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________________ युधिष्ठिर प्राचीन चरित्रकोश युधिष्ठिर । युधिष्ठिर का यह वचन सुन कर द्रौपदी और भी ऋद्ध | प्रदान की, जिस कारण यह यतविद्या में अजिंक्य बन हुयी। समस्त सृष्टि के संचालक विधातृ की दोष देते हुये | गया। उसने कहा, 'तुम्हारे आत्यंतिक धर्मभाव से मैं तंग आयी तीर्थयात्रा-एक बार लोमश ऋषि इसे वनवास में हूँ। कहते है कि, धर्म का रक्षण करने पर वह मनुष्यजाति मिलने आये, एवं उन्होंने इसे कहा, 'अर्जुन को अपनी का रक्षण करता है। किन्तु धर्माचरण का कुछ भी फायदा | तपस्या से लौट आने में काफी समय लगनेवाला है। तुम्हे नही हुआ है । अपनी समस्त आयु में तुमने यज्ञ | इसी कारण तुम्हारी मनःशांति के लिए तुम भारतवर्ष किये, दान दिये, सत्याचरण किया। एक साया जैसे | की यात्रा करोंगे, तो अच्छा होगा। इसी समय पुलस्त्य तुम धर्म का पीछा करते रहे । फिर भी उसके बदले हमे | एवं धौम्य ऋषि ने भी इसे तीर्थयात्रा करने का महत्त्व दुःख के सिवा कुछ भी न मिला। कथन किया था (म. व. ८०-८३-८४-८८)। द्रौपदी के इस कटुवचन को सुन कर युधिष्ठिर पश्चात् यह लोमश ऋषि के साथ तीर्थयात्रा के लिए ने अत्यंत शान्ति से कहा, फलों की कामना निकल पड़ा। लोमश ऋषि ने इसे तीर्थयात्रा करते समय मन में रखकर धर्म का आचरण करना उचित अनेकविध तीर्थस्थान, नदियाँ, पर्वत आदि का माहात्म्य नहीं है । जो नीचे एवं कमीने होते है, वे ही धर्म कथन किया, एवं उस माहात्म्य के आधारभूत प्राचीन का सौदा करते है। अपने दर्भाग्य के लिए देवताओं को | ऋषि, मुनि एवं राजाओं की कथा इसे सुनाई (म. व. दोष देना श्रद्धाहीनता का द्योतक है। धर्म असफल होने ८९-१५३)। महाभारत के जिस 'तीर्थयात्रा पर्व' में पर तप, ज्ञान एवं दान निष्कल हो जायेंगे, एवं समस्त युधिष्ठिर की इस यात्रा का वर्णन प्राप्त है, वहाँ पुष्करमनुष्य जाति पशु.बन जायेंगी। परमात्मा की कर्तृत्वशक्ति | तीर्थ एवं कुरुक्षेत्र को भारतवर्ष के सर्वश्रेष्ठ तीर्थ कहा गया अगाध है। उसकी निंदा करने का पापाचरण तुमने न | है, एवं समुद्रस्नान का माहात्म्य भी वहाँ कथन किया करना चाहिये। युधिष्ठिर ने आगे कहा, 'दुर्योधन की | गया हा राजसभा में मैंने वनवास की प्रतिज्ञा की है, जो मुझे नहुषमुक्ति--तीर्थयात्रा समाप्त करने के पश्चात् , अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय है । हमे सत्य कभी भी | पाण्डव गंधमादन पर्वत पर गये । वहाँ अर्जुन भी पाशुन छोडना चाहिये (म. व. २८-३१)। पतास्त्र संपादन कर स्वर्ग से वापस आया था (म. व. . इसी संभाषण के अन्त में इसने अपने भाईयों से कहा १६२-१७१)। गंधमादन पर्वत के नीचे पाण्डव जिस 'कौरवों के साथ द्यूत खेलते समय मैं हारा गया, इस समय अरण्य में संचार कर रहे थे, उस समय अजगर कारण आप मुझे जुआँरी एवं मूरख कह कर दोष देते है, रूपधारी नहुष ने भीम को निगल लिया। नहुष के द्वारा यह ठीक नहीं । जब मैं यत के लिए उद्यत हुआ था, उस पूछे गये धर्मविषयक अनेकानेक प्रश्नों के युधिष्ठिर ने सुयोग्य समय आप चुपचाप क्यों बैठे ? उत्तर दिये, एवं इस तरह भीम को अजगर से मुक्तता की (म. व. १७७-१७८; नहुष देखिये )। तत्पश्चात् नहुष की इसी समय व्यास ने युधिष्ठिर से कहा, 'बांधवों के | अजगरयोनि से मुक्तता हो कर वह भी स्वर्ग चला गया । लिए यही अच्छा है कि, वे सदैव एकत्र न रहे । ऐसे | भीम के शारीरिक बल से युधिष्ठिर का आत्मिक सामर्थ्य रहने से प्रेम बढता नहीं, बल्कि घटता है। इसी कारण, | अधिक श्रेष्ठ था, यह बताने के लिए यह कथा दी गयी है। व्यास ने इसे एक ही स्थान पर न रहने की सूचना दी| घोषयात्रा-पाण्डव जिस समय द्वैतवन में निवास (म. व. ३७.२७-३२)। व्यास के इस वचन को प्रमाण | करते थे. उस समय उन्हे अपना वैभव दिखाने के लिये मान कर इसने अर्जुन को 'पाशुपतास्त्र' प्राप्त करने के | दुर्योधन वहाँ ससैन्य उपस्थित हआ। चित्रसेन गंधर्व लिए भेज दिया एवं द्रौपदी का भार भीम पर सौंप कर | ने उसे पकड़ लिया। तत्पश्चात दुर्योधन के सेवक युधिष्ठिर यह निश्चित हुआ। के पास मदद की याचना करने के लिए आ पहुँचे । इसके पश्चात् यह कुछ काल तक काम्यकवन में रहा, | उस समय भीम ने कहा 'दुर्योधन हमारा शत्रु है । उसकी जहाँ इसके दुःख का परिहार करने के लिए, बृदहश्व ऋषि | जितनी बेइज्जती हो, उतना हमारे लिए अच्छा ही है। ने नल राजा का चरित्र इसे कथन किया (म. व. ७८. | किन्तु युधिष्ठिर कहा, 'दुर्योधन हमारा कितना ही बड़ा १७)। इसी समय उसने इसे 'अक्षहृदय' एवं 'अक्षविद्या' | शत्रु हो, उसकी किसी दूसरे के द्वारा बेइज्जती होना
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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