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________________ धन्वन्तरि प्राचीन चरित्रकोश धन्वन्तरि ३५) । आधुनिक भिपम्बर एवं वैद्य उसे 'धन्वन्तरि ( शरीरशास्त्र), २. पाल (रोग), २. ग्रह (भूत स्तोत्र' नाम से नित्य पठन करते है: प्रेतादि विकार ), ४. उर्ध्वंग ( शिरोनेत्रादि विकार ), ५. शल्य ( शस्त्रघातादि विकार ), ६. दंष्ट्रा (विषचिकित्सा ), ७. जरा (रसायन), ८. वृष ( वाजीकरण ) (ह.वं. २९.२० ) । अयोदधेर्मथ्यमानात् काश्यपैरमृतार्थिभिः । उदतिष्ठन्महाराज पुरुषः परमाद्भुतः ॥ दीर्घपीवर दोर्दण्डः कम्बुग्रीवोऽरुणेक्षणः । श्यामस्तरुणः कम्बी सर्वाभरणभूषितः ॥ पीतवासा महोरस्कः सुमृष्टमणिकुण्डलः । स्निग्धकुञ्चितकेशान्तः सुभगः सिंहविक्रमः ॥ पूर्णकलशं चिद्वयभूषितः । वै विष्णोरंशांशसंभवः ॥ भगवतः साक्षाद् धन्वन्तरिरिति ख्यातः आयुर्वेद इज्यभाक् । स ' धन्वन्तरि की मूर्ति के बारे में, दक्षिण भारतीय तथा उत्तर भारतीय ऐसे कुल दो पाठ उपलब्ध हैं । उस प्रकार की मूर्तियाँ भी प्राप्त हैं। दक्षिण की धन्वन्तरि की मूर्ति आंध्र फार्मसी ने मद्रास में तैयार की है। उत्तर की मूर्ति, गीर्वाणंद्र सरस्वति कृत 'प्रपंच सार ग्रंथानुसार तैयार की गयी है, एवं वह काशी में वैद्य त्र्यंबक शास्त्री के पास श्री । दोनों मूर्तियों की तुलना करने पर पता चलता है कि, । वे समान नहीं है। उन में दाहिनी ओर की वस्तुएँ बाय । ओर, तथा बायीं ओर की वस्तुएँ दाहिनी ओर दिखायी दी गयी हैं । दक्षिण की मूर्ति में दाहिने उपरवाले हाथ में चक्र है। काशी की मूर्ति के उसी हाथ में शंख है। दक्षिण के नीचेवाले दाहिने के हाथ में जोंक हैं, तो काशी की मूर्ति के हाथ में अमृतकुंभ है । बाई ओर के हाथों के बारे में भी यही फर्क दिखाई देता हैं । इसे केतु नामक पुत्र था । (ब्रहा. १३.६५; वायु. ९. २२; ९२; ब्रह्मांड, २.६७ . भा. ९.४१ ) । सुविख्यात आयुर्वेदाचार्य धन्वन्तरि दिवोदास इसका पौत्र वा प्रपौत्र था। उसके सिवा इसके परंपरा के भेल, पाठकाप्य आदि भिषग्वर भी 'धन्वन्तरि' नाम से ही संबोधित किये जाते है । विक्रमादित्य के नौ रत्नों में भी धन्वन्तरि नामक एक भिषग्वर था। , २. (सो. काश्य.) काशी देश का राज एवं 'अष्टांग आयुर्वेदशास्त्र का प्रवर्तक । यह काशी देश के धन्य (धर्म) राजा का पुत्र एवं दीर्घतपस् राजा का वंशज था। विष्णु भगवान् के आशीर्वाद से, समुद्रमंथन से उत्पन्न धन्वन्तरि नामक विष्णु के अवतार ने पृथ्वी पर पुनर्जन्म लिया । वही पुनरावतार यह था ( धन्वन्तरि १. देखिये ) । दूसरे युगपर्यय में से द्वापर युग में, काशिराज धन्व ने के लिये, तपस्या एवं अब्जदेव की आराधना पुत्र की। अब्जदेव ने धन्व के घर स्वयं अवतार लिया। गर्भ में से ही आणिमादि सिद्धियाँ इसे प्राप्त हो गयी थीं। भारद्वाज ऋषि से इसने भिषक् क्रिया के साथ आयुर्वेद सीख लिया, एवं अपनी प्रजा को रोगमुक्त किया। उस महान कार्य के लिये, इसे देवत्व प्राप्त हो गया। इसने आयुर्वेदशास्त्र 'अष्टांगों' ( आठ विभाग ) में भक्त किया। वे विभाग इस प्रकार है: - १. काय धन्वन्तरि-मनसा युद्ध--सर्पदेवता मनसा तथा वैद्यविद्यासंपन्न धन्वन्तरि राजा के परस्परविरोध की एक कथा महावैवर्त पुराण कृष्णजन्मखंड में दी गयी है। एक दिन, धन्वन्तरि अपने शिष्यों के साथ कैलास की ओर जा रहा था। मार्ग में तक्षक सर्प अपने विपारी फूलकार डालते हुए इन पर दौड़ा शिष्यों में से एक को औषधि मालूम होने के कारण, बड़े ही अभिमान से वह आगे बढ़ा। उसने तक्षक को पकड़ कर, उसके सिर का मणि - निकाल कर, निकाल कर, जमीन पर फेंक दिया । यह वार्ता सर्पराज वासुकि को ज्ञात हुई । उसने हजारों विषारी सर्प द्रोण, कालीय, कर्कोट, पुंडरीक तथा धनंजय के नेतृत्व में भेजे । उनके श्वासोच्छ्वास के द्वारा बाहर आई बिपारी वायु से, धन्वन्तरि के शिष्य मूर्च्छित हो गये। धन्वन्तरि ने, वनस्पतिजन्य औषध से उन्हें सावधान कर के, उन सपों को अचेत किया। वासुकि को यहं शाल हुआ। उसने शिवशिष्य मनसा को भेजा। मनसा तथा गहूर शिवभक्त थे। धन्वन्तरि, गदूर का अनुयायी था । जहाँ धन्वन्तरि था, वहाँ मनसा आई। उसने धन्वन्तरि के शिष्यों को अचेत कर दिया। इस समय स्वयं धन्वन्तरि भी, शिष्यों को सावधान न कर सका । मनसा ने स्वयं धन्वन्तरि को भी, मंत्रतंत्र से अपाय करने का प्रयत्न किया, किंतु वह असफल रही । तब शिव द्वारा दिया गया त्रिशुल वह इस पर फेंकने ही वाली थी कि, शिव तथा ब्रह्म वहाँ आये । उन्होंने वह झगड़ा मिटाया । अंत में मनसा तथा धन्वन्तरि ने एक दूसरे की पूजा की। उसके बाद रात्र सर्प, देव, मनसा तथा धन्वन्तरि, अपने अपने स्थान रवाना हुएँ (ब्रह्मवै कृष्ण १.५१ ) । ३१६ •
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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