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पंचशिख
प्राचीन चरित्रकोश
पंचाल
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उपदेश पंचशिख ने अनदेव जनक को दिया (म. शां. उन पर सांख्यकारिका का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। ( वेदान्तसूत्र २.१.१८ ) । कनिष्ठ अधिकारियों के लिये एवं न्याय, मध्यम अधिकारियों के लिये सांख्य, और उत्तम अधिकारियों के लिये वेदान्त का कथन किया गया है । सांख्यदर्शन में प्रकृति के विभिन्न रूपगुणों की व्याख्या परिमाणवाद या विकासवाद का प्रतिपादन, पुरुष एवं प्रकृति का विवेचन, पुनर्जन्म, मोक्ष एवं परमतत्त्व का विश्लेषण, बहुत ही सुक्ष्म एवं वैज्ञानिक दृष्टि से किया गया है ( गेरौला - संस्कृत साहित्य का इतिहास ४७१४७३ ) ।
२. दधिवाहन नामक शिवावतार का शिष्य । पंचहस्त - दक्षसावर्णि मनु का पुत्र ।
२११-२१२ ) ।
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पंचशिख का एक और शिष्य धर्मध्वज जनक राजा था ( म. शां. ३०८ ) । महाभारत में प्राप्त सुलभा धर्मध्वज जनक संवाद' में, धर्मध्वज ने इसे अपना गुरु कहलाया है ।
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भारतीय षड् दर्शनों की परंपरा में 'सांख्यदर्शन' सब से प्राचीन है । उस शास्त्र के दर्शनकारों में पंचशिख पहला दार्शनिक आचार्य माना जाता है । निम्नलिखित लोगों को पंचशिख ने सांख्यशास्त्र सिखाया थाः (१) ' सिखाया थाः - ( १ ) धर्मध्य जनक (२) विश्वावसुगंध (म. शां. ३०६ ५८ ) ; ( ३ ) काशिराज संयमन ( म. शां. परि. १. क्र. २९) ।
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पंचशिख 'पराशर गोत्रीय था । संन्यासधर्म एवं तत्त्वज्ञान का इसे पूर्ण ज्ञान था वह ब्रह्मनि था, एवं इसमें ' उहापोह (ब्रह्मशन का ग्रहण एवं प्रदान ) की शक्ति थी। इसने एक सहस्र वर्षों तक मानसयश ' किया था । — पंचरात्र ' नामक यज्ञ करने में यह निष्णात था ( म. शां. २११; नारद. १.४५ ) ।
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शुक्लयजुर्वेदियों के ‘ब्रह्मयज्ञांगतर्पण' में इसका निर्देश प्राप्त है ( पारस्करगृह्य परिशिष्ट मस्त्य. १०२. १८ ) । ग्रंथ' सांख्यशास्त्र' पर इसने परिक्षेत्र' नामक एक ग्रंथ भी लिखा था ( योगसूत्रभाष्य. १. ४ २ १३; ३. १३ ) । वह ग्रंथ आज उपलब्ध नहीं है। सांख्यदर्शन पर उपलब्ध होनेवाला प्राचीनतम ग्रंथ ईश्वर कृष्ण का 'सांख्यकारिका है ईश्वरकृष्ण का काल चौथी शताब्दी के लगभग माना जाता है ।
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सांख्यतत्वज्ञान --सांख्य अनीश्वरवादी दर्शन है । पुरुष एवं प्रकृति ही उसके प्रतिपादन के प्रमुख विषय हैं। सांख्य के अनुसार, प्रकृति एवं पुरुष अनादि से प्रभुत्वबान् है।' मैं सुखदुःखातिरिक्त तीन गुणों से रहित हूँ, इस प्रकार का विवेक प्रकृति एवं पुरुष में उत्पन्न होता है, समशानोपलब्धि होती है। जय प्रारम्भ कर्म का भोग समाप्त होकर आत्मतत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है, तब मोक्षप्राप्ति हो जाती है।
पंचाल - शतपथ ब्राह्मण फालीन एक लोकसमूह (श. ब्रा. १२.५ ४.७ . बा. २.२९१)
यही लोग 'क्रिवि' नाम से एवं महाभारतकाल में ये लोग ' पांचाल नाम से प्रसिद्ध थे (म. आ. ५५२१६ पांचाल देखिये) ।
पंचाल लोगों का निर्देश प्रायः कुरु लोगों के साथ. आता है । कुरु पंचालों के राजाओं का निर्देश 'ऐतरेय' ब्राह्मण' में प्राप्त है ( ऐ. बा. ८.१४ ) । उनमें से क्रैव्य, दुर्मुख प्रवाहण जेवलि पर्व शोन ये पंचाल राजा प्रधान एवं महत्वपूर्ण है। केशिन् दाल्भ्य नामक और एक पंचाल राजा का निर्देश 'काटक संहिता' में प्राप्त है (का. सं. २.२ ) । इन लोगों के नगरों में, 'परिचक्रा कॉपील, कौशांबी ये प्रमुख थे (श. प्रा. १२.५. ४.७ ) ।
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पंचाल लोगों के अंतर्गत 'किवियों के अतिरिक्त थीं। ' अन्य जातियाँ भी सम्मीलित थी 'पंचाल नाम से पाँच जातियों का संदर्भ प्रतीत होता है। ऋग्वेद में निर्देशित पाँच अतियों (पंच) एवं पंचाल एक ही थे, ऐसा कई अन्यासकों का कहना है (चवन देखिये) ।
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पंचाल देश के ब्राह्मण दार्शनिक एवं भाषाशास्त्रीय वादविवादों में प्रवीण रहते थे (बृ. उ. ६.११. छ. उ. ५.२.१) । महाभारतकाल में पंचाल देश का उत्तर एवं दक्षिण के रूप में विभाजन किया गया था। किंतु वैदिक साहित्य में उस विभाजन का कुछ उल्लेख नहीं मिलता ।
२. (सो. नील. ) भद्राश्व ( भर्म्याश्व ) राजा के पाँच पुत्रों के लिये प्रयुक्त सामूहिक नाम 'पंच अहम् '
सांख्य सत्कार्यवादी दर्शन है। सत्कार्यवाद की स्थापना के लिये, उस दर्शन में, असदकरण, उपादानग्रहण, सर्वसंभवाभाव, शक्यकरण एवं कारणाभव ये पाँच हेतु दिये गये है (सांख्यकारिका ) । शंकराचार्यजी ने भी न्याय के असत्कार्यवाद के खंडनार्थ जो युक्तियों कथन की है,
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