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प्राचीन चरित्रकोश
धृतराष्ट्र
धृतराष्ट्र का भाई पाण्डु शापग्रस्त होने के कारण, वानप्रस्थाश्रम में चला गया, एवं अंधा हो कर भी धृतराष्ट्र कुरु देश का राजा बना पश्चात् पाण्डु एवं उसकी पत्नी मादी एकसाथ मर गये एवं पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर को यौवराज्याभिषेक किया गया (म. आ. परि. १. ८०.२) । अपने पश्चात् युधिष्ठिर ही हस्तिनापुर का राजा बनेगा, एवं अपने पुत्र राज्य से वंचित होगे, इस चिंता से धृतराष्ट्र अस्वस्थ हो गया। इतने में कणीक नामक इसके अमात्य ने पांडवविनाश की राह बतानेवालया कूटनीति' का उपदेश इसे किया ( म. आ. परि. १. ८९.१.१९०१ कणिक देखिये) । उस उपदेश के अनुसार पांडवों के प्रति प्रेमभावना का दिखावा कर, उनके विनाश का षड्यंत्र रचने का काम इसने एवं इसके दुर्योधनादि पुत्रों ने शुरू किया।
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पांडवों का नाश करने के लिये, धृतराष्ट्र ने उन्हें वारणावत नगरी में भेज दिया। उस नगरी में तयार किये 'लाक्षागृह' में, पांडवों को जला कर मार डालने का इसके पुत्र दुर्योधन का पड्यंत्र था उसीके अनुसार, पांडवों के मृत्यु कि खबर भी इसे मिल गयी (म. आ. १३७०४), पांडवों के लिये इसने मिथ्या विलाप किया (म. आ. १३७.१० ), एवं उनको 'जगी भी प्रदान की (म. आ. १३७.११ ) ।
पश्चात् पांडव जीवित है, यह देख कर भीष्म, द्रोण एवं विदूर के आग्रह के खातिर, पांडवों को आधा राज्य देना, धृतराष्ट्र ने बड़े ही कष्ट से मान्य किया ( म. आ. १९९.२५ ) । युधिडिर को इसने आधे राज्य का अभिषेक किया, एवं अपने भाइयों सहित खाण्डवप्रस्थ में रहने के लिये उसे कह दिया (म. आ. १९९.२६ ) । युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भी यह उपस्थित था ( म. स. ३१.५) ।
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पांडवों को आधा राज्य मिला, यह दुर्योधन को अच्छा नहीं लगा। यूत खेल कर वह पांडयों से छीन लेने का विचार उसने किया । धृतराष्ट्र ने भी दुर्योधन के इस विचार को मूकसंमति दी । इसने विदूर के द्वारा, पांडवों कोयत के लिये आमंत्रण दिया ( म. स. ५१.२०-२१)
क्रीडा में दुर्योधन ने पांडवों को जीत लिया, यह सुन कर इसे आनंद हुआ। द्रौपदीवस्त्रहरण के प्रसंग में भी, इसने दुर्योधनादि को परावृत्त नहीं किया (म. आ. ६१. ५१)। किंतु पश्चात् द्रौपदी ने विनंति करने पर, दास बने हुए पांडवों को धृतराष्ट्र ने मुक्त कर दिया ( म. स. ६३. २८-३२) ।
धृतराष्ट्र
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पांडवों के बनवासकाल में भी धृतराष्ट्र पांडवों के पराक्रम की वार्ताएँ सुन कर कभी संतप्त होता था (म. व. ४६ ), या कभी भयभीत होता था (म.ब. ४८.१-१०) पांडयों को फजित करने के हेतु से, इसने दुर्योधन के घोषयात्रा के प्रस्ताव को संमति दी (म.व. २३९-२२) घोषयात्रा में पांडयों ने किये पराक्रम के कारण, धृतराष्ट्र चिन्ताग्रस्त हो गया, एवं सारी रात जागता बैठा। पश्चात् इसने बिदुर को बुलवा कर, उससे कल्याण का मार्ग पूछ लिया (म. उ. २३.९-११) । विदुर ने इसे पांडवों का राज्य उन्हें वापस देने के लिये कहा। किंतु विदुर की यह सलाह धृतराष्ट्र एवं दुर्योधन दोनों को ही अप्रिय सी लगी।
पांडवों का वनवासकाल समाप्त हुआ । कृष्ण ने दुर्योधन से कहा, ' राज्य का योग्य हिस्सा पांडवों को दे दो ' । वह न देने पर, युद्ध करने की धमकी भी कृष्ण ने दुर्योधन को दी। उस समय धृतराष्ट्र ने संजय द्वारा युधिष्ठिर को उपदेश किया, ' अपनी तेरह वर्ष की तपश्चर्या का नाश कर के, तुम दुर्योधन के साथ युद्ध मत करो। दुर्योधन द्वारा कुछ न मिलने पर, भिक्षा माँग पर अपना निर्वाह करो । धृतराष्ट्र के इस उपदेश से, इसकी कौरवों के प्रति पक्षपाती वृत्ति, एवं इसके स्वार्थीपन के बारे में, श्रीकृष्ण की खातरजमा हो गयी। 'कृष्ण शिपाई की. सभा में श्रीकृष्ण को कैद करने का दुर्योधन का विचार था । किंतु धृतराष्ट्र ने उसे इस विचार से परावृत्त किया म. उ. १२९ ) । पश्चात् विश्वरूपदर्शन के लिये, इसने श्रीकृष्ण से आँखों की याचना की, एवं श्रीकृष्ण के कृपा से नेत्र पा कर, यह भगवत्स्वरूप दर्शन से कृतार्थ हुआ ( म. उ. १२९.४९५* ) ।
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बाद में अल्प ही कालावधि में भारतीय युद्ध छिड़ा । धृतराष्ट्र अंध होने के कारन, यह युद्ध में भाग न ले सका । युद्धप्रसंग प्रत्यक्ष देख भी न सका। युद्ध की घटनायें संजय के मुख से इसने सुनी। भीष्मद्रोणादि तथा इसी प्रकार अन्य कई वीर योद्धाओं के वध की वार्ता इसने सुनी। इसे प्रतीत होने लगा, 'कुरुकुल का क्षय होने वाला है, कृष्ण की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध होनेवाली है'।
धृतराष्ट्र दुर्योधन को कहने लगा, 'युद्ध से परावृत्त हो कर पांडवों का उचित अंश उन्हें दे दो' परंतु अब बहुत देर हो चुकी थी। दुर्योधन ने पूरी जिद ठान ली श्री
धृतराष्ट्र के उपदेश का कुछ लाभ नहीं हुआ। बाद में भारतीय युद्ध में इसके दुर्योधनादि सौ पुत्र तथा काफी
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