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वामदेव
प्राचीन चरित्रकोश
वामन
८८)।
आत्मानुभूति--आत्मानुभूति प्राप्त होने पर इसने तैत्तिरीय संहिता में विष्णु एवं सूर्य की एकात्मता स्पष्ट कहा था, 'मैंने ही सूर्य को प्रकाश प्रदान किया था, मनु | रूप से निर्दिष्ट है, एवं अपने मित्र इंद्र का विगत राज्य मेरा ही रूप था ' ( अहं मनुरभवं सूर्यश्चाहम् ) (ऋ. ४. | उसे पुनः प्राप्त कराने के लिए श्रीविष्णु ने पृथ्वी पर २६.१; बृ. उ. १.४.१०)। वामदेव का यह आत्मकथन अवतार लेने की कथा वहाँ प्राप्त है (ते. सं. २.४. मराठी संत तुकाराम के आत्मकथन से मिलता-जुलता १२.२)। प्रतीत होता है, जहाँ उन्होंने अपना पूर्वजन्म शुकमुनि | वामन-अवतार की उत्क्रान्ति--वैदिक साहित्य में के रूप में बताया था (डॉ. रानडे, उपनिषद्रहस्य प्राप्त इन निर्देशों से प्रतीत होता है कि, वामन अवतार
की कल्पना का उद्गम प्रथम सूर्य देवता के आकाश संचरण वामदेवी-ऋचि ऋषि की पत्नी (म. आ. ९०. के रूप में हुआ, एवं श्रीविष्णु सूर्य का ही एक प्रतिरूप होने २३)। पाठभेद-'सुदेवी'।
के कारण,आकाश संचरण का यह पराक्रम श्रीविष्णु का ही वामदेव्य--ऋग्वेद में प्राप्त एक पैतृक नाम,जो निम्न
मानने जाने लगा। आगे चल कर, श्रीविष्णु के दशावतार लिखित वैदिक सूक्तद्रष्टाओं के लिए प्रयुक्त किया गया
की कल्पना जब प्रसृत हुई, तब तीन पगों में समस्त पृथ्वी है:-अंहोमुच (ऋ. १०.१२७); बृहदुक्थ (ऋ. सर्वानु
का व्यापन करनेवाले श्रीविष्णु का वैदिक रूप, उत्तरकालीन क्रमणी; श. ब्रा. ८.२.२.१४); मूर्धन्वत् (ऋ. १०.
वैदिक ग्रन्थों में एवं पुराणों में वामनावतार के रूप में
| निर्धारित हुआ। . वामन--श्री विष्णु का पाँचवाँ अवतार, जो इंद्र के |
__ वामन-अवतार का सर्वप्रथम निर्देश तैत्तिरीय संहिता संरक्षण के लिए, एवं बलि वैरोचन नामक दैत्य के बंधन में अस्पष्ट रूप में प्राप्त है। एक बार तीनों लोगों के के लिए अवतीर्ण हुआ था। भागवत में इसे विष्णु का
स्वामित्व के लिए देव एवं असुरों में संग्राम हुआ। उस " पंद्रहवाँ अवतार कहा गया है (भा. १.३.१९)।
समय श्रीविष्णु ने अपने 'वामन-स्वरूप' की आहुति दे
कर तीनों लोगों को जीत लिया (ते. सं. २.१.३)। वैदिक साहित्य में वामन अवतार के कल्पना का अस्पष्ट उद्गम ऋग्वेद में पाया जाता है, जहाँ श्रीविष्णु के
शतपथ ब्राह्मण में-इस ग्रंथ में श्रीविष्णु के वामन द्वारा तीन पगों में समस्त पृथ्वी, यलोक एवं अंतरिक्ष का
अवतार की कथा प्राप्त है, जो पुराणों में निर्दिष्ट कथा से व्यापन होने का निर्देश प्राप्त है
सर्वथैव विभिन्न है। एक बार देवासुरों के संग्राम में, देवों
का पराजय हो कर वे भाग गये। तदुपरान्त असुर समस्त इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्।
पृथ्वी का बटवारा करने के लिए बैठे। उस समय समळहमस्य पांसुरे ॥ (ऋ. १.२२.१७-१८)।
विष्णु के नेतृत्व में देवगण असुरों के पास गये, एवं पृथ्वी (श्रीविष्णु ने तीन पगों में समस्त सृष्टि का व्यापन | का कुछ हिस्सा प्राप्त होने के लिए असुरों की प्रार्थना किया)।
करने लगे। उस समय असुर विष्णु के तीन पगों ऋग्वेद में श्रीविष्णु का स्वतंत्रदेवता के रूप में निर्देश इतनी ही छोटी भूमि देवों को देने के लिए तैयार हुए। नहीं है, बल्कि उसे सूर्य देवता का ही एक रूप माना गया
| फिर वामनरूपधारी विष्णु ने विराट रूप धारण कर है। इसी विष्णरूपी सूर्य देवता का वर्णन करते समय. समस्त तीनों लोगों का व्यापन किया, एवं इस तरह उसके द्वारा तीन पगों में पृथ्वी का व्यापन करने का निर्देश
देवताओं को त्रैलोक्य का राज्य प्राप्त हुआ (श. ब्रा. १, ऋग्वेद में किया गया है।
२.२.१-५)। निरुक्त में विष्णु के तीन पगों की निरुक्ति प्राप्त है. पुराणों में-इन ग्रंथों में इसे कश्यप एवं अदिति का जहाँ शाकपूणि एवं आर्णवाभ नामक दो आचार्यों के | पुत्र कहा गया है । इसकी पत्नी का नाम कीर्ति एवं पुत्र अभिमत उद्धृत किये गये हैं (नि. १२.१९)। शाक- | का नाम बृहत्श्लोक था। पूणि के अनुसार, पृथ्वी, अंतरिक्ष एवं आकाश को; तथा | इसका जन्म भाद्रपद शुक्ल द्वादशी के दिन श्रवण नक्षत्र और्णवाभ के अनुसार, समारोहण (उदयगिरि), विष्णु- | में एवं अभिजित् मुहूर्त में हुआ था (भा. ८.१८. पद (खस्वस्तिक) एवं गया शिरस् (अस्तगिरि) को ५-६)। अपना विष्णुरूपी वास्तवदर्शन ब्रह्मा एवं श्रीविष्णु ने अपने पगों के द्वारा व्याप लिया।
अदिति को प्रकट करने के बाद, इसने ब्राह्मण ब्रह्मचारिन् प्रा. च. १०४]
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