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सात्यकि
प्राचीन चरित्रकोश
सात्यकि
इसे निम्नलिखित नामान्तर भी प्राप्त थे:-१. सात्वत | कृष्ण की काफी सहायता की थी (भा. १०.७८ )। कृष्ण (म. द्रो. ७३.१३; ८८.१५); २. दाशार्ह (म. द्रो. | के अश्वमेधीय अश्व के साथ यह उपस्थित था। ११७.४); ३. शैनेय; ४. माधव, जो नाम इसे मधु पाण्डवों का मित्र--कृष्ण के समान यह भी पाडवों यादव का वंशज होने के कारण प्राप्त हुआ था (म. द्रो. का हितैषी एवं मित्र था। द्रौपदी के स्वयंवर के समय ७३.११; ८८.२६)।
यह उपस्थित था (म. आ. १७७.१७)। अजुन एवं यह वृष्णिकुलभूषण, सत्यप्रतिज्ञ, शत्रुमर्दन वीर था एवं सुभद्रा के विवाह के समय, यह दहेज ले कर इंद्रप्रस्थ इसका स्वभाव अत्यंत क्रोधी एवं निर्भय था । यह कृष्ण को गया था। इंद्रप्रस्थ में किये गये युधिष्ठिर के राज्याभिषेक अपना ज्येष्ठ मित्र, तथा अर्जुन को अपना अस्त्रविद्या का | के समय यह उपस्थित था। गुरु मानता था, जिस कारण आजन्म यह अपने इन दोनों पांडवों के वनवासकाल में--पांडवों के वनगमन ज्येष्ठ मित्रों की सहायता करता रहा । इसकी गणना महा- | के पश्चात् , इसने कृष्ण एवं बलराम को सलाह दी थी भारतकालीन श्रेष्ठ वीरों में की जाती थी। इसका प्रमाण | 'यादवों के द्वारा धृतराष्ट्रपुत्रों का वध कर, अभिमन्यु निम्नलिखित विदुरबचन में पाया जाता है, जो उसने | को हस्तिनापर के राजगद्दी पर बैठा देने से सारी समस्या धृतराष्ट्र से कहा था :--
छूट जायेगी। इस समय कृष्ण ने इसे पांडवों की प्रतिज्ञा येषां पक्षधरों रामो येषां मंत्री जनार्दनः। याद दिलायी, जिसके अनुसार किसी अन्य के द्वारा . किं न तैरजितं संख्ये येषां पक्षे च सात्यकिः ।। जीता हुआ राज्य उन्हें अस्वीकरणीय था। .
(म. आ. १९७.२०)। युद्ध का समर्थन--कृष्णदौत्य के पूर्व संपन्न हुई यादव(जिस पक्ष में बलराम एवं सात्यकि जैसे वीरप्रवर | सभा में, पांडवों की माँग की न्यायसंगतता एवं उचितता हैं, एवं जिनके मंत्री स्वयं श्रीकृष्ण है, उन पाण्डवों के इसने स्पष्ट शब्दों में कथन की थी (म. उ. ३ )। पांडवों लिए युद्ध में अजेय क्या हो सकता है ?)
के शांतिदूत के नाते कौरवों के यहाँ जानेवाले कृष्ण से स्वरूपवर्णन-- इसका सविस्तृत स्वरूपवर्णन महा- | इसने पुनः पुनः यही कही कहा था कि, केवल युद्ध के भारत में अर्जुन के द्वारा निम्नप्रकार किया गया है:- द्वारा ही पांडवों के न्याय्य माँगों की रक्षा की जा सकती है। 'महान् स्कंध एवं विशाल वक्षःस्थलवाला, अजानुबाहु, । इस समय शान्ति का पुरस्कार करनेवाले कायर लोगों की महाबली, महावीर्यवान् , एवं महारथी सात्यकि मेरा | कटु आलोचना करते हुए इसने कहा :शिष्य एवं मेरा सखा है' (म. द्रो. ८५.६०)।
नाधर्मो विद्यते कश्चिच्छन् हत्वाऽततायिनः । विद्याव्यासंग-इसने श्रीकृष्ण से अस्त्रविद्या प्राप्त
अधय॑मयशरयं च शात्रवाणां प्रयाचनम् ।। की थी (भा. ३.१.३१) । अर्जुन से भी इसने युद्ध विद्या एवं धनुर्विद्या सीखी थी (भा. ३.१. म. द्रो. १५६.१४)।
(म.उ. ४.२०)। वृष्णिवंशीय यादवों के सात अतिरथी वीरों में इसकी (आततायी शत्रु का वध करना अधर्म नहीं है, बल्कि गणना की जाती थी। इसके रथ के अश्व शुभ्र एवं रुपहले | ऐसे शत्रु से कुछ याचना करना अपमान एवं अधर्म थे ( म. द्रो. २३.२७७३.११,११५.१)।
कृष्ण का सहायक--कृष्ण के द्वारा किये गये हर एक पश्चात् यह अपने सवारे हुए रथ में चैट कर, कृष्ण युद्ध में यह उसका प्रमुख सहायक रहा करता था। के साथ हस्तिनापुर गया था (म. उ.७९-८१)। बाणासर के युद्ध में यह कृष्ण के साथ उपस्थित था, एवं कौरवों की राजसभा में--कौरवसभा में कर्ण, शक नि. इसने बाणासुर के मंत्री कुभाण्ड से युद्ध किया था (भा. | एवं दुर्योधन ने श्रीकृष्ण को पकड़ने की मंत्रणा की। उस १.३.१६ )। जरासंध के आक्रमण के समय, मथुरानगरी | समय इसने कृतवर्मन् से अपनी सेना व्यूहाकार में संनद्ध के पश्चिम द्वार के संरक्षण का भार इसके ऊपर था। करने की आज्ञा दी। पश्चात् अत्यंत निर्भयतापूर्वक कौरवउस समय इसने जरासंध की सेना को परास्त कर उसका सभा में प्रवेश कर इसने दुर्योधन एवं उसके मित्रों की पाँच योजनों तक पीछा किया था (भा. १०.५०.२०)। अत्यंत. कटु आलोचना की। कृष्ण जैसे पाण्डवों के राजदत शाल्बयद्ध के समय इसने द्वारका नगरी का रक्षण किया को कैदी बनाने का दुर्योधन का षड्यंत्र इस प्रकार विल ' था ( भा. १०.५२)। पौण्डक वासुदेव के युद्ध में, इसने । हुआ।
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