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ब्रह्मन्
प्राचीन चरित्रकोश
ब्रह्मन्
महाभारत में अन्यत्र कहा है कि, सृष्टि के प्रारम्भ में शतरूपा एक बार आकाशमार्ग से ऊपर जा रही थी। सर्वत्र अन्धकार ही था। उस समय एक विशाल अण्ड अतएव इसने जटाओं के उपर एक पाँचवाँ मुख भी प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण प्रजाओं का अविनाशी बीज था। धारण किया था, किन्तु वह बाद को शंकर द्वारा तोड़ डाला उस दिव्य एवं महान् अण्ड में से सत्यस्वरूप ज्योर्तिमय गया । इसे स्त्री के रूप सौन्दर्य में लिप्त होने कारण, अपने सनातन ब्रह्म अन्तर्यामी रूप से प्रविष्ट हुआ । उस अण्ड से उस समस्त तप को जड़मूल से खों देना पड़ा, जो इसने ही प्रथमदेहधारी प्रजापालक देवगुरु पितामह ब्रह्मा का अपने पुत्र प्राप्ति के लिए किया था (मत्स्य. ३.३०-४०)। अविर्भाव हुआ। एक तेजोमय अण्ड से सृष्टि का निर्माण जैमिनिअश्वमेध' में ब्रह्मा की एक कथा प्राप्त है, जिससे होने की यह कल्पना, वैदिक प्रजापति से, चिनी 'कु' प्रतीत होता है कि, अति प्राचीन काल में ब्रह्मा को चार से देवता से, एवं मिस्र 'रा' देवता से मिलती जुलती है भी अधिक मुख प्राप्त थे। बक दाल्भ्य नामक ऋषि को (प्रजापति देखिये, म. आ. १.३०; स्कंद. ५.१,३)। यह अहंकार हो गया था कि, मैं ब्रह्मा से भी आयू में
विष्णु के अनुसार, विश्व के उत्पत्ति आदि के पीछे ज्येष्ठ हूँ। उसका यह अहंकार चूर करने के लिए, ब्रह्मा ने अनेक अज्ञात एवं अगम्य शक्तियों का बल सन्निहित है, जो पूर्वकल्प में उत्पन्न हुए ब्रह्माओं का दर्शन उसे कराया। उन स्वयं ब्रह्मन् है । यह स्वयं उत्पत्ति आदि की अवस्था से ब्रह्माओं को चार से भी अधिक मुख थे, ऐसा स्पष्ट निर्देश अतीत है। इसी कारण इसकी उत्पत्ति की सारो कथाएँ प्राप्त है (जै. अ.६०-६१)। औपचारिक हैं (विष्णु. १.३ )।
___ शंकर से विरोध-शंकर ने इसका पाँचवा मुख महाभारत में ब्रह्मन् के अनेक अवतारों का वर्णन प्राप्त | क्या ताड़ा इसका विभिन्न कथाय पुराणों में प्राप्त है। है, जहाँ इसके निम्नलिखित अवतारों का विवरण दिया | मत्स्य के अनुसार, एक बार शंकर की स्तुति कर ब्रह्मा गया है:-- मानस, कायिक, चाक्षुष, वाचिक, श्रवणज, ने उसे प्रसन्न किया एवं यह वर माँगा कि वह उसका नासिकाज, अंडज, पद्मज ( पान') । इनमें से ब्रह्मन् का | पुत्र बने। शंकर को इसका यह अशिष्ट व्यवहार सहन न पद्मज अवतार अत्यधिक उत्तरकालीन माना जाता है | हुआ, और उसने क्रोधित होकर शाप दिया. 'पुत्र तो (म. शां. ३५७.३६-३९)।
तुम्हारा मैं बनूँगा, किन्तु तेरा यह पाँचवा मुख मेरे द्वारा सृष्टि के सृजन के समय, इसने सृष्टि के सृजनकर्ता ही तोड़ा जायेगा। ब्रह्मा, सिंचनकर्ता विष्णु, एवं संहारकर्ता रुद्र ये तीनों रूप सृष्टिनिर्माण के समय इसने 'नीललोहित' नामक शिवास्वयं धारण किये थे। यही नहीं, सृष्टि के पूर्व मत्स्य, तथा वदार का निर्माण किया। शेष सृष्टि का निर्माण करते सृष्टि के सृजनोपरांत वाराह अवतार भी लेकर इसने समय, इसने उस शिवावतार का स्मरण न किया, जिसपृथ्वी का उद्धार भी किया था।
| कारण क्रुद्ध होकर उसने इसे शाप दिया, 'तुम्हारा पाँचवाँ चतुर्मुख--यह मूलतः एक मुख का रहा होगा, किन्तु | मस्तक शीघ्र ही कटा जायेगा। पुराणों में सर्वत्र इसे चतुर्मुख कहा गया है, एवं उसकी मत्स्य में अन्यत्र लिखा है कि, इसके पाँचवें मुख के कथा भी बताई गयी है। इसने अपने शरीर के अर्धभाग कारण बाकी सारे देवों का तेज हरण किया गया। एक से शतरूपा नामक एक स्त्री का निर्माण किया, जो इसकी दिन यह अभिमान में आकर शंकर से कहने लगा, 'इस पत्नी बनी । शतरूपा अत्यधिक रूपवती थी। यह उसके पृथ्वी पर तुम्हारे अस्तित्त्व होने के पूर्व से मैं यहाँ निवास रूप के सौन्दर्य में इतना अधिक डूब गया कि, सदैव ही करता हूँ, मैं तुमसे हर प्रकार ज्येष्ठ हूँ। यह सुनकर उसे देखते रहना ही पसन्द करता था।
क्रोधित हो कर शंकर ने सहजभाव से ही इसके मस्तके एक बार अनिंद्य-सुंदरी शतरूपा इसके चारों ओर | को अपने अंगूठे से मसल कर पृथ्वी पर ऐसा फेंक दिया, परिक्रमा कर रही थी। वहीं पास में इसके मानसपुत्र भी | मानों किसी ने फूल को क्रूरता के साथ डाली से नोच कर बैठे थे। अब यह समस्या थी कि, शतरूपा को किस | जुदा कर दिया हो (मत्स्य १८३. ८४-८६)। इसका प्रकार देखा जाये कि, वह कभी आँखो से ओझल न | मस्तक तोड़ने के कारण, शंकर को बाहत्या का पाप हो । बार बार मुड़ मुड़कर देखना पुत्रों के सामने अभद्रता | लगा । उस पाप से छुटकारा पाने के लिये, ब्रह्मा के कपाल थी। अतएव इसने एक मुख के स्थान पर चार मुख | को लेकर उसने कपालीतीर्थ में उसका विसर्जन किया धारण किये, जो चारों दिशाओं की ओर देख सकते थे। । ( पद्म. सृ. १५)।
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