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दत्त आत्रेय
प्राचीन चरित्रकोश
दधिवाहन
का आश्रम था। उस स्थान पर परशुराम ने जमदग्नि को | दत्तजन्मकाल--दत्तजन्मकाल मार्गशीर्ष सुदी चतुर्दशी
अग्नि दी, एवं रेणुका सती गई । इसलिए वहाँ मातृतीर्थ को दोपहर में वा रात्रि में माना जाता है। दत्त जयन्ति निर्माण हुआ (रेणुका. ३७)।
का समारोह भी उसी वक्त मनाया जाता है। कई स्थानों ___ आयु को पुत्रदान-ऐलपुत्र आयु को पुत्र नहीं था।| में, मार्गशीर्ष सुदी पौर्णिमा के दिन मुबह, शाम, या पुत्र प्राप्ति के लिये वह दत्त के पास आया। दत्त
मध्यरात्रि के बारह बजे दत्तजन्म मनाया जाता है। स्त्रियों के साथ क्रीडा कर रहा था। मदिरापान के | दत्तप्रणीत ग्रंथ-अवधूतोपनिषद् , जाबालोपनिषद् , कारण इसकी आँखे लाल थीं। इसकी जंघा पर एक | अवधूतगीता, त्रिपुरोपास्तिपद्धति, परशुरामकल्पसूत्र (दत्तस्त्री बैठी थी। गले में यज्ञोपवीत नहीं था। गाना तंत्रविज्ञानसार), ये ग्रंथ दत्त ने स्वयं लिखे थे। तथा नृत्य चालू था। गले में माला थी। शरीर को दत्तमतप्रतिपादक ग्रंथ-अवधूतोपनिषद् , जाबालोपचंदनादि का लेप लगा हुआ था । आयु ने वंदना करके | निषद् , दत्तात्रेयोपनिषद् , भिक्षुको पनिषद, शांडिल्योपपुत्र की माँग की। दत्त ने अपनी बेहोष अवस्था उसे बता | निषद् , दत्तात्रयतंत्र आदि ग्रंथ दत्तसांप्रदाय के प्रमुख ग्रंथ दी। इसने कहा, 'वर देने की शक्ति मुझमें नही है। माने जाते हैं। आयु ने कहा, 'आप विष्णु के अवतार है'। अन्त में दत्तसंप्रदाय-तांत्रिक, नाथ, एवं महानुभाव संप्रदायों दत्तात्रेय ने कहा, 'कपाल' (मिट्टी के भिक्षापात्र) में मुझे | में दत्त को उपास्य दैवत माना जाता है । श्रीपाद श्रीवल्लभ माँस एवं मदिरा प्रदान करो। उसमेंसे माँस खुद के हाथों | (पीठापुर, आंध्र), श्रीनरसिंहसरस्वती (महाराष्ट्र), से तोड कर मुझे दो'। इस प्रकार उपायन देने पर इसने | आदि दत्तोपासक स्वयं दत्तावतार थे, ऐसी उनके भक्तों प्रसन्न हो कर, आयु को प्रसादरूप में एक श्रीफल दिया, | की श्रद्धा है । प. प. वासुदेवानंदसरस्वती (टेंबेस्वामी) एवं वर बोले, 'विष्णु का अंश धारण करनेवाला पुत्र | आधुनिक सत्पुरुष थे (इ. स. १८५४ -१९१४)। वे दत्त तुम्हें प्राप्त होगा'। इस वर के अनुसार आयु को नहुष | के परमभक्त, एवं मराठी तथा संस्कृत भाषाओं में दत्तनामक पुत्र हुआ। पश्चात् नहुष ने हुंड नामक असुर का | विषयक विपुल साहित्य के निर्माता थे । पदयात्रा कर के, वध किया (मार्के. १६; ३७; पभ. भू. १०३-१०४)। । एवं भारत के सारे विभागों में दत्तमंदिरादि निर्माण कर
सहस्रार्जुन को वरप्रदान-दत्तचरित्र से संबंधित इसी | के, उन्होंने दर्तभक्ति तथा दत्तसंप्रदाय का प्रचार किया। ढंग की और एक कथा महाभारत में दी गयी है । गर्गमुनि दत्त तापस-एक ऋषि । सर्पसत्र में इसने होतृ के कहने पर कार्तवीर्यार्जुन राजा दत्त आत्रेय के आश्रम में नामक ऋत्विज का काम किया था (पं.बा. २५.१५.३)। आया । एकनिष्ठ सेवा कर के उसने इसे प्रसन्न किया। दत्तामित्र-एक यवननृप (विपुल ३. दखिये)। तब दत्त ने अपने वर्तन के बारे में कहा, 'मद्यादि से दत्तोलि--पुलस्त्य को प्रीदि नामक पत्नी से उत्पन्न मेरा आचरण निंद्य बन चुका है । स्त्री भी मेरे पास हमेशा | पुत्र (अग्नि. २०.१३; मार्क. २२.२३)। रहती है। इन भोंगो के कारण मैं निंद्य हूँ। तुम पर दधिकावन्--मरीचिगर्भ नामक देवों में से एक । अनग्रह करने के लिये मैं सर्वथा असमर्थ हैं। किसी अन्य | ऋग्वेद में इस देवता पर एक सूक्त उपलब्ध है । उस सूक्त समर्थ पुरुष की तुम आराधना करो'। परंतु अन्त में में 'दधिक्रावन् ' शब्द 'अश्व' अर्थ में लिया गया है कार्तवीर्यार्जुन की निष्ठा देख कर, इसने विवश हो कर उसे | (ऋ. ४.४०)। वर माँगने के लिए कहा। कार्तवीर्य ने इससे चार वर | दधिमुख-कश्यप तथा कद्रू का पुत्र । माँगे, जो इस प्रकार थे:-१. सहस्रबाहुत्त्व, २. सार्व- । २. रामसेना का एक वानर । यह सोमपुत्र था, तथा भौमपद, ३. अधर्मनिवृत्ति, ४. युद्धमृत्यु।। स्वभाव से भी सौम्य था (वा. रा. यु. ३०)। अपनी ___ दत्त आत्रेय ने वरों के साथ कार्तवीर्य को सुवर्ण विमान | प्रचंड सेना के साथ, यह राम से आ मिला । किंतु राम(म. व. परि. १.१५.६) तथा ब्रह्मविद्या का उपदेश भी | रावणयुद्ध के समय यह वृद्ध था (म. व. २६७.७ ) । दिया (भा. १.३.११)। कार्तवीर्य ने भी अपनी सर्व | राम के अश्वमेधीय अश्व की रक्षा करने के लिये, शतृघ्न संपत्ति दत्त को अर्पण की (म. अनु. १५२-१५३)। | के साथ यह गया था (पम. स. ११)। कार्तवीर्य की राजधानी नर्मदा नदी के किनारे स्थित दधिवाहन--वाराह कल्प के वैवस्वत मन्वन्तर में से माहिष्मती नगरी थी।
अष्टम चौखट का शिवावतार । यह वसिष्ठ एवं व्यास की २६२