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________________ पिशाच प्राचीन चरित्रकोश पिशाच हैं । ग्रियर्सन ने भी ध्वनिशास्त्र की दृष्टि से इस मत | गणों में माना जाता है (ब्रह्मांड. २. ७. ८८को समीचीन माना है। (पिशाच, ज, रॉ. ए. सो. १७०)। १९५०; २९५-२८८) महाभारत में, एक विशेष भूतयोनि के रूप में पिशाचों 'पिशाच' का शब्दार्थ 'कच्चा माँस का भक्षण | का निर्देश प्राप्त है। ये कच्चा माँस खानेवाले व रक्त करने वाला है' । अर्थववेद के अनुसार, इन लोगों में पीनेवाले लोग थे (म. द्रो. ४८.४७)। इन्होंने घटोत्कच कच्चे माँस के भक्षण करने की प्रथा थी, इस कारण इन्हें के साथ रह कर उसकी सहायता की थी और कर्ण पर पिशाच नाम प्राप्त हुआ (अ. वे. ५. २९. ९)। आक्रमण किया था (म. द्रो. १४२.३५,१५०.१०२)। वैदिक वाङमय में निर्दिष्ट दैत्य एवं दानवों का उत्तर- | अजुन और कर्ण के युद्ध में ये उपस्थित थे (म. क. कालीन विकृत रूप पिशाच है। पिशाचों का अर्थ ६३.३१)। सम्भवतः 'वैताल' अथवा 'प्रेतभक्षक' था। प्रघस नामक एक राक्षस व पिशाचों का संघ था (म. अर्थववेद में दानवों के रूप में इसका नाम कई बार | श. २६९.२)। पिशाचों के राजा के रूप में रावण का आया है (अ. वे. २..१८. ४, ४. २०.६-९, ३६. निर्देश भी कई जगह प्राप्त है (म. व. २५९.३८)। ४,३७. १०५.२९. ४-१०; १४; ६. ३२. २, ८. ब्रह्मा एवं कुबेर के सेवक के रूप में इनका निर्देश २. १२, १२. १.५०)। इन लोगों का निर्देश ऋग्वेद प्राप्त है (म. स. ११.३१)। शिवजी के पार्षदो में 'पिशाचि' नाम से किया गया है (ऋ. १. १३३. के रूप में भी पिशाचों का निदेश आता है। गोकर्ण ५)। राक्षसों तथा असुरों के साथी मनुष्य एवं पितरों | पर्वत पर इन लोगों ने शिवजी की आराधना की थी के विरोधी लोगों के रूप में इनका निर्देश वैदिक साहित्य (म. व. ८३.२३)। मुजवत पर्वत पर पार्वती सहित में स्थान स्थान पर हुआ है (तै. सं. २. ४: १.१: का. तपस्या करते हुए शिव की आराधना इन लोगों ने की सं. ३७-१४) किन्तु कहीं कहीं इनका उल्लेख मानव थी (म. आश्र. ८.५)। रूप में भी हुआ है । कुछ भी हो यह लोग संस्कारों से | पैशाची भाषा एवं संस्कृति -इनकी भाषा पैशाची हीन व बर्बर थे और इसी कारण यह सदैव घृणित दृष्टि | थी, जिसमें 'बृहत्कथा' नामक सुविख्यात ग्रंथ 'गुणाढ्य' से देखे जाते थे। उत्तर पश्चिमी प्रदेश में रहने वाले | (४ थी शती ई. पू.) ने लिखा था। गुणाढ्य का मूल अन्य जातियों के समान ये भी वैदिक आर्य लोगों के ग्रंथ आज उपलब्ध नहीं है, किंतु उसके आधार लिखे गये शत्रु थे। सम्भवतः मानव माँस भक्षण की परस्परा इनमें 'कथासरित्सागर' (२री शती ई.) एवं 'बृहत्कथाकाफी दिनों तक प्रचलित रही। | मंजरी' नामक दो संस्कृत ग्रंथ आज भी प्राप्त हैं, एवं ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार, इन लोगों में, 'पिशाच- संस्कृत साहित्य के अमूल्य ग्रंथ कहलाते हैं। इनमें से वेद' अथवा 'पिशाचविद्या' नामक एक वैज्ञानिक | 'कथासरित्सागर' का कर्ता सोमदेव हो. कर, 'बृहत्कथाविद्या प्रचलित थी (गो. बा. १. १. १०; आश्व, श्री. मंजरी' को क्षेमेंद्र ने लिखा है। सू. १०. ७. ६)। अथर्ववेद की एक उपशाखा इन सारे ग्रंथों से अनुमान लगाया जाता है कि. 'पिशाचवेद' नाम से भी उपलब्ध है ( गो. ब्रा. ईसासदी के प्रारंभकाल में, पिशाच लोगों की भाषा एवं १. १०)। संस्कृति प्रगति की चरम सीमा पर पहुँच गयी थी। यहाँ ब्रह्मपुराण के अनुसार, पिशाच लोगों को गंधर्व तक, कि, इनकी भाषा एवं ग्रंथों को पर्शियन सम्राटों ने गुह्यक, राक्षस के समान एक 'देवयोनिविशेष' कहा अपनाया था। इनकी यह राजमान्यता एवं लोकप्रियता गया है। सामर्थ्य की दृष्टि से, इन्हे क्रमानुसार इस देखने पर पैशाची संस्कृति एवं राजनैतिक सामर्थ्य का पता प्रकार रखा गया है-गंधर्व, गुह्यक, राक्षस एवं पिशाच । चल जाता है। सर्वप्रथम मध्यएशिया में रहनेवाले ये ये चारों लोग विभिन्न प्रकार से मनुष्य जाति को पीड़ा लोग, धीरे धीरे भारतवर्ष के दक्षिण सीमा तक पहुँच गये। देते हैं- यक्ष गंधर्व 'दृष्टि' से, राक्षस शरीरप्रवेश से | महाभारतकालीन पिशाच जनपद के लोग। ये एवं पिशाच रोगसदृश पीड़ा उत्पन्न करके । ये सारे | लोग युधिष्ठिर की सेना में क्रौंचव्यूह के दाहिने पक्ष की लोग पुलस्त्य, पुलह एवं अगस्य वंशोत्पन्न थे। इनमें से | जगह खड़े किये थे (म. भी. ४६.४९)। इनमें से बहुत से पिशाचो का स्वतंत्र वंश उपलब्ध है। वह रुद्र के उपासक | लोग भारतीययुद्ध में मारे गये थे (म. आश्र. ३९.६)। ४२७
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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