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शकुनि
प्राचीन चरित्रकोश
शकुन्तला
इसके पुत्र का नाम उलूक था।
शकुन्तला की यह शर्त दुष्यन्त के द्वारा मान्य किये शकुनिका-स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. | जाने पर, कण्व ऋषि के अनुपस्थिति में इसका दुष्यन्त से
विवाह हुआ। विवाह के पश्चात् , हस्तिनापुर पहुँचते ही शकुनिमित्र--विपश्चित पाराशर्य नामक ऋषि का |
इसे दूत के द्वारा बुलाने का आश्वासन दे कर दुष्यन्त नामान्तर (विपश्चित् शकुनिमित्र पाराशर्य देखिये)।
चला गया (म. आ. ६७.२०)।
भरतजन्म-आश्रम आने पर कण्व ऋषि को सारी शकुन्त--विश्वामित्र ऋषि के ब्रह्मवादी पुत्रों में से एक
घटना ज्ञात हुई, एवं उसने प्रसन्न हो कर इसे शुभाशीर्वाद (म. अनु. ४.५०)।
दिये । कालांतर में इसे एक परमतेजस्वी बालक उत्पन्न शकुन्तला-महर्षि कण्व की पोषित कन्या,जो दुष्यन्त
हुआ, जिसका नाम 'भरत' अथवा 'सर्वदमन' रखा राजा की धर्मपत्नी एवं भरत राजा की माता थी । यह एवं
गया। दुष्यन्त राजा कालिदास के 'अभिज्ञानशाकुन्तलम् ' के
काफी दिन बीत जाने पर भी, दुष्यंत की ओर से कारण अमर हो चुके हैं।
कोई बुलाया नहीं आया। इस कारण भरत के जातकर्मादि । वैदिक साहित्य में-शतपथ ब्राह्मण में इसे एक संस्कार हो जाने पर, कण्व ने इसे पातिव्रत्यधर्म का उपदेश अप्सरा कहा गया है, एवं इसके द्वारा 'नाडपित् ' के तट
दिया, एवं पतिगृह के लिए विदा किया। पर भरत को जन्म दिये जाने को निर्देश प्राप्त है (श.
| दुष्यंत की राजसभा में--दुष्यंत के राजसभा में पहुंचते ब्रा. १३.५.४.१३)। इसी कारण इसे 'नाडपिती' अथवा
ही, इसने उसे अपनी सारी शर्ते उसे याद दिलायीं, एवं 'नाडपित' दी जाती थी।
भरत को यौवराज्याभिषेक करने के लिए कहा। किन्तु. महाभारत में इस ग्रंथ में इसे विश्वामित्र एवं मेनका दुष्यंत ने इसका यह प्रस्ताव अमान्य किया, एवं अत्यंत । अप्सरा की कन्या कहा गया है। विश्वामित्र के तपःकाल रोषपूर्ण शब्दों में इसकी आलोचना की। में. उसका तपोभंग करने के लिए इंद्र के द्वारा मेनका भेजी दुष्यंत की यह कटोर वाणी सुन कर इसे बड़ी लब्जी । गयी थी। उसी समय हिमालय पर्वत में मालिनी नदी के | प्रतीत हुई, एवं इसने धर्म की श्रेष्ठता, एवं सूर्यादि किनारे इसका जन्म हुआ था। इसका जन्म होते ही देवताओं को साक्षी बनाकर, अपने प्रति न्याय करने में मेनका इसे पृथ्वी पर छोड़ कर चली गयी। तत्पश्चात् | लिए बार बार अनुरोध किया। इसी समय इसने पत्नी. इसका लालनपालन शकुन्त पक्षियों ने किया, जिस एवं पुत्र के बारे में पति के कर्तव्य दुहाराये, एवं इन कर्तव्यों कारण, इसे 'शकुन्तला' नाम प्राप्त हुआ (म. आ. ६६. | का पालन करने के लिये उसकी बार बार प्रार्थना की। फिर ११-१४)।
| भी दुष्यंत ने इसकी एक न सुनी । तब इसने उसे शाप दुष्यन्त से विवाह-तत्पश्चात् कण्व ऋषि ने इसे अपनी दिया, 'अगर तुन भरत को युवराज नहीं बनाओगे, तो कन्या मान कर, अपने आश्रम में इसे पालपोस कर बड़ा भरत तुम्हारे राज्य पर आक्रमण कर के स्वयं राज्याकिया। एक बार मृगया खेलता हुआ हस्तिनापुर का | धिकारी बनेगा। राजा दध्यन्त कण्व ऋषि के दर्शनार्थ आश्रम में आया। इतने में आकाशवाणी के द्वारा दुष्यंत को ज्ञात हा उस समय कण्व ऋषि आश्रम में नही थे, जिस कारण | कि, शकुंतला उसकी धर्मपत्नी है, एवं भरत उसका पुत्र इसकी एवं दुष्यन्त की भेट हुई, एवं कण्व ऋषि के द्वारा है। इस पर दुष्यंत ने इन दोनों को स्वीकार किया, एवं ज्ञात हुई अपनी जन्मकथा इसने उसे कह सुनायी। इसे अपनी पटरानी एवं भरत को अपना युवराज बनाया
दुष्यन्त के द्वारा प्रेमदान माँगने पर इसने बताया कि, (वायु. ९०.१३५, म. आ. ६९.४४)। पश्चात् अपने पिता की संनति के बिना यह विवाह करना नहीं दुष्यंत ने इसे समझाया कि, लोकापवाद के भय से शुरु चाहती। उस समय दुष्यन्त ने इसे विवाह के में उसने इसको अस्वीकार किया था (म. आ. ६२, आठ भेद बताये, एवं कहा कि, इन विवाहों में से गांधर्व- | भा .९.२०)। विवाह पिता के संमति के बिना ही हो सकता है। उस अभिज्ञानशाकुंतलम् कालिदास के द्वारा विरचित समय यह इस शर्त पर विवाह के लिए तैयार हुई कि, संस्कृत नाटक 'अभिज्ञानशाकुंतलम्' में, दुर्वास ऋषि के इसका पुत्र हास्तिनापुर का सम्राट् बने ।
द्वारा इसे दिया शाप, शक्रावतारतीर्थ में 'अभिज्ञान की
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