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जरासंध
की स्थापना की। इस युद्ध में कृष्ण के पक्ष में, कुल अठारह राजकुल थे ( म. स. १३; विष्णु. ५.२२; ब्रहा. १९५ ) । इस प्रकार, इस युद्ध में पराजित हो कर, यह वापस लौटा। पश्चात् इसने अपनी सहायता के लिये कालयवन को आमंत्रित किया (ह. . २.५३ ) ।
प्राचीन चरित्रकोश
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यद्यपि कृष्ण ने इसका पराभव किया था, तथापि यह अत्यंत शूर था। इसे राज्य प्रदान कर, इसके मातापिता ने वनगमन किया । पश्चात् इसने अतुल पराक्रम दर्शाया । मोज्कुल के क्षत्रियों को पादाक्रांत कर उन्हें अपने काबू सत्र में लाया। तब सभीयों ने इसे सार्वभौमपद पर स्थापित किया ( म. स. १३ ) । गिरित्रज राजधानी में, ९९ बार घूमा कर इसके द्वारा फेंकी गई गदा, ९९ योजन दूर मथुरा के पास आ कर गिरी। हंस तथा डिमक नामक दो पराक्रमी भाई इसके सेनापति थे ( म. स. १३) । कर्ण तथा जरासंध का युद्ध हो कर, उसमें कर्ण विजयी हुआ। इससे इसमें तथा कर्ण में मित्र उत्पन्न हो कर इसने उसे मालिनीनगरी अर्पण की (म. शां. ५.६ ) । जरासंध की सहायता से ही, कंस ने पिता का राज्य छीना ( हं. वं. २.३४.६-७)।
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धर्मराज के मन में, राजसूय यज्ञ करने की इच्छा उत्पन्न हुई । उसने कृष्ण को इन्द्रप्रस्थ बुला कर उसकी सलाह ली कृष्ण ने उसे कहा, चूंकि जरासंध ने ८६ राजाओं को कैद कर रखा है, उसे बिना जीते राजसूय यज्ञ यह पूरा न हो सकेगा। भागवत में २०८०० राजाओं का उल्लेख है । इसका निश्चय था कि उन राजाओं को वह महादेव को चिढ़ायेगा। प्रत्येक कृष्ण चतुर्दशी को यह एक एक राजा की बलि भैरव को चढाता था
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जरित्
जरासंध ने कृष्ण तथा अर्जुन को नालायक मान कर भीम से युद्ध करने का निश्चय किया । सहदेव को राज्याभिषेक कर स्वयं युद्ध प्रारंभ किया । प्रथम इनका गदायुद्ध हुआ, परंतु एक दूसरे के शरीरों पर काफी बार आघात होने के कारण गढ़ायें टूट गई । द्वंद्वयुद्ध प्रारंभ हुआ । यह शु. युद्ध दिनरात चलता था। यह युद्ध कार्तिक १ से कार्तिक शु. १४ तक १४ दिन ( म. स. २१.१०-१८) २५ दिन (पद्म उ. २७९ ) अथवा २७ दिन ( भा. १०.७२. ४०) चल रहा था। युद्ध के अंतिम दिन दोनों अत्यंत
थक
गये थे। कृष्ण की उत्तेजना से भीम ने जरासंध का वध किया (म. स. २२.६ . २० - २४ ) | अंतिम दिन में भीम ने जरासंध को फाड़ डाला। यह पुनः दुई कर युद्ध के लिये सिद्ध हो गया। यह देख कर भीम इस विचार में पड़ा, इसकी मृत्यु कैसी हो। इतने में कृष्ण ने एक तृण हाथ में ले कर उसका छेद किया । दाहिने हाथ का तृण ई ओर तथा बाँयें हाथ का तृग दाहिनी ओर फेंकने का संकेत कृष्ण ने भीम को किया। भीम ने वैसा करते ही जरासंघ की मृत्यु हो गई (पश्च. उ, २५२१ २७८ ) । कृष्ण को यह युक्ति उद्धव ने सुझाई थी।
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जरासंध मृत होते ही, इसका पुत्र सहदेव शरण आया । कृष्ण ने उसे अभय दिया। उसको राज्य पर स्थापित कर के सब राजाओं को कारागृह से छुड़ा दिया। बाद में उन सब राजाओं को राजसूय यज्ञ में आमंत्रित कर, वह भीमार्जुन के साथ इन्द्रप्रस्थ लोटा ( म. स. २२ पद्म उ. २५२ ) । परंतु महाभारत में लिखा है कि, जरासंध वध का कृत्य दिविजय के पहले किया गया। भागवत में लिखा है। कि सारा दिग्विजय पूरा होने के बाद, जरासंघ अजित रहा, इसलिये यह आक्रमण करना पड़ा। २. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्रपुत्र |
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इसलिये जरासंघ को जीतने के लिये कृष्ण तथा अर्जुन को लेकर कृष्ण गिरि में गया। उन्होंने ब्राह्मणवेश धारण किया था। इसके महाद्वार पर रखी गई अत्यंत बड़ी तीन दुंदुभियों को फोड कर, उन्होंने इसके घर गमन किया । जरासंध ने उनसे मिल कर उनका सत्कार किया तथा इच्छा पूछी कृष्ण ने कहा, 'इन दोनों का मौन है, इसलिये हम मध्यरात्रि के बाद वार्तालाप करेंगे'। मध्यरात्रि के बाद जरासंघ अर्घ्यपाद्य दे कर उनका सत्कार करने लगा। उन्होंने उसे ग्रहण नहीं किया। तब उनकी आकृति देख कर, जरासंध ने पहचाना कि वे क्षत्रिय है। उनसे आगमन का कारण पूछा। कृष्ण ने तीनों के नाम बता कर कहा, 'जिससे युद्ध करने की तुम्हारी इच्छा हो, उससे तुम युद्ध करो'।
जरितारि - मंदपाल ऋषि को शाङ्ग जरिता से उत्पन्न पुत्र (म. आ. २२४.६, अनु. ५३.२२ कुं.) ।
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जरित शाह-मंत्रद्रष्टा (ऋ. १०.१४२.१२) । २. मंदपाल ऋषि की पत्नी । शाङ्ग एक पक्षी की जाति है। मंदपाल से इसे चार पुत्र हुए। उनके नाम जरितारि, सारिसृक्क, द्रोण तथा स्तम्बमित्र थे ( म. आ. २२४.६ ) | ये ही नाम उपरोक्त सुखों के क्रम से दो दो । ऋचाओं के द्रष्टाओं के हैं। उन पुत्रों को मंदपालद्वारा भगा दिये जाने पर, वे दावाग्नि में घिर गये । परंतु उपरोक्त दो मंत्रों से, अभि की प्रार्थना करने पर दावाभि से ये मुक्त हो गये। सायण ने इस कथा का अनुक्रमणी के
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