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________________ इक्ष्वाकु प्राचीन चरित्रकोश याकु, अयोध्या का पहला राजा था ( वा. रा. अयो. ११० ) । इसे मन्यदेश मिला था . . ११० नि १.६५.२८९ ब्रह्माण्ड २.६०.२०१ मत्स्य १२.१५) । यह क्षुप का पुत्र है ऐसा भी कहीं कहीं उल्लेख हैं । क्षुप ने प्रजापालनार्थ इसे एक खड्ग दी थी ( म. शां. १६०. ७२; आव. ४.३ ) । वंशावली में प्रत्यक्ष क्षुप का उल्लेख नही है । एक समय इश्वाकु यात्रा करते हिमालय की तलहटी के पास आया। वहाँ जा करनेवाला कौशिक नाम का ब्राह्मण था । उसका यम, ब्राह्मण, काल तथा मृत्यु के साथ, निष्काम जप के संबंध में संवाद हुआ। उस समय यह था म. शां. १९२ ) । इक्ष्वाकु कुल में पैदा हुए व्यक्तियों के लिये भी, इक्ष्वाकु कुलनाम दिया गया है। अलंबुपा के पति का नाम तृणबिंदु न हो कर इक्ष्वाकु था, ऐसा निर्देश है (वायु. ८६.१५; वा. रा. बा. ४७.११ ) । श्या के सौ पुत्र थे (ह. बं. १.११ दे. मा. ७.९ मा ९, ६ . अनु. ५ म. आ.. ७५) । इसके पुत्र का नाम विकुक्षि था। वाकु के पश्चात् यही "अयोध्या का राश हुआ। विकुक्षि से निर्मिवंश निर्माण हुआ इकु को दंडक नामक एक विद्याविदीन पुत्र भी था। इसी के नाम से दंडकारण्य बना ( वा. रा. उ. ९- मा. ९.६० विष्णु. ४.२ ) । इसके दसवें पुत्र का नाम शाश्व था। वह माहिष्मती का राजा था (म. अनु. २. ६ ) । विष्णु पुराण में इक्ष्वाकु के एक सौ एक पुत्र • होने का निर्देश है ( ४.२ ) । इक्ष्वाकु ने अपना राज्य सौ पुत्रों को बाँट दिया ( म. आर. ४ ) । इसने शकुनिप्रभृति ५० पुत्र को उत्तरभारत तथा शांति प्रभृति ४८ पुत्रों को, दक्षिणभारत का राज्य दिया । अयोध्या में दयाका राज्य तथा बंध बहुत समय तक रहा। ईक्ष्वाकु वंश में बहुत से महान पुरुष हुए, इस कारण बहुत सारे पुराणों में इनकी वंशावलि मिलती है। पुराणों में दी गयी वंशावलियों में, बहुत साम्य होते हुए भी, रामायण में दी गई वंशावलि से वे भिन्न हैं। पुराणों में इक्ष्वाकु से ले कर, भारतीय युद्ध के बृहद्धल तक भागवतानुसार ८८, विष्णुमतानुसार ९३, तथा वायुमतानुसार ९१, पीढ़ियाँ होती हैं । रामायणानुसार इनमें संख्या की अपेक्षा व्यक्तियों में अधिक मिनता है। संशोधकों के मतानुसार वंशावलि की दृष्टि से पुराणों का वर्णन ही अधिक न्यायसंगत होने की संभावना है। इध्म यद्यपि अधिक विस्तार से इसकी वंशावलि उन् है तथापि यह प्रमुख पुरुषों की है, सब पुरुषों की नही ऐसा वहाँ निर्देश है। . (सुमित्र, राम तथा श्वान देखिये) । इसकी पत्नी सुदेवा ( पद्म. भू. ४२ ) । इट भार्गवस्ता इंद्र ने इस के रथ की रक्षा की (ऋ. १०.१७१.१ ) । इत् काव्य-केशिन् दा का समकालिक (सां. ब्रा. ७.४ ) । इतरत्र भी यह नाम आया है ( पं. बा. १४.९.१६ ) । ६७ इडविड- ( स. इ. ) शतरथ का दूसरा नाम । इडविडा इवित्य देखिये | - इस्पति - ( स्वा.) भागवतमतानुसार यज्ञ एवं दक्षिणा का पुत्र । २. स्वारोचिष मन्वंतर का देव विशेष । इडा -- मनु की कन्या | मनोरवसर्पण के पश्चात्, मनु ने संतति प्राप्ति के लिये यश किया जिससे उसे पुत्री हुई उसका नाम इटा था (श.मा. १.६.२.६-११ ) | मनु की संबंधी तथा यज्ञतत्त्वों का प्रकाशन करने वाली, इडा नामक एक स्त्री थी। देव तथा अनुरों ने अग्न्याधान किया यह सुन कर उसे देखने के लिये इडा गयी। उसे दोनो स्थानों पर अग्निस्थापना का क्रम विपरीत दिखाई दिया वह मनु के पास आयी, तथा बोडी, 'देव तथा असुरों की तरह तेरा यज्ञ निष्फल न होत्रे, इसलिये मैं अग्नि की योग्य क्रम से स्थापना करती हूँ ।' मनु ने इडा के द्वारा अग्न्याधान करवाया । इडा ने, १. गार्हपत्य, २. दक्षिणाग्नि तथा ३. आहवनीय इस क्रम से अन्न की स्थापना की इस कारण, मनु का यश सफल हुआ। यह प्रजा तथा पशुओं से समृद्ध हुआ (तै. ब्रा. १.१.४ ) । मनु यज्ञ कर रहा था तब उस यज्ञ के कारण देवताओं ने बहुत ऐश्वर्य प्राप्त किया । एक समय, इडा मनु के पास गयी, तब देवताओं ने प्रत्यक्ष रूप से तथा असुरों ने अप्रत्यक्ष रूप से इडा को निमंत्रण दिया । वह देवताओं के पास गयी। इस कारण सारे प्राणी देवताओं की ओर गये, तथा उन्होंने असुरों का त्याग किया (तै. सं. १. ७.१ ) । इतरा-ऐतरेय देखिये। पांचवे और छठवें मरुद्गण में से एक। इम (स्वा.) भागवतमतानुसार यशपुत्र । २. स्वारोचिष मन्वंतर का देव ।
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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