंतु भृगु ने उसे शाप दिया (म. अनु. १५७ ) ।
शापमुक्ति — बाद में सरस्वती नदी के तट पर द्वैतवन में पांडव अपने वनवास का काल व्यतीत करने आये । एक दिन भीमसेन हाथ में धनुष्य ले कर वन में मृगया के लिये निकला। यमुनागिरि पर घूमते घूमते, उसने एक गुफा के मुख में चित्रविचित्र रंग का एक अजगर देखा । भीम को देखते ही उस अजगर ने उसके ऊपर डाली, तथा उसकी दोनों बाहें ओर से पकड़ ली। दशसहस नागों का वल अपने भुवाओं में धारण करनेवाले भीम की शक्ति उस अजगर के सामने व्यर्थ हो गई।
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