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दुर्योधन
प्राचीन चरित्रकोश
दुर्योधन
दिया । उस पर युधिष्ठिर ने आनंद प्रदर्शित कर कहा, उपजीविका करना क्षत्रियों के लिये निंद्य है ऐसा यदि 'तेरह वर्ष पूर्ण होने के पहले हम नहीं आ सकते' तुम सोंचते हो, तो क्षत्रियधर्म से तुम कृष्ण या द्रुपद के (म. व. २४१ -२४३)।
दरबार में रह सकते हो । कृष्ण तुम्हारा मित्र है । तथा द्रौपदी सत्वपरीक्षा-पांडवों का नाश करने की ही | द्रुपद तुम्हारा श्वशुर है । उसके पास रहने पर वे तुम्हें ना इच्छा दुर्योधन के मन में हमेशा रहती थी। एक नहीं करेंगे। इसलिये दो में से एक मार्ग का स्वीकार कर बार अपने 'अयुत' नामक शिष्यपरिवार के साथ राज्यविभाग न माँग कर, चुपचाप रहो,' (म. उ. २७)। दुर्वास ऋषि इसके पास आया। इसने दीर्घकाल तक संजय का यह भाषण सुन कर युधिष्ठिर को अत्यंत आश्चर्य दुर्वास की कठिन सेवा की। संतुष्ट हो कर दर्वास ने इसे हुआ। उसने कृष्ण को धृतराष्ट्र के पास भेजा (म. वर माँगने के लिये कहा। तब कर्ण, शकुनि आदि की
उ. ७०)। फिर भी उसका कुछ उपयोग न हो कर युद्ध सलाह से इसने वर माँगा, 'जिस प्रकार आप यहाँ के सिवा पांडवों को कोई चारा नहीं रहा। पांडव तथा अतिथि बन कर आये हैं. उसी प्रकार शिष्यों सह आप | दुर्योधन सेनाएँ इकट्ठी करने लगे। मद्रदेश का राजा पांडवों के पास काम्यकवन में जायें तथा उनका भोजन होने | शल्य, पांडवों के पक्ष में जाना चाहता था । बडी युक्ति से के बाद, द्रौपदी से अन्न माँग कर उसे त्रस्त करें। दुर्योधन ने उसे अपने पक्ष में ले लिया (म.उ.८.५३७)। द्रौपदी अन्न न दे सके, तो उसे शाप दे' यह | | कृष्ण की सहायता प्राप्त करने के लिये, दुर्योधन चाल दर्वास को अच्छी नहीं लगी. परंतु निरुपाय हो । स्वयं द्वारका गया था । अर्जुन तथा यह कृष्ण के यहाँ कर उसने इसे मान्यता दी। पश्चात् पांडवों के पास
एक ही साथ पहुँचे । अर्जुन ने स्वयं कृष्ण तथा जा कर, दुर्वास ने अन्न की याचना की । द्रौपदी के द्वारा दुर्योधन ने समस्त यादव सेना, अपने लिये कृष्ण यह मांग पूरी होने के बाद, दुर्वास के शाप से पांडव बच |
से माँग ली (म. उ. ७.१९-२०)। बाद में दुर्योधन गये (दुर्वास देखिये)। .
| कृतवर्मा के पास गया । उसने एक अक्षौहिणी सेना इसे विराटनगरी में बारह वर्ष वनवास के बाद, विराट
दी (म. उ. ७.२९,१९.१७)। के घर अज्ञातवास करने के लिये पांडव गये । दुर्योधन
कृष्णदौत्य-दुर्योधन को युद्ध से परावृत्त करने के को कीचकवध का समाचार मिला (म. वि. २९.२७)।
लिये कृष्ण (म. उ. ९३), परशुराम (म. उ. ९४. इसको शंका आई, 'चाहे जो हो, पांडव विराट
३), कृपाचार्य (म. श.३), द्रोण (म. उ. १३७. 'के घर ही होंगे। इस समय यदि उन्हें हूँढा गया, तो
२२), भीष्म (म. भी. ११६.४६) तथा अश्वत्थामा उन्हें पुनः बारह वर्षों तक वनवास में रहना पड़ेगा।
(म. क. ६४.२०) ने प्रयत्न किये; परंतु उसका कुछ .. पांडवों को ढूंढने के हेतु, विराट का गोधन हरण करने
उपयोग नहीं हुआ। कण्व ने भी उसे काफी उपदेश का बहाना इसने सोचा, एवं उस काम के लिये इसने
किया। परंतु कुछ उपयोग न हो कर, इसने कण्व का केवल सुशर्मा को भेज दिया। परंतु वहाँ सुशर्मा का पराभव
उपहास किया। इस कारण कण्व ने इसे शाप दिया हुआ। बाद में भीष्मादिकों को साथ ले कर, इसने उत्तर
(म. उ. ९५)। दिशा से विराट नगरी पर आक्रमण किया। उस समय भी यह पराजित हुआ।
पांडवों की ओर से, दौत्य करने के लिये कृष्ण हस्तिनासंजयदौत्य-इस प्रकार जो भी उपाय इसने किये, पुर में आया। उस समय, दुर्योधन ने कृष्ण को भोजन सब निष्फल हो कर पांडव प्रकट हुएँ तथा उपप्लव्य नगर | के लिये बुलाया। किंतु कृष्ण ने उसे अस्वीकार कर दिया में रहने लगे। यथान्याय आधा राज्य हमें मिले, इस (म. उ. ८९.३२)। पश्चात् धृतराष्ट्र के दरबार में इसने हेतु से, उन्हों ने द्रुपद राजा के पुरोहित को धृतराष्ट्र के कृष्ण से कहा, सुई के अग्र पर रहेगी, इतनी भी भूमि हम पास भेजा । परंतु उसका कुछ उपयोग नहीं हुआ। उल्टे पांडवों को नहीं देंगे (म. उ. १२५.२७)। इतना कह कर धृतराष्ट्र ने ही संजय को युधिष्ठिर के पास भेजा । संजय ने भरी सभा से यह अपने बंधु तथा अनुयायियों सहित चला धृतराष्ट्र का संदेश पांडवों को बताया, 'तुम पांडव धर्मात्मा गया (म. उ. १२६.२४-२७)। कृष्णदौत्य के समय कृष्ण हो । इसलिये हिंसारूप युद्ध न करते हुए भिक्षा माँग को कैद करने का षड्यंत्र इसने रचा था, किंतु वह असफल कर कहीं भी स्वस्थ चित्त से वास करो। भिक्षा से | हो कर पुनः इसकी फजीहत हुई।