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भीष्म
प्राचीन चरित्रकोश
भीष्म
कृष्ण से भेंट-नवें दिन की रात्रि को कृष्ण धर्मादि आया, तब सारे भेदभावों को भूल कर इसने उसका दृढ़ पाण्डवों को साथ ले कर भीष्म से मिलने उसके शिबिर आलिंगन करते हुए सदुपदेश दिया, 'या तो तुम कौरव गया। कृष्ण ने भीष्म से कहा, 'आपकी प्रतिज्ञा सुन | पाण्डवों के बीच मित्रता स्थापित कराओ, अथवा कौरवों कर सभी पाण्डव आतंकित हो उठे हैं। अब आपकी | के पक्ष को छोड़कर पाण्डवों के पक्ष में सम्मिलित हो मृत्यु किस प्रकार सम्भव हो कि, जिससे पाण्डव की रक्षा | जाओ'। दुर्योधन को तनमनधन से मित्रता का व्रत लेने की जा सके? ।' भीष्म ने कृष्ण के प्रश्न का उत्तर देते हुए वाले कर्ण ने भीष्म से कहा, 'दुर्योधन मेरा मित्र है, अतः कहा, 'जिसके रथ का ध्वज अभद्र हो, जो हीन जाति का | आप मुझे यह अनुज्ञा दें कि, उसी के पक्ष में लड़ता हुआ हो, अथवा जो स्त्री हो उससे मैं युद्ध कदापि न करूँगा। मैं पाण्डवों का पराभव करूँ'। भीष्म ने उसके व्रत को द्रुपद राजा का पुत्र शिखण्डी पूर्वकाल में स्त्री था, बाद में | सुनकर उसे अनुज्ञा प्रदान की (म. भी. ११६-११७)। पुरुष बना। अतएव उसे सामने कर के, यदि अर्जुन | भारतीय युद्ध में अपने कुरुवंशी बन्धुओं का क्षय देख युद्ध करेगा, तो मै कुछ न कर सकूँगा, तथा मुझे अर्जुन कर युधिष्ठिर अत्यधिक शोकमग्न हुआ था। उसे इस प्रकार सहज ही युद्ध में जीत सकेगा। इस प्रकार पाण्डव | उदास देखकर, अपने धर्मोपदेश के द्वारा भीष्म ने उसे सुलभता के साथ रणभूमि में कौरव को जीतकर राज्य प्राप्त | शान्ति प्रदान की। युधिष्ठिर को धर्मोपदेश देते समय कर सकते हैं' (म. भी. १०३)।
भीष्म इतना शक्तिहीन हो चला था कि, कृष्ण ने उसे शक्ति । दूसरे दिन भीष्म के बताये हुए मार्ग को अपना
प्रदान कर, उपदेश देने के योग्य बनाया (म. शां. ५२, कर शिखण्डी को सामने रखकर अर्जुन ने भीष्म को | भा. १.९; ९.२२.१९)। पितामह भीष्म एवं युधिष्ठिर के पराजित किया (म. भी. ११३-११४)। भीष्म पतन | बीच हुयी ज्ञानचर्चा महाभारत के 'शान्ति' एवं ' अनुका यह दिन पौष के कृष्णपक्ष की सप्तमी थी, एवं
शासन' पर्व में प्राप्त है, जो आज भी अपनी अपार उससमय फल्गुनी नक्षत्र था ( भारतसावित्री)।
ज्ञानराशि के कारण, जीवन के परम सत्य की ओर शरशय्या-इसके वध के समय सर्वांग बाणों से बिद्ध पथनिर्देश कराने में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। था। रथ से गिरकर बाणों पर ही टिका हुआ भूमि पर प्राणत्याग--अर्जुन के द्वारा आहत होकर जब यह यह इस प्रकार आ गिरा, मानों शरशय्या में लेटा शरशय्या पर बड़ा हुआ था, उस समय सूर्य दक्षिणायन हो। इसका सर केवल बाणों से बचा था, जो शरशय्या था । अतएव इच्छाबल पर इसने अपने प्राणों को रोक से लटक रहा था । उसे देखकर अर्जुन ने तीन बाणों को | रखा था। जैसे ही सूर्य उत्तरायण आया, इसने अपने मार कर, इसके सर के लिए तकिया बना दिया । शरशय्या | प्राण विसर्जित किये (म. अनु. १६८.७)। यह दिन में पड़ा हुआ यह अधिक प्यासा हो उठा था, जिसे | माघ सुदी अष्टमी थी (निर्णयसिंधु पृ. १६३)। जिस देखकर अर्जुन ने अपने एक बाण द्वारा गंगा नदी के प्रवाह | समय यह अपने प्राणों को त्याग कर निजधाम जाने की को अपनी ओर खींचकर, उस धारा के द्वारा भीष्म की तैयारी में था, उस समय अनेकानेक शत्रुमित्र पक्ष के तृषा का हरण किया। अर्जुन की इस सेवा से भीष्म | लोगों के अतिरिक्त, न जाने कितने ऋषिमुनि आदि इसके अत्यधिक प्रसन्न हुआ (म. भी. ११५)।
दर्शन कर, उपदेश ग्रहण करने की लालसा से आये थे। जिस समय भीष्म पितामह शरशय्या में आहत था, |
इसकी मृत्यु विनशन क्षेत्र में हुयी (भा. १.९.१)। उस समय अनेकानेक ऋषि, मुनि, देवी देवतादि इसके | मृत्यु के समय इसकी आयु सम्भवतः १८६ वर्षों की दर्शन करने आये थे। इन सारे ऋषिमुनियों को एवं थी। यह उम्र में करीब अपनी सौतेली माँ सत्यवती का अपने कौरवपांडव बांधवो को इसने नानाविध रूप से | समवयस्क था, तथा सत्यवती का पुत्र व्यास, जो उसे उपदेश दिया। इसने दुर्योधन से कहा, 'मेरी मृत्यु कौरव | कौमार्य अवस्था में हुआ था, वह तो इससे कहीं अधिक पाण्डवों के बीच हए वैरभाव की अन्तिम आहति हो. तो | छोटा था। अच्छा है। इससे तुम सभी विनष्ट होने से बच जाओगे'। भीष्मचरित्र का एक कलंकित क्षण--भीष्म कौरव- यह आजीवन कर्ण को हेय दृष्टि से देखता रहा, कारण | वंश का वह प्रकाशस्तम्भ था, जिसने आजीवन लोगों कि वह जन्म से हीन था । कर्ण भी हृदय से इसका आदर | को अपने चरित्र, कार्य, एवं रीतिनीति से आलोकित न करता था। किन्तु अन्तिम समय, जब कण इससे मिलने | कर, उसे सन्मार्ग दिखाया। फिर भी इसके जीवन में एक प्रा. च. ७३]
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