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देवयानी
प्राचीन चरित्रकोश
देवयानी
उससे प्रेम करने लगी। कच से विवाह करने का प्रस्ताव कर इसे बाहर निकाला। बाद में इससे बिदा हो कर, इसने उसके सामने प्रस्तुत किया। किंतु गुरुकन्या मान | वह अपने नगर वापस गया। कर कच ने इसका पाणिग्रहण नहीं किया । तब 'तुम्हारी | देवय नी को ढूंढने के लिये घूर्णिका नामक एक दासी विद्या तुम्हें फलद्रूप नहीं होगी, ऐसा शाप देवयानी ने | आयी। देवयानी ने उसके द्वारा, अपने पिता उशनस् उसे दिया । निरपराध होते हुए शा देने के कारण, क्रुद्ध | शुक्र को संदेशा भिजवाया, 'मैं वृषपर्वन् के नगर में नहीं हो कर, कच ने भी इसे शाप दिया, 'कोई भी ऋ.पपुत्र | आऊंगी'। घूर्णिका ने यह वृत्त, वृषपर्वन् के राजदरबार तुम्हारा वरण न करेगा। इसीसे इसे क्षत्रियप नी में बैठे शुक्राचार्य को बताया। उसे सुनते ही शुक्राचार्य बनना पड़ा।
तुरंत वन में आया, एवं अपनी दुःखी कन्या से मिला । कच के वापस जाने के बाद, एक बार वृषपर्वन् राजा | इसकी हालत देखते ही वह बोला, 'अवश्य ही पूर्व जन्म की कन्या शामठा, तथा यह अपनी सखियों के साथ में तुमने कुछ पाप किया होगा, जिसके कारण तुम्हें यह क्रीड़ा करने गइ । उस वन में अपने अपने वस्त्र किनारे सज़ा मिल रही है। पश्चात् देवयानी ने उसे शर्मिष्ठा के रख कर, ये बालायें जलक्रीड़ा करने लगी। नटखट इन्द्र शब्द बताये। उन्हें सुन कर शुक्राचार्य को अत्यंत क्रोध ने इनका मजाक उडाने के लिये, मत्र के वस्त्र मिल जुल आया। परंतु देवयानी ने पिता की सांत्वना की, एवं कर रख दिये । जलक्रीड़ा समाप्त होने पर सब सख्यिाँ | कहा, 'वृषपर्वन् की कन्या ने, तुमसे भी मेरा ज्यादा एकदम बाहर आई, तथा गड़बड़ी म जो भी वस्त्र जिसे अपमान किया है। उससे मैं बदला ले कर ही रहँगी। मिला, उसे पहनने लगी। भागवत में कहा है कि, नंदी बाद में कोपाविष्ट शुक्राचार्य, दैत्य राजा वृषपर्वन् का त्याग पर बैठ कर नदी किनारे से शंकर जा रहे थे। इस कारण | करने के लिये प्रवृत्त हुआ। वृषपर्वन् ने नम्रता से उसकी
लज्जित हो कर, ये लड़कियाँ पानी से बाहर आयी, एवं क्षमा माँगी । तब शुक्र ने कहा, 'तुम देवयानी को समझाओ, .वस्त्र परिधान करने लगी (भा. ९. १८)।
क्यों कि, उसका दुख मैं सहन नहीं कर सकता। तब इरा गड़बड़ी में, गलती से शामष्ठा ने देवयानी की साड़ी वृषपर्वन् ने कहा, 'आप हमारे सर्वस्व के स्वामी हैं। पहन ली। अपनी साडी शर्मिष्टा द्वारा पहनी देख कर, | इसलिये आप देवयानी को हमें माफ करने को कह दें। दवयांनी अत्यंत क्रोधित हुई। देवयानी ने कहा, "मेरी यह सारा वृत्त शुक्राचार्य ने देवयानी को बताया। शिःया होहुरमतुमने मेरा वस्त्र परिधान क्यों किया? जवाब में इसने कहा कि, 'यह सब राजा मुझे स्वयं आ तुम्हारा कभी भी कल्याण न होगा। तब शमिठा ने कहा, कर कहे। तब वृषपर्वन ने इससे कहा, 'हे देवयानी । 'मैं राज्यन्या हूं तथा तुम मेरे पिता के पुरोहित शुक्राचाय तुम जो चाहो, मैं करने के लिये तैय्यार हूँ। किंतु तुम की कन्या हो । इतनी नीच हो कर भी, मेरे जैसी राज- नाराज न हो'। तब देवयानी ने कहा, 'तुम्हारी कन्या कन्या से नेढी बत करने में तुम्हे शर्म आनी चाहिये ।। शर्मिष्ठा अपनी सहस्र दासियों सह मेरी दासी बने, तथा इस प्रकार वे दोनों एक दूसरे को गालियाँ दे कर जिससे मैं विवाह करूंगी, उसके घर भी वह दासी बन वस्त्रों का बींचतान करने लगीं । अन्त में शर्मिष्ठा ने वहीं | कर, मेरे साथ आये। एक कुएं में इसे ढकेल दिया। इसकी मृत्यु हो गयी, देवयानी की यह शर्त मान्य कर, वृषपर्वन् ने ऐसे समझ कर वह नगर में वापस गई।
शर्मिष्ठा को बुलावा भेजा । बुल नेवाली दासी ने - जिस बुर में देवयानी गिरी थी, उसके पास मृग देवयानी की शर्त के बारे में, सारा कुछ शर्मिष्ठा को के पीछे दौड़ता हुआ, नहपात्र ययाति पहुंच पहले ही बताया था । देवयानी के पास जा कर, गया। उदकप्राशनार्थ उस कुर में उसने झाँक कर शर्मिष्ठा ने उसकी शर्त मान्य कर ली। तब देवयानी देखा, तो भीतर एक अत्यंत तेजस्वी कन्या उसे न उपहास से उसे कहा, 'क्यों ? मैं तो याचक दिग्ख पड़ी। यह नग्न होने के कारण, उसने अपना की कन्या हूँ ! राजा की कन्या पुरोहितकन्या की दासी उत्तरीय इसे पहनने के लिये दिया (भा. ९. १८)। भला कैसे हो सकती है!' शर्मिष्ठा ने कहा, 'मेरे बाद में यंयाति ने इसे सारा वृत्तांत पूछा। तब इसने दासी होने से, अगर मेरे हीनदीन ज्ञातिबांधव मुखी हो बताया, 'मैं शुक्राचार्य की कन्या हूँ। यह ब्राहाणकन्या सकते है, तो दास्यत्व स्वीकार करने के लिये मैं तैयार है, यह जान कर ययाति ने इसका दाहिना हाथ पकड़ हूं'। तब देवयानी संतुष्ट हुई। बाद में इसका विवाह
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