SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 363
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नचिकेतस् प्राचीन चरित्रकोश नचिकेतस् अपने पिता का यज्ञ यथासांग संपन्न होने में, यह हर तरह है । इसे मारना ठीक नहीं है । फिर यम ने आदर से की सहायता करता था । नचिकेतस् सेकहा, 'भगवन्, मैं प्रसन्न हो गया हूँ। आप जो चाहे वह वर माँग लो । ' C विश्वजित' यश में, याजक को सर्वस्व का दान करना पड़ता है। नचिकेत ने सोचा, 'यदि सर्वस्व दान करना है, तो मेरे पिता को मेरा दान भी कर देना चाहिये उसके सर्वस्व में मेरा प्रमुख रूप से अंतर्भाव होता है ' । अपनी इस शंका का समाधान पूछने के लिये यह पिता के पास गया। इसका पिता अनेक प्रकार के दान दे रहा था । किंतु अच्छी गायों के बदले दूध न देनेवाली दुक्ली गायें वह दान में दे रहा था। इस पापकर्म के कारण, यश यथासांग न हो कर पिता को दोष लगेगा एवं उसका प्रायश्चित्त पिता के साथ मुझे भी भुगतना पड़ेगा, इस चिंता से नचिकेत शोकाकुल हो गया। अपने पिता को ऐसे गिरे हुए दान से परावृत्त करने की दृष्टि से नचिकेतस ने पूछा, कस्मै मां बारयसि ? मुझे किसको दोगे ?' इसे बालक समझ कर पिता ने इसका प्रश्न का कोई भी जवाब नहीं दिया फिर भी नचिकेतस ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। तत्र उद्दालक ने डाँट कर इसे कहा, मैं तुम्हें मृत्यु को दे देना चाहता । 1 उसी समय आकाशवाणी हुई, "हे गौतमकुमार नचिकेतम् तुम्हारे पिता का उद्देश्य है कि तुम यमगृह आओ यम घर में न हो एवं प्रवास के लिये गया हो, उसी दिन तुम यमगह में जाना यम घर में न होने के कारण, उसकी पत्नी एवं पुत्र तुम्हें भोजन के लिये प्रार्थना करेंगे। किंतु उस भोजन का तुम स्वीकार नहीं करना। वापस आने पर यम तुम्हारी पूछताछ करेंगा। फिर उसे कहना, 'तीन रात्रि हो गई हैं। फिर यम तुम्हें पूछेगा, पहले दिन क्या खाया फिर तुम उसे ?' जवाब देना, 'तुम्हारी प्रजा खाई ' । इससे यम को पता चलेगा कि अतिथि यदि एक दिन अपने घर में भूखा रहा, तो प्रजा का क्षय होता है। दूसरे तथा तीसरे दिन के बारे में भी ऐसा ही प्रश्न पूछे जाने पर जवाब देना 'दूसरे दिन तुम्हारे पशु एवं तीसरे दिन तुम्हारा सुकृत खाया। इससे यम को पत्ता चलेगा कि, अतिथि दूसरे तथा तीसरे दिन भूखा रहने पर घरसंसार के एवं पशु सुकृत की भी हानि होती है। " नचिकेतस ने यम से निम्नलिखित तीन वर माँग लिये, १. जीवित वापस जा कर मैं अपने पिता से मिलूँ ; २. मेरे द्वारा श्रौतस्मार्त कर्म अक्षय रहे; ३. मैं मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकूँ इस तरह, 'ब्रह्मविद्या' एवं योगविधि प्राप्त कर के नचिकेतस पर वापस आया (ते. बा. १. ११.८. उ. ६.१८ ) । " ८ ब्रा. 'कठोपनिषद' में दिये गये 'नचिकेतस् आख्यान' में नचिकेतम् की यही कथा कुछ अलग ढंग से दी गयी है। । नचिकेतस के पिता ने क्रोधवश इसे यम के यहाँ जाने के लिये कहा। अपने पिता की आशा प्रमाण मान कर, नचिकेतसु यम के पास गया, एवं अपने प्रगाढ़ एवं यस्तुल्यपूर्ण भाषण के कारण, इसने यमधर्म को प्रसन्न किया। यम ने इसे तीन पर दिये। उनमें से द्वितीय वर । के कारण, अशि का शान एवं उसके चयन की सिद्धि नचिकेतस को प्राप्त हो गयी। यम ने इसे वर दिया था, ' तुम्हारे द्वारा चयन किया गया अमि, तुम्हारे ही नाम से प्रसिद्ध होगा ' ( एतमत्रिं राचैव प्रवश्यन्ति जनासः ' ) ( क. उ. १. १९ ) । इस वर के अनुसार, अनि के चयन की इसकी पद्धति 'नचिकेतचयन' नाम से प्रसिद्ध हो गयी। 3 , 'तैत्तिरीय ब्राह्मण के 'नचिकेताख्यान में दिया गया, आकाशवाणीद्वारा इसे हुए मार्गदर्शन का कथाभाग 'कठोपनिषद' में नही दिया गया है। 3 , । 'नाचिकेत आख्यान का यही कथाभाग 'वराहपुराण' एवं 'महाभारत' में कुछ फर्क के साथ दिया गया है ( वराह. १७०-१७६; म. अनु. ७१ ) । एक बार नाचिकेत का पिता उद्दालक नदी पर स्नान करने के लिये गया। स्नान तथा वेदाध्ययन में मन्न होने के कारण, नदी तट से समिधा, दर्भ, कलश, भोजनसामग्री आदि खाने का स्मरण उसे नहीं रहा। तब उसने अपने पुत्र नाचिकेत से यह सामग्री लाने के लिये कहा। पिता की भाशानुसार यह नदी के किनारे गया। किंतु इसके जाने के पहले ही पिता द्वारा माँगी गयी सारी वस्तुएँ पानी में बह गई थीं उस कारण, यह पिता की कोई भी चीज वापस न खा सका। यह सारी दुर्घटना इसने पिता को बतायी। फिर श्रम तथा क्षुधा से व्याकुल उद्दालक के मुख से, 'मरो शब्द निकला शाप के कारण, । आकाशवाणी के कथनानुसार नचिकेतस यमग्रह गया। यम के घर पहुँचने पर इसने यम के प्रभों को 'आकाशवाणी ने कहे मुताबिक जवाब दिये। फिर यम ने सोचा, 'यह कोई बड़ा अधिकारी' बालक मालूम होता , ३४१
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy