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________________ जनक प्राचीन चरित्रकोश जनमेजय कौतस्त लिये क्षत्रिय के आवश्यक कार्य, इस विषय पर पत्नी से जनमेजय-सू. दिष्ट.) भागवत मत में सुमतिपुत्र । हुआ संभाषण, तथा अश्मन् नामक ब्राह्मण से संवाद आदि विष्णु एवं वायु मत में सोमदत्तपुत्र । प्रसिद्ध हैं (म. शां. १८, २८, ३०७)। इसने अपने २.(सो. पूरु.) पूरु का पुत्र । इसे प्राचीन्वत् नामक योद्धाओं को स्वर्ग तथा नरक दिखाये थे (म. शां. पुत्र था। इसकी पत्नी मागवी सुनंदा। १००)। ३. (सो. पूरु.) दुप्यन्तपुत्र (म. आ. ७८.१८)। आगे चल कर इच्छामरणी जनक प्राणत्याग कर, ४. (सो. अनु.) विष्णु, वायु तथा मल्य मत में स्वर्ग जा रहा था । मार्ग में इसे यमलोक मिला। वहाँ पुरंजयपुत्र। भागवत मत में सुजयपुत्र। अनेक जीव नाना यातनाएँ पाते हुए इसने देखे। (सो. अनु.) मत्स्य मत में वृहद्रथपुत्र तथा वायु पुण्यवान् जनक को स्पर्श करती हुई हवा, उन पापी जीवों | मत में हरिथपुत्र । को जा लगी । इस कारण उनके सब दुःखों का नाश हुआ। ६. (सो. अज.) भल्लाट का पुत्र (वायु. ९९.१८२; उन्होंने जनक को वहीं रहने का आग्रह किया। तदुपरांत मत्स्य, ४९.५९)। इसके लिये उग्रायुध कार्ति ने, नीयों यम ने इसे नरकलोक की सारी जानकारी दी, एवं इसे | का संहार किया। अंत में उग्रायुध ने जनमेजय का भी स्वर्ग जाने को कहा । जनक ने उसकी एक न सुनी । यम के वध किया। अतएव इसे 'कुलयांसन' कहते है (म. उ. कहने पर, अपना सारा पुण्य दुखियों को बाँट कर, सारे ७२.१२)। कुलपसिन का शब्दशः अर्थ, दुर्वर्तन से पापियों का इसने उद्धार किया ( पन. पा. ३०)। । अपने कुल का नाश करनेवाले लोग, यों होता है। ३. विदेह देश का राजा । इसकी चार स्त्रियाँ थीं। उनमें अठारह कुल्घातक लोगों के नाम उपलब्ध है (म.उ. सुमति पटरानी थी। बहुत वर्षों तक पुत्रसंतान न होने | ७२.१२)। के कारण, इंसने, पुत्रकामेष्टि यज्ञ किया । तब दो पुत्र जनमेजय कौतस्त-कुतस्त का पुत्र । अरिमेजयतथा सीता, नामक कन्या इसे पृथ्वी से प्राप्त हुए । पृथ्वी प्रथम इसका भाई था । ये दोनों भाई पंचविंश ब्राह्मण के के कथनानुसार इसने, १६ वर्षों तक नरकासुर का पालन सर्पसत्र में अध्वर्यु तथा प्रतिप्रस्थातृ थे। किया। त्रेतायुग के पूर्वार्ध की यह घटना है (कालि.३८)। दूसरे जनमेजय परिक्षित के द्वारा किया गया सर्पसत्र, नारद ने अमंगल ब्राह्मण का रूप धारण कर इसका तक्षशिला समीप के सलोगों का संहार था। पंचविंश गर्वपरिहार किया (गणेश. १.६५)। जनक के संबंध | ब्राह्मण का सर्पसत्र सर्पलोगों ने अपने स्थैर्य के लिये में बहुत सी कथाएँ हैं । वे किसी एक जनक की न हो कर किया था (२५.१५.३ )। निमिश म उत्पन्न अन्यान्य लोगों की हैं। उदाहरणार्थ- पचविंश ब्राह्मण के सर्पसत्र में, कौनसा कार्य याज्ञवल्क्य के समय देवराति जनक था। उसके बाद काफी किसने किया इसका इस प्रकार निर्देश है:-१. जर्वर वर्षों के पश्चात्, राम का श्वसुर सीरध्वज जनक हुआ। (गृहपति), २. धृतराष्ट्र ऐरावत (ब्रह्मा), ३. पृथुनरकासुर का पालन करनेवाला जनक, कृष्णसमकालीन श्रवस् दौरेश्रवस (उद्गाता),, ४. ग्लाव (प्रस्तोतृ ), बहुलाश्व होगा (देवराति, बहुलाश्व तथा सीरधज देखिये)। ५.अजग (प्रतिहर्तृ), ६. दत्त तापस (होतृ), ७. शितिपृष्ठ ४. भास्कर साहता क 'वद्यसदहभजन' तत्र का (मैत्रावरुण), ८. तक्षक वैशालेय (ब्राहाणाच्छंसी), कर्ता (ब्रह्मवै. २. १६.१५)। ९. शिख (नेष्ड), १०. अनुशिख (पोतृ), ११. अरुण ५. (प्रद्योत. भविष्य.) विशाखयूप का पुत्र। आट (अच्छावाक), १२. तिानेर्घ दरेश्रुत (अनी ), जनदेव--जनकवंशीय ज्ञानी राजा । इसके पास सौ | १३. कौतस्त अरिमेजय (अध्वर्यु), १४. जनमेजय आचार्य थे, जिनसे इसने आत्मप्राप्ति का उपाय पूछा।। (प्रतिप्रत्थातृ), १५. अर्बुद (श्रावस्तुत), १६. अजिर इसका समाधान कोई भी न कर सका । एक बार (सुब्रह्मण्य), १७. चक (उन्नेत), १८. पिंशग, १९. पंड पंचशिख इसके पास आया। इसने वही प्रश्न उससे | (अभिगर),२०. कुपंड (अपगर)। पूछा । उसने इसे मोक्ष का मार्ग बताया (म. शां. इन दोनों सर्प सत्रों का नाम एक है, तथापि इनका २११)। बंशावलि में इसका नाम नहीं मिलता (२. धमे- परस्पर संबंध नहीं है। एक सौ के नाश के लिये है, तथा स्वज देखिये)। दूसरा उनकी सुस्थिति के लिये है (पं.बा.२५.१५)। जनपादप--विश्वामित्र कुल का गोत्रकार । | दूसरा सत्र किसने किया, बता नहीं सकते।
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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