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गरुड
प्राचीन चरित्रकोश
श्येन एक शक्तिशाली पक्षी के रूप में वेदों में आता है । यह संभवतः गरुड़ का वेदकालीन नाम है । बाद के संस्कृत साहित्य में श्येन का अर्थ 'बाज' दिया है । सुपर्ण श्येन का पुत्र है (ऋ. १०. १४४.४ ) । श्येन तथा सुपर्ण भिन्न थे (ऋ. २.४२.२ ) ।
स्पेन ने स्वर्ग से सोम पृथ्वी पर लाया (ऋ. १. ४२. ७; ४. २६. ६; ८. ९५. ३; ९. १००.८ ) । सोम को पेना कहा है (१.८०.२ ८.९५.३ ) । ग स्वर्ग से अमृत लाया। यह निवेदन पुराणों ने किया है। अन्त में यह विष्णु का सेवक तथा बाहक हो गया ।
गरुड
बताई तथा नागों का कपट भी बताया। तब गरुड़ ने माता की दास्यत्वमुक्ति के लिये कद्रू से उपाय पूछा। उसने दास्यत्व के बदले में अमृत माँगा ( म. आ. २१. २ - ३ ) |
गरुड़ ने अमृत लाने के लिये माता से अनुमति माँगी । क्षुधानिरसन के लिये क्या है, सो पूछा । तब माँ ने इसे निपादों को खाने के लिये कहा। खाते खाते, निषाद को भी खा लिया। इससे गरुड़ का गा इतना जला कि, समझ कर इसने एक ब्राह्मण तथा उसकी केवट पत्नी इसे उन्हें छोड़ देना पड़ा (म. आ. २४) । उगलते समय लिया। इससे गरुड़ का गला इतना जला कि,
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यह कस्यप तथा विनता का पुत्र तथा अरुण का कनिष्ठ बंधु था । अरुण ने अपनी माता को शाप दिया था ( अरुण ३. तथा विनता १. देखिये ) । उसके अनुसार, वह कटू नामक खोत का दास्यत्य कर रही थी। इधर अंड़े से बाहर निकलते ही, गरुड़ तीव्र गति से आगे बढा तथा उड़ गया ( म. आ. २०. ४-५ स. ५९. ३९; उ. ११० ) । वालखिल्यों ने इंद्र उत्पन्न करने के लिये किये तप का फल कश्यप को दिया। वही फल कश्यप ने विनता को दिया। तब उसने एक अंड़ा डाला। उसीसे गरुड़ उत्पन्न हुआ (म. आ. २७. अनु. २१ कुं. ) ।
कुछ निषाद भी बाहर आये। वे लेच्छ बने (पद्म सु. ४७) । इतने में यह उस स्थान पर आया, जहाँ इसका पिता माँगा । तब पिता ने एक सरोवर में लड़ रहे हाथी तथा कश्यप तपस्या कर रहा था । इसने क्षुधानिवारणार्थ कुछ कछुवा जो पूर्वजन्म में सगे भाई हो कर भी एक दूसरे के दुश्मन थे- दोनों को खाने के लिये कह कर, इसे शुभाशीर्वाद दिया । कश्यपद्वारा दर्शाये गये सरोवर में लड रहे हाथी तथा कछुवा को इसने पंजे से उठा लिया । उड़ कर यह एक सौ पर बैठा। इतने में यह शाखा टूट गई। इसी शाखा से योजन लंबी तथा उसी परिमाण में मोटी वटवृक्षशास्त्रा देख कर इसने वह शाखा चोंच में पकड़ी । हाथी, उलटे लटक कर बालखिल्य तपस्या कर रहे थे। यह कछुवा तथा वालखिल्यों के साथ उड़ कर यह पुनः कश्यप के पास आया। कश्यप ने कुशल प्रश्न पूछ कर वालखिल्यों का क्रोध दाल दिया। बाद में उस शाखा से छूट कर वालखिल्य हिमालय पर गये । कश्यप के कथनानुसार गरुड ने वह शाखा एक पर्वत शिखर पर अमृतार्थ आगे बढ़ा। रख दी। वहीं उस हाथी तथा कछुए को खा कर, यह
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यह उड़ कर जाने लगा, उस समय गरुड को पक्षियों 'का इंद्र मान कर वासियों ने अभिषेक किया। उड़ते समय वह इतना प्रखर तथा तीन प्रतीत होने लगा कि इसके तेज से लोगों के प्राण दराने लगे। तभी इसे अमि • समझ कर लोग इसकी स्तुति करने लगे। यह जानकर इसने अपना तेज संकुचित किया । बादमें इसने अपने बड़े भाई अरुण को पीठ पर बैठा कर, पूर्वदिग्भाग में ले गाकर रखा (म. आ. परि. १ क्र. १४ अरुण देखिये) । तदनंतर यह क्छू के दास्यस्य मे बद्ध हुई अपनी माँ बिनता के पास गया । वहाँ इसने देखा कि, विनता अत्यंत दुःखी तथा कष्ट में है । इतने में कद्रू ने नागों के उपवन में जाने का निश्चय किया। स्वयं विनता के कंधे पर बैठ कर, उसने अपने अनुचर नागों को कंधे पर ले जाने की आशा गरुड़ को दी उड़ते उड़ते यह इतनी ऊँचाई पर गया कि, सूर्य की उष्णता के कारण सब नाग नीचे गिर गये । तब इन्द्र की स्तुति कर कद्रू ने वर्षा करवाई। बाद में नाग इससे मन चाहे जैसी आज्ञा करने लगे । तब गरुड़ ने माता के पास शिकायत की। विनता ने इसे दासीभवन की समस्त कथा
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अमृतप्राप्ति के लिये गरुड़ आ रहा है, यह जान कर देवों ने इससे लड़ने की तैय्यारी चालू की। बाद में इसका यक्ष, गंधर्व तथा देवों से युद्ध हुआ, परंतु उसमें उनका पराभव हो गया। इस समय इन्द्र ने इस पर अपना वज्र फेंका; किंतु इसपर कुछ भी असर नहीं हुआ। इसने इंद्र के तथा जिस दधीचि की हड्डियों से वह वज्र बना था, उस दधीचि के सम्मान के लिये, अपने एक पर का त्याग किया । बाद में यह अमृतगुफा की ओर घूमा । वहाँ सुदर्शनचक्र के समान एक चक्र उस गुफा की रक्षा कर रहा था। चारों ओर अनि का परकोटा था ( यो. वा. १.९ )