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________________ नरक .प्राचीन चरित्रकोश नरनारायण श्रीकृष्ण ने नरकासुर के महल में प्रवेश कर बंदीगृह में धर्म के पुत्र के रूप में प्रगट हुएँ (म. शां. ३३४.९-१२) रखी गयी सोलह हजार एक सौ स्त्रियों की मुक्तता की उनके नाम क्रमशः नर, नारायण, हरि एवं कृष्ण थे। (पन. उ. २८८)। उन स्त्रियों को एवं काफी संपत्ति ले | उनमें से नर एवं नारायण यह बंधुद्वय पहले देवतारूप कर श्रीकृष्ण द्वारका लौट आया (भा. १०.५९)। में, पश्चात् ऋषिरूप में, एवं महाभारतकाल में अर्जुन एवं नरकासुर वध की कथा पद्मपुराण में भी दी गयी है। कृष्ण के रूप में, अपने पराक्रम एवं क्षात्रतेज के कारण किंतु उस में 'नरकचतुर्दशी माहात्म्य ' को अधिक महत्त्व अधिकतम सुविख्यात है (नर एवं नारायण देखिये)। दिया गया है। नरनारायण की उपासना काफी प्राचीन है। महामारत नरकासुर ने तप तथा अध्ययन कर, तपःसिद्धि प्राप्त | काल में अर्जुन एवं कृष्ण को, नरनारायणों का अवतार की थी। फिर इन्द्र को इससे भीति उत्पन्न हुई, एवं उसने समझने के कारण, नरनारायणों की उपासना को नया रूप नरकासुर का वध करने की प्रार्थना कृष्ण से की। पश्चात् प्राप्त हो गया । पाणिनि में नरनारायणों के भक्तिसंप्रदाय श्रीकृष्ण ने इस तपःसिद्ध नरकासुर को हस्ततल से प्रहार | का निर्देश किया है। कर के इसका वध किया। यह मरणोन्मुख हो कर देवी भागवत के मत में, नरनारायण चाक्षुष मन्वन्तर भूमि पर गिरा तब इसने कृष्ण की स्तुति की। कृष्ण में उत्पन्न हुएँ थे (दे. भा. ४.१६)। ये धर्म को दक्षने इसे वर माँगने के लिये कहा। इसने वर माँगा 'मेरे कन्या मूर्ति से उत्पन्न हुये थे (भा. २.७)। ये धर्म को . मृत्युदिन के तिथि को, जो सूर्योदय के पहले मंगलस्नान कला नामक स्त्री से उत्पन्न हुए थे, ऐसा भी उल्लेख करेंगे, उन्हें नरक की पीड़ा न हो'। यह कार्तिक वद्य प्राप्त है। पूर्ण शांति प्राप्ति के लिये, इन दोनों ने दुर्घट चतुर्दशी को मृत हुआ। इसलिये उस दिन को 'नरक तप किया था (भा. १.३)। नरनारायण के दुर्घट तप से . चतुर्दशी' कहने की प्रथात शुरु हुई। उस दिन किया | भयभीत हो कर, इन्द्र ने इनके तपोभंग के लिये कुछ . प्रातःस्नान पुण्यप्रद मानने की जनरीति प्रचलित हुई | अप्सराएँ भेजी। यह देख कर नारायण शाप देने के . (प. उ. ७६.६७)। लिये सिद्ध हो गया, परंतु नर ने उसका सांत्वन किया लोमश ऋषि के साथ पांडव तीर्थाटन के लिये | (दे. भा. ४.१६; भा. २.७; पद्म. सृ. २२)। पश्चात् गये थे। अलकनंदा नदी के पास जाने पर, शुभ्र नारायण ने अपनी जंघा से उर्वशी नामक अप्सरा निर्माण । पर्वत के समान प्रतीत होनेवाला शिखर लोमश कर, वह इन्द्र को प्रदान की (भा. ११.४.७)। इन्द्र द्वारा ने उन्हें दिखाया। वे नरकासुर की अस्थियाँ थी भेजी गई अप्सराओं को अगले अवतार में विवाह करने (म. व. परि. १. क्र. १६. पंक्ति. २८-३१)। वरुण | का आश्वासन दे कर इसने विदा किया (दे. भा. ४. सभा में नरकासुर को सम्माननीय स्थान प्राप्त हुआ था | १६)। बाद में इन्होंने कृष्ण तथा अर्जुनरूप से अवतार (म. स. ९.१२)। लिया । कृष्णार्जुनों को दर्शन दे कर इन्होंने उपदेश भी नरकासुर के वध के बाद उसकी माता के कथनानुसार, दिया (दे. भा. ४.१७; भा. १०.८९.६०)। यह बदरिकृष्ण ने इसके पुत्र भगदत्त को अभयदान दिया । उस पर काश्रम में रहते थे (भा. ११.४.७ )। इन दोनों ने नारद वरदहस्त रखा तथा उसे राज्य दिया (भा. १०.५९)। से किये अनेक संवादों का निर्देश प्राप्त है (म. शां. नरकासुर की कथा कालिकापुराण में निम्नलिखित ढंग से दी गयी है। त्रेतायुग के उत्तरार्ध में यह वराहरूपी | एक बार हिरण्यकश्यपु का पुत्र प्रह्लाद ससैन्य तीर्थयात्रा विष्णु को भूमि के द्वारा उत्पन्न हुआ। विदेह देश के | करते करते, नरनारायण के आश्रम के पास आया। उस राजा जनक ने सोलह वर्षों तक इसका पालन किया। स्थान पर उसने बाण, तरकस आदि युद्धोपयोगी चीजें प्राग्ज्योतिषपुर के किरातों से युद्ध कर के, इसने उनका | देखीं। इससे उसे लगा कि, इस आश्रम के मुनि शांत न नाश किया। बाद में राज्यश्री के कारण मदोन्मत्त होने पर, | हो कर दांभिक होंगे। उसने इन्हें वैसा कहा भी । इससे द्वापार युग में कृष्ण ने इसका नाश किया (कालि. ३९- | गर्मागर्म बातें हो कर, युद्ध करने तक नौबत आ गयी । ४०)। पश्चात् नरनारायण एवं प्रह्लाद का काफी दिनों तक तुमुल नरनारायण-एक भगवत्स्वरूप देवताद्वय । स्वायंभुव | युद्ध हुआ। उसमें कोई भी नहीं हारा । इस युद्ध के कारण मन्वन्तर के सत्ययुग में भगवान् वासुदेव के चार अवतार | देवलोक एवं पृथ्वी लोक के सारे लोगों को तकलीफ होने ३४८
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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