________________
करभि
प्राचीन चरित्रकोश
कर्ण
करंभि (सो. क्रोष्ट.) भागवत तथा विष्णु के मता- | न हो। उसी प्रकार वनवास समाप्त होने तक उसे कोई न नुसार शकुनिपुत्र (करंभ देखिये)।
पहचाने, इस उद्देश्य से विरूप भी बना दिया। 'सुरुप कररोमन् वा करवीर--कश्यप तथा कद्रू का पुत्र । होने की इच्छा होते ही मेरे द्वारा दिये गये दो वस्त्र
कराल जनक-ब्राह्मण स्त्री की अभिलाषा के कारण | परिधान कर लेना, यों इसने नल को बताया (म. व. इसका नाश हुआ (कौ. अ. पृ. २२)। वसिष्ठ के साथ | ६३)। कर्कोट नामक भारतवर्ष के विभाग के कर्कोटक इसका क्षराक्षरलक्षण के संबंध में संवाद हुआ था (म. | लोगों को महाभारत में विधर्मी कहा गया है (म. क. ३. शां. २९१-२९६; ब्रह्म. २४०-२४४)। वंशावली में | ४५)। इसका नाम अप्राप्य है।
कर्ण--कुंती का सूर्य से उत्पन्न पुत्र (म. आ. १०४. करिक्रत वातरशन-मंत्रद्रष्टा (ऋ. १०.१३६.५)। ११)। करीराशिन्—विश्वामित्रकुल का गोत्रकार। ।
___ जन्मते ही कुंती ने इसे अश्व नदी में छोड़ दिया (म. करीश--विश्वामित्रकुल का गोत्रकार ऋषिगण । व. २९२. २२)। संदूक में यह बालक बहते बहते
करूष-वैवस्वत मनु के दस पुत्रों में से एक । इसकी चर्मण्वती नदी में आया । वहाँ से यमुना तथा भागीरथी संतति कारूषक नाम से प्रसिद्ध है। इसका आधिपत्य नदी में बहते समय, उसे धृतराष्ट्रसारथि अधिरथ ने उत्तर की ओर था (मनु देखिये)।
देखा । इसे ले कर उसने अपनी पत्नी राधा को दिया। २. यह दक्ष सावर्णि मन्वन्तराधिप था। इसने अपने यह बालक देखते ही उसकी आँखों में आनन्दाश्रु आ भाइयो के साथ कालिंदीतीर पर, वायुभक्षण कर के देवी
गये । जन्मतः कर्ण पर कवच तथा कुंडल होने के कारण की कडी तपश्चर्या की । इससे प्रसन्न हो कर देवी ने इसे यह अब तक जीवित था । देवदत्त पुत्र मान कर राधा ने वरदान दिया, कि तुम मन्वन्तराधिप बनोगे ( दे. भा.
इसका भरणपोषण किया । यह तेजस्वी था, इसलिये १०.१३)। . . .
राधा ने इसका नाम वसुषेण रखा (म. आ. ६४,६८; . करेणुमती--पंडुपुत्र नकुल की पत्नी । यह शिशुपाल १०४. १५. क. २१. १४)। की कन्या थी।
शिक्षा-इसका बाल्य काल अंगदेश में गया । कर्कद-मर्यादा पर्वत पर रहनेवाला एक भील । |
द्रोणाचार्य ने इसे शस्त्रास्त्रविद्या सिखाई (म. शां. इसे विष देने के लिये तत्पर पत्नी को इसने गोकर्ण
२.५)। यह शस्त्रास्त्रविद्योद्यत था (म. आ. ६८; क्षेत्र में मार डाला। इससे वह मुक्त हो गई (पन.
१०४.१६)। परीक्षा के मैदान में प्रविष्ट होने पर उ. २२२)।
इसने द्रोण तथा कृप को नमस्कार किया, जिस में आदर कर्कटी-हिमालय की उत्तर दिशा में रहनेवाली एक के भाव नहीं थे (म. आ. १२६. ६)। इसने सक्षसी । इसे विष चिका तथा अन्यायबाधिका नाम है। द्रोण से ब्रह्मास्त्र सिखाने के लिये केवल प्रार्थना की थी इसने लोगों को मारने का वर प्राप्त किया। परंतु बाद में (म. शां. २. १०)। कृष्ण ने कहा है कि, यह सब वेद इसने वह काम छोड़ दिया। यह हिमालय में रहती है। तथा शास्त्र जानता था (म. उ. १३८.६-७) । कर्ण अर्जुन वहाँ इसका नाम कंदरा देवी है। कंकडे के आकार के | पर भी श्रेष्ठत्व प्राप्त कर सकता था, इसका दर्योधन ने राक्षस की कन्या होने के कारण, इसे कर्कटी कहते है अनुभव किया था । जिस समय कौरवपांडवों में विरोध (यो. वा. ३.६८-८४)।
प्रारंभ हुआ था, तबसे इसे उत्तेजना दे कर, उसने अपने कर्कधु-इसका संरक्षण अश्वीदेवों ने किया (ऋ. १. | पक्ष में कर लिया था। ११२.६)।
यद्यपि कर्ण ने द्रोण से धनुर्विद्या प्राप्त कर ली थी, कर्कोटक कद्रूपुत्र एक नाग । यह वरुण की सभा | तथापि उसे ब्रह्मास्त्रप्राप्ति नहीं हुई थी । इस एक ही में रहता है (म. स. ९.९)। यह नागों के भोगवती | कारण से अर्जुन इससे श्रेष्ठ हो गया था। तब इसने द्रोण नामक राजधानी में रहता है (म. उ. १०१.९)। नारद से कहा, 'निष्पत्ति प्रकार तथा उपसंहार के साथ मुझे के शाप से जब यह दावाग्नि में फँस गया, तब नलराजा । ब्रह्मास्त्र सिखाओ ।' परंतु कुछ कारणवश द्रोण ने यह ने इसे बाहर निकाला था। इस उपकार के कारण इसने अमान्य कर दिया । परंतु अर्जुन से श्रेष्ठत्व प्राप्त करने नल को दंश कर के ऐसा बनाया कि, उसे कलि से पीड़ा की इसकी महत्त्वाकांक्षा होने के कारण, यह महेन्द्र पर्वत
११७