________________
द्रौपदी
दुर्वास ऋषि को दुर्योधन ने भेज दिया। दुर्वास ऋपि अपने शिष्यों के साथ, रात्रि के समय पांडवों के घर आया, एवं आधी रात में भोजन माँगने लगा। उस समय द्रौपदी का भोजन हो गया था । इसलिये सूर्यप्रदत्तस्थाली में पुनः अन्न निर्माण करना असंभव था तब ऋषियों को क्या परोसा जावे, यह धर्मसंकट इसके सामने उपस्थित हुआ। आखिर विवश हो कर इसने कृष्ण का स्मरण किया । कृष्ण ने भी स्वयं वहाँ आकर, इसके संकट का निवारण किया (म. व. परि. १. क्र. २५. पंक्ति. ५८११७) ।
,
प्राचीन चरित्रकोश
पांडवों का निवास काम्यकवन में था । एक बार जयद्रथ आश्रम में आया। उस समय पाँचों पांडव मृगया के लिये गये थे । तत्र अच्छा अवसर देख कर, जयद्रथ ने द्रौपदी का हरण किया । इतने में पांडव वापस आये । जयद्रथ को पराजित कर, उन्होंने द्रौपदी को मुक्त किया । बाद में अपमान का बदला चुकाने के लिये जयद्रथ के सिर का पाँच हिस्सों में मुंडन कर उसे छोड़ दिया गया ( म. व. २५६. ९; जयद्रथ देखिये) ।
,
अज्ञातवास - वनवास की समाप्ति के बाद, अज्ञातवास के लिये पांडव विराटगृह में रहे। द्रौपदी सेरंभी बन कर एवं ‘मालिनी' नाम धारण कर, सुदेष्णा के पास रही। उस समय इसने सुदेष्णा से कहा था, 'मैं किसी का पादसंवाहन अथवा उच्छिष्टभक्षण नही करूँगी । कोई मेरी अभिलाषा रखे, तो वह मेरे पाँच गंधर्व पतियों द्वारा मारा जायेगा' । द्रौपदी के इन सारे नियमों के पालन का आश्वासन सुदेष्णा ने इसे दिया ( म. वि. ८.३२ ) । एक बार कीचक नामक सेनापति ने इसकी अभिलाषा रखी, परंतु भीम ने उसका वध किया ( म. वि. १२ - २२ ) । वनवास तथा अन्य समयों पर भी अपनी तेजस्विता तथा बुद्धिमत्ता इसने कई बार व्यक्त की है (म. व. २८२५२ शां. १४) ।
द्रौपदी
अनुकुल बनाया (म. ड. ८० ) । इसने कृष्ण से कहा, 'कौरवों के प्रति द्वेषामि, तेरह साल तक, मैने अपने हृदय में, सांसों की फूँकर डाल कर, आज तक प्रज्वलित रखा हैं । कौरवों से युद्ध टाल कर, पांडव आज उस अग्नि को बुझाना चाहते है उन्हें तुम ठीक तरह से समझ लो । नही तो मेरे वृद्ध पिता द्रुपद, एवं मेरे पाँच पुत्र के साथ, मैं खुद कौरवों से लड़ाई करूँगी, एवं नष्ट हो जाऊँगी ( म. उ. ८०. ४-४१ ) ।
भारतीय युद्ध में अश्वत्थामन् ने द्रौपदी के सारे पुत्रों का वध किया । दारुक से यह वार्ता सुन कर द्रौपदी ने अन्नत्याग कर, प्राणत्याग करने का निश्चय किया। तब भीम ने उसे समझाया। अन्त में अश्वत्थामन को पराजित कर, उसके मस्तकस्थित मणि ला कर, युधिष्ठिर के मस्तक पर देखने की इच्छा इसने प्रकट की। पश्चात् भीम ने वह कार्य पूरा किया (म. सी. १५.२८-३०१ १६.१९२६ ) ।
पांडवों का बनवास तथा अज्ञातवास समाप्त होने पर वे हस्तिनापुर लौट आये, एवं कौरवों के पास राज्य का हिस्सा माँगने लगे । अपने कौरव बांधवों से लड़ने की ईर्ष्या युधिविर मन में नहीं थी। उनसे स्नेह जोड़ने के लिये युधिडिर दूत भेजना चाहता था किंतु कौरवों के द्वारा किये गये अपमान का शल्य द्रौपदी भूल न सकती थी । कौरवों के साथ दोस्ती सलुक की बाते करनेवाले पांडवों के प्रति यह भड़क उठी। पांडवों के साथ कृष्ण को भी कड़े वचन कह कर इसने उसको युद्ध के प्रति
3
राज्यप्राप्ति - भारतीय युद्ध के बाद, पांडवों को निष्कंटक - राज्य मिला। उस समय द्रौपदी ने काफी सुखोपभोग लिया ।
बाद में स्त्री तथा बांधवों के साथ, युधिष्ठिर महाप्रस्थान के लिये निकला राह में ही द्रौपदी का पतन हुआ। अपने पतियों में से, यह अर्जुन पर ही विशेष प्रीति रखती. थी ( म. महा. २.६ ) । उस पाप के कारण इसका पतन हुआ । किंतु कृष्ण का स्मरण करते ही, यह स्वर्ग चली गई ( भा. १.१५.५० ) ।
इसे युधिष्ठिर से प्रतिविंध्य भीम से मुतसोम, अर्जुन से श्रुतकीर्ति, नकुल से शतानीक, तथा सहदेव से श्रुतसेन नामक पुत्र हुएँ (म. आ. ९०.८२ ५८.१०२-१०३३ ६१.८८ २१३.७२-७३) । श्रुतसेन के लिये श्रुतकर्म पाठ 'भागवत' में प्राप्त है ( भा. ९.२२.२९ ) ।
,
स्वभाव — द्रौपदी मानिनी थी । स्वयंवर के समय इसका प्रण जीतने कर्ण समर्थ था । किन्तु सूतपुत्र को वरने का इसने इन्कार किया (म. आ. १८६ ) । वनवास में पांडव तथा कृष्ण को द्रौपदी ने बार बार युद्ध की प्रेरणा की। कृष्ण के शिष्टाई करने जाते समय इसने अपने मुक्त केशसंभार की याद उसको दिलाई थी भारतीय युद्ध में, अपने पुत्रों के वध का समाचार सुनते ही अवस्थामा के वध की चेतावनी इसने पांडवों को दी । युद्ध के पश्चात्, युधिष्ठिर राज्य स्वीकार करने के लिये हिचकिचाने लगा । उस समय भी इसने उसे राजदण्ड धारण करने के लिये समझाया।
3
३१२