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वीरभद्र
प्राचीन चरित्रकोश
वीरभद्र
७०-८०; वायु. ३०. १२२)। भविष्य में स्वयं शिव | कर आद्य शंकराचार्य का निर्माण हुआ (भवि. प्रति. ही वीरभद्र बनने की कथा प्राप्त है (भवि. प्रति. | ४.१०)।
पराक्रम--यह शिव का प्रमुख पार्षद ही नहीं, बल्कि दक्षयज्ञविध्वंस--उत्पन्न होते ही इसने शिव से उसका प्रमुख सेनापति भी था। शिव एवं शत्रुघ्न के युद्ध प्रार्थना की, 'मेरे लायक कोई सेवा आप बताइये । इस | में, इसने पुष्कल से पाँच दिनों तक युद्ध किया था, एवं पर शिव ने इसे दक्षयज्ञ का विध्वंस करने की आज्ञा अंत में इसने उसका मस्तक विदीर्ण किया था। त्रिपुरदाह दी । इस आज्ञा के अनुसार, यह कालिका एवं अन्य के युद्ध में भी, इसने त्रिपुर का सारा सैन्य निमिषार्ध में रुद्रगणों को साथ ले कर दक्षयज्ञ के स्थान पर पहुँच विनष्ट किया था (पद्म. पा. ४३)। शिव एवं जालंधर के गया, एवं इसने दक्षपक्षीय देवतागणों से घमासान युद्ध युद्ध में भी इसने रौद्र पराक्रम दर्शाया था (पद्म. उ. १७)। प्रारंभ किया।
देवों का संरक्षणकर्ता-यह असुरों का आतंक, एवं रुद्र के वरप्रसाद से इसने समस्त देवपक्ष के योद्धाओं देवों का संरक्षणकर्ता था। एक बार शौकट पर्वत पर को परास्त किया । तदुपरांत इसने यज्ञ में उपस्थित कश्यपादि सारे ऋषि, एवं समस्त देवगण दावामि में घिर ऋषियों में से, भृगु ऋषि की दाढी एवं मूंछे उखाड़ दी, कर भस्म हुए। तदुपरात इसन समस्त दावान का प्राशन भग की आँखें निकाल ली, पूषन के दाँत तोड दिये। किया, एवं मंत्रों के साथ सिद्ध किये गये भस्म से
सारे ऋषियों को, एवं देवताओं को पुनः जीवित किया। चाहा । किंतु वह न टूटने पर, इसने घुसे मार कर उसे इसी प्रकार एक सर्प के द्वारा निगले गये देवताओं की कटवा दिया, एवं वह उसीके ही यज्ञकुंड में झोंक दिया। भी, उस सर्प के दो टुकड़े कर इसने मुक्तता की थी। तत्पश्चात् यह कैलासपर्वत पर शिव से मिलने चला गया एक बार पंचमेट नामक राक्षस ने समस्त देवता, ऋषि (भा. ४.५ म. शां. परि. १. क्र.२८; पद्म. सू. २४; एवं वालिसग्रीवों को निगल लिया था। उस समय भी स्कंद. १.१.३-५, कालि. १७; शिव. रुद्र. स. इसने पंचमेढ़ से दो वर्षों तक खङ्ग एवं गदायुद्ध कर, ३२.३७)।
उसका वध किया। भविष्य के अनुसार, दक्षयज्ञविध्वंस के समय दक्ष एवं इस प्रकार देवता एवं ऋषिओं के तीन बार पुनः जीवित यज्ञ मृग का रूप धारण कर भाग रहे थे । उस समय करने के इसके पराक्रम के कारण, शिव इससे अयधिक वीरभद्र ने व्याध का रूप धारण कर उनका वध किया, एवं प्रसन्न हुए, एवं उसने इसे अनेकानेक वर प्रदान किये। एक ठोकर मार कर दक्ष का सिर अग्निकुंड में झोंक दिया | जिस भस्म की सहायता से इसने देवताओं को पुनः (भवि. प्रति. ४.१०; लिंग. १.९६; वायु. ३०)। इसने | जीवित किया था, उसे 'त्रायुष' नाम प्राप्त हुआ (पद्मा. अपने रोमकुपों से 'रौम्य' नामक गणेश्वर निर्माण किये | पा. १०७)। आगे चल कर, देवताओं ने भी इसकी थे (म. शां. परि. १.२८)।
स्तुति की थी (लिंग. १.९६)। वरप्राप्ति-दक्षयज्ञविध्वंस के पश्चात् , यह समस्त वीरक-आख्यान-पान में प्रास 'पार्वती-आख्यान' में सृष्टि का संहार करने के लिए प्रवृत्त हुआ, किन्तु शिव | इसे 'वीरक' कहा गया है, एवं इसे पार्वती का प्रिय पार्षद ने इसे शान्त किया। तदुपरान्त शिव ने आकाश में स्थित
| कहा गया है। गौरवर्ण प्राप्त करने के हेतु. पार्वती जब ग्रहमालिका में 'अंगारक' अथवा 'मंगल' नामक ग्रह बनने तपस्या करने गयी थी, उस समय उसने इसे शिव की सेवा का इसे आशीर्वाद दिया, एवं वरप्रदान किया, 'तुम समस्त करने के लिए नियुक्त किया था ( पद्म, सू. ४३-४४) । ग्रहमंडल में श्रेष्ठ ग्रह कहलाओगे । सकल मानवजाति द्वारा नृसिंहदमन--लिंग में वीरभद्र को शिव का । भैरवतुम्हारी पूजा की जायेगी, एवं जो भी मनुष्य तुम्हारी पूजा स्वरूप' कहा गया है, एवं इसके द्वारा किये गये नृसिंह करेगा, उसे आयुष्य भर आरोग्य, एवं ऐश्वर्य प्राप्त होगा' दमन की कथा भी वहाँ प्राप्त है। विष्णु का नृसिंहअव(भा. ७.१७; वायु. १०१.२९९; पन. स. २४)। तार हिरण्यकशिपु के वध के पश्चात् , जब विश्वसंहार के
दक्षयज्ञविध्वंस के पश्चात् , शिव की आज्ञा से इसने लिए उद्यत हुआ, तब शिव ने वीरभद्र को उसका दमन भपने तेज का कुछ अंश अलग किया, जिससे आगे चल | करने की आज्ञा दी।
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