SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 794
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रोमहर्षण प्राचीन चरित्रकोश रोमहर्षण रोमहर्षण 'सूत'-एक सूतकुलोत्पन्न मुनि, जो | काम प्रारंभ किया (भा. १.४.२२, विष्णु. ३.४.१०, समस्त पुराणग्रंथों का आद्य कथनकर्ता माना जाता है। वायु. ६०.१६; पद्म. स. १; अग्नि. २७१; ब्रह्मांड २. पुराणों में प्राप्त परंपरा के अनुसार, यह कृष्ण द्वैपायन | ३४; कूमे. १.५२)। व्यास के पाँच शिष्यों में से एक था। समस्त वेदों की शिष्यपरंपरा--व्यास के द्वारा प्राप्त आद्य पुराण चार शाखाओं में पुनर्रचना करने के पश्चात् , व्यास ने | ग्रंथों की इसने छः पुराणसंहिताएँ बनायीं, एवं उन्हें अपने तत्कालीन समाज में प्राप्त, कथा, आख्यायिका, एवं गीत | निम्नलिखित शिष्यों में बाँट दी:-१. आत्रेय सुमति; (गाथा) एकत्रित कर, आद्य पुराणग्रंथों की रचना की, | २. काश्यप अकृतवर्ण; भारद्वाज अग्निवर्चस् ४. वासिष्ठ जो उसने सूतकुल में उत्पन्न हुए रोमहर्षण को सिखाई। मित्रयु; ५. सावर्णि सोमदत्ति; ६. शांशापायन सुशर्मन् रोमहर्षण ने इसी पुराणग्रन्थ के आधार पर आद्य पुराण- (ब्रह्मांड. २.३५.६३-७०, वायु. ६१.५५-६२)। इनमें संहिता की रचना की, एवं यह पुराणों का आद्य कथन- से काश्यप, सावर्णि एवं शांशापायन ने आद्य पुराणसंहिता कर्ता बन गया। भांडरकर संहिता में इसके नाम के लिए से तीन स्वतंत्र संहिताएँ बनायी जो, उन्हीं के नाम से 'लोमहर्षण' पाठभेद प्राप्त है (म. आ. १.१)। प्रसिद्ध हुयीं। इस प्रकार रोमहर्षण की स्वयं की एक पुराण ग्रन्थों में इसका निर्देश कई बार केवल 'सूत' संहिता, एवं इसके उपर्युक्त तीन शिष्यों की तीन संहिताएँ नाम से ही प्राप्त है, जो वास्तव में इसका व्यक्तिगत नाम न इन चार संहिताओं को 'मूलसंहिता' सामूहिक नाम हो कर, जातिवाचक नाम था। प्राप्त हुआ। इन संहिताओं में से प्रत्येक संहिता निम्नकुलवृत्तान्त--पुराणों में प्राप्त जानकारी के अनुसार, लिखित चार पादों (भागों) में विभाजित थी:-प्रक्रिया, सूतकुल में उत्पन्न लोग प्राचीनकाल से ही देव, ऋषि, अनुषंग, उपोद्घात एवं उपसंहार । इन सारी संहिताओं राजा आदि के चरित्र एवं वंशावलि का कथन एवं गायन | का पाठ एक ही था, जिनमें विभेद केवल उच्चारा का ही का काम करते थे, जो कथा, आख्यायिका, गीत आदि में था। शांशापायन की संहिता के अतिरिक्त बाकी सारे समाविष्ट थी। इसी प्राचीन लोकसाहित्य को एकत्रित कर, संहिताओं की श्लोकसंख्या प्रत्येकी चार हजार थी। व्यास ने अपने आद्य पुराण ग्रंथ की रचना की। पुराणों का निर्माण-इन संहिताओं का मूल संस्करण आजरोमहर्षण स्वयं सूतकुल में ही उत्पन्न हुआ था, एवं | उपलब्ध नही है । फिर भी आज उपलब्ध वायु, ब्रह्मांड इसका पिता क्षत्रिय तथा माता ब्राह्मणकन्या थी। इसे जैसे प्राचीन पुराणों में रोमहर्षण, सावर्णि, काश्यपेय, रोमहर्षण अथवा लोमहर्षण नाम प्राप्त होने का कारण भी शांशापायन आदि का निर्देश इन पुराणों के निवेदक के इसकी अमोघ वक्तृत्वशक्ति ही थी नाते प्राप्त है । इन आचार्यों का निर्देश पुराणों में जहाँ लोमानि हर्षयांचक्रे, श्रोतृणां यत् सुभाषितैः। आता है, वह भाग आद्य पुराणसंहिताओं के उपलब्ध कर्मणा प्रथितस्तेन लोकेऽस्मिन् लोमहर्षणः ॥ अवशेष कहे जा सकते हैं। (वायु. १.१६)। उपलब्ध पुराणों में से चार पादों में विभाजित ब्रह्मांड एवं (अपने अमोघ वक्तृत्वशैली के बल पर, यह लोंगों को | लोगों को वायु ये दो ही पुराण आज उपलब्ध हैं। उदाहरणार्थ इतना मंत्रमुग्ध कर लेता था कि, लोग रोमांचित हो उठते वायु पुराण का विभाजन इस प्रकार है:-प्रथम पाद,-अ. १ थे, इसीलिए इसे लोमहर्षण वा रोमहर्षण नाम प्राप्त -६; द्वितीय पाद,-अ. ७-६४; तृतीय पाद,-अ. ६५ ९९; चतुर्थ पाद,-अ. १००-११२। अन्य पुराणों में हुआ) आद्य पुराण संहिता का यह विभाजन अप्राप्य है। पुराणों की निर्मिती--व्यास के द्वारा संपूर्ण इतिहास, एवं पुराणों का ज्ञान इसे प्राप्त हुआ, एवं यह समाज रोमहर्षण के छः शिष्यों में से पाँच आचार्य ब्राह्मण में 'पुराणिक' (म. आ. १.१); 'पौराणिकोत्तम' थे, जिस कारण पुराणकथन की सूत जाति में चलती (वायु. १.१५, लिंग. १.७१, ९९); 'पुराणज्ञ' आदि | आयी परंपरा नष्ट हो गई, एवं यह सारी विद्या ब्राहाणों उपाधियों से विभूषित किया गया था। व्यास के द्वारा के हाथों में चली गई। इसी कारण उत्तरकालीन इतिहास प्राप्त हुआ पुराणों का ज्ञान इसने अच्छी प्रकार संवर्धित | में उत्पन्न हुए बहुत सारे पुराणज्ञ एवं पौराणिक ब्राह्मण किया, एवं इन्हीं ग्रन्थों का प्रसार समाज में करने का | जाति के प्रतीत होते हैं। इस प्रकार वैदिक साहित्यज्ञ ७७२
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy