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और्च
था (म. व. १८९, ब्रह्माण्ड ३.७२ ) । इसी युग के अंत में प्रलयकारक, पाताल का विषामि, विष्णु के मुख से निकला हुआ तथा शंकर के तृतीय नेत्र में रहने वाला है ( मत्स्य. २ ) । इसके वडवामुख बड़वानल, संवर्तक तथा समुद्रप नाम है (वायु ४० ) इसका पुत्र संवर्तक अनि है ( मत्स्य. ५२ ) । यही और्वाग्नि कहलाता है ।
प्राचीन चरित्रकोश
३. मालव देश में रहनेवाला एक ब्राह्मण । इसकी पत्नी का नाम सुमेधा तथा पुत्री का नाम शमीका । इसने अपनी कन्या का विवाह शौनक का शिष्य, धौम्यसुत मंदार के साथ किया। विवाहोसर कुछ दिनों के पश्चात् अपनी पत्नी बड़ी हो गई यह जान कर उसे ले जाने के लिये वह और्व के घर आया। और्व ने बडे आनन्द से उन्हें बिदा किया। मार्गक्रमण करते समय राह में भृशुंडी को देख कर दोनों हँस पडे । इसलिये उसने इन्हें 'वृक्ष बनो' ऐसा शाप देने पर वे वृक्ष बने। भवं तथा शौनक जब ढूँढते ढूँढते आये, तब उन्हें पता चला कि वे वृक्ष बन गये हैं। तब इन्हें अत्यंत दुख हुआ। इन्होंने ईश्वर की आराधना की। और्व अग्निरूप से शमीवृक्ष में रहा तथा मंदार की मूली से गणेशमूर्ति बना कर उसका पूजन करता हुआ शौनक
क
कंस
आश्रम में गया। दोनों के अनुष्ठान से शमीमंदार गणेश को प्रिय हुआ ( गणेश. २.३६ ) ।
४. स्वारोचिप मन्वन्तर के सप्तर्पियों में से एक। ५. सावर्णि मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । और्वेय-- भृगु गोत्र का एक ऋषिगण । औलान -- सायणाचार्य ने इसका अर्थ निकाला है उल का वंशज यह शंतनु का नाम होना संभव है (ऋ. १०. ९८.११ ) ।
औलुंड्य -- यह सुप्रतीक वा पैतृक नाम है (वं. ब्रा. १) ।
औशनस -- उशनस् तथा षण्डामर्क देखिये । औशिज -- यह शब्द कक्षीवत्, ऋश्विन् तथा दीर्घअवस के लिये प्रयुक्त किया गया है।
मशीनर अथवा औशीनरि-- उशीनर से माधवी को उत्पन्न शिबि ( म. द्रोण, परि. ७, पंक्ति, ४०९ ) । इसे भौशीनरि भी कहा गया है ( म. स. ८.१४९ . २९६ ३५) एक शिवि औशीनर द्रौपदीस्वयंवर में था (म. आ. १७७.१५) ।
औषदश्वि--वसुमत् देखिये । माक्षि -- साति का पैतृक नाम । (वं. बा. १) ।
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कंस -- (सो. यदु. कुकुर. ) उग्रसेन का पुत्र । उग्रसेन की पत्नी को यह द्रुमिल नामक दानव से हुआ (ह. बं. २. २८ ) । यह बड़ा शूर, मल्लविद्याविशारद तथा सर्व शास्त्र पारंगत था । इसे राज्य मिलेगा इस शर्तपर जरासंघ ने अपनी कन्या इसे दी थी इसलिये सब मंत्रि मंडल ने इसे राज्याभिषेक किया। वसुदेव इसका प्रधान था । परंतु आगे चलकर इसने पिता को कारागृह में ड़ाल दिया । यह वसुदेव का भी कुछ न मानता था ( म. स. १२. २९-३१) | पिता को कारावास देकर इसने राज्य स्वयं ले लिया (मा. १०. १. ६९ ) । कंस तथा वमुदेव ये दोनों यद्यपि यदुवंशांतर्गत है तथापि वंशावली से उनका संबंध काफी दूर का है। बाद में कंस के चाचा उर्फ देवक की कन्या देवकी का विवाह वसुदेव से निश्चित हुआ । इस विवाह के बाद देवकी को वसुदेव
के पास पहुँचाते समय लगाम हाथ में लेकर रथ हाँकने का कार्य कंस ने खुद स्वीकार किया। बड़े ठाठ से बारात जा रही थी कि आकाशवाणी हुई, जिसका रथ तुम हाँक रहे हो, उसीका आठवाँ गर्भ तुम्हारा वध करेगा "। यह सुनते ही उसने सोचा कि अगर बहन ही न रही तो उसका आठवाँ गर्भ कहाँ से आवेगा । उसकी हत्या का निश्चय कर देवकी के केश पकड़ कर उसे मारने के लिये यह सज्ज हुआ। तत्र इसके सत्र पुत्र तुम्हें सौंप दूंगा यह आश्वासन देकर बड़ी कठिनाई से वमुदेव ने इससे देवकी की रक्षा की इस आश्वासन के अनुसार वसुदेव ने प्रथम पुत्र इसे दिया, परंतु आट से मय है, प्रथम से नहीं यह सोच कर इसने उस पुत्र को वापस ले जाने के लिये वसुदेव से कहा परंतु नारद ने यादवों के बारे में इसका मत कलुषित किया । इससे इसने
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