________________
वाल्मीकि
प्राचीन चरित्रकोश .
वाल्मीकि
वाल्मीकि 'आदिकवि'--एक सुविख्यात महर्षि, | प्रदान करता था। इससे प्रतीत होता है कि, वाल्मीकि जो 'वाल्मीकि रामायण' नामक संस्कृत भाषा के आद्य का आश्रम काफी बड़ा था। आर्ष महाकाव्य का रचयिता माना जाता है। ___ आख्यायिकाएँ--वाल्मीकि के पूर्वायुष्य से संबंधित ___ नाम--वाल्मीकि रामायण के युद्धकाण्ड के फलश्रुति- अनेकानेक अख्यायिकाएँ महाभारत एवं पुराणों में प्राप्त
अध्याय में आदिकवि वाल्मीकि का निर्देश प्राप्त है हैं । किंतु वे काफ़ी उत्तरकालीन होने के कारण अविश्व( वा. रा. यु. १२८.१०५)। वहाँ वाल्मीकि के द्वारा सनीय प्रतीत होती हैं। प्राचीन काल में विरचित 'रामायण' नामक आदिकाव्य के महाभारत एवं पुराणों में वाल्मीकि को 'भार्गव'(भृगुवंश पठन से पाठकों को धर्म, यश एवं आयुष्य प्राप्त होने की | में उत्पन्न ) कहा गया है। महाभारत के 'रामोफलश्रुति दी गयी है । समस्त प्राचीन वाङ्मय में आदि- पाख्यान' का रचयिता भी भार्गव बताया गया है (म. कवि वाल्मीकि के संबंध में यह एकमेव निर्देश माना शां. ५७.४०)। भार्गव च्यवन नामक ऋषि के संबंध में जाता है।
यह कथा प्रसिद्ध है कि, वह तपस्या करता हुआ इतने रामायण के बाल एवं उत्तर काण्डों में--आधुनिक समय तक निश्चल रहा की, उसका शरीर 'वत्मीक' से अभ्यासकों के अनुसार, वाल्मीकि रामायण के दो से छ: आच्छादित हुआ (भा.९.३; च्यवन भार्गव देखिये )। तक काण्डों की रचना करनेवाला आदिकवि वाल्मीकि, एवं यह कथा 'वाल्मीकि ' ( जिसका शरीर बल्मीक से वाल्मीकि रामायण के बाल एवं उत्तर काण्डों में निर्दिष्ट आच्छादित हो) नाम से मिलती-जुलती होने के कारण, राम दशरथि राजा के समकालीन वाल्मीकि दो विभिन्न वाल्मीकि एवं च्यवन इन दोनों के कथाओं में संमिश्रण व्यक्ति थे। किन्तु ई. पू. १ ली शताब्दी में, इस ग्रंथ के किया गया, एवं इस कारण वाल्मीकि को भार्गव उपाधि बाल एवं उत्तर काण्ड की रचना जब समाप्त हो चुकी | प्रदान की गयी। थी, उस समय आदिकवि वाल्मीकि एवं महर्षि वाल्मीकि ये | अध्यात्म रामायण में--वाल्मीकि के द्वारा वल्मीक से - दोनों एक ही मानने जाने की परंपरा प्रस्थापित हुई थी। आच्छादित होने का इसी कथा का विकास, उत्तरकालीन
वाल्मीकि रामायण के उत्तर-काण्ड में निर्देशित महर्षि | साहित्य में वाल्मीकि को दस्यु, ब्रह्मन्न एवं डाकु मानने में वाल्मीकि प्रचेतस् ऋषि का दसवाँ पुत्र था, एवं यह जाति हो गया, जिसका सविस्तृत वर्णन स्कंद पुराण (स्कंद. वै.. से ब्राह्माण तथा अयोध्या के दशरंथ राजा का मित्र था | २१), एवं अध्यात्म रामायण में प्राप्त है । (वा. रा. उ. ९६.१८, ४७.१६ )।
| इस कथा के अनुसार, यह जन्म से तो ब्राह्मण था, आश्रम--वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में इसे किंतु निरंतर किरातों के साथ रहने से, एवं चोरी करने तपस्वी, महर्षि एवं मुनि कहा गया है (वा. रा. वा. से इसका ब्राह्मणत्त्व नष्ट हुआ। एक शूद्रा के गर्भ से इसे १.१; २.४; ४.४ )। इसका आश्रम तमसा एवं गंगा के | अनेक शूद्रपुत्र भी उत्पन्न हुए । समीप ही था (वा. रा. बा. २.३ )। यह आश्रम गंगा| एक बार इसने सात मुनियों को देखा, जिनका वस्त्रादि नदी के दक्षिण में ही था, क्यों कि, सीता त्याग के समय, छीनने के उद्देश्य से इसने उन्हें रोक लिया। फिर उन लक्ष्मण एवं सीता अयोध्या से निकलने के पश्चात् गंगा ऋषियों ने इससे कहा, 'जिन कुटुंबियों के लिए तुम नदी पार कर इस आश्रम में पहुँचे ( वा. रा. उ. ४७)। नित्य पापसंचय करते हो, उनसे जा कर पूछ लो की, बाद में प्रस्थापित हुए एक अन्य परंपरा के अनुसार, | वे तुम्हारे इस पाप के सहभागी बनने के लिए तैयार हैं, वाल्मीकि का आश्रम गंगा के उत्तर में यमुनानदी के किनारे, या नहीं। इसके द्वारा कुटुंबियों को पूछने पर उन्होंने चित्रकूट के पास मानने जाने लगा ( वा. रा. अयो. इसे कोरा जवाब दिया, 'तुम्हारा पाप तुम सम्हाल लो, ५६.१६ दाक्षिणात्य; अ. रा. २.६. रामचरित. २. | हम तो केवल धन के ही भोगनेवाले हैं। १२४)। आजकल भी वह बाँदा जिले में स्थित है। । यह सन कर इसे वैराग्य उत्पन्न हुआ, एवं इसने उन
वाल्मीकि रामायण में इसे अपने आश्रम का कुलपति | ऋषियों की सलाह की अनुसार, निरंतर 'मरा' ('राम' कहा गया है। प्राचीन भारतीय परंपरा के अनुसार, | शब्द का उल्टा रूप) शब्द का जप करना प्रारंभ किया । 'कुलपति' उस ऋषि को कहते थे, जो दस हज़ार | एक सहस्त्र वर्षों तक निश्चल रहने के फलस्वरूप, इसके विद्यार्थियों का पालनपोषण करता हुआ उन्हें शिक्षा | शरीर पर 'वल्मीक' बन गया।
८३२