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युधिष्ठिर
प्राचीन चरित्रकोश
युधिष्ठिर
विशाल था। इसके स्नायु प्रमाणबद्ध थे (म. आश्र. यौवराज्याभिषेक-- यह क्षात्रविद्यासंपन्न होने पर, ३२.६)।
धृतराष्ट्र ने भीष्म की आज्ञा से इसे यौवराज्याभिषेक ध्वज एवं आयुध-इसके धनुष्य का नाम 'माहेन्द्र किया, एवं अर्जुन इसका सेनापति बनाया गया (म. आ. एवं शंख का नाम 'अनंतविजय' था। इसके रथ के परि. १. क्र. ७९. पंक्ति. १९१-१९३)। इसने अपने अश्व हस्तिदंत के समान शुभ्र थे, एवं उनकी पूँछ कृष्ण- | शील, सदाचार एवं प्रजागलन की प्रवृत्तियों के द्वारा अपने वर्णीय थी। इसके रथ पर नक्षत्रयुक्त चंद्रवाला स्वर्णध्वज पिता पाण्डु राजा की कीर्ति को भी ढक दिया। इसकी था। उस पर यंत्र के द्वारा बजनेवाले 'नंद' तथा
| उदारता एवं न्यायी स्वभाव के कारण, प्रजा इसे ही 'उपनंद' नामक दो मृदंग थे ( म. द्रो. २२.१६२. परि. | हस्तिनापुर के राज्य को पाने के योग्य बताने लगी। १. क्र. ५. पंक्ति ४-७)।
पाण्डवों की बढ़ती हुयी शक्ति एवं ऐश्वर्य को देख
कर दुर्योधन मन ही मन इसके विरुद्ध जलने लगा, एक शिक्षा-इसके संस्कारों के विषय में मतभेद है । किसी
पाण्डवों को विनष्ट करने के षड्यंत्र रचाने लगा, जिनमें प्रति में लिखा है कि सभी संस्कार शतशंग पर हुए, और
धृतराष्ट्र की भी संमति थी (म. आ. परि. १. क्र. ८२. किसी में हस्तिनापुर के बारे में उल्लेख मिलता है। कहते है
पंक्ति. १३१-१३२)। कि, शतशंगनिवासी ऋषियों द्वारा इसका नामसंस्कार हुआ
__ लाक्षागृहदाह-धार्तराष्ट्र एवं पाण्डवों के बढ़ते हुऐ (म. आ. ११५.१९-२०), तथा वसुदेव के पुरोहित
शत्रुत्व को देख कर, इन्हे कौरवों से अलग वारणावत काश्यप के द्वारा इसके उपनयनादि संस्कार हुए (म.आ
नामक नगरी में स्थित राजगृह में रहने की आज्ञा धृतराष्ट्र ने परि १-६७)
दी। इसी राजगृह को आग लगा कर इन्हे मारने का शर्यातिपुत्र शुक्र से इसने धनुर्वेद सीखा, तथा षड्यंत्र दुर्योधन ने रचा। किन्तु विदुर की चेतावनी के तोमर चलाने की कला में, यह बड़ा पारंगत था कारण, पाण्डव इस लाक्षागृह-दाह से बच गये । विदुर के (म. आ. परि. १.६७.२८-३४)। प्रथम कृप ने, तथा | द्वारा भेजे गये नौका से ये गंगानदी के पार हुये। पश्चात बाद में द्रोणाचार्य ने इसे शस्त्रास्त्र विद्या सिखायी थी | सभी पाण्डवों के साथ इसका भी द्रौपदी के साथ विवाह (मः आ. १२०.२१:१२२)। कौरव पाण्डवों की द्रोण हुआ। द्वारा ली गयी परीक्षा में इसने अपना कौशल दिखा कर | अर्ध राज्यप्राप्ति-द्रौपदी-विवाह के पश्चात्, धृतराष्ट्र ने सब को आनंदित किया था (म. आ. १२४-१२५)। हस्तिनापुर के अपने राज्य के दो भाग किये. एवं उसमें सटक्षिणा देने के लिए इसने भीमार्जुन की सहाय्यता से एक भाग इसे प्रदान किया। अपने राज्य में स्थित ली थी (म. आ. परि. ७८. पंक्ति. ४२)
| खाण्डवप्रस्थ नामक स्थान में इन्द्रप्रस्थ नामक नयी पाण्डवों के पिता पाण्डु का देहावसान उनके बाल्यकाल राजधानी बसा कर, यह राज्य करने लगा (म. आ. में ही हुआ था। कौरव बांधवों की दुष्टता के कारण, इसे | १९९)। अपने अन्य भाइयों के माँति नानाविध कष्ट सहने पडे। राजसूययज्ञ-इसकी राजधानी इंद्रप्रस्थ में मयासुर किन्तु इसी कष्टों के कारण इसकी चिंतनशीलता एवं नीति- ने मयसभा का निर्माण किया, जो स्वर्ग में स्थित परायणता बढती ही रही। कौरवों की जिस दुष्टता के | इन्द्रसभा, वरुणसभा, ब्रह्मसभा के समान वैभवसंपन्न कारण, अर्जुन ने ईर्ष्यायुक्त बन कर नवनवीन अस्त्र संपादन | थी। एक बार युधिष्ठिर से मिलने आये हुये नारद ने मयकिये, एवं भीम में अत्यधिक कटुता उत्पन्न कर वह कौरवो | सभा को देख कर अत्यधिक प्रसन्नता व्यक्त की, एवं कहा, के द्वेष में ही अपनी आयु की सार्थक्यता मानने लगा, 'हरिश्चंद्र राजा ने राजसूय यज्ञ करने के कारण, जो स्थान उन्ही के कारण युधिष्ठिर अधिकाधिक नीतिप्रवण एवं | इंद्रसभा में प्राप्त किया है, वही स्थान तुम्हारे पिता चिंतनशील बनता गया। भारतीययुद्ध जैसे संहारक | पाण्डु प्राप्त करना चाहते है। यदि तुम राजसूय यज्ञ काण्ड के समय, भीष्मद्रोणादि नीतिपंडितों की सूक्तासूक्त- करोगे तो तुम्हारे पिता कि यह कामना पूर्ण होगी' (म. विषयक धारणाएँ जड़मूल से नष्ट हो गयी, उस प्रलय- | स.५.१२)। काल में भी युधिष्ठिर की नीतिप्रवणता वैसी हि अबाधित | नारद की इस सूचना का स्वीकार कर, युधिष्ठिर ने एवं निष्कलंक रही।
श्रीकृष्ण की सहाय्यता से राजसूययज्ञ का आयोजन किया। प्रा. च. ८८]
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