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विश्वेदेव
प्राचीन चरित्रकोश
विषाणिन्
१२. स्वाहा (ऋ. १.१३)। इस सूका में निर्दिष्ट ये | किया था (मत्स्य. १७.१४)। मरुत्त के यज्ञ में भी ये बारह देवता एक ही अग्नि के विभिन्न रूप हैं। सभासद थे (भा. ९.२.२८)। इन्हीं के ही कृपा से
ऋग्वेद में प्राप्त विश्वेदेवों के अन्य सूक्तों में इस देवता- ज्यामव को पुत्रप्राप्ति हुई थी ( भा. ९.२.२८)। समूह में त्वष्ट, ऋभु, अग्नि, पर्जन्य, पूषन् , एवं वायु | ब्रह्मा की उपासना-इन्होंने हिमालय पर्वत पर आदि देवता; बृहद्दिवा आदि देवियाँ, एवं अहिर्बुध्न्य पितरों की एवं ब्रह्मा की, उपासना की थी, जिस कारण आदि सर्प समाविष्ट किये गये हैं।
उन्होंने प्रसन्न हो कर इन्हें आशीर्वाद दिया, 'आज से ऋग्वेद में निर्दिष्ट 'मरुद्गण' ऋभुगण' आदि | मनुष्यों के द्वारा, किये गये श्राद्धविधियों में तुम्हें अग्रमान देवगणों जैसा 'विश्वेदेव एक देवगण प्रतीत नहीं होता है। प्राप्त होगा । देवों से भी पहले तुम्हारी पूजा की जायेगी। फिर भी कभी-कभी इन्हें एक संकीर्ण समूह भी माना | तुम्हारी पूजा करने से श्राद्ध का संरक्षण होगा, एवं पितर गया प्रतीत होता है, क्यों कि, 'वसु' एवं 'आदित्यों' सर्वाधिक तृप्त होगे' (वायु. ७६.१-१५; ब्रह्मांड. ३.३. जैसे देगणों के साथ इन्हें भी आवाहन किया गया है | १६)। (ऋ. २.३.४)।
कौन-कौन से श्राद्धविधियों में कौनसे विश्वदेवों को ऐतरेय ब्राह्मण में-इस ग्रंथ में विश्वेदेवों का एक प्राधान्य दिया जाता है, इसकी जानकारी 'निर्णयसिंधु' में देवतासमूह के नाते निर्देश प्राप्त है, जहाँ आविक्षित प्राप्त है, जो निम्नप्रकार है:-1. पार्वणश्राद्ध-पुरुरव, कामप्रि राजा के यज्ञ में इनके द्वारा यज्ञीय सभासद के आर्द्रव; २. महालय श्राद्ध-धूरि, लोचन; ३. नान्दी श्राद्ध नाते कार्य करने का निर्देश प्राप्त है:
-सत्य, वसु, ४. जिवपितृक श्राद्ध-ऋतु, दक्ष ( निर्णय
सिंधु पृ. २७९)। मरुतः परिवेटारः मरुत्त यावरूनगृहे।
भागवत में इन्हें वर्तमानकालीन वैवस्वत मन्वन्तरं के आविक्षितस्य क मनः विश्वेदेवाः सभासद इति ॥ (ऐ. ब्रा. ३९.८.२१)।
देवता कहा गया है (भा. ९.१०.३४) विश्वामित्र के शाप
के कारण, इन्हें द्रौपदी के पाँच पुत्रों के रूप में जन्म प्राप्त पुराणों में--विश्वेदेवों का उत्क्रांत रूप पौराणिक
हुआ था। आगे चल कर ये पाँच हि पुत्र अश्वत्थामन के भाहित्य में पाया जाता है, जहाँ इन्हें स्पष्ट रूप से देवता
द्वारा मारे गये (मार्क. ६२-६९)। समूह कहा गया है। वायु में इन्हें दक्षकन्या विश्वा एवं
विश्वेश्वर-शिव का एक अवतार,जो काशी में अवधर्म ऋषि के पुत्र कहा गया है, एवं इनकी संख्या दस
तीण हुआ था (शिव. शत. ४२)। इसे अविमुक्तेश्वर बतायी गयी हैं। राज्यप्राप्ति के लिये इनकी उपासना की
नामान्तर भी प्राप्त है (शिव. को टि. १)। जाती है।
२. एकादश रुद्रों में से एक। नामावलि--पुराणों में प्राप्त इनकी नामावलि निम्न
विष--शिव देवों में से एक । प्रकार है:--१. ऋतु, २. दक्ष, ३. श्रव, ४. स.य,
२. एक असुर, जो नकुलि देवी के द्वारा मारा गया था ५. काल, ६. काम, ७. मुनि, ८. पुरूरवस् , ९. आद्रवास
| (ब्रह्मांड ४. २८.३९)। (आर्द्रव), १०. रोचमान (ब्रह्मांड. ३.१२,४.२.२८)।
३. एक असुर, जो दनायुष नामक असुर का पुत्र था कई अन्य पुराणों में, इनके वसु, कुरज, मनुज, बीज, - धुरि, लोचन, आदि नामांतर भी प्राप्त है ( भा. ६.६. (वायु. ६८.३०)। ६०; मत्स्य. २०२; सांब.१८)। महाभारत में भी इनकी विषया- चन्दनावती नगरी के दुष्टबुद्धि प्रधान की विस्तृत नामावलि दी गयी है, जहाँ इनका निवासस्थान | कन्या (चन्द्रहास देखिये)। 'भुवर्लोक' बताया गया है (म. अनु. ९१.२८)। विषाणिन्--एक ज्ञातिसमूह, जो दाशराज्ञ युद्ध में
ये स्वयं अप्रज (संततिहीन) थे, एवं इन्द्र की उपासना | सुदास राजा के पक्ष में शामिल था (ऋ. ७.१८.७)। करते इन्द्रसभा में उपस्थित थे (भा.६.६.६०)। देवासुर रौथ इन्हें सुदास राजा के विपक्षी मानते है. वित बह संग्राम में देवपक्ष में शामिल होकर, इन्होंने पौलोमों के | अयोग्य प्रतीत होता है। साथ युद्ध किया था ( भा. ८.१०.३४) । सोम के द्वारा अलिन, भलानस, शिव, एवं पक्थ लोगों के साथ किये गये राजसूय यज्ञ में इन्होंने 'चमसाध्वर्यु' के नाते काम | इनका निर्देश प्राप्त है, जिससे प्रतीत होता है कि,
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