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प्राचीन चरित्रकोश
रुद्र
एकाक्ष एवं दंतविहीन बनाया था, एवं यज्ञ देवता को परिवार-रुद्र-शिव को निम्नलिखित दो पत्नियाँ थी:मृग का रूप ले कर भागने पर विवश किया था। । १. दक्षकन्या सती; २. हिमाद्रिकन्या पार्वती (उमा)
भूतपिशाचों के गणों के वीरभद्र आदि अधिपति इसके | (दक्ष, सती एवं पार्वती देखिये)। ही पुत्र माने जाते हैं । इसी कारण इसको एवं इसकी रुद्र को सती से कोई भी पुत्र नही था। पार्वती से पत्नी को क्रमशः 'महाकाल' एवं 'काली' कहा गया है । | इसे निम्नलिखित दो पुत्र उत्पन्न हुये थे:--१. गजानन स्कंद में इसे सात सिरोंवाला कहा गया है, जिनमें से हर | (गणपति), जो पार्वती के शरीर के मल से उत्पन्न हुआ एक सिर अज, अश्व, बैल आदि विभिन्न प्राणियों से बना | था; २. कार्तिकेय स्कंद, जो शिव का सेनापति था (गणपति हुआ था। इन सिरों में से अपना अज एवं अश्व का सिर, | एवं स्कंद देखिये)। इसने क्रमशः ब्रह्मा एवं विष्णु को प्रदान किया था। । उपर्युक्त पुत्रों के अतिरिक्त, पार्वती ने भूतपिशाचाधि
वामन आदि पुराणों में रुद्र के तामस स्वरूप का | पति वीरभद्र को, एवं बाणासुर को अपने पुत्र मान लिया अधिकांश वर्णन प्राप्त है। भतपतित्व, शीघ्रकोपित्व, एवं | था. जिस कारण ये दोनों भी शिव के पुत्र ही कहलाते हैं आहारादि में मद्यमांस की आधिक्यता, ये रुद्र के तामस (वीरभद्र एवं बाण देखिये)। इसने शैलादपुत्र नंदिन् स्वरूप की तीन प्रमुख विशेषताएँ है।
| को भी अपना पुत्र माना था (नंदिन देखिये)। शिवदेवता की उत्क्रांति-इस तरह हम देखते है | रुद्रोपासना-रुद्र शिव की उपासना प्राचीन भारतीय कि. रुद्र-शिव के उपासकों के मन में इस देवता | इतिहास में अन्य कौनसे भी देवता की अपेक्षा प्राचीन की दो प्रतिमाएँ प्रस्तुत की गयी हैं। इन ग्रंथों में है। ऐतिहासिक दृष्टि से रुद्र-शिव की इस उपासना के निर्दिष्ट तामस रुद्र का वर्णन ज्ञानप्रधान एवं योग- दो कालखंड माने जाते हैं:- १. जिस काल में शिव की साधना में मग्न हुए शिव से अलग है। वेदों के पूर्व- | प्रतिकृति की उपासना की जाती थी; २. जिस काल में कालीन अनार्य रुद्र का उत्क्रान्त आध्यात्मिक रूप शिव शिव की प्रतिकृति के उपासना का लोप हो कर, उसका माना जाता है । ऋग्वेद एवं ब्राह्मण ग्रन्थों में जो रुद्र | स्थान शिवलिंगोपासना ने ले लिया। था, वहीं आगे चल कर, उपनिषद ग्रन्थों में शिव बन यद्यपि ऋग्वेद में शिश्न देवता की उपासना करनेवाले गया, एवं उसे परमशुद्ध आध्यात्मिक रूप प्राप्त हो गया। अनार्य लोगों का निर्देश दो बार प्राप्त है (ऋ. ७. २१. उसकी पूजा मद्यमांस से नहीं, बल्कि फलपुष्पादि पदार्थों
५,१०.९९.३), फिर भी रुद्र की उपासना में लिंगोंसे की जाने लगी । कोई न कोई कामना मन में रख कर, |पासना का निर्देश प्राचीन वैदिक वाङ्मय में कहीं भी परमेश्वर की उपासना करनेवाले सामान्य जनों के अति
| प्राप्त नहीं होता है। यही नही, पतंजलि के व्याकरण रिक्त, परब्रह्मप्राप्ति की आध्यात्मिक इच्छा मन में |
महाभाष्य में शिव, स्कंद एवं विशाख की स्वर्ण आदि रखनेवाले तत्त्वज्ञ भी उसे 'महादेव' मानने लगे।
मौल्यवान् धातु के प्रतिकृतियों की पूजा करने का स्पष्ट किंतु सामान्य भक्तों में उनके आध्यात्मिक अधिकार | निर्देश प्राप्त है (महा. ३.९९)। वेम कफिसस् के के अनुसार, शिव के तामस रूप की पूजा चलती ही रही,
| सिक्कों पर भी शिव की त्रिशूलधारी मूर्ति पाई जाती जिसका आविष्कार रुद्र के भैरव, कालभैरव आदि अवतारों है, एवं वहाँ शिव के प्रतीक के रूप में शिवलिंग नहीं, की उपासना में आज भी प्रतीत होता है।
बल्कि नन्दिन् दिखाया गया है। रुद्र-शिव के इसी दो रूपों का विशदीकरण महा
| शिवलिंगोपासना का सर्वप्रथम निर्देश श्वेताश्वतर उपभारत में प्राप्त है, जहाँ रुद्र की 'शिवा' एवं 'घोरा' नामक |
* | निषद में पाया जाता है, जहाँ 'ईशान रुद्र' को सृष्टि के दो मूर्तियाँ बतायी गयीं है :
समस्त योनियों अधिपति कहा गया है (श्वे. उ. ४.११; द्वे तनू तस्य देवस्य वेदज्ञा ब्राह्मणा विदुः। ५.२)। किन्तु यहाँ भी शिवलिंग शिव का प्रतीक होने घोरामन्यां शिवामन्यां ते तनू बहुधा पुनः॥ का स्पष्ट निर्देश अप्राप्य है, एवं सृष्टि के समस्त प्राणि
(म. अनु. १६१.३) | जातियों का सृजन रुद्र के द्वारा किये जाने का तात्त्विक (शिव की घोरा एवं शिवा नामक दो मूर्तियाँ है, जिनमें | अर्थ अभिप्रेत है | महाभारत में दिये गये उपमन्यु के से घोरा अग्निरूप, एवं शिवा परमगुह्म अध्यात्मस्वरूप आख्यान में शिवलिंगोपासना का स्पष्ट रूप से निर्देश महेश्वर है)।
प्रथम ही पाया जाता है।