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प्रजापति
प्राचीन चरित्रकोश
प्रजापति
है कि, उस समय किसी भी वस्तु की महत्ता वर्णित करने | उसमें अपने आप को समर्पित कर, देवों से अपनी प्रजा के लिए, 'प्रजापति' उपधि का प्रयोग होता था । पंचविंश | पुनः प्राप्त की (पं. ब्रा. ७.२.१ )। ब्राह्मण में, सभी का महत्व वर्णन करने के लिए, उन्हें | मनुष्य होते हुए भी देवत्व प्राप्त ऋषिओं को, एकवार प्रजापति उपाधि दी गयी है (पं. ब्रा ७.५.६)। प्रजापति ने 'तृतीयसवन' में बुलाकर, उनके साथ सृष्टि-आरंभ-वैदिक वाङमय में प्रजापति के जीवन |
सोमपान किया । इसको उचित न समझकर, अग्नि आदि सम्बन्धी कई कथायें दी गयी हैं जिनमें से निम्नलिखित
देवताओं ने इसकी कटु आलोचना की (ऐ. ब्रा. ३.३०)। प्रमुख हैं:--
सूर्यपूजाअर्ध्य--राक्षसों की उग्र तपस्या से सन्तुष्ट प्रजापति की आस्थि संधियों ढीली हो गयीं थीं, तब देवों होकर, प्रजापति राक्षसों के पास आया, इसने उनसे ने यज्ञ कर उन्हें ठीक किया (श. बा. १. ६.३.३५) वर माँगने को कहा। राक्षसों ने कहा 'हम सूर्य से लड़ना
प्रजापति सर्वप्रथम अकेला था । कालान्तर में, प्रजा चाहते हैं। प्रजापति ने उनकी माँग स्वीकार कर, उन्हें उत्पन्न करने की इच्छा से, उसने अपने शरीर के माँस को | वर प्रदान किया। तब से प्रतिदिन सूर्योदय से सूर्यास्त तक निकालाकर उसकी आहुति अग्नि में दी। अग्नि से इसके | राक्षस सूर्य से लड़ते रहते हैं। इस युद्ध में सूर्य की पुत्र के रूप में बिना सींगों का एक बकरा उत्पन्न हुआ सहायता करने के लिये, ब्रह्मनिष्ठ लोग पूर्व की ओर (तै. सं. २. १.१)।
भगवान् सूर्य को अर्घ्यदान देते हैं । अयं के जल का एक प्रजापति के द्वारा उत्पन्न की गयी प्रजा इसके अधिकार |
एक बूंद वज्र बनकर राक्षसों का प्रहार करता हैं। इससे के अन्दर न रहकर वरुण के अधिकार में चली गयी । जब
पराजित होकर राक्षसगण अपने 'अरुणद्वीप' नामक इसने उन्हें वापस बुलाना चाहा, तब वरुण ने उन्हें
देश को भाग जाते है (तै. आ. २.२)। अपने कब्जे से छोड़ने के लिए इन्कार कर दिया। फिर इंद्र की उत्पत्ति-प्रजापति ने देव तथा असुर निर्माण । प्रजापति ने एक सफेद खुरवाला कृष्णवर्णीय पशु वरुण को | किये, परन्तु राजा उत्पन्न नहीं किया। बाद में, देवों के भेंट स्वरूप प्रदान करने का आश्वासन दिया। इस पर प्रार्थना करने पर इसने इन्द्र उत्पन्न किया । त्रिष्टुप नामक ' प्रसन्न होकर, वरुण ने प्रजा के उपर का अपना अधिकार देवता ने १५ धाराओं का वज्र इन्द्र को प्रदान किया। उठा लिया, और प्रजापति प्रजा का स्वामी बन बैठा (तै. उस वज्र से इन्द्र ने असुरों को पराजित कर, देवों के लिए सं. २. १.२)।
स्वर्ग प्राप्त किया। __ पृथ्वी उत्पन्न होने के बाद, देवों की प्रजा उत्पन्न करने स्वर्ग को भोगभूमि समझकर सभी देवगण आये थे, की इच्छा हुई, और उन्होंने प्रजापति के कथनानुसार पर वहाँ पर खानेपीने की कोई वस्तु न पाकर उन्होंने तपश्चर्या कर, अग्नि के आश्रय से एक गाय उत्पन्न की। 'अयास्य' नामक आंगिरस गोत्र के ऋषि को, यज्ञ उस गाय के लिए सब देवों ने प्रयत्न कर अग्नि को संतुष्ट | अनुष्ठान की कार्यप्रणाली से अवगत कराकर उसे पृथ्वी किया। बाद में, उस गाय से प्रत्येक देव को तीन सौ पर भेजा। भूलोक पर जाकर 'अयास्य' ने यज्ञानप्रान तेंतीस देव प्राप्त हुए। इस प्रकार असंख्य प्रजा उत्पन्न | कर देवों को हविर्भाग देने की कल्पना प्रसारित की (ने. हुई (तै. सं. ७.१.५)।
ब्रा. २.२.७)। प्राचीन काल में, प्रजापति ने यज्ञ की ऋचाओं एवं छंदों इन्द्र तथा वृत्र में घोर युद्ध हुआ। युद्ध में वृत्र ने का परस्पर में वितरण किया। उस समय इसने अपना | तीव्र गति से अपनी श्वास को छोड़कर इन्द्र के पक्ष के अनुष्टुप छंद 'अच्छावाकीय' नामक ऋचा को प्रदान किया। सभी योद्धाओं को भयभीत कर भगा दिया, पर मरुतों अनुष्टम नाराज होकर प्रजापति को दोष देने लगा। फिर | ने इन्द्र का साथ न छोड़ा । मरुतों की सहायता से इन्द्र सोमयज्ञ कर प्रजापति ने उस यज्ञ में अनुष्टुप् छंद को | ने वृत्र का वध कर प्रजापति का मान प्राप्त करना चाहा। अग्रस्थान दिया। तब से उस छंद का उपयोग वैदिक | उसकी यह इच्छा तो पूरी न हो सकी, पर प्रजापति ने 'सवनों में सर्वप्रथम होने लगा।
उसके इस कार्य से प्रसन्न हो कर उसे 'महेन्द्र' पदवी दी । प्रजापति की प्रजा जब उसे त्याग कर जाने लगी, तब | (ऐ. ब्रा. ३.२०-२२)। प्रजापति के नेतृत्व में, देवों ने इसने अग्नि की सहायता से प्रजा को पुनः प्राप्त किया | इन्द्र का राज्याभिषेक किया, जिससे उसे सभी अभीष्ट (ऐ. ब्रा. ३.१२)। इसने 'अग्निष्टोम' नामक यज्ञ कर, ' वस्तुओं की प्राप्त हुयी। इन समस्त शक्तियों को पाकर
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