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________________ प्राचीन चरित्रकोश मरीचि ६. एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में से एक था । मरीचिगर्भ -- दक्षसावर्णि मन्वन्तर का एक देव । मरीचिप--एक ऋषियों का संघ ( म. अनु. १४. ५७ ) । ' मरीचिप' का शाब्दिक अर्थ ' 'सूर्यकिरणों पर जीवित रहनेवाला ' होता है । वालखिल्य ऋषियों को भी 'मरीचिप ' कहा गया है। मरु - (सू. इ. ) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो शीघ्र राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम प्रभुश्रुत था । ३. एक दै.य, जो नरकासुर का प्रमुख सहाय्यक था । श्रीकृष्ण ने इसका वध किया ( नरकासुर देखिये ) | ४. मुर नामक दैत्य के लिए उपलब्ध पाठभेद ( मुर देखिये) । इस राजा ने योगसिद्धि के द्वारा चिरजीवन की प्राप्ति की थी। भागवत के अनुसार, कलियुग में समस्त क्षत्रिय वंशों का विनाश होनेवाला है, जिस समय पौरव एवं देवापि के साथ यह क्षत्रिय वंश का पुनरुज्जीवन करनेवाले है (भा. ९.१२.६; १२.२.३७) । उस समय, उन्नीसवें युगपर्याय के प्रारंभ में मरु राजा को सुवर्चस् नामक पुत्र उत्पन्न होनेवाला है (ब्रह्मांड. ३.७४. २७१; सुवर्चस् देखिये) । | ऋग्वेद में अन्यत्र कहा गया है कि, अग्नि ने इन्हें में अवस्थित किया (ऋ. १.१३४) । इस प्रकार ये आकाश उत्पन्न किया (ऋ. ७.३ ); वायु ने इन्हे आकाश के गर्भ में उत्पन्न हुए, जिस कारण इन्हें 'आकाशपुत्र' (ऋ. १०. ७७), 'आकाश के वीर' (ऋ. १.६४.१२२ ) कहा गया २. (सु. निमि.) विदेह देश का एक निमिवंशीय राजा, जो हर्यश्व जनक नामक राजा का पुत्र था । इसके पुत्र का नाम प्रतींधक था (भा. ९.१३.१५ ) । मरुक--महाभारत में निर्दिष्ट एक लोकसमूह ( म. स. ४८.४७५* पंक्ति २)। मरुत् -- ऋग्वेद में निर्दिष्ट एक सुविख्यात देवतागण, जो पं. सातवलेकरजी के अनुसार, वैदिक सैनिक संघटन एवं सैनिक संचलन का प्रतीक था। ऋग्वेद के तैतीस सूक्त इन्हे समर्पित किये गये हैं । अन्य सात सूक्त इन्द्र के साथ, एवं एक एक सूक्त अग्नि तथा पूषन् के साथ इन्हें समर्पित किया गया है। मरुत् जन्म - ऋग्वेद में इनके जन्म की कथा दी गयी है, जहाँ रुद्र का पुत्र कहा गया है ( . ५.५७) । वेदार्थदीपिका में इन्हें रुद्रपुत्र नाम क्यों प्राप्त हुआ इसकी दो कथायें प्राप्त हैं । इनके जन्म होने पर इनक सैकडो खण्ड हो गये, जिन्हे रुद्र ने जोड़ कर जीवित किया। इसी प्रकार यह भी कहा गया है कि, रुद्र ने वृषभरूप धारण कर पृथ्वी से इन्हें उत्पन्न किया ( वेदार्थदीपिका. २.३३ ) । ये लोग देवों का एक समूह अथवा 'गण' अथवा ' शर्धस् ' हैं, जिनका निर्देश बहुवचन में ही प्राप्त है (ऋ. १. ३७)। इनकी संख्या साठ की तीन गुनी अर्थात् एक सौ अस्सी, अथवा सात की तीन गुनी अर्थात् एक्कीस है (ऋ. ८.८५; ऋ. १.१३३; अ. वे. १३.१ ) 1 ऋग्वेद में इन्हें कई स्थानों पर सात व्यक्तियों का समूह कहा गया है (ऋ ५.६२.१७)। इनकी माता का नाम पृश्नि था ( ऋ. २.३४, ५.५२ ) । रुद्र का पुत्र होने के कारण, इन्हें 'रुद्रियगण ' एवं 'पृश्नि का पुत्र होने के कारण इन्हे 'पृश्निमातरः ' कहा गया हैं (ऋ. १.३८.२३ ) । सम्भव है, पृश्नि का प्रयोग गाय के रूप मे हुआ हो, क्योंकि, अन्यत्र इन्हें 'गोमातरः ' कहा गया हैं (ऋ. १.८५ ) । । अन्य स्थान पर इन्हें समुद्र का पुत्र भी कहा गया है, जिस कारण इन्हें 'सिन्धुमातरः' उपाधि दी गयी है (ऋ. १०.७८ ) । अन्यत्र इन्हे 'स्वोद्भूत' कहा गया है (ऋ. १.१६८ ) । उनमें कोई बड़ा है, तथा न कोई छोटा है ( . ५.५९; इनमें से सभी मरुत्गण एक दूसरे के भ्राता हैं, न १. १६५ ) । इन सबका जन्मस्थान एवं आवास एक है (ऋ. ५.५३ ) । इन्हे पृथ्वी पर वायु में एवं आकाश में रहनेवाले कहा गया है (ऋ. ५.६०)। पत्नी - इनका सर्वाधिक सम्बन्ध देवी 'रोदसी ' से है, जो सम्भवतः इनकी पत्नी थी । देवी रोदसी को इनके साथ सदैव रथ पर खड़ी होनेवाली कहा गया है (ऋ. ५.५६) । इनका स्वरूप के समान प्रदीप्त, अग्नि के समान प्रज्वलित एवं अरुण आभायुक्त है ( . ६.६६ ) इन्हे अक्सर विद्युत् से सम्बन्धित किया गया है। ऋग्वेद में प्राप्त विद्युत् के सभी निर्देश इनके साथ प्राप्त हैं। वस्त्र एवं अलंकार - मरुत्गण मालाओं एवं अलंकारों से सुसज्जित कहे गये हैं (ऋ. ५.५३)। ये स्वर्णिम प्रावारवस्त्र धारण करते हैं (ऋ. ५.५५) । इनके शरीर स्वर्ण के अलंकारों से सजे हैं, जिनमें बाजूबन्द तथा 'खादि ' प्रमुख हैं (ऋ. ५.६० ) । इनके कन्धों पर तोमर, पैरों में ‘खादि', वक्ष पर स्वर्णिम अलंकार, हाथों ६२२
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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