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________________ त्रिपुर . प्राचीन चरित्रकोश त्रिशंकु युद्ध प्रारंभ किया (मस्त्य. १३०-१३७; भा. ७.१०; सत्यव्रत था। परंतु वसिष्ठ के शाप के कारण, इसे त्रिशंकु म. अनु. २६५.३१ कुं.)। नाम प्राप्त हुआ। इनसे युद्ध करते समय शंकर के शरीर से जो धर्मबिंदु इसका तथा इसका पिता व्यय्यारुण, एवं पुत्र हरिश्चंद्र निकले, वे ही रुद्राक्ष बने (पन. सृ.५९)। जिन अमृत- का कुलोपाध्याय 'देवराज' वसिष्ठ था। वसिष्ठ से त्रिशंकु कुंडों के कारण ये अमर थे, उनका प्राशन देवताओं ने | का पहले से ही शत्रुत्व था। कान्यकुञ्ज का राजा विश्वरथ, गोरूप से कर लिया। पश्चात् शिवजी ने त्रिपुर का दहन | जो आगे तपसाधना से विश्वामित्र ऋषि बना, त्रिशंक का किया (पा. स. १३)। इसी समय ताराक्ष, कमलाक्ष मित्र एवं हितैषी था। वसिष्ठ एवं विश्वामित्र इन दो तथा विद्युन्मालि असुरों का अंत हुआ (म. द्रो. १७३. | ऋषियों के बीच, त्रिशंकु के कारण जो झगड़ा हुआ, उससे ५२-५८; लिंग. १.७०-७२)। त्रिशंकु का जीवनचरित्र नाट्यपूर्ण बना दिया है। त्रिपुरसुंदरी-एक देवी। अर्जुन को इसने बाला- वसिष्ठ एवं त्रिशंकु के शत्रत्व की कारणपरंपरा, 'देवी विद्या दी (पद्म. पा. ७४)। . भागवत ' में दी गयीं है। यह शुरू से दुर्वर्तनी था। इस त्रिबंधन-(सू. इ.) भागवत के मतानुसार अरुण | कारण इसके बारे में किसी का भी अनुकूल मत न था। का पुत्र (त्रिधन्वन् देखिये)। निबंधन तथा यह एक ही एक बार, इसने एक विवाहित ब्राह्मण स्त्री का अपहार किया। 'उस स्त्री की सप्तपदी होने के पहले मैंने उसे त्रिभानु -(सो. तुर्वसु.) भागवत के मतानुसार | उठा लिया हैं, अतः मैं दोषरहित हूँ,' ऐसा इसका भानुमत् राजा का पुत्र। इसका पुत्र करंधम। विष्णु में कहना था। किंतु इसकी एक न सुन कर, इसे राज्य के इसे त्रैशांब, वायु में त्रिसानु, तथा मत्स्य में त्रिसरि कहा बाहर निकालने की सलाह, वसिष्ठ ने इसके पिता को दी । गया है। पिता ने इसे राज्य के बाहर निकाल दिया। वह स्वयं, त्रिमार्टि-अंगिराकुल का गोत्रकार । दूसरा अच्छा पुत्र हो, इस इच्छा से राज्य छोड कर, त्रिमूर्ति-इंद्रप्रमति का नामान्तर । तपस्या करने चला गया। त्रिमूर्धन्--रावण का एक पुत्र । अयोध्या में कोई भी राजा न रहने के कारण, वसिष्ठ त्रिवक्रा--कंसदासी कुब्जा का नामांतर (भा. १०. | राज्य का कारोबार देखने लगा। किंतु राज्य की आम४:२३)। दानी दिन बे दिन बिगड़ती गई । लगातार नौ वर्षों तक 'त्रिवराताम-आर्चनानस के लिये पाठभेद । राज्य में अकाल पड़ गया। त्रिवृश-एक व्यास (व्यास देखिये)। इस समय त्रिशंकु अरण्य में गुजारा करता था। जिस '. त्रिवेद कृष्णरात लौहित्य--श्याम जयन्त लौहिस्य | अरण्य में यह रहता था,उसी अरण्य में विश्वामित्र का आश्रम का शिष्य (जै. उ. वा. ३.४२.१)। था। परंतु तपस्या के कारण, विश्वामित्र कही दूर चला त्रिशंकु--एक साक्षात्कारी तत्वज्ञ । यह ब्रह्म से एक- | गया था। इसलिये आश्रम में केवल उसकी पत्नी तथा तीन रुप हो गया था। अपना 'वेदानुवचन' (आत्मानुभव) पुत्र ही थे। त्रिशंकु, रोज थोड़ा मांस, आश्रम के बाहर पेड़ में वर्णन करते समय इसने लिखा है, 'मैं संसार को हिलाने- बाँध देता था। उससे विश्वामित्र की पत्नी तथा एक पुत्र का वाला हूँ। मेरे सामने सब तुच्छ है। मैं साकार हुआ| गुज़ारा चलता था। एक बार अन्य पशु न मिलने के कारण, पावित्र्य हुँ । मैं सूर्यस्थित अमर तत्व हूँ। मैं अमूल्य इसने वसिष्ठ की गाय कामधेनु को मार डाला । तब वसिष्ठ द्रव्यनिधि हूँ। मैं ज्ञानयुक्त, अमर, तथा अक्षय हूँ। (तै. ने उसे शाप दिया कि, 'तुम्हारे सिर पर तीन शंकु निर्माण उ. १.१०)। होंगे । गोवध, स्त्रीहरण तथा पिता के क्रोध के कारण तुम __पौराणिक त्रिशंकु, तथा यह दोनों अलग व्यक्ति प्रतीत | | पिशाच बनोगे, तथा तुम्हें लोग त्रिशंकु के नाम से होते है। पहचानेंगे। २. (सू. इ.) अयोध्या का राजा । यह निबंधन राजा वसिष्ठ के इस शाप के कारण, त्रिशंकु तथा वसिष्ठ का का ज्येष्ठ पुत्र था। कई ग्रंथो में इसके पिता का नाम वैर अधिक ही बढ़ गया। प्रथम इसे दुर्वर्तनी कह कर, अय्यारुण या अरुण दिया है (ब्रहा. ८.९७; ह.. १. वसिष्ठ ने इसे राज्य के बाहर निकल दिया। पश्चात् , १२, पद्म. स. ८; दे. भा. ७.१०)। इसका मूल नाम । कामधेनु वध के निमित्त से इसे पिशाच बनने का शाप २५३
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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