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शौनक
प्राचीन चरित्रकोश
शौनक
वायु में इसका भृगुवंशीय वंशक्रम निम्नप्रकार दिया | ३. नैमिषारण्य सहस्रवार्षिक सत्र (भा. १.१.४; पद्म. गया है:-रूरु (प्रमद्वरा)-शुनक-शौनक-उग्रश्रवस् । आदि..१.६ )। इसी ग्रंथ में अन्यत्र इसे नहुषवंशीय कहा गया है; एवं इसके द्वारा आयोजित द्वादशवर्णीय सत्र में रोमहर्षण इसका वंशक्रम निम्न प्रकार दिया गया है:- धर्मवृद्ध- सून ने महाभारत का कथन किया था (म. आ. १.१)। सुतहोत्र-गृत्समद-शुनक-शौनक (वायु. ९२.२६)। इसके द्वारा प्रार्थना किये जाने पर, नैमिपारण्य के सहस्र
'ऋष्यानुक्रमणी' के अनुसार, यह शुनहोत्र ऋषि का | वर्षीय सत्र में रोमहर्षणि सूत ने प्रायोपवेशन करनेवाले पुत्र था, एवं शुनक के इसे अपना पुत्र मानने के कारण, | परिक्षित् राजा को शुक के भागवत पुराण का कथन किया इसे 'शौनक' पैतृक नाम प्राप्त हुआ। यह पहले अंगिरस्- | (भा. १.४.१) । यह पुराण परिक्षित् शुकसंवादात्मक है, गोत्रीय था, किन्तु बाद में भृगु-गोत्रीय बन गया। एवं उसमें कृष्ण का जीवनचरित्र अत्यंत प्रासादिक शैली
महाभारत के अनुसार, दशसहस्र विद्यार्थियों के भोजन | से वर्णन किया गया है। एवं निवास की व्यवस्था कर, उन्हें विद्यादान करनेवाले प्रमुख ग्रंथ--इसके नाम पर निम्नलिखित ग्रंथ उपलब्ध गुरूकुलप्रमुख को 'कुलपति' उपाधि दी जाती थी (म.. है :-१. प्रातिशाख्य; २. ऋग्वेद छंदानुक्रमणी; आ. १.१; ह. वं. १.१.४ नीलकंठ)।
३. ऋग्वेद ऋष्यानुक्रमणी; ४, ऋग्वेद अनुवाकानुक्रमणी; भागवत में इसे चातुर्वर्ण्य का प्रवर्तक, एवं 'बढ्च
५. ऋग्वेद सूक्तानुक्रमणी; ६. ऋग्वेद कथानुक्रमणी; प्रवर' कहा गया है (भा. १.४.१; ९.१७३, विष्णु. ४.
| ७. ऋग्वेद पाइविधान; ८. बृहदेवता; १. दशौनक-स्मृति ८.१) । वायु में इसमे ही चारों वर्गों की उत्पत्ति होने का |
१०. चरणम्यूहः ११. ऋविधान। निर्देश प्राप्त है (वायु. ९२.३-४; ब्रह्म. ११.३४, ह. वं.
शौनक के उपर्युक्त ग्रंथों में इसके द्वारा बतायी गयी १.२९.६-७)।
ऋग्वेद की विभिन्न अनुक्रमणियाँ प्रमुख हैं । पद्गुरुशिष्य
ने कात्यायन सर्वानुक्रमणी के भाष्य में, शौनक के द्वारा कर्तृत्त्व--इसने ऋग्वेद के द्वितीय मंडल की पुनर्रचना
विरचित अनुक्रमणियों की संख्या कुल दस बतायी। की, एवं इस मंडल में से 'स जनास इंद्रः' नामक बारहवें
है, किंतु उनमें से केवल चार ही अनुक्रमणियाँ आज सूक्त का प्रणयन किया।
उपलब्ध हैं। . इसने ऋक्संहिता के बाष्कल एवं शाकल शाखाओं का , अन्य ग्रंथ--उपर्युक्त ग्रंथों के अतिरिक्त, इसके नाम एकत्रीकरण कर, उन दोनों के सहयोग से शाकल अथवा पर शौनक-गृह्यसूत्र. शौनक-गृद्यपरिशिष्ट आदि अन्य शैशिरेय शाखांतर्गत ऋमंहिता का निर्माण किया। छोटे छोटे ग्रंथ हैं (C.C.)। मस्य के अनुसार इसने शौनक के द्वारा निर्मित नये ऋक्संहिता की सूक्तों की एक वास्तुशास्त्रमंबंधी ग्रंथ की भी रचना की थी (मत्स्य. संख्या १०१७ बतायी गयी है।
२५२.३)। ऋग्वेद की अनुक्रमगी-ऋग्वेद की उपलब्ध अनु- सायणभाष्य से प्रतीत होता है कि, 'ऐतरेय आरण्यक क्रमणियों में से शौनक की अनुक्रमणी प्राचीनतम मानी का पाँचवाँ आरण्यक इसके ही द्वारा निर्माण किया गया जाती है, जो कात्यायन के द्वारा विरचित ऋग्वेद सर्वा- था (ऐ. आ. १.४.१)। नुक्रमणी से काफी पूर्वकालीन प्रतीत होती है। शौनक के व्याकरणशास्त्रकार--शैनक के द्वारा विरचित 'ऋक्यातिअनुक्रमणी में ऋग्वेद का विभाजन, मंडल, अनुवाक एवं शाख्य' उपलब्ध प्रातिशाख्य ग्रंथों में प्राचीनतम माना सूक्तों में किया गया है, जो अष्टक, अध्याय, वर्ग आदि जाता है। शौनक के इस ग्रंथ में शाकल शाखान्तर्गत में विभाजन करनेवाले कात्यायन से निश्चित ही प्राचीन विभिन्न पूर्वाचार्यों के अभिमत उद्धृत किये गये हैं। प्रतीत होता है।
वैदिक ऋचाओं का उच्चारण, एवं विभिन्न शाखाओं में गहपति शौनक--पौराणिक साहित्य में शौनक ऋषि के प्रचलित उच्चारणपद्धति की जानकारी भी शानक के इस द्वारा आयोजित किये गये यज्ञों ( सत्रों) का निर्देश प्राप्त | ग्रंथ में दी गयी है। है, जिनमें निम्नलिखित प्रमुख थे:-१. नैमिषारण्य शौनक के प्रातिशाख्य में व्याकरणकार व्याडि का द्वादशवर्षीय मत्र (म. आ. १.१.१, ब्रह्म. १.११); निर्देश पुनः पुनः आता है, जिससे प्रतीत होता है कि, २. नैमिषारण्य दीर्घसत्र (मत्स्य १.४; अग्नि. १.२); व्याड़ि इसीका ही शिष्य था (ऋ. प्रा. २०९; २१४)
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