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भरत 'जड
प्राचीन चरित्रकोश
भरत 'दाशरथिः
तृतीय जन्म--मृगयोनि के उपरांत, इसने अंगिराकुल | गया। पालकी ले जानेवाले सभी कहार तेज चलते थे। के एक सद्गुणसम्पन्न ब्राह्मण की दूसरी पत्नी के गर्भ | किंतु यह राह में धीरे धीरे इस प्रकार कदम रखता, से जन्म लिया। इस जन्म में इसे 'जड़ भरत' नाम | कि कहीं कोई कीड़ामकोडा इसके पैर से कुचल कर मर प्राप्त हुआ। इस जन्म में भी इसे अपने पूर्वजन्मों का | न जाये । इस प्रकार, इसके धीरे चलने से राजा को ज्ञान था, तथा यह भी पता था कि मेरा यह अन्तिम | पालकी के अंदर झटके लगने लगे। उसने जब इसका जन्म है । अतः कही फिर जन्म न लेना पडे इस कारण, | कारन पूछा, तब उसे पता चला की, इसमें जडभरत का ही यह मोहमाया को छोडकर सब से अलग रहने लगा। | दोष है, अन्य का नहीं। इसका विचार था, 'यदि मैं किस से, किसी प्रकार का | रहूगण राजा से संवाद-राजा ने पालकी से झाँक सम्पर्क सम्बन्ध तथा प्रेमभाव रखूगा तो लोग भी । कर इसको देखते ही कहा, 'तुम दिखते तो हृष्टपुष्ट हो, मुझसे सम्बन्ध बढायेंगे, तथा इसप्रकार मायामोह के | किंतु पालकी ले जाने में इतने सुस्त क्यों' ? तब जड बन्धनों में उलझ कर मुझे जन्म मरण के बन्धनों में बार | भरत ने उत्तर दिया, 'मजबूती शरीर की नहीं, आत्मा की बार बन्धना पड़ेगा। इसीलिए यह इस प्रकार का होती है, तथा मेरी आत्मा अभी इतनी पुष्ट कहाँ ? आचरण दिखाने लगा कि, लोक इसे मुर्ख, मंदबुद्धि, अंधा | पश्चात् , इसे तत्त्वज्ञानी समझ कर, राजा पालकी से तथा बहरा समझे । इसप्रकार कर्म बन्धनों से अलग | उतर लिया, एवं उसने इससे आत्मबोध के संबंध में . रहकर, दत्तचित्त होकर यह ब्रह्मचिन्तन मैं सदैव निमग्न उपदेश ग्रहण कर मुक्ति प्राप्त की । इसने राजा को अपने , रहने लगा।
पूर्वजन्म की घटनाओं के साथ साथ उसे अन्य बातें भी इसको इस प्रकार उदासीन देखकर भी, इसके पिता
बतायी थी। इस प्रकार उसे ज्ञान प्रदान कर यह बन को ने गृहस्थाश्रम के उपनयनादि सभी संस्कारों को कर के
चला गया ( भा. ५.११-१४; नारद १.४८-४९; विष्णु. . इसे वेदशास्त्रों की शिक्षा आदि का भी ज्ञान कराया।
२.१३-१६)। किन्तु यह तो अपने राग में ही मस्त रहा। इसकी यह भागवत के अनुसार, इसका इतना महान् चरित्र था. उदासीनता तथा उपेक्षित भाव देखकर इसके पिता पुत्र
कि अनुकरण करना तो दूर रहा, किसी में इतना सामर्थ्य दुःख में ही मर गये । इसकी माता भी उसीके साथ | नहीं कि, वह इस प्रकार के त्यागमय जीवन को अपना ने सती हो गयी; किन्तु इसमें कोई अन्तर न आया। आगे की बात सोचे, तथा यदि वह सोचे भी, तो यह उसीके चलकर, इसके भाइयों ने भी इसे जड़ समझ कर, इसकी
प्रकार की बात होगी कि, कोई नीच मक्खी गरुड़ की पढाई लिखायी बन्द कर, इससे सम्बन्ध तोड़ लिए। यह बराबरी के लिए प्रयत्नशील हो (भा. ५.१४.४२)। भी भक्तिभावना में निमग्न कभी बेगारी करता, कभी परिवार---ऋषभपुत्र के जन्म में, इसे अपने पंचजनी भिक्षा माँगता, तथा कभी मज़दूरी कर के अपना पेट | नामक पत्नी से निम्नलिखित पाँच पुत्र हुए:- सुमति, पालता । एक बार यह वीरासन में बैठा खेत की रक्षा कर राष्ट्रभृत्, सुदर्शन, आवरण, एवं धूम्रकेतु । पुलह ऋषि के रहा था, की राजदूतों ने इसे देखा, तथा पकड़ कर बलि आश्रम में जाने के पूर्व, इसने अपना संपूर्ण राज्य अपने देने के लिए भद्रकाली के मन्दिर ले गये। किन्तु पुत्रों में बाँट दिया था (भा. ५.७.१-१३)। देवी ने इसकी परम प्रतिभा को पहचान कर, इसका भरत 'दाशरथि'--(सू. इ.) अयोध्या के राजा संरक्षण कर लिया, एवं उन राजदूतों का नाश किया (भा.
दशरथ का पुत्र । इसकी माता का नाम कैकयी था। ५.९-१०; विष्णु. २.१३-१६ )।
कुशध्वज जनक की कन्या मांडवी इसकी पत्नी थी। एक बार सिंधु-सौवीर देश का राजा रहगण कपिलाश्रम | जिस समय राम को राज्याभिषेक होनेवाला था, यह में ब्रह्मज्ञान का उपदेश सुनने के लिए जा रहा था। जाते | शत्रुघ्न के साथ अपने मामा के घर गया था। अयोध्या का जाते वह इक्षुमती के तट पर आ पहुँचा । उसने वहाँ के राज्य इसे दिलाने के लिए इसकी माँ कैकेयी ने दशरथ से
अधिपति से पालकी ले जाने के लिए कहारों को मँगाने के | वरदान प्राप्त किया कि, राम को वनवास, तथा भरत को लिए कहा। पालकी ले जाने के लिए जब कोई दीख न अयोध्या का राज्य दिया जाय । दशरथ कैकेयी के पूर्व वचनपड़ा, तो बेगार रूप में राजा की पालकी उठाने के लिए बद्ध थे। वह जब चाहे वरदान प्राप्त कर सकती थी। इससे कहा गया। यह बिना हिचकिचाहट के तैयार हो | इसी आधार पर उसने उक्त वरदान ऐसे विचित्र अवसर
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