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गौतम बुद्ध
प्राचीन चरित्रकोश
गौतम बुद्ध
एवं शुभ नामक तीन राजप्रसाद थे, जहाँ यह बर्ष के तीन नामक स्त्री पीने पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ हुए इसे वृक्षऋतु व्यतीत करता था (अंगुत्तर. १.१४५)। सोलह वर्ष | देवता समझ कर लगातार पाँच दिनों तक सुवर्ण पात्र में की आयु में सुप्रबुद्ध की कन्या यशोधरा (भद्रकच्छा अथवा | पायस खिलायी। विंबा) से इसका विवाह संपन्न हुआ, जो आगे चल कर परमज्ञानप्राप्ति--वैशाख पौर्णिमा के दिन नैरंजरा राहुलमाता नाम से सुविख्यात हुई। कालोपरांत अपनी | नदी में स्थित सुप्रतीर्थ में इसने स्नान किया, एवं वही स्थित इस पत्नी से इसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसे अपने शालवन में सारा दिन व्यतीत किया । पश्चात् श्रोत्रिय आध्यात्मिक जीवन का बंधन मान कर उसका नाम 'राहुल' के द्वारा दिये गये घांस का आसन बना कर, यह बोधि (बंधन) रख दिया।
वृक्ष के पूर्व भाग में बैठ गया। उसी समय, गिरिमेखल विरक्ति-इसकी मनोवृत्ति शुरु से ही चिंतनशील, एवं | नामक हाथी पर आरूढ़ हो कर, मार (मनुष्य की पापी वैराग्य की ओर झुकी हुयी थी । आगे चल कर एक बूढ़ा, वासनाएँ) ने इस पर आक्रमण किया, एवं अपना एक रोगी, एवं एक लाश के रूप में इसे आधिभौतिक चक्रायुध नामक अस्त्र इसपर फेंका । इसने मार को जीत जीवन की टियाँ प्रकर्ष से ज्ञात हुई, एवं लगा कि, लिया, एवं इसके चित्तशान्ति के सारे विक्षेप नष्ट हुए। क्षुद्र मानवीय जंतु जिसे सुख मान कर उसमें ही लिप्त | पश्चात् उसी रात्रि में इसे अपने पूर्वजन्मों का, एवं रहता है, वह केवल क्षणिक ही नहीं, बल्कि समस्त विश्व के उत्पत्ति कारणपरंपरा (प्रतीत्य समुत्पाद) का मानवीय दुःखों का मूल है। उसी समय इसने एक शांत | ज्ञान हुआ, एवं दिव्यचक्षु की प्राप्ति हुई। बाद में एवं प्रसन्नमुख संन्यासिन को देखा, जिसे देख कर इसका | उसे वह बोध (ज्ञान) हुआ, जिसकी खोज़ में यह संन्यास जीवन के प्रति झुकाव और भी बढ़ गया। आज तक भटकता फिरता था। उसी दिन इसे ज्ञात
महाभिनिष्कमण--पश्चात् आषाढ माह की पौर्णिमा की हुआ, कि संयमसहित सयाचरण एवं जीवन ही रात्रि में इसने समस्त राजवैभव एवं पत्नीपुत्रों को धर्म का सार है, जो इस संसार के सभी यज्ञ, शास्त्रार्थ त्याग कर, यह अपने कंथक नामक अश्वपर आरुढ हो कर | एवं तपस्या से बढ़ कर हैं। कपिलावस्तु छोड़ कर चला गया। पश्चात् शाक्य, कोल्य, पश्चात् यह तीन सप्ताहों तक बोधिवृक्ष के पास एवं मल राज्यों को एवं अनुमा नदी को पार कर, यह ही चिंतन करता रहा। इसी समय इसके मन में शंका 'राजगृह नगर पहुँच गया । इसे गौतम का महाभिनिष्क्रमण उत्पन्न हुई कि, अपने को ज्ञात हुआ बोध यह अपने कहते है।
पास ही रक्खें, अथवा उसे सारे संसार को प्रदान करें। .. तपःसाधना--राजगृह में बिंबिसागर राजा से भेंट उसी समय ब्रह्मा ने प्रत्यक्ष दर्शन दे कर इसे आदेश करने के उपरान्त यह तपस्या में लग गया। आधिभौतिक | दिया कि, 'उत्थान' (सतत उद्योगत रहना) एवं गृहस्थधर्म से यह पहले से ही ऊब चुका था। अब यह 'अप्रमाद' (कभी ढील न खाना) यही इसका जीवन संन्यास देहदण्ड का आचारण कर तपस्या करने लगा। कर्तव्य है। ब्रह्मा के इस आदेश के अनुसार, इस ने स्वयं सर्वप्रथम यह आडार, कालम एवं उद्रक रामपुत्र आदि | को प्राप्त हुए बोध का संसार में प्रसार करना प्रारंभ आनार्यों का शिष्य बना, किन्तु उनकी सूखी तत्त्वचर्चा से | किया। ऊब कर यह उरुवेला में स्थित सेनानीग्राम में गया, एवं | धर्मचक्रप्रवर्तन--अपने धर्मरूपी चक्र का प्रवर्तन वहाँ पंचवर्गीय ऋषियों के साथ इसने छः वर्षोंतक कठोर (सतत प्रचार करना) का कार्य इसने सर्व प्रथम सारनाथ तपस्या की। इस तपस्या के पश्चात् भी इसका मन | (वाराणसी) में प्रारंभ किया, जहा इसने पाँच अशान्त रहा, इस कारण यह हठयोगी तापसी का जीवन | तापमों के समुदाय के सामने अपना पहला धर्मप्रवचन छोड़ कर सामान्य जीवन बिताने लगा। इस समय इसे | दिया। इसने कहा, 'संन्यासियों को चाहिये कि, वे दो प्रतीत हुआ कि, मानवी शरीर को अत्यधिक त्रस्त | अन्तों (सीमाओं) का सेवन न करे। इनमें से एक करना उतना ही हानिकारक है, जितना उसे अत्यधिक | 'अन्त' काम एवं विषय सुख में फँसना है, जो अत्यंत हीन सुख देना है।
ग्राम्य एवं अनायें है। दूसरा 'अन्त' शरीर को व्यर्थ पश्चात् यह अकेला ही देहाती स्त्रियों से भिक्षा माँग कर | कष्ट देना है, जो अनार्य एवं निरर्थक है। इन दोनों अन्तों धीरे धीरे स्वाथ्य प्राप्त करने लगा । इसी काल में, सुजाता | का त्याग कर 'तथागत' ठीक समझनेवाले (बुद्ध) ने