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प्राचीन चरित्रकोश
स्वाहा
रहोगी, एवं अग्नि में आहुति देते समय लोग 'स्वाहा' कह कर तुम्हारा नाम लेते रहेंगे' (म. व. २२०.५ ) ।
२. वैवस्वत मन्वन्तर के बृहस्पति एवं तारा की एक कन्या, जो बेधानर अग्नि की पत्नी थी। इसक काम, अमोघ एवं उक्थ नामक तीन पुत्र थे ( म. व. २०९.२३२५ ) । जो अनि
३. माहिष्मती के नीलध्वज राजा की कन्या, की पत्नी थी (जै. अ. १५ ) ।
हंस - - ब्रह्मा का एक मानसपुत्र, जो आजन्म ब्रह्मचर्य - व्रत का पालन करता रहा ( भा. ४. ८. १ ) ।
२. कृतयुग में उत्पन्न श्री विष्णु का एक अवतार, जिसने सनकादि आचार्यों को ब्रह्मा की उपस्थिति में योगं की शिक्षा प्रदान की थी। इसे 'यश' नामान्तर भी प्राप्त था ( मा. ११.१३.१९-४१) ।
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यह प्रजापति था, एवं इसने साध्यदेवों को मोक्षसाधन का कपन किया था। इसके द्वारा साध्यदेवों को दिया गया यही उपदेश महाभारत में 'हंसगीता' नाम से उपलब्ध है ( म. शां. २८८ ) । भागवत में और एक हंस ' गीता, दी गयी है, जिसमें 'मिक्षुगीता भी समाविष्ट है। ( भा. ११.११ - १३ ) ।
३. साध्य देवों में से एक ।
४. एक गंधर्व, जो कश्यप एवं अरिष्टा के पुत्रों में से एक था। इसीके ही अंश से धृतराष्ट्र का जन्म हुआ था (म. आ. ६१.७७ ) ।
५. शिवदेवों में से एक ।
हंस
स्वाहि-- (सो. क्रोष्टु.) क्रोष्टुवंशीय श्वाहि राजा का
नामान्तर ।
एक ।
७. जरासंध का एक मंत्री, जो शास्वाधिपति ब्रह्मदत्त का पुत्र था। इसके भाई का नाम डिम्भक था, एवं ये दोनों अस्त्रविद्या में परशुराम के शिष्य थे ( ह. वं. ३.१०३) । महाभारत में इसके भाई का नाम 'डिमक दिया गया है। ये दोनों भाई जरासंघ के मंत्री, एवं सलाहगार के नाते काम करते थे ।
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प्रा. च. १३८ ]
स्वाहेय - स्कंद का मातृक नाम ।
स्विष्टकृत् -- एक अग्नि, जो बृहस्पति एवं तारा का एक पुत्र था (म.व. २०९.२१ ) ।
स्विष्टयन - शौनक नामक आचार्य का पैतृक नाम (श. बा. ११.४.१.२ - ३ ) |
शिक्षा इसके मित्रों में विचक्र एवं जनार्दन प्रमुख थे। इनमें से जनार्दन, इसके पिता के मित्रसह नामक मित्र का पुत्र था ।
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हंस, डिम्मक एवं जनार्दन इन तीनों मित्र की शिक्षा एवं विवाह एक साथ ही हुआ था! आगे चल कर इसने एवं डिम्भक ने शिव की कड़ी तपस्या की, जिससे प्रसन्न हो कर शिव में इन्हें युद्ध में अजेयत्व एवं स्वसंरक्षणार्थं दो भूतपार्षद इन्हें प्रदान किये थे। उसीके साथ ही साथ इन्हें रुद्रास्त्र माहेश्वरास्त्र ब्रह्मशिरास्त्र आदि अनेकानेक अख भी शिवप्रसाद से प्राप्त हुए थे (ह. ६. ३.१०५) । दुर्वासस का शाप - शिव से प्राप्त अस्त्रशस्त्रों के कारण, वे दोनों भाई अत्यंत उन्मत्त हुए एवं सारे संसार को त्रस्त करने लगे । एक बार इन्होंने दुर्वासस् ऋषि को त्रस्त करना प्रारंभ किया, जिस कारण क्रुद्ध हो कर उस क्रोधी मुनि ने इन्हें विष्णु के द्वारा विनष्ट होने का शाप दिया ( ह. वं. ३.१०७ - १०८ ) । आगे चल कर अपने शाप का वृत्त दुर्वासस् ने द्वारका में जा कर कृष्ण से कथन किया,
.६. (सो. वसु. ) वसुदेव एवं श्रीदेवा के पुत्रों में से एवं इन उन्मत्त भाईयों की वध करने की प्रार्थना
उससे की।
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राजसूय यज्ञ अगले साल इन्होंने राजसूय यश किया, एवं तद्हेतु करभार प्राप्त करने के लिए अपने मित्र जनार्दन को इन्होंने कृष्ण के पास भेजा (ह. वं. ३. ११३ - ११५ ) । कृष्ण ने इन्हें करभार देने से इन्कार किया, एवं युद्ध का आह्वान दिया। पश्चात् संपन्न हुए युद्ध में कृष्ण ने इसके मित्र विचक्र का वध किया,
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