Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास (प्रथम भाग) तीर्थंकरखण्ड 00000 आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज دوووووووووووووووا Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ नये तथ्य : कुछ विशेषताएँ: भगवान् ऋषभ से भ. महावीर तक के युग का गवेषणापूर्णचित्रण | मानव सभ्यता के आद्य प्रवर्तक के रूप में भगवान् ऋषभ का रोचक विवेचन । भगवान् अरिष्टनेमि और उनके युग के सम्बन्ध में नवीन खोजपूर्णतथ्य | ✦ भगवान् पार्श्वनाथ के पुरुषादानीय स्वरूप और तत्कालीन इतर धार्मिक परम्पराओंका विशिष्टपरिचय । • भगवान् महावीर के जीवन, साधना, प्रभाव और सम्बद्ध युग का व्यापक तथा गौशालक के जीवन और महावीर व बुद्ध के काल-निर्णय के सम्बन्ध में नवीनतम प्रामाणितदिग्दर्शन । 麗 C Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का जैन धर्म मौलिक इतिहास (प्रथम भाग) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास प्रथम भाग (तीर्थकर खण्ड) लेखक एवं निदेशक : आचार्यश्री हस्तीमलजी महाराज सम्पादक-मण्डल : श्री देवेन्द्र मुनिजी शास्त्री, पं. रत्न मुनिश्री लक्ष्मीचन्दजी म., पं. शशिकान्त झा, डॉ. नरेन्द्र भानावत, गजसिंह राठौड़, जैन न्यायतीर्थ प्रकाशक : जैन इतिहास समिति लाल भवन, चौड़ा रास्ता, जयपुर-302 004 (राज.) सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल बापू बाजार, जयपुर (राज.) फोन : 565997 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : 1. जैन इतिहास समिति लाल भवन, चौड़ा रास्ता, जयपुर-3 (राज.) 2. सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल बापू बाजार, जयपुर (राज.) फोन : 565997 सर्वाधिकार सुरक्षित प्रथम संस्करण : 1971 द्वितीय संस्करण : 1981 तृतीय संस्करण : 1988 चतुर्थ संस्करण : 1999 मूल्य : रु. 500/- मात्र मुद्रक : दी डायमण्ड प्रिन्टिंग प्रेस मोतीसिंह भोमियो का रास्ता, जौहरी बाजार, जयपुर फोन : 562929, 564771 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय सूची .... .... . .... W of १४ m - - २४ प्रकाशकीय सम्पादकीय कालचक और कुलकर: पूर्वकालीन स्थिति और कुलकर काल कुलकर : एक विश्लेषण भगवान् ऋषमदेव : तीर्थकर पद प्राप्ति के साधन भगवान् ऋषभदेव के पूर्वभव और साधना जन्म भगवान् ऋषभ का जन्मकाल जन्माभिषेक और जन्म-महोत्सव प्रथम जिनेश्वर का नामकरण बालक ऋषभ का आहार शिशु-लीला व योगलिक की अकाल मृत्यु वंश और गोत्र स्थापना तीर्थेशो जगतां गुरुः भगवान ऋषभदेव का विवाह भोगभूमि और कर्मभूमि का सन्धिकाल पन्द्रहवें कुलकर के रूप में भगवान् ऋषभदेव को सन्तति सन्तति को प्रशिक्षण प्रभु ऋषभ का राज्याभिषेक सशक्त राष्ट्र का निर्माण प्रजा को प्रशिक्षण ग्रामों, नगरों मादि का निर्माण लोकस्थिति, कलाशान एवं लोक-कल्याण बहत्तर कलाएँ भगवान् ऋषभदेव द्वारा वर्ण-व्यवस्था का प्रारम्भ मादिराजा प्रादिनाथ का अनुपम राज्य .... ऋषभकालीन भारत और भारतवासियों की गरिमा अषमकालीन विशाल भारत .... .... २४ २५ .... २६ .... २८ ३० .... S .... .... سه K س Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ ४५ ६० W wr प्रवज्या का संकल्प और वर्षीदान अभिनिष्क्रमण-श्रमणदीक्षा विद्याधरों की उत्पति विहार चर्या भगवान् का प्रथम पारणा केवलज्ञान की प्राप्ति तीर्थंकरों की विशेषता तीर्थकरों के चौंतीस अतिशय श्वेताम्बर व दिगम्बर परम्पराओं का तुलनात्मक विवेचन तीर्थंकर की वाणी के ३५ गुण भरत का विवेक आदिप्रभु का समवसरण भगवद् दर्शन से मरुदेवी की मुक्ति देशना और तीर्थ-स्थापना प्रथम चक्रवर्ती भरत : संवर्द्धन और शिक्षा भरत चक्रवर्ती: भरत की अनासक्ति भरत का स्वरूप-दर्शन परिव्राजक मत का प्रारम्भ ब्राह्मी और सुन्दरी पुत्रों को प्रतिवोध अहिंसात्मक युद्ध भरत-बाहुबली युद्ध पर शास्त्रीय दृष्टि बाहुवली का घोर तप और केवलज्ञान भरत द्वारा ब्राह्मण वर्ण की स्थापना भगवान् ऋषभदेव का धर्मपरिवार भ. ऋषभदेव के कल्याणक .... प्रभु ऋषभदेव का प्रप्रतिहत विहार पाश्चर्य, निर्वाण महोत्सव जनेतर साहित्य में ऋषभदेव भगवान् ऋषभदेव और भरत का जैनेतर पुराणादि में उल्लेख भगवान ऋषभदेव और ब्रह्मा सार्वभौम आदि नायक के रूप में लोकव्यापी कीति ११२ ११४ ११७ १२० १२१ १२३ १२३ २४ १२७ १२६ १२६ १३० १३ १३८ १३६ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ १४७ १४७ १४८ १४६ १५२ १५२ १५२ १५३ १५४ १५५ १५७ १६२ १६३ १६५ भगवान् श्री अजितनाथ : पूर्वभव तीर्थंकर नाम, गोत्र, कर्म का उपार्जन माता-पिता, च्यवन और गर्भ में आगमन दूसरे चक्रवर्ती का गर्भ में प्रागमन, जन्म नामकरण प्रभु अजित का राज्याभिषेक पिता की प्रव्रज्या, केवलज्ञान और मोक्ष महाराजा अजित का आदर्श शासन धर्म-तीर्थ-प्रवर्तन के लिये लोकान्तिक देवों द्वारा प्रार्थना वर्षीदान दीक्षा, छद्मस्थ काल शालिग्राम निवासियों का उद्धार .. धर्म परिवार परिनिर्वाण चक्रवर्ती सगर भगवान् श्री संभवनाथ : पूर्वभव, जन्म नामकरण, विवाह और राज्य, दीक्षा विहार और पारणा, केवलज्ञान, धर्मपरिवार .... परिनिर्वाण भगवान् श्री अभिनन्दन : पूर्वभव, जन्म, नामकरण, विवाह और राज्य दीक्षा और पारणा केवलज्ञान धर्मपरिवार, परिनिर्वाण भगवान् श्री सुमतिनाथ : 'भ० सुमतिनाथ का पूर्वभव लोक का स्वरूप, अधोलोक मध्यलोक ऊर्ध्वलोक ... जन्म, नामकरण विवाह और राज्य दीक्षा और पारणा केवलज्ञान व देशना १६८ १६६ १७० १७१ १७२ १७३ १७३ १७४ प्रवभव १७५ १८२ १८४ १८६ १६३ १६४ १६५ १६५ vii Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मपरिवार परिनिर्वाण भगवान् श्री पद्मप्रभ : पूर्वभव, जन्म, नामकरण विवाह और राज्य दीक्षा और पारणा केवलज्ञान धर्मपरिवार परिनिर्वाण धर्मपरिवार परिनिर्वाण भगवान् भी सुविधिनाथ : पूर्वभव, जन्म; नामकरण विवाह और राज्य, दीक्षा और पारणा, केवलज्ञान, धर्मपरिवार परिनिर्वाण भगवान् श्री शीतलनाथ : पूर्वभव, जन्म, नामकरण विवाह और राज्य, दीक्षा और प्रथम पारणा, केवलज्ञान, धर्मपरिवार परिनिर्वाण भगवान् श्री श्रेयांसनाथ : ★ भगवान् श्री सुपार्श्वनाथ : पूर्वभव, जन्म, नामकरण, विवाह और राज्य, दीक्षा और पाररणा केवलज्ञान, धर्मपरिवार परिनिर्वाण भगवान् श्री चन्द्रप्रभ स्वामी : पूर्वभव, जन्म, नामकरण विवाह और राज्य, दीक्षा और पारणा, केवलज्ञान, पूर्वभव, जन्म, नामकरण, विवाह और राज्य दीक्षा प्रौर पाररणा केवलज्ञान राज्य - शासन पर श्रेयांस का प्रभाव धर्मपरिवार परिनिर्वाण 9001 viii .... .... .... .... .... ०००० .... 0.00 .... 1000 0000 .... 0000 **** 8830 .... .... .... .... .... www. www. 0000 **** .... .... 9000 .... १६५ १६५ १६६ १६७ १६७ १६७ १६७ १६८ १६६ २०० २०१ २०२ २०३ २०४ २०५ २०६ २०७ २०८ २०६ २१० २११ २१२ २१२ २१२ २१५ २१६ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ २१६ २१६ २२० २२१ २२२ २२३ २२४ २२१ २२६ भगवान् श्री वासुपूज्य : पूर्वभव, जन्म, नामकरण, विवाह और राज्य दीक्षा और पारणा केवलज्ञान, धर्मपरिवार राज्यशासन पर धर्म प्रभाव।। परिनिर्वाण भगवान श्री विमलनाथ : पूर्वभव, जन्म, नामकरण विवाह और राज्य, दीक्षा और पारणा, केवलज्ञान, धर्मपरिवार राज्य शासन पर धर्म-प्रभाव, परिनिर्वाण भगवान् श्री अनन्तनाथ: पूर्वभव, जन्म, नामकरण विवाह और राज्य, दीक्षा और पारणा, केवलज्ञान, धर्मपरिवार राज्य शासन पर धर्म प्रभाव, परिनिर्वाण ... भगवान् श्री धर्मनाय : पूर्वभव, जन्म, नामकरण विवाह और राज्य, दीक्षा और पारणा, केवलज्ञान भगवान् धर्मनाथ के शासन के तेजस्वी रत्न धर्मपरिवार व परिनिर्वाण चक्रवतों मघवा भगवान श्री शान्तिनाथ : पूर्वभव : "" जन्म, नामकरण, विवाह और राज्य दीक्षा और पारणा, केवलज्ञान धर्मपरिवार, परिनिर्वाण भगवान् श्री कुंथुनाथ : ।। पूर्वभव, जन्म, नामकरण, विवाह और राज्य .... दीक्षा और पारणा, केवलज्ञान, धर्मपरिवार .... परिनिर्वाण भगवान् श्री प्ररनाथ : पूर्वभव, जन्म, नामकरण विवाह और राज्य, दीक्षा और पारणा, केवलज्ञान २२७ २२८ २२६ २३३ २३४ २३६ २३६ २४० २४१ २४२ २४३ २४४ २४५ २४६ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ .... .... २४६ २५१ २५५ २५५ २६८ २६६ २७० २७१ धर्मपरिवार, परिनिर्वाण भगवान् श्री मल्लिनाथ : पूर्वभव महाबल का जीवन वृत्त अचल आदि ६ मित्रों का जयन्त विमान से च्यवन भगवान् मल्लिनाथ का गर्भ में आगमन अलौकिक सौन्दर्य की ख्याति, कौशलाधीशप्रतिबुद्धि का अनुराग अरहन्नक द्वारा दिव्य कुण्डल-युगल की भेंट कुणालाधिपति रूपी का अनुराग काशी जनपद के महाराजा शंख का अनुराग कुरुराज अदीनशत्रु का अनुराग पांचाल नरेश जितशत्रु का अनुराग युद्ध और पराजय जितशत्रु आदि को प्रतिबोध छहों राजाओं को जाति स्मरण भगवती मल्ली द्वारा वर्षीदान अभिनिष्क्रमण एवं दीक्षा केवलज्ञान प्रथम देशना एवं तीर्थ-स्थापना धर्म-परिवार ... परिनिर्वाण सुभूम चक्रवर्ती भगवान श्री मुनिसुव्रत : पूर्वभव, जन्म, नामकरण, विवाह और राज्य दीक्षा और पारणा, केवलज्ञान, धर्म-परिवार .... परिनिर्वाण चक्रवर्ती महापद्म भगवान् नमिनाथ : पूर्वभव, जन्म, नामकरण विवाह और राज्य, दीक्षा और पारणा केवलज्ञान, धर्मपरिवार परिनिर्वाण चक्रवर्ती हरिषेण चक्रवर्ती जयसेन U. USUS २८५ २८६ २८७ २८८ २६० २६८ २६६ ३०० ३०१ ३०७ ३०८ ३०६ ३१० Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् श्री श्ररिष्टनेमि : पूर्वभव जन्म शारीरिक स्थिति और नामकरण हरिवंश की उत्पत्ति हरिवंश की परम्परा उपरिचर वसु महाभारत में उपरिचर वसु का उपाख्यान वसु का हिंसा-रहित यज्ञ .... "अजैर्यष्टव्यम्” को लेकर विवाद : वसु द्वारा हिंसापूर्ण यज्ञ का समर्थन व रसातल - प्रवेश भगवान् नेमिनाथ का पैतृक कुल वसुदेव का पूर्वभव और बाल्यकाल वसुदेव की सेवा में कंस वसुदेव का युद्ध - कौशल कंस का जीवयशा से विवाह वसुदेव का सम्मोहक व्यक्तित्व वसुदेव-देवकी-विवाह और कंस को वचन दान कंस के वध से जरासंध का प्रकोप 6804 ओर मोड़ने का यत्न freeमरणोत्सव एवं दीक्षा पाररा रथनेमि का राजीमती के प्रति मोह .... 6030 0001 .... .... 0000 *** कालकुमार द्वारा यादवों का पीछा और अग्नि प्रवेश द्वारिका नगरी का निर्माण द्वारिका की स्थिति बालक अरिष्टनेमि की अलौकिक बाल लीलाएँ जरासन्ध के दूत का यादव-सभा में आगमन उस समय की राजनीति दोनों ओर युद्ध की तैयारियाँ अमात्य हंस की जरासन्ध को सलाह दोनों सेनाओं की व्यूह रचना अरिष्टनेमि का शौर्य-प्रदर्शन और कृष्ण द्वारा जरासन्ध-वधू अरिष्टनेमि का लौकिक बल रुक्मिणी आदि का मिकुमार के साथ वसन्तोत्सव. रानियों द्वारा नेमिनाथ को भोगमार्ग की 600. .... .... 0000 0.00 0000 www. .... ५००० ३१३ ३१४ ३१५ ३१५ ३१७ ३१८ ३२४ ३२५ ३२७ ३२५ ३३० ३३० ३३१ ३३२ ३३२ ३३३ ३४० ३४३ ३४३ ३४५ ३४५ ३४६ ३४७ ३४८ ३५० ३५२ ३५३ ३५८ ३६२ ३६६ ३६७ ३७६ ३७८ ३७८ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० ३८० ३८१ ३८२ ३८३ ३८४ ३६३ .... ३९८ ४०१ ४०७ ४०८ ४१० ४१० ४१२ .००० .... ४१६ ४२५ .... केवलज्ञान समवसरण और प्रथम देशना तीर्थ-स्थापना राजीमती की प्रव्रज्या रथनेमि का प्राकर्षण अरिष्टनेमि द्वारा अद्भुत रहस्य का उद्घाटन क्षमामूर्ति महामुनि गज सुकुमाल . गज सुकुमाल के लिए कृष्ण की जिज्ञासा नेमिनाथ के मुनिसंघ में सर्वोत्कृष्ट मुनि भगवान् अरिष्टनेमि के समय का महान् आश्चर्य द्वारिका का भविष्य द्वारिका के रक्षार्थ मद्य-निषेध श्री कृष्ण द्वारा रक्षा के उपाय श्री कृष्ण की चिन्ता और प्रभु द्वारा प्राश्वासन द्वैपायन द्वारा द्वारिका-दाह बलदेव की विरक्ति और कठोर संयम-साधना ... महामुनि यावच्चापुत्र परिष्टनेमि का द्वारिका-विहार और भव्यों का उद्धार पाण्डवों का वैराग्य पोर मुक्ति धर्म-परिवार परिनिर्वाण ऐतिहासिक परिपावं वैदिक साहित्य में अरिष्टनेमि और उनका वंश-वर्णन वंशवृक्ष-जैन परम्परा वंशवक्ष-वैदिक परम्परा यादव वंशवृक्ष, हर्यश्व ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती प्राचीन इतिहास की एक भग्न कड़ी भगवान् श्री पावनाय : भगवान् पार्श्वनाथ के पूर्व धार्मिक स्थिति पूर्वभव की साधना । । विविध प्रन्यों में पूर्वभव जन्म और माता-पिता वंश एवं कुल, नामकरण बाल-लीला पावं की वीरता और विवाह .... ४२७ ४२८ .... ४२८ ४३१ 0000 .... ૪૩૪ ४३५ ४३५ | WWW ४७० . ... ४७६ ४७७ ४८० ४८१ ४८२ ४८३ ४८३ xii Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ ४८७ ४८६ ४६० ४६१ ४६३ ४६३ ४६४ ४६७ ४६८ .... ५०१ ५०२ ५०२ ५०३ .... भगवान् पार्श्व के विवाह के विषय में प्राचार्यों का मतभेद . . नाग का उद्धार वैराग्य और मुनि-दीक्षा प्रथम पारणा अभिग्रह भगवान् पार्श्वनाथ की साधना और उपसर्ग केवलज्ञान देशना और संघ-स्थापना : पाव के गणधर पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म विहार और धर्म-प्रचार भगवान् पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता भगवान पाश्वनाथ का धर्म-परिवार परिनिर्वाण श्रमण-परम्परा और पाश्वं भगवान पार्श्वनाथ का व्यापक प्रभाव बुद्ध पर पाश्व-मत का प्रभाव पार्श्व भक्त राजन्यवर्ग भगवान पार्श्वनाथ के शिष्य ज्योतिर्मण्डल में .... श्रमणोपासक सोमिल ।।.. बहुपुत्रिका देवी के रूप में पाश्वनाथ की प्रार्या भगवान् पार्श्वनाथ की साध्वियां विशिष्ट देवियों के रूप में भगवान् पार्श्वनाथ का व्यापक और अमिट प्रभाव भगवान पार्श्वनाथ की प्राचार्य-परम्परा प्रायं शुभदत्त मार्य हरिदत्त आर्य समुद्रसूरि प्रार्य केशी श्रमण भगवान् श्री महावीर : महावीरकालीन देश दशा पूर्वभव की साधना भगवान महावीर के कल्याणक : ... च्यवन और गर्भ में प्रागमन इन्द्र का अवधिज्ञान से देखना ... ५०७ ५०७ ५०६ ५१३ .... ... .... .... ५२३ ५२५ ५२६ ५२६ ५२७ ५२७ .... .... .... .... .... 0000 ५३३ ५३५ x .००० ~ .... ५४१ ५४३ xiii Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४३ ५४४ .... .... ५४५ ५४८ ५४६ ५५० ५५१ ५५६ ५५८ ५६० ५६१ ५६३ ५६४ ५६४ ५६६ ५६७ ५६६ .... इन्द्र की चिन्ता और हरिशंगमेषी का आदेश हरिणगमेषी द्वारा गर्भापहार गर्भापहार-विधि गर्भापहार असंभव नहीं, आश्चर्य है वैज्ञानिक दृष्टि से गर्भापहार त्रिशला के यहाँ महावीर का गर्भ में अभिग्रह जन्म-महिमा जन्मस्थान महावीर के माता-पिता नामकरण संगोपन और बालक्रीड़ा। तीर्थंकर का अतुल बल महावीर और कलाचार्य यशोदा से विवाह माता-पिता का स्वर्गवास त्याग की ओर दीक्षा महावीर का अभिग्रह और विहार प्रथम उपसर्ग और प्रथम पारणा) : भगवान् महावीर की साधना साधना का प्रथम वर्ष + . अस्थिग्राम में यक्ष का उपद्रव निद्रा और स्वप्नदर्शन निमित्तज्ञ द्वारा स्वप्न-फल कथन साधना का दूसरा वर्ष चण्डकौशिक को प्रतिबोध विहार और नौकारोहण पुष्य निमित्तज्ञ का समाधान गोशालक का प्रभु-सेवा में आगमन 'साधना का तीसरा वर्ष नियतिवाद साधना का चतुर्थ वर्ष गोशालक का शाप-प्रदान साधना का पंचम वर्ष अनार्य क्षेत्र के उपसर्ग ५७० ५७२ ५७३ ५७५ .... ५७८ .... ५७९ .... .000 .... .... 0000 ५८० ५८४ ५८४ ५८५ ५८६ ५८७ ५८७ ५८८ ५६० ५६२ .... .... xiv Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६३ ५६४ ५६५ ५६५ साधना का छठा वर्ष व्यंतरी का उपद्रव और विशिष्टावधि लाभ साधना का सप्तम वर्ष साधना का अष्टम वर्ष साधना का नवम वर्ष साधना का दशम वर्ष साधना का ग्यारहवाँ वर्ष संगम देव के उपसर्ग 2 १३ र ' जीर्ण सेठ की भावना साधना का बारहवाँ वर्ष : चमरेन्द्र द्वारा शरण-ग्रहरण कठोर अभिग्रह उपासिका नन्दा की चिन्ता । . . ' जनपद में विहार स्वातिदत्त के तात्त्विक प्रश्न ग्वाले द्वारा कानों में कील ठोकना उपसर्ग और सहिष्णुता छद्मस्थकालीन तप महावीर की उपमा केवलज्ञान प्रथम देशना मध्यमा पावा में समवसरण इ.भूति का आगमन इन्द्रभूति का शंका-समाधान दिगम्बर परम्परा की मान्यता तीर्थ-स्थापना - महावीर की भाषा केवलीचर्या का प्रथम वर्ष नन्दिषेण की दीक्षा केवलीचर्या का द्वितीय वर्ष ऋषभदत्त और देवानन्दा को प्रतिबोध राजकुमार जमालि की दीक्षा केवलीचर्या का तृतीय वर्ष जयन्ती के धार्मिक प्रश्न भगवान् का विहार और उपकार केवलीचर्या का चतुर्थ वर्ष शालिभद्र का वैराग्य کن کن کن کی کن کن کن کی کن کن کن کن کن کن کی کن کن کن کن کن ६११ are »»urur, uuu o WWW ० ० ० ० ० ० ० ० ० - Moroor .rror Morror MY Y Y ur m mour or १७४० ६२० عن من کن کن کن ہیں ان کی ६२० ६२२ XV Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२३ .... ६२३ ६२४ ६२४ ६२५ .... ६२६ ... or ur worrurur mr mmmm ० ० " rm .... .... ६३४ سد ६३४ केवलीचर्या का पंचम वर्ष संकटकाल में भी कल्परक्षार्थ कल्पनीय तक का परित्याग केवलीचर्या का छठा वर्ष पुद्गल परिव्राजक का बोध केवलीचर्या का सातवाँ वर्ष केवलीचर्या का आठवाँ वर्ष केवलीचर्या का नवम वर्ष केवलीचर्या का दशम वर्ष केवलीचर्या का ग्यारहवाँ वर्ष स्कंदक के प्रश्नोत्तर केवलीचर्या का बारहवाँ वर्ष केवलीचर्या का तेरहवाँ वर्ष केवलीचर्या का चौदहवाँ वर्ष काली आदि रानियों को बोध केवलोचर्या का पन्द्रहवाँ वर्ष गोशालक का आनन्द मुनि को भयभीत करना। प्रानन्द मुनि का भगवान् से समाधान गोशालक का आगमन .. . सर्वानभूति के वचन से गोशालक का रोष गोशालक की अन्तिम चर्या शंका समाधान भगवान् का विहार भगवान् की रोगमुक्ति कुतर्कपूर्ण भ्रम गौतम की जिज्ञासा का समाधान केवलीचर्या का सोलहवाँ वर्ष केशी-गौतम-मिलन शिव राषि केवलीचर्या का सत्रहवाँ वर्ष केवलोचर्या का अठारहवाँ वर्ष दशारणंमद को प्रतिबोध सोमिल के प्रश्नोत्तर केवलीचर्या का उन्नीसवाँ वर्ष अम्बड़ की चर्या केवलीचर्या का बीसवाँ वर्ष ६३६ لسم لله .... .... ६३८ ६३६ .... ६४३ ६४६ ६४६ ६५० ६५४ ५ .... .... ६५८ .... ६५८ .... ६६० .... میں کن ک ६६२ vi Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६३ w w w .... . ... ६६८ ६७० ६७१ 0000 .... w .... .... ६७२ ६७३ ६७३ 000. .... ६७४ ६७४ w .... .... ६७६ ६७६ w .. . . ६७८ ६८७ केवलीचर्या का इक्कीसवाँ वर्ष केवलीचर्या का बाईसवाँ वर्ष उदक पेढाल और गौतम केवलीचर्या का तेईसवाँ वर्ष गौतम और आनन्द श्रावक केवलीचर्या का चौबीसवाँ वर्ष केवलीचर्या का पच्चीसवाँ वर्ष कालोदायी के प्रश्न प्रचित्त पुद्गलों का प्रकाश केवलीचर्या का छब्बीसवाँ वर्ष केवलीचर्या का सत्ताईसवाँ वर्ष केवलीचर्या का अट्ठाईसवाँ वर्ष केवलीचर्या का उनत्तीसवाँ वर्ष ... केवलीचर्या का तीसवाँ वर्ष दुःषमा-दुःषम काल का वर्णन कालचक्र का वर्णन :: उत्सपिरणीकाल शक्र द्वारा आयवद्धि की प्रार्थना परिनिर्वाण देवादिकृत शरीर-क्रिया भगवान् महावीर की आयु भगवान महावीर के चातुर्मास भगवान महावीर का धर्म-परिवार गणधर इन्द्रभूति अग्निभूति वायभति आर्य व्यक्त सुधर्मा मंडित मौर्य पुत्र प्रकम्पित अचल भ्राता मेतार्य प्रभास दिगम्बर परम्परा में गौतम प्रादि का परिचय .... ६६० ६६१ ६६३ ६६४ w હ૪ ६६४ w w w ६६६ w ६६७ w w . ... .... ६६८ ६६८ w .... w M. .... w 38 xvii Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति अग्निभूति वायुभूति एक बहुत बड़ा भ्रम भगवान महावीर की प्रथम शिष्या . .... धारिणी के मरण का कारण-वचन या बलात् । भगवान पार्श्वनाथ और महावीर का शासन-भेद चारित्र सप्रतिक्रमण धर्म स्थित कल्प भगवान् महावीर के निन्हव जमालि (निन्हव) तिष्यगुप्त महावीर और गोशालक गोशालक का नामकरण जैनागमों की मौलिकता गोशालक से महावीर का सम्पर्क शिष्यत्व की ओर विरुद्धाचरण प्राजीवक नाम की सार्थकता आजीवकचर्या आजीवक मत का प्रवर्तक जैन शास्त्र की प्रामाणिकता प्राजीवक वेष महावीर का प्रभाव निर्ग्रन्थों के भेद आजीवक का सिद्धान्त दिगम्बर परम्परा में गोशालक पाजीवक और पासत्थ महावीर कालीन धर्म परम्पराएं क्रियावादी प्रक्रियावादी अज्ञानवादी विनयवादी बिम्बसार-श्रेणिक श्रेणिक की धर्मनिष्ठा WWW ० ० ० ० ० Morrow our Marrrrr m m mr mr m m m www.No Wr"""Wux990 or rm m" : ११00 ४० m or m 9,999 mrar" ७३० ७३१ ७३५ ७३८ xviiii Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४२ ७४३ ७४६ ७५० ७५० ७५७ ७६० राजा चेटक अजातशत्रु कूरिणक कुणिक द्वारा वैशाली पर आक्रमण महाशिला-कंटक युद्ध .रथमूसल संग्राम महाराजा उदायन, भ० महावीर के कुछ अविस्मरणीय संस्मरण राजगही के प्रांगण से अभयकुमार ऐतिहासिक दृष्टि से निर्वाणकाल भ० महावीर और बुद्ध के निर्वाण का ऐतिहासिक विश्लेषण निर्वाणस्थली परिशिष्ट-१ परिशिष्ट २ परिशिष्ट ३ संदभ ग्रन्थों की सूची शुद्धि-पत्र ७६२ ७६५ ७७५ ७८४ ७८७ ८३६ ८४५ ८८४ ८८६ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय) इतिहास वस्तुतः विश्व के धर्म, देश, संस्कृति, समाज अथवा जाति के प्राचीन से प्राचीनतम अतीत के परोक्ष स्वरूप को प्रत्यक्ष की भाँति देखने का दर्पण तुल्य एकमात्र वैज्ञानिक साधन है। किसी भी धर्म, संस्कृति, राष्ट्र, समाज एवं जाति के अभ्युदय, उत्थान, पतन, पुनरुत्थान, आध्यात्मिक उत्कर्ष एवं अपकर्ष में निमित्त बनने वाले लोक-नायकों के जीवनवृत्त आदि के क्रमबद्ध शृंखलाबद्ध संकलन-आलेखन का नाम ही इतिहास है। अभ्युदय, उत्थान, पतन की पृष्ठभूमि का एवं उत्कर्ष तथा अपकर्ष की कारणभूत घटनाओं का निधान होने के कारण इतिहास मानवता के लिए, भावी पीढ़ियों के लिए दिव्य प्रकाश-स्तम्भ के समान दिशावबोधक-मार्गदर्शक माना गया है। भूतकाल में सुदीर्घ अतीत से लेकर अद्यावधि किस धर्म, संस्कृति, राष्ट्र, समाज, जाति अथवा व्यक्ति ने किस प्रशस्त पथ पर आरूढ़ हो उस पर निरन्तर प्रगति करते हुए उत्कर्ष के, परमोत्कर्ष के उच्चतम शिखर पर अपने आपको अधिष्ठित किया और किसने कब-कब किस-किस प्रकार की स्खलनाएँ कर, किस प्रकार कुपथ पर आरूढ़ हो धर्म, संस्कृति, राष्ट्र, समाज, जाति अथवा अपने आपका अधःपतन किया, रसातल की ओर प्रयाण किया- इतिहास में निहित इन तथ्यों से मार्गदर्शन प्राप्त कर प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक समाज, प्रत्येक जाति, प्रत्येक राष्ट्र प्रगति के प्रशस्त पथ पर आरूढ़ हो अपने आपको, अपनी संस्कृति को और अपने धर्म को उन्नति के उच्चतम शिखर पर प्रतिष्ठापित कर समष्टि का कल्याण करने में सक्षम हो सकता है। यही कारण है कि मानव सभ्यता में इतिहास का आदि काल से अद्यावधि सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। संक्षेप में कहा जाय तो इतिहास वस्तुतः अतीत के अवलोकन का चक्षु है। (१) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस व्यक्ति को, अपनी संस्कृति, अपने धर्म, राष्ट्र, समाज अथवा जाति के इतिहास का ज्ञान नहीं, उसे यदि किसी सीमा तक चक्षुविहीन की संज्ञा दे दी जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। जिस प्रकार चक्षुविहीन व्यक्ति को पथ, सुपथ, कुपथ, विपथ का ज्ञान नहीं होने के कारण पग-पग पर स्खलनाओं एव विपत्तियों का दुःख उठाना अथवा पराश्रित होकर रहना पड़ता है, उसी प्रकार अपने धर्म, समाज, संस्कृति और जाति के इतिहास से नितान्त अनभिज्ञ व्यक्ति भी न स्वयं उत्कर्ष के पथ पर आरूढ़ हो सकता है और न ही अपनी संस्कृति, अपने धर्म, समाज अथवा जाति को अभ्युत्थान की ओर अग्रसर करने में अपना योगदान कर सकता है। इन सब तथ्यों से यही निष्कर्ष निकलता है कि किसी भी धर्म, समाज, संस्कृति अथवा जाति की सर्वतोमुखी उन्नति के लिए प्रेरणा के प्रमुख स्रोत उसके सर्वांगीण शृखलाबद्ध इतिहास का होना अनिवार्य रूप से परमावश्यक है। ___ जैनाचार्य प्रारम्भ से ही इस तथ्य से भलीभाँति परिचित थे। श्रुतशास्त्र-पारगामी उन महान् आचार्यों ने प्रथमानुयोग, गण्डिकानुयोग, नामावलि आदि ग्रन्थों में जैन धर्म के सर्वांगपूर्ण इतिहास को सुरक्षित रखा। उन ग्रन्थों में से यद्यपि आज एक भी ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। ये तीनों ही कालप्रभाव से विस्मृति के गहन गर्त में विलुप्त हो गये तथापि उन विलुप्त ग्रन्थों में जैन धर्म के इतिहास से सम्बन्धित किन-किन तथ्यों का प्रतिपादन किया गया था, इसका स्पष्ट उल्लेख समवायांग सूत्र, नन्दिसूत्र और पउमचरियं में अद्यावधि उपलब्ध है। उत्तरवर्ती आचार्यों ने भी इस दिशा में समय-समय पर सजग रहते हुए नियुक्तियों, चूर्णियों, चरित्रों, पुराणों, प्रबन्धकोषों, प्रकीर्णकों, कल्पों, स्थविरावलियों आदि की रचना कर प्राचीन जैन इतिहास की थाती को सुरक्षित रखने में अपनी ओर से किसी प्रकार की कोर-कसर नहीं रखी। उन इतिहास ग्रन्थों में प्रमुख हैं- पउम चरियं, कहावली, तित्थोगाली पइन्नय, वसुदेव हिंडी, चउवन्न महापुरिस-चरियं, आवश्यक चूर्णि, त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, परिशिष्ट पर्व, हरिवंश पुराण, महापुराण, आदि पुराण, महाकवि पुष्पदन्त का अपभ्रंश भाषा में महापुराण, हिमवन्त स्थविरावली, प्रभावक चरित्र, कल्पसूत्रीया स्थविरावली, नन्दीसूत्रीया स्थविरावली, दुस्समा समणसंघथयं आदि। इन ग्रन्थों के अतिरिक्त खारवेल के हाथीगुम्फा के शिलालेख और विविध स्थानों से उपलब्ध सहस्रों शिलालेखों, ताम्रपत्रों आदि में जैन इतिहास के महत्त्वपूर्ण तथ्य यत्र-तत्र (२) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरक्षित रखे अथवा बिखरे पड़े हैं। इन ग्रन्थों एवं शिलालेखों की भाषा संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, प्राचीन कन्नड़, तमिल, तेलगु, मलयालम आदि प्राचीन प्रान्तीय भाषाएँ हैं, जो सर्वसाधारण की समझ से परे हैं । उपरिलिखित इतिहास ग्रन्थों में अपने-अपने ढंग से तत्कालीन शैलियों में जिन ऐतिहासिक तथ्यों का उल्लेख किया गया है, उन सबके समीचीन व क्षीर- नीर विवेकपूर्वक अध्ययन - चिन्तन मनन के पश्चात् उन सब में ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व की सामग्री को कालक्रम एवं श्रृंखलाबद्ध रूप से चुन-चुन कर सार रूप में लिपिबद्ध करने पर तीर्थंकरकालीन जैन धर्म का इतिहास तो सर्वांगपूर्ण एवं अतीव सुन्दर रूप में उभर कर सामने आता है किन्तु तीर्थंकर काल से उत्तरवर्ती काल का, विशेषतः देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के पश्चात् का लगभग ७ शताब्दियों तक का जैन धर्म का इतिहास ऐसा प्रच्छन्न, विशृंखल, अन्धकारपूर्ण, अज्ञात अथवा अस्पष्ट है कि उसको प्रकाश में लाने का साहस कोई विद्वान् नहीं कर सका । जिस किसी विद्वान् ने इस अवधि के तिमिराच्छन्न जैन इतिहास को प्रकाश में लाने का प्रयास किया, उसी ने पर्याप्त प्रयास के पश्चात् हतोत्साह हो यही लिख कर अथवा कह कर विश्राम लिया कि देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के पश्चात् का पाँच-छह शताब्दी का जैन इतिहास नितान्त अन्धकारपूर्ण है, उसे प्रकाश में लाने के स्रोत वर्तमान काल में कहीं उपलब्ध नहीं हो रहे हैं। इन्हीं सब कारणों के परिणामस्वरूप पिछले लम्बे समय से अनेक बार प्रयास किये जाने के उपरान्त भी वर्तमान दशक से पूर्व जैन धर्म का सर्वांगपूर्ण क्रमबद्ध इतिहास समाज को उपलब्ध नहीं कराया जा सका। जैनधर्म के सर्वांगीण क्रमबद्ध इतिहास का यह अभाव वस्तुतः बड़े लम्बे समय से चतुर्विध संघ के सभी विज्ञ सदस्यों के हृदय में खटकता आ रहा था । सन् १९३३ की ५ अप्रैल से २९ अप्रैल तक अजमेर में जब वृहद् साधु सम्मेलन हुआ तो उसमें भी बड़े-बड़े आचार्यों, सन्तों, साध्वियों और श्रावक-श्राविकाओं ने जैन धर्म के इतिहास के निर्माण की दिशा में प्रयास करने का निर्णय लिया। जैन कान्फ्रेन्स ने भी अपने वार्षिक अधिवेशनों में इस कमी को पूरा करने के सम्बन्ध में प्रस्ताव भी अनेक बार पारित किये किन्तु समुद्र मन्थन तुल्य नितान्त दुस्साध्य इस इतिहास-लेखन कार्य को हाथ में लेने का किसी ने साहस नहीं किया, क्योंकि इस महान् कार्य को अथ से इति तक सम्पन्न करने के लिए वर्षों तक भगीरथ तुल्य श्रम करने वाले, साधना करने वाले किसी भगीरथ की ही आवश्यकता थी । इस सब के परिणामस्वरूप इतिहास निर्माण की अनिवार्य आवश्यकता को एक स्वर से समाज द्वारा स्वीकार कर लिए जाने के उपरान्त भी प्रस्ताव पारित कर ( ३ ) Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेने के अतिरिक्त इस दिशा में किसी प्रकार की प्रगति नहीं हो सकी। अन्ततोगत्वा सन् १९६५ में यशस्विनी रत्नवंश श्रमण परम्परा के आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज ने समुद्र मन्थन तुल्य श्रमसाध्य, समयसाध्य, इतिहास-निर्माण के इस अतीव दुष्कर कार्य को दृढ़ संकल्प के साथ अपने हाथ में लिया। संवत् १९२२ (सन् १९६५) के बालोतरा चातुर्मासावास काल में संस्कृत, प्राकृत, आगम, आगमिक साहित्य और इतिहास के महामनीषी लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज सा. के उद्बोधनों एवं निर्देशन में न्यायमूर्ति श्री इन्द्रनाथ मोदी, उच्चकोटि के जैन विद्वान् श्री दलसुखभाई मालवणिया, डॉ. नरेन्द्र भानावत आदि से परामर्श के साथ इतिहास समिति का निर्माण किया गया। इतिहास-समिति का अध्यक्ष न्यायमूर्ति श्री इन्द्रनाथ मोदी को, मंत्री श्री सोहनमलजी कोठारी को और कोषाध्यक्ष श्री पूनमचन्दजी बड़ेर को सर्वसम्मति से मनोनीत किया गया। इतिहास-निर्माण के इस कठिन कार्य में सक्रिय सहयोग देने के लिए इतिहास-समिति द्वारा अनेक विद्वान् सन्तों की सेवा में अनेक बार विनम्र प्रार्थनाएं की गईं। बालोतरा चातुर्मासावास की अवधि के समाप्त होते ही आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज सा. ने स्वेच्छापूर्वक अपने हाथ में लिये गये इस गुरुतर कार्य को पूरा करने के दृढ़-संकल्प के साथ बालोतरा से गुजरात की और विहार किया। मरुस्थल एवं गुजरात प्रदेश में ग्रामानुग्राम अप्रतिहत विहार करते हुए आपने पाटन, सिद्धपुर, पालनपुर, कलोल, खेड़ा, खम्भात, लींबडी, बड़ौदा, अहमदाबाद आदि नगरों के शास्त्रागारों, प्राचीन हस्तलिखित ज्ञान भण्डारों के अथाह ज्ञान समुद्र का मन्थन किया, प्राचीन जैन वाङ्मय का आलोडन किया और सहस्रों प्राचीन ग्रन्थों से सारभूत ऐतिहासिक सामग्री का अथक श्रम के साथ संकलन किया। वह सम्पूर्ण संकलन हमारी अनमोल ऐतिहासिक थाती के रूप में आज श्री विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार, शोध-संस्थान, लाल भवन, जयपुर में सुरक्षित है। संवत् २०२३ तद्नुसार सन् १९६६ के अहमदाबाद चातुर्मास में विधिवत इतिहास-लेखन का कार्य प्रारम्भ किया गया। तदनन्तर एक चातुर्मासावासावधि में इतिहास समिति ने एक सुशिक्षित नवयुवक को विद्वान् मुनिश्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री की सेवा में भी इस कार्य को गति देने के लिए रखा। किन्तु सन १९७० के जून मास तक इस कार्य में अपेक्षित प्रगति नहीं हो पाई। इसका एक बहुत (४) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ा कारण यह था कि संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और पुरानी राजस्थानी ( राजस्थानी गुजराती मिश्रित ) इन सभी प्राच्य भारतीय भाषाओं में समान रूप से निर्बाध गति रखने वाला कोई ऐसा विद्वान् इतिहास-समिति को नहीं मिला, जो इन भाषाओं के अगाध साहित्य का ऐतिहासिक शोध-दृष्टि से निष्ठापूर्वक अहर्निश अध्ययन कर सारभूत ऐतिहासिक सामग्री को आचार्यश्री के समक्ष प्रस्तुत कर सके। इतना सब कुछ होते हुए भी आचार्यश्री ऐतिहासिक सामग्री के संकलन, आलेखन एवं चिन्तन-मनन में निरत रहे। आप श्री ने मरुस्थल से सागर तट तक के गुजरात प्रदेश के विहार काल में विभिन्न ज्ञान भण्डारों से उपलब्ध महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक पट्टावलियों का चयन संशोधन किया। उनके आधार पर एक सारभूत क्रमबद्ध एवं संक्षिप्त ऐतिहासिक काव्य की रचना की । उन पट्टावलियों में से आधी के लगभग पट्टावलियों का इतिहास समिति ने डॉ. नरेन्द्र भानावत से सम्पादन करवा कर सन् १९६८ में "पट्टावली प्रबन्ध संग्रह " नामक ग्रन्थ का प्रकाशन किया । १९७० के मई मास के अन्त में आचार्यश्री के जयपुर नगर में शुभागमन पर, "महापुरुषों द्वारा चिंतित समष्टिहित के कार्य अधिक समय तक अवरुद्ध नहीं रहते, अगतिमान नहीं रहते"- यह चिर सत्य चरितार्थ हुआ। जैन प्राकृत, - अपभ्रंश आदि सभी प्राच्य भाषाओं में समान गति रखने वाले जिस विद्वान् की विगत पाँच-छः वर्षों से खोज थी, वह आचार्यश्री को जयपुर आने पर अनायास ही मिल गया । इतिहास - समिति की मांग पर श्री प्रेमराजजी बोगावत, राजस्थान विधानसभा से उन्हीं दिनों अवकाश प्राप्त श्री गजसिंह राठौड़, जैन - न्याय-व्याकरण तीर्थ को आचार्यश्री की सेवा में दर्शनार्थ लाये। बातचीत के पश्चात् आचार्यश्री द्वारा रचित जैन इतिहास की काव्य कृति — "आचार्य चरितावली" सम्पादनार्थ एवं टंकणार्थ इतिहास-समिति ने श्री राठौड़ को दी। इसके सम्पादन एवं इतिहास विषयक पारस्परिक बातचीत से प्रमुदित हो आचार्यश्री ने फरमाया — "इसका सम्पादन आपने बहुत शीघ्र और समुचित रूप से सम्पन्न कर दिया, गजसा ! हमारा एक बहुत बड़ा कार्य पाँच-छः वर्षों से रुका सा पड़ा है, आप इसे गति देने में सहयोग दीजिये ।" जून, १९७० में श्री राठौड़ ने इतिहास के सम्पादन का कार्य सम्भाला । समवायांग, आचारांग, विवाह प्रज्ञप्ति आदि शास्त्रों, आवश्यक चूर्णि, चउवन्न महापुरिस चरियं, वसुदेव हिण्डी, तिलोय पण्णत्ती, सत्तरिसय द्वार, पउम चरिय गच्छाचार पइण्णय, अभिधान राजेन्द्र (७ भाग) षट्खण्डागम, धवला, जय धवला ( ५ ) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि प्राकृत ग्रन्थों, सर मोन्योर की मोन्योर-मोन्योर संस्कृत टू इंग्लिश डिक्शनेरी आदि आंग्ल भाषा के ग्रन्थों, त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, आदि पुराण, महापुराण, वेदव्यास के सभी पुराणों के साथ-साथ हरिवंश पुराण आदि संस्कृत ग्रन्थों और पुष्पदन्त के महापुराण आदि अपभ्रंश के ग्रन्थों का आलोडन किया गया और पर्युषण पर्व से पूर्व ही “जैन धर्म का मौलिक इतिहास' पहला भाग की पाण्डुलिपि का चतुर्थांश और मेड़ता चातुर्मासावासावधि के समाप्त होते-होते पाण्डुलिपि का शेष अन्तिम अंश भी प्रेस में दे दिया गया। प्रथम भाग के पूर्ण होते ही मेड़ता धर्म स्थानक में इतिहास के द्वितीय भाग का आलेखन भी प्रारम्भ कर दिया गया। जैन धर्म के इतिहास के अभाव की चतुर्थांश पूर्ति से आचार्यश्री को बड़ा प्रमोद हुआ, जैन समाज में हर्ष की लहर तरंगित हो उठी और इतिहास-समिति का उत्साह शतगुणित हो अभिवृद्ध हुआ। प्रथम भाग के प्रकाशन के साथ-साथ ही इतिहास-समिति ने इसी के अन्तिम अंश को "ऐतिहासिक काल के तीन तीर्थंकर" नाम से एक पृथक् ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित करवाया । सन् १९७१ के वर्षावास काल में ये दोनों ग्रन्थ मुद्रित हो सर्वतः सुन्दर रूप लिये समाज, इतिहासज्ञों और इतिहास प्रेमियों के करकमलों में पहुंचे। सन्तों, सतियों, श्रावकों, श्राविकाओं, श्वेताम्बर, दिगम्बर, जैन-अजैन सभी परम्पराओं के विद्वानों ने भावपूर्ण शब्दों में मुक्तकण्ठ से इस ऐतिहासिक कृति की और आचार्यश्री की भूरि-भूरि प्रशंसा की। आचार्यश्री की लेखनी में एक ऐसा अद्भुत चमत्कार है कि आपने इतिहास जैसे शुष्क-नीरस विषय को ऐसा सरस-रोचक एवं सम्मोहक बना दिया है कि सहस्रों श्रद्धालु और सैकड़ों स्वाध्यायी प्रतिदिन इसका पारायण करते हैं। __सन् १९७४ में आचार्यश्री ने "जैन धर्म का मौलिक इतिहास" दूसरा भाग भी पूर्ण कर दिया। १९७५ में इतिहास-समिति ने इसे प्रकाशित किया। इसकी भी प्रथम भाग की ही तरह भूरि-भूरि प्रशसा और हर्ष के साथ समाज में स्वागत किया गया। आचार्यश्री के अथाह ज्ञान, अथक श्रम और इस इतिहास ग्रन्थ की प्रामाणिकता एवं सर्वांगपूर्णता के सम्बन्ध में एक शब्द भी कहने के स्थान पर इस ग्रन्थ के सम्बन्ध में जैन समाज के सर्वमान्य उच्च कोटि के विद्वान श्री दलसुख भाई मालवणियां के आन्तरिक उद्गार ही उद्धृत कर देना हम पर्याप्त समझते हैं। श्री मालवणियां ने लिखा है ( ६ ) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "आचार्यश्री ! सादर बहुमान पूर्वक वन्दणा । "जैन धर्म का मौलिक इतिहास" के रोचक आपने इस प्रकरण एवं आपकी प्रस्तावना पढ़ी। .... ग्रन्थ में जैन इतिहास की गुत्थियों को सुलझाने में जो परिश्रम किया है, जैसी तटस्थता दिखाई है, वह दुर्लभ है। बहुत काल तक आपका यह इतिहास- ग्रन्थ प्रामाणिक इतिहास के रूप में कायम रहेगा। नये तथ्यों की संभावना अब कम ही है । जो तथ्य आपने एकत्र किये हैं और उनको यथास्थान सजाया है, वह एक सुज्ञ इतिहास के विद्वान् के योग्य कार्य है । इस ग्रन्थ को पढ़कर आपके प्रति जो आदर था, वह और भी बढ़ गया है। आशा है, ऐसा ही आगे के भागों में भी आप करेंगे। ये हैं लब्ध प्रतिष्ठ शोधकर्ता विद्वान् दलसुख भाई मालवणियाँ के इस अमर ऐतिहासिक कृति और इसके रचनाकार इतिहास - मार्तण्ड आचार्यश्री के. भागीरथ प्रयास के सम्बन्ध में हार्दिक उद्गार ! एक गवेषक विद्वान् ही गवेषक विद्वान् के श्रम का सही आंकलन कर सकता है। यह पराकाष्ठा है सही मूल्यांकन की ! आचार्यश्री और इनकी ऐतिहासिक अमर कृति के सम्बन्ध में इससे अधिक और क्या लिखा जा सकता है ? सन् १९७५ के अन्तिम चरण में "जैन धर्म का मौलिक इतिहास - तृतीय भाग” के लिए सामग्री एकत्रित करने का कार्य प्रारम्भ कर दिया गया। देवर्द्धि गणि क्षमाश्रमण के स्वार्गारोहण के पश्चात् चैत्यवासी परम्परा अपनी नई-नई मान्यताओं के साथ जैन जगत् पर छा गई थी। लगभग सात सौ आठ सौ वर्षों तक भारत के विभिन्न भागों में चैत्यवासी परम्परा का एकाधिपत्य रहा । भगवान् महावीर की विशुद्ध मूल परम्परा के साधु-साध्वियों का उत्तर भारत के जनपदों में विचरण तो दूर रहा, प्रवेश तक पर राजमान्य चैत्यवासी परम्परा ने राज्य की ओर से प्रतिबन्ध लगवा दिया । फलस्वरूप मूल परम्परा के श्रमण, श्रमणियों एवं श्रावक-श्राविकाओं की संख्या देश के सुदूरस्थ प्रदेशों में अंगुलियों पर गिनने योग्य रह गई । विशुद्ध श्रमण धर्म में मुमुक्षुओं का दीक्षित होना तो दूर, अनेक प्रान्तों में विशुद्ध श्रमणाचार का नाम तक लोग प्रायः भूल गये । नवोदिता चैत्यवासी परम्परा को ही लोग भगवान् की मूल विशुद्ध परम्परा मानने लगे । वस्तुतः उस संक्रांति - काल में विशुद्ध मूल परम्परा क्षीण से क्षीणतर होती गई और वह लुप्त तो नहीं; किन्तु सुप्त अथवा गुप्त अवश्य हो गई । वीर नि. ( ७ ) Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं. १५५४ में वनवासी वर्द्धमान सूरि के शिष्य जिनेश्वर सूरि ने दुर्लभराज की सभा में चैत्यवासी परम्परा के आचार्यों को शास्त्रार्थ में परास्त कर चैत्यवासी परम्परा पर गहरा घातक प्रहार किया। तदनन्तर अभय देव सूरि के शिष्य जिन वल्लभ सूरि वीर नि.सं. १६३७ तक चैत्यवासी परम्परा के उन्मूलन में निरत रहे। अन्ततोगत्वा जिस चैत्यवासी परम्परा ने भगवान् महावीर की विशुद्ध मूल परम्परा को पूर्णतः नष्ट कर देने के लगभग सात सौ-आठ सौ वर्ष तक निरन्तर प्रयास किये, उनकी पट्ट-परम्पराओं को नष्ट किया, उसके स्मृति चिह्नों तक को निरवशिष्ट करने के प्रयास किये, वह चैत्यवासी परम्परा भी अन्ततोगत्वा वीर निर्वाण की बीसवीं शताब्दी के आते-आते इस धरातल से विलुप्त हो गई। यह आश्चर्य की बात है कि जो चैत्यवासी परम्परा देश में बहुत बड़े भाग पर ७-८ शताब्दियों तक छाई रही, उसकी मान्यता के ग्रन्थ, पट्टावलियाँ आदि के रूप में कोई साक्ष्य आज कहीं नाममात्र के लिए भी उपलब्ध नहीं है। ___ इन्हीं कारणों से देवर्द्धि क्षमाश्रमण के पश्चात् काल के इतिहास की कड़ियों को खोजने और उसे शृंखलाबद्ध व क्रमबद्ध बनाने में बड़े लम्बे समय तक कड़ा श्रम करना पड़ा, अनेक कठिनाइयों को झेलना पड़ा। एक बार तो घोर निराशा सी हुई किन्तु पन्यास श्री कल्याण विजयजी महाराज द्वारा लिखी गई अनेक नोटबुकों को सूक्ष्म शोध दृष्टि से पढ़ने पर विशुद्ध मूल परम्परा के एक दो संकेत मिले। महा निशीथ, तित्थोगाली पइन्नय, जिनवल्लभ सूरि संघ पट्टक, मद्रास यूनिवर्सिटी के प्रांगण में अवस्थित ओरियन्टल मेन्युस्क्रिप्ट्स लायब्रेरी, मेकेन्जी कलेक्शन्स आदि से तथा पुराने जर्नल्स के अध्ययन से आशा बंधी कि वीर नि. सं. १००० से २००० तक का तिमिराच्छन्न इतिहास भी अब अप्रत्याशित रूप से प्रकाश में लाया जा सकेगा। यापनीय संघ के सम्बन्ध में यथाशक्य पर्याप्त खोज की गई। उस खोज के समय भट्टारक परम्परा के उद्भव एवं विकास के सम्बन्ध में तो ३४९ श्लोकों का एक ग्रन्थ मेकेन्जी के संग्रह में प्राप्त हो गया। कर्नाटक में यापनीय संघ के सम्बन्ध में भी थोड़े बहुत ऐतिहासिक तथ्य मिले। इन सभी को आधार बनाकर अब तक जैन इतिहास के चारों भार प्रकाशित किए जा चुके हैं। इस ग्रन्थ के प्रणयन-परिवर्द्धन-परिमार्जन में श्रद्धेय स्व. आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज सा. ने जो कल्पनातीत श्रम किया था इसके लिए इन महासन्त के प्रति आन्तरिक आभार प्रकट करने हेतु कोष में उपयुक्त शब्द ही नहीं है। स्व. आचार्यश्री के सुशिष्य वर्तमान आचार्य प्रवर हीराचन्द्र जी म. ( ८ ) Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सा. ने इस ग्रन्थ के परिमार्जन व परिवर्द्धन में बड़े श्रम के साथ जो अपना अमूल्य समय दिया, उसके लिए हम आचार्य श्री के प्रति हार्दिक आभार प्रकट करते हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ माला के प्रधान सम्पादक श्री गजसिंह राठौड़ ने द्वितीय संस्करण के सम्पादन में शोध आदि के माध्यम से जो श्रम किया है, उसे कभी नहीं भुलाया जा सकता। द्वितीय संस्करण सहृदय पाठकों की प्रगाढ़ रुचि एवं अत्यधिक मांग के कारण स्वल्प समय में ही समाप्त हो गया अतः तृतीय संस्करण के शीघ्रतः प्रकाशन में हमें गौरव मिश्रित हर्ष का अनुभव हो रहा है। यह संस्करण जैन इतिहास समिति एवं सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल के द्वारा संयुक्त रूप से प्रकाशित किया जा रहा है। पारसचन्द हीरावत चन्द्रराज सिंघवी अध्यक्ष मंत्री जैन इतिहास समिति चेतनप्रकाश डूंगरवाल विमलचंद डागा अध्यक्ष मंत्री सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल ( ९) Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी बात (आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज) धार्मिक इतिहास का आकर्षण किसी भी देश, जाति, धर्म अथवा व्यक्ति के पूर्वकालीन इतिवृत्त को इतिहास कहा जाता है। उसके पीछे विशिष्ट पुरुषों की स्मृति भी हेतु होती है। इतिहास-लेखन के पीछे मुख्य भावना होती है- महापुरुषों की महिमा प्रकट करते हुए भावी पीढ़ी को तदनुकूल आचरण करने एवं अनुगमन करने की प्रेरणा प्रदान करना। सामान्यतः जिस प्रकार देश, जाति और व्यक्तियों के विविध इतिहास प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं, उस प्रकार धार्मिक इतिहासों की उपलब्धि दृष्टिगोचर नहीं होती। इसके परिणामस्वरूप केवल जनसाधारण ही नहीं अपितु अच्छे पढ़े-लिखे विद्वान् भी अधिकांशतः यही समझ रहे हैं कि जैन धर्म का कोई प्राचीन प्रामाणिक इतिहास आज उपलब्ध नहीं है। परन्तु वास्तव में ऐसी बात नहीं है। जैन धर्म के इतिहास-ग्रन्थ यद्यपि चिरकाल से उपलब्ध हैं और उनमें आदिकाल से प्रायः सभी प्रमुख धार्मिक घटनाएं उल्लिखित हैं, तथापि ऐतिहासिक घटनाओं का क्रमबद्ध (सिलसिलेवार) एवं रुचिकर आलेखन किसी एक ग्रंथ के रूप में नहीं होने, तथा ऐतिहासिक सामग्रीपूर्ण ग्रन्थ प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में आबद्ध होने के कारण वे सर्वसाधारण के लिए सहसा बोधगम्य, आकर्षण के केन्द्र एवं सर्वप्रिय नहीं बन सके। यह मानव की दुर्बलता है कि वह प्रायः भोग एवं भोग्य सामग्री की ओर सहज ही आकृष्ट हो जाता है अतः संसार के दृश्य, मोहक पदार्थ और मानवीय जीवन के स्थूल व्यवहारों के प्रति जैसा पाठकों का आकर्षण होता है, वैसा धर्म अथवा धार्मिक इतिहास के प्रति नहीं होता। क्योंकि धर्म एवं धार्मिक इतिहास में मुख्यतः त्याग-तप की बात होती है। जैन धर्म का इतिहास धर्म का स्वतन्त्र इतिहास नहीं होता। सम्यक विचार व आचार रूप धर्म हृदय की वस्तु है, जिसका कब, कहाँ और कैसे उदय, विकास अथवा ह्रास हुआ तथा कैसे विनाश होगा यह अतिशय ज्ञानी के अतिरिक्त किसी को ज्ञात नहीं। ऐसी स्थिति में उसका इतिहास कैसे लिखा जाये यह समस्या है। अतः इन्द्रियातीत अतिसूक्ष्म धर्म का अस्तित्व प्रमाणित करने के लिए धार्मिक महापुरुषों का जीवन और उनका उपदेश ही धर्म का परिचायक है। धर्म का आविर्भाव, तिरोभाव एवं (१०) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकास मनुष्य आदि धार्मिक जीवों में ही होता है क्योंकि धर्म बिना धर्मी अर्थात् गुणी के नहीं होता। अतः धार्मिक मानवों का इतिहास ही धर्म का इतिहास है । धार्मिक पुरुषों में आचार-विचार, उनके देश में प्रचार एवं प्रसार तथा विस्तार का इतिवृत्त ही धर्म का इतिहास है। सम्यक विचार और सम्यक् आचार से रागादि दोषों को जीतने का मार्ग ही जैन धर्म है। वह किसी जाति या देश - विशेष का नहीं, वह तो मानवमात्र के लिए शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति का मार्ग है। धर्म का अस्तित्व कब से है ? इसके उत्तर में शास्त्राकारों ने बतलाया है कि जैसे पचास्तिकायात्मक लोक सदा काल से है, उसी प्रकार आचारांग आदि द्वादशांगी गणिपिटक रूप सम्यक् श्रुत् भी अनादि हैं। Ram भारतवर्ष जैसे क्षेत्र एवं धर्म को मानने वाले व्यक्तियों की अपेक्षा से भोगयुग के पश्चात् धर्म का आदिकाल और अवसर्पिणी के दुःषमकाल के अन्त में धर्म का विच्छेद होने से इसका अन्तकाल भी कहा जा सकता है। इस उद्भव और अवसान के मध्य की अवधि का धार्मिक इतिवृत्त ही धर्म का पूर्ण इतिहास है । प्रस्तुत इतिहास भारतवर्ष और इस अवसर्पिणीकाल की दृष्टि से है। अवसर्पिणीकाल के तृतीय आरक के अन्त में प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव हुए और उन्हीं से देश में विधिपूर्वक श्रुतधर्म और चारित्रधर्म का प्रादुर्भाव हुआ अतः क्षेत्र तथा काल की दृष्टि से यही जैन धर्म का आदिकाल कहा गया है। देश के अन्यान्य धार्मिक सम्प्रदायों ने भी अपने-अपने धर्म को प्राचीन बतलाने का प्रयत्न किया है पर जैन संघ की तरह अन्यत्र कहीं भी धर्म के आदिकाल से लेकर उनके प्रचार, प्रसार एवं विस्तार की आचार्य - परम्परा का क्रमबद्ध निर्देश नहीं मिलता । प्रायः वहाँ राज्य-परम्परा का ही प्रमुखता से उल्लेख मिलता है। ग्रन्थ का नामकरण जैन शास्त्रों के अनुसार इस अवसर्पिणीकाल में २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ वासुदेव और ९ प्रतिवासुदेव — ये ६३ उत्तम पुरुष हुए हैं। प्रकृति के सहज नियमानुसार मानव समाज के शारीरिक, मानसिक आदि ऐहिक और आध्यात्मिक संरक्षण, संगोपन तथा संवर्द्धन के लिए लोकनायक एवं धर्मनायक दोनों का नेतृत्व आवश्यक माना गया है। चक्री या अर्द्धचक्री, जहाँ मानव समाज में व्याप्त संघर्ष और पापाचार का दण्डभय से दमन करते एवं जनता को नीति-मार्ग पर आरूढ़ करते हैं, वहाँ धर्मनायक - तीर्थंकर धर्मतीर्थ की स्थापना करके उपदेशों द्वारा लोगों का हृदय परिवर्तन करते हुए जन-जन के मन में पाप के प्रति घृणा उत्पन्न करते हैं । दण्ड-नीति से दोषों का दमन मात्र होता है पर धर्म-नीति ज्ञानामृत से दोषों को सदा के लिए केवल शान्त ही नहीं करती अपितु दोषों के प्रादुर्भाव के द्वारों को अवरूद्ध करती है। ( ११ ) Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मनायक तीर्थंकर मानव के अन्तर्मन में सोई हुई आत्मशक्ति को जागृत करते और उसे विश्वास दिलाते हैं कि मानव ! तू ही अपने सुख-दुःख का निर्माता है, बाहर में किसी को शत्रु या मित्र समझकर व्यर्थ के रागद्वेष से आकुल-व्याकुल मत बन। ऐसे धर्मोत्तम महापुरुष तीर्थंकरों का प्राचीन ग्रन्थों के आधार से यहाँ परिचय दिया गया है अतः इस ग्रन्थ का नाम 'जैन धर्म का मौलिक इतिहास' रखा गया इतिहास का मूलाधार यों तो इतिहास-लेखन में प्रायः सभी प्राचीन ग्रन्थ आधारभूत होते हैं पर उन सबका मूलभूत आधार दृष्टिवाद है। दृष्टिवाद के पाँच भेदों में से चौथा अनुयोग है, जिसे वस्तुतः जैन धर्म के इतिहास का मूल स्रोत या उद्भव स्थान कहा जा सकता है। समवायांग और नन्दीसूत्र में उल्लिखित हुण्डी के अनुसार प्रथमानुयोग में (१) तीर्थंकरों के पूर्वभव, (२) देवलोक में उत्पत्ति, (३) आयु, (४) च्यवन, (५) जन्म, (६) अभिषेक, (७) राज्यश्री, (८) मुनिदीक्षा, (९) उग्रतप, (१०) केवल ज्ञानोत्पत्ति, (११) प्रथम प्रवचन, (१२) शिष्य, (१३) गण और गणधर, (१४) आर्याप्रवर्तिनी, (१५) चतुर्विध संघ का परिमाण, (१६) केवलज्ञानी, (१७) मनःपर्यवज्ञानी, (१८) अवधिज्ञानी, (१९) समस्त श्रुतज्ञानी-द्वादशांगी, (२०) वादी, (२१) अनुत्तरोपपात वाले, (२२) उत्तरवैक्रिय वाले, (२३) सिद्धगति को प्राप्त होने वाले, (२४) जैसे सिद्धि मार्ग बतलाया और (२५) पादोपगमन में जितने भक्त का तप कर अन्तक्रिया की, उसका वर्णन किया है। इसी प्रकार के अन्य भी अनेक भाव आबद्ध होने का उल्लेख प्राप्त होता मूल प्रथमानुयोग की तरह गण्डिकानुयोग में कुलकर, तीर्थंकर, चक्रवर्ती, दशाह, बलदेव, वासुदेव, गणधर और भद्रबाहु गण्डिका का विचार है। उसमें हरिवंश तथा उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणीकाल का चित्रण भी किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस अनुयोग रूप दृष्टिवाद में इतिहास का सम्पूर्ण मूल बीज निहित कर दिया गया था। इन उपरोक्त उल्लेखों से निर्विवाद रूप से यह स्पष्ट होता है कि जैन धर्म का सम्पूर्ण, सर्वांगपूर्ण और प्रामाणिक इतिहास बारहवें अंग दृष्टिवाद में विद्यमान था। ऐसी दशा में डॉ. हर्मन, जैकोबी जैसे पाश्चात्य विद्वानों का यह अभिमत कि रामायण की कथा जैनों के मूल आगम में नहीं है, वह वाल्मिकीय रामायण अथवा अन्य हिन्दू ग्रन्थों से उधार ली गई है- नितान्त भ्रान्तिपूर्ण एवं निराधार सिद्ध होता है। ( १२ ) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमानुयोग धार्मिक इतिहास का प्राचीनतम शास्त्र माना गया है। जैन धर्म के इतिहास में जितने भी ज्ञात, अज्ञात, उपलब्ध तथा अनुपलब्ध ग्रन्थ हैं उनका मूल स्रोत अथवा आधार प्रथमानुयोग ही रहा है। आज श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा के आगम-ग्रन्थों, समवायांग, नन्दी, कल्पसूत्र और आवश्यक निर्युक्ति में जो इतिहास की यत्र-तत्र झांकी मिलती है, वह सब प्रथमानुयोग की ही देन है। कालप्रभावजन्य क्रमिक स्मृति - शैथिल्य के कारण शनैः शनैः चतुर्दश पूर्वों के साथ-साथ इतिहास का अक्षय भण्डार प्रथमानुयोग और गण्डिकानुयोग रूप वह शास्त्र आज विलुप्त हो गया। वही हमारा मूलाधार है। इतिहास-लेखन में पूर्वाचार्यों का उपकार प्रथमानुयोग और गण्डिकानुयोग के विलुप्त हो जाने के बाद जैन इतिहास को सुरक्षित रखने का श्रेय एकमात्र पूर्वाचार्यों की श्रुतसेवा को है । इस विषय में उन्होंने जो योगदान दिया है, वह कभी भुलाया नहीं जा सकता । आगमाश्रित निर्युक्ति, चूर्ण, भाष्य और टीका आदि ग्रन्थों के माध्यम से उन्होंने जो उपकार किया है, वह आज के इतिहास - गवेषकों के लिए बड़ा ही सहायक सिद्ध हो रहा है । पूर्वाचार्यों ने इस प्रकार ऐतिहासिक सामग्री प्रस्तुत नहीं की होती तो आज हम सर्वथा अन्धकार में रहते अतः वहाँ उन कतिपय ग्रन्थकारों और लेखकों का कृतज्ञतावश स्मरण करना आवश्यक समझते हैं। (9) (२) (३) (४) (५) (६) उनमें सर्वप्रथम आचार्य भद्रबाहु हैं, जिन्होंने दशवैकालिक आवश्यक आदि १० सूत्रों पर नियुक्ति की रचना की। आपका रचनाकाल वीर नि. संवत् १००० के आसपास का है। जिनदास गणी महत्तर — आपने आवश्यक चूर्णि आदि ग्रंथों की रचना की। आपका रचनाकाल ई. सन् ६००-६५० है । अगस्त्य सिंह ने दशवैकालिक सूत्र पर चूर्णि की रचना की। आपका रचनाकाल विक्रम की तीसरी शताब्दी (वल्लभी - वाचना से २००-३०० वर्ष • पूर्व का) है । ५ संघदास गणी ने वृहत्कल्प भाष्य और वसुदेव हिण्डी की रचना की। आपका रचनाकाल ई. सन् ६०९ है । जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यक भाष्य की रचना की। आपका रचनाकाल विक्रम सं. ६४५ है । विमळ सूरि ने पउमचरियं आदि इतिहास ग्रन्थों की रचना की। आपका रचनाकाल विक्रम संवत् ६० है । ( १३ ) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) यतिवृषभ ने तिळोयपण्णत्ती आदि ग्रन्थों की रचना की। आपका रचनाकाल ई. चौथी शताब्दी के आसपास माना गया है। = (<) जिनसेन ने ई. ९वीं शताब्दी के प्रारम्भकाल में आदि पुराण और हरिवंश पुराण की रचना की । . (९) आचार्य गुणभद्र ने शक सम्वत् ८२० में उत्तर पुराण की रचना की । (१०) रविषेण ने ई. सन् ६७८ में पद्मपुराण की रचना की । (99) आचार्य शीळांक ने ई. सन् ८६८ में चउवन महापुरिसचरियं की रचना की । (१२) पुष्पदन्त ने विक्रम सम्वत् १०१६ से १०२२ में अपभ्रंश भाषा के महापुराण नामक इतिहास- ग्रन्थ की रचना की । (१३) भद्रेश्वर ने ईसा की ११वीं शताब्दी में कहावली ग्रन्थ की रचना की । (१४) आचार्य हेमचन्द्र ने ई. सं. १२२६ से १२२९ में त्रिषष्टि-शलाकापुरुषचरित्र नामक इतिहास- ग्रंथ की रचना की । (१५) धर्मसागर गणी ने तपागच्छ-पट्टावली सूत्रवृत्ति नामक (प्राकृत-सं.) इतिहास- ग्रन्थ की रचना वि. सं. १६४६ में की। इन संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषा के इतिहास-ग्रन्थों के अतिरिक्त अनेक ज्ञात और अगणित अज्ञात विद्वानों ने जैन इतिहास के सम्बन्ध में हिन्दी, गुजराती आदि प्रान्तीय भाषाओं में रचनाएं की हैं। जागरूक सन्त-समाज ने अनेकों स्थविरावळियां, सैकड़ों पट्टावलियां आदि लिखकर भी इतिहास की श्रीवृद्धि करने में किसी प्रकार की कोर-कसर नहीं रखी है। उन सबके प्रति हम हृदय से कृतज्ञता प्रकट करते हैं। इतिहास की विश्वसनीयता उपरोक्त पर्यालोचन के बाद यह कहना किंचित्मात्र की अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि हमारा जैन- इतिहास बहुत गहरी सुदृढ़ नींव पर खड़ा है। यह इधर-उधर की किंवदन्ती या कल्पना के आधार से नहीं पर प्रामाणिक पूर्वाचार्यों की अविरळ परम्परा से प्राप्त है। अतः इसकी विश्वसनीयता में लेशमात्र भी शंका की गुंजाइश नहीं रहती । जैसा कि आचार्य विमळसूरि ने अपने पउमचरियं ग्रन्थ में लिखा है :― नामावलिय निबद्धं आयरियपरम्परागयं सव्वं । वोच्छामि पउम चरियं, अहाणुपुव्विं समासेण ॥ ( १४ ) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् आचार्य परम्परागत सब इतिहास जो नामावळी में निबद्ध है, वह संक्षेप में कहूँगा। उन्होंने फिर कहा है : ___ परम्परा से होती आई पूर्व-ग्रन्थों के अर्थ की हानि को काल का प्रभाव समझ कर विद्वज्जनों को खिन्न नहीं होना चाहिए। यथा एवं परम्पराए परिहाणि पुव्वगंथ अत्थाण। नाऊण काळभाव न रुसियव्व बुहजणेण ॥ इससे प्रमाणित होता है कि प्राचीन समय में नामावली के रूप में संक्षिप्त रूप से इतिहास को सुरक्षित रखने की पद्धति बहुमान्य थी। धर्म-संप्रदायों की तरह राजवंशों में भी इस प्रकार इतिहास को सुरक्षित रखने का क्रम चलता था। जैसा कि बीकानेर राज्य के राजवंश की एक ऐतिहासिक उक्ति से स्पष्ट होता है : बीको नरो ळूणसी जैसी कलो राय। दळपत सूरो करणसी अनूप सरूप सुजाय ॥ जोरो गजो राजसी प्रतापो सूरत्त। रतनसी सरदारसी, डूंग गंग महिपत्त ॥ इस प्रकार नामावलि-निबद्ध इतिहास के प्राचीन एवं प्रामाणिक होने से इसकी विश्वसनीयता में कोई शंका नहीं रहती। तीर्थकरों और केवली केवली और तीर्थंकरों में समानता होते हुए भी अंतर है। घाती-कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान का उपार्जेन करने वाले केवली कहलाते हैं। तीर्थंकरों की तरह उनमें केवलज्ञान और केवलदर्शन होता है फिर भी वे तीर्थंकर नहीं कहलाते। ऋषभ देव से वर्धमान-महावीर तक चौबीसों अरिहंत केवली होने के साथ-साथ तीर्थंकर भी हैं। केवली और तीर्थंकर में वीतरागता एवं ज्ञान की समानता होते हुए भी अन्तर है। तीर्थंकर स्वकल्याण के साथ परकल्याण की भी विशिष्ट योग्यता रखते हैं। वे त्रिजगत् के उद्धारक होते हैं। उनका देव, असुर, मानव, पशु, पक्षी, संब पर उपकार होता है। उनकी कई बातें विशिष्ट होती हैं। वे जन्म से ही कुछ विलक्षणता लिए होते हैं जो केवली में नहीं होती। जैसे तीर्थंकर के शरीर पर १००८ लक्षण होते हैं। केवली के नहीं। तीर्थंकर की तरह केवली में विशिष्ट वागतिशय और नरेन्द्र-देवेन्द्र कृत पूजातिशय नहीं होता। उनमें अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र और अनन्त वीर्य होता है पर महाप्रातिहार्य नहीं होते। तीर्थंकर की यह खास विशेषता है कि उनके साथ (१) अशोक वृक्ष, - १. अट्ठसहस्सलक्खणधरी' , उत्तराध्ययन, २२/५ ( १५ ) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) सुरकृत पुष्पवृष्टि, (३) दिव्य ध्वनि, (४) चामर, (५) स्फटिक सिंहासन, (६) भामण्डल- प्रभामण्डल, (७) देव - दुन्दुभि और (८) छत्रत्रय - ये अतिशय होते हैं। इनको प्रातिहार्य कहते हैं। सामान्यरूपेण तीर्थंकर से बारह गुना ऊँचा अशोक वृक्ष होता है। इसके अतिरिक्त तीर्थंकर की ३४ अतिशयमयी विशेषताएं होती हैं। उनकी वाणी भी ३५ विशिष्ट गुणवती होती हैं। सामान्य कैवली के ये अतिशय नहीं होते। तीर्थंकरों का बल तीर्थंकर धर्मतीर्थ के संस्थापक और चालक होते हैं अतः उनका बलवीर्य जन्म से ही अमित होता है। नरेन्द्र चक्रवर्ती ही नहीं सुरेन्द्र से भी तीर्थंकर का बल अनन्त गुना अधिक माना गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ के पृष्ठ ५६३ पर तीर्थंकर के बल को तुलना से समझाया गया है। विशेषावश्यक भाष्य और नियुक्ति में इसको प्रकारान्तर से भी बतलाया है । वसुदेव से द्विगुणित बल चक्रवर्ती का और चक्रवर्ती से अपरिमित बल तीर्थंकर का कहा गया है । वहाँ उदाहरणपूर्वक बताया गया है कि कूप तट पर बैठे हुए वासुदेव को सांकळों से बांधकर सोलह हजार राजा अपनी सेनाओं के साथ पूरी शक्ति लगाकर खींचें तब भी वह लीला से बैठे खाना खाते रहे, तिलमात्र भी हिले-डुलें नहीं ।" तीर्थंकरों का बल इन्द्रों को भी इसलिए हरा देता है कि उनमें तन-बल के साथ-साथ अतुल मनोबल और अदम्य आत्मबल होता है। कथा - साहित्य में नवजात शिशु महावीर द्वारा चरणांगुष्ठ से सुमेरु पर्वत को प्रकम्पित कर देने की बात इसीलिए अतिशयोक्तिपूर्ण अथवा असम्भव नहीं कही जा सकती क्योंकि तीर्थंकर के अतुल बल के समक्ष ऐसी घटनाएँ साधारण समझनी चाहिये । 'अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म में जिसका मन सदा रमा रहता है, उसे देव भी नमस्कार करते और सेवा करते रहते हैं' इस आर्ष वचनानुसार तीर्थंकर भगवान् सदा देव-देवेन्द्रों द्वारा सेवित रहते हैं । १. सोलस रायहस्सा, सव्व-बलेणं तु संकलनिबद्धं । अंछंति वासुदेव, अगडतडम्मि ठियं संत ॥ ७० ॥ घेलूण संकलं सो, वाम हत्थेण अंछमाणाणं । भुँजिज विर्लिपिज्ञ व महुमणं ते न चाएंति ॥ ७१ ॥ दो सोला बत्तीसा, सव्व बलेणं तु संकलनिबद्धं । अंछंति चक्कवट्टि, अगडतडम्मि ठियं संतं ॥ ७२ ॥ घेणं संकलं सो, वामगहत्येण अंछमाणाणें । जिन विलिंपिज व चक्कहरं ते न चायन्ति ॥ ७३ ॥ जं केसवस्स बलं तं दुगुणं होइ चक्कवट्टिस्स । तत्तो बला बलवगा, अपरिमियबला जिणवरिंदा ॥ ७४ ॥ - (विशेषावश्यक भाष्य मूल पृ. ५७-५८, भा. 190-७५ ) ( १६ ) Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर और क्षत्रिय-कुल तीर्थंकरों ने साधना और सिद्धान्त में सर्वत्र गुण और तप की प्रधानता बतलाई है, जाति या कुल की प्रधानता नहीं मानी। ऐसी स्थिति में प्रश्न होता है कि तीर्थंकरों का जन्म क्षात्र-कुलों में ही क्यों माना गया ? क्या इसमें जातिवाद की गन्ध नहीं है ? जैन शास्त्रानुसार जाति में जन्म की अपेक्षा गुणकर्म की प्रधानता मानी गई है। जैसी कि उक्ति प्रसिद्ध है 'कम्मुणा बंभणो होई, कम्मुणा होई खत्तिओ।' (उत्त. २३। ३३) 'ब्राह्मण या क्षत्रिय कर्मानुसार होता है। ब्राह्मण-ब्रह्मचर्य-सत्य-संतोष-प्रधान भिक्षाजीवी होता है जबकि क्षत्रिय ओजस्वी, तेजस्वी, रणक्रिया-प्रधान प्रभावशाली होता है। धर्म-शासन के संचालन और रक्षण में आन्तरिक सत्य शीलादि गुणों के साथ-साथ ओजस्विता की भी परम आवश्यकता रहती है अन्यथा दुर्बल की दया के समान साधारण जन-मन पर धर्म का प्रभाव नहीं होगा। ब्राह्मण कुलोत्पन्न व्यक्ति शान्त, सुशील एवं मृदु स्वभाव वाला होता है, तेज-प्रधान नहीं। उसके द्वारा किया गया अहिंसा-प्रचार प्रभावोत्पादक नहीं होता। क्षात्र-तेज वाला शस्त्रास्त्र-सम्पन्न व्यक्ति राज्य-वैभव को साहसपूर्वक त्यागकर अहिंसा की बात करता है तो अवश्य उसका प्रभाव होता है। यही कारण है कि जातिवाद से दूर रहकर भी जैन धर्म ने तीर्थंकरों का क्षात्रकुल में ही जन्म मान्य किया है। दरिद्र, भिक्षुक-कुल, कृपण-कुल आदि का खास निषेध किया है। ऋषभदेव से महावीर तक सभी तीर्थंकर क्षत्रिय-कुल के विमल गगन में उदय पाकर संसार को विमल ज्योति से चमकाते रहे। कठोर-से-कठोर कर्म काटने में भी उन्होंने अपने तपोबल से सिद्धि प्राप्त की। तीर्थकर की स्वाश्रित साधना देव-देवेन्द्रों से पूजित होकर भी तीर्थंकर अपनी तप-साधना में स्वावलम्बी होते हैं। वे किसी देव-दानव या मानव का कभी सहारा नहीं चाहते। भगवान् पार्श्वनाथ और महावीर की साधना में धरणेन्द्र, सिद्धार्थ देव और शक्रेन्द्र का सेवा में आकर उपसर्ग-दाताओं को हटाने का उल्लेख आता है पर पार्श्वनाथ या महावीर ने मारणान्तिक कष्टों में भी उनकी साहाय्य की इच्छा नहीं की। जब भी श्रमण भगवान् महावीर से देवेन्द्र ने निवेदन किया- भगवन् ! आप पर भयंकर कष्ट और उपसर्ग आने वाले हैं। आज्ञा हो तो मैं आपकी सेवा में रहकर कष्ट निवारण करना चाहता उत्तर में प्रभु ने यही कहा- "शक्र ! स्वयं द्वारा बांधे हुये कर्म स्वयं को ही काटने होते हैं। दूसरों की सहायता से फलभोग का समय आगे-पीछे हो १. तवो विसेसो, न जाइ विसेस कोइ। उ. १२/३७ २. देखें कल्पसूत्र। ( १७) Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ andit -MINIVAAMAS सकता है पर कर्म नहीं कटते। तीर्थंकर स्वयं ही कर्म काट कर अरिहंत-पद प्राप्त करते हैं। इसी भाव से प्रभु ने शूलपाणि यक्ष के उपसर्ग और एक रात में ही संगमकृत बीस उपसर्गों की समतापूर्वक सहन किया ? प्रभु यदि मन में भी लाते कि ऐसा क्यों हो रहा है तो इन्द्र सेवा में तैयार था पर प्रभु अडोल रहे। प्रत्येक तीर्थंकर के शासन-रक्षक यक्ष, यक्षिणी होते हैं, जो समय-समय पर शासन की संकट से रक्षा और तीर्थंकरों के भक्तों की इच्छा पूर्ण करते रहते हैं। तीर्थंकर भगवान् अपने कष्ट-निवारणार्थ उन्हें भी याद नहीं करते। इसके अतिरिक्त भी जब भगवान् महावीर ने देखा कि परिचित भूमि में लोग उन पर कष्ट और परीषह नहीं आने देते हैं, तब अपने कर्मों को काटने हेतु वे वज्रभूमि शुभ्रभूमि जैसे अनार्य-खण्ड में चले गये, जहाँ कोई भी परिचित न होने के कारण उनकी सहाय या कष्ट-निवारण न कर सके। वहाँ कैसे-कैसे कष्ट सहे, यह विहार चर्या में पढ़ें। इस प्रकार की अपनी कठोरतम दिनचर्या एवं जीवनचर्या से तीर्थंकरों ने संसार को यह पाठ पढ़ाया कि प्रत्येक व्यक्ति को साहस के साथ अपने कर्मों को काटने में जुट जाना चाहिए। फलभोग के समय घबराकर भागना वीरता नहीं। अशुभ फल को भोगने में भी धीरता के साथ डटे रहना और शुभ ध्यान से कर्म काटना ही वीरत्व है। यही शान्ति का मार्ग है। तीर्थंकरों का अंतरकाल एक तीर्थंकर के निर्वाण के पश्चात् दूसरे तीर्थंकर के निर्वाण तक के काल को मोक्ष-प्राप्ति का अन्तरकाल कहते हैं। एक तीर्थंकर के जन्म से दूसरे तीर्थंकर के जन्म तक और एक की केवलोत्पत्ति से दूसरे की केवलोत्पत्ति तक का अन्तरकाल भी होता है पर यह निर्वाणकाल की अपेक्षा अन्तरकाल है। प्रवचन सारोद्धार और तिलोयपण्णत्ती में इसी दृष्टि से तीर्थंकरों का अन्तरकाल बताया गया है। प्रवचन सारोद्धार की टीका एवं अर्थ में स्पष्ट रूप से कहा है कि समुत्पन्न का अर्थ जन्मना नहीं करके 'सिद्धत्वेन समुत्पन्नः' अर्थात् सिद्ध हुए करना चाहिए। तभी बराबर काल की गणना बैठ सकती है। तीर्थंकरों के अन्तरकालों में उनके शासनवर्ती आचार्य और स्थविर तीर्थंकर-वाणी के आधार पर धर्म तीर्थ का अक्षुण्ण संचालन करते हैं। आत्मार्थी साधक शास्त्रानुकूल आचरण कर सिद्धि भी प्राप्त करते हैं। प्रथम १. इतिहास का पृ. ५७११ २. इतिहास का पृ. ५७४-७७, ५९९-६०४ ३. (क) समवायांग (ख) तिलोयपण्णत्ती ४/९३४-३९ ४. इतिहास का पृ. ५९२-९३ ( १८) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर श्री ऋषभदेव से सुविधिनाथ तक के आठ अन्तर और शान्तिनाथ से महावीर तक के ८ इन कुल १६ अंतरों में संघरूप तीर्थ का विच्छेद नहीं हुआ। पर सुविधिनाथ से शान्तिनाथ तक के सात अंतरों में धर्मतीर्थ का विच्छेद हो गया। / संभव है उस समय कोई खास राजनैतिक या सामाजिक संघर्ष के कारण जैन धर्म पर बड़ा संकट आया हो । आचार्य के अनुसार सुविधिनाथ के पश्चात् और शीतलनाथ से पूर्व इतना विषम समय था कि लोग जैन धर्म की बात करने में भी भय खाते थे। कोई धर्म-श्रवण के लिए भी तैयार नहीं होता । इस प्रकार चतुर्विध संघ में नई वृद्धि नहीं होने से तीर्थ का विच्छेद हो गया। भरतकालीन ब्राह्मण जो धर्मच्युत हो गये थे, उनका प्रभुत्व बढ़ने लगा । ब्राह्मणों को अन्न-धन-स्वर्णादि का दान करना ही धर्म का मुख्य अंग माना जाने लगा । भ. शीतलनाथ के तीर्थ के अन्तिम भाग में राजा मेघरथ भी इस उपदेश से प्रभावित हुआ और उसने मंत्री की वीतराग-मार्गानुकूल सलाह को भी अस्वीकार कर दिया । " संभव है शीतलनाथ के शासनकाल की तरह अन्य सात तीर्थंकरों के अन्तर में भी ऐसे ही किसी विशेष कारण से तीर्थ का विच्छेद हुआ हो। तीर्थ-विच्छेदों का कुल समय पौने तीन पल्य बताया गया है । वास्तविकता यह है कि भगवान् ऋषभदेव से सुविधिनाथ तक के अन्तर में दृष्टिवाद को छोड़कर ग्यारह अंग- शास्त्र विद्यमान रहते हैं पर सुविधिनाथ से शान्तिनाथ तक के अंतरों में बारहों अंग - शास्त्रों का पूर्ण विच्छेद माना गया है। शान्तिनाथ से महावीर के पूर्व तक भी दृष्टिवाद का ही विच्छेद होता है । अन्य ग्यारह अंग - शास्त्रों का नहीं जैसा कि कहा है : मुत्तूण दिट्ठिवायं हवंति एक्कारसेव अंगाई । अट्ठसु जिणंतरेसु, उसह जिणिंदाओ जा सुविही ॥ ४३४ ॥ सत्तसु जिणंतरेसु, वोच्छिन्नाइं दुवालसंगाई | सुविहि जिणा जा संति, कालपमाणं कमेणेसिं ॥ ४३५ ॥ अट्ठसु जिणंतरेसु, वोच्छिन्नाई न हुन्ति अंगाई । संति जिणा जा वीरं वुच्छिन्नो दिट्ठिवाउ तहिं ॥ ४३६ ॥ (प्रवचन सारोद्धार द्वार, ३६) ऋषभदेव से भगवान वर्द्धमान महावीर तक चौबीस तीर्थंकरों के शासनकाल में सात अंतरों को छोड़कर निरंतर धर्मतीर्थ चलता रहा । संख्या में न्यूनाधिक होने पर भी कभी भी चतुर्विध संघ का सर्वथा अभाव नहीं हुआ । कारण कि धर्मशास्त्र - ग्यारह अंग परंपरा से सुरक्षित रहे । शास्त्र रक्षा ही धर्म रक्षा का सर्वोपरि साधन है। तिलोयपण्णत्ती के अनुसार चौबीस तीर्थकरों के जन्म से २३ अन्तरकाल निम्न प्रकार हैं : — १. उत्तरपुराण, पूर्व ५६, श्लो ६६-९६ ( १९ ) Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय काल के चौरासी लाख पूर्व, ३ वर्ष, ८ मास और एक पक्ष शेष रहने पर भगवान् ऋषभदेव का जन्म हुआ। १. भगवान ऋषभदेव की उत्पत्ति के पश्चात् पचास लाख करोड़ सागर और बारह लाख पूर्व बीत जाने पर भगवान् अजितनाथ का जन्म हुआ। भगवान् अजितनाथ की उत्पत्ति के पश्चात् ३० लाख करोड़ सागर और बारह लाख पूर्व वर्ष व्यतीत होने पर भगवान् संभवनाथ का जन्म हुआ। भगवान् संभवनाथ के जन्म के पश्चात् १० लाख करोड़ सागर और १० लाख पूर्व बीत जाने पर भगवान् अभिनन्दन का जन्म हुआ। भगवान् अभिनन्दन की उत्पत्ति के पश्चात् ९ लाख करोड़ सागर और दस लाख पूर्व व्यतीत हो जाने पर भगवान् सुमतिनाथ का जन्म हुआ। भगवान सुमतिनाथ के जन्म के अनन्तर ९० हजार करोड़ सागर और १० लाख पूर्व वर्ष बीत जाने पर भगवान पद्मप्रभ का जन्म हुआ। भगवान् पद्मप्रभ के जन्म के पश्चात ९ हजार करोड़ सागर और १० लाख पूर्व व्यतीत होने पर भगवान् सुपार्श्वनाथ का जन्म हुआ। भगवान सुपार्श्वनाथ की उत्पत्ति के ९०० करोड़ सागर और १० लाख पूर्व वर्ष बीतने पर भगवान् चन्द्रप्रभ का जन्म हुआ। भगवान् चन्द्रप्रभ के जन्म के पश्चात् ९० करोड़ सागर और ८ लाख पूर्व वर्ष व्यतीत हो जाने पर भगवान् सुविधिनाथ (पुष्पदंत्त) का जन्म हुआ। भगवान् सुविधिनाथ के जन्म से ९ करोड़ सागर और एक लाख पूर्व वर्ष पश्चात् भगवान् शीतलनाथ का जन्म हुआ। भगवान शीतलनाथ के जन्म के अनन्तर एक करोड़ सागर और एक लाख पूर्व में एक सौ सागर एवं एक करोड़ पचास लाख छब्बीस हजार वर्ष कम समय व्यतीत होने पर भगवान् श्रेयांसनाथ का जन्म हुआ। भगवान् श्रेयांसनाथ के जन्म के पश्चात् चौवन सागर और १२ लाख वर्ष बीतने पर भगवान् वासुपूज्य का जन्म हुआ। १२. भगवान् वासुपूज्य के जन्म के पश्चात् ३० सागर और १२ लाख वर्ष बीतने पर भगवान् विमलनाथ का जन्म हुआ। भगवान् विमलनाथ के जन्म के अनन्तर ९ सागर और ३० लाख वर्ष व्यतीत होने पर भगवान् अनन्तनाथ का जन्म हुआ। (२०) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. भगवान् अनन्तनाथ के जन्म के पश्चात् ४ सागर और २० लाख वर्ष व्यतीत होने पर भगवान् धर्मनाथ का जन्म हुआ। भगवान् धर्मनाथ के जन्म के पश्चात पौन पल्य कम तीन सागर और ९ लाख वर्ष बीतने पर भगवान् शान्तिनाथ का जन्म हुआ। भगवान् शान्तिनाथ के जन्म के पश्चात् आधा पल्य और ५ हजार वर्ष बीतने पर भगवान् श्री कुंथुनाथ का जन्म हुआ। भगवान् कुंथुनाथ के जन्म के पश्चात् ग्यारह हजार वर्ष कम एक हजार करोड़ वर्ष न्यून पाव पल्य बीतने पर भगवान् अरनाथ का जन्म हुआ। भगवान् अरनाथ के जन्म के पश्चात् उनत्तीस हजार वर्ष अधिक एक हजार करोड़ वर्ष बीतने पर भगवान् मल्लिनाथ का जन्म हुआ। भगवान् मल्लिनाथ के जन्म के पश्चात् चौवन लाख पचीस हजार वर्ष व्यतीत होने पर भगवान् मुनिसुव्रत का जन्म हुआ। भगवान् मुनिसुव्रत स्वामी के जन्म के पश्चात् ६ लाख बीस हजार वर्ष बीतने पर भगवान् नमिनाथ का जन्म हुआ। भगवान् नमिनाथ के जन्म के पश्चात् पाँच लाख नौ हजार वर्ष बीतने पर भगवान् अरिष्टनेमि का जन्म हुआ। भगवान् अरिष्टनेमि के जन्म के पश्चात् चौरासी हजार ६५० वर्ष व्यतीत होने पर भगवान् पार्श्वनाथ का जन्म हुआ। भगवान् पार्श्वनाथ के जन्म के पश्चात् दो सौ अठहत्तर (२७८) वर्ष व्यतीत होने पर भगवान् महावीर का जन्म हुआ। २३. विचार और आचार .. सामान्यरूप से देखा जाता है कि अच्छे-से-अच्छे महात्मा भी उपदेश में जैसे उच्च विचार प्रस्तुत करते हैं, आचार उनके अनुरूप नहीं पाल सकते। अनेक तो उससे विपरीत आचरण करने वाले भी मिलेंगे। परन्तु तीर्थंकरों के जीवन की यह विशेषता होती है कि वे जिस प्रकार के उच्च विचार रखते हैं, पूर्णतः वैसा का वैसा ही प्रचार, समुच्चार और आचार भी रखते हैं। उनका आचार उनके विचारों से भिन्न अथवा विदिशागामी नहीं होता। फिर भी तीर्थंकरों की जीवन घटनाएं देखकर कई स्थलों पर साधारण व्यक्ति को शंकाएं हो सकती हैं। उदाहरणस्वरूप कुछ आचार्यों ने लिखा है कि भगवान् महावीर ने दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् ज्योंही विहार किया तो एक दरिद्र (२१) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्राह्मण मार्ग में आ करुणाजनक स्थिति में उनसे कुछ याचना करने लगा। दया से द्रवित हो प्रभु ने देवदूष्य का एक खण्ड फाड़कर उसे दे दिया। साधु के लिए गृहस्थ को रागवृद्धि के कारणरूप वस्त्रादि दान का निषेध करने वाले प्रभु स्वयं वैसा करें यह कैसे सम्भव है ? क्योंकि प्रभु में अनन्त दया होती है, वस्त्र फाड़कर देने रूप सीमित दया नहीं होती। मान लें कि भगवान् का हृदय दया से पिघल गया तो भी देवदूष्य को फाड़ने की उनको आवश्यकता नहीं थी। संभव है सेवा में रहने वाले सिद्धार्थ आदि किसी देव ने ऐसा किया हो। उस दशा में आचार्यों द्वारा ऐसा लिखना संगत हो सकता है। इसी प्रकार तीर्थंकर का सर्वथा अपरिग्रही होकर भी देवकृत छत्र, चामरादि विभूतियों के बीच रहना साधारण जन के लिए शंका का कारण हो सकता है। आज के बुद्धिवादी लोग तीर्थंकर की देवकृत भक्ति का गलत अनुकरण करना चाहते हैं। वास्तव में तीर्थंकर की स्थिति दूसरे प्रकार की थी। देवकृत महिमा के समय तीर्थंकर को केवलज्ञान हो चुका था। वे पूर्ण वीतरागी बन चुके थे। आज के संत । या गुरु छद्मस्थ होने के कारण सरागी हैं। तीर्थंकर के तीर्थंकर नामकर्म के उदय होने से देव स्वयं शाश्वत नियमानुसार छत्र चामरादि विभूतियों से उनकी महिमा करते, वैसी आज के संतों की विशिष्ट पुण्य प्रकृतियों का उदय नहीं है, जिससे कि तीर्थंकरों के समवशरण की तरह पुष्पवर्षा कर भक्तों को बाह्याडम्बर हेतु निमित्त बनना पड़े। रागादि का उदय होने से आज की महिमा पूजा दोनों के लिए बन्ध का कारण हो सकती है अतः शासनप्रेमियों को तीर्थंकर के नाम का मिथ्यानुकरण । नहीं करना चाहिए। निश्चय और व्यवहार वीतराग और कल्पातीत होने के कारण तीर्थंकर व्यवहार की मर्यादाओं से बधे नहीं होते। इतना होते हुए भी तीर्थंकरों ने हमें निश्चय एवं व्यवहार रूप मोक्षमार्ग का उपदेश दिया और स्वयं ने व्यवहार-विरुद्ध प्रवृत्ति नहीं की। फिर भी आचार्यों ने केवलज्ञान के पश्चात् भगवान महावीर का रात्रि में विहार कर महासेन वन पधारना माना है। यह ठीक है कि केवलज्ञानी के लिए रात-दिन का भेद नहीं होता फिर भी यह व्यवहार-विरुद्ध है। वृहत्कल्पसूत्र की वृत्ति के अनुसार प्रभु ने व्यवहार-पालन हेतु प्यास और भूख से पीड़ित साधुओं को जंगल में सहज अचित्त पानी एवं अचित्त तिलों के होते हुए भी खाने-पीने की अनुमति नहीं दी। नियुक्तिकार ने 'राईए संपत्तो महसेणवणम्मि उन्नाणे' लिखा है। वैसे आवश्यक चूर्णि आदि में दरिद्र ब्राह्मण को वस्त्र खण्ड देने का भी उल्लेख है। इन सबकी क्या संगति हो सकती है, इस पर गीतार्थ गम्भीरता से विचार करें। हम इतना निश्चित रूप से कह सकते हैं कि तीर्थंकर 'जहा वाई तहा १. वृहत्कल्प भा. भा. २, गा. ९९७, पृ. ३१४-१५ ( २२ ) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारिया वि हवइ' होते हैं। उनका आचार विचारानुगामी और व्यवहार में अविरुद्ध होता है। निश्चय मार्ग के पूर्ण अधिकारी होते हुए भी तीर्थंकर व्यवहार-विरुद्ध प्रवृत्ति नहीं करते। तीर्थंकरों का रात्रि-विहार नहीं करना और मल्लिनाथ का केवलज्ञान के बाद भी साधु-सभा में न रहकर साध्वी-सभा में रहना आदि, व्यवहार-विरुद्ध प्रवृत्ति नहीं करने के ही प्रमाण हैं। तीर्थंकरकालीन महापुरुष भगवान् ऋषभदेव से महावीर तक २४ तीर्थंकरों के समय में अनेक ऐसे महापुरुष हुए हैं, जो राज्याधिकारी होकर भी मुक्तिगामी माने गये हैं। उनमें २४ तीर्थंकरों के साथ बारह चक्रवर्ती, नव बलदेव, नव वासुदेव इस तरह कुल मिलाकर ५४ महापुरुष कहे गये हैं। पीछे और नव प्रतिवासुदेवों को जोड़ने से त्रिषष्टि शलाका-पुरुष के रूप में कहे जाने लगे। भरत चक्रवर्ती भगवान ऋषभदेव के समय में हुए जिनके सम्बन्ध में जैन, हिन्दू और बौद्ध-ये भारत की तीनों प्रमुख परम्पराएं एक मत से स्वीकार करती हैं कि इन्हीं ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा। सगर चक्रवर्ती दूसरे तीर्थंकर भगवान अजितनाथ के समय में, मघवा और सनत्कुमार भगवान् धर्मनाथ एवं शान्तिनाथ के अन्तरकाल में हुए। भगवान् शान्तिनाथ, कुंथुनाथ एवं अरनाथ चक्री और तीर्थंकर दोनों ही थे। आठवें सुभौम चक्रवर्ती भगवान् अरनाथ और मल्लिनाथ के अन्तरकाल में हुए। नौवें चक्रवर्ती पद्म भगवान् मल्लिनाथ और भगवान् मुनिसुव्रत के अन्तरकाल में हुए। दसवें चक्रवर्ती हरिषेण भगवान् मुनिसुव्रत और भगवान् नमिनाथ के अन्तरकाल में हुए। ग्यारहवें चक्रवर्ती जय भगवान् नमिनाथ और भगवान् अरिष्टनेमि के अन्तरकाल में तथा बारहवें चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त भगवान् अरिष्टनेमि और भगवान् पार्श्वनाथ के मध्यवर्ती काल में हुए। त्रिपृष्ठ आदि पांच वासुदेव भगवान् श्रेयांसनाथ आदि पांच तीर्थंकरों के काल में हए। भगवान अरनाथ और मल्लिनाथ के अन्तरकाल में पुण्डरीक, भगवान् मल्लिनाथ और मुनिसुव्रत के अन्तरकाल में दत्त नामक वासुदेव हुए। भगवान् मुनिसुव्रत और नमिनाथ के अन्तरकाल में लक्ष्मण वासुदेव और भगवान् अरिष्टनेमि के समय में श्रीकृष्ण वासुदेव हुए। वासुदेव आदि की तरह ग्यारह रुद्र, ९ नारद और कहीं बाहुबली आदि चौबीस कामदेव भी माने गये हैं। (१) भीमावलि, (२) जितशत्रु, (३) रुद्र, (४) वैश्वानर, (५) सुप्रतिष्ठ, (६) ( २३ ) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचल, (७) पुण्डरीक, (८) अजितंधर, (९) अजितनाभि, (१०) पीठ और (११) सात्यकि-ये ग्यारह रुद्र माने गये हैं। (१) भीम, (२) महाभीम, (३) रुद्र, (४) महारुद्र, (५) काल, (६) महाकाल, (७) दुर्मुख, (८) नरमुख और (९) अधोमुख नामक नौ नारद हुए। ये सभी भव्य एवं मोक्षगामी माने गये हैं। प्रथम रुद्र भगवान् ऋषभदेव के समय में, दूसरे रुद्र भगवान् अजितनाथ के समय में, तीसरे रुद्र से नौवें रुद्र तक सुविधिनाथ आदि सात तीर्थंकरों के समय में, दसवें रुद्र भगवान् शान्तिनाथ के समय में और ग्यारहवें रुद्र भगवान् महावीर के समय में हुए। अन्तिम दोनों रुद्र नरक के अधिकारी माने गये हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में धार्मिक इतिहास-लेखन का मुख्य दृष्टिकोण होने से चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव आदि का यथावत् विस्तृत वर्णन नहीं किया गया है। चक्रवर्तियों में से भरत और ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती का, वासुदेवों में श्रीकृष्ण का और प्रतिवासुदेवों में से जरासन्ध का ऐतिहासिक दृष्टिकोण से संक्षिप्त वर्णन किया गया है। रुद्र एवं नारदों के लिए तिलोयपण्णत्ती के चतुर्थ महाधिकार में पठनीय सामग्री उल्लिखित है। भगवान् महावीर के भक्त राजाओं में श्रेणिक, कूणिक, चेटक, उदायन आदि प्रमुख राजाओं का परिचय दिया गया है। श्रेणिक, भगवान् महावीर के शासन का प्रभावक भूपति हुआ है। उसने शासन-सेवा से तीर्थंकर-गोत्र का उपार्जन किया। पूर्वबद्ध निकाचित कर्म के कारण उसे प्रथम नरकभूमि में जाना पड़ा। उसने अपने नरक-गति के बंध को काटने हेतु सभी प्रकार के प्रयत्न किये। श्रमण भगवान् महावीर की चरण-शरण ग्रहण कर उसने अपने नरक-गमन से बचने का कारण पूछा। आवश्यक चूर्णि के अनुसार प्रभु ने उसे नरक से बचने के दो उपाय-क्रमशः कालशौकरिक से हिंसा छुड़ाना और कपिला ब्राह्मणी से भिक्षा दिलाना बताये। श्रेणिक चरित्र में नमुक्कारसी पच्चखाण, श्रेणिक की दादी द्वारा मुनि-दर्शन और पूणिया श्रावक से सामायिक का फल खरीदना-ये तीन कारण अधिक बताये गये हैं। श्रेणिक ने भरसक प्रयत्न किया पर नमुक्कारसी का व्रत करने में सफल नहीं हो सका। अपनी दादी द्वारा मुनिदर्शन के दूसरे उपाय के सम्बन्ध में उसे विश्वास था कि उसकी प्रार्थना पर उसकी दादी अवश्य ही मुनिदर्शन कर लेगी और उसके फलस्वरूप सहज ही वह नरक-गमन से बच जायेगा। परन्तु श्रेणिक द्वारा लाख प्रयत्न करने पर भी उसकी दादी ने मुनिदर्शन करना स्वीकार नहीं किया। नरक से बचने का तीसरा उपाय पूणिया श्रावक की सामायिक खरीदना था। पर पूणिया श्रावक की सामायिक तो त्रैलोक्य की समस्त सम्पत्ति से भी अधिक कीमती एवं अमूल्य थी अतः वह कीमत से मिलती ही कैसे ? अन्त में श्रेणिक ने समझ लिया कि उसका नरक-गमन अवश्यंभावी है। ( २४ ) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर और नाथ संप्रदाय तीर्थंकरों का उल्लेख जैन साहित्य के अतिरिक्त वेद, पुराण आदि वैदिक और त्रिपिटक आदि बौद्ध धर्म-ग्रन्थों में भी उपलब्ध होता है । परन्तु उनमें ऋषभ, संभव, सुपार्श्व, अरिष्टनेमि आदि रूप से ही उल्लेख मिलता है, कहीं भी नाथ पद से युक्त तीर्थंकरों के नाम उपलब्ध नहीं होते। समवायांग, आवश्यक और नंदीसूत्र में भी नाथ- पद के साथ नामों का उल्लेख नहीं मिलता। ऐसी स्थिति में सहज ही यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि तीर्थंकरों के नाम के साथ 'नाथ' शब्द कब से और किस अर्थ में प्रयुक्त होने लगा । शब्दार्थ की दृष्टि से विचार करते हैं तो नाथ शब्द का अर्थ स्वामी या प्रभु होता है । आगम में वशीकृत - आत्मा के लिए भी नाथ शब्द का प्रयोग किया गया है । जैसे कि उत्तराध्ययन सूत्र में अनाथी मुनि के शब्दों में कहा गया है खन्तो दन्तो निरारंभो, पव्वइओ अणगारियं ॥ तो हं नाहो जाओ, अप्पणो य परस्स य ॥ ३४ ॥ (उ., अ. २०) । अर्थात् "जब मैं शान्त, दान्त और निरारम्भी रूप से प्रव्रजित हो गया, तब अपना और पर का नाथ हो गया।" ३५ ॥ प्रत्येक तीर्थंकर त्रिलोकस्वामी और उपरोक्त महान् गुणों से सम्पन्न होते हैं अतः उनके नाम के साथ 'नाथ' उपपद का लगाया जाना नितान्त उपयुक्त एवं उचित ही है । प्रभु, नाथ, देव एवं स्वामी आदि शब्द एकार्थक हैं अतः तीर्थंकर के नाम के साथ देव, नाथ अथवा स्वामी उपपद लगाया गया है। सर्वप्रथम भगवती सूत्र में भगवान् महावीर का और आवश्यक सूत्र में अरिहन्तों का उत्कीर्तन करते हुए 'लोगनाहेणं', 'लोग नाहाणं' विशेषण से उन्हें लोकनाथ कहा है। टीकाकार ने 'नाथ' शब्द की एक दूसरी व्याख्या भी की है। 'योगक्षेम - कृन्नाथः ' अलभ्यलाभो योगः, लब्धस्य परिपालनं क्षेमः । इस दृष्टि से तीर्थंकर भव्य जीवों के लिए अलब्ध सम्यग्दर्शन आदि का लाभ और लब्ध सम्यग्दर्शन का परिपालन करवाते हैं अतः वे इस अपेक्षा से भी नाथ कहे जा सकते हैं। -- चौथी शताब्दी के आस-पास हुए दिगम्बर आचार्य यतिवृषभ ने अपने ग्रन्थ 'तिलोयपण्णत्ती' में अधोलिखित कतिपय स्थलों पर तीर्थंकरों के नाम के साथ 'नाथ' शब्द का प्रयोग किया है :– 'भरणी रिक्खम्मि संतिणाहो य।' ति. प. ४ । ५४१ । 'विमलस्स तीसलक्खा, अणंतणाहस्स पंचदसलक्खा ।' ( २५ ) ( ति. प. ४ । ५९९) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यतिवृषभ ने तीर्थंकरों के नाम के आगे नाथ शब्द की तरह ईसर और सामी पदों का भी उल्लेख किया है। यथा :'रिसहेसरस्स भरहो, सगरो अजिएसरस्स पच्चक्ख' (ति. प. ४१२८३)। 'लक्खा पणप्पमाणा वासाणं धम्मसामिस्स ।' (ति. प. ४५९९)। इससे इतना तो सुनिश्चित एवं निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि चौथी शताब्दी में यतिवृषभ के समय में तीर्थंकरों के नाम के साथ नाथ शब्द का प्रयोग लिखने-पढ़ने व बोलने में आने लगा था। जैन तीर्थंकरों के नाम के साथ लगे हुए नाथ शब्द की लोकप्रियता शनैः शनैः इतनी बढ़ी कि शैवमती योगी अपने नाम के साथ मत्स्येन्द्रनाथ, गौरखनाथ आदि रूप से नाथ शब्द जोड़ने लगे फलस्वरूप इस संप्रदाय का नाम ही 'नाथ संप्रदाय' के रूप में पहिचाना जाने लगा। इतर संप्रदाय के साधारण लोग जो सर्वथा आदिनाथ, अजितनाथ आदि तीर्थंकरों की महिमा और उनके इतिहास से अनभिज्ञ हैं, गोरखनाथ की परम्परा में नीमनाथी, पारसनाथी नाम देख कर भ्रान्ति में पड़ सकते हैं कि गोरखनाथ से नेमनाथ पारसनाथ हुए या नेमनाथ पारसनाथ से गोरखपंथी हुए। सही स्थिति यह है कि मत्स्येन्द्रनाथ जो नाथ संप्रदाय के मूल प्रवर्तक एवं आदि आचार्य माने जाते हैं, उनका समय ईसा की आठवीं शताब्दी माना गया है जबकि तीर्थंकर भगवान् नेमनाथ, पारसनाथ और जैन धर्मानुयायी हजारों वर्ष पहले के हैं। नेमनाथ पार्श्वनाथ से ८३ हजार वर्ष पूर्व हो चुके हैं। दोनों में बड़ा कालभेद है। अतः गोरखनाथ से नेमनाथ पारसनाथ या जैन धर्मानुयायियों के होने की तो संभावना ही नहीं हो सकती। ऐसी मिथ्या कल्पना विद्वानों के लिए किसी भी तरह विश्वसनीय नहीं हो सकती। हाँ नेमनाथ पारसनाथ से गोरखनाथ की संभावना की जा सकती है। पर विचारने पर वह भी ठीक नहीं बैठती क्योंकि भगवान् पार्श्वनाथ विक्रम संवत् से ७२५ वर्ष से भी अधिक पहले हो चुके हैं जबकि गोरखनाथ को विद्वानों ने बप्पा रावल का भी समकालीन माना है। हो सकता है कि भगवान् नेमनाथ के व्यापक अहिंसा प्रचार का जिसने कि पूरे यादव वंश का मोड़ बदल दिया था, नाथ परम्परा पर प्रभाव पड़ा हो और पार्श्वनाथ के कमठ प्रतिबोध की कथा से नाथ परम्परा के योगियों का मन प्रभावित हुआ हो और इस आधार से नीमनाथी, पारसनाथी परम्परा प्रचलित हुई हो। जैसा कि प्रसिद्ध इतिहासज्ञ हजारी प्रसाद १. हमारी अपनी धारणा यह है कि इसका उदय लगभग ८वीं शताब्दी के आसपास हुआ था। मत्स्येन्द्रनाथ इसके मूल प्रवर्तक थे। - हिन्दी की निर्गुण काव्य धारा और उसकी दार्शनिक पृष्ठ भूमि। पृ. ३२७ (२६) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विवेदी ने अपनी 'नाथ संप्रदाय' नामक पुस्तक में लिखा है : "चांदनाथ संभवतः वह प्रथम सिद्ध थे जिन्होंने गोरक्षमार्ग को स्वीकार किया था। इसी शाखा के नीमनाथी और पारसनाथी नेमिनाथ और पार्श्वनाथ नामक जैन तीर्थंकरों के अनुयायी जान पड़ते हैं। जैन साधना में योग का महत्त्वपूर्ण स्थान है। नेमिनाथ और पार्श्वनाथ निश्चय ही गोरक्षनाथ के पूर्ववर्ती थे। ऐतिहासिक मान्यताओं में मतभेद ___ “यहाँ यह प्रश्न उपस्थित किया जा सकता है कि जैन इतिहास का मूलाधार जब सबका एक है तो फिर विभिन्न आचार्यों के लिखने में मतभेद क्यों ? - वास्तविकता यह है कि जैन परम्परा का सम्पूर्ण श्रुत गुरु-शिष्य परम्परा से प्रायः मौखिक ही चलता रहा। एक गुरु के शिष्यों में भी मौखिक ज्ञान क्षयोपशम की न्यूनाधिकता के कारण विभिन्न प्रकार का दृष्टिगोचर होता है। एक की स्मृति में एक बात एक तरह से है तो दूसरे की स्मृति में वही बात दूसरी तरह से और तीसरे को संभव है उसका बिलकुल ही स्मरण न हो। अति सन्निकट काल के घटनाचक्र के सम्बन्ध में जब इस प्रकार की मतवैचित्र्य की स्थिति है तो प्राचीनकाल की ऐतिहासिक घटनाओं के सम्बन्ध में दीर्घकाल की अनेक दुष्कालियों के समय स्मरण, चिन्तन एवं परावर्तन के बराबर अवसर प्राप्त न होने की दशा में कतिपय मतभेदों का होना स्वाभाविक है। जैसा कि विमलसूरि ने पउम चरियं में कहा है: एवं परम्पराए परिहाणी पुव्व गंथ अत्थाणं । नाऊण कालभाव, न रुसियव्व बुहजणेण ॥ निकट भूत में हुए अनेक संतों, उनकी परम्पराओं एवं उनके जन्मकाल आदि के सम्बन्ध में बड़ा मतभेद दृष्टिगोचर होता है। उदाहरणस्वरूप कबीर को कोई हिन्दू मानते हैं तो कई मुस्लिम। उनके जन्मकाल, माता-पिता के नाम आदि के सम्बन्ध में भी आज मतैक्य दृष्टिगोचर नहीं होता। पूज्य धर्मदासजी महाराज जिनके नाम पर स्थानकवासी समाज में कितनी ही उपसंप्रदायें चल रही हैं, उनके माता-पिता, जन्मकाल और स्वर्गवास-तिथि के सम्बन्ध में आज मतभेद चल रहा है। ऐसी स्थिति में हजारों वर्ष पहले हुए तीर्थंकरों के विषय में मतभेद हो तो इसमें विशेष आश्चर्य की बात नहीं है। कालप्रभाव, स्मृतिभेद, दृष्टिभेद के अतिरिक्त लेखक और वाचक के दृष्टिदोष के कारण भी मान्यताओं में कुछ विभेद आ गये हैं, जो कालान्तर में ईसा की तीसरी शती के आसपास श्वेताम्बर-दिगम्बर परम्पराओं की मध्यवर्ती यापनीय नामक तीसरी परम्परा के भी जनक रहे हैं। पाठकों को इस मतभेद से खिन्न होने की अपेक्षा यह देख कर अधिक गौरवानुभव करना चाहिए कि तीर्थंकरों के माता-पिता, जन्मस्थान, च्यवन नक्षत्र, च्यवन स्थल, जन्म नक्षत्र, १. 'नाथ संप्रदाय' - हजारी प्रसाद द्विवेदी पृ. १९० ( २७ ) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ण, लक्षण, कुमारकाल, दीक्षातप, दीक्षाकाल, साधनाकाल, निर्वाणतप, निर्वाणकाल आदि मान्यताओं में श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं का प्रायः साम्य है। नाम, स्थान, तिथि आदि का भेद, श्रुतिभेद या गणनाभेद से हो गया है, उससे मूल वस्तु में कोई अन्तर नहीं पड़ता। भगवान् वासुपूज्य, मल्ली, अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ और महावीर इन पांच तीर्थंकरों को दोनों परम्पराओं में कुमार माना गया है। अरिष्टनेमि, मल्ली, महावीर, वासुपूज्य और पार्श्वनाथ इन पांचों ने कुमारकाल में और शेष १९ तीर्थंकरों ने राज्य करने के पश्चात् दीक्षा ग्रहण की इस प्रकार का उल्लेख तिलोयपण्णत्ती में किया गया है। कुमारकाल के साथ राज्य का उल्लेख होने के कारण वे पांचों तीर्थंकर अविवाहित ही दीक्षित हुए हों ऐसा स्पष्ट नहीं होता। इस अस्पष्टता के कारण दोनों परम्पराओं में पार्व, वासुपूज्य और महावीर के विवाह के विषय में मतैक्य नहीं रहा। प्रस्तुत ग्रन्थ में तीर्थंकर परिचय-पत्र एवं प्रत्येक तीर्थंकर के जीवन-परिचय में यथास्थान उन मतभेद के स्थलों का भी निर्देश किया है। कुछ ऐसे भी मतभेद हैं जो परम्परा से विपरीत होने के कारण मुख्यरूपेण विचारणीय हैं। जैसे-सब आचार्यों ने क्षत्रियकुंड को महाराज सिद्धार्थ का निवासस्थल माना है परन्तु आचार्य शीलांक ने उसे सिद्धार्थ का विहारस्थल (Hill Station) लिखा है? आचाराँग सूत्र, कल्पसूत्र आदि में नन्दीवर्धन को श्रमण भगवान महावीर का ज्येष्ठ भाई लिखा है जबकि आचार्य शीलांक ने नन्दीवर्धन को महावीर का छोटा भाई बताया है। भगवती सूत्र के अनुसार गोशालक द्वारा सर्वानुभूति और सुनक्षत्र अणगार पर तेजोलेश्या का प्रक्षेपण और समवसरण में मुनिद्वय का प्राणान्त होना बताया गया है, जबकि आचार्य शीलांक ने चउवन महापुरिस चरियम में गोशालक द्वारा प्रक्षिप्त तेजोलेश्या से किसी मुनि की मृत्यु का उल्लेख नहीं किया है। उन्होंने लिखा है कि सर्वानुभूति अणगार के साथ विवाद होने पर गोशालक ने उन पर तेजोलेश्या फेंकी। बदले में सर्वानुभूति ने भी तेजोलेश्या प्रकट की। दोनों तेजोलेश्याएं टकराईं। भगवान् महावीर ने तेजोलेश्याओं द्वारा होने वाले अनर्थ को रोकने के लिए शीतललेश्या प्रकट की। उसके प्रबल प्रभाव को नहीं सह सकने के कारण वह तेजोलेश्या गोशालक पर गिर कर उसे जलाने लगी। तेजोलेश्या की तीव्र ज्वालाओं १. तिलो. पं. ४/६७० २. अण्ष्णयां य गामाणुगामं गच्छमाणो कीलाणिमित्तभागओ णियभुत्तिपरिसंठियं कुंडपुरं णामनयरं। (चउपन्नमहापुरिसचरियं, पृ. २७०) ३. परलोयमइगतेसु जणणि-जणएसु' पणामिऊण णियकणिट्ठस्स भाउणो रजं ... (चउप्पन्नमहापुरिसचरियं, पृ. २७२) ( २८ ) Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से भयभीत हो गोशालक भगवान् महावीर के चरणों में गिर पड़ा। प्रभु के चरणों की कृपा से उस पर आया हुआ तेजोलेश्या का उपसर्ग शान्त हो गया। गोशालक को अपने दुष्कृत्य पर पश्चाताप हुआ और अपने दुष्कृत्य की निन्दा करते हुए उसने शुभ- लेश्या प्राप्त की और मरकर अन्त में अच्युत स्वर्ग में देवरूप से उत्पन्न हुआ R उपरोक्त मन्तव्यों से प्रतीत होता है कि आचार्य शीलांक के समय में भी गोशालक द्वारा भगवान् के पास सर्वानुभूति और सुनक्षत्र मुनि पर तेजोलेश्या फेंकने के सम्बन्ध में विचार- विभेद था । आचार्य शीलांक जैसे शास्त्रज्ञ मुनि द्वारा परम्परागत मान्यता के विपरीत लिखने के पीछे कोई कारण अवश्य होना चाहिए। इतने बड़े विद्वान् यों ही बिना सोचे कुछ लिख डालें, इस पर विश्वास नहीं होता । यह विषय विद्वानों की गहन गवेषणा की अपेक्षा रखता है। तीर्थंकरकालीन प्रचार - नीति तीर्थंकरों के समय में देव, देवेन्द्र और नरेन्द्रों का पूर्णरूपेण सहयोग होते हुए भी जैन धर्म का देश-देशान्तरों में व्यापक प्रचार क्यों नहीं हुआ, तीर्थंकरकाल की प्रचार-नीति कैसी थी, जिससे कि भरत जैसे चक्रधर, श्रीकृष्ण जैसे शक्तिधर और मगधनरेश श्रेणिक जैसे भक्तिधरों के सत्ताकाल में भी देश में जैन धर्म का प्रचुर प्रचार नहीं हो सका । साधु-संत और शक्तिशाली भक्तों ने प्रचारक भेजकर तथा अधिकारियों ने राजाज्ञा प्रसारित कर अहिंसा एवं जैन धर्म का सर्वत्र व्यापक प्रचार क्यों नहीं किया, इस प्रकार के प्रश्न सहज ही प्रत्येक व्यक्ति के मस्तिष्क में उत्पन्न हो सकते हैं। तत्कालीन स्थिति का सम्यक् अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि तीर्थंकरों के मार्ग में प्रचार का मूल सम्यग्विचार और आचारनिष्ठा ही माना गया था। उनके उपदेश का मूल लक्ष्य हृदय - परिवर्तन रहता था । यही कारण है कि तीर्थंकर भगवान् ने अपने पास आये हुए श्रोताओं को भी सम्यग्दर्शन आदि मार्ग का ज्ञान कराया पर किसी को बलपूर्वक अथवा आग्रहपूर्वक यह नहीं कहा कि तुम्हें अमुक व्रत ग्रहण करना होगा । उपदेश श्रवण के पश्चात् जो भी इच्छापूर्वक १. अण्णया य भिक्खु सव्वाणभूईहिं समं विवाओ संजाओ । तओ विवायवसुप्पण्ण कीवाईसयेण य पक्खित्ता ताणोवरि तेउलेसा, तेहिंपि तस्स सतेउलेस त्ति । ताणं चं परोप्परं तेउलेसाणं संपलग्ग जुझं एत्थावसरम्भ य भयवया तस्सुवसमण, णिमित्त पेसिया सीयलेसा । तओ सीयलेसापहावमसहमाणा विवलाया तेउलेसा, मंदसाहियकिच्च व्व पयत्ता अहिद्दविउं गोसालयं णवरमसहमाणो तेयजलणप्पहावं समल्लीणो जयगुरुं । जय गुरुचलणप्पहावपणट्ठोवसग्गपसरो य संबुद्धो पयत्तो चिंतिउं हा ! दुट्ठ मे कयं जं भयवया सह समसीसिमारुहंतेण अच्चासायणा कया। (वही, पृ. ३०६-७ ) २. एवं च पइदिणं णिंदणाइयं कुणमाणो कालमासे कयपाणपरिच्चाओ समुप्पण्णो अच्चुए देवलोए त्ति । (वही, पृ. ३०७ ) ( २९ ) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुधर्म अथवा श्रावकधर्म ग्रहण करने के लिए खड़ा होता उसे यही कहा जाता'यथा-सुखम्' अर्थात् जिसमें सुख हो उसमें प्रमाद मत करो। के भावना उत्पन्न करने के बाद क्या करना, इसका निर्णय श्रोता पर ही छोड़ दिया जाता। आज की तरह बल प्रयोग या आडम्बर से प्रचार नहीं किया जाता था। कारण कि प्रचार की अपेक्षा आचार की प्रधानता थी। अन्यथा चक्रवर्ती और वासुदेवों के राज्यकाल में अनार्य-खण्ड में भी जैन धर्म के प्रति व्यापक आदर हो जाता और लाखों ही नहीं करोड़ों मानव जैन धर्म के श्रद्धालु अनुयायी बन जाते एवं सर्वत्र वीतराग-वाणी का प्रचार एवं प्रसार हो जाता। तीर्थंकरों के समय के प्रचार को देखते हुए प्रतीत होता है कि उन्होंने ज्ञानपूर्वक विशुद्ध प्रचार को ही उपादेय मान रखा था। सत्ताबल, धनबल अथवा सेवा-शुश्रूषा से प्रसन्न कर, किसी को भय, प्रलोभन या प्रशंसा से चढ़ाकर बिना पाये (बुनियाद) के तैयार करना उचित नहीं माना जाता था। जैन साधु सार्वजनिक स्थान में ठहरते, बिना भेद-भाव के सब जातियों के अनिंद्यकुलों से भिक्षा ग्रहण करते और सबको उपदेश देते थे। धर्म, संप्रदाय या पथ-परिवर्तन कराने में खास रस नहीं लिया जाता था। बोध पाकर कोई स्वयं धर्म ग्रहण करना चाहता, उसे ही दीक्षित किया जाता। जैनाचार्यों अथवा शासकों द्वारा कोई बलात् धर्म-परिवर्तन का उदाहरण नहीं मिलेगा। उस समय स्थिति ऐसी थी कि समाज के शुभ वातावरण में अनायास ही लोग धर्मानुकूल जीवन जी सकते थे। संस्कारों का पाया इतना दृढ़ था कि अनार्य लोग भी उनके प्रभाव से प्रभावित हो जाते। अभयकुमार ने अनार्य देशस्थ अपने पिता के मित्र अनार्य नरेश के राजकुमार को धर्मप्रेमी बनाने के लिए धर्मोपकरण की भेंट भेजी और सेठ जिनदत्त ने अनार्यभूप को धर्मरत्न की ओर आकृष्ट कर भगवान् महावीर की सेवा में उपस्थित किया। इसी प्रकार मंत्री चित्त ने केशिश्रमण को श्वेताम्बिका नगरी ले जा कर नास्तिक नरेश प्रदेशी को आस्तिक एवं धर्मानुरागी बनाया। प्रचार का तरीका यह था कि किसी विशिष्ट पुरुष को ऐसा तैयार करना कि वह हजारों को धर्मनिष्ठ बना सके। उस समय किसी की धार्मिक साधना में बाधा पहुचाना या किसी को धर्मच्युत करना जघन्य कृत्य समझा जाता था। आज की स्थिति उस समय से भिन्न है। आज अनार्य देश में भी आर्यजन आते-जाते तथा रहते हैं एवं कई अनार्य लोग भारत की आर्यधरा में भी रहने लगे हैं। एक दूसरे का परस्पर प्रभाव पड़ता है। ऐसी स्थिति में आवश्यक है कि उनमें अहिंसा, सत्य एवं सदाचार का खुलकर प्रचार किया जाये। उन्हें खाद्या-खाद्य का स्वरूप ( ३० ) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समझाया जाये। अन्यथा बढ़ते हुए हिंसा और मांसाहार के युग में निर्बल मन वाले धार्मिक लोग विदेशियों से प्रभावित हो धर्मानुकूल व्यवहार से विमुख हो जावेंगे। प्रचार आवश्यक है पर वह अपनी संस्कृति के अनुरूप होना चाहिए। हमारी प्रचार-नीति आचार-प्रधान और ज्ञानपूर्वक हृदय-परिवर्तन की भूमिका पर ही आधारित होनी चाहिए। इसी से हम जिन-शासन का हित कर सकते हैं और यही तीर्थंकरकालीन संस्कृति के अनुरूप प्रचार का मार्ग हो सकता है। आज के इतिहास लेखक जैन इतिहास के इस प्रकार के प्रामाणिक आधार होने पर भी आधुनिक विद्वान उसको बिना देखे जैन धर्म और तीर्थंकरों के विषय में भ्रान्ति-पूर्ण लेख लिख डालते हैं, यह आश्चर्य एवं खेद की बात है। इतिहासज्ञ को प्रामाणिक ग्रन्थों का अध्ययन कर जिस धर्म या संप्रदाय के विषय में लिखना हो प्रामाणिकता से लिखना चाहिए। सांप्रदायिक अभिनिवेश या बिना पूरे अध्ययन-मनन के सुनी-सुनाई बात पर लिख डालना उचित नहीं। गोशालकं द्वारा महावीर का शिष्यत्व स्वीकार करना और आजीवक मत पर महावीर के सिद्धान्त का प्रभाव शास्त्रसिद्ध होने पर भी यह लिखना कि महावीर ने गोशालक से अचेलधर्म स्वीकार किया, कितनी बड़ी भूल है। आज भी कुछ विद्वान जैन धर्म को वैदिक मत की शाखा बताने की व्यर्थ चेष्टा करते हैं, यह उनकी गहरी भूल है। हम आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास करते हैं कि हमारे विज्ञ इतिहास इस ओर विशेष सतर्क रहकर जैन धर्म जैसे भारत के प्रमुख धर्म का सही परिचय प्रस्तुत कर राष्ट्र को तत्विषयक अज्ञान से हटा आलोक में रखने का प्रयास करेंगे। ग्रंथ परिचय "जैन धर्म का मौलिक इतिहास' नाम का प्रस्तुत ग्रन्थ प्रथमानुयोग की प्राचीन आगमीय परम्परा के अनुसार लिखा गया है। इस तीर्थंकर-खंड में तीर्थंकरों के पूर्व-भव, देवगति का आयु, च्यवन, च्यवनकाल, जन्म, जन्मकाल, राज्याभिषेक, विवाह, वर्षीदान, प्रव्रज्या, तप, केवलज्ञान, तीर्थस्थापना, गणधर, प्रमुख आर्या, साधु-साध्वी आदि परिवारमान एवं किये हुए विशेष उपकार का परिचय दिया गया है। ऋषभदेव से महावीर तक चौबीसों तीर्थंकरों का परिचय आचाराँग, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, समवायांग, आवश्यक आदि सूत्र, आवश्यक नियुक्ति, आवश्यक चूर्णि, प्रवचन सारोद्धार, सत्तरिसय द्वार और दिगम्बर परम्परा के महापुराण, उत्तर पुराण, तिलोय पण्णत्ती आदि प्राचीन ग्रन्थों के आधार से लिखा गया है। ( ३१) Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतभेद के स्थलों में त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, आगमीय मत और सत्तरिसय प्रकरण को सामने रखकर शास्त्रसम्मत विचार को ही प्रमुख स्थान दिया है । भगवान् ऋषभदेव के प्रकरण में अत्यधिक अनुसन्धान अपेक्षित था। वह पहले तो अनेक कारणों से पूर्णतः संभव नहीं हो सका पर इस बार वह पर्याप्त रूपेण सुन्दर बन गया है। अनेक स्थलों पर परिवर्द्धन, परिमार्जन किये गये हैं। ऐतिहासिक तथ्यों की गवेषणा के लिये जैन साहित्य के अतिरिक्त वैदिक और बौद्ध साहित्य से भी यथाशक्य सामग्री संकलन का लक्ष्य रखा है। गवेषणा में हमने किसी साहित्य की उपेक्षा नहीं की है। मौलिक ग्रन्थों के अतिरिक्त आधुनिक लेखकों के साहित्य का भी पूरा उपयोग किया गया है। पार्श्वनाथ में श्री देवेन्द्र मुनि, जो सम्पादक - मंडल में प्रमुख हैं, के साहित्य का और भगवान् महावीर के प्रकरण में श्री विजयेन्द्र सूरि, श्री कल्याण विजयजी आदि के साहित्य का भी यथेष्ट उपयोग किया गया है। लिखते समय इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखा गया है कि कोई भी चीज शास्त्र के विपरीत नहीं जावे और निर्ग्रन्थ परम्परा के विरुद्ध न हो । कहीं भी साम्प्रदायिक अभिनिवेशवश कोई अप्रामाणिक बात नहीं आने पावे, इस बात का विशेष ध्यान रखा गया है। इस खण्ड में मुख्यतया तीर्थंकरों का ही परिचय है अतः इसे तीर्थंकर खण्ड कहा जा सकता है। प्रस्तुत ग्रन्थ के परिशिष्ट में श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्पराओं की मान्यतानुसार तीर्थंकरों का तुलनात्मक परिचय और आवश्यक टिप्पणी भी दिये हैं । संस्मरण प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखन, संकलन एवं सम्पादन कार्य में पं. शशिकान्तजी झा और गजसिंह जी राठौड़ का श्रमपूर्ण सहयोग भुलाया नहीं जा सकता । वैदिक . साहित्य के माध्यम से अलभ्य उपलब्धियाँ श्री राठौड़ के लगनपूर्ण अनवरत चिन्तन एवं गवेषण का ही प्रतिफल है। उनका इतिहास के लिए रात-दिन तन्मयता से चिन्तन सचमुच अनुकरणीय कहा जा सकता है। मेरे कार्य सहायक पं. मुनि श्री लक्ष्मीचन्द्रजी, सेवाव्रती मुनि लघु लक्ष्मीचन्द्रजी, श्री चौथमलजी प्रभृति का व्याख्यान आदि कार्य में और हीरा मुनि, शीतल मुनि आदि छोटे मुनियों का सेवा कार्य में अनवरत सहयोग मिलता रहा है। उन सबके सहयोग से ही कार्य सम्पन्न हो सका है । प्रूफ संशोधन एवं प्रकाशन की समीचीन व्यवस्था में सम्यक्ज्ञान प्रचारक ( ३२ ) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मण्डल के साहित्य मंत्री श्री प्रेमराजजी बोगावत का एवं ग्रन्थ को सुन्दर बनाने में डॉ. नरेन्द्र भानावत का सहयोग भी भुलाया नहीं जा सकता। और भी ज्ञात, अज्ञात, छोटे-बड़े कार्यों में जिन-जिन का सहयोग रहा है, उन सबका नाम पूर्वक स्मरण यहाँ संभव नहीं है। भाव, भाषा और सिद्धान्त का यथाशक्य खयाल रख्ते हुए भी मानव स्वभाव की अपूर्णता के कारण यदि कोई त्रुटि रह गई हो तो उसके लिए "मिच्छामि दुक्कडं ।' विद्वज्जन सुहृद्भाव से उन त्रुटियों की सूचना करेंगे तो भविष्य में उन्हें सुधारने का ध्यान रखा जा सकेगा। (द्वितीय संस्करण से साभार उदृत ) ( ३३ ) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (प्रथम संस्करण से साभार उद्धृत) सम्पादकीय । संसार के विविध विषयों में इतिहास का भी एक बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। विचारकों द्वारा इतिहास को धर्म, देश, जाति, संस्कृति एवं सभ्यता का प्राण माना गया है। जिस धर्म, देश, सभ्यता अथवा संस्कृति का इतिहास जितना अधिक समुन्नत, समृद्ध एवं सर्वांगपूर्ण होता है उतना ही अधिक वह धर्म, देश और समाज उत्तरोत्तर प्रगतिपथ पर अग्रसर होता हुआ संसार में चिरजीवी और स्थायी सम्मान का अधिकारी होता है। वास्तव में इतिहास मानव की वह जीवनी-शक्ति है, वह शक्ति का अक्षय्य अजस्र स्रोत है, जिससे निरन्तर अनुप्राणित एवं सशक्त हो मानव उन्नति की ओर अग्रसर होता हुआ अन्त में अपने चरम-लक्ष्य को प्राप्त करने में सफलकाम होता है। यों तो संसार में सत्ता, सभ्यता, संस्कृति, समृद्धि, सम्मान, सन्तान आदि सभी को प्रिय हैं परन्तु तत्त्वदर्शियों ने बड़े गहन चिन्तन के पश्चात् आत्मानुभव से इन सब ऐहिक सुखों को क्षणविध्वंसी समझ कर धर्म को सर्वोपरि स्थान देते हुए यह ध्रुव-सत्य संसार के समक्ष रखा कि "धर्म एव हतो हन्ति, धर्मो रक्षति रक्षितः।' अर्थात् जिसने अपने धर्म की रक्षा नहीं की उसका सम्मान, सुख, समृद्धि, सत्ता, सभ्यता आदि सब कुछ चौपट होने के साथ वह स्वयं भी चौपट हो गया पर जिसने अपने धर्म को नहीं छोड़ा, प्राणपण से भी धर्म की रक्षा की, उसने अपने धर्म की रक्षा के साथ-साथ सत्ता, सम्मान, समृद्धि आदि की और अपनी स्वयं की भी रक्षा कर ली। चिन्तकों ने संसार की सारभूत वस्तुओं का धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार विभागों में वर्गीकरण किया है। इस वर्गीकरण में भी धर्म को मूर्धन्य ( ३४ ) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थान दिया है। क्योंकि यह प्राणी का परम हितैषी, सच्चा मित्र और चिरसंगी है। ऐसे परम कल्याणकारी अद्वितीय सखा धर्म की रक्षा करने का प्रत्येक प्राणी तभी प्रयत्न करेगा जबकि वह धर्म का सर्वांगीण स्वरूप, परमोत्कृष्ट महत्त्व अच्छी तरह से समझता हो। धर्म के महत्त्व और स्वरूप को भलीभांति समझने और जानने का माध्यम उस धर्म का इतिहास है। इसके अतिरिक्त इतिहास की एक और महत्ती उपयोगिता है। वह हमें हमारी अतीत की भूलों, अतीत के हमारे सही निर्णयों, सामयिक सुन्दर विचारों और प्रयासों का पर्यवेक्षण कराने के साथ-साथ भूतकाल की भूलों से बचने एवं अच्छाइयों को दृढ़ता के साथ पकड़ कर उन्नति के पथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा करता रहता है। इस दृष्टि से विचार करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि किसी धर्म, देश और संस्कृति का सच्चा इतिहास वास्तव में उस धर्म, देश और संस्कृति का प्राण, जीवन-शक्ति, प्रकाशस्तम्म, प्रेरणास्रोत, पथ-प्रदर्शक, अभ्युन्नति का प्रशस्त मार्ग, खतरों से सावधान कर विनाश के गहरे गर्त से बचाने वाला सच्चा मित्र और सब कुछ है। . इतिहास वस्तुतः मानव को उस प्रशस्त मार्ग का, उस सीधी और सुन्दर सड़क का दिग्दर्शन कराता है, जिस पर निरन्तर चलते रहने से पथिक निश्चित रूप से अपने अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ होता है। इतिहास मानव को चरमोत्कर्ष के प्रशस्त मार्ग का केवल दिग्दर्शन मात्र ही नहीं कराता अपितु वह उस प्रशस्त पथ के पथिकों को उस मार्ग में आने वाली समस्त बाधाओं, रुकावटों, स्खलनाओं और छलनाओं से भी हर डग पर बचते रहने के लिए सावधान करता है। इतिहास में वर्णित साधना-पथ के अतीत के पथिकों के भले-बुरे अनुभवों से साधना-पथ पर अग्रसर होने वाला प्रत्येक नवीन पथिक लाभ उठा कर मार्ग में आने वाली सभी कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करता हुआ निर्बाध गति से अपने ईप्सित लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। जैन समाज, खासकर श्वेताम्बर स्थानकवासी समाज में जैन धर्म के प्रामाणिक इतिहास की कमी चिरकाल से खटक रही थी। जैन कान्फ्रेन्स और मुनिमण्डल ने सम्मेलन में भी अनेक बार जैन धर्म का प्रामाणिक इतिहास निर्मित करवाने का निर्णय किया पर किसी कर्मठ इतिहासज्ञ विद्वान् ने इस अतिकष्टसाध्य कार्य को सम्पन्न करने का भार अपने जिम्मे नहीं लिया अतः इसे मूर्त स्वरूप नहीं मिल सका। समाज द्वारा चिराभिलषित इस कार्य को सम्पन्न करने की दृष्टि से ( ३५ ) Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वनामधन्य आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज साहब ने "स्वान्तःसुखाय-परजनहिताय च' इस भावना से प्रेरित हो जैन धर्म का प्रारम्भ से लेकर आज तक का सही, प्रामाणिक, सर्वांगपूर्ण और क्रमबद्ध इतिहास लिखने का भगीरथ प्रयास प्रारम्भ किया। वास्तव में आचार्यश्री ने इस दुस्साध्य एवं गुरुतर महान् दायित्व को अपने ऊपर लेकर अद्भुत साहस का परिचय दिया है। इतिहास-लेखन जैसे कार्य के लिये गहन अध्ययन, क्षीरनीर विवेकमयी तीव्र बुद्धि, उत्कृष्ट कोटि की स्मरणशक्ति, उत्कट साहस, अथाह ज्ञान, अडिग अध्यवसाय, पूर्ण निष्पक्षता, घोर परिश्रम आदि अत्युच्चकोटि के गुणों की आवश्यकता रहती है। वे सभी गुण आचार्यश्री में विद्यमान हैं। पर इतिहासलेखन का कार्य लेखक से इस बात की अपेक्षा करता है कि वह अपना अधिकाधिक समय लेखन के लिये दे। ध्यान, स्वाध्याय, अध्यापन, व्याख्यान, संघ-व्यवस्था एवं विहारादि अनिवार्य कार्यों के कारण पहले से ही अपनी अति-व्यस्त दिनचर्या का निर्वहरण करने के साथ-साथ "जैन धर्म के मौलिक इतिहास' का यह प्रथम भाग पूर्ण कर आचार्यश्री ने नीतिकार की इस सूक्ति को अक्षरशः चरितार्थ कर दिखाया : प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः, प्रारभ्य विघ्नविहताः विरमन्ति मध्याः । विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः, प्रारब्धमुत्तमजनाः न परित्यजन्ति | इस महान कार्य को सम्पन्न करने में आचार्यश्री को कितना घोर परिश्रम, गहन चिन्तन-मनन-अध्ययन करना पड़ा है, इसकी कल्पना मात्र से प्रत्यक्षदर्शी सिहर उठते हैं। आचार्यश्री के अक्षय शक्ति भण्डार, बौद्धिक एवं शारीरिक प्रबल परिश्रम का इस ही से अनुमान लगाया जा सकता है कि आचार्यश्री से आशुलिपि में डिक्टेशन लेने, उसे नागरी लिपि में लिखने तथा स्पष्ट एवं विस्तृत निर्देशन के अनुसार लेखन-सम्पादन के एक वर्ष मात्र के कार्य से मुझे अनेक बार ऐसा अनुभव होता कि कहीं मेरे मस्तिष्क की शिराए फट न जायें। पर ज्योंही प्रातःकाल इन महान् योगी को पूर्ण मनोयोग से नित्यनवीन शतगुणित शक्ति से इतिहास-लेखन में व्यस्त देखता तो मुझे अपनी दुर्बलता पर लज्जा का अनुभव होता, अन्तर के कर्णरन्ध्रों में एक उद्घोष सा उद्भुत होता कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम । अनार्य जुष्टमस्व→मकीर्तिकरमर्जुन !। ( ३६ ) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्लैब्यं मास्म गमः पार्थ, नैतत्त्वटयुपपद्यते। । क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं ! त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप !। और तत्क्षण ऐसा अनुभव होता मानो अंतर का तार विद्युत के बहुत बड़े जनरेटर से जुड़ गया है। मैं पुनः यथावत् कार्य में जुट जाता। श्रमणश्रेष्ठ-जीवन और आचार्य-पद के दैनिक दायित्वों का निर्वहन करने के साथ-साथ अहर्निश इतिहास-लेखन में तन्मयता के साथ लीन रहने पर भी आचार्यश्री के प्रशस्त भाल पर थकान की कोई हल्की सी रेखा तक भी कभी दृष्टिगोचर नहीं हुई। चेहरे पर वही सहज मुस्कान आंखों में महऱ्या मुक्ताफल की सी स्वच्छ-अद्भुत चमक सदा अक्षुण्ण विराजमान रहती। जिस प्रकार संसार और संसार के मूलभूत-द्रव्य अनादि एवं अनंत हैं, उसी प्रकार आत्मधर्म होने के कारण जैन धर्म तथा उसका इतिहास भी अनादि तथा अनन्त है। अतः जैन इतिहास को किसी एक ग्रन्थ अथवा अनेक ग्रन्थों में सम्पूर्ण रूप से आबद्ध करने का प्रयास करना वस्तुतः अनन्त आकाश को बांहों में समेट लेने के प्रयास के तुल्य असाध्य और असंभव है। फिर भी प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव द्वारा धर्म-तीर्थ की स्थापना से प्रारम्भ कर अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर के निर्वाण-समय तक का जैन धर्म का क्रमबद्ध एवं संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया गया है। इसके साथ ही साथ कुलकर-काल एवं अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणीकाल को मिलाकर बीस कोड़ाकोड़ी सागर के पूर्ण काल-चक्र का एक रेखाचित्र की तरह अति संक्षिप्त स्थूल विवरण भी यथाप्रसंग दिया गया है। इस प्रवर्तमान अवसर्पिणीकाल में भरतक्षेत्र में सर्वप्रथम भगवान् ऋषभदेव ने तृतीय आरक की समाप्ति में ९९६ वर्ष ३ मास १५ दिन कम एक लाख पूर्व का समय अवशेष रहा उस समय धर्म-तीर्थ की स्थापना की। उसी समय से इस अवसर्पिणीकालीन जैन धर्म का इतिहास प्रारम्भ होता है। भगवान् ऋषभदेव द्वारा तीर्थ-प्रवर्तन के काल से लेकर भगवान् महावीर के निर्वाणकाल तक का इतिहास प्रस्तुत ग्रन्थ में देने का प्रयत्न किया गया है। चतुर्थ आरक के समाप्त होने में जब तीन वर्ष और साढ़े आठ मास अवशेष रहे तब भगवान् महावीर का निर्वाण हुआ। इस प्रकार यह इतिहास एक कोड़ा-कोड़ी सागर, ७० शंख, ५५ पद्म, निन्यानवें नील, निन्यानवें खरब, निन्यानवें अरब, निन्यानवें करोड़, निन्यानवें लाख और सत्तावन हजार वर्ष का अति सक्षिप्त इतिहास है। ( ३७ ) Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पना द्वारा भी अपरिमेय इस सुदीर्घ अतीत में असंख्य बार भरत-क्षेत्र की धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक एवं भौगोलिक स्थिति में उतार-चढ़ाव आये, उन सब का लेखा-जोखा रखना वास्तव में दुस्साध्य ही नहीं नितान्त असंभव कहा जा सकता है। पर इस लम्बी अवधि में भी आर्यधरा पर समय-समय पर चौबीस तीर्थंकर प्रकट हुए और भूत, भविष्यत् तथा वर्तमान को हस्तामलक की तरह युगपद् देखने-जानने वाले त्रिकालदर्शी उन तीर्थंकरों ने विस्मृति के गर्भ में छुपे उन सभी उपयोगी तथ्यों को समय-समय पर वाणी द्वारा प्रकाशित किया। तीर्थंकरों द्वारा प्रकट किये गये उन ध्रुव-तथ्यों में से कतिपय तथ्य तो सुदीर्घ अतीत के अन्धकार में विलीन हो गये पर नियतकालभावी अधिकांश तथ्य सर्वज्ञभाषित आगम परम्परा के कारण आज भी अपना असंदिग्ध स्वरूप लिये हमारी अमूल्य थाती के रूप में विद्यमान हैं। जो कतिपय तथ्य विस्मृति के गह्वर में विलीन हुए उनमें से भी कतिपय महत्त्वपूर्ण तथ्य प्राचीन आचार्यों ने अपनी कृतियों में आबद्ध कर सुरक्षित रखे हैं। उन बिखरे तथ्यों को यदि पूरी शक्ति लगा कर क्रमबद्ध रूप से एकत्रित करने का सामूहिक प्रयास किया जाये तो हस्तलिखित प्राचीन पुस्तकों में और भी ऐसी विपुल सामग्री उपलब्ध होने की संभावना है, जिससे कि केवल जैन इतिहास के ही नहीं अपितु भारतवर्ष के समूचे प्राचीन इतिहास के कई धमिल एवं लुप्तप्राय तथ्यों के प्रकाश में आने और अनेक नई ऐतिहासिक उपलब्धियाँ होने की आशा की जा सकती हमारा अतीत बड़ा आदर्श, सुन्दर और स्वर्णिम रहा है। हम लोगों के ही प्रमाद के कारण वह धूमिल हो रहा है। आज भी भारतीय दर्शन की संसार के उच्चकोटि के तत्त्वचिन्तकों के हृदय पर गहरी छाप है। पाश्चात्य विद्वानों ने समय-समय पर यह स्पष्ट अभिमत व्यक्त किया है कि भारतीय दर्शन एवं चिन्तकों का संसार में सदा से सर्वोच्च स्थान रहा है और भारतीय संस्कृति मानव-संस्कृति का आदि-स्रोत है। सर्वतोमुखी भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में भी हमारे पूर्वज अत्यधिक बढ़े-चढ़े थे, यह तथ्य हमारे शास्त्र और धार्मिक ग्रन्थ डिण्डिम घोष से प्रकट कर रहे हैं। अमोघ शक्तियाँ, अमोघबाण, आग्नेयास्त्र, वायव्यास्त्र, ब्रह्मास्त्र, रौद्रास्त्र, वैश्णवास्त्र, वरुणास्त्र, रथमूसलास्त्र (आधुनिक टैंकों से भी अत्यधिक संहारक स्वचालित भीषण अस्त्र), महाशिलाकण्टक (अद्भुत प्रक्षेपणास्त्र), शतघ्नी आदि संहारक अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण और प्रयोग हमारे पूर्वज जानते थे, यह हमारे प्राचीन ग्रन्थ पुकार-पुकार कर कहते हैं पर हमारा सम्मोह और मतिविभ्रम हमें इस ध्रुव सत्य को स्वीकार नहीं करने देता। ( ३८ ) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास साक्षी है कि जब तक भारतीयों ने अपने उज्ज्वल अतीत के सही इतिहास को विस्मृत नहीं किया, तब तक वे उन्नति के उच्चतम शिखर पर आसीन रहे और जब से अपने इतिहास को भुलाया उसी दिन से अधःपतन प्रारम्भ हो गया। हमने प्राचीन—- "संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्, समानो मन्त्रस्समितिस्समानी समानं मनस्सहचित्तमेषाम् । समानी व आकूतिस्समाना हृदयानि वः। समानमस्तु वो मनो यथा वस्सुसहासति ।" और "सह नाववतु, सह नौ भुनक्तु सह नौ वीर्य करवावहै तेजस्वी नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ।" इन सिंहनादों को भुला कर सफलता की कुंजी ही खो दी। • यदि हम वास्तव में सच्चे हृदय से अपनी खोई हुई समृद्धि प्रतिष्ठा और गौरव गरिमा को पुनः प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें अपने इतिहास का वास्तविक ज्ञान करना होगा। क्योंकि इतिहास वह सीढ़ी है जो सदा ऊपर की ओर ही चढ़ाती है और कभी नीचे नहीं गिरने देती । उन्नति के इस मूलमन्त्र को श्रद्धेय जैनाचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज साहब ने अच्छी तरह अनुभव करने के पश्चात् जैन धर्म के मौलिक इतिहास के रूप में एक महान् सम्बल और अक्षय्य पाथेय हमें प्रदान किया है, जिसमें जीवन को समुन्नत बनाने वाले प्रशस्त मार्ग के साथ-साथ 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' के दर्शन होते हैं । अत्युच्च कोटि के विचारक, इतिहासज्ञ और महान् संत की कृति का संपादन करना किसी बड़े विद्वान् का कार्य हो सकता है, जिसने सम्पूर्ण जैनागम और प्राचीन साहित्य का समीचीन रूप से अध्ययन किया हो और जो स्वयं उच्च कोटि का इतिहासज्ञ एवं इतिहास की सूक्ष्म से सूक्ष्म बारीकियों को परखने में कुशल हो। पर इन पंक्तियों के प्रस्तुतकर्त्ता में इस प्रकार की कोई भी योग्यता नाम मात्र को भी नहीं है। जो कुछ सम्पादन कार्य बन पड़ा है, वह इस पुस्तक के लेखक करुणाकार आचार्यश्री की असीम कृपा और इस पुस्तकं के संपादक मण्डल के सम्माननीय विद्वानों के विश्वास और स्नेह का ही फल है। इस पुस्तक में यदि कोई त्रुटि अथवा आगम-विरुद्ध बात रह गई हो तो पूरी ईमानदारी के साथ कार्य करते रहने पर भी अल्पज्ञ होने के कारण यह सम्पादकीय का लेखक ही उसके लिये पूर्णरूपेण दोषी है। 'यदत्रासौष्ठवं किञ्चित्तन्ममैव न कस्यचित्' इस पद के माध्यम से सम्भावित अपनी सभी त्रुटियों के लिए विद्वद्वृन्द के समक्ष मैं क्षमाप्रार्थी हूँ। श्रद्धेय आचार्यश्री ने जैन धर्म के इतिहास के सम्बन्ध में नोट्स, लेख ( ३९ ) Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि सामग्री तैयार की है, वह इतनी विपुल मात्रा में है कि यदि उसमें से सम्पूर्ण महत्त्वपूर्ण सामग्री को प्रकाशनार्थ लिया जाता तो तीर्थंकरकाल के ही प्रस्तुत ग्रन्थ के समान आकार वाले अनेक भाग तैयार हो जाते अतः अतीव संक्षिप्त रूप में प्रमुख ऐतिहासिक सामग्री को ही इस ग्रन्थ में स्थान दिया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ के आद्योपान्त सम्यक अध्ययन से धर्म एवं इतिहास के विज्ञ पाठकों को विदित होगा कि आचार्यश्री ने भारतीय इतिहास को अनेक नवीन उपलब्धियों से समृद्ध, सुन्दर और अलंकृत किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ के कालचक्र, कुलकर तुलनात्मक विश्लेषण, धर्मानुकूल लोक-व्यवस्था, श्वेताम्बर 'दिगम्बर परम्पराओं की तुलना, भगवान् ऋषभदेव और भरत का जैनेतर पुराणादि में उल्लेख, हरिवंश की उत्पत्ति, उपरिचर वसु (पूरा उपाख्यान), वसुदेव-सम्मोहक व्यक्तित्व, उस समय की राजनीति, अरिष्टनेमि का शौर्य-प्रदर्शन, अरिष्टनेमि द्वारा अद्भुत रहस्य का उद्घाटन, क्षमामूर्ति गज सुकुमाल, वैदिक साहित्य में अरिष्टनेमि और उनका वंशवर्णन, भगवान पार्श्वनाथ का व्यापक और अमिट प्रभाव, आर्य केशिश्रमण, गोशालक का परिचय, कुतर्कपूर्ण भ्रम, कालचक्र का वर्णन, एक बहुत बड़ा भ्रम, भगवान महावीर की प्रथम शिष्या, महाशिलाकंटक युद्ध, रथमूसल संग्राम, ऐतिहासिक दृष्टि के निर्वाणकाल तथा भगवान महावीर और बुद्ध के निर्वाण का ऐतिहासिक विश्लेषण आदि शीर्षकों में आचार्यश्री की ललित लेखन-कला के अद्भुत चमत्कार के साथ-साथ आचार्यश्री के विराट स्वरूप, महान व्यक्तित्व, अनुपम चहुंमुखी प्रतिभा, प्रकाण्ड पाण्डित्य और अधिकारिकता के दर्शन होते हैं। . प्रस्तुत ग्रन्थ मूल आगमों, चूर्णियों वृत्तियों और प्रामाणिक प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर लिखा गया है। इस ग्रन्थ में वर्णित प्रायः सभी तथ्य धर्म एवं इतिहास के मूल ग्रन्थों से लिये गये हैं एवं जैन धर्म का इतिहास इसके प्रारम्भिक मूलकाल से लिखा गया है अतः इसका नाम "जैन धर्म का मौलिक इतिहास" रखा गया है। तीर्थंकरों को धर्म-परिषद् के लिए आदि के स्थलों में समवसरण और आगे के स्थलों में समवशरण लिखा गया है। विद्वान् दिगम्बर मुनिश्री ज्ञानसागरजी ने अपने 'वीरोदय काव्य' के अधोलिखित श्लोक मेंसमवशरणमेतन्नामतो विश्रुतासी जिनपतिपदपूता संसदेषा सुभाशीः । जनिमरणदुःखादुखितो जीवराशि रिह समुपगतः सन् संभवेदाशु काशीः ॥ ( ४० ) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवशरण शब्द का प्रयोग करते हुए 'समवशरण' शब्द की व्याख्या में अन्यत्र लिखा है : "ख्यातं च नाम्ना समवेत्य यत्र, ययुर्जनाः श्रीशरणं यदत्र।' अर्थात उसमें चारों ओर से आकर सभी प्रकार के जीव श्री वीर भगवान की शरण ग्रहण करते हैं, इसलिए वह समवशरण के नाम से संसार में प्रसिद्ध हुआ। 'सम्यग्-एकी भावेन, अवसरण-एकत्र गमन-मेलापक : समवसरणम्' अभिधान-राजेन्द्र-कोष में दी हुई इस समवशरण की व्याख्या से उपरिवर्णित व्याख्या अधिक प्रभावपूर्ण प्रतीत हुई अतः प्रस्तुत ग्रन्थ में आगे चलकर समवशरण शब्द का प्रयोग किया गया। इस ग्रन्थ के सम्पादन में जिन प्राचीन, मध्ययुगीन और अर्वाचीन विद्वान लेखकों की पुस्तकों से सहायता ली गई है, उनकी सूची लेखकों के नाम सहित दे दी गई है। हम उन सभी विद्वान् लेखकों के प्रति हार्दिक आभार प्रकट करते हैं। इस ग्रंथ के सम्पादन-काल में मुझे आगम-साहित्य के साथ-साथ अनेक प्राचीन एवं अर्वाचीन ग्रन्थों को पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनमें एकत्रित अपार ऐतिहासिक सामग्री वस्तुतः अमूल्य है। मेरा यह निश्चित अभिमत है कि प्रामाणिक ऐतिहासिक सामग्री के दृष्टिकोण से जैन धर्मानुयायी अन्य सभी धर्मावलम्बियों से बहुत अधिक समृद्ध हैं। यहाँ यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि इतनी अधिक ऐतिहासिक सामग्री के स्वामी होते हुए भी आज जैन धर्मावलम्बी चारों ओर से यह आवाज क्यों उठा रहे हैं कि जैन धर्म के प्रामाणिक इतिहास का अभाव हमें खटक रहा है अतः जैन धर्म के एक सर्वांगपूर्ण प्रामाणिक इतिहास का निर्माण किया जाना चाहिए। अटल दृढ़ विश्वास के साथ मेरा तो यही उत्तर होगा कि आज जैन धर्म का इतिहास प्राकृत, अपभ्रंश तथा संस्कृत के वज्रकपाटों में बन्द पड़ा है और जो बाहर है, वह यत्र-तत्र विभिन्न ग्रन्थों-भण्डारों में बिखरा पड़ा है। इतिहास की विपुल सामग्री के विद्यमान होते हुए भी सर्वसाधारण के लिए बोधगम्य भाषा में क्रमबद्ध एवं सर्वांगपूर्ण जैन इतिहास आज समाज के समक्ष नहीं हैं। आवश्यकता थी एक ऐसे भागीरथ की जो सुदूर के विभिन्न स्थानों (४१) Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में रुंधे-रुके पड़े इतिहास के अजस्र निर्मल स्रोतों की धाराओं को एकत्र प्रवाहित कर कलकल-निनादिनी, उत्ताल-तरंगिणी इतिहास-गंगा को सर्वसाधारण के हृदयों में प्रवाहित कर दे। जन-जन के अन्तस्तल में उद्भूत हुई भावनाएँ कभी निष्फल नहीं होती। आज जैन समाज के सौभाग्य से एक महान सन्त इतिहास की गंगा प्रवाहित करने के लिए भागीरथ बनकर प्रयास कर रहे हैं। देखिये, आज के इन भागीरथ द्वारा प्रवाहित त्रिवेणी (गंगा-तीर्थंकर काल का इतिहास, यमुना-निर्वाण पश्चात लौंकाशाह तक का इतिहास और सरस्वती-लौंकाशाह से आज दिन तक का इतिहास) की यह पहली गंगाधारा आप ही की ओर बढ़ रही है। जी भर कर अमृत-पान कर इसमें मजन कीजिये और एक साथ बोलिये अभय प्रदायिनि अघदलदारिणी, जय, जय, जय इतिहास तरगिणि| पूजनीय आचार्यश्री ने मानव को परमोत्कर्ष पर पहुँचाने एवं जनकल्याण की भावना से ओत-प्रोत हो इस ग्रन्थ के लेखन का जो अत्यन्त श्रमसाध्य कार्य सम्पन्न किया है, उस भावना के अनुरूप ही पाठकगण मानवीय दृष्टिकोण को अपना कर आत्मोन्नति के साथ-साथ सामाजिक, धार्मिक और राष्ट्रीय उन्नति के प्रति अग्रसर होंगे तो आचार्यश्री को परम संतोष प्राप्त होगा। गजसिंह राठौड़ न्या. व्या. तीर्थ, सिद्धान्त विशारद ( ४२ ) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालचक्र और कुलकर जैन शास्त्रों के अनुसार संसार अनादि काल से सतत गतिशील चलता पा रहा है। इसका न कभी आदि है और न कभी अन्त । यह दृश्यमान् समस्त जगत् परिवर्तनशील परिणामी नित्य है। मूल द्रव्य की प्रपेक्षा नित्य है और पर्याय की दृष्टि से परिवर्तन सदा चालू रहता है, अतः अनित्य है। प्रत्येक जड़-चेतन का परिवर्तन नैसर्गिक ध्र व एवं सहज स्वभाव है। जिस प्रकार दिन के पश्चात् रात्रि और रात्रि के पश्चात् दिन, प्रकाश के पश्चात् अन्धकार और अन्धकार के पश्चात् प्रकाश का प्रादुर्भाव होता है । ग्रीष्म, वर्षा, शिशिर, हेमन्त, शरद् और बसन्त इन षड्ऋतुओं का एक के बाद दूसरी का आगमन, गमन, पुनरागमन और प्रतिगमन का चक्र अनादि काल से निरन्तर चलता पा रहा है । शुक्ल पक्ष की द्वितीया का केवल फेनलेखा तुल्य चन्द्र क्रमशः वृद्धि करते हुए पूर्णिमा को पूर्णचन्द्र बन जाता है और फिर कृष्णपक्ष के आगमन पर वही ज्योतिपुंज षोडश कलाधारी पूर्णचन्द्र, क्षय रोगी की तरह धीरे-धीरे ह्रास को प्राप्त होता हुआ क्रमशः अमावस्या की काली अंधेरी रात्रि में पूर्णरूपेण तिरोहित हो अस्तित्वविहीन सा हो जाता है। अभ्युदय के पश्चात् अभ्युत्थान एवं प्रभ्युत्थान की पराकाष्ठा के पश्चात् अधःपतन का प्रारम्भ और इसके पश्चात् क्रमशः पूर्ण पतन, फिर अभ्युदय, अभ्युत्थान, उत्कर्ष और पूर्ण उत्कर्ष, इस प्रकार चराचर जगत् का अनादि काल से अनवरत क्रम चला आ रहा है। संसार के इस अपकर्ष-उत्कर्षमय कालचक्र को क्रमशः अवसर्पिणी मोर उत्सर्पिणी काल की संज्ञा दी गई है। कृष्णपक्ष के चन्द्र में क्रमिक ह्रास की तरह ह्रासोन्मुख काल को अवसर्पिणी काल और शुक्लपक्ष के चन्द्र के क्रमिक उत्कर्ष की तरह विकासोन्मुख काल को उत्सपिरणी काल के नाम से कहा जाता है। *प्रवसर्पिणी का क्रमिक अपकर्ष काल निम्नांकित छ: भागों में विभक्त किया गया है : (१) सुषमा सुषम चार कोड़ाकोड़ी। सागरी का। (२) सुषम तीन कोड़ाकोड़ी सागर का। (३) सुषमा दुःषम दो कोड़ाकोड़ी सागर का। (४) दुःषमा सुषम ४२ हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर का। (५) दुःषम इक्कीस हजार वर्ष का। (६) दुःषमा दुःषम इक्कीस हजार वर्ष का। * कृपया परिशिष्ट देखें कृपया परिशिष्ट देखें Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [कालचक्र और इसी प्रकार उत्सर्पिणी काल के क्रमिक उत्कर्ष काल को भी छः भागों में विभक्त कर अवसर्पिणी काल के उल्टे क्रम से (१) दुःषमा दुःषम, (२) दुःषम, (३) दुःषमा सुषम, (४) सुषमा दुःषम, (५) सुषम और (६) सुषमा सुषम नाम से समझना चाहिए । अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी- इन दोनों के योग से बीस कोड़ाकोड़ी सागर का एक कालचक्र होता है।' हम सब इस ह्रासोन्मुख अवसर्पिणी काल के दौर से ही गुजर रहे हैं। अवसर्पिणी के परमोत्कर्ष काल में प्रर्थात प्रथम सुषमा सुषम पारे में पृथ्वी परमोत्कृष्ट रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और सर्वोत्कृष्ट समृद्धियों से सम्पान होती है। उस समय के प्राणियों को जीवनोपयोगी सर्वश्रेष्ठ सामग्री बिना प्रयास के ही कल्पवृक्षों से सहज सुलभ होती है, अतः उनका जीवन अपने आप में मग्न एवं परम सुखमय होता है। प्रकृति की सुखद, सुन्दर एवं मन्द-मधुर बयार से उस समय के मानव का मन-मयूर प्रतिक्षरण प्रानन्द-विभोर हो अपनी अद्भुत मस्ती में मस्त रहता है । सहज-सुलभ भोग्य सामग्री में, उपभोग में, मानव मस्तिष्क के ज्ञानतन्तुओं को झंकृत होने का कभी कोई किञ्चित्मात्र भी अवसर नहीं मिलता और मस्तिष्क के ज्ञानतन्तुषों की झंकृति के प्रभाव में मस्तिष्क की चंचलता, चिन्तन, मनन एवं विचार-संघर्ष का कोई कारण ही उसके समक्ष उपस्थित नहीं होता । जिस प्रकार वीणा की मधुर झंकार अथवा बांसुरी की सम्मोहक स्वरलहरियों से विमुग्ध हरिण मन्त्रमुग्ध सा अपने आपको भूल जाता है, उसी प्रकार प्रकृति के परमोत्कृष्ट मादक माधुर्य में विमुग्ध उस समय का मानव सब प्रकार की चिन्तात्रों से विमुक्त हो ऐहिक आनन्द से ओत-प्रोत जीवन यापन करता है । इसे भोगयुग की संज्ञा दी जाती है । प्रकृति के परिवर्तनशील अटल स्वभाव के कारण संसार की वह परमोत्कर्षता और मानव की वह मधुर मादकता भरी अवस्था भी चिरकाल तक स्थिर नहीं रह पाती। उसमें क्रमशः परिवर्तन पाता है और पृथ्वी का वह परमोत्कर्ष काल शनैः शनैः सुषमा सुषम आरे से सुषम, सुषमा दुःषम आदि अपकर्ष काल की ओर गतिशील होता है। फलतः पृथ्वी के रूप, रस, गन्ध, स्पर्श एवं माधुर्य में और यहां तक कि प्रत्येक अच्छाई में क्रमिक ह्रास आता रहता है। प्रकृति की इस ह्रासोन्मुख दशा में मानव के शारीरिक विकास और उसकी सुख शान्ति में भी ह्रास होना प्रारम्भ हो जाता है। ज्यों-ज्यों मानव की सुख सामग्री में कमी माती जाती है और उसे प्रभाव का सामना करना पड़ता है, त्यों-त्यों उसके मस्तिष्क में चंचलता पैदा होती जाती है और उसका शान्त मस्तिष्क शनैः शनैः विचार-संघर्ष का केन्द्र बनता जाता है। "प्रभाव से अभियोगों का जन्म होता है।" इस उक्ति के अनुसार ज्यों-ज्यों प्रभाव बढ़ते जाते हैं, स्यों-त्यों विचार-संघर्ष और अभियोग भी बढ़ते जाते हैं। इस प्रकार अपकर्षोन्मुख अवसर्पिणी काल के तृतीय पारे का जब प्राधे से 'प्रारक के सम्बन्ध में विशेष जानकारी के लिये जंबूढीप प्रज्ञप्ति, वक्ष २ देखें Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलकर] कालचक्र और कुलकर अधिक समय व्यतीत हो जाता है तो पृथ्वी के रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, उर्वरता आदि गुणों का पहले की अपेक्षा पर्याप्त (अनन्तानन्तगुरिणत) मात्रा में ह्रास हो जाता है। कल्पवृक्षों के क्रमिक विलोप के कारण सहज सुलभ जीवनोपयोगी सामग्री भी आवश्यक मात्रा में उपलब्ध नहीं होती।' अभाव की उस अननुभूत-अदृष्टपूर्व स्थिति में जनमन आन्दोलित हो उठता है। फलतः विचार-संघर्ष, कषायवृद्धि, क्रोध, लोभ, छल, प्रपंच, स्वार्थ, अहंकार और वैर-विरोध की पाशविक प्रवृत्ति का प्रादुर्भाव होने लगता है और शनैः शनैः इन दोषों के दावानल में मानव-समाज जलने लगता है । अशान्ति की असह्य आग से त्रस्त एवं दिग्विमूढ़ मानव के मन में जब शान्ति की पिपासा जागृत होती है तो उस समय उस दिशाभ्रान्त मानव-समाज के अन्दर से ही कुछ विशिष्ट प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति संयोग पाकर, भूमि में दबे हुए बीज की तरह ऊपर आते हैं, जो उन त्रस्त मानवों को भौतिक शान्ति का पथ प्रदर्शित करते हैं। पूर्वकालीन स्थिति और कुलकर काल ऐसे विशिष्ट बल, बुद्धि एवं प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति ही मानव समाज में कुलों की स्थापना करने के कारण कुलकर कहलाते हैं। कुलकरों के द्वारा अस्थायी व्यवस्था की जाती है, जिससे तात्कालिक समस्या का प्रांशिक समाधान होता है। किन्तु जब उन बढ़ती समस्याओं को हल करना कुलकरों की सामर्थ्य से बाहर हो जाता है, तब समय के प्रभाव और जनता के सभाग्य से एक अलौकिक प्रतिभा सम्पन्न तेजोमूर्ति नर-रत्न का जन्म होता है, जो धर्म-तीर्थ का संस्थापक अथवा आविष्कर्ता होकर जन-जन को नीति एवं धर्म की शिक्षा देता और मानव समुदाय को परम शान्ति तथा अक्षय सुख के सही मार्ग पर प्रारूढ़ करता है। इसी समय मानव जाति के सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक इतिहास का सूत्रपात होता है, जिसका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है : भगवान् ऋषभदेव के पूर्ववर्ती मानव, स्वभाव से शान्त, शरीर से स्वस्थ एवं स्वतन्त्र जीवन जीने वाले थे। सहज शान्त और निर्दोष जीवन जीने के कारण उस समय के मनुष्यों को धर्म की आवश्यकता ही नहीं थी। अतः उनमें भौतिक मर्यादाओं का अभाव था। वे केवल सहज भाव से व्यवहार करते और उसमें कभी पुण्य का और कभी पाप का उपार्जन भी कर लेते । वे न किसी नर या पशू से सेवा-सहयोग ग्रहण करते और न किसी के लिये अपना सेवा-सहयोग अर्पित ही करते । दश प्रकार के कल्पवृक्षों के द्वारा सहज-प्राप्त फल-फूलों से वे ' तेसु परिहीयंतेसु कसाया उप्पणा-[प्रावश्यक नियुक्ति पृ० १५४ (१)] २ स्थानांग सूत्र में कल्पवृक्षों के सम्बन्ध में इस प्रकार का उल्लेख है :सुसम-सुसमाए णं समाए दसविहा रुक्खा उपभोगत्ताए हव्वमागच्छन्ति, तंजहा : मत्तंगयाय भिगा, डियंगा दीवजोइ चित्तंगा। चित्तरसा मरिणयंगा, गेहागारा प्रणियणा य॥ [सुत्तागम मूल, सू० १०५८] सुषमा-सुषम काल में १० प्रकार के वृक्ष मनुष्यों के उपभोगार्थ काम पाते हैं । जैसे :- (१) मत्तंगा-मादक-रस देने वाले, (२) भृगांग-भाजन वर्तन देने वाले, Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जैन धर्म का मौलिक इतिहास [पूर्वकालीन स्थिति और कुलकर काल अपना जीवन चलाते थे, उनका जीवन रोग, शोक और वियोग रहित था। जब कल्पवृक्षों से प्राप्त होने वाली भोग्य सामग्री क्षीण होने लगी और मानव की आवश्यकता-पूर्ति नहीं होने लगी तो उनकी सहज शान्ति भंग हो गई, परस्पर संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होने लगी। तब उन्होंने मिल कर छोटे-छोटे कुलों के रूप में अपनी व्यवस्था बनाई और कुलों की उस व्यवस्था को करनेवाले कुलकर कहलाये । ऐसे मुख्य कुलकरों के नाम इस प्रकार हैं : (१) विमलवाहन, (२) चक्षुष्मान, (३) यशस्वी, (४) अभिचन्द्र, (५) प्रसेनजित, (६) मरुदेव और (७) नाभि ।' कुलकरों की संख्या के संबंध में ग्रन्थकारों में मतभेद है । जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति में १५ कुलकरों का उल्लेख है। __ तीसरे बारे में जब पल्योपम का अष्टम भाग शेष रहा, तब क्रमशः सात कुलकर उत्पन्न हुए। प्रथम कुलकर विमलवाहन हुए। किसी समय वन-प्रदेश में घूमते हुए एक मानव युगल को किसी श्वेतवर्ण सुन्दर हाथी ने देखा और पूर्व जन्म के स्नेह से उसको उसने अपनी पीठ पर बिठा लिया, तो लोगों ने उस युगल को गजारूढ़ देख कर सोचा- “यह मनुष्य हम से अधिक शक्तिशाली है।" उज्ज्वल वाहन वाला होने के कारण लोग उसे विमलवाहन कहने लगे। उस समय कल्पवक्षों की कमी होने के परिणामस्वरूप लोगों में परस्पर विवाद होने लगे, जिससे उनकी शान्ति भंग हो गई। उन्होंने मिल कर अपने से (३) त्रुटितांग-वाद्य के समान आमोद-प्रमोद के साधन देने वाले, (४) दीपांग-प्रकाश के लिए दीपक के समान फल देने वाले, (५) ज्योति-अग्नि की तरह ताप-उष्णता देने वाले, (६) चित्रांग-विविध वर्गों के फूल देने वाले, (७) चित्तरस-अनेक प्रकार के रस देने वाले, (८) मणियंग-मणि रत्नादि की तरह चमकदार प्राभूषणों की पूर्ति करने वाले, (६) गेहागार-घर, शाला आदि आकार वाले और (१०) अनग्न-नग्नता दूर करने वाले अर्थात् वल्कल की तरह वस्त्र की पूर्ति करने वाले। इन वृक्षों से यौगलिक मनुष्यों की प्राहार-विहार और निवास आदि की आवश्यकताएं पूर्ण हो जाती थीं, प्रतः इन्हें कल्पवृक्ष की संज्ञा दी है। कोषकारों ने कल्पवृक्ष का अपर नाम सुरतरु भी दिया है। कल्पवृक्ष के लिए साधारण जनों की मान्यता है कि ये मनचाहे पदार्थ देते हैं, इनसे उत्तमोत्तम पक्वान्न और रत्नजटित प्राभूषण आदि जो मांगा जाय, वही मिलता है। पर वस्तुतः ऐसी बात नहीं है। यौगलिकों को शास्त्र में 'पुढवीपुप्फफलाहारा', पृथ्वी, पुष्प और फलमय प्राहार वाले कहां गया है । यदि देवी प्रभाव से कल्पवृक्ष इच्छानुसार वस्तुएं देते तो उनकी दश जातियां नहीं बताई जातीं। हाँ, कल्पवृक्ष को विभिन्न जातियों से तत्कालीन मनुष्यों की सभी आवश्यकताएं पूर्ण हो जाती थीं, इस दृष्टि से उन्हें मनोकामना पूर्ण करने वाला कहा जा सकता है । विशेष स्पष्टीकरण परिशिष्ट में देखें। १ प्रावश्यक नियुक्ति पृ० १५४ गा० १५२ २ प्रावश्यक नियुक्ति पृ० १५३ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलकर : एक विश्लेषण] कालचक्र पीर कुलकर अधिक प्रभावशाली विमलवाहन को अपना नेता बना लिया। विमलवाहन ने सब के लिये मर्यादा निश्चित की और मर्यादा के उल्लंघन का अपराध करने पर दण्ड देने की घोषणा की। जब कोई मर्यादा का उल्लंघन करता तब "हा" - तूने क्या किया, ऐसा कह कर अपराधी को दंडित किया जाता । उस समय का लज्जाशील और स्वभाव से संकोचशील प्रकृति वाला मानव इस दंड को सर्वस्वहरण जैसा कठोर दंड मानता और एक बार का दंडित अपराधी व्यक्ति, दुबारा फिर कभी गलती नहीं करता। इस प्रकार चिरकाल तक "हा" कार की दंड नीति से व्यवस्था चलती रही। ____ कालान्तर में विमलवाहन की चन्द्रजसा युगलिनी से दूसरे कुलकर चक्षुष्मान का युगल के रूप में जन्म हमा। इसी क्रम से तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे और सातवें कुलकर हए । तत्कालीन मनुज कूलों की व्यवस्था करने से वे कुलकर कहलाये। विमलवाहन और दूसरे कुलकर चक्षुष्मान तक 'हाकार" नीति चलती रही। तीसरे और चौथे कुलकर तक "माकार" नीति एवं पांचवें, छठे और सातवें कुलकर तक "धिक्कार" नीति से व्यवस्था चलती रही। जब अपराधी को "हा" कहने से काम नहीं चलता तब जरा उच्च स्वर में कहा जाता "मा" यानि मत करो। इससे लोग अपराध करना छोड़ देते । समय की रूक्षता और रवि की कठोरता से जब लोग 'हाकार' और 'माकार' नीति के प्रभावक्षेत्र से बाहर हो चले तब धिक्कार' नीति का आविर्भाव हुआ । पिछले ३ कुलकरों के समय यही नीति चलती रही।' कुलकर : एक विश्लेषण अवसर्पिणी काल के तीसरे पारे के पिछले तीसरे भाग में जब समय के प्रभाव से भूमि की उर्वरकता एवं सत्व का शनैः शनैः ह्रास होने के कारणकल्पवृक्षों ने आवश्यक परिमारण में फल देना बन्द कर दिया, तब केवल कल्पवृक्षों पर आश्रित रहने वाले उन लोगों में उन वृक्षों पर स्वामित्व भावना का विवाद होने लगा। अधिक से अधिक कल्पवृक्षों को अपने अधिकार में रखने की प्रवृत्ति उनमे उत्पन्न होने लगी। कल्पवृक्षों पर स्वामित्व के इस प्रश्न को लेकर जब कलह व्यापक रूप धारण करने लगा और इतस्ततः अव्यवस्था उग्र रूप धारण करने लगी, तब कुलकर व्यवस्था का प्रादुर्भाव हुअा। वन-विहारी उन स्वतन्त्र मानवों ने एकत्र होकर छोटे-छोटे कुल बनाये और प्रतिभाशाली विशिष्ट पुरुष को अपना नेता स्वीकार किया। कुल की सुव्यवस्था करने के कारण उन कुलनायकों को कुलकर कहा जाने लगा। आदि पुराण और वैदिक साहित्य मनस्मति आदि में मननशील होने से इनको मन १ (क) हक्कारे, मक्कारे धिक्कारे चैव [प्रा०नि०, पृ० १५६ (२)] (ख) दंडं कुम्वन्ति 'हाकारं' [ति० पन्नत्ति, गा० ४५.२] (ग) जम्बूदीप प्रज्ञप्ति Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कुलकर: एक विश्लेषण जैन धर्म का मौलिक इतिहास कहा गया और जैन साहित्य की परिभाषा में कुल की व्यवस्था करने के कारण कुलकर नाम दिया गया । कुलकरों की व्यवस्था प्रोर कार्यक्षेत्र की दृष्टि से मतैक्य होने पर भी कुलकरों की संख्या के सम्बन्ध में शास्त्रों में मतभेद है । जैनागम - स्थानांग, समवायांग तथा भगवती में सात कुलकर बताये गये हैं और आवश्यक चूरिंग एवं प्रावश्यक निर्युक्ति में भी उसी के अनुरूप सात कुलकर मान्य किये गये हैं । स्थानांग, समवायांग, आवश्यक निर्युक्ति आदि के अनुसार सात कुलकरों के नाम इस प्रकार हैं : (१) विमलवाहन, (२) चक्षुष्मान्, (३) यशोमान्, (४) प्रभिचन्द्र, (५) प्रसेनजित्, (६) मरुदेव और (७) नाभि । जैसा कि कहा है :"जम्बूद्दीवे दीवे भारहे वासे इमीसे श्रसप्पिणीए सत्त कुलगरा होत्या । तं जहा : " पढमित्थ विमलवाहण, चक्खुमं जसमं चउत्थमभिचन्दे ततो अ पसेराई पुरण, मरुदेवे चेव नाभी य ।।' महापुराण में चौदह औौर जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में १५ कुलकर बताये गये हैं । पउम चरियं में - ( १ ) सुमति, (२) प्रतिश्रुति, (३) सीमंकर (४) सीमंघर (५) क्षेमंकर, (६) क्षेमंघर, (७) विमलवाहन, (८) चक्षुष्मान्, (६) यशस्वी, (१०) अभिचन्द्र, (११) चन्द्राभ, (१२) प्रसेनजित्, (१३) मरुदेव भौर (१४) नाभि, इस प्रकार चौदह नाम गिनाये हैं; जब कि महापुराण में पहले प्रतिश्रुत, दूसरे सन्मति, तीसरे क्षेमकृत्, चौथे क्षेमंधर, पांचवें सीमंकर घौर छठे सीमंधर, इस प्रकार कुछ व्युत्क्रम से संख्या दी गई है । विमलवाहन से भागे के नाम दोनों में समान हैं। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में पउम चरियं के १४ नामों के साथ ऋषभ को जोड़कर पन्द्रह कुलकर बतलाये गये हैं- जो अपेक्षा से संख्या भेद होने पर भी बाधक नहीं है। चौदह कुलकरों में प्रथम के छः भौर ग्यारहवें चन्द्राभ के अतिरिक्त सात नाम वे ही स्थानांग के अनुसार हैं। संभव है प्रथम के छः कुलकर उस समय के मनुष्यों के लिये योगक्षेम में मार्गदर्शक मात्र रहे हों । १ स्थानांग, ७ स्वरमण्डलाधिकार - भाव० पूर्ण पृ० २८-२९= प्राव० नि० ना० १५२= समवायांग ૧ भावः प्रतिश्रुतिः प्रोक्तः, द्वितीयः सन्मतिर्मतः । तृतीयः क्षेमकुशाम्ना, चतुर्थः क्षेगघृन्मनुः ॥ सीमकृत्पंचमो शेयः, षष्ठः सीमघुदिष्यते । ततो विमलवाहांश्चक्षुष्मानष्टमो मतः ॥ यशस्वान्नवमस्तस्मान्नाभिचन्द्रोऽप्यनन्तरः 1 चन्द्राभोऽस्मात्परं शेयो, मरुदेवस्ततः परम् ॥ प्रसेनजित् परं तस्मान्नामिराजश्चतुर्दश: । [ महापुराण जिनसेनाचार्य, प्रथम भाग, पर्व ३, श्मो० २२१ - २३२, पृष्ठ ६६ ] Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलकर : एक विश्लेषण] कालचक्र मौर कुलकर पिछले कुलकरों की तरह दण्ड व्यवस्था आदि में उनका सक्रिय योग नहीं होने के कारण इनको गौण मानकर केवल सात ही कुलकर गिने गये हों । ऋषभदेव को प्रथम भूपति होने व यौगलिक रूप को समाप्त कर कर्मभूमि के रूप में नवीन राज्य व्यवस्था स्थापित कर राजा होने के कारण कुलकर रूप में नहीं गिना गया हो और संभव है जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में कुल का सामान्य अर्थ मानव-समूह लेकर उनकी भी बड़े कुलकर के रूप में गणना कर ली गई हो। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में कुलकरों की संख्या इस प्रकार है : "तीसे समाए पच्छिमे तिभाए पलिग्रोवमद्धभागावसेसे, एत्थ एणं इमे पण्णरस कूलगरा समप्पज्जित्था, तं जहा-सूमई, पडिस्सूई, सोमंकरे, सीमंधरे, खेमंकरे, खेमंधरे, विमलवाहणे, चक्खुमं, जसमं, अभिचन्दे, चन्दाभे, पसेणई, मरुदेवे, गाभी, उसभोत्ति ।"१ जैन साहित्य की तरह वैदिक साहित्य में भी इस प्रकार का वर्णन उपलब्ध होता है। वहां पर कुलकरों के स्थान पर प्रायः मनु शब्द प्रयुक्त हुआ है। मनुस्मृति में स्थानांग के सात कुलकरों की तरह सात महातेजस्वी मनु इस प्रकार बतलाये गये हैं : (१) स्वयम्भू, (४) तामस, (७) वैवस्वत । (२) स्वारोचिष्, (५) रैवत, (३) उत्तम, (६) चाक्षुष, यथा :- स्वायंभुवस्यास्य मनोः षड्वंश्या मनवोऽपरे । सृष्टवन्तः प्रजाः स्वाःस्वाः महात्मानो महौजसः ।। स्वारोचिषश्चोत्तमश्च तामसो रैवतस्तथा । चाक्षषश्च महातेजा विवस्वत्सुत एव च ॥ स्वायम्भुवाद्याः सप्तैते मनवो भूरि तेजसः । स्वे स्वेऽन्तरे सर्वमिदमुत्पाद्यापुश्चराचरम् ।। अन्यत्र चौदह मनुषों का भी उल्लेख मिलता है -- (१) स्वायम्भुव, (६) चाक्षुष, (११) धर्म सारिण, (२) स्वारोचिष, (७) वैवस्वत, (१२) रुद्र सावरिण, (३) प्रोत्तमि, (८) सारिण, (१३) रोच्य देव सावणि, (४) तापस, (६) दक्षसावणि, (१४) इन्द्र सावणि । (५) रैवत, (१०) ब्रह्मसावणि, ' जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, पत्र १३२ २ मनुस्मृति, प्र. १/श्लो. ६१-६२-६३ 3 मोन्योर-मोन्योर विलियम संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी, पृ० ७८४ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ कुलकर : एक विश्लेषण मत्स्य पुराण, मार्कण्डेय पुराण, देवी भागवत और विष्णु पुराण में भी स्वायंभुव आदि चौदह मनु बतलाये गये हैं । ८ (१) स्वायंभुव, (२) स्वारोचिष, (३) प्रौत्तमि, (४) तामस, (५) रैवत, (६) चाक्षुष, (७) वैवस्वत, १ भागवत ८/५ प्र. * (८) सार्वारण; कृपया परिशिष्ट देखें ( 8 ) रौच्य, (१०) भौत्य, वैवस्वत के बाद मार्कण्डेय पुराण में ५ सार्वारण, तथा रौच्य श्रौर भौत्य ये सात मनु और माने गये 1 श्रीमद्भागवत में अष्टम मनु(5) सावरण, ( 2 ) दक्ष सावरण, (१०) ब्रह्म सावरण, (११) धर्म सार्वारण, इस प्रकार १४ मनुत्रों के नाम बतलाये गये हैं । (११) मेरुसावरिंग, ( १२ ) ऋभु, चतुर्दश मनुत्रों का काल - प्रमाण सहस्र युग * माना गया है । मनुत्रों के विस्तृत परिचय के लिए मत्स्यपुराण के हवें अध्याय से २१ वें अध्याय तक और जैन प्राचीन ग्रन्थ तिलोय पण्णत्ती के चतुर्थ महाधिकार की ४२१ से ५०६ तक की गाथाएं पठनीय हैं । तिलोय पण्णत्ती में जो १४ कुलकरों और उनके समय की परिस्थितियों का वर्णन किया गया है, उसे परिशिष्ट में देखें । (१३) ऋतुधामा, (१४) विश्वक्सेन । उपरोक्त तुलनात्मक विवेचन से भारतीय मानवों की आदि व्यवस्था की ऐतिहासिकता पर अच्छा प्रकाश पड़ता है । (१२) रुद्र सार्वाण, (१३) देव सावरण, (१४) इन्द्र सावरिंग, ' २ ( क ) भाग. स्कध ८ श्र० १४ (ख) हिन्दी विश्वकोष, १६ वा भाग, पृ. ६४८ से ६५५ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् ऋषभदेव तीर्थकर पद प्राप्ति के साधन भगवान् ऋषभदेव मानव समाज के आदि व्यवस्थापक और प्रथम धर्मनायक रहे हैं। जब तीसरे आरे के ८४ लाख पूर्व, तीन वर्ष और साढ़े आठ मास अवशेष रहे' और अन्तिम कुलकर महाराज नाभि जब कुलों की व्यवस्था करने में अपने आपको असमर्थ एवं मानव कुलों की बढ़ती हुई विषमता को देखकर चिन्तित रहने लगे, तब पुण्यशाली जीवों के पुण्य प्रभाव और समय के स्वभाव से महाराज नाभि की पत्नी मरुदेवी की कुक्षि से भगवान् ऋषभदेव का जन्म हुआ । आस्तिक दर्शनों का मन्तव्य है कि श्रात्मा त्रिकाल सत् है, वह अनन्त काल पहले था और भविष्य में भी रहेगा। वह पूर्व जन्म में जैसी करणी करता है, वैसे ही फल भोग प्राप्त करता है। प्रकृति का सहज नियम है कि वर्तमान की सुख समृद्धि और विकसित दशा किसी पूर्व कर्म के फलस्वरूप ही मिलती है। पौधों को फला-फूला देख कर हम उनकी बुआई और सिंचाई का भी अनुमान करते हैं । उसी प्रकार भगवान् ऋषभदेव के महा महिमामय पद के पीछे भी उनकी विशिष्ट साधनाएँ रही हुई हैं । A (जब साधारण पुण्य फल की उपलब्धि के लिए भी साधना और करणी की आवश्यकता होती है, तब त्रिलोक पूज्य तीर्थंकर पद जैसी विशिष्ट पुण्य प्रकृति सहज ही किसी को कैसे प्राप्त हो सकती है ? उसके लिए बड़ी तपस्या, भक्ति और साधना की जाय, तब कहीं उसकी उपलब्धि हो सकती है । जैनागम ज्ञाताधर्म कथा में तीर्थंकर गोत्र के उपार्जन के लिए वैसे बीस स्थानों का आराधन आवश्यक कारणभूत माना गया है, जो इस प्रकार है ● 'इमेहि य णं बीसाए कारणेहि आसेविय बहुलीकएहिं तित्थयर नाम गोयं कम्मं निर्वात्तसु, तं जहा : १ अरहंत सिद्ध पवयरण, गुरु थेर बहुस्सुए तवस्तिसु । वच्छलयाय एसि, अभिक्खनाणोवोगे य ॥ दंसण विre प्रवस्सए य सीलव्वए निरइयारो । खरणलव तवच्चियाए, वेयावच्चे समाही य ॥ (क) सुसम दुस्समाए ततियाएवि बहुवितिक्कंताए चउरासीए पुव्वसयसहस्सेहि सेसहि एगूणउइएय पक्खेहि सेसएहि प्रासाढबहुलपक्खे चउत्थीए उत्तरासाढाजोगजुत्ते मियंके विरणीयाए भूमिए नाभिस्स कुलगरस्स मरुदेवाए भारियाए कुच्छिसि गरभत्ताए उववन्नो । [ श्रावश्यक चूरिंग (जिनदास) पूर्व भाग, पृ० १३५] (ख) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भ० ऋषभदेव के पूर्वभव अप्पुव्वनाण गहणे, सुयभत्ती पवयणे पहावणया। एएहिं कारणेहिं, तित्थयरत्तं लहइ जीवो।' । अर्थात् (१) अरिहंत की भक्ति, (२) सिद्ध की भक्ति, (३) प्रवचन की भक्ति, (४) गुरु, (५) स्थविर, (६) बहुश्रुत और (७) तपस्वी मुनि की भक्तिसेवा करना, (८) निरंतर ज्ञान में उपयोग रखना, (६) निर्दोष सम्यक्त्व का पालन करना, (१०) गुणवानों का विनय करना, (११) विधिपूर्वक षड़ावश्यक करना, (१२) शोल और व्रत का निर्दोष पालन करना, (१३) वैराग्यभाव की वृद्धि करना, (१४) शक्तिपूर्वक तप और त्याग करना, (१५) चतुर्विध संघ को समाधि उत्पन्न करना, (१६) व्रतियों की सेवा करना, (१७) अपूर्वज्ञान का अभ्यास, (१८) वीतराग के वचनों पर श्रद्धा करना, (१६) सुपात्र दान करना और (२०) जिन-शासन की प्रभावना करना) सब के लिए यह आवश्यक नहीं है कि बीसों ही बोलों की प्राराधना की जाय, कोई एक दो बोल की उत्कृष्ट साधना एवं अध्यवसायों की उच्चता से भी तीर्थंकर बनने की योग्यता पा लेते हैं। महापुराण में तीर्थकर बनने के लिए षोडश कारण भावनाओं का आराधन आवश्यक बतलाया गया है। उनमें दर्शन-विशुद्धि, विनय-सम्पन्नता को प्राथमिकता दी है; जब कि ज्ञाताधर्म कथा में अर्हद्भक्ति आदि से पहले विनय को। इनमें सिद्ध, स्थविर और तपस्वी के बोल नहीं हैं, उन सबका अन्तर्भाव षोडश-कारण भावनाओं में हो जाता है। अत: संख्या-भेद होते हुए भी मूल वस्तु में भेद नहीं है। तत्वार्थ सूत्र में षोडश कारण भावना इस प्रकार है : "दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता, शीलव्रतेष्वनतिचारोऽभीक्षणं ज्ञानोपयोगसंवेगौ, शक्तितस्त्यागतपसी, संघ-साधु-समाधिर्वयावृत्यकरणमर्हदाचार्य बहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यका परिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकृत्त्वस्य" । भगवान् ऋषभदेव के जीव ने कहां किस भव में इन बोलों की आराधना कर तीर्थकर गोत्र कर्म का उपार्जन किया, इसको समझने के लिए उनके पूर्व भवों का परिचय आवश्यक है, जो इस प्रकार है : भगवान् ऋषभदेव के पूर्व भव और साधना भगवान् ऋषभदेव का जोव एक बार महाविदेह के क्षितिप्रतिष्ठ नगर में धन्ना नामक सार्थवाह के रूप में उत्पन्न हुआ। उसके पास विपुल सम्पदा थी, दूरदूर के देशों में उसका व्यापार चलता था। एक बार उसने यह घोषणा करवाई - "जिम किमी को अर्थोपार्जन के लिए विदेश चलना हो, वह मेरे साथ चले। मैं ' प्राव. नि० १७६-७८-ज्ञाता० घ. क.८ २ तत्त्वार्थ सूत्र ६-२३ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोर साधना भगवान् ऋषभदेव उसको सभी प्रकार की सुविधाएं दूंगा।" यह घोषणा सुन कर सैकड़ों लोग उसके साथ व्यापार के लिए चल पड़े। प्राचार्य धर्मघोष को भी वसंतपुर जाना था। उन्होंने निर्जन अटवी पार करने के लिए सहज प्राप्त इस संयोग को अनुकूल समझा और अपनी शिष्यमंडली सहित धन्ना सेठ के साथ हो लिए। सेठ ने अपने भाग्य की सराहना करते हुए अनुचरों को आदेश दिया कि प्राचार्य के भोजनादि का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाय । आचार्य ने बताया कि श्रमणों को अपने लिए बनाया हुआ आधाकर्मी और प्रौद्देशिक आदि दोषयुक्त आहार निषिद्ध है। उसी समय एक अनुचर आम्रफल लेकर आया। सेठ ने आचार्य से आम्रफल ग्रहण करने की प्रार्थना की तो पता चला कि श्रमणों के लिए फल-फूल आदि हरे पदार्थ भी अग्राह्य हैं। श्रमणों की इस कठोर चर्या को सुन कर सेठ का हृदय भक्ति से प्राप्लावित और मस्तक श्रद्धावनत हो गया। सार्थवाह के साथ आचार्य भी पथ को पार करते हुए आगे बढ़ रहे थे। तदनन्तर वर्षा का समय आया और उमड़-घुमड़ कर घनघोर घटाएं बरसने लगीं। सार्थवाह ने वर्षा के कारण मार्ग में पंक व पानी आदि की प्रतिकूलता देख कर जंगल में ही एक सुरक्षित स्थान पर वर्षावास बिताने का निश्चय किया। प्राचार्य धर्मघोष भी वहीं पर एक अन्य निर्दोष स्थान पर ठहर गये। संभावना से अधिक समय तक जंगल में रुकने के कारण सार्थ की सम्पूर्ण खाद्य सामग्री समाप्त हो गई, लोग वन के फल, मूल, कन्दादि से जीवन बिताने लगे। ज्यों ही वर्षा की समाप्ति हुई कि सेठ को अकस्मात् आचार्य की स्मृति हो प्राई। उसने सोचा, आचार्य धर्मघोष भी हमारे साथ थे। मैंने अब तक उनकी कोई सुधि नहीं ली। इस प्रकार पश्चाताप करते हुए वह शीघ्र प्राचार्य के पास गया और आहार की अभ्यर्थना करने लगा। प्राचार्य ने उसको श्रमरण-आचार की मर्यादा समझाई । विधि-अविधि का ज्ञान प्राप्त कर सेठ ने भी परम उल्लासभाव से मुनि को विपुल घृत का दान दिया। उत्तम पात्र, श्रेष्ठ द्रव्य और उच्च अध्यवसाय के कारण उसको वहां सम्यग्दर्शन की प्रथम बार उपलब्धि हई, अतः पहले के अनन्त भवों को छोड़ कर यहीं से ऋषभदेव का प्रथम भव गिना गया है। ऋषभदेव के अन्तिम तेरह भवों में यह प्रथम भव है। धन्ना सार्थवाह के भव से निकल कर देव तथा मनुष्य के विविध भव करते हुए आप सुविधि वैद्य के यहाँ पुत्र रूप से उत्पन्न हुए। यह ऋषभदेव का नवमां भव था । इनका नाम जीवानन्द रखा गया। जीवानन्द के चार अन्तरंग मित्र थे, पहला राजपुत्र महीधर, दूसरा श्रेष्ठि-पुत्र, तीसरा मंत्री-पुत्र और चौथा सार्थवाह-पुत्र । एक बार जब वह अपने साथियों के साथ घर में वार्तालाप कर रहा था, उस समय उसके यहाँ एक दीर्घ-तपस्वी मुनि भिक्षार्थ पधारे। प्रतिकूल आहार-विहारादि कारणों से मुनि के शरीर में कृमिकुष्ठ की व्याधि उत्पन्न हो गई थी। राजपुत्र महीधर ने मुनि की कुष्ठ के कारण विपन्न स्थिति को देख कर जीवानन्द से कहा, Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भ० ऋषभदेव के पूर्वभव मित्र ! तुम सब लोगों की चिकित्सा करते हो, पर खेद की बात है कि इन तपस्वी मुनि की भीषण व्याधि को देखकर भी तुम कुछ करने को तत्पर नहीं हो रहे हो। उत्तर में जीवानन्द ने कहा, भाई! तुम्हारा कथन सत्य है पर. इस रोग की चिकित्सा के लिए मुझे जिन वस्तुमों की आवश्यकता है, उनके अभाव में मैं इस दिशा में कर ही क्या सकता है? मित्र के पूछने पर जीवानन्द ने बतलाया कि मुनि की चिकित्सा के लिए रत्नकम्बल, गौशीर्ष चन्दन और लक्ष पाक तेल, ये तीन वस्तुएं आवश्यक हैं । लक्ष पाक तेल तो मेरे पास है पर अन्य दो वस्तुएं मेरे पास नहीं हैं । ये दोनों वस्तुएं प्राप्त हो जायं तो मुनि की चिकित्सा हो सकती है। यह सुन कर महीधर ने अपने चारों मित्रों के साथ उसी समय अभीष्ट वस्तुएं उपलब्ध करने की इच्छा से बाजार की ओर प्रस्थान कर दिया और नगर के एक बड़े व्यापारी के यहाँ पहंच कर रस्नकम्बल और गौशीर्ष चन्दन की गवेषणा की। व्यापारी ने इन तरुणों को इन दोनों वस्तुओं का मूल्य एक-एक लाख मोहरें बताया और पूछा कि इन दोनों वस्तुओं की किनके लिए प्रावश्यकता है? उन लोगों के इस उत्तर से कि कुष्ठ-रोग-पीड़ित तपस्वी मुनि की चिकित्सा के लिए उन्हें इन दो बहुमूल्य वस्तुओं की आवश्यकता है, वह सेठ बड़ा प्रभावित हुआ और सोचने लगा कि जब इन बालकों के मन में मुनि के प्रति इतनी अगाध श्रद्धा है तो क्या मैं स्वयं इस सेवा का लाभ नहीं ले सकता ? मुनि के लिए बिना कुछ लिए ही दवा देना उचित है, यह सोच कर उसने बिना मूल्य लिए ही वे दोनों वस्तुएं दे दी। वैद्य जीवानन्द और उसके साथी तीनों आवश्यक औषधियां लेकर साधु के पास उद्यान में गये, जहाँ कि मुनि ध्यानावस्थित थे। वैद्य-पुत्र जीवानन्द ने वन्दन कर मुनि के शरीर पर पहले तेल का मर्दन किया। जब तेल रोम-कृपों से शरीर में समा गया तो तेल के अन्दर पहुंचते ही कुष्ठकृमि कुलबुला कर बाहर निकलने लगे। तदनन्तर वैद्यपुत्र ने रत्नकम्बल से साधु के शरीर को ढक दिया और सारे कीड़े शीतल रत्नकम्बल में मा गये। इस पर वैद्य जीवानन्द ने कम्बल को किसी पशु के मृत कलेवर पर रख दिया जिससे वे सब कीट उस कलेवर में समा गये। फिर जीवानन्द ने मुनि के शरीर पर गौशीर्ष चन्दन का लेप किया। इस प्रकार तीन बार मालिश करके जीवानन्द ने अपने चिकित्सा कौशल से उन मुनि को पूर्णरूपेण रोग से मुक्त कर दिया।' मुनि की इस प्रकार निस्पृह एवं श्रद्धा-भक्तिपूर्ण सेवा से जीवानन्द आदि मित्रों ने महान् पुण्य-लाभ किया। मुनि को पूर्ण रूप से स्वस्थ देख कर उनका अन्तर्मन गद्गद् हो गया। जीवानन्द ने मुनि से ध्यानान्तराय के लिए क्षमा याचना की। मुनि ने उनको त्याग विरागपूर्ण उपदेश दिया, जिससे प्रभावित होकर जीवानन्द ने अपने चारों मित्रों के साथ श्रावकधर्म ग्रहण किया। तदनन्तर श्रमणधर्म की विधिवत् आराधना कर, प्रायु पूर्ण होने पर पांचों मित्र अच्युतकल्प नामक बारहवें स्वर्ग में देव पद के अधिकारी बने । १ प्रावश्यक मलय वृत्ति, पृ० १६५ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और साधना] भगवान् ऋषभदेव जोवानन्द ने अपनी विशिष्ट शुभ साधना के फलस्वरूप देवलोक की आयु पूर्ण कर पुष्कलावती विजय में महाराज वज्रसेन की रानी धारिणी के यहाँ पुत्र रूप से जन्म ग्रहण किया। गर्भ-काल में माता ने चौदह महा-स्वप्न देखे । महाराज वज्रसेन ने अपने उस पुत्र का नाम वज्रनाभ रखा, जो आगे चल कर षट्खण्ड राज्य का अधिकारी चक्रवर्ती बना । जीवानन्द के अन्य चार मित्र बाहु, सुबाहु, पीठ और महापीठ के नाम से सहोदर भाई के रूप में उत्पन्न हुए । वज्रनाभ ने पूर्व जन्म की मुनि सेवा के फलस्वरूप चक्रवर्ती का पद प्राप्त किया और अन्य भाई माण्डलिक राजा हुए। इनके पिता तीर्थकर वज्रसेन ने जब : केवली होकर देशना प्रारम्भ की तब पूर्वजन्म के संस्कारवश चक्रवर्ती वज्रनाभ भी वैराग्यभाव में रंग कर दीक्षित हो गये। चिर काल तक संयम-धर्म की साधना करते हुए उन्होंने दीर्घकाल तक तपस्या की और अर्हद्भक्ति प्रादि बीसों ही स्थानों की सम्यक अाराधना कर उसी जन्म में तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया। अन्त में संलेखना और समाधिपूर्वक प्राय पूर्ण कर मुनि वज्रनाभ सर्वार्थ सिद्ध नामक अनूतर विमान में अहमिन्द्र देव हुआ। जन्म वज्रनाभ का जीव सर्वार्थसिद्ध विमान में अपने देवभव की ३३ सागर की स्थिति पूर्ण होने पर प्राषाढ कृष्णा चतुर्थी को' सर्वार्थसिद्ध विमान से च्युत हो उत्तराषाढा नक्षत्र के योग में माता मरुदेवी को कुक्षि में गर्भरूप से उत्पन्न हुआ ! सर्वार्थसिद्ध विमान से च्यवन कर जिस समय भगवान ऋषभदेव का जीव मरुदेवी की कुक्षि में उत्पन्न हुआ, उस रात्रि के पिछले भाग में माता मरुदेवी ने निम्नलिखित चौदह शुभ स्वप्न देखे :(१) गज, (६) चन्द्र, (११) क्षीर समुद्र, (२) वृषभ, (७) सूर्य, (१२) विमान, (३) सिंह, (८) ध्वजा, (१३) रत्नराशि और (४) लक्ष्मी , (8) कुंभ, (१४) निर्धूम अग्नि ।' (५) पुष्पमाला, (१०) पद्मसरोवर, कल्पसूत्र में उल्लिखित गाथा में विमान के साथ नाम 'भवन' भी दिया है। इसका भाव यह है कि तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जित किये हए जो जीव नरक भूमि से आते हैं, उनकी माता भवन का स्वप्न देखती है और देवलोक से आने वालों की माता विमान का शुभ-स्वप्न देखती है । संख्या की दृष्टि से तीर्थंकर ' उववातो सम्वट्ठे सम्वेसिं पढमतो चुतो उसभो। रिक्खेण असाढाहिं, असाढ बहुले चउत्थिए ॥ (मावश्यक नियुक्ति गा० १८२) २ गय-वसह-सीह-अभिसेय-दाम ससि-दियरं-झयं-कुम्भ । पउमसर, सागर, विमाण-भवण-रयणुच्चय सिहिं च ॥ (कल्पसूत्र, सू० ३३) Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [म. ऋषम का जन्मकाम और चक्रवर्ती की माताएं समान रूप से चौदह स्वप्न ही देखती हैं। दिगम्बर परम्परा में सोलह स्वप्न देखना बतलाया है।' यहां यह स्मरणीय है कि-अन्य सब तीर्थंकरों की माताएं प्रथम स्वप्न में हाथी को मुख में प्रवेश करते हुये देखती हैं, जब कि मरुदेवी ने प्रथम स्वप्न में बृषभ को अपने मुख में प्रवेश करते हुये देखा। ____स्वप्नदर्शन के पश्चात् जागृत होकर मरुदेवी महाराज नाभि के पास माई और उसने विनम्र, मृदु एवं मनोहर वाणी में स्वप्नदर्शन सम्बन्धी समस्त वृत्तान्त नाभि कुलकर से कह सुनाया। उस समय स्वप्न-पाठक नहीं थे, अतः स्वयं महाराज नाभि ने औत्पातिकी बुद्धि से स्वप्नों का फल सुनाया। गर्भकाल सानन्द पूर्ण कर चैत्र कृष्णा अष्टमी को, उत्तराषाढा नक्षत्र के योग में माता मरुदेवी ने सुखपूर्वक पुत्र-रत्न को जन्म दिया। कहीं-कहीं अष्टमी के बदले नवमी को जन्म होना लिखा गया है । संभव है उदय तिथि, अस्ततिथि की दृष्टि से ऐसा तिथिभेद लिखा गया हो। भगवान् ऋषभ का जन्मकाल जब दो कोडाकोड़ी सागर की स्थिति वाले तृतीय आरक के समाप्त होने में ८४ लाख पूर्व, ३ वर्ष, ८ मास और १५ दिन शेष रहे थे, उस समय भगवान् ऋषभदेव का जन्म हुआ। X वैदिक परम्परा के धर्मग्रन्थ 'श्रीमद्भागवत' में भी प्रथम मनु स्वायंभुव के मन्वन्तर में ही उनके वंशज अग्नीध्र से नाभि और नाभि से ऋषभदेव का जन्म होना माना गया है । इस प्रकार वैदिक परम्परा के धर्मग्रन्थों में भी लगभग जैन परम्परा के आगमों के समान ही रघुकुल तिलक श्री पुरुषोत्तम राम ही नहीं अपितु उनके पूर्वपुरुष सगर आदि से भी सुदीर्घ समयावधि पूर्व भगवान् ऋषभदेव का जन्म होना माना गया है। जिस समय भगवान् ऋषभदेव का जन्म हुमा, उस समय सभी दिशायें शान्त थीं। प्रभु का जन्म होते ही सम्पूर्ण लोक में उद्योत हो गया। क्षण भर के लिये नारक भूमि के जीवों को भी विश्रान्ति प्राप्त हुई। ___ जन्माभिषेक और जन्ममहोत्सव ससुरासुर-नर-नरेन्द्रों, देवेन्द्रों एवं मसुरेन्द्रों द्वारा वन्दित, त्रिलोकपूज्य, संसार के सर्वोत्कृष्ट पद तीर्थकर पद की पुण्य प्रकृतियों का बन्ध किये हुए महान् 'माचार्य जिनसेन ने मत्स्य-युगल मौर सिंहासन ये दो स्वप्न बढ़ा कर सोलह स्वप्न _बतलाये हैं। (महापुराण पर्व १२, पृ० १०३-१२०) २ चैत बहुलट्ठमीए जातो उसमो भाषाढ नक्कते।। (मावश्यक नियुक्ति गा० १०४ व कल्पसूत्र, सू० १९३) ३ चैत्रे मास्यसिते पक्षे, नवम्यामुदये रखेः। (महापुराण, जिनसेन, सर्ग १३, श्लो. २-३) Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्माभिषेक और महो० ] भगवान् ऋषभदेव १५ पुण्यात्मा जब जन्म ग्रहरण करते हैं, उस समय ५६ दिक्कुमारियों और ६४ ( चौसठ ) देवेन्द्रों के प्रासन प्रकम्पित होते हैं । अवधिज्ञान के उपयोग द्वारा जब उन्हें विदित होता है कि तीर्थंकर का जन्म हो गया है, तो वे सब अनादिकाल से परम्परागत दिशाकुमारिकाओं और देवेन्द्रों के जीताचार के अनुसार अपनी अद्भुत दिव्य देव ऋद्धि के साथ अपनी-अपनी मर्यादा के अनुसार तीर्थंकर के जन्मगृह तथा मेरुपर्वत और नन्दीश्वर द्वीप में उपस्थित हो बड़े ही हर्षोल्लास पूर्वक जन्माभिषेक आदि के रूप में तीर्थंकर का जन्ममहोत्सव मनाते हैं । यह संसार का एक अनादि अनन्त शाश्वत नियम है । इसी शाश्वत नियम के अनुसार जब भगवान् ऋषभदेव का जन्म हुआ तो तत्क्षण ५६ महत्तरिका दिशाकुमारियों एवं चौसठ इन्द्रों के आसन चलायमान हुये । सर्वप्रथम उन्होंने सिंहासन से उठ प्रभु जिस दिशा में विराजमान थे उस ★ दिशा में उत्तरासंग किये सात-आठ कदम आगे जा प्रभु को प्रणाम किया । तत्पश्चात् वे सब अपनी अद्भुत देवद्धि के साथ प्रभु ऋषभ का जन्माभिषेक एवं जन्मोत्सव मनाने के लिए प्रस्थित हुए । सर्वप्रथम अधोलोक में रहने वाली भोगंकरा आदि आठ दिशाकुमारियां अपने विशाल परिवार के साथ नाभि कुलकर के भवन में, प्रभु के जन्मगृह में उपस्थित हुईं। उन्होंने माता मरुदेवी और नवजात प्रभु ऋषभ को वन्दन नमन करने के पश्चात् उनकी स्तुति की। तदुपरान्त उन्होंने माता मरुदेवी को अपना परिचय देते हुए प्रति विनम्र एवं मधुर स्वर में निवेदन किया- 'हे त्रिभुवनप्रदीप तीर्थंकर को जन्म देने वाली मातेश्वरी ! हम अधोलोक में रहने वाली दिक्कु -- मारिकाएं हैं। हम यहाँ इन त्रिभुवनतिलक तीर्थंकर भगवान् का जन्म महोत्सव करने आई हैं । अतः आप अपने मन में किंचित्मात्र भी आशंका अथवा भय को अवकाश मत देना । माता मरुदेवी को इस प्रकार आश्वस्त कर उन्होंने रजकरण, तृण, धूलि, दुरभिगन्ध आदि को दूर कर जन्मगृह और उसके चारों ओर एक योजन की परिधि में समस्त वातावरण को सुरभिगंध से प्रोतप्रोत कर देने वाले वायु की विकुर्वणा द्वारा उस एक योजन मण्डल की भूमि को स्वच्छ सुरम्य एवं सुगन्धित बना दिया । किंकरियों के समान यह सब कार्य निष्ठापूर्वक सम्पन्न करने के पश्चात् वे प्राठों महत्तरिका दिक्कुमारियां अपने विशाल देवी समूह के साथ गीत गाती हुई मां मरुदेवी के चारों ओर खड़ी हो गईं । उसी समय ऊर्ध्वलोक में रहने वाली मेघंकरा आदि आठ दिवकुमारियां अपने देव देवी समूह के साथ जन्मगृह में प्राईं। माता पुत्र को वन्दन- नमनस्तवन आदि के पश्चात् उन्होंने सुगन्धित जलकरणों की वृष्टि और दिव्य धूप की सुगन्ध से जन्मगृह के एक योजन के परिमण्डल को देवागमन योग्य सुमनोज्ञसुरम्य बना दिया । तत्पश्चात् वे विशिष्टतर मंगल गीत गाती हुईं मातृमन्दिर में माता मरुदेवी के चारों ओर खड़ी हो गईं । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [जन्माभिषेक और महो० तदनन्तर पूर्व के रुचक कूट पर रहने वाली नंदुत्तरा आदि आठ दिक्कुमारिकाएं हाथों में दर्पण लिये, दक्षिण के रुचक पर्वत पर रहने वाली समाहारा आदि आठ दिशाक मारियां हाथों में झारियाँ लिये, पश्चिम दिशा के रुचक पर्वत पर रहने वाली इलादेवी आदि ८ दिक्कु मारिकाएं हाथों में तालवृन्त (पंखे) लिये, उत्तर रुचक पर्वत पर रहने वाली अलम्बूषा आदि पाठ दिशाकमारियां हाथों में चामर लिये मंगल गीत गाती हुईं तीर्थंकर के जन्मगृह में माता मरुदेवी के चारों ओर खड़ी हो जाती हैं। तदुपरान्त विदिशा के रुचक पर्वत पर रहने वाली चित्रा, चित्र-कनका, सतेरा और सुदामिनी ये चार दिशाकुमारिकाएं माता एवं तीथंकर की वन्दन नमन पूर्वक स्तुति कर चारों दिशाओं में दीपिकाएँ लिए माता मरुदेवी के चारों ओर की विदिशाओं में गीत गाती हुई खडी रहती हैं। उसी समय मध्य रुचक पर्वत पर रहने वाली रूपा, रूपांशा, सुरूपा और रूपकावती ये चार महत्तरिका दिक्कूमारिकाएं मां मरुदेवी और प्रभु ऋषभदेव को वन्दन-नमन आदि के पश्चात् उनके समीप जाकर भगवान् की नाभिनाल को चार अंगुल छोड़ कर काटती हैं। नाभिनाल को काटने के पश्चात् भवन के प्रांगण में एक ओर गड्ढा खोद कर नाभिनाल को उसमें गाड़ देती हैं । तदनन्तर गड्ढे को वज्ररत्नों और भांति-भांति के रत्नों से भर कर उस पर हरताल की पीठिका बांधती हैं। तदनन्तर पूर्व, उत्तर और दक्षिरण इन तीन दिशाओं में तीन कदलीघरों, प्रत्येक कदलीगह के बीच में एक-एक चतुश्शाल और प्रत्येक चतुश्शाल के मध्यभाग में एक-एक नयनाभिराम सिंहासन की विकुर्वणा करती हैं । तदुपरांत वे मध्यरुचक पर्वत पर रहने वाली रूपा आदि चारों ही दिशाकुमारिकाएँ मां मरुदेवी के पास पा, प्रभु ऋषभ को करतल में ले माता मरुदेवी के हाथ थामे हुये दक्षिण दिशा के कदलीगह की चतुश्शाला में लाकर उन्हें सिंहासन पर बिटा देती हैं। वहाँ माता और पुत्र दोनों के शरीर का शतपाक, सहस्रपाक तैल से शनैः शनैः मर्दन कर उनके शरीर पर दिव्य सुगन्धित गन्धपुड़े की पीठी करती हैं। पीठी करने के पश्चात् रूपा आदि वे चारों दिशाकुमारियां माता और पुत्र को पूर्ववत् लिये हुये पूर्व दिशा के कदलीगृह की चतुश्शाला के मध्यवर्ती सिंहासन पर बिठाती हैं और वहां क्रमशः गन्धोदक, पुष्पोदक और शुद्धोदक से स्नान कराती हैं। स्नान कराने के पश्चात् वे उन दोनों को उत्तरदिशा के कदलोगह को चतुश्शाला के मध्यभाग में रखे सिंहासन पर बिठा देती हैं। वहाँ वे अरणी द्वारा अग्नि उत्पन्न कर अपने आभियोगिक देवों द्वारा मंगवाई हुयी गोशीर्ष चन्दन की काष्ठ से हवन, हवन के अनन्तर वे वहाँ भूतिकर्म निष्पन्न कर रक्षापोटली बांधती हैं। तत्पश्चात् मणिरत्न के समान दो गोल पाषाण हाथों में ले भगवान् के कर्णमूल के पास दोनों पाषाणों को परस्पर टकरा कर 'टिट्-टिट' Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्माभिषेक और महो०] भगवान् ऋषभदेव की ध्वनि करती हुई - "प्रभो ! आप पर्वत के समान चिरायु होवे'- यह पाशीर्वाद देती हैं। इस प्रकार प्रसव के पश्चात् निष्पन्न किये जाने वाले सभी आवश्यक कार्यों को सम्पन्न करने के पश्चात् रूपा प्रादि वे चारों दिक्कुमारिकाएं माता मरुदेवी और प्रभु ऋषभ को जन्मगृह में ला उन्हें शय्या पर विठा, मंगल गीत गाती हुई वहीं खड़ी रहती हैं। उसी समय सौधर्मेन्द्र देवराज शक्र प्राभियोगिक देवों द्वारा निर्मित अतीव विशाल एवं अनपम सुन्दर विमान में अपने अलौकिक वैभव एवं देवों तथा देवियों के विशाल परिवार के साथ विनीता में आया । अपने दिव्य विमान से उसने तीन बार जन्म-भवन की प्रदक्षिणा की। तदनन्तर विमान से उतर कर दिव्य दुन्दुभिघोष के बीच अपनी आठ अग्रमहिषियों और देव-देवियों के साथ जन्म-गृह में पाया। माता मरुदेवी को देखते ही शक्र ने सांजलि शीष झुका पादक्षिणा प्रदक्षिणापूर्वक तीन बार प्रणाम किया। तदनन्तर उसने माता मरुदेवी की स्तुति करने के पश्चात् उन्हें निवेदन किया - "हे देवानुप्रिये ! मैं शक नामक सौधर्मेन्द्र तीर्थंकर प्रभु का जन्ममहोत्सव करने आया हूँ । आप पूर्णतः निर्भय रहें।" तदनन्तर शक्र ने अवस्वापिनी निद्रा से माता मरुदेवी को निद्राधीन कर प्रभु ऋषभ का दूसरा स्वरूप बना उनके पास रख दिया। इसके पश्चात् शक ने वैक्रिय शक्ति से अपने पांच स्वरूप बनाये। वैक्रिय शक्ति से बने पाँच शकों में से एक शक ने प्रभु को अपने करतल में उठाया, दूसरे ने प्रभु पर छत्र धारण किया, दो शक दोनों पाव में चामर वीजने लगे और पाँचवां शक्र हाथ में वज्र धारण किये हुए प्रभु के आगे-आगे चलने लगा। तत्पश्चात् चारों जाति के देवों और देवियों के प्रति विशाल परिवार से परिवृत्त शक्र प्रभु को करतल में लिये, दिव्य वाद्ययन्त्रों के निर्घोष के बीच दिव्य देवगति से चलते हए मेरु पर्वत पर पंडक वन में अभिषेक शिला के पास आया। उसने भगवान् ऋषभदेव को पूर्वाभिमुख कर अभिषेक सिंहासन पर बैठाया। उसी समय शेष ६३ इन्द्र भी अपने-अपने विशाल देव-देवी-परिवार और दिव्य ऋद्धि के साथ पण्डक वन में अभिषेक शिला के पास पहुंचे और शक सहित वे ६४ इन्द्र प्रभू ऋषभ की पर्युपासना करने लगे। - उसी समय अच्यतेन्द्र ने आभियोगिक देवों को प्राज्ञा दे, तीर्थकर प्रभु के महार्य महाभिषेक के योग्य १००८ स्वर्ण कलश, उतने-उतने ही रजतमय, मणिमय, स्वर्ण-रौप्यमय, स्वर्ण-मणिमय, स्वर्ण-रजत-मणिमय, मत्तिकामय और चन्दन के कलश, उतने-उतने ही लोटे, थाल, पात्री, सुप्रतिष्ठिका, चित्रक, रत्नकरंड, पंखे, पुष्पों की चंगेरियां, १००८ ही धूप के कड़छल, सब प्रकार के फूलों, प्राभरणों आदि की अनेक चंगेरियां, सिंहासन, छत्र, चामर, तैल के डिब्बे, सरसों के डिब्बे प्रादि-आदि विपुल सामग्री मंगवाई। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [जन्माभिषेक और महो० अभिषेक की सम्पूर्ण सामग्री के प्रस्तुत हो जाने पर वे कलशों को क्षीरसागर के क्षीरोदक, पुष्करोदक, भरत तथा एरवत क्षेत्र के मागधादि तीर्थों के जल, गंगा आदि महानदियों के जल, सभी वर्षधरों, चक्रवर्ती विजयों, वक्षस्कार पर्वत के द्रहों, महानदियों आदि के जल से पूर्ण कर उन पर क्षीरसागर के सहस्रदल कमलों के ढक्कन लगा, सभी तीर्थों एवं महानदियों की मिट्टी, सुदर्शन, भद्रशाल, नन्दन आदि वनों के पुष्प, तुअर, औषधियों, गौशीर्ष प्रभृति श्रेष्ठ चन्दन आदि को ले अभिषेक के लिये प्रस्तुत करते हैं । तदनन्तर अच्युतेन्द्र उपर्युक्त सभी चन्दनचर्चित कलशों एवं सभी प्रकार की अभिषेच्य सामग्री से भगवान् ऋषभदेव का महाभिषेक करते हैं । प्रभु के अभिषेक के समय देव जयघोषों से गगनमण्डल को गुंजरित करते हुए, नृत्य, नाटक आदि करते हुए अपने अन्तर के अथाह हर्ष को प्रकट करते हैं। देव चारों ओर पंच दिव्यों की वृष्टि करते हैं। इसी प्रकार शेष ६३ इन्द्र भी प्रभ का अभिषेक करते हैं। शक्र चारों दिशाओं में चार श्वेत वृषभों की विकुर्वणा कर उनके शृगों से पाठ जलधाराएं बहा प्रभु का अभिषेक करते हैं। इस प्रकार अभिषेक के पश्चात् शक्र प्रभु को जन्मगह में ला माता के पास रख, उनके सिरहाने क्षोमयुगल और कुण्डलयुगल रख, प्रभु के दूसरे स्वरूप को हटा माता की निद्रा का साहरण करते हैं। तदनन्तर देवराज शक कुबेर को बूला तीर्थंकर प्रभु के जन्मघर में बत्तीस कोटि हिरण्य, बत्तीस कोटि स्वर्णमुद्राएं, ३२ कोटि रत्न, बत्तीस नन्द नामक वृत्तासन, उतने ही भद्रासन और प्रसाधन की सभी सामग्री रखने की आज्ञा देते हैं।' कुबेर जभक देवों को आज्ञा दे ३२ करोड़ मुद्राएं आदि जन्मभवन में रखवा देता है। १ तएणं से सक्के देविदे देवराया वेसमणं देवं सहावेइ, सहावेइत्ता एवं वयासी - "खिप्पामेव भो देवाणु प्पिया। बत्तीसं हिरण कोडीग्रो, बत्तीसं सुवरण कोडीग्रो, बत्तीसं रयण कोडीमो, बत्तीसं-बत्तीसं दाईं, भद्दाई सुभग-सुभग रूवे जोवण लावण्णण भगवनो तित्थय रस्स जम्मरण भवरणंसि साहराहि साहराहित्ता एपमारणत्तियं पच्चप्पिणाहि।" तए रणं से वेसमरण देवे सक्केणं जाव विणएणं वयणं पडिसुणेइ पडिसुणेइत्ता भए देवे सद्दावेइ सद्दावेइत्ता एवं वयासी-"खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! बत्तीसं हिरण्णकोडीमो जाव भगवनो तित्थयरस्स जम्मण भवरणंसि साहह साहरहेत्ता एयमापत्तियं पच्चप्पिणह ।" तएणं ते जंभगा देवा वेसमणेणं देवेणं एवं वुत्तासमारणा हतुट्ठ जाव खिप्पामेव बत्तीसं हिरण कोडीमो जाव सुभग्गसोभग्ग एवं जोवरणलावण्णं भगवप्रो तित्थयरस्स जम्मणभवणंसि साहरंति साहरित्ता जेणेव वेसमणे देवे तेणेव जाव पच्चप्पिणंति । तए रणं से वेसमणे देवे जेणेव सक्के देविदे देवराया जाव पच्चप्पिाई ॥३५॥ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, अधि० ५, पृ० ४८८ (अमोलक ऋषिजी म. द्वारा अनुदित) Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ प्र. जिने० का नामकरण] भगवान् ऋषभदेव __ वैश्रमण (कुबेर), जृभक देवों द्वारा बत्तीस कोटि रजत मुद्राएं, उतनी ही स्वर्ण मुद्राएं, बत्तीस कोटि रत्न, बत्तीस-बत्तीस नंद वृत्तासन, भद्रासन और रूप, लावण्य, यौवन आदि को अभिवद्धित करने वाली सभी प्रकार की प्रसाधन सामग्री तीर्थकर प्रभु ऋषभदेव के जन्मगृह में पहुंचा दिये जाने के पश्चात् शक की सेवा में उपस्थित हो, उन्हें उनकी आज्ञा की पूर्ति कर दिये जाने की सूचना देता है। तदनन्तर देवराज शक्र आभियोगिक देवों को वूला कर कहते हैं - "हे देवानुप्रिय ! तीर्थकर प्रभु के जन्म-नगर विनीता के शृगाटकों, त्रिकों, चतुष्कों, महापथों एवं बाह्याभ्यन्तर सभी स्थानों में, उच्च और स्पष्ट स्वरों में उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार की घोषणा करो : ___"जितने भी भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देव तथा देवियां हैं, वे सभी सावधान होकर सुन लें कि यदि कोई तीर्थंकर भगवान और उनकी माता का अशुभ करने का विचार तक भी मन में लावेगा, तो उसका मस्तक ताल वृक्ष की मंजरी के समान तोड़ दिया जायगा, फोड़ दिया जायगा।" __ आभियोगिक देवों ने देवराज शक्र की आज्ञा को शिरोधार्य कर तीर्थंकर भगवान् के जन्म-नगर के बाह्याभ्यन्तरवर्ती सभी स्थानों में उक्त प्रकार की घोषणा कर दी। बाल-जिनेश्वर प्रभु ऋषभ का जन्माभिषेक महामहोत्सव सम्पन्न कर चारों जाति के देव-देवेन्द्र नन्दीश्वर द्वीप में गये और वहां उन्होंने प्रभु के जन्म का अष्टाह्निक महामहोत्सव मनाया। महाराज नाभि ने और प्रजा ने भी बड़े हर्षोल्लास के साथ प्रभु का जन्ममहोत्सव मनाया। प्रथम जिनेश्वर का नामकरण जन्म-महोत्सव सम्पन्न होने के पश्चात् प्रथम जिनेश का नामकरण किया गया। प्रथम जिन के गर्भागमन काल में माता मरुदेवी ने चौदह महास्वप्नों में सर्वप्रथम सर्वांग-सुन्दर वृषभ को देखा था और शिशु के उरुस्थल पर भी वृषभ । तए णं से सक्के देविदे देवराया पाभियोगे देवे सहावेइ २ ता एवं वयासी-"खिप्पामेव भो देवारणप्पिया ! भगवनो तित्थयरस्स जम्मरणरणयरंसि सिंघाडग जाव महापहेसु महया महया सहणं उग्घोसेमारणा २ एवं वयह-हदि ! सरपंत भवंतो बहवे भवणवह वाणमंतर जोइस वेमाणिया देवा य देवीमो य जे ण देवाणुप्पिया ! तित्थयरस्स तित्थयरमाऊए वा उरि असुहं मरणं पहारेइ, तस्स रणं प्रज्जगमंजरिया इव सयहा मुद्धा रणं फुट्टनो, तिकटु घोसणं घोसेह २ ता एयमापत्तियं पच्चप्पिणह ।" तए णं ते माभिप्रोग देवा जाव एवं देवो त्ति मारणाए पडिसुरणंति २ त्ता सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो अंतियानो पडिनिक्खमंति २ ता खिप्पामेव भगवनो तित्थयरस्स जम्माणगरंसि सिंघाडग जाव एवं वयासी - "हंदि ! सुणंतु भवंतो बहवे भवरणवई जाव जे णं देवाणुप्पिया ! तित्थयरस्स जाव फुट्टिहिति" तिकटु घोसणं घोसेंति २ त्ता एयमारणत्तियं पच्चप्पिणंति । - जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति (अमोलक ऋषिजी म.) अधिकार ५, पृ० ४८६-४६१ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [प्र० जिने० का नामकरण का शुभ- लांछन (चिह्न) था, अतः माता-पिता ने अपने पुत्र का नाम ऋषभदेव रखा ।' ऋषभ का अर्थ है - श्रेष्ठ । प्रभु त्रैलोक्यतिलक के समान संसार में सर्वश्रेष्ठ थे, उन्होंने प्रागे चलकर सर्वश्रेष्ठ धर्म की संस्थापना की, इस दृष्टि से भी प्रभु का 'ऋषभ' नाम सर्वथा समुचित और यथा नाम तथा गुरण निष्पन्न था। पंचम अंग 'वियाह पनति' आदि ग्रागम और आगमेतर साहित्य में प्रभु के नाम ऋषभ के साथ 'नाथ' और देव का भी प्रयोग किया गया है, जो प्रभु ऋषभ के प्रति अतिशय भक्तिभाव का द्योतक प्रतीत होता है । दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में ऋषभ का कई स्थानों पर वृषभदेव नाम उपलब्ध होता है। वृषभदेव जगत् में ज्येष्ठ हैं, श्रेष्ठ हैं । ये जगत् के लिये हितकारक धर्म रूपी अमृत की वर्षा करने वाले हैं, इसलिये इन्द्र ने उनका नाम वृषभदेव रखा । भागवतकार के मन्तव्यानुसार सुन्दर शरीर, विपुल कीर्ति, तेज, बल, यश और पराक्रम आदि सद्गुणों के कारण महाराज नाभि ने उनका नाम ऋषभ रखा । " चूरिणकार के उल्लेखानुसार भगवान् ऋषभ का एक नाम 'काश्यप' भी रखा गया था। इक्षु के विकार अथवा परिवर्तित स्वरूप इक्षुरस का पर्यायवाची शब्द कास्य भी है, उस कास्य का पान करने के कारण प्रभु ऋषभदेव को काश्यप नाम से भी अभिहित किया जाता रहा है। ऋषभ कुमार जिस समय एक वर्ष से कुछ कम अवस्था के थे, उस समय जब देवराज शक्र प्रभु की सेवा में उपस्थित हुये. उस समय देवराज के हाथ में इक्षुदण्ड था। बाल प्रादिजिनेश ने इक्षु की ओर हाथ बढ़ाया । इन्द्र ने प्रभु को वह इक्षुदण्ड प्रस्तुत किया । प्रभु ने उस इक्षुदण्ड के रस का पान किया। उस घटना को लेकर संभव है नामकरण के कुछ मास पश्चात् प्रभु का वंश भी काश्यप नाम से कहा जाने लगा । कल्पसूत्र में भगवान् ऋषभदेव के पाँच नामों का उल्लेख है, जो इस प्रकार हैं -- (१) ऋषभ, (२) प्रथम राजा, (३) प्रथम भिक्षाचर, (४) प्रथम जिन और (५) प्रथम तीर्थंकर । १ उरुसु उस भलंछरणं, उसभो सुमिरणम्मि तेरण कारण उसभी त्ति गामं कयं । ૧ महापुराण ( जिनसेन), पर्व १४, श्लोक १६० 3 श्रीमद्भागवत ५-४-२ प्रथम खण्ड, गोरखपुर संस्करण ३, पृ० ५५६ ४ कास उच्छु तस्य विकारो कास्यः रसः, सो जस्स पारणं सो कासवो उसभसामी । श्रावश्यक चूरिंग, पृ० १५१ - दशर्वकालिक, प्र० ४, श्रगस्त्य ऋषि की चूरिंग ५ उसमे इ वा पढमराया इ वा, पढमभिक्खायरे इ वा पढम जिणे इ वा, पढम तित्थयरे इ वा । कल्पसूत्र, सूत्र १९४ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालक ऋषभ का पाहार] भगवान् ऋषभदेव पनुस्मृति में भगवान् ऋषभ देव को 'उरुक्रमः' के नाम से भी अभिहित किया गया है।' भगवान् ऋषभदेव जिस समय माता के गर्भ में आये, उस समय कुबेर ने हिरण्य की वृष्टि की, इस कारण उनका नाम हिरण्यगर्भ भी रखा गया।' उत्तरकालीन प्राचार्यों एवं जैन इतिहासविदों ने, भगवान् ऋषभदेव का, कर्मभूमि एवं धर्म के प्राद्य प्रवर्तक होने के कारण मादिनाथ के नाम से उल्लेख किया है । जनसाधारण में, शताब्दियों से भगवान् ऋषभदेव प्रायः आदिनाथ के नाम से विख्यात हैं। बालक ऋषभ का प्राहार यद्यपि आगमों में तीर्थंकरों के आहार के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है तथापि प्रागमोत्तरकालीन नियुक्ति, भाष्य, रिण प्रादि आगमों के व्याख्यासाहित्य तथा कहावली आदि ग्रन्थों के उल्लेखों से यह प्रकट होता है कि तीर्थंकर स्तन्यपान नहीं करते । देवेन्द्र अथवा देवों ने प्रभू ऋषभ के जन्म ग्रहण करते ही उनके अंगूठे (अंगुली) में अमृत अथवा मनोज्ञ पौष्टिक रस का संक्रमण (स्थापन) कर दिया। आहार की इच्छा होने पर शिशु तीर्थकर अपने अंगूठे को मुंह में रख लेते और उसी से नानाविध पौष्टिक रस ग्रहण करते । देवेन्द्र द्वारा नियुक्त देवियां अहर्निश वाल-जिनेश की प्रगाढ़ भक्ति और निष्ठा के साथ सेवा-सुश्रूषा करतीं। शुक्ल पक्ष की द्वितीया के चन्द्र की कला के समान भगवान् ऋषभ उत्तरोत्तर ज्यों-ज्यों वृद्धिंगत होने लगे, त्यों-त्यों देवों द्वारा उन्हें फलादि मनोज्ञ आहार पर्याप्त मात्रा में प्रस्तुत किया जाता रहा । विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के विद्वान् प्राचार्य भद्रेश्वर सूरि की वृहद् ऐतिहासिक कृति 'कहावली' के उल्लेखानुसार भगवान् ऋषभदेव प्रवजित होने से पूर्व तक के अपने सम्पूर्ण गृहस्थजीवन-काल में देवों द्वारा लाये गये देवकुरु और उत्तरकृरु क्षेत्रों के फलों का आहार और क्षीर सागर के जल का पान करते रहे। ' अष्टमो मरुदेव्यां तु, नाभेर्जात उरुक्रमः । मनुस्मृति २ विभोहिरण्यगर्मत्वमिव बोधयितुं जगत् ॥१५॥ हिरण्यगर्भस्त्वं धाता ॥५७॥ ___- महापुराण, पर्व १२ और १५ 3 प्राहारमंगुलीए, ठवंति देवा मणुन्नं तु ॥१॥ आव० अ० १ • समइक्कंत बालभावा य सेस जिणा अग्गिपक्कमेवाहारं भुजंति । उसह सामी उरण पवज्ज प्रपडिवन्नो देवोवरणीय देवकुरु उत्तरकुरु कप्परुक्खामय फलाहारं खीरोदहि जलं च उपमुंजति । [कहावली, हस्तलिखित प्रति, एल. डी. ई. ई., अहमदाबाद] Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [योग० की अकाल मृत्यु शिशु-लीला शिशु जिनेश ऋषभ, देवेन्द्र द्वारा अंगुष्ट में निहित अमत का पान करते हुए अनुक्रमशः बढ़ने लगे। प्रभू की सुकोमल शय्या, आसन, वस्त्रालंकार, प्रसाधन सामग्री, अनुलेपन, विलेपन, क्रीड़नक आदि सभी वस्तुएं दिव्य और अत्युत्तम थीं। सर्वार्थसिद्ध नामक अनुत्तर विमान से च्यवन के समय से ही प्रभु मति, श्रुत और अवधिज्ञान से सम्पन्न थे, अतः उनकी बाल्य लीलाएं भी अद्भुत् और जन-मन को परमाह्लादित, सम्मोहित और आत्मविभोर कर देने वाली होती थीं। बाल रवि के समान उनकी सुमनोहर, नयनाभिराम छवि दर्शक के तन, मन और रोम-रोम को तृप्त-पाप्यायित कर देती थी। उनके बिम्बोष्टों पर, पूर्णिमा के चन्द्र की दुग्धधवला ज्योत्स्ना को भी लज्जित कर देने वाला मन्द-मन्द सम्मोहक स्मित सदा विराजमान रहता था। उनके त्रैलोक्य-ललाम अलौकिक सौन्दर्य को देखने के लिये आने वाले स्त्री-पुरुषों का दिन भर तांता-सा लगा रहता था। दर्शक, उन शैशव-लीलारत बाल-जिनेश्वर प्रभु की त्रिभूवन-सम्मोहक रूपसुधा का विस्फारित एवं निनिमेष नेत्रों से निरन्तर पान करते प्रभु की रूपसुधा के सागर में निमग्न हो अपने आपको भूल जाते थे। अपने नयनों से जितनी अधिक प्रभू की रूपसुधा का पान करते, उतनी ही अधिक उनकी आँखों की प्यास बढ़ती जाती थी। प्रभु की एक-एक मधुर मुस्कान पर, उनकी एक-एक मन लुभा देने वाली बाल-लीला पर माता मरुदेवी और पिता नाभिराज अात्मविभोर हो उद्वेलित अानन्द सागर की उत्ताल तरंगों के झूले पर झूलते-झूलते झूम उठते थे । यौगलिक की अकाल मृत्यु जिन दिनों शिशु-जिन ऋषभ अपनी अद्भुत शिशु-लीलाओं से नाभिराज, माता मरुदेवी, परिजनों, पुरजनों और देव-देवियों को अनिर्वचनीय, अलौकिक अानन्द सागर में निमग्न कर रहे थे, उन्हीं दिनों वन में एक यौगलिक (बालकवालिका) युगल बालक्रीड़ा कर रहा था। सहसा उस बालक के मस्तक पर तालवृक्ष का फल गिरा और उसकी मृत्यु हो गई। यह प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल की प्रथम अकाल-मृत्यू थी । इस अदृष्टपूर्व घटना को देख कर यौगलिक सहम उठे । बालिका को वन में ऐकाकिनी देख विस्मित हुए यौगलिक उसे नाभिराय के पास ले पाये और उन्होंने इस अश्रतपूर्व-अदष्ट पूर्व घटना पर बड़ा आश्चर्य प्रकट किया। नाभि कुलकर ने उन लोगों को समझाया कि अव काल करवट वदल रहा - अंगड़ाई ले रहा है, यह सब उसी का प्रभाव है, यह उसकी पूर्व सूचना मात्र है। कुलकर नाभिराज ने उस बालिका को अपने भवन में यह कह कर रख लिया कि बड़ी होने पर यह ऋषभकूमार की भार्या होगी। उस परम रूपवती बालिका का नाम सुनन्दा रखा गया । सुनन्दा भी अब ऋषभकुमार और सुमंगला के साथ-साथ बाल-लीलाएं करने लगी। इस प्रकार देवगण से परिवत्त, उदयगिरि Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ वंश और गोत्र स्थापना] भगवान् ऋषभदेव पर प्रारूढ़ नवोदित भुवनभाष्कर बालभानु के समान कमनीय कान्तिवाले, प्रभु ऋषभ बाल-लीला करते हुए, सुमंगला और सुनन्दा के साथ बढ़ने लगे ।' वंश प्रौर गोत्र-स्थापना यौगलिकों के समय से, भगवान ऋषभदेव के जन्मकाल तक मानव समाज किसी कूल, जाति अथवा वंश के विभाग में विभक्त नहीं था। अतः प्रभु ऋषभदेव का भी उस समय तक न कोई वंश था और न कोई गोत्र ही। जिस समय प्रभु ऋषभदेव एक वर्ष से कुछ कम वय के हुए, उस समय एक दिन वे अपने पिता नाभि कुलकर की क्रोड़ में बैठे हुए बालक्रीड़ा कर रहे थे। उसी समय एक हाथ में इक्षुदण्ड लिये वज्रपाणि देवराज शक्र उनके समक्ष उपस्थित हुए। देवेन्द्र शक के हाथ में इक्षुदण्ड देखकर शिशु-जिन ऋषभदेव ने, उसे प्राप्त करने के लिये अपन। प्रशस्त लक्षण युक्त दक्षिरण हस्त आगे बढ़ाया। यह देख देवराज शक्र ने सर्वप्रथम प्रभू की इक्षुभक्षण की रुचि जान कर त्रैलोक्यप्रदीप तीर्थंकर प्रभू ऋषभ के वंश का नाम इक्ष्वाकु वंश रखा। उसी समय से भगवान् ऋषभदेव की जन्मभूमि भी इक्ष्वाकु भूमि के नाम से विख्यात हुई । पानी की क्यारी को काटने पर जिस प्रकार पानी की धारा बह चलती है, उसी प्रकार इक्ष के काटने और छेदन करने से रस का स्राव होता है, अत: भगवान् का गोत्र 'काश्यप' रखा गया। शैशव-लीलाएं करते-करते क्रमशः वृद्धिगत हो प्रभू बालक्रीड़ाएं करने लगे। समवयस्क सखाओं और देवकुमारों के साथ क्रीड़ा करते प्रभू के अद्भुत कौशल, अतुल बल, हृदयहारी हस्तलाघव और धूलिधूसरित सुमनोहर छवि को देख माता-पिता और दर्शक रीझ-रोझ कर झम उठते । ' (क) पढमो अकालमच्चू, तहि तालफलेण दारमो पहनो । कन्ना कुलगरेणं, सिद्धे गहिया उसभपत्ती ।।२२।। अह वड्ढइ सो भयवं, दियभोगजुप्रो अगुवमसिरीयो । देवगण परिवडो, नंदाइ सुमंगला सहियो ।।११।। असियसिरो सुनयणो, बिबट्रोधवल दंत पंतीग्रो । वर पउमगब्ध गोरो फुल्लुप्पल गन्ध नीसासो ।।१२०।। [प्रा० भाष्य (ख) पवरणपाडियतालरुखस्स फलेण य जायमिहुणयस्स पुत्तो विणासियो......."सा य सुनंदा सुट्ट रूववई वणे भमंती जोलाहम्मिएहिं दठ्ठणेगागिणी नाभि कुलगरस्स समप्पिया। तेगावि भज्जा उसभस्स भविस्सइ ति भरिणऊग गहिया । [कहावली, अप्रकाशित, एल. डी. ई. ई. अहमदाबाद] २ प्रावश्यक नियुक्ति गा० १८६, नियुक्ति दीपिका गा० १८६ | प्रावश्यक चूरिण, पृ० १५२ ४ मावश्यक म० पूर्व भाग, पृ० १६२, चूणि पृ० १५३ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भ० ऋषभदेव का विवाह तीर्थेशो जगतां गुरुः क्रमशः प्रभू ने किशोर वय में प्रवेश किया। उस समय उनको देखते ही दर्शक को ऐसा प्रतीत होता कि मानो सम्पूर्ण संसार का समस्त सौन्दर्य एकत्र पुंजीभूत हो प्रभु के रूप में प्रकट हो गया है । सभी तीर्थंकर महाप्रभु गर्भागमन से पूर्व च्यवन काल से ही मति, श्रुत और अवधि ज्ञान-इन तीन ज्ञान के धारक होते हैं। भगवान् ऋषभदेव भी सर्वार्थसिद्ध विमान से च्यवन के समय से ही मति, श्रुत और अवधि - इन तीनों ज्ञान के धारक थे। उन्हें जातिस्मरण ज्ञान से अपने पूर्व जन्मों का भी सम्यक् परिज्ञान था।' इसीलिये उन्हें किसी कलागुरु अथवा कलाचार्य के पास शिक्षा ग्रहगा करने की आवश्यकता नहीं थी। वे तो स्वयं ही समस्त विद्याओं के निधान और निखिल कलाओं के पारगामी जगद्गुरु थे। भगवान् ऋषभदेव का विवाह समय की गति के साथ बढ़ते हुए कुमार ऋषभ ने शैशव से किशोर वय में और किशोर वय से यौवन की देहली पर पैर रखा। सतत साधना-पूर्ण अपने पूर्व जन्म में उन्होंने जो ज्ञान का अक्षय भण्डार संचित कर लिया था, वह उन्हें इस भव हेतु गर्भ में प्रागमन के समय से ही प्राप्त था। उन्होंने तत्कालीन घटनाचक्र और लोक-व्यवहार से समयोचित नूतन अनुभवों को हृदयंगम कर लोक-व्यवहार में पूर्ण प्रवीणता प्राप्त करली । जब इन्द्र ने देखा कि अब कुमार ऋषभ भोगसमर्थ युवावस्था एवं विवाह योग्य वय में प्रविष्ट हो गये हैं, तो उन्होंने कुमार ऋषभ का विवाह करने का निश्चय किया। लावण्य सम्पन्ना सुभंगला और सुनन्दा के साथ नाभिराज के परामर्श से देव-देवियों से युक्त शकेन्द्र ने ऋषभकुमार का विवाह सम्पन्न किया। उस समय के मानवों के लिये विवाह कार्य पूर्णतः नवीन था। विवाह कार्य किस प्रकार सम्पन्न किया जाय, कैसे क्या किया जाय, इस विधि से तत्कालीन नरनारी नितान्त अनभिज्ञ थे । अतः इन्द्र और इन्द्राणियों ने ही विवाह सम्बन्धी सब कार्य अपने हाथों सम्हाला । वरपक्ष का कार्य स्वयं देवराज शक्र ने और वधु-पक्ष का कार्य शक्र की अग्रमहिषियों ने बड़े हर्षोल्लास से विधिवत् सम्पन्न किया। इससे पूर्व उस समय के मानव समाज में ऐसी कोई वैवाहिक प्रथा प्रचलित नहीं थी। ऋषभदेव के विवाह से पूर्व यौगलिक काल में, नर-नारी शिशु युगल एक माता की कुक्षि से एक साथ जन्म ग्रहण करता और कालान्तर में युवावस्था में प्रवेश करने पर उस मिथुन का जीवन - सम्बन्ध पति-पत्नी के रूप में - १ आवश्यक म० १८६, २ भोग समत्थं नाउं, वरकम्मं तस्स कासि देविन्दो । दोण्हं वरमहिलाणं, बहुकम्मं कासि देवीतो ।।१६१।। प्रावश्यक नियुक्ति Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ भोग भूमि कर्म० का संधिकाल] भगवान् ऋषभदेव परिवर्तित हो जाया करता था। सर्वप्रथम भगवान् ऋषभदेव ने ही भावी मानव-समाज के हित की दृष्टि से विवाह परम्परा का सूत्रपात किया। इस प्रकार उन्होंने मानव मन की बदलती हुई स्थिति और उससे उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों का अध्ययन कर कालप्रभाव से बढ़ती हुई विषय-वासना को विवाह सम्बन्ध से सीमित कर मानव जाति को वासना की भट्टी में गिरने से बचाया। अपने युग की इस नितान्त नवीन और सबसे पहली विवाह-प्रणाली को देखने के लिये योगलिक नर-नारियों के विशाल झुण्ड कुलकर नाभि के भवन की अोर उमड़ पड़े। महाराज नाभि ने और प्रजा ने बड़े हर्षोल्लास के साथ प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल के इस प्रथम विवाह के उपलक्ष में अनेक दिनों तक आनन्दोत्सव मनाया। जनमानस में मानन्द सागर की उमड़ती उर्मियों से समस्त वातावरण आनन्द से ओतप्रोत हो गया। भली-भांति सजाई संवारी हुई विनीता नगरी अलका सी प्रतीत होने लगी। संसार के निखिल सौन्दर्य, सुषमा, कीर्ति और कान्ति के सर्वोच्च कीर्तिमान वरराज ऋषभकुमार, इन्द्रारियों द्वारा दिव्य वस्त्राभरणों एवं अलंकारों से सजाई-संवारी गई उन दोनों सुमंगला और सुनन्दा नववधुओं के साथ ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानों संसार का पंजीभत सौन्दर्य साक्षात सदेहा श्री और कीतिदेवी के साथ विराजमान हो। दो नववधुओं के साथ वरवेष में सजे अपने पुत्र ऋषभ को देख-देख माता मरुदेवी बार-बार बलैयां लेने लगीं, पिता नाभि पुलकित हो उठे और स-सुरासुर-गन्धर्व-किन्नर-नर-नारियों का मानन्द-सागर वेलाओं को लांघ-लांघ कर कल्लोलें करने लगा। विवाहोपरान्त ऋषभकुमार देवी सुमंगला और सुनन्दा के साथ उत्तम मानवीय इन्द्रिय-सुखों का उपभोग करने लगे। भोगमूमि और कर्मभूमि का संधिकाल । यों तो इस अवसपिरणी काल के प्रथम कुलकर के समय से ही काल करवट बदलने के लिये अंगड़ाइयां लेने लगा था, प्रकृति के चरण परिवर्तन की ओर प्रवत्त होने के लिये खम-खमाने लग गये थे, सभी प्रकार के प्रभाव अभियोगों से पूर्णतः विमुक्त और प्रकृति मां के शान्त सुखद-सुन्दर कोड़ में परमोत्कृष्ट वात्सल्यपूर्ण मादक माधुर्य में अनेक सागरों की सुदीर्घावधि तक विमुग्ध रहे हुए प्रकृति-पुत्र , यौगलिकों की चिरशान्त हत्तन्त्रियों के तार यदा-कदा थोड़ा-थोड़ा प्रकम्पन अनुभव करते-करते क्रमशः झन्झनाने भी लगे थे। जब भोग भूमि के अन्त और कर्मभूमि के उदय का संधिकाल समीप आया तो प्रकृति ने परिवर्तन की ओर चरण बढ़ाया और काल ने एक करवट ली। कालप्रभाव से कल्पवृक्ष क्रमश: विरल और क्षीण हो गये, नाम मात्र को अवशिष्ट रह गये। यौगलिक काल में-भोगभूमि के समय में चिरकाल से कल्पवक्षों पर प्राश्रित रहता पाया मानव कल्पवृक्षों के नष्टप्रायः हो जाने पर भूख से पीड़ित हो त्राहि-त्राहि कर उठा । भूख से संत्रस्त लोग नाभि कुलकर के पास आये Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [पन्द्रहवें कुलकर के रूप में और उन्हें अपनी दयनीय स्थिति से अवगत करवाया । कुलकर नाभि ने अपने पुत्र ऋषभ कुमार से परामर्श लिया। वे अपने पुत्र के अलौकिक गुणों और बुद्धिकौशल से भली-भांति परिचित थे। उन्होंने अपने पुत्र को कहा कि वे संकटग्रस्त मानवता का मार्गदर्शन करें। पन्द्रहवें कुलकर के रूप में तीन ज्ञान के धनी कुमार ऋषभदेव ने लोगों को आश्वस्त करते हुए कहा - "अवशिष्ट कल्पवृक्षों के फलों के अतिरिक्त स्वत: ही वन में उगे हुए शाली आदि अन्न से अपनी भूख की ज्वालानों को शान्त करो, इक्षरस का पान करो। इन शाली आदि स्वतः ही उगे हुए धान्यों से तम्हारा जीवन निर्वाह हो जायगा। इनके अतिरिक्त वनों में अनेक प्रकार के कन्द, मूल, फल, फूल, पत्र प्रादि हैं, उनका भी भक्षण किया जा सकता है। इस प्रकार तुम्हारी क्षुधा शान्त होगी।" १५वें कुलकर के रूप में तत्कालीन भूखी मानवता का मार्गदर्शन करते हुए कुमार ऋषभ ने उन लोगों को खाने योग्य फलों, फूलों, कन्द-मूल और पत्तों का भली भांति परिचय कराया । भूख से पीड़ित उन लोगों ने प्रभू द्वारा निर्दिष्ट कन्द, मूल फल, फल, पत्र एवं कच्चे शाल्यन्नादि से अपनी भूख को शान्त कर सख की श्वास ली। अब वे लोग शाल्यन्न, ब्रीही और जंगलों में स्वतः ही उगे हए अनेक प्रकार के धान्यादि तथा कन्द, मूल, फल, पुष्प, पत्रादि से अपना जीवनयापन करने लगे।' इस प्रकार अपनी भूख की ज्वाला को शान्त कर वे लोग प्रभु ऋषभदेव को ही अपनी कामनाओं को पूर्ण करने वाला कल्पवृक्ष समझने लगे। ___ यद्यपि वे लोग प्रभृ ऋषभ के निर्देशानुसार अधिकांशतः कन्द, मूल, फल, फूल ग्रादि का दी भक्षण करते, कच्चे धान्यों का बहत स्वल्प मात्रा में ही उपभोग करते थे, तथापि छिलके सहित कच्चे अन्न के खाने से कतिपय लोगों को अपच और उदर की पीड़ा भी सताने लगी। उदर पीड़ा की इस अश्रुतपूर्व नई दुविधा के समाधान के लिये वे लोग पुनः प्रभु की सेवा में उपस्थित हुए। प्रभु ऋषभकुमार ने उनकी समस्या का समाधान करते हुए कहा- “शाली आदि धान्यों का छिलका हटा कर उन्हें हथेलियों में अच्छी तरह मसल-मसल कर खाओ, कम मात्रा में खाओ, इससे उदर-पीड़ा अथवा अपच आदि की व्याधि नहीं होगी।" १ प्रासी कंदाहारा, मूलाहारा य पत्तहारा य । पुप्फ-फल भोइणो वि य, जइया किर कुलगरो उसहो ।। ओमप्पाहारंता, अजीरमाणम्मि ते जिरणमुर्वेति । (अवममप्याहरंतः) हत्थेहि घंसिऊरणं, पाहारेहति ते भणिया ॥३८।। पासी य पारिणघंसी, तिम्मिप्र तंदुलपवालपुड़भोई । हत्थतलपुडाहारा, जइबा किर कुलगरो उसभो ॥३९॥ -प्रावश्यक भाष्य Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवें कुलकर के रूप में ] भगवान् ऋषभदेव प्रभु के निर्देशानुसार उन्होंने वनों में स्वतः ही उत्पन्न हुए धान्यों के छिलकों को हटा, हथेली में खूब मसल मसल कर खाना प्रारम्भ किया, और इस प्रकार उनका सुखपूर्वक निर्वाह होने लगा । धान्य कच्चे रहे, तब तक उन्हें अपच अथवा उदरशूल की किसी प्रकार की व्याधि नहीं हुई । किन्तु जब धान्य पूरी तरह पक गये तो उन्हें पुनः उसी प्रकार की अपच आदि की व्यावि से पीड़ा होने लगी । इस पर उन लोगों ने पुनः प्रभु की सेवा में उपस्थित हो उनके समक्ष अपनी समस्या रखी । प्रभु ने उनका मार्गदर्शन करते हुए कहा - "इस पके हुए अन्न को पहले जल में भिगोत्रो, थोड़ा भीग जाने पर इसे मुट्ठी में बंद रख कर अथवा बगल में रख कर गरम कर के खाओ, इससे तुम्हें अपच आदि की बाधा उत्पन्न नहीं होगी ।" उन लोगों ने प्रभु के निर्देशानुसार अन्न को भिगो कर और मुट्ठी अथवा बगल में रख कर खाना प्रारम्भ किया । कुछ समय तक तो उनका कार्य अच्छी तरह चलता रहा किन्तु कच्चे धान्य के खाने से उन्हें पुनः अपच आदि की व्याधि सताने लगी । २७ कुमार ऋषभदेव अतिशय ज्ञानी होने के कारण अग्नि के विषय में जानते थे । वे यह भी जानते थे कि काल की एकान्त स्निग्धता के कारण अभी अग्नि उत्पन्न नहीं हो सकती, अतः कालान्तर में काल की स्निग्धता कम होने पर उन्होंने अररियों को घिस कर अग्नि उत्पन्न की और लोगों को पाक कला का ज्ञान कराया ।' चूरिणकार ने लिखा है कि संयोगवश एक दिन जंगल के बांस वृक्षों में वायु के वेग के कारण अनायास ही संघर्ष से ग्रग्नि उत्पन्न हो गई । इस प्रकार बांसों के घर्षण से उत्पन्न अग्नि भूमि पर गिरे सूखे पत्ते और घास को जलाने लगी । युगलियों ने उसे रत्न समझ कर ग्रहरण करना चाहा किन्तु उसको छूते ही जब हाथ जलने लगे तो वे अंगारों को फेंक कर ऋषभ देव के पास आये और उन्हें सारा वृत्तान्त कह सुनाया । ऋषभकुमार ने कहा - "आस-पास की घास साफ करने से अग्नि आगे की ओर नहीं बढ सकेगी।" उन युगलिकों ने ऋषभ के आदेशानुसार अग्नि के आस-पास के भूखण्ड पर पड़े सूखे पत्तों और काष्ठ को हटा कर भूमि को साफ कर दिया। उसके परिणामस्वरूप आग का बढ़ना रुक गया । तदनन्तर प्रभु ने उन युगलिकों को बताया कि इसी प्राग में कच्चे धान्य को पका कर खाया जाय तो अपच अथवा उदरशूल आदि की व्याधि नहीं होगी । उस समय के भोले युगलिकों ने धान्य को आग में डाला तो वह जल गया । इस पर यौगलिक समुदाय हताश हो पुनः ऋषभकुमार के पास आया और बोला कि अग्नि तो स्वयं ही इतनी भूखी है कि वह समग्र सारा का सारा धान्य खा जाती १ आवश्यक रिण पृ० १५५ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भ० ऋषभदेव की सन्तति है । तब भगवान् ने मिट्टी गीली कर हाथी के कुम्भस्थल पर उसे जमा कर पात्र बनाया और बोले कि ऐसे पात्र वना कर धान्य को उन पात्रों में रख कर आग पर पकाने से वह नहीं जलेगा । इस प्रकार वे लोग आग में पका कर खाद्यान्न खाने लगे । मिट्टी के बर्तन और भोजन पकाने की कला सिखा कर ऋषभदेव ने उन लोगों की समस्या हल की, इसलिये लोग उन्हें धाता, विधाता एवं प्रजापति कहने लगे । इस प्रकार समय-समय पर ऋषभदेव से मार्गदर्शन प्राप्त कर प्रभु की शीतल छत्रछाया में सब लोग शान्ति से अपना जीवन बिताने लगे । २८ इस प्रकार लगभग १४ लाख पूर्व तक भगवान् ऋषभदेव ने भोगभूमि और कर्मभूमि के संक्रान्तिकाल में उस समय के भोले यौगलिक लोगों को 'कुलकर के रूप में समय-समय पर जीवनयापन का मार्ग दिखा कर एवं उनकी पीड़ानों, कष्टों और समस्यानों का समुचित रूप से समाधान कर मानवता पर महान् उपकार किया । प्रभु ऋषभदेव द्वारा मानवता पर अपने कुलकरकाल में किये गये महान् उपकारों की अमर स्मृति के रूप में ही आगमीय व्याख्या ग्रन्थों की रचना करने वाले आचार्यों ने "जइया किर कुलगरो उसभो” इन गाथापदों के रूप में प्रभु की यशोगाथाओं का गान किया है । भ० ऋषभदेव की सन्तति चौदहवें कुलकर अपने पिता नाभि के सहयोगी कुलकर के रूप में लगभग चौदह लाख पूर्व के अपने उक्त कुलकर काल के प्रारम्भ मे जब भ० ऋषभदेव की वय ६ लाख पूर्व की हुई, उस समय देवी सुमंगला ने पुत्र और पुत्री के एक मिथुन के रूप में भरत और ब्राह्मी को जन्म दिया। भरत और ब्राह्मी के जन्म के थोड़ी ही देर पश्चात् देवी सुनन्दा ने भी पुत्र-पुत्री के एक मिथुन के रूप में बाहुबली और सुन्दरी को जन्म दिया। देवी सुमंगला ने कालान्तर में पुनः अनुक्रमशः उनपचास बार गर्भ धारण कर, ४६ पुत्र युगलों को जन्म दिया । [ इस प्रकार देवी सुमंगला ६६ पुत्रों और एक पुत्री की तथा देवी सुनन्दा एक पुत्र एवं एक पुत्री की माता बनी । देवी सुमंगला ने प्रथम गर्भधारण-काल में तीर्थंकरों की माताओं के समान ही १४ महास्वप्नों को देखा । सुखपूर्वक सोयी हुई देवी सुमंगला ने रात्रि के पश्चिम प्रहर में अर्द्ध-जागृतावस्था में वे चौदह महास्वप्न देखे | स्वप्नों को देखते ही देवी सुमंगला जागृत हुई और उसी समय वे प्रभु ऋषभ के शयन कक्ष में गईं । पति द्वारा प्रदर्शित आसन पर बैठ कर देवी सुमंगला ने उन्हें अपने चौदह स्वप्न सुना कर स्वप्नों के फल की जिज्ञासा की । तीन ज्ञान के धनी ऋषभदेव ने देवी सुमंगला द्वारा देखे गये स्वप्नों का फल सुनाते हुए कहा "देवी ! इन स्वप्नों पर विचार करने से ऐसा प्रतीत होता है कि तुम एक ऐसे महान् पुण्यशाली चरम शरीरी पुत्ररत्न को जन्म दोगी जो आगे चल कर सम्पूर्ण भरत क्षेत्र का षट्खण्डाधिपति चक्रवर्ती सम्राट् होगा ।" Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभदेव की सन्तति] भगवान् ऋषभदेव स्वप्नफल सुन कर देवी सुमंगला परम प्रमुदित हुई और प्रभु को प्रणाम कर अपने शयनकक्ष में लौट गई। उसने शेष रात्रि धर्मजागरणा करते हुए व्यतीत की। जैसा कि ऊपर बताया गया है, गर्भकाल पूर्ण होने पर देवी सुमंगला ने भरत और ब्राह्मी को जन्म दिया। भरत के चरणों में चौदह रत्नों के चिह्न थे। पितामह नाभिराज और मातामही मरुदेवी ने दो पौत्रों और दो पौत्रियों के जन्म के उपलक्ष में हर्षोल्लास के साथ उत्सव मनाया। कालान्तर में देवी सुमंगला ने अनुक्रमशः ४६ बार में युगल रूप से जिन १८ पुत्रों को जन्म दिया, उन सहित प्रभू ऋषभदेव के सब मिला कर १०० पुत्र और दो पुत्रियां हुई । उनके नाम इस प्रकार हैं :१. भरत २८. मागध ५५. सुसुमार २. बाहुबली २६. विदेह ५६. दुर्जय ३. शङ्क ३०. संगम ५७. अजयमान ४. विश्वकर्मा ३१. दशार्ण ५८. सुधर्मा ५. विमल ३२. गम्भीर ५६. धर्मसेन ६. सुलक्षण ३३. वसुवर्मा ६०. प्रानन्दन ७. अमल ३४. सुवर्मा ६१. आनन्द ८. चित्राङ्ग ३५. राष्ट्र ६२. नन्द ६. ख्यातकीति ३६. सुराष्ट्र ६३. अपराजित १०. वरदत्त ३७. बुद्धिकर ६४. विश्वसेन ११. दत्त ३८. विविधकर ६५. हरिषेण १२. सागर ३६. सुयश ६६. जय १३. यशोधर ४०. यशःकीर्ति ६७. विजय १४. प्रवर ४१. यशस्कर ६८. विजयन्त १५. थवर ४२. कीर्तिकर ६६. प्रभाकर १६. कामदेव ४३. सुषेण ७०. अरिदमन १७. ध्रुव ४४. ब्रह्मसेरण ७१. मान १८. वत्स ४५. विक्रान्त ७२. महाबाहु १६. नन्द ४६. नरोतम ७३. दीर्घवाह २०. सूर ४७. चन्द्रसेन ७४. मेघ २१. सुनन्द ४८. महसेन ७५. सुघोष २२. करु ४६. सुसेरण ७६. विश्व २३. अंग ५०. भानु ७७. वराह २४. बंग ५१. कान्त ७८. वस् २५. कौशल ५२. पुष्पयुत् ७९. मेन २६. वीर ५३. श्रीधर ८०. कपिल २७. कलिंग ५४. दुर्दष ८१. शैल विचारी Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भ० ऋषभदेव की सन्तति ८२. अरिंजय ८८. वीर ६४. सञ्जय ८३. कञ्जरबल ८६. शुभमति ६५. सुनाम ८४. जयदेव ६०. समति ६६. नरदेव ८५. नागदत्त . ६१. पद्मनाभ ६७. चित्तहर ८६. काश्यप ६२. सिंह ६८. सुखर ८७. बल ६३. सुजाति ६६. दृढ़रथ १००. प्रभंजन दिगम्बर परम्परा के प्राचार्य जिनसेन ने भगवान् ऋषभदेव के १०१ पुत्र माने हैं । एक नाम वृषभसेन अधिक दिया है । भगवान् ऋषभदेव की पुत्रियों के नाम - १. ब्राह्मी २. सुन्दरी। संतति को प्रशिक्षण भ० ऋषभदेव के १०० पूत्र एवं दो पुत्रियां - ये सभी सर्वांग सुन्दर, शुभ लक्षणों एवं उत्तम गुरणों से सम्पन्न थे। वे अपने पितामह नाभिराज, पितामही मरुदेवी, माता-पिता और परिजनों का अपनी बाल-लीलाओं से मनोविनोद करते हुए अनुक्रमशः वृद्धिंगत होने लगे । वे सभी वज्रऋषभ, नाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थान के धनी एवं उसी भव से मोक्ष जाने वाले चरमशरीरी थे। अनुक्रमश: बालवय को पार कर प्रभु की संतानों ने किशोर वय में प्रवेश किया। अपने कुलकर काल में यौगलिकों के समक्ष समय-समय पर उपस्थित होने वाली भांति-भांति की समस्याओं का समाधान कर उनका मार्गदर्शन करने वाले तीन ज्ञान के धनी ऋषभदेव ने सोचा कि भरतक्षेत्र में अब यह भोग-युग के अवसान का अन्तिम चरण है। भोग-युग की समाप्ति के साथ ही भोगभूमि की सब प्रकार की सुख सुविधाएँ-कल्पवृक्षादि की भी परिसमाप्ति सुनिश्चित है। भोगयुग के पश्चात् जो कर्मयूग आने वाला है, उसमें मानव-समाज को अपने परिश्रम से जीवननिर्वाह करना है। यह भोगभूमि अब कर्मभूमि के रूप में परिवर्तित हो जायेगी। इन दोनों युगों का संधिकाल मानव-समाज के लिये वस्तुतः एक प्रकार का संकटकाल है। भोगभूमि की सुख-सुविधाओं के अभ्यस्त मानव को, कर्मभूमि के कठोर श्रमसाध्य कर्मयुग के अनुरूप अपना जीवन ढालने में अनेक प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। जब तक भोगयुग की अवधि पूर्णतः समाप्त नहीं हो जाती तब तक इन लोगों के जीवन को कर्मभूमि के अनुरूप ढालने का प्रयास पूर्ण सफल नहीं होगा। क्योंकि इस भोगभूमि का प्राकृतिक वातावरण कर्मभूमि के कृषि प्रादि कार्यों के लिये पूर्णतः प्रतिकूल है । कर्मभूमि (क) कल्पमूत्र किरणावली, पत्र १५१-५२ (ख) कल्पसूत्र सुबोधिका टीका, व्याख्यान ७, पृ० ४६८ २ महापुराण पर्व १६, पृ० ३४६ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतति को प्रशिक्षण भगवान् ऋषभदेव के प्रारम्भ होने पर ही धरती का धरातल और वातावरण कर्मभूमि के कृषि आदि कार्यों के लिये अनुकूल बनेगा। इस प्रकार की स्थिति में इन सर्वगुण सम्पन्न एवं कुशाग्रबुद्धि भरत आदि सौ कुमारों और ब्राह्मी एवं सुन्दरी को कर्मभूमि के लिये परमावश्यक सभी प्रकार के कार्यों, कलाओं और विद्याओं आदि का पूर्णरूपेण प्रशिक्षण दे दिया जाय तो वह समय आने पर मानवता के लिये परम कल्याणकारी होगा। भोगभूमि के अवसान पर कर्मभूमि का शुभारम्भ होते ही कर्मभूमि के उन कार्यो, कलायों और विद्याओं में पारंगत ये भरत आदि सौ कुमार सुदूरस्थ प्रदेशों के लोगों को भी तत्काल उन सब प्रावश्यक कार्यकलापों का प्रशिक्षण देकर मानवों को कष्ट से बचाने में बड़े सहायक सिद्ध होगे। वस्तुतः प्रभू का यह अलोकिक दूरदशितापूर्ण विचार प्रभु के त्रिलोकवंद्य अलौकिक व्यक्तित्व के अनुरूप ही था। प्यास लगने पर कुआ खोदने जैसी प्रक्रिया की तो साधारण बुद्धि वाले व्यक्ति से भी अपेक्षा नहीं की जाती। आखिर चौदह लाख पूर्व जैसी सुदीर्घावधि तक वे अपनी संतानों को प्रशिक्षित क्यों रखते ? इस प्रकार का दूरदर्शितापूर्ण निश्चय करने के पश्चात् एक दिन प्रभू ऋषभदेव ने अपनी संतानों को प्रारम्भिक शिक्षण देना प्रारम्भ किया। सर्वप्रथम उन्होंने अपनी पुत्री ब्राह्मी को दाहिने हाथ से अठारह प्रकार की लिपियों नः! ज्ञान कराया और सुन्दरी को वाम हस्त से गणित ज्ञान की शिक्षा दी। तदनन्तर अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को पुरुषों की ७२ कलाओं और बाहुबली को प्राणिलक्षण का ज्ञान कराया। प्रभु ने अपनी दोनों पुत्रियों को महिलायों की चौसठ कलाओं की शिक्षा दी। ब्राह्मी, सुन्दरी और भरत आदि ने इस अवसर्पिणी काल के प्राद्य गुरु भगवान् ऋषभदेव के चरणों में बैठ कर प्राद्य शिक्षार्थियों के रूप में बड़ी ही निष्ठा के साथ लेखन, गणित, परिवाररक्षण, व्याकरण, छन्द, अलंकार, अर्थशास्त्र, सामुद्रिक शास्त्र, आयुर्वेद, शिल्प शास्त्र, 'स्थापत्य कला, चित्र कला, संगीत आदि सभी प्रकार की विद्याओं एवं कलानों का अध्ययन कर निष्णातता प्राप्त की। प्रभु ऋषम का राज्याभिषेक चौदहवें कुलकर अपने पिता नाभि के सहयोगी कुलकर के रूप में तत्कालीन मानव समाज के समक्ष समय-समय पर उपस्थित हुई समस्याओं का १ लेहं लिविविहाणं जिणेण बंभीए दाहिण करेणं । २ गणियं संखारणं सुन्दरीए वामेण उवइठें ।।२१२।। प्राव० नि० 3.४ भरहस्स रूवकम्म, नराइलवरणमहोइयं वलियो । माणुम्माणुवमारणं, पमाणगरिणमा य वत्थूणं ।। [अावश्यक नियुक्ति Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ प्रभु ऋषभ का राज्याभिषेक समुचित समाधानपूर्वक प्रभु ऋषभदेव यौगलिकों को उस समय की बड़ी तीव्र गति से बदली हुई परिस्थितियों में मार्गदर्शन करते हुए सुदीर्घावधि तक ऐहिक सुखों का अनासक्त भाव से सुखोपभोग करते रहे । ३२ प्रकृति का स्वरूप बड़ी द्रुत गति से परिवर्तित होने लगा । अंगड़ाई लेते आ रहे काल ने करवट बदली । भोगभूमि का काल, प्रकृतिपुत्रों (यौगलिकों) को प्रकृति द्वारा प्रदत्त कल्पवृक्ष प्रादि सभी प्रकार की सुख-सुविधाओं की सामग्री को समेट भरतक्षेत्र से विदा हो तिरोहित हो गया । कर्मभूमि का काल भरतक्षेत्र की धरा के कर्मक्षेत्र में कटिबद्ध हो आ धमका। चारों ओर कल्पवृक्ष क्रमशः क्षीण से क्षीणतर होते-होते उस समय तक लुप्तप्रायः हो गये । बचे-खुचे कुछ अवशिष्ट भी रहे तो वे विरस, रसविहीन, फलविहीन हो गये । प्रकृति-जन्य कन्द, मूल, फल, फूल, पत्र, वन्य धान्य - शाली, ब्रीही आदि का प्राचुर्य भी प्रकृति के परिवर्तन के साथ परिवर्तित हो स्वल्प रह गया । लोकजीवन के निर्वाह के लिये उन प्रकृतिजन्य पदार्थों को अपर्याप्त माना जाने लगा। सभी प्रकार की महौषधियों, दीप्तौषधियों, वनस्पतियों आदि की अद्भुत शक्तियां प्रभावविहीन हो गईं । इस प्रकार मानव के जीवन निर्वाह की सामग्री के अपर्याप्त मात्रा में अवशिष्ट रह जाने के कारण प्रभाव की स्थिति उत्पन्न हुई । प्रभाव के परिणामस्वरूप अभियोगों की अभिवृद्धि हुई । अभाव अभियोग की स्थिति में मानवमस्तिष्क के ज्ञानतन्तुओं की नसें तनने लगीं । हृत्तन्त्रियां अनायास ही एक साथ झन्झना कर झनक उठीं । अभावग्रस्त भूखे मानव के मस्तिष्क में अपराध करने की प्रवृत्ति ने बल पकड़ा। छीना-झपटी होने लगी । स्वतः निष्पन्न कन्द, मूल, फल, धान्यादि के प्रश्न को लेकर मानव समाज में परस्पर कलह बढ़ने लगे । उधर प्रकृति के परिवर्तन के साथ ही वायु, वर्षा, शीत, प्रातप और हिंस्र जन्तुनों में भी, सदा सुख से रहते आये मानव के लिये दुस्सा और प्रतिकूल परिवर्तन आया । * इन सब प्रतिकूल प्राकृतिक परिवर्तनों के परिणामस्वरूप, लगभग ६ कोटि सागरोपम जैसी सुदीर्घावधि से शान्ति के साथ रहती चली आ रही मानवता के सौम्य स्वभाव में भी प्रतिकूल परिवर्तन का आना सहज संभव ही था । जिस प्रकार पूर्व कुलकरों के काल में प्रचलित 'ह' कार और 'म' कार दण्ड नीतियां अन्ततोगत्वा निष्प्रभाव हुईं, उसी प्रकार अन्तिम कुलकरों के समय में प्रचलित अपराध निरोध की “धिक्" कार दण्डनीति भी परिवर्तित परिस्थितियों में नितान्त निष्क्रिय, निष्फल और निष्प्रभाव सिद्ध होने लगीं । इस प्रकार की संक्रान्तिकालीन संकटपूर्ण स्थिति से घबरा कर यौगलिक लोग एकत्रित हो अपने परमोपकारी पथप्रदर्शक प्रभु ऋषभदेव के पास पहुँचे और उन्हें वस्तुस्थिति का परिचय कराते हुए प्रार्थना करने लगे - " करुणानिधान ! जिस प्रकार आपने आज तक हमारे सब संकटों को काट कर हमारे प्राणों की रक्षा की है, उसी प्रकार इस घोर संकट से भी हमारी रक्षा कीजिये । भूख की Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु ऋषभ का राज्याभिषेक] भगवान् ऋषभदेव ज्वाला को शान्त करने के लिये सब ओर कलह, लूट-खसोट, छीना-झपटी के रूप में अपराधी मनोवृत्ति फैल रही है। अपराधों को रोक कर हमारे जीवननिर्वाह की समुचित व्यवस्था के लिये मार्गदर्शन की कृपा कीजिये।" भोगयुग की सुखद कोड़ में पले यौगलिकों की दयनीय दशा पर प्रभु द्रवित हो उठे। उन्होंने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा - "देखो! अब इस भरतक्षेत्र में कर्मयुग ने पदार्पण किया है। नोगयुग यहां से प्रयाण कर चुका है । अब तुम्हें अपने जीवन-निर्वाह के लिये कठोर श्रम करना होगा।" यौगलिकों को अपने अन्धकारपूर्ण भविष्य में एक आशा की किरण दृष्टिगोचर हुई। उनकी निराशा दूर हुई और उन्होंने दृढ़ संकल्पसूचक स्वर में कहा- "प्रभो! हम आपके इंगित् मात्र पर कठोर से कठोर श्रम करने के लिये कटिबद्ध हैं।" प्रभु ने कहा.. "मुझे विश्वास है, तुम कर्मक्षेत्र में कटिबद्ध हो कर उतरोगे तो अपना ऐहिक जीव । सुख-समृद्धिपूर्ण बनाने में सफल होवोगे।" "अब रहा प्रश्न अपराध-निरोध का, तो अपराध-निरोध के लिये लोगों में अपराधी मनोवृत्ति नहीं पनपे और सभी लोगों द्वारा मर्यादा का पूर्णरूपेण पालन हो, इसके लिये दण्डनीति की, दण्ड-व्यवस्था की आवश्यकता रहती है । दण्ड-नीति का संचालन राजा द्वारा किया जाता है । राजा ही उस दण्डनीति में परिस्थितियों के अनुरूप संशोधन, संवर्द्धन आदि किया करता है। राजा का राज्य-पद पर वृद्धजनों, प्रजाजनों आदि द्वारा अभिषेक किया जाता है।" यह सुनते ही यौगलिकों ने हर्षविभोर हो हाथ जोड़ कर ऋषभकुमार से निवेदन किया- "आप ही हमारे राजा हों। हम अभी आपका राज्याभिषेक करते हैं।" इस पर कुमार ऋषभ ने कहा- “महाराज नाभि हम सब के लिये पूज्य हैं। तुम सब लोग महाराज नाभि की सेवा में उपस्थित होकर उनसे निवेदन करो।" यौगलिकों ने नाभि कुलकर की सेवा में उपस्थित हो, उनके समक्ष सम्पूर्ण स्थिति रखी । उन यौगलिकों की विनम्र प्रार्थना सुन कर नाभि कुलकर ने कहा"मैं तो अब वृद्ध हो चुका है, अतः तुम ऋषभदेव को राज्यपद पर अभिषिक्त कर उन्हें अपना राजा बना लो। वस्तुतः वे ही इस संकटपूर्ण स्थिति से तुम्हारा उद्धार करने में सर्वथा सक्षम और सभी दृष्टियों से राज्यपद के लिये सुयोग्य हैं।" नाभि कुलकर की आज्ञा प्राप्त होते ही यौगलिक लोग बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने हाथ जोड़ कर नाभिराज से कहा- “महाराज ! हम लोग अभी कुमार ऋषभदेव को राजपद पर बैठा कर उनका राज्याभिषेक करते हैं।" नाभि कलकर से इस प्रकार का निवेदन कर वे लोग तत्काल ऋषभदेव के पास पाये । हर्षातिरेक से उनके नयन विस्फारित हो गये थे । अपने मनचिंतित मनोरथ की सिद्धि के कारण वे पुलकित हो उठे। ऋषभदेव से उन्होंने हर्षावरुद्ध Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [प्रमु ऋषभ का राज्याभिषेक कण्ठस्वर में कहा-"महाराज नाभि ने प्रापको ही राजपद पर अभिषिक्त करने की प्राज्ञा प्रदान की है। हम लोग अभी जल लाकर आपका राज्याभिषेक करते हैं।" ___ यह कह कर योगलिक लोग हर्ष से उछलते हुए तत्काल त्वरित गति से पग्रसरोवर की ओर प्रस्थित हुए । उसी समय देवराज शक्र का सिंहासन चलायमान हुआ। अवधिज्ञान के उपयोग से प्रभू ऋषभदेव का महाराज्याभिषेक काल समीप जान कर वे अपने देव-देवी परिवार के साथ उत्कृष्ट देव-वैभानिक गति से प्रभू की सेवा में पहुंचे। प्रभु को वन्दन-नमन करने के पश्चात् देवराज ने उन्हें स्नान कराया। दिव्य वस्त्राभूषणों से प्रभु को अलंकृत कर इन्द्र ने उन्हें एक दिव्य राजसिंहासन पर प्रासीन किया और बड़े हर्षोल्लास से प्रभु का महाराज्याभिषेक किया। प्राकाश से देवों ने पुष्पवर्षा की । दिव्य वाद्य यन्त्रों की सुमधुर ध्वनियों से समस्त वातावरग मुखरित हो उठा। शक के पश्चात् महाराज नाभि ने भी अपने पुत्र का महाराज्याभिषेक किया। देवांगनाओं ने मंगल गीत गाये। उसी समय योगलिकों का विशाल समूह पद्मपत्रों में सरोवर का जल लेकर प्रभु के राज्याभिषेक के लिए वहां उपस्थित हुआ । प्रभु को राज्यसिंहासन पर आसीन देख, उन लोगों के हर्ष का पारावार नहीं रहा। वे लोग प्रभु के अभिषेक के लिये प्रभु के समीप आये किंतु दिव्य वस्त्राभरणों से अलंकृत अतीव कमनीय नयनाभिराम देष में सुसज्जित, ऋषभदेव को देख कर उनके मन में विचार आया - "इस प्रकार की सुन्दर वेषभूषा से विभूषित प्रभु के शरीर पर पानी कैसे डाला जाय?" एक क्षरण के इस विचार के अनन्तर दूसरे ही क्षण में उन्होंने ऋषभदेव के चरणों पर कमलपत्र के पुटकों से पानी डालकर प्रभू का राज्याभिषेक किया और "महाराजाधिराज ऋषभदेव की जय हो, विजय हो" आदि जयघोषों से वायुमण्डल को गुंजरित करते हुए प्रभु को अपना एकछत्र अधिपति महाराजाधिराज स्वीकार किया। ___ यौगलिकों के इस विनीत स्वभाव को देखकर देवेन्द्र शक ने इक्ष्वाकु भूमि के उस प्रदेश पर कुबेर को आज्ञा देकर एक विशाल नगरी का निर्माण करवाया और यह कहते हुए कि यहां के लोग बड़े ही विनीत हैं, उस नगरी का नाम विनीता रखा 1 उस नगरी के चारों ओर अति विशाल गहरी परिखा, दुर्भद्य प्राकार, गगनचुम्बी सुदृढ़ मुख्य नगरद्वार और द्वारों के वज्र कपाटों के निर्माण के कारण वह नगरी कालान्तर में युद्ध का प्रसंग उपस्थित होने पर भी अभेद्य, अजेय और अयोध्य थी, इस कारण विनीता नगरी अयोध्या के दूसरे नाम से भी लोक में विख्यात हुई। योगलिकों ने बड़े हर्षोल्लास के साथ भगवान् ऋषभदेव का अपने ढंग से राज्याभिषेक महोत्सव मनाया। इस प्रकार भगवान् ऋषभदेव इस प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम राजा घोषित हुए। उन्होंने पहले से चली आ रही कुलकर व्यवस्था को समाप्त Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ प्रभु ऋषभ का राज्याभिषेक] भगवान् ऋषभदेव कर नवीन राज्य-व्यवस्था स्थापित की। प्रभु के राज्यसिंहासन पर आसीन होने पर कर्मयुग का शुभारम्भ हुआ और इस भरतक्षेत्र में भोगभूमि के अवसान के साथ ही कर्मभूमि का प्रादुर्भाव हुआ। राजसिंहासन पर आसीन होते ही महाराजाधिराज ऋषभदेव ने अपनी प्रजा का कर्मक्षेत्र में उतरने के लिए आह्वान किया। अपने हृदयसम्राट महाराजाधिराज ऋषभदेव के आह्वान पर सुनहरी अभिनव पाशानों से ओतप्रोत मानवसमाज कर्मक्षेत्र में उतरने के लिए कटिबद्ध हो गया । प्रभु ने उसी दिन कर्मभूमि के अभिनव निर्माण का महान कार्य अपने हाथ में लिया। जिस समय भ० ऋषभदेव का राज्याभिषेक किया गया उस समय उनकी प्रायु २० लाख पूर्व की थी। सशक्त राष्ट्र का निर्माण राज्याभिषेक के पश्चात् महाराजा ऋषभदेव ने राज्य की सुव्यवस्था के लिये सर्वप्रथम आरक्षक विभाग की स्थापना कर प्रारक्षक दल सुगठित किया। उसके अधिकारी 'उग्र' नाम से अभिहित किये गये । तदनन्तर उन्होंने राजकीय व्यवस्था के कार्य में परामर्श के लिए एक मन्त्रिमण्डल का निर्माण किया और उन मंत्रियों को पृथक-पृथक विभागों का उत्तरदायित्व सौंपा। उन विभागों के उच्चाधिकारी मन्त्रियों को 'भोग' नाम से सम्बोधित किया जाने लगा। __ तत्पश्चात् महाराजा ऋषभदेव ने सम्पूर्ण राष्ट्र को पृथक्-पृथक् ५२ जनपदों में विभक्त कर उनका शासन चलाने के लिए महामाण्डलिक राजामों के रूप में सुयोग्य व्यक्तियों का राज्याभिषेक किया। महामाण्डलिक राजाओं के प्रधीन अनेक छोटे-छोटे राज्यों को गठित कर उनका सुचारु रूप से शासन चलाने के लिए राजामों को उन राज्यों के सिंहासन पर अधिष्ठित किया गया। उन बड़े पौर छोटे सभी शासकों को उनका उत्तरदायित्व समझाते हुए उन्होंने कहा- "जिस प्रकार सूर्य अपनी रश्मियों द्वारा जलाशयों, वनस्पतियों और धरातल से उन्हें बिना किसी प्रकार की प्रत्यक्ष बड़ी हानि पहुंचाये थोड़ा-थोड़ा जल वाष्प के रूप में खींचता है, उसी प्रकार राज्य के संचालन के लिये, राष्ट्र की शासन व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए प्रजा से थोड़ा-थोड़ा कर लिया जाय और जिस प्रकार सूर्य द्वारा वाष्प के रूप में ग्रहण किये हुए जल को वर्षा ऋतु में बादल समान रूप से सर्वत्र बरसा देते हैं, उसी प्रकार प्रजा से कर रूप में ग्रहण किये हुए उस धन को प्रजा के हित के कार्यों में खर्च किया जाय । प्रजा को बिना किसी प्रकार का कष्ट पहुंचाये तुम्हें सूर्य की किरणों के समान प्रजा से कर के रूप में धन एकत्रित करना है और बादलों की तरह समष्टि के हित के लिये ही उस एकत्रित धन राशि का व्यय करना है।" इस प्रकार राज्यों का गठन करने के पश्चात् महाराज ऋषभ ने उन राजामों के एक परामर्श मण्डल की स्थापना की जो महाराजाधिराज ऋषभदेव Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ सशक्त राष्ट्र का निर्माण से शासन संचालन सम्बन्धी परामर्शो का विचारों का प्रादान-प्रदान कर सके । प्रभु ने उन राजाओं को महामाण्डलिक, माण्डलिक और राजन्य, क्षत्रिय प्रादि उपाधियों से विभूषित किया ।" ३६ राष्ट्र की रक्षा के लिये महाराजाधिराज ऋषभ ने चार प्रकार की सेना गठित कर उनके उच्च अधिकारी के रूप में चार सेनापतियों की नियुक्ति की । अपराध निरोध के लिये कड़े नियमों के साथ महाराज ऋषभदेव ने चार प्रकार की दण्ड-व्यवस्था प्रचलित की, जो इस प्रकार थी : ( १ ) परिभाषण - अपराधी को साधारण अपराध के लिये प्राक्रोशपूर्ण शब्दों से दण्डित करना । (२) मण्डलीबन्ध - अपराधी को नियत समय के लिये सीमित क्षेत्र मण्डल में रोके रखना । (३) चारकबन्ध - बन्दीगृह में अपराधी को बन्द रखना । (४) छविच्छेद - मानवताद्रोही, राष्ट्रद्रोही अथवा पुनः पुनः घृणित अपराध करने वाले अपराधी के शरीर के हाथ, पैर प्रादि किसी अंग- उपांग का छेदन करना । इन चार प्रकार की दण्ड-नीतियों के सम्बन्ध में कतिपय प्राचार्यों का अभिमत है कि अन्तिम दो नीतियां भरत चक्रवर्ती के शासनकाल में प्रचलित हुईं थीं, परन्तु नियुक्तिकार प्राचार्य भद्रबाहु के मन्तव्यानुसार बन्ध श्रौर घात नीति भी भ० ऋषभदेव के शासनकाल में ही प्रचलित हो गई थी । - अपराधियों को खोज निकालने श्रीर दण्ड दिलाने के लिये प्रभु ने दंडनायक श्रादि अनेक पदाधिकारियों की नियुक्तियां भी कीं । प्रजा को प्रशिक्षरण शासन, सुरक्षा और अपराध निरोध की व्यवस्था करने के पश्चात् महाराज ऋषभदेव ने कर्मभूमि के कार्य-कलापों से नितान्त अनभिज्ञ अपनी प्रजा को स्वावलम्बी बनाना प्रावश्यक समझा । राष्ट्रवासी प्रपना जीवन स्वयं सरलता से अल्पारम्भपूर्वक बिता सकें ऐसी शिक्षा देने के विचार से उन्होंने १०० शिल्प और असि, मसि, कृषि रूप तीन कर्मों का प्रजा के हितार्थ उपदेश दिया । शिल्प कर्म का उपदेश देते हुए आपने सर्वप्रथम कुम्भकार का कर्म सिखाया । उसके पश्चात् वस्त्र-वृक्षों के क्षीण होने पर पटकार कर्म और गेहागार वृक्षों के प्रभाव वर्धक कर्म सिखाया । तदनन्तर चित्रकार कर्म श्रौर रोम - नखों के बढ़ने पर काश्यप अर्थात् नापित कर्म सिखाया। इन पाँच मूल शिल्पों के बीस-बीस भेदों से श्रावश्यक निर्युक्ति, गाथा १६८ २ श्रावश्यक नियुक्ति, गाथा २ से १४ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रजा को प्रशिक्षण] भगवान् ऋषभदेव १०० (सौ) प्रकार के कर्म उत्पन्न हए।' लेन-देन के व्यवहार की दृष्टि से उन्होंने मान, उन्मान, अवमान और प्रतिमान का भी अपनी प्रजा को ज्ञान कराया। __इन सब शिल्पों एवं कृषि आदि कार्यों का प्रभ ने अपने पुत्रों को पहले ही प्रशिक्षण दे रखा था। अतः जन-साधारण के शिक्षण में उनसे बड़ा सहयोग प्राप्त हुआ। सम्पूर्ण राष्ट्र में सशक्त मानव कृषि योग्य विशाल मैदानों में जूझने लगे। अपने जीवन में पहली बार उन लोगों ने कठोर परिश्रम प्रारम्भ किया। वे सभी विशालकाय और सशक्त थे। उन्होंने धरती को साफ किया, हल चला कर उसमें बीज डाला। समय-समय पर वर्षा होती रही। वसुन्धरा सश्य श्यामला हो गई। हरे-भरे खेत लहलहाने लगे । बालियां पकने लगीं। दृष्टि जिस किसी मोर दौड़ाई जाती, उसी ओर धान्य की खेती से लहलहाते विशाल खेत दृष्टिगोचर होते। केवल प्रकृति पर निर्भर रहता आया मानव अपने पसीने की कमाई से लहलहाते खेतों को देखकर खुशी से झूम उठा। चारों ओर सुनहली प्यारी-प्यारी बालियों को देख कर प्रत्येक मानव के मुख से सहसा यही शब्द निकलते - "जुग-जुग जीयो ऋषभ महाराज, धरती सोना उगल रही है।" अब लोग सोचने लगे - "ढेरों अनाज पायगा, चारों ओर अनाज के प्रम्बार लग जायेंगे, इतना रखेंगे कहाँ ?" जन-जन के मुख से यही प्रश्न गूंजने लगा। पर महाराज ऋषभदेव ने एक सुन्दर, सशक्त और सुसमृद्ध महान् राष्ट्र के निर्माण की पूरी तैयारी कर ली थी। प्रभु से और भरत आदि कुमारों से प्रशिक्षण प्राप्त लाखों शिल्पी स्वर्गोपम सुन्दर राष्ट्र के निर्माण कार्य के लिये कटिबद्ध हो चके थे। ग्रामों, नगरों प्रादि का निर्माण महाराज ऋषभदेव के एक ही इंगित पर उनसे प्रशिक्षण पाये हुए शिल्पी अपने समस्त उपकरणों और अौजारों के साथ भारत के हृदय सम्राट महाराज ऋषभ का आज्ञापत्र लिये पहले सुकोशल, अवन्ती, केकय आदि जनपदों में महाराजाओं तथा राजाओं के पास और तत्पश्चात् वहाँ से राज्याधिकारियों के दलों के साथ सम्पूर्ण राष्ट्र के कोने-कोने में निर्दिष्ट स्थान पर पहुंच गये। वहां उन्होंने स्थानीय निवासियों के श्रम का सहयोग ले ग्रामों, नगरों, पत्तनों, मडम्बों, संवाहों, द्रोणमुखों, खेटों तथा कर्बटों का निर्माण प्रारम्भ किया। ' एवं ता पढम कुमकारा उपपन्ना ...' इमाणि सिप्पाणि उप्पाएयव्वारिण, तत्थ पच्छा वत्थ क्खा परिहीणा, ताएऽतिक्का उप्पाइया, पच्छा गेहागारा परिहीणा ताए वड्ढती उप्पाइता, पच्छा रोमनखारिण वड्दति ताहे कम्मकरा उप्पाइता पहाविया य एवं सिप्पसयं एवं सिप्पारण उप्पत्ति ।। -भावश्यक चूणि, पूर्व भाग, पृ० १५६ २प्रावश्यक नियुक्ति, गाथा २१३-१४ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ ग्रामों, नगरों श्रादि का निर्माण महाराज ऋषभदेव और भरतादि कुमारों द्वारा प्रशिक्षित कुशल शिल्पियों के कलात्मक कौशल श्रीर तत्कालीन उत्तम संहनन के धनी विशालकाय सशक्त मानवों के कठोर श्रम के परिणामस्वरूप देखते ही देखते सम्पूर्ण राष्ट्र गगनचुम्बी दुग्धधवला अट्टालिकाओं वाले भवनों से मण्डित ग्रामों, नगरों, खेटों, कबंटों, मडम्बों, पत्तनों और द्रोणमुखों आदि से सुसम्पन्न हो इस धरा पर साकार स्वर्ग तुल्य सुशोभित होने लगा । ३८ लोकस्थिति, कलाज्ञान एवं लोककल्याण इस प्रकार लोकनायक और राष्ट्रस्थविर के रूप में महाराज ऋषभदेव ने विविध व्यवहारोपयोगी विधियों से तत्कालीन जन-समाज को परिचित कराया। उस समय तक ऋषभदेव गृहस्थ पर्याय में थे । प्रारम्भ, परिग्रह की यता को समझते हुए भी उसके त्यागी नहीं थे । अतः जनहित और उदयकर्म के फल भोगार्थं आरम्भयुक्त कार्य भी करते - करवाते रहे । पर इसका अर्थ यह नहीं कि वे इन कर्मों को निष्पाप अथवा धर्मं समझ रहे थे । उन्होंने मानव जाति को अभक्ष्य भक्षण जैसे महारम्भी जीवन से बचा कर अल्पारम्भी जीवन जीने के लिये प्रसि, मसि, कृषि-रूप कर्म की शिक्षा दी और समझाया कि श्रावश्यकता से कभी सदोष प्रवृत्ति भी करनी पड़े तो पाप को पाप समझ कर निष्पाप जीवन की श्रोर लक्ष्य रखते हुए चलना चाहिये । यही सम्यग्दर्शीपन है । प्रभु ऋषभदेव ने कर्मयुग के आगमन के समय कर्मभूमि के कार्यकलापों से नितान्त अनभिज्ञ उन भोगभूमि के भोले लोगों को कर्मभूमि के समय में सुखपूर्वक जीवनयापन की कला सिखाकर मानवता को भटकने से बचा लिया । यह प्रभु का मानवता पर महान् उपकार है । प्रभु ऋषभदेव ने मानवता के कल्यारण के लिये अपने भरत आदि पुत्रों के माध्यम से उस समय के लोगों को पुरुषों की जिन बहत्तर कलाओं का प्रशिक्षण दिया, वे इस प्रकार हैं : बहत्तर कलाएं' ( १ ) लेहं ( २ ) गरिणयं : लेखनकला | : गरिणत - कला । , सम० सूत्र समवाम ७२ । कल्पसूत्र सु० टीका २ विशेषावश्यक भाष्य ४६४ की टीका में लिपियों के नाम ( १ ) ब्राह्मी, (२) हंस, (३) भूत, (४) यक्षी, (५) राक्षसी, (६) उड्डी, (७) यवनी, (८) तुरुष्की, (e) कीरी, (१०) द्राविड़ी, (११) सिंघविय, (१२) मालविनी, (१३) नागरी, (१४) लाटी, (१५) पारसी, (१६) श्रनिमित्ती, (१७) चारणक्यी और (१८) मूलदेवी । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकस्थिति, कलाज्ञान ] ( ३ ) रूवं ( ४ ) नट्टं ( ५ ) गीयं ( ६ ) वाइयं ( ७ ) सरग यं ८) पुक्खर गयं ( ९ ) समतालं (१०) जूयं (११) जर वायं (१२) पारेकिच्चं ' (१३) अट्ठावयं (१४) दग्मट्टियं (१५) अन्नविहि (१६) पारणविहि (१७) वत्थविहि (१८) सयरणविहिं (११) प्रज्जं : : : : : : ढोल आदि वाद्य बजाने की कला । ताल देने की कला । : : : : द्यूत अर्थात् जूा खेलने की कला । : : : : :: : : : (२०) पहेलिय (२१) मागहियं (२२) गाहं (२३) सिलोगं : (२४) गंधजुत्ति (२५) मधुसित्थं (२६) प्राभरणविहिं : : भगवान् ऋषभदेव : (२७) तरुणी पडिकम्मं ( २८ ) इत्थी लक्खरणं (२६) पुरिस लक्खरणं (३०) हय लक्खणं (३१) गय लक्खणं (३२) गोलक्खणं ( ३३ ) कुक्कुड लक्खणं : (३४) मिटय लक्खणं : (३५) चक्क लक्खणं : : रूप-कला । नाट्य-कला । संगीत-कला । वाद्य बजाने की कला । स्वर जानने की कला । संस्कृत (आर्य ) भाषा में कविता - निर्मारण की कला प्रहेलिका-निर्माण की कला । छन्द बनाने की कला । : प्राकृत भाषा में गाथा - निर्माण की कला । श्लोक बनाने की कला । सुगन्धित पदार्थ बनाने की कला । मधुरादि षट् रस बनाने की कला । अलंकार-निर्मारण तथा धारण करने की कला । : : : : वार्तालाप करने की कला । नगर के संरक्षण की कला । पासा खेलने की कला । पानी और मिट्टी के योग से वस्तु बनाने की कला । अन्नोत्पादन की कला । पानी को शुद्ध करने की कला । वस्त्र बनाने आदि की कला । शय्या - निर्माण की कला । स्त्री को शिक्षा देने को कला । स्त्री के लक्षण जानने की कला । पुरुष के लक्षण जानने की कला । घोड़े के लक्षण जानने की कला । हाथी ( गज) के लक्षण जानने की कला । गाय एवं वृषभ के लक्षण जानने की कला । कुक्कुट के लक्षण जानने की कला । मेंढ़े के लक्षण जानने की कला । चक्र-लक्षण जानने की कला । : छत्र - लक्षरण जानने की कला । : दण्ड- लक्षण जानने की कला । ( ३६ ) छत्त लक्खणं (३७) दंड लक्खणं १ 'पोरेकत्वं' उववाई दृढ़ प्रतिज्ञाधिकार । ३६ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [लोककल्याण (३८) असिलक्खणं : तलवार के लक्षण जानने की कला। (३६) मरिणलक्खणं : मरिण-लक्षण जानने की कला। (४०) कागरिण लक्खरणं : काकिणी (चक्रवर्ती के रत्न विशेष) के लक्षण जानने की कला। (४१) चम्मलक्खरणं : चर्म-लक्षण जानने की कला। (४२) चन्द लक्खरणं : चन्द्र-लक्षण जानने की कला। (४३) सूर चरियं : सूर्य प्रादि की गति जानने की कला । (४४) राह चरियं : राह की गति जानने की कला। (४५) गह चरियं : ग्रहों की गति जानने की कला । (४६) सोभागकरं : सौभाग्य का ज्ञान । (४७) दोभागकरं : दुर्भाग्य का ज्ञान । (४८) विज्जागयं : रोहिणी, प्रज्ञप्ति आदि विद्या सम्बन्धी ज्ञान। (४६) मंतगयं : मन्त्र-साधना आदि का ज्ञान । (५०) रहस्सगयं : गुप्त वस्तु को जानने का ज्ञान । (५१) समासं : प्रत्येक वस्तु के वृत्त का ज्ञान । (५२) चारं : सैन्य का प्रमाण आदि जानना । (५३) पडिवूहं : प्रतिव्यूह रचने की कला । (५४) पडिचारं : सेना को रणक्षेत्र में उतारने की कला। : ..व्यूह रचने की कला। (५६) खंधावारमाणं : सेना के पड़ाव का जमाव जानना। (५७) नगरमारणं : नगर का प्रमाण जानने की कला । (५८) वत्थुमारणं : वस्तु का परिमारण जानने की कला। (५९) खंधावार निवेसं : सेना का पड़ाव आदि कहां डालना इत्यादि का परिज्ञान । (६०) वत्यु निवेसं : प्रत्येक वस्तु के स्थापन करने की कला। (६१) नगर निवेसं : नगर- निर्माण का ज्ञान। (६२) ईसत्थं : थोड़े को बहुत करने की कला। (६३) छरूप्पवायं : तलवार आदि की मूठ बनाने की कला। (६४) आससिक्खं : अश्व-शिक्षा। (६५) हत्थिसिक्खं : हस्ति-शिक्षा। (६६) धणु वेयं : धनुर्वेद। (६७) हिरण्णपागं सुवनपागं : हिरण्यपाक, सुवर्णपाक मणिपागं, घातुपागं मणिपाक और धातुपाक बनाने की कला । (६८) बाहुजुद्धं, दंडजुद्धं, : बाहुयुद्ध, दंडयुद्ध । मुट्ठिजुद्धं, अट्ठिजुद्धं, : मुष्टियुद्ध, यष्टियुद्ध जुद्ध, निजुद्ध, जुद्धाईजुद्ध : युद्ध, नियुद्ध, युद्धातियुद्ध करने की कला । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकस्थिति, कलाज्ञान और लोक क०] भगवान् ऋषभदेव ४१ (६६) सुत्ताखेडं, नालियाखेडं, : सूत बनाने की, नली बनाने की, गेंद खेलने . वट्टखेडं, चम्मखेडं की, वस्तु के स्वभाव जानने की और चमड़ा बनाने आदि की कलाएं। (७०) पत्तच्छेज्जं-कड़गच्छेज्जं : पत्र छेदन एवं कड़ग-वृक्षांग विशेष छेदने की कला। (७१) संजीवं, निज्जीवं : संजीवन, निर्जीवन-कला। (७२) सउणरूयं : पक्षी के शब्द से शुभाशुभ जानने की कला। पुरुषों के लिये कला-विज्ञान की शिक्षा देकर प्रभु ने महिलाओं के जीवन को उपयोगी व शिक्षासम्पन्न करना भी आवश्यक समझा। अपनी पुत्री ब्राह्मी के माध्यम से उन्होंने लिपि-ज्ञान तो दिया ही, इसके साथ ही साथ महिला-गुणों के रूप में उनको ६४ कलाएं भी सिखलाई । वे ६४ कलाएं इस प्रकार हैं : १. नृत्य-कला २३. वणिकावृद्धि ४४. शालि खण्डन २. औचित्य २४. सुवर्ण सिद्धि ४५. कथाकथन ३. चित्र-कला २५. सुरभितैलकरण ४६. पुष्प ग्रथन ४. वादित्र-कला २६. लीलासंचरण ४७. वक्रोक्ति ५. मंत्र २७. हय-गजपरीक्षण ४८. काव्यशक्ति ६. तन्त्र २८. पुरुष-स्त्रीलक्षण ४६. स्फारविधिवेष ७. ज्ञान २६. हेमरत्न भेद ५०. सर्वभाषा विशेष ८. विज्ञान ३०. अष्टादश लिपि- ५१. अभिधान ज्ञान ९. दम्भ परिच्छेद ५२. भूषण-परिधान १०. जलस्तम्भ ३१. तत्काल बुद्धि ५३. भृत्योपचार ११. गीतमान ३२. वस्तु सिद्धि ५४. गृहाचार १२. तालमान ३३. काम विक्रिया ५५. व्याकरण १३. मेघवृष्टि ३४. वैद्यक क्रिया ५६. परनिराकरण १४. फलाकृष्टि ३५. कुम्भभ्रम ५७. रन्धन १५. आराम रोपण ३६. सारिश्रम ५८. केश बन्धन १६. प्राकार गोपन ३७. अंजनयोग ५६. वीणानाद १७. धर्म विचार ३८. चूर्णयोग ६०. वितण्डावाद १८. शकुनसार ३६. हस्तलाघव ६१. अङ्क विचार १६. क्रियाकल्प ४०. वचन-पाटव ६२. लोक व्यवहार २०. संस्कृत जल्प ४१. भोज्य विधि ६३. अन्त्याक्षरिका २१. प्रसाद नीति ४२. वाणिज्य विधि ६४. प्रश्न प्रहेलिका' २२. धर्म रीति ४३. मुखमण्डन ' जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, वक्षस्कार २, टीका पत्र १३६-२, १४०-१ । कल्पसूत्र सुबोधिका टीका Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भ० ऋषम द्वारा वर्णव्यवस्था भगवान् ऋषमदेव द्वारा वर्ण व्यवस्था का प्रारम्भ भगवान् प्रादिनाथ से पूर्व भारतवर्ष में कोई वर्ण या जाति की व्यवस्था नहीं थी, सब लोगों की एक ही - मानव जाति थी। उनमें ऊंच-नीच का भेद नहीं था। सब लोग बल, बुद्धि और वैभव में प्रायः समान थे। कोई किसी के अधीन नहीं था। प्राप्त सामग्री से सब को संतोष था, अतः उनमें कोई जाति-भेद की आवश्यकता ही नहीं हुई। जब लोगों में विषमता बढ़ी और जनमन में लोभमोह का संचार हुआ तो भगवान आदिनाथ ने वर्ण-व्यवस्था का सूत्रपात किया। भोग-युग से कृत-युग (कर्म-युग) का प्रारम्भ करते हुए उन्होंने ग्राम, कस्बे, नगर, पत्तन प्रादि के निर्माण की, शिल्प एवं दान आदि की, उस समय के जनसमुदाय को शिक्षा दी। चिर-काल से भोग-युग के अभ्यस्त उन लोगों के लिए कर्मक्षेत्र में उतर कर प्रथक एवं अनवरत परिश्रम करने की यह सर्वथा नवीन शिक्षा थी। इस कार्य में भगवान् को कितना अनथक प्रयास करना पड़ा होगा, इसकी आज कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस सब अभिनव-प्रयास के साथ ही ऋषभदेव ने सामाजिक जीवन से नितान्त अनभिज्ञ उस समय के मानव का सुन्दर, शान्त और सुखमय जीवन बनाने के लिए सह-अस्तित्व का पाठ पढ़ाते हुए सब प्रकार से समीचीन समाज-व्यवस्था की आधारशिला रखी। जो लोग शारीरिक दृष्टि से अधिक सुदृढ़ और शक्ति-सम्पन्न थे, उन्हें प्रजा की रक्षा के कार्य में नियुक्त कर पहिचान के लिए उस वर्ग को क्षत्रिय वर्ण की संज्ञा दी गई। जो लोग कृषि, पशुपालन एवं वस्तुओं के क्रय-विक्रय-वितरण अर्थात् वाणिज्य में निपुण सिद्ध हुए, उन लोगों के वर्ग को वैश्य वर्ण की संज्ञा दी गई। जिन कार्यों को करने में क्षत्रिय और वैश्य लोग प्रायः अनिच्छा एवं प्रचि अभिव्यक्त करते, उन कार्यों को करने में भी जिन लोगों ने तत्पर हो जनसमुदाय की सेवा में विशेष अभिरुचि प्रकट की, उस वर्ग के लोगों को शूद्र वर्ण को संज्ञा दी गई। इस प्रकार ऋषभदेव के समय में क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णो की उत्पत्ति हुई। भगवान् ऋषभदेव ने मानव को सर्वप्रथम सह-अस्तित्व, सहयोग, सहृदयता, सहिष्णुता, सुरक्षा, सौहार्द एवं बन्धुभाव का पाठ पढ़ाकर मानव के हृदय में मानव के प्रति भ्रातृभाव को जन्म दिया। उन्होंने गुण-कर्म के अनुसार वर्ण-विभाग किये, जन्म को प्रधानता नहीं दी और लोगों को समझाया कि सब अपना-अपना काम करते हुए एक-दूसरे के साथ प्रेम पूर्ण व्यवहार करें, किसी को तिरस्कार की भावना से न देखें । ' मादिपुराण, पर्व १६, श्लोक २४३ से २४६ www.jainelibrary.ord Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रादि राजा का अनुपम राज्य] भगवान् ऋषभदेव प्रादि राजा प्रादिनाथ का अनुपम राज्य भरतक्षेत्र के आदि राजा ऋषभदेव का राज्य नितान्त लोक कल्याण की भावनाओं से अोतप्रोत ऐसा अनुपम राज्य था, जिसका यथावत् सांगोपांग चित्रण न तो वाणी द्वारा सम्भव है और न लेखिनी द्वारा ही। महाराज ऋषभदेव में पदलिप्सा लवलेश मात्र भी नहीं थी। अन्य राजाओं, प्रतिवासुदेवों, वासुदेवों एवं चक्रवतियों की तरह न तो उन्होंने कभी कोई दिग्विजय ही की और न राज्यसुख भोगने की कोई कामना ही। उन्हें तो प्रजा ने स्वतः अपने अन्तर्मन की प्रेरणा से राजा बनाया। जीवन निर्वाह की विधि से नितान्त अनभिज्ञ तत्कालीन मानव समाज की अभाव-अभियोग और पारस्परिक क्लेशों के कारण उत्पन्न हुई प्रशान्त, विक्षब्ध, संत्रस्त एवं निराशापूर्ण दयनीय दशा पर द्रवित हो संकटग्रस्त मानवता की करुण पुकार और प्रार्थना सुन कर एक मात्र जनहिताय-लोक कल्याण की भावना से ही प्रभु ने अनुशासनप्रिय, स्वावलम्बी, ससभ्य समाज की सरचना का कार्यभार सम्हाला। उन्होंने केवल मानवता के कल्याण के लिये राजा के रूप में जिस दुष्कर दायित्व को अपने ऊपर लिया, उसका अपने राज्यकाल में पूर्ण निष्ठा के साथ निर्वहन किया । केवल प्रकृति पर निर्भर रहने वाले उन प्रकृति पुत्रों के शिर पर से जब कल्पवृक्ष की सुखद छाया उठ गई तब प्रभु ऋषभदेव ने अपना वरदहस्त उनके शिर पर रखा। प्रभु ने उन लोगों को स्वावलम्बी सुखी जीवन जीने के लिए १०० शिल्प, मसि, मसि और कृषि - इन तीन कर्मों के अन्तर्गत आने वाले सभी प्रकार के कर्म (कार्य) और सब प्रकार की कलाओं का उन लोगों को स्वयं तथा अपनी संतति के माध्यम से उपदेश अथवा प्रशिक्षण दिया। भरत आदि के निर्देशन, देवों के सहाय्य और अपने उत्तरोत्तर बढ़ते हुए अनुभव के आधार पर मानव तीव्र गति से कर्मक्षेत्र में निरन्तर मागे की ओर बढ़ता ही गया। और उस सब का सुखद परिणाम यह हया कि भारत का भूमण्डल हरेभरे खेतों, बड़े-बड़े बगीचों, यातायात के लिये निर्मित देश के इस कोने से उस कोने तक लम्बे प्रशस्त पथों, गगनचुम्बी अट्टालिकामों वाले भवनों, ग्रामों, नगरों, पत्तनों प्रादि से मण्डित हो स्वर्ग तुल्य सुशोभित होने लग गया। देश के कोने-कोने में प्रापरिणकाओं, पण्य शालाओं और घर-घर के कोष्ठागारों में अन्न, धन आदि सभी प्रकार की उपभोग्य सामग्रियों के प्रम्बार लग गये। प्रभावअभियोग का इस प्रायं धरा से नाम तक उठ गया। ऋषमकालीन भारत और भारतवासियों को गरिमा प्रभु ऋषभदेव के गज्यकाल में भारत और भारतवासी सर्वतोमुखी प्रभ्युन्नति के उच्चत्तम शिखर पर पहुँच गये। इस सम्बन्ध में शास्त्रों में तीर्थंकर काल का जो समुच्चय रूप से उल्लेख है, उसके प्राधार पर प्राद्य नरेश्वर ऋषभदेव के राज्यकाल का विवरण इस रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है : Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ऋषभकालीन विशाल भारत "भगवान् ऋषभदेव के समय में भरतक्षेत्र सुन्दर, समृद्ध बड़े-बड़े ग्रामों, नगरों तथा जनपदों से संकुल एवं धन-धान्यादिक से परिपूर्ण था। उस समय सम्पूर्ण भरतक्षेत्र साक्षात् स्वर्गतुल्य प्रतीत होता था। उस समय का प्रत्येक ग्राम नगर के समान और नगर अलकापुरी की तरह सुरम्य और सुख सामग्री से समद्ध थे। राष्ट्र का प्रत्येक नागरिक नपति के समान ऐश्वर्यसम्पन्न और प्रत्येक नरेश वैश्रवण के तुल्य राज्यलक्ष्मी का स्वामी था।" इस सबसे यही निष्कर्ष निकलता है कि आद्य राजा ऋषभदेव के समय में भारत वस्तुतः भ-स्वर्ग था। वनों में वक्षों के नीचे जीवन यापन करने वाली मानवता को महलों में बैठाने वाला वह शिल्पी कितना महान् होगा, इसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती, क्योंकि संसार में कहीं कोई उसकी उपमा ही नहीं है। ऋषभकालीन विशाल भारत भगवान् ऋषभदेव के राज्यकाल में भारत की सीमाएं कहां से कहां तक थीं, इस सम्बन्ध में सुनिश्चित रूप से सीमांकन नहीं किया जा सकता। इसका एक बहुत बड़ा कारण है भौगोलिक परिवर्तन । परिवर्तनशीला प्रकृति ने इतनी लम्बी अति दीर्घकालावधि पार कर ली कि उस समय के बहुत से ऐसे भूखण्ड जो धनी और समृद्ध मानव-बस्तियों से संकुल थे, संभव है, उन भूखण्डों पर प्रकृति की एक करवट से ही अथाह सागर हिलोरें लेने लग गया हो। यह भी संभव है कि किसी समय जहाँ समुद्र लहरें ले रहा था, वहाँ किसी काल में प्राकृतिक परिवर्तनों के परिणामस्वरूप समुद्र के किसी और दिशा में सरकते हो भूखण्ड ऊपर उभर आये हों और उन पर मानव-बस्तियां बस गई हों। यह कोई केवल कल्पना की बात नहीं । आज के युग के भू-ज्ञान विशारद वैज्ञानिक और पुरातत्ववेत्ता भी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि आज कतिपय भूखण्ड ऐसे हैं, जो सदीर्घातीत के किसी समय में समुद्र की अथाह जलराशि में डूबे हुए थे। वैष्णव परम्परा के पुराणों में भी किसी मन के समय में हुए अति भयावह जलविप्लव का उल्लेख उपलब्ध होता है। भूस्खलन, भूकम्प समुद्री तूफान, ज्वालामुखी-विस्फोट, अतिवृष्टि आदि प्राकृतिक प्रकोपों और सत्ता के लिये मानव द्वारा लड़े जाने वाले विनाशकारी युद्धों के परिणामस्वरूप होने वाले विप्लवों और परिवर्तनों का तो विश्व का इतिहास साक्षी है। __ ऐसी स्थिति में महाराजाधिराज ऋषभदेव के राज्य की सीमाओं के सम्बन्ध में साधिकारिक रूप से कहने की स्थिति में तो संभवतः आज कोई सक्षम नहीं है। हां, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि भरतक्षेत्र के जिन खण्डों पर केवल प्रतिवासुदेव, वासुदेव और चक्रवर्ती ही आधिपत्य स्थापित कर सकते हैं, उन खण्डों को छोड़ शेष सम्पूर्ण भारत की प्रजा ने स्वेच्छा से ऋषभदेव को अपना राजा मान रखा था। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव्रज्या का संकल्प - वर्षीदान ] भगवान् ऋषभदेव प्रव्रज्या का संकल्प प्रौर वर्षीवान प्रादि नरेन्द्र ऋषभदेव ने दीर्घकाल पर्यन्त लोकनायक के रूप में राज्य का संचालन कर प्रेम और न्यायपूर्वक ६३ लाख पूर्व तक प्रजा का पालन किया । उन्होंने लोक-जीवन में व्याप्त अव्यवस्था को दूर कर न्याय, नीति एवं व्यवस्था का संचार किया । तदनन्तर स्थायी शान्ति प्राप्त करने एवं निष्पाप जीवन जीने के लिये भोग-मार्ग से योग मार्ग अपनाना श्रावश्यकं समझा । उनका विश्वास था कि अध्यात्म-साधन के बिना मानव की शान्ति स्थायी नहीं हो सकती । यही सोचकर उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को राज्य का उत्तराधिकारी बनाया और शेष निन्यानवे पुत्रों को पृथक्-पृथक् राज्य देकर गृहस्थ जीवन के दायित्व से स्वयं छुटकारा पाया और ग्रात्म-साधना के मार्ग पर बढ़ने का संकल्प किया । प्रभु के इस मानसिक निश्चय को जानकर नव लोकान्तिक देवों ने अपना कर्त्तव्य पालन करने हेतु प्रभु के चरणों में प्रार्थना की- "भगवन् ! सम्पूर्ण जगत् के कल्याणार्थं धर्म-तीर्थ को प्रकट कीजिये ।" लोकान्तिक देवों की प्रार्थना सुनकर प्रभु ने वर्षी दान प्रारम्भ किया, संसार-त्याग की भावना से उन्होंने प्रतिदिन' प्रभात की पुण्य वेला में एक करोड़ और आठ लाख स्वर्ण-मुद्रात्रों का दान देना प्रारम्भ किया । प्रभु ने निरन्तर एक वर्ष तक दान किया । इस प्रकार ऋषभदेव द्वारा एक वर्ष में कुल मिला कर तीन अरब अट्ठासी करोड़ और अस्सी लाख सुवर्ण मुद्राओं का दान दिया गया । दान के द्वारा उन्होंने जन-मानस में यह भावना भर दी कि द्रव्य के भोग का महत्त्व नहीं, अपितु उसके त्याग का ही महत्त्व है । ग्रभिनिष्क्रमरण-श्रमरणवीक्षा इस प्रकार ८३ लाख पूर्व गृहस्थ - पर्याय में बिता कर चैत्र कृष्णा नवमी के दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में ऋषभदेव ने दीक्षार्थं प्रभिनिष्क्रमण किया । उन्होंने विशाल राज्य-वैभव और परिवार को छोड़कर भव्य भोग-सामग्री को तिलांजलि दी प्रौर शुद्ध प्रात्मस्वरूप को प्राप्त करने के लिये देव-मानवों के विशाल समुदाय के साथ विनीता नगरी से निकल कर षष्टमभक्त के निर्जल तप से प्रशोक वृक्ष के नीचे अपने सम्पूर्ण पापों को त्याग कर मुनि दीक्षा स्वीकार की और सिद्ध की साक्षी से यह प्रतिज्ञा की "सव्वं प्रकररिणज्जं पात्र कम्मं पच्चक्खामि अर्थात् हिंसा प्रादि सब पापकर्म प्रकरणीय हैं, अतः मैं उनका सर्वथा त्याग करता हूँ ।" शिर के बालों का चतुर्मुष्टिक लुंचन कर प्रभु ने बतलाया कि शिर के बालों की , प्राव० नि० गाथा २३ व २४२ (घ) कल्पसूत्र, सू० १६५, पृ० ५७, पुण्य विजयजी (प्रा) जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति में चैत्र कृ० ६ का उल्लेख है । (इ) हरिवंश पुराण में चैत्र कृ० ६ का उल्लेख है । ४५ २ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [विद्याधरों की उत्पत्ति तरह हमें पापों को भी जड़मूल से उखाड़ फेंकना है । इन्द्र की प्रार्थना स्वीकार कर भगवान् ने एक मुष्टि के बाल रहने दिये । प्रभु के इस अपूर्व त्याग तप को देखकर देवों, दानवों और मानवों की विशाल परिषद् चित्र - लिखित सी हो गई । इस प्रकार संयम जीवन की निर्मल साधना से ऋषभदेव सर्वप्रथम मुनि, साधु एवं परिव्राजक रूप से प्रसिद्ध हुए । इनके त्याग से प्रभावित होकर उग्रवंश, भोगवंश, राजन्य और क्षत्रिय वंश के चार हजार राजकुमारों ने उनके साथ संयम ग्रहण किया ।' यद्यपि भगवान् ने उन्हें प्रव्रज्या नहीं दी, तथापि उन्होंने स्वयं ही प्रभु का अनुसरण कर लुंचन आदि क्रियाएं कीं और साधु बन कर उनके साथ विचरना प्रारम्भ किया । प्रभु के दीक्षा ग्रहण का वह दिन असंख्य काल बीत जाने पर भी श्राज कल्याणक दिवस के रूप में महिमा पा रहा है । विद्याधरों की उत्पत्ति भगवान् ऋषभदेव जब सावद्य त्याग रूप श्रभिग्रह लेकर निर्मोह भाव से विचरने लगे, तब नमि और विनमि दो राजकुमार, जो कच्छ एवं महाकच्छ के पुत्र थे, भगवान् की सेवा में उपस्थित हुए। वे भगवान् से प्रार्थना करने लगे"प्रभो ! आपने सबको भोग्य सामग्री दी है, हमें भी दीजिये ।" इस प्रकार तीनों संध्या वे भगवान् के साथ लगे रहे। एक समय भगवान् को वन्दन करने के लिए धरणेन्द्र आया, उस समय भी नमि एवं विनमि ने भगवान् से इसी प्रकार की विनती की। यह देख कर धरणेन्द्र ने उनसे कहा- “मित्रो ! सुनो, भगवान् संगरहित हैं, इनको राग-रोष भी नहीं है, यहां तक कि अपने शरीर पर भी इनका स्नेह नहीं है । अतः इनसे याचना करना ठीक नहीं। मैं भगवान् की भक्ति के लिए तुम्हें, तुम्हारी सेवा निष्फल न हो इसलिए पठन - मात्र से सिद्ध होने वाली ४८००० विद्याएं देता हूँ । इनमें गौरी, गंधारी, रोहिणी और प्रज्ञप्ति ये चार महाविद्याएं हैं । इनको लेकर जाओ और विद्याधर की ऋद्धि से देश एवं नगर बसा कर सुख से विचरो ।" धरणेन्द्र से विद्याएं ग्रहण कर उन्होंने वैसा ही किया । नमि ने वैताढ्य पर्वत की दक्षिण श्रेणी में रथनेउर प्रादि ५० नगर बसाये । उसी तरह विनमि ने भी उत्तर की ओर ६० नगर बसाये । नमि मौर विनमि ने विभिन्न देशों एवं प्रान्तों से सुसभ्य परिवारों को लाकर अपने नगर में बसाया । जो मनुष्य जिस देश से लाये गये थे, उसी नाम से वैताढ्य पर उनके जनपद स्थापित किये गये । 1 इस प्रकार नमि एवं विनमि ने आठ-आठ निकाय विभक्त किये मौर विद्या-बल से देवों के समान मनुष्य देव सम्बन्धी भोगों का उपभोग करते हुए विचरने लगे । मनुष्य होकर भी विद्या-बल की प्रधानता से ये लोग विद्याधर कहाने लगे । और यहीं से विद्याधरों की परम्परा का प्रादुर्भाव हुआ । " १ प्रा० नि० गाथा २४७ २ श्राव० चू० प्र० भा० पृ०१६१-६२ - Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ विहारचर्या] भगवान् ऋषभदेव विहारचर्या श्रमण हो जाने के पश्चात् ऋषभदेव दीर्घकाल तक प्रखंड मौनव्रती होकर तपस्या के साथ एकान्त में निर्मोह भाव से ध्यान करते हुए विचरते रहे। दिगम्बर परम्परा के 'तिलोयपण्णत्ति' नामक ग्रन्थ में दीक्षा ग्रहण करते समय ऋषभदेव द्वारा ६ उपवास का तप अंगीकार किये जाने का उल्लेख है। प्राचार्य जिनसेन के अनुसार प्रभु ऋषभदेव ने दीक्षा ग्रहण करते समय छह मास का' अनशन तप धारण कर रखा था। पर श्वेताम्बर साहित्य में छ? तप से आगे उल्लेख नहीं मिलता, वहाँ बेले की तपस्या के पश्चात् प्रभु के भिक्षार्थ भ्रमण का विवरण मिलता है । श्वेताम्बर परम्परानुसार तपस्या बेले की ही की गई। प्रभू घोर अभिग्रहों को धारण कर अनासक्त भाव से ग्रामानुग्राम भिक्षा के लिये भ्रमण करते, पर भिक्षा एवं उसकी विधि का जन-साधारण को ज्ञान नहीं होने से, उन्हें भिक्षा प्राप्त नहीं होती। साथ के चार हजार श्रमण इस प्रतीक्षा में थे कि भगवान् उनकी सुधबुध लेंगे और व्यवस्था करेंगे, पर दीर्घकाल के बाद भी जब भगवान् कुछ नहीं बोले तो वे सब अनुगामी श्रमरण भूख-प्यास प्रादि परीषहों से संत्रस्त होकर वल्कलधारी तापस हो गये ।' कुलाभिमान व भरत के भय से वे पुनः घर में तो नहीं गये पर कष्टसहिष्णुता और विवेक के प्रभाव में सम्यक साधना से पथच्यूत होकर परिव्राजक बन गये और वन में जाकर वन्य फल-फूलादि खाते हुए अपना जीवन-यापन करने लगे। भगवान् आदिनाथ जो वीतराग थे, लाभालाभ में समचित्त होकर अग्लान भाव से ग्राम, नगर आदि में विचरते रहे। भावुक भक्तजन प्रादिनाथ प्रभु को अपने यहां प्राये देखकर प्रसन्न होते। कोई अपनी सुन्दर कन्या, कोई उत्तम बहुमूल्य वस्त्राभूषण, कोई हस्ती, अश्व, रथ, वाहन, छत्र, सिंहासनादि और कोई फलफूल आदि प्रस्तुत कर उन्हें ग्रहण करने की प्रार्थना करता, किन्त विधिपूर्वक भिक्षा देने का ध्यान किसी को नहीं पाता। भगवान् ऋषभदेव इन सारे उपहारों को अकल्पनीय मानकर बिना ग्रहण किये ही उलटे पैरों खाली हाथ लौट जाते। भगवान् का प्रथम पारगा इस प्रकार भिक्षा के लिये विचरण करते हुए ऋषभदेव को लगभग एक वर्ष से अधिक समय हो गया, फिर भी उनके मन में कोई ग्लानि पैदा नहीं हई । एक दिन भ्रमण करते हुए प्रभु कुरु जनपद में हस्तिनापुर पधारे । वहाँ बाहुबली के पौत्र एवं राजा सोमप्रभ के पुत्र श्रेयांस युवराज थे। उन्होंने रात्रि में स्वप्न देखा- "सुमेरु पर्वत श्यामवर्ण का (कान्तिहीन) होगया है, उसको मैंने अमृत ' षण्मासानशनं धीरः, प्रतिज्ञाय महाधृतिः । योगकाग्र्यनिरुद्धान्त - बहिष्करण विक्रियः । महा. पु. १८ (१ २ जे ते चत्तारि सहस्सा ते भिक्खं प्रलमंता तेणं मारणेण घरं रण काचति भरहस्स य भयेणं, पछावणमतिगता तावसा जाता .."। प्रावश्यक चूणि, पृष्ठ ११२ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् का प्रथम पारणा से सिंचित कर पुनः चमकाया है।'' दूसरी मोर सुबुद्धि श्रेष्ठि को स्वप्न माया कि सूर्य की हजार किरणें जो अपने स्थान से चलित हो रही थीं, श्रेयांस ने उनको पुनः सूर्य में स्थापित कर दिया, इससे वह अधिक चमकने लगा। महाराज सोमप्रभ ने स्वप्न देखा कि शत्रुनों से युद्ध करते हुए किसी बड़े सामन्त को श्रेयांस ने सहायता प्रदान की। और श्रेयांस की सहायता से उसने शत्रु-सैन्य को हटा दिया। प्रातःकाल तीनों मिलकर अपने-अपने स्वप्न पर चिंतन करने लगे, और सब एक ही निष्कर्ष पर पहुंचे कि श्रेयांस कुमार को अवश्य ही कोई विशिष्ट लाभ प्राप्त होने वाला है। उसी दिन पुण्योदय से भगवान् ऋषभदेव विचरते हुए हस्तिनापुर पधारे। बहुत काल के पश्चात् भगवान के दर्शन पाकर नगरजन प्रत्यन्त प्रसन्न हुए। जब श्रेयांसकुमार ने राजमार्ग पर भ्रमण करते हए भगवान् ऋषभदेव को देखा तो उनके दर्शन करते ही श्रेयांस के मन में जिज्ञासा हुई और ऊहापोह करते हुए, चिन्तन करते हुए उन्हें ज्ञानावरण के क्षयोपशम से जातिस्मरण ज्ञान हो गया । पूर्वभव की स्मृति से उन्होंने जाना कि ये प्रथम तीर्थंकर हैं। प्रारम्भ परिग्रह के सम्पूर्ण त्यागी हैं। इन्हें निर्दोष आहार देना चाहिये । इस प्रकार वे सोच ही रहे थे कि भवन में सेवक पुरुषों द्वारा इक्ष-रस के घड़े लाये गये। परम प्रसन्न होकर श्रेयांसकुमार सात-आठ कदम भगवान के सामने गये और प्रदक्षिणापूर्वक भगवान् को वन्दन कर स्वयं इक्ष-रस का घड़ा लेकर आये तथा त्रिकरण शुद्धि से प्रतिलाभ देने की भावना से भगवान के पास माये और बोले - "प्रभो! क्या, खप है?" भगवान् ने अञ्जलिपुट आगे बढ़ाया तो श्रेयांस ने प्रभू की अंजलि में सारा रस उंडेल दिया। भगवान् अछिद्रपारिण थे प्रतः रस की एक बूंद भी नीचे नहीं गिरने पाई । भगवान् ने वैशाख शुक्ला तृतीया को वर्ष-तप का पारणा किया। श्रेयांस को बड़ी प्रसन्नता हुई। उस समय देवों ने पंच-दिव्य की वर्षा की पौर 'अहो दानं, अहो दानं' की ध्वनि से आकाश गूंज उठा । श्रेयांस ने प्रभु को वर्षीतप का पारणा करवा कर महान् पुण्य का संचय किया मोर अशुभ कर्मों की निर्जरा की। उस युग के वे प्रथम भिक्षा दाता हुए। प्रादिनाथ जगत् को सबसे पहले तप का पाठ पढ़ाया तो श्रेयांसकुमार ने भिक्षा-दान की विधि से अनजान मानव-समाज को सर्वप्रथम भिक्षा-दान की विधि बतलाई। प्रभू के पारणे का वैशाख शुक्ला तृतीया का वह दिन अक्षयकरणी के कारण लोक में भाखातीज या अक्षय-तृतीया के नाम से प्रसिद्ध हुमा, जो आज भी सर्वजन-विश्रुत पर्व माना जाता है। 'प्रा. चू० पृ० १६२-६३ मा० चू० पृ० १६२-६३ 3 मा० म० २१७-१८ ४ प्रा० म० गिरि टीका पत्र २१८ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् का प्रथम पारणा] भगवान् ऋषभदेव यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि भगवान् ऋषभदेव ने चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन षष्ठ भक्त अर्थात् बेले की तपस्या के साथ प्रवज्या ग्रहण की और यदि दूसरे वर्ष की वैशाख शुक्ला तृतीया को श्रेयांश कुमार के यहाँ प्रथम पारणा किया तो यह उनकी पूरे एक वर्ष की ही तपस्या न होकर चैत्र कृष्णा अष्टमी से वैशाख शुक्ला तृतीया तक तेरह मास और दश दिन की तपस्या हो गई। ऐसी स्थिति में - "संवच्छरेण भिक्खा लद्धा उसहेण लोगनाहेण" समवायांग सूत्र के इस उल्लेख के अनुसार प्रभू आदिनाथ के प्रथम तप को संवत्सर तप कहा है, उसके साथ संगति किस प्रकार बैठती है ? क्योंकि अक्षय तृतीया के दिन प्रभु का प्रथम पारणक मानने की दशा में भगवान् का प्रथम तप १३ मास और १० दिन का हो जाता है और शास्त्र में प्रभु का प्रथम तप एक संवत्सर का तप माना गया है। वस्ततः यह कोई प्राज का नवीन प्रश्न नहीं। यह एक बहचचित प्रश्न है। अनेक विचारकों की ओर से इस सम्बन्ध में शास्त्रीय पाठों के उद्धरण प्रादि के साथ साथ कतिपय युक्तियां-प्रयुक्तियां समय-समय पर प्रस्तुत की जाती रही हैं । किन्तु वस्तुतः अद्यावधि इस प्रश्न का कोई सर्वसम्मत समुचित हल नहीं निकल पाया है । एक मात्र इस लक्ष्य से कि तथ्य क्या है, इस प्रश्न पर और भी गहराई से विचार करने की आवश्यकता है। इस प्रश्न का समुचित समाधान प्राप्त करने का प्रयास करते समय सर्व प्रथम इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि सूत्रों में अनेक स्थलों पर सूत्र के मूल लक्षण वाली संक्षेपात्मक शैली को अपनाकर काल-गणना करते समय बड़े काल के साथ जहाँ छोटा काल भी सम्मिलित है, वहां प्रायः छोटे काल को छोड़ कर केवल बड़े काल का ही उल्लेख किया गया है। उदाहरण के रूप में देखा जाय तो स्थानांग सूत्र के नवम स्थान में जहाँ भगवान् ऋषभदेव द्वारा धर्म-तीर्थ की स्थापना के समय पर प्रकाश डाला गया है, वहाँ सूत्र के मूल लक्षण के अनुरूप संक्षेप शैली को अपना कर निम्नलिखित उल्लेख किया गया है : "उसभेणं अरहया कोसलिएणं इमीसे अोसप्पिणीए गवहिं सागरोवम कोडाकोडीहि विइक्कतेहिं तित्थे पवत्तिए।" इस सूत्र का सीधा शब्दार्थ किया जाय तो यही होगा कि कौशलिक अहंत् भगवान् ऋषभदेव ने इस अवसर्पिणी काल के नौ कोटाकोटि सागरोपम काल के व्यतीत हो जाने पर धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन किया। __ क्या कोई, शास्त्रों का साधारण से साधारण ज्ञान रखने वाला व्यक्ति भी इस सीधे से अथं को अक्षरश: मानने के लिये तैयार है ? कदापि नहीं। लाख बार समझाने पर भी इस मूत्र का यह अक्षरश: शब्दार्थ किसी के गले नहीं उतरेगा। क्योंकि यह निर्विवाद तथ्य है कि इस सूत्र में जो समय बताया गया है, उस समय से तीन वर्ष और साढ़े पाठ मास पूर्व ही भगवान् ऋषभदेव का Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् का प्रथम पारण निर्वाण हो चुका था, साधु-साध्वियों को मिला कर प्रभु के ६०,००० अन्तेवासी भी सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो चुके थे । इस अवसर्पिणी काल के नो कोटाकोटि सागरोपम व्यतीत हो जाने पर तो प्रभु अनन्त-अव्यय-अव्याबाध-शाश्वत सुखधाम शिवधाम में विराजमान थे। आदि प्रभू तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने वस्तुतः धर्मतीर्थ का प्रवर्तन उस समय किया जब कि इस अवसपिणी काल के नौ कोटाकोटि सागरोपम व्यतीय होने में एक हजार तीन वर्ष, पाठ मास और पन्द्रह दिन कम एक लाख पूर्व का सुदीर्घ समय अवशिष्ट था-बाकी था- शेष था। . ___ इस प्रकार की स्थिति में "लकीर के फकीर" की कहावत को चरितार्थ करते हुए यदि कोई व्यक्ति हठधर्मिता का आश्रय लेकर उपर्युक्त सूत्र का यथावत् अक्षरशः शब्दार्थ किसी विज्ञ से मनवाने का प्रयास करे तो उसका शास्त्रीयता के नाम पर किया गया वह प्रयास शास्त्र की भावना से पूर्णतः प्रतिकूल ही होगा। इसमें कभी कोई दो राय नहीं हो सकती कि इस सूत्र में संक्षेप शैली को अपना कर एक हजार तीन वर्ष और साढ़े आठ मास कम एक लाख पूर्व की अवधि का उल्लेख न करते हए मोटे रूप से ६ कोटाकोटि सागरोपम की अवधि का उल्लेख कर दिया गया है। इसी प्रकार का दूसरा उदाहरण भगवान् महावीर के जीवनकाल का भी है। शास्त्रों में उल्लेख है कि भगवान् महावीर ३० वर्ष गृहस्थावस्था में और ४२ वर्ष तक (छद्मस्थ काल और केवली-काल मिला कर) साधक जीवन में रह कर ७२ वर्ष की आयु पूर्ण कर निर्वाण को प्राप्त हुए। स्थानांग सूत्र में भगवान् महावीर के छद्मस्थ काल के सम्बन्ध में उल्लेख है कि वे बारह वर्ष और तेरह पक्ष अर्थात् साढ़े बारह वर्ष और १५ दिन तक छद्मस्थावस्था में रहे।' आचारांग सूत्र में प्रभु के छद्मस्थ काल को संक्षेप शैली में उल्लेख करते हुए बारह वर्ष का ही बताया गया है। इसी प्रकार प्रभु महावीर का केवली-पर्याय ३० वर्ष का माना जाता है परन्तु उनके ४२ वर्ष के संयमित जीवन में से साढ़े बारह वर्ष और १५ दिन का छद्मस्थ काल का समय निकाल देने पर वस्तुतः उनके केवल ज्ञान का काल २६ वर्ष, ५ मास और १५ दिन का ही होता है। ठीक इसी प्रकार दीक्षा के समय भगवान ऋषभदेव द्वारा ग्रहण किया गया बेले का तप भिक्षा न मिलने के कारण १२ मास से भी अधिक समय तक चलता रहा और जब श्रेयांशकुमार से प्रभु को भिक्षा मिली तो शास्त्र में उसी ' दुवालस संवच्छराइं तेरस पक्ख छउमत्थ........ (स्थानांग सूत्र, स्था० ६, उ० ३, सूत्र ६६३, प्रमोलकऋषि जी म. सा० द्वारा अनूदित, पृ० ८१६) । .."बारस वासाई वोसट्ठकाए चियत्त देहे जे केई उवसग्गा समुप्पज्जति"ते सव्वे उपसग्गे, समुप्पण्णे समाणे सम्मं सहिस्सामि, खमिस्सामि, अहियासिस्सामि ॥ (प्राचारांग सूत्र, श्रु० २, अ० २३) Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् का प्रथम पारणा] भगवान् ऋषभदेव सूत्र-लक्षणानुसारिणी संक्षेप-शैली में उस घटना का उल्लेख - "संवच्छरेण भिक्खा लद्धा उसहेण लोगनाहेग" - इस रूप में किया। तो "संवच्छरेण भिक्खा लद्धा" - यह वस्तुतः व्यवहार-वचन है । व्यवहार-वचन में एक वर्ष से ऊपर के दिन अल्प होने के कारण, गरगना में उनका उल्लेख न कर मोटे तौर पर संवत्सर तप कह दिया गया है । जैसा कि ऊपर दो शास्त्रीय उद्धरणों के साथ बताया गया है कि शास्त्र में इस प्रकार के कतिपय उल्लेख मिलते हैं, जिनमें काल की न्यूनाधिकता होने पर भी व्यवहार दृष्टि से बाधा नहीं मानी जाती। दीक्षाकाल से भिक्षाकाल पर्यन्त १३ मास और १० दिन तक प्रभु निर्जल और निराहार रहे, उस समय को शास्त्र में व्यवहार भाषा में 'संवच्छर' कहा गया है। कालान्तर में इसे व्यवहार भाषा में संभव है वर्षी-तप के नाम से अभिहित किया जाने लगा हो। शास्त्र में तो "संवच्छरेग भिक्खा लद्धा उसहेण लोगनाहेण" - इस उल्लेख के अतिरिक्त किसी मास अथवा तिथि का उल्लेख नहीं मिलता। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में भगवान् ऋषभदेव का सार रूप में जीवन-वृत्त दिया हुआ है, पर वहाँ दीक्षा के समय प्रभू के बेले के तप के अतिरिक्त कितने समय तक भिक्षा नहीं मिली, अन्त में किस दिन, किस मास में भिक्षा मिली एतद्विषयक कोई उल्लेख नहीं है। _ हां, श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के साहित्य में भगवान् ऋषभदेव को प्रथम भिक्षा मिलने के सम्बन्ध में जो उल्लेख हैं, उनसे यह स्पष्टतः प्रकट होता है कि भगवान ऋषभदेव को दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् एक वर्ष से भी अधिक समय बीत जाने पर प्रथम भिक्षा मिली। जिन ग्रन्थों में भगवान् ऋषभदेव के प्रथम पारणक के सम्बन्ध में उल्लेख उपलब्ध होते हैं, उनमें से कतिपय में प्रभू के पारणक की तिथि का कोई उल्लेख नहीं है किन्तु तीन ग्रन्थों में स्पष्ट उल्लेख है कि प्रभू आदिनाथ का प्रथम पारणक अक्षय तृतीया के दिन हुआ। जिन ग्रन्थों में पारणक की तिथि का उल्लेख नहीं है, वे हैं - वसुदेवहिण्डी तथा हरिवंशपुरागा और जिन ग्रन्थों में अक्षय तृतीया के दिन प्रभु का प्रथम पारणक होने का उल्लेख है, वे हैं - खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली, त्रिपष्टिशलाकापुरुष चरित्र और अपभ्रंश भाषा के महाकवि पुष्पदन्त का महापुराण । विक्रम की सातवीं शताब्दी के जिनभद्रगरिण क्षमाश्रमण के समकालीन संधदामगगि ने वसुदेव हिण्डी में भगवान् ऋषभदेव के प्रथम पारणक का उल्लेख निम्नलिखित रूप में किया है :___"भयवं पियामहो निराहारो परमधिति बल सायरो सयंभुसागरो इव थिमियो प्रणाउलो संवच्छरं विहरइ, पत्तो य हत्थिरणारं । तत्थ य बाहुबलिस्स सुप्रो सोमप्पहो, तस्स य पुत्तो सेज्जंसो।" Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् का प्रथम पारणा ""तो सो पासायग्गे आगच्छमाणं पियामहं पस्समाणो चिंतेइ-कत्थ मण्णे मए एरिसी आगिई दिठ्ठपुव्व ? त्ति, मग्गणं करेमाणस तदावरण खग्रोवसमेण जाइसरणं जायं ।""ततो परमहरिसियो पडिलाहेइ सामि खोयरसेरणं । भयवं अच्छिद्दपारणी पडिगाहेइ। ततो देवेहि मुक्का पुप्फवुट्ठी, निवडिया वसुधारा, दुंदुहिनो समायामो, चेलुक्खेवो को, अहो दारणं ति आगासे सद्दो करो।" ___ इस गद्य का सार यह है कि प्रभु संवत्सर तक निराहार विचरण करते रहे और हस्तिनापुर आये । वहां उन्हें देखते ही श्रेयांसकुमार को ईहापोह करने पर जातिस्मरण ज्ञान हो गया और उसने भ० ऋषभदेव को इक्षुरस से पारणा करवाया । इस गद्य में संघदास गरिण ने पारणक की तिथि का उल्लेख नहीं किया है। “संवच्छरं विहरई" वर्ष भर तक विचरण करते रहे । “पत्तो य हत्यिरणारं" दूसरे दिन ही आ गये या कुछ दिनों पश्चात् ? इस शंका के लिये यहाँ अवकाश रख दिया है। एक संवत्सर का तप पूर्ण होते ही भ० ऋषभदेव हस्तिनापुर में पहुंचते तो निश्चित रूप से संघदास गरिण "पत्तो य बिइये दिवसे हत्थिरणारं" इस प्रकार स्पष्ट लिखते, पर ऐसा नहीं लिखने से शंका के लिये थोड़ा अवकाश रह ही गया है। यदि कतिपय दिवसानन्तर पहुँचे होते तो उस दशा में "पत्तो य क इवय दिवसारणंतरं हत्थिरणाउरं" - इस प्रकार का भी उल्लेख कर सकते थे। दिगम्बर परम्परा के मान्य ग्रन्थ हरिवंश पुराण का एतद्विषयक उल्लेख इस प्रकार है : षण्मासानशनस्यान्ते, संहृतप्रतिमास्थितिः । प्रतस्थे पदविग्यासः, क्षिति पल्लवयन्निव ।।१४२॥ तथा यथागमं नाथः, षण्मासानविषण्णधीः । प्रजाभिः पूज्यमानः सन्, विजहार महिं क्रमात् ।।१५६।। सम्प्राप्तोऽथ सदादानरिभरिभपुरं विभुः । दानप्रवृत्तिरत्रेति, सूचयद्भिरिवाचितम् ।।१५७।। स श्रेयानीक्षमाणस्तं, निमेषरहितेक्षणः । रूपमीदृक्षमद्राक्षं, क्वचित् प्रागित्यधान्मनः ।।१८०।। दीप्रेणाप्युपशान्तेन, स तद्रूपेण बोधितः । दशात्मेशभवान् बुद्धवा, पादावाश्रित्य मूच्छितः ।।१८१।। श्रीमतीवज्र जंघाभ्यां दनं दानं पुरा यथा । चारगाभ्यां स्वपुत्राभ्यां, संस्मृत्य जिनदर्शनात् ।।१८३।। भगवन् तिष्ठ तिष्ठेति, चोक्त्वा नीतो गृहान्तरे । उच्चः स प्रासने स्थाप्य, धोततपादपंकजः ।।१८४।। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् का प्रथम पारणा] भगवान् ऋषभदेव ५३ दित्सुरिक्षुरसापूर्ण कुम्भमुधृत्य सोऽब्रवीत् ।।१८६।। मुक्त दायकदोषश्च, गृहाण प्रासुकं रसम् ।।१८८।। वृत्तवृद्ध्यै विशुद्धात्मा, पाणिपात्रेण पारणम् । समपादस्थितश्चक्रे, दर्शयन् क्रियया विधिम् ।।१८६॥ अहो दानमहो दानमहो पात्रमहो क्रमः । साधु साध्विति खे नादः, प्रादुरासीद्दिवौकसाम् ।।१६१।।' सारांशतः - छः मास का तप पूर्ण होने पर ध्यान का उपसंहार कर भ० ऋषभदेव भिक्षा हेतु भ्रमण करने के लिये प्रस्थित हुए। अपने घर आये हुए प्रभु को देख कर लोग निनिमेष दृष्टि से उनकी ओर देखते ही रह जाते, उनके हर्ष का पारावार नहीं रहता। किन्तु उस समय के लोग भिक्षादान की विधि से नितान्त अनभिज्ञ थे, अतः प्रभू को समय पर भिक्षार्थ भ्रमण करते रहने पर भी कहीं विशुद्ध आहार-पानीय नहीं मिला। इस प्रकार ६ मास तक भ० ऋषभदेव निराहार ही विभिन्न ग्राम नगरादि में भ्रमण करते रहे। तदनन्तर वे हस्तिनापुर पधारे । श्रेयांसकुमार ने उन्हें देखा । श्रेयांसकुमार को जातिस्मरण ज्ञान हो गया और पूर्वभव की स्मृति से दान देने की विधि को जान कर उसने प्रभु को इक्षुरस से पारण करवाया । अहो दान ! अहो दाता ! अहो पात्र ! के निर्घोषों, देवदुंदुभियों के निनाद और साधु-साधु ! के साधुवादों से नभोमण्डल प्रापूरित हो गया । देवों ने पंच-दिव्यों की वृष्टि की। ___ इन श्लोकों में "षण्मासानविषण्णधी:... विजहार महि क्रमात्" के पश्चात् 'सम्प्राप्तोऽथ""इभपुरि विभुः ।" यह पदविन्यास मननीय है । ६ मास के तप के पूर्ण होने पर ६ मास तक निराहार विचरण करते रहे। इस वाक्य के पश्चात् "अथ" शब्द के प्रयोग से यही अर्थ प्रकट होता है कि ६ मास तक निराहार विचरण करने के पश्चात् विहार क्रम से भ० ऋषभदेव हस्तिनापुर पधारे । पर कितने दिन पश्चात् पधारे, यह इससे स्पष्ट नहीं होता। पारणक की तिथि का उल्लेख न कर एक प्रकार से हरिवंशपुराणकार ने भी इस प्रश्न को पहेली के रूप में ही रख दिया है। जिन तीन प्राचीन ग्रन्थों में इस प्रकार का स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि भ० ऋषभदेव का पारणा वैशाख शुक्ला तृतीया के दिन अर्थात् अक्षय तृतीया को हुआ, उनमें से पहला उल्लेख है खरतरगच्छ वहद्गुर्वावली का। उसमें लगभग ७०० वर्ष पूर्व की एक घटना का उल्लेख करते हुए लिखा गया है :श्री पूज्याः श्री जावालिपुरे समायाताः । तत्र च श्री जिनप्रबोध सूरिभिः........ प्रवरगभीरिमाधरीकृतवार्घयः श्री जिन-चन्द्रसूरयः सं० १३४१ श्री युगादिदेव'हरिवंशपुराण, सर्ग ६ - Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् का प्रथम पारणा पारणक-पवित्रितायां वैशाखशुक्लाक्षय-तृतीयायां स्वपदे महाविस्तरेण स्थापिताः ।। इस उल्लेख से यह सिद्ध हो जाता है कि आज से लगभग ७०० वर्ष पूर्व जैनसंघ में यह मान्यता न केवल प्रचलित ही थी अपितु लोकप्रिय और लोकप्रसिद्ध भी थी कि भगवान् ऋषभदेव का प्रथम पारणक वैशाख शुक्ला अक्षय तृतीया के दिन हुआ था। "भगवान ऋषभदेव का प्रथम पारएक अक्षय तृतीया के दिन हुमा" - इस प्रकार का पूर्णतः स्पष्ट दूसरा उल्लेख है आचार्य हेमचन्द्रसूरि द्वारा प्रणीत "त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र" का जो खरतरगच्छ वृहद्गुर्वावली के एतद्विषयक उपयुक्त उल्लेख से लगभग १२० वर्ष और आज से ८१२ वर्ष पूर्व का है। वह उल्लेख इस प्रकार है : पार्यांनार्येषु मौनेन, विहरन् भगवानपि । संवत्सरं निराहारश्चिन्तयामासिवानिदम् ॥२३८।। प्रदीपा इव तलेन, पादपा इव वारिणा । पाहारेणेव वर्तन्ते, शरीराणि शरीरिणाम् ॥२३६।। स्वामी मनसि कृत्यैवं, भिक्षार्थं चलितस्ततः । पुरं गजपुरं प्राप, पुरमण्डलमण्डनम् ।।२४३॥ दृष्ट्वा स्वामिनमायान्तं, युवराजोऽपि तत्क्षणम् । अघावत् पादचारेण, पत्तीनप्यतिलंघयन् ॥२७७।। गृहांगणजुषो भर्तु लुंठित्वा पादपंकजे । श्रेयांसोऽमार्जयत् केशभ्रमरभ्रमकारिभिः ॥२८०॥ ईदृशं क्व मया दृष्टं, लिंगमित्यभिचिन्तयन् । विवेकशाखिनो बीजं, जातिस्मरणमाप सः ॥२८३३॥ ततोविज्ञातनिर्दोषभिक्षादानविधिः स तु । गृह्यतां कल्पनीयोऽयं, रस इत्यवदत् विभुम् ।।२६१।। प्रभुरप्यंजलीकृत्य, पाणिपात्रमधारयत् । उत्क्षिप्योत्क्षिप्य सोऽपोक्षुरसकुम्भानलोठयत् ।। राधशुक्ल तृतीयायां, दानमासीत्तदक्षयम् । पक्षियतृतीयेति, ततोऽद्यापि प्रवर्तते ॥३०१।। वसुदेवहिण्डी और हरिवंशपुराण के रचनाकारों ने प्रभु ऋषभदेव के प्रथम पारणक की तिथि के सम्बन्ध में ईहापोह का अवकाश रख कर, उसे एक प्रनबूझ पहेली बना कर छोड़ दिया था, उस पर प्राचार्य हेमचन्द्र ने पूर्ण रूपेण स्पष्ट प्रकाश डाल कर उस अनबूझ पहेली का समाधान कर दिया है। . खरतरगच्छ वृहद्गुर्वावली, (सिंघी जैनशास्त्र शिक्षापीठ, भारतीय विद्याभवन, बम्बई) २.त्रिषष्टिशलाकापुरुष परित्रम्, पर्व १, सगं ३ - Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् का प्रथम पारणा] भगवान् ऋषभदेव उपर्यत श्लोकों में प्राचार्य हेमचन्द्र ने स्पष्टतः लिखा है कि संवत्सर पर्यन्त भ० ऋषभदेव मौन धारण किये हुए निराहार ही विभिन्न पार्य तथा अनार्य क्षेत्रों में विचरण करते रहे। तदनन्तर उन्होंने विचार किया कि जिस प्रकार दीपकों का अस्तित्व तेल पर और वृक्षों का अस्तित्व पानी पर निर्भर करता है, उसी प्रकार देहधारियों के शरीर भी आहार पर ही निर्भर करते हैं । यह विचार कर वे पुनः भिक्षार्थ प्रस्थित हुए और विभिन्न स्थलों में विचरण करते हुए अन्ततोगत्वा हस्तिनापुर पधारे। हस्तिनापुर में भी वे भिक्षार्थ घर-घर भ्रमण करने लगे। अपने नगर में प्रभु का आगमन सुनते ही पुरवासी अपने सभी कार्यों को छोड़ प्रभू दर्शन के लिये उमड़ पड़े । हर्षविभोर हस्तिनापूरनिवासी प्रभूचरणों पर लोटपोट हो उन्हें अपने-अपने घर को पवित्र करने के लिये प्रार्थना करने लगे। भ० ऋषभदेव भिक्षार्थ जिस-जिस घर में प्रवेश करते, वहीं कोई गहस्वामी उन्हें स्नान-मज्जन-विलेपन कर सिंहासन पर विराजमान होने की प्रार्थना करता, कोई उनके समक्ष रत्नाभरणालंकार प्रस्तुत करता, कोई गज, रथ, अश्व प्रादि प्रस्तुत कर, उन पर बैठने की अनुनय-विनयपूर्वक प्रार्थना करता। सभी गृहस्वामियों ने अपने-अपने घर की अनमोल से अनमोल महार्य वस्तुएँ तो प्रभु के समक्ष प्रस्तुत कों किन्तु आहार प्रदान करने की विधि से अनभिज्ञ उन लोगों में से किसी ने भी प्रभु के समक्ष विशुद्ध आहार प्रस्तुत नहीं किया। इस प्रकार अनुक्रमशः प्रत्येक घर से विशुद्ध आहार न मिलने के कारण प्रभु निराहार ही लौटते रहे । ___ अपने प्राणाधिकवल्लभ आराध्य हृदयसम्राट् प्रादिनाथ को अपने घरों से बिना कुछ लिये लौटते देख नगरनिवासी आग्रहपूर्ण करुण स्वर में प्रभु से प्रार्थना करने लगे- 'इस प्रकार निराश न करो नाथ, कुछ न कुछ तो हमारी भेंट स्वीकार करो नाथ ! मुख से तो बोलो हमारे प्राणदाता बाबा आदिनाथ !" इस प्रकार करुण प्रार्थना करता हा जनसमुद्र प्रभु के चारों ओर उत्तरोत्तर उमड़ता ही जा रहा था और मौन धारण किये हुए शान्त, दान्त भ० ऋषभदेव एक के पश्चात् दूसरे घर में प्रवेश करते एवं पुनः लौटते हुए भागे की ओर बढ़ रहे थे। राजप्रासाद के पास सुविशाल जनसमूह का कलकल जनरव सुन कर हस्तिनापुराधीश ने दौवारिक से कारण ज्ञात करने को कहा । प्रभु का आगमन सुन महाराज सोमप्रभ और युवराज श्रेयांसकुमार हर्षविभोर हो त्वरित गति से तत्काल प्रभु के सम्मुख पहुँचे । पादक्षिणा-प्रदक्षिणापूर्वक वन्दन-नमन और चरणों में लुण्ठन के पश्चात् हाथ जोड़े वे दोनों पिता पुत्र आदिनाथ की ओर निनिमेष दृष्टि से देखते ही रह गये। गहन अन्तस्तल में छुपी स्मृति से श्रेयांसकुमार को आभास हुआ कि उन्होंने प्रभु जैसा ही वेष पहले कभी कहीं न कहीं देखा है । उत्कट चिन्तन और कमों के क्षयोपशम से श्रेयांसकुमार को तत्काल जातिस्मरणज्ञान हो गया। जातिस्मरण-ज्ञान के प्रभाव से उन्हें प्रभु के वज्रनाभादि भवों के साथ अपने पूर्वभवों का और मुनि को निर्दोष आहार प्रदान करने की विधि का स्मरण हो आया। श्रेयांस ने तत्काल निर्दोष-विशुद्ध इक्षुरस का घड़ा उठाया Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् का प्रथम पारणा और प्रभु से निवेदन किया, "हे आदि प्रभो! आदि तीर्थेश्वर ! जन्म-जन्म के आपके इस दास के हाथ से यह निर्दोष कल्पनीय इक्षुरस ग्रहण कर इसे कृतकृत्य कीजिये।" प्रभु ने करद्वयपुटकमयी अंजलि आगे की। श्रेयांस ने उत्कट श्रद्धा-भक्ति एवं भावनापूर्वक इक्षुरस प्रभु की अंजलि में उंडेला । इस प्रकार भ० ऋषभदेव ने बाहुबली के पौत्र इक्ष्वाकु कुल प्रदीप श्रेयांसकुमार के हाथों अपने प्रथम तप का पारण किया। देवों ने गगनमण्डल से पंच दिव्यों की वृष्टि की। अहो दानम्, अहो दानम् ! के निर्घोषों, जयघोषों और दिव्य दुन्दुभि-निनादों से गगन गूंज उठा। दशों दिशाओं में हर्ष की लहरें सी व्याप्त हो गई। राध-शुक्ला अर्थात् वैशाख शुक्ला तृतीया के दिन युवराज श्रेयांस ने भगवान ऋषभदेव को प्रथम पारणक में इक्षरस का यह अक्षय दान दिया। इसी कारण वैशाख शुक्ला तृतीया लोक में उसी दिन से अक्षय तृतीया के नाम से प्रसिद्ध हुई और वह अक्षय तृतीया का पर्व आज भी लोक में प्रचलित है। - यह है आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि द्वारा विरचित त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र का उल्लेख जो पिछली आठ शताब्दियों से भी अधिक समय से लोकप्रिय रहा है। प्राचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि के समय के सम्बन्ध में अधिक कुछ कहने-लिखने की आवश्यकता नहीं, इतिहास प्रसिद्ध ये श्लोक ही पर्याप्त होंगे : शर-वेदेश्वरे (११४५) वर्षे, कार्तिके पूणिमानिशि । जन्माभवत् प्रभो-व्योम-बाण-शम्भो (११५०) व्रतं तथा ।।८५०।। रस-षटकेश्वरे (११६६) सूरि-प्रतिष्ठा समजायत । नन्द-द्वय-रवी (१२२६) वर्षेऽवसानममवत् प्रभोः ।।८५१।।' "प्राचार्य हेमचन्द्रसूरिने महान् ग्रन्थ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र की रचना अपनी आयु के अन्तिम वर्षों में की होगी"-- डा० हर्मन जेकोबी के इस अभिमत के अनुसार मोटे तौर पर अनुमान किया जा सकता है कि इस वृहदाकार ग्रन्थ के प्रथम पर्व की रचना उन्होंने वि० सं० १२१० के आसपास किसी समय में की होगी। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि आज से लगभग सवा आठ सौ वर्ष पूर्व जनसंघ में इस प्रकार की मान्यता रूढ़ और लोकप्रिय थी कि भगवान् ऋषभदेव का प्रथम पारणक अक्षय तृतीया के दिन हया था। यहाँ यह स्मरणीय है कि प्राचार्य हेमचन्द्र ने भ० ऋषभदेव की दीक्षा तिथि का उल्लेख करते हुए स्पष्टतः लिखा है कि म० ऋषभदेव ने चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन चन्द्र का उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के साथ योग होने पर अपराह्न काल में श्रामण्य की दीक्षा ग्रहण की। यथा : तदा च चत्रबहुलाष्टम्यां चन्द्रमसि श्रिते। नक्षत्रमुत्तराषाढामह्रो भागेऽथ पश्चिमे ।।६।। ' प्रभावकारित्र Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ भगवान् का प्रथम पारणा] भगवान् ऋषभदेव एतद्विषयक तीसरा उल्लेख आचार्य हेमचन्द्र के त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र के उल्लेख से लगभग २०० वर्ष और आज से १०२० वर्ष पूर्व का है । वह उल्लेख है अपभ्रंश भाषा के महाकवि पुष्पदन्त द्वारा प्रणीत दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ महापुराण का, जो इस प्रकार है :हेला : ता दुंदुहि रवेण भरियं दिसावसारणं । भरिणया सुरवरेहि भो साह साह दाणं ।।१।। पंचवण्णमाणिक्कमिसिट्ठी, घरप्रंगणि वसुहार वरिट्ठी। णं दीसइ ससिरविबिंबच्छिहि, कंठभट्ट कंठिय पहलच्छिहि । मोहबद्धरणवपेम्महिरी विव, सग्ग सरोयह रणालसिरी विव । रयणसमुज्जलवरगयपंति व, दाणमहातरुहलसंपत्ति व । सेयंसह घणएण णिजिय, उक्कहिं उडमाला इव पंजिय। पूरियसंवच्छर उववासे, अक्खयदाणु भगिउँ परमेसें। तहु दिवसहु अत्थेरण समायउ, अक्खयतइय गाउ संजायउ । घरु जायवि भरहें अहिणंदिउ, पढ़मु दाणतित्थंकरु वंदिउ । ४ एम. एडस आफटर दिस लाइन M. adds after this line :- (अर्थात एम. नाम की प्रति में इस पंक्ति के आगे यह गाथा और लिखी हुई है : अहियं पक्ख तिषण सविसेसें, किंचूणे दिण कहिय जिणेसें । भोयरणवित्ती लहीय तमणासे, दाणतित्थु घोसिउ देवीसें ।' __महाकवि पुष्पदन्त ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि ज्यों ही श्रेयांसकुमार ने अपने राजप्रासाद में भगवान ऋषभदेव को इक्षरस से पारणा करवाया त्यों ही दुन्दुभियों के घोष से दशों दिशाएँ पूरित हो गईं। देवों ने अहो दानम्, अहो दानम् एवं साधु-साधु के निर्घोष पुनः पुनः किये। श्रेयांस के प्रासाद के प्रांगण में दिव्य वसुधारा की ऐसी प्रबल वष्टि हई कि चारों ओर रत्नों की विशाल राशि दृष्टिगोचर होने लगी। प्रभु का संवत्सर तप पूर्ण हुया और कुछ दिन कम साढ़ा तेरह मास के पश्चात् भोजनवृत्ति प्राप्त होने पर भगवान् ने प्रथम तप का पारण किया। इस दान को अक्षयदान की संज्ञा दी गई। उसी दिन से प्रभू के पारणक के उस दिन का नाम अक्षय तृतीया प्रचलित हुआ। भरत चक्रवर्ती ने श्रेयांसकुमार के घर जाकर उनका अभिनन्दन एवं सम्मान करते हुए कहा, "वत्स ! तुम इस अवसपिणीकाल के दानतीर्थ के प्रथम संस्थापक हो, अतः तुम्हें प्रणाम है।" पुष्पदन्तप्रणीत महापुराण के इस उल्लेख से यह सिद्ध होता है कि जैनसंघ में यह मान्यता प्राचीन काल से चली आ रही है कि भगवान् ऋषभदेव का प्रथम पारणक अक्षय तृतीया के दिन हुआ । जहाँ तक महापुराण के रचना' पुष्पदन्तप्रणीत "महापुराण के अादि पुराण की रिसहकेवलणाणुत्पत्ती नामक नवम संधि, पृ० १४८-१४६ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् का प्रथम पारणा काल का प्रश्न है, यह उस ग्रन्थ की प्रशस्ति से ही प्रकट है कि महाकवि पुष्पदन्त ने सिद्धार्थ नामक शक संवत् ८८१, तदनुसार विक्रम सं० १०१६ में महापुराण की रचना प्रारम्भ की और क्रोधन शक संवत् ८८७ तदनुसार विक्रम सं० १०२२ में इस रचना को पूर्ण किया। महाकवि पुष्पदन्त मान्यखेट के राष्ट्रकुटवंशीय राजा कृष्णराज तृतीय के मन्त्री भरत के आश्रित कवि थे। इतिहास में कृष्णराज तृतीय का राज्यकाल वि० सं० ६६६ से १०२५ तक माना गया है। कृष्णराज तृतीय की मृत्यु के पश्चात् उसका छोटा भाई खोट्टिगदेव मान्यखेट के राजसिंहासन पर बैठा । वि० सं० १०२६ में मालवराज धाराधिपति हर्षदेव ने मान्यखेट पर आक्रमण कर उसे लटा, नष्ट किया और इस प्रकार मान्यखेट का राज्य राष्ट्रकूटवंशीय राजाओं के हाथ से निकल गया। इस ऐतिहासिक घटना का उल्लेख स्वयं महाकवि पुष्पदन्त' ने महापुराण में स्थान-स्थान पर दिये प्रशस्ति के कतिपय स्फुट श्लोकों में से एक श्लोक में तथा उनके समकालीन विद्वान् धनपाल ने अपनी “पाइयलच्छीनाममाला"२ में किया है। परस्पर पूर्णतः परिपुष्ट इन ऐतिहासिक तथ्यों से यह सिद्ध होता है कि आज से १०२० वर्ष पहले, जिस समय महाकवि पुष्पदन्त ने महापुराण की रचना प्रारम्भ की, उस समय जैनसंघ में यह मान्यता व्यापक रूप से लोकप्रिय, रूढ़ एवं प्रचलित थी कि भ० ऋषभदेव का प्रथम पारणक वैशाख शुक्ला तृतीया के दिन हुआ था और युगादि के वर्गविहीन सम्पूर्ण मानव समाज ने अपने सार्वभौम लोकनायक, मानव संस्कृति के संस्थापक एवं अपने अनन्य उपकारी आदि देव के पारणक के दिन को अक्षय तृतीया के पावन पर्व के रूप में मनाना युगादि में ही प्रारम्भ कर दिया था। १ दीनानाथघनं बहुजनं प्रोत्फुल्लवल्लीवनं, मान्याखेटपुरं पुरंदरपुरीलीलाहरं सुन्दरम् । धारानाथनरेन्द्रकोपशिखिना दग्धं विदग्धप्रियं, क्वेदानी वसतिं करिष्यति पुनः श्रीपुष्पदन्तः कविः ।। पूना और करंजा की प्रतियों में ५०वीं संधि और जयपुर की हस्तलिखित प्रति की ५२वों संधि में उल्लिखित - देखिये : - महापुराण का इन्ट्रोडक्शन, पी० एल० वैद्य द्वारा प्रस्तुत, पृ० २५ २ विक्कमकालस्स गए, अउणत्तीसुत्तरे सहस्संमि (वि० सं० १०२६) मालवनरिंदधाडीए, लडिये मन्नखेडंमि। धारा नयरीए परिठिएण मग्गे ठियाए अणवज्जे, कज्जे करिणट्ठ बहिणीए, सुंदरी नामधिज्जाए। कइणो अंध जण किंवा कुसल त्ति पयाणमंतिया वण्णा, (धरणवाल-धनपाल) नामम्मि जस्स कमसो, तेणेसा विरइया देसी ।। -पाइयलच्छीनाममाला Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् का प्रथम पारणा ] भगवान् ऋभषदेव ५६ भ० ऋषभदेव के प्रथम तप के सम्बन्ध में यह तथ्य सदा ध्यान में रखने योग्य है कि प्रभु ने दीक्षा ग्रहण करते समय जो तप अंगीकार किया था, वह श्वेताम्बर परम्परा की मान्यतानुसार बेले का और दिगम्बर परम्परा की मान्यतानुसार ६ मास का तप था, न कि संवत्सर तप अर्थात् एक वर्ष अथवा उससे अधिक का । उस समय के लोग साधुओं को आहार प्रदान करने की विधि से अनभिज्ञ थे अतः प्रभु का वह स्वतः प्रचीर्ण तप उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया और एक वर्ष से भी अधिक अवधि व्यतीत हो जाने के पश्चात् प्रथम तप का पारण हुआ । अधिकतम तप के सम्बन्ध में, दोनों परम्पराओं की क्रमशः बारह . मास और ६ मास के उत्कृष्ट तप की जो सीमाएं थीं, उन सीमाओं को प्रभु ऋषभदेव का प्रथम तप परिस्थितिवशात् लांघ गया था । जिस प्रकार दिगम्बर परम्परा में तप की सीमा ६ मास की ही मानी गई है पर प्रभु आदिनाथ का प्रथम तप तत्कालीन परिस्थितियों के कारण उस सीमा का अतिक्रमण कर गया, उसी प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में तप की जो उत्कृष्टतम सीमा १२ मास मानी गई है, उस सीमा को उस समय की परिस्थितियों के कारण आदि प्रभु का प्रथम तप लांब गया । वस्तुतः देखा जाय तो मानवता पर भगवान् ऋषभदेव के असीम महान् उपकार हैं। प्रकृति की सुखद गोद में पले और अपने जीवन की प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति के लिये केवल प्रकृति पर निर्भर करने वाले प्रकृतिपुत्र योगलिक - मानव समाज के सिर पर से जब प्रकृति ने अपना हाथ उठा लिया, उस समय आदि लोकनायक ऋषभदेव ने उन प्रकृतिपुत्रों पर अपना वरद हस्त रखा । जीवनयापन की कला से नितान्त अनभिज्ञ उन लोगों को सुखी और सम्पन्न सांसारिक जीवनयापन के लिये परमावश्यक असि, मसि एवं कृषि कर्मों और सभी प्रकार की कलाओं का ज्ञान देकर उन्होंने प्रकृतिपुत्रों को स्वावलम्बी प्रात्मनिर्भर पौरुषपुत्र बनाया । परावलम्बिनी मानवता को भौतिक क्षेत्र में स्वावलम्बिनी बनाने के पश्चात् उन्होंने जन्म-जरा-मृत्यु के दुःखों से सदा-सर्वदा के लिये छुटकारा दिलाने वाले सत्पथ को प्रकट करने हेतु उत्कट साधना की । साधना द्वारा कैवल्योपलब्धि के अनन्तर उन्होंने प्राणीमात्र के कल्याण के लिये भवार्णव. से पार उतारने वाले मुक्तिसेतु धर्मतीर्थ की प्रवर्तमान अवसर्पिणीकाल में सर्वप्रथम स्थापना की । भ० ऋषभदेव द्वारा स्थापित किये गये धर्मतीर्थ की शरण ग्रहरण कर अनादिकाल से जन्म-मरण की विकराल चक्की में पिसते आ रहे अनेकानेक भव्य प्राणियों ने जन्म-मरण के बीजभूत आठों कर्मों को क्षय कर शाश्वत सुखधाम अजरामर पद प्राप्त किया। भ० ऋषभदेव ने एक ऐसी सुखद- सुन्दर मानव संस्कृति का सूत्रपात किया, जो सहअस्तित्व, विश्वबन्धुत्व आदि उच्चकोटि के उत्तमोत्तम मानवीय गुणों से प्रोतप्रोत और प्राणीमात्र के लिये, इह लोक एवं पर लोक, दोनों ही लोकों में कल्याणकारिणी थी । मानव समाज अपने हृदयसम्राट महाराजा अथवा लोकनायक ऋषभदेव द्वारा ये + Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ भगवान् का प्रथम पारणा गये कर्मक्षेत्र के पथ पर आरूढ़ हो जिस प्रकार सुख-समृद्धि प्रतिष्ठा और वैभव के सर्वोच्च सिंहासन पर आसीन हुआ, उसी प्रकार कैवल्योपलब्धि के अनन्तर भावतीर्थंकर बने अपने धर्मनायक भगवान् ऋषभदेव द्वारा स्थापित किये गये धर्मपथ पर प्रारूढ़ हो आध्यात्मिक क्षेत्र में भी उन्नति के उच्चतम आसन पर अधिष्ठित हुआ । भगवान् ऋषभदेव द्वारा मानवता के प्रति किये गये इन असीम अनुपम उपकारों से उपकृत उस समय की वर्गविहीन मानवता के मानवमात्र ने भगवान् ऋषभदेव को अपना सार्वभौम लोकनायक, सार्वभौम धर्मनायक, त्राता, धाता, भाग्यविधाता और भगवान् माना। सभी धर्मों के प्राचीन धर्मग्रन्थों में भगवान् ऋषभदेव का वही सार्वभौम स्थान है, जो जैन धर्मग्रन्थों में है । ऋग्वेद, एवं - अथर्ववेद में ऋषभ का गुणगान है । श्रीमद्भागवत, शिवपुराण, कूर्मपुराण, ब्रह्माण्ड पुराण आदि वैष्णव परम्परा के पुराण नाभिनन्दन ऋषभदेव की यशोगाथाओं से भरे हैं। पुराणों में उन्हें भगवान् का आठवां अवतार माना गया है । मनुस्मृति में उनका यशोगान है । बौद्ध ग्रन्थ "प्रार्य मंजुश्री " में उनकी यशोगाथा है | महाकवि सूरदास ने अपने भक्तिरस से ओतप्रोत ग्रन्थ सूरसागर में ऋषभ की स्तुति की है। इससे प्रकट है कि भ० ऋषभदेव मानवमात्र के आराध्य थे । कोटि-कोटि मानव आज बड़ी श्रद्धा के साथ बाबा आदम के नाम से जिन्हें याद करते हैं, वह भी देखा जाय तो भ० ऋषभ की प्रस्फुट स्मृति का ही प्रतीक है | विश्वास किया जाता है कि युगादि में मानव समाज ने अपने परमोपकारी महाप्रभु ऋषभदेव की स्मृति में उनके जीवन की प्रमुख घटनानों को लेकर पर्व प्रचलित किये। उनमें से कतिपय तो काल की पर्त में तिरोहित हो गये और कतिपय आज भी प्रचलित हैं । अक्षय तृतीया का पर्व प्रभु के प्रथम पारणक के समय श्रेयांसकुमार द्वारा दिये गये प्रथम अक्षय दान से सम्बन्धित है, इस प्रकार का प्रभास वाचस्पत्यभिधान के निम्नलिखित श्लोकों से होता है : I : वैशाखमामि राजेन्द्र शुक्लपक्षे तृतीयका । अक्षया सातिथि प्रोक्ता, कृतिका रोहिणीयुता || तस्यां दानादिकं सर्वमक्षयं समुदाहृतम् ।..... श्रेयांसकुमार के द्वारा दिये गये अक्षय और महान् सुपात्रदान के अतिरिक्त और कोई इस प्रकार का दान दिये जाने का भारतीय धर्म ग्रन्थों में उल्लेख नहीं मिलता । इन सब प्राचीन प्रमाणों से यही सिद्ध होता है कि भगवान् का प्रथम पाररक अक्षय तृतीया के दिन हुआ । केवलज्ञान की प्राप्ति प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् प्रभु एक हजार वर्ष तक ग्रामानुग्राम विचरते हुए तपश्चरण द्वारा आत्मस्वरूप को प्रकाशित करते रहे। अन्त में प्रभु Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान की प्राप्ति भगवान् ऋषभदेव पुरिमताल नगर के बाहर शकटमुख नामक उद्यान में पधारे। वहां फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन' अष्टम तप के साथ दिन के पूर्व भाग में, उत्तराषाढा नक्षत्र के योग में प्रभु ध्यानारूढ़ हुए और क्षपक श्रेणी से चार घातिक कर्मों को नष्ट कर आपने केवलज्ञान, केवलदर्शन की उपलब्धि की। देव एवं देवपतियों ने केवलज्ञान का महोत्सव किया। केवलज्ञान की प्राप्ति एक वटवृक्ष के नीचे हुई, अतः अाज भी वटवृक्ष देश में आदर एवं गौरव की दृष्टि से देखा एवं प्रभु आदिनाथ का चैत्यवृक्ष माना जाता है। केवलज्ञान की प्राप्ति से अब भगवान् भाव अरिहन्त होगये । अरिहंत होने पर आपमें बारह गुण प्रकट हुए, जो इस प्रकार हैं : (१) अनन्त ज्ञान, (२) अनन्त दर्शन, (३) अनन्त चारित्र यानी वीतराग भाव, (४) अनन्त बल-वीर्य, (५) अशोक वृक्ष, (६) देवकृत पुष्पवष्टि, (७) दिव्य-ध्वनि, (८) चामर, (६) स्फटिक-सिंहासन, (१०) छत्र-त्रय, (११) आकाश में देव-दुन्दुभि और (१२) भामण्डल । पांच से बारह तक के आठ गुणों को प्रातिहार्य कहा गया है । भक्तिवश देवों द्वारा यह महिमा की जाती है । तीर्थंकरों की विशेषता सामान्य केवली की अपेक्षा अरिहंत तीर्थंकर में खास विशेषताएं होती हैं। आचार्यों ने मूलभूत चार अतिशय बतलाये हैं। यद्यपि वीतरागता और सर्वज्ञता, तीर्थकर और सामान्य केवली में समान होती हैं पर तीर्थंकर की प्रभावोत्पादक अन्य भी विशेषताएं अतिशय रूप में होती हैं, जिनके लिए समवायांग सूत्र में "चोतीसं बुद्धाइसेसा" और "पणतीसं सच्चवयणाइसेसा पण्णता" कहा गया है। श्वेताम्बर परम्परा में शास्त्रोक्त चौंतीस अतिशय इस प्रकार हैं : तीथंकरों के चौंतीस प्रतिशय ( १ ) अनट्ठिए केसमंसुरोमनहे केश रोम और स्मश्रु का अवस्थित रहना। (२) निरामया निरुवलेवा गायलट्टी शरीर का रोगरहित एवं निर्लेप होना। ( ३ ) गोक्खीरपंडुरे मंससोगिए गौ-दुग्ध की तरह रक्त-मांस का श्वेत होना । (४) पउमुप्पलगंधिए उस्सास- श्वासोच्छ्वास का उत्पल कमल की निस्सासे __तरह सुगन्धित होना। (५) पच्छन्ने आहारनीहारे अदिस्से पाहार नीहार प्रच्छन्न-अर्थात् चर्मचक्ष मंसचक्खुणा से अदृश्य होना। ' कल्पमूत्र १६६, पृ० ५८ तथा प्रावश्यक नि० गाथा २६३ । २ अशोकवृक्ष: मुग्पुष्पवृष्टिदिव्यध्वनिश्चामरमागनं च । MITHLEलं दन्दभिरातपत्र मत्प्राति हागि जिनेश्वगणाम् ।। अपाया पगमानिणयो- ज्ञानानिणयः पूजातिणयो वागतिशयश्न । -अभिधान गजेन्द्र, १, पृ० ३१ । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [तीर्थंकरों की विशेषता , ( ६ ) आगासगयंचक्कं । आकाशगत चक्र होना । (७) प्रागासगयं छत्तं ." आकाशगत छत्र होना। (८) आगासगयाओ सेयवर आकाशगत श्वेत चामर होना । चामराम्रो ( ६ ) अागासफालिग्रामयं सपायपीढं आकाशस्थ सपादपीठ स्फटिक सीहासणं सिंहासन । (१०) आगासगो कूडभीसहस्सपरि- हजार पताका वाले इन्द्रध्वज का मंडिआभिरामो इन्दज्झनो अाकाश में आगे चलना। पुरो गच्छइ (११) जत्थ जत्थ वि य रणं अरहंतो अर्हन्त भगवान् जहां जहां ठहरें, वहां भगवन्तो चिट्ठति वा निसीयंति वहां तत्काल फूल-फल युक्त अशोक वृक्ष वा तत्थ तत्थ वियरणं तक्खणा- का होना। देव संछन्नपत्तेपुप्फपल्लव समाउलो सच्छत्तो सज्झयो सघंटो सपडागो असोगवरपायवो अभिसंजायई (१२) ईसि पिट्ठयो मउडठाणमि भगवान् के थोड़ा पीछे की ओर मुकुट तेयमंडलं अभिसंजाय इ अंधयारे के स्थान पर तेजोमंडल होना जो दशों . वि य रणं दस दिसायो पभासेइ दिशाओं को प्रकाशित करता है। (१३) बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे भूमि-भाग का रमणीक होना । (१४) अहोसिरा कंटया जायंति . काँटों का अधोमुख होना। (१५) उऊ विवरीया सुहफासा भवंति ऋतुओं का सब प्रकार से सुखदायी होना। (१६) सीयलेणं सुहफासेरणं सुरभिरणा शीतल-सुखद-सुगन्धित वायु द्वारा चारों मारुएरणं जोयरणपरिमंडलं ओर चार-चार कोस तक भूमि का सव्वो समंता संपमज्जिज्जइ स्वच्छ होना। (१७) जुतफुसिएरण मेहेण य निहयर- जल-बिन्दुओं से भूमि की धूलि का यरेण्यं किज्जइ शमन होना। (१८) जलथलय भासुरपभूतेणं पांच प्रकार के प्रचित्त फूलों का जानु विटठाइणा दसद्धवण्णेरणं प्रमाण ढेर लगना । कुसुमेणं जाणुस्सेहप्पमारणमित्ते (अचिने) पुप्फोवयारे किज्जइ (१६) अमरगाणं सद्दफरिस रस- अशुभ शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श रूवगंधाणं अवकरिसो भवइ का अपकर्ष होना। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकरों की विशेषता] भगवान् ऋषभदेव (२०) मणुण्णाणं सद्दफरिसरसरूव- शुभ वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श आदि गंधारणं पाउब्भाप्रो भवइ का प्रकट होना। (२१) पच्चाहरो वि य णं हियय- बोलते समय भगवान् के गंभीर स्वर गमणीप्रो जोयणनीहारी सरो का एक योजन तक पहुँचना। (२२) भगवं च णं अद्धमागहीए अर्द्धमागधी भाषा में भगवान् का धर्म भासाए धम्ममाइक्खइ प्रवचन फरमाना। (२३) सा वि य णं अद्धमागही भासा अर्द्धमागधी भाषा का प्रार्य, अनार्य, भासिज्जमारणी तेसि सव्वेसिं मनुष्य और पशुओं की अपनी-अपनी आरियमणारियाणं दुप्पय- भाषा के रूप में परिणत होना। चउप्पअमियपसुपक्खिसरीसिवाणं अप्पणो हियसिव सुहयभासत्ताए परिणमइ (२४) पुत्वबद्धवेरा वि य रणं देवासुर- भगवान के चरणों में पूर्व के वैरी देव, नागसुवण्णजक्ख रक्खसकिन्नर- असुर आदि का वैर भूल कर प्रसन्न मन किंपुरिसगरुलगन्धव्वमहोरगा से धर्म श्रवण करना । अरहो पायमले पसंतचित्त माणसा धम्म निसामंति (२५) अण्णउत्थियपावयरिणया वि य अन्य तीर्थ के वादियों का भी भगवान् णमागया वंदंति के चरणों में आकर वन्दन करना। (२६) आगया समाणा अरहो पाय- वाद के लिए आये हुए प्रतिवादी का मूले निप्पलिवयणा हवंति निरुत्तर हो जाना। (२७) जो जो वि य णं अरहंतो जहां जहां भगवान् विचरण करें, वहां भगवन्तो विहरंति तो तो वहां से २५ (पच्चीस) योजन तक ईति वि य र जोयणपणवीसाए रणं नहीं होती। ईति न भवई (२८) मारी न भवइ जहां जहां भगवान् विचरण करें, वहां वहां से २५ योजन तक मारी नहीं होती। (२६) सचक्कं न भवइ जहां जहां भगवान् विचरण करें, वहां वहां स्वचक्र का भय नहीं होता। (३०) परचवकं न भवइ जहां जहां भगवान् विचरण करें, वहां वहां पर-चक्र का भय नहीं होता। (३१) अइवुट्ठी न भवइ जहां जहां भगवान् विचरण करें, वहांवहां अतिवृष्टि नहीं होती। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ (३२) अरणावुट्ठी न भवइ (३३) दुब्भिक्खं न भवइ (३४) पुव्वुप्परगा वि य गं उप्पाइया वाही खप्पमिव उवसमंति ।" जैन धर्म का मौलिक इतिहास ( १ ) स्वेदरहित तन (२) निर्मल शरीर ( ३ ) दूध की तरह रुधिर का श्वेत होना ( ४ ) अतिशय रूपवान् शरीर ( ५ ) सुगन्धित तन · : दिगम्बर परम्परा में ३४ अतिशयों का वर्णन इस प्रकार किया गया है : जन्म के १० अतिशय 3 : २ केवलज्ञान के १० प्रतिशय : १) भगवान् विचरें वहां-वहां सौसौ कोस तक सुभिक्ष होना ( ईति नहीं होना ) [ तीर्थंकरों की विशेषता जहां-जहां भगवान् विचरण करें, वहांवहां अनावृष्टि नहीं होती। जहां-जहां भगवान् विचरण करें, वहांवहां दुर्भिक्ष नहीं होता । जहां-जहां भगवान् विचरण करें, वहांवहां पूर्वोत्पन्न उत्पात भी शीघ्र शान्त हो जाते हैं। ( ६ ) प्रथम उत्तम संहनन ( ७ ) प्रथम उत्तम संस्थान ( एक हजार आठ (१००८) लक्षण ८) ( 8 ) (१०) ( २ ) ( ३ ) सुत्तागम पृ० ३४५-४६ [ समवायांग, समवाय १११] पाठान्तर में काला, अगरु आदि से गद्यमद्यायमान रमणीय भू-भाग को उन्नीसवां और तीर्थंकर के दोनों ओर दो यक्षों द्वारा चँवर ढुलाने को बीसवां अतिशय माना है किन्तु वृहद्बाचना में नहीं होने से इन्हें यहां स्वीकार नहीं किया है । दूसरे से पाँचवें तक चार अतिशय जन्म के, १६ ( उन्नीस ) देवकृत और ग्यारह केवलज्ञानभावी माने हैं । [ समवायांग वृत्ति ] नित्यं निःस्वेदत्वं, निर्मलता क्षीरगौररुधिरत्वं च । स्वाद्याकृति संहनने, सोरूप्यं सौरमं च सौलक्ष्यम् ॥ १ ॥ प्रमितवीर्यता च प्रियहित-वादित्वमन्यदमित गुणस्य । प्रथिता दश ख्याता स्वतिशयधर्मा स्वयंभुवोदहस्य || २ || * गव्यूतिशत चतुष्टय - सुभिक्षता- गगन-गमनमप्राणिवधः । मुक्त्युपसर्गाभावश्चतुरास्यत्वं च सर्वविद्येश्वरता ॥ ३ ॥ श्रच्छायत्वमपक्ष्म स्पन्दश्च समप्रसिद्ध - नखकेशत्वम् । स्वतिशयगुणाः भगवतो घातिक्षयजाः भवंति तेऽपि दशैव || ४ || अमित बल हित- प्रिय वचन | आकाश में गमन भगवान् के चरणों में प्राणियों का निर्भय होना [ नन्दीश्वर भक्ति ] Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर की वाणी के ३५ गुण ] भगवान् ऋषभदेव ( ४ ) कवलाहार (स्थूल आहार) का (८) शरीर का निर्मल और छाया नहीं होना रहित होना, ( ५ ) भगवान् पर कोई उपसर्ग नहीं ( ६ ) नेत्रों के पलकों का नहीं होना, गिरना, (६ ) समवसरण में चतुर्मुख दिखना, (१०) नख-केशों का सम होना । (७ ) अनन्त ज्ञान के कारण सर्व विद्याओं का ईश्वर होना, देव-कृत १४ अतिशयरे :(१) चहुँ दिशाओं का निर्मल होना । (२) आकाश का मेघरहित व स्वच्छ होना । (३) पृथ्वी का धन-धान्य प्रादि से भरा पूरा होना। (४) सुगन्धित वायू का चलना ।। (५) देवताओं द्वारा सुगन्धित जलवृष्टि होना। (६) योजनपर्यन्त पृथ्वी का दर्पण सम उज्ज्वल होना। (७) विहार के समय चरणों के नीचे कमल की रचना होना। (८) आकाश में जय-जयकार होना । (8) सम्पूर्ण जीवों को परम प्रानन्द का प्राप्त होना। (१०) पृथ्वी का कण्टक पाषाणादि से रहित होना। . (११) सहस्रार वाले धर्मचक्र का प्रागे चलना। (१२) विरोधी जीवों में परस्पर मैत्री होना। (१३) ध्वजासहित अष्टमंगल का विहार के समय मागे चलना। (१४) अर्धमागधी वाणी द्वारा भव्य जीवों को तृप्त करना। श्वेताम्बर व दिगम्बर परम्पराओं का तुलनात्मक विवेचन श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के अतिशयों में संख्या समान होने पर भी निम्नलिखित अन्तर है : Pres. . ' केवली भगवान् के कवलाहार का प्रभाव पाया जाता है। उनकी आत्मा का इतना विकास हो चुका होता है कि स्थूल भोजन द्वारा उनके दृश्यमान देह का संरक्षण अनाव'श्यक हो जाता है। उनके शरीर-रक्षण के निमित्त बल प्रदान करने वाले सूक्ष्म पुद्गल परमाणुओं का आवागमन बिना प्रयत्न के हुमा करता है । २ देवकृत चौदह अतिशय :देव रचित है चारदश, अर्धमागधी भाश । प्रापस माही मित्रता, निर्मल दिश प्राकाश ।। होत फूल फल ऋतु सबै, पृथिवी काच समान । चरण कमल तल कमल है, नभ ते जय जय बान ।। मन्द सुगन्ध बयारि पुनि, गंधोदक की वृष्टि । भूमि विष कण्टक नहीं, हर्षमयी सब सृष्टि ।। धर्मचक्र प्रागे रहैं, पुनि बसु मंगलसार । अतिशय श्री अरहंत के"..........." """" Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [प्रभु ऋषभ का राज्याभिषेक श्वेताम्बर ग्रन्थ समवायांग में तीर्थंकरों के प्राहार-नीहार को चर्मचक्षु द्वारा अदृश्य-प्रच्छन्न माना है, इसके स्थान पर दिगम्बर परम्परा में स्थूल आहार का अभाव और नोहार नहीं होना, इस तरह दोनों अलग अतिशय मान्य किये हैं। समवायांग के छठे अतिशय से ग्यारहवें तक अर्थात् आकाशगत चक्र से अशोक वक्ष तक के नाम दिगम्बर परम्परा में नहीं हैं। इनके स्थान पर निर्मल दिशा, स्वच्छ आकाश, चरण के नीचे स्वर्ण-कमल, आकाश में जयजयकार, जीवों के लिए प्रानन्ददायक, आकाश में धर्मचक्र का चलना व अष्ट मंगल, ये ७ अतिशय माने गये हैं। शरीर के सात अतिशय :(१) स्वेद रहित शरीर, (५) १००८ लक्षण, (२) अतिशय रूप, (६) अनन्त बल और (३) प्रथम संहनन, (७) हित-प्रिय वचन-जो दिगम्बर (४) प्रथम संस्थान, परम्परा में मान्य हैं, पर सम वायांग में नहीं हैं। समवायांग के तेजो भामण्डल के स्थान पर दिगम्बर परम्परा में केवली अवस्था का चतुर्मुख अतिशय माना है और समवायांग के बहुसमरमणीय भूमिभाग के स्थान पर पृथ्वी की उज्ज्वलता और शस्य-श्यामलता-ये दो अतिशय माने गये हैं । केवलज्ञान के अतिशयों में समवायांग द्वारा वणित, अन्य तीर्थ के वादियों का आकर वन्दन करना और बाद में निरुत्तर होना, इन दो अतिशयों के स्थान पर दिगम्बर परम्परा में एक ही अतिशय, सर्व विद्येश्वरता माना है। फिर पच्चीस योजन तक ईति आदि नहीं होना, इस प्रसंग के सात अतिशयों के स्थान पर दिगम्बर परम्परा में सुभिक्ष होना, यह केवल एक ही अतिशय माना गया है। उपसर्ग का अभाव और समवसरण में प्राणियों की निर्वैर वृत्ति ये दोनों अतिशय दोनों परम्पराओं में समान रूप से मान्य हैं। छाया-रहित शरीर, आकाशगमन और निनिमेष चक्षु ये तीन अतिशय जो दिगम्बर परम्परा में मान्य हैं, श्वेताम्बर ग्रन्थ समवायांग में नहीं हैं। इस तरह संकोच, विस्तार एवं सामान्य दृष्टिभेद को छोडकर दोनों परम्पराओं में ३४ प्रतिशय माने गये हैं। प्रत्येक तीर्थकर इन चौंतीस अतिशयों से सम्पन्न होते हैं। तीर्थकर की वाणी के ३५ गुरण समवसरण में तीर्थंकर भगवान् की मेघ सी वाणी पैंतीस अतिशयों के साथ अविरलरूप से प्रवाहित होती है। वे पैंतीस अतिशय इस प्रकार हैं : Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ आदि प्रभु का समवसरण ] भगवान् ऋषभदेव (१) लक्षणयुक्त हो, (२०) मर्मवेधी न हो, (२) उच्च स्वभावयुक्त हो, (२१) धर्मार्थरूप पुरुषार्थ की पुष्टि (३) ग्रामीणता यानी हल्के शब्दादि करने वाली हो, से रहित हो, (२२) अभिधेय अर्थ की गम्भीरता (४) मेघ जैसी गम्भीर हो, वाली हो, (५) अनुनाद अर्थात् प्रतिध्वनियुक्त हो, (२३) प्रात्म-प्रशंसा व पर-निन्दा (६) वक्रता-दोष-रहित सरल हो, रहित हो, (७) मालकोशादि राग-सहित हो, (२४) श्लाघनीय हो, (८) अर्थ-गम्भीर हो, (२५) कारक, काल, वचन और लिंग (६) पूर्वापर विरोधरहित हो, प्रादि के दोषों से रहित हो, (१०) शिष्टतासूचक हो, (२६) श्रोताओं के मन में प्राश्चर्य पैदा (११) सन्देहरहित हो, करने वाली हो, (१२) पर-दोषों को प्रकट न करने (२७) अद्भुत अर्थ-रचना वाली हो, वालो हो, (२८) विलम्बरहित हो, (१३) श्रोताओं के हृदय को आनन्द (२६) विभ्रमादि दोषरहित हो, देने वाली हो, (३०) विचित्र प्रर्थ वाली हो, (१४) बड़ी विचक्षणता से देश काल के (३१) अन्य वचनों से विशेषता अनुसार हो, वाली हो, (१५) विवक्षित विषयानुसारी हो, (३२) वस्तुस्वरूप को साकार रूप में (१६) असम्बद्ध व अतिविस्तार प्रस्तुत करने वाली हो, रहित हो, (३३) सत्त्वप्रधान व साहसयुक्त हो, (१७) परस्पर पद एवं वाक्या- (३४) स्व-पर के लिए खेदरहित नुसारिणी हो, हो, और (१८) प्रतिपाद्य विषय का उल्लंघन (३५) विवक्षित अर्थ की सम्यसिद्धि करने वाली न हो, तक अविच्छिन्न अर्थ वाली हो । (१६) अमृत से भी अधिक मधुर हो, मरत का विवेक जिस समय भगवान् ऋषभदेव को केवलज्ञान की उपलब्धि हुई उस समय सम्पूर्ण लोक में ज्ञान का उद्योत हो गया । नरेन्द्र और देवेन्द्र भी केवल-कल्याणक का उत्सव मनाने के लिये प्रभू की सेवा में उपस्थित हुए। सम्राट् भरत को जिस समय प्रभु के केवलज्ञान की सूचना मिली, उसी समय एक दूत ने आकर प्रायुधशाला में चक्र-रत्न उत्पन्न होने की शुभ सूचना भी दी। ___ प्राचार्य जिनसेन के अनुसार उसी समय उन्हें पुत्र-रत्न-लाभ की तीसरी शुभ सूचना भी प्राप्त हुई। १. (क) कल्पसूत्र १६६, पृ० ५८ (ख) आवश्यक नि० गाथा २६३ । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन धर्म का मौलिक इतिहास [भरत का विवेक एक साथ तीनों शुभ सूचनाएं पाकर महाराजा भरत क्षण भर के लिये विचार में पड़ गये कि प्रथम चक्र-रत्न की पूजा की जाय या पुत्र-जन्म का उत्सव मनाया जाय अथवा प्रभु के केवलज्ञान की महिमा का उत्सव मनाया जाय ? क्षण भर में ही विवेक के आलोक में उन्होंने निर्णय किया--"चक्र-रत्न और पुत्र-रत्न की प्राप्ति तो अर्थ एवं काम का फल है, पर प्रभु का केवलज्ञान धर्म का फल है। प्रारम्भ की दोनों वस्तुएं नश्वर हैं, जबकि तीसरी अनश्वर । अत: चक्र-रत्न या पुत्र-रत्ल का महोत्सव मनाने के पहले मुझे प्रथम प्रभूचरणों की वन्दना और उपासना करनी चाहिये, क्योंकि वही सब कल्याणों का मूल और महालाभ का कारण है। पहले के दोनों लाभ भौतिक होने के कारण क्षणविध्वंसी हैं, जब कि भगवच्चरणवंदन आध्यात्मिक होने से आत्मा के लिये सदा श्रेयस्कर है।" यह सोचकर चक्रवर्ती भरत प्रभु के चरण-वंदन को चल पड़े। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र में उपरिवणित तीन शुभ सूचनामों में से केवल चक्ररत्न के प्रकट होने की बधाई आयुधशाला के रक्षक द्वारा भरत को दिये जाने का ही उल्लेख है । भगवान् ऋषभदेव को केवलज्ञान की प्राप्ति तथा भरतचक्रवर्ती के पुत्ररत्न के जन्म की बधाई दिये जाने का जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में उल्लेख नहीं है। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में भरत चक्रवर्ती के विवरण को पढ़ने से स्पष्टतः प्रकट होता है कि उसमें भरत के जीवनचरित्र का अति संक्षेप में और उनके द्वारा षट्खण्ड साधना का मुख्य रूप से विस्तारपूर्वक विवरण दिया गया है। संभव है, इसी कारण इन दो घटनाओं का उल्लेख जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में नहीं किया गया हो। प्रादि प्रभु का समवसरण केवलज्ञान द्वारा ज्ञान की पूर्ण ज्योति पा लेने के पश्चात् भगवान् ने जहाँ प्रथम देशना दी, उस स्थान और उपदेश-श्रवणार्थ उपस्थित जन समुदाय देवदेवी, नर-नारी, तिर्यंच समुदाय को समवसरण कहते हैं। ___ 'समवसरण' पद की व्याख्या करते हुए प्राचार्यों ने कहा है-“सम्यग् एकीभावेन अवसरणमेकत्र गमनं-मेलापकः समवसरणम् ।"३ अर्थात्-अच्छी तरह एक स्थान पर मिलना अथवा साधु-साध्वी आदि संघ का एकत्र मिलना एवं व्याख्यान-सभा समवसरण कहाते हैं। _ 'भगवती सूत्र' में क्रियावादी, प्रक्रियावादी अज्ञानवादी, विनयवादी, रूप वादियों के समुदाय को भी समवसरण कहा है। यहां पर तीर्थंकर के प्रवचनसभा रूप समवसरण का ही विचार इष्ट है। तीर्थकर की प्रवचनसभा के लिये प्राचार्यों की मान्यता है कि भगवान् १. (क) मावश्यक चू० पृ० १८१ (ख) तत्र धर्मफलं तीर्थ, पुत्र: स्यात् कामजं फलम् । अर्थानुबन्धिनोऽर्थस्य फलं चक्रं प्रभास्वरम् । महापुराण २४।६।५७३ । २. अभिधान राजेन्द्र कोश, भाग ७, पृ० ४६० Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पादि प्रभु का समवसरण] भगवान ऋषभदेव तीर्थकर का जहां समवसरण होता है, वहां चार-चार कोस तक देवगण भूमि को संवर्त वायू से स्वच्छ और दिव्य पुष्पवर्षा से सुवासित करते हैं । समवसरण की भूमि में देवेन्द्रों द्वारा रत्नों से चित्रित तीन प्राकार बनाये जाते हैं । पहला रत्नमय प्राकार वैमानिक देवों द्वारा बनाया जाता है। इसी प्रकार सुवर्णमय दूसरा प्राकार ज्योतिष्क देवों द्वारा और तीसरा रजतमय प्राकार भवनपति देवों द्वारा निर्मित किया जाता है । तीनों प्राकारों पर वैमानिक, ज्योतिष्क और भवनपति देवों द्वारा अनक्रमशः रत्नादिमय तीन प्रकार के कंगूरे बनाये जाते हैं। व्यन्तरदेव ध्वजा, पताका युक्त तोरण और मनोहर धूपघड़ियों की व्यवस्था करते हैं। प्रथम-प्राभ्यन्तर प्राकार के मध्यभाग में अशोक वृक्ष के नीचे तीर्थ कर देव के विराजमान होने के लिये चैत्यवृक्ष के नीचे रत्नमय पीठ पर देवछंदक और उस देवछंदक में उच्च सिंहासन की रचना वैमानिक देवों द्वारा की जाती है। उस देवछंदक में प्रभु सिंहासन पर विराजमान होते हैं । वह अशोक वृक्ष तीर्थ कर देव के शरीर को ऊंचाई से बारह गुना ऊंचा होता है। समवसरण की इस प्रकार की विशिष्ट रचना सर्वत्र नहीं होती। विशिष्ट प्रसंगों को छोड़ शेष स्थानों पर सामान्य रूप से ही समवसरण होता है। नियुक्तिकार के अनुसार-जहां तीर्थ कर प्रभु का कैवल्योपलब्धि के पश्चात् सर्वप्रथम पदार्पण हो, अथवा 'जहां महद्धिक देव का आगमन हो, वहां पर संवर्त वायु, जलवृष्टि, पुष्पवृष्टि और तीन प्रकार के प्राकारों की रचना आभियौगिक देव करते हैं । जैसा कि कहा है : जत्थ अपुव्वोसरणं, जत्थ य देवो महड्ढियो एइ। वाउदय-पुप्फ-बद्दल-पागार तियं च अभिप्रोगा।' कतिपय आचार्यों का अभिमत है कि जहां देवेन्द्र स्वयं पाते हैं, वहाँ तीर्थकर भगवान के तीन प्राकारों वाले समवसरण की रचना की जाती है। जहां इन्द्र के सामानिक देव का आगमन होता है, वहां केवल एक ही प्राकार बनाया जाता है । यदि कभी कहीं इन्द्र का अथवा इन्द्र के सामानिक देव का भी प्रागमन नहीं हो तो वहां पर भवनपति आदि देव समवसरण की रचना कभी करते भी हैं और कभी नहीं भी करते ।। विशिष्ट समवसरण में प्रवेश करने की भी एक निश्चित विधि अथवा व्यवस्था बताई गई है, जो इस प्रकार है : १. मावश्यक नियुक्ति, गाथा ५४४, पत्र १०६ २. अभिधान राजेन्द्र कोश, भा० ७, पृ० ४६३ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [प्रादि प्रभु का समवसरण गणधर समवसरण में पूर्व द्वार से प्रविष्ट हो, तीर्थंकर को वन्दन कर उनके दक्षिण की ओर बैठते हैं। इसी प्रकार अतिशय ज्ञानी, केवली और सामान्य साधु भी समवसरण में पूर्व द्वार से प्रविष्ट होते हैं । वैमानिक देवियां पूर्व द्वार से प्रविष्ट होकर सामान्य साधुनों के पीछे की ओर खड़ी रहती हैं । फिर साध्वियां पूर्व द्वार से समवसरण में आकर वैमानिक देवियों के पीछे खड़ी रहती हैं। भवनपति आदि की देवियां, समवसरण में दक्षिण द्वार से प्राकर क्रमशः आगे भवनपति देवियां, उनके पीछे ज्योतिष्की देवियां और उनके पीछे व्यन्तर देवियां ठहरती हैं। भवनपति आदि तीनों प्रकार के देव पश्चिमी द्वार से प्रवेश करते हैं। वैमानिक देव और नरेन्द्र आदि मानव तथा मनुष्य स्त्रियां उत्तर द्वार से समवसरण में प्राकर क्रमशः एक दूसरे के पीछे बैठते एवं बैठती हैं । यहां दूसरी परम्परा यों बतलाई गई है : 'देव्य सर्वा एव न निषीदन्ति, देवाः, मनुष्याः, मनुष्यस्त्रियश्च निषीदन्ति ।' अर्थात्-सभी देवियां नहीं बैठती. देव, मनुष्य और मनुष्य-स्त्रियां बैठती हैं । ___ देव और मनुष्यों की परिषद् का पहले प्राकार में प्रवस्थान माना गया है। दसरे प्राकार में पशु. पक्षी आदि तिर्यंच और तीसरे प्राकार में यानवाहन की अवस्थिति मानी गई है। मल पागमों में समवसरण की विशिष्ट रचना, व्यवस्था और प्रवेशविधि का कोई उल्लेख नहीं है। संभव है उत्तरकालवर्ती प्राचार्यों ने भावी ममाज के लिये संघ-व्यवस्था का प्रादर्श बताने हेतु ऐसी व्यवस्था प्रस्तुत की हो। ___ श्वेताम्बर परम्परा के 'उववाइय सूत्र' में भगवान महावीर के समवसरण का वर्णन किया गया है । भगवान् महावीर के चम्पा नगरी पधारने पर वनपालक द्वारा की गई बधाई से लेकर महावीर स्वामी की शरीर सम्पदा. अान्तरिक गुण, अनेक प्रकार के साधनाशील साधुओं का वर्णन, देव-परिषद्, मनुज-परिषद् और राजा-रानी आदि के पाने-बैठने आदि की झांकी कराते हए भगवान का अशोक वृक्ष के नीचे पृथ्वी शिलापट्ट पर विराजना बताया गया है । 'उववाइय सत्र' सत्र में यह तो उल्लेख है कि श्रमगागरण से परिवत्त, ३४ प्रतिशय और ३५ विशिष्ट वाग्गी-गुगगों मे सम्पन्न प्रभू अाकाशगत चक्र, Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० दर्शन से मरुदेवी की मुक्ति ] भगवान् ऋषभदेव छत्र, चामर और स्फटिकमय सपादपीठ सिंहासन के आगे चलते हुए धर्मध्वज के साथ चौदह हजार श्रमण एवं छत्तीस हजार श्रमणियों के परिवार से युक्त पधारे । वहां पर ऋषि परिषद्, मुनि - परिषद् श्रादि विशाल परिषदों में योजनगामिनी सर्व भाषानुयायिनी अर्द्धमागधी भाषा में तीर्थंकर महावीर की देशना का तो वर्णन है किन्तु इस प्रकार देवकृत समवसरण की विभूति का अथवा देव, देवी और साधुवृन्द कौन किधर से प्राये तथा कहां-कहां कैसे बैठे, इसका वर्णन उपलब्ध नहीं होता । महिलाओं के समवसरण में प्रागमन और प्रवस्थान का जहाँ तक प्रश्न है, सुभद्रा आदि रानियां कूरिणक को आगे कर खड़ी खड़ी सेवा करती हैं, इस प्रकार का वर्णन है ।' भगवती सूत्र में मृगावती एवं देवानन्दा के लिये भी ऐसा ही पाठ है । इस पाठ की व्याख्या में पूर्वकालीन और प्रद्ययुगीन व्याख्याकार आचार्यों का मतभेद स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है । पर अन्तर्मन यही कहता है कि तीर्थकाल में संयम की विशुद्ध प्राराधना के लिये स्त्रीसंसर्ग अधिक नहीं बढ़े, इस भावना से श्रमणों के समवसरण में महिलानों के बैठने पर प्रतिबन्ध रखा हो, यह संभव है । वर्तमान की बदली परिस्थिति में आज ऐसा श्राराधन संभव नहीं रहा, श्रतः सर्वत्र साध्वी एवं मातृमण्डल का व्याख्यान आदि में बैठना निर्दोष एवं प्राचीर्ण माना जाता है । 1 भगवद् दर्शन से मरुदेवी की मुक्ति इधर माता मरुदेवी अपने पुत्र ऋषभदेव के दर्शन हेतु चिरकाल से तड़प रही थीं । प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् एक हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी वह अपने प्रिय पुत्र ऋषभ को एक बार भी नहीं देख पाई थीं । फलतः अपने प्रिय पुत्र की स्मृति में उसके नयनों से प्रतिपल अहर्निश अश्रुधारा प्रवाहित होती रहती थी । ܐ भरत की विपुल राज्यवृद्धि को देखकर मरुदेवी उन्हें उलाहना देते हुए प्राय: कहा करती थीं- 'वत्स भरत ! तुम अमित ऐश्वर्य का उपभोग कर रहे हो, किन्तु मेरा लाडला लाल ऋषभ भूखा-प्यासा न मालूम कहाँ-कहाँ भटक रहा होगा ? तुम लोग उसकी कोई सार सम्हाल नहीं लेते ।' भ० ऋषभदेव को केवलज्ञान प्राप्त होने का शुभ सन्देश जब भरत ने सुना तो वे तत्काल माता मरुदेवी की सेवा में पहुँचे और उन्हें प्रभु के पुरिमताल नगर १. कूरिणयं रायं पुरतो तिकट्टुठितियाओ चैव सपरिवाराम्रो प्रभिसुहावो विणणं पंजलिउडा पज्जुवासंति । उववाई, सूत्र १२६, पृ. ११६ ( अमोलक ऋषिजी म. ) Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ देशना और तीर्थ स्थापना केवलज्ञान की उपलब्धि का के श्रागमन का शुभ संवाद उठीं और तत्काल भरत के के बहिस्थ शटकमुख उद्यान में पधारने और उन्हें सुखद संदेश सुनाया । अपने प्राणाधिक प्रिय पुत्र सुन कर माता मरुदेवी हर्षातिरेक से पुलकित हो साथ ही गजारूढ़ हो प्रभु के दर्शनार्थ प्रस्थित हुई । समवसरण के निकट पहुँच कर माता मरुदेवी ने त्रिलोकवन्द्य भ. ऋषभदेव की देवदेवेन्द्रकृत महिमा-अर्चा देखी तो वे सोचने लगीं - 'अहो ! मैं तो समझती थी कि मेरा प्रिय पुत्र ऋषभ कष्टों में होगा, किन्तु यह तो अनिर्वचनीय प्रानन्दसागर में भूल रहा है। इस प्रकार विचार करते-करते उनके चिन्तन का प्रवाह बदल गया । वे प्रार्त्तध्यान से शुक्लध्यान में आरूढ़ हुई और कुछ ही क्षणों में ज्ञान, दर्शन, अन्तराय और मोह के सघन ग्रावरणों को दूर कर वे केवलज्ञान एवं केवलदर्शन की धारक बन गई । ' चूर्णिकार के अनुसार छत्र, भामण्डलादि अतिशय देखकर मरुदेवी को केवलज्ञान हुआ । आयु का अवसानकाल सन्निकट होने के कारण कुछ ही समय में शेष चार प्रघाति कर्मों को भी समूल नष्ट कर, गजारूढ़ स्थिति में ही वे सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त हो गई । कुछ प्राचार्यों की मान्यता है कि माता मरुदेवी भगवान् ऋषभदेव की धर्मदेशना को सुनती हुई ही आयु पूर्ण होने से सिद्ध हो गई । प्रवर्तमान अवसर्पिणीकाल में सिद्ध होने वाले जीवों में माता मरुदेवी का प्रथम स्थान है । तीर्थ स्थापना के पूर्व सिद्ध होने से उन्हें प्रतीर्थ सिद्ध स्त्रीलिंग सिद्ध भी कहा है । देशना और तीर्थ स्थापना केवलज्ञानी और वीतरागी बन जाने के पश्चात् ऋषभदेव पूर्ण कृतकृत्य हो चुके थे । वे चाहते तो एकान्त साधना से भी अपनी मुक्ति कर लेते, फिर भी उन्होंने देशना दी । इसके कई कारण बताये गये हैं। प्रथम तो यह कि जब तक देशना दे कर धर्मतीर्थ की स्थापना नहीं की जाती, तब तक तीर्थ कर नाम कर्म का भोग नहीं होता । दूसरा, जैसा कि प्रश्न व्याकरण सूत्र में कहा गया है, समस्त १. दिगम्बर परम्परा में इसका उल्लेख नहीं है । २. (क) करिस्कन्धाधिरूढंव, स्वामिनि मरुदेव्यथ । अन्तकृत्केवलित्वेन प्रवेदे पदमव्ययम् ॥ १।३।५३० ( ख ) भगवतो य छत्तारिच्छत पेच्छंतीए चेव केवलनाणं उप्पन्नं तं समयं च गं प्रायु ....| - त्रिपष्टि श. पु. वारे द्ध सिद्ध देवेहि य से पूया कता - आवश्यक बूणि ( जिनदास), पृ. १०१ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशना और तीर्थ स्थापना] भगवान ऋषभदेव ७३ जगजीवों की रक्षा व दया के लिये भगवान् ने प्रवचन दिया।' अतः भगवान ऋषभदेव को शास्त्र में प्रथम धर्मोपदेशक कहा गया है । वैदिक पुराणों में भी उन्हें दशविध धर्म का प्रवर्तक माना गया है । जिस दिन भगवान् ऋषभदेव ने प्रथम देशना दी, वह फाल्गुन कृष्णा एकादशी का दिन था। उस दिन भगवान् ने श्र त एवं चारित्र धर्म का निरूपण करते हुए रात्रिभोजन विरमण सहित अहिंसा, सत्य, प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहरूप पंच महाव्रत धर्म का उपदेश दिया । प्रभू ने समझाया कि मानव-जीवन का लक्ष्य भोग नहीं योग है, राग नहीं विराग है, वासना नहीं साधना है, वृत्तियों का हठात् दमन नहीं अपितु ज्ञानपूर्वक शमन है। भगवान की पीयूषवर्षिणी वाणी से निकले हुए इन त्याग-विराग पूर्ण उद्गारों को सुन कर सम्राट भरत के ऋषभसेन आदि पाँच सौ पुत्रों एवं सात सौ पौत्रों ने साधु-संघ में और ब्राह्मी आदि पांच सौ सन्नारियों ने साध्वी-संघ में दीक्षा ग्रहण की। महाराज भरत सम्यग्दर्शनी श्रावक हुए । इसी प्रकार श्रेयांशकुमार आदि सहस्रों नर-पुगवों और सुभद्रा आदि सन्नारियों ने सम्यग्दर्शन और श्रावक-बत ग्रहण किया। इस प्रकार साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप यह चार प्रकार का संघ स्थापित हुआ। धर्म-तीर्थ की स्थापना करने से भगवान् सर्वप्रथम तीर्थ कर कहलाये। ऋषभसेन ने भगवान् की वाणी सुनकर प्रव्रज्या ग्रहण की और तीन पृच्छाओं से उन्होंने चौदह पूर्व का ज्ञान प्राप्त किया। १. प्रश्न प्र. संवर। २. ब्रह्माण्ड पुराण........ ३. (क) फग्गुणबहुले इक्कारसीई प्रह अट्ठमणभत्तण । उप्पन्नमि प्रणेते महव्वया पंच पन्नवए । -पावश्यक नियुक्ति गाथा-३४० (ख) सव्व जगजीव रक्खण दयट्ठयाए पावयरणं भगवया सुकहियं । -प्रश्न व्याकरण-२।१ ४. तत्थ उसभसेणो णाम भरहस्स रन्नो पुत्तो सो धम्म सोऊण पव्वइतो तेण तिहिं पुच्छाहिं चोद्दसपुब्वाइ गहिताई उप्पन्ने विगते धुते, तत्थ बम्भीवि पव्वइया । -प्रा. चूणि पृ १८२ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ देशना और तीर्थ स्थापना भगवान् के चौरासी गरणधरों में प्रथम गणधर ऋषभसेन हुए। कहीं-कहीं पुंडरीक नाम का भी उल्लेख मिलता है परन्तु समवायांग सूत्र आदि के आधार से पुंडरीक नहीं, ऋषभसेन नाम ही संगत प्रतीत होता है । ७४ ऋषभदेव के साथ प्रव्रज्या ग्रहण करने वाले जिन चार हजार व्यक्तियों के लिये पहले क्षुधा, पिपासादि कष्टों से घबरा कर तापस होने की बात कही गई थी, उन लोगों ने भी जब भगवान् की केवल ज्ञानोत्पत्ति और तीर्थ-प्रवर्तन की बात सुनी तो कच्छ, महा कच्छ को छोड़कर शेष सभी भगवान् की सेवा में आये और प्राती प्रव्रज्या ग्रहरण कर सा संघ में सम्मिलित हो गये ।' प्राचार्य जिनसेन' के मतानुसार ऋषभदेव के ८४ गणधरों के नाम इस प्रकार हैं : १. वृषभसेन कुम्भ ३, दृढ़रथ ४. शत्रुदमन ५. देवशर्मा ६. धनदेव ७. नन्दन ८. सोमदत्त १. सुरदत्त १०. वायशर्मा ११. सुबाहु १२. देवाग्नि १३. अग्निदेव १४. अग्निभूति १५. तेजस्वी १६. प्रग्निमित्र १७. हलघर १५. महीधर २१. वसुन्धर २२. अचल २३. मेरु २४. भूति २५. सर्वसह २६. यज्ञ २७. सर्वगुप्त २५. सर्वप्रिय २६. सर्वदेव ३०. विजय ३१. विजय गुप्त ३२. विजयमित्र ३३. विजयश्री ३४. पराख्य ३५. अपराजित ३६. वसुमित्र ३७. वसुसेन ३८. साधुसेन ३६. सत्यदेव ४०. सत्यवेद १६. माहेन्द्र २०. वसुदेव १. भगवप्रो सगासे पव्वता । " २. हरिवंश पुराण, मगं १२, श्लोक ५४-७० ४१. सर्वगुप्त ४२. मित्र ४३. सत्यवान् ४४. विनीत ४५. संवर ४६. ऋषिगुप्त ४७ : ऋषिदत्त ४८. यज्ञदेव ४६. यज्ञगुप्त ५०. यज्ञमित्र ५१. यज्ञदत्त ५२. स्वायंभुव ५३. भागदत्त - प्रा. नि. म. प्र. २३० (ब) त्रि. १।३।६५४ ५४. भागफल्गु ५५. गुप्त ५६. गुप्त फल्गु ५७. मित्र फल्गु ५८. प्रजापति ५६. सत्य यश ६० वरुण Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणधरों के नाम ] ६१. धन वाहिक ६२. महेन्द्रदत्त ६३. तेजोराशि ६४. महारथ ६५. विजय ति ६६. महाबल ६७. सुविशाल ६८. वज्र भगवान् ऋषभदेव ६६. वैर ७०. चन्द्रचूड़ ७९. मेघेश्वर ७२. कच्छ ७३. महाकच्छ ७४. सुकच्छ ७५. प्रतिबल ७६. भद्रावलि 000 ७७. नमि ७८. विनमि ७६. भद्रबल ८०. नन्दी ८१. महानुभाव ८२. नन्दीमित्र ७५ ८३. कामदेव और ८४. अनुपम Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम चक्रवर्ती भरत प्रवर्तमान अवसर्पिणीकाल में जम्बूद्वीपस्थ भरतक्षेत्र के छः खण्डों के प्रथम सार्वभौम चक्रवर्ती सम्राट भरत हुए। वे भरतक्षेत्र के प्रथम राजा और प्रथम तीर्थकर भ० ऋषभदेव के सौ पुत्रों में सबसे बड़े थे। पहले बताया जा चुका है कि उनकी माता का नाम सुमंगला था और जिस समय भ० ऋषभदेव की अवस्था ६ लाख पूर्व की हुई, उस समय उनकी बड़ी पत्नी सुमंगला की कुक्षि से भरत और ब्राह्मी का युगल रूप में जन्म हुआ । जब भरत गर्भ में आये, उस. समय देवी सुमंगला ने भी तीर्थंकरों की माताओं के समान चौदह महास्वप्न देखे । उस समय तीन ज्ञान के धारक ऋषभकुमार ने सुमंगला की स्वप्नफल जिज्ञासा को शान्त करते हुए कहा था-"देवि! तुम्हारे गर्भ में एक ऐसा महाभाग्यशाली चरमशरीरी प्राणी पाया है, जो इस भरतक्षेत्र के छ खण्डों का अधिपति प्रथम चक्रवर्ती होगा और अन्त में जन्म, जरा, मुत्यु आदि सभी प्रकार के सांसारिक दुःखों के बीजभूत आठों कर्मों को मूलतः नष्ट कर शाश्वत शिवपद का अधिकारी होगा।" तदनुसार समय पर चक्रवर्ती पुत्ररत्न और सर्वांग-सुन्दरी पुत्री को प्राप्त कर सुमंगला के हर्ष का पारावार नहीं रहा। कुछ ही समय पश्चात् राजकुमार ऋषभ की द्वितीया धर्मपत्नी सुनन्दा ने बाहुबली और सुन्दरी को युगल रूप में तथा कालान्तर में देवी सुमंगला ने अनुक्रमश : ४६ पुत्रयुगलों के रूप में ९८ और पुत्ररत्नों को ४६ वार में जन्म दिया। संवर्द्धन और शिक्षा सन्तानोत्पत्ति के उपलक्ष्य में सर्वत्र हर्षोल्लास का वातावरण छा गया। नगर के नर-नारी असीम अानन्द का अनुभव करते हुए झूम उठे । सभी शिशुओं का बड़े लाड़-प्यार एवं दुलार के साथ लालन-पालन किया जाने लगा। अनुक्रमशः वृद्धिगत होते हुए भरत प्रादि जब शिक्षा योग्य वय में प्रविष्ट हए तो स्वयं राजकुमार ऋषभदेव ने अपने पुत्रों एवं पुत्रियों को विद्याओं एवं कलाओं की शिक्षा देना प्रारम्भ किया। जगद्गुरु भ० ऋषभदेव को शिक्षागुरु के रूप में पा भरत प्रादि उन १०२ चरमशरीरियों ने अपने आपको धन्य समझा। उन्होंने अपने पिता तथा गुरु भगवान् ऋषभदेव के चरणों में बैठकर बड़ी निष्टा और परिश्रम के साथ अध्ययन किया । वे सभी कुशाग्रबुद्धि कुमार समस्त विद्यानों एवं पुरुषोचित बहत्तर (७२) कलानों में पारंगत हुए । ब्राह्मी और सुन्दरी ने भी लिपियों के ज्ञान और गणित प्रादि अनेक विषयों के साथ-साथ महिलाओं की ६४ कलानों पर पूर्णरूपेण आधिपत्य प्राप्त किया। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ संवर्द्धन और शिक्षा ] प्रथम चक्रवर्ती भरत इस प्रकार इस अवसर्पिणी काल में सर्वप्रथम विद्याओं एवं कला के प्रशिक्षरण का आदान-प्रदान भरत क्षेत्र में प्रारम्भ हुआ । इस अवसर्पिर्णी काल के प्रथम शिक्षक जगद्गुरु भ० ऋषभदेव और प्रथम शिक्षार्थी भरत आदि हुए । जिस समय भरत की ग्रायु चौदह लाख पूर्व की हुई, उस समय उनके पिता भगवान् ऋषभदेव का राज्याभिषेक हुआ । त्रेसठ लाख पूर्व जैसी सुदीर्घा - वधि तक अपनी प्रजा की न्याय एवं नीतिपूर्वक परिपालना करते हुए राजोपभोग्य विविध भोगोपभोगों का अपने भोगावलि कर्म के अनुसार अनासक्त भाव से उपभोग करने के पश्चात् भ० ऋषभदेव अपने पुत्र भरत को विनीता के और बाहुबलि आदि ६६ पुत्रों को प्रन्यान्य राज्यों के राजसिंहासनों पर अभिषिक्त कर प्रव्रजित हो सकल सावद्य के त्यागी बन गये । ७७ जिस समय विनीता के राजसिंहासन पर भरत का राज्याभिषेक किया गया, उस समय उनकी आयु सतहत्तर लाख पूर्व की हो चुकी थी । वे न्याय और नीति पूर्वक प्रजा का पालन करने लगे । समचतुरस्र संस्थान एवं वज्रऋषभनाराच संहनन के धनो भरत इन्द्र के समान तेजस्वी, प्रियदर्शी, मृदुभाषी, महान् पराक्रमी और साहसी थे । वे शंख, चक्र, गदा, पद्म, छत्र, चामर, इन्द्रध्वज, नन्द्यावर्त, मत्स्य, कच्छप, स्वस्तिक, शशि, सूर्य आदि १००८ उत्तमोत्तम लक्षणों से सम्पन्न थे । वे बड़े ही उदार, दयालु, प्रजावत्सल एवं प्रजेय थे । अनुपम उत्तम गुणों के धारक महाराजा भरत की कीर्तिपताका दिग्दिगन्त में फहराने लगी । I इस प्रकार माण्डलिक राजा के रूप में विपुल वैभव तथा ऐश्वर्य का सुखोपभोग तथा प्रजा का पालन करते हुए महाराजा भरत का जीवन आनन्द के साथ व्यतीत होने लगा। महाराज भरत के, विनीता के राजसिंहासन पर आसीन होने के १००० वर्ष पश्चात् एक दिन उनके प्रबल पुण्योदय से उनकी आयुधशाला में दिव्य चक्ररत्न उत्पन्न हुआ । महान् प्रभावशाली, तेजपुंज चक्ररत्न को देखते ही प्रायुधशाला का रक्षक हर्षविभोर हो गया । हर्षातिरेक से उसका अंग-प्रत्यंग एवं रोम-रोम पुलकित हो उठः । उसका मन परम प्रमुदित हो भुवनभास्कर - भानु के करस्पर्श से खिले सौलह पंखुड़ियों वाले कमल के समान प्रफुल्लित हो गया । अभूतपूर्व उत्कृष्ट प्रानन्द का अनुभव करता हुआ, हृष्ट-पुष्ट वह आयुधशाला का रक्षक चक्ररत्न के समीप गया । उसने चक्ररत्न की तीन बार प्रदक्षिणा प्रदक्षिणा कर सांजलि शीर्ष भुका उसे सादर प्रणाम किया । तदनन्तर वह त्वरित गति से उपस्थान- शाला में महाराज भरत की सेवा में उपस्थित हुआ । " राजराजेश्वर आपकी सदा जय हो, विजय हो" -- इन जयघोषों के गम्भीर घोष के साथ महाराज भरत को वर्द्धापित करते हुए आयुधशाला के रक्षक ने अपने भाल पर करबद्ध ग्रंजलिपुट रखते हुए उन्हें साष्टांग प्रणाम किया और Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [संवर्दन बोला- "हे देवानुप्रिय बधाई है, बधाई है, अभूतपूर्व बहुत बड़ी बधाई है । देव ! आपकी प्रायुधशाला में दिव्य चक्ररत्न उत्पन्न हुना है। हे देवानप्रिय ! प्रापके हृदय मन, मस्तिष्क और कर्णयुगल को परम प्रमोद प्रदान करने वाले इस परमप्रीतिकर शुभ संवाद को सुनाने के लिये ही मैं आपकी सेना निकाल समुपस्थित हुअा हूं। यह शुभ समाचार आपके लिये परम प्रियंकर हो ।' आयुधागार के संरक्षक के मुख से इस प्रकार का सुखद समाचार सुनकर महाराजा भरत को इतना हर्ष और संतोष हुआ कि उनके फुल्लारविन्द द्वय तुल्य पायत नेत्र-युगल विस्फारित हो उठे, मुख कमल खिल गया। वे सहसा अपने राजसिंहासन से घनघटा में चपला की चमक के समान शीघ्रतापूर्वक इस प्रकार उठे कि उनके करकंकण, केयूर, कुण्डल, मुकूट, शैलेन्द्र की शिला के समान विशाल वक्षस्थल को सुशोभित करने वाले प्रलम्ब हार दोलायमान हो झूम उठे। महाराज भरत सिंहासन से उठ कर पादपीठ से नीचे उतरे। उन्होंने चरणपादुकानों को उतार कर दुपट्टे का उत्तरासंग किया। वे करबद्ध हो अंजलि को अपने भाल से लगा चक्ररत्न को ओर मुख किये सात-पाठ डग आगे की ओर चले। तदनन्तर उन्होंने अपने वाम घुटने को खड़ा रखते हुए प्रौर दक्षिण जान को भूका धरती पर रखते हुए दोनों हाथ जोड़ कर चक्ररत्न को प्रणाम किया। प्रणामानन्तर उन्होंने मुकुट के अतिरिक्त अपने शेष प्राभूषण प्रायुधशाला के रक्षक को प्रीतिदान अर्थात् पारितोषिक के रूप में प्रदान कर दिये। इस पारितोषिक के अतिरिक्त उन्होंने उसे और भी विपुल और स्थायी प्राजीविका प्रदान की। इस प्रकार महाराज भरत ने आयुधागार के अधिकारी को पूर्णरूपेण संतुष्ट कर उसे विदा किया और पुनः वे अपने राजसिंहासन पर पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठ गये। तदनन्तर उन्होंने अपने प्राज्ञाकारी अधिकारियों को प्रादेश दिया कि वे विनीता नगरी के बाह्याभ्यन्तर समस्त मार्गों को झाड़-बुहार-स्वच्छ बना सर्वत्र गन्धोदक का छिड़काव करें। राजमार्ग, वीथियों, चौराहों आदि में विशाल एवं नयनाभिराम मंचों का निर्माण करवा उन पर गगन में फहराती हई पताकाएं लगायें। उन अधिकारियों ने अपने स्वामी की आज्ञा को शिरोधार्य कर तत्काल नगर के सभी भागों को स्वच्छ, सुन्दर, सुशोभित एवं सुसज्जित बनाने का कार्य द्रुतगति से प्रारम्भ कर दिया। अभ्यंग मर्दन, स्नान, मज्जन, विलेपन के मनन्तर महाऱ्या वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो राज्य के सभी उच्चाधिकारियों, गणनायकों, दण्डनायकों, परिजनों. एवं मंगलकलश ली हुई विभिन्न देशों की दासियों से घिरे हुए महाराज भरत प्रायुधशाला की अोर प्रस्थित हुए। प्रति कमनीय विशाल छत्र से सुशोभित महाराज भरत के चारों ओर चामरपीजे जा रहे थे। हजारों कण्ठों से उद्घोषित जयविजय के घोषों से गगनमण्डल गजरित हो रहा था। उनके अनेक अधिकारी भांति-भांति के सुगन्धित एवं सुमनोहर पुष्प हाथों में लिये चल रहे थे। उनके Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और शिक्षा ] प्रथम चक्रवर्ती भरत आगे तुरी, शंख, पटह, परणव, मेरी, झल्लरी, मुरज, मृदंग, दुंदुभी प्रादि वाद्यवृन्दों के कुशल वादक अपने अपने वाद्ययन्त्रों की सधी हुई सुमधुर ध्वनि से जन-जन के मन को मुग्ध करते हुए चल रहे थे । विभिन्न देशों की दासियों के हाथों में चन्दनकलश, पुष्पकरंडक, रत्नकरंडक, विविध वस्त्राभूषणों की चंगेरियां, पंखे, गंधपिटकों एवं चूर्णों आदि की चंगेरियां थी । इस प्रकार की अतुल ऋद्धि एवं दल-बल के साथ पग-पग पर सम्मानित एवं वर्द्धापित होते हुए महाराज. भरत आयुधशाला में पहुंचे। उन्होंने चक्ररत्न को देखते ही प्रणाम किया । तदनन्तर चक्ररत्न के पास जाकर उन्होंने उसे सर्वप्रथम मयूरपिच्छ से प्रमार्जित किया। तत्पश्चात् दिव्य जल की धारा से चक्ररत्न को सिंचित कर उस पर गोशीर्ष चन्दन का विलेपन किया और कालागरु, गन्ध, माल्यादि से उसका प्रर्चन कर उस पर उन्होंने पुष्प, गन्ध, वर्ण, चूर्ण, वस्त्र एवं आभरण आरोपित किये । तदनन्तर चक्ररत्न के समक्ष रजतमय श्वेत, सुकोमल एवं शुभ लक्षण वाले समुज्ज्वल चावलों से स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त वर्द्धमान, भद्रासन, मत्स्य, कलश और दर्पण - इन आठ मंगलों की रचना की । तदनन्तर महाराज भरत ने पांच वर्ण के सुमनोहर पुष्पों से अपनी अंजलि भर उन्हें अष्टमंगल पर विकीर्ण किया । इसके पश्चात् भरत ने चन्द्रकान्त, हीरे और वैडूयं रत्न से निर्मित दण्ड वाले स्वर्ण मरिण, रत्नादि से मण्डित वैडूर्य रत्न के धूप कड़कुल से सुगन्धित धूम्र के गोट निकालने वाले कृष्णागरु, कु दरुक्क और तुरुष्क का धूप दिया । तदनन्तर सात-आठ कदम पीछे की ओर सरक कर अपनी देहयष्टि को झुका दक्षिण जानु को खड़े रखकर और वाम जानु को पृथ्वी से लगाकर चक्ररत्न को प्रणाम किया । इस प्रकार चक्ररत्न को स्वागतपूर्वक बधाने के पश्चात् भरत अपनी उपस्थानशाला में लौटे और राजसिंहासन पर आसीन हो उन्होंने अठारह श्रेणी प्रश्रेणियों के लोगों को बुलाकर उन्हें कर, शुल्क, दण्ड आदि से मुक्त एवं अनेक प्रकार की सुविधाएं प्रदान कर आठ दिन तक चक्ररत्न का महामहिमामहोत्सव मनाने का आदेश दिया। नागरिकों ने विनीता नगरी को भलीभाँति सजाया, स्थान-स्थान पर नृत्य, संगीत, नाटकों प्रादि का आयोजन किया । नगर में सर्वत्र ग्रामोद-प्रमोद और हर्षोल्लास का वातावरण व्याप्त हो गया । रंग-बिरंगे परिधान और बहुमूल्य प्राभूषणों से सुशोभित नर-नारीवृन्द श्रानन्द के सागर में कल्लोल करता हुआ भूम उठा। विनीता नगरी इन्द्रपुरी अलका सी सुशोभित होने लगी । आठ दिन तक विनीता नगरी में आमोद-प्रमोद श्रीर हर्षोल्लास का साम्राज्य छाया रहा । ७६ महामहिमा महोत्सव की प्रष्टाका अवधि के समापन के साथ ही चक्ररत्न प्रायुधशाला से निकला। एक हजार देवों से सुसेवित वह चक्ररत्न दिव्य Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [संवर्दन वाद्यों के गुरु-गंभीर-मृदु घोष के साथ आकाश में चलकर विनोता नगरी के मध्य भाग से होता हा गंगानदी के दक्षिणी तट से पूर्व दिशा में अवस्थित मागध तीर्थ की ओर प्रस्थित हुप्रा । चक्ररत्न को मागध तीर्थ की ओर आकाश में जाते हुए देख महाराज भरत का हृदय-कमल परम प्रफुल्लित हो उठा । वे सब प्रकार के श्रेष्ठ आयुधोंशस्त्रास्त्रों से सुसज्जित चतुरंगिणी विशाल सेना को ले, अभिषेक हस्ति पर प्रारूढ़ हो चक्ररत्न का अनुगमन करने लगे। इस प्रकार हस्तिश्रेष्ठ पर आरूढ़ छत्र, चामरादि से सुशोभित भरत गंगा नदी के दक्षिणी किनारे पर बसे ग्राम, आगार, नगर, खेड़, कर्बट, मडम्ब द्रोणमुख, पत्तन, पाश्रम, संवाह आदि जनावासों से मण्डित वसुन्धरा पर अपनी विजय वैजयन्ती फहरा कर दिग्विजय करते हुए चक्ररत्न द्वारा प्रदर्शित पथ पर अग्रसर होने लगे। आकाश में चलता हुया चक्ररत्न एक-एक योजन की दूरी पार करने के पश्चात् रुक जाता । वहीं भरत महाराज भी अपनी सेना का स्कन्धावार लगा सेना को विश्राम देते । गगनस्थ चक्ररत्न के आगे की ओर अग्रसर होते ही वे भी सेना सहित कूच करते। वे विजित प्रदेशों के अधिपतियों द्वारा सादर समुपस्थित की गई भेंट स्वीकार करते हुए बढ़ने लगे। इस प्रकार प्रत्येक योजन के अन्तर पर पड़ाव डालते हुए महाराजा भरत मागध तीर्थ के समीप पाये। वहां बारह योजन लम्बे और ६ योजन चौड़े स्थल पर उन्होंने अपनी सेना का पड़ाव डाला। तदनन्तर अपने वाद्धिक रत्न को बुला कर उसे उन्होंने अपने लिये एक आवास और पौषध शाला का निर्माण करने का आदेश दिया। वाद्धिकरत्न ने भरत की आज्ञा को शिरोधार्य कर अपने स्वामी के योग्य एक प्रावास और पौषधशाला का निर्माण कर उन्हें सूचित किया। गजराज के स्कन्ध से उतर कर भरत ने पौषधशाला में प्रवेश किया। वहां के स्थान को प्रमाजित कर उन्होंने दर्भासन बिछाया। मैथुन, आभरणालंकार, माला, पूष्प, विलेपन एवं सभी प्रकार के शस्त्रास्त्रों का त्याग करने के पश्चात् दर्भासन पर बैठकर भरत ने मागध तीर्थ के अधिष्ठायक देव की साधना के लिये पौषध सहित अष्टम भक्त (तीन दिन के उपवास अथवा तेले) की तपस्या का प्रत्याख्यान किया । अष्टम भक्त की तपश्चर्या के पूर्ण होने पर महाराज भरत ने अपने प्राज्ञाकारी अधिकारियों को बुला सेना को प्रयाण के लिये सुसज्जित करने एवं अपने लिये चार घण्टों वाले अश्वरथ को तैयार करने का आदेश दिया। तदनन्तर स्नान-विलेपन के अनन्तर वस्त्रालंकारादि से अलंकृत एवं प्रायुधों से सुसज्जित हो चतुरंगिणी विशाल वाहिनी के जयघोषों के बीच वे अश्वरथ पर आरूढ़ हुए। चक्ररत्न द्वारा प्रदर्शित पथ पर उन्होंने अपना रथ अग्रसर किया। उद्वेलित उदधि की क्षुब्ध लोल लहरों के समान सिंहनाद करती हुई अपनी विशाल सेना से विस्तीर्ण भूखण्डों को प्राच्छादित करते हुए भरत ने पूर्व दिशा Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और शिक्षा ] प्रथम चक्रवर्ती भरत में मागध तीर्थ के तट से लवण समुद्र में प्रवेश किया । लवण समुद्र में जब उनके रथ की पींजनी भीगने लगी उस समय उन्होंने अपने रथ को रोका । रथ को रोककर उन्होंने मदोन्मत्त महिष के वर्तुलाकार मुड़े हुए शृङ्गों के समान, क्रुद्ध महाकाल की भृकुटि तुल्य शत्रुसंहारकारी रत्नमंडित अपने दिव्य धनुष की प्रत्यंचा पर स्व नामांकित वज्रसारोपम सर का संधान किया । तदनन्तर उन्होने लक्ष्यवेध की वैशाखासन मुद्रा ( ईषत् भुके बाँए चरण को आगे और दक्षिण चरण को एक हाथ पीछे की ओर जमाकर लक्ष्यवेध करने की मुद्रा ) में अवस्थित हो प्राकर्णान्त प्रत्यंचा को खींचते हुए प्रतीव उदार, गुरु-गम्भीर, मृदु स्वर में निम्नलिखित उद्घोष किया : "आप सब सावधान होकर सुन लें- मेरे इस बाण के प्रभाव के बाहर जो देव, नाग, असुर श्रीर सुपर्ण हैं, उनको मैं नमस्कार करता है और जो देव, नाग, असुर और सुपर मेरे इस बार की परिधि अथवा प्रभाव के आभ्यन्तर में आते हैं, वे भी सावधान होकर सुनलें कि वे सब मेरे प्राज्ञाकारी होवें ।" ८१ इन मृदु-मंजुल एवं गुरुगंभीर वचनों के उद्घोष के साथ भरत ने बाण को छोड़ा । भरत द्वारा छोड़ा गया वह नामांकित बाण मनोवेग से तत्काल ही बारह योजन की दूरी को लांघकर मागध तीर्थाधिपति के भवन में गिरा । अपने भवन में गिरे उस बार को देखते ही मागध तीर्थाधिपति देव बड़ा ही रुष्ट प्रौर कुपित हुप्रा । प्रचण्ड क्रोध के कारण उसके दोनों लोचन लाल हो गये, वह किट किटा करदाँत पीसने लगा । उसकी भृकुटि तन कर तिरछी हो गई और वह आक्रोश - पूर्ण रौद्र स्वर में बड़बड़ाने लगा - " सकल चराचर जगत में कोई भी प्राणी अपनी मृत्यु के लिये कभी प्रार्थना नहीं करता, पर इस प्रकार की सदा प्रार्थित मृत्यु की कामना - प्रार्थना करने वाला समस्त दुष्ट लक्षणों का निधान पुण्यहीन, चतुर्दशी अथवा अमावस्या का जन्मा हुआ, निर्लज्ज और निष्प्रभ यह ऐसा कौन है, जिसने मेरे समान महद्धिक देव के भवन पर बारण फेंका है। इस प्रकार के प्राक्रोशपूर्ण वचन बोलता हुआ मागधदेव अपने सिंहासन से उठा और उस बारण के पास पहुंचा। उस बारण को उठाकर वह उसे देखने लगा । ज्योंही उसकी दृष्टि उस बारण पर अंकित नाम पर पड़ी त्योंही उसका क्रोध तत्काल शान्त हो गया । उसके मन में इस प्रकार के विचार, विनम्र अध्यवसाय प्रर संकल्प उत्पन्न हुए कि जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में भरत नामक जो चक्रवर्ती उत्पन्न हुए हैं, वे षट्खण्ड की साधना के लिये प्राये हैं । विगत, वर्तमान और भावी मागध तीर्थाधिप देवों का यह जीताचार है कि चक्रवर्ती के समक्ष उपस्थित हो उन्हें भेंट प्रस्तुत करें। प्रतः मेरा भी कर्त्तव्य है कि मैं भी भेंट लेकर चक्रवर्ती के समक्ष उपस्थित होऊं । इस प्रकार विचार कर मागध तीर्थाधिपति देव ने भरत को भेंट करने के लिये हार, मुकुट, कुडल, कंकण, भुजबन्ध, वस्त्र, ग्राभरगा, भरत का नामांकित बाण और मागघ तीर्थ का जल लिया और इन्हें लेकर Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [संवद्धन उत्कृष्ट त्वरित देवगति से चलकर जहाँ भरत चक्रवर्ती प्रवस्थित थे, वहां प्राकाश में रुका। पांचों वर्गों के प्रति मनोहर दिव्य वस्त्रधारी मागधदेव के घुघरुओं की सम्मोहक मधुर ध्वनि ने सबका ध्यान आकाश की ओर आकर्षित किया। मागध देव ने जय विजय के घोष से भरत को वर्धापित करते हुए दोनों हाथ जोड़कर उनके सम्मुख उपस्थित हो निवेदन किया-'हे देवानुप्रिय ! आपने पूर्व में मागध तीर्थ की सीमापर्यन्त सम्पूर्ण भरतक्षेत्र पर विजय प्राप्त की है । अतः मैं आपके देश में रहने वाला आपका प्राज्ञाकारो किंकर हूं । मैं आपके राज्य को पूर्व दिशा को अन्तिम सीमा का पालक (संरक्षक) हं, यह विचार कर आप मेरी ओर से भेंट किये जा रहे प्रीतिदान को स्वीकार करें।" यह कहते हुए उसने अपने साथ भेंट हेतु लाई हुई उपर्यु ल्लिखित हार आदि सभी वस्तुएँ भरत को भेंट की। महाराज भरत ने मागध तीर्थाधिपति देव की भेंट को स्वीकार कर उसका सत्कार सम्मान किया और तदनन्तर उसे मधुर वचनों से विसजित किया। मागधतीर्थ कुमार देव को विदा करने के पश्चात् महाराज भरत ने अपना रथ पीछे की ओर घुमाया और सेना सहित वे स्कन्धावार में लौट आये। उपस्थानशाला के पास वे अपने रथ से उतरे। स्नान, मज्जन, विलेपन, आभरणालंकार विभूषण धारण आदि के अनन्तर उन्होंने भोजनमण्डप में उपस्थित हो अष्टमभक्त तप का पारण किया। भोजनोपरान्त उपस्थानशाला में राजसिंहासन पर आसीन हो उन्होंने अपने समस्त परिजनों एवं प्रजाजनों को अनेक प्रकार की सुविधाएं प्रदान कर उन्हें मागधतीर्थ कुमार देव का पाठ दिन तक महिमा महोत्सव मनाने का आदेश दिया । अष्टाह्निक महोत्सव के सम्पन्न होते ही चक्ररत्न आयुधशाला से बाहर निकला। उस वजरत्न की नाभि वजरत्नमयी, आरा लोहिताक्ष रत्नमय और धुरा जम्बरत्नमय था। उसकी प्राभ्यन्तर परिधि में अनेक प्रकार के मणिमय क्षरप्रवाल थे। यह मरिणयों और दिव्य मोतियों की जालियों से विभूषित था। उसकी घुघरियों से अहर्निश निरन्तर भेरी, मदंग आदि बारह प्रकार के दिव्य वाद्ययन्त्रों की कर्णप्रिय अतीव सम्मोहक ध्वनि समस्त वातावरण को मुखरित-गजरित करती रहती थीं। वह उदीयमान सूर्य की अरुणिम आभा के समान तेजस्वी एवं भास्वर था। वह अनेक प्रकार की मणिमयी एवं रत्नमयी घंटिकाओं की रुचिर पंक्तियों से सुशोभित था । उसके चारों ओर सभी ऋतुओं के चित्र-विचित्र वर्णों वाले सुगन्धित एवं सुमनोहर पुष्पों की मालाएं लटक रही थीं। वह आकाश में चलता था। एक हजार देवता सदा संरक्षक के रूप में उसकी सेवा सन्निधि में रहते थे। वह दिव्य वाद्य यन्त्रों के निनाद से अन्तरिक्ष और धरातल को आपूरित करता रहता था। उसका नाम सुदर्शन था जो कि चक्रवर्ती का पहला रत्न माना गया है। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और शिक्षा प्रथम चक्रवर्ती भरत ८३ __ आठ दिन के मागध देव के महामहोत्सव के सम्पन्न होने पर महाराज भरत ने देखा कि चक्ररत्न दक्षिण-पश्चिम के बीच की नैऋत्य कोण में वरदाम तीर्थ की ओर प्रस्थित हया है। महाराज भरत भी अभिषेक हस्ति पर आरूढ हो अपनी सेना को साथ ले चक्र के पीछे-पीछे चलने लगे। वे चक्ररत्न द्वारा प्रदर्शित मार्ग पर आगे बढ़ते हए सर्वत्र अपनी जय पताका फहराते, विजितों से बहुमूल्य भेंट स्वीकार करते और एक एक योजन के अन्तर से सेना का पड़ाव डालते हुए वरदाम तीर्थ के पास आये। वहां अपनी सेना को पड़ाव डालने का आदेश दे भरत ने अपने वाद्धिक रत्न से अपने लिये आवास और पौषधशाला का निर्माण करवाया। तदनन्तर भरत ने पौषधशाला में प्रविष्ट हो अपने सब अलंकारों और प्रायधों को उतार कर पूर्वोक्त विधि से वरदाम तीर्थाधिपति देव की साधना के लिये पौषधपूर्वक अष्टम भक्त किया। अष्टम भक्त के पूर्ण होने पर उन्होंने रथारूढ़ हो अपनी सेना के साथ वरदाम तीर्थ की ओर प्रयाण किया। लवण समुद्र के पास पहुंच कर भरत ने अपने रथ को लवण समुद्र में हांका । लवण समुद्र का पानी जब रथ की पीजनी तक आ गया तब उन्होंने रथ को रोककर अपने धनुष पर पूर्वोक्त विधि से स्व नामांकित सर का संधान कर प्रत्यंचा को कान तक खींचते हए उसे छोड़ा । मागध तीर्थाधिपति देव के समान ही वरदामतीर्थाधिपति भी भरत के सम्मुख उपस्थित हुआ और उसने भरत की अधीनता स्वीकार करते हुए उन्हें मुकुट, वक्षस्थल का दिव्य आभरण, कंठ का आभरण, कटि-मेखला, कड़े और बाहुओं के आभरण भेंट किये। उसने हाथ जोड़कर भरत से कहा- "देवानप्रिय ! मैं आपका वशवर्ती किंकर और आपके राज्य की दक्षिण दिशा की सीमा का अंतपाल हूं।" ___ महाराज भरत ने वरदाम तीर्थकुमार देव की भेंट को स्वीकार किया। उसका सत्कार-सन्मान करने के पश्चात् उसे विसजित किया। तदनन्तर सेना सहित स्कन्धावार में लौट कर भरत ने स्नानादि से निवृत्त हो द्वितीय अष्टभक्त तप का पारण किया और उपस्थानशाला में सिंहासन पर आसीन हो अपनी प्रजा की अठारह श्रेणि-प्रश्रेणियों को करमुक्त कर आठ दिन तक वरदाम तीर्थाधिपति देव का महामहोत्सव मनाने का सबको आदेश दिया। वरदाम तीर्थ कुमार देव का अष्ट दिवसीय महा महोत्सव सम्पन्न होते ही चक्ररत्न आयुधशाला से निकल कर अन्तरिक्ष में उत्तर पश्चिम दिशा के बीच की वायव्य कोण में प्रभास तीर्थ की ओर बढ़ा । तत्काल महाराज भरत ने भी अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ चक्ररत्न का अनुगमन प्रारम्भ किया। एक एक योजन के अन्तर से सेना का पड़ाव डालते हुए और वायव्य दिशा के समस्त भूमण्डल को अपने अधीन करते हुए वे प्रभास तीर्थ के पास आये । यहां Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [संवर्द्धन सेना ने स्कन्धावार में पड़ाव डाला । महाराज भरत ने अपने वाद्धिक रत्न द्वारा निर्मित पौषधशाला में प्रभास तीर्थाधिपति देव की साधना के लिये पूर्वोक्त विधि से पौषध सहित अष्टम भक्त किया। अष्टमभक्त तप के सम्पन्न होने के पश्चात उन्होंने रथारूढ़ हो अपनी सेनों के साथ प्रभास तीर्थ की ओर प्रयारण किया। उन्होंने लवण समुद्र में रथ की पींजनी पर्यन्त पानी पाने तक रथ को हांका और पूर्ववत् ही अपने धनुष से प्रभास तीर्थाधिपति देव के भवन की ओर तीर छोड़ा। प्रभास तीर्थ का अधिष्ठाता देव भी रत्नों की माला, मुकुट, मौलिकजाल, स्वर्णजाल, कड़े, बाहुओं के प्राभरण प्रभास तीर्थ का पानी, नामांकित बाण आदि अनमोल भेंट सामग्री लेकर भरत की सेवा में पहुंचा। उसने वे सब वस्तुएं भरत को भेंट करते हुए करबद्ध हो निवेदन किया-"देवानुप्रिय ! मैं वायव्य दिशा का अन्तपाल, आपके राज्य में रहने वाला आपका आज्ञाकारी किंकर हूं।" भरत ने उसकी भेंट स्वीकार कर उसे सम्मानित कर विदा किया । सम्पूर्ण वायव्य दिशा को जीत कर अपने राज्य में मिलाने के पश्चात् भरत अपनी सेना सहित अपने सैन्य शिविर में लौट आये । स्नानादि से निवृत्त हो तृतीय अष्टम भक्त तप का पारणा करने के पश्चात उन्होंने अठारह श्रेरिण-प्रश्रेणियों के लोगों को बुला कर उन्हें करमुक्त, शुल्क मुक्त एवं दंडमुक्त करते हुए प्रभास तीर्थाधिपति देव का अष्टाह्निक महामहोत्सव मनाने की प्राज्ञा दी। सब लोगों ने आठ दिन तक महा महोत्सव मनाया। तत्पश्चात् चक्ररत्न प्रायुधशाला से निकल कर दिव्य वाद्य यन्त्रों की सुमधुर ध्वनि से नभमण्डल को आपूरित करता हुआ अन्तरिक्ष में सिन्धु महा नदी के दक्षिणी तट से पूर्व दिशा में अवस्थित सिन्धु देवी के भवन की ओर अग्रसर हया। यह देख महाराज भरत बड़े हृष्ट एवं तुष्ट हए । अभिषेक हस्ति पर आरूढ़ हो सेना सहित वे भी चक्ररत्न का अनुसरण करते हुए सिन्धु देवी के भवन के पास आये। वहां बारह योजन लम्बा और नो योजन चौड़ा स्कन्धावार बनवा सेना का पड़ाव डाला और अपने वाद्धिक रत्न से अपने लिये आवास और पौषधशाला बनवा कर पौषधशाला में सिन्धु देवी की साधना के लिये भरत ने पौषध सहित चौथा अष्टम भक्त तप किया। अष्टम भक्त के पौषध में वे पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत के पालन के साथ दर्भ के आसन पर बैठ सिन्धु देवी का चिन्तन करते रहे। अष्टम भक्त तप के पूर्ण होते होते सिन्धु देवी का प्रासन प्रकम्पित हुआ । सिन्धु देवी ने अवधिज्ञान के उपयोग से देखा कि भरतक्षेत्र के इस अवसर्पिणी काल के प्रथम चक्रवर्ती भरत षट्खण्ड के साधनार्थ उसके भवन के पास पाये हैं। यह त्रिकालवर्ती सिन्धु देवियों का जीताचार है कि वे चक्रवर्ती को भेंट समर्पित करें। प्रत: मुझे भी चक्रवर्ती भरत को उनके समक्ष जाकर भेंट प्रस्तुत करनी चाहिये । इस प्रकार विचार कर सिन्धु देवी रत्नजटित १००८ कुम्भकलश, भांति भांति के दुर्लभ मणिरत्नों से जटित दो Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और शिक्षा] प्रथम चक्रवर्ती भरत स्वर्णमय भद्रासन, भुजबन्ध आदि अनेक प्राभरण लेकर उत्कृष्ट देवगति से भरत महाराज के पास उपस्थित हुई और हाथ जोड़कर उन्हें निवेदन करने लगी :- "हे देवानुप्रिय ! आपने भरतक्षेत्र पर विजय प्राप्त की है। मैं आपके अधिकारक्षेत्र में रहने वाली आपकी आज्ञाकारिणी किंकरी हं अतः आप भेंट स्वरूप मेरा यह प्रीतिदान स्वीकार करें।" __ इस प्रकार निवेदन कर सिन्धुदेवी ने भरत को अपने साथ लाई हुई उपरिलिखित सभी वस्तुएं भेंट स्वरूप समर्पित की। महाराज भरत ने सिन्धु देवी द्वारा भेंट की गई वस्तुओं को स्वीकार किया। तदनन्तर भरत ने सिन्धुदेवी का सत्कार सम्मान कर उसे आदरपूर्वक विदा किया। सिन्धुदेवी को विदा करने के पश्चात् महाराजा भरत ने स्नानादि से निवृत्त हो चतुर्थ अष्टमभक्त तप का पारणा किया। तदनन्तर उपस्थान शाला में सिंहासन पर पूर्वाभिमुख आसीन हो अपनी प्रजा को कर, शुल्क, दण्ड आदि से मुक्त कर उसे सिन्धुदेवी का अष्टाह्निक महामहोत्सव मनाने का आदेश दिया। भरत महाराज की आज्ञानुसार आठ दिन तक सिन्धुदेवी का महामहोत्सव मनाया गया। सिन्धुदेवी के अष्टाह्निक महोत्सव के अवसान पर वह सुदर्शन नामक चक्ररत्न भरत की आयुधशाला से निकल आकाशमार्ग से ईशान कोण में वैताढ्य पर्वत की ओर बढ़ा। हस्तिस्कन्धाधिरूढ़ भरत अपनी विशाल वाहिनी के साथ चक्ररत्न द्वारा प्रदर्शित पथ पर सभी प्रदेशों पर अपनी विजयवैजयन्ती फहराते एवं विजित अधिपतियों से भेंट ग्रहण करते हुए एक एक योजन के अन्तर पर अपनी सेना का पड़ाव डाल पुनः कूच करते हुए वैताढ्य पर्वत की दक्षिणी तलहटी में आये। वहां सेना का पड़ाव डालने के पश्चात् वैताढ्य गिरिकुमार देव की साधना के लिये पौषधशाला में अष्टमभक्त और पौषधवत ग्रहण कर दर्भासन पर बैठ एकाग्रचित्त हो उसका चिन्तन करने लगे । अष्ट्रमभक्त तप के पूर्ण होते ही वैताढ्य गिरिकुमार देव का आसन दोलायमान हुआ। अवधिज्ञान द्वारा भरत चक्रवर्ती के आगमन तथा विगत, वर्तमान एवं भावी वैताढ्य गिरि कुमार देवों के जीताचार से अवगत हो भरत को भेंट करने के लिये अभिषेक योग्य अलंकार, कंकण, भुजबन्ध, वस्त्र आदि ले दिव्य देवगति से भरत के सम्मुख उपस्थित हुआ। उसने हाथ जोड़कर भरत से निवेदन किया :"हे देवानप्रिय ! आपने भरतक्षेत्र पर विजय प्राप्त की है, मैं भी आपके राज्य में रहने वाला आपका आज्ञाकारी किकर हूं, अतः यह भेट आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूं। आप इसे कृपा कर स्वीकार करें।" महाराज भरत ने भेंट स्वीकार कर वैताढ्य गिरिकुमार देव का सत्कारसम्मान किया और तदनन्तर उसे विदा किया। तत्पश्चात् महाराज भरत Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [संवर्द्धन ने स्नानादि से निवृत्त हो पाँचवें अष्टमभक्त तप का पारणा किया और अपने प्रजाजनों को करमुक्त कर पूर्ववत् वैताढ्य गिरि कुमार देव का भी अष्टाह्निक महामहोत्सव मनाने का आदेश दिया । बड़े हर्षोल्लास से सबने अष्टाह्निक महामहोत्सव मनाया। इस पाँचवें अष्टाह्निक महोत्सव के समाप्त होते ही वह सुदर्शन चक्ररत्न पुनः प्रायुधशाला से निकला और अन्तरिक्ष को दिव्य वाद्ययन्त्रों के निनाद से गजाता हुआ वैताढ्य की दक्षिणी तलहटी से पश्चिम दिशा में तिमिस्र गुफा की ओर अग्रसर हुआ । यह देख भरत बड़े हृष्ट-तुष्ट एवं प्रमुदित हुए। उन्होंने अभिषेक हस्ति पर आरूढ़ हो अपनी सेना के साथ चक्ररत्न का अनुसरण किया । एक एक योजन के प्रयाण के पश्चात् पड़ाव और पुनः प्रयाण के क्रम से वे तिमिस्र गहा के समीप पहुंचे। वहां बारह योजन लम्बे और नौ योजन चौड़े क्षेत्र में अपनी सेना का पड़ाव डालकर महाराज भरत ने कृतमाल देव की अाराधना के लिये पौषधशाला में दर्भासन पर बैठ पौषध सहित अष्टमभक्त तप किया। इस छठे अष्टमभक्त तप के पूर्ण होते होते कृतमाल देव का प्रासन चलित हुआ और अवधिज्ञान के उपयोग से वस्तुस्थिति को यथावत् जानकर वह महाराज भरत को भेंट करने हेतु उनके भावी स्त्रीरत्न के लिये तिलक आदि चौदह प्रकार के आभरण तथा अनेक प्रकार के वस्त्रालंकार एवं आभरण आदि लेकर भरत की सेवा में उपस्थित हुना। उसने हाथ जोड़कर भरत से निवेदन किया- "देवानुप्रिय ! मैं आपके राज्य का निवासी आपका आज्ञाकारी किंकर हूं। इसीलिये आपको प्रीतिदान के स्वरूप में यह भेंट समर्पित कर रहा हूं। कृपा कर इसे ग्रहण करें।" इस प्रकार निवेदन करने के पश्चात् कृतमाल देव ने उपरिवरिणत सभी वस्तुएं महाराज भरत को भेंट की। भरत ने भेंट स्वीकार कर कृतमाल देव का सत्कार-सम्मान किया और तदनन्तर उसे विसजित अर्थात् विदा किया । कृतमाल देव को विदा करने के पश्चात महाराज भरत ने प्रावश्यक कृत्यों से निवृत्त हो छठे तेले के तप का पारण किया। भोजनोपरान्त वे उपस्थानशाला में सिंहासन पर पूर्वाभिमुख हो प्रामीन हुए। उसी समय उन्होंने प्रजाजनों को कर प्रादि से मुक्त कर कृतमाल देव का अष्टाह्निक महामहोत्सव मनाने का आदेश दिया । पाठ दिन तक बड़ी धूमधाम से कृतमाल देव का अष्टाह्निक महोत्सव मनाया गया । उस छठे महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर महाराज भरत ने अपने सेनापतिरत्न मुखसेन को बलाकर आदेश दिया- 'हे देवानुप्रिय ! तुम चतुरंगिणी सेना लेकर मिन्धु नदी के पश्चिमी तट से लवण समुद्र गौर वताय पर्वत तक जो छोटा खण्ड है, उसके सब देशों को, वहां की मम अथवा विषम Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और शिक्षा प्रथम चक्रवर्ती भरत ८७ सब प्रकार की भूमि पर विजय प्राप्त कर वहां से उत्तम वजरत्न आदि महाऱ्या वस्तुएं भेंट में प्राप्त कर लाओ।" यह सुनकर भरत चक्रवर्ती का सेनापति रत्न सुखसेन बड़ा हृष्ट एवं तुष्ट हया। उसने हाथ जोड़कर भरत महाराज की आज्ञा को “यथाज्ञापयति देव" कहकर शिरोधार्य किया। उसने सैन्य शिविर में अपने कक्ष में आकर अपनी सेना को सुसज्जित होने का आदेश दिया। अपने आज्ञाकारी सेवकों को बुलाकर उन्हें अपने श्रेष्ठ गजराज को युद्ध के योग्य सभी साज सज्जाओं से सुसज्जित करने की आज्ञा दे स्नान किया । तदनन्तर सुदृढ़ अभेद्य कवच धारण कर वस्त्राभरण एवं पायधों से सुसज्जित हो हाथी पर आरूढ़ हया । शिर पर छत्र धारण किये हुए सुखसेन सेनापति ने एक विशाल चतुरंगिरणी सेना के साथ जयघोषों के बीच सिन्धु नदी की ओर प्रयारण किया । सूखसेन सेनापति महा पराक्रमी, प्रोजस्वी, तेजस्वी, युद्ध में सर्वत्र अजेय, म्लेच्छों की सब प्रकार की भाषाओं का विशेषज्ञ, बड़ा ही मदुभाषी, भरतक्षेत्र के सम, विषम, दूर्गम और गप्त सभी प्रकार के स्थानों को जानने वाला, शस्त्र एवं शास्त्र दोनों प्रकार की विद्याओं में निष्णात, अर्थशास्त्र एवं नीतिशास्त्र में पारंगत और सम्पूर्ण भरतक्षेत्र में अपने अजेय शौर्य के लिये विख्यात था। सिन्धु नदी के पास आकर सेनापति ने भरत चक्रवर्ती का चर्मरत्न उठाया, जिसे कि चक्रवर्ती घोर वृष्टि के समय उपयोग में लिया करते हैं। उस चर्मरत्न का प्राकार श्रीवत्स के समान था, वह अचल, अकम्प एवं उत्तमोत्तम कवच के समान अभेद्य था । वह चक्रवर्ती की सुविशाल समस्त चतुरंगिणी सेना को एक ही बार में महानदियों और समुद्रों को उत्तीर्ण कराने में पूर्णतः समर्थ था। वह चर्मरत्न शालि, यव, ब्रीही, गेहूं, चने, चावल आदि सत्रह प्रकार के धान्य, सात प्रकार के रस, मसाले आदि सभी प्रकार को खाद्य सामग्री का उत्पत्ति स्थान था। धान्यादि जो भी वस्तु उसमें प्रातःकाल बोई जाती तो वह उसी दिन संध्या समय तक पक कर तैयार हो जाती थी। वह चर्मरत्न बारह योजन से भी कुछ अधिक विस्तार में फैल जाता था। सखसेन सेनापति ने इस प्रकार के अनेक अलौकिक गणों से सम्पन्न चर्मरत्न को ग्रहण किया। वह तत्काल एक अति विशाल नाव के रूप में परिवर्तित हो गया। उस नाव में अपने समग्र बल-वाहन एवं चतुरंगिरणी के साथ सेनापति आरूढ हए । महा वेगवती कल्लोलशालिनी उस सिन्धू महानदी को चर्मरत्न से सेना सहित पार कर सेनापति ने सिन्धु नदी के पश्चिमी प्रदेशों पर चक्रवर्ती भरत की विजय वैजयन्ती फहराने का अभियान प्रारम्भ किया। सेनापति ने क्रमशः सिंहल, बर्बर, अतिरमणीय अंगलोक, यवनद्वीप, श्रेष्ठ मणिरत्नों और स्वर्ण के भण्डारों से परिपूर्ण अरब देश, रोम, अरखंड, पंखुर, कालमुख, यवनक देश और उत्तर दिशा में वैताढ्य पर्वत पर्यन्त सभी देशों, नैऋत्य कोण Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [संवर्द्धन के देशों और सिन्धु नदी से समुद्र पर्यन्त कच्छ देश पर विजय प्राप्त की। उन सभी विजित देशों के अधिपतियों से सुखसेन सेनापति को चक्रवर्ती भरत के लिये भेंट स्वरूप मणि-रत्न स्वर्णाभरणादि के विपुल भण्डार प्राप्त हुए । उन सब देशों के पत्तनों, महापत्तनों एवं मण्डलों आदि के स्वामियों ने सेनापतिरत्न को अनेक प्रकार की बहुमूल्य भेट प्रस्तुत करते समय हाथ जोड़कर उन्हें निवेदन किया-"चक्रवर्ती भरतेश्वर के सेनापति ! महाराज भरत हमारे स्वामी हैं । हम आपकी शरण में आये हैं । हम आपके देश में रहने वाले आपके आज्ञाकारी सेवक हैं।" _सेनापति ने उन सबका सत्कार-सम्मान किया और प्रशासन सम्बन्धी बातचीत कर उन्हें विदा किया। उपर्युक्त, सिन्धु नदी के पश्चिम तट से लवण समुद्र और वैताढ्य पर्वत पर्यन्त सभी देशों में महाराज भरत की अखण्डित आज्ञा प्रसारित कर सुखसेन सेनापति सिन्धु महानदी को पार कर अपनी सेना के साथ भरत महाराज की सेवा में लौटा। सिन्धु नदी के पश्चिमी तट से लवण समुद्र और वैताढ्य पर्वत पर्यन्त सभी देशों पर अपने विजय अभियान का सारभूत वृतान्त भरत महाराज को सुनाने के पश्चात् सेनापति ने उन देशों से प्राप्त समस्त सामग्री उन्हें समर्पित की। महाराज भरत ने सेनापति का सत्कार सम्मान कर विसजित किया। कतिपय दिनों तक महाराज भरत ने वहीं पर वाद्धिक रत्न द्वारा निर्मित अपने प्रासाद में और सेनापति तथा सैनिकों ने स्कन्धावार में अनेक प्रकार के नाटक देखते एवं विविध भोगोपभोगों का उपभोग करते हुए विश्राम किया । एक दिन महाराज भरत ने अपने सेनापतिरत्न सुखसेन को बुलाकर तिमिस्र गुफा के दक्षिण द्वार के कपाट खोलने का आदेश दिया। सेनापति ने अपने स्वामी की आज्ञा को शिरोधार्य कर पौषधशाला में पौषध सहित अष्टमभक्त तप के द्वारा कृतमाल देव की आराधना की । अष्टम भक्त तप के पूर्ण होने पर स्नानान्तर वस्त्रालंकारों से सुमज्जित हो धूप, पुष्प, माला आदि हाथ में ले तिमिस्र गुफा के दक्षिणी द्वार के पास गया । सेनापति का अनुगमन करते हुए अनेक ईसर, तलवार, मांडविक, सार्थवाह आदि अपने हाथों में पुष्प आदि और अनेक देश-विदेशों की दासियों के समूह मंगल कलश आदि लिये तिमिस्र गुफा के द्वार पर पहुंचे। सेनापति ने मयूर पिच्छ से कपाटों का प्रमार्जन और पानी की धारा से प्रक्षालन करने के पश्चात् उन कपाटों पर गोशीर्ष चन्दन के लेप से पांचों अंगुलियों सहित हथेली के छापे लगाये। गंध, माला प्रादि से कपाटों की अर्चना की । कपाटों के सम्मुख जानु प्रमारण पुष्पों का ढेर लगाया । कपाटों पर वस्त्र का आरोपण किया। तत्पश्चात् सेनापति ने स्वच्छ एवं श्वेत रजतमय सुकोमल Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और शिक्षा] प्रथय चक्रवर्ती भरत ८६ चावलों से कपाटों के समक्ष अष्ट मांगलिकों का आलेखन किया। वहां पुनः जानुप्रमाण पुष्पों का ढेर कर उसने चक्रवर्ती के दण्ड रत्न को धूप दिया। हाथ जोड़कर कपाटों को प्रणाम किया। तदनन्तर रत्नमय मूठ वाले वजनिर्मित, शत्रों का विनाश करने में समर्थ, चक्रवर्ती की सेना के मार्ग में खड्डों, गफाओं एवं विषम स्थानों आदि को समतल बनाने में सक्षम, उपद्रवों को नष्ट कर शान्ति के संस्थापक, सुखकर, हितकर और चक्रवर्ती के ईप्सित मनोरथ को तत्काल पूर्ण करने वाले दिव्य एवं अप्रतिहत चक्रवर्ती के दण्डरत्न को हाथ में लेकर सेनापति ने सात-पाठ पांव पीछे की ओर सरक कर और पुनः बड़ी त्वरित गति से कपाटों की ओर बढ़कर उस दण्ड रत्न से तिमिस्र गुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट पर पूरे वेग के साथ प्रहार किया। इसी प्रकार दूसरी बार और तीसरी बार भी प्रहार किया। सेनापति द्वारा तीसरे प्रहार के किये जाते ही तिमिस्रप्रभा गुफा के कपाट घोर रव करते हुए पीछे की ओर सरके और पूरी तरह खुल गये । तिमिस्र प्रभा गुफा के द्वारखोलने केपश्चात् सेनापति महाराज भरत की सेवा में लौटा। तिमिस्रप्रभा के दक्षिणी द्वार के कपाटों के खुलने का सुसंवाद सुनकर भरत को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने सेनापति को सम्मानित किया। उसी समय चक्ररत्न प्रायुधशाला से निकला और तिमिस्रप्रभा के दक्षिणी द्वार की ओर अग्रसर हुअा । यह देखकर भरत ने सेनापति को तत्क्षण प्रयाण के लिये सेना को सन्नद्ध करने एवं अपने लिये हस्तिरत्न को सुसज्जित करवाने का आदेश दिया। सैनिक प्रयाण की पूरी तैयारी हो जाने के पश्चात् भरत महाराज श्रेष्ठ गजराज पर आरूढ़ हुए। उन्होंने मणियों में सर्वश्रेष्ठ चार अंगुल लम्बे और दो अंगल चौड़े अनुपम कान्तिशाली मणिरत्न को अपने गजराज के दक्षिण कपोल पर धारण करवाया। इस मणिरत्न की एक हजार देवता अहर्निश सेवा करते थे । इस मणिरत्न की अगणित विशेषताओं में मुख्य-मुख्य विशेषताएं ये थीं कि उस मणिरत्न को शिर पर धारण करने वाला सदा यौवन सम्पन्न, सुखी, स्वस्थ और परम प्रसन्न रहता। उस पर किसी भी प्रकार के शस्त्र का प्रहार नहीं होता । देव, मनुष्य और तिर्यंच किसी भी प्रकार के उपसर्ग उसका कभी पराभव नहीं कर सकते। वह सदा पूर्णतया निर्भय रहता है। उस मणिरत्न को हस्तिरत्न के दक्षिण कपोल पर धारण करवाने के पश्चात महाराज भरत ने आकाश को प्रकम्पित कर देने वाले जयघोषों के बीच अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ तिमिस्रप्रभा गुफा की ओर प्रयाण किया। उस गफा के दक्षिण द्वार के पास आकर उन्होंने उसमें प्रवेश किया। गुफा में प्रवेश करते समय वे ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानों चन्द्रमा सघन काली मेघ घटा में प्रवेश कर रहा हो। उस काली घोर अन्धकारपूर्ण तिमिस्रप्रभा गुफा में प्रवेश करते Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ संवर्द्धन ही भरत ने स्वर्णकार की अधिकरणी ( एरण) के आकार के समान आकार वाले, छः तलों, बारह अंशों, और आठ कोनों वाले काकिणीरत्न को हाथ में लिया । वह काकिणी रत्न चार अंगुल ऊंचा तथा चार-चार अंगुल लम्बा और चौड़ा तथा तौल में आठ स्वर्ण पदिकाओं के बराबर था । जिस तिमिस्रप्रभा गुफा में सूर्य, चांद और तारे प्रकाश नहीं कर पाते, वहां चक्रवर्ती द्वारा काकिणी रत्न को हाथ में लेते ही, उसके प्रभाव से उस घोर अन्धकारपूर्ण तिमिस्रप्रभा गुफा में बारह योजन तक प्रकाश ही प्रकाश व्याप्त हो गया । उस काकिणी रत्न में अनेक प्रति विशिष्ट गुरण थे । उस काकिणी रत्न को धारण करने वाले पर स्थावर अथवा जंगम किसी भी प्रकार के विष का प्रभाव नहीं होता । संसार में जितने भी मान उन्मान हैं, उन सब का सही ज्ञान काकिरणी रत्न में हो जाता । उसके प्रभाव से रात्रि में भी दिन के समान प्रकाश रहता । ६० उस काकिणी रत्न के प्रभाव से भरत ने द्वितीय अर्द्ध भरतक्षेत्र पर विजय प्राप्त करने के लिये उस काली अंधियारी गुफा में प्रवेश किया । गुफा में प्रवेश करने के पश्चात् महाराज भरत ने उस गुफा की पूर्व और पश्चिम दोनों भित्तियों पर कारिणी रत्न से चन्द्र मंडल के समान आकार वाले मण्डलों का एक - एक योजन के अन्तर पर आलेखन करना प्रारम्भ किया । इस तिमिस्रप्रभा गुफा को पार करने तक भरत ने एक-एक योजन के अन्तर से इस प्रकार के कुल मिलाकर ४९ मंडल उस काकिरगी रत्न से बनाये । उन मंडलों के प्रभाव से संपूर्ण गुफा में चारों ओर दिन के समान प्रकाश ही प्रकाश हो गया । उस तिमिस्र प्रभा गुफा के बीच में उन्मग्नजला और निमग्नजला नाम की दो बड़ी भयावनी महा नदियां बहती हैं । उन्मग्नजला महानदी में जो कोई भी तृरण, पत्र, काष्ठ, कंकर, पत्थर, हाथी, घोड़ा, रथ, योद्धा अथवा कोई भी मनुष्य गिरता है, उसे वह तीन बार घुमाकर स्थल पर फेंक देती है। इसके विपरीत निमग्नजला महानदी अपने अन्दर गिरी हुई प्रत्येक वस्तु को अपने अन्दर गिरे हुए किसी भी 'मनुष्य अथवा पक्षी को तीन बार घुमा कर अपने गहन तल में डुबो देती है । ये दोनों महानदियां उस गुफा की पूर्व दिशा की भित्ति से निकलकर पश्चिम दिशा की सिन्धु महानदी में मिल गई है । उस तिमिस्रप्रभा गुफा में चक्ररत्न द्वारा प्रदर्शित मार्ग पर चलते हुए - महाराज भरत अपनी सेना के साथ सिन्धु नदी के पूर्व दिशा के किनारे पर उन्मग्नजला महानदी के पास आये। वहां उन्होंने अपने वाद्धिक रत्न को उन दोनों नदियों पर अनेक शत स्तम्भों के अवलम्बन से युक्त अचल, अकम्प, अभेद्य, दोनों ओर अवलम्बन युक्त, सर्व रत्नमय ऐसा सुदृढ़ पुल बनाने का आदेश दिया जिस पर उनकी समग्र हस्तिसेना, अश्वसेना, रथसेना और पदाति-सेना पूर्ण सुख-सुविधा के साथ आवागन कर सके । वाद्धिक रत्न महाराज भरत का प्रदेश सुनकर अत्यधिक हृष्ट एवं तुष्ट हुआ । उसने अपने स्वामी की आज्ञा को Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और शिक्षा] प्रथम चक्रवर्ती भरत शिरोधार्य किया और देखते ही देखते उन दोनों महानदियों पर सैंकड़ों स्तम्भों के आधार से संयुक्त एक अति विशाल एवं अतीव सुदृढ़ सेतु निर्मित कर दिया। सुदृढ़ सेतु का निर्माण करने के पश्चात् वाद्धिक रत्न ने भरत की सेवा में उपस्थित हो निवेदन किया-"देव ! आपकी आज्ञा का अक्षरशः पालन कर दिया गया है । देवानुप्रिय सुदृढ़ सेतु तैयार है। तदनन्तर भरत ने उस सेतु पर होते हुए अपनी सेना के साथ उन दोनों महानदियों को पार कर तिमिस्रप्रभा गुफा के उत्तरी द्वार की ओर प्रस्थान किया। भरत के वहां पहुंचते ही उस गुफा के उत्तरी द्वार के कपाट कड़-कड़ निनाद के साथ स्वतः खुल गये । संना सहित गुफा से पार हो महाराज भरत ने आगे की ओर प्रयाण किया । उस समय भरतक्षेत्र के उस उत्तरार्द्ध विभाग में आपात नामक चिलात अर्थात म्लेच्छ जाति के लोग रहते थे। वे आपात लोग बड़े ही समद्ध एवं तेजस्वी थे । वे विशाल एवं विस्तीर्ण भवनों में रहते थे। उनके पास गृह, शैया, सिंहासन, रथ, घोड़े, पालकी आदि का प्राचुर्य था। उनके भण्डार स्वरर्ण-रत्न आदि से परिपूर्ण थे। उनके वहां अन्न का उत्पादन बहुत अधिक होता था । अशन, पान, खादिम, स्वादिम आदि सामग्रियों से उनके कोष्ठागार भरे पड़े थे। उनके पास बहुत बड़ी संख्या में दास, दासी, गाय, भैंस, भेड़, बकरी आदि थे। वे सब बड़े वैभवशाली, बलिष्ठ, हृष्ट-पुष्ट, शूरवीर, मनुष्यों में अपराभूत, अजेय, योद्धा और संग्राम में अमोघ लक्ष्य वाले थे। उनके पास बल और वाहनों का बाहुल्य था। जिन दिनों महाराज भरत ने अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ षटखण्ड की साधना के लिये दिग्विजय का अभियान प्रारम्भ किया उन दिनों आपात चिलात नामक म्लेच्छ राजाओं के उस देश में, अकाल में गर्जन, अकाल में तडित् की कड़क, अकाल में ही वृक्षों पर पुष्प-फल आदि का उत्पन्न हो जाना और आकाश में प्रेत जाति के देवों का नृत्य आदि अनेक प्रकार के उत्पात होने लगे। इन उपद्रवों को देख वे लोग बड़े चिन्तित हुए। जहां कहीं वे लोग एकत्रित होते, परस्पर यही बात करते कि हमारे देश में न मालूम कैसा उपद्रव होने वाला है। इन उत्पातों को देखकर तो यही अनुमान होता है कि हमारे देश में कोई न कोई भीषण उत्पात होने वाला है। अनिष्ट की आशंका से वे लोग शोक सागर में निमग्न रहने लगे। अपनी हथेली पर कपोल रखकर वे लोग आर्त ध्यान करने लगे । उनमें से अधिकांश लोग किंकर्तव्यविमूढ़ बने भूमि पर दृष्टि गड़ाये ही बैठे रह जाते । जिस समय महाराज भरत तिमिस्रप्रभा गफा के उत्तरी द्वार से बाहर निकल कर उन प्रापात चिलातों के देश में आगे बढ़ रहे थे उस समय उन आपात चिलात म्लेच्छों ने महाराज की सेना के अग्रिम कटक को अपने देश में Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [संवर्द्धन आगे की ओर बढ़ते देखा। उस अग्रिम सैनिक टुकड़ी को देखते ही वे बड़े क्रुद्ध हुए, उनका खून खोलने लगा और उसके परिणामस्वरूप उनकी आंखें लाल हो गई । वे एक दूसरे को सावधान कर एकत्रित हुए और विचार विनिमय करते हुए कहने लगे कि यह अपनी अकाल मृत्यु की कामना करने वाला दुष्ट, पुण्यहीन चतुर्दशी और अमावस्या का जन्मा हुअा निर्लज्ज और निस्तेज कौन है, जो हमारे देश पर सेना लेकर चढ़ आया है। अहो देवानुप्रियो ! इसको पकड़ो, जिससे कि यह फिर कभी हमारे देश पर सेना लेकर आने का सहस न कर सके । __ इस प्रकार परस्पर विचार कर वे लोग कवच सहित पट्ट आदि धारण कर भिन्न-भिन्न प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सन्नद्ध हो महाराज भरत की सेना की अग्रिम टुकड़ी पर टूट पड़े। उन आपात जाति के चिलात योद्धाओं ने विशाल बलवाहन के साथ भरत महाराज की सेना की उस अग्रिम टुकड़ी पर शस्त्रास्त्रों के एक साथ अनेक प्रहार किये । उन्होंने उस अग्रिम टुकड़ी के पदातियों के मुकुट, ध्वजा, पताका आदि चिह्नों को गिरा दिया, उनमें से अनेकों को मारा, अनेकों को घायल किया। शेष उन युद्ध-शौण्डीर आपात-चिलातों से पूर्णतः पराजित हो दशों दिशाओं में पलायन कर गये । जब भरत महाराज के सेनापतिरत्न ने देखा कि उसकी सेना की अग्रिम टुकड़ी को चिलातों ने पूर्णतः पराजित कर दिया है, दशों दिशाओं में भगा दिया है, तो वे क्रोधातिरेक से दाँत पीसने लगे, उनके विशाल लोचन लाल हो गये। वे इन्द्र के अश्वरत्न उच्चैश्रवा से भी स्पर्धा करने वाले अपने कमलमेल नामक अश्व पर आरूढ़ हो, एक हजार देवताओं द्वारा अहनिश सेवित खड्गरत्न महाराज भरत से लेकर उन आपात चिलातों पर गरुड़ वेग से झपटे । सेनापति द्वारा किये गये खड्ग-प्रहारों से उन आपात जाति के किरातों के बड़ेबड़े योद्धा धराशायी होने लगे। सुषेण सेनापति ने विद्युत्वेग से खड्ग चलाते हुए भीषण प्रहारों से कुछ ही क्षणों में आपात किरातों की सेना को हत, आहत एवं क्षत-विक्षत कर पलायन के लिये बाध्य कर दिया । आपात किरातों की सेना का कोई भी सुभट सुषेण सेनापति के सम्मुख क्षण भर भी नहीं टिक सका । कुछ ही क्षणों में आपात किरातों की सेना में भगदड़ मच गई, वे सब दशों दिशाओं में भाग खड़े हुए। सुषेण सेनापति के खड़गप्रहारों से वे इतने हतप्रभ. उद्विग्न और किंकर्तव्य विमूढ़ हुए कि वे सब रणांगण छोड़ वहां से अनेकों योजन दर पीछे की ओर पलायन कर गये। वहां वे सब एकत्रित हो और कोई उपाय न देख सिन्धु नदी के तट के समीप गये। वहां उन्होंने नदी की बालू रेती का संस्तारक अर्थात् बिछौना बनाया। तदनन्तर सबने अष्टमभक्त तप ग्रहण किया । वे सब कपड़ों को उतार, पूर्णरूपेण नग्न हो अपने उन मिट्टी के संस्तारकों पर ऊपर की ओर मुख किये लेट गये । अष्टमभक्त तप में इस Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौर शिक्षा] प्रथम चक्रवर्ती भरत ६३ प्रकार उर्ध्वमुख लेटे लेटे उन्होंने अपने कुल देवता मेघमुख नामक नागकुमार की पाराधना करना प्रारम्भ किया। जब उन आपात किरातों का सामूहिक अष्टमभक्त तप पूर्ण हया तो मेघमुख नामक नागकुमार देवों का आसन चलायमान हमा । अवधिज्ञान के उपयोग से उन नागकुमारों ने अपने आराधक आपात किरातों को उस दशा में देखा। उन्होंने अपने सब देवों को बुलाकर कहा"हे देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में आपात जाति के किरात सिन्धु नदी की रेती में रेती का संस्तारक बना, बिल्कुल नग्न हो उर्ध्वमूख पड़े हुए अपने कुल देवता मेघमुख नामक नागकुमारों का स्मरण कर रहे हैं । अतः हमें उन लोगों के पास जाना चाहिये।" इस प्रकार परस्पर मंत्रणा कर वे मेघमुख नामक नागकुमार देव उत्कृष्ट देवगति से उन आपात किरातों के पास आये। उन्होंने आकाश में ही खड़े रहकर आपात किरातों को सम्बोधित करते हुए कहा- "हे देवानुप्रिय ! तुम लोग इस दशा में जिनका स्मरण कर रहे हो, हम वे ही मेघमुख नामक नागकुमार और तुम्हारे कुल-देवता हैं । बोलो, हम तुम्हारा कौनसा प्रिय कार्य करें ?" अपने कुलदेव को प्रत्यक्ष देख एवं उनकी बात सुन आपात चिलात ' हृष्ट एवं तुष्ट हुए। अपने-अपने स्थान से उठकर सब उन मेघमुख नागकुमारों के सम्मुख हाथ जोड़कर खड़े हुए और उनकी जय-विजय के घोष के साथ कहने लगे- "हे देवानुप्रिय ! मृत्यु की कामना करने वाला कोई निर्लज्ज, दुष्ट हमारे देश पर आक्रमण कर हमारी स्वतन्त्रता छीनने आया है। इसलिये आप उस आततायी को मारो, उसकी सैन्य-शक्ति को छिन्न-भिन्न कर दशों दिशाओं में भगा दो, जिससे कि वह फिर कभी हमारे देश पर आक्रमण करने का साहस न कर सके।" उन पापात किरातों की बात सुनकर मेघमख नागकुमार ने कहा-"हे देवानुप्रियो ! वास्तविकता यह है कि यह भरत राजा चक्रवर्ती सम्राट है, कोई भी देव, दानव, किन्नर, किंपुरुष, महोरग अथवा गन्धर्व शस्त्र प्रयोग अग्निप्रयोग अथवा मन्त्रप्रयोग से उनको न तो पीड़ित करने में समर्थ है और न उनका पराभव करने में ही। तथापि तुम लोगों की प्रीति के कारण हम भरत राजा को उपसर्ग उत्पन्न करने का प्रयास करते हैं।" आपात किरातों को इस प्रकार का प्राश्वासन देकर मेघमुख नागकुमारों ने वैक्रिय समुद्घात से मेघ का वैक्रिय किया और भरतराजा के शैन्य शिविर पर घनघोर मेघ घटा से घोर गर्जन एवं भीषण कड़क सहित मसलद्वय अथवा मुष्टिद्वय प्रमाण जल धाराओं से निरन्तर सात दिन तक उत्कृष्ट गति से वर्षा Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ संवर्द्धन करने को प्रवृत्त हुए । विजयिनी सेनापुर इस प्रकार की युग मूसल एवं मुष्टिद्वय प्रमाण जल धाराओं से बरसती हुई घोर वृष्टि को देखकर महाराजा भरत ने चर्मरत्न को हाथ में लिया । वह चर्मरत्न तत्काल बारह योजन विस्तार वाला बन गया । महाराज भरत तत्काल अपनी सेना के साथ उस चर्मरत्न पर आरूढ़ हो गये । तदनन्तर महाराज भरत ने दिव्य छत्ररत्न ग्रहण किया । वह छत्ररत्न तत्काल निन्यानवे हजार नव सौ स्वर्णमय ताड़ियों वाला निश्छिद्र, वर्तुलाकार, कमल की कणिका के समान आकार वाला अर्जुन नामक श्वेत स्वर्ण के वस्त्र से ढका हुआ, स्वर्णमय सुपुष्ट दण्ड वाला प्रत्यन्त सुन्दर मरियों एवं रत्नों से मंडित, ऋतु से विपरीत छाया वाला, एक सहस्र देवताओं द्वारा सेवित, साधिक बारह योजन विस्तार वाला छत्र बन गया । वह छत्ररत्न भरत चक्री द्वारा समस्त सेना पर छा दिया गया । तदनन्तर महाराज भरत ने अपने मणिरत्न को छत्र के मध्य में रख दिया । उस मणिरत्न के प्रभाव से बारह योजन की परिधि में दिन के समान प्रकाश हो गया । गाथापति रत्न उस चर्मरत्न पर सभी प्रकार के धान्य, वृक्ष, सभी प्रकार के मसाले, भाजियां, वनस्पति, आदि सभी आवश्यक वस्तुएं प्रतिदिन निष्पन्न करने लगा । इस प्रकार महाराज भरत सात रात्रि तक चर्मरत्न पर सुखपूर्वक रहे, उन्हें और उनकी सेना को किसी भी प्रकार की किचिन्मात्र भी असुविधा नहीं हुई । इस प्रकार सात अहोरात्र पूर्ण होने पर महाराज भरत के मन में इस प्रकार का संकल्प विकल्प उत्पन्न हुआ कि अनिष्ट मृत्यु की कामना करने वाला दुष्ट लक्षणों का निधान, निष्पुण्य, निर्लज्ज, निश्श्रीक कौन है जो पुण्य के प्रताप से समर्थ बने हुए एवं यहां पर आये हुए मेरे विजयी चतुरंग सैन्य एवं मुझ पर युगमूसल युगमुष्टि प्रमाण वर्षा सात अहोरात्र से निरन्तर बरसा रहा है ? महाराज भरत के इस प्रकार के मनोगत अध्यवसायों को जानकर उनके सान्निध्य में रहने वाले सोलह हजार ( १४ रत्नों के अधिष्ठायक १४ हजार और भरत की दोनों भुजाओं के अधिष्ठायक २ हजार) देव कवच, आयुध आदि से सुसज्जित हो मेघमुख नामक नागकुमारों के पास पहुँचे और उन्हें ललकारते हुए कहने लगे :- " अरे अप्रार्थित की प्रार्थना करने वाले यावत् ह्री-श्री परिवजित मेघमुख नामक नागकुमार देव ! तुम सात अहोरात्र से यह अविवेकपूर्ण अनर्थ कर रहे हो । अब यहां से इसी क्षण भाग जाम्रो अन्यथा हम तुम्हें मारेंगे ।" यह सुनते ही वे मेघमुख नामक नागकुमार देव बड़े भयभीत एवं त्रस्त हुए । उन्होंने तत्काल मेघों का साहरण किया और वहां से तत्काल चले गये । उन्होंने प्रपात किरातों के पास जाकर कहा :- "हे देवानुप्रियी ! यह चक्रवर्ती सम्राट् भरत महान् ऋद्धिशाली हैं । कोई भी देव, दानव अथवा मानव इनका पराभव करने में अथवा पीड़ा पहुंचाने में समर्थ नहीं है । ये सर्वथा प्रजेय हैं । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और शिक्षा ] प्रथम चक्रवर्ती भरत इसके उपरान्त भी तुम लोगों की प्रीति के कारण हमने उनके समक्ष उपसर्ग प्रस्तुत किया । उस घोर उपसर्ग से उनका किसी प्रकार का किंचिन्मात्र भी अप्रिय नहीं हुआ । अतः अब तुम लोग स्नानादि से निवृत्त हो भीगे हुए वस्त्र धारण किये हुए बालों को खुले रखकर अनेक प्रकार के बहुमूल्य रत्नाभरणादि की विपुल भेंट लेकर उनकी शरण में जाओ। उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम करो और शीघ्रातिशीघ्र उनका आधिपत्य स्वीकार करो । वे महामना महान् उदार और शरणागतवत्सल हैं, उनकी शरण ग्रहण करने पर तुम्हें उनसे अथवा अन्य किसी से किसी भी प्रकार का भय नहीं होगा ।" यह कहकर वे मेघमुख नामक नागकुमार देव अपने स्थान को लौट गये । अपने कुलदेवता के चले जाने के पश्चात् उन प्रपात किरातों ने उनके परामर्शानुसार स्नान किया, तलि मसादिक किये । भीगे वस्त्र धारण कर अपनी केशराशि को खुली रखकर विपुल वजू, मरिण, रत्नाभरणादि साथ लेकर भरत की शरण में गये । उन्होंने हाथ जोड़कर भरत महाराज को प्रणाम किया, उन्हें भेंट करने के लिये अपने साथ लाई हुई बहुमूल्य रत्नाभरणादि सामग्री को उनके समक्ष रख उन्होंने हाथ जोड़कर भरत से निवेदन करना प्रारम्भ किया- "हे हजार लक्षणों के धारक विजयी नरेन्द्र ! हम सब आपकी शरण में हैं । आपकी सदा जय हो, विजय हो । चिरकाल तक आप हमारे स्वामी रहें । आप चिरायु हों । पूर्व, पश्चिम और दक्षिण इन तीन दिशाओं में लवण समुद्रपर्यन्त उत्तर दिशा में चुल्ल हिमवन्त पर्यन्त आपका एकछत्र राज्य है । उत्तरार्द्ध भरत और दक्षिणार्द्ध भरत - इन दोनों को मिलाकर सम्पूर्ण भरतक्षेत्र पर आपकी विजय वैजयन्ती फहराये, आपका एकच्छत्र शासन हो, आपकी प्रखण्ड प्रज्ञा प्रवर्तित रहे । हम लोग आपके देश में आपकी आज्ञा में रहने वाले आपके आज्ञाकारी सेवक हैं | आप हमारे स्वामी | हे क्षमाशील स्वामिन् ! आप हमारे अपराध को क्षमा करें । भविष्य में हम लोग इस प्रकार का अपराध कभी नहीं करेंगे ।" ६५ भरत की सेवा में इस प्रकार निवेदन करते हुए वे प्रापात चिलात हाथ जोड़कर भरत के चरणों में गिरे । उन्होंने भरत की अधीनता स्वीकार की और अपनी ओर से लाई हुई भेंट स्वीकार करने की उनसे प्रार्थना की। उन लोगों द्वारा समर्पित भेंट को स्वीकार करते हुए महामना भरत ने उनका सत्कारसम्मान कर यह कहते हुए उन्हें विदा किया - " अब तुम लोग अपने घर जाओ और मेरे आश्रय में सदा निर्भय हो सुखपूर्वक रहो ।" आपात किरातों को अपना प्राज्ञावर्ती बना, उन्हें विदा करने के पश्चात् महाराजा भरत ने अपने सेनापतिरत्न को बुलाकर पूर्व में सिन्धु, दक्षिण में वैताढ्य पर्वत, पश्चिम में लवण समुद्र और उत्तर में चुल्लहिमवंत पर्वत Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [संवर्द्धन पर्यन्त सिन्धु नदी के दूसरे खण्ड के सम अथवा विषम आदि सभी क्षेत्रों को जीत कर उनमें चक्रवर्ती की अखण्ड आज्ञा पालन करने का तथा उन क्षेत्रों के शासकों से भेंट प्राप्त करने का आदेश दिया। महाराज भरत की आज्ञा को शिरोधार्य कर सेनापति ने चक्रवर्ती की चतुरंगिणी सेना को ले विजय अभियान प्रारम्भ किया। कुछ ही समय पश्चात् उन सभी क्षेत्रों को चक्रवर्ती भरत के विशाल राज्य में मिला, उन क्षेत्रों पर भरत की विजय पताका फहरा दी। उन क्षेत्रों के सभी शासकों से भरत के लिये भेंट प्राप्त कर सेनापति रत्न अपनी सेना के साथ भरत महाराज की सेवा में लौटा और उनके समक्ष भेंट में प्राप्त विपुल बहुमूल्य रत्नाभरणादि सामग्री प्रस्तुत कर सांजलि शीश झका निवेदन किया"देव ! आपके प्रताप से सिन्धु नदी के दूसरे लघु खंड के सम्पूर्ण भूभाग के समस्त शासकों ने आपकी अधीनता स्वीकार करते हुए आपको अपना स्वामी और स्वयं को आपके आज्ञापालक सेवक मानते हुए आपके लिये भेंट स्वरूप यह विपुल बहुमूल्य सामग्री भेजी है।" महाराज भरत सेनापतिरत्न की बात सुनकर हृष्ट-तुष्ट हुए। उन्होंने सेनापति को सम्मानित किया। कतिपय दिनों तक महाराज भरत अनेक प्रकार के सुखोपभोगों का उपभुजन करते हुए सेना के साथ वहीं रहे। एक दिन वह चक्ररत्न प्रायधशाला से बाहर निकला और आकाश मार्ग से ईशान कोण में चुल्लहिमवंत पर्वत की ओर अग्रसर हुआ । चतुरंगिणी सेना के साथ भरत भी चक्ररत्न का अनुगमन करते हुए चुल्लहिमवन्त पर्वत के पास पहुंचे। वहां वाद्धिक रत्न ने सेना के लिये १२ योजन लम्बा और ६ योजन चौड़ा स्कन्धावार एवं महाराज भरत के लिये विशाल प्रासाद एवं पौषधशाला का निर्माण किया। सेना ने स्कन्धावार में विश्राम किया और महाराज भरत ने पौषधशाला में दर्भासन पर बैठ चुल्ल हिमवन्त कुमार देव की साधना के लिये पौषधसहित अष्टमभक्त तप किया । षट्खण्ड की साधना हेतु भरत का यह सातवां अष्टमभक्त तप था । अष्टमभक्त की तपस्या के सम्पन्न होने पर भरत अश्वरथ पर पारूढ़ हो सेना सहित चुल्ल हिमवन्त पर्वत के पास आये । उन्होंने वहां अपने रथ से चुल्लहिमवन्त पर्वत का तीन बार स्पर्श किया । तदनन्तर रथ को रोका । अपने धनुष पर शर का संधान किया और मागध तीर्थ के अधिपति देव की साधना के समय जिस प्रकार के वाक्य कहे थे उसी प्रकार के वाक्यों का उच्चारण करने के पश्चात् अपना बाण छोड़ा। वह बारण बहत्तर योजन ऊपर जाकर चुल्लहिमवन्तगिरि कुमार देव के भवन में गिरा । अपनी सीमा में गिरे बारण को देखकर पहले तो बड़ा क्रुद्ध हुआ किन्तु बाण पर भरत का नाम देख अवधिज्ञान द्वारा वस्तुस्थिति से अवगत होने के अनन्तर भरत को भेंट करने के लिये सभी Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और शिक्षा] प्रथम चक्रवर्ती भरत ६७ प्रकार की अद्भुत औषधियां, राज्याभिषेक योग्य पुष्पमाला, गोशीर्ष चन्दन, अनेक प्रकार के रत्न, आभरण, अलंकार एवं पद्मद्रह का पानी, शर आदि लेकर उत्कृष्ट देवगति से तत्काल भरत की सेवा में उपस्थित हुप्रा और हाथ जोड़कर निवेदन करने लगा-"देवानुप्रिय ! आपने चुल्ल हिमवन्त वर्षधर पर्यन्त उत्तर दिशा पर विजय प्राप्त की है। मैं आपके देश में रहने वाला प्रापका प्राज्ञाकारी किंकर एवं आपके राज्य की उत्तर दिशा का अंतपाल देव हूं । आपको प्रीतिदान स्वरूप भेंट करने के लिये यह सामग्री लाया हूं, इसे आप स्वीकार करें।" भरत ने चल्लहिमवन्तगिरि कुमार देव द्वारा की गई भेंट को स्वीकार कर देव का सत्कार सम्मान किया और तदनन्तर उसे विदा किया। उसी समय भरत ने अपने रथ को पीछे की ओर घुमाया और वे ऋषभकूट पर्वत के पास आये । उन्होंने अपने रथ से ऋषभकूट पर्वत का तीन बार स्पर्श किया। तत्पश्चात् रथ को रोककर उन्होंने अपने काकिरणी रत्न से ऋषभकूट पर्वत के पूर्व दिशा की ओर के कड़खे अर्थात् पार्श्व के गगनचुम्बी शिलापट्ट पर निम्नलिखित अभिलेख लिखा : ___ "इस अवसर्पिणी के तीसरे आरे के पश्चिम विभाग में भरत नाम का चक्रवर्ती हूं । मैं भरतक्षेत्र का अधिपति प्रथम राजा एवं नरवरेन्द्र हूं। मेरा कोई प्रतिशत्र नहीं है । मैंने इस भरतक्षेत्र पर विजय प्राप्त की है।" इस अभिलेख के आलेखन के पश्चात् भरत अपने विजयी सैन्य के स्कन्धावार में अपनी उपस्थान शाला में आये । स्नानादि के पश्चात् भरत ने अपने सातवें अष्टमभक्त तप का पारण किया और भोजनशाला से उपस्थान शाला में पा राजसिंहासन पर बैठ अठारह श्रेणि-प्रश्रेणियों के लोगों को बलाया। अपनी प्रजा को कर आदि से मुक्त कर चुल्ल हिमवन्त गिरि कुमार देव का अष्टाह्निक महोत्सव मनाने का आदेश दिया। __ अष्टाह्निक महोत्सव के अवसान पर चक्ररत्न आकाशमार्ग से दक्षिण दिशा में वैताढ्य पर्वत की ओर प्रस्थित हया। चक्ररत्न का अनुसरण करते हए भरत अपनी सेना के साथ वैताढय पर्वत के उत्तरी नितम्ब में पहुंचे। वहां बारह योजन लम्बे व नव योजन चौड़े स्कन्धावार में सेना ने पड़ाव डाला । वाद्धिक रत्न द्वारा निर्मित पौषधशाला में प्रवेश करने से पूर्व भरत ने पुष्पादि सभी प्रकार की संचित्त वस्तुओं, आभरणों, अलंकारों एवं आयुधों आदि का परित्याग किया। तदनन्तर पौषधशाला में एक स्थान को प्रमाजित कर वहां दर्भ का आसन बिछाया। उस दर्भासन पर बैठकर महाराज भरत ने नमी एवं विनमी नामक विद्याधर राजाओं को साधने के लिये अष्टम भक्त तप और Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [संवर्दन पौषधवत अंगीकार किया । ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए भरत ने नमी और विनेमी नामक विद्याधर राज का मन में ध्यान किया। इस प्रकार नमी विनमी का ध्यान करते हुए जब भरत का अष्टमभक्त तप पूर्ण होने पाया, उस समय उन दोनों विद्याधर राजों को उनकी दिव्य मति से प्रेरणा मिली। वे दोनों परस्पर मिले और एक दूसरे को कहने लगे-"जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में भरत नामक चक्रवर्ती उत्पन्न हुए हैं । भूत, भविष्यत और वर्तमान काल के विद्याधर राजाओं के परम्परागत जीताचार के अनुसार हमें भी चक्रवर्ती के योग्य भेंट लेकर उनकी सेवा में उपस्थित होना चाहिये।" ___ इस प्रकार का निश्चय कर विद्याधरों की दक्षिण श्रेणी के राजा नमी ने उत्तम वस्त्राभूषणादि और उत्तर श्रेणी के विद्याधर राज विनमी ने दिव्य मति की प्रेरणा से रूप, लावण्य और स्त्रियोचित सभी उत्तमोत्तम शुभ गणों में अनिन्द्य सुन्दरी देवांगनाओं को भी तिरस्कृत करने वाला 'सुभद्रा' नामक स्त्रीरत्न भरत को भेंट करने के लिये अपने साथ लिया और वे दोनों उत्कृष्ट विद्याधर गति से भरत के पास आये। उन दोनों ने जय-विजय घोषों से भरत को वडापित करते हुए निवेदन किया-"अहो देवानप्रिय ! आपने भरतक्षेत्र पर विजय प्राप्त की है। हम आप द्वारा शासित देश में रहने वाले आपके प्राज्ञाकारी किंकर हैं । कृपा कर आप हमारी ओर से यह प्रीतिदान ग्रहण करें।" भरत के समक्ष इस प्रकार निवेदन कर विनमी ने सुभद्रा नामक स्त्रीरत्न और नमी ने अत्युत्तम वस्त्र, आभूषण अलंकारादि भरत को भेंट किये। भरत ने उन दोनों विद्याधर राजों द्वारा समर्पित की गई भेंट स्वीकार की, उन दोनों का आदर-सत्कार किया और तदनन्तर उन्हें सम्मानपूर्वक विदा किया। नमी और विनमी विद्याधरों को विसर्जित करने के उपरान्त भरत ने स्नानादि से निवृत्त हो अपने आठवें अष्टमभक्त तप का पारण किया । तदनन्तर भरत ने उपस्थान शाला में सिंहासन पर आसीन हो अपनी प्रजा को कर, शुल्क आदि से विमुक्त कर विद्याधरराज का अष्टाह्निक महोत्सव मनाने का आदेश दिया। आठ दिन तक उत्तम अशन-पान, नृत्य, संगीत, नाटक आदि विविध सुखोपभोगों का उपभोग करते हुए सब ने बड़े हर्षोल्लास के साथ अष्टाह्निक महोत्सव मनाया। ___ अष्टाह्निक महोत्सव के समाप्त होते ही चक्ररत्न आयुधशाला से निकल कर गगन पथ से ईशान कोण में गंगादेवी के भवन की ओर अग्रसर हुआ। अपनी सेना के साथ चक्ररत्न का अनुगमन करते हुए भरत गंगानदी के भवन के पास आये । सेना का पड़ाव डाल भरत ने पौषधशाला में गंगादेवी की आराधना के लिये पौषध सहित अष्टम भक्त तप किया। यह भरत चक्रवर्तीका ६ वां Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और शिक्षा]. प्रथम चक्रवर्ती भरत अष्टम भक्त तप था । अष्टम भक्त की तपस्या के पूर्ण होते ही गंगादेवी भरत के समक्ष भेंट लेकर उपस्थित हई। गंगादेवी ने हाथ जोड़कर भरत से कहा--- "देवानुप्रिय ! आपने भरतक्षेत्र पर विजय प्राप्त की है। मैं आपके राज्य में रहने वाली आपकी आज्ञाकारिणी किंकरी हूं। अतः मैं प्रीतिदान के रूप में आपको यह भेंट समर्पित कर रही हूं, आप इसे स्वीकार करें। यह कहते हुए गंगादेवी ने रत्नों से भरे एवं भांति-भांति के परम मनोहर अद्भुत चित्रों से चित्रित १००८ कुभ-कलश और दिव्य मणि, रत्नादि से जटित दो सोने के सिंहासन भरत को भेंट किये। भरत ने गंगादेवी द्वारा समर्पित भेंट को स्वीकार करते हुए उसका सत्कार-सम्मान करने के पश्चात् उसे विदा किया । गंगादेवी के चले जाने के पश्चात् भरत ने स्नानादि से निवृत्त हो अपने नौवें तेले के तप का पारण किया। तत्पश्चात् उपस्थानशाला में आ भरत पूर्वाभिमुख हो सिंहासन पर आसीन हुए। उन्होंने अठारह श्रेणि-प्रश्रेणियों के लोगों को बुला उन्हें अनेक प्रकार की सुविधाएँ प्रदान करते हुए गंगादेवी का अष्टाह्निक महा महोत्सव मनाने का आदेश दिया। आठ दिन तक भांतिभांति की प्रतियोगिताओं, दंगलों, नाटकों, हास्य, विनोद, नृत्य, संगीत, उत्तमोत्तम षडरस अशन-पानादि का आनन्दोपभोग करते हुए सबने गंगादेवी का महा महोत्सव मनाया। गंगादेवी के महोत्सव के सम्पन्न होने के पश्चात् चक्ररत्न आयुधशाला से निकलकर नभ भाग मार्गगा नदी के पश्चिमी तट से दक्षिण दिशा की खंडप्रपात गुफा की ओर बढ़ा । खंड प्रपात गुफा के पास सेना ने पड़ाव डाला। महाराज भरत ने खण्डप्रपात गुफा के अधिष्ठायक देव नैत्यमाल की आराधना के लिये पौषधशाला में प्रवेश कर डाभ के आसन पर बैठ अष्टम भक्त तप और पौषधवत किया। यह महाराज भरत का दसवां तेले का तप था । उन्होंने पौषध सहित अष्टमभक्त तप में नैत्यमाल देव का चिंतन किया। तपस्या के सम्पन्न होते होते नैत्यमाल देव भरत की सेवा में उपस्थित हुआ । उसने भी हाथ जोड़कर भरत से कृतमाल देव के समान ही निवेदन करते हुए कहा-“हे देवानुप्रिय ! आपने भरतक्षेत्र पर विजय प्राप्त की है। मैं आपके राज्य में रहने वाला आपका आज्ञाकारी किंकर हूं। कृपा कर आप मेरी यह भेंट प्रीतिदान के रूप में ग्रहण कीजिये।" यह कह कर उसने अलंकार करने योग्य कंकण आदि रत्नजटित आभूषणों आदि से परिपूर्ण अनेक भांड करण्ड आदि महाराज भरत को भेंट किये। उस भेंट को स्वीकार करते हुए भरत ने नत्यमाल देव का सत्कार सम्मान किया और कुछ ही क्षणों पश्चात् उसे आदर सहित विदा किया। नृत्यमाल देव को विसर्जित करने के पश्चात् महाराज भरत ने स्नानादि से निवृत्त हो भोजनशाला में प्रवेश कर अपने दसवें तेले के तप का पारण Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [संवर्सन किया। तदनन्तर उपस्थान शाला में पा राजसिंहासन पर आसीन हो उन्होंने कृतमाल देव के समान नृत्यमाल देव का प्रष्टाह्निक महोत्सव मनाने का आदेश दिया। पहले के अष्टाह्निक महोत्सव के समान ही यह महोत्सव भी मनाया गया। उस महोत्सव के पूर्ण होने पर महाराज भरत ने सुषेण सेनापतिरत्न को गंगा नदी, पूर्व में अवस्थित लघु खण्ड पर विजय प्राप्त करने की प्राज्ञा देते हुए कहा-"जिसकी सीमा पश्चिम में गंगानदी केपूर्व में लवण समुद्र, दक्षिण में वैताढ्य पर्वत और उत्तर में चल्लहिमवन्त पर्वत है, उस समस्त लघु खण्ड के सम, विषम आदि सभी भूभागों पर अधिकार कर वहां के शासकों से श्रेष्ठ रत्नादि की भेंट लेकर शीघ्र आओ।" महाराज भरत की आज्ञा पा सेनापति ने तत्काल गंगानदी के पूर्व में स्थित लघु खण्ड पर विजय प्राप्त करने के लिये सेना के साथ प्रयाण किया । चर्मरत्न की सहायता से सेना सहित गंगा महानदी को पार कर सेनापति ने गंगानदी से पूर्व में लवण समुद्र तक, दक्षिण में वैताढ्य पर्वत तक और उत्तर में चुल्लहिमवन्त पर्यन्त सम-विषम सभी प्रकार के भूभाग पर विजय अभियान करते हुए उस सम्पूर्ण लघु खण्ड पर अधिकार किया। वहां के छोटे-बड़े सभी शासकों को महाराज भरत के अधीन बना, उनसे बहुमूल्य और विपुल भेंट' लेकर सेनापति सुषेण सेना सहित गंगानदी को पार कर महाराज भरत की सेवा में लौटा । उसने हाथ जोड़कर भरत से निवेदन किया-"देव ! आपकी प्राज्ञा का अक्षरशः पालन कर लिया गया है। वहां के शासकों की ओर से प्राप्त हुई यह भेंट स्वीकार करें।" कतिपय दिनों के विश्राम के पश्चात् सुषेण सेनापति को बुलाकर महाराज भरत ने उन्हें खण्डप्रपात गफा के उत्तर दिशा के द्वार खोलने की आज्ञा दी । सेनापति ने अपने स्वामी की आज्ञा को शिरोधार्य कर तिमिस्रप्रभा के कपाटों के समान खण्डप्रपात गफा के द्वारों को खोलकर महाराज भरत को उनकी आज्ञा की अनुपालना से अवगत किया। तत्पश्चात् महाराज भरत ने तिमिस्रप्रभा की ही तरह खण्डप्रपात गफा में प्रवेश कर काकिणी रत्न से उस गफा की दोनों भित्तियों पर एक-एक योजन के अन्तर से कुल मिलाकर ४६ मण्डलों का आलेखन कर उसमें दिन के समान प्रकाश किया और वाद्धिक रत्न द्वारा निर्मित सेतु से खण्डप्रपात गुफा की उन्मग्नजला और निमग्नजला महानदियों को उत्तीर्ण कर उस गुफा के स्वतः ही खुले दक्षिणी द्वार से खण्डप्रपात गफा को पार किया। खण्डप्रपात गुफा से बाहर निकलकर महाराज भरत ने वाद्धिक रत्न से सेना के लिये पूर्ववत् विशाल स्कन्धावार और अपने लिये प्रासाद एवं पौषध Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और शिक्षा प्रथम चक्रवर्ती भरत शाला का निर्माण करवाया। पौषधशाला में जाकर महाराज भरत ने नव निधिरत्नों की आराधना हेतु पूर्वोक्त विधि के अनुसार पौषध सहित अष्टमभक्त तप किया। यह भरत का ११वां अष्टमभक्त तप था। उस तप में डाभ के आसन पर बैठे हुए व एकाग्रचित्त से निधि रत्नों का चिंतन करते रहे । नवनिधि के अपरिमित रक्त रत्न शाश्वत, अक्षय एवं अव्यय हैं । उनके अधिष्ठाता देव हैं। वे नव निधिरत्न लोक की पुष्टि करने वाले एवं विश्वविख्यात हैं। ___ अष्टम तप का समापन होते-होते वे नव निधिरत्न महाराज भरत के पास ही रहने के लिये प्रा उपस्थित हुए। उन नव निधिरत्नों के नाम इस प्रकार हैं : १. नैसर्प, २. पाण्डक, ३. पिंगल, ४. सर्वरत्न, ५. महापद्म, ६. काल, ७. महाकाल, ८. माणवक और ६. महानिधान शंख । ये नव निधान सन्दक के समान होते हैं । इनमें से प्रत्येक के आठ-आठ चक्र (पहिये) होते हैं । ये आठ-आठ योजनकी ऊँचाई वाले, नव-नव योजन चौड़े और बारह-बारह योजन लम्बे संदूक के संस्थान वाले होते हैं। महानदी गंगा जिस स्थान पर समुद्र में मिलती है, वहां ये नवों ही निधान रहते हैं। इनके वैडूर्य रत्नों के कपाट होते हैं। इनकी स्वर्णमयी मंजषाएं अनेक प्रकार के रत्नों से परिपूर्ण रहती हैं । इन सबके द्वार चन्द्र, सूर्य और चक्र के चित्रों से चित्रित रहते हैं। इनमें से प्रत्येक के अधिष्ठाता जो देव हैं, उनका एक-एक पल्योपम का प्रायुष्य होता है । जिस-जिस निधान के जो-जो देव हैं, उनका नाम भी उस-उस निधान के नाम जैसा ही होता है। उन देवताओं के आवास (निवास) वे निधान ही हैं। वे नव निधिरत्न अपार धन, रत्न आदि के संचय से समृद्ध होते हैं, जो भरत आदि चक्रवतियों के पास चले जाते हैं अर्थात् जहां-जहां चक्रवर्ती जाता है, वहां-वहां उसके पांवों के नीचे धरती में ये नव निधान चलते हैं। ___ नव निधानों को अपना वशवर्ती बनाकर महाराज भरत ने स्नानादि से निवृत्त हो अपने ग्यारहवें अष्टमभक्त तप का पारण किया। तप के पारण के पश्चात् भोजनशाला से निकलकर वे उपस्थानशाला में राजसिंहासन पर आसीन हुए। उन्होंने अठारह श्रेणी प्रश्रेणियों को बुलाकर नव निधिरत्नों का अष्टाह्निक महामहोत्सव मनाने का आदेश दिया । नव निधियों के अष्टाह्निक महामहोत्सव के पूर्ण होने पर उन्होंने अपने सेनापति को आदेश दिया-"देवानुप्रिय ! पश्चिम में जिसकी गंगा महानदी सीमा है, पूर्व तथा दक्षिण में लवण समुद्र जिसकी सीमा है और उत्तर में जिसकी सीमा वैताढ्य पर्वत तक है, उस गंगा महानदी के पूर्ववर्ती लघु खण्ड Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ संवर्द्धन पर विजय प्राप्त करो, उसके सम अथवा विषम सभी स्थानों पर अधिकार कर वहां के शासकों से भेंट ग्रहण कर शीघ्र ही मेरे पास लौट कर आश्रो ।" सेनापतिरत्न ने सदल-बल विजय अभियान कर गंगा महानदी के पूर्ववर्ती लघु खण्ड को जीत वहां के शासकों से भेंट ग्रहण कर भरत की सेवा में लौटकर उन्हें सूचित किया कि उनकी आज्ञा का पूर्णरूपेण पालन कर दिया गया है । कुछ समय पश्चात् एक दिन चक्ररत्न श्रायुधशाला से बाहर निकला और आकाश मार्ग से भरत चक्रवर्ती की विशाल सेना के मध्य भाग में होता हुआ विनीता नगरी की ओर अग्रसर हुआ । यह देखकर भरत महाराज बड़े हृष्ट व तुष्ट हुए । उन्होंने सेना को विनीता की ओर प्रस्थान के लिये तैयार होने तथा अपने लिये अभिषेक हस्ति को सुसज्जित करने का प्रादेश दिया । विनीता नगरी की ओर प्रस्थान करने हेतु सम्पूर्ण दल-बल और चतुरंगिणी सेना को सन्नद्ध एवं समुद्यत तथा अपने अभिषेक हस्ति को सुसज्जित देख चौदह रत्नों और नव निधियों के स्वामी, परिपूर्ण कोषों से सम्बद्ध, अहर्निश आज्ञापालन में तत्पर ३२ हजार मुकुटधारी महाराजानों से सेवित, शत्रुमात्र पर विजय करने वाले चक्रवर्ती भरत ६० हजार वर्षों की अवधि में सम्पूर्ण भरत क्षेत्र के ६ खण्डों की साधना करने के अनन्तर अपनी मुख्य राजधानी विनीता नगरी की ओर लौटने के लिए हस्तिरत्न पर आरूढ़ हुए । कोटि-कोटि कण्ठों से उद्गत उनके जयघोषों से गिरि, गगन और धरातल प्रतिध्वनित हो उठे । उनके सम्मुख सबसे आगे स्वस्तिक, श्री वत्स आदि अष्ट मंगल, उनके पीछे पूर्ण कलश, भारी, दिव्य छत्र तदनन्तर वैडूर्य रत्नमय विमल दण्डयुत छत्रधर अनुक्रमशः चलने लगे । उनके पीछे अनुक्रमशः ७ एकेन्द्रिय रत्न, १. चक्र रत्न, २. छत्र रत्न, ३. चर्म रत्न, ४. दण्ड रत्न, ५. खड्ग रत्न, ६. मरिण - रत्न और ७. काकिणी रत्न चलने लगे । चक्रवर्ती के उन ७ एकेन्द्रिय रत्नों के पीछे नव निधि रत्न चले । उनके पीछे अनुक्रमशः १६ हजार देव चले । देवों के पीछे क्रमशः ३२ हजार महाराजा, सेनापतिरत्न, गाथापतिरत्न, वाकिरत्न और पुरोहितरत्न तथा स्त्रीरत्न चले । स्त्री रत्न के पीछे अनुक्रमशः बत्तीस हजार ऋतु कल्याणिका, उतनी ही जनपद कल्याणिका, बत्तीस प्रकार के नाटक करने वाले बत्तीस हजार पुरुष, ३६० रसोइये, अठारह श्रेणी प्रश्रेणियाँ, चौरासी लाख घोड़े, चौरासी लाख हाथी, चौरासी लाख रथ और छयानवे कोटि पदातियों की सेना चली। सेना के पीछे बहुत से राजा, ईश्वर, युवराज तलवर, सार्थवाह आदि चले । उनके पीछे अनेक खड्गधर, दण्डधर, मालानों को रखने वाले, चामर बींजने वाले, धनुर्धर, द्यूतक्रीड़क, परशुधर, पुस्तकधारी, 1 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और शिक्षा प्रथम चक्रवर्ती भरत १०३ वीणावाहक, तेल के भाजन ले कर चलने वाले, हड़ नामक द्रव्य के भाजन को लेकर चलने वाले लोग अपने-अपने उपकरणों के अनुरूप चिह्न एवं वेशभूषा पहने हुए चलने लगे। उनके पीछे दण्डी, रुण्ड-मुण्ड, शिखाधारी, जटाधारी, मयूर आदि की पिच्छियों को धारण करने वाले, हास्य करने वाले, द्यूतक्रीडा का पटिया उठाने वाले, कुतूहल करने वाले, मीठे वचन बोलने वाले, चाटुकार कन्दप की चेष्टा करने वाले, वाक्शूर, गायक, वादक, नर्तक आदि नाचते, हँसते, खेलते, कूदते, क्रीड़ा करते हुए अपना तथा दूसरों का मनोरंजन-मनोविनोद, करते हुए, शुभ वचन बोलते हुए एवं जयघोषों से नभमंडल को गुंजायमान करते हुए, राजराजेश्वर भरत के सम्मुख अग्रभाग में सभी प्रकार के श्रेष्ठ अश्वालंकारों से सुचारु रूपेण शृंगारित श्रेष्ठ जाति के लम्बे चौड़े अश्व (सिणगारू घोड़े), उन प्रश्वों की बाग पकड कर चलने वाले, चल रहे थे । भरत के वाम और दक्षिण दोनों पावों में अंकुशधरों (महावतों) सहित मदोन्मत्त गजराज और महाराज भरत के पृष्ठ भाग में सारथियों द्वारा कुशलतापूर्वक संचालित अश्वरथों की श्रेणियां चल रही थीं। इस प्रकार शैलेन्द्र की शिला के समान विशाल वक्षस्थल पर झूमती हुई हारावलियों से सुरेन्द्र के समान शोभायमान, दिग्दिगन्त में लब्धप्रतिष्ठ, सम्पूर्ण भरत क्षेत्र के एकच्छत्र सम्राट नरेश्वर भरत चक्ररत्न द्वारा प्रदर्शित पथ पर कल्लोलित सागर की लोल लहरों के समान कल-कल निनाद करती हुई सेना तथा जनसमूह के साथ ग्राम, नगर आदि को उलांघते एवं एक-एक योजन के अन्तर पर पड़ाव डालते हुए एक दिन विनीता नगरी के पास आ पहुँचे । नगरी के बाहर बारह योजन लम्बे, नव योजन चौड़े स्कन्धांवार और महाराज भरत के लिए आवास एवं पोषघशाला का निर्माण वाद्धिक रत्न ने मुहूर्त मात्र में ही सम्पन्न कर दिया। पौषध शाला में प्रवेश कर महाराज भरत ने विनीता राजधानी के देव की आराधना के लिए अष्टमभक्त तप किया । अष्टमभक्त तप के पूर्ण होने पर पौषध शाला से बाहर आ वे सुसज्जित अभिषेक हस्ति पर प्रारूढ़ हुए। उनके सम्मुख, दोनों पाश्वों और पीछे की ओर पूर्व वरिणत अनुक्रम से अष्टमंगल, १४ रत्न, सोलह हजार देव, ३२ हजार मुकुटधारी महाराजा और विशाल जनसमूह जयघोषों से धरती और आकाश को गुंजाता हुआ चलने लगा। महानिधियां और चतुरंगिरणी सेना ने नगर में प्रवेश नहीं किया। ___इस प्रकार की अमरेन्द्र तुल्य ऋद्धि के साथ भरत ने विनीता नगरी में प्रवेश किया। विनीता नगरी उस समय नववधु के समान सजी हुई थी। उसके चप्पे-चप्पे को प्रमाणित एवं स्वच्छ करने के पश्चात् उसके बाह्याभ्यन्तर सभी भागों पर गन्धोदक का छिटकाव किया गया था । चमकते हुए रंगों से प्रत्येक Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [संवर्द्धन घर को रंजित किया गया था। नगरी के मुख्य द्वारों, राजपथ, वीथियों, चतुष्पथों आदि को ध्वजाओं, पताकाओं, तोरणों प्रादि अद्भुत कलाकारी द्वारा सजाया गया था। स्थान-स्थान पर रखे हुए पपात्रों में मन्द-मन्द धुकधुकाती धूप एवं सुगन्धित धूप गुटिकाओं से निकल कर वायुमण्डल में व्याप्त हो रहे सुगन्धित धूम्र से नगरी का समग्र वातावरण गमक उठा था। महाराज भरत अपनी उस अनुपम ऋद्धि के साथ नगरी के मध्यवर्ती राजपथ पर अग्रसर होते हुए जिस समय राजप्रासाद की ओर बढ़ रहे थे उस समय पग-पग पर नागरिकों द्वारा उनका अभिवादन किया गया, स्थान-स्थान पर उनका स्वागत किया गया, उन पर रंग-बिरंगे सुगन्धित पुष्पों की वर्षा की गई । देवों ने राजपथ पर, वीथियों में और स्थान-स्थान पर सोने, चांदी, रत्नों, आभरणों, अलंकारों एवं वस्त्रों की वर्षा की। स्तुति पाठकों के सुमधुर कण्ठों से उद्गत अद्भुत शब्द सौष्ठवपूर्ण सस्वर स्तुति गानों से श्रोता सम्मोहित हो उठे । बन्दीजनों द्वारा गाये गये भरत के महिमागान को सुन विनीता के नागरिकों का भाल गर्व से उन्नत और हृदयकमल हर्ष से प्रफुल्लित हो उठा । विनीता का वातावरण प्रानन्द और उल्लास से अोतप्रोत हो हर्ष की हिलोरों पर झूम उठा। इस प्रकार अगाध प्रानन्दोदधि की उत्ताल तरंगों पर जन-मन और स्वयं को झुलाते हुए निखिल भरत क्षेत्र के एकछत्र अधिपति भरत चक्रवर्ती अपने भव्य राजभवन के अतीव सुन्दर अवतंसक द्वार पर आये । हाथी के होदे से नीचे उतर कर भरत ने क्रमशः सोलह हजार देवों, बत्तीस हजार मुकुटधारी राजाओं, सेनापति रत्न, गाथापति रत्न, वाद्धिक रत्न, पुरोहित रत्न, ३६० रसोइयों, अठारह श्रेणियों, अठारह ही प्रश्रेणियों, सब राजकीय विभागाध्यक्षों एवं सार्थवाह प्रमुखों का सत्कार सम्मान किया और उन्हें अच्छी तरह सम्मानित कर विजित किया। उन सब को विसजित करने के पश्चात् महाराज भरत ने अपने स्त्री रत्न, बत्तीस हजार ऋतु कल्याणिकानों, बत्तीस हजार जनपद कल्यारिणकानों और बत्तीस हजार नाटक सूत्रधारिकाओं के परिवार के साथ अपने गगनचुम्बी विशाल राजप्रासाद में प्रवेश किया । राजप्रासाद में प्रवेश कर भरत ने अपने आत्मीयों, मित्रों, जाति बन्धुओं, स्वजनों, सम्बन्धियों एवं परिजनों से मिल कर उनसे उनके कुशलक्षेम के सम्बन्ध में पूछा । तदनन्तर स्नानादि से निवृत्त हो भोजनशाला में प्रवेश कर अपने १२वें अष्टमभक्त तप का पारण किया । तदनन्तर महाराज भरत ने अपने राजप्रासाद के निजी कक्ष में प्रवेश किया और वहां वे वाद्य यन्त्रों की धुनों, तालों और स्वरलहरियों के साथ पूर्णतः तालमेल रखने वाले नृत्य, संगीत और बत्तीस प्रकार के नाटकों का आनन्द लूटते हुए अनेक प्रकार के उत्तमोत्तम सुखोपभोगों का उपभुजन करते हुए रहने लगे। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और शिक्षा ] प्रथम चक्रवर्ती भरत इस प्रकार प्रबल पुण्योदय से प्राप्त होने वाले उत्तमोत्तम भोगोपभोगों का भुंजन करते हुए महाराजा भरत मन में इस प्रकार विचारने लगे"मैंने अपने बल, वीर्य, पौरुष और पराक्रम के द्वारा चुल्लहिमवंत पर्वत से लवण समुद्र पर्यन्त सम्पूर्ण भरत क्षेत्र पर विजय प्राप्त की है । अतः अब अपना महाभिषेक करवाना मेरे लिए श्रेयस्कर होगा । मन में इस प्रकार का विचार आने पर प्रातः कालीन आवश्यक कृत्यों से निवृत्त हो महाराज भरत ने उपस्थानशाला में राजसिंहासन पर पूर्वाभिमुख आसीन हो सोलह हजार देवों, बत्तीस हजार राजाओं, सेनापति रत्न, गाथापति रत्न, वाद्धिक रत्न, पुरोहित रत्न, तीन सौ साठ रसोइयों, अठारह - अठारह श्रेणी प्रश्रेणियों, अन्य राजाओं, ईश्वरों, तलवरों, सार्थवाहों आदि को बुला कर कहा - "अहो देवानुप्रियो ! मैंने अपने बल, वीर्य, पौरुष और पराक्रम से सम्पूर्ण भरतक्षेत्र पर विजय प्राप्त की है, अतः आप लोग अब मेरा राज्याभिषेक करो ।" महाराज भरत की बात सुन कर वे सोलह हजार देव और सभी उपस्थित जन बड़े हृष्ट एवं तुष्ट हुए । सब ने हाथ जोड़ विनयपूर्वक शीश झुका अपनी आन्तरिक सहमति प्रकट की । १०५ तत्पश्चात् महाराजा भरत ने पौषधशाला में जा कर पूर्वोक्त विधि से अष्टमभक्त तप अंगीकार किया और तप में ध्यान करते रहे । प्रष्टमभक्त तप के पूर्ण होने पर उन्होंने आभियोगिक देवों को बुला कर उन्हें विनीता नगरी के ईशान कोण में एक बड़ा अभिषेक मण्डप तैयार करने की आज्ञा दी । अभियोगिक देवों ने महाराज भरत की आज्ञानुसार राजधानी विनीता नगरी के ईशान कोण में वैक्रिय शक्ति द्वारा एक प्रति भव्य एवं विशाल अभिषेक मण्डप का निर्मारण किया । उन्होंने उस अभिषेक मण्डप के मध्य भाग में एक विशाल अभिषेक-पीठ ( चबूतरे ) की रचना की । उस अभिषेक पीठ के पूर्व, दक्षिण और उत्तर में तीन त्रिसोपानों (पगोतियों ) की रचना की । तदनन्तर उन प्राभियोगिक देवों ने अति रमणीय उस अभिषेक पीठिका पर एक बड़े ही नयनाभिराम एवं विशाल सिंहासन की रचना की । इस प्रकार एक परम सुन्दर और प्रति विशाल अभिषेक मण्डप की रचना करने के पश्चात् महाराज भरत के सम्मुख उपस्थित हो हाथ जोड़ कर निवेदन किया - "हे देवानुप्रिय ! आपकी आज्ञानुसार एक विशाल अभिषेक मण्डप का निर्माण कर दिया गया है।" आभिनियोगिक देवों की बात सुन कर महाराज भरत बड़े प्रसन्न हुए । उन्होंने पौधशाला से बाहर या कौटुम्बिक पुरुषों को प्रदेश दिया कि वे शीघ्रता पूर्वक हस्तिरत्न को अभिषेक के योग्य अलंकारों से सुसज्जित करें । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [संवद्धन तदनन्तर स्नान आदि से निवृत्त हो भरत महाराज दिव्य वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो हस्तिरत्न पर प्रारूढ़ हुए । उनके प्रागे अनुक्रमश: प्रष्ट मंगल, पूर्ण कलश, झारी, दिव्य छत्र, छत्रधर, ७ एकेन्द्रिय रत्न, १६ हजार देव, बत्तीस हजार महाराजा, सेनापति आदि ४ मनुष्य रत्न, स्त्री रत्न, बत्तीस-बत्तीस हजार ऋतु कल्याणिकाएं-जनपदकल्याणिकाएं, बत्तीस हजार बत्तीस प्रकार के नाटक करने वाले, ३६० रसोइये, अठारह श्रेणी प्रश्रेणियां, राजा, ईश्वर, तलवर, सार्थवाह एवं गायक, वादक आदि अपार जनसमुद्र चल रहा था। महाराज भरत के सम्मुख उत्कृष्ट प्रश्वाभरणों से सजाये हुए श्रेष्ठ जाति के घोड़े, दोनों पावों में मदोन्मत्त गजराज और पृष्ठ भाग में अश्वरथ चल रहे थे। षट्खण्ड की साधना के पश्चात् विनीता नगरी में महाराज भरत ने जिस कुबेरोपम ऋद्धि के साथ नगर में प्रवेश किया था उसी प्रकार की अनुपम ऋद्धि के साथ महाराज भरत अपने राजप्रासाद से प्रस्थान कर विनीता नगरी के मध्य में होते हुए राजधानी के ईशान कोण में निर्मित प्रतिविशाल एवं परम रम्य अभिषेक मण्डप के पास आये । वहां अभिषेक हस्तिरत्न के होदे से नीचे उतर कर स्त्री रत्न और चौसठ हजार कल्यारिणका स्त्रियों एवं बत्तीस हजार बत्तीस प्रकार के नाटक करने वाली रमणियों के साथ उन्होंने अभिषेक मण्डप में प्रवेश किया और वे अभिषेक-पीठिका के पास प्राये । अभिषेक पीठिका को प्रदक्षिणावर्त करते हुए वे पूर्व दिशा के सोपान से अभिषेक पीठिका पर चढ़े और उस पीठिका के मध्य भाग में अवस्थित सिंहासन पर पूर्वाभिमुख हो बैठ गये। भरत महाराज के सिंहासनारूढ़ होने के पश्चात ३२ हजार राजानों ने मण्डप में प्रवेश कर अभिषेक पीठिका की प्रदक्षिणा की मोर उत्तर दिशा के सोपान से अभिषेक पीठिका पर वे महाराज भरत के पास माये । उन्होंने सांजलि शीश झुका जय-विजय के घोषों से भरत महाराज का अभिवादन एवं वर्धापन किया। तदनन्तर वे थोड़ी ही दूरी पर भरत महाराज के पास बैठ गये और उनकी सेवा सुश्रूषा एवं पर्युपासना करने लगे। तत्पश्चात् भरत महाराज के सेनापति रत्न, सार्थवाहरत्न , वाद्धिक रत्न और पुरोहित रत्न ने अभिषेक मण्डप में प्रवेश और अभिषेक पीठिका की प्रदक्षिणा की । वे चारों दक्षिण दिशा के सोपान से अभिषेक पीठिका पर चढ़े। उन्होंने भी सांजलि शीश झुका जय-विजय के घोषों के साथ भरत महाराज का पाभिवादन अभिवपिन किया और उनसे थोड़ी दूरी पर पास में बैठ कर वे भरत महाराज की पर्यपासना करने लगे। तदनन्तर महाराज भरत ने पाभियोगिक देवों को बुला कर कहा Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और शिक्षा ] प्रथम चक्रवर्ती भरत "अहो देवानुप्रियो ! मेरा महा अर्थ वाला, महती ऋद्धि के साथ महा मूल्यवान् महा अभिषेक करो ।” १०७ अभियोगिक देवों ने महाराज भरत की प्राज्ञा को शिरोधार्य कर हृष्टतुष्ट हो ईशान कोण में जा कर वैक्रिय समुद्घात किया । अभिनियोगिक देवों द्वारा महाराज भरत का महा अर्थपूर्ण महा ऋद्धिसम्पन्न एवं महामूल्यवान महाअभिषेक किये जाने के अनन्तर बत्तीस हजार राजाओं ने शुभ तिथि, शुभ करण, शुभ दिवस, शुभ नक्षत्र एवं शुभ मुहूर्त में, उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र के योग में, विजय नामक आठवें मुहूर्त में स्वाभाविक एवं वैक्रिय से निष्पन्न श्रेष्ठ कमलाकार कलशों में भरे स्वच्छ सुगन्धित एवं श्रेष्ठ पानी से महाराज भरत का क्रमशः अभिषेक किया । प्रत्येक राजा ने हाथ जोड़ कर जय-विजय के निर्घोष के साथ महाराज भरत का अभिवादन, अभिवर्द्धन करते हुए कहा - " त्रिखण्डाधिपते ! श्राप करोड़ पूर्व तक राज्य करो- सुख पूर्वक विचरण करो। " ३२ हजार राजाओं के पश्चात् क्रमशः सेनापति रत्न, सार्थवाह रत्न, वर्द्धिक रत्न, पुरोहित रत्न ने, तीन सौ साठ रसोइयों ने अठारह श्रेणियों प्रौर प्रश्रेणियों ने और सार्थवाह प्रमुख अन्य अनेकों ने राजाओं की ही तरह कलशों से महाराज भरत का महाभिषेक किया, जय-विजय के घोषों के साथ " करोड़ पूर्व तक राज्य करो, सुख पूर्वक विचरण करो" इस प्रकार के प्रीतिकारक वचनों से उनका वर्द्धापन, अभिवादन किया, उनकी स्तुति की । तदनन्तर सोलह हजार देवों ने स्वच्छ, सुन्दर सुकोमल वस्त्र से महाराज भरत के शरीर को स्वच्छ किया । उन्हें दिव्य वस्त्र, ग्राभरण अलंकार पहनाये, उनके सिर पर दिव्य मुकुट रखा । श्रेष्ठ चन्दन एवं सुगन्धित गन्ध द्रव्यों का कपोल आदि पर मर्दन किया । रंगबिरंगे सुन्दर एवं सुगन्धित पुष्पों की मालाएं पहनाई और दिव्य पुष्पस्तबकों से उन्हें विभूषित किया । , महान् अर्थ वाले महद्धिक, महा मूल्यवान् महाराज्याभिषेक से अभिषिक्त होने के पश्चात् महाराज भरत ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुला कर कहा"हे देवानुप्रिय ! हाथी के होदे पर बैठ कर शीघ्रातिशीघ्र विनीता नगरी के बाह्याभ्यन्तर सभी भागों में, शृंगाटकों त्रिकों, चतुष्कों, चच्चरों एवं महापथों में डिंडिम घोष के साथ स्पष्ट और उच्च स्वरों में उद्घोषरणा करो कि सम्पूर्ण भरत क्षेत्र के छहों खण्डों के इस अवसर्पिणी काल के प्रथम चक्रवर्ती भरत के महाराज्याभिषेक के उपलक्ष्य में सभी प्रकार के करों से, शुल्कों से, सभी प्रकार के देयों से मुक्त किया जाता है । आज से बारह वर्ष पर्यन्त कोई भी राजपुरुष किसी भी प्रजाजन के घर में प्रवेश न करे, किसी से किसी भी प्रकार का दण्ड Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [संवर्द्धन न ले । नगर के निवासी, जनपदों के निवासी, समस्त देश के निवासी बारह वर्ष पर्यन्त प्रमोद करो, आनन्दोत्सव करो।" भरत चक्रवर्ती के इस आदेश को सुन कर उनके कौटुम्बिक पुरुष बड़े हर्षित हुए, हर्षातिरेक से उनके हृदय कमल प्रफुल्लित हो गये । उन्होंने चक्रवर्ती की आज्ञा को शिरोधार्य किया और तत्काल हाथी की पीठ पर बैठ कर उन्होंने भरत चक्रवर्ती की आज्ञा की घोषणा विनीता नगरी के बाह्याभ्यन्तर सभी स्थानों में कर दी। __ महाराज्याभिषेक सम्पन्न होने पर चक्रवर्ती सम्राट् भरत अभिषेक सिंहासन से उठे और स्त्री-रत्न आदि समस्त अन्तःपुर के परिवार राजाओं, सेनापति रत्न आदि रत्नों एवं पूर्व वणित ऋद्धि के साथ विनीता नगरी के मध्यवर्ती राजपथ से नागरिकों द्वारा स्थान-स्थान पर अभिनन्दित एवं वर्धापित होते हुए उसी क्रम से राजप्रासाद में लौटे जिस प्रकार कि अभिषेक मण्डप मे गय थे। __ स्नानादि से निवृत्त हो उन्होंने अष्टमभक्त तप का पारण किया और सम्पूर्ण भरत क्षेत्र पर सुचारु रूप से शासन करते हुए चक्रवर्ती की सम्पूर्ण ऋद्धि का सुखोपभोग करते हुए वे सुखपूर्वक रहने लगे । बारह वर्ष तक उनके षट्खण्ड राज्य की प्रजा ने उनके महाराज्याभिषेक का महा महोत्सव मनाया। बारह वर्ष का महा महोत्सव सम्पूर्ण होने पर महाराज भरत ने देवों, राजाओं आदि को सत्कार-सम्मानपूर्वक विसजित किया । प्रजाजनों को अनेक प्रकार की सुविधाएं प्रदान की। उनके राज्य की समस्त प्रजा पूर्ण रूप से सुखी और समृद्ध थी। सब प्रजाजन अपने-अपने कर्तव्य का पालन करते हुए निर्भय होकर सुखमय जीवन व्यतीत करते थे । चक्रवर्ती भरत ने अपनी सम्पूर्ण प्रजा के कल्याण के लिए अनेक स्थायी कार्य किये । उनके राज्यकाल में राज्य और प्रजा दोनों की ही समृद्धि में विपुल अभिवृद्धि हुई । ___चक्रवर्ती भरत की ऋद्धि-समृद्धि अतुल, अद्भुत और अलौकिक थी। उनके पास चौदह रत्न थे। उन चौदह रत्नों में से चक्र रत्न, दण्ड रत्न, खड्ग रत्न, छत्र रत्न-ये चार एकेन्द्रिय रत्न महाराजा भरत की आयुध शाला में उत्पन्न हए । चर्मरत्न, मरिणरत्न और काकिणीरत्न-ये तीन एकेन्द्रियरत्न उनके भण्डार में उत्पन्न हुए । उनके सेनापति रत्न, गाथापति रत्न, वाद्धिकरत्न और पुरोहितरत्न-ये चार मनुष्य रत्न महाराज भरत की राजधानी विनीता नगरी में उत्पन्न हुए । अश्वरत्न एवं हस्तिरत्न-ये दोनों तिर्यंच पंचेन्द्रिय रत्न वैताढ्य पर्वत की तलहटी में उत्पन्न हए । चक्रवर्ती भरत की भद्रा नाम की स्त्रीरत्न विद्याधरों की उत्तर दिशा की श्रेरिण में उत्पन्न हई । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और शिक्षा प्रथम भरत चक्रवर्ती अद्भुत् शक्ति एवं गुणों से सम्पन्न उन चौदह रत्नों के अतिरिक्त उनके पास नवनिधियां थीं, जो धन, समृद्धि आदि सभी जीवनोपयोगी उत्तमोत्तम सुखोपभोग की सामग्रियों की अक्षय भण्डार थीं । सोलह हजार देव और बत्तीस हजार मुकुटधारी महाराजा सदा भरत चक्रवर्ती की सेवा में रहते थे । बत्तीस हजार ऋतु कल्याणिकाएं, बत्तीस हजार जनपद कल्याणिकाएं उनकी सेवा के लिए अहर्निश तत्पर रहती थीं । बत्तीस हजार नाट्य निष्णात सूत्रधार बत्तीस प्रकार के नाटकों से भरत चक्रवर्ती का सदा मनोरंजन करते थे। उनकी सेवा में तीन सौ साठ पाकविद्या में निष्णात पाकशालाओं के अधिकारी थे । अठारह श्रेणियां और अठारह प्रश्रेणियां उनके इंगित मात्र पर उनकी प्राज्ञा का पालन करने के लिए तत्पर रहती थीं। चक्रवर्ती भरत की सैन्य शक्ति अजेय, अभेद्य, अनुपम और सदा सर्वत्र विजयिनी थी। उनकी चतुरंगिणी विशाल सेना में चौरासी लाख अश्व (अश्वारोही), चौरासी लाख हस्ती (गजारोही), चौरासी लाख रथ (रथी सैनिक) और छयानवे करोड़ पदातियों की सेना थी।। उनका सम्पूर्ण भरत क्षेत्र पर एकच्छत्र राज्य था। उनके राज्य में बहत्तर हजार राजधानियों के बड़े नगर, बत्तीस हजार देश, छयानवे करोड़ ग्राम, नन्यानवे हजार द्रोणमुख, अडतालीस हजार पत्तन, चौबीस हजार कर्बट चौबीस हजार मंडप, बीस हजार आगर, सोलह हजार खेड़े, चौदह हजार संबाह, छप्पन हजार अन्तरोदक अर्थात् अन्तरद्वीप, उनचास भिल्ल आदि के कुराज्य थे। वे सम्पूर्ण भरत क्षेत्र के षट्खण्डों की राजधानी विनीता नगरी में रहते हुए चुल्लहिमवन्त पर्वत से लेकर लवण समुद्र पर्यन्त सम्पूर्ण भरत क्षेत्र पर, सम्पूर्ण भरत क्षेत्र के सभी राजेश्वरों, राजाओं और सम्पूर्ण प्रजा पर न्याय नीति पूर्वक सुचारु रूप से शासन करते थे । भरत चक्रवर्ती ने अपने राज्य के सभी शत्रयों को कांटे की तरह निकाल कुचल कर निम्ल कर दिया था। इस प्रकार उन्होंने सभी शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी। वे सम्पूर्ण भरत क्षेत्र के स्वामी, मनुष्यों में इन्द्र के समान दिव्य, हार, मुकुट, वस्त्र, आभूषण और षड्ऋतुओं के सुमनोहर सुगन्धित सुमनों की माला धारण करने वाले, उत्कृष्ट, नाटकों एवं नत्यों का आनन्द लेते हए ६४ हजार स्त्रियों के समूह से परिवृत, सब प्रकार की औषधियों, सब प्रकार के रत्नों से परिपूर्ण मनोरथ, शत्रु-मद भंजक, पूर्वकृत तप के प्रभाव से पुण्य का फल भोगने वाले, इस प्रकार के मनुष्य सम्बन्धी सुखप्रद कामभोगों का उपभोग करने वाले वे भरत नामक चक्रवर्ती थे। चक्रवर्ती भरत एक हजार वर्ष कम छः लाख पूर्व तक चक्रवर्ती पद पर रहते हुए प्रजा का पालन और इस के सुखोपभोगों का उपभुजन करते रहे। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [संवर्द्धन एक दिन प्रातःकाल चक्रवर्ती भरत स्नान, गन्धमर्दन आदि के पश्चात् दिव्य वस्त्राभूषणालंकारादि से अलंकृत हो शरद पूर्णिमा के चन्द्र समान प्रियदर्शनीय बन कर स्नानागार से निकले और अपने इन्द्र भवन तुल्य शीश महल में गये । वहां वे अपने सिंहासन पर पूर्व दिशा की ओर मुख किये बैठ गये और उस आरिसा भवन में अपना रूप निरखने लगे । उस समय अपना रूप देखतेदेखते उनके अन्तर्मन में शुभ परिणाम प्रकट हुए । शुभ परिणामों, प्रशस्त अध्यवसाय एवं विशुद्ध लेश्या से प्रात्म-गवेषणा करते-करते वे मतिज्ञानावरण कर्म के क्षय से अपने प्रात्मा पर लगे कर्मरज को पृथक करने लगे। इस प्रकार कर्मरज को पृथक करते-करते उन्होंने अपूर्वकरण में प्रवेश किया। अपूर्वकरण में प्रवेश करते हुए उन्हें अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण प्रतिपूर्ण केवल ज्ञान एवं केवल दर्शन उत्पन्न हुआ । वे भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीनों काल के सम्पूर्ण लोक के समस्त पर्यायों को जानने वाले और देखने वाले केवली बन गये । भरत केवली ने स्वयमेव समस्त प्राभरणों एवं प्रलंकारों को उतारा और स्वयमेव पंच मुष्टि लुचन किया। भरत केवली आरिसा भवन में से निकले और अपने अन्तःपुर के मध्यभाग में होते हुए बाहर निकल कर दस हजार राजामों को प्रतिबोघ दे श्रमणधर्म में दीक्षित किया। उन दस हजार मुनियों के साथ वे विनीता नगरी के मध्यवर्ती पथ से विनीता नगरी से बाहर निकल कर मध्य देश में सुख पूर्वक विचरने लगे। लगभग एक लाख पूर्व तक विभिन्न क्षेत्रों में विचरण करने के पश्चात् वे अष्टापद पर्वत के पास पाये । वे अष्टापद पर्वत पर शनैः शनैः चढ़े । अष्टापद पर्वत पर उन्होंने एक पृथ्वी-शिलामट्ट की प्रतिलेखना की। उस शिला पर संलेखना-झूसना सहित भक्त-पान का प्रत्याख्यान कर उन्होंने पादपोपगमन संथारा किया । काल की कामना रहित वे पादपोपगमन संथारे में स्थिर रहे । वे भरत केवली सतहत्तर लाख पूर्व तक कुमारावस्था में रहे । कुमारावस्था के पश्चात् एक हजार वर्ष तक माण्डलिक राजा के पद पर रहे। तदनन्तर एक हजार वर्ष न्यून छह लाख पूर्व तक चक्रवर्ती पद पर रहे । इस प्रकार कुल मिला कर तियासी लाख पूर्व तक गहवास में रहे । पारिसा भवन में शुभ परिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय और विशुद्ध लेश्या से प्रात्म-गवेषणा में लीन होने के समय से केवलज्ञान-केवलदर्शन प्रकट होने के अन्तर्मुहूर्त जैसे समय तक न के चक्रवर्ती के पद से सम्बन्धित रहे, न श्रमण पर्याय से और न केवली पर्याय से ही। प्रत: उस समय को छोड़ कर उन्होंने कुछ कम एक लाख पूर्व तक केवली पर्याय का पालन किया एवं उतने ही समय तक प्रतिपूर्ण श्रमण पर्याय का पालन किया। इस प्रकार मब मिला कर ८४ लाख पूर्व का प्रायष्य पूर्ण कर एक मास Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और शिक्षा ] प्रथम भरत चक्रवर्ती १११ पर्यन्त पानी रहित भक्त प्रत्याख्यान से चन्द्रमा के साथ श्रवरण नक्षत्र का योग होने पर शेष वेदनीय, प्रायुष्य नाम व गोत्र कर्म के क्षीरण अर्थात् निर्मूल होने पर वे कालधर्म को प्राप्त हो जरामरण के बन्धन से विनिर्मुक्त सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए । संसार के सब कर्मों का, सब दुःखों का अन्त कर वे सब दुःखों से रहित अर्थात् अनन्त, अक्षय, अव्याघात शाश्वत शिव पद के मोक्ष में विराजे । 000 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत चक्रवर्ती प्रागमेतर साहित्य में भरत चक्रवर्ती की अनासक्ति और स्वरूप-दर्शन के सम्बन्ध में बड़े रोचक विवरण उपलब्ध होते हैं । जनमानस में " अनासक्ति " और "अनित्य - भावना" को उत्पन्न करने के लिए जो प्रयास उत्तरवर्ती आचार्यो ने किया है, उसकी सर्वथा उपेक्षा करना समुचित नहीं होगा । अतः उन आख्यानों को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है । भरत की अनासक्ति : भारतवर्ष का एकछत्र सार्वभौम साम्राज्य पा कर भी भरत के मन में शान्ति नहीं थी । अपने निन्यानवे भाइयों को खो कर राज्यभोगों में उन्हें गौरवानुभूति नहीं हो रही थी, नश्वर राज्य के लिए अपने भाइयों के मन में जो श्रन्तर्द्वन्द्व उन्होंने उत्पन्न किया, उसके लिए उनके मन में खेद था । श्रतः सम्पूर्ण भरत क्षेत्र के षट्खण्डों पर अखण्ड शासन करते हुए भी उनके मन में आसक्ति नहीं थी । एक समय भगवान् ऋषभदेव अपने शिष्य समूह के साथ विनीता नगरी के उद्यान में विराजमान थे। उस समय प्रभु की अमोघ दिव्य देशना में अध्यात्मसुधा की अविरल वृष्टि हो रही थी । सहस्रों सहस्रों सदेवासुर नर-नारी दत्तचित्त हो प्रभु के प्रवचनामृत का पान कर रहे थे । श्रोताओं में से किसी एक ने प्रभु से प्रश्न किया- "प्रभो ! चक्रवर्ती भरत किस गति में जायेंगे ?" प्रभु ने फरमाया- "मोक्ष में ।" प्रश्नकर्ता मन्द स्वर में बोल उठा - "अहो ! भगवान् के मन में भी पुत्र के प्रति पक्षपात है ।" यह बात भरत के कानों तक पहुंची । भरत ने सोचा- मेरे कारण भगवान् पर प्रक्षेप किया जा रहा है । इस व्यक्ति के मन में भगवद्वाणी में जो संदेह हुआ है, उसका मुझे समुचित उपाय से निराकरण करना चाहिये ।" यह सोच कर उन्होंने उस व्यक्ति को बुला कर कहा - " तेल से भरा हुना एक कटोरा ले कर विनीता के सब बाजारों में घूम आश्रो । स्मरण रहे, यदि कटोरे में से तेल की एक बूंद भी नीचे गिरा दी तो तुम फांसी के तख्ते पर Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत की अनासक्ति] भरत चकवर्ती लटका दिये जानोगे । कटोरे के तेल की एक बूद नीचे नहीं गिरने दोगे, तभी - तुम मुक्त हो सकोगे।" उसी समय विनीता नगरी में अनेक प्रकार के अद्भुत नाटकों और संगीत आदि के मनोरंजक आयोजनों का और उस व्यक्ति को तेल से पूर्ण कटोरा ले कर विनीता नगरी में घूमने का आदेश दिया गया। .. __ भरत के आदेश से भयभीत हुआ वह व्यक्ति आदेशानुसार सम्पूर्ण नगरी में परी सावधानी के साथ घम कर पुनः चक्रवर्ती भरत के पास लौटा । नगर में सब ओर नत्य, नाटक, संगीत आदि के आयोजन चल रहे थे, किन्तु वह व्यक्ति मृत्यु के डर से किसी भी अोर नजर तक उठा कर नहीं देख सका। भरत ने पूछा- "तुम पूरी विनीता नगरी में घूम आये हो । बतायो नगरी में तुमने कहां-कहां क्या-क्या देखा?" "महाराज कटोरे के अतिरिक्त मैंने कुछ भी नहीं देखा।" उस व्यक्ति ने विनम्र स्वर में उत्तर दिया। भरत ने पूछा-"अरे ! क्या तुमने नगर में हो रहे नाटक नहीं देखे ? संगीत मण्डलियों के मधुर संगीत भी नहीं सुने ?" उस व्यक्ति ने उत्तर दिया-"नहीं महाराज ! जिसकी दृष्टि के समक्ष मृत्यु नाच रही हो, वह नाटक कैसे देख सकता है ? मृत्यु का भय कैसा होता है, यह तो भुक्तभोगी ही जानता है।" "भाई ! जिस प्रकार तुम एक जीवन के मुत्यु-भय से संत्रस्त थे और उस मृत्यु-भय के कारण नाटक आदि नहीं देख सके, संगीत भी नहीं सुन सके, उसी प्रकार मेरे समक्ष सूदीर्घ काल की मृत्य--परम्परा का भयंकर भय है । अतः साम्राज्य-लीला का उपभोग करते हुए भी मैं उसमें आसक्त नहीं हो पा रहा हं । मैं तन से संसार के भोगोपभोगों और प्रारम्भ-परिग्रह में रह कर भी मन से एक प्रकार से निलिप्त रहता हूं।" भरत ने कहा। उस शंकाशील व्यक्ति की समझ में यह बात आ गई और भगवान् के वचन के प्रति उसके मन में जो शंका थी, वह तत्काल दूर हो गई। भरत ने उस व्यक्ति को इस प्रकार शिक्षा दे सादर विदा किया । भरत के जनहितकारी शासन के कारण ही इस देश का नाम भारतवर्ष प्रसिद्ध हुआ।' वसुदेव हिण्डी, प्र० खण्ड, पृ० १८६ । श्रीमद्भागवत-११-२-१७।नारद पुराण प्र० ४८, श्लोक ५ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भरत का स्वरूप-दर्शन भरत का स्वरूप-दर्शन सम्यग्दर्शन के प्रकाश से भरत का अन्तर्मन प्रकाशित था । दीर्घकाल तक साम्राज्य-लीला में संलग्न रह कर भी वे उसमें लिप्त और स्वरूपदर्शन के लिए लालायित थे। भरत एक दिन वस्त्रालंकारों से विभूषित होकर अपने शीशमहल (आदर्शभवन) में गये। वहां छत, भित्तियों और प्रांगन के शीशों में उनका सौन्दर्य शतमुखी हो कर प्रतिबिम्बित हो रहा था। प्रांगन में प्रतिबिम्बित उनकी छवि ऐसी सुशोभित हो रही थी, मानो क्षीरसागर में राजहंस विचरण कर रहा हो । महाराज भरत अपनी उस छटा को देखकर स्वयं उस पर विस्मित एवं मुग्ध से थे । अपनी अंगुलियों की शोभा को निहारते हुए उन्होंने देखा कि प्रकाशमान अंगलियों के बीच एक अंगुली शोभाविहीन है, सनी है, क्योंकि उसमें पहनी हई अंगूठी कही गिर पड़ी है। "देखें, इन दूसरो अंगूठियों को उतार देने पर ये अंगुलियां कैसी लगती हैं।" इस प्रकार विचार करते हुए उन्होंने एक-एक कर के अपने सारे आभूषण उतार दिये । प्राभूषणों को उतार देने के कारण शरीर का कृत्रिम सौन्दर्य विलुप्त हो गया । उन्हें अपना शरीर कमल रहित सरोवर के समान शोभाविहीन प्रतीत हुआ। भरत के चिन्तन का मोड़ बदला, उन्होंने सोचा-"शरीर का यह सौन्दर्य मेरा अपना नहीं है, यह तो कृत्रिम है, वस्त्राभूषणों से ही यह सुन्दर प्रतीत होता है । क्षण भर पहले जो देह दमक रही थी, वह आभूषणों के अभाव में श्रीहीन हो गई है।" उन्हें पहली बार यह अनुभव हुमा-भौतिक अलंकारों से लदी हुई मुन्दरता कितनी मारहीन है, कितनी भ्रामक है । इसके व्यामोह में फंस कर मानव अपने शुद्ध स्वरूप को भूल जाता है। वास्तविक सौन्दर्य की अवस्थिति तो "स्व" में है, “पर” में नहीं। वस्तुत: "स्व" की ओर अधिक ध्यान न दे कर जो मैं आज तक "पर" शरीरादि में ही तत्परता दिखाता रहा, यह मेरी भयंकर मूल थी।" धीरे-धीरे चक्रवर्ती भरत के चिन्तन का प्रवाह सम, संवेग, और निर्वेद की भूमिका पर पहुंचा और अपूर्वकरण में प्रविष्ट हो उन्होंने ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय एवं अन्तराय-इन चार घाति कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त कर लिया।' __ वे प्रभु ऋषभदेव के चरणचिह्नों पर चल पड़े और अन्त में शुद्ध, बुद्ध व मुक्त हो गये। १ प्रायश्यक नियु नि, गा० ४३६ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती भरत परिव्राजक मत का प्रारम्भ आवश्यक नियुक्ति प्रादि श्वेताम्बर ग्रन्थों के अनुसार भगवान् की देशना सुन कर और समवसरण की अद्भुत महिमा देख कर सम्राट् भरत का पुत्र मरीचि भी प्रभु के चरणों में दीक्षित हो गया तथा तप व संयम की विधिवत् आराधना करते हुए उसने एकादश अंगों का अध्ययन भी किया। पर सुकुमारता के कारण एक बार ग्रीष्मकाल के भीषण ताप और प्रस्नान परीषह से पीड़ित हो कर वह साधना के कंटकाकीर्ण मार्ग से विचलित हो गया ।' ( परिव्राजक मत का प्रारम्भ ] वह मन ही मन सोचने लगा- " मेरु गिरि के समान संयम के इस गुरुतर भार को मैं घड़ी भर भी वहन नहीं कर सकता, क्योंकि संयम योग्य धृति आदि गुणों का मुझ में प्रभाव है, तो मुझे क्या करना चाहिये ?" इस प्रकार विचार करते हुए उसे बुद्धि उत्पन्न हुई कि व्रत-पर्याय में आकर फिर घर लौट जाना तो उचित नहीं, सब लोग उसे कायर कहेंगे और यदि साधु रूप में रह कर विधिवत् संयम का निर्दोष पालन नहीं करता हूं, तो आत्म-वंचना होगी । अतः अपनी स्थिति के अनुसार नवीन वेश धारण कर विचरना चाहिये । श्रमरण-धर्म से उसने निम्न भेद की कल्पना की :"जिनेन्द्र मार्ग के श्रमरण मन, वचन और काया के अशुभ व्यापार रूप दंड से मुक्त, जितेन्द्रिय होते हैं । पर मैं मन, वाणी और काया से प्रगुप्तग्रजितेन्द्रिय हूं । इसलिये मुझे प्रतीक रूप से अपना त्रिदंड रखना चाहिये । २ 3 ४ " श्रमरण सर्वथा प्राणातिपात विरमरण महाव्रत के धारक और सर्वथा हिंसा के त्यागी होने से मु ंडित होते हैं, पर मैं पूर्ण हिंसा का त्यागी नहीं हूं। मैं स्थूल हिंसा से निवृत्ति करूंगा और शिखा सहित क्षुर मुंडन कराऊंगा ।" 3 क) प्रा० भा० गा० ३७ । (ख) प्राव० नि० गा० ३५० ३५१ २ श्रावश्यक नियुक्ति गाथा ३५३ " श्रमरण धन- कंचन रहित एवं शील की सौरभ वाले होते हैं किन्तु मैं परिग्रहधारी और शील की सुगन्ध से रहित हूं । अतः मैं चन्दन आदि का लेप करूंगा ।" " " श्रमण निर्मोही होने से छत्र नहीं रखते, पर मैं मोह ममता सहित हूं, अतः छत्र धारण करूंगा और उपानत् एवं खड़ाऊ भी पहनूंगा । "५ 39 "" "" ११५ 19 " "" ३५४ ३५५ ३५६ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास परिव्राजक मत का प्रारम्भ "श्रमरण निरम्बर और शुक्लाम्बर होते हैं, जो स्थविरकल्पी हैं वे निर्मल मनोवृत्ति के प्रतीक श्वेत वस्त्र धारण करते हैं, पर मैं कषाय से कलुषित हूं, अतः मैं काषाय वस्त्र-गेरुए वस्त्र धारण करूगा ।'' "पाप-भीरु श्रमण जीवाकूल समझ कर सचित्त जल आदि का प्रारंभ नहीं करता किन्तु मैं परिमित जल का स्नान-पानादि में उपयोग करूंगा।" इस प्रकार परिव्राजक वेष की कल्पना कर मरीचि भगवान के साथ उसी वेष से ग्राम-नगर आदि में विचरने लगा। मरीचि के पास आकर बहुत से लोग धर्म की पृच्छा करते, वह उन सबको क्षान्ति आदि दशविध श्रमण-धर्म की शिक्षा देता और भगवान के चरणों में शिष्य होने को भेज देता। किसी समय भरत महाराज ने भगवान के समक्ष प्रश्न किया-"प्रभो ! आपकी इस सभा में कोई ऐसा भी जीव है जो भरत क्षेत्र में, आपके समान इस चौबीसी में तीर्थंकर होगा?''3 समाधान करते हुए भगवान् ने फरमाया- "भरत ! यह स्वाध्यायध्यान में रत तुम्हारा पुत्र मरीचि, जो प्रथम परिव्राजक है, आगे इसी अवसर्पिणी में महावीर नाम का चौबीसवां तीर्थकर होगा। तीर्थकर होने से पहले यह प्रथम वासुदेव और मूका नगरी में चक्रवर्ती भी होगा।" भगवान् का निर्णय सुनकर सम्राट भरत अत्यधिक प्रसन्न हए और मरीचि के पास जाकर उसका अभिवादन करते हुए बोले-"मरीचि ! तुम तीर्थंकर बनोगे, इसलिये मैं तुम्हारा अभिवादन करता हूं। मरीचि ! तेरी इस प्रत्रज्या को एवं वर्तमान जन्म को वंदन नहीं करता हूं, किन्तु तुम जो भावी तीर्थकर बनोगे, इसलिये मैं वंदन करता हूं।" भरत की बात सुनकर मरीचि बहत ही प्रसन्न हया और तीन बार प्रास्फोटन करके बोला ..."अहो मैं प्रथम वासुदेव और मका नगरी में चक्रवर्ती वन गा, और इसी अवमपिरागी काल में अन्तिम तीर्थकर भी, कितनी बड़ी ऋद्धि ? फिर मेग कुल कितना ऊंचा ? मेरे पिता प्रथम सम्राट चक्रवर्ती, दादा ' आवश्यक नियुक्ति गाथा ३५७ " , ३५८ , प्रा. नि गाथा ३६७ । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्राह्मी और सुन्दरी ] चक्रवर्ती भरत ११७ तीर्थंकर और मैं भी भावी तीर्थंकर, क्या इससे बढ़कर भी कोई उच्च कुल होगा ?" इस प्रकार कुलमद के कारण मरीचि ने वहां नीच गोत्र का बन्ध कर लिया ।" एक दिन शरीर की अस्वस्थावस्था में जब कोई उसकी सेवा करने वाला नहीं था तो मरीचि को विचार हुआ - " मैंने किसी को शिष्य नहीं बनाया, श्रतः आज सेवा से वंचित रह रहा हूं । अब स्वस्थ होने पर मैं अपना शिष्य अवश्य बनाऊंगा ।"२ समय पाकर उसने कपिल राजकुमार को अपना शिष्य बनाया । " 3 महापुराणकार ने कपिल को ही योगशास्त्र और सांख्य दर्शन का प्रवर्तक माना है । इस प्रकार " आदि परिव्राजक" मरीचि के शिष्य कपिल से व्यवस्थित रूप में परिव्राजक परम्परा का प्रारंभ हुआ । ४ ब्राह्मी मौर सुन्दरी प्रातःस्मरणीया सतियों में ब्राह्मी और सुन्दरी का स्थान महत्त्वपूर्ण है । भगवान् आदिनाथ के १०० पुत्रों में जिस प्रकार भरत और बाहुबली प्रसिद्ध हैं, उसी प्रकार उनकी दोनों पुत्रियां ब्राह्मी और सुन्दरी भी सर्वजन विश्रुत हैं । भगवान् ऋषभदेव ने ब्राह्मी के माध्यम से ही जन-समाज को श्रठारह लिपियों का ज्ञान प्रदान किया । आवश्यक नियुक्ति के टीकाकार के अनुसार ब्राह्मी का बाहुबलि से और भरत का सुन्दरी से सम्बन्ध बताया गया है । यहां यह शंका होती है कि ब्राह्मी और सुन्दरी को बालब्रह्मचारिणी माना गया है, फिर इनका विवाह कैसे ? संभव है कि 'उस समय की लोक व्यवस्थानुसार पहले दोनों का सम्बन्ध घोषित किया गया हो और फिर भोग-विरति के कारण दोनों ने भगवान् के पास प्रव्रज्या ग्रहण कर ली हो । 1 आ० म०४२८, ४३१-४३२ २ प्रा० म० प० २४७ । १ 3 त्रिषष्टि १।६।५२ Y महापुराण, १८।६२।४०३ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास ब्राह्मी पौर सुन्दरी आवश्यक चूरिण और मलयगिरि वृत्ति में भी भरत को सुन्दरी और बाहबली को ब्राह्मी देने के उल्लेख के साथ बताया गया है कि ब्राह्मी तो भगवान् को केवलज्ञान होते ही दीक्षित हो गई, पर सुन्दरी को उस समय भरत ने दीक्षा ग्रहण करने की अनुमति प्रदान नहीं की। भरत द्वारा अवरोध उपस्थित किये जाने के कारण वह उस समय दीक्षित नहीं हो सकी। भरत का विचार था कि चक्ररत्न से षट्खण्ड पृथ्वी को जीतकर सुन्दरी को स्त्री-रत्न नियुक्त किया जाय। प्राचार्य जिनसेन के अनुसार सुन्दरी ने भगवान् ऋषभदेव के प्रथम प्रवचन से ही प्रतिबोध पाकर ब्राह्मी के साथ दीक्षा ग्रहण की थी।' पर श्वेताम्बर परम्परा के चूणि वृत्ति साहित्य के अनुसार भरत की आज्ञा प्राप्त न होने से, वह उस समय प्रथम श्राविका बनी। उसके अन्तर्मन में वैराग्य की प्रबल भावना थी। तन से गृहस्थाश्रम में रहकर भी उसका हृदय संयम में रम रहा था । भरत के स्नेहातिरेक को देख कर सुन्दरी ने रागनिवारण हेतु उपाय सोचा। उसने भरत द्वारा षट्खण्ड विजय के लिए प्रस्थान कर देने पर निरन्तर प्रायम्बिल (प्राचाम्ल) तप करना प्रारम्भ कर दिया। साठ हजार वर्ष पश्चात् जब भरत सम्पूर्ण भारतवर्ष पर अपनी विजयवैजयन्ती फहराते हुए षटखण्ड विजय कर विनीता नगरी को लौटे और बारह वर्ष के महाराज्याभिषेक-समारोह के सम्पन्न होने के पश्चात् जब वे अपने परिवार की सार-संभाल करते हुए सुन्दरी के पास आये तो सुन्दरी के सुन्दरसुडौल शरीर को अत्यन्त कृश और शोभाविहीन देखकर बड़े क्षुब्ध हुए । अनुचरों को उपालम्भ देते हुए उन्होंने सुन्दरी के क्षीणकाय होने का कारण पूछा। अनुचरों ने कहा-"स्वामिन् ! सभी प्रकार के सुख-साधनों का बाहुल्य होते हुए भी इनके क्षीण होने का कारण यह है कि जब से आपने इन्हें संयमग्रहण का निषेध किया, उसी दिन से उन्होंने निरन्तर प्राचाम्ल व्रत प्रारम्भ कर रखा है। हम लोगों द्वारा विविध विधि से पुनः पुनः निवेदन किये जाने के उपरान्त भी इन्होंने अपना व्रत नहीं छोड़ा।" सुन्दरी की यह स्थिति देखकर भरत ने पूछा- "सुन्दरी ! तुम प्रव्रज्या लेना चाहती हो अथवा गृहस्थ जीवन में रहना चाहती हो?" ___सुन्दरी द्वारा प्रव्रज्या ग्रहण करने की उत्कट अभिलाषा अभिव्यक्त किये जाने पर भरत ने प्रभु की सेवा में रत ब्राह्मी के पास उसे प्रव्रजित करा दिया। इस प्रकार सुन्दरी कालान्तर में साध्वी हो गई। ' (क) महापुराण २४११७७ (ब) त्रिषष्टि० ५० १, स० ३, ग्लो० ६५०-५१ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्राह्मी मोर सुन्दरी] चक्रवर्ती भरत ११६ इस प्रकार उपरिलिखित रूप में ब्राह्मी और सुन्दरी के सम्बन्ध में प्राचार्यों ने भिन्न-भिन्न अभिमत व्यक्त किये हैं। जैन वाङमय और धर्मसंघ में ब्राह्मी तथा सुन्दरी इन दोनों बहनों का युगादि से ही बहुत बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। युगादि में मानव संस्कृति के निर्माण में इन दोनों का बहुत बड़ा योगदान रहा । सोलह महासतियों में इन दोनों का विशिष्ट स्थान है। दोनों बहनें कुमारावस्था में ही भगवान ऋषभदेव के धर्मशासन में श्रमणीधर्म की आराधना कर सिद्ध-पद की अधिकारिणी बन गई । इनके साधना जीवन के सम्बन्ध में जैसा कि ऊपर बताया गया कुछ प्राचायों में विचारभेद रहा है। श्वेताम्बर परम्परा के पश्चाद्वर्ती साहित्य में ब्राह्मी की दीक्षा तो संघ स्थापना के समय ही मान्य की गई है पर सुन्दरी की दीक्षा ब्राह्मी से ६० हजार वर्ष पश्चात अर्थात भरत चक्रवर्ती के दिग्विजय से लौटने पर मानी गई है। जो विचारणीय है। जैनागम जम्बद्वीप प्रज्ञप्ति में भगवान् ऋषभदेव के साध्वीसंघ का परिचय देते हुए कहा गया है-"उसभस्सरणं अरहो कोसलियस्स बंभीसूदरी पामोक्खामो तिणि अज्जियासयसाहस्सीमो उक्कोसिय प्रज्जिया संपया होत्था ।" कल्पसूत्र में भी ऐसा ही लिखा है कि ऋषभदेव प्रभु के ब्राह्मी-सुन्दरी प्रमुख तीन लाख साध्वियों की उत्कृष्ट संपदा थी। इन दोनों ही मूल पाठों में ब्राह्मी के साथ सुन्दरी को भी ३ लाख साध्वियों में प्रमुख बताया गया है, जो ब्राह्मी और सुन्दरी के साथ-साथ दीक्षित होने पर ही संभव हो सकता है। चक्रवर्ती भरत द्वारा सम्पूर्ण भरतक्षेत्र पर दिग्विजय के पश्चात् सुन्दरी की दीक्षा मानने पर हजारों लाखों साध्वियां उनसे दीक्षावद्ध हो सकती हैं। उस प्रकार की स्थिति में-"बंभी सुदरीपामोक्खाओ" पाठ की संगति कैसे होगी? यह समस्या उपस्थित होती है । इसके अतिरिक्त ध्यानस्थ बाहुबली को प्रतिबोध देने हेतु ब्राह्मी के साथ सुन्दरी के भेजने का भी उल्लेख है, वह भी ब्राह्मी और सुन्दरी का दीक्षा-ग्रहण साथ मानने पर ही ठीक बैठता है। दिगम्बर परम्परा के प्राचार्य जिनसेन' भी जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र के उल्लेख की भांति ही ब्राह्मी और सुन्दरी-दोनों बहनों का एक साथ ही दीक्षित होना मानते हैं। इसके अतिरिक्त यदि सुन्दरी का संघ-स्थापना के समय श्राविका होना स्वीकार किया जाता है तो श्राविका-संघ में सुन्दरी का प्रमुख नाम आना चाहिये, किन्तु जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति और कल्पसूत्र आदि में सुभद्रा को श्राविकाओं में प्रमुख बतलाया गया है, न कि सुन्दरी को। ' महापुराण, २४।१७७ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जैन धर्म का मौलिक इतिहास . [पुत्रों को प्रतिबोध ... इन सब तथ्यों पर तटस्थता से विचार करने पर जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति और कल्पसूत्र की भावना के अनुसार ब्राह्मी और सुन्दरी दोनों बहनों का साथ-साथ दीक्षित होना ही विशेष संगत और उचित प्रतीत होता है। . ... पुत्रों को प्रतिबोष पहले कहा जा चुका है कि ऋषभदेव ने अपने सभी पुत्रों को पृथक्-पृथक ग्रामादि का राज्य देकर प्रव्रज्या ग्रहण की। ... जब भरत ने षट्खण्ड के देशों पर विजय प्राप्त की, तब भ्राताओं को भी अपने प्राज्ञानुवर्ती बनाने के लिए उसने उनके पास दूत भेजे । दूत की बात सुनकर अट्टानवे भाइयों ने मिलकर विचार-विमर्श किया, परन्तु वे कोई निर्णय नहीं कर सके । तब उन सबने सोचा कि भगवान् के पास जाकर बात करेंगे और उनकी जैसी प्राज्ञा होगी, वैसा ही करेंगे। ....... इस तरह सोचकर वे सब भगवान् के पास पहुंचे और उन्हें सारी स्थिति से अवगत कराते हुए बोले-"भगवन् ! आपने हमको जो राज्य दिया था, वह भाई भरत हमसे छीनना चाहता है। उसके पास कोई कमी नहीं, फिर भी तृष्णा के अधीन हो वह कहता है कि या तो हमारी प्राज्ञा स्वीकार करो अन्यथा युद्ध करने के लिये तैयार हो जाओ। आपके दिये हुए राज्य को हम यों ही दब कर अर्पण करदें, यह कायरता होगी और भाई के साथ युद्ध करें तो विनय-भंग होगा, मर्यादा का लोप हो जायगा। ऐसी स्थिति में आप ही बताइये, हमें क्या करना चाहिये?" भगवान् ने भौतिक राज्य की नश्वरता और अनुपादेयता बतलाते हुए उनको आध्यात्मिक राज्य का महत्त्व समझाया। - भगवान् के उपदेश का सार सूयगडांग के दूसरे वैतालीय अध्ययन में बताया गया है। भागवत में भी भगवान् के पुत्रोपदेश का वर्णन इससे मिलता-जुलता ही प्राप्त होता है। भगवान की दिव्य वाणी में आध्यात्मिक राज्य का महत्त्व और संघर्षजनक भौतिक राज्य के त्याग की बात सुनकर सभी पुत्र अवाक् रह गये । ___ उन्होंने भगवान् के उपदेश को शिरोधार्य कर इन्द्रियों और मन पर संयम रूप स्वराज्य स्वीकार किया और वे पंच महाव्रत रूप धर्म को ग्रहण कर भगवान् के शिष्य बन गये। 'श्रीमद्भागवत प्रथम खण्ड ५२५२५५६ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसात्मक युद्ध] . चक्रवर्ती भरत १२१ सम्राट् भरत को ज्योंही यह सूचना मिली, तो वे तत्काल वहां पहुंचे और भाइयों से राज्य ग्रहण करने की प्रार्थना करने लगे। पर अट्टानवे भाइयों ने अब राज्य वैभव और माया से अपना मुख मोड़ लिया था, अत: भरत की स्नेह भरी बातें उनको विचलित नहीं कर सकीं, वे अक्षय राज्य के अधिकारी हो गये। अहिंसात्मक युद्ध ऋषभदेव के द्वितीय पुत्र बाहुबली ने युद्ध में भी अहिंसाभाव रखकर यह बता दिया कि हिंसा के स्थान पर अहिंसा भाव से भी किस प्रकार-मन-परिवर्तन का आदर्श उपस्थित किया जा सकता है । ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र सम्राट भरत सम्पूर्ण देशों में अपना अखंड शासन स्थापित करने जा रहे थे । अट्ठानवे भाइयों के दीक्षित हो जाने से उनका मार्ग अधिकांशतः सरल बन चुका था, फिर भी एक बाधा थी कि महाबली को कैसे जीता जाय? जब तक बाहुबली को आज्ञानुवर्ती नहीं बना लिया जाता, तब तक चक्ररत्न का नगर प्रवेश और चक्रवर्तित्व के एकछत्र राज्य की स्थापना नहीं हो सकती थी । अतः उन्होंने अपने छोटे भाई बाहुबली को यह संदेश पहुंचाया कि वह भरत की अधीनता स्वीकार कर लें। दूत के मुख से भरत का सन्देश सुनकर बाहबली की भकूटी तन गई। क्रोध में तमतमाते हुए उन्होंने कहा-"अट्ठानवे भाइयों का राज्य छीन कर भी भरत की राज्य-तृष्णा शान्त नहीं हुई और अब वह मेरे राज्य पर भी अधिकार करना चाहता है। उसे अपनी शक्ति का गर्व है, वह सब को दबा कर रखना चाहता है, यह शक्ति का सदुपयोग नहीं, दुरुपयोग है, भगवान द्वारा स्थापित सुव्यवस्था का अतिक्रमण है। ऐसी स्थिति में मैं भी चप्पी नहीं माध सकता । मैं उसे बतला दूंगा कि आक्रमण करना कितना बुरा है।" बाहवली की यह बात सुनकर दूत लौट गया। उसने भरत के पास प्राकर सारी बात कह सुनाई। भरत के समक्ष बड़ी विकट समस्या उपस्थित हो गई । चक्ररत्न के नगर में प्रविष्ट न होने के कारण एक ओर चक्रवर्ती पद की प्राप्ति के लिये किये गये सब प्रयास निष्फल हो रहे थे तो दूसरी ओर भ्रात-प्रेम और लोकापवाद के कारण भाई के साथ युद्ध करने में मन कुण्ठित हो रहा था। किन्तु चक्रवर्ती नाम कर्म के प्राबल्य के कारण उन्हें भाई पर अाक्रमण करने का निश्चय करना पड़ा। उन्होंने विराट सेना लेकर यद्ध करने हेतु "बहली देश" की सीमा पर प्राकर सेना का पड़ाव डाल दिया। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [अहिंसात्मक युद्ध दूसरी ओर बाहुबली भी अपनी विशाल सेना के साथ रणांगण में प्रा डटे । दोनों ओर की सेनाओं के बीच युद्ध कुछ समय तक होता रहा । पर युद्ध में होने वाले जनसंहार से बचने के लिए बाहुबली ने भरत के समक्ष सुझाव रखा कि क्यों नहीं वे दोनों भाई-भाई ही मिलकर निर्णायक द्वन्द्व युद्ध कर लें। दोनों के एकमत होने पर दृष्टि-युद्ध, वाग्-युद्ध, मुष्टि-युद्ध और दंड-युद्ध द्वारा परस्पर बल-परीक्षण होने लगा। दोनों भाइयों के बीच सर्वप्रथम दृष्टि-युद्ध हुआ, उसमें भरत की पराजय हुई । तत्पश्चात् क्रमश: वाग्युद्ध, बाहु-युद्ध और मुष्टि-युद्ध में भी भरत पराजित हो गये। तब भरत सोचने लगे-"क्या बाहुबली चक्रवर्ती है, जिससे कि मैं कमजोर पड़ रहा हूँ ?" । उनके इस प्रकार विचार करते ही देवता ने भरत के समक्ष अमोघ प्रायुध चक्ररत्न प्रस्तुत किया । छोटे भाई से पराजित होने पर भरत को गहरा आघात लगा, अतः आवेश में आकर उन्होंने बाहुबली के शिरश्छेदन के लिये चक्ररत्न का प्रहार किया। बाहबली ने भरत को प्रहार करते देखा तो वे गर्व के साथ ऋद्ध हो उछले और उन्होंने चक्र को पकड़ना चाहा। पर तत्क्षण उनके मन में विचार पाया कि तुच्छ काम-भोगों के लिये उन्हें ऐसा करना योग्य नहीं। भाई मर्यादाभ्रष्ट हो गया है तो भी उन्हें धर्म छोड़कर भ्रातृवध जैसा दुष्कर्म नहीं करना चाहिये ।' भरत के ही परिवार के सदस्य व चरमशरीरी होने के कारण चक्ररत्न भी बाहुबली की प्रदक्षिणा करके पीछे की ओर लौट गया ।२।। बाहबली की इस विजय से गगन विजयघोषों से गूंज उठा और भरत मन ही मन बहुत लज्जित हुए । हेमचन्द्र के त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र में इस सन्दर्भ को निम्न रूप से प्रस्तुत किया गया है : ' (क) प्राव०नि० मलयवृत्ति गा० ३२ से ३५ प० २३२ (ख) प्राव० चू०प० २१० २ न चक्रं चक्रिणः शक्त, सामान्येऽपि सगोत्रजे।। विशेषतस्तु चरमशरीरे नरि तादृशे ॥७२३।। चक्र चक्रभृतः पाणि, पुनरप्यापपात तत् ।....७२४।। [त्रिषष्टि श. पु. चरित्र, पर्व १, सर्ग ५] Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत - बाहुबली युद्ध पर शास्त्रीय दृष्टि ] चक्रवर्ती भरत बाहुबली ने रुष्ट होकर जब भरत पर प्रहार करने के लिये मुष्टि उठाई तब सहसा दर्शकों के दिल कांप गये और सब एक स्वर में कहने लगे " क्षमा कीजिये, समर्थ होकर क्षमा करने वाला बड़ा होता है । भूल का प्रतीकार भूल से नहीं होता ।" बाहुबली शान्त मन से सोचने लगे - "ऋषभ की सन्तानों की परम्परा हिंसा की नहीं, अपितु अहिंसा की है। प्रेम ही मेरी कुल परम्परा है । किन्तु उठा हुआ हाथ खाली कैसे जाय ?" १२३ "उन्होंने विवेक से काम लिया, अपने उठे हुए हाथ को अपने ही सिर पर डाला और बालों का लुचन करके वे श्रमरण बन गये । उन्होंने ऋषभदेव के चरणों में वहीं से भावपूर्वक नमन किया और कृत- अपराध के लिए क्षमा प्रार्थना की ।" भरत- बाहुबली युद्ध पर शास्त्रीय दृष्टि कथा - साहित्य में भरत - बाहुबली के युद्ध को बड़े ही आकर्षक ढंग से प्रस्तुत किया गया है । कहीं देवों को बीच-बचाव में खींचा है, तो कहीं इन दोनों भाइयों के स्वयं के चिन्तन को महत्त्व दिया गया है । परन्तु जब शास्त्रीय परम्परा की ओर दृष्टिपात करते हैं, तो वहां इस सम्बन्ध में स्वल्पमात्र भी युद्ध का उल्लेख नहीं मिलता । प्रत्युत शास्त्र में तो स्पष्ट उल्लेख है कि चक्रवर्ती किसी राजा, महाराजा से तो क्या, देव-दानव से भी पराजित नहीं होते । इस प्रकार की स्थिति में देव-दानवों द्वारा प्रजेय भरत चक्रवर्ती को युद्ध में उनके अपने एक भाई महाराजा से पराजित हो जाने का उल्लेख सिद्धान्त के प्रतिकूल प्रतीत होता है । संभव है उत्तरवर्ती प्राचार्यों द्वारा बाहुबली के बल की विशिष्टता बतलाने के लिये ऐसा लिखा गया हो । छग्रस्थ साहित्यकारों द्वारा चरित्र-चित्रण में प्रतिशयोक्ति होना असंभव नहीं है । बाहुबली का घोर तप और केवलज्ञान भ० ऋषभदेव की सेवा में जाने की इच्छा होने पर भी बाहुबली भागे नहीं बढ़ सके । उनके मन में द्वन्द था - " पूर्वदीक्षित छोटे भाइयो के पास यों ही कैसे जाऊं ?" इस बात का स्मरण प्राते ही वे अहंकार से प्रभिभूत हो गये । वे वन में ध्यानस्थ खड़े हो गये और एक वर्ष तक गिरिराज के समान प्रचल-ग्रडोल निष्कम्प भाव से खड़े रहे। शरीर पर बेलें छा गई, सुकोमल कमल के समान Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [बाहुबली का घोर तप खिला वदन मुरझा गया, पर दीमकों की मिट्टी से ढक गये ।' इतना सब कुछ होने पर भी उन्हें केवलज्ञान का आभास तक नहीं हुआ। त्रिकालदर्शी प्रभु ऋषभदेव ने मुनि बाहुबली की इस प्रकार की मन:स्थिति देख, उन्हें प्रतिबोध देने हेतु ब्राह्मी और सुन्दरी को उनके पास भेजा। __ दोनों साध्वियां तत्काल बाहुबली के पास जाकर प्रेरक मृदु स्वर में उनसे बोली-“भाई ! हाथी से नीचे उतरो, हाथी पर बैठे केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं होती।" __ बाहुबली साध्वियों को बात सुनकर विचारने लगे-"मैं हाथी पर कहाँ बैठा हूं ? किन्तु साध्वियां कभी असत्य नहीं बोलतीं। अरे समझा, ये ठीक ही कहती हैं, मैं अभिमान रूपी हाथी पर आरूढ़ हूं।" . इस विचार के साथ ही सरल भाव से ज्योंही बाहबली ने अपने छोटे भाइयों को नमन करने के लिये पैर उठाये कि उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। केवली बनकर वे भगवान के समवसरण में गये और वहां नियम के अनुसार प्रभु को वन्दन कर केवली-परिषद् में बैठ गये।। प्राचार्य जिनसेन ने लिखा है कि बाहबली एक वर्ष तक ध्यान में स्थिर रहे, परन्तु उनके मन में यह विचार बना रहा कि उनके कारण भरत के मन में संक्लेश हुआ है। उनके वार्षिक अनशन के पश्चात् भरत के द्वारा क्षमायाचनापूर्वक वन्दन करने पर उनका मानसिक शल्य दूर हुआ और उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया। भरत द्वारा ब्राह्मण वर्ण की स्थापना प्राचार्य जिनसेन के मतानुसार ब्राह्मण वर्ण की उत्पत्ति इस प्रकार बतलाई गई है कि कुछ समय के पश्चात् भरत चक्रवर्ती पद पर आसीन हुए तो उनके मन में विचार पाया कि उन्होंने दिग्विजय कर विपुल वैभव एवं साधन एकत्रित किये हैं। अन्य लोग भी रातदिन परिश्रम कर अपनी शक्तिभर धनार्जन करते हैं । इस प्रकार परिश्रम से उपार्जित सम्पत्ति का उपयोग किन्हीं ' संवच्छरं अच्छई काउसग्गेण वल्लीवितारणेणं वेढियो पाया य निग्गएहिं भयंगेहिं --प्राव० म० वृ०, पृ० २३२ (१)-- २ तातो व अलियं न भरणति । -आवश्यक चूणि, पूर्व भाग, पृ० २११3 महापुराण, ३६। १८६-८८। २१७ द्वि० भाग Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ भरत द्वारा ब्राह्मण वर्ण की स्थापना] चक्रवर्ती भरत ऐसे कल्याणकारी कार्यों में किया जाना चाहिये, जो सभी भांति लाभप्रद एवं परम हितकर हों। इस विचार के साथ उन्हें यह भी ध्यान में पाया कि यदि बुद्धिजीवी लोगों का एक वर्ग तैयार किया जाय तो उनके द्वारा त्रिवर्ग के अन्य लोगों को भी नैतिक जीवन-निर्माण में बौद्धिक सहयोग प्राप्त होता रहेगा और समाज का नैतिक स्तर भी अधःपतन की ओर उन्मुख न होकर अभ्युन्नति की ओर अग्रसर होता रहेगा। इस विचार को मूर्त रूप देने के लिये उन्होंने सभी शिष्ट लोगों को अपने यहां आमन्त्रित किया और उनकी परीक्षा के लिये मार्ग में हरी घास बिछवा दी। हरी घास में भी जीव होते हैं, जिनकी हमारे चलने से विराधना होगी, इस बात का बिना विचार किये ही बहुत से लोग भरत के प्रासाद में चले गये। परन्तु कतिपय विवेकशील लोग मार्ग में हरी घास बिछी देखकर प्रासाद में नहीं गये । भरत द्वारा उन्हें प्रासाद के अन्दर नहीं आने का कारण पूछने पर उन्होंने कहा-"हमारे आने से वनस्पति के जीवों की विराधना होती, इसलिये हम प्रासाद के अन्दर नहीं आये।" महाराज भरत ने उनकी दयावृत्ति की सराहना करते हुए उन्हें दूसरे मार्ग से प्रासाद में बुलाया और उन्हें सम्मानित कर 'माहरण' अर्थात् 'ब्राह्मण की संज्ञा से सम्बोधित किया। आवश्यक चूणि (जिनदास गणी) के अनुसार भरत अपने ६८ भाइयों को प्रजित हुए जानकर अधीर हो उठे और मन में विचार करने लगे कि इतनी बड़ी अतुल सम्पदा किस काम की, जो अपने स्वजनों के भी काम न मा सके । यदि मेरे भाई चाहें तो मैं यह भोग उन्हें अर्पण कर दूं। जब भगवान् विनीता नगरी पधारे तो भरत ने अपने दीक्षित भाइयों को भोगों के लिए निमन्त्रित किया, पर उन्होंने त्यागे हुए भोगों को ग्रहण करना स्वीकार नहीं किया । तब भरत ने उन परिग्रह-त्यागी मुनियों का माहार मादि के दान द्वारा सेवा-सत्कार करना चाहा। प्रशनादि से भरे ५०० गाडे लेकर वे उन मुनियों के पास पहुँचे एवं वन्दन नमन के पश्चात् उन्हें प्रशन-पानादि के उपभोग के लिए आमन्त्रित करने लगे। भगवान ऋषभदेव ने फरमाया-इम प्रकार का साधुनों के लिए बना हुप्रा प्राधाकर्मी या उनके लिये लाया हुआ पाहार साधुनों के लिए ग्राह्य नहीं होता। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भरत द्वारा ब्राह्मरा इस पर भरत ने प्रभु से प्रार्थना की-भगवन् ! यदि ऐसी बात है तो मेरे लिए पहले से ही बने हुए भोजन को स्वीकार किया जाय । जब भगवान ने उसे भी 'राजपिण्ड' कह कर अग्राह्य बताया तो भरत बड़े खिन्न एवं चिन्तित हो सोचने लगे- क्या पिता ने मुझे सर्वथा परित्यक्त कर दिया है ? इसी बीच देवराज शक्र ने भरत की व्यथा एवं चिन्ता का निवारण करने के लिए प्रभु से पृच्छा की - भगवन् ! अवग्रह कितने प्रकार के होते हैं ? प्रभु ने पंचविध अवग्रह में देवेन्द्र और राजा का भी अवग्रह बताया। भरत ने इस पर प्रभु से निवेदन किया - भगवन् ! मैं अपने भारतवर्ष में श्रमण-निर्ग्रन्थों को सुखपूर्वक विचरण करने की अनुज्ञा प्रदान करता हूँ। इसके बाद श्रमणों के लिये लाये हए आहार-पानादि के सदूपयोग के सम्बन्ध में भरत द्वारा पूछे जाने पर शक्र ने कहा- राजन् ! जो तुम से विरति गुरण में अधिक हैं, उनका इस प्रशन-पानादि से सत्कार करो। भरत ने मन ही मन सोचा - कुल, जाति और वैभव आदि में तो कोई मुझ से अधिक नहीं है। जहां तक गणाधिक्य का प्रश्न है, इसमें मुझ से अधिक (गुण वाले) त्यागी, साधु व मुनिराज हैं, वे तो मेरे इस पिण्ड को स्वीकार ही नहीं करते। अब रहे गुणाधिक कुछ श्रावक - तो उन्हें ही यह सामग्री दे दी जाय । ऐसा सोच कर भरत ने वह भोजन श्रावकों को दे दिया और उन्हें बुला कर कहा - आप अपनी जीविका के लिए व्यवसाय, सेवा, कृषि प्रादि कोई कार्य न करें, मैं आप लोगों की जीविका की व्यवस्था करूगा। पापका कार्य केवल शास्त्रों का श्रवण, पठन एवं मनन व देव, गुरु की सेवा करते रहना है । इस प्रकार अनेकों श्रावक प्रतिदिन भरत की भोजनशाला में भोजन करते और बोलते - 'वर्द्ध ते भयं, मा हण, मा हण' - भय बढ़ रहा है, हिंसा मत करो, हिंसा मत करो। भरत की ओर से श्रावकों के नाम इस साधारण निमन्त्रण को पाकर अन्यान्य लोग भी अधिकाधिक संख्या में भरत की भोजनशाला में प्राकर भोजन करने लगे। भोजनशाला के व्यवस्थापकों ने भोजन के लिए पाने वालों की दिन प्रतिदिन अप्रत्याशित रूप से निरन्तर बढ़ती हुई संख्या को देखकर सोचा कि यदि यही स्थिति रही तो बड़ी अव्यवस्था हो जाएगी। उन्होंने सारी स्थिति भरत के सम्मुख रखी। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ण की स्थापना] चक्रवर्ती भरत १२७ भरत ने कहा- तुम लोग प्रत्येक व्यक्ति से पूछताछ करने के पश्चात जो श्रावक हो उसे भोजन खिलाओ । ___भोजनशाला के व्यवस्थापकों ने आगन्तुकों से पूछताछ करना प्रारम्भ किया । जिन लोनों ने अपने व्रतों के सम्बन्ध में सम्यक रूप से बताया उनको योग्य समझ कर वे भरत के पास ले गये। भरत ने कांकणी रत्न से उन्हें चिह्नित किया और कहा - छः छः महीनों से ऐसा परीक्षण करते रहो। इस प्रकार माहण उत्पन्न हुए । उनके जो पुत्र-पौत्र होते, उन्हें भी साधुनों के पास ले जाया जाता और व्रत स्वीकार करने पर कांकिणी रत्न से चिह्नित किया जाता । वे लोग प्रारम्भ, परिग्रह की प्रवृत्तियों से अलग रहकर लोगों को 'मा हन, मा हन,' ऐसी शिक्षा देते, उन्हें 'माहण' अर्थात् 'ब्राह्मण' कहा जाने लगा।' भरत द्वारा, प्रत्येक श्रावक के - देव, गुरु, धर्म अथवा ज्ञान, दर्शन, चरित्र रूपी रत्नत्रय की प्राराधना के कारण, कांकरणी रत्न से तीन रेखाएं की जाती । समय पाकर वे ही तीन रेखाएं यज्ञोपवीत के रूप में परिणत हो __ इस प्रकार ब्राह्मण वर्ण की उत्पत्ति हुई। जब भरत के पुत्र प्रादित्य यश सिंहासनारूढ़ हए तो उन्होंने सुवर्णमय यज्ञोपवीत धारण करवाई। यह स्वर्ण की यज्ञोपवीत धारण करने की परिपाटी प्रादित्य यश से पाठवीं पीढ़ी तक चलती रही। इस तरह भगवान् प्रादिनाथ से लेकर भरत के राज्यकाल तक चार वों की स्थापना हुई। मगवान् श्षमदेव का धर्म परिवार भगवान् ऋषभदेव का गृहस्थ परिवार विशाल था, उसी प्रकार उनका धर्म-परिवार भी बहुत बड़ा था । यों देखा जाय तो प्रभु ऋषभदेव की वीतरागवारणी को सुनकर कोई विरला ही ऐसा रहा होगा, जो लाभान्वित एवं उनके प्रति श्रद्धाशील नहीं हमा हो। प्रगणित नर-नारी, देव-देवी और पश तक उनके उपासक बने, भक्त बने । परन्तु यहां विशेषकर व्रतियों की दृष्टि से ही उनके धर्म परिवार का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 'भावश्यक चूरिण, पृ० २१३-१४ २ एवं ते उप्पना माहणा, कामं जदा पाइन्चजसो जातो तदा सोवनियारिण जन्नोवइयारिण। एवं तेसि अट्ठ पुरिसजुगाणि ताव सोवनितागि ।। भाव० चू० प्र० भा०, पृष्ठ-२१४ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ जैन धर्म का नैतिक इतिहास [भ. ऋषभदेव का धर्म परिवार । वादी के अनुसार' कोशलिक ऋषभदेव के धर्मसंघ में गणधरों आदि की संख्या इस प्रकार थी : गणधर ऋषभसेन आदि चौरासी (८४) . केवली साधु बीस हजार (२०,०००) केवली साध्वियां गलीस हजार (४०,०००) मनः पर्यवज्ञानी बारह हजार छह सौ पचास (१२,६५०). अवधिज्ञानी नौ हजार (६,०००) चतुर्दश पूर्वधारी चार हजार सात सौ पचास (४,७५०) बारह हजार छह सौ पचास (१२,६५०) वैक्रिय लब्धिधारी बीस हजार छह सौ (२०,६००) अनुत्तरोपपातिक बाईस हजार नौ सौ (२२,६००) साधु चौरासी हजार (८४,०००) साध्वियां ब्राह्मी और सुन्दरी प्रमुख तीन लाख (३,००,०००) श्रावक श्रेयांस प्रमुख तीन लाख पचास हजार (३,५०,०००) श्राविकाएं सुभद्रा प्रमुख पांच लाख चौवन हजार (५,५४,०००) भगवान ऋषभदेव के इस धर्म परिवार में २० हजार साधनों और चालीस हजार साध्वियों - इस प्रकार कुल मिलाकर ६० हजार अन्तेवासी साधु-साध्वियों ने आठों कर्मों को समूल नष्ट कर अन्त में मोक्ष प्राप्त किया। भगवान् ऋषभदेव के विशाल अन्तेवासी परिवार में बहुत से अरणगार ऊर्ध्व जानु और अधोशिर किये ध्यानमग्न रहकर संयम एवं तपश्चरण से अपनी आत्मा को भावित अर्थात परिष्कृत करते हुए विचरण करते थे। भगवान ऋषभदेव की दो अन्तकृत् भूमियां हुई। एक तो युगान्तकृत् भूमि और दूसरी पर्यायान्तकृत् भूमि । युगान्तकृत भूमि की अवधि असंख्यात पुरुषयुगों तक चलती रही और पर्यायान्तकृत्-भूमि में मुमुक्षु अन्तमुहूर्त की पर्याय से आठों कर्मों का अन्त करने के कामी हुए। १ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (अमोलक ऋषिजी म०), पृ०८७-८८ २ यदि इन २२,६०० मुनियों की ७ लवमत्तम जितनी भी प्रायुष्य और होती तो ये सीधे मोक्ष में जाते । ७ लवसत्तम जितना समय ही इनके मोक्ष जाने में कम रहा था कि इनकी आयुष्य समाप्त हो गई और ये अनुत्तर विमान में देव रूप से उत्पन्न हुए । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'चक्रवर्ती भरत सं० ऋषभदेव के कल्यारणक कौलिक ऋषभदेव भगवान् के पांच कल्याणक उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में और छठा कल्याणक अभिजित् नक्षत्र में हुआ। उन कल्याणकों का विवरण इस प्रकार है : भ० ऋषभदेव के कल्याणक ] भ० ऋषभदेव के जीव का उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में सर्वार्थसिद्ध विमान से च्यवन हुआ और च्यवन कर उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में ही गर्भ में आया ( १ ), भ० ऋषभदेव का उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में जन्म हुआ (२), उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में प्रभु का राज्याभिषेक हुआ ( ३ ), उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में वे गृहस्थ धर्म का परित्याग कर अणगार धर्म में प्रव्रजित हुए (४), प्रभु ऋषभदेव ने उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में केवलज्ञान प्राप्त किया (५) और अभिजित् नक्षत्र में वे आठों कर्मों को नष्ट कर शुद्ध-बुद्ध मुक्त हुए (६) । प्रभु ऋषभदेव का प्रप्रतिहत विहार एक हजार वर्ष कम एक लाख पूर्व की भाव- तीर्थङ्कर पर्याय में प्रभु ऋषभदेव ने उस समय के वृहत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्रों में विहार किया । उन्होंने बहली, अंडब इल्ला अटक प्रदेश, यवन-यूनान, स्वर्णभूमि और पनवपर्शिया जैसे दूर दूर के क्षेत्रों में भी विचरण कर भव्यों को धर्म का उपदेश दिया । उस समय देश के कोने-कोने एवं सुदूरस्थ प्रदेशों में जैनधर्म चहु मुखी प्रचार-प्रसार के कारण सार्वभौम धर्म के प्रतिष्ठित पद पर अधिष्ठित हुआ । वह भगवान् आदिनाथ ऋषभ के ही उपदेशों का प्रतिफल था । १२६ • वज्र ऋषभनाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थान से सुगठित ५०० धनुष की ऊँचाई वाले सुघड़ - सुन्दर शरीर के धनी कौशलिक ऋषभदेव अरिहन्त बीस लाख पूर्व की अवस्था तक कुमार अवस्था में और ६३ लाख पूर्व तक महाराज पद पर रहे । इस प्रकार कुल मिला कर तियासी लाख पूर्व तक गृहवास में । पश्चात् उन्होंने अणगार धर्म की प्रव्रज्या ग्रहरण की । वे १००० वर्ष तक छद्मस्थ पर्याय में रहे । एक हजार वर्ष कम एक लाख पूर्व तक वे केवली पर्याय ( भाव तीर्थंकर पर्याय ) में रहे । सब मिला कर उन्होंने एक लाख पूर्व तक श्रमधर्म का पालन किया । अन्त समय में आयु- काल को निकट समझ कर १०,००० प्रन्तेवासी साधुयों के परिवार के साथ भगवान् ऋषभदेव ने अष्टापद पर्वत के शिखर पर पादपोपगमन संथारा किया। वहां, हेमन्त ऋतु के तृतीय मास और पांचवें पक्ष में माघ कृष्णा त्रयोदशी के दिन पानी रहित चौदह भक्त अर्थात् ६ दिन के उपवासों की तपस्या से युक्त, दिन के पूर्व विभाग में, अभिजित् नक्षत्र के योग में i Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ श्राश्वर्य जब कि सुषम - दुःषम नामक तीसरे आारक के समाप्त होने में ८६ पक्ष ( तीन , आठ मास और पन्द्रह दिन) शेष रहे थे, उस समय प्रभु ऋषभदेव निर्वारण " प्राप्त हुए। प्रभु के साथ जिन १०,००० साधुत्रों ने पादपोपगमन संथारा किया था वे भी प्रभु के साथ सिद्धे बुद्ध-मुक्त हुए । प्राश्चर्य काल का सूक्ष्मातिसूक्ष्म अविभाज्य काल, जो समय कहलाता हैं, उस एक ही समय में भगवान् ऋषभदेव के साथ उन १० हजार अन्तेवासियों में से १०७ अन्तेवासी भी मुक्त हुए । अनादिकाल से यह नियम है कि एक समय में उत्कृष्ट अवगाहना वाले दो ही जीव एक साथ सिद्ध हो सकते हैं', दो से अधिक नहीं । किन्तु ५०० धनुष की उत्कृष्ट अवगाहना वाले भगवान् ऋषभदेव और उनके १०७ अन्तेवासी कुल मिलाकर १०८ एक समय में ही सिद्ध हो गये, यह प्रवर्तमान अवसर्पिणीकाल का प्राश्चर्य माना गया है । इस अवसर्पिणी काल में. जो १० प्राश्चर्य घटित हुए हैं, उनमें इस घटना की भी प्राश्चर्य के रूप में 'गरणना की गई है । वे दस आश्चर्य इस प्रकार हैं : १. उवसग्ग, २. गव्भहरणं, ३. इत्थीतित्थं, ४ प्रभाविया परिसा । ५. कण्हस्स अवरकंका, ६. उत्तररणं चंद-सूराणं ॥ ७. हरिवंसकुलुप्पत्ती, ८. चमरुप्पातो य ६. भ्रट्ठसयसिद्धा । १०. अस्संजतेसु पूना, दस वि श्ररणंतेरण कालेा ॥ स्था. सूत्र, १० स्थान । प्रभु के निर्वारण के समय प्रभु सहित उत्कृष्ट अवगाहना वाले १०८, महान् आत्माओं ने एक ही समय में निर्वाण प्राप्त किया। प्रभु के साथ संथारा किये हुए प्रभु के शेष १८६३ श्रन्तेवासियों ने भी उसी दिन थोड़े थोड़े क्षणों के अन्तर से शुद्ध-बुद्ध-मुक्त हो सिद्ध गति प्राप्त की। प्रभु के साथ मुक्त हुए उन १० हजार श्रमणों में प्रभु के गणधर, पुत्र, पौत्र और अन्य भी सम्मिलित थे । निर्वाण महोत्सव भगवान् ऋषभदेव का निर्वारण होते ही सौधर्मेन्द्र शक्र प्रादि ६४ इन्द्रों के प्रासन चलायमान हुए। वे सब इन्द्र अपने-अपने विशाल देव परिवार भौर प्रद्भुत दिव्य ऋद्धि के साथ अष्टापद पर्वत के शिखर पर प्राये । देवराज शत्र 1 · १ उक्कोसोगाहणाए य, सिज्यंते जुगवं दुबे ॥५४॥ उत्तराध्ययन, म. १६ २ दश आश्चर्यो के सम्बन्ध में विशेष विवरण के लिये प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रभु महावीर का "गर्भापहार प्रकरण” देखें Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाण महोत्सव ] भगवान् ऋषभदेव १३१ की श्राज्ञा से देवों ने तीन चिताओं और तीन शिविकाओं का निर्माण किया । शक्र ने क्षीरोदक से प्रभु के पार्थिव शरीर को और दूसरे देवों ने गरणधरों तथा प्रभु के शेष प्रन्तेवासियों के शरीरों को क्षीरोदक से स्नान करवाया । उन पर गोशीर्ष चन्दन का विलेपन किया गया । शक्र ने प्रभु के श्रीर देवों ने गणधरों तथा साधुओं के पार्थिव शरीरों को क्रमशः तीन प्रतीव सुन्दर शिविकाओं में रखा । "जय जय नन्दा, जय जय भद्दा" आदि जयघोषों और दिव्य देव वाद्यों की तुमुल ध्वनि के साथ इन्द्रों ने प्रभु की शिविका को और देवों ने गणधरों तथा साधुओं की दोनों पृथक्-पृथक् शिविकाओं को उठाया। तीनों चितानों के पास आकर एक चिता पर शक ने प्रभु के पार्थिव शरीर को रखा । देवों ने गरणधरों के पार्थिव शरीर उनके अन्तिम संस्कार के लिए निर्मित दूसरी चिता पर और साधुओं के शरीर तीसरी चिता पर रखे । शक्र की श्राज्ञा से अग्नि कुमारों ने क्रमशः तीनों चिताओं में अग्नि की विकुर्वणा की और वायुकुमार देवों ने अग्नि को प्रज्वलित किया । उस समय अग्निकुमारों और वायुकुमारों के नेत्र प्रनों से पूर्ण और मन शोक से बोझिल बने हुए थे । गोशीर्षचन्दन की काष्ठ से चुनी हुई उन चिताओं में देवों द्वारा कालागरु प्रादि अनेक प्रकार के सुगन्धित द्रव्य डाले गये । प्रभु के श्रीर उनके प्रन्तेवासियों के पार्थिव शरीरों का अग्नि-संस्कार हो जाने पर शक की प्राज्ञा से मेघकुमार देवों ने क्षीरोदक से उन तीनों चिताओं को ठंडा किया। सभी देवेन्द्रों ने अपनी-अपनी मर्यादा के अनुसार प्रभु की डाठों श्रौर दांतों को तथा शेष देवों ने प्रभु की अस्थियों को ग्रहण किया । तदुपरान्त देवराज शक ने भवनपति, वारणव्यन्तर, ज्योतिष्क श्रीर वैमानिक देवों को सम्बोधित करते हुए कहा - "हे देवानुप्रियो ! शीघ्रता से सर्वरत्नमय विशाल प्रालयों (स्थान) वाले तीन चैत्य- स्तूपों का निर्माण करो । उनमें से एक तो तीर्थंकर प्रभु ऋषभदेव की चिता पर दूसरा गरणधरों की चिता पर और तीसरा उन विमुक्त अणगारों की चिता के स्थान पर हो ।" उन चार प्रकार के देवों ने क्रमशः प्रभु की चिता पर, गरणधरों की चिता पर और अरणगारों की चिता पर तीन चैत्यस्तूप का निर्माण किया । आवश्यक निर्युक्ति में उन देवनिर्मित और श्रावश्यक मलय में भरत निर्मित चैत्यस्तूपों के सम्बन्ध में जो उल्लेख है, वह इस प्रकार है : मडयं मयस्स देहो, तं मरुदेवीए पढम सिद्धो ति । देवहि पुरा महियं, झावरणया अग्गिसक्कारो य ॥ ६० ॥ सो जिरणदेहाई, देवेहिं कतो चितासु थूभा य । सद्दो य रुष्णसद्दो, लोगो वि ततो तहाय कतो ॥ ६१ ॥ तथा भगवद्देहादिदग्धस्थानेषु भरतेन स्तूपा कृता, ततो लोकेऽपि तत भारभ्य मृतक दाह स्थानेषु स्तूपा प्रवर्तन्ते । श्रावश्यक मलय ॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ जन धर्म का मौलिक इतिहास [जनेतर साहित्य भ० ऋषभदेव, उनके गणधरों और अन्तेवासी साधुओं की तीन चिताओं पर पृथक-पृथक् तीन चैत्यस्तूपों का निर्माण करने के पश्चात् सभी देवेन्द्र अपने देव-देवी परिवार के साथ नन्दीश्वर द्वीप में गये । वहां उन्होंने भगवान् ऋषभदेव का अष्टाह्निक निर्वाण महोत्सव मनाया और अपने-अपने स्थान को लौट गये।' वैदिक परम्परा के साहित्य में माघ कृष्णा चतुर्दशी के दिन आदिदेव का शिवलिंग के रूप में उद्भव होना माना गया है। भगवान आदिनाथ के शिव-पद प्राप्ति का इससे साम्य प्रतीत होता है । यह सम्भव है कि भगवान् ऋषभदेव की निषद्या (चिता स्थल) पर जो स्तूप का निर्माण किया गया वही आगे चल कर स्तूपाकार चिह्न शिवलिंग के रूप में लोक में प्रचलित हो गया हो। जनेतर साहित्य में ऋषभदेव जैन परम्परा की तरह वैदिक परम्परा के साहित्य में भी ऋषभदेव का विस्तृत परिचय उपलब्ध होता है । बौद्ध साहित्य में भी ऋषभ का उल्लेख मिलता है । पुराणों में ऋषभ की वंश-परम्परा का परिचय इस प्रकार मिलता है :-- "ब्रह्माजी ने अपने से उत्पन्न अपने ही स्वरूप स्वायंभव को प्रथम मन बनाया । स्वायंभुव मनु से प्रियव्रत और प्रियव्रत से आग्नीध्र आदि दस पुत्र हुए । आग्नीध्र से नाभि और नाभि से ऋषभ हुए। ऋषभदेव का परिचय प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि महात्मा नाभि की प्रिया मरुदेवी की कुक्षि से अतिशय कान्तिमान् ऋषभ नामक पुत्र का जन्म हुआ । महाभाग पृथिवीपति ऋषभदेव ने धर्मपूर्वक राज्यशासन तथा विविध यज्ञों का अनुष्ठान किया और अपने वीर पुत्र भरत को १ जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति और कल्प सूत्र, १६६ सू० २ ईशान संहिता । (क) माधे कृष्ण चतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि । शिवलिंगतयोद्भूतः, कोटिसूर्य-समप्रभः ।। तत्कालव्यापिनी ग्राह्या, शिवरात्रिव्रते तिथिः । (ख) माघमासस्य शेषे या, प्रथमे फाल्गुनस्य च । कृष्णा चतुर्दशी सा तु, शिवरात्रिः प्रकीर्तिता ॥ ३ विष्णु पुराण, अंश २ ० १॥ श्लो. ७. १६, २७ [ईशान संहिता] [कालमाधवीय नागरखण्ड] Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में ऋषभदेव] भगवान् ऋषभदेव १३३ राज्याधिकार सौंपकर तपस्या के लिये पुलहाश्रम की ओर प्रस्थान किया। जबसे ऋषभदेव ने अपना राज्य भरत को दिया तबसे यह हिमवर्ष लोक में भारतवर्ष के नाम से प्रसिद्ध हुआ।" श्रीमद्भागवत में ऋषभदेव को यज्ञपुरुष विष्ण का अंशावतार माना गया है । उसके अनुसार भगवान् नाभि का प्रेम-सम्पादन करने के लिये महारानी मरुदेवी के गर्भ से संन्यासी वातरशना-श्रमणों के धर्म को प्रकट करने के लिये शुद्ध सत्वमय विग्रह से प्रकट हुए । यथा : "भगवान परमर्षिभिः प्रसादितो नाभेः प्रियचिकीर्षया तदवरोधायने मरुदेव्यां, धर्मान्दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्ध्वमन्थिनां शुक्लया तन्वावततार ।" "ऋषभदेव के शरीर में जन्म से ही वन, अंकुश आदि विष्ण के चिह्न थे। उनके सुन्दर और सुडौल शरीर, विपुल कीर्ति, तेज, बल, ऐश्वर्य, यश, पराक्रम और शूरवीरता प्रादि गुणों के कारण महाराज नाभि ने उनका नाम ऋषभ (श्रेष्ठ) रखा।" श्रीमद्भागवत में ऋषभदेव को साक्षात् ईश्वर भी कहा है । यथा :"भगवान् ऋषभदेव परम स्वतन्त्र होने के कारण स्वयं सर्वदा ही सब तरह की अनर्थ परम्परा से रहित, केवल प्रानन्दानुभव-स्वरूप और साक्षात् ईश्वर ही थे। प्रज्ञानियों के समान कर्म करते हुए काल के अनुसार प्राप्त धर्म का आचरण करके उसका तत्त्व न जानने वाले लोगों को उन्होंने सत्य धर्म की शिक्षा दी।" । भागवत में इन्द्र द्वारा दी गई जयन्ती कन्या से ऋषभ का पाणिग्रहण और उसके गर्भ से अपने समान सौ पुत्र उत्पन्न होने का उल्लेख है । ब्रह्मावर्त पुराण में लिखा है कि ऋषभ ने अपने पुत्रों को अध्यात्मज्ञान की शिक्षा दी पौर फिर स्वयं ने प्रवधूतवृत्ति स्वीकार कर ली। उनके उपदेश का सार इस प्रकार है: १ विष्णु पुराण, २।१।२८ पौर २६ २ विष्णु पुराण, २॥१॥३२ ३ श्रीमदभागवत, ५३२० ४ श्रीमद्भागवत, ५२४२ ५ श्रीमद्भागवत, ५।४।१४ ६ श्रीमद्भागवत, ५४।८ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [नेतर साहित्य "मेरे इस अवतार-शरीर का रहस्य साधारण जनों के लिये बद्धिगम्य नहीं है। शुद्ध सत्व ही मेरा हृदय है और उसी में धर्म की स्थिति है। मैंने अधर्म को अपने से बहुत दूर पीछे ढकेल दिया है, इसलिये सत्पुरुष मुझे ऋषभ कहते हैं। पुत्रो! तुम सम्पूर्ण चराचर भूतों को मेरा ही शरीर समझ कर शुद्ध बुद्धि से पद-पद पर उनकी सेवा करो, यही मेरी सच्ची पूजा है।" "ऋषभदेव की अपरिग्रहवृत्ति का भागवत में निम्न रूप से उल्लेख मिलता है : "ऋषभदेव ने पृथ्वी का पालन करने के लिए भरत को राज्यगद्दी पर बिठाया और स्वयं उपशमशील, निवृत्ति-परायण महामुनियों के भक्तिज्ञान और वैराग्य रूप परमहंसोचित धर्म की शिक्षा देने के लिये बिलकुल विरक्त हो गये । केवल शरीर मात्र का परिग्रह रखा और सब कुछ घर पर रहते ही छोड़ दिया। ऋषभदेव के तप की पराकाष्ठा और उनकी नग्नचर्या का परिचय इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है : "वे तपस्या के कारण सूख कर कांटा हो गये थे और उनके शरीर की शिराएं-धमनियां दिखाई देने लगीं । अन्त में अपने मुख में एक पत्थर की बटिया रख कर उन्होंने नग्नावस्था में महाप्रस्थान किया।" भागवतकार के शब्दों में ऋषभ-चरित्र की महिमा इस प्रकार है :"राजन् ! इस प्रकार सम्पूर्ण वेद, लोक, देवता, ब्राह्मण और गौत्रों के परमगुरु भगवान् ऋषभदेव का विशुद्ध चरित्र मैंने तुम्हें सुनाया है।" "यह मनुष्य के समस्त पापों को हरने वाला है। जो मनुष्य इस परम मंगलमय पवित्र चरित्र को एकाग्रचित्त से श्रद्धापूर्वक निरन्तर सुनते या सुनाते हैं, उन दोनों की ही भगवान् वासुदेव में अनन्य भक्ति हो जाती है।" "निरन्तर विषय-भोगों की अभिलाषा करने के कारण अपने वास्तविक श्रेय से चिरकाल तक बेसुध बने हुए लोगों को जिन्होंने करुणावश निर्भय १.श्रीमद्भागवत, ५५५१६ २ श्रीमदभागवत, ५।५।२६ ३ श्रीमद्भागवत, ५।५।२८ ४ श्रीमद्भागवत, १६७ ५ श्रीमद् भा० ५१६४१६ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में ऋषभदेव] भगवान् ऋषभदेव १३५ आत्मालोक का उपदेश दिया और जो स्वयं निरन्तर अनभव होने वाले आत्मस्वरूप की प्राप्ति से सब प्रकार की तृष्णानों से मुक्त थे, उन • भगवान् ऋषभदेव को नमस्कार है।" शिवपुराण में शिव का आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के रूप में अवतार लेने का उल्लेख है ।२ ऋग्वेद में भगवान ऋषभ को पूर्वज्ञान का प्रतिपादक और दुःखों का नाश करने वाला बतलाते हुए कहा है : “जैसे जल से भरा हुअा मेघ वर्षा का मुख्य स्रोत है. जो पृथ्वी की प्यास को बुझा देता है, उसी प्रकार पूर्वज्ञान के प्रतिपादक वृषभ (ऋषभ) महान् हैं।" बौद्ध साहित्य में लिखा है :"भारत के आदि सम्राटों में नाभिपूत्र ऋषभ और ऋषभपूत्र भरत की गणना की गई है। उन्होंने हेमवंत गिरि हिमालय पर सिद्धि प्राप्त की। वे व्रतपालन में दढ़ थे । वे ही निर्ग्रन्थ, तीर्थंकर ऋषभ जैनों के प्राप्तदेव थे।" धम्मपद में ऋषभ को सर्वश्रेष्ठ वीर कहा है । ऋषभदेव के समय का उल्लेख करते हए कुछ इतिहासज्ञों ने निम्न प्रकार से उल्लेख किया है : श्री रामधारी सिंह 'दिनकर' का कथन है :"मोहनजोदड़ो की खदाई में योग के प्रमाण मिले हैं और जैन मार्ग के आदि तीर्थकर जो श्री ऋषभदेव थे, जिनके साथ योग और वैराग्य की परम्परा उसी प्रकार लिपटी हुई है, जैसे शक्ति कालान्तर में शिव के साथ समन्वित हो गई । इस दृष्टि से कई जैन विद्वानों का यह मानना अयुक्तियुक्त नहीं है कि ऋषभदेव वेदोल्लिखित होने पर भी वेदपूर्व हैं ।” १ श्रीमद् भा० ५।६।१६ २ शिघ पु० ४१४७१४७ ३ प्रजापतेः सुतोनाभिः, तस्यापि सुतमुच्यते । नाभिनो ऋषभपुत्रो वै, सिद्धकर्म-दृढ़व्रतः ।। तस्यापि मणिचरो यक्षः, सिद्धो हेमवते गिरी । ऋषभस्य भरतः पुत्रः । आर्य मंजु श्री मूल श्लो० ३६०-६१-६२ ४ उसमं पवरं वीरं । धम्मपद ४२२ ५ प्राजकल, मार्च १९६२, पृ० ८ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् ऋषभदेव और भरत डॉ० जिम्भर लिखते हैं :"अाज प्रागैतिहासिक काल के महापुरुषों के अस्तित्व को सिद्ध करने के साधन उपलब्ध नहीं। इसका अर्थ यह नहीं है कि वे महापुरुष हुए ही नहीं।" "इस अवसर्पिणी काल में भोगभूमि के अन्त में अर्थात् पाषाणकाल के अवसान पर कृषि काल के प्रारम्भ में पहले तीर्थंकर ऋषभ हुए, जिन्होंने मानव को सभ्यता का पाठ पढ़ाया ।" • "उनके पश्चात् और भी तीर्थकर हुए जिनमें से अनेक का उल्लेख वेदग्रन्थों में भी मिलता है। अतः जैन धर्म भगवान् ऋषभदेव के काल से चला आ रहा है।" भगवान् ऋषभदेव और भरत का जैनेतर पुराणादि में उल्लेख भगवान् ऋषभदेव और सम्राट भरत इतने अधिक प्रभावशाली पुण्यपुरुष हुए हैं कि उनका जैन ग्रन्थों में तो उल्लेख आता ही है, इसके अतिरिक्त वेद के मन्त्रों, जैनेतर पुराणों, उपनिषदों आदि में भी उनका उल्लेख मिलता है । भागवत में मरुदेवी, नाभिराज, वृषभदेव और उनके पुत्र भरत का विस्तृत विवरण मिलता है। यह दूसरी बात है कि वह कितने ही अंशों में भिन्न प्रकार से दिया गया है। फिर भी मूल में समानता है। इस देश का भारत नाम भी भरत चक्रवर्ती के नाम से ही प्रसिद्ध हमा है । निम्नांकित उद्धरणों से हमारे उक्त कथन की पुष्टि होती है : आग्नीध्रसूनो भेस्तु, ऋषभोऽभूत् सुतो द्विजः । ऋषभाद् भरतो जज्ञे, वीरः पुत्रशताद् वरः ।।३।। सोऽभिषिच्यषर्भः पुत्रं, महाप्रावाज्यमास्थितः । तपस्तेपे महाभागः, पुलहाश्रमसंश्रयः ।।४०।। हिमाह्वयं दक्षिणं वर्ष, भरताय पिता ददौ । तस्मात्तु भारतं वर्ष, तस्य नाम्ना महात्मनः ।।४१।। [मार्कण्डेय पुराण, अध्याय ४०] ' (क) दी फिलासफीज प्राफ इण्डिया, पृ० २१७ (ख) अहिंसा वाणी, वर्ष १२, अंक ६. पृ० ३७६ डॉ० कामताप्रसाद के लेख से उद्धत । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ का जैनेतर पुराणादि में उल्लेख] भगवान् ऋषभदेव हिमाह्वयं तु यद्वर्ष, नाभेरासोन्महात्मनः । तस्यर्षभोऽभवत्पुत्रो, मरुदेव्यां महाद्युतिः ।। ३७।। ऋषभाद् भरतो जज्ञे, वीरः पुत्रशताग्रजः । सोऽभिषिच्यर्षभः पुत्रं, भरतं पृथिवीपतिः ।।३८॥ [कूर्म पुराण, अध्याय ४०] जरा मृत्यु भयं नास्ति, धर्माधमौयुगादिकम् । नाधर्म मध्यमं तुल्या, हिम देशात्तु नाभितः ॥१०॥ ऋषभो मरुदेव्यां च, ऋषभाद् भरतोऽभवत् । ऋषभोऽदात् श्री पुत्रे, शाल्यग्रामे हरिर्गतः ।।११।। भरताद् भारतं वर्ष, भरतात् सुमतिस्त्वभूत् । [अग्नि पुराण, अध्याय १०] नाभिस्त्वजनयत्पुत्रं, मरुदेव्यां महाद्युतिः । ऋषभं पार्थिव-श्रेष्ठ, सर्व क्षत्रस्य पूर्वजम् ।।५०।। ऋषभाद् भरतो जज्ञे, वीरः पुत्रशताग्रजः ।। सोऽभिषिच्याथ भरतं, पुत्रं प्राव्राज्यमास्थितः ।।५१ ।। हिमाह्वयं दक्षिणं वर्ष, भरताय न्यवेदयत् । तस्माद् भारतं वर्ष, तस्य नाम्ना विदुर्बुधाः ।।५२।। [वायु महापुराण, पूर्वार्ध, अध्याय ३३] नाभिस्त्वजनयत् पुत्रं. मरुदेव्यां महाद्युतिम् ।।५।। ऋषभं पार्थिव श्रेष्ठ, सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम् । ऋषभाद भरतो जज्ञे वीरः पुत्रशताग्रजः ।।६।। सोऽभिषिच्यर्षभः पुत्रं, महाप्रावाज्यमास्थितः ।। हिमाह्वयं दक्षिणं वर्ष, तस्य नाम्ना विदुर्बुधा :॥६१।। [ब्रह्माण्डपुराण, पूर्वार्ध, अनुषंगपाद अध्याय १४] "नाभिर्मरुदेव्यां पुत्रमजनयत् ऋषभनामानं तस्य भरतः पुत्रश्च तावदग्रजः तस्य भरतस्य पिता ऋषभः हेमाद्रेर्दक्षिणं वर्ष महद् भारतं नाम शशास।। __ [वाराह पुराण, अध्याय ७४] नाभेनिसर्ग वक्ष्यामि, हिमांकेऽस्मिन्निबोधत । नाभिस्त्वजनयत्पुत्र, मरुदेव्यां महामतिः ।।१६।। ऋषभं पार्थिवश्रेष्ठ, सर्वक्षत्रस्य पूजितम् । ऋषभाद् भरतो जज्ञे, वीरः पुत्रशताग्रजः ।।२०।। सोऽभिषिच्याथ ऋषभो, भरतं पुत्रवत्सलः ।। ज्ञानं वैराग्यमाश्रित्य, जित्वेन्द्रियमहोरगान् ।।२१।। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् ऋषभदेव सर्वात्मनात्मन्यास्थाप्य. परमात्मानमीश्वरम् । नग्नो जटो निराहारोऽचीरी ध्वांतगतो हि सः ॥२२॥ निराशस्त्यक्तसंदेहः, शैवमाप परं पदम् । हिमाद्रेर्दक्षिणं वर्ष, भरताय न्यवेदयत् ।।२३।। तस्मात्तु भारतं वर्ष, तस्य नाम्ना विदुर्बुधाः । [लिंग पुराण, अध्याय ४७] न ते स्वस्ति युगावस्था, क्षेत्रेष्वष्टसु सर्वदा ॥२६॥ हिमाह्वयं तु वै वर्ष, नाभेरासीन्महात्मनः ।। तस्यर्षभोऽभवत्पुत्रो मरुदेव्यां महाद्युतिः ।।२७।। ऋपभाद् भरतो जज्ञे ज्येष्ठः पुत्रशतस्य सः ॥२८॥ [विष्णु पुराण, द्वितीयांश अध्याय १] नाभेः पुत्रश्च ऋषभः ऋपभाद् भरतोऽभवत् । तस्यनाम्नात्विदं वर्ष, भारतं चेति कीर्त्यते ।।५७।। [स्कन्ध पुराण, माहेश्वर खण्ड का कौमार खण्ड, अध्याय ३७] कुलादि बीजं सर्वेषां प्रथमो विमलवाहनः । चक्षुष्मान् यशस्वी वाभिचन्द्रोऽथ प्रसेनजित् । मरुदेवश्च नाभिश्च, भरते कुल सप्तमा: । अष्टमो मरुदेव्यां तु. नाभेर्जात उरक्रमः । दर्शयन् वम वीराणां सुरासुरनमस्कृतः । नीति त्रितयकर्ता यो, युगादो प्रथमो जिनः । [मनुस्मृतिः] भगवान् ऋषभदेव और ब्रह्मा लोक में ब्रह्मा नाम से प्रसिद्ध जो देव है, वह भगवान् वृषभदेव को छोड़कर दूसरा नहीं है । ब्रह्मा के अन्य अनेक नामों से निम्नलिखित नाम अत्यन्त प्रसिद्ध हैं : हिरण्यगर्भ, प्रजापति, लोकेश, नाभिज, चतुरानन, स्रष्टा, स्वयभू । इनकी यथार्थ संगति भगवान कृपभदेव के साथ बैठती है । जैसे :हिरण्य गर्भ-जब भगवान माता मरुदेवी के गर्भ में आए, उसके छः मास पहले __ अयोध्यानगरी में हिरण्य, सुवर्ण तथा रत्नों की वर्षा होने लगी Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और ब्रह्मा] भगवान् ऋषभदेव . १३६ थी। इसलिए आपका हिरण्यगर्भ' नाम सार्थक है। प्रजापति - कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने के बाद असि, मसि, कृषि प्रादि छः कर्मों का उपदेश देकर आपने ही प्रजा की रक्षा की थी, अतः पाप प्रजापति कहलाये। लोकेश - समस्त लोक के स्वामी होने के कारण आप लोकेश कहलाये । नाभिज - नाभिराज नामक चौदहवें (सातवें) मनु से उत्पन्न हुए थे, इसलिए नाभिज कहलाए। चतुरानन -- समवसरण में चारों ओर से आपके दर्शन होते थे, इसलिए आप चतुरानन कहे जाते थे। स्रष्टा - भोगभूमि नष्ट होने के बाद देश, नगर आदि का विभाग, राजा, प्रजा, गरु, शिष्य आदि का व्यवहार और विवाह प्रथा आदि के आप आद्य-प्रवर्तक थे, इसलिए स्रष्टा कहे गए। स्वयम्भ - दर्शन विशुद्धि आदि भावनाओं से अपनी आत्मा के गणों का विकास कर स्वयं ही पाद्य तीर्थकर हुए, इसलिए स्वयंभू कहलाए। [प्रादि पुराणम्, प्रथमो विभागः प्रस्तावना पृ० १५, जिनसेनाचार्य] सार्वभौम प्रादि नायक के रूप में लोकव्यापो कोति भ० ऋषभदेव के आद्योपान्त समग्र जीवन चरित्र और उनके सम्बन्ध में भारत के प्राचीन धर्म-ग्रन्थों-वेदों, वैष्णव, भागवत, शैव प्रति विभिन्न आम्नायों के उपरिवरिंगत १० पुराणों, मनुस्मृति एवं बौद्ध ग्रन्थ आर्य मंजुश्री आदि के श्रद्धा-श्लाघा से ओतप्रोत गौरव गरिमापूर्ण उल्लेखों पर चिन्तन-मनन करने से सहज ही प्रत्येक व्यक्ति को यह विदित हो जाता है कि यगादि की सम्पूर्ण मानवता ने भ० ऋषभदेव को, अपने अन्तस्तल से उद्भूत सर्वसम्मत समवेत स्वर से अपने सार्वभौम लोकनायक-सार्वभौम धर्मनायक और सर्वोच्च सार्वभौम हृदयसम्राट के रूप में स्वीकार किया था। मानव संस्कृति की उच्च एवं प्रादर्श मानवीय मर्यादानों के महानिधान तुल्य 'मनुस्मृति' नामक प्राचीन ग्रन्थ में तो नाभि के सुपुत्र मरुदेवीनन्दन ' मैषा हिरण्मयी वृष्टिर्घ नेशेन निपातिता। विभोहिरण्यगर्भत्वमिवबोधयितु जगत् ।। महापुराण पर्व १२-श्लोक ६५ हिरण्यगर्भस्त्वं धाता जगतां त्वं म्वभूरमि । निभमात्रं त्वदुत्पत्ती पितृ मन्या यतो वयम् ।। महापुराण पर्व १५ श्लो० ५७ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ सार्वभौम आदि नायक के उरुक्रम --भगवान् ऋषभ को, जैन आगमों के उल्लेखों के अनुरूप ही युगादि में लोकनीति, राजनीति और धर्मनीति- इन तीनों नीतियों का जन्मदाताआदिकर्ता कर्मवीरों तथा धर्मवीरों के मार्ग का प्रवर्तक, सकल सुरासुरों का वन्दनीय और प्रथम जिन माना गया है । १४० भगवान् ऋषभदेव के लोकोत्तर विराट् व्यक्तित्व का जिस श्रद्धा के साथ जैन धर्म के आगम ग्रन्थों में दिग्दर्शन कराया गया है, ठीक उसी प्रकार की अगाध प्रगाढ़ श्रद्धा के साथ भारत के प्रायः सभी प्राचीन धर्मों के पवित्र धर्मग्रन्थों में भी उनके लोकव्यापी सार्वभौम वर्चस्व का प्रभाव का प्रतिपादन किया गया है । इसका एकमात्र कारण यही है कि युगादि के नितान्त निरीह एवं भोले मानव समाज की विपन्नावस्था से द्रवित हो भ० ऋषभदेव ने जिस प्रकार समग्र मानव समाज को अभाव अभियोगविहीन, सुरोपम समृद्ध और सर्व सौख्यसम्पन्न लौकिक जीवन के निर्माण का प्रशस्त पथ प्रदर्शित किया, उसी प्रकार संसार के प्राणिमात्र के कल्याण हेतु सौख्यपूर्ण परलोकनिर्माण का जन्म-जरामृत्यु का सदा-सर्वदा के लिये अन्त कर अक्षय-अव्याबाध शाश्वत शिवसुख प्राप्ति का मार्ग भी बताया । भगवान् ऋषभदेव ने मानवता को इस लोक के साथ-साथ परलोक को भी सुखद-सुन्दर और अन्ततोगत्वा शाश्वत सौख्यपूर्ण बनाने के जो मार्ग बताये वे दोनों ही मार्ग न केवल मानव मात्र ही अपितु प्राणिमात्र के लिये वरदान स्वरूप सिद्ध हुए । उनके द्वारा प्राविभूत की गई लोकनीति और राजनीति जिस प्रकार किसी वर्ग विशेष अथवा व्यक्ति विशेष के लिये नहीं अपितु समष्टि के हित के लिये थी, उसी प्रकार उनके द्वारा स्थापित धर्ममार्ग भी निश्शेष प्राणिवर्ग के कल्याण के लिये समष्टि के कल्याण के लिये था । यही कारण था कि भ० ऋषभदेव द्वारा मानव के इहलौकिक हित के लिये स्थापित की गई नीति लोकनीति के नाम से और उनके द्वारा समष्टि के प्राध्यात्मिक अभ्युत्थान के लिये प्रकट किया गया धर्ममार्ग विश्वधर्म अथवा शाश्वत धर्म के नाम से त्रैलोक्य में विख्यात हुआ। जिस प्रकार भगवान् ऋषभदेव द्वारा संस्थापित लोकनीति किसी वर्ग, जाति, प्रान्त अथवा देश विशेष के लिये नहीं किन्तु सम्पूर्ण मानव समाज के हित के लिये थी, उसी प्रकार उनके द्वारा प्रकट किया गया धर्म भी समष्टि के - विश्व के कल्याण के लिये, आध्यात्मिक उत्थान के लिये था । उनके द्वारा प्रकट किया गया धर्म विश्वधर्म था । यही कारण था कि युगादि के सम्पूर्ण मानव समाज ने भ० ऋषभदेव द्वारा स्थापित लोकनीति को, धर्म को सर्वसम्मति से समवेत स्वरों में शिरोधार्य कर स्वीकार किया । युगादि के मानव समाज द्वारा स्वीकार किये गये, सर्वात्मना सर्वभावेन अंगीकार किये गये उस विराट् विश्वधर्म का नाम सब प्रकार के विशेषरणों से रहित केवल 'धर्म' ही था। भ० ऋषभदेव द्वारा निखिल विश्व के प्राणिमात्र के कल्याण के लिये स्थापित किया गया और युगादि के अखिल Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप में लोकव्यापी कीति] भगवान् ऋषभदेव १४१ मानव समाज द्वारा शिरोधार्य किया गया वह विराट् विश्व धर्म कोट्यानुकोटि शताब्दियों, पीढ़ी-प्रपीढ़ियों तक लोक में शाश्वत, धर्म, नित्य धर्म अथवा ध्र वधर्म के नाम से अभिहित किया जाता रहा और उसी के परिणामस्वरूप सार्वभौम लोकनायक, सार्वभौम धर्मनायक के रूप में भगवान ऋषभदेव की कीर्ति सम्पूर्ण लोक में व्याप्त रही। यही कारण है कि भारत के प्राचीन धर्मग्रन्थों में भगवान ऋषभदेव को धाता, भाग्य-विधाता और भगवान् आदि लोकोत्तम अलंकारों से अलंकृत किया गया है। .000 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् श्री अजितनाथ तीर्थंकर ऋषभदेव के बहुत समय बाद द्वितीय तीर्थंकर श्री अजितनाथ हुए । प्रकृति का अटल नियम है कि जिसका जीवन जितना उच्च होगा, उसकी पूर्वजन्म की साधना भी उतनी ही ऊंची होगी । श्रजितनाथ की पूर्व जन्म की साधना भी ऐसी ही अनुकरणीय और उत्तम थी । उनके पूर्वजन्म की साधना का जो विवरण उपलब्ध होता है वह इस प्रकार है : पूर्वभव जम्बूद्वीपस्थ महाविदेह क्षेत्र में सीता नाम की महानदी के दक्षिणी तट पर अति समृद्ध एवं परम रमणीय वत्स नामक विजय है । वहां अलका तुल्य प्रति सुन्दर सुसीमा नाम की नगरी थी । विमलवाहन नामक एक महाप्रतापी राजा वहां राज्य करता था । वह बड़ा ही पराक्रमी, न्यायप्रिय धर्मपरायण, नीतिनिपुर और शासक के योग्य सभी श्रेष्ठ गुरणों से युक्त था । संसार में रहते हुए भी उनका जीवन भोगों से अलिप्त था । विशाल राज्य और भव्य भोगों को पाकर भी वे आसक्त नहीं हुए । लोग उनको वीरवर, दानवीर और दयावीर कहा करते थे । : सुखपूर्वक राज्य करते हुए प्रजावत्सल राजा विमलवाहन एक दिन ग्रात्मनिरीक्षण करने लगे कि मानव भव पाकर प्रारणी को क्या करना चाहिये । उनकी चिन्तनधारा और आगे की ओर प्रवाहित हुई । वे सोचने लगे कि संसार के अनन्तानन्त प्रारणी कराल काल की विकराल चक्की में अनादि काल से पिसते चले आ रहे हैं। चौरासी लाख जीव योनियों में जन्म-मरण के प्रसह्य व दारुरण दुःखों को भोगते हुए तड़प रहे हैं, सिसक रहे हैं और करुण क्रन्दन कर रहे हैं । इस जन्म, जरा, मरण रूपी कालचक्र का कोई प्रोर है न कोई छोर ही । भवाटवी में अनादि काल से भटकते हुए उन अनन्तानन्त प्राणियों में मैं भी सम्मिलित हूं। मैं इस भयावहा भवाटवी के चक्रव्यूह से, इस त्रिविध ताप से जाज्वल्यमान भट्टी से और जन्म-मरण के भयावह भव- पाप से कब छुटकारा पाऊंगा ? चौरासी लाख जीव योनियों में केवल एक मानव योनि ही ऐसी है जिसमें प्रारणी साधनापथ पर अग्रसर हो सभी सांसारिक दुःखों का अन्त कर भवपाश से मुक्त हो 'मत्यं शिवं सुन्दरम्' के सही स्वरूप को प्राप्त कर अनन्त प्रव्याबाघ-शाश्वत मुखधाम शिवपद को प्राप्त कर सकता है । मुझे भवपाश से विमुक्त होने का स्वर्णिम अवसर प्राप्त हुआ है । ग्रनाद्यनन्त काल तक दुस्सा दुःखपूर्ण विविध Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वभव] भगवान् श्री अजितनाथ १४३ योनियों में भटकने के पश्चात् पूर्वोपार्जित अनन्त-अनन्त पुण्य के प्रताप से मुझे वह दुर्लभ मानव जन्म मिला है । पुण्य भू कर्मभूमि के प्रार्यक्षेत्र में किसी हीन कूल में नहीं अपितु उत्तम आर्य कुल में मेरा जन्म हुआ है। मुझे स्वस्थ, सशक्त, सुन्दर शरीर, उत्तम संहनन और उत्तम संस्थान मिला है । ऐसा सुन्दर, सुनहरा सुयोग अनन्तकाल तक भव भ्रमण करने के अनन्तर अनन्त पुण्योदय के प्रभाव से ही सभी प्रकार के बाह्य साधन प्राप्त हैं । इस अमूल्य मनुष्य जीवन का एकएक क्षण अनमोल है। फिर मैं कैसा अभागा मूढ़ हूं, जो मैंने इस चिन्तामणि तुल्य तत्काल अभीप्सित अमृतफल प्रदायी महाग्रं मानव जन्म की महत्त्वपूर्ण घड़ियों को क्षणभंगुर एवं मृगमरीचिका के समान वास्तविकता-विहीन सांसारिक सुखोपभोग में नष्ट कर दिया है। __ स्वप्न का दृश्य तभी तक दिखता है, जब तक कि आँखें बन्द हैं, आँखें खुलते ही वह दृश्य तिरोहित हो जाता है और स्वप्नद्रष्टा समझ जाता है कि वह दृश्य जंजाल था, धोखा था, अवास्तविक था, किन्तु जागृत अवस्था में दिखने वाला यह संसार का दृश्य तो स्वप्न के दृश्य से भी बहुत बड़ा धोखा है। यह दृश्य जंजाल होते हुए भी जब तक आँखें खुली रहती हैं, तब तक प्राणी को सच्चा प्रतीत होता है और आँखें बन्द हो जाने पर झूठा जंजाल, अवास्तविक, अस्तित्वविहीन अथवा असत् । जीवन भर प्राणी असत् को सत् समझता हुआ भ्रम में रहे, भुलावे मे रहे और सब कुछ समाप्त होने पर मानव जन्म रूपी चिन्तामणि रत्न लुट जाने के पश्चात् मरणोपरान्त वास्तविकता का उसे बोध हो, ऐसा भ्रामक व धोखाधड़ी से ओतप्रोत है यह सांसारिक दृश्य । सन्तकबीर ने ठीक ही कहा है-'माया महा ठगिनी मैं जानी।' इससे बढ़कर धोखा और क्या हो सकता है ? कितने भुलावे में रहा हूं मैं ? कितना बड़ा धोखा खाया है मैंने कि जो भवसागर में पार उतारने वाले महापोत तुल्य महत्त्वपूर्ण महान् निर्णायक मनुष्य जीवन को विषय-वासनाओं के एकान्तत: असत् इन्द्रजाल में व्यर्थ ही व्यतीत कर दिया। अब उन बीती अमूल्य घड़ियों का एक भी बहुमूल्य क्षरण लौट कर नहीं आ सकता । अनादि काल से अनन्तानन्त.. तीर्थेश्वर विश्व को शाश्वत सनातन सत्पथ बताते हुए कहते आ रहे हैं : जा जा वच्चई रयणी, न सा परिणियट्टई । अहम्म कुरणमारणस्स, अफला जंति राइयो । जा जा वच्चई रयणी, न सा परिणियट्टई । धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जंति राइयो ।। जो अनन्त मूल्यवान् समय हाथ से निकल गया, उसके लिये हाथ मलमल कर पछताने पर भी कुछ हाथ आने वाला नहीं है। जो बीता सो तो बीत गया, अब आगे की सुध लेना ही बुद्धिमत्ता है। अब जो जीवन शेष रहा है, Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४. जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ पूर्वभव उससे अधिकाधिक प्राध्यात्मिक लाभ उठाना ही मेरे लिये परम हितकर होगा । महापुरुषों का कथन है कि अध्यात्म मार्ग पर प्रवृत्त अन्तर्मुखी प्रवृत्ति वाला प्रबुद्ध आत्मदर्शी प्रात्मा उत्कट भाव द्वारा एक क्षण में भी जो अक्षय श्रात्मनिधि प्रजित करता है, उस एक क्षरण में उपार्जित आत्मनिधि के समक्ष संसार की समस्त सम्पदाएं, समग्र निधियां तृरण तुल्य तुच्छ हैं । अतः अब मुझे इन सब निस्सार ऐहिक भोगोपभोग, ऐश्वर्य और वैभवादि को विषवत् त्याग कर स्व-पर कल्याणकारी साधना-पथ पर इसी क्षरण अग्रसर हो जाना चाहिये । इस प्रकार संसार से विरक्त हो सुसीमाधिपति महाराज विमलवाहन ने आत्महित साधना का सुदृढ़ संकल्प किया ही था कि उद्यानपाल ने उनके सम्मुख उपस्थित हो प्रणाम कर निवेदन किया- “प्रजावत्सल पृथ्वीपाल ! सुसीमावासियों के महान् पुण्योदय से स्वर्गोपमा सुसीमा नगरी के बहिस्थ उद्यान में महान तपस्वी प्राचार्य अरिदमन का शुभागमन हुआ है । इस समयोचित सुखद संवाद को सुनकर महाराज विमलवाहन ने ऐसा अनिर्वचनीय श्रानन्दानुभव किया- मानो जन्म-जन्मान्तरों के प्यासे को क्षीर सागर का शीतल जल मिल गया हो। उन्होंने उद्यानपाल को उसकी सात पीढ़ी तक के लिये पर्याप्त प्रीतिदान दिया। राजा विमलवाहन ने सोचा - "कैसा अचिन्त्य अद्भुत चमत्कार है शुभ भावनाओं का ? अन्तर्मानस में शुभ भावना की तरंग के उद्भूत होते ही तत्काल सन्तसमागम का अमर अमृतफल स्वत: हस्तगत हो गया । महाराज विमलवाहन परिजनों एवं पुरजनों के साथ उद्यान में पहुंचे । प्रगाढ़ श्रद्धा-भक्ति से आचार्य अरिदमन को वन्दन- नमन करने के पश्चात् आचार्य श्री के सम्मुख प्रवग्रहभूमि छोड़कर राजा विमलवाहन अपने परिजनों एवं पौरजनों के साथ देशना श्रवरणार्थं विनयपूर्वक भूमि पर बैठ गया । श्राचार्य अरिदमन का अमरता प्रदान करने वाला उपदेश सुनकर राजा विमलवाहन का प्रबल वैराग्य प्रत्युत्कट हो गया । उसने प्राचार्यदेव से विनयपूर्वक प्रश्न किया - "भगवन् ! अनन्त दारुण दुःखों से श्रोतप्रोत इस संसार में धोरातिघोर दुःखों को निरवच्छिन्न परम्परा से निरन्तर निष्पीड़ित और प्रताड़ित होते रहने पर भी साधारणतः प्राणियों को संसार से विरक्ति नहीं होती। यह एक प्राश्चर्यजनक तथ्य है । ऐसी स्थिति में प्रापको संसार से विरक्ति किस कारण एवं किस निमित्त से हुई ?" आचार्यश्री ने कहा "राजन् ! विज्ञ विचारक के लिये संसार का प्रत्येक कार्यकलाप वैराग्योत्पादक है । विचारपूर्वक देखा जाय तो सम्पूर्ण संसार वैराग्य के कारणों और निमित्तों से भरा पड़ा है। प्रत्येक प्राणी के समक्ष - Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वभव] भगवान् श्री अजितनाथ १४५ उसके प्रत्येक दिन की दिनचर्या में पग-पग पर, प्रतिपल-प्रतिक्षण वैराग्योत्पादक प्रबल से प्रबलतर निमित्त प्रस्तुत होते रहते हैं। परन्तु मोह-ममत्व के मद से मदान्ध बना संसारी प्राणी उन निमित्तों को बाह्य दष्टि से देखकर भी अन्तर्दष्टि से न देखने के कारण देखी को अनदेखी कर देता है। सुलभबोधि प्रारणी तो संसार की स्वानुभूत अथवा परानुभूत प्रत्येक घटना को वैराग्य का निमित्त समझकर साधारण से साधारण और छोटी से छोटी नगण्य घटना के निमित्त से भी प्रबुद्ध हो संसार से तत्क्षण विरक्त हो जाता है। जहां तक मेरी विरक्ति का प्रश्न है, मैं अपनी विरक्ति का कारण तुम्हें बताता हूं। राज्य-सिंहासन पर प्रारूढ होने के कुछ समय पश्चात मैंने दिग्विजय करने का निश्चय किया और अपनी चतुरंगिणी सेना लेकर मैं विजय यात्रार्थ प्रस्थित हमा । विजय यात्रा में जाते समय मार्ग में मैंने एक स्थान पर नन्दन वनोपम एक अतीव सुरम्य उद्यान देखा । उस उद्यान में सहस्रों वृक्ष फलों और फूलों से लदे हुए थे। बगीचे के चारों ओर चार-चार कोस का वातावरण भांति-भांति के सुगन्धित पुष्पों की सुखद सुगन्ध से सुरभित हो गमगमा रहा था। देश-विदेशों से आये हुए विभिन्न जातियों, वर्णो, स्वरूपों और आकार से अतीव मनोहर पक्षिसमूह उस बगीचे के सुमधुर-सुस्वादु फलों के रसास्वादन से आकण्ठ तृप्त हो कर्णप्रिय कलरव कर रहे थे । वापी, कूप, तड़ाग एवं लतामण्डपों से आकीर्ण वह उद्यान देव-वन से स्पर्धा कर रहा था। उस उद्यान की मनोहर छटा पर मैं मुग्ध हो गया। मैंने अपने सामन्तों एवं सेनापतियों के साथ उस उद्यान में कुछ समय तक विश्राम किया और पुनः दिग्विजय के लिये प्रस्थान किया। दिग्विजय काल में मैंने अनेक देशों पर अपनी विजय-वैजयन्ती फहराई, किन्तु उस प्रकार का नयनाभिराम मनोहर उद्यान मुझे कहीं दष्टिगोचर नहीं हुआ। दिग्विजय के पश्चात् जब मैं पुन: अपनी राजधानी की ओर लौटा तो मैंने उस उद्यान को पूर्णत: विनष्ट और उजड़ा हुआ देखा। फलों और फलों से लदे उन विशाल वृक्षों के स्थान पर खड़े सूखे-काले ठूठ ऐसे भयावह प्रतीत हो रहे थे मानो प्रेतों की सेना खड़ी हो । पेड़-पौधे, लता-वल्लरी अथवा किसी प्रकार की हरियाली का वहां कोई नाम-निशान तक नहीं था। जो उपवन कुछ ही समय पहले नन्दनवन सा सुरम्य प्रतीत हो रहा था वही मत पशुपक्षियों के ढेर से श्मशान तुल्य वीभत्स, दुर्गन्धपूर्ण और चक्षु-पीड़ाकारक बन गया था । यह देखकर मेरे मन और मस्तिष्क को बड़ा गहरा आघात पहुंचा। अन्तस्तल में एक चिन्तन की धारा प्रवल वेग से उद्भत हो तरंगित हो उठी। मुझे यह सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् क्षणभंगुर प्रतीत होने लगा और मेरे मन में विश्वास जम गया कि संमार के सभी प्राणियों की देर अथवा सबेर से एक न Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ पूर्वभव एक दिन यही दशा होनी सुनिश्चित है, अवश्यम्भावी है । जो बच्चा प्राज जन्मा है, वह अनुक्रमशः कालान्तर में किशोर, युवा एवं जराजर्जरित वृद्ध होगा और एक दिन कराल काल का कवल बन जायगा । आज जो स्वस्थ, सुडौल व सुन्दर प्रतीत होते हैं, उनमें से कतिपय गस्पिद, गलित कुष्ठरोगी, कतिपय कारणे, कतिपय नितान्त अन्धे, लूले, लंगड़े बन अथवा राजयक्ष्मा आदि भयंकर रोगों से ग्रस्त हो नरकोपम दारुण दुःखों को भोगते हुए, सिसकते, कराहते, करुण क्रन्दन करते-करते एक दिन कालकवलित हो जाते हैं। जो आज राजा है, वही कल रंक बनकर घर-घर भीख मांगता हुआ भटकता है । जिसके जयघोषों से एक दिन गगन गूंजता था वही दूसरे दिन जन-जन द्वारा दुत्कारा जाता है । जो प्राज बृहस्पति तुल्य वाग्मी हैं, वही पक्षाघात, विक्षिप्तता आदि रोगों से ग्रस्त हो महामूढ़ बन जाता है । किस क्षरण, किसकी, कैसी दुर्गति होने वाली है, यह किसी को विदित नहीं । संसार के सभी जीव स्वयं द्वारा विनिर्मित कर्मरज्जुनों से आबद्ध हो असह्य दारुण दुःखों से ओतप्रोत चौरासी लाख जीवयोनियों में पुनः पुनः जन्म - जरा - मृत्यु की प्रति विकराल चक्की में निरन्तर पिसते हुए चौदह रज्जु प्रमाण लोक में भटक रहे हैं। किसी बाजीगर की डोर से बँधे मर्कट की तरह परवश हो अनन्त काल से नटवत् विविध वेश धारण कर नाट्यरत हैं । भवाग्नि की भीषण ज्वालाओं से धुकधुकाती हुई इस संसार रूपी भट्टी में झुलस रहे हैं, भुन रहे हैं, जल रहे हैं, भस्मीभूत हो रहे हैं । इन घोर दुःखों का कोई अन्त नहीं, एक क्ष भर के लिये भी कोई विश्राम नहीं, सुख नहीं, शान्ति की श्वास- उच्छ्वास लेने का भी अवकाश नहीं । यही चिन्तन का प्रवाह आत्मनिरीक्षण की ओर मुड़ा तो मैं काँप उठा, सिहर उठा । अनन्त काल से जन्म-मरण की चक्की में पिसते चले आ रहे, दुःख दावाग्नि में दग्ध होते या रहे अनन्त अनन्त संसारी प्राणियों में मैं भी एक संसारी प्राणी हूं । हाय ! मैं भी अनन्त क से इन अनन्त दुःखों को भोगता आ रहा हूं। यदि इस समय मैंने सम्हल कर, साधनापथ पर अग्रसर हो इन दुःखों के मूल का अन्त नहीं किया तो मैं फिर अनन्त - अनन्त काल तक इन असह्य, अनन्त दुःखों से त्रस्त होता रहूंगा, भीषरण भवाटवी में भटकता रहूंगा । मुझे उसी क्षरण संसार से विरक्ति हो गई। मुझे यह सम्पूर्ण संसार एक प्रति विशाल अग्निकुण्ड के समान दाहक प्रतीत होने लगा । विषय भोगों को विषवत् ठुकरा कर मैंने श्रमरणधर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली । तभी से मैं शाश्वत सुखप्रदायी पंच महाव्रतों का पालन कर रहा हूं।" 1 ग्रपने " आचार्य श्री अरिदमन के प्रवचनों को सुन कर राजा विमलवाहन ने भी 'को राज्यभार सम्हला कर श्रमरणधर्म स्वीकार किया । पुत्र Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ [माता-पिता] भ० अजितनाथ तीर्थकर नाम गोत्र कर्म का उपार्जन मुनि बनने के पश्चात् विमलवाहन ने गुरु की सेवा में रह कर तपश्चरण के साथ-साथ आगमों का अध्ययन किया । सुदीर्घ काल तक पाँच समिति, तीन गुप्ति की विशुद्ध पालना करते हुए उन्होंने अनन्त काल से संचित कर्मों को निर्जरा की । अरिहन्त-भक्ति आदि बीस बोलों में से कतिपय बोलों की उत्कट आराधना कर मूनि विमलवाहन ने तीर्थंकर नाम-गोत्र कर्म का उपार्जन किया । अन्त में अनशनपूर्वक प्राय पूर्ण कर मुनि विमलवाहन विजय नामक अनुत्तर विमान में तेतीस सागर की आयु वाले देव रूप में उत्पन्न हुए। वहां उनकी देह एक हाथ की ऊंची और अति विशुद्ध दिव्य पुद्गलों से प्रकाशमान थी। माता-पिता जम्बूद्वीपस्थ भारतवर्ष के दक्षिणी मध्य खण्ड में विनीता नाम की नगरी थी। वहां भगवान ऋषभदेव की इक्ष्वाकु-वंश-परम्परा के असंख्य राजाओं के राज्यकाल के अनन्तर उसी महान् इक्ष्वाकु वंश में जितशत्रु नामक एक महान् प्रतापी और धर्मनिष्ठ राजा हुए । उनकी सहधर्मिणी महारानी का नाम विजया था। महारानी विजया सर्वगरण सम्पन्ना, सर्वांग सुन्दरी, अनुपम रूप-लावण्य सम्पन्ना, विदुषी धर्मनिष्ठा और प्रादर्श पतिव्रता महिला थी। राजदम्पति न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करते हुए उत्तमोत्तम ऐहिक सुखोपभोगों के साथ-साथ श्रमणोपासक धर्म का सुचारुरूपेण पालन करते थे । उनके राज्य में प्रजा सर्वतः सुखी, सम्पन्न और धर्मपरायणा थी। महाराजा जितशत्रु के राज्य में प्रभावअभियोगों के लिये कहीं कोई अवकाश नहीं था। च्यवन और गर्भ में प्रागमन भगवान् ऋषभदेव के निर्वाण से लगभग ७१ लाख पूर्व कम पचास लाख करोड़ सागर पश्चात विमल वाहन का जीव, विजय नामक अन्तर विमान के देव की तेतीस सागरोपम प्राय पूर्ण होने पर वैशाख शुक्ला त्रयोदशी (१३) को रात्रि में रोहिणी नक्षत्र के साथ चन्द्र का योग होने पर विजय विमान से मति, श्रति और अवधि इन तीन ज्ञान से यक्त च्यवन कर चित्रा नक्षत्र में ही विनीता (अयोध्या) नगरी के.महाराजा जितशत्र की महारानी विजया देवी के गर्भ में उत्पन्न हुआ। उसी रात्रि के अन्तिम प्रहर में महारानी विजया देवी ने प्रदं सुप्त तथा अद्ध जागृत अवस्था में चौदह महा स्वप्न देखे । शुभ स्वप्नों को देखते ही महारानी विजया जागृत हो हर्षातिरेक से परम प्रमुदित हई। उसने तत्काल मन्थर गति से महाराज जितशत्रु के शयनकक्ष में पहुंच कर विनयपूर्वक उन्हें चौदह Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ गर्भ में आगमन ] स्वप्नों का विवरण सुनाया । स्वप्नों का विवरण सुन महाराज जितशत्रु ने हर्षित हो कहा -- महादेवि ! स्वप्न महाकल्याणकारी है। हमें महान् प्रतापी, जगत्पूज्य पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी । हर्षोत्फुल्ला महारानी विजया ने शेष रात्रि जागृत रह कर धर्माराधन में व्यतीत की । दूसरे चक्रवर्ती का गर्भ में श्रागमन उसी रात्रि में महाराज जितशत्रु के छोटे भाई युवराज सुमित्र विजय की युवरानी वैजयन्ती ने भी चौदह महास्वप्न देखे, जिनकी प्रभा महारानी विजया के स्वप्नों से कुछ मन्द थी । प्रातःकाल महाराज जितशत्रु ने कुशल स्वप्न पाठकों को ससम्मान ग्रामन्त्रित कर उन्हें महारानी और युवराज्ञी द्वारा देखे गये चौदह महास्वप्नों का फल पूछा । स्वप्न - पाठकों ने समीचीनतया चिन्तन-मनन के पश्चात् कहा"महारानी विजया देवी की कुक्षि से इस अवसर्पिणी काल के द्वितीय तीर्थंकर महाप्रभु का पुत्र रूप में जन्म होगा और युवराज्ञी वैजयन्ती देवी द्वितीय चक्रवर्ती को जन्म देंगी।" स्वप्नों का फल सुन कर महाराज जितशत्रु सम्पूर्ण इक्ष्वाकुवंशी परिवार. श्रमात्यवृन्द और वहां उपस्थित परिजन आनन्द विभोर हो उठे । वन्दीजनों ने विरुदावली के रूप में कहा - "धन्य है महाप्रतापी इक्ष्वाकु वंश, जिसमें तिरेसठ शलाका पुरुषों में से दो शलाका पुरुष तो युगादि में ही हो चुके हैं और दो और शलाका पुरुष इस यशस्वी वंश की दो महामहिमामयी कुलवधुओं की रत्नकुक्षि में उत्पन्न हो चुके हैं । गर्भस्थ लोकपूज्य प्रभु के प्रभाव से माता महारानी विजया देवी के पूर्व ही से अनुपम प्रताप तेज और कान्ति में उत्तरोत्तर अभिवृद्धि होने लगी । पतिपरायणा महारानी धर्माराधन में निरत रहती हुई गर्भ का पालन करने लगी । जन्म गर्भकाल पूर्ण होने पर माघ शुक्ला अष्टमी ( ८ ) की महा पुनीता रात्रि में चन्द्रमा का रोहिणी नक्षत्र के साथ योग होने पर माता विजया देवी ने सुखपूर्वक त्रिलोकपूज्य पुत्ररत्न को जन्म दिया । प्रभु का जन्म होते ही त्रैलोक्य दिव्य प्रकाश से जगमगा उठा । सम्पूर्ण लोक में हर्ष की लहर दौड़ गई । प्रतिपल, प्रति समय घोर दुःखों का अनुभव करने वाले नरक के जीवों ने भी उस समय कुछ क्षणों के लिये सुख का अनुभव किया। छप्पन दिवकुमारिका देवियों, Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जन्म] भ० प्रजितनाथ १४६ देवराज शक्र, चौसठ इन्द्राणियों, देवों तथा देवांगनाओं ने विनीता नगरी में प्रा कर हर्षोल्लास के साथ राजभवन में जन्म महोत्सव मनाने के अनन्तर प्रभु को मेरु शिखर पर ले जा कर वहां उपस्थित ६३ इन्द्रों के साथ बड़े ठाट-बाट से देव-देवेन्द्रों के परम्परागत विधि-विधानों के अनुसार उनका जन्माभिषेक किया। प्रभु के जन्म के कुछ समय पश्चात् उसी रात्रि में युवराज सुमित्र की यवरानी वैजयन्ती ने भी द्वितीय चक्रवर्ती पुत्र रत्न को जन्म दिया। प्रथम तो पुत्र जन्म को तदनन्तर थोड़ी ही देर पश्चात् भ्रातृज के जन्म को सुखद बधाई पा कर महाराज जितशत्रु प्रानन्दविभोर हो गये। उन्होंने तत्काल दोनों बधाइयां देने वालों को उनकी अनेक पीढ़ियों के लिए पर्याप्त धन-सम्पत्ति प्रदान कर उन्हें बड़े-बड़े वैभवशालियों की श्रेणी में ला दासत्व से मुक्त कर दिया । अनेकों को प्रीतिदान और अनेकों को पारितोषिक दिये गये । विविध वाद्यों की एक तान पर उठी ध्वनियों एवं किन्नरकण्ठिनी सुहागिनों के कण्ठों से निसत मंगल गीतों की प्रति मधुर कर्णप्रिय राग-रागनियों से विनीता नगरी गन्धर्वराज की राजधानी सी प्रतीत हो रही थी। राजप्रासादों, सामन्तों, अमात्यों के भलीभांति सजाये गये प्रति विशाल सुन्दर भवनों, नगरष्ठि, श्रेष्ठिवरों, श्रीमन्तों के स्फटिकाभ सुन्दर आवासों, राजपथों, वीथियों प्रादि में स्थान-स्थान पर प्रायोजित उत्सवों की धूम से राजपरिवार और समस्त प्रजाजन रागरंग और उत्सवों की धूम से झूम उठे। रागरंग और उत्सवों की चहल-पहल के कारण दिन घड़ियों के समान और घड़ियां पलों के समान प्रतीत हो रही थीं। नामकरण जन्म-महोत्सव मनाने के पश्चात् महाराज जितशत्रु ने बन्धु-बान्धवों, अमात्यों, सामन्तों, श्रेष्ठियों एवं मित्रों को आमन्त्रित कर सरसस्वादिष्ट उत्तमोत्तम भोज्य पक्वानों एवं पेय आदि से सब का सम्मान-सत्कार करते हुए कहा--जब से यह वत्स अपनी माता के गर्भ में पाया, तब से मुझे कोई जीत न सका, मैं प्रत्येक क्षेत्र में अजित ही रहा, अतः इस बालक का नाम प्रजित रखा जाय ।' उपस्थित सभी महानुभावों ने हर्षोल्लास पूर्वक अपनी सहमति प्रकट की और प्रभु का नाम अजित रखा गया। आवश्यक रिण में उल्लेख है कि गर्भाधान से पूर्व पासों की क्रीड़ा में राजा जितशत्रु ही रानी से जीतते थे पर गर्भाधान के पश्चात् जब प्रभु महारानी विजया के गर्भ में पाये तभी से महाराज जितशत्रु हारते रहे और महारानी १ भगवम्मि समुप्पण्णे ण केणई जिनो जउ ति कलिऊरण प्रम्मापितीहि प्रजिमोत्ति णामं कयं । -चउवन्न महापुरिस परियं, पृ० ५१ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [नामकरण] विजया जीतती रही । गर्भस्थ प्रभु के प्रताप से गर्भकाल में महारानी-महाराजा से सदा अजित रही । इस चमत्कार को ध्यान में रखते हुए प्रभु का नाम अजित रखा गया ।' युवराज सुमित्र के पुत्र का नाम सगर रखा गया। प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल का यह एक कैसा अति सुन्दर सुयोग था कि एक हो साथ, एक ही वंश, एक ही परिवार में एवं एक ही घर में दो सहोदरों की धर्मपत्नियों की कुक्षियों में इस अवसर्पिणी के चौवन महापुरुषों में से दो महापुरुषों का-एक त्रिलोक पूज्य धर्म तीर्थकर का और दूसरे भावी राजराजेश्वर चक्रवर्ती सम्राट का, केवल कुछ ही क्षरणों के अन्तर से एक साथ गर्भ रूप में आगमन हुआ एवं कतिपय क्षणों के अन्तर से एक साथ जन्म और साथ-साथ लालन-पालन एवं संवर्द्धन आदि हुए । उन असाधारण महान् शिशुओं की बाल-लीलाएं भी कितनी ललित, कितनी सम्मोहक, चमत्कारपूर्ण, अद्भुत और दर्शकों को आश्चर्य चकित कर देने वाली होंगी, इसकी कल्पना मात्र से ही प्रत्येक विज्ञ भावुक भक्त का हृदय-सागर अानन्द की तरंगों से तरंगित और हर्ष की हिलोरों से कल्लोलित हो झूम उठता है, गद्गद् हो उठता है। उन महापुरुषों की माताओं ने कितनी बलैयां ली होंगी, पावाल वृद्ध पारिवारिक और परिजनों ने कितना अतिशय आनन्दानुभव किया होगा, कितनी महिलाओं के मानस में मधुर मंजुल गद्गदी उठी होगी, इसका वर्णन करना सहस्रों जिह्वानों और लेखनियों के सामर्थ्य के बाहर है, केवल श्रद्धासिक्त अन्तमन से अनभूतियों द्वारा ही इस के अनिर्वचनीय आनन्द का रसास्वादन किया जा सकता है । प्रस्तु। दोनों होनहार शिशुओं ने अनेक वर्षों तक अपनी बाल-लीलाओं से मातापिता, परिचारकों, परिजनों और पौरजनों को प्रानन्द के विविध रसों का अद्भुत प्रास्वादन कराते हुए किशोर वय में पदार्पण किया । जैसा कि ऊपर बताया जा चका है, विमल वाहन के जीव ने विजय विमान से तीन ज्ञान के साथ च्यवन किया था। यह सनातन नियम है कि तीर्थकर पद की पुण्य प्रकृति का बन्ध की हुई सभी महान् प्रात्माएं अपने पूर्व भव से ही विशिष्ट तीन ज्ञान साथ ले कर माता की कुक्षि में प्राती है, अतः विशिष्ट तीन ज्ञान युक्त कुमार श्री अजित को तो किसी शिक्षक अथवा कलाचार्य से शिक्षा दिलाने अथवा कलाएं सिखाने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। परन्तु मगर कुमार को विद्याओं एवं कलाओं में निपुण बनाने हेतु सुयोग्य शिक्षाविद कलाचार्य की नियक्ति की गई। कुशाग्र बद्धि के धनी मेधावी मगर कुमार ने बड़ी निष्ठा और विनयपूर्वक अध्ययन प्रारम्भ किया और अनुमानित १ विसेमो छूतं रमंति पुग्वं राया जिरिणगाइयो, गम्भ प्राभूते माता जिणाति सदावित्ति तेगा प्रक्वेसु प्रजितत्ति प्रजितो जातो । -प्रावश्यक चूणि पूर्व भाग, पृ० १० Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [नामकरण] भ० अजितनाथ १५१ समय से पूर्व ही वे शब्दशास्त्र, साहित्य, छन्दशास्त्र, न्याय आदि विद्याओं एवं बहत्तर कलानों में पारंगत हो गये । सगर कुमार इस अर्थ में महान् भाग्यशाली थे कि उन्हें विशिष्ट तीन ज्ञान के धारक अपने ज्येष्ठ भ्राता अजित कुमार का साहचर्य प्राप्त हुआ था । वस्तुतः यह उनके लिये परम लाभप्रद सुयोग था। सगर कुमार इस अद्भुत सुयोग से अत्यधिक लाभान्वित हुए । अध्ययन काल में मेधावी छात्र सगर कुमार के मन में समय-समय पर अनेक ऐसी जिज्ञासाएं उत्पन्न होती. जिनका समुचित समाधान करने में उनके शिक्षक असफल रहते । ज्यों ही सगर कुमार अपनी जिज्ञासाए जगद्गुरु अजित कुमार के सम्मुख रखते त्यों ही अजित कुमार उन जटिल से जटिलतर समस्याओं का ऐसे समीचीन रूप से समाधान करते कि सगर कुमार तत्काल उनका समुचित समाधान पाकर पूर्णतः सन्तुष्ट हो जाते । इस प्रकार सगरकुमार ने केवल अपने अध्ययन काल में ही नहीं अपितु लम्बे जीवनकाल में प्रभु अजितनाथ से वह तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया जो किसी अन्य शिक्षक एवं कलाचार्य से प्राप्त नहीं होता । सगर कुमार अपने ज्येष्ठ बन्धु अजितकुमार को पिता तुल्य और गुरु समझ कर उनके प्रति सदा अनन्य सम्मान, श्रद्धा और भक्ति प्रकट करते थे। क्रमशः भ्रातृद्वय श्री अजितकुमार और सगरकुमार ने किशोर वय को पार कर युवावस्था में प्रवेश किया। तब दोनों कुमारों के पाणिग्रहण हेतु अनेक राजाओं के अपनी-अपनी राजकन्याओं के पाणिग्रहण के लिए प्रस्ताव आने लगे । वज्र ऋषभनाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थान के धनी, तपाये हुए विशुद्ध स्वर्ण के समान मनोहारिणी कान्ति वाले उत्तमोत्तम लक्षणों से युक्त, व्यूढोरस्क, वृषस्कन्ध कुमारयुगल को यौवन के तेज से प्रदीप्त देख कर महाराज जितशत्रु और महारानी विजया ने दोनों राजकुमारों का उनके योग्य राजकुमारियों से विवाह करने का प्रस्ताव किया। भोगफल देने वाले भोगावली कर्मों को उदित हुए जान कर अजितकुमार को विवाह के लिये अपनी स्वीकृति येन-केन-प्रकारेण देनी पड़ी। दोनों कुमारों के लिये सभी दृष्टियों से सुयोग्य कन्याओं का बड़ी सावधानी से चयन करने के पश्चात् क्रमशः अजितकुमार और सगर कुमार का कुल, रूप, लावण्य एवं सर्वगुण सम्पन्ना अनेक राजकुमारियों के साथ विवाह किया गया । रोग से निवृत्त होने के लिये औषधि लेना आवश्यक है, उसी प्रकार उदय में आये हुए भोगावलि कर्मों से निवृत्ति पाने के लिये भोगों का उपभोग भी करना है, यह समझ कर श्री अजितकुमार भोगमार्ग में प्रवृत्त हुए। जिस समय अजित कुमार की वय १८ लाख पूर्व की हुई, उस समय महाराज जितशत्रु ने संसार से विरक्त हो श्रमण धर्म ग्रहण करने का निश्चय किया। उन्होंने अजित कुमार को अपने संकल्प से अवगत कराते हुए राज्यभार सम्भालने का आग्रह किया । राजकुमार श्री अजित ने प्रव्रज्या ग्रहण के पिता Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ नामकरण ! श्री के संकल्प की सराहना करते हुए कहा- "मोक्ष की साधना करना प्रत्येक मुमुक्षु के लिये परमावश्यक है। ऐसे पुनीत कार्य में किसी भी विज्ञ को बाधक न बन कर साधक ही बनना चाहिये । राज्यभार ग्राप पितृव्यश्री को ही दीजिये । वे युवराज हैं और राज्यभार ग्रहण करने में समर्थ एवं सुयोग्य भी ।" राजकुमार अजित अपनी बात पूरी कह ही नहीं पाये थे कि युवराज सुमित्र ने कहा - " मैं किसी भी दशा में इस सांसारिक राज्य के झंझट में नहीं फँसू गा । मैं तो महाराज के साथ ही मोक्ष का शाश्वत साम्राज्य प्राप्त करने के लिये प्रव्रज्या ग्रहरण कर साधना करूंगा ।" • राजकुमार श्री अजित ने अपने ज्ञानोपयोग से सुमित्र विजय के प्रव्रजित होने में अभी पर्याप्त विलम्ब जान कर अनुरोध किया कि यदि आप किसी भी दशा में राज्यभार ग्रहण करना नहीं चाहते तो आपको कुछ समय तक गृहवास में ही भावयति के रूप में रहना चाहिये । महाराज जितशत्रु ने भी कहा--"कुमार ठीक कहते हैं । स्वयं तीर्थंकर हैं । तुम इनके तीर्थ में सिद्ध होवोगे । अतः अभी भावयती बनकर घर में ही रहो । सुमित्र विजय उन दोनों के अनुरोध को नहीं टाल सके । प्रभु प्रजित का राज्याभिषेक बड़ी ही साज-सज्जा के साथ भ० अजितनाथ के राज्याभिषेक महोत्सव का आयोजन किया गया । महाराज जितशत्रु ने हर्षोल्लास के वातावरण में दिव्य समारोह के साथ राजकुमार श्री अजित का राज्याभिषेक किया । राज्यसिंहासन पर आरूढ़ होते ही महाराज श्री अजित ने सगर कुमार को युवराज पद पर अधिष्ठित किया । पिता को प्रव्रज्या, केवलज्ञान श्रौर मोक्ष प्रभु के राज्याभिषेक महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर महाराज जितशत्रु का अभिनिष्क्रमरण बड़े उत्सव के साथ हुआ । उन्होंने प्रथम तीर्थंकर भगवान् आदिनाथ द्वारा स्थापित धर्म तीर्थ की परम्परा के एक स्थविर मुनिराज के पास प्रव्रज्या ग्रहण की। श्रमरणधर्म में दीक्षित होने के पश्चात् मुनि जितशत्रु ने दीर्घ काल तक कठोर तपश्चरण के साथ-साथ विशुद्ध संयम की पालना द्वारा चार घाति-कर्मों को नष्ट कर केवलज्ञान - केवलदर्शन प्राप्त किया और अन्त में शेष ४ अघाति कर्मों को विनष्ट कर अनन्त शाश्वत सुखधाम-मोक्ष प्राप्त किया । महाराजा प्रजित का प्रादर्श शासन राजसिंहासन पर प्रारूढ़ होने के पश्चात् महाराज अजित ने तिरेपन लाख पूर्व तक न्याय - नीतिपूर्वक प्रजा का पालन किया । संसार के सर्वोत्कृष्ट पद Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [लोकान्तिक देवों द्वारा प्रार्थना] भ० प्रजितनाथ १५३ तीर्थंकर पद की पुण्य प्रकृतियों के बन्ध वाले विशिष्ट कोटि के मति, श्रुत और अवधिज्ञान-इन तीन ज्ञान के धारक, अमित शक्ति सम्पन्न महाराज श्री अजित के पुण्य-प्रताप से अन्य राजागरण स्वतः श्रद्धा-भक्ति से नतमस्तक हो उनके अधीन हो गये । परचक्र के भय की तो महाराज अजित के राज्य में कभी किसी प्रकार की आशंका ही नहीं रही। महाराज अजित के शासनकाल में समस्त प्रजा सर्वतः सम्पन्न, समृद्ध, सुखी और न्याय-नीति-धर्मपरायण रही। धर्म-तीर्थ-प्रवर्तन के लिये लोकान्तिक देवों द्वारा प्रार्थना भोगावली कर्मों के पर्याप्त मात्रा में क्षीण हो चुकने के अनन्तर जब अभिनिष्क्रमण का समय निकट आ रहा था, उस समय एक दिन महाराज अजित ने एकान्त में चिन्तन करते हुए सोचा-"अब मुझे संसार के इन राज्य 'प्रपंचों, भोगोपभोगादि कार्यकलापों का पूर्णतः परित्याग कर अपने मूल लक्ष्य की सिद्धि के लिए सर्वतः समुद्यत और तत्पर हो जाना चाहिये । निर्वन्ध, निर्विकार, निष्कलंक होने के लिए साधना करने में अब मुझे विलम्ब नहीं करना चाहिये। ___जिस समय महाराज अजित के मन में इस प्रकार का चिन्तन चल रहा था, उसी समय लोकान्तिक देव अपने जीताचार का निर्वहन करने हेतु स्वयंबुद्ध प्रभु के समक्ष उपस्थित हो सविनय सांजलि शीश झुका प्रार्थना करने लगे : "हे निखिल चराचर जगज्जीवों के शरण्य प्रभो! आप तो स्वयं सम्बद्ध हैं । आप जैसे जगद्गुरु से हम क्या निवेदन करें ? तथापि हम अपने परम्परागत कर्तव्य का पालन करने हेतु आपसे प्रार्थना करते हैं-भगवन ! अब धर्मतीर्थ का प्रवर्तन कर भव्य प्राणियों का उद्धार कीजिये ।" लोकान्तिक देवों ने तीन बार इस प्रकार की प्रार्थना प्रभु से की और प्रभु को वन्दन-नमन कर वे निज देव-धाम की अोर लौट गये। ___ लोकान्तिक देवों के लौट जाने के पश्चात् अजित प्रभु ने युवराज सगर को बला कर कहा- "बन्धो ! मैं अब सभी प्रकार के प्रपंचों का परित्याग कर साधनापथ पर अग्रसर होना चाहता हूं । अतः अब तुम इस राज्यभार को सम्भालो।" प्रभु के वचन सुन कर युवराज सगर वजाहत से स्तब्ध-अवाक रह गये । उनके फुल्लारविन्द तुल्य सुन्दर एवं आयत दंगों से अश्रुधाराएं प्रवाहित हो चली । विषादातिरेक से अवरुद्ध-अति विनम्र स्वर में उन्होंने प्रभु से निवेदन किया-"देव ! मैं तो शैशवकाल से ही छायावत् सदा आपका अनन्य अनगामी रहा हूं । मैंने तो सदा आपको ही अपना मात-तात-गुरु और सर्वस्व समझा है । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास लोकान्तिक देवों द्वारा प्रार्थना] आपका भी मुझ पर सदा निस्सीम स्नेह और वरद हस्त रहा है । मुझ से ऐसा क्या अपराध हो गया है, जो पाप मुझे अनायास ही छोड़-छिटका कर प्रवजित होना चाहते हैं ? मैं क्षण भर के लिए भी आपकी छत्रछाया से पृथक नहीं रह सकता । आपके विछोह में मुझे यह राज्य तो क्या समग्र विश्व का एकच्छत्र राज्य भी और मेरा अपना जीवन भी भयंकर विषधर काले नाग के समान भयानक लगेगा । आपके वियोग की कल्पनामात्र से ही मेरा अन्तर्मन उद्विग्न और गात्र के सभी अंगोपांग शिथिल हो गये हैं, मेरे तन की त्वचा जल रही है । प्रभो ! मैं तो आपके बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता । यदि आपने प्रवजित होने का ही दढ़ निश्चय कर लिया है तो मुझे भी आपकी सेवा में रहने की आज्ञा दीजिये । मेरे लिये आपका अहनिश सानिध्य त्रैलोक्य के राज्य से भी बड़ा राज्य होगा । अतः हे देव ! मैं आपसे पुन: करबद्ध हो. अन्तःकरण से प्रार्थना करता हूं कि आप अपने इस अनन्य अनुगामी को अपने से पथक मत कोजिये ।" यह कह कर सगर ने अपना मस्तक प्रभु के चरणों पर रख दिया। तीन ज्ञान के धनी प्रभु अजित को यह विदित ही था कि कुमार सगर इस अवसपिणी काल का द्वितीय चक्रवर्ती होगा । अतः उन्होंने आत्मीयता से अोतप्रोत प्राज्ञापूर्ण स्वर में कहा-"कुमार ! अभी तुम्हारे विपुल भोगावली कर्म अवशिष्ट हैं. मैं तुम्हें प्राज्ञा देता हूं कि अब तुम मेरी आज्ञा का पालन करने के लिये भी इस राज्यभार को सम्भालो और अपने कर्तव्य-पथ पर अग्रसर होयो।" सदा पितृवत् पूजित और गुरु तुल्य प्रादृत अपने अनन्य श्रद्धाविन्दुभक्तिकेन्द्र ज्येष्ठ बन्ध के आदेश को शिरोधार्य करने के अतिरिक्त अब कमार सगर के समक्ष और कोई मार्ग ही अवशिष्ट नहीं रह गया था। प्रभु अजित ने भव्य महोत्सव के साथ सगर कुमार का राज्याभिषेक किया। । वर्षादान सगर का राज्याभिषेक करने के पश्चात् प्रभु अजित ने वर्षीदान दिया। वे प्रतिदिन प्रातःकाल एक करोड़ पाठ लाख स्वर्ण मद्राओं का दान देते थे। इस प्रकार प्रभु ने एक वर्ष में ३ अरव, अठ्यासी करोड़ और अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राओं का दान दिया। वर्षीदान के सम्पन्न होते ही सौधर्म कल्प के शक प्रादि चौसठ इन्द्रों के प्रासन चलायमान हुए। वे सब तत्काल प्रभ की सेवा में उपस्थित हए । तदनन्तर शक प्रादि देवेन्द्रों और महाराजा सगर ने प्रभु के अभिनिष्क्रमण महो. Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ वर्षीदान ] भ० अजितनाथ १५५ त्सव का आयोजन किया। सभी इन्द्रों और सगर ने प्रभु का अभिषेक किया । अभिषेकानन्तर दिव्य गन्धादि के विलेपन एवं वस्त्राभूषणों से प्रभु को अलंकृत कर सुप्रभा नाम की शिविका में विराजमान किया गया । देव देवियों एवं नरनारियों के समूह प्रभु का अभिनिष्क्रमरण महोत्सव देखने के लिए उद्वेलित अथाह उदधि की तरह उमड़ पड़े । नर-नरेन्द्रों एवं देवेन्द्रों ने प्रभु की पालकी को उठाया । देव-देवेन्द्रों तथा नर-नरेन्द्रों के विशाल समूह के कण्ठों से उद्घोषित जयघोषों के बीच, पग-पग पर प्रभिनन्दित-प्रभिवद्धित होती हुई प्रभु की सुप्रभा शिबिका राजधानी के राजपथ से होती हुई विनीता नगरी के बहिर्भागस्थ सहस्राम्र वन में पहुंची । गगनमण्डल को गुंजरित कर देने वाले जयघोषों के साथ प्रभु सुप्रभा शिबिका से उतरे । दीक्षा माघ शुक्ला नवमी के दिन चन्द्र का रोहिणी नक्षत्र के साथ योग होने पर प्रभु अजितनाथ ने स्वयं ही वस्त्रालंकारों को उतार कर इन्द्र द्वारा समर्पित देवदृष्य धारण किया । तदनन्तर प्रभु ने पंचमुष्टिक लुचन कर 'नमो सिद्धाणं' के उच्चाररण के साथ सिद्ध भगवन्तों को नमस्कार कर षष्ठभक्त की तपश्चर्या सहित एक हजार राजाओं के साथ यावज्जीवन सामायिक चारित्र स्वीकार किया । दीक्षित होते ही तीर्थंकरों को मनः पर्यवज्ञान हो जाता है, यह एक अपरिवर्तनीय सनातन नियम है । जैसा कि पहले बताया जा चुका है, प्रभु अजितनाथ विजयविमान से च्यवन के समय से ही मति, श्रुति और अवधिइन तीन ज्ञान के साथ माता विजयादेवी के गर्भ में आये थे । इस प्रकार दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व वे इन तीन ज्ञान के धारक तो थे ही। सामायिक चारित्र स्वीकार करते समय भगवान् प्रजितनाथ प्रशस्त भावों के उत्तम रस युक्त अप्रमत्त गुणस्थान में स्थित थे । अतः दीक्षा ग्रहण करते ही उनके मन में उसी समय संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को ज्ञात कराने वाला चौथा ज्ञान- मनः पर्यवज्ञान भी प्रकट हो गया । छद्मस्थकाल सगर प्रभु द्वारा चारित्रधर्म स्वीकार कर लिए जाने पर सभी देवेन्द्र, देव, आदि राजा-महाराजा और उपस्थित जन प्रभु को भक्तिपूर्वक वन्दन - नमन कर अपने-अपने स्थान की ओर प्रस्थित हुए । दीक्षा ग्रहण करने के दूसरे दिन प्रभु को साकेत ( अयोध्या - अपर नाम विनीता ) में ही राजा ब्रह्मदत्त ने अपने यहां क्षीरान से बेले के तप का पारणा Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [छद्मस्थकाल] करवाया। वहां पांच प्रकार की दिव्य वष्टि हई । इस प्रकार राजा ब्रह्मदत्त प्रभु अजितनाथ के प्रथम भिक्षादाता हुए। भगवान् अजितनाथ दीक्षित होने के पश्चात् बारह वर्ष तक छद्मस्थावस्था में ग्रामान ग्राम विचरण करते रहे । बारह वर्ष तक बाह्य और पाभ्यन्तर तपश्चरण द्वारा प्रभु कर्म समूह को ध्वस्त करते रहे । एक दिन प्रभु सहस्राम्रवन में बेले की तपस्या के साथ ध्यानमग्न थे । ध्यानावस्था में घाति कर्मों का समलोच्छेद करने वाली क्षपकश्रेणि पर आरूढ हए और अप्रमत्त गणस्थान से प्रभु ने आठवें अपूर्वकरण नामक गुणस्थान में प्रवेश किया। वे श्रुत के किसी शब्द पर चिन्तन में प्रवृत्त हुए । शब्द-चिन्तन, अर्थ-चिन्तन और अर्थ चिन्तन में शब्द पर ध्यान केन्द्रित करते हुए वे अनेक प्रकार के श्रुत विचार वाले पृथक्त्व वितर्क सविचार नामक शुक्लध्यान के प्रथम चरण में प्रविष्ट हए । पाठवें गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त रह कर ध्यान की प्रबल शक्ति से प्रभु ने मोहनीय कर्म की हास्य, रति, अरति, भय, शोक और जुगुप्सा इन छ: प्रकृतियों को समूल नष्ट कर नवें अनिवृत्ति बादर नामक गुणस्थान में प्रवेश किया। इस नवें गरणस्थान में प्रभ की ध्यानशक्ति और अधिक प्रबल होती गई । उस प्रबल होती हई ध्यान शक्ति से आपने वेद मोहनीय की प्रकृतियों, कषाय मोहनीय के संज्वलन क्रोध, मान और माया को नष्ट करते हए सक्ष्मपराय नामक दशम गुणस्थान में प्रवेश किया। ध्यान-बल से ज्यों-ज्यों मोह का क्षय होता गया, त्यों-त्यों आत्मशक्ति भी बढ़ती गई और गुणस्थान भी बढ़ते गये। मोहनीय कर्म को पूर्णरूपेण मूलत: नष्ट कर प्रभु क्षीणमोह नामक वारहवे गगास्थान में पाये । यहां तक शुक्ल-ध्यान का प्रथम चरण कार्यसाधक बना। शुक्लध्यान के प्रथम चरण के बल से मोहनीय कर्म को नष्ट कर भगवान् अजितनाथ परम वीतराग हो गये । बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में शुक्लध्यान का एकत्व वितर्क अविचार नामक दूसरा चरण प्रारम्भ हुआ । शुक्लध्यान के इस द्वितीय चरण में स्थिरता प्राप्त कर ध्यान एक ही वस्तु पर स्थिर होता है । शुक्लध्यान के इस द्वितीय चरण में इसके प्रथम चरण के समान शब्द से अर्थ और अर्थ से शब्द पर ध्यान के जाने की स्थिति न रह कर शब्द और अर्थ इन दोनों में से केवल एक पर ही ध्यान स्थिर रहता है । शुक्लध्यान के इम द्वितीय चगा के प्राप्त होते ही प्रभु ने ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय प्रौर अन्तराय इन शेप घाति कर्मों को एक साथ नष्ट कर युगपत् केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्राप्ति के साथ तेरहवें सयोगि केवली नामक गणस्थान में प्रवेश किया। इस प्रकार वारह वर्ष तक छदमस्थावस्था में साधना के अनन्तर भगवान् अजितनाथ ने पौष शुक्ला एकादशी के दिन चन्द्रमा का रोहिणी नक्षत्र के साथ योग होने पर विनीता (अयोध्या) नगरी के सहस्राम्र वन में अनादि काल से चली आ रही छद्मस्थावस्था का अन्त कर युगपत् प्रकट हुए अनन्त ज्ञान और अनन्त-दर्शन से सर्वज्ञ-सर्वदर्शी हो गये। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [छद्मस्थकाल] भ० अजितनाथ १५७ अब भगवान् अजितनाथ भाव अरिहन्त कहलाये वे सम्पूर्ण लोक के देव, मनष्य, असुर, नारक, तिर्यंच और चराचर सहित समग्र द्रव्यों की त्रिकालवर्ती सभी पर्यायों को जानने तथा देखने वाले एवं सभी जीवों के गुप्त अथवा प्रकट सभी तरह के मनोगत भावों को जानने वाले सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन गये। देवों ने पंच दिव्यों की वृष्टि की और देवों तथा इन्द्रों ने केवलज्ञान की महिमा करते हुए सहस्राम्रवन उद्यान में समवसरण की रचना की । उद्यानपाल ने महाराज सगर को तत्काल बधाई दी कि भगवान् को केवलज्ञान प्राप्त हो गया है । इस हर्षप्रद शुभ संवाद को सुन कर महाराज सगर ने असीम आनन्द का अनुभव करते हुए उद्यानपाल को प्रीतिदान दे मालामाल कर दिया। वे तत्काल अपने अमात्यों, परिजनों और पौरजनों सहित समस्त राजसी ठाठ के साथ प्रभुदर्शन के लिये उद्यान की ओर प्रस्थित हुए । समवसरण में पहुंच कर उन्होंने प्रभु को अमित श्रद्धा-भक्ति एवं आह्लाद सहित वन्दन-नमन किया और वे सब यथास्थान बैठ गये। समवसरण में देवों द्वारा निर्मित उच्च सिंहासन पर आसीन हो प्रभु ने पीयूषवर्षिणी अमोघ देशना दी। प्रभु की देशना से प्रबुद्ध हो अनेक पुरुषों ने प्रभु के पास श्रमण धर्म, अनेक महिलाओं ने श्रमणीधर्म और हजारों पुरुषों ने श्रावक धर्म तथा महिलाओं ने श्राविका धर्म स्वीकार किया । भगवान् अजितनाथ के ६८ गणधर हुए, जनमें प्रथम गणधर का नाम सिंहसेन था। प्रभु की प्रथम शिष्या का नाम फल्ग था जो प्रभु के साध्वीसंघ की प्रतिनी हुई । इस प्रकार प्रभु अजितनाथ ने प्रथम देशना में भव्य प्राणियों को श्रतधर्म और चारित्र धर्म की शिक्षा देकर माध, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका रूप चतुर्विध संघ की स्थापना की । चविध तीर्थ की स्थापना के पश्चात प्रभ अपने शिष्य परिवार सहित विभिन्न क्षेत्रों में विचरण करते हुए भव्य प्राणियों को धर्ममार्ग में स्थित एवं स्थिर करने लगे। शालिग्राम निवासियों का उद्धार इस प्रकार देवों, देवेन्द्रों, नरेन्द्रों और लोकसमूहों द्वारा वंद्यमान भगवान अजितनाथ विभिन्न क्षेत्रों और प्रदेशों के भव्य जीवों को शाश्वत सत्यधर्म के उपदेश द्वारा मोक्ष मार्ग पर आरूढ़ करते हए विहारानुक्रम से कौशाम्बी नगरी के बाहर उत्तर दिशा में अवस्थित उद्यान में पधारे । देवों ने समवसरण की रचना की । समवसरण में अशोक वृक्ष के नीचे विशाल सिंहासन पर प्रभु विराजमान हुए । मौ धर्मेन्द्र और ईशानेन्द्र प्रभु के दोनों पार्श्व में खड़े हो कर चँवर ढ़लाने लगे। सुरों, असुरों और मनुष्यों आदि की धर्म-परिषद में प्रभु ने अमोध देशना प्रारम्भ की । उसी समय एक ब्राह्मण सपत्नीक समवसरण में उपस्थित हुग्रा और प्रभु को आदक्षिणा प्रदक्षिणापूर्वक वन्दन-नमन कर उनके चरण कमलों के पास प्रवग्रह भूमि छोड़ बैठ गया। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [शालिग्राम निवासियों भगवान् की देशना के अनन्तर उस ब्राह्मण ने हाथ जोड़ कर पूछा"प्रभो! यह इस प्रकार क्यों है ?' भगवान् अजितनाथ ने फरमाया-“हे देवानुप्रिय ! यह सम्यक्त्व का प्रभाव है।" ब्राह्मण ने पूछा-"किस प्रकार प्रभो ?" प्रभ ने ब्राह्मण के "किस प्रकार?" इस प्रश्न का उत्तर देते हुए फरमाया--"सौम्य ! सम्यक्त्व का प्रभाव बहुत बड़ा है । सम्यक्त्व के प्रभाव से वैर शान्त हो जाते हैं, व्याधियां नष्ट हो जाती हैं, अशुभ कर्म विलीन हो जाते हैं, अभीप्सित कार्य सिद्ध होते हैं, देवायु का बन्ध होता है, देव-देवीगरण सहायतार्थ सदा समुद्यत रहते हैं । ये सब तो सम्यक्त्व के साधारण फल हैं । सम्यक्त्व की उत्कृट उपासना से प्राणी समस्त कर्म-समूह को भस्म कर विश्ववंद्य तीर्थंकर पद तक प्राप्त कर शुद्ध, बुद्ध हो शाश्वत शिवपद प्राप्त करते हैं। प्रभ के मुखारविन्द से यह सुन कर ब्राह्मण ने कहा- "भगवन यह ऐसा ही है, यथातथ्य है, अवितथ है । किंचिन्मात्र भी अन्यथा नहीं है।" यह कहकर ब्राह्मण अत्यन्त सन्तुष्ट मुद्रा में अपने स्थान पर बैठ गया। शेष सब श्रोताओं को इस प्रश्नोत्तर के रहस्य से अवगत कराने हेतु परम उपकारी प्रभु के मुख्य गणधर ने पूछा-"प्रभो ! ब्राह्मरण के प्रश्न पोर आपके द्वारा दिये गये उत्तर का रहस्य क्या है ?" भगवान् अजितनाथ ने फरमाया- “सौम्य ! सुनो, यहां से थोड़ी ही दूरी पर शालिग्राम नामक एक ग्राम है । उस ग्राम में दामोदर नामक एक ब्राह्मण रहता था। उसकी धर्मपत्नी का नाम सीमा था। उनके पुत्र का नाम शुद्धभट्ट था । सिद्धभट्ट नामक एक ब्राह्मण की सुलक्षणा नाम्नी कन्या के साथ शुद्धभट्ट का विवाह किया गया । नवदम्पति सांसारिक सुखों का उपभोग करने लगा। कालान्तर में उन दोनों के माता-पिता का देहावसान हो गया और उनका पूर्वसंचित धन-वैभव भी विनष्ट हो गया। स्थिति यहां तक बिगड़ी कि अति कष्टसाध्य घोर परिश्रम के उपरान्त भी उन्हें दोनों समय भोजन तक का मिलना भी दूभर हो गया। अपने घर की इस दारिद्र्यपूर्ण दयनीय दशा को देख कर शुद्धभट्ट बड़ा दुखित हुा । एक दिन वह अपनी पत्नी को बिना कहे ही चुपचाप घर से निकल कर परदेश चला गया । सुलक्षणा को अन्य लोगों से ही पति के परदेश गमन का वृत्तान्त ज्ञात हुआ। पति के इस प्रकार चुपचाप उसे छोड़ कर चले जाने से सुलक्षणा के हृदय को बड़ा भारी आघात पहुंचा । वह शोक सागर में डूबी हुई सब से दूर Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का उद्धार भ० अजितनाथ १५६ एकाकिनी और वैरागिनी की तरह रहने लगी । उसे संसार के किसी कार्य में रस की कोई अनुभूति नहीं हो रही थी। उन्हीं दिनों उसके पूर्वकृत पुण्यों के उदय से विपूला नाम की एक प्रतिनी दो अन्य साध्वियों के साथ उस ग्राम में वर्षावास हेतु आई और सुलक्षणा से वर्षाकाल में रहने के लिये उसके घर में एक स्थान मांग कर रहने लगी । सुलक्षणा प्रतिदिन बड़ी रुचि से प्रवतिनीजी के धर्मोपदेशों को सुनने लगी। प्रतिनीजी के धर्मोपदेशों को सुनने से सुलक्षणा की धर्म के प्रति रुचि जाग्रत हुई। उसकी मिथ्यात्व की पत दूर हुई तो उसके अन्तस्तल में सम्यक्त्व प्रकट हुआ । सुलक्षणा ने जीव, अजीव आदि तत्वों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त किया। उसने संसार सागर से पार उतारने वाले जिनोपदिष्ट शाश्वत धर्म जैन धर्म को अंगीकार किया। इससे उसके कषायों का उपशमन हुआ और विषयों के प्रति उसके मन में विरक्ति, अरुचि हुई । जन्म-मरण की परम्परा से उसे भय का अनुभव होने लगा । षड्जीवनिकाय के प्रति उसके अन्तर में अनुकम्पा उत्पन्न हुई और परलोक के अस्तित्व के सम्बन्ध में उसे पूर्ण आस्था हो गई । सम्पूर्ण चातुर्मास काल उसने अनवरत निष्ठा के साथ साध्वियों की सेवासुश्रूषा करते हुए व्यतीत किया । वर्षावास की समाप्ति पर साध्वियों ने सुलक्षणा को बारह अरणवतों का नियम ग्रहण करवा कर श्राविका बनाया और वहां से अन्यत्र विहार किया। साध्वियों के विहार करने के पश्चात् विदेश में उपाजित विपुल धनराशि के साथ शूद्धभट्ट भी शालिग्राम में लौट आया। पति के आगमन से सुलक्षणा परम प्रसन्न हुई । शुद्धभट्ट ने पूछा-"शुभे ! मेरे वियोग में तुम्हारा समय किस प्रकार वीता?" सुलक्षणा ने उत्तर दिया-"प्रियतम ! मैं आपके वियोग से पीड़ित थी उसी समय गणिनीजी यहां पधार गई । उनके दर्शन से आपके विरह का दुःख शान्त हो गया । गणिनीजी ने चार मास तक यहां अपने घर में विराज कर इसे पवित्र किया । मैंने उनसे सम्यक्त्वरत्न प्राप्त कर अपना जन्म सफल किया। शुद्धभट्ट ने जिज्ञासा व्यक्त की-“सम्यक्त्व किसे कहते हैं, कैसा होता है वह ?" सुलक्षणा ने वीतराग जिनेन्द्र द्वारा प्ररूपित विश्वकल्याणकारी शाश्वत धर्म का स्वरूप अपने पति को समझाते हुए कहा-"राग-द्वषादि समस्त दोषों को नष्ट कर वीतराग बने त्रिलोकपूज्य, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी अरिहन्त प्रभ द्वारा प्ररूपित जैन धर्म को स्वीकार कर सुदेव में देवबुद्धि रखना, सद्गुरु में गुरु-बुद्धि रखना, विश्व-कल्याणकारी शुद्ध धर्म में धर्मबुद्धि रखना और इन तीनों-सुदेव, सद्गुरु और शुद्ध धर्म के प्रति अटल श्रद्धा रखना ही सम्यक्त्व है । सम्यक्त्व का Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ शालिग्राम निवासियों ही दूसरा नाम सम्यग्दर्शन है। इनमें आस्था न रख कर रागद्वेष वाले कुदेव, कुगुरु एवं धर्म में श्रद्धा रखना, इनमें धर्म मानना मिथ्यात्व कहलाता है । मिथ्यात्व का पर्यायवाची अर्थात् दूसरा नाम मिथ्यादर्शन है । १६० जिस प्रकार वीतराग, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी हितोपदेष्टा, शुद्ध धर्म का प्ररूपण करने वाले देव ही वास्तव में सुदेव हैं, उसी प्रकार अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - इन पांच महाव्रतों को जीवनपर्यन्त पालने वाले, निरन्तर सामायिक - चारित्र की प्राराधना करने वाले, समय पर प्राप्त सरसनीरस अथवा शुष्क, निर्दोष भिक्षा से जीवन-निर्वाह करने वाले शान्त, दान्त, निर्लोभी, धैर्यशाली और विशुद्ध धर्म का उपदेश करने वाले गुरु ही सद्गुरु हैं । उसी प्रकार शुद्ध धर्म भी वही है, जो दुर्गति में गिरते हुए जीवों को उस मार्ग से हटा कर सद्गति के पथ पर लगावे । राग-द्वेष से रहित वीतराग सर्वज्ञ - सर्वदर्शी, विश्वबन्धु, जगत्पूज्य प्ररिहंत भगवन्तों द्वारा बताया हुआ धर्म ही मोक्ष प्रदान करने वाला है । सम्यक्त्व की पहचान —-शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्था अर्थात् आस्तिक्य - इन पांच लक्षरणों से होती है । सम्यक्त्व से विचलित होते हुए स्वधर्मी बन्धुओं को सम्यक्त्व में स्थिर करना, प्रभावना, भक्ति, जिनशासन में कुशलता और चतुविध तीर्थ की सेवा - ये पांच गुरण सम्यक्त्व के भूषण हैं । इसके विपरीत शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मिथ्या दृष्टि की प्रशंसा और मिथ्या दृष्टि से परिचय - संसर्ग - ये पांच ग्रवगुरण सम्यक्त्व के दूषरण हैं, सम्यग्दर्शन को दूषित करने वाले हैं । सम्यग्दर्शन और जैनधर्म के स्वरूप को अपनी पत्नी से अच्छी तरह समझ कर शुद्धभट्ट बड़ा प्रसन्न हुआ । उसने भी सम्यक्त्वरत्न प्राप्त किया । इस प्रकार शुद्धभट्ट और सुलक्षरणा- दोनों ही पति-पत्नी सम्यक्त्वधारी बन कर जैनधर्म का पालन करने लगे । कालान्तर में सुलक्षणा ने एक पुत्र को जन्म दिया | पति-पत्नी दृढ़ आस्था के साथ श्रावकधर्म का पालन करते हुए सुखपूर्वक अपना जीवन-यापन करने लगे । उस गांव के ब्राह्मण उन दोनों पति-पत्नी को श्रावकधर्म का पालन करते हुए देख कर उनकी निन्दा करने लगे कि इन्होंने कुल क्रमागत धर्म को छोड़ दिया है और ये श्रावकधर्म का पालन कर रहे हैं । सर्दी के दिनों में प्रातःकाल एक बार शुद्धभट्ट अपने पुत्र को लिये "धर्म श्रग्निष्टिका" के पास गया, जहां अनेक ब्राह्मण अग्नि के चारों ओर बैठे ताप रहे थे । शुद्धभट्ट को अपने पास आया हुआ देख कर वे लोग बोले- “तुम श्रावक हो, अतः तुम्हारे लिये हमारे यहाँ कोई स्थान नहीं है ।" यह कह कर वे लोग उस “धर्म-अंगीठी” को चारों ओर से इस प्रकार घेरते हुए बैठ गये कि शुद्धभट्ट Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का उद्धार भ० अजितनाथ १६१ के लिये वहां बैठने को किंचिन्मात्र भी स्थान नहीं रहा । तदनन्तर अट्टहास कर उन लोगों ने शुद्धभट्ट का उपहास किया। उन लोगों के इस प्रकार के तिरस्कारपूर्ण व्यवहार से प्रतिहत हो...ट्ट ने क्रोधावेश में उच्च स्वर से कहा-'यदि जिनधर्म संसार-सागर से पार उतारने वाला नहीं हो, यदि अर्हत, तीर्थंकर और सर्वज्ञ नहीं हों, यदि सम्यक् ज्ञान-दर्शन और चारित्र मोक्ष का मार्ग नहीं हो और यदि सम्यक्त्व नाम की कोई वस्तु ही संसार में नहीं हो तो मेरा यह पुत्र इस अग्नि में जल जाय, और यदि ये सब हैं, तो इसके एक रोम को भी आंच न आये।" यह कहते हए शुद्धभट्ट ने अपने पुत्र को खैर के जाज्वल्यमान अंगारों से भरी उस विशाल वेदी में फेंक दिया। यह देख कर वहां बैठे हुए सभी लोग एक साथ हाहाकार और कोलाहल करते हुए उठे और आक्रोशपूर्ण उच्च स्वर में चिल्लाने लगे- "हाय, हाय ! इस अनार्य ने अपने पुत्र को जला दिया है।" पर ज्योंही उन्होंने वेदिका की ओर दृष्टिपात किया तो वे सभी आश्चर्याभिभूत हो अवाक्-स्तब्ध रह गये । उनके आश्चर्य का कोई पारावार ही नहीं रहा । उन्होंने देखा कि वेदी में जहां कुछ ही क्षण पूर्व ज्वालामालाओं से प्राकुल अग्नि प्रज्वलित हो रही थी, वहां अग्नि का नाम तक नहीं है । अग्नि के स्थान पर एक पूर्ण विकसित कमल का अति सुन्दर पुष्प सुशोभित है और उस पर वह बालक खिलखिलाता हुआ बालक्रीड़ा कर रहा है । कोलाहल सहसा शान्त हो गया। वहां उपस्थित सभी लोग परम आश्चर्यान्वित मुद्रा में इस अद्भुत चमत्कार को अपलक दृष्टि से देखते ही रह गये । वास्तव में हा यों कि जिस समय शुद्धभट्ट ने क्रुद्ध हो अपने पुत्र को प्रज्वलित अग्नि से पूर्ण वेदिका में डाला, उस समय सम्यक्त्व के प्रभाव को प्रकट करने में सदा तत्पर रहने वाली पास ही में कहीं रही हई व्यन्तर जाति की देवी ने बड़ी ही तत्परता से अग्नि को तिरोहित कर वेदिका में विशाल कमलपुष्प की रचना कर उस बालक की अग्नि से रक्षा की । वह व्यन्तरी पूर्व जन्म में एक माध्वी थी। श्रमणधर्म की विराधना करने के फलस्वरूप वह माध्वी मर कर व्यन्तरी हुई । व्यन्तर जाति में देवी रूप से उत्पन्न होने के के पश्चात उमने एक दिन एक केवली प्रभु से प्रश्न पूछा कि वह व्यन्तरी किस कारण बनी? केवली ने कहा-"श्रामण्य की विराधना के. कारण तुम व्यन्तर योनि में उत्पन्न हुई हो । तुम सुलभ-बोधि हो किन्तु तुम्हें सदा सम्यक्त्व के विकास के लिये सरल भाव से समुद्यत रहना चाहिये।" केवली के वचन सुनने के पश्चात् वह व्यन्तरदेवी सदा सम्यक्त्व के प्रभाव को प्रकट करने में तत्पर रहती । शुद्धभट्ट द्वारा अपने पुत्र को अग्नि में फेंके Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [धर्म परिवार जाने के वृत्तान्त को अवधिज्ञान के उपयोग द्वारा जान कर वह व्यन्तर जाति की देवी, उस वेदिका के निकट मा उपस्थित हुई और उसने सम्यक्त्वधारी ब्राह्मण-दम्पति के बालक की रक्षा कर सम्यक्त्व के प्रभाव को प्रकट किया। शुद्धभट्ट अपने पुत्र को लिये घर लौटा । उसने अपनी पत्नी सुलक्षणा को सब वृत्तान्त सुनाया । उक्त वृत्तान्त सुन कर सुलक्षणा ने अपने पति से कहा"आपने यह अच्छा नहीं किया । क्योंकि यदि उस समय देवता का सान्निध्य नहीं होता और हमारा पुत्र जल जाता तो क्या सम्यक्त्व, जिनेन्द्र द्वारा प्ररूपित धर्म त्रिलोकपूज्य सर्वज्ञ-सर्वदर्शी अर्हत् प्रभु का अस्तित्व निरस्त हो जाता इनका अस्तित्व तो त्रिकालसिद्ध है।" इस प्रकार कह कर यह ब्राह्मणी सुलक्षगगा उस गांव के उन नव लोगा को और अपने पति को सम्यक्त्व में स्थिर करने के लिए अपने साथ ले कर यहां पाई है। इस ब्राह्मण ने यहां मा कर मुझ से उसी सम्बन्ध में पूछा और मैंने भी उसे सम्यक्त्व का प्रभाव बताया। - भगवान् अजितनाथ के मुखारविन्द से यह सुन कर ब्राह्मण दम्पति के साथ माये हुए शालिग्राम के निवासियों ने दृढ़ मास्था प्राप्त की। समवसरण में उपस्थित अन्य अनेक भव्यों ने भी सम्यक्त्व ग्रहण किया। शुद्धभट्ट और सुलक्षणा ने उसी समय प्रभु से श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण की और अनेक वर्षों तक विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करते हुए उन दोनों ने समस्त कर्मसमूह को ध्वस्त कर अन्त में मोक्ष प्राप्त किया। धर्म परिवार. भ० प्रजितनाय का धर्म-परिवार इस प्रकार था :गरणधर' पचानवे (९५) केवली. बाईस हजार (२२,०००) मनःपर्यवज्ञानी बारह.हजार पांच सौ (१२,५००) प्रवषिशानी नव हजार चार सौ (९,४००) चौदह पूर्वषारी तीन हजार सात सौ (३,७००) वैक्रियलधिधारी बीस हजार चार सौ (२०,४००) बारह हजार चार सौ (९२४००) १ हरिवंश पुराण पोर तिलोयपत्ति में १० बसपर होने का इल्मेन है। २ विषष्टिनाका पुल परिष, पर्व २, सर्व , मो. ९७० समवावांव सूत्र। बादी Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिनिर्वाण] भगवान अजितनाथ १६३ साधु साध्वी श्रावक श्राविका एक लाख (१,००,०००) तीन लाख तीस हजार (३,३०,०००) दो लाख अठानवे हजार (२,६८,०००) पांच लाख पैंतालीस हजार (५,४५,०००) परिनिर्वाण अन्त में बहत्तर लाख पूर्व की आयु पूर्ण कर प्रभु अजितनाथ एक हजार मुनियों के माथ सम्मेत शिखर पर एक मास के अनशनपूर्वक चैत्र शुक्ला पंचमी को मृगशिर नक्षत्र में सिद्ध बुद्ध-मुक्त हुए। वही आपका निर्वाण दिवस है। ____ आपने अठारह लाख पूर्व कुमार अवस्था में तिरेपन लाख पूर्व से कुछ अधिक समय राज्य-शासक की अवस्था में, बारह वर्ष छद्मस्थ अवस्था में और कुछ कम एक लाख पूर्व केवली पर्याय में बिताये। चिरकाल तक आपका धर्म-शासन जयपूर्वक चलता रहा. जिममें असंख्य प्रात्माओं ने अपना कल्याण किया । 000 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती सगर प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल में जम्बूद्वीपस्थ भरतक्षेत्र के प्रथम चक्रवर्ती भरत के पश्चात् द्वितीय चक्रवर्ती सगर हुए। ___ भगवान् अजितनाथ द्वारा तीर्थप्रवर्तन के कतिपय वर्षों पश्चात् महाराज सगर की प्रायुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ। इस हर्षप्रद प्रसंग के उपलक्ष्य में महाराज सगर के आदेश से सम्पूर्ण राज्य में आठ दिन तक बड़े हर्षोल्लास के साथ महोत्सव मनाया गया। चक्ररत्न को मिलाकर चक्रवर्ती सगर के यहां कुल चौदह रत्न उत्पन्न हुए, उनके नाम इस प्रकार हैं : (१) चक्ररत्न, (२) छत्ररत्न, (३) चर्मरत्न, (४) मणिरत्न, (५) काकिणी रत्न, (६) खड्गरत्न और (७) दण्डरत्न -ये सात रत्न तो एकेन्द्रिय थे । शेष (८) अश्वरत्न, (६) हस्तिरत्न, (१०) सेनापतिरत्न, (११) गाथापतिरत्न, (१२) पुरोहितरत्न, (१३) बढईरत्न और (१४) स्त्रीरत्न-ये सात रत्न पंचेन्द्रिय थे। सगर चक्रवर्ती ने भी भरत चक्रवर्ती के समान बत्तीस हजार वर्ष तक भरतक्षेत्र के ६ खण्डों की दिग्विजय कर सम्पूर्ण भरतक्षेत्र पर अपना एकच्छत्र शासन स्थापित किया । सगर के यहां निधियां उत्पन्न हुई। उन ६ निधियों के नाम इस प्रकार हैं : (१) नैसर्प महानिधि, (२) पाण्डुक महानिधि, (३) पिंगल महानिधि, (४) सर्वरत्न महानिधि, (५) महापद्म महानिधि, (६) काल महा निधि, (७) महाकाल निधि, (८) मारणवक महानिधि और (६) शंख महानिधि । चक्रवर्ती सगर की सेवा में, ३२ हजार मुकुटधर महाराजा, सदा उनकी प्राज्ञा का पालन करने के लिये तत्पर रहते थे। चक्रवर्ती सगर के अन्तःपुर में स्त्रीरत्न प्रमुख ६४ हजार रानियां थीं। महाराजाधिराज चक्रवर्ती सगर के सहस्रांशु, सहस्राक्ष, जह, सहस्रबाहु आदि ६० हजार पुत्र हुए। सुदीर्घकाल तक चक्रवर्ती षट्खण्ड के राज्य का सुखोपभोग करते रहे। प्राचार्य शीलांक के चौवन महापुरिस चरियम् और प्राचार्य हेमचन्द्र द्वारा रचित त्रिषष्टि शलाका पुरुप चरित्र में ऐसा उल्लेख है - "सहस्रांशु आदि सगर के ६० हजार पुत्र चक्रवर्ती सगर की आज्ञा प्राप्त कर सेनापतिरत्न, दण्डरत्न आदि रत्नों और एक बड़ी सेना के साथ भरतक्षेत्र के भ्रमरण के लिये प्रस्थित हा। अनेक स्थानों में भ्रमण करते हए जब वे अष्टापद पर्वत के पास Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती सगर प्राये तब उन्होंने अष्टापद पर जिन-मन्दिरों को देखा और उनकी सुरक्षा के लिये पर्वत के चारों ओर एक खाई खोदने का विचार किया। इन दोनों प्राचार्यों के उपरि उद्धत ग्रन्थों में उल्लेख है कि जहन प्रादि उन ६० हजार सगरपुत्रों ने भवनपतियों के भवन तक गहरी खाई खोद डाली । जह नकुमार ने दण्ड रत्न के प्रहार से गंगा नदी के एक तट को खोदकर गंगा के प्रवाह को उस खाई में प्रवाहित कर दिया और उस खाई को भर दिया । खाई का पानी भवनपतियों के भवनों में पहुंचने से वे रुष्ट हुए और नागकुमारों ने रोष वश उन ६० हजार सगरपुत्रों को दृष्टिविष से भस्मसात् कर डाला। इस प्रकार का कोई उल्लेख शास्त्रों में दष्टिगोचर नहीं होता । न भरत द्वारा निर्मित जिनमन्दिर का ही शास्त्रों में कहीं उल्लेख है। देवों द्वारा चैत्य अर्थात् स्तूप बनाने का उल्लेख जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में मिलता है। वह भी कृत्रिम होने के कारण संख्यात काल के पश्चात् नहीं रह सकता। अतः यह कथा विचारणीय प्रतीत होती है । संभव है, पुराणों में शताश्वमेधी की कामना करने वाले महाराज सगर के यज्ञाश्व को इन्द्र द्वारा पाताललोक में कपिल मनि के पास बांधने और सगरपुत्रों के वहां पहुंचकर कोलाहल करने से कपिल ऋषि द्वारा उन्हें भस्मसात करने की घटना से प्रभावित हो जैन प्राचार्यों ने ऐसी कथा प्रस्तुत की हो। संसार की उच्चतम कोटि की भौतिक शक्तियां भी कर्मों के दारुण, विपाक से किसी प्राणी की रक्षा नहीं कर सकती इस शाश्वत तथ्य का दिग्दर्शन उपयुक्त दोनों प्राचार्यों ने अपने उपरिलिखित ग्रन्थों में सगर चक्रवर्ती के अग्रेतर इतिवृत्त के माध्यम से करवाया है। सगर का इतिवृत्त वस्तुतः बड़ा ही वैराग्योत्पादक और शिक्षाप्रद है, अतः उसे यहां संक्षेप में दिया जा रहा है । अपने सभी पुत्रों के एक साथ मरण का अतीव दुःखद समाचार सुनकर छः खण्डों का एकच्छत्र अधिपति, चौदह रत्नों और ६ महानिधियों का स्वामी सगर चक्रवर्ती शोकसागर में निमग्न हो क्रमशः अपने चौदह रत्नों को आक्रोशपूर्ण उपालम्भ देते हुए अति दीन स्वर में असहाय अनाथ के समान विलाप करने लगा । उसने विलाप करते हुए कहा-ओ सेनापति रत्न ! रणांगरण में तुम्हारे सम्मुख कोई भी शत्रु, चाहे वह कितना हो महान् शक्तिशाली क्यों न रहा हो, क्षरण भर भी नहीं ठहर सकता था। पर मेरे प्राणप्रिय पुत्रों पर प्राय प्राणसंकट के समय तुम्हारा वह अप्रतिम पौरुष कहां चला गया ? प्रो पुरोहित रत्न! तुमने अनेक घोर अनिष्टों को समय-समय पर शान्त किया किन्तु तुम इस महा नाशकारी अरिष्ट को शान्त क्यों नहीं कर सके ? हे हस्तिरत्न ! तुम पर मुझे बड़ा विश्वास था, पर तुम भी मेरे पुत्रों की रक्षा करने में निष्क्रिय रहे । अरे! तुम नागराज होकर भी एक क्षुद्र नाग को वश में नहीं कर सके : Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [संवदन हाय, ! महाशोक ! मो वर्द कीरत्न ! तुम भी मेरे पुत्रों की रक्षा करने में असमर्थ रहे। हे पवन तुल्य वेगवाले मश्व रत्न! तुमने मेरे पुत्रों को अपनी पीठ पर बैठाकर उन नागकुमारों की पहुंच के बाहर सुरक्षित स्थान पर क्यों नहीं पहुंचा दिया? हे मणिरत्न! तुम तो सब प्रकार के विष के नाशक हो । तो फिर तुमने मेरे पुत्रों की नागकुमारों के विष से रक्षा क्यों नहीं की? प्रो काकिणी रत्न! तुमने नागकुमार के विष को नष्ट क्यों नहीं किया ? प्रो छत्ररत्न! तुम तो लाखों लोगों को प्राच्छादित कर उनकी सभी संकटों से रक्षा करने वाले हो। फिर तुमने अपनी छत्र छाया द्वारा मेरे पुत्रों की सुरक्षा क्यों नहीं की? हे खड्गरत्न! तुमने उस नागकुमार का सिर तत्काल ही क्यों नहीं काट डाला? अरे दण्डरत्न! तुम्हें तो मैं किन शब्दों में उपालम्भ दू, इस महान् अनर्थ का उद्भव ही तुम से ही हुअा है। हाय ! ओ चर्मरत्न ! तुमने नागकुमार को धरातल से निकलते ही अपने प्रावरण में बन्दी क्यों नहीं बना लिया ? भो अचिंत्य शक्तिसम्पन्न चक्ररत्न ! तुमने मेरे इंगित पर अनेक दुर्दान्त शत्रुओं के सिर कमल नालवत् काट गिराये थे। पृथ्वी के विवर से जिस समय नागकुमार निकले उसी समय तुमने मेरे प्राण प्रिय पुत्रों की रक्षार्थ उनके सिर क्यों नहीं काट डाले? संसार में चक्रवर्ती के एक-एक रत्न की शक्ति अचिन्त्य व अपरिमेय मानी गई है। पर तुम १३.रत्न मिलकर भी मेरे पुत्रों की रक्षा नहीं कर सके। इससे बढ़कर भौतिक ऋद्धि की, भौतिक शक्ति की, निस्सारता का, दयनीयता का और कोई उदाहरण नहीं हो सकता। अपनी दयनीय असहायावस्था के साथ-साथ इन भौतिक अनुपम शक्तियों की अकिंचनता का भी मुझे अपने जीवन में यह पहली ही बार बोध हुआ है । अब तक मैं अपने आप को षट्खण्डाधिपति समझता पा रहा था, वह मेरा दम्भ था। लोग भी मुझे षटखण्डाधिपति कहते हैं, यह भी वस्तुतः एक बड़ी विडम्बना है, भलावा है । तथ्य तो यह है कि मैं अपने परिवार का तो क्या, स्वयं अपना भी अधिपति नहीं हूं । वास्तव में यह संसार असार है। धोखे से भरा मायाजाल है । मानव का यौवन वस्तुतः पर्वत से निकली नदी के वेग के समान क्षणिक है । लक्ष्मी बादल की छायातुल्य चंचल और क्षणभंगुर है। जीवन जल के बदबदे के समान क्षण विध्वंसी और कुटुम्बी परिजनों का समागम, भोग, ऐश्वर्य आदि सब कुछ मायामय इन्द्रजाल के दृश्य के समान है, अवास्तविक एवं असत्य है । मैं व्यर्थ ही आज तक इस व्यामोह में फंसा रहा । मैंने अपने इस दुर्लभ मानव जीवन को इस निस्सार ऐश्वर्य के पीछे व्यर्थ ही खो दिया। जो समय बीत चुका है, उसका तो अब एक भी क्षण पुनः लौटकर नहीं आ सकता। अब तो जो जीवन अवशिष्ट रहा है, उसमें मुझे अपना प्रात्म-कल्याण कर अपने इस दुर्लभ मानव भव को कृतार्थ करना है। इस प्रकार संसार से विरक्त हो सगर चक्रवर्ती ने अपने पौत्र भगीरथ को Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती सगर १६७ राज्य सिंहासन पर आसीन किया और उन्होंने तीर्थंकर भगवान् अजितनाथ' के चरणों में श्रमण धर्म अंगीकार कर लिया। विशुद्ध संयम का पालन करते. हुए सगर मुनि ने अनेक प्रकार की उग्र तपश्चर्याएं की। तप और संयम की अग्नि में चार घाति कर्मों को मूलतः ध्वस्त कर उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया और अन्त में अघाति कर्मों को नष्ट कर अक्षय अव्याबाध शाश्वत सुखधाम निर्वाण प्राप्त किया। 00 १ (अ) त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र में भ० अजितनाथ के पास सगर चक्रवर्ती के दीक्षित होने का उल्लेख है। __ -त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व २, सर्ग ६, पृ० २५०-२५१, श्लोक सं. ६१६ से ६५१-- (ब) चउवनमहापुरिसचरियं में सुस्थित नामक प्राचार्य के पास सगर चक्रवर्ती के दीक्षित होने का उल्लेख है । यथाः"अप्पणा य मुरिणऊण संसारा सारतणं................."सुट्टियायरियसयासे कुमार सहगयमहासामंतेहिं सद्धि गहिया पीस्सेसकम्मरिणअरणभूया............. पवजा --चउवन म० पु० चरियं, पृ० ७१ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् श्री संभवनाथ भगवान् अजितनाथ के बहुत समय बाद तीसरे तीर्थंकर श्री संभवनाथ हुए। आपने राजा विपुलवाहन के भव में उच्च कररणी का बीज बोया जिससे तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया । पूर्वभव किसी समय क्षेमपुरी के राजा विपुलवाहन के राज्यकाल में भयंकर दुष्काल पड़ा । प्रजावत्सल राजा को इसकी बड़ी चिन्ता हुई । उसने देखा कि लोग भोजन के लिये तड़प रहे | करुणाशील नृपति इस भयंकर दृश्य को नहीं देख सका । उसने भंडारियों को प्राज्ञा दी कि राज्य के अन्न भण्डारों को खोल कर प्रजाजनों में बांट दिया जाय | इतना ही नहीं उसने संत और प्रभु भक्तों की भी नियमानुसार सुधि ली । वह साधु-साध्वियों को निर्दोष तथा प्राशुक आहार स्वयं देता और सज्जन एवं धर्मनिष्ठ जनों को अपने सामने खिला कर संतुष्ट करता । इस प्रकार निर्मल भाव से चतुविध संघ की सेवा करने के कारण उसने तीर्थंकर पद के योग्य शुभ कर्म उपार्जित कर लिये । एक बार संध्या के समय बादलों को बनते और बिखरते देखकर उसे संसार की नश्वरता का सही स्वरूप ध्यान में आया और मन में विरक्ति हो गई। प्राचार्य स्वयंप्रभ की सेवा में दीक्षित होकर उसने संयम धर्म की आराधना की और अन्त में समाधि मरण से काल कर नवम - कल्प- आनत' देवलोक में देव रूप से उत्पन्न हुआ । जन्म देवलोक से निकल कर उसी विपुलवाहन के जीव ने श्रावस्ती नगरी के महाराज जितारि के यहां पुत्र रूप में जन्म लिया। इनकी माता का नाम रानी सेनादेवी था । १ सतरिसय द्वार, द्वार १२, गा० ५५-५६ में सप्तम ग्रैवेयक और तिलोयपत्रत्ति में प्रोग्रैवेयक से च्यवन होने का उल्लेख है । २ तिलोयपन्नत्ति ( गा० ५२६ से ५४६ ) में सुसेना नाम दिया है। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामकरण] भगवान् श्री संभवनाथ . फाल्गुन शुक्ला अष्टमी को मृगशिर नक्षत्र में स्वर्ग से च्यवन कर जब आप गर्भ में आये तब माता ने चौदह प्रमुख शुभ स्वप्न देखे और महाराज जितारि के मुख से स्वप्नफल सुनकर परम प्रसन्न हुई । उचित आहार-विहार और मर्यादा के नव महीने तक गर्भ की प्रतिपालना कर मार्गशीर्ष शुक्ला चतुर्दशी को श्रद्धं रात्रि के समय मृगशिर नक्षत्र में माता ने सुखपूर्वक पुत्र रत्न को जन्म दिया । १६६ नामकररण आपके जन्म समय में सारे संसार में आनन्द - मंगल की लहर फैल गई और जब से प्रभु गर्भ में आये तब से देश में प्रभूत मात्रा में साम्ब एवं मूंग आदि धान्य की उत्पत्ति हुई । चारों ओर देश की भूमि धान्य से लहलहा उठी, अत: माता-पिता ने श्रापका नाम संभवनाथ रखा ।' विवाह धौर राज्य बाल्यकाल पूर्ण कर जब संभवनाथ युवां हुए तो महाराज जितारि ने योग्य कन्याओं से उनका पाणिग्रहण संस्कार करवाया और पुत्र को राज्य देकर स्वयं प्रव्रजित हो गये । संभवनाथ पिता के आग्रह से सिंहासनारूढ़ तो हुए पर मन में भोगों से विरक्त रहे । उन्होंने संसार के विषयों को विषमिश्रित पक्वान्न की तरह माना । वे विचार करने लगे - " जैसे विषमिश्रित पक्वान्न खाने में मधुर होकर भी प्राणहारी होते हैं, वैसे ही संसार के भोग तत्काल मधुर और लुभावने होकर भी शुभ प्रात्मगुणों की घात करने वाले हैं। बहुत लज्जा की बात है कि मानव अनन्त पुण्य से प्राप्त इस मनुष्य जन्म को यों ही प्रारम्भ-परिग्रह और विषयकषाय के सेवन में गंवा रहे हैं। अमृत का उपयोग लोग पैरों को धोने में कर रहे हैं। मुझे चाहिये कि संसार को सम्यक् बोध देने के लिये मैं स्वयं त्यागमार्ग में अग्रणी होकर जन-समाज को प्रेरणा प्रदान करू ।" दीक्षा आपने भोगावली कर्मों को चुकाने के लिये चवालीस लाख पूर्व मौर चार पूर्वांग काल तक राज्यपद का उपभोग किया, फिर स्वयं विरक्त हो गये, क्योंकि स्वयं - बुद्ध होने के कारण तीर्थंकरों को किसी दूसरे के उपदेश की प्रावश्यकता नहीं होती । फिर भी मर्यादा के अनुसार लोकांन्तिक देवों ने आकर १ गब्भत्थे जिरिंगदे णिहारणाइयं बहुयं संभूयं, जायम्मिय रजस्स सयलस्रू वि सुहं संभूयं ति कलिकरण संभवाहिहाणं कुरणति सामिणो ॥ चौ० महापुरिस प०, पृ० ७२ । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास धर्म परिवार प्रार्थना की और प्रभु ने भी वर्षीदान देकर प्रव्रज्या ग्रहण करने की भावना प्रकट की। वर्षीदान के पश्चात् जब भगवान दीक्षित होने को पालकी में बैठकर सहस्राम्रवन में आये तब उनके त्याग से प्रभावित होकर अन्य एक हजार राजा भी उन्हीं के साथ घर से निकल पड़े और मंगसिर सुदी पूरिणमा को मृगशिर नक्षत्र में पंच-मुष्टिक लुचन कर व सम्पूर्ण पाप कर्मों का परित्याग कर प्रभु संयम-धर्म में दीक्षित हो गये। आपके परम उच्च त्याग से देव, दानव और मानव सभी बड़े प्रभावित थे, क्योंकि आप चक्षुः, श्रोत्र आदि पांच इन्द्रियों पर और क्रोध, मान, माया. एवं लोभ रूप चार कषायों पर पूर्ण विजय प्राप्त कर मुडित हुए । दीक्षित होते ही आपको मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न हुमा और जन-जन के मन पर आपकी दीक्षा का बड़ा प्रभाव रहा। विहार और पारणा जिस समय आपने दीक्षा ग्रहण की, उस समय आपको निर्जल षष्ट-भक्त का तप था । दीक्षा के दूसरे दिन प्रभु सावत्थी नगरी में पधारे और सुरेन्द्र राजा के यहां प्रथम पारणा किया। फिर तप करते हए विभिन्न ग्राम नगरों में विचरते रहे। केवलज्ञान चौदह वर्षों की छद्मस्थकालीन कठोर तप:साधना से अापने शुक्ल ध्यान की अग्नि में मोहनीय कर्म को सर्वथा भस्मीभूत कर डाला, फिर क्षीगणमोह गुणस्थान के अन्त में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्त राय कर्मों का यगपद क्षय कर कातिक कृष्णा पंचमी को श्रावस्ती नगरी में मगशिर नक्षत्र में केवलज्ञान, केवलदर्शन की प्राप्ति की। केवलज्ञान होने के पश्चात् धर्म-देशना देकर अापने साधु, माध्वी, धावक और श्राविका रूप चतुर्विध संघ की स्थापना की और फिर पाप भाव-तीर्थकर कहलाये। धर्म परिवार अापके मुख्य शिष्य चारुजी हुए । आपका धर्म-संघ निम्न प्रकार था :गरगधर - एक सौ दो (१०२) केवली - पन्द्रह हजार (१५,०००) मनःपर्यवज्ञानी - बारह हजार एक सौ पचास (१२,१५०) Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिनिर्वाण] भषवान् श्री संभवनाथ १७१ अवधि ज्ञानी नौ हजार छः सौ (६,६००) चौदह पूर्वधारी दो हजार एक सौ पचास (२,१५०) वैक्रिय लब्धिधारी उन्नीस हजार आठ सौ (१६,८००) वादी बारह हजार (१२,०००) साधु दो लाख (२,००,०००) साध्वी तीन लाख छत्तीस हजार (३,३६,०००) श्रावक दो लाख तिरानवे हजार (२,६३,०००) श्राविका छः लाख छत्तीस हजार (६,३६,०००) परिनिर्वाण चार पूर्वांग कम एक लाख पूर्व वर्षों तक केवली पर्याय में रहकर आप चैत्र शुक्ला छठ को मृगशिर नक्षत्र में अनशन पूर्वक शुक्ल ध्यान के अन्तिम चरण में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं निवृत्त हो गये। आपने पन्द्रह लाख पूर्व वर्ष कुमार अवस्था में, चार पूर्वांग सहित चवालीस लोख वर्ष पूर्व राज्य-शासक अवस्था में और कुछ कम एक लाख पूर्व वर्ष दीक्षा अवस्था में बिताये । इस प्रकार सब मिलाकर साठ लाख पूर्व वर्षों का आपने आयुष्य पाया। 000 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् श्री अभिनन्दन पूर्वभव भगवान् संभवनाथ के पश्चात् चतुर्थ तीर्थंकर श्री अभिनन्दन हुए। इन्होंने पूर्वभव में महाबल' राजा के जन्म में आचार्य विमलचन्द्र के पास दीक्षित होकर तीर्थंकर गोत्र के बीस स्थानों की आराधना की और अन्त में आप समाधिभाव के साथ काल-धर्म प्राप्त कर विजय विमान में अनुत्तर देव हुए। जन्म विजय विमान से च्यवन कर महाबल का जीव अयोध्या नगरी में महाराज संवर के यहां तीर्थंकर रूप से उत्पन्न हुआ। वैशाख शुक्ला चतुर्थी को पुष्य नक्षत्र में आपका विजय विमान से च्यवन हुआ। महारानी सिद्धार्था ने गर्भ धारण किया और उसी रात्रि को १४ मंगलकारी शुभ स्वप्न देखे। . गर्भकाल पूर्ण होने पर माघ शुक्ला द्वितीया को पुष्य नक्षत्र के योग में माता सिद्धार्था ने सुखपूर्वक पुत्ररत्न को जन्म दिया। आपके जन्म के समय नगर और देश में ही नहीं वरन् सम्पूर्ण विश्व में सुख-शान्ति एवं प्रानन्द की लहरें फैल गई। देवों और देवपतियों ने आपका जन्म महोत्सव मनाया। नामकरण - जबसे प्रभु माता के गर्भ में आये, सर्वत्र प्रसन्नता छा गई और जन-जन के मन में हर्ष की लहरें हिलोरें लेने लगीं । अतः माता-पिता और परिजनों ने मिलकर इनका नाम अभिनन्दन रखा। विवाह प्रोर राज्य बाल-लीला के पश्चात् जब प्रभु ने युवावस्था में प्रवेश किया तब महाराज संवर ने योग्य कन्याओं के साथ इनका पाणिग्रहण करवाया । कुछ समय १ समवयांग सूत्र में महाबल के स्थान पर धर्मसिंह नाम दिया हुआ है। २ प्राचार्य हेमचन्द्र ने पुष्य नक्षत्र के स्थान पर अभीचि को कल्याण नक्षत्र माना है । [त्रि. श. पर्व, २ अ. २, श्लो. ५०-६२] ३ हरिवंशपुराण (गा० १६६-१८०) में माघ शुक्ला १२ लिखा है। ४ भगवम्मि गब्भत्थे कुलं रज्जं णगरं अभिणंदइ, त्ति तेण जणणि जणएहिं वियारिऊण गुणनिप्पण्णं अभिरणंदरणो ति णाम कयं । - [च० महापुरिस च०, पृ० ७५] Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ भगवान् श्री अभिनंदन पश्चात् राजा ने पौद्गलिक सुखों से विरक्त हो निवृत्ति-मार्ग ग्रहण करने की भावना से अभिनन्दन कुमार का राज्यपद पर अभिषेक किया और स्वयं मुनिधर्म की दीक्षा लेकर प्रात्म-साधना में लग गये । दीक्षा और पारणा प्रायः देखा जाता है कि साधारण मनुष्य तभी तक शान्त और निर्मल बना रह पाता है जब तक कि उसके सामने विकारी साधन न पाने पावें, किन्तु सम्राट का सम्मानपूर्ण पद पाकर भी अभिनन्दन स्वामी जरा भी हर्षातिरेक से विचलित नहीं हुए। उन्होंने यह प्रमाणित कर दिखाया कि महापुरुष विकार के हेतुओं में रहकर भी विकृत नहीं होते। प्रजाजनों को कर्तव्य-पालन और नीति-धर्म की शिक्षा देते हए साढे छत्तीस लाख पूर्व वर्षों तक उत्तम प्रकार से राज्य का संचालन कर प्रभ ने दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा प्रकट की। लोकान्तिक देवों की प्रार्थना और वर्षीदान देने के पश्चात् माघ शुक्ला द्वादशी को अभीचि-अभिजित नक्षत्र के योग में एक हजार राजाओं के साथ प्रभु ने सम्पूर्ण पापकर्मों का त्याग किया और वे पंच मुष्टिक लोच कर सिद्ध की साक्षी से संयम स्वीकार कर संसार से विमुख हो मुनि बन गये । उस समय यापको बेले' की तपस्या थी। दीक्षा के दूसरे दिन आप साकेतपुर पधारे और वहां के महाराज इन्द्रदत्त के यहां प्रथम पारणा किया । उस समय देवों ने पंच-दिव्य प्रकट कर 'अहो दानं, अहो दानं' का दिव्य घोष किया । RAMERA केवलज्ञान दीक्षा ग्रहण कर वर्षों तक उग्र तपस्या करते हुए प्रभु ग्रामानुग्राम विचरते रहे । ममत्वभाव-रहित संयम-धर्म की साधना करते हुए अठारह वर्षों तक पाप छद्मस्थ-चर्या से विचरे और फिर प्रभु ने अयोध्या में शुक्ल ध्यान की प्रबल अग्नि में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह और अन्तराय रूप कर्म के इन्धनों को जलाकर संपूर्ण घाती कर्मों का क्षय किया और पौष शुक्ला चतुर्दशी को अभिजित नक्षत्र में केवलज्ञान की उपलब्धि की। केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर आपने देव और मनुष्यों की सभा में धर्म-देशना दी तथा धर्माधर्म का भेद समझा कर लोगों को कल्याण का पथ दिखाया। धर्मतीर्थ की स्थापना करने से आप भाव-तीर्थकर कहलाए। १ तिलोय प. (गा० ६४४-६६७) में तेले की तपस्या का उल्लेख है। २ (क) प्राव. नि. व सत्तरिसय प्रकरण (ख) तिलोय प. में कार्तिक शु. ५ का उल्लेख है। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास धर्म परिवार आपका धर्म परिवार निम्न संख्या में था : गरण एवं गणधर केवली मनः पर्यवज्ञानी अवधि ज्ञानी चौदह पूर्वधारी वैक्रिय लब्धिधारी वादी साधु साध्वी श्रावक श्राविका - - नौ हजार आठ सौ ( 8,500 ) एक हजार पांच सौ (१,५०० ) उन्नीस हजार (१६,००० ) God's • ग्यारह हजार (११,००० ) - तीन लाख (३,००,००० ) - wh एक सो सोलह ( ११६ ) चौदह हजार (१४,००० ) ग्यारह हजार छः सौ (११,६०० ) - छः लाख तीस हजार ( ६,३०,००० ) दो लाख अठ्यासी हजार ( २,८८,००० ) पांच लाख सत्ताईस हजार (५,२७,००० ) परिनिर्वाण पचास लाख पूर्व वर्षों की पूर्ण प्रायु में आपने साढ़े बारह लाख पूर्व तक कुमार अवस्था, आठ पूर्वांग सहित साढ़े छत्तीस लाख पूर्व तक राज्यपद और आठ पूर्वांग कम एक लाख पूर्व तक दीक्षा पर्याय का पालन किया । फिर अन्त में जीवन काल की समाप्ति निकट समझ कर वैशाख शुक्ला अष्टमी को ' पुष्य नक्षत्र के योग में आपने एक मास के अनशन से एक हजार मुनियों के साथ सकल कर्म क्षय कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होकर निर्वारण-पद प्राप्त किया | आपके परम पावन उपदेशों से असंख्य ग्रात्माओं ने अपना कल्याणसाधन किया । १ वैशाखस्य सिताष्टम्यां पुष्यस्थे रजनीकरे । मम मुनिमहापुनरागत्यगात् पदम् । त्रिषष्टि श०पु०च०, पर्व ३, सर्ग ३, श्लो. १७२ (क) सत्तरिसयद्वार, द्वा. १४७, गा. ३०६ मे ३१० (ख) प्रवचनसारोद्धार, हरिवंश और तिलोय पन्नत्ति में वैशाख शु. ७ निर्वाण तिथि का उल्लेख है । 1 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् श्री सुमतिनाथ चौथे तीर्थकर भगवान् अभिनन्दन के पश्चात् नव लाख करोड़ सागर जैसी सुदीर्घावधि के अनन्तर पंचम तीर्थंकर श्री सुमतिनाथ हुए । भ० सुमतिनाथ का पूर्वभव जम्बूद्वीप के पुष्कलावती विजय में सुसमृद्ध एवं सुखी प्रजाजनों से परिपूर्ण शंखपुर नामक एक परम सुन्दर नगर था। वहां विजयसेन नामक राजा राज्य करता था। महाराजा विजयसेन की पट्ट-राजमहिषी का नाम सुदर्शना था। महादेवी सुलक्षणा एवं अपनी अन्य महारानियों के साथ सभी प्रकार के ऐहिक सुखोपभोग करता हुआ राजा विजयसेन न्यायपूर्वक प्रजा का पालन कर रहा था। एक दिन किसी लीलोत्सव के अवसर पर शंखपुर के सभी वर्गों के नागरिक आमोद-प्रमोद के लिये उद्यान में गये। पालकी पर प्रारूढ़ महारानी सुदर्शना ने उस उद्यान में आठ वधूत्रों से परिवता एक महिला को उत्सव का आनन्द लेते हुए देखा। महारानी ने कंचुकी से पूछा--"यह महिला कौन है, किसकी पत्नी है और इसके साथ ये आठ सुन्दरियां कौन हैं ?" __ कंचकी ने तत्काल उस महिला का पूर्ण परिचय प्राप्त कर निवेदन किया--"महादेवी ! यह महिला इसी नगर के श्रेष्ठी नन्दिषेण की पत्नी है। इमका नाम सुलक्षणा है । इसके दो पुत्र हैं, जिनका चार-चार रूपसी कन्याओं के साथ विवाह किया गया। यह श्रेष्ठि पत्नी सुलक्षणा अपनी उन्हीं आठ पुत्रवधुनों के साथ प्रानन्दमग्न हो सभी भांति के सुखों का उपभोग कर रही है।" यह सुनकर निरपत्या महारानी सुदर्शना के अन्तर्मन में संतति का प्रभाव शूल की भांति खटकने लगा। उसे अपने प्रति बड़ी प्रात्मग्लानि हुई कि वह एक भी संतान की माता न बन सकी। वह मन ही मन अति खिन्न हो सोचने लगी--"उस महिला का जन्म, जीवन, यौवन, धन-वैभव, ऐश्वर्य सभी कुछ निरर्थक है, जिसने सभी प्रकार के सांसारिक सुखों के मारभूत सुतरत्न को जन्म नहीं दिया । उस स्त्री के मानव तन धारण करने और जीवित रहने में कोई सार नहीं, जिसकी गोद को उसका लिधसरित पूत्र सुशोभित नहीं करता। वे माताएं धन्य हैं, जो पुत्र को जन्म देती हैं, उसे स्तन्यपान कराती और हर्षातिरेक से उसके मुख चन्द्र का चुम्बन कर अंक में भर उसे अपने हृदय से लगा लेती हैं। उन पुण्यशालिनी पुत्रवती महिलाओं के लिये स्वर्गसुख तृणवत् तुच्छ है जो Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भ० सुमतिनाथ अपने हृदय के हार पुत्र की तुतलाती हुई मृदु वाणी का अपने कन्धों से पान कर सदा आनन्दविभोर रहती हैं।" इस प्रकार चिन्तन करती हुई महारानी प्रथाह शोकसागर में निमग्न हो गई । वनमहोत्सव उसे परमपीड़ाकारी और श्मशान तुल्य प्रतीत होने लगा । उसने तत्काल कंचुकी को राजप्रासाद की ओर लौटने का आदेश दिया । १७६ • राजप्रासाद के अपने कक्ष में प्रविष्ट होते ही महारानी पलंग पर लेट कर दीर्घ निश्वास लेती हुई फूट फूट कर रोने लगी। अपनी स्वामिनी की यह दशा देख दासियां शोकाकुल एवं भयभीत हो गई। एक दासी ने तत्काल महाराज विजयसेन को महारानी की उस प्रदृष्ट पूर्व स्थिति से अवगत कराया । महाराज विजयसेन यह सूचना पाते ही महारानी के महल में आये । महारानी के अश्रुपूर्ण लाल लोचनयुगल और मलिन मुख को देखकर राजा ने संवेदना मिश्रित स्नेहपूर्ण स्वर में पूछा - " प्रारणाधिके राजराजेश्वरी ! तुम्हारे इस प्रकार शोकसंतप्त होने का कारण क्या है ? क्या किसी ने तुम्हारी प्रज्ञा का उल्लंघन किया है ? क्या कराल काल का कवल बनने के इच्छुक किसी अभागे ने तुम्हारे लिये कुछ अप्रीतिकर कहा अथवा किया है ? शीघ्र बताओ, मैं तुम्हें क्षण भर के लिये भी शोकातुरावस्था में नहीं देख सकता ।" महारानी सुदर्शना ने कहा - "आर्यपुत्र ! आपकी छत्रछाया में मेरी आज्ञा का उल्लंघन करने का कोई साहस नहीं कर सकता । देव ! मैं तो अपने आन्तरिक दुःख से ही उद्विग्न हूं। मुझे अपने इस निरर्थक जीवन से ही ग्लानि हो गई है कि अभी तक मैं एक पुत्र की मां नहीं बन सकी । प्राणनाथ ! प्राप मुझ पर पूर्णतः प्रसन्न हैं तथापि यदि औषधोपचार, विद्या, मन्त्रादि के उपाय करने पर भी मेरे सन्तान नहीं हुई तो मैं अपने इस निरर्थक शरीर का निश्चित रूप से त्याग कर दूंगी।" महाराज विजयसेन ने महारानी सुदर्शना को मधुर वचनों से प्राश्वस्त करते हुए कहा कि वे सब प्रकार के उचित औषधोपचारादि विविध उपायों के करने में किसी प्रकार की कोर-कसर नहीं रखेंगे, जिनसे कि महारानी का मनोरथ शीघ्र ही पूर्ण हो । एक दिन महाराज विजयसेन ने बेले की तपस्या कर कुलदेवी की प्राराधना की । तप और निष्ठापूर्ण आराधना के प्रताप से कुलदेवी ने राजा विजयसेन को स्वप्न में दर्शन दे कहा- "नरेन्द्र उद्विग्न होने की आवश्यकता नहीं । शीघ्र ही तुम्हें एक महाप्रतापी पुत्र की प्राप्ति होगी ।" महाराज विजयसेन आश्वस्त हुए। अपने पति से यह सुसंवाद सुनकर महारानी सुदर्शना बड़ी ही प्रमुदित हुई । उसके हर्ष का पारावार न रहा । - Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का पूर्वभव ] भगवान् श्री सुमतिनाथ स्वल्प समय पश्चात् ही रात्रि के अन्तिम प्रहर में सुखप्रसुप्ता महादेवी सुदर्शना ने एक स्वप्न देखा कि एक केसरिकिशोर उसके मुख में प्रविष्ट हो गया है । भयभीत हो महारानी उठी और उसने तत्काल अपने पति के शयनकक्ष में जा उन्हें उस स्वप्नदर्शन का वृत्तान्त सुनाया । स्वप्नदर्शन विषयक महारानी का कथन सुनकर महाराज विजयसेन ने हर्षानुभव करते हुए कहा - "महादेवी ! कुलदेवी के कथनानुसार तुम्हें सिंह के समान पराक्रमी एवं प्रतापी पुत्ररत्न की प्राप्ति होने वाली है । गर्भकाल पूर्ण होने पर महारानी सुदर्शना ने सर्व सुलक्षण सम्पन्न एवं परम सुन्दर तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया और अपने जीवन को सफल समझा । राज्य भर में उत्सवों की धूम मच गई। बन्दियों को कारागारों से मुक्त किया गया । महाराज विजयसेन ने स्थान-स्थान पर दानशालाएं, भोजनशालाएं खोल दीं और बड़ी उदारतापूर्वक स्वजन- परिजन पुरजन श्रर्थीजनों को समुचित सम्मान - दानादि से सन्तुष्ट किया । नामकरण - महोत्सव के आयोजन में अपने सम्बन्धियों, परिजनों एवं पौरजनों आदि को ग्रामन्त्रित -सम्मानित कर राजकुमार का नाम पुरुषसिंह रखा । राजसी ठाट-बाट से राजकुमार का लालन-पालन किया गया । शिक्षायोग्य वय में राजकुमार को सुयोग्य शिक्षाविदों से सभी प्रकार की विद्यानों एवं कलाओं की शिक्षा दिलाई गई । राजकुमारोचित सभी विद्यानों में निष्णात हो राजकुमार पुरुषसिंह ने युवावस्था में पदार्पण किया । माता-पिता ने बड़े ही हर्षोल्लासपूर्वक राजकुमार पुरुषसिंह का रूपलावण्यवती अनिन्द्य सौन्दर्य सम्पन्ना आठ सुलक्षणी राजकन्याओं के साथ विवाह किया । सर्वांग सुन्दर सुस्वस्थ व्यक्तित्व का धनी अतुल बलशाली राजकुमार पुरुषसिंह अपनी आठ युवराशियों के साथ विविध ऐहिक भोगोपभोगों का सुखोपभोग करता हुआ प्रमोद-प्रमोदपूर्ण सुखमय जीवन व्यतीत करने लगा । विशिष्ट विज्ञान, कुल, शील, रूप, विनयादि सर्व गुरणों से सम्पन्न एवं शस्त्रास्त्रादि समस्त विद्याओं में कुशल राजकुमार पुरुषसिंह सभी पुरजनों व परिजनों के मन को मुग्ध एवं नयनों को आनन्दित करने वाला था । उसका सुन्दर स्वरूप कामदेव के समान इतना सम्मोहक था कि जिस ओर से वह निकलता, वहाँ आबालवृद्ध प्रजाजनों के समूह उसे अपलक दृष्टि से देखते ही रह जाते थे । संक्षेप में कहा जाय तो वह सब ही को प्रारणाधिक प्रिय था । १७७ कालान्तर में एक दिन प्रमोदार्थ शंखपुर के बहिस्थ एक सुरम्य कुमार ने मुनिवृन्द से परिवृत विनयानन्द पर बैठे देखा । श्राचार्य श्री को देखते ही राजकुमार पुरुषसिंह मनोविनोद एवं ग्रामोदउद्यान में गया । उस उद्यान में राजनामक आचार्य को एक सुरम्य स्थान राजकुमार पुरुषसिंह का हृदय हर्षाति Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भ० सुमतिनाथ रेक से प्रफुल्लित, लोचनयुगल हर्षाश्रुओं से प्रपूरित और रोम-रोम पुलकित हो उठा । साश्चर्य उसने सोचा-"यह महापुरुष कौन हैं, जो परिपूर्ण यौवनकाल में विश्वविजयी कामदेव पर विजय प्राप्त कर श्रमण बन गये हैं। तो चलू मैं इनसे धर्म के विषय में कुछ विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करू।" यह विचार कर राजकुमार आचार्यश्री की सेवा में उपस्थित हुआ। आचार्यश्री और श्रमणवर्ग को वन्दन कर वह उनके समक्ष बैठ गया। कुछ क्षणों तक प्राचार्यश्री के दर्शनों से अपने अन्तर्मन को आप्यायित करने के पश्चात् पुरुषसिंह सविनय, सांजलि शीश झुका बोले-"भगवन् ! यह तो मैं आपके महान् त्याग से ही समझ गया कि यह संसार निस्सार है । संसार के सुख नीरस हैं, कर्मों का परिपाक अतीव विषम है, तथापि यह बताने की कृपा कीजिये कि संसार सागर से पार उतारने में कौनसा धर्म सक्षम है ?" आचार्यश्री विनयानन्द ने राजकुमार का प्रश्न सुनकर कहा-"सौम्य ! तुम धन्य हो कि इस प्रकार की रूप-यौवन सम्पदा के स्वामी होते हुए भी तुम्हारे अन्तर्मन में पूर्वाजित पुण्य के प्रभाव से धर्म के प्रति रुचि जागृत हुई है। दान, शील, तप और भावना के भेद से धर्म चार प्रकार का है । दान भी चार प्रकार का है-ज्ञानदान, अभयदान, धर्मोपग्रहदान और अनुकम्पादान । ज्ञानदान से जीव बन्ध, मोक्ष और सकल पदार्थों का ज्ञान प्राप्त कर हेय का परित्याग एवं उपादेय का ग्रहरण-आचरण करते हैं। अधिक क्या कहा जाय, जीव इहलोक और परलोक में सुखों का भागी ज्ञान से ही होता है। ज्ञानदान वस्तुतः ज्ञान का दान करने वाले और ग्रहण करने वाले दोनों ही के लिये सौख्यप्रदायी है।" दूसरा दान है-अभयदान । ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात ही जीवों की अभयदान की ओर प्रवृत्ति होती है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं वनस्पति काय के एकेन्द्रिय जीवों और विकलेन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय जीवों की मन, वचन, तथा काया से रक्षा करना-उनकी हिंसा न करना, उन्हें भयरहित स्थिति प्रदान करना-जीवनदान देना-यह अभयदान है। अभयदान वास्तव में महादान है। क्योंकि सभी जीव, चाहे वे कितने ही दुःखी क्यों न हों, जीना चाहते हैं, उन्हें जीवन ही सर्वाधिक प्रिय है। अत: प्रत्येक मुमुक्षु एवं प्रत्येक विवेकी का यह सबसे पहला परम आवश्यक कर्तव्य है कि वह प्राणिमात्र को अभयदान प्रदान करे। तीसरा दान है.-धर्मोपग्रह दान । तप, संयम में निरत साधक निश्चिन्तता और दृढ़तापूर्वक निर्बाध रूप से निरन्तर धर्माराधन में प्रवत्त होते रहें-इसके लिए उनको आठ मदस्थानों से रहित-दायकशुद्ध, ग्राहकशुद्ध, कालशुद्ध और भावशुद्ध प्राशुक अशन, पान, औषध, भेषज्य, वस्त्र, पात्र, पाठ, फलक आदि धर्म उपकरणों का दान देना वस्तुतः निर्जरा आदि महान् फलों का देने वाला Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का पूर्वभव भ० श्री सुमतिनाथ १७६ . है । इस प्रकार प्रगाढ़ श्रद्धा-भक्तिपूर्वक एकान्ततः कर्मों की निर्जरा की भावना से विशुद्ध संयम की पालना करने वाले तपस्वी श्रमणों को धर्म में सहायक उपकरण अर्थात् उपग्रहों का किया हुआ दान उपजाऊ भूमि में बोये गये बीज के समान अनेक अचिन्त्य फल देने वाला है । दायकशुद्धदान का अर्थ है दानदाता आठ मदस्थानों से दूर रह कर केवल निर्जरार्थ दान दें। ग्राहकशुद्ध-दान का अर्थ है-दान लेने वाला साधक पंच महाव्रतधारी, प्राणिमात्र का सच्चा हितैषी, परीषहोपसर्गों से कभी विचलित न होने वाला, परिग्रहत्यागी और अप्रतिहत विहारी हो । कालशुद्ध-दान वह है--जिस प्रकार समय पर हुई वर्षा खेती के लिए परम लाभकारी है, उसी प्रकार श्रमणों के प्रशन-पान ग्रहण करने के अवसर पर उन्हें धर्मोपग्रह प्रदान किये जायें । भावशुद्ध दान वह है कि दानदाता दान देते समय अपने आपको अन्तर्मन से कृतार्थ समझे । मैं तपस्वी श्रमणों को दान दूं, इस प्रकार को भावना पाते ही जिसकी रोमावलि हर्ष से पुलकित हो उठे, दान देते समय उसके हर्ष का पारावार न हो और दान देने के पश्चात् भी उसका मन हर्षसागर में हिलोरें लेता रहे । नवकोटि-विशुद्ध दान देते समय दानदाता सोचे कि मेरे पूर्वोपाजित प्रबल पुण्यों के प्रताप से आज मैं साधुनों को अशन-पानादि प्रदान कर कृतकृत्य हो गया हूं। चौथा दान है. अनुकम्पा-दान । अभाव-अभियोगों से प्रपीड़ित लोगों का उनकी आवश्यकतानुसार हितमिश्रित अनुकम्पा की भावना से प्रेरित हो अशन, पान, वस्त्र, द्रविण आदि का दान करना अनुकम्पा-दान है। यह चतुर्विध धर्म के प्रथम भेद चार प्रकार के दान का स्वरूप है। धर्म का दूसरा भेद है-शील । पंच महाव्रतों का पालन, क्षमा, मृदुता, सरलता, सन्तोष, मन को वश में करना, प्रतिपल-प्रतिक्षण अप्रमत्त भाव से सजग रह कर ज्ञानाराधन करना, प्राणिमात्र को मित्र समझना और अपने सानुकूल अथवा अननुकूल संसार के सभी कार्यकलापों में मध्यस्थ भाव से निरीह, निस्संग, निलिप्त रहना-यह धर्म का द्वितीय प्रकार शीलधर्म है। धर्म का तीसरा भेद है-तपधर्म । तप दो प्रकार का है-बाह्य तप और आभ्यन्तर तप । अनशन, अवमोदर्य आदि बाह्य तप हैं और स्वाध्याय, ध्यान, इन्द्रिय-दमन आदि आभ्यन्तर तप । जहां तक सम्भव हो, इन दोनों प्रकार की तपश्चर्याओं का उत्तरोत्तर अधिकाधिक आराधन करना तप-धर्म है। जिस प्रकार तरण-काष्ठ आदि के पर्वततुल्य समूहों को भी अग्नि अनायास ही भस्म कर देती है, उसी प्रकार बाह्य एवं प्राभ्यन्तर तपश्चर्या की अग्नि जन्म-जन्मान्तरों, भव-भवान्तरों में संचित कर्मों के विपुल से विपुलतर समूहों को पूर्णरूपेण भस्मसात् तथा मूलतः नष्ट कर कर्म-कलुषित प्रात्माओं को सच्चिदानन्दघन स्वरूप प्रदान कर देती है। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् सुमतिनाथ चौथे प्रकार का धर्म है-भावनाधर्म । भावनाएँ बारह प्रकार की हैं; अतः भावना-धर्म बारह प्रकार का है । यथा : १. अनित्य भावना-यौवन, धन, सम्पत्ति, ऐश्वर्य, ऐहिक सुखोपभोग, पुत्र-पौत्र-कलत्र आदि परिजन, यह शरीर और जीवन आदि आदि-ये संसार के समग्र कार्यकलाप अनित्य हैं--क्षणविध्वंसी हैं, मृगमरीचिका तुल्य, इन्द्रजालवत्, स्वप्न-दर्शन समान नितान्त असत्य, मायास्वरूप, भ्रान्ति अथवा व्यामोहपूर्ण हैं । संसार में एक भी वस्तु ऐसी नहीं, जो चिरस्थायिनी हो । ये सब मुझ से भिन्न हैं, मैं इन सबसे भिन्न सच्चिदानन्द स्वरूप विशुद्ध चैतन्य हूं। इन अनित्य जड़ तत्वों के संग से, अज्ञानवश इन्हें अपना समझ कर मैं ध्रौव्यधर्मा शाश्वत होते हुए भी इन अनित्य जड़ तत्वों की भांति उत्पाद-व्ययधर्मा बन कर जन्म-जरा-मृत्यु की विकराल चक्की में अनादि काल से पिसता चला आ रहा हूं । इन क्षरणविध्वंसी अनित्य एवं जड़ पदार्थों के साथ मुझ अविनाशी ध्रौव्यवर्मा, नित्य शाश्वत, विशुद्ध चैतन्य का संग वस्तुत: मेरा व्यामोह मात्र है। अब इन उत्पत्ति-विनाशधर्मा जड़ पदार्थों के साथ, इस अनित्य जगत् के साथ मैं कभी किसी भी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं रखूगा । यह अनित्य भावना नाम की पहली भावना है। २. अशरण भावना-मैं सच्चिदानन्द ज्ञानघन स्वरूप चैतन्य होते हुए भी मदारी के मर्कट की भांति कर्मरज्जु से आबद्ध हो अशरण बना हुआ असहाय, अनाथ की भांति अनादि काल से अनन्तानन्त दुस्सह दारुण दुःख भोगता हुआ भवाटवी में भटकता आ रहा हूं। तात, मात, भाई, बन्धु, स्त्री, पुत्र, स्वजन, स्नेही आदि में से कोई भी मुझे शरण देने वाला नहीं है, कोई मेरा दुखों से त्राण करने वाला नहीं है। केवल वीतराग जिनेन्द्र प्रभु ही मुझे शरण देने वाले हैं। अत: मैं इसी क्षण से जिनेन्द्र देव की-जिनेन्द्र प्ररूपित धर्म की, प्राणिमात्र के हितैषी, पंच महाव्रतधारी गरुदेव की-जिनशासन की सर्वात्मना सर्वभावेन अविचल आस्था और दृढ़ विश्वास के साथ शरण ग्रहण करता हूं । अहर्निश प्रतिपल, प्रतिक्षण इस प्रकार की भावना अन्तर्मन से भाना अशरण भावना नाम की दूसरी भावना है। ३. एकत्व भावना--मैं एकाकी हूं। मेरा कोई संगी साथी नहीं । मेरे द्वारा उपार्जित कर्मों का फल केवल एकाकी मुझे ही भोगना पड़ेगा। कोई भी स्वजन अथवा परिजन उसमें भागीदार बनने वाला नहीं है । क्योंकि मेरे सिवा और कोई मेरा है ही नहीं । मैं तो अनादि से एकाकी ही हूं और एकाकी ही रहंगा । प्रतिपल अन्तर्मन से इस प्रकार की भावना भाना एकत्व भावना नामक तीसरी भावना है। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का पूर्वभव भ० श्री सुमतिनाथ १५१ ___४. अन्यत्व भावना-इस संसार में मैं किसी का नहीं और न कोई मेरा ही है। माता, पिता, भाई, स्वजन, परिजन, मित्र, स्नेही आदि सुझे अपना कहते हैं और मैं भी इन्हें अपना ही समझता आया हूं। पर वस्तुतः ये मेरे नहीं, मुझ से अन्य हैं । मैं भी इनका नहीं। क्योंकि ये अन्य हैं और मैं भी अन्य हं। ये मुझ से भिन्न हैं और मैं इनसे भिन्न हूं । अन्यत्व में अपनत्व की, ममत्व की बुद्धि वस्तुतः असत्य है, भ्रान्ति और व्यामोह मात्र है। यह है चौथी अन्यत्व भावना। ५. अशुचि भावना-मैं कितना मूढ़ हूं कि अपनी इस अपवित्र-अशुचिभण्डार देह पर गर्व करता है, फूला नहीं समाता । अस्थि-चर्म-रुधिर-मांस-मज्जा का ढांचा यह मेरा शरीर मल-मूत्र, लार-कफ, पित्त आदि अशुचियों से भरा पड़ा है। इसमें पवित्रता एवं रमणीयता कहां? इस प्रकार की भावना अशुचि भावना नामक पांचवीं भावना है। ६. असार भावना-यह संसार नितान्त निस्सार-सर्वथा प्रसार है । कहीं किसी भी सांसारिक कार्यकलाप में कोई किंचिन्मात्र भी तो सार नहीं, सब कुछ तृणवत् त्याज्य, प्रसार है । यह है 'असार भावना' नामक छठी भावना। ७. पाश्रव भावना-हाय ! मैं अनन्त संसार में अनन्तानन्त काल तक भटकने की ओर-छोर विहीन अपार सामग्री एकत्रित कर रहा हूं। सब भोर से खुले मेरे व्रत-नियम विहीन अथाह आत्मनद में महानदियों के प्रत्युग्र-प्रति विशाल जल प्रवाह से भी अति भयंकर अतिविशाल प्रवाह एवं अति तीव्र वेग वाले कर्माश्रव (कर्मों की महा नदियों के असंख्य समूह) गिर रहे हैं। यदि मैंने व्रत नियमादि के द्वारा आत्मनद में अहर्निश प्रतिपल-प्रतिक्षरण गिरते हुए कर्मप्रवाह के इन आश्रव द्वारों को नहीं रोका तो मैं अनन्तानन्त काल तक इस भयावहा भवाटवी में भटकता रहूंगा, अनन्त अपार, अथाह भवसागर में डूबा रहूंगा । यह है सातवीं "पाश्रव भावना।" । ८. संवर भावना--प्रात्मनद में अहर्निश, प्रतिक्षण महानदियों के पूर की तरह गिरते हुए कर्माश्रवों का निरोध संवर द्वारा ही किया जा सकता है। अतः मुझे नियमित रूप से व्रत, नियम, प्रत्याख्यान महाव्रतादि ग्रहण तथा कषायों के अधिकाधिक निग्रह द्वारा द्रव्य संवर और भाव संवर, दोनों ही प्रकार के संवर से इन पाश्रवों को रोकना चाहिये । नियमित रूप से व्रत, नियम, महाव्रत आदि ग्रहण कर के ही मैं इन पाश्रवों से अपनी प्रात्मा का संवरण तथा संरक्षण कर सकता हूं । अन्तर्मन से इस प्रकार की भावना भाने का नाम पाठवीं "संवर भावना" है । ६. निर्जरा भावना-मैं अनादि काल से कर्मशत्रुमों द्वारा जकड़ा हुमा Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [लोक का स्वरूप] दुस्सह्य दारुण दुःख भोगता चला पा रहा हूं। मेरे घर के बाह्य एवं प्राभ्यन्तर माग में इन कर्म-चोरों ने पूर्ण अधिकार जमा रखा है । मुझे मन-वचन-कायविशुद्धिपूर्वक तपश्चरण, पांच समितियों और तीन गुप्तियों की समीचीनतया प्राराधना कर इन कर्मशत्रुओं की निर्जरा करनी है, इन कर्मचोरों को नष्ट करना है। कर्मों की पूर्णरूपेण जब तक निर्जरा नहीं करूंगा, जब तक कर्मों का समूल नाश नहीं करूंगा तब तक इन अनन्त दुःखों से मेरा छुटकारा होना असम्भव है । दुःखों से सदा सर्वदा के लिये विमुक्त होने हेतु मैं. भावशुद्धि एवं तपश्चरणादि द्वारा कर्मों की निर्जरा करने का पूरा प्रयास करूगा । इस प्रकार को भावना भाने का नाम है नवीं भावना "निर्जरा भावना।" १०. लोक-स्वरूप भावना-अनन्त अलोकाकाश के मध्यभाग में अवस्थित यह लोक सभी ओर से क्रमशः घनोदधि, घनवात और तनवात नामक तीन प्रकार की वायु के वलयों से वेष्टित एवं इन्हीं तीन प्रकार की वायु के आधार पर अवस्थित है। लोक का स्वरूप सम्पूर्ण लोक की ऊंचाई चौदह राज प्रमाण है । लाक का आकार दोनों पैरों को फैला कर कमर पर हाथ रख कर खड़े पुरुष के प्राकार के समान है । सम्पूर्ण लोक मुख्यतः अधोलोक, मध्यलोक (तिर्थालोक) और ऊर्वलोक इन तीन विभागों में विभक्त किया जाता है । म क के सबसे निचले भाग की चौड़ाई (विस्तार) देशोन सात राज परि, रण का है। इससे ऊपर इसका विस्तार अनुक्रमशः घटते-घटते कमर के भाग अर्थात् मध्य भाग में एक राजू रह गया है । मध्य भाग से ऊपर इसका विस्तार क्रमश: बढ़ते-बढ़ते दोनों हाथों की कुहनियों के स्थान पर पांच राजु परिमारण का है । दोनों कुहनियों के ऊपर पुनः अनुक्रमशः घटते-घटते मस्तक के स्थान अर्थात् लोक के अग्र भाग पर इसका विस्तार एक राजू परिमारण रह गया है । प्रधोलोक अधोलोक की ऊंचाई सात राजू से कुछ अधिक है । अधोलोक का प्राकार पयंक अथवा वेत्रासन के समान है। इस वेत्रासनाकार अधोलोक में मध्यलोक के नीचे क्रमशः रत्नप्रभा प्रादि गोत्र वाली धम्मा, वंशा, शिला, अंजना, अरिष्टा, मघा और माधवई-ये ७ पवियां हैं। इन सातों पस्वियों में पहली पृथ्वी घम्मा (रत्नप्रभा गोत्र) की मोटाई १ लाख ८० हजार योजन, दूसरी शर्करा प्रभा की १ लाख ३२ हजार योजन, तीसरी बालुकांप्रभा की एक लाख २८ हजार योजन, चौथी पंकप्रभा पृथ्वी की मोटाई १ लाख २४ हजार योजन, पांचवीं घूम्रप्रभा पृथ्वी की मोटाई १ लाख २० हजार योजन, छठी तमः प्रमा Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अधोलोक] भ० श्री सुमतिनाथ १८३ पृथ्वी की मोटाई १ लाख १६ हजार योजन और सातवीं महातमः प्रभा पृथ्वी की मोटाई १ लाख ८ हजार योजन है । ये सातों पृथ्वियां अपने से पहली पृथ्वी से अनुक्रमशः असंख्यात हजार योजन नीचे हैं। रत्नप्रभा पृथ्वी.की १ लाख ८० हजार योजन की कुल मोटाई में से १ हजार योजन ऊपर और एक हजार योजन नीचे की मोटाई को छोड़ शेष ? लाख ७८ हजार योजन के बीच के क्षेत्र के ऊपरी भाग में व्यन्तर एवं भवनपति देवों के निवास हैं और नीचे के भाग में नारकों के नरकावास हैं। इन सातों पृथ्वियों में अनुक्रमशः १३, ११, ६, ७, ५, ३, १-यों कुल मिला कर ४६ पाथड़े हैं। इस प्रकार ४६ पाथड़ों में विभक्त उपरिलिखित ७ पवियों में अनुक्रमशः ३० लाख, २५ लाख, १५ लाख, १० लाख, ३ लाख, ६६६६५ और ५--यों कुल मिला कर ८४ लाख नरकावास हैं, जहां अनेक प्रकार के घोर पाप करने वाले महादम्भी जीव नारकीय के रूप में उत्पन्न होते हैं। उन नरकावासों में सदा-सर्वकाल असंख्यात नारकीय जीव क्षेत्रजन्य, परस्परजन्य असंख्यात प्रकार के परम दुस्सह अति दारुण दु:ख असंख्यात काल तक भोगते हैं। उन नारकीय जीवों को अपने असंख्यात काल के लम्बे जीवन में केवल घोर दुःख ही दुःख हैं। कभी पलक झपकने जितने समय के लिये भी उन्हें चैन नहीं मिलता । नारक भूमियों के कण-कण में नारकीय जीवों के अंग-प्रत्यंग और रोम-रोम में इतनी भयंकर दुस्सह दुर्गन्ध भरी हुई है कि उसकी उपमा देने के लिये तिर्छालोक में कोई वस्तु नहीं । वहां की वायु मध्यलोक की भीषण से भीषण भट्टी को आग की अपेक्षा असंख्यात गुना अधिक तापकारिणी है। नरक की वैतरणी का जल यहां के तेज से तेज तेजाब की अपेक्षा अत्यधिक दाहक होता है, जिससे नारकीयों के शरीर फट जाते हैं। वहां के असिपत्र वृक्षों के पत्तों से नारक जीवों के शरीर, अंग-प्रत्यंग कट जाते हैं। क्रूरकर्मा नारक जीव एक दूसरे को तलवारों से काटते, करवत से चीरते, कुल्हाड़े से छिन्न-भिन्न करते, बसोले से छीलते, भालों से बींधते, सूली पर लटकाते, भाड़ में भूनते और खोलते हुए तैल से भरी कड़ाही में तलते हैं । वे नारक जीव सिंह, व्याघ्र गीध आदि का रूप बना परस्पर लड़ते, कराल दंष्ट्रालों से चीर-फाड़ करते, वज्रमयी चोंचों से एक दूसरे की अांखें, प्रांत निकाल-निकाल कर एक-दूसरे को घोर यातनाएं पहँचाते हैं। छेदन-भेदन से उन्हें दुस्सह पीड़ा होती है पर पारद के बिखरे करणों के समान उनके कटे हुए अंग-प्रत्यंग पुनः जुड़ जाते हैं । इन पीड़ाओं से वे मरते नहीं, आयु पूर्ण होने पर ही मरते हैं। तीसरी नरक तक परमाधामी असुर वहां के नारकियों को परस्पर उकसाते, लड़ाते और दारुग्ण दुःख देते हैं । इन सात नारक भूमियों में असंख्यात काल Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ जैन धर्म का नैतिक इतिहास [मध्यलोक] पर्यन्त नारकीय जीव जो घोर दुःख भोगते हैं, उन दुखों का पूरा वर्णन किया. जाना जिह्वा अथवा लेखनी द्वारा सम्भव नहीं।' मध्यलोक मध्यलोक (ति लोक) का प्राकार झालर के समान गोल है। मध्यलोक की ऊँचाई ६०० योजन ऊपर और १०० योजन नीचे-इस प्रकार कुल मिला कर १८०० योजन है । मध्यलोक के बीच में एक लाख योजन विस्तार वाला जम्बूद्वीप है । जम्बूद्वीप के चारों ओर दो लाख योजन विस्तार वाला वलयाकार लवण समुद्र, उसके चारों ओर चार लाख योजन विस्तार का धातकी खण्ड द्वीप, उसके चारों ओर ८ लाख योजन विस्तार वाला कालोदधि समुद्र है । कालोदधि समुद्र के चारों ओर वलयाकार सोलह लाख योजन वाला पुष्करद्वीप है । पुष्कर द्वीप के बीच में, इस द्वीप को बराबर दो भागों में विभक्त करने वाला गोलाकार मानुषोत्तर पर्वत है । पुष्कर द्वीप से आगे उत्तरोत्तर द्विगणित आकार वाले अनुक्रमशः पुष्करोद समुद्र, वरुणवर दीप प्रादि प्रसंख्यात द्वीप और समुद्र हैं । इन सब के अन्त में असंख्यात योजन विस्तार वाला स्वयंभूरमण समुद्र है । मनुष्य केवल जम्बूद्वीप, धातकी खण्ड द्वीप और पुष्कराई द्वीप में मानुषोत्तर. पर्वत की परिधि के अन्तर्वर्ती क्षेत्र में ही रहते हैं । मानुषोत्तर पर्वत के आगे मनुष्य नहीं रहते, केवल तिथंच पशु-पक्षी मादि ही रहते हैं। तिर्थालोक के मध्यभाग में जम्बूद्वीप है और जम्बूद्वीप के मध्यभाग में मेरु पर्वत है, जो मूल में १० हजार योजन विस्तार वाला और एक लाख योजन ऊंचा है। मेरु पर्वत की दक्षिण दिशा से उत्तर दिशा में पूर्व से पश्चिम तक लम्बाई वाले हिमवन्त, महाहिमवन्त, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी नामक ६ वर्षधर पर्वत तथा भरत, हेमवत, हरि देवकुरु (मेरु के दक्षिण में), पूर्व महाविदेह, पश्चिम महा विदेह (मेर के पूर्व में पूर्व महाविदेह और पश्चिम में पश्चिम महाविदेह), उत्तरकुरु (मेरु के उत्तर में), रम्यक, हैरण्यवत और शिखरी पर्वत के उत्तर में ऐरवत-ये १० क्षेत्र हैं। इन दस क्षेत्रों में से पूर्व तथा पश्चिम दोनों महाविदेह, भरत और ऐरवत ये क्षेत्र कर्मभूमियां हैं और शेष सब प्रकर्म भूमियां अर्थात् भोग भमियां । कर्म भमियों के मनुष्य असि, मसि, कृषि प्रादि कर्मों से अपनी आजीविका चलाते हैं और यहां के मनुष्य एवं तिथंच स्वयं द्वारा किये गये पाप अथवा पुण्य के अनुसार मृत्यु के पश्चात्, देव, मनुष्य, तियंच एवं नरक इन चारों गतियों में उत्पन्न होते हैं। महाविदेह, भरत और ऐरवत क्षेत्रों के मनुष्य ही कठोर. आध्यात्मिक साधना द्वारा प्राठों कर्मों का क्षय कर मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं । धातकी खण्ड द्वीप तथा पुष्कराध द्वीप-इन दोनों में से प्रत्येक द्वीप १ मच्छिरिणमीलियमेत्तं, एत्थि सुहं दुक्खमेव अणु णरए णेरइयाणं, महोणिसिं पच्चमा गाणं । । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ [मध्यलोक] भगवान् श्री सुमतिनाथ में इन भोग भूमियों और कर्म भूमियों की संख्या जम्बूद्वीप की इन भूमियों की अपेक्षा दुगुनी-दुगुनी है । इस प्रकार ढाई द्वीप में कुल मिला कर १५ कर्म भूमियां हैं। पांच महाविदेह क्षेत्रों में काल सदा-सर्वदा अवस्थित अर्थात् एक सा रहता है। वहां सदा दुःखम्-सुखम् नामक चतुर्थ प्रारक जैसी स्थिति रहती है। पांच भरत. और पांच ऐरवत इन १० कर्म भूमियों में प्रवसपिणी काल और उत्सपिणीकाल के रूप में कालचक्र चलता रहता है । पूर्ण कालचक्र २० कोटाकोटि सागरोपम काल का होता है, जिसमें दश कोटाकोटि सागरोपम का अवसर्पिणी काल और दश कोटाकोटि सागरोपम का ही उत्सपिणी काल होता है । अवसर्पिणी काल में ४ कोटाकोटि सागरोपम का सुखमासुखम् नामक प्रथम प्रारक, ३ कोटाकोटि सागरोपम का सुखम् नामक द्वितीय पारक, २ कोटाकोटि सागरोपम का सुखम्दुःखम् नामक तीसरा आरक, ४२ हजार वर्ष कम एक सागर का दु:खम्-सूखम नामक चतुर्थ प्रारक, २१ हजार वर्ष का दुःखम् नामक पंचम प्रारक और २१ हजार वर्ष का ही दुःखमा-दुःखम् नामक छठा आरक-ये छः प्रारक होते हैं । दश कोटाकोटि सागरावधि के उत्सपिणी काल में ये ही छः प्रारक उल्टे क्रम से होते हैं। जम्बद्वीप के महाविदेह क्षेत्र में जघन्य (कम से कम) ४ तीर्थंकर, घातको खण्ड द्वीप के दोनों महाविदेह क्षेत्रों में ८ और पुष्कराद्ध द्वीप के दोनों महाविदेह क्षेत्रों में ८, इस प्रकार ढाई द्वीप में कुल मिला कर जघन्य २० विहरमान तीर्थंकर समकालीन अवश्यमेव सदा ही विद्यमान रहते हैं। प्रत्येक महाविदेह क्षेत्र में बत्तीस-बत्तीस विजय हैं। इस प्रकार ढाई द्वीप के पांचों महाविदेह क्षेत्रों के विजयों की संख्या कुल मिला कर १६० है । जिस समय इन सभी विजयों में एक-एक तीर्थंकर होते हैं उस समय केवल पंच महाविदेह क्षेत्रों में तीर्थंकरों की संख्या १६० हो जाती है । तीर्थंकरों की यह संख्या जिस समय ढाई द्वीप के पांच भरत और पांच ऐरवत क्षेत्रों में अवसपिणी काल के तृतीय प्रारक के अन्तिम भाग एवं चतुर्थ प्रारक में तथा उत्सपिणी काल के तीसरे प्रारक में तथा चतुर्थ प्रारक के प्रारम्भिक काल में इन दशों क्षेत्रों की दशों चौबीसियों के अनुक्रमशः प्रथम से ले कर चौबीसवें तीर्थंकर उत्पन्न होते हैं, उस समय ढाई द्वीप की इन १५ कर्मभूमियों में तीर्थंकरों की उत्कृष्ट संख्या समकाल में १७० हो जाती है । इस दृष्टि से ढाई द्वीप में एक ही समय में तीर्थंकरों की जघन्य संख्या २० और उत्कृष्ट संख्या १७० मानी गयी है। ढाई द्वीप में जो भोग भूमियां हैं, उनमें से देवकुरु एवं उत्तरकुरु में सदा सर्वदा सुखम्-सुखम् नामक प्रथम प्रारक जैसी, हरिवर्ष एवं रम्यक्वर्ष क्षेत्रों में सुखम् नामक द्वितीय प्रारक जैसी तथा हेमवत एवं हिरण्यवत् क्षेत्रों में सदाकाल सुखम्-दुःखम् नामक तृतीय पारक जैसी स्थिति रहती है। कर्म भूमि और अकर्म भूमि के इन मनुष्य क्षेत्रों के अतिरिक्त ५६ अन्तर्दीपों में भी मनुष्य रहते हैं । चुल्ल हिमवन्त और शिखरी पर्वत इन दोनों पर्वतों Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [मध्यलोक] के नैऋत्य आदि चारों कोणों में जो दाढ़े हैं, उनमें से प्रत्येक दाढ़ पर सात-सात अन्तर्वीप हैं । इस प्रकार इन दोनों पवंतों की पाठ दाढों पर कुल मिला कर ५६ अन्तर्वीप हैं । इन दोनों पर्वतों के पहले ८ अन्तर्वीप इन पर्वतों की जगती से तीन सौ योजन दूर लवण समुद्र में हैं । प्रथम अष्टक से ४०० योजन आगे दूसरा अन्तर्वीपाष्टक, उससे आगे ५०० योजन पर तीसरा, तीसरे से ६०० योजन आगे चौथा, उससे ७०० योजन आगे पाँचवां, उससे ८०० योजन आगे छठा और छठे अष्टक से ६०० योजन आगे इन ५६ अन्तर्वीपों का सातवां अर्थात् अन्तिम अष्टक है । इन छप्पन अन्तीपों के मनष्य तथा तिर्यंच यौगलिक होते हैं और कल्पवृक्षों से अपना जीवन निर्वाह करते हैं । इन ५६ अन्तर्वीपों में सदा-सर्वदा सुखम्-दुःखम् नामक तृतीय श्रारक के उत्तराद्धं जैसी स्थिति रहती है । इन अन्तर्वीपों के मनुष्यों का देहमान ८०० धनुष और स्त्रियों का देहमान ८०० धनुष से कुछ कम होता है । इनके शरीर में ६४ पसलियां होती हैं और ये योगलिक अपने संतति युगल का ७६ दिवस तक पालन करने के पश्चात् काल कर भवनपति अथवा वाणव्यन्तर देवों में उत्पन्न होते हैं। मध्यलोक की ऊँचाई जम्बद्वीप के समतल भाग से १०० योजन ऊपर तक है । मध्यलोक के इस उपरितन भाग में अर्थात् ७६० योजन की ऊँचाई से ६०० योजन की ऊँचाई तक ज्योतिर्मण्डल अथवा ज्योतिषी लोक है। ११० योजन की ऊँचाई वाले इस ज्योतिर्लोक में चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारक ये पांच प्रकार के ज्योतिषी देवों के विमान हैं । इस ज्योतिष लोक का विस्तार लोक की चारों दिशाओं एवं चारों विदिशाओं में मेरु पर्वत के चारों ओर ११२१ योजन छोड़कर लोक के अन्तिम समुद्र स्वयम्भूरमरण समुद्र के अन्तिम कूल से ११२१ योजन पहले तक है। ६०० योजन की ऊँचाई और स्वयम्भूरमरण समुद्र के अन्तिम तट से ११२१ योजन पूर्व तक विस्तार वाले इस मध्यलोक के आकाश में ७६० योजन की ऊँचाई पर सर्वप्रथम तारों के विमान हैं । तारों से १० योजन ऊपर सूर्य के, सूर्य से ८० योजन की ऊँचाई पर चन्द्र के, चन्द्र से ४ योजन ऊपर नक्षत्रों के, नक्षत्रों से चार योजन ऊपर बुध के, बुध से ३ योजन ऊपर शुक्र के, शुक्र से ३ योजन ऊपर बृहस्पति के, उससे ३ योजन ऊपर मंगल के, मंगल से ३ योजन ऊपर शनि के विमान हैं । पाँच जाति के ज्योतिषी देवो के केवल ढाई द्वीपवर्ती विमान ही गतिशील है। ढाई द्वीप से बाहर शेष असंख्य योजन विस्तृत क्षेत्र के असंख्य ज्योतिषी विमान गतिशील नहीं, अपितु स्थिर हैं । अर्ध्व लोक समतल भूमि से ६०० योजन तक की ऊँचाई वाले मध्यलोक से ऊपर सात राजू से कुछ अधिक ऊँचाई वाले ऊर्ध्वलोक में बारह देवलोक, ६ अवेयक और ५ अनुत्तर विमान हैं । बारह देवलोकों में कल्पवासी देव रहते हैं । इन Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ऊर्ध्व लोक] भ० श्री सुमतिनाथ १८७ देवों के इन्द्र, सामानिक, त्रायविंश, पारिषद, आत्मरक्षक, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, भाभियोगिक और किल्विषी ये दश विभाग होते हैं । इसी कारण इन बारह देवलोकों को १२ कल्प के नाम से भी अभिहित किया जाता है । केवल पहले के दो देवलोकों में ही देवियां उत्पन्न होती हैं शेष में नहीं । प्रथम और द्वितीय कल्प में उत्पन्न होने वाली देवियां दो प्रकार की होती हैं- एक तो परिग्रहीता और दूसरी अपरिग्रहीता । अपरिग्रहीता देवियां ऊपर के प्रांठवें स्वर्ग तक जाती हैं । प्रथम और दूसरे स्वर्ग की परिग्रहीता देवियां परिणीता कुलीन मानव स्त्रियों के समान अपने-अपने दाम्पत्य जीवन में उन्हीं देवों के साथ दाम्पत्य जीवन का सुखोपभोग करती हैं, जिन देवों की वे परिग्रहीता देवियां हैं। प्रथम और दूसरे स्वर्ग के देव परिग्रहीता और कतिपय अपरिग्रहीता दोनों प्रकार की देवियों के साथ विषय सुख का रसास्वादन करते हुए काया से इन देवियों का उपभोग करते हैं । अतः प्रथम के इन सौधर्म एवं ईशान दोनों. कल्पों के देवों को काय परिचारक देव कहा गया है । तोसरे सनत्कुमार एवं चौथे माहेन्द्र कल्प के देव प्रथम तथा द्वितीय कल्प की अपरिग्रहीता देवियों का स्पर्श मात्र से सेवन करते हैं, अत: तीसरे और चौथे कल्प के देवों को स्पर्श परिचारक देव कहा गया है । पाँचवें ब्रह्मलोंक और छठे लान्तक कल्प, के देव प्रथम तथा द्वितीय कल्प की अपरिग्रहीता देवियों का रूप मात्र देख कर ही अपनी कामवासना की तृप्ति कर लेते हैं, अत: पांचवें और छठे देवलोक के देवों को रूपपरिचारक देव कहा गया है। सातवें सहस्रार और आठवें महाशुक्र कल्प के देव प्रथम एवं द्वितीय कल्प की अपरिग्रहीता देवियों का, उनके शब्दों (गीतसंभाषण) मात्र से सेवन करते हैं, अतः सातवें और पाठवें कल्प के देवों को शब्दपरिचारक देव कहा गया है । प्रानत, प्राणत, आरण और अच्यूत-क्रमश: नवें, दशवें, ग्यारहवें और बारहवें--इन चार उपरितन कल्पों के देव अपरिग्रहीता देवियों का मन मात्र से चिन्तन कर अपनी विषय वासना की तप्ति कर लेते हैं, अतः मानत आदि ऊपर के चारों कल्पों के देवों को मन परिचारक देव कहा गया है।' जम्बद्वीप के मध्यवर्ती मेरु पर्वत से दक्षिण की ओर ऊध्र्वलोक में तारागण, सूर्य, चन्द्र, ग्रह और नक्षत्रात्मक ज्योतिषी मण्डल से अनेक कोटानकोटि योजन ऊपर अर्द्ध चन्द्राकार प्रथम सौधर्म कल्प और मेरु के उत्तरवर्ती ऊर्ध्वलोक में १ दोसु कप्पेसु देवा कायपरियारगा पणत्ता तं जहा-सौहम्मे चेक ईसाणे पेव । दोसु कप्पेसु देवा फासपरियारगा पण्णत्ता तं जहा-सणंकुमारे चेव माहिंदे व । दोसु कप्पेसु देवा रूवपरियारगा पण्णत्ता तं जहा-बंगलोए व लंतए चेव । दोसु कप्पेसु देवा सहपरियारगा पण्णत्ता तं जहा-महासुक्के चेव सहस्सारे बेव। (टीका) पानतादिषु चतुर्यु कल्पेषु मनः परिचारका देवा भवन्तीति बक्तम्यम् । -स्थानांग. ठाणा २ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ऊर्ध्व लोक सौधर्मकल्प के समान ऊँचाई पर ईशान कल्प नामक द्वितीय कल्प संस्थित है। इन दोनों अर्द्ध चन्द्राकार कल्पों का आकार परस्पर मिलाने से वलयाकार बन गया है। सौधर्म कल्प में दक्षिणार्द्ध लोकपति शक और ईशान कल्प में उत्तरार्द्ध लोकपति ईशानेन्द्र अपने सामानिक, वात्रिंश, पारिषद, आत्मरक्षक, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक आभियोगिक और किल्विषी देवों तथा अग्रमहिषियों एवं विशाल देवी परिवार के साथ रहते हैं । इन प्रथम दो कल्पों से कोटानुकोटि योजन ऊपर, सौधर्म कल्प के ऊपर अर्द्धचन्द्राकार सनत्कुमार नामक तीसरा कल्प और ईशानकल्प के ऊपर अर्द्धचन्द्राकार माहेन्द्र नामक चोथा कल्प है। तीसरे और चौथे कल्प से अनेक कोटानुकोटि योजन ऊपर ब्रह्मलोक नामक पाँचवां कल्प है। इसमें ब्रह्मेन्द्र नामक इन्द्र अपने विशाल देव परिवार के साथ रहता है। ब्रह्मलोक के अरिष्ट नामक विमान तक जो आठ कृष्ण राजियां आई हुई हैं, उनके आठ अवकाशान्तरों में स्थित अचि, अचिमाली, वैरोचन, (प्रभंकर, शुभंकर), चन्द्राभ, सुराभ, शुक्राभ, सुप्रतिष्ठाभ और रिष्टाभ नामक आठ लोकान्तिक विमानों में क्रमशः सारस्वत, आदित्य, वरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध, प्राग्नेय और रिष्ट जाति के लोकान्तिक देव रहते हैं। ये लोकान्तिक देव महाज्ञानी और एक भवावतारी होते हैं। ये लोकान्तिक देव तीर्थंकरों द्वारा दीक्षा ग्रहण करने का विचार किये जाने पर अपने जीताचार के अनुसार उन्हें दीक्षार्थ प्रार्थना करने उनकी सेवा में उपस्थित होते हैं। ये लोकान्तिक देवों के विमान जिन आठ कृष्णराजियों के अवकाशान्त रालों में अवस्थित हैं, वे कृष्णराजियां एक प्रदेश की श्रेणी वाली तमस्काय हैं । ति - लोक में असंख्यात द्वीप-समुद्रों के पश्चात् जो अरुणोदय समुद्र है उससे पहले के अरुणवरद्वीप की वेदिका के बहिरंग भाग से ४२ लाख योजन दूर अरुणोदय सागर के पानी के ऊपर के भाग से तमस्काय का प्रारम्भ हुआ है । अरुणोदय सागर के जल से १७२१ योजन ऊपर उठ कर ऊपर की ओर उत्तरोत्तर फैलती हुई ये प्रष्ट कृष्णराजियां ब्रह्मकल्प नामक पांचवें देवलोक के रिष्ट विमान तक पहुंच कर पूर्ण हुई हैं। ब्रह्मलोक नामक पांचवें कल्प के अनेक कोटानकोटि योजन ऊपर छठा लान्तक नामक कल्प, उससे अनेक कोटानुकोटि योजन ऊपर सातवां सहस्रार नामक कल्प और उससे कोटानकोटि योजन ऊपर महाशक्र नामक पाठवाँ कल्प है। इन कल्पों में से प्रत्येक कल्प में एक-एक इन्द्र है, जो इन कल्पों के देवों का स्वामी है। महाशुक्र नामक पाठवें कल्प के अनेक कोटानकोटि योजन ऊपर पानत और प्राणत नामक नवें और दशवें कल्प हैं। इन दोनों स्वर्गों का स्वामी प्रानत Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ऊर्ध्व लोक] भ० श्री सुमतिनाथ १८६ प्राणतेन्द्र प्राणत नामक स्वर्ग में रहता है । ये दोनों कल्प सौधर्म और ईशान कल्प के समान समभाग ऊँचाई पर अवस्थित हैं । इन दोनों में से प्रत्येक का आकार अर्द्ध चन्द्र के समान और दोनों को मिला कर वलयाकार है । प्रानत एवं प्राणत कल्पों से अनेक कोटानुकोटि योजन ऊपर पारण नामक ११वां और अच्युत नामक १२वां स्वर्ग है । ये दोनों कल्प भी अर्द्ध चन्द्राकार हैं और दोनों अर्द्धचन्द्राकारों को मिला कर इन दोनों का सम्मिलित आकार वलय के तुल्य बन गया है । इन दोनों कल्पों का स्वामी भी एक ही इन्द्र है जिसे अच्युतेन्द्र के नाम से अभिहित किया जाता है । पारण एवं अच्युत कल्प से अनेक कोटानुकोटि योजन ऊपर लोक के ग्रीवा स्थान में भद्र, सुभद्र, सुजात, सौमनस, प्रियदर्शन, सुदर्शन, अमोह (अमोघ), सुप्रबुद्ध और यशोधर नामक ६ ग्रैवेयक विमानप्रस्तर हैं। नौ ग्रेवेयकों के निवासी सभी देव कल्पातीत अर्थात् अहमिन्द्र हैं । ____नौ ग्रैवेयक विमान प्रस्तरों से बहुत ऊपर पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और ऊर्ध्व-इन पांच दिशाओं में विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध नामक पांच अनुत्तर महाविमान हैं। इन पांचों अनुत्तर महाविमानों के देवों की उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागरोपम होती है और वे सभी देव अहमिन्द्रकल्पातीत, सम्यग्दष्टि और एक भवावतारी होते हैं । प्रथम कल्प से लेकर अनत्तर विमान तक के देवों के बल, वीर्य, प्रोज, तेज, ऋद्धि, कान्ति, ऐश्वर्य, आयु आदि में उत्तरोत्तर अधिकाधिक वृद्धि होती गई है। सर्वार्थसिद्ध विमान से १२ योजन ऊँचाई पर मनुष्यलोक के ठीक ऊपर ऊर्ध्व लोक के अन्त में पैंतालीस लाख योजन, विस्तार वाली गोलाकार ईषत्प्राग्भारा नाम की पृथ्वी है । यह पृथ्वी मध्यभाग में ८ योजन मोटी और चारों ओर अनुक्रमशः घटते-घटते अन्त में मक्षिका की पंखुड़ी से भी पतली रह गई है । इसका प्राकार चांदी के छत्र के समान है । उस ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी की परिधि १,४२,३०,२४६ योजन है । इस पृथ्वी का सम्पूर्ण भूमिभाग अनुपम एवं लोक के समस्त शेष भाग की अपेक्षा परम रमणीय हैं । स्थानांग सूत्र में इस पथ्वी के ईषत, ईषत्प्राग्भारा, तन्वी, तन्वीतन्वीतरा, सिद्धि, सिद्धालया, मुक्ति और मुक्तालया ये आठ नाम और प्रज्ञापना सूत्र में इन आठ नामों के अतिरिक्त लोकाग्र, लोकाग्रस्तूपिका, लोकाग्रप्रतिवाहिनी और सर्वप्राणि-भूत-जीव-सत्वसुखावहा ये १२ नाम बताये गये हैं । संसार में परिभ्रमण कराने वाले पाठों कर्मों को समूल नष्ट कर जन्म-जरा मृत्यु से विमुक्त प्रात्माएं सिद्धगति को प्राप्त कर इस सिद्धि, सिद्धालया, मुक्ति अथवा मुक्तालया नाम की ईषत्प्रारभारा पृथ्वी पर निवास करतीं और अनन्तकाल तक अनन्त, अक्षय अव्याबाध निरुपम सुख का उपभोग करती हैं। इस सिद्धालय में पहुंचने के पश्चात् कोई आत्मा पुनः Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ ऊर्ध्वं लोक ] कभी संसार में नहीं लौटता । सिद्धों को जो अनन्त, अक्षय-अव्याबाध सुख प्राप्त है, उसको प्रकट करने के लिए संसार में कोई उपमा तक नहीं है । त्रिकालवर्ती सब मनुष्यों एवं सब देवों के सम्पूर्ण सुखों को यदि एकत्रित किया जाय तो वे देव - मनुष्यों के सब सुख सिद्धात्मा के सुख के अनन्तानन्तवें भाग की तुलना में भी नगण्य ही ठहरेंगे । यदि सिद्धों के सुख को पुंजीभूत किया जाय तो उसको समाने में सम्पूर्ण श्राकाश भी अपर्याप्त ही रहेगा। मुक्ति को छोड़ शेष समग्र लोक असंख्य प्रकार के दारुरण दुःखों से ओतप्रोत है । संसारी जीव अनादि काल से चौरासी लाख जीव योनियों में भटकते हुए घोरातिघोर दुस्सह दुःख भोगते चले आ रहे हैं और जब तक कोई भी जीव आठों कर्मों को नष्ट कर मुक्ति प्राप्त नहीं कर लेगा तब तक अनन्त काल तक भवाटवी में भटकता हुआा घोरातिघोर दुस्सह, दारुरण दुःख भोगता ही रहेगा । इस प्रकार तीनों लोक के स्वरूप का चिन्तन करते हुए प्रत्येक सुखाभिलाषी प्रारणी को समस्त दुःखों का सदा सर्वदा के लिए अन्त करने और भवभ्रमण से छुटकारा पाने हेतु आठों कर्मों के निर्मूलन एवं मुक्ति की प्राप्ति के लिए प्रतिपल, प्रतिक्षण प्रारणपण से प्रयत्न करते रहना चाहिये । यह है लोक स्वरूप भावना नाम की दशवीं भावना । ११. बोधिदुर्लभ भावना - संसार में बोधि वस्तुतः परम दुर्लभ हैं । बोधि का अर्थ है - सम्यक् ज्ञान, परमार्थ का ज्ञान, वास्तविक ज्ञान, सम्यक्त्व प्राप्ति अथवा सब प्रकार के दुःखों का अन्त करने वाले जिनप्रणीत धर्म का बोध । जितने भी जीव सिद्ध हुए, जितने जीव सिद्ध हो रहे हैं, और जितने भी जीव भविष्य में सिद्ध होंगे, उनकी मुक्ति में मूलभूत कारण बोधि के होने से वह सब बोधि का ही प्रताप माना गया है। बिना बोधि अर्थात् बिना परमार्थं के ज्ञान के न कभी किसी जीव ने मुक्ति प्राप्त की है और न भविष्य में ही प्राप्त कर सकेगा । इसीलिए शास्त्रों में बोधि को दुर्लभ कहा गया है । संसारी प्राणी अनादि काल से निगोद, स्थावर, सन्नर, नारक, तियंच, देवादि चौरासी लाख योनियों में भटकते चले ना रहे हैं। एक-एक निगोद शरीर में अनन्त जीव हैं और उनकी संख्या भूतकाल में जितने सिद्ध हुए हैं, उनसे अनन्तानन्त गुनी अधिक है । अनन्त काल तक निगोद में निवास करने के पश्चात् बड़ी कठिनाई से पृथ्वीकाय प्रादि पांच स्थावर काय में श्राता है । सम्पूर्ण लोक बादर - सूक्ष्म निगोद जीवों के देहों से एवं पृथ्वीकायादिपंच स्थावरों से भरा पड़ा है । जिस प्रकार अथाह सागर में गिरी हीरे की छोटी से छोटी कणिका को खोज निकालना प्रति दुष्कर है, उसी प्रकार अनन्त काल तक निगोद में भटकने पश्चात् भी पंच स्थावर योनियों में प्राना स्थावर योनियों से द्वीन्द्रिय योनि में, द्वीन्द्रिय से श्रीन्द्रिय में त्रीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय से प्रसंज्ञी पंचेन्द्रिय में, प्रसंज्ञी के Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ऊवं लोक] भ० श्री सुमतिनाथ १६१ पंचेन्द्रिय से संज्ञी पंचेन्द्रिय योनियों में उत्पन्न होना अत्यन्त दुष्कर है । संजी पंचेन्द्रिय हो कर भी यदि वह अशुभ लेश्या का धारक और रोद परिणाम वाला होता है तो पुन: नरक, तिर्यंच, स्थावर आदि योनियों में दीर्घ काल तक दारुण दुःखों का भागी बनता है । इस प्रकार मानव-भव मिलना बहुत कठिन है। पुण्य के प्रताप से मानव-भव भी मिल जाय तो आर्य क्षेत्र में एवं उत्तम कुल में उत्पन्न होना बड़ा कठिन है। प्रार्य क्षेत्र एवं उत्तम कुल में उत्पन्न हो जाने के उपरान्त भो सर्वांगपूर्ण सुदृढ़ स्वस्थ शरीर एवं दीर्घायु के साथ सत्संगति का पाना दुर्लभ है । सत्संगति मिल जाने पर भी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान पोर सम्यक्चारित्र का पाना बड़ा कठिन है । सम्यक्चारित्र को अंगीकार कर लेने के उपरान्त भी जीवन भर उसका सुचारुरूपेण निर्वहन करते हुए समाधिमरण प्राप्त करना बड़ा दर्लभ है। मक्ति वस्तुतः मानव शरीर से ही प्राप्त की जा सकती है । मानव शरीर प्राप्त किये बिना रत्नत्रय का आराधन, जन्म-मरण के बीजभूत कर्मों को निर्मूल करने की क्षमता एवं निर्वाण का प्राप्त करना असम्भव है । अतः प्रत्येक मुमक्ष मानव को अहर्निश इस प्रकार का चिन्तन करना--इस प्रकार की भावना भाना चाहिये कि जन्म-जन्मान्तरों के पुण्य के प्रताप से मानव भव के साथ-साथ जो प्रार्य क्षेत्र एवं उत्तम कुल में जन्म, सत्संग तथा सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का सुयोग मिला है, इसका मुझे पूरा-पूरा लाभ उठाना चाहिये । विषय-कषायों एवं क्षरण विध्वंसी सांसारिक भोगोपभोगों को तिलांजलि दे समस्त कर्मों के निर्मूलन और अक्षय-अव्याबाध-अनन्त सुखधाम मुक्ति की प्राप्ति के लिए निरन्तर प्रयास करते रहना चाहिये । इस प्रकार की भावना का नाम है बोधि दुर्लभ नामक ग्यारहवीं भावना। १२. धर्म भावना-जन्म, जरा, व्याधि, मत्य, ताड़न-तर्जन, छेदन-भेदन, इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग आदि असंख्य प्रकार के दारुण दुःखों से प्रोतप्रोत संसार-सागर में निमग्न प्राणिवर्ग के लिए एक मात्र वीतराग सर्वज्ञ प्रणीत धर्म ही त्राण, सहारा अथवा सच्चा सखा है । वस्तुत: केवली-प्रणीत धर्म अनाथों का नाथ, निर्धनों का धन, असहायों का सहायक, निर्बलों का बल, अशरण्यों का शरण्य, छोटी-बड़ी सभी प्रकार की व्याधियों की एक मात्र औषध, त्रिविध तापसंताप-पाप-कलुषकल्मष संहारकारी परमामृत है । बारह प्रकार के श्रावकधर्म और दश प्रकार के यतिधर्म को मिला कर धर्म मुख्य रूप से बाईस प्रकार का है। सम्यक्त्व मूलक पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत-यह श्रावक का बारह प्रकार का धर्म है । शांति, मार्दव, आर्जव, मुक्ति, तप, संयम, सत्य, शौच, अकिंचन और बह्मचर्य यह दश प्रकार का अरणगार धर्म अर्थात् यतिधर्म है । तीथंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, प्रतिवासुदेव, देव, देवेन्द्र, नरेन्द्र आदि पद तथा जितने भी सांसारिक ऐश्वर्य, वैभव, सुखसाधन भोगोपभोग आदि प्रारिण को प्राप्त होते हैं, वे सब धर्म के प्रताप से ही प्राप्त होते हैं । दशविध Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ऊर्ध्व लोक] अणगारधर्म के सम्यगाराधन से ही प्राणी सब प्रकार के मूल बीजभूत पाठों कर्मों को मूलत: नष्ट कर अजरामर, अक्षय, अव्याबाध अनन्त शाश्वत सुखधाम मोक्ष को प्राप्त कर सकता है । अतः प्रत्येक शाश्वत सुखाभिलाषी मुमुक्षु को सदा सर्वदा केवली प्रणीत धर्म का पाराधन करने में अहर्निश निरत रहना चाहिये । यह धर्मभावना नाम की बारहवीं भावना है। जो मुमुक्ष इन बारह भावनाओं में से किसी एक भावना का भी विशद्ध मन से पुनः पुनः उत्कट चिन्तन-मनन-निदिध्यासन करता है, वह सुनिश्चित रूप से शीघ्र हो शाश्वत शिवसुख का अधिकारी हो जाता है । प्राचार्य विनयानन्द के मुखारविन्द से धर्म के वास्तविक स्वरूप को सुन कर राजकुमार पुरुषसिंह के अन्तर्चा उन्मीलित हो गये । उसे संसार विषय कषायों की जाज्वल्यमान ज्वालाओं से संकुल प्रति विशाल भीषण भट्टी के समान महा तापसंतापकारी एवं सर्वस्व को भस्मसात् कर देने वाला प्रतीत होने लगा। राजकुमार पुरुषसिंह ने हाथ जोड़ मस्तक झुकाते हुए प्राचार्य विनयानन्द से निवेदन किया-"भगवन् ! आपने धर्म का जो सुन्दर स्वरूप बताया है, उससे मेरे घट के पट खुल गये हैं। भवसागर की भयावहता से मैं भयभीत हो रहा हूं । मुझे संसार से विरक्ति हो गई है। मैंने दृढ़ निश्चय कर लिया है कि सर्वात्मना-सर्वभावेन आपके चरणों पर अपना जीवन समर्पित कर सब दुःखों का अन्त एवं अक्षय अनन्त शाश्वत सुख प्रदान करने वाले धर्म का पाराधन. करू । मेरी आपसे यही प्रार्थना है कि आप मुझे श्रमगधर्म की दीक्षा प्रदान कर अपने चरणों की शीतल छाया में शरण दें।" प्राचार्य विनयानन्द ने कहा--"सौम्य ! तुम्हारा संकल्प प्रत्युत्तम है। माता-पिता आदि गुरुजनों से परामर्श पूर्वक आज्ञा प्राप्त कर तुम श्रमरण धर्म में दीक्षित हो सकते हो।" राजकुमार पुरुषसिंह ने तत्काल अपने माता-पिता के पास उपस्थित हो उनके समक्ष अपना अटल निश्चय रखा और उनसे अनुमति ले आचार्य विनयानन्द के पास श्रमण धर्म में दीक्षित हो गया। श्रमणधर्म अंगीकार करने के पश्चात् अरणगार पुरुषसिंह ने गुरुचरणों में बैठ कर बड़ी निष्ठा से आगमों का अध्ययन किया और उनमें निष्णातता प्राप्त की। मुनि पुरुषसिंह ने सुदीर्घ काल तक निरतिचार संयम का पालन करते हुए तीर्थकर नामकर्म का उपार्जन कराने वाले बीस बोलों में से कतिपय बोलों की उत्कट प्राराधना कर तीर्थंकर नामकर्म ... का उपार्जन किया और अन्त में समाधिपूर्वक प्राय पूर्ण कर वह वैजयन्त नामक अनुत्तर विमान में ३३ सागरोपम की आयुष्य वाले महद्धिक अहमिन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म भ० श्री सुमतिनाथ १६३ वैजयन्त विमान की स्थिति पूर्ण हो जाने पर श्रावण शुक्ला द्वितीया को मघा नक्षत्र में पुरुषसिंह का जीव वैजयन्त विमान से च्युत हुआ और अयोध्यापति महाराज मेघ की रानी मंगलावती के गर्भ में आया। तत्पश्चात् माता मंगलावती गर्भ-सूचक चौदह शुभ स्वप्न देखकर परम प्रसन्न हुई । गर्भकाल पूर्ण होने पर वैशाख शुक्ला अष्टमी को मध्य रात्रि के समय मघा नक्षत्र में माता ने सुखपूर्वक पुत्ररत्न को जन्म दिया। पुण्यशाली पुरुषों का जन्म किसी खास कुल या जाति के लिए नहीं होता। वे तो विश्व के लिए उत्पन्न होते हैं अतः उनकी खुशी और प्रसन्नता भी सारे संसार को होती है। फिर जन्म की नगरी में इस जन्म से प्रानन्द और हर्ष का अतिरेक होना स्वाभाविक ही था। महाराज मेघ ने जन्मोत्सव की खशी में दश दिनों तक नागर-जनों के आमोद-प्रमोद के लिए सारी सुविधाएं प्रदान की। नामकरण बारहवें दिन नामकरण के लिए स्वजन एवं बान्धवों को एकत्र कर महाराज मेघ ने कहा-"बालक के गर्भ में रहते समय इसकी माता ने बड़ी-बड़ी उलझी हई समस्याओं का भी अनायास ही अपनी सन्मति से हल ढूढ निकाला, अतः इसका नाम सुमतिनाथ रखना ठीक जंचता है।" सबके पूछने पर महाराज ने रानी की सन्मति के उदाहरणस्वरूप निम्न घटना सबके सामने रखी। एक बार किसी सेठ की दो पत्नियों में अपने एक शिशु को लेकर कलह उत्पन्न हो गया । सेठ व्यवसाय के प्रसंग में शिशु को दोनों माताओं की देख-रेख में छोड़कर देशान्तर गया हुअा था। वहां उसकी मृत्यु हो गई। इधर शिश की विमाता माता से भी बढ़कर बच्चे का लालन-पालन करती थी। आपस में प्रेम की अधिकता से पुत्र की माता लाड़-प्यार के कार्य में सौत को दखल नहीं देती। बालक दोनों को बराबर मानता था, उसके निर्मल और निश्छल मानस में माता और विमाता का भेदभाव नहीं था। जब सेठ के मरने की सूचना मिली तो विमाता ने पुत्र और धन दोनों पर अपना अधिकार प्रदर्शित किया। बालक की माता भला ऐसे निराधार अधिकार को चुपचाप कैसे सहन कर लेती? फलतः दोनों का विवाद निर्णय के लिए राजा मेघ के पास पहुंचा । बच्चे के रंग, रूप और प्राकार-प्रकार से महाराज किसी Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १९४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [नामकरण । उचित निर्णय पर नहीं पहुंच सके और इसी ऊहापोह में उन्हें भोजन के लिए जाने में देर हो गई। - जब रानी सुमंगला को यह पता लगा तो वह महाराज के पास आयी और बोली-"स्वामिन् ! आज भोजन में इतनी देर क्यों ?" जब महाराज ने सारी कथा कह सुनायी तो सुमंगला बोली-"महाराज! आप भोजन और आराम करें । मैं शीघ्र ही इस समस्या का हल निकाल देती हूं।" ऐसा कह कर उसने दोनों सेठानियों को बुलाकर उनकी बातें सुनीं और बोलीं-"मेरे गर्भ में तीन ज्ञान का धारक अतिशय पुण्यवान् प्राणी है । वह जन्म लेकर तुम्हारे इस विवाद का निर्णय कर देगा, तब तक बच्चे को मेरे पास रहने दो । मैं सब तरह से इसकी देखभाल और लालन-पालन करती रहूंगी।" ___इस पर विमाता बोली-"ठीक है, आप इसे अपने पास निर्णय होने तक रखें, मुझे आपकी शर्त स्वीकार है।" मगर जननी का हृदय अपने प्राणप्रिय पुत्र के इस निरवधि-वियोग के दारुण दुःख को कैसे सहन कर लेता ? वह जोरों से चीख उठी-"नहीं, मुझे आपकी यह शर्त स्वीकार नहीं है । मैं अपने नयन-तारे को इतने समय तक अपने से अलग रखना पसन्द नहीं करूंगी । मैं अपने प्राण त्याग सकती हूं किन्तु पुत्र का क्षणिक त्याग भी मेरे लिये असह्य है।" रानी सुमंगला ने उसकी बातों से समझ लिया कि पुत्र इस ही का है। क्योंकि कोई भी जननी अपने अंश को परवशता के बिना अपने से अलग रखना स्वीकार नहीं कर सकती । इसी आधार पर उन्होंने धन सहित पुत्र की वास्तविक अधिकारिणी उस ही को माना । इस तरह रानी ने इस विकट समस्या का समाधान अपनी सद्बुद्धि से कर दिया।' .. यह सुन कर उपस्थित जनों ने एक स्वर से कुमार का नाम सुमतिनाथ रखने में अपनी सम्मति दे दी। इस प्रकार कुमार का नाम सुमतिनाथ रखा गया। विवाह और राज्य युवावस्था में प्रविष्ट होने पर महाराज मेघ ने योग्य कन्याओं से उनका पाणिग्रहण कराया । उनतीस लाख पूर्व वर्षों तक राज्य-पद का उपभोग कर जब उन्होंने भोग कर्म को क्षीण हुआ समझा तो संयम धर्म के लिए तत्पर हो गये। १ गम्भगते भट्टारए माताए दोण्हं सवत्तीणं छम्मासितो ववहारो चिण्णो एत्यं असोगवर पादवे एस मम पुत्तो महामती छिदिहिति, ताए जावत्ति भरिणतालो, इतरी भणिति एवं होतु, पुत्तमाता गच्छतित्ति णातूणं, छिण्णो एतस्स गन्भगतस्स गुणेरणंति सुमति जातो ।। आवश्यक चूणि पूर्व भाग, पृ० १० . Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा और पारणा] भ० श्री सुमतिनाथ १९५ . वीक्षा और पारणा ___ लोकान्तिक देवों की प्रार्थना से वर्षीदान देकर एक हजार राजाओं के साथ आप दीक्षार्थ निकले और वैशाख शक्ला नवमी के दिन मघा नक्षत्र में सिद्धों को नमस्कार कर प्रभु ने पंचमुष्टिक लोच किया और सर्वथा पापकर्म का त्याग कर मुनि बन गये। .. । उस समय आपको षष्टभक्त-दो दिन का निर्जल तप था । दूसरे दिन विहार कर प्रभु विजयपुर पधारे और वहां के महाराज पद्म के यहां तप का प्रथम पारणा स्वीकार किया। केवलज्ञान व देशना बीस वर्षों तक विविध प्रकार की तपस्या करते हुए प्रभु छद्मस्थ दशा में विचरे । धर्मध्यान और शुक्लध्यान से बड़ी कर्म निर्जरा की । फिर सहस्राम्र वन में पधार कर ध्यानावस्थित हो गये। शुक्लध्यान की प्रकर्षता से चार घातिक कर्मों के ईन्धन को जला कर चैत्र शुक्ला एकादशी के दिन मघा नक्षत्र में केवलज्ञान और केवलदर्शन की उपलब्धि की। ___ केवलज्ञान की प्राप्ति कर प्रभु ने देव, दानव और मानवों की विशाल सभा में मोक्ष-मार्ग का उपदेश दिया और चतुर्विध संघ की स्थापना कर आप भाव-तीर्थंकर कहलाये।। धर्म परिवार इनके संघ में निम्न परिवार था :गणधर - एक सौ (१००) केवली - तेरह हजार (१३,०००) मनः पर्यवज्ञानी - दस हजार चार सौ पचास (१०,४५०) अवधिज्ञानी - ग्यारह हजार (११,०००) चौदह पूर्वधारी - दो हजार चार सौ (२,४००) वैक्रिय लब्धिधारी -अठारह हजार चार सौ (१८,४००) वादी - दस हजार छ सौ पचास (१०,६५०) साधु - तीन लाख बीस हजार (३,२०,०००) -पांच लाख तीस हजार (५,३०,०००) श्रावक - दो लाख इक्यासी हजार (२,८१,०००) श्राविका - पांच लाख सोलह हजार (५,१६,०००) परिनिर्वाण चालीस लाख पूर्व की आयु में से प्रभु ने दस लाख पूर्व तक कुमारावस्था, उनतीस लाख ग्यारह पूर्वांग राज्यपद, बारह पूर्वांग कम एक लाख पूर्व तक गरित्र-पर्याय का पालन किया, फिर अन्त समय निकट जान कर एक मास का अनशन किया और चैत्र शुक्ला नवमी को पुनर्वसु नक्षत्र में चार अघाति-कर्मों का क्षय कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो निर्वाण-पद प्राप्त किया। साध्वी Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् श्री पद्मप्रभ पूर्वभव भगवान् सुमतिनाथ के पश्चात् छठे अन्य तीर्थंकरों की तरह आपने भी राजा की विशिष्ट योग्यता उपार्जित की । तीर्थंकर श्री पद्मप्रभ स्वामी हुए । अपराजित के भव में तीर्थंकर पद सुसीमा नगरी के महाराज अपराजित ऐसे धर्मपूर्ण व्यवहार वाले थे कि जैसे सदेह धर्म ही हों । इन्हें न्याय ही मित्र, धर्म ही बन्धु और गुरण- मूह ही सच्चा धन प्रतीत होता था । अन्य मित्र, बन्धु और धन आदि बाहरी साधनों में उनकी प्रीति नहीं थी । एक दिन भूपति ने सोचा कि ये बाह्य साधन जब तक मुझको नहीं छोड़ें तब तक पुरुषार्थ का बल बढ़ाकर मैं ही इनको त्याग दूं तो श्रेयस्कर होगा । इस प्रकार विचार करके उन्होंने पिहिताश्रव मुनि के चरणों में संयम ग्रहण कर लिया और प्रर्हद्-भक्ति आदि स्थानों की आराधना कर तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया । अन्त समय में समाधि के साथ आयु पूर्ण कर वे ३१ सागर की परम स्थिति वाले ग्रैवेयक देव हुए । जन्म देव भव की स्थिति पूर्ण कर अपराजित के जीव ने कोशाम्बी नगरी के महाराजा धर के यहां तीर्थंकर रूप में जन्म लिया । वह माघ कृष्णा षष्ठी के दिन चित्रा नक्षत्र में देवलोक से च्यवन कर माता सुसीमा की कुक्षि में उत्पन्न हुआ । उसी रात्रि को महारानी सुसीमा ने चौदह महाशुभस्वप्न देखे | फिर कार्तिक कृष्णा द्वादशी के दिन चित्रा नक्षत्र में माता ने सुखपूर्वक पुत्र रत्न को जन्म दिया । जन्म के प्रभाव से लोक में सर्वत्र शान्ति और हर्ष की लहर दौड़ गई । नामकररण गर्भ काल में माता को पद्म (कमल) की शय्या में सोने का दोहद उत्पन्न हुश्रा और बालक के शरीर की प्रभा पद्म के समान थी, इसलिए इनका नाम पद्मप्रभ रक्खा गया ।' १ " गब्भत्थे य भगवम्मि जरगणीए पउमसयरणीयम्मि दोहलो प्रासि' तितेण भगव जहत्थमेव पउमप्पभो' त्तिणामं कथं ।" चउप्पन महापुरिस चरियं, पृ० ८३ पद्मवर्णं पद्मचिन्हं, सा देवी सुषुवे सुतं । त्रि. ३३४ ३८ पद्मशय्या दोहदोऽस्मिन् यन्मातुर्गर्भगेऽभवत् । पद्माभवत्यमुळे पद्मप्रभ इत्याह्वयत् पिता । त्रि. ३।४।५१ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह और राज्य ] भगवान् श्री पद्मप्रभ विवाह और राज्य बाल्यकाल पूर्ण कर जब पद्मप्रभ ने यौवन में प्रवेश किया तब महाराजा धर ने योग्य कन्याओं के साथ इनका पाणिग्रहण कराया । आठ लाख वर्ष पूर्व कुमार पद में रहकर आपने राज्य-पद ग्रहण किया । इक्कीस लाख पूर्व से अधिक राज्य-पद पर रहकर इन्होंने न्याय-नीति से प्रजा का पालन किया और नीति-धर्म की शिक्षा दी 1 दीक्षा और पाररणा दीर्घकाल तक राज्य सुख का उपभोग कर जब देखा कि भोगावली कर्मक्षीण हो गये हैं, तो प्रभु मुक्ति-मार्ग की ओर अग्रसर हुए । लोकान्तिक देवों की प्रार्थना से एक वर्ष कृष्णा त्रयोदशी के दिन षष्ठभक्त-दो दिन के ग्रहण की। उस समय राजन्य आदि वर्गों के दीक्षा ग्रहण की। दूसरे दिन ब्रह्मस्थल के महाराज सोमदेव के यहां प्रभु का पारणा हुआ । देवों द्वारा दान की महिमा हेतु पंच दिव्य बरसाये गये । केवलज्ञान 1 आप छः मास तक उग्र तपस्या करते हुए छद्मस्थ चर्या में विचरे और फिर विहार क्रम से सहस्राम्र वन में आए। मोह कर्म को तो प्रभु प्रायः क्षीण कर चुके थे । फिर शेष कर्मों की निर्जरा के लिये षष्ठभक्त तप के साथ वट वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित होकर आपने शुक्लध्यान से घातिकर्मों का क्षय किया और चैत्र सुदी पूर्णिमा के दिन चित्रा नक्षत्र में केवलज्ञान प्राप्त किया । १६७ तक दान देकर प्रभु ने कार्तिक निर्जल तप से विधिपूर्वक दीक्षा एक हजार पुरुषों ने आपके संग घाती कर्मों के बन्धन से मुक्त होने के बाद प्रभु ने धर्म देशना देकर चतुविध संघ की स्थापना की एवं आप अनन्त चतुष्टय ( अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र, अनन्त वीर्य ) के धारक होकर लोकालोक के ज्ञाता, द्रष्टा, उपदेष्टा और भाव - तीर्थंकर हो गये । धर्म परिवार आपके धर्म परिवार की संख्या निम्न है : गणधर केवली - एक सौ सात (१०७) बारह हजार (१२,०००) Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ मनः पर्यवज्ञानी अवधिज्ञानी चौदह पूर्वधारी वैक्रिय लब्धिधारी वादी साधु साध्वी श्रावक श्राविका जैन धर्म का मौलिक इतिहास दस हजार तीन सौ (१०,३०० ) दस हजार (१०,००० ) परिनिर्वाण केवली बन कर प्रभु ने बहुत वर्षों तक संसार को कल्याणकारी मार्ग की शिक्षा दी । १ सत्तरिसय द्वार, गा० ३०६-३१० [ धर्म परिवार 'हजार तीन सौ (२,३०० ) सोलह हजार आठ सौ (१६,८००) नौ हजार छः सौ ( ६,६०० ) तीन लाख तीस हजार (३,३०,००० ) चार लाख बीस हजार ( ४,२०,००० ) दो लाख छिहत्तर हजार (२,७६,००० ) पांच लाख पाँच हजार (५,०५,००० ) फिर जब अन्त में प्रयुकाल निकट देखा तब एक मास का अनशन कर मंगसिर बदी एकादशी के दिन' चित्रा नक्षत्र में सम्पूर्ण योगों का निरोध कर सिद्ध-बुद्ध - मुक्त हो गए । आपकी कुल आयु तीस लाख पूर्व की थी जिसमें सोलह पूर्वांग कम साढ़े सात लाख पूर्व तक कुमार रहे, साढ़े इक्कीस लाख पूर्व तक राज्य किया और कुछ कम एक लाख पूर्व तक चारित्र धर्म का पालन कर प्रभु ने निर्वाण प्राप्त किया । 000 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् श्री सुपार्श्वनाथ पूर्वभव भगवान पद्मप्रभ के बाद सातवें तीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथ हुए । क्षेमपुरी के महाराज नन्दिसेन के भव में इन्होंने त्याग एवं तप की उत्कृष्ट साधना की। प्राचार्य अरिदमन के पास संयम ले इन्होंने बीस स्थानों की प्राराधना की एवं तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया और अन्त समय की आराधना से काल-धर्म प्राप्त कर आप छठे ग्रेवेयक में अहमिन्द्र रूप से उत्पन्न हुए । ग्रेवेयक से निकल कर नन्दिसेन का जीव भाद्रपद कृष्णा अष्टमी के दिन विशाखा नक्षत्र में वाराणसी नगरी के महाराज प्रतिष्ठसेन की रानी पथ्वी की कुक्षि में गर्भ रूप से उत्पन्न हुआ। उसी रात्रि को महारानी पृथ्वीदेवी ने महापुरुष के जन्म-सूचक चौदह मंगलकारी शुभ-स्वप्न देखे। विधिपूर्वक गर्भकाल पूर्ण कर माता ने ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी को विशाखा नक्षत्र में सुखपूर्वक पुत्ररत्न को जन्म दिया। नामकरण बारहवें दिन नामकरण के समय महाराज प्रतिष्ठसेन ने सोचा कि गर्भकाल में माता के पार्श्व-शोभन रहे, अतः बालक का नाम सुपार्श्वनाथ रक्खा जाय ।' इस तरह से आपका नाम सुपार्श्वनाथ रक्खा गया। विवाह और राज्य शैशव के पश्चात महाराज प्रतिष्ठसेन ने उनका योग्य कन्याओं से पाणिग्रहण करवाया और राज्य-पद से उन्हें सशोभित किया। ___ चौदह लाख पूर्व कुछ अधिक समय तक प्रभु राज्य-श्री का उपभोग करते हुए प्रजाजनों को नीति-धर्म की शिक्षा देते रहे । दीक्षा और पारणा फिर राज्य-काल के बाद जब प्रभु ने भोगावली कर्म. को क्षीण देखा तो संयम-ग्रहण की इच्छा की। प्रापने लोकान्तिक देवों की प्रार्थना पर वर्ष भर दान देने के पश्चात ज्येष्ठ शुक्ला त्रयोदशी को एक हजार अन्य राजानों के साथ दीक्षा के लिए १ भगवम्मि य गम्भगए जणणी जाया सुपासत्ति तमो भगवमो सुपासत्तिणामं कयं । च. महापुरिस च., पृ. ८६ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ धर्म परिवार निष्क्रमण किया । षष्ठभक्त की तपस्या के साथ उद्यान में पहुंच कर प्रभु ने पंच-मुष्टि लोच करके सर्वथा पापों का त्याग कर, मुनिव्रत ग्रहरण किया । २० दूसरे दिन पाटलिखण्ड नगर के प्रधान नायक महाराज महेन्द्र के यहां उनका पाररणा सम्पन्न हुआ । केवलज्ञान नव मास तक विविध प्रकार का तप करते हुए प्रभु छद्मस्थचर्या में विचरते रहे । फिर उसी सहस्राम्र वन में आकर शुक्लध्यान में स्थित हो गए । ज्ञानावरणादि चार घाति कर्मों का सर्वथा क्षय कर, फाल्गुन शुक्ला षष्ठी को विशाखा नक्षत्र में प्रभु ने केवलज्ञान एवं केवलदर्शन प्राप्त किया । केवली बनकर देव - मनुजों की विशाल परिषद् में प्रभु ने धर्म देशना दी और जड़ और चेतन का भेद समझाते हुए फरमाया कि दृश्य जगत् की सारी वस्तुएं, यहां तक कि तन भी अपना नहीं है । तन, धन, परिजन आदि बाह्य वस्तुओं को अपना मानना ही दुःख का मूल कारण है । उनके इस प्रकार के सदुपदेश से सहस्रों नर-नारी संयम धर्म के आराधक बने और प्रभु ने चतुविध तीर्थ की स्थापना कर भाव-अरिहन्त पद को प्राप्त किया । धर्म परिवार प्रभु के संघ में निम्न परिवार था : गरण एवं गणधर केवली मनः पर्यवज्ञानी अवधिज्ञानी चौदह पूर्वधारी वैक्रिय लब्धिधारी वादी साधु साध्वी श्रावक श्राविका - — पन्द्रह हजार तीन सौ (१५, ३०० ) आठ हजार चार सौ (८,४०० ) - तीन लाख ( ३,००,००० ) चार लाख तीस हजार (४,३०,००० ) दो लाख सत्तावन हजार ( २,५७,००० ) चार लाख तिरानवे हजार ( ४,६३,००० ) पिच्यानवे (१५) जिनमें मुख्य विदर्भजी थे । ग्यारह हजार (११,००० ) नौ हजार एक सौ पचास ( ६,१५० ) नौ हजार ( ६,००० ) दो हजार तीन सौ पचास ( २,३५० ) - Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिनिर्वाण ] भगवान् श्री सुपार्श्वनाथ, परिनिर्धारण बीस लाख पूर्व की कुल आयु में से पाँच लाख पूर्व कुमार अवस्था में, चौदह लाख कुछ अधिक पूर्व राज्य-पद पर और बीस पूर्वांग कम एक लाख पूर्व तक सम्यक् चारित्र का पालन कर जब आपने अपना अन्त समय निकट समझा तो एक मास का अनशन कर पांच सौ मुनियों के साथ चार प्रघाति-कर्मों का क्षय, करके फाल्गुन कृष्णा सप्तमी को सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होकर निर्वाण पद प्राप्त किया । 000 २०१ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् श्री चन्द्रप्रभ स्वामी भगवान् सुपार्श्वनाथ के बाद माठवें तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभ स्वामी हुए । पूर्वभव धातकीखण्ड में मंगलावती नगरी के महाराज पद्म के भव में इन्होंने उच्च योगों की साधना की, फलतः इनको वैराग्य हो गया और उन्होंने युगन्धर मुनि के पास संयम ग्रहण कर दीर्घकाल तक चारित्र-धर्म का पालन करते हुए बीस स्थानों की आराधना की और तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया। अन्त समय की आराधना से काल-धर्म प्राप्त कर ये विजय-विमान में अहमिन्द्र रूप से उत्पन्न हुए। विजय विमान से निकल कर महाराज पद्म का जीव चैत्र कृष्णा पंचमी को अनुराधा नक्षत्र में चन्द्रपुरी के राजा महासेन की रानी सुलक्षणा के यहां गर्भ रूप में उत्पन्न हुआ। महारानी सुलक्षणा ने उसी रात्रि में परम सुखदायी फलदायक चौदह शुभ स्वप्न देखे। सुखपूर्वक गर्भकाल को पूर्ण कर माता सुलक्षणा ने पौष कृष्णा (द्वादशी) एकादशी के दिन' अनुराधा नक्षत्र में अर्द्धरात्रि के समय पुत्ररत्न को जन्म दिया। देव-देवेन्द्र ने अति-पाण्डु-कम्बल-शिला पर प्रभु का जन्माभिषेक बड़े उल्लास एव उत्साहपूर्वक मनाया। नामकरण महाराज महासेन ने जन्म-महोत्सव के बाद बारहवें दिन नामकरण के लिये मित्रजनों को एकत्र कर कहा-"बालक की माता ने गर्भकाल में चन्द्रपान की इच्छा पूर्ण की और इस बालक के शरीर की प्रभा भी चन्द्र जैसी है, अतः बालक का नाम चन्द्रप्रभ रखा जाता है ।"३ १ शलाका पुरुष चरित्र के अनुसार जन्मतिथि पौष कृष्णा १३ मानी गई है । त्रि.ष.३।६।३२ २ (क) गर्भस्थेऽस्मिन् मातुरासीच्चन्द्रपानाय दोहदः । चन्द्राभश्चैष इत्याबच्चन्द्रप्रभममु पिता ।। मि. श. पु. च. ३।६।४६ (ख) पिउणा य 'चंदप्पहसमाणो' ति कलिऊण चंदप्पहो ति णामं कयं भगवप्रो । च. म. पु. च., १८ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह और राज्य] भगवान् श्री चन्द्रप्रभ स्वामी २०३. .द ... * विवाह और राज्य युवावस्था सम्पन्न होने पर राजा ने उत्तम राजकन्याओं से प्रभु का पाणिग्रहण करवाया। हाई लाख पूर्व तक युवराज-पद पर रह कर फिर आप राज्य-पद पर अभिषिक्त किये गये और छः लाख पूर्व से कुछ अधिक समय तक राज्य का पालन करते हुए प्रभु नीति-धर्म का प्रसार करते रहे । इनके राज्य-काल में प्रजा सब तरह से सुख-सम्पन्न और कर्त्तव्य-मार्ग का पालन करती रही। बीक्षा और पारणा संसार के भोग्य-कर्म क्षीण हुए जानकर प्रभु ने मुनि-दीक्षा का संकल्प किया। लोकान्तिक देवों की प्रार्थना और वर्षीदान के बाद एक हजार राजाओं के साथ षष्ट-भक्त की तपस्या से इनका निष्क्रमण हुआ। पौष कृष्णा त्रयोदशी को अनुराधा नक्षत्र में सम्पर्ण पाप-कर्मों का परित्याग कर प्रभु ने विधिपूर्वक दीक्षा ग्रहण की । दीक्षा के दूसरे दिन पाखण्ड के सोमदत्त राजा के यहां क्षीरान्न से प्रभु का पारणा हुआ । देवों ने पंच-दिव्य वर्षा कर दान की महिमा प्रकट की। केवलज्ञान तीन मास तक छयस्थ-चर्या में विचर कर फिर प्रभु सहस्राम्र वन में पधारे। वहां प्रियंग वृक्ष के नीचे शुक्ल ध्यान में ध्यानावस्थित हो गये। फाल्गुन कृष्णा सप्तमी को शुक्लध्यान के बल से ज्ञानावरणादि चार घातिकर्मों का क्षय कर, प्रभु ने केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्राप्ति की। फिर देव-मानवों की विशाल सभा में श्रुत व चारित्र-धर्म की देशना देकर भगवान ने चतुर्विध संघ की स्थापना की । कुछ कम एक लाख पूर्व तक केवली पर्याय में रहकर प्रभु ने लाखों जीवों का कल्याण किया। धर्म परिवार यों तो महापुरुषों का परिवार “वसुधैव कुटुम्बकम्" होता है, फिर भी व्यवहारदृष्ट्या उनके उपदेशों का पालन एवं प्रसार करने वाले अधिक कृपापात्र होने से उनके धर्म-परिवार में गिने गये हैं जो इस प्रकार हैं : गण एवं गणधर . - तिरानवे (९३) दत्त मादि केवली - दस हजार (१०,०००) मनःपर्यवज्ञानी. -पाठ हजार (८,०००) अवधि ज्ञानी - पाठ हजार (८,०००) Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ चौदह पर्वधारी वैक्रिय लब्धिधारी वादी साधु साध्वी श्रावक श्राविका जैन धर्म का मौलिक इतिहास [परिनिर्वाण - दो हजार (२,०००) - चौदह हजार (१४,०००) - सात हजार छः सौ (७,६००) - दो लाख पचास हजार (२,५०,०००) - तीन लाख अस्सी हजार (३,८०,०००) - दो लाख पचास हजार (२,५०,०००) - चार लाख इकरानवे हजार (४,६१,०००) परिनिर्वाण जिस समय प्रभु ने अपने जीवनकाल का अन्त निकट देखा उस समय सम्मेद शिखर पर एक हजार मुनियों के साथ एक मास का अनशन किया और अयोगी दशा में चार प्रघाति-कर्मों का क्षय कर भाद्रपद कृष्णा सप्तमी को अनुराधा नक्षत्र में सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त होकर निर्वाण-पद प्राप्त किया इनकी कुल प्रायु दस लाख पूर्व वर्षों की थी, जिसमें ढाई लाख पूर्व तक युवराज-पद और साढ़े छः लाख पूर्व तक राज्य-पद पर रहे तथा कुछ कम एक लाख पूर्व तक प्रभु ने चारित्र-धर्म का पालन कर सिद्ध पद प्राप्त किया। 000 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् श्री सुविधिनाथ तीर्थकर चन्द्रप्रभ के पश्चात् नौंवे तीर्थंकर श्री सुविधिनाथ हुए । इन्हें पुष्पदन्त भी कहा जाता है । पूर्वमव पुष्कलावती विजय के भूपति महापद्म के भव में इन्होंने संसार से विरक्त होकर मुनि जगन्नन्द के पास दीक्षा ग्रहण की और उच्चकोटि की तप-साधना करते हुए तीर्थकर नामकर्म का उपार्जन किया। अन्त समय में अनशनपूर्वक काल कर वे वैजयन्त विमान में अहमिन्द्र रूप से उत्पन्न हुए। जन्म काकन्दी नगरी के महाराज सुग्रीव इनके पिता और रामादेवी इनकी माता थी। वैजयन्त विमान से निकलकर महापद्म का जीव फाल्गुन कृष्णा नवमी को मूल नक्षत्र में माता रामादेवी की कुक्षि में गर्भ रूप से उत्पन्न हुआ । माता ने उसी रात्रि में चौदह मंगलकारी शुभ स्वप्न देखे । महाराज से स्वप्न-फल सुनकर महारानी हर्षविभोर हो गई। गर्भकाल पूर्ण कर माता ने मंगसिर कृष्णा पंचमी को मध्य रात्रि के समय मूल नक्षत्र में सुखपूर्वक पुत्ररत्न को जन्म दिया। माता-पिता व नरेन्द्रदेवेन्द्रों ने जन्मोत्सव की खुशियां मनाईं। दस दिनों तक नगर में आमोद-प्रमोद का मंगल वातावरण बना रहा। बामकरण नामकरण के समय महाराजा सुग्रीव ने सोचा कि बालक के गर्भकाल में माता सब विधियों में कुशल रहीं, इसलिये इसका नाम सुविधिनाथ और गर्भकाल में माता को पुष्प का दोहद उत्पन्न हुआ, अतः पुष्पदन्त रखा जाय । इस प्रकार सुविधिनाथ और पुष्पदंत प्रभु के ये दो नाम प्रख्यात हुए।' १ कुशला सर्वविधिषु. गर्भस्थेऽस्मिन् जनन्यभूत् पुष्पदोहदतो दन्तोद्गमोऽस्यसमभूदिति । सुविधिः पुष्पदन्तश्चेत्यभिधानद्वयं विभोः । महोत्सवेन चक्राते, पितरौ दिवसे शुभे । त्रि० ३ प. ७ स० ४६।५० Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [विवाह और राज्य विवाह और राज्य दो लाख पूर्व की आयु में चौथा भाग अर्थात् पचास हजार पूर्व का समय बीतने पर महाराज सुग्रीव ने योग्य कन्याओं से इनका पाणिग्रहण करवाया तथा योग्य जानकरः राज्य पद पर भी अभिषिक्त कर दिया। कुछ अधिक पचास हजार पूर्व तक प्रभु ने अलिप्त भाव से लोक हितार्थ कुशलतापूर्वक राज्य का संचालन किया। दीक्षा और पारणा । राज्यकाल के बाद जब प्रभु ने भोगावली कर्म को क्षीण होते देखा तव संयम ग्रहण करने की इच्छा की। लोकान्तिक देवों ने अपने कर्तव्यानुसार प्रभु से प्रार्थना की और वर्षीदान देकर प्रभु ने भी एक हजार राजाओं के साथ दीक्षार्थ निष्क्रमण किया । मंगसिर कृष्णा षष्ठी के दिन मूल नक्षत्र के समय सूरप्रभा शिविका से प्रभु सहस्राम्र वन में पहुंचे और सिद्ध की साक्षी से, सम्पूर्ण पापों का परित्याग कर दीक्षित हो गये । दीक्षा ग्रहण करते ही इन्होंने मनःपर्यवज्ञान प्राप्त किया। दसरे दिन श्वेतपूर के राजा पूष्प के यहां प्रभ का परमान से पारणा हा और देवों ने पंच-दिव्य प्रकट कर दान की महिमा बतलाई । केवलज्ञान चार मास तक प्रभु विविध कष्टों को सहन करते हुए ग्रामानुग्राम विचरते रहे। फिर उसी उद्यान में प्राकर प्रभु ने क्षपकश्रेणी पर प्रारोहण किया और शुक्ल ध्यान से घातिकमों का क्षय कर मालूर वृक्ष के नीचे कार्तिक शुक्ला तृतीया को मूल नक्षत्र में केवलज्ञान की प्राप्ति की। ___ केवली होकर देव-मानवों की महती सभा में प्रभु ने धर्मोपदेश दिया और वे चतुर्विध संघ की स्थापना कर, भाव-तीर्थकर कहलाये। धर्म परिवार प्रभु के संघ में निम्न गणधरादि हुए :-- गरणधर अठ्यासी (८८) वाराहजी प्रादि । केवली सात हजार पांच सौ (७,५००) मनःपर्यवज्ञानी सात हजार पांच सौ (७,५००) प्रवधि ज्ञानी - आठ हजार चार सौ (८,४००) चौदह पूर्वधारी एक हजार पांच सौ (१,५००) वैक्रिय लब्धिधारी तेरह हजार (१३,०००) Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिनिर्वाण]] भगवान् श्री सुविधिनाथ २०७ वादी छः हजार (६,०००) साधु दो लाख (२,००,०००) साध्वी एक लाख बीस हजार (१,२०,०००) । श्रावक दो लाख उन्तीस हजार (२,२६,०००) श्राविका - चार लाख बहत्तर हजार (४,७२,०००) परिनिर्वाण कुछ कम एक लाख पूर्व तक संयम का पालन कर जब प्रभ ने अपना पायु-काल निकट समझा तब एक हजार मुनियों के साथ सम्मेदशिखर पर एक मास का अनशन धारण किया, फिर योगनिरोध करते हुए चार अघाति-कर्मों का क्षय कर भाद्रपद कृष्णा नवमी के दिन मूल नक्षत्र में सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होकर निर्वाण पद प्राप्त किया। __ कहा जाता है कि कालदोष से सुविधिनाथ के बाद साधुकर्म का विच्छेद हो गया और श्रावक लोग इच्छानुसार दान आदि धर्म का उपदेश करने लगे। संभव है यह काल ब्राह्मण संस्कृति के प्रचार-प्रसार का प्रमुख समय रहा हो। 000 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् श्री शीतलनाथ भगवान् श्री सुविधिनाथ के बाद भगवान् श्री शीतलनाथ दसवें तीर्थंकर हुए। पूर्वभव सुसीमा नगरी के महाराज पद्मोत्तर के भव में बहुत वर्षों तक राज्य का उपभोग कर इन्होंने 'स्रस्ताघ' नाम के प्राचार्य के पास संयम ग्रहण किया और विशिष्ट प्रकार की तपः साधना से तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया। अन्त समय में प्रनशन की आराधना से काल प्राप्त कर प्राणत स्वर्ग में बीस सागर की स्थिति वाले देव हुए । अन्म भद्दिलपुर के राजा दृढ़रथ इनके पिता और नन्दादेवी इनकी माता थीं। वैशाख कृष्णा षष्ठो के दिन पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में प्रारगत स्वर्ग से च्यव कर पपोतर का जीव नन्दादेवी के गर्भ में उत्पन्न हुआ। महारानी उसी रात्रि को महा मंगलकारी चौदह शुभ स्वप्न देखकर जागृत हुई। उसने महाराज के पास जाकर उन स्वप्नों का फल पूछा । उत्तर में यह सुनकर कि वह एक महान् पुण्यशाली पुत्र को जन्म देने वाली है, महारानी अत्यधिक प्रसन्न हई। गर्भकाल के पूर्ण होने पर माता नन्दा ने माघ कृष्णा द्वादशी को पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में सुखपूर्वक पुत्ररत्न को जन्म दिया। प्रभु के जन्म से अखिल विश्व में शान्ति एवं प्रानन्द की लहर फैल गई। महाराज दृढ़रथ ने मन खोलकर जन्मोत्सव मनाया। नामकरण __ बालक के गर्भकाल में महाराज दृढरथ के शरीर में भयंकर दाह-ज्वर की पीड़ा थी जो विभिन्न उपचारों से भी शान्त नहीं हुई, पर एक दिन नन्दादेवी के कर-स्पर्श मात्र से वह वेदना शान्त हो गई और तन, मन में शीतलता छा गई। प्रतः सबने मिलकर बालक का नाम शीतलनाथ रखा।' १ राज्ञः सन्तप्तमप्यंगं, नन्दास्पर्शन शीत्यभूत् । गर्मस्पेऽस्मिन्निति तस्य, नाम शीतल इत्यभूत् ।। त्रिष० ३।८।४७ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह और राज्य ] भगवान् श्री शीतलनाथ विवाह और राज्य हर्ष और उल्लास के वातावरण में शैशवकाल पूर्ण कर जब इन्होंने यौवनावस्था में प्रवेश किया, तब माता-पिता के आग्रह से योग्य कन्याओं के साथ इनका पाणिग्रहण संस्कार किया गया । पच्चीस हजार पूर्व तक कुंवर पद पर रहकर फिर पिता के प्रत्याग्रह से प्रभु ने निर्लेप भाव से राज्यपद लेकर शासन का सम्यक् रूप से संचालन किया । पचास हजार पूर्व तक राज्यपद पर रहने के पश्चात् जब भोगावली कर्म का भोग पूर्ण हुआ, तब प्रभु ने दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा की । दोक्षा प्रौर प्रथम पारणा लोकान्तिक देवों की प्रार्थना श्रौर वर्षीदान के बाद एक हजार राजानों के साथ चन्द्रप्रभा शिविका में प्रारूढ़ होकर प्रभु सहस्राम्र वन में पहुंचे और माघ कृष्णा द्वादशी को पूर्वाषाढा नक्षत्र में षष्ठ-भक्त तपस्या से सम्पूर्ण पाप कर्मों का परित्याग कर मुनि बन गये । श्रमण-दीक्षा लेते ही इन्होंने मनः पर्यवज्ञान प्राप्त किया । दूसरे दिन श्ररिष्टपुर के महाराज पुनर्वसु के यहां परमान्न से इनका प्रथम पारणा सम्पन्न हुआ । देवों ने पंच-दिव्य प्रकट करके दान की महिमा बतलाई । केवलज्ञान विविध प्रकार के परिषहों को सहन करते हुए तीन मास छद्मस्थ-चर्या के बिताकर फिर प्रभु सहस्राम्र वन पधारे और प्लक्ष [ पीपल ] वृक्ष के नीचे शुक्ल - ध्यान में स्थित हो गये । शुक्ल ध्यान से ज्ञानावरण आदि चार घाती कर्मों का सम्पूर्ण क्षय कर प्रभु ने पौष कृष्णा चतुर्दशी को पूर्वाषाढा नक्षत्र में लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान प्राप्त किया । २०६ केवली होकर प्रभु ने देवासुर मानवों की विशाल सभा में धर्मदेशना दी । संसार के नश्वर पदार्थों की प्रीति को दुःखजनक बतलाकर उन्होंने मोक्ष-मार्ग में यत्न करने की शिक्षा दी और चतुविध-संघ की स्थापना कर, आप भावतीर्थंकर कहलाए । धर्म परिवार शीतलनाथ के संघ में निम्न गरणधर आदि हुए : इक्यासी (८१) सात हजार (७,०००) भगवान् गरण एवं गणधर केवली - - Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [परिनिर्वाण मनःपर्यवज्ञानी - सात हजार पांच सौ (७,५००) अवधिज्ञानी - सात हजार दो सौ (७,२००) चौदह पूर्वधारी - एक हजार चार सौ (१,४००) वैक्रिय लब्धिधारी - बारह हजार (१२,०००) वादी - पांच हजार आठ सौ (५,८००) साधु - एक लाख (१,००,०००) साध्वी - एक लाख और छः (१,००,००६) श्रावक - दो लाख नव्वासी हजार (२,८६,०००) श्राविका - चार लाख अट्ठावन हजार(४,५८,०००) परिनिर्वाण कुछ कम पच्चीस हजार पूर्व तक संयम का पालन कर जब प्रायु काल निकट देखा तब प्रभु ने एक हजार मुनियों के साथ एक मास का अनशन किया। ____ अन्त में मन-वचन-कायिक योगों का निरोध करते हए सम्पूर्ण कर्मों का क्षय कर वैशाख कृष्णा द्वितीया को पूर्वाषाढा नक्षत्र में प्रभु ने सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होकर निर्वाण-पद प्राप्त किया। 000 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् श्री श्रेयांसनाथ भगवान् श्री शीतलनाथ के पश्चात् ग्यारहवें तीर्थंकर श्री श्रेयांसनाथ पूर्वमव पुष्कर द्वीप के राजा नलिनगुल्म के भव में इन्होंने राज रोग की तरह राज्य भोग को छोड़कर ऋषि वज्रदन्त के पास दीक्षा ले ली और तीव्र तप से कर्मों को कृश करते हुए निर्मोह भाव से विचरते रहे। वहां बीस स्थानों की आराधना कर तीर्थकर नाम कर्म का उपार्जन किया । अन्त समय में शुभ-ध्यान से आयु पूर्णकर नलिनगुल्म महाशुक्र कल्प में ऋद्धिमान देव हुए। जन्म anima. .in * * OR Krisamnergram 1 जammar भारतवर्ष की भूषणस्वरूपा, सिंहपुरी नगरी के अधिनायक महाराज विष्णु इनके पिता और सद्गुणधारिणी विष्णुदेवी इनकी माता थीं। ज्येष्ठ कृष्णा षष्ठी के दिन श्रवण नक्षत्र में 'नलिनगुल्म' का जीव स्वर्ग से निकलकर माता विष्णु की कुक्षि में उत्पन्न हुआ। माता ने उसी रात्रि में १४ महा शुभ-स्वप्न देखे । गर्भकाल पूर्ण कर माता ने फाल्गुन कृष्णा द्वादशी को सूखपूर्वक पुत्ररत्न को जन्म दिया। आपके जन्म काल में सर्वत्र सूख, शांति और हर्ष का वातावरगा फैल गया । नामकरण बालक के जन्म से समस्त राजपरिवार और राष्ट्र का श्रेय-कल्याण हुना, अतः माता-पिता ने शुभ समय में बालक का गुणसम्पन्न नाम श्रेयांसनाथ रखा। विवाह प्रोर राज्य बाल्यकाल में देव, दानव और मानव कुमारों के संग खेलते हुए जब प्रभु युवावस्था में प्रविष्ट हए तो पिता के प्राग्रह से योग्य कन्याओं के संग आपने पाणिग्रहण किया और इक्कीस लाख वर्ष के होने पर आप राज्य-पद के अधिकारी बनाये गये । .. बयालीस लाख वर्ष तक आप मही-मंडल पर न्यायपूर्वक राज्य का.. संचालन करते रहे। १ जिनस्य मातापितरावुत्सवेन महीयसा, मभिधां श्रेयसि दिने, श्रेयांस इति चक्रतुः ।।४।११८६ त्रि० शलाका पु. च. - Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [राज्य शासन पर दाक्षा और पारणा भोग्य-कर्म के क्षीण होने पर जब आपने संयम ग्रहण करने की इच्छा की, तब लोकान्तिक देवों ने अपनी मर्यादा के अनुसार सेवा में प्राकर प्रभु से प्रार्थना की । फलतः वर्ष भर तक निरन्तर दान देकर एक हजार अन्य राजाओं के साथ बेले की तपस्या में आपने दीक्षार्थ अभिनिष्क्रमण किया और फाल्गुन कृष्णा त्रयोदशी को श्रवण नक्षत्र में सहस्राम्रवन के अशोक वृक्ष के नीचे सम्पूर्ण पापों का परित्याग कर आपने विधिपूर्वक प्रवज्या स्वीकार की। दूसरे दिन सिद्धार्थपुर में राजा नन्द के यहां प्रभु का परमान्न से पारणा सम्पन्न हुआ। केवलज्ञान दीक्षा के पश्चात् दो मास तक छद्मस्थभाव में आप विविध ग्राम-नगरों में विचरते हुए आगत कष्टों को सहन करने में अचल-स्थिर बने रहे । माघ कृष्णा अमावस्या को क्षपकश्रेणी द्वारा मोह-विजय कर शुक्लध्यान की उच्च स्थिति में घाति-कर्मों का सर्वथा क्षय कर षष्ठ तप से अापने केवलज्ञान और केवलदर्शन की उपलब्धि की। केवली होकर प्रभु ने देव-मानवों की विशाल सभा में श्रुति-चारित्र धर्म की देशना दी और चतुर्विध संघ की स्थापना कर, आप भाव-तीर्थकर कहलाये। राज्य शासन पर श्रेयांस का प्रभाव केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् भगवान् श्रेयांसनाथ विचरते हुए पोतनपुर पधारे । भगवान् के पधारने की शुभ सूचना राजपुरुष ने तत्कालीन प्रथम वासुदेव त्रिपृष्ठ को दी। त्रिपृष्ठ यह शुभ समाचार सुनकर इतना अधिक प्रसन्न हुआ कि उसने शुभ संदेश लाने वाले को साढ़े बारह करोड़ मुद्राओं से पुरस्कृत किया और अपने बड़े भाई अचल बलदेव के साथ भगवान् के चरणारविन्दों को वन्दन करने गया। भगवान् की सम्यक्त्व-सुधा बरसाने वाली वाणी को सुनकर दोनों भाइयों ने सम्यक्त्व धारण किया।' यह त्रिपृष्ठ वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम वासुदेव और इचके भाई अचल प्रथम बलदेव थे । १ सम्यक्त्वं प्रतिपेदाते बलभद्रहरी पुनः ॥ त्रि० पु० च० ४।११८४५ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेयांस का प्रभाव भ० श्री श्रेयांसनाथ २१३ भगवान् महावीर के पूर्वभवीय मरीचि के जीव. ने ही महाराज प्रजापति की महारानी भद्रा' की कुक्षि से त्रिपृष्ठ के रूप में जन्म ग्रहण किया। __ इधर प्रथम प्रतिवासुदेव अश्वग्रीव को निमित्तज्ञों की भविष्यवाणी से जब यह ज्ञात हुआ कि उसका संहार करने वाला प्रथम वासुदेव जन्म ग्रहण कर चका' है तो वह चिन्तातुर हो रात-दिन अपने प्रतिद्वन्द्वी की खोज में तत्पर रहने लगा। प्रजापति के पुत्र त्रिपृष्ठ और बलदेव के पराक्रम एवं अद्भुत साहस की सौरभ सर्वत्र फैल रही थी। उससे अश्वग्रीव के मन में शंका उत्पन्न हुई कि हो न हो प्रजापति के दोनों महा पराक्रमी पुत्र ही मेरे लिये काल बनकर पैदा हुए हों, अत: वह उन दोनों को छल-बल से मरवाने की बात सोचने लगा। उन दिनों अश्वग्रीव के राज्य में किसी शालिखेत में एक शेर का भयंकर आतंक छाया हुआ था । अश्वग्रीव की ओर से शेर को मरवाने के सारे उपाय निष्फल हो जाने पर उसने प्रजापति को आदेश भेजा कि वह शालिखेत की शेर से रक्षा करे। . प्रजापति शालिखेत पर जाने को तैयार हुए ही थे कि राजकुमार त्रिपृष्ठ प्रा पहुंचे। उन्होंने साहस के साथ महाराज प्रजापति से कहा-"शेर से खेत की रक्षा करना कौनसा बड़ा काम है, मुझे प्राज्ञा दीजिये, मैं ही उस शेर को समाप्त कर दूंगा।" पिता की आज्ञा से त्रिपष्ठ, अचल बलदेव के साथ शालिखेत पर जा पहुंचे। लोगों के मुख से सिंह की भयंकरता और प्रजा में व्याप्त प्रातंक के संबंध में सुनकर उन्होंने उसे मिटाने का संकल्प किया । त्रिपृष्ठ ने सोचा कि प्रजा में व्याप्त सिंह के आतंक को समाप्त कर दूं, तभी मेरे पौरुष की सफलता है । दोनों भाई निर्भीक हो शेर की मांद की ओर बढ़े और त्रिपृष्ठ ने निर्भय सोये हए शेर को ललकारा । सिंह भी बार-बार की आवाज से ऋद्ध हा और भयंकर दहाड़ के साथ त्रिपृष्ठ पर झपटा । त्रिपृष्ठ ने विद्यत वेग से लपक कर सिंह के दोनों जबड़ों को पकड़ आसानी से पुराने बांस की तरह उसे चीर डाला। सिंह मारे क्रोध और ग्लानि के तड़प रहा था और विचार रहा था-"प्राज एक मानव-किशोर ने मुझे कैसे मार डाला?" सारथी ने शेर को आश्वस्त करते हुए कहा-'वनराज शोक न करो, जिस प्रकार तुम पशुओं में राजा हो १ प्राचार्य हेमचन्द्र ने त्रिपृष्ठ की माता का नाम मृगावती लिखा है । यथा :विश्वभूतिश्च्युतः शुक्रान्मृगावत्या प्रयोदरे । [त्रिषष्टि श. पु. च., पर्व १०, स. १, श्लो. ११८] Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ जैन धर्म का मोलिक इतिहास [राज्य शासन पर उसी प्रकार यह तेजस्वी युवक भी मनुष्यों में राजा है । तुम किसी छोटे व्यक्ति के हाथ से नहीं मारे जा रहे हो।" त्रिपष्ठ द्वारा उस भयंकर और शक्तिशाली सिंह के मारे जाने की खबर सुन कर अश्वग्रीव कांप उठा और उसे निश्चय हो गया कि इसी कुमार के हाथों उसकी मृत्यु होगी। कुछ सोच विचार के बाद उसको एक उपाय सूझा कि इस वीरता के उपलक्ष में पुरस्कार देने के बहाने उन दोनों कुमारों को यहां बुला कर छल-बल से मरवा दिया जाय । अश्वग्रीव ने महाराज प्रजापति को संदेश भिजवाया"आपके दोनों राजकुमारों ने जो वीरतापूर्ण कार्य किया है उसके लिये हम उनको पुरस्कृत और सम्मानित करना चाहते हैं, अतः आप उन्हें यहां भिजवा दें।" अश्वग्रीव के उपरोक्त संदेश के उत्तर में त्रिपष्ठ ने कहलवा भेजा-"जो राजा एक शेर को भी नहीं मार सका उससे हम किसी प्रकार का पुरस्कार लेने को तैयार नहीं हैं।" कुमार त्रिपष्ट के इस उत्तर से अश्वग्रीव तिलमिला उठा और एक बड़ी चतुरंगिणी सेना लेकर उसने प्रजापति पर चढ़ाई कर दी। बलदेव और त्रिपष्ठ भी अपनी सेना के साथ रणांगण में प्रा डटे । दोनों ओर की सेनाएं भिड़ गई और बड़ा भीषण लोमहर्षक युद्ध हुआ। उस समय त्रिपृष्ठ ने अश्वग्रीव से कहलाया कि निरर्थक नर-संहार से तो यह अच्छा रहेगा कि हम दोनों आपस में द्वन्द्वयुद्ध कर लें । अश्वग्रीव भी त्रिपष्ठ के इस प्रस्ताव से सहमत हो गया और दोनों में भयंकर द्वन्द्वयुद्ध चल पड़ा। अन्ततोगत्वा प्रतिवासुदेव अश्वग्रीव, वासुदेव त्रिपृष्ठ द्वारा यद्ध में मारा गया। इस प्रकार त्रिपृष्ठ अर्द्ध-भरत का अधिपति वासुदेव हो गया। त्रिपृष्ठ और अश्वग्रीव के बीच का यह युद्ध भगवान् श्रेयांसनाथ को केवलज्ञान प्राप्त होने से पूर्व हुआ था। वासुदेव त्रिपष्ठ के यहां किसी दिन कुछ संगीतज्ञ, जो अत्यन्त मधुर स्वर से संगीत प्रस्तुत करने में दक्ष थे, आये । शयन का समय होने से त्रिपृष्ठ ने शय्यापाल को आज्ञा दी कि जिस समय मुझे नींद पा जाय, तत्काल संगीत बन्द करा देना। संगीत की मधुर कर्णप्रिय ध्वनि की मस्ती में भूलकर शय्यापाल ने त्रिपृष्ठ को निद्रा आ जाने पर भी संगीत बन्द नहीं कराया। रात भर मंगीत चलता Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेयांस का प्रभाव ] भ० श्री श्रेयांसनाथ २१५ रहा, सहसा त्रिपृष्ठ जाग उठे और क्रुद्ध होकर शय्यापाल से पूछा - "अरे ! संगीत बन्द क्यों नहीं कराया ?" शय्यापाल ने कहा-“महाराज ! संगीत मुझे इतना कर्णप्रिय लगा कि समय का कुछ भी ध्यान नहीं रहा ।" त्रिपृष्ठ ने क्रुद्ध हो अन्य सेवकों को आदेश दिया कि शीशा गरम करके उसके कानों में उंड़ेल दिया जाय । राजाज्ञा को कौन टाले ? शय्यापाल के कानों में गरम २ शीशा उंड़ेल दिया गया और वह तड़प-तड़प कर मर गया । इस तरह के क्रूर कर्मों से वासुदेव त्रिपृष्ठ ने घोर नरक आयु का बन्ध कर लिया । क्रूर अध्यवसाय से उसका सम्यक्त्वभाव खंडित हो गया । ८४ लाख वर्ष की आयु भोगकर वह सातवें नरक का अधिकारी बना । बलदेव अचल ने जब भाई का मरण सुना तो शोक से आकुल हो गये, विवेकी होकर भी अविवेकी की तरह करुण स्वर में विलाप करने लगे । बारबार उठने की आवाज देने पर भी त्रिपृष्ठ महानिद्रा से नहीं उठे तो प्रचल मूर्छित हो भूतल पर गिर पड़े। कालान्तर में मूर्छा दूर होने पर वृद्धजनों से प्रबोधित किये गये । दुःख में वीतराग के चरण ही एकमात्र आधार होते हैं, यह समझकर बलदेव भी प्रभु श्रेयांसनाथ के चरणों का ध्यान कर और उनकी वाणी का स्मरण कर संसार की नश्वरता के बारे में सोचते हुए सांसारिक विषयों से पराङमुख हो गये ।' आखिर धर्मघोष प्राचार्य की वारणी सुनकर अचल बलदेव विरक्त हुए और जिनदीक्षा ग्रहण कर तप-संयम से सकल कर्मों का क्षय कर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गये । इनकी ८५ लाख वर्ष की आयु थी । धर्म परिवार श्रेयांसनाथ के संघ में निम्न गरण एवं गरणधरादि परिवार हुआ : - छिहत्तर (७६) sypy गणधर केवली मनः पर्यवज्ञानी -- - छ हजार पांच सौ (६,५०० ) छ हजार ( ६,०००) १ श्रेयांसस्वामिपादानां स्मरत् श्रेयस्करीं गिरम् । संसारासारतां ध्यायन् विषयेभ्यो पराङमुखः || त्रि०४।१।६०२ ।। २ कहीं पर ६६ का उल्लेख भी मिलता है । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [श्रेयांस का प्रभाव श्रेयांस साधु अवधिज्ञानी - छ हजार (६,०००) चौदह पूर्वधारी - तेरह सौ (१,३००) वैक्रिय लब्धिधारो - ग्यारह हजार (११,०००) वादी - पांच हजार (५,०००) - चौरासी हजार (८४,०००) साध्वी - एक लाख तीन हजार (१,०३,०००) श्रावक - दो लाख उन्यासी हजार (२,७६,०००) श्राविका - चार लाख अड़तालीस हजार (४,४८,०००) परिनिर्वाण केवलज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् दो मास कम इक्कीस लाख वर्ष तक भूमंडल में विचर कर प्रभु ने लोगों को आत्मकल्याण की शिक्षा दी। फिर मोक्षकाल निकट समझकर एक हजार मुनियों के साथ अनशन स्वीकार किया और शुक्लध्यान के अन्तिम चरण में प्रयोगीदशा को प्राप्त कर श्रावण कृष्णा तृतीया को धनिष्ठा नक्षत्र में सम्पूर्ण कर्मों का क्षय कर सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त हुए । आपकी पूर्ण अायु चौरासी लाख वर्ष की थी। 000 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् श्री वासुपूज्य श्रेयांसनाथ के बाद बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य स्वामी हुए। पूर्वभव ‘इन्होंने पुष्कराद्ध द्वीप के मंगलावती विजय में पद्मोत्तर राजा के भव में निरन्तर जिनशासन की भक्ति की । इनके मन में सदा यही ध्यान रहता कि लक्ष्मी चपला की तरह चंचल है और पुण्यबल मंजलिगत जल की तरह नश्वर है, अतः इस नाशवान शरीर से अविनश्वर मोक्ष-पद की प्राप्ति करने में ही जीवन का वास्तविक कल्याण है। ___ संयोगवश भावना के अनुरूप उनका वज्रनाभ गुरु के साथ समागम हा । उनके उपदेश से विरक्त होकर इन्होंने संयम ग्रहण किया और उग्र-कठोर तप एवं अर्हद्-भक्ति प्रादि शुभ स्थानों की पाराधना से तीर्थकर-नामकर्म का उपार्जन किया । अन्तिम समय शुभध्यान में काल कर वे प्राणत स्वर्ग में ऋद्धिमान देव हुए। जन्म प्राणत स्वर्ग से निकल कर यही पद्मोत्तर का जीव तीर्थंकर रूप से उत्पन्न हुआ । भारत की प्रसिद्ध चम्पानगरी के प्रतापी राजा वसुपूज्य इनके पिता और जयादेवी माता थीं। ज्येष्ठ शुक्ला नवमी को शतभिषा नक्षेत्र में पयोत्तर का जीव स्वर्ग से निकलकर माता जया की कुक्षि में गर्भ रूप से उत्पन्न हुमा । उसी रात्रि में माता जया ने चौदह महा शुभ-स्वप्न देखे जो महान् पुण्यात्मा के जन्म-सूचक थे। माता ने उचित आहार-विहार से गर्भकाल पूर्ण किया और फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी. के दिन शतभिषा नक्षत्र के शुभ योग में सुखपूर्वक पुत्ररत्न को जन्म दिया। नामकरण महाराज वसुपूज्य के पुत्र होने के कारण आपका नाम वासुपूज्य रखा गया। विवाह मोर राज्य __ . प्राचार्य हेमचन्द्र के मतानुसार वासुपूज्य अविवाहित माने गये हैं, ऐसा Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [विवाह और राज्य] ही जिनसेन आदि दिगम्बर परम्परा के आचार्यों का भी मन्तव्य है । हेमचन्द्र के अनुसार शैशवकाल पूर्ण होने पर भी जब वासुपूज्य शिशु की तरह भोग से सर्वथा विमुख दिखाई दिये, तब महाराज वासुपूज्य ने पाणिग्रहण का प्रस्ताव रखते हुए पुत्र से अनुरोध की भाषा में कहा-"कुमार ! अब तुम्हें विवाह करना चाहिये। जैसे ऋषभ ने पितृवचन से सुनन्दा और सुमंगला से पाणिग्रहण किया और अजितनाथ से श्रेयांसनाथ तक के भूतकालीन तीर्थंकरों ने भी पिता के अनुरोध. से राज्य का उपभोग कर फिर मोक्ष-मार्ग का साधन किया। इसी प्रकार तुम्हें भी विवाह, राज्य, दीक्षा और तप:साधन की पूर्व-परम्परा का पालन करना चाहिये । यही हमारी अभिलाषा है ।" ... पितृ-वचन को सुनकर वासुपूज्य ने सादर कहा-"तात ! पूर्व पुरुषों के पावन चरित्र को मैं भी जानता हूं, किन्तु सबके भोग्य-कर्म समान नहीं होते। उनके जैसे-जैसे कर्म और भोगफल अवशेष थे, वैसे मेरे भोग-कर्म अवशिष्ट नहीं हैं । साथ ही भविष्य में भी मल्लिनाथ, नेमनाथ आदि तीर्थंकर भोग्य-कर्म अवशेष नहीं होने से बिना विवाह के ही दीक्षित होंगे, ऐसे मुझे भी अविवाहित रहकर दीक्षा ग्रहण करना है । अतः आप प्राज्ञा दीजिये जिससे मैं दीक्षित होकर स्व-पर का कल्याण कर सकू।" इस प्रकार माता-पिता को समझा कर विवाह और राज्य-ग्रहण किये बिना ही इनके दीक्षा-ग्रहण का उल्लेख मिलता है । प्राचार्य हेमचन्द्र के अनुसार वासुपूज्य बालब्रह्मचारी रहे एवं उन्होंने न विवाह किया और न राज्य ही। किन्तु प्राचार्य शीलांक के "चउपन्न महापुरिस चरियं" में दार-परिग्रह करने और कुछ काल राज्यपालन कर दीक्षित होने का उल्लेख है ।' वास्तव में तीर्थंकर की गृहचर्या भोग्यकर्म के अनुसार ही होती है, अतः उनका विवाहित होना या नहीं होना कोई विशेष अर्थ नहीं रखता । विवाह से तीर्थकर की तीर्थकरता में कोई बाधा नहीं पाती। बीक्षा मोर पारणा भोग्यकर्म क्षीण होने पर प्रभु ने लोकान्तिक देवों से प्रेरित होकर वर्षभर तक निरन्तर दान दिया, फिर अठारह लाख वर्ष पूर्ण होने पर छह सौ राजाओं के साथ चतुर्थ-भक्त से दीक्षार्थ निष्क्रमण किया और फाल्गुन कृष्णा अमावस्या को शतभिषा नक्षत्र में सम्पूर्ण पापों का परित्याग कर श्रमणवृत्ति स्वीकार की। __दूसरे दिन महापुर में जाकर राजा सुनन्द के यहां प्रभु ने परमान से प्रथम पारणा किया । देवों ने पंच-दिव्य बरसा कर पारण की बड़ी महिमा की। १ तो कुमारभावमणुवालिऊण किंचिकालं कयदारपरिग्गहो रायसिरिमणुवालिऊण.. . चउ० महापुरिस च० पृ० १०४ । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 . -. ..' A [केवलज्ञान भ० श्री वासुपूज्य केवलज्ञान दीक्षा लेकर भगवान् तपस्या करते हुए एक मास छद्मस्थचर्या में विचरे और फिर उसी उद्यान में पाकर पाटला वृक्ष के नीचे ध्यानस्थित हो गये । शुक्लध्यान के दूसरे चरण में चार घातिकर्मों का क्षय कर माघ शुक्ला द्वितीया को शतभिषा के योग में प्रभु ने चतुर्थ-भक्त (उपवास) से केवलज्ञान की प्राप्ति की। केवली होकर प्रभु ने देव-असुर-मानवों की विशाल सभा में धर्म-देशना दी तथा शान्ति प्रादि दशविध धर्म का स्वरूप समझाकर चतुर्विध संघ की स्थापना की और भाव-तीर्थंकर कहलाये। _ विहार करते हुए जब प्रभु द्वारिका के निकट पधारे तो राजपुरुष ने वासूदेव द्विपष्ठ को प्रभ के पधारने की शुभ-सूचना दी। भगवान वासुपूज्य के पधारने की शुभ-सूचना की बधाई सुनाने के उपलक्ष में वासुदेव ने उसको साढ़े बारह करोड़ मुद्राओं का प्रीतिदान दिया। त्रिपृष्ठ के बाद ये भरत क्षेत्र में इस समय के दूसरे वासुदेव होते हैं । धर्म-परिवार आपके संघ में निम्न परिवार था :गण एवं गणधर - छियासठ [६६] केवली - छ हजार [६,०००] मनःपर्यवज्ञानी - छ हजार एक सौ [६,१००] अवधिज्ञानी ~ पांच हजार चार सौ [५,४००] चौदह पूर्वधारी - एक हजार दो सौ [१,२००] वैक्रिय लब्धिधारी - दस हजार [१०,०००] - चार हजार सात सौ [४.७००] साधु - बहत्तर हजार [७२,०००] - एक लाख [१,००,०००] श्रावक - दो लाख पन्द्रह हजार [२,१५,०००] श्राविका - चार लाख छत्तीस हजार [४,३६,०००] राज्य-शासन पर धर्म-प्रभाव श्रेयांसनाथ की तरह भगवान् वासुपूज्य का धर्मशासन भी सामान्य लोकजीवन से लेकर राजघराने तक व्यापक हो चला था । छोटे-बड़े राजाओं के अतिरिक्त उस समय के अर्द्ध चक्री (वासुदेव) द्विपृष्ठ और विजय बलदेव पर भी . उनका विशिष्ट प्रभाव था। वादी साध्वी Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [केवलज्ञान] प्रभ के पधारने की खबर सुनकर द्विपष्ठ ने भी साढ़े बारह करोड मुद्रामों का प्रीतिदान किया और वासुपूज्य भगवान् की वीतरागमयी वाणी सुनकर सम्यक्त्व ग्रहण किया तथा विजय बलदेव ने श्रावकधर्म अंगीकार किया। कालान्तर में मुनि-धर्म स्वीकार कर विजय ने शिव-पद प्राप्त किया। परिनिर्वाण एक मास कम चौवन लाख वर्ष तक केवली पर्याय में विचर कर प्रभु ने लाखों भव्य-जनों को धर्म का संदेश दिया। फिर मोक्ष-काल निकट जानकर. चम्पा नगरी पधारे और छह सौ मुनियों के साथ एक मास का अनशन कर शुक्लध्यान के चतुर्थ चरण से अक्रिय होकर सम्पूर्ण कर्मों का क्षय किया एवं प्राषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी को उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त होकर प्रभु ने निर्वाण-पद की प्राप्ति की। 000 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् श्री विमलनाथ भगवान् वासुपूज्य के बाद तेरहवें तीर्थंकर भगवान् श्री विमलनाथ हुए। पूर्वभव तीर्थंकर-नामकर्म का उपार्जन करने के लिये इन्होंने भी धातकी खण्ड की महापुरी नगरी में राजा पद्मसेन के भव में वैराग्य प्राप्त किया और जिनशासन की बड़ी सेवा की। मुनि सर्वगुप्त का उपदेश सुनकर ये विरक्त हए और शिक्षा-दीक्षा लेकर निर्मलभाव से आपने संयम की आराधना की। वहां बीस स्थानों की आराधना कर इन्होंने तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया और अन्त में समाधिपूर्वक पायु पूर्ण कर पाठवें सहस्रार-कल्प में ऋद्धिमान् देव रूप से उत्पन्न हुए । जन्म सहस्रार देवलोक से निकल कर पद्मसेन का जीव वैशाख शुक्ला द्वादशी को उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में माता श्यामा की कुक्षि में उत्पन्न हुआ। ___ इनकी जन्मभूमि कंपिलपुर थी। विमल यशधारी महाराज कृतवर्मा इनके पिता थे और उनकी सुशीला पत्नी श्यामा प्रापकी माता थीं। माता ने गर्भ धारण के पश्चात् मंगलकारी चौदह शुभ-स्वप्न देखे और उचित आहार-विहार से गर्भकाल पूर्ण कर माघ शुक्ला तृतीया को उत्तराभाद्रपद में चन्द्र का योग होने पर सुखपूर्वक सुवर्णकान्ति वाले पुत्ररत्न को जन्म दिया। देवों ने सुमेरु पर्वत की प्रति पांडुकम्बल शिला पर प्रभु का जन्म-महोत्सव मनाया । महाराज कृतवर्मा ने भी हृदय खोल कर पुत्र जन्म की खुशियां मनाई। नामकरण दश दिनों के आमोद-प्रमोद के पश्चात महाराज कृतवर्मा ने नामकरण के लिये मित्रों व बान्धवजनों को एकत्र किया और बालक के गर्भ में रहने के समय माता तन, मन से निर्मल बनी रहीं, अतः बालक का नाम विमलनाथ रखा।' १ गर्भस्थे जननी तस्मिन् विमला यदजायत । ततो विमल इत्याख्यां, तस्य चक्रे पेता स्वयम् ।। त्रिष० ४।३।४८ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास विवाह और राज्य एक हजार आठ लक्षण वाले विमलनाथ जब तरुण हुए तो भोगों में रति नहीं होने पर भी माता-पिता के आग्रह से प्रभु ने योग्य कन्याओं के साथ पारिणग्रहरण किया । २२२ पन्द्रह लाख वर्ष कुंवर पद में बिता कर आप राज्य-पद पर आरूढ़ हुए और तीस लाख वर्ष तक प्रभु ने न्याय-नीतिपूर्वक राज्य का संचालन किया । पैंतालीस लाख वर्ष के बाद जब भव- विपाकी कर्म को क्षीण हुआ समझा तब प्रभु ने भवजलतारिणी ग्राहंती दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त की। दीक्षा और पारणा [विवाह और राज्य लोकान्तिक देवों द्वारा प्रार्थित प्रभु वर्ष भर तक कल्पवृक्ष की तरह याचकों को इच्छानुसार दान देकर एक हजार राजाओं के संग दीक्षार्थ सहस्राम्र वन में पधारे और माघ शुक्ला चतुर्थी को उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में षष्ठभक्त की तपस्या से सब पाप कर्मों का परित्याग कर दीक्षित हो गये । दूसरे दिन धान्यकट पुर में जाकर प्रभु ने महाराज जय के यहां परमान्न से पाररणा किया । केवलज्ञान पारणा करने के पश्चात् वहां से बिहार कर दो वर्ष तक प्रभु विविध ग्राम नगरों में परिषहों को समभाव से सहन करते हुए विचरते रहे । फिर दीक्षास्थल में पहुंचकर अपूर्वकरण गुरणस्थान से क्षपक श्रेणी में श्रारूढ़ हुए और ज्ञानावरण आदि चार घाति-कर्मों को क्षय कर पौष शुक्ला षष्ठी को उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में बेले की तपस्या से प्रभु ने केवलज्ञान, केवलदर्शन की प्राप्ति की । केवलज्ञान के पश्चात् जब प्रभु विहार कर द्वारिका पधारे और समवसररण हुआ तब राजपुरुष ने तत्कालीन वासुदेव स्वयंभू को प्रदर्शन की शुभसूचना दी। उन्होंने भी प्रसन्न होकर साढ़े बारह करोड़ रौप्यमुद्रात्रों का प्रीतिदान देकर उसको संत्कृत किया और प्रभु की देशना सुनकर जहां हजारों नरनारियों ने चारित्र-धर्म स्वीकार किया वहां वासुदेव ने भी सम्यक्त्व - धर्म स्वीकार किया । चतुर्विध संघ की स्थापना कर प्रभु ने भाव तीर्थंकर का पद सार्थक किया । धर्म परिवार आपके संघ में मन्दर प्रादि छप्पन गरणधरादि सहित निम्न परिवार था :गरण एवं गणधर छप्पन (५६) केवली पांच हजार पांच सौ (५,५०० ) Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ । । । । । ENRessmendrearestatunt परिनिर्वाण] भगवान् श्री विमलनाथ मनःपर्यवज्ञानी पांच हजार पांच सौ (५,५००) अवधिज्ञानी चार हजार आठ सौ (४,८००) चौदह पूर्वधारी एक हजार एक सौ (१,१००) वैक्रिय लब्धि-धारी नौ हजार (६,०००) वादी तीन हजार दो सौ (३,२००) साधु अड़सठ हजार (६८,०००) साध्वी एक लाख माठ सौ (१,००,८००) श्रावक दो लाख आठ हजार (२,०८,०००) श्राविका चार लाख चौबीस हजार(४,२४,०००) राज्य-शासन पर धर्म-प्रभाव तेरहवें तीर्थकर भगवान् विमलनाथ के समय में मेरक प्रतिवासुदेव और स्वयंभू वासुदेव हुए Timrahman वि 'लनाथ के धर्म-शासन का साधारण जन से लेकर लोकनायक-शासकों पर भी पूरा, भाव था। भगवान् विमलनाथ के समवसरण की बात जान कर वासुदेव स्वयनू भी अपने ज्येष्ठ भ्राता भद्र बलदेव के साथ वन्दन करने गया और प्रभु की वाणी सुनकर स्वयंभू ने सम्यक्त्व धारण किया और भद्र बलदेव ने श्रावक-धर्म ग्रहण किया। वासुदेव स्वयंभू की मृत्यु के पश्चात् बलदेव भद्र ने विरक्त होकर मुनिधर्म ग्रहण किया और पैंसठ लाख वर्ष की भायु भोग कर अन्तिम समय की आराधना से मुक्ति प्राप्त की। परिनिर्वाण दो वर्ष कम पन्द्रह लाख वर्ष तक केवली रूप से जन-जन को सत्य-मार्ग का उपदेश देकर जब प्रभु ने अपना आयुकाल निकट देखा तब छः सौ साधुनों के साथ उन्होंने एक मास का अनशन किया और मास के अन्त में शेष चार अघाति-कर्मों का क्षय कर आषाढ़ कृष्णा' सप्तमी को पुष्य नक्षत्र में शुद्ध, बुद्ध और मुक्त होकर निर्वाण-पद प्राप्त किया। आपकी पूर्ण प्रायु साठ लाख वर्ष की थी। Cameramani 000 १ प्रवचन सारोबार, हरिवंश पु. और तिलोयपन्नत्ति में प्राषाढ कृष्णा ८ उल्लिखित है, जब कि सत्तरिसय द्वार की गाथा ३०६ से ३१० में प्राषाढ़ कृष्णा । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् श्री अनन्तनाथ भगवान् विमलनाथ के पश्चात् चौदहवें तीर्थंकर श्री अनन्तनाथ हए। पूर्वभव इन्होंने धातकीखण्ड की अरिष्टा नगरी में महाराज पद्मरथ के भव में तीर्थंकर-पद की साधना की। महाराज पद्मरथ बड़े शूरवीर और पराक्रमी राजा थे। द... . विरोधी राजाओं और समस्त महीमंडल को जीतकर भी मोक्ष-लक्ष्मी की साधना में उन्होंने उसको नगण्य समझा और कुछ समय बाद वैराग्य भाव से चित्तरक्ष गुरु के पास संयम ग्रहण कर तप-संयम की विशिष्ट साधना की और तीर्थंकर-नामकर्म का उपार्जन किया। अन्त समय में शुभ ध्यान से प्राण त्याग कर दसवें स्वर्ग के ऋद्धिमान् देव हुए। जन्म अयोध्या नगरी के महाराज सिंहसेन इनके पिता और महारानी सुयशा इनकी माता थीं । श्रावण कृष्णा सप्तमी को रेवती नक्षत्र में स्वर्ग से निकलकर पद्मरथ का जीव माता सुयशा की कुक्षि में गर्भ रूप से उत्पन्न हया । माता ने चौदह शुभ-स्वप्न देखे । गर्भकाल पूर्ण होने पर वैशाख कृष्णा त्रयोदशी के दिन रेवती नक्षत्र के योग में माता सुयशा ने सुखपूर्वक पुत्र-रत्न को जन्म दिया । देवों, दानव और मानवों ने जन्म की खुशियां मनाई। नामकरण दश दिन तक प्रामोद-प्रमोद मनाने के उपरान्त नामकरण करते समय महाराज मिहमेन ने विचार किया-"बालक की गर्भावस्था में प्राक्रमगार्थ प्राये हए अतीव उत्कट अपार शत्र-सैन्य पर भी मैंने विजय प्राप्त की अत: इस बालक का नाम अनन्तनाथ रखा जाय ।'' इस विचार के अनरूप ही प्रभ का नामकरण हुआ। १ (क) गर्भस्थेऽस्मिन् जितं पित्रानन्तं परबलं यतः । ततश्चक्रेऽनन्तजिदित्याख्यां परमेशितुः ।।त्रि०प० ४।४।४७ (ख) गम्भत्थे य भगवम्मि पिउरणा 'प्रणतं परबलं जिय ति तम्रो जहत्थं अणन्त इजिगो ति का नाम भवगगुरुगो ।। च० महापुरिम चग्यि, पृ.१२६ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह और राज्य भगवान् श्री अनन्तनाथ २२५ विवाह और राज्य __ चन्द्रकला की तरह बढ़ते हुए प्रभु ने कोमारकाल के सात लाख पचास हजार वर्ष पूर्ण कर जब तारुण्य प्राप्त किया तब पिता सिंहसेन ने प्रत्याग्रह से योग्य कन्याओं के साथ आपका पारिणग्रहण करवाया और राज्य की व्यवस्था के लिये आपको राज्य-पद पर भी अभिषिक्त किया। पन्द्रह लाख वर्ष तक समुचित रीति से राज्य का पालन कर जब आपने भोग्य-कर्म को क्षीण समझा तो मुनिव्रत ग्रहण करने का संकल्प किया। दीक्षा और पारणा — लोकान्तिक देवों की प्रेरणा से प्रभु ने वर्षीदान से याचकों को इच्छानुकूल दान देकर वैशाख कृष्णा चतुर्दशी को रेवती नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ सम्पूर्ण पापों का परित्याग कर मुनिधर्म की दीक्षा ग्रहण की। उस समय आपके बेले की तपस्या थी। दीक्षा के बाद दूसरे दिन वर्द्धमानपुर में जाकर प्रभु ने विजय भूप के यहां परमान्न से पारण किया। केवलज्ञान दीक्षित होने के बाद प्रभु तीन वर्ष तक छद्मस्थचर्या से ग्रामानुग्राम विचरते रहें फिर अवसर देख सहस्राम्र वन में पधारे और अशोक वृक्ष के नीचे ध्यानस्थित हो गये। क्षपक-श्रेणी से कषायों का उन्मूलन कर शुक्लध्यान के दूसरे चरण से प्रभु ने धाति-कर्मों का क्षय किया और वैशाख कृष्णा चतुर्दशी को रेवती नक्षत्र में अष्टमभक्त-तपस्या से केवलज्ञान की उपलब्धि की। केवली होकर देव-मानवों की सभा में प्रभु ने धर्म-देशना दी और चतुर्विध संघ की स्थापना कर भाव-तीर्थकर कहलाये। द्वारिका के पास पहुंचने पर तत्कालीन वासुदेव पुरुषोत्तम ने भी आपका उपदेश-श्रवण किया और सम्यक्त्व धर्म की प्राप्ति की। धर्म परिवार भगवान् अनन्तनाथ के संघ में निम्न धर्म-परिवार था :गण एवं गणधर - पचास [५०] केवली - पांच हजार [५,००० मनःपर्यवज्ञानी' - पांच हजार [५,००० १ हेमचन्द्राचार्य ने त्रि० शलाका पुरु० च० में ४५०० मनःपर्यवज्ञानी लिखे हैं। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [परिनिर्वाण अवधिज्ञानी - चार हजार तीन सौ [४,३००] चौदह पूर्वधारी __ नौ सौ [६००] वैक्रिय लब्धिधारी पाठ हजार [८,०००] वादी - • तीन हजार दो सौ [३,२००] साधु छियासठ हजार [६६,०००] साध्वी बासठ हजार [६२,०००] श्रावक दो लाख छः हजार [२,०६,०००] श्राविका चार लाख चौदह हजार [४,१४,०००] राज्य-शासन पर धर्म-प्रभाव चौदहवें तीर्थंकर भगवान् अनन्तनाथ के समय में भी पुरुषोत्तम नाम के वासुदेव और सुप्रभ नाम के बलदेव हुए। । भगवान् के निर्मल ज्ञान की महिमा से प्रभावित होकर पुरुषोत्तम भी अपने ज्येष्ठ भ्राता के साथ इनके वन्दन को गया और भगवान की प्रमतमयी वाणी से अपने मन को निर्मल कर उसने सम्यक्त्व-धर्म की प्राप्ति की। बलदेव सुप्रभ ने श्रावक-धर्म ग्रहण किया और भाई की मृत्यु के पश्चात् संसार की मोह-माया से विरक्त हो मुनि-धर्म ग्रहण कर अन्त में मुक्ति-पद प्राप्त किया। परिनिर्वाण .. तीन वर्ष कम सात लाख वर्ष तक केवली पर्याय में विचर कर जब मोक्षकाल निकट समझा तब प्रभु ने एक हजार साधनों के साथ एक मास का अनशन किया और चैत्र शुक्ला पंचमी को रेवती नक्षत्र में तीस लाख वर्ष की आयु पूर्ण कर, सकल कर्मों को क्षय कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए। 000 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् श्री धर्मनाथ भगवान् अनन्तनाथ के पश्चात् पन्द्रहवें तीर्थंकर श्री धर्मनाथ हुए। पूर्वभव एक समय धातकीखण्ड के पूर्व-विदेह में स्थित भद्दिलपुर के महाराज सिंहरथ प्रबल पराक्रमी और विशाल साम्राज्य के अधिपति होकर भी धर्म में बड़े दृढ़प्रतिज्ञ थे। नित्यानन्द की खोज में उन्होंने संसार के सभी सुखों को नीरस समझकर निस्पृह-भाव से इन्द्रिय-सुखों का परित्याग कर विमलवाहन मुनि के पास दुर्लभतम चारित्रधर्म को स्वीकार किया एवं तप-संयम की साधना करते हुए तीर्थकर-नामकर्म की योग्यता प्राप्त की। समता को उन्होंने योग की माता और तितिक्षा को जीवन-सहचरी सखी माना । दीर्घकाल की साधना के बाद समाधिपूर्वक आयु पूर्ण कर वे वैजयन्त विमान में अहमिन्द्र रूप से उत्पन्न हुए । यही सिंहरथ का जीव आगे चलकर धर्मनाथ तीर्थंकर हुआ। सिंहरथ का जीव वैजयन्त विमान से च्यवन कर वैशाख शुक्ला सप्तमी' को पुष्य नक्षत्र में रत्नपुर के महाप्रतापी महाराज भानु की महारानी सुव्रता के गर्भ में उत्पन्न हुआ । महारानी सुव्रता तीर्थंकर के जन्म-सूचक चौदह महामंगलकारी शुभ-स्वप्न देखकर हर्षविभोर हो गई। गर्भकाल पूर्ण होने पर माघ शुक्ला तृतीया को पुष्य नक्षत्र के योग में माता सुव्रता ने सुखपूर्वक पुत्ररत्न को जन्म दिया। देवेन्द्रों और महाराज भानु ने बड़े ही हर्षोल्लास के साथ भगवान् धर्मनाथ का जन्म-महोत्सव मनाया। नामकरण बारहवें दिन सब लोग नामकरण के लिये एकत्रित हुए। महाराज भानु ने सबको संबोधित करते हुए कहा-"बालक के गर्भ में रहते माता को धर्म-साधन के उत्तम दोहद उत्पन्न होते रहे और उसकी भावना सदा धर्ममय १ अण्णया वइसाइ सुद्धपंचमीए पूसजोगम्मि.......वेजयन्त विमाणाम्रो पविऊण सुव्वयाए कुच्छिसि समुप्पणो....... [चउ० म० पु० च०, पृ० १३३] Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास रही, श्रतः बालक का नाम धर्मनाथ रखा जाता है ।"" विवाह प्रौर राज्य देव कुमारों के साथ क्रीड़ा करते हुए प्रभु ने शैशवकाल पूर्ण किया । फिर पिता की चिरकालीन अभिलाषा को पूर्ण करने और भोग्य-कर्म को चुकाने के लिये श्रापने पाणिग्रहण किया । २२८ दो लाख पचास हजार वर्ष के बाद पिता के अनुरोध से प्रापने राज्यभार ग्रहण किया और पांच लाख वर्ष तक भली भांति पृथ्वी का पालन करने के पश्चात् प्राप भोग्य - कर्म को हल्का हुआ जानकर दीक्षा ग्रहण करने को तत्पर हुए । दीक्षा और पाररणा लोकान्तिक देवों ने प्रार्थना की- "भगवन् ! वर्म - तीर्थ को प्रवृत्त कीजिये ।" [विवाह और राज्य उनकी विज्ञप्ति से वर्ष भर तक दान देकर नागदत्ता शिविका से प्रभु नगर के बाहर उद्यान में पहुँचे और एक हजार राजाओं के साथ बेले की तपस्या से माघ शुक्ला त्रयोदशी को पुष्य नक्षत्र में सम्पूर्ण पापों का परित्याग कर आपने दीक्षा ग्रहण की । दूसरे दिन सौमनस नगर में जाकर धर्मसिद्ध राजा के यहां प्रभु ने परमान्न से प्रथम पाररणा किया । देवों ने पंच-दिव्य बरसा कर दान की महिमा प्रकट की । केवलज्ञान विभिन्न प्रकार के तप-नियमों के साथ परीषहों को सहते हुए प्रभु दो वर्ष तक छद्मस्थचर्या से विचरे, फिर दीक्षा-स्थान में पहुंचे और दधिपर्ण वृक्ष के नीचे ध्यानावस्थित हो गये । शुक्लध्यान से क्षपक श्रेणी का आरोहण करते हुए पौष शुक्ला पूर्णिमा के दिन भगवान् धर्मनाथ ने पुष्य नक्षत्र में ज्ञानावरणादि घाति कर्मों का सर्वथा क्षय कर केवलज्ञान, केवलदर्शन की प्राप्ति की । १ (क) गर्भस्थेऽस्मिन् धर्मविधी, यन्मातुर्दोहदोऽभवत् । तेनास्य धर्म इत्याख्यामकार्षीत् भानुभूपतिः ।। त्रि० ४ | ५ | ४९ ॥ (ख) “भगवम्मि गब्भत्थे' प्रतीव जगणीए धम्मकरणदोहलो प्रासि त्ति तो धम्मो ति नाम कयं तिहुरणगुरुरणो । च० महा पु० च० पृ० १३३ (ग) श्रम्मा पितरो सावग धम्मे भुज्जो चुक्के खलंति, उववण्णे दढव्वतारिण || [श्रा. चू., पूर्व. भा. पृ. ११] Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ. धर्मनाथ के शासन के तेजस्वी रत्न] भगवान् श्री धर्मनाथ २२६ __ केवली बनकर देवासुर-मनुजों की विशाल सभा में देशना देते हुए प्रभु ने कहा- "मानवो! बाहरी शत्रुओं से लड़ना छोड़कर अपने अन्तर के विकारों से युद्ध करो । तन, धन और इन्द्रियों का दास बनकर आत्मगुण की हानि करने वाला नादान हैं। नाशवान् पदार्थों में प्रीति कर अनन्तकाल से भटक रहे हो, अब भी अपने स्वरूप को समझो और भोगों से विरत हो सहजानन्द के भागी बनो।" प्रभु का इस प्रकार का उपदेश सुनकर हजारों नर-नारियों ने चारित्र. धर्म स्वीकार किया। वासुदेव पुरुषसिंह और बलदेव सुदर्शन भी भगवान् के उपदेश से सम्यग-दृष्टि बने । चतुर्विध संघ की स्थापना कर प्रभु भाव-तीर्थंकर कहलाये । भगवान् धर्मनाथ के शासन के तेजस्वी रत्न भगवान् धर्मनाथ के केवलज्ञान की महिमा सुनकर वासुदेव पुरुषसिंह और बलदेव सुदर्शन भी प्रभावित हुए। प्रतिवासुदेव निशुभ को मार कर पुरुषसिंह त्रिखण्डाधिपति बन चुका था । भगवान् के अश्वपुर नगर में पधारने पर बलदेव सुदर्शन और पुरुषसिंह भी वंदन को गये। प्रभु की वाणी सुनकर बलदेव व्रतधारी श्रावक बने और पुरुषसिंह वासुदेव सम्यग्दृष्टि । - महारंभी होने से पुरुषसिंह मर कर छठी नरक भूमि में गया और बलदेव भातवियोग से विरक्त होकर संयमी बन गये। तप-संयम की सम्यग् आराधना कर वे मुक्ति के अधिकारी बने । यह भगवान धर्मनाथ के उपदेश का ही फल था । वासुदेव की तरह भगवान् के शासन में चक्रवर्ती भी उनकी उपासना करते । चक्री मघवा और सनत्कुमार जैसे बल रूप और ऐश्वर्य-सम्पन्न सम्राट भी त्याग-मार्ग की शरण लेकर मोक्ष-मार्ग के अधिकारी हो गये। ये दोनों चक्रवर्ती पन्द्रहवें तीर्थंकर भगवान धर्मनाथ और सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ के अन्तराल-काल में अर्थात भगवान धर्मनाथ के शासनकाल में हए । उनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है :-- भगवान् धर्मनाथ के पश्चात् तीसरे चक्रवर्ती मघवा हुए । सावत्यी नगरी के महाराज समुद्रविजय की पतिव्रता देवो भद्रा से मघवा का जन्म हुआ, माता ने चौदह शुभ-स्वप्नों में इन्द्र के समान पराक्रमी पुत्र के होने की बात जानकर बालक का नाम मघवा रखा। - समुद्रविजय के बाद वे राज्य का संचालन करने लगे । प्रायुधशाला में चक्ररत्न के उत्पन्न होने पर षट्खण्ड की साधना कर चक्रवर्ती बने । भोग की Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३०. जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् धर्मनाथ के विपुल सामग्री पाकर भी आप उसमें आसक्त नहीं हुए अपितु अपनी धर्मकरणी में वृद्धि करते रहे । अन्त में सम्पूर्ण प्रारम्भ-परिग्रह का त्याग कर चारित्रधर्म स्वीकार किया और समाधिभाव में काल कर तीसरे देवलोक में महद्धिक देव हुए। चौथे चक्रवर्ती सनतकुमार भी भगवान् धर्मनाथ के शासन में हुए । प्राप अतिशय रूपवान् और शक्तिसम्पन्न थे । इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है: जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में हस्तिनापुर नगर के शासक महाराज अश्वसेन शील, शौर्य आदि गुणसम्पन्न थे। उनकी धर्मशीला रानी सहदेवी की कुक्षि में एक स्वर्गीय जीव उत्पन्न हुआ। महारानी ने चौदह शुभ-स्वप्न देखे और स्वप्नों का शभ फल जानकर प्रसन्न हुईं एवं समय पर तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। स्वर्ण के समान कान्ति वाले पुत्र को देखकर बालक का नाम सनत्कुमार रखा। सनत्कुमार ने बड़े होकर विविध कलाओं का ज्ञान प्राप्त किया। उसका एक मित्र महेन्द्रसिंह था जो बहुत ही पराक्रमी और गुणवान् था। एक दिन राजकुमार ने महाराज अश्वसेन को भेंट में प्राप्त हुए उत्तम जाति के घोड़े देखे और उनमें जो सर्वोत्तम घोड़ा था, उसकी लगाम पकड़ कर सनतकुमार उस पर प्रारूढ़ हो गया । सनत्कुमार के आरूढ़ होते ही घोड़ा वायुवेग से उड़ता सा बढ़ चला । कुमार ने लगाम खींचकर घोड़े को रोकने का भरसक प्रयत्न किया, पर ज्यों-ज्यों कुमार ने घोड़े को रोकने का प्रयास किया, त्यों-त्यों घोड़े की गति बढ़ती ही गई। महेन्द्रसिंह आदि सब साथी पीछे रह गये और सनत्कुमार अदृश्य हो गया। राजा अश्वसेन, अपने पुत्र सनत्कुमार के अदृश्य होने की बात सुनकर बडे चिन्तित हए और स्वयं उसकी खोज करने लगे । प्रांधी के कारण मार्ग के चरण-चिह्न भी मिट गये थे। महेन्द्रसिंह ने महाराज अश्वसेन को किसी तरह पोछे लौटाया और स्वयं एकाकी ही कुमार को खोजने की धुन में निकल पड़ा। इस प्रकार खोज करतेकरते लगभग एक वर्ष बीत गया, पर राजकुमार का कहीं पता नहीं लगा। सनतकुमार की खोज में विविध स्थानों और वनों में घूमते-घूमते महेन्द्रसिंह ने एक दिन किसी एक जंगल में हंस, सारस, मयूरादि पक्षियों की प्रावाज सनी और शीतल-सुगन्धित वायु के झोंके उस दिशा से पाकर उसका स्पर्श करने लगे तो वह कुछ आशान्वित हो उस दिशा की ओर आगे बढ़ा। छ दूर जाकर उसने देखा कि कुछ रमणियाँ मधुर-ध्वनि के साथ आमोद-प्रमोद कर रही हैं। उन रमणियों के मध्य एक परिचित युवा को Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन के तेजस्वी रत्न भगवान् श्री धर्मनाथ २३१ देखकर ज्योंही वह आगे बढ़ा तो अपने चिरप्रतीक्षित सखा सनत्कुमार से उसका साक्षात्कार हो गया। दोनों एक दूसरे को देखकर हर्षविभोर होगये । पारस्परिक कुशलवृत्त पूछने के पश्चात् महेन्द्र ने सनत्कुमार के साथ बीती सारी बात जाननी चाही। राजकूमार ने कहा-“मैं स्वयं कहूं इसकी अपेक्षा विद्याधरकन्या बकुलमति से सुनेंगे तो अच्छा रहेगा।" बकुलमति ने सनत्कुमार के शौर्य की कहानी सुनाते हुए बताया कि किस प्रकार आर्य-पुत्र ने यक्ष की दानवी शक्तियों से लोहा लेकर विजय पाई और किस प्रकार वे सब उनकी (सनत्कुमार की) अनुचरियां बन गई। । सनत्कुमार की गौरवगाथा सुनकर महेन्द्रसिंह अत्यन्त प्रसन्न हुआ। तदनन्तर उसने राजकुमार को माता-पिता की स्मति दिलाई। फलस्वरूप राजकुमार अपने परिवार सहित हस्तिनापुर की ओर चल पड़े। कुमार के आगमन का समाचार सुनकर महाराज अश्वसेन के हर्ष का पारावार नहीं रहा । उन्होंने बड़े उत्सव के साथ कुमार का नगर-प्रवेश कराया और पुत्र के शौर्यातिरेक को देखकर उसे राज्य-पद पर अभिषिक्त किया और महेन्द्रसिंह को सेनापति बनाकर स्वयं भगवान् धर्मनाथ के शासन में स्थविर मुनि के पास दीक्षित हो गये। न्याय-नीति के साथ राज्य का संचालन करते हुए सनतकुमार की पुण्यकला चतुर्मुखी हो चमक उठी। उनकी प्रायुधशाला में चक्ररत्न प्रकट हुआ, तब षट्खण्ड की साधना कर उन्होंने चक्रवर्ती-पद प्राप्त किया। सनतकमार की रूपसंपदा इतनी अदभत थी कि स्वर्ग में भी उनकी प्रशंसा होने लगी। एक बार सौधर्म देवलोक में दूसरे स्वर्ग का एक देव पाया तो उसके रूप से वहां के सारे देव चकित हो गये। उन्होंने कालान्तर में इन्द्र से पूछा- "इसका रूप इतना अलौकिक कैसे है ?" इन्द्र ने कहा- "इसने पूर्वजन्म में आयंबिल-वर्द्धमान तप किया था, उसका यह प्रांशिक फल है।" देवों ने पूछा-"क्या ऐसा दिव्य रूप कोई मनुष्य भी पा सकता है ?" इन्द्र ने कहा-"भरतक्षेत्र में सनत्कुमार चक्री ऐसे ही विशिष्ट रूप वाले हैं।" इन्द्र की बात सब देवों ने मान्य की, पर दो देवों ने नहीं माना। वे ब्राह्मण का रूप बनाकर आये और उन्होंने द्वारपाल से चक्रवर्ती के रूप-दर्शन की उत्कंठा व्यक्त की। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ . जैन धर्म का मौलिक इतिहास भगवान् धर्मनाथ के - उस समय सनत्कुमार स्नान-पीठ पर खुले बदन नहाने बैठे थे, ब्राह्मणों की प्रबल इच्छा जानकर चक्री ने कहा- “आने दो ।" ब्राह ण पाये और सनत्कुमार का रूप-लावण्य देखकर चकित हो गये। चक्री ने कहा-"अभी क्या देख रहे हो ? स्नान के पश्चात जव वस्त्राभूषणों से सुसज्जित हो सभा में बैठू तब देखना ।" . ब्राह्मणों ने कहा-"जैसी आज्ञा ।" कुछ ही समय में स्नानादि से निवृत्त हो महाराज कल्पवृक्ष की तरह अलंकृत विभूषित हो राजसभा में पाये, उस समय उन दोनों ब्राह्मणों को भी बुलाया गया। ब्राह्मणों ने देखा तो शरीर का रंग बदल गया था। वे मन ही मन खेद का अनुभव करने लगे। चक्रवर्ती ने पूछा-“चिन्तित क्यों हैं ?" ब्राह्मण बोले-“राजन् ! शरीरं व्याधिमंदिरम्” आपके सुन्दर शरीर में कीड़े उत्पन्न हो गये हैं।" शरीर की इस नश्वरता से सनतकमार संभल गये और विरक्त हो सम्पर्ग आरंभ-परिग्रह का त्यागकर मनि बन गये। दीक्षित होकर वे निरन्तर बेले-बेले की तपस्या करने लगे, रोग आदि प्रतिकल परीषहों में भी विचलित नहीं हए । दीर्घकाल की इस कठिन तपस्या एवं साधना से उनको अनेक लब्धियां प्राप्त हो गई। एक बार पुनः स्वर्ग में उनकी प्रशंसा हुई और देव उनके धैर्य की परीक्षा करने आया। देव वैद्य का रूप बनाकर आया और अावाज लगाते हुए मुनि के पास से निकला-“लो दवा, लो दवा । रोग मिटाऊ ।” मनि ने कहा--"वैद्य ! कौनसा रोग मिटाते हो ? भाव-रोग दूर कर सकते हो तो करो, द्रव्य-रोग की क्या चिन्ता, उसकी दवा तो मेरे पास भी है।" । यों कहकर मनि ने रक्तस्राव से गलित अंगुली के थूक लगाया और तत्काल ही वह अंगुली कंचन के समान हो गई। देव भी चकित एवं लज्जित हो मुनि के चरणों में नतमस्तक हो बार-बार क्षमायाचना करते हुए अपने स्थान को चला गया । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन के तेजस्वी रत्न] भगवान् श्री धर्मनाथ २३३ इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान धर्मनाथ का प्रवचन देवों में सर्वत्र जनमानस में घर किये हुए था और सबके लिये आदरणीय बना हुआ था। महामुनि सनत्कुमार एक लाख वर्ष तक संयम का पालन कर, अन्त समय की आराधना से सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो गये । धर्म परिवार भगवान धर्मनाथ के संघ में निम्न परिवार था :गणधर - तियालीस [४३] अरिष्ट आदि केवली - चार हजार पांच सौ [४,५००] मनःपर्यवज्ञानी - चार हजार पांच सौ [४,५००] अवधिज्ञानी -- तीन हजार छ: सौ [३,६००] चौदह पूर्वधारी - नौ सौ [६०० वैक्रिय लब्धिधारी --- सात हजार [७,०००] वादी .- दो हजार आठ सौ [२,८००] . . साधु --- चौसठ हजार [६४,०००] साध्वी -~- बासठ हजार चार सौ [६२,४००] श्रावक - दो लाख चवालीस हजार [२,४४,०००] श्राविका - चार लाख तेरह हजार [४,१३,०००] परिनिर्वाण दो कम ढाई लाख वर्ष तक केवली-पर्याय में विचरकर प्रभु ने लाखों जीवों का उद्धार किया। फिर प्रभु ने अपना मोक्षकाल निकट देखकर आठ सौ मुनियों के साथ सम्मेत-शिखर पर एक मास का अनशन किया और ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को पूष्य नक्षत्र में प्रयोगी-भाव में स्थित हो, मकल कर्मों का क्षय कर दस लाख वर्ष की आयु में सिद्ध, बुद्ध. मुक्त होकर निर्वाण-पद प्राप्त किया। .. Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती मघवा पन्द्रहवें तीर्थंकर भगवान् धर्मनाथ और सोलहवें तीर्थंकर भ० शान्तिनाथ. के अन्तराल काल में तीसरा चक्रवर्ती मघवा हुआ । इसी भरतक्षेत्र की श्रावस्ती नामक नगरी में समुद्र विजय नामक एक महा प्रतापी राजा राज्य करता था। उनकी पट्टमहिषी का नाम भद्रा था। राजा और रानी दोनों ही बड़े न्यायप्रिय और धर्मनिष्ठ थे । एक रात्रि में महारानी भद्रा ने १४ शुभस्वप्न देखे । दूसरे दिन प्रातःकाल महाराज समुद्रविजय ने स्वप्नपाठकों को बुलाकर महारानी के स्वप्नों के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रकट की। नैमित्तिकों ने १४ महास्वप्नों के सम्बन्ध में विचार-विमर्श करने के पश्चात् महाराजा से निवेदन किया कि महारानी के गर्भ में एक महान् पुण्यशाली एवं महाप्रतापी प्राणी पाया है । महादेवी ने जो उत्तम १४ महास्वप्न देखे हैं, उनसे ऐसा प्रतीत होता है कि वे चक्रवर्ती सम्राट की माता बनेंगी। गर्भकाल पूर्ण होने पर महादेवी भद्रा ने एक महान् तेजस्वी, सुन्दर एवं सुकुमार पुत्ररत्न को जन्म दिया। महाराजा समुद्रविजय ने देवेन्द्र के समान प्रोजस्वी तथा तेजस्वी अपने पुत्र का नाम मघवा रखा। राजकुमार मघवा का बड़े ही राजसी ठाट-बाट से लालन-पालन किया गया और शिक्षायोग्य वय में उन्हें उस समय उच्च कोटि के कलाचार्यों के पास सभी प्रकार की राजकुमारोचित कलाओं एवं विद्यानों का अध्ययन कराया गया भोगसमर्थ युवावस्था में राजकुमार मघवा का अनेक कुलीन राजकन्यानों के साथ पाणिग्रहण कराया गया । युवराज मघवा २५,००० वर्ष तक कुमारावस्था में रहकर ऐहिक विविध सुखों का उपभोग करते रहे। तदनन्तर महाराज समुद्रविजय ने उनका राज्याभिषेक किया। महाराज मघवा २५ हजार वर्ष तक माण्डलिक राजा के रूप में न्याय-नीतिपूर्वक प्रजा का पालन करते रहे। अपनी प्रायुधशाला में चक्ररत्न के उत्पन्न होने पर महाराज मघवा ने १० हजार वर्ष तक षट्खण्ड की साधना की और षट्खण्ड की सम्पूर्ण साधना के पश्चात् उनका चक्रवर्ती के पद पर महा. भिषेक किया गया। ३६ हजार (३९,०००) वर्ष तक वे भरतक्षेत्र के छहों खण्डों पर एकच्छत्र शासन करते हुए चक्रवर्ती की सभी ऋद्धियों का सुखोपभोग करते रहे । उनचालीस हजार वर्ष तक चक्रवर्ती सम्राट के पद पर रहने के अनन्तर उन्होंने श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण की । पचास हजार वर्ष तक उन्होंने विशुद्ध श्रमणाचार का पालन किया और अन्त में ५,००,००० वर्ष की प्राय पूर्ण होने पर वे तीसरे देवलोक में देव रूप से उत्पन्न हए । चक्रवर्ती मघवा Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती मघवा २३५ के देवलोकगमन क सम्बन्ध में "तित्थोगाली पइन्नय” नामक प्राचीन ग्रन्थ की एक गाथा प्रकाश डालती है, जो इस प्रकार है : अद्वैव गया मोक्खं, सुहुमो बंभो य समि पुढवि । मघवं सणकुमारो, सणकुमारं गया कप्पं ।।५७।। अर्थात-बारह चक्रवतियों में से आठ चक्रवर्ती मोक्ष में गये। सुभम और ब्रह्मदत्त नामक दो चक्रवर्ती सातवें नरक में गये तथा मघवा और सनत्कुमार नामक दो चक्रवर्ती सनत्कुमार नामक तीसरे देवलोक में गये । कतिपय विद्वानों की मान्यता है कि चक्रवर्ती मघवा मोक्ष में गये, न कि सनत्कुमार नामक देवलोक में। अपनी इस मान्यता की पुष्टि में उनके द्वारा यह युक्ति प्रस्तुत की जाती है कि उत्तराध्ययनसूत्र के “संजइज्ज" नामक अठारहवें अध्ययन में भरतादि मुक्त हुए राषियों के साथ चक्रवर्ती मघवा और सनतकुमार का स्मरण किया गया है. इससे ऐसा प्रतीत होता है कि चक्रवर्ती मघवा मोक्ष में गये । परन्तु उत्तराध्ययन सूत्र के अठारहवें अध्ययन में सभी राषियों के लिये प्रयुक्त शब्दावलि पर मनन के उपरान्त उन विद्वानों की वह मान्यता केवल अनुमान ही प्रतीत होने लगती है। उक्त अध्ययन की ३५ वीं गाथा में भरत एवं सगर चक्रवर्ती के लिये "परिनिव्वडे" और ३८ से ४३ संख्या तक की गाथाओं में भगवान् शान्तिनाथ, कुंथुनाथ और अरनाथ तथा चक्रवर्ती महापद्म, हरिषेण एवं जयसेन के लिये "पत्तो गइमणुत्तरं" पद का प्रयोग किया गया है। इसके विपरीत उक्त अध्ययन की गाथा सं० ३६ में चक्रवर्ती मघवा के लिये 'पव्वज्जमभुवगमो" मोर गाथा सं० ३७ में चक्रवर्ती सनतकुमार के लिये "सोवि राया तवं चरे"-पद का प्रयोग किया गया है। यदि ३७ वीं गाथा और ३८ वी गाथाओं के अन्तिम चरण क्रमशः "मघवं परिनिव्वडो" तथा "पत्तो गइमरणत्तरं"- इस रूप में होते तो निश्चित रूप से यह कहा जा सकता था कि वे मुक्ति में गये । स्थानांगसूत्र में चक्रवर्ती सनतकमार के सम्बन्ध में तो-“दीहेगणं परियाएरणं सिज्झइ जाव सव्वदुक्खागमतं करेइ" स्थानांग सूत्र के इस मूल पाठ पर गहन चिन्तन-मनन करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि वे उसी भव में मुक्त हो गये होंगे, किन्तु इस प्रकार का कोई मृत्रपाठ मघवा चक्रवर्ती के सम्बन्ध में उपलब्ध नहीं होता। इस प्रकार की स्थिति में तित्थीगाली पइन्नय की उपयुद्ध त गाथा और टीकाकारों के उल्लेखों को देखते हुए यही निष्कर्ष निकलता है कि चक्रवर्ती मघवा सुदीर्घकाल तक श्रमरणपर्याय का पालन कर मनतकुमार नामक तीसरे देवलोक में देव रूप से उत्पन्न हुए। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् श्री शान्तिनाथ भगवान् धर्मनाथ के बाद सोलहवें तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ हुए । इनका जीवन बड़ा प्रभावशाली और लोकोपकारी था । इन्होंने अनेक भवों से तीर्थंकरपद की योग्यता सम्पादित की । इनके श्रीरण, युगलिक आदि के भवों में से यहां वज्रायध के भव से संक्षिप्त परिचय दिया जाता है। पूर्वभव पूर्व-विदेह के मंगलावती-विजय में रत्नसंचया नाम की नगरी थी । रत्नसंचया के महाराज क्षेमंकर की रानी रत्नमाला से वज्रायुध का जन्म हुआ। बड़े होने पर लक्ष्मीवती देवी से उनका विवाह हुआ और वे सुदीर्घ काल तक उसके साथ सांसारिक सुखोपभोग करते रहे । कालान्तर में लक्ष्मीवती ने एक पुत्र को जन्म दिया । उसका नाम सहस्रायुध रखा गया । किसी समय स्वर्ग में इन्द्र ने देवगण के समक्ष वज्रायुध के सम्यक्त्व की प्रशंसा की । समस्त देवगण द्वारा उसे मान्य करने पर भी ।चत्रचूल नाम के एक देव ने कहा-“मैं परीक्षा के बिना ऐसी बात नहीं मानता।" ऐसा कहकर वह क्षेमंकर राजा की सभा में पाया और बोला-"संसार में आत्मा, परलोक और पुण्य-पाप प्रादि कुछ नहीं है । लोग अन्धविश्वास में व्यर्थ ही कष्ट पाते हैं।" देव की बात का प्रतिवाद करते वज्रायुध बोला-"प्रायुष्मन् ! प्रापको जो दिव्य-पद और वैभव मिला है, अवधिज्ञान से देखने पर पता चलेगा कि पूर्वजन्म में यदि आपने विशिष्ट कर्त्तव्य नहीं किया होता तो यह दिव्य-भव प्रापको नहीं मिलता । पुण्य-पाप और परलोक नहीं होते तो आपको वर्तमान की ऋद्धि प्राप्त नहीं होती।" वज्रायुध की बात से देव निरुत्तर हो गया और उसकी दृढ़ता से प्रसन्न होकर बोला--"मैं तुम्हारी दृढ़ सम्यक्त्वनिष्ठा से प्रसन्न हूं, अतः जो चाहो सो मांगो।" वज्रायुध ने निस्पृहभाव से कहा- मैं तो इतना ही चाहता हूं कि तुम सम्यक्त्व का पालन करो।" Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वभव] भगवान् श्री शान्तिनाथ २३७ वज्रायुध की निःस्वार्थ-वृत्ति से देव बहुत प्रसन्न हुआ और दिव्य-अलंकार भेंट कर वज्रायुध के सम्यक्त्व की प्रशंसा करते हुए चला गया। किसी समय वज्रायध के पूर्वभव के शत्र एक देव ने उनको क्रीड़ा में देखकर ऊपर से पर्वत गिराया और उन्हें नाग-पाश में बांध लिया। परन्तु प्रबलपराक्रमी वज्रायुध ने वज्रऋषभ-नाराच-संहनन के कारण एक ही मुष्टि-प्रहार से पर्वत के टुकड़े-टुकड़े कर दिये और नागपाश को भी तोड़ फेंका। कालान्तर में राजा क्षेमंकर ने वज्रायध को राज्य देकर प्रव्रज्या ग्रहण की और केवलज्ञान प्राप्त कर भाव-तीर्थंकर कहलाये। इधर भावी-तीर्थकर वज्रायुध ने प्राथुधशाला में चक्र-रत्न के उत्पन्न होने पर छः खण्ड पृथ्वी को जीत कर सार्वभौम सम्राट का पद प्राप्त किया और सहस्रायुध को युवराज बनाया। एक बार जब वज्रायुध राज-सभा में बैठे हुए थे कि "वचाओ, बचाओ" की पुकार करता हुआ एक विद्याधर वहां आया और राजा के चरणों में गिर पड़ा। शरणागत जानकर वज्रायुध ने उसे आश्वस्त किया । कुछ सय बाद ही शस्त्र हाथ में लिए एक विद्याधर दम्पति पाया तथा अपने अपराधी को माँगने लगा और उसने कहा-“महाराज ! इसने हमारी पुत्री को विद्या-साधन करते समय उठाकर आकाश में ले जाने का अपराध किया है, अतः इसको हमें सौपिये, हम इसे दण्ड देंगे।" वज्रायुध ने उनको पूर्वजन्म की बात सुनाकर उपशान्त किया और स्वयं ने भी पुत्र को राज्य देकर दीक्षा ग्रहण की। वे संयम-साधना के पश्चात् पादोपगमन संथारा कर पायु का अन्त होने पर ग्रैवेयक में देव हुए। ग्रेवेयक से निकलकर वज्रायुध का जीव पुण्डरीकिणी नगरी के राजा घनरथ के यहां रानी प्रियमती की कुक्षि से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ । उसका नाम मेघरथ रखा गया। महाराज घनरथ की दूसरी रानी मनोरमा से दृढ़रथ का जन्म हुआ। युवा होने पर सुमंदिरपुर के राजा की कन्या के साथ मेघ रथ का विवाह हा । मेघरथ महान् पराक्रमी होकर भी बड़े दयालु और साहसी थे। महाराज धनरथ ने मेघरथ को राज्य देकर दीक्षा ग्रहण की । मेघ रथ राजा बन गया, फिर भी धर्म को नहीं भूला । एक दिन व्रत ग्रहण कर वह पौषधशाला में बैठा था कि एक कबूतर पाकर उसकी गोद में गिर गया और भय से Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [पूर्वभव कंपित हो अभय की याचना करने लगा।' राजा ने स्नेहपूर्वक उसकी पीठ पर हाथ फेरा और उसे निर्भय रहने को आश्वस्त किया। । इतने में ही वहां एक बाज पाया और राजा से कबूतर की मांग करने लगा । राजा ने शरणागत को लौटाने में अपनी असमर्थता प्रकट की तथा बाज से कहा-"खाने के लिए तू दूसरी वस्तु से भी अपना पेट भर सकता है, फिर इसको मार कर क्या पायेगा? इसको भी प्राण अपने समान ही प्रिय हैं।" - इस पर बाज ने कहा-"महाराज ! एक को मार कर दूसरे को बचाना, यह कहां का न्याय व धर्म है ? कबूतर के ताजे मांस के बिना मैं जीवित नहीं रह सकता, आप धर्मात्मा हैं तो दोनों को बचाइये।" यह सुनकर मेघरथ ने कहा-"यदि ऐसा ही है तो मैं अपना ताजा मांस तुम्हें देता हूं, लो इसे खाओ और असहाय कबूतर को छोड़ दो।" बाज ने राजा की बात मान ली । तराजू मॅगाकर राजा ने एक पलड़े में कबूतर को रखा और दूसरे में अपने शरीर का मांस काट-काट कर रखने लगे। राजा के इस अद्भुत साहस को देख कर पुरजन और अधिकारी वर्ग स्तब्ध रह गये, राज परिवार में शोक का वातावरण छा गया। शरीर का एक-एक अंग चढ़ाने पर भी जब उसका भार कबूतर के भार के बराबर नहीं हुआ तो राजा स्वयं सहर्ष तराजू पर बैठ गया। बाज रूप में देव, राजा की इस अविचल-श्रद्धा और अपूर्व-त्याग को देख कर मुग्ध हो गया और दिव्य-रूप से उपस्थित होकर मेघरथ के करुणाभाव की प्रशंसा करते हुए बोला-"धन्य है महाराज मेघरथ को! मैंने इन्द्र की बात पर विश्वास न करके पापको जो कष्ट दिया, एतदर्थ क्षमा चाहता हूं। आपकी श्रद्धा सचमुच अनुकरणीय है ।" यह कह कर देव चला गया । कुछ समय बाद मेघरथ ने पौषधशाला में पुनः प्रष्टम-तप किया । उम समय राजा ने जीव-दया के उत्कृष्ट अध्यवसायों में महान् पुण्य-संचय किया। ईशानेन्द्र ने स्वर्ग से नमन कर इनकी प्रशंसा की, किन्तु इन्द्राणियों को विश्वास नहीं हमा। उन्होंने आकर मेघ रथ को ध्यान से विचलित करने के लिए १ एम्मि देसयाले, भीमो पारेवरो परथरेतो। पोसहसालमइगमो 'रायं ! सरणं ति सरण' ति ।। [वसुदेव हिण्डी, द्वि० खण्ड, पृ. ३३७] २ प्राचार्य शीलांक के अनुसार वज्रायुध ने पारावत की रक्षा करने को पौषधशाला में अपना मांम काटकर देना स्वीकार किया तो देव उनकी दृढ़ता देख प्रसन्न हो चला गया। [चउ. म. पु. च. पृ. १४६] Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म भ० श्री शान्तिनाथ २३६ विविध परीषह दिये परन्तु राजा का ध्यान विचलित नहीं हुआ । सूर्योदय होतेहोते देवियां अपनी हार मानती हुई राजा को नमस्कार कर चली गई। प्रातःकाल राजा मेघरथ ने दीक्षा लेने का संकल्प किया और अपने पत्र को राज्य देकर महामुनि घनरथ के पास अनेक साथियों के संग दीक्षा ले ली। प्राणि-दया से प्रकृष्ट-पुण्य का संचय किया ही था, फिर तप, संयम की आराधना से उन्होंने महती कर्म-निर्जरा की और तीर्थंकर-नामकर्म का उपार्जन कर लिया। अन्त-समय अनशन की आराधना कर सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए तथा वहां तेंतीस सागर की आयु प्राप्त की। जन्म भाद्रपद कृष्णा सप्तमी को भरणी नक्षत्र के शुभ योग में मेघरथ का जीव सर्वार्थसिद्ध-विमान से ज्यब कर हस्तिनापुर के महाराज विश्वसेन की महारानी अचिरा की कुक्षि में उत्पन्न हुआ । माला ने गर्भधारण कर उसी रात में मंगलकारी चौदह शुभ-स्वप्न भी देखे । उचित आहार-विहार से गर्भकाल पूर्ण कर ज्येष्ठ कृष्णा त्रयोदशी को भरणी नक्षत्र में मध्यरात्रि के समय माता ने सुखपूर्वक कांचनवीय पुत्ररत्न को जन्म दिया। इनके जन्म से सम्पूर्ण लोक में उद्योत हुप्रा और नारकीय जीवों को भी क्षण भर के लिए विराम मिला। महाराज ने अनुपम आमोद-प्रमोद के साथ जन्म-महोत्सव मनाया। नामकरण शान्तिनाथ के जन्म से पूर्व हस्तिनापुर नगर एवं देश में कुछ काल से महामारी का रोग चल रहा था । प्रकृति के इस प्रकोप से लोग भयाक्रान्त थे। माता अचिरादेवी भी इस रोग के प्रसार से चिन्तित थीं। माता अचिराटेवी के गर्भ में प्रभु का आगमन होते ही महामारी का भयंकर प्रकोप शान्त हो गया, अतः नामकरण संस्कार के समय आपका नाम शान्तिनाथ रखा गया।' विवाह और राज्य द्वितीया के चन्द्रमा की तरह बढ़ते हुए कुमार शान्तिनाथ जब पच्चीस हजार वर्ष के हो युवावस्था में पाये तो पिता महाराज विश्वसेन ने अनेक राजकन्याओं के साथ इनका विवाह करा दिया और कुछ काल के बाद १ गन्भत्थेण य भगवया सब्बदेसे संतीसमुप्पण्णा त्ति काऊरण सन्तितिणामं मम्मापितीहिं कयं ।। च. म. पु. च. पृ. १५० २ ततो सो जोवणं पत्तो पणुवीसवाससहस्साणी कुमारकालं गमेइ । [वसुदेव हिण्डी दूसरा भाग पृष्ठ ३४०] Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [विवाह और राज्य शान्तिनाथ को राज्य देकर स्वयं महाराज विश्वसेन ने आत्मशुद्धयर्थ मुनिव्रत स्वीकार किया। अब शान्तिनाथ राजा हो गये । उन्होंने देखा कि अभी भोग्य-कर्म अवशेष हैं । इसी बीच महारानी यशोमती से उनको पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई जो कि दृढ़रथ का जीव था । पुत्र का नाम चक्रायुध रखा गया । पचीस हजार वर्ष तक मांडलिक राजा के पद पर रहते हुए पायधशाला में चक्ररत्न के उत्पन्न होने पर उसके प्रभाव से शान्तिनाथ ने षटखण्ड पृथ्वी को जीत कर चक्रवर्ती-पद प्राप्त किया और पच्चीस हजार वर्ष तक चक्रवर्ती-पद से सम्पूर्ण भारतवर्ष का शासन किया । जब भोग्य-कर्म क्षीण हुए तो उन्होंने दीक्षा ग्रहण करने की अभिलाषा की। दीक्षा और पारणा लोकान्तिक देवों से प्रेरित होकर प्रभु ने वर्ष भर याचकों को इच्छानुसार दान दिय. और एक हजार राजाओं के साथ छट्ठ-भक्त की तपस्या से ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी को भरणी नक्षत्र में दीक्षार्थ निष्क्रमण किया । देव-मानव-वृन्द से घिरे हुए प्रभु सहस्राम्र वन में पहुंचे और वहां सिद्ध की साक्षी से सम्पूर्ण पापों का परित्याग कर दीक्षा ग्रहण की। दूसरे दिन मंदिरपुर में जाकर महाराज सुमित्र के यहां परमान्न से आपने प्रथम पारणा किया। पंचदिव्य बरसा कर देवों ने दान की महिमा प्रकट की। ___ वहां से विहार कर वर्ष भर तक आप विविध प्रकार की तपस्या करते हुए छद्मस्थ-रूप से विचरे। केवलज्ञान एक वर्ष बाद फिर हस्तिनापुर के सहस्राम्र उद्यान में आकर आप ध्यानावस्थित हो गये । आपने शुक्लध्यान से क्षपक-श्रेणी का आरोहण कर सम्पूर्ण धाति-कर्मों का क्षय किया और पौष शुक्ला नवमी को भरगी नक्षत्र में केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्राप्ति की। केवली होकर प्रभु ने देव-मानवों की विशाल सभा में धर्म-देशना देते हुए समझाया-"संसार के सारभूत षट्-द्रव्यों में आत्मा ही सर्वोच्च और प्रमुख है। जिस कार्य से आत्मा का उत्थान हो वही उत्तम और श्रेयस्कर है । मानव-जन्म पाकर जिसने कल्याण-साधन नहीं किया उसका जीवन अजा-गल-स्तन की तरह व्यर्थ एवं निष्फल है।" धर्म-देशना सुन कर हजारों नर-नारियों ने संयम-धर्म स्वीकार किया। चतुर्विध-संघ की स्थापना कर प्रभ भाव-तीर्थकर कहलाये। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [धर्म-परिवार भगवान् श्री शान्तिनाथ २४१ धर्म-परिवार भगवान् शान्तिनाथ का धर्म-परिवार निम्न प्रकार था :गण एवं गैरणधर - छत्तीस [३६] केवली - चार हजार तीन सौ [४,३००] मनःपर्यवज्ञानी - चार हजार [४,०००]] अवधिज्ञानी - तीन हजार [३,००० चौदह पूर्वधारी -आठ सौ [८००] वैक्रिय लब्धिधारी - छः हजार [६,०००] वादी - दो हजार चार सौ [२,४००] साधु - बासठ हजार [६२,०००] साध्वी - इकसठ हजार छ: सौ [६१,६००] श्रावक -दो लाख नब्बे हजार [२,९०,०००] श्राविका - तीन लाख तिरानवे हजार [३,९३,०००] परिनिर्वाण प्रभु ने एक वर्ष कम पच्चीस हजार वर्ष केवली-पर्याय में विचर कर लाखों लोगों को कल्याण का संदेश दिया। फिर अन्तकाल समीप जानकर उन्होंने नौ सौ साधनों के साथ एक मास का अनशन किया और ज्येष्ठ कृष्णा त्रयोदशी को भरणी नक्षत्र में चार अघाति-कर्मों का क्षय कर सम्मेत-शिखर पर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होकर निर्वाण-पद प्राप्त किया । आपकी पूर्ण आयु एक लाख वर्ष की थी। 000 - १ (क) प्रावश्यक नि० दीपिका प्र० भा०, पृ० ६७ (१), गा० २६७ (ख) समवायांग, समवाय ९ में ६० गणधर होने का उल्लेख है। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् श्री कुंथुनाथ भगवान् श्री शान्तिनाथ के बाद सत्रहवें तीर्थंकर श्री कुथुनाथ हुए। पूर्वभव पूर्व-विदेह की खड़ गी नगरी के महाराज सिंहावह संसार से विरक्ति होने के कारण संवराचार्य के पास दीक्षित हुए और अर्हःभक्ति आदि विशिष्ट स्थानों की आराधना कर उन्होंने तीथंकर-नामकर्म का उपार्जन किया। अन्तिम समय में समाधिपूर्वक आयु पूर्ण कर सिंहावह सर्वार्थसिद्ध विमान में अहमिन्द्र रूप से उत्पन्न हुए । जन्म सर्वार्थसिद्ध विमान से निकल कर सिंहावह का जीव हस्तिनापुर के महाराज वसु की धर्मपत्नी महारानी श्रीदेवी की कुक्षि मे श्रावण बदी नवमी को कृत्तिका नक्षत्र में गर्भरूप से उत्पन्न हुआ । उसो रात्रि को महारानी श्रीदेवी ने सर्वोत्कृष्ट महान् पुरुष के जन्म-सूचक चौदह परम-मंगलप्रदायक-शुभस्वप्न देखे । गर्भकाल पूर्ण होने पर वैशाख शुक्ला चतुर्दशी को कृतिका नक्षत्र में सुखपूर्वक प्रभु ने जन्म धारण किया। नामकरण दस दिन तक जन्म-महोत्सव प्रामोद-प्रमोद के साथ मनाने के बाद महाराज वसुसेन ने उपस्थित मित्रजनों के समक्ष नामकरण का हेतु प्रस्तुत करते हुए कहा-"गर्भ-समय में बालक की माता ने कुथु नाम के रत्नों की राशि देखी, अतः बालक का नाम कुथुनाथ रखा जाता है ।"' विवाह और राज्य बाल्यकाल पूर्ण कर युवावस्था में प्रवेश करने के बाद प्रभु ने भोग्य-कर्म को समाप्त करने के लिए योग्य राज-कन्यामों से पाणिग्रहण किया। तेईस हजार सात सौ पचास वर्ष के बाद प्रायुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न १ सुमिणे य धूमं दळूण जणणी विउद ति, गम्भगये य कुंथुसमाणा सेसपड़िवक्खा दिट्ठत्ति काऊरणं कुथु त्ति णामं कयं भगवप्रो ।। च. म. पु. च., पृ. १५२ - Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ववाह और राज्य] भगवान् श्री कुथुनाथ २४३ होने पर आपने षट्खण्ड-पृथ्वी को जीत कर चक्रवर्ती-पद प्राप्त किया एवं चौदह रत्न, नव-निधान और सहस्रों राजाओं के अधिनायक हुए । बाईस हजार वर्ष तक माण्डलिक राजा के पद पर रह कर तेईस हजार सात सौ पचास वर्ष तक चक्रवर्ती-पद से राज्य का शासन करते हुए प्रभु समुचित रीति से प्रजा का पालन करते रहे। दीक्षा और पारणा भोग्य-कर्म क्षीण होने पर प्रभु ने दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा की । उस समय लोकान्तिक देवों ने आकर प्रार्थना की---"भगवन् ! धर्म-तीर्थ को प्रवृत्त कीजिये।" एक वर्ष तक याचकों को इच्छानुसार दान देकर आपने वैशाख कृष्णा पंचमी को कृत्तिका नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षार्थ निष्क्रमण किया और सहस्राम्र वन में पहुंचकर छट्ठ-भक्त की तपस्या से सम्पूर्ण पापों का परित्याग कर विधिवत् दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा ग्रहण करते ही आपको मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न हो गया। दूसरे दिन विहार कर प्रभु 'चक्रपुर नगर में पधारे और राजा व्याघ्रसिंह के यहां प्रथम पारणा ग्रहण किया। केवलज्ञान विविध प्रकार की तपस्या करते हुए प्रभु छद्मस्थ-चर्या में सोलह वर्ष तक ग्रामानुग्राम विचरते हुए पुन: सहस्राम्र वन में पधारे और ध्यानस्थित हो गये। शुक्लध्यान के दूसरे चरण में तिलक वृक्ष के नीचे मोह और अज्ञान का सर्वथा नाश कर चैत्र शुक्ला तृतीया के दिन कृत्तिका के योग में प्रभु ने केवलज्ञान की प्राप्ति की। . केवली होकर देव-मानवों की विशाल सभा में श्रतधर्म-चारित्रधर्म की महिमा बतलाते हुए चतुर्विध-संघ की स्थापना कर आप भाव-तीर्थंकर कहलाये। धर्म-परिवार भगवान् कुथुनाथ के संघ में निम्न धर्म-परिवार था :गणधर एवं गण -पैंतीस [३५] स्वयम्भू आदि गणधर एवं ३५ ही गरण केवली - तीन हजार दो सौ [३,२००] मनःपर्यवज्ञानी - तीन हजार तीन सौ चालीस [३,३४०] Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [धर्म-परिवार अवधिज्ञानी - दो हजार पाँच सौ [२,५००] चौदह पूर्वधारी - छः सौ सत्तर [६७०] वैक्रियलब्धिधारी - पाँच हजार एक सौ [५,१००] वादी - दो हजार [२,०००] साधु - साठ हजार [६०,०००] साध्वी - साठ हजार छः सौ [६०,६००] श्रावक - एक लाख उन्यासी हजार [१,७६,०००] श्राविका - तीन लाख इक्यासी हजार [३,८१,०००] परिनिर्वाण मोक्षकाल समीप जान कर प्रभु सम्मेतशिखर पधारे । वहाँ केवलज्ञान के बाद तेईस हजार सात सौ चांतीस वर्ष बीतने पर एक हजार मुनियों के साथ एक मास का अनशन किया और वैशाख कृष्णा प्रतिपदा को कृत्तिका नक्षत्र में सम्पूर्ण कर्मों का क्षय कर प्रभु सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त हुए। - इनकी पूर्ण प्रायु पिच्चानवे हजार वर्ष की थी, जिसमें से तेईस हजार सात सौ पचास वर्ष कुमार अवस्था, तेईस हजार सात सौ पचास वर्ष माण्डलिकपद और उतने ही वर्ष अर्थात् २३ हजार सात सौ पचास वर्ष चक्रवर्ती-पद पर रहे एवं तेईस हजार सात सौ पचास वर्ष संयम का पालन किया। hiye 000 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् श्री प्ररनाथ भगवान् कुथुनाथ के पश्चात् अठारहवें तीर्थकर भगवान् अरनाथ हुए । पूर्वभव पूर्व महा-विदेह की सुसीमा नगरी के महाराज धनपति के भव में इन्होंने तीर्थंकर-पद की अर्हता प्राप्त की। धनपति ने अपने नगरवासियों को प्रेमपूर्वक संयम और अनुशासन में रहने की ऐसी शिक्षा दी थी कि उन्हें दण्ड से समझाने की कभी आवश्यकता ही प्रतीत नहीं हुई। । कुछ समय के बाद धनपति ने संसार से विरक्त होकर संवर मुनि के पास संयम-धर्म की दीक्षा ग्रहण की और तप-नियम की साधना करते हुए महीमंडल पर विचरने लगे। एक बार चातुर्मासी तप के पारणे पर जिनदास सेठ ने मुनि को श्रद्धापूर्वक प्रतिलाभ दिया। इस प्रकार देव, गुरु, धर्म के विनय और तप-नियम की उत्कृष्ट साधना से उन्होंने तीर्थंकर-नामकर्म का उपार्जन किया और अन्त में समाधिपूर्वक काल कर वे ग्रैवेयक में महद्धिक देव-रूप से उत्पन्न हुए। जन्म ग्रैवेयक से निकल कर यही धनपति का जीव हस्तिनापुर के महाराज सुदर्शन की रानी महादेवी की कुक्षि में फाल्गुन शुक्ला द्वितीया को गर्भरूप में उत्पन्न हुआ। उस समय महारानी ने चौदह शुभ-स्वप्नों को देख कर परम प्रमोद प्राप्त किया। अनुक्रम से गर्भकाल पूर्ण होने पर मार्गशीर्ष शुक्ला दशमी को रेवती नक्षत्र में माता ने सुखपूर्वक कनक-वर्णीय पूत्र-रत्न को जन्म दिया। देव और देवेन्द्रों ने जन्म-महोत्सव मनाया। महाराज सुदर्शन ने भी नगर में बड़े आमोद-प्रमोद के साथ प्रभु का जन्म-महोत्सव मनाया । नामकरण गर्भकाल में माता ने बहमल्य रत्नमय चक्र के अर को देखा, इसलिए बालक के नामकरण के समय सुदर्शन ने पुत्र का नाम भी उपस्थित मित्रजनों के समक्ष अरनाथ रखा। १ पइट्ठावियं से णाम सुमिणमि महारिहाऽरदसणत्तणेणं अरो त्ति । [च. पु. च.. पृ. १५३] Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [विवाह और राज्य विवाह और राज्य बालक्रीड़ा करते हुए प्रभु द्वितीया के चन्द्र की तरह बड़े हुए । युवावस्था में पिता की आज्ञा से योग्य राजकन्याओं के साथ इनका पाणिग्रहण कराया गया। इक्कीस हजार वर्ष बीत जाने पर राजा सुदर्शन ने कूमार को राज्य-पद पर अभिषिक्त किया । इक्कीस हजार वर्ष तक वे माण्डलिक राजा के रूप में रहे और फिर आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हो जाने पर प्रभु देश-विजय को निकले और षट्खण्ड-पृथ्वी को जीत कर चक्रवर्ती बन गये । इक्कीस हजार वर्ष तक चक्रवर्ती के पद से आपने जनपद का शासन कर देश में सुख, शान्ति सुशिक्षा और समृद्धि की वृद्धि की। दीक्षा और पारणा भोग-काल के बाद जब उदय-कर्म का जोर कम हुआ तब प्रभ ने राज्य. वैभव का त्याग कर संयम-साधना की इच्छा व्यक्त की । लोकान्तिक देवों ने पाकर नियमानुसार प्रभ से प्रार्थना की और अरविन्दकुमार को राज्य देकर आप वर्षीदान में प्रवृत्त हुए तथा याचकों को इच्छित-दान देकर हजार राजाओं के साथ बड़े समारोह से दीक्षार्थ निकल पड़े। सहस्राम्र वन में आकर मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी को रेवती नक्षत्र में छट्ठभक्त-बेले की तपस्या से सम्पूर्ण पापों का परित्याग कर प्रभु ने विधिवत् दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा ग्रहण करते ही आपको मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न हुआ। फिर दूसरे दिन राजपुर नगर में अपराजित राजा के यहां प्रभ ने परमान से पारणा ग्रहण किया । केवलज्ञान वहाँ से विहार कर विविध अभिग्रहों को धारण करते हए तीन वर्ष तक 'प्रभ छद्मस्थ-विहार से विचरे ।' वे निद्रा-प्रमाद का सर्वथा वर्जन करते हुए ध्यान की साधना करते रहे । बिहारक्रम से प्रभु सहस्राम्र वन पाये और आम्रवक्ष के नीचे ध्यानावस्थित हो गये । कार्तिक शुक्ला द्वादशी को रेवती नक्षत्र के योग में शुक्लध्यान से क्षपक-श्रेणी का आरोहरण कर पाठवें, नवमें, दशवें और बारहवें गुरणस्थान को प्राप्त किया और घाति-कर्मों का सर्वथा क्षय कर आपने केवलज्ञान और केवल दर्शन की प्राप्ति की। केवली होकर प्रभ ने देवासुर-मानवों की विशाल सभा में धर्म-देशना १ प्रावश्यक में छद्मस्थकाल तीन ग्रहोगत्र का माना है। मम्पादक Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान] भ० श्री अरनाथ २४७ देकर चतुर्विध-संघ की स्थापना की और वे भाव-तीर्थंकर एवं भाव-अरिहंत कहलाये । भाव-अरिहंत अठारह दोषों से रहित होते हैं । जो इस प्रकार हैं : १. ज्ञानावरण कर्मजन्य अज्ञान-दोष ८. रति । २. दर्शनावरण कर्मजन्य निद्रा-दोष ६. अरति-खेद ३. मोहकर्मजन्य मिथ्यात्व-दोष १०. भय ४. अविरति-दोष ११. शोक-चिन्ता ५. राग १२. दुगन्छा ६. द्वेष १३. काम ७. हास्य (१४ से १८) अन्तरायजन्य दानान्तराय आदि पाँच अन्तराय-दोषों को मिलाने से अठारह । कुछ लोग अठारह दोषों में प्राहार-दोष को भी गिनते हैं, पर आहार शरीर का दोष है, अतः आत्मिक दोषों में उसकी गणना उचित प्रतीत नहीं होती । उससे केवलज्ञान की प्राप्ति में अवरोध नहीं होता । अरिहन्त बनजाने पर तीर्थंकर प्रभु ज्ञानादि अनन्त-चतुष्टय और अष्ट-महाप्रातिहार्य के धारक होते हैं। धर्म-परिवार आपके संघ में निम्न धर्म-परिवार था :गरणधर एवं गण - कुभजी आदि तेंतीस [३३] गणधर एवं तैतीस [३३] ही गण केवली - दो हजार आठ सौ [२,८००] मनःपर्यवज्ञानी - दो हजार पाँच सौ इक्यावन [२,५५१] अवधिज्ञानी - दो हजार छः सौ [२,६००] चौदह पूर्वधारी - छ: सौ दस [६१०] वैक्रिय लब्धिधारी - सात हजार तीन सौ [७,३०० ] वादी - एक हजार छ: सौ [१,६००] साधु - पचास हजार [ ५०,००० ] साध्वी - साठ हजार [६०,०००] श्रावक - एक लाख चौरासी हजार [१.८४,०००] श्राविका - तीन लाख वहत्तर हजार [३,७२,०००] परिनिर्वाण तीन कम ढक्कीस हजार वर्ष के वली-चर्या मे विचर कर जब पापको Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [परिनिर्वाण अपना मोक्षकाल समीप प्रतीत हुआ तो एक हजार मुनियों के साथ सम्मेतशिखर पर प्रभु ने एक मास का अनशन ग्रहण किया और अन्त समय में शैलेशी दशा को प्राप्त कर चार अघाति-कर्मों का सर्वथा क्षय कर मार्गशीर्ष शुक्ला दशमी को रेवती नक्षत्र के योग में चौरासी हजार वर्ष की आय पूर्ण कर प्रभु सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त हुए, अर्थात् शरीर त्याग निरञ्जन-निराकार-सिद्ध बन गये । 000 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् श्री मल्लिनाथ अठारहवें तीर्थंकर भगवान् अरनाथ के निर्वारण के पश्चात् पचपन हजार वर्ष कम एक हजार करोड़ वर्ष व्यतीत हो जाने पर उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान् श्री मल्लिनाथ का जन्म हुआ । पूर्वभव महाविदेह क्षेत्र के सलिलावती विजय में भगवान् मल्लिनाथ के जीव तीर्थंकर भव से पूर्व के अपने तीसरे भव महाबल के जीवन में पहले तो स्त्रीवेद का बन्ध और तदनन्तर तीर्थंकर गोत्र-नाम कर्म का उपार्जन किया । भगवान् मल्लिनाथ का पूर्व का यह तीसरा भव वस्तुतः प्रत्येक साधक के लिये बड़ा ही प्रेरणाप्रदायी और शिक्षादायक है । भगवान् मल्लिनाथ का जीव अपने तीसरे पूर्व भव में महाबल नामक महाराजा था । वह अपने छह बालसखा राजाओं के साथ श्रमधर्म में दीक्षित हुआ । द्वादशांगी का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त कर लेने के पश्चात् महाबल श्रादि उन सातों ही अणगारों ने परस्पर विचार विनिमय के पश्चात् यह प्रतिज्ञा की कि वे सातों मुनि सदा साथ-साथ और समान तप करेंगे। उन सातों मित्र श्रमणों ने अपनी प्रतिज्ञानुसार साथ-साथ समान तप का प्राचरण प्रारम्भ भी कर दिया । तदनन्तर मुनि महाबल के मन में इस प्रकार के विचार उत्पन्न हुए : " इन छहों साथियों के साथ मैंने समान तपश्चरण की प्रतिज्ञा तो कर ली । पर वस्तुतः श्रमण जीवन से पूर्व में इन सब से ऋद्धि, समृद्धि, ऐश्वर्यं आदि में बड़ा रहा हूं, आगे रहा । ये छहों मेरे समकक्ष नहीं थे । मुझसे छोटे थे तो अब तपश्चरण में मैं इनके बराबर कैसे रहूं। अतः मुझे तपश्चरण में इनसे अत्यधिक उत्कृष्ट नहीं तो कम से कम थोड़ा बहुत तो विशिष्ट रहना ही चाहिये ।" इस बड़प्पन के अहं ने मुनि महाबल के अन्तर्मन में माया को, छल-छद्म को जन्म दिया । उसने अपने साथियों से विशिष्ट प्रकार का तपश्चरण करना प्रारम्भ कर दिया । उसके छहों साथी षष्ठ भक्त तप करते तो महाबल अष्टमभक्त तप करता । वे प्रष्टमभक्त तप करते तो वह दशम भक्त तप करता । सारांश यह कि उसके छहों साथी जिस किसी प्रकार का छोटा अथवा बड़ा तप करते, उनसे वह महाबल मुनि विशिष्ट तप करता । अपने तप के पारण के दिन Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [पूर्वभव] उसके साथी मुनि महाबल से पारण न करने का कारण पूछते तो सही बात नहीं कहकर वह कभी शारीरिक तो कभी मानसिक ऐसा कारण बताकर बात को टाल देता कि उसके वे छहों साथी मुनि आश्वस्त हो उसकी बात मान जाते। उनके मन में किसी भी प्रकार की शंका नहीं रहती। इस प्रकार तपश्चरण में महावल के मन में अपने साथियों से आगे रहने की, विशिष्ट रहने की अथवा बड़े रहने की आकांक्षा रही। शंका, आकांक्षा, वितिगिच्छा, पर पाषंड प्रशंसा और पर पाषंड संस्तव-यें सम्यक्त्व के पाँच दोष हैं। अहं वशात् बड़े रहने की आकांक्षा से महाबल का सम्यक्त्व दूषित हुआ। इस प्रकार अहं वशात् आकांक्षा और माया से अपने साथियों को, वस्तुस्थिति नहीं बताते हुए विशिष्ट प्रकार के तप करते रहने के कारण घोर तपस्वी होते हुए भी मुनि महाबल ने माया, छल छद्म के परिणामस्वरूप स्त्री नामकर्म का, अर्थात् स्त्रीवेद का बंध कर लिया। “गहना कर्मणो गति:"-कर्मगति बड़ी विचित्र है। साधक अपनी साधना में जहां कहीं किंचितमात्र भी चका, साधना में प्रमादवश, अहंवश अथवा माया के वश हो अपनी साधना में कहीं लेशमात्र भी दोष को अवकाश दिया कि कर्म तत्काल अपना आधिपत्य स्थापित कर लेता है और उसका फल प्रदान करने के पश्चात ही पिण्ड छोड़ता है। चाहे कोई कितना ही बड़े से बड़ा साधक क्यों न हो, उसकी किसी भी त्रुटि को कर्म कभी क्षमा नहीं करता । उस त्रुटि का फल देकर ही त्रुटि करने वाले का पीछा छोड़ता है। सम्यक् तपश्चरण वस्तुतः विकटतम कर्मवन को भस्मावशेष कर देने में कल्पान्तकालीन कृशानु तुल्य है। किन्तु उस तपश्चरण में भी अहं को, माया को अवकाश दे देने के कारण आगे चलकर त्रिलोकपूजित महामहिम तीर्थकर नाम, गोत्र कर्म का उपार्जन कर लेने वाले महान् आत्मा महाबल मुनि ने भी अपने प्रारम्भिक साधनाकाल में स्त्री नाम कर्म का-स्त्रीवेद का बन्ध कर लिया। महामुनि महाबल ने स्त्रीवेद का बन्ध कर लेने के पश्चात जब सब प्रकार के शल्यों से रहित हो, अहं, आकांक्षा, माया प्रादि को अपने साधक जीवन में किंचिन्मात्र भी अवकाश न देते हुए विशुद्ध निष्काम भाव से अपने साथी मुनियों के साथ निष्काम घोर तपश्चरण करते हुए तीर्थकर नाम-गोत्र कर्म की पुण्य प्रकृतियों का बन्ध कराने वाले बीस बोलों को आराधना उत्कट भावों से की तो उन्होंने संसार के सर्वोत्कृष्ट पद-तथिकर पद की पुण्यप्रकृतियों का उपार्जन कर लिया। अतः महामुनि महाबल का जीवन प्रत्येक मुमुक्ष साधक के लिये बड़ा ही शिक्षाप्रद और प्रेरणाप्रदायी है। मुनि महाबल का जीवन प्रत्येक मुमुक्षु साधक के लिये पग-पग पर, प्रतिपल, प्रति क्षण सावधान करने वाला, सजग करने वाला दिशावबोधक प्रदीप-स्तम्भ है। वह प्रत्येक साधक को, उसके साधनाकाल में पूरी तरह जागरूक रहने की प्रेरणा देता है कि उसकी साधना metiment Tamirmirmacyiwuman Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पूर्वभव] भगवान् श्री मल्लिनाथ २५१ में कहीं कोई सूक्ष्मातिसूक्ष्म शल्य भी प्रवेश न कर पाये, साधक अपने साधना जीवन में सतत सावधान व निरन्तर जागरूक रहकर निष्काम भाव से साधना में लीन रहे। महाबल का जीवन वृत्त सुदीर्घ अतीत काल की बात है । उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप के महाविदेह क्षेत्र में मेरु पर्वत से पश्चिम, निषध पर्वत से उत्तर, महानदी शोतोदा से दक्षिण, सुखोत्पादक वक्षस्कार पर्वत से पश्चिम एवं पश्चिमी लवरण समुद्र से पूर्व दिशा में सलिलावती नामक जो विजय है, उसमें वीतशोका नाम की नगरी थी। नौ योजन चौड़ी और १२ योजन लम्बी अलका तुल्य वीतशोका नगरी सलिलावती विजय की राजधानी थी। उस नगरी के बाहर ईशान कोण में इन्द्रकुम्भ नामक एक सुरम्य और विशाल उद्यान था। वीतशोका नगरी में बल नामक महाराजा था। बल महाराजा के अन्तःपुर में महारानी धारिणी आदि एक सहस्र रानियों का परिवार था। । उस धारिणी महारानी ने एक रात्रि के अन्तिम प्रहर में, जबकि वह सुखपूर्वक सोयी हुई थी, अर्द्ध जागृतावस्था में एक स्वप्न देखा कि एक केसरी सिंह उसके मुख में प्रवेश कर रहा है। स्वप्नफल पूछने पर राजा और स्वप्न पाठकों ने बताया कि महारानी एक महान् प्रतापी पुत्र को जन्म देने वाली है। समय पर महारानी ने एक तेजस्वी पुत्र रत्न को जन्म दिया। राजा बल ने अपने उस पुत्र का नाम महाबल रखा। शिक्षायोग्य वय में सकल कलाओं में निष्णात होने के अनन्तर जब राजकुमार महाबल ने युवावस्था में प्रवेश किया तो महाराजा बल ने अपने पुत्र महाबल का एक ही दिन में कमलश्री आदि पांच सौ (५००) अनुपम रूप लावण्यमयी राजकन्याओं के साथ पारिणग्रहरण करवा दिया। महाबल को कन्या पक्षों की ओर से दहेज में सांसारिक सुखोपभोग की उत्तमोत्तम विपूल सामग्री मिली। उसे दहेज में मिली प्रत्येक वस्तु की संख्या पांच सौ थी। युवराज महाबल के पिता महाराज बल ने अपनी पांच सौ ही पुत्रवधुओं के लिये पांच सौ भव्य प्रासाद बनवा दिये । विवाहोपरान्त युवराज महाबल सुरबालाओं के समान अनुपम रूप लावण्यवती ५०० युवराज्ञियों के साथ सभी प्रकार के उत्तमोत्तम सांसारिक भोगोपभोगों का उपभोग करते हुए सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा। कालान्तर में वीतशोका नगरी के बाहर ईशान कोण में अवस्थित इन्द्रकुम्भ नामक उद्यान में स्थविर मुनियों का आगमन हया। अपने परिजनों एवं पुरजनों के साथ महाराजा बल भी उन स्थविर मनियों के दर्शन एवं प्रवचनामृत का पान करने की उत्कंठा से इन्द्र कुम्भ नामक उद्यान में पहुंचा । स्थविरो Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [महाबल का त्तम महामुनि ने भवतापहारिणी वीतरागवाणी का उपदेश दिया। महामुनि का उपदेश सुनकर महाराजा बल का. मानस वैराग्य रस से अोतप्रोत हो उठा। देशनान्तर विशाल परिषद् नगर की ओर लौट गई। महाराजा बल ने सांजलिक शोष झुका महामुनि से निवेदन किया-"भगवन् ! आपके मुखारविन्द से पवितथ वीतरागवाणी को सुनकर मुझे संसार से पूर्ण विरक्ति हो गई है । मैं अपने पुत्र को सिंहासनारूढ़ कर आत्महित साधना हेतु आपके पास श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण करना चाहता हूं।" महामनि ने कहा-"राजन ! जिसमें तुम्हें सूख प्रतीत हो रहा है, वही करो, उस सुखकर कार्य में किसी प्रकार का प्रमाद मत करो।" ___ महाराजा बल ने अपने राजप्रासाद में लौटकर अपने पुत्र महाबल का राज्याभिषेक किया और पुनः महास्थविरों की सेवा में उपस्थित हो उसने महामुनि के पास जन्म-मरण आदि संसार के सभी दुःखों का अन्त करने वाली भागवती दीक्षा अंगीकार की। बल मुनि ने एकादशांगी के गहन अध्ययन के साथ-साथ विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करते हुए अपनी आत्मा को भावित करना प्रारम्भ किया। उग्रतम तपश्चरण और 'स्व' तथा 'पर' का कल्याण करते हुए मुनि बल ने अनेक वर्षों तक पूर्ण निष्ठा और प्रगाढ़ श्रद्धा के साथ श्रामण्य पर्याय का पालन किया । अन्त में चारु पर्वत पर जाकर संलेखना, झूसना के साथ प्रशन-पानादि का पूर्णतः आजीवन प्रत्याख्यान कर संथारा किया । अन्त में उन्होंने एक मास के अनशन पूर्वक समस्त कर्मों का अन्त कर निर्वाण प्राप्त किया। उधर राज्य सिंहासन पर मारूढ़ होने के पश्चात् महाराजा महाबल ने न्याय और नीतिपूर्वक अपनी प्रजा का पालन करना प्रारम्भ किया । कालान्तर में महाबल की महारानी कमलश्री ने एक प्रोजस्वी पुत्र को जन्म दिया। महाबल ने अपने उस पुत्र का नाम बलभद्र रखा । महाराजा महाबल ने अपने पुत्र बलभद्र को शिक्षा योग्य वय में सुयोग्य कलाचार्यों के पास शिक्षार्थ रखा और जब कुमार बलभद्र सकल कलामों में पारंगत हो गया तो उसे युवराज पद प्रदान किया। महाराजा महाबल के प्रचल, धरण, पूरण, वसु, वैश्रमण और अभिचन्द नामक छह समवयस्क बालसखा थे। महाबल, प्रचल मादि उन सातों मित्रों में परस्पर इतनी प्रगाढ़ मैत्री थी कि वे सदा साथ-साथ रहते, साथ-साथ ही उठते, बैठते, खाते, पीते और प्रामोद-प्रमोद करते थे । एक दिन महाबल प्रादि सातों मित्रों ने परस्पर वार्तालाप करते समय यह प्रतिज्ञा की कि वे जीवन भर साथसाथ रहेंगे । प्रामोद-प्रमोद, प्रशन, पान, मादि ऐहिक सुखोपभोग और यहाँ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन वृत्त] भगवान् श्री मल्लिनाथ २५३ तक कि पारलौकिक हित साधना के दान, दया, धर्म से लेकर श्रमरणत्व अंगीकार करने तक के सभी कार्य साथ साथ ही करेंगे । कभी एक दूसरे से बिछुड़ेंगे नहीं । इस प्रकार की प्रतिज्ञा करने के पश्चात् वे ग्रामोद-प्रमोद, सुखोपभोग आदि सभी कार्य साथ-साथ करते हुए जीवन व्यतीत करने लगे । कालान्तर में एक दिन वीतशोका नगरी के बहिर्भाग में अवस्थित इन्द्रकुम्भ उद्यान में तपस्वी स्थविर श्रमणों के शुभागमन का शुभ संवाद सुनकर वे सातों मित्र उन स्थविरों के दर्शन एवं उपदेश श्रवरण के लिये उस उद्यान में गये । धर्मोपदेश सुनने के पश्चात् महाबल ने स्थविर श्रमणमुख्य की सेवा में उपस्थित हो निवेदन किया- "महामुने ! आपके उपदेश को सुनकर मुझे संसार से विरक्ति हो गई है । मैं अपने पुत्र को राज्यभार सँभला कर आपके पास श्रमरणधर्म की दीक्षा ग्रहण करना चाहता हूँ ।" स्थविरमुख्य ने महाबल से कहा - " राजन् ! जिससे तुम्हें सुख हो, वही करो। अच्छे कार्य में प्रमाद मत करो ।" महाबल ने अपने अचल आदि छहों मित्रों के समक्ष निर्ग्रन्थ श्रमरणधर्म में दीक्षित होने का अपना विचार रखा । छहों मित्रों ने एक स्वर में महाबल से कहा - "देवानुप्रिय ! यदि तुम्हीं श्रमरणधर्म की दीक्षा ग्रहण कर रहे हो तो इस संसार में हमारे लिये और कौनसा आधार है और कौनसा आकर्षण अवशिष्ट रह जाता है। यदि आप प्रव्रजित होते हैं तो हम छहों भी आपके साथ ही प्रव्रजित होंगे ।" महाबल ने कहा- “यदि ऐसी बात है तो अपने-अपने पुत्रों को अपनेअपने राज्यसिंहासन पर अभिषिक्त कर आप लोग शीघ्रतापूर्वक मेरे पास आ जाइये ।" अपने अनन्य सखा महाराज महाबल की बात सुनकर वे छहों मित्र बड़े प्रमुदित हुए । वे अपने अपने राजप्रासाद में गये । तत्काल ग्रपने अपने बड़े पुत्र को अपने अपने राजसिंहासन पर श्रासीन कर एक एक सहस्र पुरुषों द्वारा उठाई गई छह पालकियों में बैठ महाबल के पास लौट आये । महाराजा महाबल ने भी अपने पुत्र बलभद्र का राज्याभिषेक किया और वह एक हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली पालकी में प्रारूढ़ हो अपने मित्रों को साथ लिये स्थविरों के पास इन्द्रकुम्भ उद्यान में उपस्थित हुआ । तदनन्तर महाबल आदि सातों मित्रों ने अपना अपना स्वयमेव पंचमुष्टि लुचन कर उन स्थविर महामुनि के पास श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण की । श्रमधर्म में दीक्षित होने के पश्चात् उन सातों ही मुनियों ने साथ साथ एकादशांगी का अध्ययन किया और वे अपनी श्रात्मा को संयम एवं तप द्वारा Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [महाबल का भावित करते हए अप्रतिहत विहार से विचरण करने लगे। कालान्तर में सन सातों ही साथी मुनियों ने परस्पर विचार-विमर्श के पश्चात् यह प्रतिज्ञा की कि वे सातों साथ साथ एक समान तपस्याएं करते हए विचरण करेंगे । अपनी इस प्रतिज्ञाके अनसार वे सातों ही मनि एक दूसरे के समान चतुर्थ भक्त, षष्ठ भक्त, अष्ट भक्त प्रादि तपस्याए साथ-साथ करते हुए विचरण करने लगे । तदनन्तर उस महाबल अरणगार ने इस कारण स्त्री नामकर्म का उपार्जन कर लिया कि जब उसके साथी छहों मुनि चतुर्थ भक्त तप करते तो वह महाबल षष्ठभक्त तप कर लेता । यदि उसके छहों साथी मुनि षष्ठ भक्त तप करते तो वह महाबल अरणगार अष्टम भक्त तप कर लेता । इसी प्रकार वे छहों प्रणगार यदि अष्टम भक्त तप करते तो महाबल दशमभक्त तप करता और वे छहों अरणगार यदि दशम भक्त तप करते तो महाबल अरणगार द्वादश भक्त तप अर्थात् पाँच उपवास का तप करता। इस प्रकार अपने छहों मित्रों के साथ संयुक्त रूप से की गई समान तपस्या करने की अपनी प्रतिज्ञा के उपरान्त भी अपने मित्रों को अपने अन्तर्मन का भेद न देते हुए उनसे अधिक तपस्या करते रहने के कारण स्त्री नामकर्म का बन्ध कर लेने के पश्चात् मुनि महाबल ने अर्हद्भक्ति (१), सिद्ध भक्ति (२), प्रवचन भक्ति (३), गरु (४), स्थविर (५), बहुश्रुत (६), तपस्वी इन चारों की वात्सल्य सहित सेवा भक्ति के साथ उनके गुणों का उत्कीर्तन (७), ज्ञान में निरन्तर उपयोग (८), सम्यक्त्व की विशुद्धि (६), गुरु प्रादि व गणवानों के प्रति विनय (१०), दोनों संध्या विधिवत् षड़ावश्यक करना (११), शील और व्रतों का निर्दोष पालन (१२), क्षण भर भी प्रमाद न करते हुए शुभ ध्यान करना अथवा वैराग्य भाव की वृद्धि करना (१३), यथाशक्ति बारह प्रकार का तप करना (१४), त्याग-प्रभयदान, सुपात्रदान देना (१५) प्राचार्य आदि बड़ों की वैयावृत्य-शुश्रूषा करना (१६), प्राणिमात्र को समाधि मिले, इस प्रकार का प्रयास करना (१७), अपूर्व ज्ञान का अभ्यास करना (१८), श्रुतभक्ति अर्थात् जिनप्ररूपित आगमों में अनुराग रखना (१६) और प्रवचन प्रभावना अर्थात् संसार सागर में डबते हुए प्राणियों की रक्षा के प्रयास, समस्त जगत के जीवों को जिन शासन रसिक बनाने के प्रयास, मिथ्यात्व महान्धकार को मिटा सम्यग्ज्ञान के प्रचार-प्रसार के प्रयास के.साथ-साथ करण सत्तरी तथा चरण सत्तरी की प्राराधना करते हुए जिनशासन की महिमा बढ़ाना (२०)इन बीस बोलों में से प्रत्येक की पुनः पुनः उत्कट माराधना, करते हुए तीर्थंकर नाम-गोत्र कर्म की उपार्जना की। तदनन्तर महाबल आदि उन सातों ही साथी श्रमणों ने भिक्ष की बारहों प्रतिमाओं को क्रमश: धारण किया। तदनन्तर उन महाबल प्रादि सातों ही महामनियों ने स्थविरों से प्राज्ञा लेकर लघु सिंहनिष्क्रीड़ित और महासिंह Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन वृत्त] भगवान् श्री मल्लिनाथ २५५ निष्क्रीड़ित जैसी ६ वर्ष २ मास और १२ रात्रियों में निष्पन्न की जाने वाली घोर-उग्र तपश्चर्याओं की आग में अपने-अपने आत्मदेव को तपा-तपा कर अपनेअपने कर्म मल को क्षीण से क्षीणतर करने का प्रबल प्रयास किया। लघुसिंह निष्क्रीड़ित और महासिंह निष्क्रीड़ित तपस्यात्रों को पूर्ण करने के पश्चात् वे सातों मुनि उपवास, बेला, तेला आदि तपस्याए करते हुए अपने कर्मसमूह को नष्ट करने में प्रयत्नशील रहे। इस प्रकार घोर तपश्चरण करते रहने के कारण महाबल आदि सातों मुनियों के शरीर केवल चर्म से ढंके हुए अस्थि पंजर मात्र अवशिष्ट रह गये, उस समय उन्होंने स्थविरों से प्राज्ञा लेकर चारु पर्वत पर संलेखना के साथ यावज्जीव अशन-पानादि का प्रत्याख्यान रूप पादपोपगमन संथारा किया। उन महाबल आदि सातों महामनियों ने ८४ लाख वर्ष तक श्रमण पर्याय का पालन किया और अन्त में ४ मास की तपस्यापूर्वक ८४ लाख पूर्व की अपनी-अपनी आयु पूर्ण कर जयन्त नामक अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र देव हुए। महाबल पूर्ण ३२ सागर की प्राय वाला देव और शेष अचल आदि छहों मूनि बत्तीस सागर में कुछ कम स्थिति वाले देव हुए। जयन्त विमान में वे सातों मित्र देव अपने महद्धिक देव भव के दिव्य सुखों का उपभोग करने लगे। प्रचल प्रादि ६ मित्रों का जयन्त विमान से च्यवन महाबल को छोड़ शेष अचल आदि छहों मित्रों के जीव जयन्त विमान की अपनी देव पाय पूर्ण होने पर इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में विशुद्ध मातपित वंश वाले राजकुलों में पुत्र रूप से उत्पन्न हुए । अचल का जीव कौशल देश की राजधानी अयोध्या में प्रतिवद्धि नामक कौशल नरेश हमा। धरण का जीव अंग जनपद की राजधानी चम्पा नगरी में चन्द्रछागा नामक अंगराज हुआ । अभिचन्द का जीव काशी जनपद को राजधाना बनारस में शंख नामक काशी नरेश्वर हुमा । पूरण का जीव कुणाला जनपद की राजधानी कुणाला नगरी में रुक्मी नामक कुणालाधिपति हुआ। वसु का जीव पुरु जनपद की राजधानी हस्तिनापुर में अदीनशत्रु नामक कुरुराज और वैश्रवण का जीव पांचाल जनपद की राजधानी काम्पिल्यपुरी नगरी में जितशत्रु नामक पांचालाधिपति हुआ । ___भगवान मल्लिनाथ का गर्भ में प्रागमन महाबल का जीव जयन्त नामक अनत्तर विमान के देव भव की अपनी आय पूर्ण होने पर १६वें तीर्थंकर मल्लिनाथ के रूप में उत्पन्न हुआ। जिस समय सूर्यादि ग्रह उच्च स्थान में स्थित थे, चारों दिशाएँ दिग्दाहादि उपद्रवों से विहीन होने के कारण सौम्य, तीर्थंकर पुण्य प्रकृति के बन्ध वाले PatanS3Maaysia, Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् मल्लिनाथ का जीव के गर्भागमन काल के कारण अन्धकार रहित-प्रकाशमान और झंझावात, रजकण आदि से विहीन होने के कारण स्वच्छ, निर्मल थीं, जिस समय पक्षिगण अपने-अपने नीड़ों में विश्राम करते हुए जय-विजय-कल्याणसूचक कलरव. कर रहे थे। शीतल सुगन्धित मलयानिल मन्द-मन्द और अनुकल गति से प्रवाहित हो रहा था । धान्यादिक से पाच्छादित सस्य-श्यामला वसुन्धरा हरी-भरी थी। जनपदों का जनगण-मन प्रमुदित एवं भांति-भांति की क्रीड़ानों में निरतं था। ऐसे सम्मोहक, शान्त रात्रि के समय में, अश्विनी नक्षत्र का चन्द्र के साथ योग होने पर फाल्गुन शुक्ला चौथ (४) की अर्द्धरात्रि के समय जयन्त नामक अनुत्तर विमान की अपनी ३२ सागर प्रमाण देवायु के पूर्ण होने पर जयन्त विमान से अपने मति-श्रुति और अवधि इन तीन ज्ञान युक्त च्यवन कर, इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र की मिथिला राजधानी के महाराजा कुम्भ की महारानी प्रभावती देवी की कुक्षि में गर्भ रूप में उत्पन्न हुआ। - उसी रात्रि में सुखपूर्वक सोयी हई महारानी प्रभावती देवी ने प्रद्धजागत अवस्था में गज, वृषभ, सिंह, लक्ष्मी, पुष्पमाला, चन्द्र, सूर्य, ध्वजा, पूर्णकलश, पद्मसरोवर, समुद्र, देवविमान, रत्नराशि और निधूम्र अग्नि-इन चौदह महास्वप्नों को देखा। उन चौदह स्वप्नों को देखने के तत्काल पश्चात् महारानी प्रभावती जागत हुई और उठ बैठी । वह सहज ही अपार आनन्द का अनुभव करने लगी । वह अपने आपको परम प्रमुदित एवं प्रफुल्लित अनुभव करने लगी। उसके हर्ष का वेग द्रत गति से बढ़ने लगा। उसके रोम पुलकित हो उठे। उसने अनुभव किया कि हर्ष उसके हृदय में समा नहीं रहा है। उसने हृदय में समा नहीं पा रहे अपने हर्ष को बाँटना उचित समझा । स्वप्नों का फल जानने की इच्छा भी बलवती हो रही थी और पूर्व में अननुभूत हर्ष का कारण जानने की भी । वह अपनी सुकोमल सुखशय्या से उठी । अपने शयनकक्ष से बाहर प्राई । उसने देखा व्योम शान्त था, दिशाएं सौम्य, स्वच्छ, निर्मल एवं प्रकाशमान थीं। मन्द-मन्द मादक मलयानिल थिरक रहा था । उसे समग्र संसार सुहाना लगा। संसार का सम्पूर्ण वातावरण लुभावना प्रतीत होने लगा। उसके पदयुगल मन्दमन्थर गयन्द गति से अपने स्वामी मिथिलेश महाराजा कुम्भ के शयन कक्ष की ओर बढ़े । स्वप्न फल की जिज्ञासा के साथ-साथ वह यह भी जानना चाहती थी कि आज उसका तन, मन अनायास ही उद्वेलित प्रानन्द सागर की उत्तुंग तरंगों पर क्यों झूल रहा है। उसे क्या ज्ञात था कि चराचर का शरण्य, स्वामी और सच्चा स्नेही त्रिलोकीनाथ उसकी रत्नगर्भा कुक्षि में आ चुका है। सहमते, सकुचाते शनैः शनैः महारानी ने अपने स्वामी के शयन कक्ष में प्रवेश किया। कुछ क्षरण वह शय्या के पास खड़ी इष्ट, कान्त, प्रिय, मृदु-मधुर Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भ में आगमन ] भगवान् श्री मल्लिनाथ वाणी बोलती रही । महारानी के मृदु वचन सुनकर महाराज की निद्रा खुली । वे शय्या पर उठ बैठे । "स्वागत है महादेवि ! आज इस समय शुभागमन कैसे ? " महाराजा कुम्भ ने स्नेहसिक्त स्वर में प्रश्न किया । पर महारानी के मुखमण्डल पर दृष्टि पड़ते ही अपने इस प्रश्न के उत्तर की प्रतीक्षा न कर उत्कण्ठापूर्ण मुद्रा में पूछा"महादेवि ! श्राज तुम्हारे मुखमण्डल पर भामण्डल का सा दिव्य प्रकाश स्पष्टतः दृष्टिगोचर हो रहा है । तुम आज प्रतीव प्रसन्न प्रतीत हो रही हो । तुम्हारे लोचन युगल से आज अलौकिक प्रालोक की किरणें प्रकट हो रही हैं । अवश्य ही आज तुम कोई न कोई विशिष्ट शुभ संवाद सुनाने श्राई हो । हमें भी अपने हर्ष का भागीदार बनाओ । २५७ 1 महारानी प्रभावती ने अंजलि भाल से छुप्राते हुए विनम्र, मृदु, मंजुल स्वर में कहा - "देव ! अभी अभी अर्द्ध जागृतावस्था में मैंने अद्भुत १४ स्वप्न देखे हैं । उन स्वप्नों को देख कर मेरी निद्रा भंग हुई । सहसा मैं उठ बैठी । अकारण ही मेरा मनमयूर हर्ष विभोर हो नाच उठा। मैंने प्राज से पहले इतने असीम और अद्भुत श्रानन्द का अनुभव कभी नहीं किया । मुझे प्राज सब कुछ सुहाना लग रहा है । मैं अपने प्रानन्द का पारावार शब्दों से प्रकट करने में अक्षम हूं। मुझे स्पष्ट प्रतीत होने लगा कि मेरे सीमित मानस में श्रानन्द का उद्वेलित अथाह उदधि समा नहीं रहा है, इसीलिये अपने श्रानन्द का आधा भाग प्रापको देकर अपने आनन्द के भार को हल्का करने हेतु आपकी यह चरण चंचरीका आपकी सेवा में इस समय उपस्थित हुई है । प्रारणाधार ! मैं अभी तक अपने इस पारावार विहीन हर्ष का कारण नहीं समझ पा रही हूं। ऐसा आभास होता है कि हो न हो इन स्वप्नों का इस अपार आनन्द से अवश्य ही कोई सम्बन्ध है । मिथिलेश्वर महाराज कुम्भ महारानी प्रभावती के मुख से उन चौदह स्वप्नों को सुन कर परम प्रमुदित हुए और बोले - "महादेवि ! तुम्हारे ये स्वप्न यही बता रहे हैं कि अलौकिक शक्ति सम्पन्न कोई महान् पुण्यशाली प्राणी तुम्हारी कुक्षि में आया है । उस महान् आत्मा के प्रभाव के परिणामस्वरूप ही तुम्हारे मुख मण्डल और अंग प्रत्यंग से प्रकाशपुंज प्रकट हो रहा है । तुम्हारे असीम आनन्द का स्रोत भी तुम्हारी कुक्षि में आया हुआ वही पुण्यवान् प्राणी प्रतीत होता है । महादेवि ! तुम वस्तुतः महान् भाग्यशालिनी हो । तुम्हारे महास्वप्न निश्चित रूप से महान् शुभ फल प्रदायी होंगे, ऐसी मेरी धारणा है । प्रातःकाल स्वप्न पाठकों को बुला कर उनसे इन महास्वप्नों के फल के विषय में विस्तृत विवरण ज्ञात कर लिया जायगा । अपने पति के मुख से स्वप्नों का फल सुन कर महारानी प्रभापती मन ही मन अपने नारी जीवन को धन्य समझ प्रमुदित हुई । नारी सुलभ लज्जा से Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् मल्लिनाथ का उसके विशाल-आयत-ललित लोचन युगल की पलकें मृणाल तुल्या ग्रीवा के साथ ही झक गई। उसने ईषत स्मित के साथ अंजलि भाल पर रख हर्षातिरेकवशात् अवरुद्ध कण्ठ से वीणा के तार की झंकार तुल्य सुमधुर विनम्र स्वर में घोमे से कहा-"प्राणाधिक दयित ! आपके ये सुधासिक्त परम प्रीति प्रदायक वचन कर्णरन्ध्रों के माध्यम से मेरे मानस में अमृत उंडेल उसे प्राप्लावित, प्राप्यायित कर रहे हैं । अब मुझे अपने अन्तर में हर्ष सागर के उद्वेलित होने का कारण समझ में आ गया है। आपके वचन अक्षरशः सत्य हों। मेरे सब उहापोह शान्त हो गये हैं । मैं आश्वस्त हो गई हूं । अब आप विश्राम करें।" यह कह कर महारानी प्रभावती उठी । उसने महाराज कुम्भ को झुककर प्रणाम किया और वह अपने शयनकक्ष की ओर लौट गई। आँखों में, तनमन में और रोम-रोम में आनन्दातिरेक समाया हुआ था, निद्रा के लिये वहाँ कोई अवकाश ही नहीं रहा । इसके साथ ही साथ महारानी को यह आशंका भी थी कि अब सोने पर कहीं कोई दुःस्वप्न न आ जाय, इसलिये उसने शेष रात्रि धर्माराधन करते हुए धर्मजागरणा के रूप में व्यतीत की। दैनिक आवश्यक कृत्यों से निवृत्त हो प्रात:काल महाराज कुम्भ ने स्वप्न पाठकों को सादर आमन्त्रित किया। उन्हें महारानी के चौदह महास्वप्नों का विवरण सुना कर स्वप्न-फल पूछा। __ स्वप्न-शास्त्र के पारंगत स्वप्न पाठकों ने स्वप्न-शास्त्र के प्रमाणों के आधार पर परस्पर विचार-विमर्श द्वारा स्वप्नों के फल के सम्बन्ध में सर्वसम्मत निर्णय किया। तदनन्तर स्वप्न पाठकों के मुखिया ने स्वप्न-फल सुनाते हुए महाराज कुम्भ से कहा-“महाराज.! जो स्वप्न महारानी ने देखे हैं, वे स्वप्नों में सर्वश्रेष्ठ स्वप्न हैं। स्वप्न-शास्त्र में इन स्वप्नों को "चौदह महास्वप्न" की संज्ञा दी गई है। इस प्रकार चौदह महास्वप्न वस्तुतः केवल तीथंकरों और चक्रवतियों की माताएं ही गर्भधारण की रात्रि में देखती हैं। महारानी द्वारा देखे गये ये महास्वप्न पूर्व-सचना देते हैं कि महारानी की रत्नकुक्षि में ऐसा महान् पुण्यशाली प्राणी पाया है, जो भविष्य में धर्म-चक्रवर्ती तीर्थंकर अथवा भरत क्षेत्र के छहों खण्डों का अधिपति चक्रवर्ती सम्राट् होगा।" स्वप्न पाठकों के मुख से स्वप्नों का फल सुन मिथिलापति महाराज कुम्भ और महारानी प्रभावती-दोनों ही बड़े प्रसन्न-प्रमुदित हुए । महाराज कुम्भ ने स्वप्न पाठकों को पुरस्कारादि से सन्तुष्ट एवं सम्मानित कर विदा किया। तदनन्तर परम प्रमुदिता महारानी प्रभावती संयमित एवं समुचित पाहार-विहार का पूरा ध्यान रख कर सुखपूर्वक गर्भ को वहन करती हुई सदा शान्त एवं प्रसन्न मुद्रा में सुखोपभोग करने लगी। इस प्रकार सुखोपभोग करते Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भ में प्रागमन भगवान् श्री मल्लिनाथ २५६ हए उसके गर्भकाल के तीन मास पूर्ण हो गये, तब उसे एक अतीव प्रशस्त दोहद (दोहला) उत्पन्न हुआ। उसके मन में एक उत्कट साध जगी, जो इस प्रकार थी : "वे मातएं धन्य हैं, जो जल और स्थल में उत्पन्न एवं प्रफुल्लित हुए पाँच रंगों के सुगन्धित सुमनोहर पुष्पों के ढेर से समीचीनतया सुसंस्कारित, समाच्छादित, सुसज्जित शय्या पर बैठती और शयन करती हैं, और गुलाब, मोगरा, चम्पक, अशोक, पुन्नाग, नाग, मरुपा, दमनक और कुब्जक के रंग-बिरंगे हृदयहारी सुमनों के समूह से उत्कृष्ट कलात्मक कौशलपूर्वक ग्रथित किये गये, स्पर्श करने में सुतरां सुकोमल, देखने में नयनानन्दप्रदायक-प्रीतिकारक, तृप्तिकारक, सम्मोहक, मादक महा सुरभि से सम्पूर्ण वायुमण्डल को मगमगायमान सुरभित, सुगन्धित करने वाले दामगण्ड-पुष्पस्तबक को सूघती हुई अपने गर्भ-मनोरथ की, अपने गर्भकाल की साध की, अपनी गुर्विणी अवस्था के दोहद की पूर्ति करती हैं।" समीप ही में रहने वाले वारणव्यन्तर देवों ने, महारानी प्रभावती के दोहदोत्पत्ति का परिज्ञान होते ही, दोहद के अनुरूप, जल तथा स्थल में उत्पन्न हुए पाँच वर्णों के प्रफुल्लित एवं सुन्दर पुष्पों के ढेर से महारानी की शय्या को सुचारुरूपेण समाच्छादित एवं सजा दिया और दोहद की पूर्ति करने में पूर्णरूपेण सक्षम, उपरिवरिणत सभी भाँति के सुगन्धित, सुविकसित, सुन्दरातिसुन्दर सुमनों से उत्कृष्टतम कला-कौशल पूर्वक गुथा हुमा एक अद्भुत् अलौकिक दामगण्ड-पुष्पस्तवक (गुलदस्ता) महारानी के समक्ष लाकर प्रस्तुत कर दिया । जल तथा थल में पुष्पित-विकसित पंच वर्णात्मक प्रभूत पुष्पनिचय से चातुरीपूर्वक चित्रित-समाच्छादित नयनाभिराम सुकोमल पुष्प शय्या को और अपने मनोरथ के शतप्रतिशत अनुकल, नयन-नासिका-श्रवण-तन-मन-मस्तिष्क को सर्वथा संतृप्त कर देने वाले मनोज्ञ सुमन-स्तबक को देखते ही महारानी हर्पविभोर हो उठी, उसके हृदय की कली-कली खिल उठी। उसने सुकोमल सुमन-शय्या पर बैठ कर, शयन कर और पुप्पस्तबक को सूघसूघ कर, देख-देख कर अपने प्रशस्त दोहद की पूर्णरूपेण पति की । उसकी पाँचों इन्द्रियां तप्त हो गई, रोम-रोम तुष्ट हो गया। इस प्रकार राजा एवं प्रजा द्वारा प्रशंसित प्रशस्त अपना दोहद पूर्ण होने पर महागनी प्रभावती पूर्णतः प्रसन्न एवं प्रमुदित रहने लगी । गर्भकाल के सवा नौ मास पूर्ण होने पर मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी की मध्य गत्रि के समय चन्द्रमा का अश्विनी नक्षत्र के साथ योग होने पर, जिस समय कि सूर्य आदि ग्रह उच्च स्थान पर स्थित थे, जनपदों के निवासी आनन्दमग्न एवं परम प्रसन्न थे, उस समय महारानी प्रभावती ने बिना किसी बाधा-पोड़ा के सुखपूर्वक १६वें तीर्थंकर को जन्म दिया। चौसठ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् मल्लिनाथ का इन्द्रों, इन्द्रारिणयों, चार जाति के देवों एवं देवियों ने बड़े ही हर्षोल्लास के साथ १९वें तीर्थंकर का जन्म महोत्सव मनाया । चारों जाति के देवों द्वारा जन्म महोत्सव मनाये जाने के पश्चात् महाराजा कुम्भ ने भगवान का नामकरण किया । गर्भकाल में माता को पांच वर्गों के पुष्पों की शय्या और दामगण्ड का दोहद उत्पन्न हुआ था, जिसकी कि पूर्ति देवों द्वारा की गई थी। अतः महाराजा कुम्भ ने अपनी पुत्री का नाम मल्ली रखा। मल्ली राजकुमारी अनुक्रमशः दिन प्रतिदिन वृद्धिगत होने लगी। वे ऐश्वर्य आदि गरणों से युक्त थीं। वे जयन्त नामक विमान से च्यवन कर आई थीं और अनपम कान्ति एवं शोभा से सम्पन्न थीं। वे दासियों तथा दासों से परिवृत्त और समवयस्का सहचरियों-सहेलियों के परिकर अर्थात् समूह से युक्त थीं। उनके बाल भ्रमर के समान काले और चमकीले थे । आँखें बड़ी ही सुहानी थीं । प्रोष्ठ बिम्ब फल के समान लाल-लाल और दन्तपंक्ति श्वेत एवं चमकीली थी। उनके अंगोपांग नवविकसित कमल पुष्पवत् मदुल मंजुल एवं कोमल थे । उनके निश्वासों से प्रफुल्लित नीलकमल की गन्ध के समान सुगन्ध समग्र वातावरण में व्याप्त हो जाती थी। इस प्रकार शुक्ल पक्ष की द्वितीया के चन्द्र की कला के समान अनुक्रमश: वृद्धिगत होती हुई विदेह राजकुमारी भगवती मल्ली जब बाल्यावस्था से किशोरी अवस्था में प्रविष्ट हुई तो उनकी देहयष्टि अत्युत्कृष्टतम रूप, लावण्य एवं यौवन से सम्पन्न हो गई। जब वह मल्ली कुमारी सौ वर्ष से कुछ ही न्यून. अवस्था की हुई, उस समय अपने पूर्वजन्म के मित्र इक्ष्वाकुराज प्रति बुद्धि, अंग देशाधिप चन्द्रच्छाय, काशीराज-शंख, कुणालाधिपति रुप्पी, कुरुराज अदीनशत्रु और पांचाल नरेश जितशत्रु-इन छहों राजाओं को अपने विपुल अवधिज्ञान द्वारा देखती, जानती हुई अपनी सखियों के साथ सुखपूर्वक विचरण करने लगी। उस समय मल्ली राजकुमारी ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुला कर कहा--"हे देवानप्रियो ! तुम लोग अशोक वाटिका में सैकड़ों स्तम्भों पर आधारित एक विशाल मोहन-घर का निर्माण कर उसके मध्य भाग में छः गर्भ ग्रहों के बीचोंबीच एक जालीगह की रचना कर उस जालगृह के मध्यभाग में एक मणिमयी पीठिका (चबूतरे) का निर्माण करो। यह सब निर्माण कार्य शीघ्र ही सम्पन्न कर मुझे सूचित करो । मल्ली विदेह राजदुलारी के कौटुम्बिक पुरुषों ने भगवती मल्ली की आज्ञा का पालन करते हुए उनकी इच्छा के अनुरूप अतीव मनोहर उस मोहनघर में पृथक्-पृथक् छैः गर्भग्रह, जालीगृह और छहों गर्भग्रहों से स्पष्टतः दिखने वाले मणिपीठ का निर्माण कर, उस निर्माण कार्य के सम्पूर्ण होने की सचना भगवती मल्ली को दी। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भ में प्रागमन] भगवान् श्री मल्लिनाथ २६१ तदनन्तर भगवती मल्ली ने उस मणिपीठिका पर साक्षात् अपने ही समान देहाकार, वर्ण, वय, रूप, लावण्य और यौवन आदि गुणों से सर्वथा सम्पन्न एक स्वर्णमयी ऐसी पूतली का निर्माण किया, जिसको देखते ही सुविचक्षण से सूविचक्षण दर्शक भी यही समझे कि यह भगवती मल्ली खड़ी हैं। अपनी उस प्रतिमा के शिर पर भगवती मल्ली ने एक छिद्र रख कर उसे पद्मपत्र के ढक्कन से ढक दिया। साक्षात् अपने जैसी ही प्रतिमा का निर्माण करने के पश्चात् मल्ली भगवती स्वयं जो जो मनोज्ञ अशन, पान, खादिम और स्वादिमचार प्रकार का पाहार करती उस चार प्रकार के आहार में से एक-एक ग्रास (कवल) प्रतिदिन उस पुतली में डाल कर उसे पद्मपत्र के ढक्कन से ढक देती। प्रतिदिन का यह क्रम निरन्तर चलता रहा । उस कनकमयी पुतली में मस्तक के छिद्र से प्रतिदिन चतुर्विध पाहार का एक एक ग्रास डालते रहने से उस में बड़ी ही भयंकर और दुस्सह्य दुर्गन्ध उत्पन्न हुई । वह दुर्गन्ध मृत मानव अथवा मृत पशु के कलेवर के कई दिन पड़े रहने पर, उससे निकलने वाली दुर्गन्ध से भी अनेक गुना अधिक दुस्सह्य, अनिष्टतम, अमनोज्ञतम और पास-पास के सम्पूर्ण वायुमण्डल को दुर्गन्धित एवं दूषित बना देने वाली थी। प्रलौकिक सौन्दर्य की ख्याति उन्मुक्त-बालभावा भगवती मल्ली के अलौकिक रूप-लावण्य और उत्कृष्टतम गुणों की ख्याति दिग्दिगन्त में फैलने लगी। जिन दिनों मति, श्रुति और अवधिज्ञान से सम्पन्ना भगवती मल्ली अपने पूर्वभव. के मित्र राजाओं के मोहभाव का शमन करने के लिये मोहन घर का निर्माण करवा रहीं थीं, उन्हीं दिनों भगवती मल्ली के पूर्वजन्म के बालसखा उन छहों राजाओं को भगवती मल्ली के प्रति विभिन्न ६ कारणों से प्रगाढ़ प्रीति उत्पन्न हुई । प्रतिबुद्ध आदि उन छहों राजाओं को जिस-जिस निमित्त से भगवती मल्ली के प्रति गाढ़तम अनुराग हुआ, उन निमित्तों का सार रूप विवरण इस प्रकार है : कौशलाधीश प्रतिबुद्धि का अनुराग एक बार साकेतपुर में प्रतिबुद्धि राजा ने रानी पद्मावती के लिये नागघर के यात्रा महोत्सव की घोषणा की और मालाकारों को अच्छे से अच्छा माल्य गुच्छ (पुष्पस्तबक) बनाने का आदेश दिया। जब राजा और रानी नागार में पाये और नाग प्रतिमा को उन्होंने वन्दन किया, उस समय मालाकारों द्वारा प्रस्तुत एक श्री दामगण्ड (पुष्पस्तबक) को राजा ने देखा और विस्मित हो कर अपने सुबुद्धि नामक प्रधान से प्रश्न किया- "हे देवानुप्रिय ! तुम राजकार्य से बहुत से ग्राम, नगर आदि में घूमते रहते हो, राजाओं के भवनों Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [अरहनक द्वारा दिव्य-कुण्डल- . में भी प्रवेश करते हो, क्या तुमने ऐसा मनोहर श्री दामगण्ड कहीं अन्यत्र भी देखा है ? सुबुद्धि ने कहा-"महाराज ! मैं आपका संदेश ले कर एक बार मिथिला गया था। वहां महाराज कुम्भ की पुत्री मल्ली विदेह राजवर कन्या के वार्षिक जन्म-महोत्सव के अवसर पर जो दिव्य श्री दामगण्ड मैंने देखा, उसके समक्ष महाराज्ञी देवी पदमावती का यह श्री दामगण्ड लक्षांश भी नहीं है । उसने विदेह रायवर कन्या मल्लीकुमारी के सौन्दर्य का बड़ा ही आश्चर्यकारी परिचय दिया, जिसे सुन कर कौशलेश प्रतिबुद्धि मल्लीकुमारी पर पर्णरूपेण मुग्ध हो गये। राजप्रासाद में आकर कोशलाधीश महाराज प्रतिबद्ध ने अपने एक अति कुशल दूत को बुला कर कहा- "देवानुप्रिय ! तुम आज ही मिथिला की ओर प्रस्थान करो और मिथिला के महाराजा कुम्भ के समक्ष जा कर मेरा यह सन्देश सुनायो कि इक्ष्वाकु कुल कमल दिवाकर साकेत पति कौशलेश्वर महाराजा प्रतिबुद्ध आपकी पुत्री विदेह वर राजकन्या मल्लीकुमारी को अपनी पत्नी के रूप में वरण करना चाहता है । राजकुमारी मल्ली को प्राप्त करने के लिये कौशलेश्वर अपने कौशल जनपद के सम्पूर्ण राज्य को भी न्यौछावर करने के लिये समुद्यत हैं।" दूत ने सांजलि शीश झुका “यथाज्ञापयति देव !" कहते हुए अपने स्वामी की आज्ञा को शिरोधार्य किया । वह दूत अतीव प्रमुदित हो अपने घर आया और पाथेय, अनचर और कुछ सैनिकों की व्यवस्था कर उन्हें साथ ले मिथिला की ओर प्रस्थित हो गया। प्ररहन्नक द्वारा दिव्य कुण्डल-युगल की भेंट जिस समय भगवती मल्ली ने किशोरी वय में प्रवेश किया, उस समय अंग जनपद के अधीश्वर चन्द्रच्छाग अंग राज्य की राजधानी चम्पा नगरी में (अंग जनपद के) राजसिंहासन पर प्रासीन थे। उस समय चम्पा नगरी में सम्मिलित रूप से व्यापार करने वाले अरहन्नक प्रमुख बहुत से पोतवणिक् रहते थे । वे व्यापारी जहाजों द्वारा दूर-दूर के अनेक देशों में व्यापार के लिये साथ-साथ समुद्री यात्राएं करते रहते थे। वे सभी पोतवणिक विपूल वैभव शाली, ऐश्वर्यशाली और समद्ध थे । उनके भण्डार धन, धान्यादिक से परिपूर्ण थे । कोई भी व्यक्ति उनका पराभव करने में समर्थ नहीं था। उन नौकानों से व्यापार करने वाले व्यापारियों में अरहन्नक नाम का प्रमुख व्यापारी न केवल धन-धान्यादिक से ही समद्ध था, अपितु वह धर्म के प्रति अटूट श्रद्धा रखने वाला सच्चा श्रमणोपासक और जीव तथा अजीव के स्वरूप का ज्ञाता, तत्वज्ञ एवं मर्मज्ञ था । धर्म में उसकी आस्था अविचल थी। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगल की भेंट ] भ० श्री मल्लिनाथ २६३ एक दिन उन सब पोतवरिणकों ने विचार विनिमय के पश्चात् समुद्र पार के सुदूरस्थ देशों से व्यापार करने का निश्चय किया । तदनुसार गरिणम अर्थात् गिनती पूर्वक क्रय-विक्रय करने योग्य नारियल, सुपारी आदि धरिम- प्रर्थात् तुला पर तोल कर क्रय-विक्रय करने योग्य सस्यादि मेय अर्थात् - पल, सेतिका प्रादि के परिमाण से व्यवहृत होने योग्य और परिच्छेय अर्थात् गुरणों की परीक्षा के द्वारा क्रय-विक्रय किये जाने योग्य मरिण, रत्न, वस्त्र आदि इन चार प्रकार के कारकों की वस्तुओं से दो विशाल जलपोतों (जहाजों) को भर कर उन्होंने शुभ मुहूर्त में समुद्री यात्रा प्रारम्भ की। समुद्र यात्रा करने का, अंग नरेश का प्रदेश-पत्र उनके साथ था । अनेक प्रकार के क्रयारकों, भोजन सामग्री, सेवकों, पोतरक्षकों एवं पोत- वरिणकों से भरे दोनों जलपोत समुद्र में मिलती वेगवती नदियों की तीव्र धाराओं पर तैरते, उदधि की उत्ताल तरंगों से जूझते हुए ससुद्र के वक्षस्थल को चीरते हुए समुद्र में बहुत दूर निकल गये । जलपोतों के ऊपर बाँधे गये सुदृढ़ श्वेत वस्त्र के पालों में निरन्तर अवरुद्ध होती हुई वायु के वेग से द्रुत गति पकड़े हुए दोनों जलपोत कुछ ही दिनों में समुद्र के अन्दर सैकड़ों योजनों की दूरी पर पहुंच गये, चारों ओर कल्लोलित सागर की लोल लहरें और छोर विहीन जलराशि के अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु दृष्टिगोचर नहीं हो रही थी । उस समय आकाश में अनेक प्रकार के उत्पात होने लगे । सहसा पोतवरिकों ने देखा कि कज्जलगिरि के समान काला और प्रति विशाल एक पिशाच घनघटा की तरह गर्जन, अट्टहास और कराल भैरव की तरह नृत्य करता हुआ उनके जहाजों की ओर बढ़ा चला आ रहा है । उसकी जंघाएँ सात-आठ ताल वृक्षों, जितनी लम्बी-लम्बी, वक्षस्थल कज्जल के गिरिराज की प्रति विशाल शिला के समान विस्तीर्ण एवं भयानक, कपोल और मुख गहरे गड्ढे की तरह भीतर घुसे हुए, नाक छोटी, चिपटी और बैठी हुई आँखें खद्योत की चमक के समान लाल-लाल, ओष्ठ बड़े-बड़े और लटके हुए, चौके के चारों दाँत हस्ति दंत के समान बाहर निकले हुए, जिह्वा लम्बी-लम्बी और लपलपाती हुई, भौंहें प्रति वक्र तनी हुई और भयावनी, नख सूप के समान, कान ऊपर चोटी तक ऊंचे उठे हुए और नीचे दोनों स्कन्धों तक लटकते हुए थे । वह नरमुण्डों की माला धारण किये हुए था। उसके कानों में कर्णपूरों के स्थान पर दो भयंकर काले नाग फनों को उठाये हुए थे । उसने अपने दोनों स्कन्धों पर मार्जारों और शृगालों को और शिर पर घू-घू की घोर ध्वनि करने वाले उल्लुनों को बैठा रखा था । उसकी दोनों भुजाओं में रुधिर से रंजित हस्तिचर्म लिपटे हुए थे। हाथ में दुधारा विकराल खड्ग धारण किये हुए अपने गले में बँधे घंटों का घोर-रव करता हुआ जलपोतों की ओर आकाश से उतर रहा था । इस प्रकार के भीषण कालतुल्य पिशाच को देख कर अरहन्नक को छोड़ शेष सभी पोतवfरक भयभीत हो थर-थर काँपते हुए एक-दूसरे से चिपट गये । Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [अरहनक द्वारा दिव्य-कुण्डल किन्तु श्रमणोपासक अरहन्नक उस काल के समान विकराल पिशाच को देख कर किंचिन्मात्र भी भयभीत अथवा विचलित नहीं हुआ । वह पूर्णत: शान्त और निरुद्विग्न बना रहा । उसने जलपोत के एक स्थान को वस्त्र के छोर से प्रमाजित किया, उस स्थान को जीवादि से रहित विशुद्ध बना कर वहीं स्थिरअचल आसन से बैठ गया। उसने अपने दोनों हाथों को जोड़ अंजलि से अपने भाल को छूमा और आवर्त करते हुए इन्द्रस्तव से धैर्यपूर्वक सिद्ध प्रभु की स्तुति की। तदनन्तर यह उच्चारण करते हुए कि यदि मैं इस पिशाचकृत उपसर्ग से बच गया तो अशनादि ग्रहण करूगा और यदि मैं इस उपसर्ग से नहीं बचा, जीवित नहीं रहा तो जीवन पर्यन्त अशन-पानादि ग्रहण नहीं करूंगा, उसने आगार सहित अनशन का प्रत्याख्यान किया। इस प्रकार अरहन्नक द्वारा सागारिक संथारा ग्रहण किये जाने के कुछ ही क्षण पश्चात् वह विकराल पिशाच हाथ में दुधारा खड्ग लिये हुए अरहन्नक के पास आया और अत्यन्त क्रुद्ध मुद्रा में लाललाल भयावनी अांखें दिखाते हुए अरहन्नक से कहने लगा- "अरे प्रो! प्राणिमात्र द्वारा अप्रार्थित मृत्यु की प्रार्थना करने वाले, कृष्णपक्ष की चतुर्दशी अथवा अमावस्या की कालरात्रि में जन्म ग्रहण किये हुए लज्जा और शोभा विहीन अरहन्नक !'तेरे द्वारा ग्रहण किये गये ४ शिक्षाव्रतों, ५ अणुव्रतों और ३ गुणवतों रूप १२ प्रकार के श्रावक धर्म को पूर्णत: अथवा अंशतः खण्डित करवाने में तुझे सम्यक्त्व से, तेरे इस १२ प्रकार के श्रमरणोपासक धर्म से पतित करने में कोई भी देव-दानव की शक्ति असमर्थ है । तेरा भला इसी में है कि तू स्वतः ही सम्यक्त्व का-बारह प्रकार के श्रमरणोपासक धर्म का परित्याग कर दे, अन्यथा मैं तेरे इन जलपोतों को दो अंगलियों से उठा कर आकाश में बहत ऊपर ले जा कर इस अथाह समुद्र में डुबो दूगा, जिसके परिणाम स्वरूप तू घोर आर्तध्यान करता हुआ अकाल में ही काल का कवल बन जायगा । श्रमणोपासक अरहन्नक को पूर्ववत् निश्चल और निर्भय रूपेण ध्यानमग्न देख उस पिशाच ने और भी अधिक तीव्र क्रोध और आक्रोशपूर्ण कड़कते हए स्वर में अपने उक्त कथन को दूसरी बार दोहराया। इस पर भी अरहन्नक धीर, गम्भीर और निर्भय बना रहा । उसने मन ही मन उस पिशाच को सम्बोधित करते हुए कहा- “हे देवानुप्रिय ! मैं अरहनक नामक श्रमणोपासक हं । मैंने जीव अजीव आदि तत्वों का सम्यग्ज्ञान समीचीनतया हृदयंगम कर उस पर अटूट श्रद्धा और अविचल आस्था की है । मुझे अपनी इस निर्ग्रन्थ प्रवचन की श्रद्धा से संसार की कोई भी शक्ति किंचिन्मात्र भी क्षभित, स्खलित अथवा विचलित नहीं कर सकती । इसलिए हे देव ! तुम जो कुछ भी करना चाहते हो, वह सब कुछ कर लो, मैं अपनी श्रद्धा का, आस्था का, सम्यक्त्व अथवा बारह प्रकार के श्रमणोपासक धर्म का लेश मात्र भी परित्याग नहीं करूंगा।" अरहन्नक को उसी प्रकार अनुद्विग्न, अविकम्प, अविचल, निर्भय और Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगल की मेंट] भगवान् श्री मल्लिनाथ २६५ शान्त देख कर प्रलयघटा में कड़कती बिजली के स्वर में जल, स्थल और नभ को प्रकम्पित करते हुए दूसरी बार अपने उसी उपर्युक्त कथन को दोहराया। इस कर्णवेधी अति कर्कश, कठोर कथन का अरहन्नक के तन, मन अथवा हृदय पर कोई प्रभाव पड़ा कि नहीं, इस प्रकार की प्रतिक्रिया की कुछ क्षणों तक प्रतीक्षा करने के पश्चात् जब उस पिशाच ने यह देखा कि उसके द्वारा सभी प्रकार का भय दिखाये जाने पर अरहन्नक अडिग आसन से पूर्णतः शान्त, निर्भय मुद्रा में ध्यान मग्न हैं, तो उसे अरहन्नक के साथ-साथ अपनी असफलता पर भी परम क्षोभ और भीषण क्रोध आया। उसने भयावह हुंकार से दशों दिशाओं को कम्पायमान करते हुए अरहन्नक के जलपोत को अपनी दो अंगुलियों पर उठा लिया । जलपोत को अपनी मध्यमा और तर्जनी अंगुलियों पर रख उसने आकाश की ओर ऊंची छलांग भरी । आकाश में सात-आठ ताल वृक्ष प्रमाण ऊंचाई पर जा कर गगन को गुजायमान कर देने वाले उच्चतम आक्रोशपूर्ण स्वर में एक बार पुनः अपने उपर्युक्त कथन को दोहराते हुए कहा--"अरे ओ ! अप्राथित मृत्य की प्रार्थना करने वाले निर्लज्ज, निश्श्रीक अरहन्नक ! अब भी समय है, अपने सम्यक्त्व को, अपनी आस्था को, अपने बारह प्रकार के श्रमणोपासक धर्म को छोड़ दे, अन्यथा मैं तुझे तेरे इस जलयान के साथ ही भीषण दंष्ट्राकराल वाले बुभुक्षित मकरों से संकुल सागर के अगाध जल में डुबोता हूं।" अपने इस कथन के उपरान्त भी जब उस पिशाच ने अपने अवधिज्ञान के उपयोग से देखा कि अरहन्नक के तन, मन, मस्तिष्क अथवा हृदय पर उसके अति कर्कश कथन और प्राणान्तक भीषरण कृत्य का भी कोई किंचिन्मात्र भी प्रभाव नहीं पड़ा है, वह पूर्ववत् अपने धर्म पर, अपनी श्रद्धा-प्रास्था पर, सम्यक्त्व पर पूर्णरूपेण सुस्थिर है, उसकी निर्ग्रन्थ प्रवचन पर जो प्रट प्रास्था है, उस आस्था श्रद्धा से उसे विलित करने के लिए उसने जितने भीषण से भीषण उपाय किये हैं, वे सब निष्फल सिद्ध हुए हैं, वह अपने धर्म पथ से किचिन्मात्र भी स्खलित अथवा विचलित नहीं हुआ है, तो उसने परहन्नक को उपसर्ग देने का विचार त्याग दिया । उसने अरहन्नक के जलपोत को शनैः शनै: समुद्र के जल की सतह पर रखा । तदनन्तर उसने अपने घोर भयावह पिशाच रूप का परित्याग कर दिव्य देव रूप को धारण किया। उस देव ने हाथ जोड़ कर अरहन्नक से क्षमा मांगते हुए सादर झुक कर विनम्र स्वर में कहा-'हे देवानप्रिय अरहन्नक.! तुम धन्य हो कि तुमने निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति इस प्रकार की अनुपम अविचल आस्था, संसार की किसी भी शक्ति से किंचिन्मात्र भी परिचालित नहीं की जा सकने वाली श्लाघनीय अगाध प्रक्षोभ्य श्रद्धा अवाप्त की है । सौधर्मपति देवराज इन्द्र ने अपने सौधर्मावतंसक विमान में स्थित सौधर्म सभा में विशाल देवममूह के समक्ष दृढ़ विश्वास के साथ, गुरु-गम्भीर तथा सुस्पष्ट शब्दों में अपने प्रान्तरिक उद्गार अभिव्यक्त करते हुए कहा था कि Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ___ जन धर्म का मौलिक इतिहास [प्ररहन्नक द्वारा दिव्य-कुण्डल जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र की चम्पा नामक नगरी में जीव, अजीव प्रादि तत्वों का ज्ञाता एवं निर्ग्रन्थ प्रवचन में अटूट आस्था रखने वाला ऐसा श्रद्धानिष्ठ श्रावक है कि उसकी निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति अगाध आस्था एवं अविचल आस्था को कोई भी देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर अथवा किंपुरिस विचलित नहीं कर सकता । मुझे एक मानव की प्रशंसा में कहे गये देवराज शक्र के वे वचन रुचिकर नहीं लगे, मुझे उनके इन वचनों पर विश्वास नहीं हुआ । मैंने देवेन्द्र के इन वचनों को अतुल शक्ति सम्पन्न देवों की दिव्य शक्ति के लिये चुनौती समझा । मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि अस्थि-मांस-मज्जा से निर्मित मानव शरीर में इस प्रकार की शक्ति हो सकती है। मैंने तुम्हारी परीक्षा लेने की ठानी। वस्तुतः तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए ही मैंने घोर भयावह पिशाच का रूप धारण कर तुम्हारे समक्ष इस प्रकार का घोर उपसर्ग उपस्थित किया है । मेरे मन में तुम्हारे प्रति अन्य किसी भी प्रकार की दुर्भावना नहीं थी। मैंने तुम्हारी परीक्षा के लिए तुम्हें घोरातिघोर प्राण संकट में डाला, किन्तु तुम अपने धर्म से, अपनी श्रद्धा से लेशमात्र भी विचलित नहीं हुए, तुम्हारे मन में किंचिन्मात्र भी भय उत्पन्न नहीं हुमा । तुम्हारी इस परीक्षा के पश्चात् मुझे पक्का विश्वास हो गया है कि सौधर्मेन्द्र ने जिन शब्दों में तुम्हारी प्रशंसा की, वह अक्षरशः सत्य है । वस्तुतः तुम दृढ़धर्मा, गुणों के भण्डार, तेजस्वी, प्रोजस्वी और यशस्वी हो । तुम्हारे धैर्य, वीर्य, पौरुष और पराक्रम को घोरातिघोर विपत्तियां भी विचलित नहीं कर सकतीं।" यह कह कर वह अलौकिक कान्ति वाला देव अरहन्नक के चरणों पर गिर पड़ा । उसने बारम्बार अपने अपराध के लिये क्षमा मांगते हुए अरहन्नक को दिव्य कुण्डलों को दो होड़ियां भेंट की और वह अपने स्थान को लौट गया। उस देवकृत उपसर्ग के समाप्त हो जाने के पश्चात् अरहन्नक ने अपने सागारिक संथारे का पारण किया। वे सब व्यापारी पुनः सुखपूर्वक समुद्र की यात्रा करने लगे । वायु से प्रेरित उनके जलपोत एक दिन एक विशाल बन्दरगाह पर पाये। उन पोत वरिणकों ने अपने जलपोतों को बन्दरगाह पर ठहराया और उनमें से अपने समस्त क्रयारणकों को गाड़ों में भर कर अनेक स्थलों में व्यापार करते हुए वे मिथिला नगरी में आये । वहाँ वे मिथिला नगरी के बहिस्थ उद्यान में ठहरे । उन व्यापारियों का मुखिया अरहन्नक श्रमणोपासक महाराजा को भेंट करने योग्य अनेक प्रकार की बहुमूल्य वस्तुएं और देव द्वारा प्रदत्त कुण्डलों की दो जोड़ियों में से एक जोड़ी ले कर मिथिलाधिपति महाराजा कुम्भ की सेवा में उपस्थित हा । उसने वह दिव्य कुण्डल-युगल और उपहार स्वरूप लाई हुई वस्तुएं महाराजा कुम्भ को भेंट की। महाराजा कुम्भ ने उसी समय भगवती मल्ली को बुलाया और उन्हें वे कुण्डल कानों में धारण करवा दिये । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगल की भेंट] भगवान् श्री मल्लिनाथ २६७ तदनन्तर महाराज कुम्भ ने अरहन्नक प्रमुख पोतवरिणकों को प्रीतिदान में विपुल वस्त्र, गन्ध, अलंकारादि प्रदान किये और उन्हें अच्छी तरह सत्कार सम्मानपूर्वक विदा किया। उन पोतवरिणकों ने अपने साथ लाये हुए क्रयापकों का मिथिला में विक्रय किया और वहां से विभिन्न प्रकार के आवश्यक क्रयारणक का क्रय कर उनसे अपने गाड़ों को भर उसी गंभीरी पोतपत्तन की ओर प्रस्थान किया जहां कि उनके जलपोत थे । मिथिला से क्रीत क्रयारणक को उन्होंने उन दोनों पोतों में भरा और समद्री यात्रा करते हुए, एक दिन उनके जलपोत चम्पा नगरी के पास पोतपत्तन में पहुंचे। उन्होंने जलपोतों को पोतपत्तन पर ठहराया और लंगर लगा दिये। वहां उन्होंने अपने साथ राजा को भेंट करने योग्य अनेक वस्तुओं के साथ वह शेष दिव्य कुण्डलों की जोड़ी ली और वे चम्पा के राजप्रासाद में अंगाधिप चन्द्रच्छाग की सेवा में उपस्थित हुए। अरहन्नक ने प्रणामादि के पश्चात् वह दिव्य कुण्डल युगल और अनेक बहुमूल्य वस्तुएं महाराज चन्द्रच्छाग को उपहारस्वरूप भेंट की। चम्पा नरेश चन्द्रच्छाग ने भेंट स्वीकार करते हुए अरहन्नक से पूछा"समुद्र यात्रा करते हुए आप लोग अनेक द्वीपों, देश देशान्तरों में व्यापार करते रहते, क्या आपने कहीं कोई आश्चर्यकारी दृश्य, वृत्त अथवा वस्तु देखी है ?" अरहन्नक श्रमणोपासक ने कहा-"महाराज ! यों तो विदेशों में, देशदेशान्तरों, राज्यों और राजधानियों में व्यापार करते हुए छोटे-बड़े अनेक प्रकार के पाश्चर्य देखते ही रहते हैं, किन्तु इस बार हमने मिथिला के राजप्रासाद में एक अदृष्टपूर्व पाश्चर्य देखा । इस बार हम अनेक प्रकार की वस्तुओं से गाडे भर कर मिथिला नगरी में गये । वहां हम मिथिलेश महाराज कुम्भ की सेवा में एक दिव्य कुण्डल युगल और बहुत सी बहुमूल्य वस्तुएं ले कर पहुंचे । हमने उन वस्तुओं के साथ कुण्डल महाराज कुम्भ को भेंट किये । उन्होंने उसी समय विदेहराज पुत्री मल्ली को बुलाया और उनके कानों में वे दिव्य कुण्डल पहना दिये । उस समय हमने कुम्भ राजा के राजप्रासाद में विदेह की राजकुमारी मल्ली को संसार के सर्वोत्कृष्ट पाश्चर्य के रूप में देखा । जैसी सुन्दर, रूप लावण्य सम्पन्ना महाराज कुम्भ की कन्या, महारानी प्रभावती की पात्मजा विदेह राजकुमारी मल्ली हैं, उस प्रकार की तो क्या उसके अंगुष्ठ के शतांश भाग से तुलना करने वाली कोई मानव कन्या तो क्या देवकन्या भी नहीं हो सकती।" तदनन्तर महाराज चन्द्रछाग ने उन पोतवरिणकों का सत्कार-सम्मान कर उन्हें आदर सहित विदा किया । अरहन्नक के मुख से भगवती मल्ली के रूप का परमाश्चर्यकारी विवरण सुन कर उसके हृदय में मल्ली को प्राप्त करने की उत्कण्ठा जाग्रत हुई। उसने दौत्यकार्य में अतीव कुशल अपने दूताग्रणी को बुला कर आदेश दिया- "देवानुप्रिय ! तुम मिथिला नगरी के महाराजा कुम्भ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [कुणालाधिपति रुप्पी का अनुराग के पास जा कर उनसे उनकी कन्या मल्लिकुमारी की मेरे लिए मेरी भार्या के रूप में याचना करो । यदि उस राजकुमारी के लिए कन्या-शुल्क के रूप में मुझे अपना सम्पूर्ण राज्य भी देना पड़े तो मैं देने के लिए समुद्यत हूं।" - अंगपति महाराज चन्द्रच्छाग का आदेश सुन कर दूत बड़ा हृष्ट और तुष्ट हुआ । वह द्रुतगति से अपने घर गया और यात्रा के लिए सैनिक, अनुचर, पाथेय. द्रुतगामी वाहनादि का समुचित प्रबन्ध करने के पश्चात् अनेक सैनिकों के साथ मिथिला की अोर प्रस्थित हो गया। कुणालाधिपति रुप्पी का अनुराग करणाला जनपद में भी मल्लिकूमारी के सौन्दर्य की घर-घर चर्चा होने लगी । श्रावस्ती में कुणालाधिपति महाराज रुप्पी का शासन था। उनकी पुत्री, महारानी धारिणी की पात्मजा सुबाहु बड़ी ही रूपवती थी। एक बार कन्या के चातुर्मासिक मज्जन का महोत्सव था। उस समय राजा ने स्वर्णकार मण्डल को आदेश दिया- "राजमार्ग के पास बने पुष्प मण्डप में अनेक रंगों से रंगे हुए चावलों से नगर की रचना करो। उस नगर के मध्यभाग में एक पट्टक बनायो।” स्वर्णकारों ने अपने महाराजा की आज्ञा के अनुसार सब कार्य सम्पन्न कर उन्हें सूचित किया । ___ अपनी आज्ञानुसार नगरी का आलेखन हो जाने पर राजा ने कन्या को पट्ट पर बिठला कर सुवर्ण-रौप्यमय कलशों से उसे स्नान कराया, फिर वस्त्राभूषणों से सुसज्जित एवं अलंकृत हो कन्या पितृवन्दन को आई तो राजा उसके रूप-लावण्य को देख कर विस्मित हो गया । वर्षधर पुरुषों को बुला कर राजा ने पूछा--"क्या तुमने कहीं सुबाहु कन्या के समान रूप-लावण्य अन्य किसी कन्या का देखा है ?" ___एक वर्षधर पुरुष ने कहा--"महाराज ! एक बार हम राज-कार्य से मिथिला गये थे, वहां महाराज कुम्भ की पुत्री निदेह राजवर कन्या मल्लिकुमारी का मज्जन देखा । उसके सम्मुख यह सुबाहु का मज्जन लाखवें भाग भी नहीं है।" यह सुन कर कुरणालाधिपति का गर्व गल गया और वह मल्लिकुमारी के सौन्दर्य के दर्शन को अत्यन्त व्यग्र और लालायित हो गया। कुणालाधिपति रुप्पी ने भी कुम्भ महाराज के पास अपने दूत को जाने की आज्ञा देते हुए कहा- 'तुम शीघ्र ही मिथिला जा कर महाराज कुम्भ से Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराजा शंख का अनुराग] भ० श्री मल्लिनाथ २६९ मेरा यह संदेश कहो कि मैं उनकी पुत्री मल्लिकुमारी का अपनी भार्या के रूप में वरण करना चाहता हूं।" अपने स्वामी की आज्ञा को शिरोधार्य कर महाराजा रुप्पी का वह दूत कतिपय सैनिकों, अनचरों और पाथेयादि को अपने साथ ले मिथिला की ओर तत्काल प्रस्थित हुआ। काशी जनपद के महाराजा शंख का अनुराग भगवती मल्ली के अलौकिक सौन्दर्य एवं अनुपम गरणों की ख्याति काशी नरेश के पास भी पहुंची। उन दिनों काशी जनपद पर महाराजा शंख का राज्य था। दे काशी जनपद की राजधानी बनारस में रहते थे। भगवती मल्ली के कानों के अरहन्नक श्रावक द्वारा महाराज कुम्भ कों भेंट किये गये कुण्डल युगल में से एक दिन एक कुण्डल की संधि पृथक हो गई। मिथिला के स्वर्णकारों को वह कुण्डल सन्धि जोड़ने के लिए दिया गया, परन्तु मिथिला के स्वर्णकारों में से कोई भी स्वर्णकार उस कुण्डल की सन्धि को नहीं जोड़ सका । इससे क्रुद्ध हो महाराज कुम्भ ने उन स्वर्णकारों को अपने राज्य विदेह जनपद की सीमा से निर्वासित कर दिया। महाराज कुम्भ द्वारा विदेह जनपद से निष्कासित कर दिये जाने पर व स्वर्णकार काशी नरेश शंख के पास पहुंचे और उन्होंने उनकी छत्रछाया में सुख से रहने की इच्छा अभिव्यक्त की। काशीपति ने उन्हें मिथिला के राज्य से निर्वासित करने का कारण पूछा और स्वर्णकारों द्वारा अपने निष्कासन का उपर्युक्त कारण बताये जाने पर महाराज कुम्भ की पुत्री मल्लिकुमारी के सौन्दर्य के सम्बन्ध में काशीराज ने स्वर्णकारों से जानकारी चाही । स्वर्णकारों ने उपयुक्त अवसर देख कर कह डाला-"महाराज ! कोई देवकन्या भी मल्ली जैसी सुन्दर नहीं होगी, वह अनुपम, उत्कृष्टतम और अलौकिक कान्तिवाली हैं। स्वर्णकारों के मुख से विदेह राजवर कन्या मल्लिकूमारी के अलौकिक सौन्दर्य की बात सुन कर काशी नपति भी भगवती मल्ली के सौन्दर्य पर मुग्ध हो गया। उसने तत्काल अपने प्रमुख दूत को बुला कर आदेश दिया-"देवानुप्रिय ! तुम आज ही मिथिला की ओर प्रस्थान करो और महाराज कुम्भ के पास जा कर उन्हें मेरा यह संदेश सुनायो-काशी जनपद के अधीश्वर महाराजाधिराज शंख आपकी पुत्री विदेह राजवर कन्या मल्लिकूमारी को अपनी पटट महिषी बनाने के लिये समुत्सुक हैं । मल्लिकुमारी को प्राप्त करने के लिये वे अपना विशाल राज्य भी देने को समुद्यत हैं।" Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० जैन धर्म का नौलिक इतिहास [कुरुराज अदीनशत्रु का अनुराग अपने स्वामी की आज्ञा सुनकर दूत बड़ा प्रमुदित हुआ । उसने साष्टांग प्रणाम करते हुए महाराज शंख की आज्ञा को शिरोधार्य किया और अपने साथ कुछ सैनिक, कतिपय अनुचर और पर्याप्त पाथेय ले कर वह मिथिला की ओर प्रस्थित हुआ। कुरुराज प्रवीनशत्रु का अनुराग भगवती मल्ली के अनुपम सौन्दर्य की सौरभ फैलते-फैलते कुरु देश तक भी पहुंच गई। उन दिनों कुरु जनपद पर महाराजा अदीनशत्रु का शासन था । वे कुरु जनपद की राजधानी हस्तिनापुर नगर में रहते थे। एक दिन भगवती मल्ली के कनिष्ठ भाई मल्लदिन्न कुमार ने अपने प्रमर्द वन में चित्रकारों द्वारा चित्रसभा की रचना करवाई। जब राजकुमार चित्रसभा देखने गये तो वहां एक चित्र को देख कर वे स्तम्भित हो गये । वस्तुस्थिति यह थी कि एक चित्रकार ने भगवती मल्ली के पैर का अंगुष्ठ किसी समय देख लिया था। उसी के आधार पर उस चित्रकला-विशारद ने अपनी योग्यता से अंगूठे के आधार पर मल्ली का पूरा चित्र वहां चित्रसभा में चित्रित कर दिया था। मल्लदिन्न कुमार ने जब उस चित्र को देखा तो यह सोच कर कि यह मल्ली विदेह राजकन्या ही यहां खड़ी हुई हैं, वे लज्जित हो गये । ज्येष्ठ भगिनी के संकोच से वे पीछे की ओर हट गये । जब उन्हें धाई मां से यह ज्ञात हुआ कि यह मल्ली नहीं, किन्तु चित्रकार द्वारा प्रालिखित उनका चित्र है तो वे बड़े ऋद्ध हुए और चित्रकार को उन्होंने प्राणदण्ड की आज्ञा दे दी । प्रजा और चित्रकारमण्डल की प्रार्थना पर उसे अंगुष्ठ-छेदन का दण्ड दे कर निर्वासित कर दिया। वह चित्रकार कुरु नरेश के पास पहुंचा और उन्हें भगवती मल्ली का चित्र भेंट किया । चित्रपट को देख और मल्लिकुमारी के रूप की प्रशंसा सुन कर कुरुराज अदीनशत्रु भी मल्लिकुमारी पर मुग्ध हो गये । उन्होंने तत्काल अपने दूत को बुला कर आज्ञा दी-"देवानुप्रिय ! तुम आज ही मिथिला की ओर प्रस्थान करो और मिथिलाधिपति महाराज कुम्भ को मेरा यह सन्देश सुनाप्रो-कुरुराज अदीनशत्रु आपकी पुत्री विदेह राजकन्या मल्लिकुमारी को अपनी पट्टमहिषी बनाने के लिये व्यग्र हैं । वे मल्लिकुमारी को प्राप्त करने के लिये अपना सम्पूर्ण कुरु जनपद का राज्य भी देने को समुद्यत हैं।" अपने स्वामी की आज्ञा को शिरोधार्य कर कुरुराज का दूत भी तत्काल आवश्यक पाथेय, अनुचर और कतिपय सैनिकों को साथ ले मिथिला की ओर प्रस्थित हुआ। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचाल नरेश जितशत्रु का अनुराग ] भ० श्री मल्लिनाथ पांचाल नरेश जितशत्रु का अनुराग : जिस समय भगवती मल्ली १०० वर्ष से कुछ कम अवस्था की हुई, उस समय पांचाल ( आधुनिक पंजाब) जनपद पर जितशत्रु नामक महाराजा राज्य करता था । उस समय पांचाल जनपद की राजधानी काम्पिल्यपुर नगर में थी । काम्पिल्यपुर बड़ा ही समृद्ध और विशाल नगर था । पांचाल राज्य की राजधानी होने के कारण देश-विदेश के व्यापारी वहां व्यापार करने आते रहते थे । काम्पिल्यपुर में पांचालपति जितशत्रु का विशाल और भव्य राजप्रासाद था । उसके राजप्रासाद में अति सुरम्य और विशाल अन्त: पुर था । राजा जितशत्रु के अन्तःपुर में धारिणी प्रमुख १००० रानियां थीं और वे सभी अनिन्द्य सुन्दरियां थीं । 1 उधर उन्हीं दिनों मिथिला नगरी में चोक्षा नाम की एक परिव्राजिका रहा करती थी । चोक्षा परिव्राजिका ऋग्, यजुः, साम और अथर्व - इन चारों वेदों एवं स्मृति आदि समस्त शास्त्रों की पारंगत विदुषी थी । वह विदुषी परिव्राजिका मिथिला के सभी राज्याधिकारियों, श्रेष्ठियों, सार्थवाहों एवं सभी सम्भ्रान्त परिवारों के नर-नारियों के समक्ष शौच मूलक धर्म, दानधर्म एवं तीर्थाभिषेक आदि का विशद व्याख्यापूर्वक उपदेश एवं अपने आचरण से उन धर्मों का प्रदर्शन भी करती थी । एक दिन वह चोक्षा परिव्राजिका गेरुएं (भगवाँ ) वस्त्र धारण किये हुए हाथ में त्रिदण्ड और कमण्डलु लिये अनेक परिव्राजिकाओं के परिवार से परिवृत्त हो अपने मठ से राजप्रासाद की ओर प्रस्थित हुई । वह मिथिला नगरी के मध्यवर्ती राजपथ से चल कर राजप्रासाद में प्रविष्ट हो भगवती मल्ली के कन्यान्तःपुर में पहुंची । भगवती मल्ली के प्रासाद में अन्य परिव्राजिकाओं ने भूमि को जल से छिड़क कर उस पर दर्भ का श्रासन बिछाया । चोक्षा परिव्राजिका उस दर्भासन पर बैठ गई और भगवती मल्ली के समक्ष शौचधर्म, दानधर्म और तीर्थाभिषेक की महत्ता के सम्बन्ध में निरूपण करने लगी। उसकी प्ररूपणा को सुनने के पश्चात् भगवती मल्ली ने चोक्षा परिव्राजिका से प्रश्न किया - " हे चोक्षे ! तुम्हारे यहां धर्म का मूल किसे माना गया है ?" २७१ मल्ली भगवती के प्रश्न का उत्तर देते हुए चोक्षा परिव्राजिका ने कहा"देवानुप्रिये ! हमारे यहां धर्म को शौचमूलक बताया गया है। इसी कारण जब कभी हमारी कोई भी वस्तु प्रशुचि अपवित्र हो जाती है तो हम उसे मट्टी और पानी से धो कर पवित्र कर लेते हैं । हमारे इस शौचमूलक धर्म के 'अनुसार जल से स्नान करने पर हमारी श्रात्मा पवित्र हो जाती है और हम शीघ्र ही बिना किसी विघ्न अथवा बाधा के स्वर्ग में पहुंच जाते हैं ।" Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [पांचाल नरेश चोक्षा परिवाजिका द्वारा की गई शौचमूलक धर्म की यह व्याख्या सुनकर भगवती मल्ली ने कहा- "हे परिवाजिके ! रुधिर से प्रलिप्त वस्त्र को यदि कोई व्यक्ति रुधिर से ही धोवे तो क्या वह शुद्ध या स्वच्छ हो जायगा ? कदापि नहीं । रुधिर से सने वस्त्र को रुधिर से धोने पर शुद्धि हो जाती है, इस बात को कोई साधारण से साधारण बुद्धि वाला व्यक्ति भी नहीं मान सकता । रुधिर से लिप्त वस्त्र को रुधिर से धोने पर तो वस्तुतः वह और अधिक गंदा एवं रुधिर लिप्त होगा, और अधिक रक्तवर्ण होगा । ठीक इसी प्रकार चोक्षे! हिंसा, असत्य, अदत्तादान, मैथन, परिग्रह, मिथ्यादर्शन, शल्य आदि आदि पाप कर्मों से आत्मा कर्ममल से लिप्त होता है, वह अात्मा पर लगा हिंसा आदि पाप कर्म का मैल हिंसा-कारक जल-स्नान, यज्ञ-यागादि पापपूर्ण कार्यों से कदापि शुद्ध नहीं हो सकता। जिस प्रकार रुधिर रंजित वस्त्र को सज्जी अथवा क्षारादि से प्रलिप्त कर उसे किसी पात्र में रख कर अग्नि से तपाया जाय और तत्पश्चात् उसे शुद्ध पानी से धोया जाय तभी वह वस्त्र शुद्ध और स्वच्छ-निर्मल होता है, उसी प्रकार हिंसा आदि पापकर्मों से प्रलिप्त आत्मा को सम्यक्त्व रूपी क्षार से लिप्त कर शरीर भाण्ड में तपश्चर्या की अग्नि से तपा कर संयम के विशुद्ध जल से धोने पर ही आत्मा कर्ममल रहित हो सकता है, न कि रुधिर रंजित वस्त्र को रुधिर से धो कर साफ करने के प्रयास तुल्य पापपंक से लिप्त आत्मा को जल-स्नान, यज्ञ, यागादि पाप पूर्ण कृत्यों द्वारा पवित्र करने के विनाशकारी प्रयास से ।" मल्ली भगवती द्वारा इस प्रकार समझाये जाने पर वह चोक्षा परिव्राजिका शंका, कांक्षा, वितिगिच्छायुक्त और निरुत्तर हो गई । वह चुपचाप मल्ली भगवती की ओर देखती ही रह गई। चोक्षा परिव्राजिका की इस प्रकार की हतप्रभ अवस्था देख कर मल्ली राजकुमारी को दासियों, परिचारिकाओं आदि ने अनेक प्रकार की भावभंगिमायें बना कर उसका उपहास किया । दासियों के इस प्रकार के व्यवहार से उसने अपने आपको अपमानित अनुभव किया। वह अपमान की ज्वाला से संतप्त और मल्ली भगवती के प्रति प्रद्वेष करती हुई प्रासाद से उठी और अपने मठ में आकर अपनी सभी परिव्राजिकाओं के साथ मिथिला से काम्पिल्यपूर की ओर प्रस्थित हुई । उसके अन्तर्मन में भगवती मल्ली के प्रति विद्वेषाग्नि भड़क उठी। कतिपय दिनों पश्चात वह काम्पिल्यपुर पहुंची और वहां वह राज्याधिकारियों. सार्थवाहों, श्रेष्ठियों और विभिन्न वर्गों के नागरिकों के समक्ष अपने शौचमूलक धर्म का उपदेश देने लगी। कुछ समय पश्चात् एक दिन वह चोक्षा परिवाजिका अपनी अनेक शिष्याओं के साथ पांचालाधीश्वर जितशत्रु के अन्तःपुर में गई । उस समय Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३ जितशत्रु का अनुराग] भगवान् श्री मल्लिनाथ राजा जितशत्रु अपनी एक सहस्र चारुहासिनी रानियों के विशाल परिवार से परिवृत्त हुअा अपने अन्त:पुर में बैठा हा आमोद-प्रमोद कर रहा था। चोक्षा परिवाजिका को देखते ही राजा अपने सिंहासन से उठा । परिव्राजिकाओं को प्रणाम करने के पश्चात् उन्हें आसन पर बैठने का निवेदन किया । चोक्षा परिवाजिका ने राजा को जय-विजय शब्दों के उच्चारण पूर्वक अभिवादित किया । जल से छिटके हुए दर्भासन पर बैठ कर चोक्षा परिव्राजिका ने राजा और रानियों से कुशलक्षेम पूछा । कुशलक्षेम पूछने की पारस्परिक औपचारिकता के पश्चात चोक्षा परिवाजिका ने राजा के अन्तःपुर में शौच, दान और तीर्थाभिषेक के सम्बन्ध में उपदेश दिया। उस समय अपने अन्तःपुर के विशाल परिवार और एक सहस्र सुमुखी सर्वांग सुन्दरी रानियों के रूप, लावण्य एवं अनमोल वस्त्रालंकारों को देख-देखकर जितशत्र मन ही मन अपने अतुल ऐश्वर्य पर गर्व का अनुभव कर रहा था। धर्मोपदेश की ममाप्ति के पश्चात् महाराजा जितशत्रु ने चोक्षा परिव्राजिका से प्रश्न किया-"देवानप्रिये परिवाजिके ! आप ग्राम, नगर आदि में परिभ्रमण करती हुई बड़े-बड़े ऐश्वर्यशाली राजाओं के अन्तःपुरों में भी जाया करती हैं। क्या आपने कहीं मेरे अन्तःपुर के समान किसी अन्य राजा का अन्तःपुर देखा है ?" महाराजा जितशत्र के प्रश्न को सुन कर चोक्षा परिवाजिका कुछ क्षणों तक हँसती रही। तत्पश्चात् उसने राजा को सम्बोधित करते हए कहा“राजन् ! आप भी संयोगवशात् समुद्र से किसी रूप में आये हुए मेंढक के समक्ष समुद्र की विशालता जानने के अभिप्राय से अपने कप में छलांगें मार-मार कर बार-बार प्रश्न पूछने वाले कपमण्डक जैसी ही बात कर रहे हैं। जिस प्रकार कूपमण्डूक समझता है कि जिस कूप में वह जन्मा और बड़ा हुआ है, संसार में उससे बड़ा और कोई कूप, जलाशय अथवा जलधि हो ही नहीं सकता, उसी प्रकार आप अपने अन्तःपुर को ही सर्वश्रेष्ठ अन्तःपुर समझते हुए यह प्रश्न पूछ रहे हैं । पांचालपति ! सावधान हो कर सुनो ! विदेह राज मिथिलेश महाराज कुम्भ की कन्या, महारानी प्रभावती की आत्मजा विदेह राजकन्या मल्लिकुमारी को हमने देखा है । मल्लिकुमारी संसार की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी है। वस्तुतः वह अनुपम है। किसी भी मानव कन्या को तो बात ही क्या, संसार की कोई परम सुन्दरी देवकन्या, नागकन्या भी रूप, लावण्य, यौवन आदि गुणों में मल्लिकुमारी के समक्ष तुच्छ प्रतीत होती है । राजन् ! सच कहती हूं, तुम्हारा यह समस्त अन्तःपुर परिवार विदेह राजकन्या मल्लिकुमारी के चरणांगुष्ठ के एक लाखवें अंश की भी समता नहीं कर सकता । उसके रूप के समक्ष आपका यह अन्तःपुर नगण्य और तुच्छ है ।" Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [पांचाल नरेश तदनन्तर समग्र अन्तःपुर को आश्चर्य, व्यामोह और ऊहापोह में निमग्न करती हुई चोक्षा परिव्राजिका अपने गन्तव्य स्थान की ओर प्रस्थित हुई । चोक्षा परिव्राजिका के मुख से भगवती मल्ली के अनुपम रूप-लावण्य का विवरण सुन कर पांचालाधिपति जितशत्रु मल्लिकुमारी पर इतना अधिक अनुरक्त हुआ कि वह अपने समग्र पांचाल राज्य के परण से अर्थात् पांचाल देश का पूरा राज्य दे कर भी मल्लिकुमारी को भार्या के रूप में प्राप्त करने के लिये कृतसंकल्प हो गया। उसने अपने दूत को बुला कर आदेश दिया- "देवानुप्रिय ! तुम शीघ्रातिशीघ्र मिथिला के महाराज कुम्भ के पास जाप्रो । उनसे निवेदन करो कि पांचालपति जितशत्रु आपकी पुत्री विदेह राजकुमारी मल्ली की अपनी भार्या के रूप में आपसे याचना करते हैं। वे समग्र पांचाल प्रदेश का राज्य देकर भी मल्ली राजकुमारी को प्राप्त करने के लिए कृतसंकल्प हैं।" अपने स्वामी का आदेश सुन कर दूत बड़ा प्रसन्न हा । यात्रा के लिये आवश्यक प्रबन्ध करने के पश्चात् वह विपुल पाथेय, सैनिकों और अनुचरों के साथ मिथिला की ओर प्रस्थित हुआ। इस भांति प्रतिबद्ध आदि छहों राजाओं द्वारा भगवती मल्ली की अपनीअपनी भार्या के रूप में महाराज कुम्भ से याचना करने के लिये भेजे गये छहों दूत अपने-अपने नगर से प्रस्थित हो चलते-चलते संयोगवश एक ही साथ मिथिला नगरी पहुंचे । उन छहों दूतों ने मिथिला नगरी के बाहर प्रधान उद्यान में अपने अलग-अलग स्कन्धावार-डेरे डाले । स्नानादि आवश्यक कृत्यों से निवृत्त हो दूतयोग्य परिधान धारण कर वे छहों दूत मिथिला नगरी के मध्य भाग में होते हुए राजप्रासाद में महाराज कुम्भ के पास उपस्थित हुए । उन छहों दूतों ने महाराज कुम्भ को सांजलि शीष झुका प्रणाम करने के पश्चात् क्रमश: अपनेअपने स्वामी नरेश का सन्देश महाराज कुम्भ को सुनाया। दूतों के मुख से प्रतिबद्ध आदि राजाओं का सन्देश सुनते ही महाराज कुम्भ अत्यन्त क्रुद्ध हुए, क्रोध के कारण उनकी दोनों आँखें लाल हो गईं, ललाट पर त्रिवलि उभर आई और भौंहें तन गईं। उन्होंने आवेशपूर्ण स्वर में गर्जते हुए उन दूतों से कहा-"पो दूतो! कह दो अपने-अपने राजाओं से जा कर कि मैं अपनी पुत्री विदेह राजवर कन्या मल्लिकुमारी तुम्हारे राजाओं के लिये नहीं दूंगा।" __ इस प्रकार महाराज कुम्भ ने आक्रोशपूर्ण नकारात्मक उत्तर दे कर बिना किसी प्रकार का सत्कार सम्मान किये उन छहों राजाओं के दूतों को राज Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितशत्रु का अनुराग] भ० श्री मल्लिनाथ २७५ प्रासाद के प्रपद्वार (पष्ठ भाग के छोटे द्वार) से बाहर निकलवा दिया। इस प्रकार राजप्रासाद से निकलवा दिये जाने पर वे छहों दूत तत्काल अपने-अपने अनुचरों एवं सैनिकों के साथ मिथिला से अपने-अपने नगर की ओर प्रस्थित हुए। अपने-अपने नगर में पहुंच कर वे दूत अपने-अपने राजा की सेवा में उपस्थित हुए। उन्होंने अपने-अपने स्वामी राजा को हाथ जोड़ कर सिर झुकाते हुए निवेदन किया-"हम छहों राजाओं के छहों ही दूत एक साथ मिथिला में और मिथिलापति महाराज कुम्भ की राज्यसभा में पहुंचे थे। हम छहों दूतों ने अपने-अपने स्वामी का वक्तव्य-सन्देश महाराज कुम्भ को सुनाया। महाराज कुम्भ सुनते ही क्रोध से तिलमिला उठे । उन्होंने आक्रोश और आवेशपूर्ण स्पष्ट शब्दों में कहा--"मैं अपनी पुत्री विदेह राजकन्या मल्लिकुमारी तुम लोगों में से किसी के स्वामी को नहीं दूंगा।" यह कह कर महाराजा कुम्भ ने हम छहों दूतों को प्रसत्कारित एवं सम्मानित करते हुए अपद्वार से निकलवा दिया। उन छहों दूतों ने अपने-अपने राजा को निवेदन किया- "स्वामिन् ! मिथिलाधिपति महाराज कुम्भ अपनी कन्या मल्लिकुमारी आपको नहीं देंगे।" . जितशत्रु आदि छहों राजा अपने-अपने दूतों की उक्त बात सुन कर बड़े क्रुद्ध हुए । उन छहों राजाओं ने परस्पर एक दूसरे के पास दूत भेज कर कहलवाया-"हम छहों राजाओं के दूतों को राजा कुम्भ ने एक साथ अपमानित कर अपने राजप्रासाद के अपद्वार से निकलवा दिया । अतः अब हम लोगों के लिए यही श्रेयस्कर है कि महाराजा कुम्भ को पराजित करने के लिए हम छहों मिल कर अपनी सेनाओं के साथ मिथिला पर आक्रमण कर दें।" ___ दूतों के माध्यम से इस प्रकार का परामर्श कर प्रतिबुद्ध आदि छहों राजाओं ने एकमत हो अपनी-अपनी चतुरंगिणी सेना साथ ले मिथिला पर अाक्रमण करने के लिये अपने-अपने नगरों से प्रस्थान किया । एक निश्चित स्थान पर छहों राजा एक-दूसरे से मिले । तदनन्तर उन छहों राजाओं ने अपनी-अपनी सेना के साथ मिथिला की ओर प्रयाण किया। जब मिथिलेश महाराज कुम्भ को अपने गुप्तचरों के माध्यम से ज्ञात हना कि जितशत्र प्रादि छह राजा अपनी-अपनी चतुरंगिणी सेनाओं के साथ मिथिला पर आक्रमण करने के लिये आ रहे हैं तो वे (कम्भ) भी आक्रमणकारी राजानों से अपने जनपद की रक्षा के लिए सुसनद्ध हो शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित चतुरंगिणी सेना के साथ अपने राज्य विदेह जनपद की सीमा पर माक्रामक राजामों के प्राने से पहले ही पहुंच गये । विदेह जनपद की सीमा पर उन्होंने अपनी सेना का सन्निवेश स्थापित किया और युद्ध के लिये कटिबद्ध हो उन राजानों के प्रागमन की प्रतीक्षा करने लगे। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [युद्ध और पराजय युद्ध और पराजय थोड़ी ही प्रतीक्षा के पश्चात जितशत्र आदि छहों राजा अपनी विशाल चतुरंगिणी सेना के साथ विदेह जनपद की सीमा के पास उसी स्थान पर आये जहां महाराज कुम्भ की सेना थी। उन छहों राजाओं ने आते ही छहों राज्यों की सम्मिलित सैन्य शक्ति के साथ महाराजा कुम्भ की सेना पर आक्रमण कर दिया । छहों राज्यों की सम्मिलित विशाल सैन्य शक्ति के समक्ष एकाकी कुम्भ राजा की सेना अधिक समय तक डटी नहीं रह सकी। तुमुल युद्ध में जितशत्रु प्रादि छह राजाओं की सेना ने विदेहराज कुम्भ की सेना के अनेक योद्धाओं को मौत के घाट उतार दिया, अनेक योद्धाओं को क्षत-विक्षत और बहुत से योद्धाओं को गम्भीर रूप से आहत कर दिया। उन छहों राजाओं ने मिलकर महाराजा कुम्भ के छत्र, पताका आदि राज चिह्नों को पृथ्वी पर गिरा दिया। अन्ततोगत्वा महाराजा कुम्भ को उन छहों राजाओं ने घेर लिया। इस प्रकार महाराजा कुम्भ के प्राण संकट में पड़ गये। छहों राजाओं की संगठित विशाल सेना द्वारा अपनी स्वल्प सैन्य शक्ति को इस प्रकार छिन्न-भिन्न और क्षीण होती देखकर महाराजा कुम्भ निरुत्साह हो गये। उन्होंने अच्छी तरह जान लिया कि परबल अजेय है। अत: वे.शीघ्र ही त्वरित वेग से मिथिला की ओर प्रस्थित हुए । अपनी बची हुई सेना के साथ मिथिला में प्रवेश करते ही मिथिला के सभी प्रवेश द्वारों को बन्द करवा, शत्र के आवागमन के सभी मार्गों को अवरुद्ध कर वे नगर की रक्षा का प्रबन्ध करने में व्यस्त हो गये। अपने सैनिकों के साथ महाराजा कुम्भ के मिथिला में प्रवेश कर लेने के पश्चात् वे जितशत्रु आदि छहों राजा भी अपनी सेनाओं के साथ मिथिला की ओर बढ़े और मिथिला पहंचने पर उन्होंने मिथिला नगरी को चारों ओर से घेर लिया। छह जनपदों के राजाओं की सम्मिलित विशाल सेना द्वारा डाला गया वह मिथिला का घेरा इतना कड़ा था कि मित्र राजाओं की सहायता प्राप्त करने के लिये दूत को भेजना तो दूर, कोई एक व्यक्ति भी नगर के प्राकार के बाहर अथवा अन्दर आ जा नहीं सकता था। मिथिला नगरी को इस प्रकार के कड़े घेरे से अवरुद्ध देख महाराज कुम्भ अपने किले के प्राभ्यन्तर भाग की अपनी उपस्थान शाला में राजसिंहासन पर बैठ कर उन छहों शत्रु-राजाओं के गप्त दूषणों, मानव सुलभ दुर्बलताओं, छिद्रों एवं विवरों की टोह में रहने लगे । पर जब उन्हें अपने उन शत्रुओं का किसी प्रकार का छिद्र अथवा दूषण दृष्टिगोचर नहीं हुआ तो उन्होंने अपने मन्त्रियों के साथ बैठ कर प्रोत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी एवं परिणामिकी-इन सभी प्रकार की बुद्धि से अपने कार्य की सिद्धि के लिये उपाय ढूढ़ने का प्रयास किया। किन्तु सभी भांति अच्छी तरह विचार करने के उपरान्त भी इष्ट-सिद्धि का कोई उपाय दृष्टिगोचर नहीं हुआ तो महाराजा कुम्भ बड़े हतोत्साह हुए और वे बात ध्यान करने लगे। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितशत्रु प्रादि को प्रतिबोध] भ० श्री मल्लिनाथ २७७ उसी समय स्नानोपरान्त वस्त्राभरणों से अलंकृत भगवतीमल्ली ने महाराज कुम्भ के.पास आकर उनके चरणों में प्रणाम किया। किन्तु उद्विग्न होने के कारण महाराज कुम्भ चिन्तामग्न ही रहे । न तो वे भगवती मल्ली से बोले और न उनका उनकी ओर ध्यान हो गया। अपने पिता की इस प्रकार की मनोदशा देखकर भगवती मल्ली ने उनसे पूछा-"तात ! आज से पहले तो सदा आप मुझे आती देखते ही प्रफुल्लित हो जाते थे, मेरा आदर एवं दुलार कर मुझसे बात करते थे, परन्तु आज क्या कारण है कि आप इस प्रकार हतोत्साह हुए चिन्तामग्न बैठे हैं ?" अपनी पुत्री का प्रश्न सुनकर महाराज कुम्भ ने कहा- "हे पुत्रि ! तुम्हारे साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने के लिये जितशत्रु आदि इन छहों राजाओं ने मेरे पास अपने दूत भेजे थे । मैंने उनके प्रस्ताव को ठुकरा कर उनके छहों दूतों को अनादत कर अपद्वार से राजप्रासाद के बाहर निकलवा दिया। जब अपने-अपने दूतों के मुख से उन छहों राजाओं ने यह सब वृत्त सुना तो वे बड़े कुपित हुए। यही कारण है कि उन छहों राजाओं ने मिथिला नगरी को सब ओर से घेर लिया है, न किसी को बाहर जाने देते हैं और न किसी को बाहर से अन्दर ही आने देते हैं। मैंने इनको परास्त करने के विचार से अनेक प्रकार के उपाय सोचे पर न तो उनका कोई छिद्र ही दिखाई दे रहा है और न इनको परास्त करने का कोई उपाय ही। यही कारण है कि मैं हतमना चिन्ता ग्रस्त बना बैठा हूं।" जितशत्रु आदि को प्रतिबोध यह सुनकर भगवती मल्ली ने कहा-"तात न तो आपको हतमना होने की आवश्यकता है और न चिन्ताग्रस्त होने की ही । इस विषय में मैं आपको एक उपाय बताती हूं। वह यह है कि आप उन जितशत्रु आदि छहों राजाओं में से प्रत्येक के पास एकान्त में अपना दूत भेजिये । वह दूत प्रत्येक राजा को यही कहे –“हम अपनी पुत्री विदेह राजवर कन्या मल्ली कुमारी तुम्हें देंगे।" उन छहों राजाओं को पृथक-पृथक दूत से इस प्रकार कहलवा कर उनमें से एक एक को अलग अलग निस्तब्ध रात्रि में, जबकि सब लोग निद्रा की गोद में सोये हए हों, नगर में प्रवेश करवाइये और छहों को पृथक-पृथक् गर्भगृहों में एक एक करके ठहः । दीजिये। जब वे छहों राजा छहों गर्भग्रहों में प्रविष्ट हो जायं, उस समय मिथिला के सभी प्रवेशद्वारों को बन्द करवा दीजिये और इस प्रकार उन छहों राजाओं को यहां रोककर आत्मरक्षा कीजिये।" भगवती मल्ली के कथनानुसार महाराज कुम्भ ने छहों राजाओं को Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [जितशत्रु प्रादि पृथक-पृथक् दूत भेजकर रात्रि के समय नगर में एक-एक को प्रवेश करवा कर पृथक्-पृथक् गर्भगृहों में ठहरा दिया । सूर्योदय होते ही मोहन घर के गर्भगृहों के वातायनों में से जितशत्रु आदि उन छहों राजाओं ने भगवती मल्ली द्वारा निर्मित साक्षात मल्ली कूमारी के समान अनुपम सुन्दरी, रूप, लावण्य यौवन सम्पन्ना भगवती मल्ली की प्रतिकृतिप्रतिमा को मणिपीठ पर देखा। मल्ली भगवती की उस प्रतिकृति को देखते ही "अरे, यह तो विदेह राजवर कन्या मल्ली कुमारी है"-मन ही मन यह कहते हुए वे सब उसके रूप-लावण्य पर पूर्णत: मुग्ध, लुब्ध और प्रासक्त हो निनिमेष दृष्टि से आँखें विस्फारित कर देखते ही रह गये। उसी समय भगवती मल्ली वस्त्रालंकारों से विभूषित हो कुब्जा आदि अनेक दासियों के साथ जालघर में अपनी कनकमयी प्रतिकृति के पास आई। उसने पुतली के शिर पर रखे पद्म कमल के ढक्कन को उठा लिया। प्रतिमा पुतली के शिर से ढक्कन के उठाते ही उसमें से ऐसी असह्य और भीषण दुर्गन्ध निकली जैसी कि मत सर्प, गोह और श्वान के सड़े हुए शरीर में से निकलती है । वह भीषण दुस्सह्य दुर्गन्धं तत्क्षरण समस्त वायुमण्डल में व्याप्त हो गई। उस घोर दुस्सह्य, दुर्गन्ध के निकलते ही जितशत्रु प्रादि उन छहों राजाओं ने अपने-अपने उत्तरीय के अंचल से अपनीअपनी नाक को ढंक लिया और दूसरी ओर मुख मोड़कर बैठ गये। उन छहों राजाओं को इस प्रकार की अवस्था में देखकर भगवती मल्ली ने उन्हें संबोधित करते हुए कहा-“हे देवानुप्रियो! आप लोग अपने-अपने उत्तरीय से अपनी नाक ढांप कर और पुतली को ओर से मुख मोड़कर क्यों बैठ गये हो?" मल्ली भगवती का यह प्रश्न सुनकर उन छहों राजाओं ने कहा-"हे देवानुप्रिये ! हम लोगों को यह अशुभ दुस्सह्य दुर्गन्ध किसी भी तरह किंचिन्मात्र भी सहन नहीं हो रही है । इसी कारण हम उत्तरीय से नाक ढंक कर और मुख मोड़कर बैठ गये हैं।" इस पर भगवती मल्ली ने कहा-'हे देवानप्रियो! इस कनकमयी प्रतली में प्रति स्वादिष्ट एवं मनोज्ञ प्रशन, पान, खाद्य एवं स्वाद्य इन चार प्रकार के प्राहार का एक-एक ग्रास डाला जाता रहा है । मेरी इस कनक निर्मिता प्रतिकृति स्वरूपा पुतली में डाला गया मनोज्ञ प्रशन, पानादि का एक एक ग्रास का पुद्गलपरिणमन इस प्रकार का अमनोज्ञ, तन, मन और मस्तिष्क में इस प्रकार की विकृति का उत्पादक एवं नितान्त असह्य, घोर अशुभ, दुस्सह्य व दुर्गन्धपूर्ण बन गया तो वीर्य एवं रज से निर्मित श्लेष्म, लार, मल, मूत्र, मज्जा, शोणित मादि अशुचियों के भण्डार, नाड़ियों के जाल से प्राबद्ध, प्रान्त्रजाल के कोष्ठा Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को प्रतिबोध भ० श्री मल्लिनाथ २७६ गार, पीढ़ी-प्रपीढ़ियों से परम्परागत सभी प्रकार के रोगों के घर, अस्थि, चर्म और मांसमय इस अशुचि के भण्डार शडनधर्मा, पतनधर्मा, विनश्वर प्रौदारिक शरीर में प्रतिदिन डाले गये अशन, पानादि चार प्रकार के मनोज्ञ आहार का पुद्गल परिणमन कितना घोर दुर्गन्धपूर्ण होगा, यह एक साधारण से साधारण बुद्धि वाला व्यक्ति भी समझ सकता है । ___ अतः हे देवानप्रियो ! इस शाश्वत सत्य को ध्यान में रखते हए तुम लोग मनुष्य-भव सम्बन्धी काम-भोगों में मत फँसो, सांसारिक कामभोगों में अनुराग, आसक्ति, तृष्णा, लोलुपता, गृद्धि और विमुग्धता मत रखो। याद करो देवानुप्रियो ! हम सातों अपने इस मानव भव से पूर्व के तीसरे भव में, महाविदेह क्षेत्र के सलिलावती विजय की राजधानी वीतशोका नगरी में सात समवयस्क बालसखा, अनन्य मित्र राजपुत्र थे। हम सातों साथ ही जन्मे, साथ-साथ ही बढ़े, साथ-साथ ही बाल-क्रीड़ा में निरत रहे, साथसाथ ही हमने अध्ययन किया, साथ-साथ ही राज्योपभोग-सांसारिक सुखोपभोग आदि किया और निमित्त पा हम सातों ही अनन्य मित्रों ने एक साथ श्रमण धर्म को दीक्षा ग्रहण की थी। हम सातों ही मित्र मुनियों ने साथसाथ समान तप करने का निश्चय किया था। मैंने इस कारण स्त्री नामकर्म का बन्ध किया कि तुम छहों साथी मुनि यदि दो उपवासों की तपस्या का प्रत्याख्यान करते तो मैं तीन उपवासों की तपस्या कर लेता, तुम छहों यदि तीन उपवासों की तपस्या करते तो मैं चार उपवासों की तपस्या कर लेता। इस प्रकार मुनि जीवन की अपनी प्रारम्भिक साधना में मैं तुम छहों साथी मुनियों से किसी न किसी बहाने विशिष्ट तप करता रहा। इस कारण मैंने स्त्री नाम कर्म का बन्ध कर लिया। किन्तु अपने प्रारम्भिक साधना-जीवन के पश्चात् हम सबने विशुद्ध भाव से एक समान दुष्कर तपश्चरण किया। मैंने तीर्थंकर नाम-गोत्र-कर्म की महान् पुण्य प्रकृति का उपार्जन कराने वाले अर्हद्भक्ति आदि बीसों ही स्थानों की पुनः पुनः उत्कट भावना से आराधना की । उस कारण मैंने तीर्थंकर नाम-गोत्र कर्म का उपार्जन किया । हम सातों ने घोर तपश्चरण द्वारा अपनी देहयष्टियों को केवल चर्म से आवृत अस्थिपंजरावशिष्ट बना दिया और अन्त में हमने देखा कि हमने धर्माराधन के साधन अपने अपने शरीर से पूरा सार ग्रहण कर लिया है, अब उसमें तपश्चरण करते हुए विचरण करने की शक्ति समाप्तप्राय हो चुकी है, तो हम सातों ही मुनियों ने चारु पर्वत पर जाकर संलेखनापूर्वक साथ-साथ ही पादपोपगमन संथारा किया और समाधिपूर्वक प्रायु पूर्ण कर हम सातों ही जयन्त नामक अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र हुए। हम सातों ने ही जयन्त विमान में अपने देवभव के दिव्य भोगों का उपभोग किया । तुम छहों की जयन्त विमान Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [छहों राजामों के देवभव की प्रायु ३२ सागर से कुछ कम थी, अत: तुम छहों मुझ से पूर्व ही जयन्त विमान से च्यवन कर अपने इस वर्तमान भव में इन छह जनपदों के अधिपति बने हो । मेरी जयन्त विमान के देवभव की आयु पूरे बत्तीस सागर की थी । अत: मैंने तुम छहों के पश्चात् जयन्त विमान से च्यवन कर विदेह जनपद के महाराजा कुम्भ की महारानी प्रभावती देवी की कुक्षि में गर्भ रूप से उत्पन्न हो गर्भकाल समाप्त होने पर कन्या के रूप में जन्म ग्रहण किया है। हे राजाप्रो! क्या आप लोग अपने इस भव से पूर्व के भव को भूल गये हो, जिसमें कि हम सातों ही जयन्त नामक अनत्तर विमान में कुछ कम बत्तीस सागर जैसी सुदीर्घावधि तक साथ-साथ देव बन कर रहे हैं। वहां हम सातों ने प्रतिज्ञा की थी कि हम देवलोक से च्यवन करने के पश्चात् परस्पर एक दूसरे को प्रतिबोधित करेंगे। आप लोग अपने उस देव भव को स्मरण करो।"१ छहों राजामों को जातिस्मरण भगवती मल्ली के मुखारविन्द से अपने दो पूर्वभवों का विवरण सुनकर वे छहों राजा विचारमग्न हो गये। विचार करते करते शुभ परिणामों, प्रशस्त अध्यवसायों, लेश्याओं की विशुद्धि एवं ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के क्षयोपशम से ईहा, अपोह, मार्गण, गवेषण करने से उन छहों राजाओं को संज्ञि जातिस्मरणज्ञान हो गया। जितशत्रु आदि छहों राजाओं को जातिस्मरण ज्ञान होते ही मल्ली भगवती को विदित हो गया कि इन्हें जातिस्मरण ज्ञान हो गया है। मल्ली भगवती ने तत्काल गर्भग्रहों के द्वारों को खुलवा दिया। द्वार खलते ही जितशत्र आदि छहों राजा भगवती मल्ली के पास आये और पूर्वभवों के वे सात मित्र एक स्थान पर सम्मिलित हो गये। तदनन्तर भगवतो मल्ली ने उन छहों राजाओं को सम्बोधित करते हुए कहा- "देवानुप्रियो ! मैं तो संसार के भवभ्रमण रूपी भय से उद्विग्न हूं, अतः प्रवजित होऊंगी। अब आप लोगों का क्या विचार है, क्या करना चाहते हैं, आप लोगों का हृदय कितना सशक्त-कितना समर्थ है ?" भगवती मल्ली का प्रश्न सुनकर उन जित शत्रु आदि छहों राजाओं ने उनसे निवेदन किया- "हे देवानुप्रिये ! जब आप प्रवजित हो रही हैं, तो फिर १ कि य तयं पम्हट्ट, जंथ तया भो जयंत पवरंमि । दुत्था समयं निबद्ध, देवा ! तं संभरह जाइ ।।सू० ३५ ।। --ज्ञाताधर्मकथा सूत्र प्र०८-- Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को जातिस्मरण] भ० श्री मल्लिनाथ हमारा अन्य कौन सहायक होगा ? कौन हमारा प्राधार होगा और कौन हमें सन्मार्ग से बच्चा सन्मार्ग में लगायगा ? अतः जिस प्रकार भाप प्राज से पहले के तीसरे नंब में हमारे धुराग्रणी, मेढ़ि अथवा मार्गदर्शक बनकर रहे, उसी प्रकार इस भव में भी आप ही धर्ममार्ग में प्रवृत्ति कराने वाले हमारे धुराग्रणी रहें, पथप्रदर्शक रहें । हे देवानुप्रिये ! हम भी भवभ्रमरण से भयभीत हैं, हम लोग भी आपके साथ प्रव्रजित, दीक्षित होंगे ।" छहों राजाओं की बात सुनकर भगवती मल्ली ने कहा- “यदि आप सब संसार के भय से उद्विग्न हैं और मेरे साथ प्रव्रजित होना चाहते हैं, तो अपने अपने घर जायँ और अपने अपने ज्येष्ठ पुत्र को राजसिंहासन पर श्रासीन कर एकएक सहस्र पुरुषों द्वारा उठाई जाने वाली शिबिकाओं में श्रारूढ़ हो मेरे पास लौट आयें ।" उन छहों राजाओं ने भगवती मल्ली की बात को स्वीकार किया । भगवती मल्ली उन छहों राजाओं को साथ लेकर महाराज कुम्भ के पास गईं । उन छहों राजाओं को महाराज कुम्भ के चरणों में झुका उनसे प्रणाम करवाया । २८१ महाराज कुम्भ ने उन छहों राजाओं का चार प्रकार के मनोज्ञ श्राहार, पुष्प, वस्त्र, गन्ध, माला आदि से सत्कार किया । तदनन्तर उन्हें विदा किया । वहां से विदा हो वे जितशत्रु श्रादि छहों राजा अपने अपने राज्यों की ओर प्रस्थित हुए और अपने अपने राजप्रासादों में आकर राजकार्य में संलग्न हो गये । तदनन्तर तीर्थंकर मल्ली भगवती ने मन में निश्चय कर लिया कि वे वर्ष समाप्त होने पर दीक्षा ग्रहण करेंगी । एक मल्ली भगवती के इस प्रकार का विचार करते ही सौधर्मेन्द्र देवराज श का आसन चलायमान हुआ । उसे अवधिज्ञान के उपयोग से विदित हुआ कि अर्हत मल्ली भगवती ने प्रव्रजित होने का विचार कर लिया है । त्रिकालवर्ती सौधर्मेन्द्रों का यह परम्परागत जीताचार रहा है कि वे प्रव्रजित होने के लिये तत्पर तीर्थंकरों के यहां अर्थात् तीर्थंकरों के माता-पिता के घर में तीन सौ अट्ठासी करोड़ अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राएं दें प्रर्थात् प्रस्तुत करें।' इस प्रकार विचार कर शक ने वैश्रमरण देव (कुबेर ) को बुलाकर उसे कुम्भ राजा के राजप्रासाद में उपर्युक्त प्रमाण में स्वर्णमुद्राएं रखवाने की प्राज्ञा दी । कुबेर १ तिष्णेव य कोडिसया, इट्ठासीति च होंति कोडीनो । प्रसिति च सयसहस्सा, इंदा दलयंति रहाणं ॥ १ ॥ - शाताधर्मकथांग सूत्र, प्र०८ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवती मल्ली ने शक्र की प्राज्ञा को शिरोधार्य कर जम्भक देवों को बलाया और उन्हे तीन सो अट्टयासी करोड़ अस्सी लाख स्वर्णमुद्राएं महाराज कुम्भ के राजप्रासाद में पहुंचाने की आज्ञा दी। जम्भक देवों ने तत्काल उत्कृष्ट देवगति से मिथिला के राजप्रासाद में आकर महाराज कुम्भ के भण्डारों को तीन सौ अट्टयासी करोड़ अस्सी लाख स्वर्णमुद्राओं से भर दिया। मगवती मल्ली द्वारा वर्षादान इन्द्र की आज्ञा से जृम्भक देवों द्वारा महाराज कुम्भ के भण्डारों को स्वर्णमुद्राओं द्वारा पूरित कर दिये जाने के पश्चात् भगवती मल्ली ने वर्षीदान देना प्रारम्भ किया। निरन्तर एक वर्ष पर्यन्त वे प्रतिदिन प्रातःकाल से मध्याह्न काल पर्यन्त दो प्रहर तक बहुत से सनाथों, अनाथों, पान्थिकों, पथिकों, खप्परधारियों आदि को एक करोड़ आठ लाख स्वर्ण मुद्राएं दान करती रहीं। __ महाराज कुम्भ ने उस समय मिथिला नगरी में अनेक स्थानों पर भोजनशालाएं खुलवा दीं। उन भोजनशालाओं में रसोइये प्रचुर मात्रा में चारों प्रकार के स्वादिष्ट अशन, पानादि बनाते और वहां आने वाले पन्थिकों, पथिकों, खप्परधारियों, भिक्षुकों, कंथाधारी भिक्षुकों, गृहस्थों आदि सभी प्रकार के लोगों को भोजन कराया जाता । अस्वस्थों, अपाहिजों आदि, वहां आने में असमर्थ लोगों को, उनके स्थान पर ले जाकर भोजन दिया जाता । चारों ओर लोग यत्र-तत्र भगवान् के वर्षीदान और महाराज कुम्भ द्वारा किये जाने वाले भोजनदान की महिमा गाने लगे । त्रिलोकपूज्य तीर्थंकरों के निष्क्रमण के समय निरन्तर एक वर्ष तक प्रतिदिन बार बार इस प्रकार की घोषणाएं की जाती हैं कि जिसे जो चाहिये वही मांगे । इन घोषणाओं के अनुसार जो भी जाता उसे, जो वह चाहता, वही दिया जाता। इस प्रकार दान देते समय अन्त में भगवान मल्लिनाथ ने मन. में विचार किया कि प्रतिदिन १ करोड ८ लाख स्वर्ण मुद्राओं का दान करती हई एक वर्ष में तीन अरब अटूघासी करोड़, अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राओं का दान अर्थात् तीर्थंकरों द्वारा अभिनिष्क्रमण के अवसर पर इतने ही परिमारा में दिये जाने वाले दान के सम्पन्न हो जाने पर वे प्रव्रज्या ग्रहण करेंगे। प्रभु मल्लिनाथ के मन में इस प्रकार के विचार आते ही लोकान्तिक देवों के आसन प्रकम्पित हुए। अवधिज्ञान के उपयोग से उन्हें विदित हा कि वर्षीदान समाप्त कर जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के १६वें तीर्थंकर प्रभु मल्ली प्रवजित होने का विचार कर रहे हैं। अभिनिष्क्रमण काल में तीर्थंकरों को संबोधित करने की त्रिकालवर्ती लोकान्तिक देवों की मर्यादा के अनुसार वे Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारा वर्षीदान] भ० श्री मल्लिनाथ २८३ लोकान्तिक देव भगवती मल्ली के पास उपस्थित हए और आकाश में खड़े रह उन्होंने प्रभु को अंजलि सहित शिर झुका कर प्रणाम करने के पश्चात् प्रार्थना की-“हे लोकनाथ प्रभो! आप भव्य जीवों को बोध दो, चतुर्विध धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करो। वह धर्मतीर्थ संसार के प्राणियों के लिये हितकर, सुखकर और निःश्रेयस्कर अर्थात् मोक्षदायक हो।" लोकान्तिक देवों ने तीन बार प्रभु मल्ली से इस प्रकार की प्रार्थना की और तदनन्तर प्रभु को वन्दन-नमन कर वे अपनेअपने स्थान को लौट गये। इस प्रकार लोकान्तिक देवों द्वारा सम्बोधित होने के पश्चात प्रभ मल्ली अपने माता-पिता के पास आये । हाथ जोड़कर उन्होंने माता-पिता के चरणों में नमस्कार कर कहा- "हे अम्ब-तात! मैं माप लोगों से आज्ञा प्राप्त कर मुण्डित हो प्रवजित होना चाहती हूं।" महाराज कुम्भ और महारानी प्रभावती-दोनों ने ही अपनी पुत्री भगवती मल्ली की बात सुनकर कहा-"देवानप्रिये ! जिससे तुम्हें सुख हो वही करो। विलम्ब मत करो।" अपनी पुत्री को प्रवृजित होने की आज्ञा प्रदान कर महाराज कुम्भ ने अपने कौम्बिक पुरुषों को बुलाकर उन्हें एक हजार आठ (१००८) स्वर्ण कलश, रौप्य कलश, मणिमय कलश, स्वर्ण-रौप्य कलश, स्वर्ण-मरिण निर्मित कलश, रौप्य-मरिण निर्मित कलश, स्वर्ण-रौप्य-मरिण निर्मित कलश, मिट्टी के कलश तथा तीर्थंकर के निष्क्रमणाभिषेक के लिये आवश्यक सभी प्रकार की अन्यान्य सामग्री शीघ्र ही उपस्थित करने की आज्ञा दी। महाराजा कुम्भ की आज्ञा का पालन करते हुए कौटुम्बिक पुरुषों ने उनके निर्देशानुसार कलशादि सभी सामग्री तत्काल वहां ला प्रस्तुत की। उस समय चमरेन्द्र से लेकर अच्युतेन्द्र पर्यन्त ६४ इन्द्र महाराज कुम्भ के राजप्रासाद में प्रा उपस्थित हुए । देवराज शक्र ने पाभियोगिक देवों को स्वर्ण, मरिण आदि से निर्मित १००८ कलश और तीर्थकर के अभिनिष्क्रमरणाभिषेक के सभी प्रकार के विपुल साधन वहां प्रस्तुत करने की आज्ञा दी। आभियोगिक देवों ने देवराज शक की आज्ञानुसार सभी प्रकार की सामग्री वहां प्रस्तुत कर दी और उसे महाराज कुम्भ द्वारा एकत्रित किये गये कलशों आदि के साथ रख दिया। अभिनिष्क्रमणाभिषेक के लिये आवश्यक सभी प्रकार की सामग्री के यथास्थान रख दिये जाने के पश्चात् देवराज शक्र और महाराज कुम्भ ने अर्हत् मल्ली को अभिषेक सिंहासन पर पूर्वाभिमुख बैठाया। तदनन्तर देवराज शक ने और महाराज कुम्भ ने उन अष्टोत्तर एक एक हजार कलशों से भगवान् मल्ली का अभिषेक किया। जिस समय भगवान् मल्ली का अभिषेक किया जा Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [अभिनिष्क्रमण रहा था उस समय देव नगर के अन्दर और बाहर चारों ओर हर्षातिरेक से दिव्य कुतूहल कर रहे थे । अभिषेक के अनन्तर महाराज कुम्भ ने भगवान् मल्ली को पुन: सिंहासन पर पूर्वाभिमुख बैठाकर उन्हें समस्त अलंकारों से अलंकृत किया और अपने कौटुम्बिक पुरुषों को मनोरमा नाम की शिबिका उपस्थित करने को कहा । देवराज शक्र ने भी आभियोगिक देवों को सैकड़ों स्तम्भों वाली प्रति सुरम्य शिबिका लाने का आदेश दिया। आभियोगिक देवों ने शक की आज्ञा के अनुरूप एक दिव्य शिबिका वहां ला उपस्थित की। शक द्वारा मंगवाई गई दिव्य शिबिका अपने दिव्य प्रभाव से कुम्भ राजा द्वारा मंगाई गई शिबिका से मिल गई। अभिनिष्क्रमण एवं दीक्षा तदनन्तर भगवान मल्ली अभिषेक सिंहासन से उठकर शिबिका के पास आये और उसे अपने दक्षिण पार्श्व की ओर कर उस पर प्रारूढ़ हो उसमें रखे उच्च सिंहासन पर पूर्वाभिमुख हो विराज गये । तदनन्तर सद्यस्नात अठारह श्रेणियों और प्रश्रेरिणयों के जनों तथा अठारह प्रकार के अवान्तर जातीय पालकी. उठाने वाले पुरुषों ने महाराज कुम्भ की आज्ञानुसार सुन्दर वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो उस मनोरमा नाम की पालकी को अपने स्कन्धों पर उठा लिया। देवराज शक्र ने उस मनोरमा शिबिका के दक्षिण दिशावर्ती ऊपर के डण्डे को पकड़ा। ईशानेन्द्र ने उत्तर की दिशा वाले ऊपर के डण्डे को पकड़ा। चमरेन्द्र ने दक्षिण दिशा वाले नीचे के डण्डे को और बलीन्द्र ने उत्तरदिग्विभागवर्ती नीचे के डण्डे को पकड़ा । अवशिष्ट भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक इन्द्रों ने अपनी अपनी योग्यतानुसार उस शिबिका का परिवहन किया । हर्षातिरेक से रोमांचित हुए मनुष्यों ने सर्व प्रथम उस शिबिका को अपने कन्धों पर उठाया। उनके पश्चात देवेन्द्रों, असुरेन्द्रों और नागेन्द्रों ने उस शिबिका को अपने कन्धों पर उठाया। भगवान् मल्ली की पालकी के सबसे आगे स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त, वर्द्धमान, भद्रासन, कलश, मत्स्ययुग्म और दर्पण ये अष्ट मंगल चल रहे थे। मिथिला नगरी के मध्यवर्ती राजमार्ग से होती हुई भगवान् मल्लिनाथ के महाभिनिष्क्रमण की शोभायात्रा सहस्राम्र वन नामक उद्यान में पहुंची । उस उद्यान में भगवान् की पालकी जब अशोकवृक्ष के नीचे पहुंची तब पालकी को मनुष्यों और देवेन्द्रों आदि ने अपने कन्धों से नीचे उतारा। तदनन्तर अर्हत मल्ली उस मनोरमा शिबिका से नीचे उतरे। उन्होंने अपने प्राभरणालंकारों को स्वतः ही उतारा, जिन्हें महारानी प्रभावती ने अपने वस्त्रांचल में रख लिया। तदनन्तर प्रभु मल्ली ने अपने केशों का पंचमुष्टि लुचन किया। उन केशों को शक ने अपने वस्त्र में रख कर क्षीर समुद्र में प्रक्षिप्त कर दिया। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान] भ० श्री मल्लिनाथ २८५ तत्पश्चात् अर्हत मल्ली ने "णमोत्थु णं सिद्धाणं' अर्थात् सिद्धों को नमस्कार हो-'इस उच्चारण के साथ सिद्धों को नमस्कार कर सामायिक चारित्र को धारण किया। जिस समय भगवान् मल्ली ने सामायिक चारित्र को अंगी. कार किया, उस समय शक की प्राज्ञानसार देवों तथा मनष्यों द्वारा किये जा रहे जय घोषों एवं विविध वाद्य यन्त्रों और गीतों की ध्वनियों को बन्द कर दिया गया। सामायिक चारित्र को अंगीकार करते ही भगवान् मल्ली को मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न हो गया और प्रभु चार ज्ञान के धारक हो गये । जिस समय प्रहंत मल्ली ने सामायिक चारित्र अंगीकार किया, उस समय पौष मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन का पूर्वाह्न काल था।' प्रभु उस समय अष्टम भक्त की तपस्या किये हुए थे। उस समय अश्विनी नक्षत्र का चन्द्र के साथ योग था। भगवान् मल्ली के साथ उनकी प्राभ्यन्तर परिषद् की तीन सौ महिलाओं और बाह्य परिषद् के तीन सौ पुरुषों ने मडित होकर प्रव्रज्या ग्रहण की। अर्हत् मल्ली के साथ नंद, नंदिमित्र, सुमित्र, बलमित्र, भानुमित्र, अमरपति, • अमरसेन और महासेन नामक आठ राजकुमारों ने भी दीक्षा ग्रहण की। चार प्रकार के देवों ने भगवान मल्ली के अभिनिष्क्रमण की खूब महिमा की और नन्दीश्वर नामक आठवें द्वीप में जाकर उन्होंने अष्टाह्निक महोत्सव किया । तदनन्तर वे चारों जाति के देव अपने अपने स्थान को लौट गये । ज्ञान भगवान् मल्ली ने जिस दिन प्रव्रज्या ग्रहण की थी, उसी दिन, उस दिवस के पश्चिम प्रहर में जब वे अशोक वृक्ष के नीचे शिलापट्ट पर सुखासन से ध्यानावस्थित थे, उस समय प्रभ मल्ली ने शूभ परिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय और विशुद्ध लेश्याओं के द्वारा घनघातिक कर्मों के सम्पूर्ण प्रावरणों को क्षय करने वाले अपूर्वकरण में प्रवेश किया और उन्होंने अल्प समय में ही अष्टम, नवम, दशम और बारहवें गुरणस्थान को पार कर पौष शुक्ला एकादशी को ही दिन के पश्चिम प्रहर में अनन्त केवलज्ञान और केवल दर्शन को प्रकट कर लिया। वे सम्पूर्ण संसार के सचराचर द्रव्यों, द्रव्यों के पर्यायों और समस्त भावों को साक्षात् युगपद् जानने और देखने लगे। इस ऋषभादि महावीरान्त चौबीसी के अन्य तीर्थंकरों की अपेक्षा प्रभ मल्लिनाथ की यह विशिष्टता रही कि आपने जिस दिन प्रव्रज्या ग्रहण की, उसी दिन आपको केवलज्ञान-केवलदर्शन प्रकट हो गये। आपका छद्मस्थंकाल अन्य तेवीस तीर्थकरों से सर्वाधिक कम अर्थात् एक प्रहर से कुछ अधिक अथवा १ सत्तरिसय द्वार आदि में मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी को दीक्षा दिन लिखा है । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [तीर्थ स्थापना डेढ़ प्रहर के लगभग तक का ही रहा। भगवान मल्लिनाथ का प्रथम पारक भी केवलज्ञान में ही मिथिला के महाराजा कुम्भ के अधीनस्थ राजा विश्वसेन के यहां सम्पन्न हुमा । प्रथम देशना एवं तीर्थ-स्थापना जिस समय भगवान मल्लिनाथ को अनन्त केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न हए उसी समय देव-देवेन्द्रों के सिंहासन चलायमान हए । अवधिज्ञान के उपयोग से जब उन्हें ज्ञात हा कि भगवान मल्लिनाथ को केवलज्ञान-केवल दर्शन उत्पन्न हो गये हैं तो उन्होंने हृष्ट-तुष्ट हो प्रभु का केवलज्ञान-महोत्सव मनाते हुए पंच दिव्यों की वृष्टि की । तत्काल देवों द्वारा सहस्राम्रवन उद्यान में समवसरण की रचना की गई। महाराजा कुम्भ भी अपने समस्त परिवार, पूरजनों एवं परिजनों के विशाल समूह के साथ समवसरण में उपस्थित हुए। भगवान् मल्लिनाथ के केवलज्ञान उत्पन्न होने का सुखद शुभ संवाद तत्काल सर्वत्र प्रसत हो गया। उत्ताल तरंगों से सुविशाल भू-खण्ड को अपने क्रोड में लेते हुए उद्वेलित सागर के समान जनसमुद्र प्रभु के समवसरण की ओर उमड़ पड़ा। जितशत्रु आदि छहों राजा भो अपने अपने ज्येष्ठ पुत्रों के स्कन्धों पर अपने अपने राज्य का भार रखकर एक एक सहस्र पुरुषों द्वारा वहन की जा रही शिबिकानों में बैठ ठीक उसी समय समवसरण में पहुंचे। देव-देवियों, नर-नारियों और तिर्यंचों को विशाल परिषद् के समक्ष भगवान् मल्लिनाथ ने समवसरण के मध्य भाग में देवकृत उच्च सिंहासन पर पासीन हो अपनी पहली दिव्य एवं अमोघ देशना दी। तीर्थंकर भगवान मल्ली ने अपनी प्रथम देशना में घोर दुःखानुबन्धी दुःखों की ओरछोर विहीन अनाद्यनन्त परम्परा वाले दुःखों से मोतप्रोत चतुर्विधगतिक संसार के उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक स्वभाव पर अज्ञान घनान्धकार विनाशक प्रकाश डालते हुए संसार के भव्य जीवों का कल्याण करने के लिये संसार के सब प्रकार के दुःखों का अन्त करने वाले धर्म का सच्चा स्वरूप संसार के समक्ष रखा। प्रभ मल्लिनाथ की विविधताप-संताप हारिणी, पाप-पंक प्रक्षालिनी अमोघ देशना को सुनकर भव्यजीवों ने अपने आपको धन्य समझा । प्रभु १ तते रणं मल्लि अरहा ज चेव दिवसं पब्वत्तिए तस्सेव दिवसस्स पुवाऽ(पच्च) वरण्हकालसमयंसि असोगबरपायवस्स अहे पुढविसिलावट्टयंसि सुहासणवरगयस्स सुहेण परिणामेणं पसत्थेहि प्रज्झवसाणेहिं पसत्थाहिं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणकम्मरयविकरणकरं अपुवकरणं अणुपविट्ठस्स प्रणते जाव केवलनाणदसणे समुप्पन्ने । ---ज्ञातावमंकथांग सूत्र, प्र०८ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म परिवार भ० श्री मल्लिनाथ २८७ मल्लिनाथ ने चतुर्विध धर्मतीर्थ की स्थापना की। मिथिलेश महाराज कुम्भ ने तीर्थकर भगवान् मल्लिनाथ से श्रावकधर्म और महारानी प्रभावती ने श्राविकाधर्म अंगीकार किया। भगवान् मल्लिनाथ की प्रथम देशना सुनकर जितशत्रु मादि छहों राजामों को संसार से पर्ण विरक्ति हो गई। उन छहों राजाओं ने प्रभ के पास श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण की । आगे चलकर वे चतुर्दश पूर्वधर मोर तदनन्तर केवली हो कर अन्त में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए । धर्मदेशना के पश्चात् मनुष्य, देव प्रादि की परिषद् अपने अपने स्थान को लौट गई । चार प्रकार के देव नन्दीश्वर द्वीप में प्रभु के केवलज्ञान का प्रष्टाह्निक महोत्सव मनाने के लिये चले गये। चतुर्विध धर्मतीर्थ की स्थापना कर प्रभु भावतीर्थकर कहलाये। तदनन्तर भगवान् मल्ली तीर्थंकर सहस्रांम्रवन उद्यान से विहार कर अन्य क्षेत्रों में अप्रतिहत विहार करते हुए अनेक भव्यों का उद्धार करने लगे। तीर्थकर भगवान मल्लिनाथ का देह मान २५ धनुष ऊंचा, प्रियंगु (जामुन) के समान नीला, शरीर का संस्थान समचतुरस्त्र और संहनन वचऋषभ नाराच था। उन्होंने ५४६०० वर्षों तक अनेक क्षेत्रों में विचरण करते हुए अनेक भव्यों को धर्म मार्ग पर प्रारूढ़ कर उनका कल्यारण किया । भगवान् मल्लिनाथ के प्रथम शिष्य एवं प्रमुख गणधर का नाम भिषक और समस्त साध्वी संघ की प्रतिनी प्रथम शिष्या का नाम बन्धुमती था। भगवान मल्लिनाथ के अतिरिक्त ऋषभादि तेवीसों तीर्थंकरों के एक ही प्रकार की परिषद् थी। किन्तु तीर्थकर मल्लिनाथ के साध्वियों की आभ्यन्तर परिषद् और साधुनों की बाह्य परिषद्-इस भांति दो प्रकार की परिषदें थीं।' धर्म-परिवार भगवान् मल्लिनाथ के धर्मसंघ में निम्नलिखित धर्म परिवार था:गण एवं गणधर - अट्ठाईस (२८) गण एवं अट्ठाईस (२८) ही गणधर केवली - तीन हजार दो सौ (३,२००) westant १ तिहिं इत्थीसएहि अभितरियाए परिसाए तिहिं पुरिससएहिबाहिरियाए परिसाए सदि मुंडेभवित्ता पब्वइए....। -ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र, मध्ययन Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [परिनिर्वाण मनःपर्यवज्ञानी - पाठ सौ (८००) अवधिज्ञानी - दो हजार (२,०००) चौदह पूर्वधारी - छह सौ (६००) वैक्रिय लब्धिधारी - तीन हजार पाँच सौ (३,५००) वादी - एक हजार चार सौ (१,४००) साधु - चालीस हजार (४०,०००) अनुत्तरोपपातिक मुनि - दो हजार (२,०००) साध्वी - पचपन हजार (५५,०००) श्रावक - एक लाख चौरासी हजार (१,८४,०००) श्राविका - तीन लाख पैंसठ हजार (३,६५,०००) भगवान् मल्लिनाथ की अन्त कृभूमि--- अर्थात् उनके तीर्थ में उसी भव से मोक्ष जाने वालों की कालावधि, दो प्रकार को थी । एक तो यगान्तकृदभमि और दूसरी पर्यायान्तकृद्भमि । युगान्तकृभूमि में भगवान मल्लिनाथ के निर्वाग से लेकर उनके २०वें पट्टधर प्राचार्य के समय तक उसी भव में मोक्ष जाने वाले साधक अर्थात साध, साध्वी अपने पाठों कों का अन्त कर मोक्ष जाते रहे। यह उनको युगान्तकृभूमि थी। भगवान् मल्लिनाथ के बीसवें पट्टधर के समय के पश्चात प्रभु के धर्मतीर्थ में कोई साधक मोक्ष नहीं गया। उनके तीर्थ में मोक्ष जाने का क्रम प्रभु के २०वें पट्टधर के समय तक ही चलता रहा । उसके पश्चात उनके तीर्थ में कोई मोक्ष नहीं गया। दूसरी उनकी अन्तकभूमि पर्यायान्तकृदभमि थी। प्रभ मल्लिनाथ की पर्यायान्तकृत भमि अर्थात उनकी केवली पर्याय में उसी भव में मोक्ष जाने वालों का काल प्रभु को केवलज्ञान उत्पन्न होने के दो वर्ष पश्चात प्रारम्भ होकर उनके निर्वाण प्राप्त करने के समय तक चलता रहा । तात्पर्य यह है कि भगवान् मल्लिनाथ के धर्म तीर्थ में, प्रभ को केवलज्ञान प्राप्त होने के दो वर्ष पश्चात् मोक्ष जाने वालों का क्रम प्रारम्भ हुआ। उससे पहले उनके तीर्थ में कोई मुक्त नहीं हुआ । प्रभु को केवलज्ञान की उत्पत्ति के दो वर्ष पश्चात् से लेकर उनके निर्वाण काल तक उनके तीर्थ में साधकों का मुक्ति में जाने का क्रम चलता रहा, वह ५४८६८ वर्ष का काल भगवान् मल्लिनाथ की पर्यायान्तकृत भूमि थी। उनके निर्वाण के पश्चात् उनके शिष्यप्रशिष्यों की बीसवीं पीढ़ी अर्थात् उनके बीसवें पट्टधर के समय तक उनके तीर्थ में जो मुक्त होने का क्रम चलता रहा. वह प्रभु मल्ली की युगान्तकृत भूमि थी। उनके बीसवें पट्टधर के समय के पश्चात् उनके तीर्थ में कोई साधक मुक्त नहीं हुमा। परिनिर्वाण भगवान् मल्लिनाथ १०० वर्ष तक आगारवास में अर्थात अपने ग्रह मेंरहे । ५४,६०० वर्ष तक प्रभु केवली पर्याय में रहे । लगभग १०० वर्ष कम Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिनिर्वाण] भ० श्री मल्लिनाथ २८९ ५५ हजार वर्ष तक देश के विभिन्न क्षेत्रों में केवलीपर्याय से सुखपूर्वक विचरते रहने के पश्चात् भगवान् मल्लिनाथ समेत पर्वत के शिखर पर पधारे । वहां प्रभु ने अपनी प्राभ्यन्तर परिषद् की ५०० साध्वियों और बहिरंग परिषद् के ५०० साधुओं के साथ पादपोपगमन संथारा कर एक मास का, पानी रहित अनशन का प्रत्याख्यान किया । अपनी दोनों विशाल भुजाओं को फैलाये हुए शान्त-निश्चल भाव से प्रभु ने शेष चार घातिकर्मों को नष्ट किया और अपनी ५५ हजार वर्ष की प्रायु पूर्ण कर चैत्र शुक्ला चौथ की अर्द्ध रात्रि के समय भरणी नक्षत्र का चन्द्र के साथ योग होने पर एक महीने का अनशन पूर्ण कर ५०० साध्वियों और ५०० साधनों के साथ निर्वाण प्राप्त किया। भगवान् ऋषभदेव के निर्वाण महोत्सव का जम्बद्वीप प्रज्ञप्ति में जिस प्रकार का वर्णन है, उसी प्रकार देवों, देवेन्द्रों और नर-नरेन्द्रों ने भगवान मल्लिनाथ और उनके साथ मुक्त हए साधनों एवं साध्वियों के पार्थिव शरीर का अन्तिम संस्कार कर प्रभु का निर्वाण महोत्सव मनाया। 000 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभूम चक्रवर्ती प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल में इस भरतक्षेत्र का आठवां चक्रवर्ती सम्राट् सुभूम अठारहवें तीर्थंकर एवं सातवें चक्रवर्ती भ० अरनाथ तथा उन्नीसवें तीर्थंकर भ० मल्लिनाथ के अन्तराल काल में हुआ । सुभूम हस्तिनापुर के पुराण प्रसिद्ध महाशक्तिशाली राजा कार्तवीर्य सहस्रार्जुन का पुत्र था । उसकी माता का नाम तारा था । ' चक्रवर्ती सुभूम का जो जीवनवृत्त प्राचार्य शीलांक द्वारा रचित 'चउप्पन्न महापुरिस चरियं' में उल्लिखित है, उसका सारांश इस प्रकार है : --- " इसी जम्बूद्वीप के भरतखण्ड में हस्तिनापुर नामक नगर था । उस नगर के पार्श्व के एक सघन, विशाल वन के मध्यभाग में तापसों का एक आश्रम था । उस आश्रम के कुलपति का नाम जम अथवा यम था । एक मातृ-पितृ विहीन कोई ब्राह्मण बालक किसी सार्थवाह के साथ जाता हुआ अपने सार्थ से बिछुड़ गया और इधर-उधर घूमता हुआ अन्ततोगत्वा एक दिन उस तापस श्राश्रम में पहुंचा । जम कुलपति ने उस ब्राह्मण बालक को श्राश्वासन दे अपने पास रखा । कुलपति के पास रहते रहते उस बालक को कालान्तर में सांसारिक प्रपञ्चों से वैराग्य हो गया और उसने जम कुलपति के पास संन्यास धर्म की प्रव्रज्या ग्रहण कर ली । संन्यस्त होने पर उस नवप्रव्रजित ब्राह्मण कुमार का नाम श्रग्नि रखा गया। गुरु के नाम के साथ अपने नाम का उच्चारण करते रहने के कारण वह अभिनव तापस 'जमदग्नि' (जमयग्गि) के नाम से प्रसिद्ध हो गया । वह घोर तपश्चरण करने लगा और शीघ्र ही महातपस्वी के रूप में उसकी गणना की जाने लगी । जिस समय घोर तपश्चरण में निरत जमदग्नि ऋषि की महातपस्वी के रूप से ख्याति दिग्दिगन्त में व्याप्त हो गई थी, उस समय दो देवों ने सम्यक्त्वधर्म अर्थात् श्रावकधर्म और तापसधर्म की परीक्षा करने का निश्चय किया । उन दो देवों में से एक देव श्रावकधर्म का भक्त था और दूसरा देव तापसधर्म का । श्रावकधर्म के उपासक देव ने तापसधर्म के उपासक देव से कहा - " मित्र ! तपश्चर्या की दृष्टि से तुम्हारे धर्म में जो सर्वोत्कृष्ट तापस हो, उसकी परीक्षा की जाय ।" तापसोपासक देव ने कहा- "तथास्तु ! जमदग्नि तापस जो इस समय १ समवायांगसूत्र, सूत्र २०३ - २०४, पृ० १०८५ १०८७ (घासीलाल जी म० ) Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभूम चक्रवर्ती २६१ घोर तपश्चरण में निरत है, वही वस्तुतः वर्तमान समय का महातपस्वी है । अतः उसी का परीक्षण करना उचित होगा।" इस प्रकार पारस्परिक विचार-विमर्श के अनन्तर दोनों देवों ने महातपस्वी तापस जमदग्नि की परीक्षा करने का निश्चय किया। वे दोनों देव, चकोर एवं चकोरी का रूप धारण कर जिस स्थान पर जमदग्नि तपस्या कर रहा था, वहां पहुंचे और उस वक्ष पर बैठ गये। रात्रि के समय चकोरी ने चकोर को सम्बोधित करते हुए प्रश्न किया-"खगश्रेष्ठ ! इस वृक्ष के नीचे एक पैर पर खड़ा हुआ यह जो महातपस्वी तापस दुष्कर तपश्चरण कर रहा है, क्या यह इस तपस्या के प्रभाव से अगले जन्म में स्वर्ग के अनुपम दिव्य सुखों का अधिकारी होगा?" चकोर ने स्पष्ट स्वर में उत्तर दिया-"नहीं, नहीं, खगोत्तमे ! ऐसा कदापि नहीं हो सकता।" चकोरी ने आश्चर्य प्रकट करते हए प्रश्न किया-"क्यों ? इतना बड़ा तपस्वी दिव्य देव सुखों का अधिकारी क्यों नहीं हो सकता? कारण क्या है ?" चकोर ने सुसंयत स्वर में कहा - "कारण तो स्पष्ट एवं सर्वविदित ही है कि यह तापस सन्ततिविहीन है और "अपुत्रस्य गति स्ति"-इस प्राप्तवचन के अनुसार पुत्राभाव में कोई भी व्यक्ति, चाहे वह बड़े से बड़ा तपस्वी ही क्यों न हो, सुगति का अधिकारी नहीं हो सकता।" अपने शिर के ऊपर थोड़ी ही ऊंचाई पर वृक्ष की टहनी पर बैठे हुए उन पक्षियों का वार्तालाप सुनकर जमदग्नि ऋषि विचारसागर में निमग्न हो गये। उनके मन और मस्तिष्क में ऊहापोहों एवं संकल्प-विकल्पों का बवंडर सा उठा । जप-तप-ध्यान-योग सब कुछ भूलकर वे रात भर विभिन्न प्रकार की विचारवीचियों से कल्लोलित चिन्ता सागर में गोते लगाते रहे । ब्राह्म मुहूर्त में वे एक संकल्प पर आरूढ़ हुए। वे अपने आप से कहने लगे–“पक्षियुगल ठीक ही तो कह रहा था—अपुत्रस्य गति स्ति-चिर पठित, चिर परिचित इस प्राप्त वचन पर मैंने आज तक गहराई से कभी विचार ही नहीं किया । वस्तुतः बिना पुत्र प्राप्ति के तपश्चरण द्वारा सुगति की आशा करना मरुमरीचिका से प्यास बुझाने की आशा तुल्य नितान्त निरर्थक प्रयास है । अब मैं घोर तपश्चरण द्वारा काया को व्यर्थ ही क्लेश पहुंचाने के स्थान पर अनिन्द्य सुन्दसे कुलीना कन्या से विवाह कर उससे पुत्र प्राप्ति का प्रयास करूंगा।" अपने इस दृढ़ संकल्प के साथ सूर्योदय होते ही तापस जमदग्नि ने अपने डण्ड-कमण्डलु उठा मिथिला नगरी की ओर प्रस्थान कर दिया। बिना किसी Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास स्थान पर रुके त्वरित गति से लक्ष्यस्थल की ओर बढ़ते हुए वे एक दिन मिथिलाधिपति के राजप्रासाद में पहुंचे । उन्होंने मिथिलेश्वर से कहा - "राजन् ! तुम्हारी १०० पुत्रियों में से एक राजकन्या मुझे दो ।" २६२ 1 यह महातपस्वी कहीं रुष्ट हो मेरा घोर अनिष्ट न कर दे - इस डर से राजा ने तत्काल तापस की आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए कहा - "भगवन् मेरी १०० पुत्रियों में से जिसे आप चाहें, उसे ही ले लें । जमदग्नि ने सौ राजपुत्रियों में से रेणुका नाम की राजपुत्री को अपनी भार्या बनाने के लिये चुना । राजा ने जमदग्नि के साथ अपनी पुत्री रेणुका का विवाह कर दिया । जमदग्नि अपनी पत्नी रेणुका के साथ अपने तपोवन में लौट आये । रेणुका की एक बहिन का नाम तारा था । मिथिलेश ने अपनी उस तारा नाम की राजकुमारी का विवाह हस्तिनापुर के कौरववंशी महाराजा कार्तवीर्य सहस्रार्जुन के साथ किया। जहां एक बहिन रेणुका ऋषि पत्नी बनी, वहां दूसरी प्रोर दूसरी बहिन तारा महाराजरानी बनी । रेणुका ने एक पुत्र को जन्म दिया। जमदग्नि ने कुलपति परम्परा से क्रमागत अपना परशु अपने उस पुत्र को दिया । और उसका नाम परशुराम. रखा । कालान्तर में रेणुका अपनी बहिन तारा के यहां हस्तिनापुर के राज प्रासाद में अतिथि बन कर गई। महारानी तारा ने अपनी बहिन रेणुका का बड़े हो राजसी ठाट-बाट से आतिथ्य सत्कार एवं सम्मान किया । हस्तिनापुर के राजप्रासाद में रहते हुए राज्यलक्ष्मी के लोभ, विषय भोगों की मनोज्ञता, अपनी इन्द्रियों के चाञ्चल्य एवं कर्मपरिणति की कल्पनातीत शक्ति के प्रभाव के वशीभूत हो ऋषिपत्नी रेणुका अपने बहनोई ( भगिनीपति) कार्तवीर्य पर आसक्त हो गई और उसके साथ अहर्निश कामभोगों में अनुरक्त रहने लगी । ' तापस जमदग्नि को जब कामदेव के इस प्रपञ्च के सम्बन्ध में ज्ञात हुआ तो 'वह हस्तिनापुर पहुंचा और वहां से रेणुका को अपने आश्रम में ले आया । जमदग्नि ने अपने पुत्र परशुराम को उसकी माता की दुश्चरित्रता का वृत्तान्त सुनाया तो परशुराम ने अपनी माता का शिर काट गिराया | 3 रेणुका की हत्या का वृत्तान्त सुनकर कार्तवीर्य सहस्रार्जुन अपने दल-बल. क साथ जमदग्नि के आश्रम में पहुँचा और परशुराम को वहां न पा उसने जमदग्नि तापस को मार डाला । १ चउप्पन्न महापुरिसचरियं, पृ० १६५ २ वही । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभूम चक्रवर्ती २६३ कार्तवीर्य सहस्रार्जुन द्वारा अपने पिता के मारे जाने की बात सुनकर परशुराम की क्रोधाग्नि भड़क उठी। उसने हस्तिनापुर जाकर अपने पिता के घातक कार्तवीर्य सहस्रार्जुन को मार डाला। इस पर भी उसकी क्रोधाग्नि शान्त नहीं हुई। वह क्षत्रिय वर्ग का ही द्रोही बन गया और उसने दूर दूर तक के प्रदेशों में घूम घूमकर क्षत्रियों को मारा । इस प्रकार पृथ्वी को निक्षत्रिय करने के लिये परशुराम ने सात बार क्षत्रियों का भीषण सामूहिक संहार किया। उस समय कार्तवीर्य सहस्रार्जुन की रानी तारा गर्भिणी थी अतः वह हस्तिनापुर से प्रछन्नरूपेण पलायन कर एक अन्य तापस प्राश्रम में पहुंची और वहाँ एक भूमिगृह (तलघर) में रहने लगी । गर्भकाल पूर्ण होने पर तारा ने एक ऐसे पुत्र को जन्म दिया, जिसके मुख में जन्म ग्रहण करने के समय ही दाढ़ें और दांत थे। तारा का वह पुत्र माता की कुक्षि से बाहर निकलते ही भूमितल को अपनी दाढ़ों में पकड़कर खड़ा हो गया अत: उसका नाम सुभूम रखा गया। उस तलघर में ही सुभूम का लालन-पालन किया गया और वहीं वह क्रमशः बड़ा हुमा । तापस-पाश्रम के कुलपति के पास सुभूम ने शास्त्रों और विद्यानों का अध्ययन किया। युवावस्था में पदार्पण करते ही सुभूम ने अपनी माता से पूछा"मातेश्वरी ! मेरे पिता कौन हैं और कहां हैं ? क्या कारण है कि मुझे इस भूमि के विवर में रखा जा रहा है ?" । तारा ने प्रांसुत्रों की अविरल धाराएं बहाते हुए मौन धारण कर लिया। इस पर सुभूम को बड़ा आश्चर्य हुअा। उसने अपनी माता से विस्मय एवं प्राक्रोश मिश्रित उच्च स्वर में सब कुछ सच-सच बताने के लिये कहा । माता ने अथ से इति तक सम्पूर्ण वृत्तान्त अपने पुत्र सुभूम को कह सुनाया। परशुराम द्वारा अपने पिता के मारे जाने का वृत्तान्त सुनते ही सुभूम की क्रोधाग्नि प्रचण्ड वेग से प्रज्वलित हो उठी। उसके दोनों लोचन रक्तवर्ण हो मग्निवर्षा सी करने लगे। उसने अपने अधर को दांतों से चबाते हुए माता से प्रश्न किया-“अम्ब ! मेरा वह पितृघाती शत्रु रहता कहाँ है ?" माता ने उत्तर दिया-"पुत्र ! वह नशंस पास ही के एक नगर में रहता है। अपने हाथों मारे गये क्षत्रियों की संख्या से अवगत रहने के लिये उसने स्वयं द्वारा मारे गये क्षत्रियों की एक एक दाढ़ उखाड़कर सब दाढ़ें एक बड़े थाल. में एकत्रित कर रखी हैं। किसी भविष्यवक्ता नैमित्तिक ने भविष्यवाणी कर Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास परशुराम को बताया है कि जो व्यक्ति उच्च सिंहासन पर बैठकर इन दाढों से भरे थाल में दाढों के पायस (खीर) के रूप में परिणत हो जाने पर उस खीर को खायेगा, वही व्यक्ति तुम्हारे प्राणों का अन्त करने वाला होगा। नैमित्तिक द्वारा की गई भविष्यवाणी सुनकर परशुराम ने सत्रागार मंडप बनवाया । उस विशाल मण्डप के बीचों बीच एक उच्च सिंहासन रखवाया और उस सिंहासन से संलग्न उस पीठ पर स्वयं द्वारा मारे गये क्षत्रियों की दाढ़ों से भरा थाल रख दिया । परशुराम ने उस विशाल सत्रागार में प्रतिदिन ब्राह्मणों को भोजन करवाना प्रारम्भ कर दिया। उस सत्रागार मण्डप के चारों ओर परशुराम ने बहुत बड़ी संख्या में सशक्त सैनिकों को उस सिंहासन, थाल एवं मण्डप की रक्षा के लिये नियुक्त कर रखा है।" अपनी माता के मुख से यह सारा वृत्तान्त सुनते ही सुभूम अपने पितघातक परशुराम का वध करने के दृढ़-संकल्प के साथ तत्काल परशुराम के नगर की ओर प्रस्थित हना । सत्रागार के द्वार पर पहुंचकर सुभम ने सत्रागार की रक्षा के लिये नियुक्त सशस्त्र सैनिकों का संहार कर डाला और विद्युत वेग से वह उस उच्च सिंहासन पर आसीन हो गया। उच्च सिंहासन पर बैठा सुभूम ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो लोहितवर्ण बाल रवि उदयाचल पर पा विराजमान हुआ हो। उसने क्षत्रियों की दाढ़ों से भरे थाल की ओर दृष्टि डालकर देखा। सुभूम के दृष्टिपात के साथ ही वे दाढ़ें अदष्ट शक्ति के प्रभाव से खीर के रूप में परिणत हो गईं। सुभूम तत्काल उस खीर को खाने लगा।' यह देखकर परशुराम के हितचिन्तकों एवं सत्रागार के आहत रक्षकों ने तत्काल परशुराम की सेवा में उपस्थित हो उनसे निवेदन किया-"देव ! सिंह शावक के समान अति तेजस्वी एक बालक हमें हताहत कर उस श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठ गया है । क्षत्रियों की दंष्ट्राओं से भरा वह थाल दाढ़ों के स्थान पर पायस से भर गया है। वेष-भूषा से ब्राह्मण सा प्रतीत होने वाला वह बालक 'उस पायस को खा रहा है। उस तेजस्वी बालक की आंखों से, अंग-प्रत्यंग से और रोमरोम से तेज एवं प्रोज बरस रहा है । भला मानव का तो क्या साहस देवगण भी उसकी ओर आँख उठाकर देखने में भय विह्वल हो उठते हैं।" आरक्षकों की बात सुनते ही भविष्यवक्ता की भविष्यवाणी परशुराम के कर्णरन्ध्रों में मानो प्रतिध्वनित होने लगी और वह परम कोपाविष्ट हो तत्काल सत्रागार मण्डप में पहुँचा । वहाँ उसने देखा कि एक बालक उस उच्च सिंहासन पर बैठा हा सिंह के समान निर्भीक और निश्शंक हो थाल में भरी खीर खा रहा है । परशुराम ने कड़क कर कर्कश स्वर में सुभूम को सम्बोधित करते हुए १ चउप्पन्न महापुरिसचरियं. पृ० १६६ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभूम चक्रवर्ती २६५ ― कहा - "अरे ओ ब्राह्मण के बच्चे बटुक ! यह श्रेष्ठ सिंहासन तुझे किसने दिया है, जिस पर बैठकर तू अपना जंगलीपन प्रकट कर रहा है ? इन मानव अस्थियों का तो तुझे स्पर्श तक नहीं करना चाहिए पर अरे तू तो ब्राह्मण बटुक होकर भी इन मानव अस्थियों का भक्षण कर रहा है । तू दिखने तो ब्राह्मण बटुक ही प्रतीत होता है । यदि यह सच है तो सुन ले - मेरा यह घोर परशु केवल क्षत्रियों के ही रुधिर का प्यासा है, दीन श्रोत्रिय ब्राह्मणों पर प्रहार करने में यह लज्जा का अनुभव करता है। यदि तू क्षत्रिय कुमार है और मेरे भय के कारण तूने ब्राह्मणों के समान वेष और प्रचार अंगीकार कर लिया है तो भी तुझे मुझसे डरने की आवश्यकता नहीं क्योंकि पृथ्वी के अनेक बार निक्षत्रिय कर दिये जाने पर अब तुम जैसे लोग वस्तुतः कुलीनों के लिये प्रगाढ़ अनुकम्पा के पात्र हो । अतः बुद्धिमानों द्वारा निन्दित एवं गहित मानव अस्थियों के इस अशुचि आहार का परित्याग कर मेरे इस सत्रागार में स्वादिष्ट से स्वादिष्टतम सात्विक षड्रस व्यंजनों का भोजन करो। अपनी भुजानों के बलपराक्रम के भरोसे यदि तू मेरे साथ युद्ध करना चाहता है तो भी तुझ जैसे निश्शस्त्र बालक पर प्रहार करने में मुझे स्वयं अपने ऊपर घृणा का अनुभव होता है। क्योंकि जो लोग अपने घर आये हुए पुरुष पर प्रहार करते हैं, उन लोगों की सत्पुरुषों में गणना नहीं की जा सकती ।" " सुभूम सहज निर्भीक - निश्शंक मुद्रा धारण किये खीर भी खाता रहा और परशुराम की बातें भी सुनता रहा । परशुराम की बात पूरी होते होते सुभूम भी क्षीर भोजन से निवृत्त हुआ । परशुराम के कथन के पूर्ण होते ही सुभूम ने उसे उसकी बातों के उत्तर में अपनी बात कहना प्रारम्भ किया- "ओ परशुराम ! सुन । दूसरों के द्वारा दिये गये श्रासन को ग्रहरण करना पराक्रमियों के लिये कदापि शोभास्पद नहीं होता । केसरी सिंह का वन के राजा के रूप में कौन अभिषेक करता है ? मदोन्मत्त महाबलशाली गजराज को यूथपति के पद पर कौन प्रभिषिक्त करता है ? वे अपने पौरुष - पराक्रम के बल पर स्वतः ही वनराज एवं यूथपति बन जाते हैं । इसी प्रकार मैं भी अपने भुजबल के भरोसे, पौरुष - पराक्रम के बल के प्रभाव से इस सिंहासन पर आ बैठा हूं । प्रत्येक सत्पुरुष अपने दुष्कृत पर लज्जित होता है किन्तु इसके विपरीत तुम तो इतने अधिक दुष्कृत्य करने के पश्चात् भी अपने द्वारा मारे गये लोगों की दाढ़ों से थाल को भर कर फूले नहीं समा रहे हो, अपने दुष्कृत्यों की सराहना कर रहे हो । श्री मूढ ! क्या तुम यह भी नहीं जानते कि दाढ़ें किसी मनुष्य के द्वारा चबाई नहीं जा सकतीं । मैं दाढ़ें नहीं अपितु किसी प्रदृष्ट शक्ति द्वारा इस थाल में परोसी गई खीर खा रहा हूँ। मैं तुम्हें स्पष्ट बता दूं कि मैं ब्राह्मरण नहीं हूं । १ चउप्पन्न महापुरिसचरियं, पृ० १६६, गा० १७-२७ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास मैं क्षत्रिय कुमार हूं और तुम्हारा वध करने के लिये यहां आया हं। ऋषियों के आश्रम में मेरा लालन-पालन हुआ है इसीलिये आश्रमवासियों जैसा मेरा यह वेष है। सुभटों का शस्त्र नृसिंह के समान केवल उनकी भुजाएं ही होती हैं और कायर पुरुष यदि अपने हाथ में वज्र भी धारण किया हुआ हो तो भी वह निहत्था ही है। अतः तुम मुझे जो शस्त्रविहीन कह रहे हो, यह भ्रम मात्र है। मुझे बालक समझ उपेक्षा करने की भूल मत कर बैठना । उदयाचल पर नवोदित बाल-भान क्या दिग्दिगन्तव्यापी घनान्धकार को तत्काल ही विनष्ट नहीं कर देता? वैर का प्रतिषोध लेकर पितृऋण से उन्मुक्त होने के लिये मेरी भुजाएं फड़क रही हैं, मेरा अन्तःकरण आतुर हो रहा है । अतः शीघ्र ही शस्त्र उठा और अपना पौरुष दिखा । सावधान होकर सुन ले-जिन महान् योद्धा कार्तवीर्य सहस्रार्जन को तुमने रणांगण में मारा था, उन्हीं महाबलशाली महाराज कार्तवीर्य सहस्रार्जुन का मैं पुत्र हैं। पितवध का प्रतिषोध लेने के लिये तेरे सम्मुख उपस्थित हूँ। अब तो यदि तू पाताल में भी प्रविष्ट हो जाय तो भी निश्चित रूप से मैं तुझे पशु की मौत मारकर ही विश्राम लूगा । तूने सात बार पृथ्वी को निक्षत्रिया किया है अतः २१ बार पृथ्वी को निर्ब्राह्मण करने पर ही मेरी कोपाग्नि शान्त होगी, अन्यथा कदापि नहीं।"" सुभूम की इस प्रकार की ललकार सुनते ही परशुराम का रोम-रोम क्रोधाग्नि से प्रज्वलित हो उठा। उसने तत्काल अपने धनुष की प्रत्यञ्चा पर सरसमूह का संधान कर सुभूम पर सरवर्षा की झड़ी लगा दी। सुभूम ने उस थाल की ढाल से सब बाणों को निरर्थक कर पृथ्वी पर गिरा दिया। यह देख परशुराम आश्चर्याभिभूत एवं हतप्रभ हो गया। अनेक भीषण युद्धों में सदा विजयश्री दिलाने वाले अपने प्रचण्ड कोदण्ड और पैने बाणों को एक बालक के समक्ष मोघता को देखकर परशुराम झंझला उठे। धनुष बाण को एक पोर पटक उन्होंने अपना परशु सम्हाला । पर परशु को भी निष्प्रभ देख उन्हें बड़ी निराशा हुई । परशुराम के मुख से हठात् ये शब्द निकले-"अरे यह क्या हो गया, सहस्रों-सहस्रों क्षत्रियों का शिरोच्छेदन करने वाला यह घोर परशु प्राज प्रभाहीन कैसे प्रतीत हो रहा है ?" कतिपय क्षणों तक इसी प्रकार चिन्ताग्रस्त एवं विचारमग्न रहने के अनन्तर परशुराम ने सुभम के मस्तक को काट गिराने की अभिलाषा से उसकी ग्रीवा को लक्ष्य कर अपने प्रभाविहीन परशु को तीव्र वेग से सुभूम की ओर फेंका। कोपाकुल परशुराम द्वारा फेंका गया वह परशु सुभूम के परों के पास जा गिरा। - १ तुहकयतिउरणेण महं पसमइ कोवाणलो नवरं ।।३।। -चउप्पन्न महापरिसररियं, पृ० १६७ ॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभूम चक्रवर्ती २९७ परशुराम द्वारा फेंके गये परशु को अपने पैरों के नीचे भूमि पर पड़ा देख सुभूम ने अट्टहास किया और परशुराम के वध के लिये कृत-संकल्प हो उसने अपने सम्सुख रखे थाल को उठाया । सुभम के हाथ में जाते ही वह थाल अमोघ सहस्रार चक्र के समान तेज से जगमगा उठा। कोपाविष्ट सुभूम ने अपने शत्रु की ग्रीवा को लक्ष्य कर उस थाल को प्रबल वेग से घुमाते हुए परशुराम की ओर फेंका । उस थाल से कट कर परशुराम का मुण्ड ताल फल की तरह पृथ्वी पर लुढ़कने लगा।' परशुराम के शिरोच्छेदन के उपरान्त भी सुभूम की क्रोधाग्नि शान्त नहीं हुई। उसने पुनः पुनः ब्राह्मणों का भीषण सामूहिक संहार कर पृथ्वी को २१ बार ब्राह्मण विहीन बना दिया। सुभूम ने भरतक्षेत्र के छहों खण्डों पर अपनी विजय वैजयन्ती फहरा कर चक्रवर्ती पद प्राप्त किया। ६ निधियों और १४ रत्नों का स्वामी सुभूम सुदीर्घ काल तक षट्खण्डों के विशाल साम्राज्य का परिपालन एवं अनुपम ऐहिक भोगोपभोगों का सुखोपभोग करता रहा और अन्त में प्राय पूर्ण होने पर घोर नरक का अधिकारी बना।" १ ताल फलं पिडव छिण्णं पडइ सिरं परसुरामस्स ॥४७॥ -चउप्पन्न महापुरिसरियं, पृ० १६७ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् श्री मुनिसुव्रत भगवान् मल्लिनाथ के बाद बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत हुए । पूर्वभव पर- विदेह की चम्पा नगरी में राजा सुरश्रेष्ठ के भव में इन्होंने नन्दन मुनि की सेवा में संयम स्वीकार किया और अर्हत-भक्ति प्रादि बीस स्थानों की सम्यक् आराधना कर तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया । अन्त समय में समाधिपूर्वक काल कर दशवें प्रारणत देवलोक में देव हुए । जन्म स्वर्ग की स्थिति पूर्ण कर यही सुरश्रेष्ठ का जीव श्रावण शुक्ला पूर्णिमा को श्रवण नक्षत्र में स्वर्ग से च्यव कर राजगृही के महाराज सुमित्र की महारानी देवी पद्मावती के गर्भ में बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत के रूप में उत्पन्न हुआ । माता ने मंगलप्रद चतुर्दश शुभ स्वप्न देखे और प्रशस्त दोहदों से प्रमोदपूर्वक गर्भकाल पूर्ण किया । ज्येष्ठ कृष्णा नवमी के दिन श्रवरण नक्षत्र में माता ने सुखपूर्वक पुत्र रत्न को जन्म दिया । इन्द्र, नरेन्द्र और पुरजनों ने भगवान् के जन्म का मंगल - महोत्सव मनाया । नामकररण इनके गर्भ में रहते माता को विधिपूर्वक व्रत पालना की इच्छा बनी रही और वह सम्यक् रीति से मुनि की तरह व्रत पालना करती रही प्रत: महाराज सुमित्र ने बालक का नाम मुनिसुव्रत रखा । विवाह प्रौर राज्य युवावस्था प्राप्त होने पर पिता सुमित्र ने प्रभावती आदि अनेक योग्य राजकन्याओं के साथ कुमार मुनिसुव्रत का विवाह किया और कालान्तर में उनको राज्य का भार सौंप कर स्वयं आत्म-कल्याण की इच्छा से वैराग्यभावपूर्वक दीक्षित हो गये । १ प्र० व्याकरण में ज्येष्ठ कृष्णा प है । २ गम्भगए मायापिया य सुव्वता जाता । ( प्राव. चू. उत्त. पृ. ११) Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा और पारणा ] भ० श्री मुनिसुव्रत २६६ मुनिसुव्रत ने पिता के पीछे राज्य संभाला पर राजकीय वैभव और इन्द्रयों में लिप्त नहीं हुए । सुख के दीक्षा प्रौर पारणा पन्द्रह हजार वर्षों तक राज्य का भलीभांति संचालन करने के पश्चात् प्रभु मुनिसुव्रत ने लोकान्तिक देवों की प्रार्थना से वर्षीदान किया एवं अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्य पर अभिषिक्त कर फाल्गुन कृष्णा अष्टमी के दिन श्रवण नक्षत्र में एक हजार राजकुमारों के साथ दीक्षा ग्रहरण की । दूसरे दिन राजगृही में ब्रह्मदत्त राजा के यहां प्रभु के बेले का प्रथम पारणा सम्पन्न हुआ । देवों ने पंच- दिव्य बरसा कर दान की महिमा प्रकट की । केवलज्ञान ग्यारह मास तक छद्मस्थ रूप से विचरण कर फिर प्रभु दीक्षा वाले उद्यान में पधारे और वहां चम्पा वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ हो गये । फाल्गुन कृष्णा द्वादशी के दिन क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर उन्होंने घाति-कर्मों का सर्वथा क्षय किया और लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान व केवलदर्शन की प्राप्ति की । hair बनकर प्रभु ने श्रुतधर्म एवं चारित्र-धर्म की देशना दी और हजारों व्यक्तियों को चारित्र धर्म की दीक्षा देकर चतुविध संघ की स्थापना की । धर्म-परिवार भगवान् मुनिसुव्रत स्वामी के धर्म संघ में निम्न परिवार था : गरण एवं गणधर - अठारह [१८] गण एवं अठारह [१८] ही गणधर केवली. - एक हजार आठ सौ [१,८०० ] मनः पर्यवज्ञानी अवधिज्ञानी चौदह पूर्वधारी - एक हजार पांच सौ - एक हजार आठ सौ -पांच सौ [५००] [१,५०० ] [१,८०० ] वैक्रिय लब्धिधारी -दो हजार [२,००० ] वादी साधु साध्वी श्रावक श्राविका - एक हजार दो सौ [१,२००] - तीस हजार [ ३०,००० ] - पचास हजार [५०,००० ] - एक लाख बहत्तर हजार [१,७२,००० ] -तीन लाख पचास हजार [ ३,५०,००० ] १ स० द्वा है में फाल्गुन शुक्ला १२ उल्लिखित है । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [परिनिर्वाण परिनिर्वाण तीस हजार वर्ष की पूर्ण आयु में से प्रभु साढ़े सात हजार वर्ष कुमारावस्था में रहे, पन्द्रह हजार वर्ष तक राज्य-पद पर रहे मौसाढ़े सात हजार वर्ष तक उन्होंने संयम-धर्म की आराधना की। अन्त में केवलज्ञान से जीवन का अन्तिम काल निकट जानकर प्रभ ने एक हजार मुनियों के साथ एक मास का निर्जल अनशन किया और ज्येष्ठ कृष्णा नवमी के दिन अश्विनी नक्षत्र में सकल कर्मों का क्षय कर वे सिख, बुद्ध एवं मुक्त हुए। जैन इतिहास और पुराणों के अनुसार मर्यादा पुरुषोत्तम राम, जिनका अपर नाम पद्म बलदेव है और वासुदेव लक्ष्मण भी भगवान् मुनिसुव्रत के शासनकाल में हुए । राम ने उत्कृष्ट साधना से सिद्धि प्राप्त की और सीता का जीव बारहवें स्वर्ग का अधिकारी हुमा । इनका पवित्र चरित्र "पउमरियं" एवं पपपुराण आदि ग्रन्थों में विस्तार से उपलब्ध होता है। 000 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती महापद्म प्रवर्तमान प्रवसर्पिणी काल में इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में, बीसवें तीर्थकर भ० मुनिसुव्रत स्वामी की विद्यमानता में नौवें चक्रवर्ती महापद्य हुए। चक्रवर्ती महापद्य के ज्येष्ठ प्राता का नाम विष्णु कुमार था । प्राचीन काल में भरतक्षेत्र के मार्यावर्त खण्ड में हस्तिनापुर नामक एक सुसमृद्ध एवं सुन्दर नगर था। वहां भगवान् ऋषभदेव की वंश परम्परा में पयोतर नामक एक महाप्रतापी राजा न्याय-नीतिपूर्वक अपने राज्य की प्रजा का पालन करते थे। उनकी पट्टमहिषी का नाम ज्वाला था । एक रात्रि में सुप्रसुप्ता महारानी ज्वाला ने स्वप्न में देखा कि एक केसरीसिंह उसके मुख में प्रविष्ट हो गया है। दूसरे दिन प्रातःकाल राजा पपोत्तर ने स्वप्न पाठकों को बुला कर उनसे महादेवी के उक्त स्वप्न के फल के सम्बन्ध में प्रश्न किया। स्वप्न पाठकों ने स्वप्नशास्त्र के माधार पर महाराज को बताया कि अक्षय कीति का उपार्जन करने वाला एक महान् पुण्यशाली प्राणी महारानी की कुक्षि में पाया है। गर्भकाल पूर्ण होने पर महारानी ज्वाला देवी ने एक प्रतीव सुन्दर, सुकुमाल एवं तेजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया। माता-पिता ने अपने पुत्र का नाम विष्णुकुमार रखा। कालान्तर में महारानी ज्वालादेवी ने एक रात्रि में चौदह महास्वप्न देखे । स्वप्नफल सम्बन्धी राजा-रानी की जिज्ञासा को शान्त करते हुए नैमित्तिकों ने बताया कि महारानी की कुक्षि से एक महान् पराक्रमी पुत्ररत्न का जन्म होगा, जो समय पर सम्पूर्ण भरतक्षेत्र का चक्रवर्ती सम्राट बनेगा। गर्भकाल पूर्ण होने पर महारानी ज्वालादेवी ने सर्व शुभ लक्षण सम्पन्न एक महान तेजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया। माता-पिता ने स्वजन-परिजनों के साथ विचार-विमर्श कर अपने उस दूसरे पुत्र का नाम महापम रखा। विष्णुकुमार और महाप-ये दोनों भाई शुक्लपक्ष की द्वितीया के चन्द्र के समान अनुक्रमशः वृद्धिगत होते हुए शैशवावस्था को पार कर किशोर वय में और किशोर वय से युवावस्था में प्रविष्ट हुए। दोनों राजकुमारों को उस समय के लोकविश्रत बड़े-बड़े शिक्षा शास्त्रियों एवं कलाविदों के सानिध्य में रख कर उन्हें राजकुमारोचित सभी विद्यामों एवं कलाओं का अध्ययन कराया गया। सुतीक्ष्ण बुद्धि दोनों भ्राता सभी प्रकार की विद्याओं में पारंगत हो गये । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [चक्रवर्ती महापद्म ज्येष्ठ राजपुत्र विष्णुकुमार की बाल्यकाल से ही सांसारिक कार्यकलापों एवं ऐहिक भोगोपभोगा के प्रति किसी प्रकार की अभिरुचि नहीं थी । अतः उन्होंने कालान्तर में माता-पिता की अनुज्ञा प्राप्त कर श्रमगाधर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली । अंगशास्त्रों के अभ्यास एवं विशुद्ध श्रमणाचार की परिपालना के साथ-साथ मुनि विष्णकुमार ने सुदीर्घ काल तक अति कठोर दुष्कर तपश्चरण किया । उग्र तपश्चर्यायों के प्रभाव से मुनि विष्णुकुमार को अनेक प्रकार की उच्चकोटि की लब्धियां एवं विद्याएं स्वतः ही प्रकट हो गईं। महाराजा पद्मोत्तर ने होनहार चक्रवर्ती सम्राट के योग्य सभी लक्षणों से युक्त अपने द्वितीय पुत्र महापद्म को युवराज पद पर अभिषिक्त कर शासनसंचालन के भार से निवृत्ति ली। उन्हीं दिनों बीसवें तीर्थंकर भ० मुनिसुव्रत स्वामी के शिष्य प्राचार्य सुव्रत अप्रतिहत विहार करते हुए विहार क्रम से उज्जयिनी पधारे । प्राचार्यश्री के शुभागमन का सम्वाद सुन उज्जयिनीपति श्रीवर्मा भी अपने प्रधानामात्य नमुचि एवं अपने परिजनों-पौरजनों आदि के साथ प्राचार्यश्री के दर्शनार्थ नगर के बहिस्थ उद्यान में गया । सुव्रताचार्य का वन्दन नमन करने के पश्चात् राजा उपदेश श्रवण की अभिलाषा से उनके सम्मुख बैठा । नमुचि को अपने पाण्डित्य का बड़ा अभिमान था। वहां बैठते ही वह वैदिक कर्मकाण्ड की श्लाघा और वीतराग जिनेन्द्र प्रभु द्वारा प्ररूपित धर्म की निन्दा करने लगा । नमुचि को वितण्डावाद का आश्रय लिये देख सुव्रताचार्य तो मौन रहे किन्तु उनका एक लघ वयस्क शिष्य नमूचि द्वारा किये जा रहे वितण्डावाद और अनर्गल प्रलाप को सहन नहीं कर सका । उसने नमुचि के साथ शास्त्रार्थ कर उसे महाराजा श्री वर्मा के समक्ष ही पराजित कर दिया। उस समय तो वह निरुत्तर हो जाने के कारण कुछ भी नहीं बोल सका किन्तु राजा और प्रजा के सम्मुख एक छोटे से साधु द्वारा पराजित कर दिये जाने के अपमान की अग्नि में उसका तन, मन और रोम-रोम जलने लगा । अपने इस अपमान का प्रतिशोध लेने की भावना के वशीभूत हुआ वह नमुचि उन्मत्त बना रात्रि के घनान्धकार में एक नंगी तलवार लिये घर से निकला और उस उद्यान में प्रविष्ट हुआ, जहां सुव्रताचार्य अपने शिष्यमण्डल के साथ विराजमान थे । नमुचि दबे पांवों उद्यान के मध्य भाग में अवस्थित भवन की ओर बढ़ा । उसने देखा कि वहां सब मुनि निश्शंक भाव से निद्राधीन हैं, चारों ओर अर्द्धरात्रि की निस्तब्धता छाई हई है। निद्राधीन लघु मुनि को दूर से देखते ही क्रोधाविष्ट हो नमुचि ने तलवार की मूठ को दोनों हाथों में कस कर पकड़ा । लघु मुनि की ग्रीवा पर तलवार का भरपूर वार करने के लिये उसने तलवार पकड़े हुए अपने दोनों हाथों को अपने दक्षिणस्कन्ध के ऊपर तक उठाया । नमुचि पूरी शक्ति जुटा कर लघु मुनि की गर्दन पर तलवार का वार करने के लिए उनकी ओर झपटा किन्तु किसी Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती महापन] चक्रवर्ती महापय ३०३ अदृष्ट शक्ति के प्रभाव से अथवा मुनिमण्डल के तपोनिष्ठ श्रमणजीवन के प्रताप से उस उद्यानशाला के द्वार पर ही वह स्तम्भित हो गया। नमुचि के हाथ ऊपर के ऊपर ही उठे रह गये। जब नमुचि ने यह अनुभव किया कि वह अपने हाथों को और तलवार को तिलमात्र भी इधर से उधर नहीं कर पा रहा है तो उसी अवस्था में उसने वहां से भाग निकलने का उपक्रम किया। परन्तु उसने पाया कि वह पूर्ण रूप से स्तम्भित हो चुका है, पूरी शक्ति लगा कर सभी प्रकार के प्रयास करने के उपरान्तं भी वह अपने किसी भी अंगप्रत्यंग को किंचित्मात्र भी हिलाने में असमर्थ है । अन्ततोगत्वा नमुचि निराश हो गया । सूर्योदय होते ही उसकी कैसी भयंकर दुर्दशा होगी, दुर्गति होगी, कलंक-कालिमापूर्ण उसकी भयंकर अपकीर्ति प्रातःकाल होते ही दिग्दिगन्त में फैल जायगी, नरेश्वर को और नागरिकों को वह अपना काला मह किस प्रकार दिखायेगा-इन विचारों से वह सिहर उठा, उसका मुख विवरण हो काला पड़ गया। वह मन ही मन सोचने लगा-"अच्छा हो यह धरती फट जाय और मैं उसमें समा जाऊं, छप जाऊं।" पर भला, पाप भी क्या कभी छुपाये छुपा है । न धरती ही फटी और न वह अपने आपको छुपा ही पाया । ब्राह्म मुहूर्त में सर्वप्रथम स्वताचार्य ने नमुचि को उस रूप में खड़े देखा । तदनन्तर मुनिमण्डल ने भी देखा । हर्षामर्ष-विहीन-सम शत्रु-मित्र मुनिमण्डल समभाव से सदा की भांति अपनी आवश्यक धर्मक्रियाओं के निष्पादन में निरत हो गया। प्रातःकाल होते ही मनिमण्डल के दर्शनार्थ आये हुए श्रद्धालु नागरिकों ने नमचि को उस रूप में स्तब्धावस्था में देखा। विद्युत् वेग से यह संवाद नगर के कोने-कोने में प्रसृत हो गया । सहस्रों-सहस्रों नागरिकों के समूह पहाड़ी नदी के प्रवाह के समान उस उद्यान की ओर उमड़ पड़े । उद्यान नागरिकों से खचाखच भर गया। चारों ओर से नमूचि पर कटुवचनों की अनवरत वर्षा होने लगी। सब ओर उसकी भयंकर अपकीति फैल गई । नमुचि बड़ा अपमानित हुआ । स्तम्भन का प्रभाव परिसमाप्त होते ही वह अपने घर में आ कर छुप गया । उज्जयिनी में रहना उसके लिए वस्तुतः अब ज्वालामालाओं से संकुल भीषण भट्टी में रहने तुल्य दुस्सह्य एवं दूभर हो गया। एक दिन चुपचाप वह उज्जयिनी से निकला और घूमता-धामता हस्तिनापुर पहुंचा। हस्तिनापुर पहुंचने के पश्चात् नमुचि युवराज महापद्म के सम्पर्क में आता रहा और युवराज ने उसे अपनी मन्त्रिपरिषद् में स्थान दिया। उन्हीं दिनों हस्तिनापुर राज्य में युवराज महापय के एक अधीनस्थ राजा सिंहरथ ने उत्पात करना प्रारम्भ किया । सिंहरथ अपने पड़ोस-पड़ोस के क्षेत्रों में युवराज महापद्म की प्रजा को लूट-मार कर अपने दुर्ग में घुस जाता । युवराज पद्मरथ ने सिंहरथ को पकड़ कर दण्ड देने हेतु अपनी सेना भेजी किन्तु सिंहरथ का सुदृढ़ दुर्ग दुर्भेद्य एवं दुर्जेय था अतः युवराज की सेना उसे पकड़ने में असफल रही । अन्ततोगत्वा युवराज ने सिंहस्थ को बन्दी बना कर लाने के लिये अपने मंत्री Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [चक्रवर्ती महापण नमुचि को आज्ञा दी । नमुचि ने एक सशक्त एवं विशाल सेना के साथ सिंहरप पर माक्रमण किया। उसने सिंहरथ के सुदृढ़ दुर्ग को चारों मोर से घेर कर रसद पहुंचने के सभी मार्गों को पूर्णरूपेण अवरुद्ध कर दिया । लम्बे समय तक 'दुर्ग के चारों ओर अपनी सेना का घेरा डाले रखने के अनन्तर नमुचि ने दाम-नीति और भेद-नीति का प्राश्रय ले दुर्गरक्षकों को अपने पक्ष में कर लिया। इस प्रकार उसे एक दिन सहसा अपनी सेना के साथ सिंहरथ के दुर्ग में प्रवेश करने का अवसर मिल गया । नमुचि ने तत्काल दुर्ग पर युवराज महापद्म का प्राधिपत्य स्थापित कर दिया और सिंहरथ को बन्दी बना युवराज के समक्ष उपस्थित किया । दुर्भेद्य दुर्ग और दुर्दान्त शत्रु को अपने वश में पा युवराज महापद्म परम प्रसन्न हुमा । नमुचि को उसकी इस दुस्साध्य सफलता पर साधुवाद देते हुए युवराज ने उसे एक अभीप्सित वस्तु मांगने का प्राग्रह किया । नमुचि ने कृतज्ञता प्रकट करते हुए युवराज महापदम से निवेदन किया-"स्वामिन् ! प्रापका कृपाप्रसाद ही मेरे लिये पर्याप्त है, तदुपरान्त भी प्रापका पाग्रह है तो मेरे इस वर को प्राप धरोहर के रूप में अपने पास रखिये, पावश्यकता पड़ने पर मैं प्रापसे यह वर मांग लूगा।" युवराज ने नमुचि की प्रार्थना स्वीकार कर उसको दिये हुए वरदान को अपने पास धरोहर के रूप में रख लिया। कालान्तर में महापद्म की प्रायुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुमा । उसने षट्खण्ड की साधना की और वह १४ रत्नों एवं ६ निधियों का स्वामी बना। जिस समय भरतक्षेत्र के छहों खण्डों का एकछत्र प्रषिपति चक्रवर्ती सम्राट् महापद्म हस्तिनापुर के राजसिंहासन पर आसीन हो सम्पूर्ण भरतक्षेत्र पर शासन कर रहा था, उस समय सुव्रताचार्य अपने शिष्य समूह के साथ हस्तिनापुर पधारे और धर्मनिष्ठ श्रद्धालु नगर निवासियों की प्रार्थना पर चातुर्मासावधि पर्यन्त उन्होंने नगर के बाहर एक उद्यान में रहना स्वीकार कर लिया। अपने अपमान का प्रतिशोध लेने का यह उपयुक्त अवसर समझ नमुचि ने चक्रवर्ती महापद्म को उनके पास धरोहर में रखे हुए अपने वरदान का स्मरण दिलाते हए निवेदन किया-"भरतेश्वर ! मेरी यह प्रान्तरिक अभिलाषा है कि मैं अपने परलोक की सिद्धि हेतु एक महान् यज्ञ करूं । वह महायज्ञ सभी भांति सुचारु रूप से सम्पन्न हो, इसके लिए मैं धरोहर के रूप में रखे गये उस वरदान के रूप में प्रापसे यह मांगता हूं कि माज से ले कर यज्ञ की पूर्णाहूति होने तक आपके सम्पूर्ण राज्य का स्वामी मैं रहूं । सर्वत्र मेरी माशा शिरोधार्य एवं अनुल्लंघनीय रहे।" सत्यसन्ध चक्रवर्ती महापद्म ने तत्काल यज्ञ की पूर्णाहूति के समय तक के लिए अपना सम्पूर्ण राज्याधिकार नमुचि को दे अन्तःपुर में अपना निवास कर दिया। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती महापद्म] चक्रवर्ती महापद्म ३०५ .. नमुचि के हाथों में सम्पूर्ण भरतक्षेत्र के शासन की बागडोर आते ही प्रतिष्ठित पौरजनों, सामन्तों, विभागाध्यक्षों एवं विभिन्न धर्मों के धर्माचार्यों ने नमुचि के पास उपस्थित हो उसे वर्धापित करते हुए उसके यज्ञ की सफलता के लिए अपनी ओर से शुभकामनाएँ अभिव्यक्त की। सभी प्रकार के ऐहिक प्रपंचों से सदा दूर रहना, यह श्रमणाचार को एक बहुत बड़ी महत्त्वपूर्ण मर्यादा है, इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए सुव्रताचार्य नमुचि के पास नहीं गये । इस पर नमुचि बड़ा क्रुद्ध हुआ । सुव्रताचार्य और श्रमणवर्ग के प्रति अपनी वैर भावना से प्रेरित हो कर ही तो नमचि ने यह सब प्रपंच रचा था । वह क्रोधाविष्ट हो सुव्रताचार्य के पास गया और उन्हें राज्य विरोधी, पाखण्डी, मर्यादालोपक आदि अशिष्ट एवं हीन विशेषणों से सम्बोधित करते हुए उनसे कहा"तुम लोग सात दिन के अन्दर-अन्दर मेरे राज्य की सीमा से बाहर चले जाओ। उस अवधि के पश्चात् तुम लोगों में से यदि कोई भी साधु मेरे राज्य में रहा तो उसे कठोर से कठोर मृत्यु दण्ड दिया जायगा । बस, यह मेरी अन्तिम और अपरिहार्य प्राज्ञा है।" इस प्रकार की प्राज्ञा देने के पश्चात नमुचि अपने आवास की ओर लौट गया। श्रमण संघ को इस घोर संकट से बचाने के लिए सुदूरस्थ प्रदेश में तपश्चरण में निरत अपने शिष्य महान् लब्धिधारी मुनि विष्णुकुमार को सुव्रताचार्य ने बुलवाया । लब्धिधारी. महामुनि विष्णुकुमार ने हस्तिनापुर में आते ही नमुचि को समझाने का भरसक प्रयास किया । किन्तु राज्यमद में मदान्ध नमुचि अपने हठ पर डटा ही रहा । अन्त में मुनि विष्णुकुमार ने नमुचि से कहा-"अच्छा नमुचि ! कम से कम तीन चरण भूमि तो मुझे रहने के लिए दे दो।" नमचि ने कहा- मैं तुम्हें तीन चरण भूमि देता हैं। उस तीन चरण भूमि से बाहर जो भी साधु रहेगा, उसे तत्काल मार दिया जायेगा।" तीन चरण भूमि देने की स्वीकृति ज्यों ही नमुचि ने दी कि मुनि विष्णुकुमार ने वैक्रिय लब्धि के प्रयोग से अपना शरीर बढ़ाना प्रारम्भ किया । देखते ही देखते असीम आकाश विष्णु मुनि के विराट् शरीर से प्रापूरित हो गया। संसागरा, सपर्वता पृथ्वी प्रकम्पित हो उठी, आकाश आन्दोलित हो उठा। मुनि विष्णुकुमार के इस अदृष्टपूर्व विराट स्वरूप को देख कर नमुचि आश्चर्याभिभूत एवं भयाक्रान्त हो धड़ाम से धरती पर गिर पड़ा । मुनि विष्णुकुमार ने अपना एक चरण समुद्र के पूर्वीय तट पर और दूसरा चरण सागर के पश्चिमी तट पर रखा और प्रलय-धनघटा की गड़गड़ाहट सन्निभ स्वर में नमुचि से पूछा-"अब बोल नमुचे ! मैं अपना तीसरा चरण कहां रखू?" उस अदष्ट-प्रश्रुतपूर्व चमत्कारकारी भयावह दृश्य से भयभीत हा . नमुचि झंझावात से झकझोरित पीपल के पत्ते के समान कांपता ही रहा । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास . [चक्रवर्ती महापप प्रकृति-परिवर्तनकारी इस आकस्मिक उत्पात का कारण जानने के लिए चक्रवर्ती महापद्म अन्तःपुर से बाहर घटनास्थल पर पाये । उन्होंने मनि विष्णुकुमार को वन्दन नमन किया और नतमस्तक हो वे उनसे अपने उपेक्षाजन्य अपराध के लिए पुनः पुनः क्षमाप्रार्थना करने लगे । संघ तथा नागरिकों ने पुनः पुनः क्षमायाचना करते हुए मुनि विष्णुकुमार से शान्त होने की प्रार्थना की । सामूहिक प्रार्थना को सुन मुनि शान्त हुए। उन्होंने वैक्रियजन्य अपने विराट स्वरूप का संवरण किया। सम शत्रुमित्र मुनिवर विष्णुकुमार ने नमचि की ओर क्षमापूर्ण दृष्टिपात किया और संघ की रक्षा हेतु किये गये अपने कार्य का प्रायश्चित्त ले कर वे पुनः आत्मसाधना में लीन हो गये । तप-संयम की साधना से उन्होंने अन्त में प्राठों कर्मों को मूलतः विनष्ट कर अक्षय, अव्याबाध शाश्वत सुखधाम मोक्ष प्राप्त किया। चक्रवर्ती महापदम ने भी २० हजार वर्ष की वय में श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण की। उन्होंने १० हजार वर्ष तक विशुद्ध संयम का पालन करते हुए घोर तपश्चरण द्वारा माठों कर्मों का अन्त कर मोक्ष प्राप्त किया। 0c0 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् श्री नमिनाथ भगवान् श्री मुनिसुव्रत स्वामी के पश्चात् इक्कीसवें तीर्थंकर श्री नमिनाथ हुए। पूर्वमव . तीर्थकर नमिनाथ का जीव जब पश्चिम विदेह की कोशाम्बी नगरी में सिद्धार्थ राजा के भव में था, तब किसी निमित्त को पाकर इनको वैराग्य हो प्राया। उसी समय सुदर्शन मुनि का सहज समागम हुआ और उन्होंने उत्कृष्ट भाव से दीक्षित होकर उनके पास विशिष्ट रूप से तप-संयम की साधना की। फलस्वरूप तीर्थकर नाम-कर्म का बंध किया और अन्त समय में शुभ भाव के साथ काल कर वे अपराजित स्वर्ग में देव रूप से उत्पन्न हुए। जन्म यही सिद्धार्थ राजा का जीव स्वर्ग से निकलकर आश्विन शुक्ला पूर्णिमा के दिन अश्विनी नक्षत्र में मिथिला नगरी के महाराज विजय की भार्या महारानी वप्रा के गर्भ में उत्पन्न हुआ । मंगलकारी चौदह शुभ-स्वप्नों को देखकर माता प्रसन्न थीं। योग्य आहार, विहार और प्राचार से महारानी वप्रा ने गर्भ का पालन किया। पूर्ण समय होने पर माता वप्रा देवी ने श्रावण कृष्णा अष्टमी को अश्विनी नक्षत्र में कनकवर्ण वाले पुत्ररत्न को सुखपूर्वक जन्म दिया। नरेन्द्र और सुरेन्द्रों ने मंगल महोत्सव मनाया। नामकरण बारहवें दिन नामकरण करते समय महाराज विजय ने अपने बन्धुबान्धवों के बीच कहा-"जब यह बालक गर्भ में था उस समय शत्रुओं ने मिथिला नगरी को घेर लिया। माता वप्रा ने जब राजप्रासाद की छत पर जाकर उन शत्रुओं की ओर सौम्य दृष्टि से देखा तो शत्रु राजा का मन बदल गया और वे मेरे चरणों में आकर झुक गये । शत्रुओं के इस प्रकार नमन के कारण बालक का नाम नमिनाथ' रखना उचित प्रतीत होता है। १ (क) गम्भगय म्मि य भगवंते णमिया नीसेसरिउणो' तो णमि त्ति णाम कयं भगवनो। [प. म. पु. च., पृ. १७७] (ख) नगरं रोहिज्जति, देवी भट्ट संठिता दिट्ठा, पच्छा पणता रायायो मण्णे य पच्चंतिया रायाण पणता तेरण नमी [भाव. पू. पृ. ११, उत्तराखं] Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ ___ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [नामकरण उपस्थित लोगों ने सहर्ष राजा की बात का समर्थन किया और आपका नाम नमिनाथ रखा गया। विवाह और राज्य नमिनाथ के युवावस्था को प्राप्त होने पर महाराज विजय ने अनेक सुन्दर और योग्य, राजकन्याओं के साथ नमिनाथ का पाणिग्रहण करवाया और दो हजार पांच सौ वर्ष की अवस्था होने पर राजा ने बड़े ही सम्मान और समारोह के साथं कुमार नमि का राज्याभिषेक किया। नमिनाथ ने भी पांच हजार वर्ष तक राज्य का पालन कर जन-मन को जीतकर अपना बना लिया। बाद में भोग्य कर्मों को क्षीण हुए जानकर उन्होंने दीक्षा ग्रहण करने का विचार किया । मर्यादा के अनुसार लोकान्तिक देवों ने आकर प्रभु से तीर्थ-प्रवर्तन के लिए प्रार्थना की। दीक्षा प्रोर पारणा एक वर्ष तक निरन्तर दान देकर नमिनाथ ने राजकुमार सुप्रभ को राज्यभार सौंप दिया और स्वयं एक हजार राजकुमारों के साथ सहस्राम्र वन की ओर दीक्षार्थ निकल पड़े। वहां पहुंचकर छट्ठ भक्त की तपस्या से विधिवत् सम्पूर्ण पापों का परित्याग कर प्राषाढ़ कृष्णा नवमी को उन्होंने दीक्षा ग्रहण की। दूसरे दिन विहार कर प्रभु वीरपुर पधारे और वहां के महाराज 'दत्त' के यहां परमान से प्रथम पारणा ग्रहण किया। दान की महिमा बढ़ाने हेतु देवों ने पंचदिव्य बरसाये और महाराज दत्त की कीर्ति को फैला दिया। केवलज्ञान नौ मास तक विविध प्रकार की तपस्या करते हुए प्रभु छद्मस्थचर्या में विचरे और फिर उसी उद्यान में पाकर वोरसली वृक्ष के नीचे ध्यानावस्थित हो गये। वहां मगशिर कृष्णा एकादशो' को शुक्ल-ध्यान की प्रचण्ड अग्नि में सम्पूर्ण धातिकर्मों का क्षय किया और केवलज्ञान, केवलदर्शन की उपलब्धि कर प्रभु-भाव-अरिहन्त कहलाये। केवली होकर देवासुर-मानवों की विशाल सभा में आपने धर्म-देशना दी और चतुर्विध संघ की स्थापना कर प्रभ भाव-तीथंकर बन गये। व धर्म-परिवार भगवान् नमिनाथ के संघ में निम्न धर्म-परिवार थागण एवं गणधर -सत्रह गरण (१७) एवं सत्रह ही (१७) गगधर १ ""मावश्यक नियुक्ति और सत्तरिसय द्वार में मार्गशीर्ष शु. ११ है Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म-परिवार ] केवली मनः पर्यवज्ञानी अवधिज्ञानी चौदह पूर्वधारी वैक्रिय. लब्धिधारी वादी साधु साध्वी श्रावक श्राविका भगवान् श्री नमिनाथ - एक हजार छः सौ [१,६००] - एक हजार दो सौ सात [१,२०७] - एक हजार छः सौ [ १,६०० ] -चार सौ पचास [४५० ] -पांच हजार [ ५,००० ] - एक हजार [१,००० ] -बीस हजार [२०,००० ] - इकतालीस हजार [४१,०००] –एक लाख सत्तर हजार [१,७०,००० ] - तीन लाख अड़तालीस हजार [३,४८,००० ] इस प्रकार प्रभु के उपदेशामृत का पान कर लाखों लोगों ने भक्तिपूर्वक सम्यग्दर्शन का पालन कर आत्म-कल्यारण किया । ३०६ परिनिर्वाण नव मास कम ढाई हजार वर्ष तक केवली पर्याय से धर्मोपदेश करते हुए जब प्रभु ने मोक्षकाल समीप समझा तब एक हजार मुनियों के साथ सम्मेत..... शिखर पर जाकर अनशन प्रारम्भ किया । एक मास के अन्त में शुक्ल - ध्यान के अन्तिम चरण में योग निरोध करके वैशाख कृष्णा दशमी को अश्विनी नक्षत्र में सकल कर्मों का क्षय कर प्रभु सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए। श्रापकी पूर्ण श्रायु १० हजार वर्ष की थी । मुनिसुव्रत स्वामी के छः लाख वर्ष पश्चात् नमिनाथ मोक्ष पधारे। इनके समय में हरिषेण और शासनकाल में जय नाम के चक्रवर्ती राजा हुए । यहां इतना ध्यान रहे कि तीर्थंकर नमिनाथ और मिथिला के नमि राजर्षि एक नहीं, भिन्न-भिन्न हैं । नाम और नगर की एकरूपता से अधिकांश लेखक दोनों को एक समझ लेते हैं, पर वस्तुतः दोनों एक नहीं हैं । तीर्थंकर 'नमिनाथ' महाराज विजय के पुत्र और स्वयंबुद्ध हैं; जबकि नमिराज सुदर्शनपुर के युवराज युगबाहु के पुत्र और प्रत्येकबुद्ध हैं । नमराज दाह रोग से पीड़ित थे, दाह शान्ति के लिए चन्दन घिसती हुई रानियों के करों में एक-एक चूड़ी देख कर वे प्रतिबोषित हुए। राज्यपद से वे ऋषि बने, प्रत: राजर्षि कहलाये । 000 Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती हरिषेण इक्कीसवें तीर्थंकर भ० नमिनाथ के समय में, उनकी विद्यमानता में ही इस भरतक्षेत्र के दसवें चक्रवर्ती सम्राट् हरिषेण हुए । इसी जम्बूद्वीपस्थ भरतक्षेत्र के पांचाल प्रदेश के काम्पिल्यनगर में महाहरि नामक एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा न्याय-न - नीतिपूर्वक प्रजा का पालन करते थे । उनकी पट्ट महिषी का नाम महिषी था । अनेक वर्षों तक ऐहिक ऐश्वर्य एवं विविध भोगों का उपभोग करते हुए महारानी महिषी ने एक रात्रि में चौदह शुभ स्वप्न देखे । गर्भकाल पूर्ण होने पर महारानी ने चक्रवर्ती के सभी लक्षणों से युक्त एक ओजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया । माता-पिता ने अपने उस पुत्र का नाम हरिषेण रखा । राजकुमार हरिषेण का ऐश्वर्यपूर्ण राजसी ठाटबाट से लालन-पालन किया गया । समय पर उसे उच्चकोटि के कलाचार्यों से सभी प्रकार की विद्यानों एवं कलाओं का शिक्षरण दिलाया गया । भोगसमर्थ वय में युवराज हरिषेण का अनेक कुलीन राजकन्याओं के साथ पाणिग्रहण करवाया गया । ३२५ वर्ष तक राजकुमार हरिषेण कुमारावस्था में रहे । तदनन्तर महाराजा महाहरि ने अपने पुत्र हरिषेण का काम्पिल्य राज्य के राजसिंहासन पर महोत्सवपूर्वक राज्यभिषेक किया । ३२५ वर्षं तक महाराजा हरिषेण ने माण्डलिक राजा के रूप में अपनी प्रजा का न्याय-नीतिपूर्वक पालन किया । उस समय एक दिन महाराजा हरिषेण की आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ । चक्ररत्न के मार्गदर्शन में महाराजा हरिषेण ने दिग्विजय का अभियान किया । १५० वर्षों तक दिग्विजय करते-करते महाराज हरिषेण ने सम्पूर्ण भरतक्षेत्र के छहों खण्डों की साधना की और वे चक्रवर्ती सम्राट् के पद पर अभिषिक्त एवं चौदह रत्नों तथा नौ निधियों के स्वामी हुए । ८८५० वर्ष तक चक्रवर्ती पद पर रहते हुए उन्होंने सम्पूर्ण भरतक्षेत्र पर शासन किया । तदनन्तर उन्होंने षट्खण्ड के विशाल साम्राज्य और चक्रवर्ती की सभी ऋद्धियों को तृणवत् ठुकरा कर सभी प्रकार के सावद्य कार्यों का परित्याग करते हुए श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण की। मुनि हरिषेण ने ३५० वर्ष तक घोर तपश्चरण करते हुए विशुद्ध संयम की परिपालना की और आठों कर्मों का अन्त कर १० हजार वर्ष की आयु पूर्ण होने पर अनन्त, अक्षय, अव्याबाध, शाश्वत सुखधाम मोक्ष में पधारे । O Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवती जयसेन इक्वीसवें तीर्थंकर भ० नमिनाथ के परिनिर्वाण के दीर्घकाल पश्चात् उन्हीं के शासनकाल अर्थात् धर्मतीर्थ काल में इस भरतक्षेत्र के ग्यारहवें चक्रवर्ती सम्राट् जयसेन हुए। ___ आज से सुदीर्घ काल पूर्व मगध राज्य की राजधानी राजगृही नगरी में विजय नामक राजा राज्य करते थे। उनकी पट्टरानी का नाम वप्रा था । एक रात्रि में सुखप्रसुप्ता महारानी वप्रा ने १४ शुभ स्वप्न देखे । स्वप्नों को देखते ही महारानी जागृत हुई एवं हर्षविभोर हो उसी समय अपने पति महाराज विजय के शयनकक्ष में गई और उन्हें अपने चौदह स्वप्नों का पूरा विवरण सुनाया । महाराजा विजय ने प्रातःकाल स्वप्न पाठकों को बुलवाया और उन्हें महारानी द्वारा देखे गये स्वप्नों का वृत्तान्त सुनाते हुए उन स्वप्नों का फल पूछा । स्वप्नशास्त्र में उल्लिखित तथ्यों पर चिन्तन-मनन के पश्चात् स्वप्नपाठकों ने महाराज विजय से निवेदन किया-"राजराजेश्वर ! राजेश्वरी महारानी ने जो चौदह स्वप्न देखे हैं, उनकी स्वप्नशास्त्र में सर्वश्रेष्ठ स्वप्नों में गणना की गई है। ये स्वप्न महाशुभ फलप्रदायी हैं। ये स्वप्न यही पूर्व सूचना देते हैं कि महाराज्ञी महापराक्रमी चक्रवर्ती पुत्ररत्न को जन्म देंगी। स्वप्न फल सुन कर राजदम्पति, उनके परिजनों एवं पौरजनों के हर्ष का पारावार नहीं रहा । गर्भकाल पूर्ण होने पर महारानी वप्रा ने एक महातेजस्वी एवं नयनानन्दकारी पुत्ररत्न को जन्म दिया। महाराज विजय ने परिजनों, पौरजनों और अभ्यर्थियों को मुक्तहस्त हो सम्मान-दानादि से सन्तुष्ट किया। राजदम्पति ने अपने पुत्र का नाम जयसेन रखा । राजकुमार जयसेन का शैशवकाल में राजसी ठाट-बाट से लालन-पालन, किशोर वय में राजकुमारोचित शिक्षण-दीक्षण और भोगसमर्थ युवावस्था में अनेक अनिन्द्य सुन्दरी कुलीन राजकन्यानों के साथ पाणिग्रहण कराया गया। शास्त्र-शस्त्रास्त्रादि विद्यामों तथा कलाभों में निष्णात राजकुमार जयसेन ३०० वर्षों तक कुमारावस्था में रहे । तदनन्तर महाराज विजय अपने पुत्र जयसेन को राज्यसिंहासन पर अभिषिक्त कर प्रवजित हो गये । महाराजा बनने के पश्चात् जयसेन ने ३०. वर्ष तक माण्डलिक राजा के रूप में शासन किया। अपनी प्रायुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न होने के पश्चात महाराजा जयसेन ने १०० वर्ष तक दिग्विजय करते हुए सम्पूर्ण भरतक्षेत्र के छहों खण्डों पर अपनी विजयवैजयन्ती फहराई पौर वे चक्रवर्ती सम्राट् बने । चौदह रत्नों और ६ निषियों के स्वामी जयसेन Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [चक्रवर्ती जयसेन ने १६०० वर्ष तक चक्रवर्ती सम्राट के पद पर रहते हुए सम्पूर्ण भरतक्षेत्र पर शासन किया । चक्रवर्ती जयसेन ने २६०० वर्ष की अवस्था में षट्खण्ड के विशाल साम्राज्य, ९ निधियां और सम्पूर्ण ऐहिक प्रपंचों का परित्याग कर श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली। ४०० वर्ष के अपने संयमी साधु-जीवन में विशुद्ध श्रमणाचार का पालन और घोर तपश्चरण करते हुए उन्होंने पाठों को को मूलतः विनष्ट कर ३००० वर्ष की आयु पूर्ण होने पर, जहां जाने के पश्चात् संसार में कभी लौटना नहीं पड़ता, उस अनन्त शाश्वत सुखधाम मोक्ष में गमन किया। 000 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tarappupinM AA भगवान् श्री अरिष्टनेमि भगवान् नमिनाथ के पश्चात् बाईसवें तीर्थंकर श्री अरिष्टनेमि हुए। पूर्वभव भगवान अरिष्टनेमि के जीव ने शंख राजा के भव में तीर्थकर पद की योग्यता का सम्पादन किया। भारतवर्ष में हस्तिनापुर के भूपति श्रीषेण की भार्या महारानी श्रीमती ने शंख के समान उज्ज्वल वर्ण वाले पुत्ररत्न को जन्म दिया, प्रतः उसका नाम शंख कुमार रखा गया। किसी समय कुमार अपने मित्रों के संग क्रीडांगण में क्रीड़ा कर रहे थे कि महाराज श्रीषेण के पास लोगों ने पाकर दर्दभरी पुकार की-"राजन ! सीमा पर पल्लीपति समरकेतु ने सीमावासियों को लूट कर उन पर भयंकर मातंक जमा रखा है। यदि समय रहते सैनिक कार्यवाही नहीं की गई तो राज्य शत्रु के हाथ में चला जायेगा। पाप जैसे वीरों की छत्रछाया में राज्य का संरक्षण नहीं हुमा तो फिर हम अन्य से तो किसी प्रकार की प्राशा नहीं कर सकते।" यह पुकार सुनकर महाराजा श्रीषेण बड़े क्रुद्ध हुए और उन्होंने तत्काल पल्लोपति का सामना करने के लिये सेना सहित जाने की घोषणा कर दी। कुमार को जंब ज्ञात हुआ कि पिताजी युद्ध में जा रहे हैं तो वे महाराज के सम्मुख उपस्थित होकर बोले-"तात ! हमारे रहते माप एक साधारण पल्लीपति से लड़ने के लिये जायें, यह हमारे लिये शोभास्पद नहीं है । इस तरह हम युद्धकौशल भी कैसे सीख पायेंगे तथा हमारा उपयोग भी क्या होगा? मापकी प्राज्ञा भर की देर है, हमें पल्लीपति को जीतने में कुछ भी देर नहीं लगेगी।" कुमार के साहसपूर्ण वचन सुनकर महाराज ने प्रसन्न हो सैन्य सहित उन्हें युद्ध में जाने की अनुमति दे दी। पिता की माशा पाते ही कुमार सैन्य सजाकर चल पड़े और पल्लीपति के किले को अपने अधिकार में लेकर चारों ओर से पल्लीपति को घेर लिया और उसके द्वारा लूटे गये धन को उससे छीन कर उन प्रजाजनों को लौटा दिया जिनका कि धन लूटा गया था। कुमार ने कुशलता से उस लुटेरे पल्लीपति को पकड़ कर महाराज श्रीषेण के सम्मुख बन्दी के रूप में प्रस्तुत करने हेतु हस्तिनापुर की ओर प्रस्थान किया। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ जन्म मार्ग में जितारि की कन्या यशोमती का हरण कर ले जाने वाले विद्याधर मणिशेखर से कुमार ने युद्ध किया और उसे पराजित कर दिया । यशोमती ने कुमार की वीरता पर मुग्ध होकर सहर्ष उनका वरण किया । ३१४ जब राजकुमार शंख ने पल्लीपति को बन्दी के रूप में महाराज के सम्मुख प्रस्तुत किया तो वे बड़े प्रसन्न हुए और राजकुमार को सुयोग्य समझ उसे राज्य : पद पर अभिषिक्त कर स्वयं दीक्षित हो गये । श्रीषेण मुनि ने निर्मल भाव से साधना करते हुए घाति- कर्मों को क्षय कर केवलज्ञान की प्राप्ति की । एक बार महाराज शंख अपने परिवार सहित मुनि श्री की सेवा में वन्दना करने गये और उनकी देशना सुनकर बोले- "भगवन् ! मेरा यशोमती पर इतना स्नेह क्यों है, जिससे कि मैं चाहकर भी संयम नहीं ले सकता ?" केवली मुनि ने पूर्वजन्म का परिचय देते हुए कहा - "शंख ! तुम जब धनकुमार के भव में थे तब यह तुम्हारी पत्नी थी। फिर सौधर्म देवलोक में भी तुम दोनों पति-पत्नी के रूप में रहे । चौथे भव में महेन्द्र देवलोक में तुम दोनों मित्र थे । फिर पांचवें अपराजित के भव में भी तुम दोनों पति-पत्नी के रूप में थे । छट्ठे जन्म में प्रारण देवलोक में भी तुम दोनों देव हुए । यह सातवां जन्म है, जहां तुम पति-पत्नी के रूप में हो । पूर्व भवों के दीर्घकालीन सम्बन्ध के कारण तुम्हारा इसके साथ प्रगाढ़ प्रेम चल रहा है । आगे भी एक देव का भव पूर्णकर तुम बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के रूप से जन्म लोगे ।" 1 श्रीषेरण केवली के पास पूर्वभव की बात सुनकर महाराज शंख के मन में वैराग्य जागृत हुआ और उन्होंने अपने पुत्र को राज्य सौंपकर बन्धु-बान्धवों के साथ प्रव्रज्या ग्रहरण कर ली । तप-संयम के साथ अर्हत्, सिद्ध, साधु की भक्ति में उत्कृष्ट अभिरुचि और उत्कट भावना के साथ निरत रहने के कारण उन्होंने तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया एवं समाधिभाव से प्राय पूर्णकर वे अपराजित विमान में अहमिन्द्र रूप से अनुत्तर वैमानिक देव हुए। जन्म महाराज शंख का जीव अपराजित विमान से अहमिन्द्र की पूर्ण स्थिति भोगकर कार्तिक कृष्णा १२ को चित्रा नक्षत्र के योग में च्युत हुआ और महाराज समुद्र विजय की धर्मशीला महारानी शिवा देवी की कुक्षि में गर्भरूप से उत्पन्न हुआ । शिवादेवी १४ शुभ स्वप्नों के दर्शन से परम भाग्यशाली पुत्र-लाभ की बात जानकर बहुत प्रसन्न हुई और उचित आहार-विहार से गर्भकाल को पूर्ण Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शारीरिक स्थिति और नामकरण] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ३१५ कर श्रावण शुक्ला पंचमी के दिन चित्रा नक्षत्र के योग में उसने सुखपूर्वक पुत्ररत्न को जन्म दिया। भाग्यशाली पुत्र के पुण्य-प्रभाव से देव-देवेन्द्रों ने जन्म-महोत्सव किया। महाराज समुद्र विजय ने भी प्रमोद से याचकों को मुक्तहस्त से दान देकर संतुष्ट किया। नगर में घर-घर मंगल-महोत्सव मनाया गया। शारीरिक स्थिति पोर नामकरण अरिष्टनेमि सुन्दर लक्षण और उत्तम स्वर से युक्त थे। वे एक हजार पाठ शुभ लक्षणों के धारक, गौतम गोत्रीय और शरीर से श्याम कान्ति वाले थे। उनकी मुखाकृति मनोहर थी। उनका शारीरिक संहनन वन सा दढ़, संस्थान-प्राकार समचतुरस्र था और उदर मछली जैसा था' । उनका बल देव एवं देवपतियों से भी बढ़कर था। बारहवें दिन महाराज समुद्र विजय ने स्वजनों एवं मित्रजनों को निमन्त्रित कर प्रीतिभोज दिया और नामकरण करते हुए बोले-“बालक के गर्भकाल में हम सब प्रकार के अरिष्टों से बचे तथा माता ने अरिष्ट रत्नमय चक्र नेमि का दर्शन किया इसलिए इस बालक का नाम अरिष्टनेमि रखा जाता है। अरिष्टनेमि के पिता महाराज समुद्र विजय हरिवंशीय प्रतापी राजा थे। अतः यहां पर उनके वंश परिचय में हरिवंश की उत्पत्ति का परिचय प्रावश्यक समझ कर दिया जा रहा है : हरिवंश को उत्पत्ति दशवें तीर्थकर भगवान् शीतलनाथ के तीर्थ में वत्स देश की कौशाम्बी नगरी में सुमुह नाम का राजा था। उसने वीरक मामक एक व्यक्ति की वनमाला नाम की परम सुन्दरी स्त्री को प्रच्छन्न रूप से अपने पास रख लिया । पत्नी के विरह में विलाप करता हुआ वीरक पर्ख विक्षिप्त सा रहने लगा और कालान्तर में वह बालतपस्वी हो गया। उधर वनमाला कौशाम्बीपति सुमह की परमप्रिया होकर विविध मानवी भोगों का उपभोग करती हुई रहने लगी। १ वज्जरिसह संघयणो समचउरंसो झसोयरो। [उ. सू., म. २२] २ मरिष्टं प्रप्रशस्तं तदनेन नामित, नेमि सामान्यं, विसेसो रिट्ठरयणामई नेमी, उप्पयमारणी सुविणे पंच्छति । [भाव. बूणि, उत्त. पृ. ११] ३ सीयलजिरणस्स तित्थे, सुमुहो नामेण आसि महिपालो । कोसम्बीनयरीए, तत्थेव य बीरय कुविन्दो ॥ [पउम. प. उ. २१ गा. २] Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [हरिवंश की उत्पत्ति ___ इस प्रकार सुख से जीवन बिताते हुए एक दिन राजा सुमुह अपनी प्रिया वनमाला के साथ वन विहार करने गया और वहां वीरक को बड़ी दयनीय दशा में देखकर अपने कुकृत्य के लिए पश्चात्ताप करने लगा-"मोह ! मैंने कितना बड़ा दुष्कृत्य किया है, मेरे ही अन्याय और दोष के कारण यह वीरक इस प्रवस्था को प्राप्त होकर तपस्वी बना है।" ' वनमाला भी इसी प्रकार पश्चात्ताप करने लगी । इस तरह पश्चात्ताप करते हुई दोनों ने भद्र एवं सरल परिणामों के कारण मनुष्य आयु का बन्ध किया। सहसा बिजली गिरने से दोनों का वहीं प्राणान्त हो गया और वे हरिवास नामकी भोगभूमि में युगल रूप में उत्पन्न हुए।। कालान्तर में वीरक भी मर कर सौधर्म कल्प में किल्विषी देव हुआ और उसने प्रवधिज्ञान से देखा कि उसका शत्र हरि अपनी प्रिया हरिणी के साथ भोगभूमि में अनपवर्त्य आयु से उत्पन्न होकर भोगोपभोग का सुख भोग रहा है। वह कुपित होकर सोचने लगा--"क्या इस दुष्ट को निष्ठुरतापूर्वक कुचल कर चूर्ण कर दूं? मेरा अपकार करके भी ये भोगभूमि में उत्पन्न हुए हैं अतः इन्हें यों तो नहीं मार सकता। पर इन्हें ऐसे स्थान पर पहुंचाया जाय जहां तीव्र बन्ध योग्य भोग, भोग कर ये दुःख परम्परा में फंस जायं।" उसने ज्ञान से देखा व सोचा-"चम्पा का नरेश अभी-अभी कालधर्म को प्राप्त हुआ है अतः इन्हें वहां पहुंचा दूं क्योंकि एक दिन का भी आसक्तिपूर्वक किया गया राज्य-भोग दुर्गति का कारण होता है, तो फिर अधिक दिन की तो बात ही क्या है ?" ऐसा विचारकर देव ने करोड़ पूर्व की प्राय वाले हरि-युगल को चित्तरस कल्पवृक्ष सहित उठाकर चम्पा नगरी के उद्यान में पहुंचा दिया और नागरिकजनों को आकाशवाणी से कहने लगा-"तुम लोग राजा की खोज में चिन्तित क्यों हो, मैं तुम्हारे लिए करुणा कर यह राजा लाया हूं। तुम लोग इनका उचित आहार-विहार से पोषण करो, मांस-रस-भावित फल से इनका प्रेमसम्पादन करते रहना।" ऐसा कहकर देव ने हरि-युगल की करोड़ पूर्व की आयु का एक लाख वर्ष में अपवर्तन किया' और अवगाहना (शरीर की ऊंचाई) भी घटा कर १०० १ पुब्वकोडीसेसाउएसु तेसि वेरं सुमरिऊरण वाससयसहस्सं विधारेऊण चम्पाए रायहाणीए इक्खागम्मि चन्दकित्तिपत्थिवे अपुत्त वोच्छिण्णे नागरयाणं रायकंखियाणं हरिवरिसामो, तं मिहुणं साहरइ""कुरणति य से दिव्वप्पभावेण धणुसयं उच्चत्त । [वसुदेवहिंडी, खं. १, भाग २. पृ. ३५७] Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७ हरिवंश की परमरा] भगवान् श्री अरिष्टनेमि धनुष की कर दी। देव के कथनानुसार नागरिकों ने हरि का राज्याभिषेक किया और बड़े सम्मान से उसका पोषण करते रहे। तमोगुणी पाहार और भोगासक्ति के कारण हरि और हरिणी दोनों मर कर नरक गति के अधिकारी बने । यह एक आश्चर्यजनक घटना हुई क्योंकि युगलिकों का नरकगमन नहीं होता। इसी हरि और हरिणी के युगल से हरिवंश की उत्पत्ति हुई। हरिवंश की उत्पत्ति का समय तीर्थंकर शीतलनाथ के निर्वाण पश्चात् और भगवान् श्रेयांसनाथ के पूर्व माना गया है।' हरिवंश में अनेक शक्तिशाली, प्रतापी और धर्मात्मा राजा हुए, जिनमें से अनेकों ने कई नगर बसाये । कुछ नगर आज तक भी उन प्रतापी नराधिपतियों के नाम पर विख्यात हैं। हरिवंश को परम्परा हरिवंश के आदिपुरुष हरि के पश्चात् इस वंश में जो पैत्रिक अधिकार के प्राधार पर उत्तराधिकारी राजा हुए उनके कुछ नाम क्रमश: इस प्रकार हैं: (१) पृथ्वीपति (हरि का पुत्र) (२) महागिरि (३) हिमगिरि (४) वसुगिरि (५) नरगिरि (६) इन्द्रगिरि इस तरह इस हरिवंश में असंख्य राजा हुए । बीसवें तीर्थंकर भगवान् मुनिसुव्रत भी इसी प्रशस्त हरिवंश में हुए। सामान्य रूप में युगलिक जीव अनपवर्तनीय प्रायु वाले माने गये हैं पर इनकी प्रायु का अपवर्तन हुआ क्योंकि बन्ध ऐसा ही था । वास्तव में जितना प्रायु बन्धा है उसमें घट बढ़ नहीं होती फिर भी जो व्यवहार में यह जानते हैं कि भोगभूमि का प्रायु प्रसंख्य वर्ष का ही होता है, वे करोड़ पूर्व की प्रायु के पहले मरण जानकर यही समझेगे कि इसकी मायु घट गयी है । इस दृष्टि से व्यवहार में इसे अपवर्तन कहा जाता है। –सम्पादक १ समइक्कते सीयल जिणम्मि तहणागए य सेयंसे । एत्यंतरम्मि जानो हरिवंसो जह तहा सुरणह ।। चिउ. म. पु. च., पृष्ठ १८०] Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ उपरिचर वसु माधव इन्द्रगिरि का पुत्र दक्ष प्रजापति हुआ । इस दक्ष प्रजापति की रानी का नाम इला और पुत्र का नाम इल था । किसी कारणवश महारानी इला अपने पति दक्ष से रूठकर अपने पुत्र इल को साथ ले दक्ष के राज्य से बाहर चली गई और उसने ताम्रलिप्ति प्रदेश में इलावर्द्धन नामक नगर बसाया और इल ने माहेश्वरी नगरी बसाई । ३१८ राजा इल के पश्चात् इसका पुत्र पुलिन राज्य - सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। पुलिन ने एकदा वन में एक स्थान पर देखा कि एक हरिणी कुंडी बनाकर कुण्डलाकार मुद्रा में एक सिंह का सामना कर रही है। इसे उस क्षेत्र का प्रभाव समझकर पुलिन ने उस स्थान पर 'कु' डिगी' नगरी बसाई । पुलिन के पश्चात् 'वरिम' नामक राजा हुआ, जिसने इन्द्रपुर नगर बसाया । इसी वंश के राजा 'संजती' ने वरणवासी अथवा वारणवासी नाम की एक नगरी बसाई । इसी राजवंश में कोल्लयर नगर का अधिपति 'कुरिणम' नाम का एक प्रसिद्ध राजा हुआ फिर इसका पुत्र महेन्द्र दत्त राजा हुआ । महेन्द्र दत्त के अरिष्टनेमि और मत्स्य नामक दो पुत्र बड़े प्रतापी राजा हुए । अरिष्टनेमि ने गजपुर नामक नगर बसाया और मत्स्य ने भंद्दिलपुर नगर । अरिष्टनेमि और मत्स्य के, प्रत्येक के सौ-सौ पुत्र हुए । । इसी हरिवंश के 'अयधरणू' नामक एक राजा ने सोज्झ नामक नगर बसाया । इसके अनन्तर 'मूल' नामक राजा हुआ। राजा मूल के पश्चात् 'विशाल' नामक नृप हुआ जिसने 'मिथिला' नगरी को बसाया । राजा विशाल के पश्चात् क्रमशः 'हरिषेण', 'नहषेरण', 'संख', 'भद्र' और 'अभिचन्द्र' नाम के बहुत से राजा हुए । 'अभिचन्द्र' का पुत्र 'वसु' एक बड़ा प्रसिद्ध राजा हुआ जो आगे चलकर उपरिचर वसु ( श्राकाश में प्रधर सिंहासन पर बैठने वाला) के नाम से प्रसिद्ध हुआ । उपरिचर वसु यह वसु हरिवंश का एक महान् प्रतापी राजा था । उसने बाल्यावस्था में क्षीरकदम्बक नामक उपाध्याय के पास अध्ययन किया । महर्षि नारद एवं प्राचार्यपुत्र पर्वत भी वसु के सहपाठी थे । ये तीनों शिष्य जिस समय उपाध्याय क्षीरकदम्बक के पास अध्ययन कर रहे थे, उस समय किसी एक अतिशय - ज्ञानी ने अपने साथी साधु से कहा कि इन तीनों विद्यार्थियों में से एक तो राजा बनेगा दूसरा स्वर्ग का अधिकारी होगा और तीसरा नरक में जायगा ।" 1 १ तत्थेगो प्रइसयनाणी, तेण इयरो भरिणश्रो- एए तिष्णि जरणा, एएसि एक्को राजा भविस्सइ, एगो नरगगामि, एगो देवलोयगामि त्ति [ वसुदेव हिण्डी, प्र० खण्ड, पृ० १८६ - ६०] Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपरिचर वसु] भगव अरिष्टनेमि ३१६ क्षीरकदम्बक ने किसी तरह यह बात सुनली मोर मन में विचार किया कि वसु तो राजा बनेगा पर नारद और पर्वत, इन दोनों में से नरक में कौन जायगा, इसका निर्णय करना आवश्यक है। अपने पुत्र पर्वत और नारद की परीक्षा करने के लिये उपाध्याय ने एक कृत्रिम बकरा बनाया और उसमें लाक्षारस भर दिया । उपाध्याय द्वारा निर्मित वह बकरा वस्तुतः सजीव बकरे के समान प्रतीत होता था। उपाध्याय ने नारद को बलाकर कहा-"वत्स ! मैंने इस बकरे को मन्त्र-बल से स्तंभित कर दिया है । आज बहला अष्टमी है अतः संध्या के समय, जहां कोई नहीं देखता हो, ऐसे स्थान पर इसे मार कर शीघ्र लौट आना।" । अपने गुरु के आदेशानुसार नारद संध्या के समय उस बकरे को लेकर निर्जन स्थान में गया और विचार किया कि यहाँ तो तारे और नक्षत्र देख रहे हैं । वह और भी घने जंगल के अन्दर चला गया और वहां पर भी उसने सोचा कि यहां पर भी वनस्पतियाँ देख रही हैं जो कि सचेतन हैं । उस घने जंगल के उस निर्जन स्थान से भी नारद बकरे को लिये हए आगे बढ़ा और एक देवस्थान में पहुंचा। पर वहाँ पर भी उसने मन में विचार किया कि वहां पर भी देव देख रहे हैं। नारद असमंजस में पड़ गया। उसके मन में विचार प्राया-"गरुआज्ञा यह है कि जहां कोई नहीं देखता हो, उस स्थान पर इसका वध करना । पर ऐसा तो कहीं कोई भी स्थान नहीं है, जहां कि कोई न कोई नहीं देखता हो । ऐसी दशा में यह बकरा निश्चित रूप से अवध्य है।" अन्ततोगत्वा नारद उस बकरे को बिना मारे ही गुरु के पास लौट आया और उसने गुरु के समक्ष अपने सारे विचार प्रस्तुत किये। गुरु ने साधुवाद के साथ कहा--"नारद ! तुमने बिल्कुल ठीक तरह से सोचा है । तुम जानो, इस सम्बन्ध में किसी से कुछ न कहना।'' १ (क) वसुदेव हिण्डी, पृष्ठ १६० (ख) प्राचार्य हेमचन्द्र ने उपाध्याय द्वारा तीनों शिष्यों को पृथक्-पृथक् एक-एक कृत्रिम कुक्कुट देने का उल्लेख किया है । यथा :---- समयं गुरुरस्माकमेकैक पिष्टकुक्कुटम् । उवा चामी तत्र वध्या, यत्र कोऽपि न पश्यति ।। त्रिषष्टि श पु. च., पर्व ७, मगं २, ला० ३६१ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [उपरिचर बसु नारद के चले जाने के अनन्तर उपाध्याय ने अपने पुत्र पर्वत को बुलाया और उसे भी वही कृत्रिम बकरा सम्हलाते हुए उसी प्रकार का आदेश दिया, जैसा कि नारद को दिया था। बकरे को लेकर पर्वत एक जन-शन्य गली में पहुँचा। उसने वहां खड़े होकर चारों ओर देखा कि कहीं कोई उसे देख तो नहीं रहा है। जब वह आश्वस्त हो गया कि उसे उस स्थान पर कोई मनुष्य नहीं देख रहा है, तो उसने तत्काल उस बकरे को काट डाला। कृत्रिम बकरे की गर्दन कटते ही उसमें भरे लाक्षारस से पर्वत के वस्त्र लाल हो गये। पर्वत ने लाक्षारस को लहू समझकर वस्त्रों सहित ही स्नान किया और घर पहुंचकर यथावत् सारा विवरण अपने पिता के समक्ष कह सुनाया। उपाध्याय क्षीरकदम्बक को अपने पुत्र की बात सुनकर अपार दुःख हुआ। उन्होंने ऋद्ध-स्वर में कहा-"ओ पापी ! तूने यह क्या कर डाला? क्या तू यह नहीं जानता कि सम्पूर्ण ज्योतिमण्डल के देव, वनस्पतियां और अदृश्य रूप से विचरण करने वाले गुह्यक सब के कार्यों को प्रतिक्षण देखते रहते हैं ? इन सबके अतिरिक्त तू स्वयं भी तो देख रहा था। इस पर भी तूने बकरे को मार डाला।त निश्चित रूप से नरक में जायगा । हट जा मेरे दष्टिपथ से।"" कालान्तर में नारद अपना अध्ययन समाप्त होने पर गुरु की पूजा कर अपने निवास स्थान को लौट गया । वसु ने गुरुकुल से विदाई लेते समय जब अपने गुरु से गुरुदक्षिणा के लिये आग्रह किया तो उपाध्याय क्षीरकदम्बक ने कहा-"वत्स ! राजा बन जाने पर तुम अपने समवयस्क पर्वत के प्रति स्नेह रखना । बस, यही मेरी गुरुदक्षिणा है । मैं तुम्हारा महन्त हूँ।" कुछ समय पश्चात् वसु चेदि देश का राजा बना। एक बार मृगया के लिये जंगल में घूमते हुए वसु ने एक मृग को निशाना बनाकर तीर चलाया, पर मग एवं तीर के बीच में आकाश के समान स्वच्छ स्फटिक पत्थर था अतः बाण राह में ही उससे टकरा कर गिर गया। पास में जाकर वसु ने जब स्फटिक पत्थर को देखा तो उसके मन में विचार आया कि यह स्फटिक पत्थर एक राजा के लिये बड़ी महत्त्वपूर्ण वस्तु है । वसु ने पास ही के वृक्षों की टहनियां १ तेण भरिणप्रो-पावकम्म ! जोइसियदेवा वणप्फतीमो य पच्छण्णचारियगुज्झया पस्संति जणचरियं, सयं च पस्समाणो 'न पस्सामि' ति विवाडेसि छगलगं, गतो सि नरगं, अवसर ति। [वसुदेव हिण्डी, प्र. खं., पृष्ठ १९०] Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२१ उपरिचर वसु] भगवान् श्री अरिष्टनेमि काटकर उनसे उस स्फटिक पत्थर को आच्छादित कर दिया और अपने नगर में लौटने पर प्रधानामात्य को स्फटिक पत्थर के सम्बन्ध में अवगत किया। प्रधानामात्य ने वह स्फटिक पत्थर राजप्रासाद में मंगवा लिया और उस पर वसु का राजसिंहासन रख दिया। कहीं इस रहस्य का भण्डाफोड़ नहीं हो जाय, इस आशंका से स्फटिक पत्थर लाने वाले सब लोगों को उनकी स्त्रियों सहित प्रधानामात्य ने मरवा डाला । - स्फटिकशिला पर रखे राजसिंहासन पर बैठने के कारण वसु की ख्याति दिग्दिगन्त में फैल गई कि न्याय एवं धर्मपरायण होने के कारण वसू का राजसिंहासन प्राकाश में प्रधर रहता है और इस प्रकार वह उपरिचर वसु के नाम से लोक में प्रख्यात हो गया। प्राचार्य क्षीरकदम्बक की मृत्यु के पश्चात् पर्वत उपाध्याय बना और अध्यापन का कार्य करने लगा। पर्वत अपने शिष्यों को 'अजैर्यष्टव्यं' इस वेदवाक्य का यह अर्थ बताने लगा कि 'बकरों से यज्ञ करना चाहिए।' __ नारद को जब इस अनर्थ की सूचना ग्लिी तो वह पर्वत के पास पहुंचा। पर्वत ने इस गर्व से कि वह राजा के द्वारा पूजनीय है, जन-समुदाय के समक्ष कहा--"प्रजा अर्थात् बकरों से यज्ञ करना चाहिए।' नारद ने पर्वत को अच्छी तरह समझाया कि वह परम्परागत पवित्र वेद-वाक्य के अर्थ का अनर्थकारी प्रलाप न करे । अज का अर्थ ऋषि-महर्षि और श्रुतियां सदा से त्रैवार्षिक यव-बीही बताती पा रही हैं न कि छाग । नारद द्वारा बार-बारसमझाने-बुझाने पर भी पर्वत ने अपना दुराग्रह नहीं छोड़ा। ज्यों-ज्यों विवाद बढ़ता गया, त्यों-त्यों पर्वत का दुराग्रह भी बढ़ता गया। अन्त में क्रुद्ध हो पर्वत ने अपने असत्य-पक्ष पर अड़े रहकर एकत्रित विद्वानों के समक्ष यह कह दिया-"नारद ! मेरा पक्ष सत्य है। यदि मेरी बात मिथ्या साबित हो जाय तो विद्वानों के समभ मेरी जिह्वा काट डाली जाय अन्यथा तुम्हारी जिह्वा काट ली जाय ।" १ कयाई च महाजणमझे पव्वयमो 'रायपूजिनो महं' ति गविभो पण्णवेति-अजा छगला तेहिं य जइयग्वं ति। [वसुदेव हिण्डी, प्रथम खं.. पृ० १९०-१९१] २ ततो तेसि समच्छरे विवादे वट्टमाणे पव्वयमो भणतिजा महं वितहवादी ततो मे जिहवेदो विउसाणं पुरमो, तव वा । [वसुदेव हिण्डी प्र. लं. पृ० १९१] Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [उपरिचर वसु नारद ने कहा-"पर्वत ! दुराग्रह का अवलम्बन लेकर इस प्रकार की प्रतिज्ञा न करो । मैं तो तुमसे बार-बार यही कहता हूं कि इस प्रकार का अनर्थ मौर अधर्म मत करो । हमारे पूज्यपाद उपाध्याय ने हमें अज का अर्थ नहीं उगने वाला धान्य बताया है । यह तुम भी अपने मन में भलीभांति जानते हो । केवल दुराग्रहवश तुम जो यह अधर्मपर्ण अनर्थ करने जा रहे हो, यह तुम्हारे लिये भी अकल्याणकर है और लोकों के लिये भी।" इस पर पर्वत ने कहा-"इस वेदवाक्य का अर्थ मैं भी अपनी बुद्धि से नहीं बता रहा हूं। आखिर मैं भी उपाध्याय का पुत्र हूं । पिताजी ने मुझे इसी प्रकार का अर्थ सिखाया है।" नारद ने कहा- “पर्वत ! हमारे स्वर्गीय गुरु के हम दोनों के अतिरिक्त तीसरे शिष्य हरिवंशोत्पन्न महाराज उपरिचर वसू भी हैं । अतः 'अजैर्यष्टव्यं' का अर्थ उनसे पूछा जाय और वे जो इसका अर्थ बताएं, उसे प्रामाणिक और सत्य माना जाय ।" पर्वत ने नारद के प्रस्ताव को स्वीकार किया और अपनी माता के समक्ष नारद के साथ हुए अपने विवाद की सारी बात रखी। माता ने पर्वत से कहा-"पुत्र ! तूने बहुत बुरा किया। तेरे पिता द्वारा, नारद सदा ही सम्यक् प्रकार से विद्या ग्रहण करने वाला और ग्रहण की हुई विद्या को हृदयंगम करने वाला माना जाता था।" इस पर पर्वत ने अपनी माता से कहा-"मां ! ऐसा न कहो । मैंने अच्छी तरह सूत्रों के अर्थ को समझा है । तुम देखना, मैं वसु के निर्णय से नारद को हराकर उसको जिह्वा कटवा दूंगा।" पर्वत की माता को अपने पुत्र की बात पर विश्वास नहीं हमा । वह महाराज वसु के पास गई और वसु के समक्ष 'अजैर्यष्टव्यं' इस वेदवाक्य को लेकर नारद और पर्वत के बीच जो विवाद खड़ा हग्रा, उसके सम्बन्ध में दोनों के पक्ष को प्रस्तुत करने के पश्चात् वसु से उसने पूछा-"तुम्हारे प्राचार्य से तुम लोगों ने 'प्रजैर्यष्टव्यम्' इस वेदवाक्य का क्या अर्थ सीखा था?" उत्तर में वसु ने कहा-"मात ! इस पद का अर्थ जैसा कि नारद बताता है, वही हम लोगों ने हमारे पूज्यपाद प्राचार्य से अवधारित किया है।" ___ वसु का उत्तर सुन कर पर्वत की माता शोकसागर में निमग्न हो गई। उसने वसु से कहा-"वत्स ! यदि तुमने इस प्रकार का निर्णय दिया तो मेरे पुत्र पवंत का सर्वनाश सुनिश्चित है । पुत्र-वियोग में मैं भी अपने प्राणों को धारण Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३ उपरिचर वसु] भगवान् श्री अरिष्टनेमि नहीं कर सकूँगी । अतः अपने पुत्र की मृत्यु से पहले ही मैं तुम्हारे सम्मुख अभी इसी समय अपने प्राणों का परित्याग किये देती हूं।" यह कह कर पर्वत की माता ने तत्काल अपनी जिह्वा अपने हाथ से पकड़ ली। मरणोद्यता उपाध्यायिनी को देखकर वसु नृपति अवाक रह गये । उसी समय पाखण्ड-पन्थ के उपासक कुछ लोगों ने राजा वसु से कहा- "देव ! उपाध्यायिनी के वचनों को सत्य समझिये । यदि कहीं ऐसा अनर्थ हो गया तो हम इस पाप से तत्क्षण ही नष्ट हो जायेंगे।" . अपनी उपाध्यायिनी द्वारा की जाने वाली आत्महत्या के निवारणार्थ और पर्वत के समर्थक पाखन्डपन्थानुयायी लोगों के कहने में आकर अवश हो वसु ने कहा-"मां ! ऐसा न करो। मैं पर्वत के पक्ष का समर्थन करूंगा।" अपना कार्य सिद्ध हुआ देख आचार्य क्षीरकदम्बक की विधवा पत्नी अपने घर को लौट गई। दूसरे दिन जन-समुदाय दो दलों में विभक्त हो गया । कई नारद की प्रशंसा करने लगे तो कई पर्वत की । विशाल जनसमूह के साथ नारद और पर्वत महाराज उपरिचर वसु की राजसभा में पहुंचे । उपरिचर वसु अदृश्य तुल्य स्फटिक-प्रस्तर-निर्मित विशाल स्तम्भ पर रखे अपने राजसिंहासन पर विराजमान थे अतः यही प्रतीत हो रहा था कि वे बिना किसी प्रकार के सहारे के आकाश में अधर सिंहासन पर विराजमान हैं। नारद और पर्वत ने क्रमशः अपना-अपना पक्ष महाराज उपरिचर वसू के समक्ष रखा और उन्हें निर्णय देने का अनुरोध किया कि दोनों पक्षों में से किसका पक्ष सत्य है ? सत्य-पक्ष को जानते हुए भी अपनी आचार्य-पत्नी, पर्वत की माता को दिये गये आश्वासन के कारण असत्य-पक्ष का समर्थन करते हुए महाराज वसु ने निर्णय दिया-"अज अर्थात् छाग-बकरे से यज्ञ करना चाहिये।" असत्य-पक्ष का जान-बूझ कर समर्थन करने के कारण उपरिचर वसु का सिंहासन उसी समय सत्य के समर्थक देवताओं द्वारा ठुकराया जाकर पृथ्वी पर गिरा दिया गया और इसी तरह 'उपरिचर' वसु ‘स्थलचर' वसु बन गया। तत्काल वसु के समक्ष प्रामाणिक धर्म-ग्रन्थ रखे गये और उससे कहा गया कि उन्हें देखकर पुनः वह सही निर्णय दे । पर फिर भी वसु ने मूढतावश यही कहा-"जैसा पर्वत कहता है, वही इसका सही अर्थ है।" Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [उपरिचर वसु अदृष्ट शक्तियों द्वारा वसु तत्काल घोर रसातल में ढकेल दिया गया । उपस्थित जनसमुदाय पर्वत को धिक्कारने लगा कि इसने वसु का सर्वनाश करवा डाला । अधर्मपूर्ण असत्य-पक्ष का समर्थन करने के कारण राजा वसु नरक के दारुण दुखों का अधिकारी बना।' तत्पश्चात् नारद वहां से चले गये । पर्वत ने तत्कालीन राजा सगर के शत्रु महाकाल नामक देव की सहायता से यज्ञों में पशुबलि का सूत्रपात किया । महाभारत में वसु का उपाख्यान ___ महाभारत के शान्तिपर्व में भी वसुदेव हिण्डी से प्रायः काफी अंशों में मिलता-जुलता महाराज वसू का उपाख्यान दिया हना है । चेदिराज वसु द्वारा असत्य-पक्ष का समर्थन करने के कारण वैदिकी श्रुति 'अजैर्यष्टव्यम्' में दिये गये 'प्रज' शब्द का अर्थ त्रैवार्षिक यवों के स्थान पर छाग अर्थात बकरे प्रतिपादित किया जाकर यज्ञों में पशुबलि का सूत्रपात्र हा, इस तथ्य को जैन और वैष्णव दोनों परम्पराओं के प्राचीन और सर्वमान्य ग्रन्थ एकमत से स्वीकार करते हैं । प्राचीनकाल के ऋषि, महषि, राजा एवं सम्राट अज अर्थात वार्षिक यव, घृत एवं वन्य औषधियों से यज्ञ करते थे । उस समय के यज्ञों में पश-हिंसा का कोई स्थान ही नहीं था और यज्ञों में पशुबलि को घोरातिघोर पापपूर्ण, गहित एवं निन्दनीय दुष्कृत्य समझा जाता था, यह महाभारत में उल्लिखित तुलाधार-उपाख्यान, १ ततो उवरिचरो वसुराया, सोतीमतीए पचय-नारद विवाते 'प्रजेहि प्रबीजेहिं छगलेहि वा जइयग्वं' ति पसुवषघायमलियबयण साक्खिकब्जे देवया णिपाइयो प्ररि गति गमो । [वसुदेव हिण्डी, द्वि. खं., पृ० ३५७] २ न भूतानामहिंसाया, ज्यायान् धर्मोऽस्ति कश्चन । यस्मान्नोद्विजते भूतं, जातु किंचित् कथंचन ।। सोऽभयं सर्वभूतेभ्यः, सम्प्राप्नोति महामुने ।।३०।। [शान्ति पर्व, प्र० २६२] यदेव सुकृतं हव्यं, तेन तुष्यन्ति देवताः । नमस्कारेण हविषा, स्वाध्यायरोषधस्तथा ॥८॥ [शा० ५०, प्र० २६३] पूजा स्याद् देवतानां हि, यथा शास्त्रनिदर्शनम् ।....।। [वही] सतां वानुवर्तन्ते, यजन्ते चाविहिंसया । वनस्पतीनौषधीक्ष, फलं मूलं च ते विदुः ॥२६॥ [बही] Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महा० मे वम का उपा भगवान श्री अरिष्टनम विचरून-उपाख्यान एव उपरिचर गजा वस के उपाख्यानो से स्पष्टरूपेण सिद्ध होता है। यज्ञ में पशुबलि का वचनमात्र से अनमोदन करने के कारण उपरिचर वसू को रसातल के अन्धकारपूर्गा गहरे गर्त में गिरना पड़ा, इस सन्दर्भ में महाभारत में उल्लिखित वसु का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है "राजा वस् को घोर तपश्चर्या में निरत देखकर इन्द्र को शका हई कि यदि यह इसी तरह तपश्चर्या करते रहे तो एक न एक दिन उसका इन्द्र-पद उससे छीन लेंगे। इस आशंका से विह्वल हो इन्द्र तपस्वी वसु के पास पाया और उसे तप से विरत करने के लिये उसने समद्ध चेदि का विशाल राज्य देने के साथसाथ स्फटिक रत्नमय गगनबिहारी विमान एदं सर्वज्ञ होने का वरदान आदि दिये । वसु की राजधानी शुक्तिमती नदी के तट पर थी।" वसु का हिंसा-रहित यज्ञ "इन्द्र द्वारा प्रदत्त आकाशगामी विमान में विचरण करने के कारण ये उपरिचर वसू के नाम से लोक में विख्यात हए । उपरिचर वसु बड़े सत्यनिष्ठ, अहिंसक और यज्ञशिष्ट अन्न का भोजन करने वाले थे।" १ सर्वकर्मवहिंसा हि, धर्मात्मा मनुरब्रवीत् । कामकाराद् विहिंसन्ति, बहिर्वेद्यां पशून् नराः ।।५।। [शा० पर्व, अ० २६४] ..'अहिंसा सर्वभूतेभ्यो, धर्मेभ्यो ज्यायसी मता ।।६।। [वही] यदि यज्ञांश्च, वृक्षांश्च, यूपांश्चोद्दिश्य मानवाः । वृथा मांस न खादन्ति, नैषधर्मः प्रशस्यते ।।८।। [वहीं] सुरा मत्स्याः मधुमासमासवं कृसरोदनम् । घूतः प्रवर्तितं ह्यं तन्नं तद् वेदेषु कल्पितम् ।।६।। __ [वही]. मानान्मोहाच्च लोभाच्च, लौल्यमेतत्प्रकल्पितम् । विष्णुमेवाभिजानन्ति सर्वयज्ञेषु ब्राह्मणाः ।।१०।। [वही २ राजोपरिचरो नाम, धर्मनित्यो महीपतिः । वभूव मृगयां गन्तु, सदा किल धृतव्रतः ।।१।। स चेदिविषयं रम्यं, वसुः पौरवनन्दनः । इन्द्रोपदेशाज्जग्राह, रमणीयं महीपतिः ।।२।। (शेष अगले पृष्ठ पर) Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास विसु का हिंसा-रहित यज्ञ "अंगिरस पुत्र-बृहस्पति इनके गुरु थे । न्याय, नीति एवं धर्मपूर्वक पृथ्वी का पालन करते हुए राजा वसु ने महान् अश्वमेध यज्ञ किया । उस अश्वमेध यज्ञ के बृहस्पति, होता तथा एकत, द्वित, त्रित, धनुष, रैभ्य, मेधातिथि, शालिहोत्र, कपिल, वैशम्पायन, कण्व आदि १६ महर्षि सदस्य हुए। उस महान् यज्ञ में यज्ञ के लिये सम्पूर्ण आवश्यक सामग्री एकत्रित की गई परन्तु उसमें किसी भी पशु का वध नहीं किया गया । राजा उपरिचर वसु पूर्ण अहिंसक भाव से उस यज्ञ में स्थित हुए । वे हिंसाभाव से रहित, कामनाओं से रहित, पवित्र तथा उदारभाव से अश्वमेध यज्ञ करने में प्रवृत्त हुए । वन में उत्पन्न हुए फल मूलादि पदार्थों से ही उस यज्ञ में देवताओं के भाग निश्चित किये गये थे।" "भगवान नारायण ने वसु के इस प्रकार यज्ञ से प्रसन्न हो स्वयं उस यज्ञ में प्रकट हो महाराज वसु को दर्शन दिये और अपने लिये अर्पित पुरोडाश (यज्ञभाग) को ग्रहण किया।" यथा : सम्भूताः सर्वसम्भारास्तस्मिन राजन महाक्रती । न तत्र पशुधातोऽभूत्, स राजवं स्थितोऽभवत् ॥१०॥ अहिंसः शुचिरक्षुद्रो, निराशीः कर्मसंस्तुतः । आरण्यकपदोद्भूता, भागास्तत्रोपकल्पिताः ।।११।। प्रीतस्ततोऽस्य भगवान्, देवदेवः पुरातनः । साक्षात् तं दर्शयामास, सोऽदृश्योऽन्येन केनचित् ।।१२।। तमाश्रमे न्यस्तशस्त्रं, निवसन्तं तपोनिधिम् । देवाः शक्र पुरोगा वै, राजानमुपतस्थिरे ॥३॥ इन्द्रत्वमहो राजायं, तपसेत्यनुचिन्त्य वै। तं सान्त्वेन नृपं साक्षात्, तपसः संन्यवर्तयन् ।।४।। दिविष्ठस्य भुविष्ठस्त्वं, सखाभूतो मम प्रियः । रम्यः पृथिव्यां यो देशस्तमावस नराधिप ।।७।। .."न तेऽस्त्यविदितं किंचिद, त्रिषु लोकेषु यद्भवेत् ।।८।। देवोपभोग्यं दिव्यं त्वामाकाशे स्फाटिकं महत् । माकाशगं त्वां महत्तं विमानमुपपत्स्यते ॥१३॥ त्वमेकः सर्वमत्येषु विमानवरमास्थितः । परिष्यस्नुपरिस्थो हि, देवो विग्रहवानिव ॥१४॥ ददामि ते वैजयन्ती, मालामम्लानपंकजाम् । पारयिष्यति संग्रामे, या त्वां शस्त्ररविक्षतम् ॥१५॥ यष्टि ग णवीं तस्मै, ददौ वृत्रनिषूदनः। इष्टप्रदानमुद्दिश्य, शिष्टानां प्रतिपालिनीम् ।१७।। [महाभारत, मादिपर्व, अध्याय ६३] Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ बसु का हिंसा-रहित यज्ञ] भगवान् श्री अरिष्टनेमि स्वयं भागमुपाघ्राय, पुरोडाशं गृहीतवान् । अदृश्येन हृतो भागो, देवेन हरिमेधसा ।।१३।। [महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय ३३६ ] उस महान् अश्वमेध-यज्ञ को पूर्ण करने के पश्चात् राजा वसु बहुत काल तक प्रजा का पालन करता रहा।' 'मजयंष्टव्यम्' को लेकर विवाद एक बार ऋषियों और देवताओं के बीच यज्ञों में दी जाने वाली आहूति के सम्बन्ध में विवाद उठ खड़ा हपा । देवगण ऋषियों से कहने लगे-"प्रजेन यष्टव्यम्' (अजैर्यष्टव्यम्) अर्थात् 'अज के द्वारा यज्ञ करना चाहिए' यह, ऐसा जो विधान है, इसमें पाये हए 'प्रज' शब्द का अर्थ बकरा समझना चाहिए न कि अन्य कोई पशु । निश्चित रूप से यही वास्तविक स्थिति है।" इस पर ऋषियों ने कहा-"देवताओ! यज्ञों में बीजों द्वारा यजन करना चाहिए, ऐसी वैदिकी श्रुति है । बीजों का ही नाम अज है; अतः बकरे का वध करना हमें उचित नहीं है। जहां कहीं भी यज्ञ में पशुओं का वध हो, वह सत्पुरुषों का धर्म नहीं है । यह श्रेष्ठ सत्ययुग चल रहा है । इसमें पशु का वध कैसे किया जा सकता है ?" यथा :अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् । ऋषीणां चैव संवादं, त्रिदशानां च भारत ।।२।। अजेन यष्टव्यमिति प्राहुर्देवा द्विजोत्तमान् । स च च्छागोऽप्यजो ज्ञेयो नान्यः पशुरिति स्थितिः ।।३।। __ऋषयः ऊचुः बीजैर्यज्ञेषु यष्टव्यमिति वै वैदिकी श्रुतिः । अजसंज्ञानि बीजानि, च्छागं नो हन्तुमर्हथ ।।४।। नैष धर्मः सतां देवा, यत्र वध्येत वै पशुः ।। इदं कृतयुगं श्रेष्ठ, कथं वध्येत वै पशुः ॥५॥ 1 [महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय ३३७] जिस समय देवताओं और ऋषियों के बीच इस प्रकार का संवाद चल रहा था, उसी समय नपश्रेष्ठ वसु भी आकाशमार्ग से विचरण करते हुए उस स्थान पर पहुंच गये । उन अन्तरिक्षचारी राजा वसु को सहसा आते देख १ समाप्तयशो राजापि प्रजा पालितवान् वसुः ।...........६२ ॥ (महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय ३३७] Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास विसु का हिंसा-रहित यह ब्रह्मषियों ने देवताओं से कहा-"ये नरेश हम लोगों के संदेह दूर कर देंगे। क्योंकि ये यज्ञ करने वाले, दानपति, श्रेष्ठ तथा सम्पूर्ण भूतों के हितैषी एवं प्रिय हैं । ये महान् पुरुष वसु शास्त्र के विपरीत वचन कैसे कह सकते हैं ?" इस प्रकार ऋषियों और देवताओं ने एकमत हो एक साथ राजा वसु के पास जाकर अपना प्रश्न उपस्थित किया--"राजन् ! किसके द्वारा यज्ञ करना चाहिए ? बकरे के द्वारा अथवा अन्न द्वारा? हमारे इस संदेह का माप निवारण करें। हम लोगों की राय में आप ही प्रामाणिक व्यक्ति हैं।" तब राजा वसु ने हाथ जोड़कर उन सबसे पूछा-"विप्रवरो! आप लोग सच-सच बताइये, आप लोगों में से किस पक्ष को कोनसा मत अभीष्ट है ? अज शब्द का अर्थ आप में से कौनसा पक्ष तो बकरा मानता है मोर कोनसा पक्ष अन्न?" . वसु के प्रश्न के उत्तर में ऋषियों ने कहा-"राजन् ! हम लोगों का पक्ष यह है कि अन्न से यज्ञ करना चाहिए तथा देवतामों का पक्ष यह है कि छाग नामक पशु के द्वारा यज्ञ होना चाहिये । अब आप हमें अपना निर्णय बताइये।" वसु द्वारा हिसापूर्ण यज्ञ का समर्थन व रसातल-प्रवेश राजा वसु ने देवताओं का पक्ष लेते हुए कह दिया-"अज का अर्थ है छाग (बकरा) अतः बकरे के द्वारा ही यज्ञ करना चाहिए।" १ महाभारतकार के स्वयं के शब्दों में यह प्राख्यान इस प्रकार दिया गया है : तेषां संवदतामेवमृषीणां विबुधैः सह ।। मार्गागतो नृपश्रेष्ठस्तं देशं प्राप्तवान् वसुः ।।६।। अन्तरिक्षचरः श्रीमान्, समग्रबलवाहनः । तं दृष्ट्वा सहसाऽऽयान्तं वसु ते त्वन्तरिक्षगम् ।।७।। ऊचुद्विजातयो देवानेष च्छेत्स्यति मंशयम् । यज्वा दानपति: श्रेष्ठः सर्वभूतहित प्रियः ।।८।। कथंस्विदन्यथा ब्रूयादेष वाक्यं महान वसुः । एवं ते संविदं कृत्वा, विवुधा ऋषयस्तथा ।।६।। प्रपृच्छन् सहिताम्येत्य, वसु राजानमन्तिकात् । भो राजन् केन यष्टव्यमजेनाहोस्विदोषधः ।।१०।। एतन्नः संशयं छिन्धि प्रमाणं वो भवान् मतः । म तान् कृताञ्जलिर्भूत्वा, परिपप्रच्छ व वसु ।।११।। कस्य वै को मतः कामो, ब्रत सत्यं द्विजोत्तमाः । धान्यैर्यष्टव्यमित्येव, पक्षोऽस्माकं नराधिप ॥१२॥ देवानांतु पशुः पक्षो मतो राजन् वदस्व न;। [महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय ३३७1 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसु का रसातल-प्रवेश] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ३२६ यथा : देवानां तु मतं ज्ञात्वा, वसुना पक्षसंश्रयात् । छागेनाजेन यष्टव्यमेवमुक्त वचस्तदा ।।१३।। यह सुनकर वे सभी सूर्य के समान तेजस्वी ऋषि क्रुद्ध हो उठे और विमान पर बैठकर देवपक्ष का समर्थन करने वाले वसु से बोले-"राजन् ! तुमने यह जान कर भी कि 'अज' का अर्थ अन्न है, देवताओं का पक्ष लिया है अतः तुम आकाश से नीचे गिर जाओ । आज से तुम्हारी आकाश में विचरने की शक्ति नष्ट हो जाय । हमारे शाप के आघात से तुम पृथ्वी को भेद कर पाताल में प्रवेश करोगे । नरेश्वर ! तुमने यदि वेद और सूत्रों के विरुद्ध कहा हो तो हमारा यह शाप तुम पर अवश्य लागू हो और यदि हम लोग शास्त्र-विरुद्ध वचन कहते हों तो हमारा पतन हो जाय ।" ऋषियों के इतना कहते ही तत्क्षण राजा उपरिचर वसु आकाश से नीचे आ गये और तत्काल पृथ्वी के विवर में प्रवेश कर गये। इस सन्दर्भ में महाभारतकार के मूल श्लोक इस प्रकार हैं : कुपितास्ते ततः सर्वे, मुनयः सूर्यवर्चसः ।।१४।। ऊचुर्वसु विमानस्थं, देवपक्षार्थवादिनम् । सुरपक्षो गृहीतस्ते, यस्मात् तस्माद् दिवःपत ॥१५॥ अद्यप्रभृति ते राजन्नाकाशे विहता गतिः । अस्मच्छापाभिघातेन, महीं भित्वा प्रवेक्ष्यसि ।।१६।। (विरुद्ध वेदसूत्राणामुक्त यदि भवेन्नृप । वयं विरुद्धवचना, यदि तत्र पतामहे ।) ततस्तस्मिन् मुहूर्तेऽथ, राजोपरिचरस्तदा । प्रधो वै संबभूवाशुः भूमेर्विवरगो नृप ।।१७।। [महाभारत, शान्तिपर्व, मध्याय ३३७] वस के पाठ पुत्रों में से छः पुत्र क्रमशः एक के बाद एक राजसिंहासन पर बैठते ही दैवी-शक्ति द्वारा मार डाले गये, शेष दो पुत्र 'सुवसु' और 'पिहद्धय' 'शुक्तिमती' नगरी से भाग खड़े हुए । 'सुवसु' मथुरा में जा बसा । और 'पिहय' का उत्तराधिकारी राजा 'सुबाहु' हुआ । सुबाहु के पश्चात् क्रमश: 'दीर्घबाहु', वज्रबाहु, अद्ध बाहु, भानु और सुभानु नामक राजा हुए । सुभानु के पश्चात् उनके पुत्र यदु इस हरिवंश में एक महान् प्रतापी राजा हए । यदु के वंश में 'सौरी' और 'वीर' नाम के दो बड़े शक्तिशाली राजा हुए । महाराज सौरी ने सौरिपुर और वीर ने सौवीर नगर बसाया ।' १ सोरिणा सोरियपुरं निवेसावियं, वीरेण सौवीरं । [वसु० हि०, पृ० ३५७] Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भ० नेमि० का पैतृक कुल भगवान नेमिनाथ का पैतृक कुल पूर्वकथित इन्हीं हरिवंशीय महाराज सौरी से 'अन्धकवृष्णि' और भोगवृष्णि, दो पराक्रमी पुत्र हुए । 'अन्धकवृष्णि' के 'समुद्रविजय', अक्षोभ, स्तिमित, सागर, हिमवान्, अचल, धरण, पूरण, अभिचन्द और वसुदेव ये दश पुत्र थे' जो दशाह नाम से प्रसिद्ध हुए। इनमें बडे समद्रविजय और छोटे वसुदेव ये दो विशिष्ट प्रतिभासम्पन्न एवं प्रभावशाली थे । समुद्रविजय बड़े न्यायशील, उदार एवं प्रजावत्सल राजा हुए। अपने छोटे भाई वसुदेव का लालन-पालन, रक्षण, शिक्षण एवं संगोपन इनकी देख-रेख में ही होता रहा । समय पाकर वसुदेव ने अपने पराक्रम से देश-देशान्तर में ख्याति प्राप्त की। सौरिपुर के एक भाग में उनका भी राज्यशासन रहा । वसुदेव का विशेष परिचय यहां दिया जा रहा है । वसुदेव का पूर्वभव प्रौर बाल्यकाल कुमार वसुदेव अत्यन्त रूपवान्, पराक्रमी और लोकप्रिय थे । पूर्व जन्म में नन्दीषेण ब्राह्मण के भव में माता-पिता की मृत्यु के पश्चात् कुटुम्बीजनों ने उसे घर से निकाल दिया। एक माली ने उसका पालन-पोषण कर बड़ा किया और अपनी पुत्रियों में से किसी एक से उसका विवाह करने का उसे आश्वासन दिया किन्तु जब तीनों पुत्रियों द्वाग वह पमन्द नहीं किया जाकर ठुकरा दिया गया, तो उसे बड़ी प्रात्मग्लानि हुई। नन्दीषेण ने घने बीहड़ जंगल में जाकर फांसी डालकर मरना चाहा । वहां किसी मुनि ने देखकर उसे आत्महत्या करने से रोका और उपदेश दिया। १ समुद्दविजयो, प्रक्खोहो, थिमियो, सागरो हिमवंतो। अयलो धरणो, पूरणी, अभिचन्दो वसुदेवो ति ।। [वसु० हि० पृ० ३५८] २ मोरियपुरम्मि नयरे, पासी राया समुद्दविजमोत्ति । तस्सासि अग्गमहिमी. सित्ति देवी अणुज्जगी ।। तेसि पुत्ता चउरो, अरिट्टनेमि तहेव रहनेमी । त इप्रो अ सच्चनमी, चउत्थम्रो होइ दढनेमी ।। जो मा रिट्ठनेमि, बावीस इमो अहेसि सो अरिहा । रहने मी सच्च ने मी. एए पत्तेयबुद्धाउ ।। [उत्तराध्ययन निo, गा०. ४४३-४४५] Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुदेव का पूर्वभव भौर बाल्य] भगवान् श्री अरिष्टनेमि मुनि के उपदेश से विरक्त हो उसने मनि-दीक्षा स्वीकार की एवं ज्ञान-ध्यान और तप-संयम से साधना करने लगा। कठोर तप से अपने तिरस्कृत जीवन को उपयोगी बनाने के लिए उसने प्रतिज्ञा की कि किसी भी रोगी साधु की सूचना मिलते ही पहले उसकी सेवा करेगा, फिर अन्न ग्रहण करेगा। तपस्या से उसे अनेक लब्धियां प्राप्त थीं अतः रुग्ण साधुनों की सेवा के लिए उसे जिस वस्तु की आवश्यकता होती, वही मिल जाती थी। इस सेवा के कारण वह समस्त भरतखण्ड में महातपस्वी के रूप में प्रसिद्ध हो गया। उसकी सेवा की प्रशंसा स्वर्ग के इन्द्र भी किया करते थे। दो देवों द्वारा घणाजनक सेवा की परीक्षा करने पर भी नन्दीषेण विचलित नहीं हुए। निस्वार्थ साधुसेवा से इन्होंने महान् पुण्य का संचय किया। __अन्त में कन्याओं द्वारा किये गये अपने तिरस्कार की बात यादकर उन्होंने निदान किया'-"मेरी तपस्या का फल हो तो मैं अगले मानव-जन्म में स्त्री-वल्लभ होऊ।" इसी निदान के फलस्वरूप नन्दीषेण देवलोक का भव कर अन्धकवृष्णि के यहां वसुदेव रूप से उत्पन्न हुआ। वसुदेव का बाल्यकाल बड़ा सुखपूर्वक बीता । ज्योंही वे आठ वर्ष के हुए, कलाचार्य के पास रखे गये । बिशिष्ट बुद्धि के कारण अल्प समय में ही वे गुरु के कृपापात्र बन गये। वसुदेव को सेवा में कंस जिस समय कुमार वसुदेव का विद्याध्ययन चल रहा था, उस समय एक दिन एक रसवणिक उनके पास एक बालक को लेकर पाया और कुमार से अभ्यर्थना करने लगा-"कुमार ! यह बोलक कंस प्रापकी सेवा करेगा, इसे माप अपनी सेवा में रखें।" वसदेव ने रसवणिक की प्रार्थना स्वीकार करली और तब से कंस कुमार की सेवा में रहने लगा और उनके साथ विद्याभ्यास करने लगा। १ श्रीमद्भागवत में जो वसुदेव और नारद का संवाद दिया हुआ है, उसमें भी पूर्वभव में निदान किये जाने की झलक मिलती है । यथा :अहं किल पुरानन्तं, प्रजार्थों भुवि मुक्तिदम् । अपूजयं न मोक्षाय, मोहितो देवमायया ।। ८ ।। यथा विचित्र व्यसनाद्, भवद्भिर्विश्वतो भयात् । मुच्येम ह्यञ्जसवाद्धो, तथा न: शाधि सुव्रत ।। ६ ।। [श्रीमद्भागवत्, स्कन्ध ११. अ० २] २ वसुदेव हिण्डी। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास वसुदेव की सेवा में कंस एक दिन जरासन्ध ने समुद्रविजय के पास दूत भेजा और कहलवाया"सिंहपुर के उद्दण्ड राजा सिंह रथ को जो पकड़ कर मेरे पास उपस्थित करेगा, उसके साथ मैं अपनी पुत्री जीवयशा का विवाह करूगा और उपहार में एक नगर भी दूंगा।" वसदेव को जब इस बात की सचना मिली तो उन्होंने समुद्रविजय से प्रार्थना की-“देव ! आप मुझे प्राज्ञा दें, मैं सिंहरथ को बांध कर आपकी सेवा में उपस्थित करूंगा।" समुद्रविजय ने कुमार वसदेव के आग्रह और उत्साह को देखकर सबल सेना के साथ उन्हें युद्ध के लिये विदा किया। वसुदेव का युद्ध-कौशल वसुदेव का सेना सहित प्रागमन सुनकर सिंहरथ भी अपने दल-बल के साथ रणांगण में प्रा डटा । दोनों सेनाओं के बीच घमासान युद्ध हया । सिंहरथ के प्रचण्ड पराक्रम और तीक्षण प्रहारों से वसुदेव की सेना के पैर उखड़ने लगे। यह देख कर वसदेव ने अपने सारथी कंस को आदेश दिया कि वह उनके रथ को सिंहरथ की ओर बढ़ावे । कंस ने सिंहरथ की ओर रथ बढ़ाया और वसुदेव ने देखते ही देखते शरवर्षा की झड़ी लगाकर सिंह रथ के सारथी और घोड़ों को बाणों से बींध दिया । उन्होंने अपने रण-कौशल और हस्तलाघव से सिंहरथ को हतप्रभ कर दिया । कंस ने भी परशु-प्रहार से सिंहरथ के रथ के पहियों को चकनाचूर कर दिया और झपट कर सिंह रथ को बन्दी बना लिया एवं वसुदेव के रथ में ला रखा । यह देख सिंहरथ की सारी सेना भाग छूटी। वसदेव सिंहरथ को लेकर सोरियपुर लौट आये और समुद्रविजय के समक्ष उसे बन्दी के रूप में उपस्थित किया ।' किशोरवय के कुमार वसुदेव की इस वीरता से समुद्रविजय बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने उल्लास एवं उत्सव के साथ कुमार का नगर-प्रवेश करवाया ।' कंस का जीवयशा से विवाह समद्रविजय ने एकान्त पाकर वसदेव से कहा-"वत्स ! मैंने कोष्टकी (नैमित्तिक) से जीवयशा के लक्षणों के सम्बन्ध में पूछा तो ज्ञात हा कि जीवयशा उभय-कुलों का विनाश करने वाली है। जीवयशा से विवाह करना श्रेयस्कर प्रतीत नहीं होता।" १ 'चउवन्न महापुरिम चरियं' में वसुदेव द्वारा सिंहरथ को सीधा जरासंघ के पास ले जाने का उल्लेख है। २ वसुदेव हिण्डी। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् श्री पारष्टनेमि ३३३ वसुदेव ने समुद्रविजय की बात शिरोधार्य करते हुए कहा-"सिंहरथ को बन्दी बनाने में कंस ने साहसपूर्ण कार्य किया है, अतः उसके पारितोषिक रूप में जीवयशा का कंस के साथ पाणिग्रहण करा देना चाहिये।" समुद्रविजय द्वारा यह प्रश्न किये जाने पर कि एक उच्च कुल के राजाधिराज की कन्या एक रसवणिक के पुत्र से कैसे ब्याही जा सकेगी;-वसुदेव ने कहा-“महाराज ! क्षत्रियोचित साहस को देखते हुए कंस क्षत्रिय होना चाहिए न कि रसवणिक ।" वास्तविकता का पता लगाने हेतु रसवणिक को बुलाकर पूछा गया। रसवणिक ने कहा-“महाराज ! यह मेरा पुत्र नहीं है, मैंने तो यमुना में बहती हुई कांस्य-पेटिका से इसे प्राप्त किया है। तामसिक स्वभाव के कारण बड़ा होने पर यह बालकों को मारता-पीटता था। इसलिये इससे ऊबकर मैंने इसे कुमार की सेवा में रख दिया। कांसी की पेटी ही इसकी माँ है और इसीलिए इसका नाम कंस रखा गया है। इसके साथ पेटी में यह नामांकित मुद्रिका भी प्राप्त हुई थी, जो सेवा में प्रस्तुत है।" मुद्रिका पर महाराज उग्रसेन का नाम देखकर समुद्रविजय को बड़ा आश्चर्य हुमा । वे सिंहरथ मोर कंस को लेकर जरासंध के पास पहुंचे और बन्दी सिंहरथ को जरासंध के समक्ष उपस्थित करते हुए उन्होंने कंस के पराक्रम की प्रशंसा की और बताया कि यह कंस महाराज उग्रसेन का पुत्र है। यह सब सुनकर जरासंध बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने अपनी पुत्री जीवयशा का कंस के साथ विवाह कर दिया। अपने पिता द्वारा नदी में बहा दिये जाने की बात सुन कंस पहले ही अपने पिता से बदला लेने पर तुला हुमा था। जरासंध का जामाता बनते ही उसने जरासंध से मथुरा का राज्य मांग लिया और मथुरा में पाकर देषवश्व उग्रसेन को कारागृह में डालकर वह मथुरा का राज्य करने लगा।' ___X बसुदेव का सम्मोहक पत्तिय युवावस्था प्राप्त करते ही वसुदेव श्वेत परिधान पहने जातिमान् चंचल अश्व पर मारूढ़ हो एक उपवन से दूसरे उपवन में, इस वन से उस बन में प्रकृति की छटा का प्रानन्द लूटने लये। नयनाभिराम बसुदेव को राजपथ से माते-जाते देखकर नागरिक बन उनके अलौकिक सौन्दर्य की मुक्तकंठ से प्रशंसा करते और महिलाएं तो उनकी कमनीय कान्ति पर मुग्ध हो उन्हें एकटक निहारती हुई मन्त्र-मुग्ध हरिणियों की तरह सुध-बुध भूले उनके पीछे-पीछे चलने लगतीं । इस प्रकार हंसी-खुशी के साथ उनका समय बीतने लगा। १ बसुदेव हिन्दी। - Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ वसुदेव का एक दिन वसुदेव उपवनों से घूमकर राजप्रासाद में लौटे ही थे कि समुद्रविजय ने उन्हें बड़े दुलार से कहा - " कुमार ! तुम इस प्रकार दिन में बाहर मत घूमा करो, तुम्हारा सुकुमार मुख धूलिधूसरित और कुम्हलाया सा दिख रहा है । घर में ही रहकर सीखी हुई कलाओं का अभ्यास किया करो -कहीं तुम उन कलानों को भूल न जाओ ।" ३३४ वसुदेव ने सहज विनयभाव से कहा - "ऐसा ही करूंगा महाराज और उस दिन से वसुदेव राजप्रासाद में ही रहने लगे । एक दिन समुद्रविजय के लिए विलेपन तैयार करती हुई कुब्जा दासी से वसुदेव ने पूछा - "यह उबटन किसके लिये तैयार कर रही हो ?" दासी का छोटा सा उत्तर था - "महाराज के लिए ।" "क्या यह मेरे लिये नहीं है ?" वसुदेव के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए दासी ने कहा - " कुमार प्रापने अपराध किया है, अत: महाराज आपको उत्तम वस्त्राभूषण विलेपनादि नहीं देते ।" | " जब वसुदेव ने दासी द्वारा मना किये जाने पर भी बलात् विलेपन ले लिया तो दासी ने तुनक कर कहा - " इस प्रकार के आचरणों के कारण ही तो राजप्रासादों में अवरुद्ध किये गये हो, फिर भी अविनय से बाज नहीं आते ।" वसुदेव ने चौकन्ने होकर प्राग्रहपूर्वक दासी से पूछा - "अरी ! कौनसा अपराध हो गया है, जिससे कि महाराज ने मुझे प्रासाद में ही रोक रखा है ?"" दासी ने कहा कि इस रहस्य के उद्घाटन से उसे राजा समुद्रविजय द्वारा पण्डित होने का डर है । वसुदेव ने प्रेमपूर्ण संभाषरण से दासी को प्राखिर प्रसन्न कर लिया और उसने वसुदेव से कहा - "सुनिये कुमार! एक बार प्रापकी अनुपस्थिति में नगर के अनेक प्रतिष्ठित नागरिकों ने महाराज के सम्मुख उपस्थित हो निवेदन किया कि शरद पूर्णिमा के चन्द्र के समान मानव मात्र के नयनों को आह्लादित करने वाले विशुद्ध-निर्मल चरित्रवान् छोटे राजकुमार नगर में जिस किसी स्थान से निकलते हैं, तो वहाँ का नवयुवति वर्ग कुमार के अलौकिक सौन्दर्य पर मुग्ध हो उनके पीछे-पीछे मन्त्रमुग्धा हिरणियों के झुण्ड की तरह परिभ्रमण करता रहता है। कुमार अब इस पथ से निकलेंगे, इस १ वसुदेव हिण्डी । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मोहक व्यक्तित्व ] भगवान् श्री प्ररिष्टनेमि आशा में नगर की युवतियाँ सूर्योदय से पूर्व ही वातायनों, गवाक्षों, जालीझरोखों और गृह-द्वारों पर जा डटती हैं और यह कहती हुई कि "जब कुमार यहाँ से निकलेंगे तो उन्हें देखेंगी" सारा दिन चित्रलिखित पुतलियों की तरह वहीं बैठी बैठी बिता देती हैं तथा रात्रि में निद्रावस्था में भी बार-बार चौंकचौंक कर बड़बड़ाती हैं-प्ररे ! यह रहे वसुदेव, देखो-देखो ! यही तो हैं. वसुदेव ।" रमरिणय शाक, पत्र, फलादि खरीदने जाती हैं तो वहाँ भी उनका यही ध्यान रहता है, कहती हैं- "ला वसुदेव दे दे ।" बच्चे जब क्रन्दन करते हैं तो कुमार के श्रागमन - पथ पर दृष्टि डाले युवतियां बच्चों को गाय के बछड़े समझकर रस्सियों से बाँध देती हैं। इस प्रकार प्रायः सभी नगर-वधुएं उन्माद की अवस्था को प्राप्त हो चुकी हैं, गृहस्थी का सारा कामकाज चौपट हो चुका है, देव भोर प्रतिथि-पूजन का प्रमुख गृहस्थाचार शिथिल हो नष्टप्रायः हो चुका है । अत: देव ! कृपा कर ऐसा प्रबन्ध कीजिये कि कुमार बार-बार उद्यान में नहीं जायें ।" ३३५ इस पर महाराज समुद्रविजय ने उन लोगों को आश्वस्त करते हुए कहा"आप लोग विश्वस्त रहें, मैं कुमार को ऐसा करने से रोक दूंगा ।" जो परिजन वहाँ उपस्थित थे, उन्हें महाराज ने निर्देश दिया कि इस सम्बन्ध में कुमार से कोई कुछ भी नहीं कहे । दासी के मुंह से यह सब सुनकर वसुदेव बड़े चिन्तित हुए और उन्होंने निश्चय किया कि अब उनका वहाँ रहना श्रेयस्कर नहीं है । उन्होंने अपना स्वर और वेश बदलने की गोलियां तैयार कीं और सन्ध्या- समय वल्लभ नामक दास के साथ नगर के बाहर चले आये । श्मशान में एक शव को पड़ा देखकर वसुदेव ने अपने दास वल्लभ से कहा - "लकड़ियां लाकर चिता तैयार कर ।"" सेवक ने चिता तैयार कर दी। वसुदेव ने सेवक से फिर कहा - "अरे ! जा मेरे शयनागार से मेरा रत्नकरण्डक ले प्रा, द्रव्य का दान कर मैं अग्नि प्रवेश. करता हूं।" वल्लभ ने कहा- "स्वामिन् ! यदि मापने यही निश्चय किया है तो आपके साथ मैं भी अग्नि प्रवेश करूंगा ।" वसुदेव ने कहा - " जैसे तुझे अच्छा लगे वही करना, पर खबरदार इस रहस्य का भेद किसी को मत देना । रत्नकरण्डक लेकर शीघ्र लौट श्रा ।" "अभी लाया महाराज !” यह कहकर वल्लभ शीघ्रता से नगर की ओर दौड़ा । १ वसुदेव हिण्डी । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ वसुदेव का वसुदेव ने उस अनाथ के शव को चिता पर रखकर अग्नि प्रज्वलित कर बी प्रोर श्मशान में पड़ी एक अधजली लकड़ी से माता और गुरुजनों से क्षमा मांगते हुए यह लिख दिया- "विशुद्ध स्वभाव का होते हुए भी नागरिकों ने दोष लगाया, इसलिए वसुदेव ने अपने आपको आग में जला डाला ।" ३३६ पत्र को श्मशान में एक खम्भे से बाँध कर वसुदेव त्वरित गति से वहां से चल पड़े। बड़ी लम्बी दूरी तक पथ से दूर चलते हुए वे एक मार्ग पर आये और मार्ग तय करने लगे । उस मार्ग से एक युवती गाड़ी में बैठी हुई ससुराल से अपने मातृगृह को जा रही थी । वसुदेव को देखते ही उसने अपने साथ के वृद्ध से कहा - "प्रोह ! यह परम सुकुमार ब्राह्मणकुमार पैदल चलते हुए परिश्रान्त हो गया होगा । इसे गाड़ी में बैठा लो । आज रात अपने घर पर विश्राम कर कल आगे चला जायगा ।" वृद्ध ने गाड़ी में बैठने का आग्रह किया । गाड़ी में बैठे हुए सब की निगाहों 'छुपकर जा सकूंगा. यह सोचकर वसुदेव गाड़ी में बैठ गए। सुगाम नामक नगर में पहुँचकर स्नान, ध्यान भोजनादि से निवृत्त हो वसुदेव विश्राम करने लगे । पास ही के यक्षायतन में उस गांव के कुछ लोग बैठे हुए थे । कुमार ने उन्हें नगर से आए हुए लोगों द्वारा यह कहते हुए सुना - "ग्राज नगर में एक बड़ी दुःखद घटना हो गई, कुमार वसुदेव ने अग्नि प्रवेश कर आत्मदाह कर लिया । वसुदेव का वल्लभ नामक सेवक जलती हुई चिता को देखकर करुरण कन्दन करता हुआ नगर में दौड़ श्राया। लोगों द्वारा कारण पूछे जाने पर उसने कहा कि जनापवाद के डर से राजकुमार वसुदेव ने चिता में जलकर प्राणत्याग कर दिया।' इतना सुनते ही नगर में सर्वत्र चीत्कार और हाहाकार व्याप्त हो गया । नागरिकों के रुदन को सुनकर नौ ही भाई तत्काल श्मशान में पहुंचे और वहां कुमार के हाथ से लिखे हुए पत्र को पढ़कर शोक से रोते-रोते उन्होंने चिता को घृत और मधु से सींचा; चन्दन, अंगर और देवदारु की लकड़ियों से श्राच्छादित कर दिया तथा उसे जलाकर प्रेतकार्य सम्पन्न कर वे सब अपने घर को लौट गये । यह सब सुन कर वसुदेव को चिन्ता हुई । इनके मुंह से अनायास निकल गया - "यह सांसारिक बन्धन कितना गूढ़ और रहस्यपूर्ण है, चलो, मेरे, प्रात्मीयजनों को विश्वास हो गया कि वसुदेव मर गया । अब वे मेरी कोई खोज १ बसुदेव हिण्डी । Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मोहक व्यक्तित्व भगवान् श्री अरिष्टनेमि ३३७ नहीं करेंगे, अब मुझे निःशंक हो निर्विघ्न रूप से स्वच्छन्द-विचरण करना चाहिए।" रात भर विश्राम कर वसुदेव ने दूसरे दिन वहाँ से प्रस्थान किया और वैताढ्य गिरि की उपत्यकामों में बसे विभिन्न नगरों और अनेक देशों में पर्यटन किया। वसुदेव ने अपने इस पर्यटन-काल में अनेक अद्भुत साहसपूर्ण कार्य किये, वेदों और अनेक विद्याओं का अध्ययन किया। वसुदेव के सम्मोहक व्यक्तित्व और अद्भुत पराक्रम पर मुग्ध हो अनेक बड़े-बड़े राजाओं ने अपनी सर्वगण-सम्पन्न सुन्दर कन्याओं का उनके साथ विवाह कर विपुल सम्पदामो से उन्हें सम्मानित किया। एकदा देशाटन करते हए वसुदेव कोशल जनपद के प्रमुख नगर अरिष्टपूर में पहुँचे। वहां उन्हें ज्ञात हुआ कि कोशलाधीश महाराज 'रुधिर' की अनुपम रूपगणसम्पन्ना राजकुमारी 'रोहिणी' के स्वयंवर में जरासन्ध, दमघोष, दन्तवक्र, पाण्डु, समुद्रविजय, चन्द्राभ और कंस आदि अनेक बड़े-बड़े अवनिपति आये हुए हैं. तो वसुदेव भी पणव-वाद्य हाथ में लिये स्वयंवर-मण्डप में पहुंचे और एक मंच पर जा बैठे ।' परिचारिकारों से घिरी हुई राजकुमारी 'रोहिणी' ने वरमाला हाथ में लेकर ज्योंही स्वयंवर-मण्डप में प्रवेश किया, सारा राज-समाज उसके अनुपम सौन्दर्य की कान्ति से चकाचौंध हो चित्रलिखित सा रह गया। यह त्रैलोक्य सुन्दरी न मालूम किस का वरण करेगी, इस आशंका से सबके दिल धड़क रहे थे, सबकी धमनियों में रक्तप्रवाह उच्चतम गति को पहुंच चुका था। जिन राजाओं के सामने रोहिणी अपने हाथों में ली हुई वरमाला के. बिना हिलाये ही आगे बढ़ गई उन राजाओं के मुख राहु-ग्रस्त सूर्य की तरह निस्तेज हो काले पड़ गये । वसुदेव ने अपने पणव पर हल्का सा मन्द-मधुर नाद किया कि रोहिणी मन्त्रमग्धा मयूरी की तरह बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं का अतिक्रमण करती हुई वसदेव की ओर बढ़ गई और उनकी ओर देखते ही उनके गले में वरमाला डाल दी व उनके मस्तक पर अक्षतकरण चढ़ाकर रनिवास में चली गई। मण्डप में इससे हलचल मच गई । सब राजा लोग एक दूसरे से पूछने लगे-"किसको वरण किया ?" उत्तर में अनेक स्वर गूंज रहे थे--"एक गायक को।" १ वसुदेव हिण्डी। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [वसुदेव का राजामों का क्षोभ उग्र रूप धारण करने लगा। महाराज दन्तवक्र ने गरजते हुए कोशलाधीश को कहा- 'तुम्हारी कन्या यदि एक गायक को ही चाहती थी तो इन उच्चकुलीन बड़े-बड़े क्षत्रिय राजाओं को क्यों आमन्त्रित किया गया ? कोई क्षत्रिय इस अपमान को सहन नहीं करेगा।" कोशलपति ने कहा-"स्वयंवर में कन्या को अपना पति चुनने की स्वतन्त्रता है, इसके अनसार उसने जिसको योग्य समझा, उसे अपना पति बना लिया। अब परदारा की आकांक्षा करना क्या किसी कुलीन के लिए शोभाप्रद है ?" दन्तवक ने कहा-"तुमने अपनी कन्या को स्वयंवर में दिया है, यह ठीक है, पर मर्यादा का अतिक्रमण तो नहीं होना चाहिये । अत: तुम्हारी कन्या इस वर को छोड़कर किसी भी क्षत्रिय का वरण करे।"" वसुदेव ने दन्तवक को सम्बोधित करते हुए कहा-"दन्तवक्र ! जैसा तुम्हारा नाम टेढ़ा है वैसी ही टेढ़ी तुम बात भी कर रहे हो। क्या क्षत्रियों के लिये कला-कौशल की शिक्षा वजित है, जो तुम मेरे हाथ में पणव को देखने मात्र से ही समझ रहे हो कि मैं क्षत्रिय नहीं हं ?" इस पर दमघोष ने कहा--"प्रज्ञातवंश वाले को कन्या किसी भी दशा में नहीं दी जा सकती । अतः राजकुमारी इसे छोड़कर अन्य किसी भी क्षत्रिय का वरण करे।' विदुर द्वारा यह मत प्रकट करने पर कि इनसे इनके वंश के सम्बन्ध में पूछ लिया जाय; वसदेव ने कहा- 'क्योंकि सब विवाद में लगे हुए हैं, अतः कुल-परिचय के लिए यह उपयुक्त समय नहीं है, अब तो मेरा बाहुबल ही मेरे कुल का परिचय देगा।" इतना सुनते ही जरासन्ध ने क्रुद्ध-स्वर मे कहा-"पकड़ लो राजा रुधिर को।" कोशलपति ने भी अपनी सेना तैयार कर ली । स्वयम्बर में एकत्रित सब राजानों ने मिलकर उन पर प्राक्रमण किया और भीषण संग्राम के पश्चात् कोशलपति को घेर लिया। यह देख परिजयपुर के विद्याधर-राजा 'दधिमुख' के रथ में आरूढ़ हो वसूदेव ने सबको ललकारा। वसुदेव के इस अदम्य साहस और तेज से राजा लोग बड़े विस्मित हए और कहने लगे "मोह ! कितना इसका साहस है जो सब राजाओं के समक्ष एकाकी युद्ध हेतु सन्नद्ध है,।" १ वसुदेव हिण्डी। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३९ मम्मोहक व्यक्तित्व] __ भगवान् श्री अरिष्टनेमि सब राजाओं को एक साथ वसुदेव पर आक्रमण करने के लिए उद्यत देख महाराजा पाण्डु ने कहा- 'यह क्षत्रियों का धर्म नहीं है कि अनेक मिलकर एक पर अाक्रमण करें।" महाराज पाण्डु से सहमति प्रकट करते हुए जरासंध ने भी निर्णायक स्वर में कहा-"हाँ, एक-एक राजा इसके साथ युद्ध करे, जो जीत जायगा रोहिणी उसी की पत्नी होगी।" इस प्रकार युद्ध प्रारम्भ होने पर वसुदेव ने क्रमशः शत्रुञ्जय, दन्तवक्र और कालमुख जैसे महापराक्रमी राजाओं को अपने अद्भुत रणकौशल से पराजित कर दिया। इन शक्तिशाली राजानों को पराजित हुमा देख कर जरासन्ध ने महाराज समुद्रविजय से कहा-"आप इस शत्रु को पराजित कर सब क्षत्रियों की अनुमति से रोहिणी को प्राप्त करें।" अन्ततोगत्वा महाराज समुद्रविजय शरवर्षा करते हुए वसुदेव की पोर बढ़े । वसदेव ने समुद्रविजय के बाणों को काट गिराया, पर उन पर प्रहार नहीं किया ।' इस पर समूद्रविजय कुपित हुए। उस समय वसुदेव ने अपना नामांकित बाण उनके चरणों में प्रेषित किया । वसुदेव के नामांकित तीर को देखकर ममद्रविजय चकित हए, गौर से देखा और धनुष-बाण को एक प्रोर रख हर्षोन्मत्त हो वे वसुदेव की ओर बढ़े । वसुदेव भी शस्त्रास्त्र रखकर अपने बड़े भाई की ओर अग्रसर हुए। समुद्रविजय ने अपने चरणों में झुकते हुए वसुदेव को बाहु-पाश में प्राबद्ध कर हृदय से लगा लिया। प्रक्षोभादि शेष पाठ भाई और महाराजा पाण्ड, दमघोष आदि भी हर्षोत्फुल्ल हो वसुदेव से मिले और कंस भी बड़े प्रेम से वमदेव की सेवा में प्रा उपस्थित हुप्रा । जरासन्ध आदि सब राजा कोशलेश्वर के भाग्य की सराहना करने लगे। इससे प्रसन्न हो कोशलपति रुधिर ने भी बड़े समारोह के साथ वसुदेव से रोहिणी का विवाह सम्पन्न किया । उत्सव की समाप्ति पर सब नरेश अपने-अपने नगरों को प्रस्थान कर गए, पर महाराजा रुधिर के भाग्रह के कारण समुद्रविजयको एक वर्ष तक अरिष्टपुर में ही रहना पड़ा। कंस भी इस अवधि में वसुदेव साथ ही रहा । कोशलेश के भाग्रह को मान देते हुए समुद्रविजय ने बसुदेव को परिष्टपुर में कुछ दिन पोर रहने की अनुमति प्रदान की पोर पन्त में विदा । वसुदेव हिण्डी। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [वसुदेव-देवकी विवाह होते हुए समद्रविजय ने वसदेव से कहा-"कुमार ! तुम बहुत घूम चुके हो, अब सब कुलवधुओं को साथ लेकर शीघ्र ही घर आ जाना ।" कंस ने भी विदा होते समय वसदेव से कहा-"देव सूरसेण राज्य आपका ही है, मैं वहां पाप द्वारा रक्षित-मात्र हूँ।" । वसदेव और रोहिणी बड़े आनन्द के साथ अरिष्टपूर में रहे। वहां रहते हुए रोहिगी ने एक रात्रि में चार शुभ-स्वप्न देखे और समय पर चन्द्रमा के समान गौरवर्ण पुत्र को जन्म दिया। रोहिणी के इस पुत्र का नाम बलराम रखा गया। तदनन्तर कुछ समय अरिष्टपुर में रहने के पश्चात् वसुदेव ने अपनी सामली, नीलयशा, मदनवेगा, प्रभावती, विजयसेना, गन्धर्वदत्ता, सोमश्री, धनश्री, कपिला, पद्मा, अश्वसेना, पोंडा, रत्तवती, प्रियंगुसुदरी, बन्धुमती. प्रियदर्शना, केतुमती, भद्रमित्रा, सत्यरक्षिता, पद्मावती, पद्मश्री, ललितश्री और रोहिणी---इन रानियों के साथ चलकर सोरियपुर प्रा पहुँचे । कुछ समय पश्चात् कंस वसुदेव के पास आया और बड़े ही अनुनय-विनय के साथ प्रार्थना कर उन्हें सपरिवार मथुरा ले गया। वसुदेव भी मथुरा के राजप्रासादों में बड़े आनन्द के साथ रहने लगे।' वसुदेव-देवको विवाह और कंस को वचन-दान एक दिन कंस के आग्रह से महाराज वसूदेव देवक राजा की पुत्री देवकी को वरण करने के लिए मत्तिकावती नगरी की ओर चले।। बीच में ही उन्हें नेम-नारद मिले। वसुदेव ने उनसे देवकी के बारे में पूछा तो नारद ने उसके रूप, गुण और शील की बड़ी प्रशंसा की। यह सुनकर वसुदेव ने नेम-नारद से कहा-"प्रार्य ! जैसा देवकी का वर्णन आपने मेरे सामने किया है, वैसे ही देवकी के सामने मेरा परिचय भी रखना।" ... "एवमस्तु" कह कर नारद वहां से राजा देवक के यहां गये और देवकी के सामने वसुदेव के रूप, गुण की भूरि-भूरि प्रशंसा की। वसुदेव कंस के साथ मृत्तिकावती पहुँचे और कंस द्वारा वसुदेव के गुणवर्णन से प्रभावित होकर देवक ने शुभ दिन में वसुदेव के साथ देवकी का विवाह कर दिया। वसुदेव के सम्मान में देवक ने बहुत सा धन, दास, दासी और कोटि गावों का गोकुल, जो कि नन्द को प्रिय था, कन्यादान-दहज के रूप में अर्पित १ वसुदेव हिण्डी। २ कंसेण तस्स दिना, पित्तिय धूया य देवकी णाम। [१० म. पु. ५० पृ० १८३] - - Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और कंस को वचन-दान] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ३४१ किया। बड़ी ऋद्धि के साथ देवकी को लेकर वसुदेव वहां से चलकर मथुरा पहँचे। कंस भी उस मंगल महोत्सव में वसदेव के साथ मथुरा पहँचा और विनयपूर्वक वसुदेव से बोला-“देव ! इस खुशी के अवसर पर मुझे भी मुहमांगा उपहार दीजिये" वसुदेव के 'हां' कहने पर हर्षित हो कंस ने देवकी के सात गर्भ मांगे । मैत्री के वश सहज भाव से बिना किसी अनिष्ट की आशंका के वसुदेव ने कंस. की बातें मानलीं। कंस के चले जाने पर वसुदेव को मालूम हुआ कि अतिमुक्तक कुमार श्रमण ने कंस-पत्नी जीवयशा द्वारा उन्हें देवकी का प्रानन्दवस्त्र दिखाकर उपहास किये जाने पर' क्रुद्ध हो कर कहा था--"जिस पर प्रसन्न हो तू नाचती है, उस देवकी का सातवाँ पुत्र तेरे पति और पिता का घातक होगा।" __ कंस ने श्रमण के इसी शाप से भयभीत हो कर उक्त वरदान की याचना की है। वसूदेव ने मन ही मन विचार किया-"क्षत्रिय कभी अपने वचन से पीछे नहीं लौटते । मैंने शुद्ध मन से जब एक बार कंस को गर्भदान का वचन दे दिया है तो फिर इस वचन का निर्वाह करना ही होगा, भले ही इसके लिए बड़ी से बड़ी विपत्ति का सामना क्यों न करना पड़े।' विवाह के पश्चात् देवकी ने क्रमशः छः बार गर्भ धारण किये पर प्रसवकाल में ही देवकी के छः पुत्र सुलसा गाथापत्नी के यहां तथा सुलसा के छः मत पुत्र देवकी के यहां हरिणेगमेषी देव ने अपनी देवमाया द्वारा प्रज्ञात रूप से पहुंचा दिये । वे ही छः पुत्र वसुदेव ने अपनी प्रतिज्ञानुसार प्रसव के तुरन्त पश्चात् ही कंस को सौंपे और कंस ने उन्हें मृत समझकर फेंक दिया। सातवीं बार जब देवकी ने गर्भ धारण किया तो सात महाशुभ-स्वप्न देख कर वह जागत हुई और वसुदेव को स्वप्नों का विवरण कह सुनाया। वसुदेव ने स्वप्नफल सुनाते हुए कहा-"देवि! तुम एक महान् भाग्यशाली पुत्र को जन्म दोगी। यही तुम्हारा सातवा पुत्र अइमुत्त श्रमण के वचनानुसार कंस मोर जरासंध का विघातक होगा।" - १ (क) मानन्दवस्त्रमेतत्ते, देवक्याः स्वसुरीक्ष्यताम् ।। [हरिवंत पु० स० ३० श्लोक १३] (ब) जीवजसाए हसि प्राइमुत्त मुणी य मत्ताए ॥४॥ तेणय कोवादूरिय, हियएणं मुणिवरेण सा सत्ता । जो देवतीय गम्भो, सोतुह पहणो विरणासाय ॥३४॥ [...पृष्ठ १८३] २ बसुदेव हिन्डी। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ वसुदेव-देवकी विवाह 'देवकी स्वप्नफल सुनकर बड़ी प्रसन्न हुई और वसुदेव से एकान्त में बोली - "देव ! कृपा कर इस सातवें गर्भ की रक्षा करना, इसमें जो वचन भंग का पाप होगा वह मुझे हो, पर एक पुत्र तो मेरा जीवित रहना ही चाहिए ।" ३४२ वसुदेव ने देवकी को प्राश्वस्त किया । नव भास पूर्ण होने पर देवकी ने कमलदलसम श्याम कान्ति वाले महान् तेजस्वी बालक को जन्म दिया । प्रसवकाल में देवकी की संतान का स्थानान्तरण न हो, इस शंका से कंस ने पहरेदार नियुक्त कर रखे थे । पर पुण्य प्रभाव से देवकी ने जब पूर्ण काल में तेजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया, उस समय दिव्य प्रभाव से पहरेदार निद्राधीन हो गये । ज्ञात कर्म होने पर वसुदेव जब बालक को गोकुल की ओर ले जाने लगे, उस समय मन्द मन्द वर्षा होने लगी । देवता ने अदृश्य छत्र धारण किया और दोनों ओर दो दिव्य ज्योतियाँ जगमगाती हुई साथ-साथ चलने लगीं । वसुदेव निर्बाध गति से अँधेरी रात में कृष्ण को लिए चल पड़े और यमुना नदी को सरलता से पार कर व्रज पहुँचे । वहाँ नन्द गोप की पत्नी यशोदा ने उसी समय एक बालिका को जन्म दिया था । यशोदा को बालक अर्पित किया और बालिका को लेकर वसुदेव तत्काल अपने भवन में लौट आये तथा देवकी के पास कन्या को रख कर शीघ्र अपने शयनागार में चले गये । कंस की दासियां जागृत हुईं और सद्य:जाता उस बालिका को लेकर कंस की सेवा में उपस्थित हुईं। कंस भी अपना भय टला समझ कर प्रसन्न हुआ । ' कंस को देवकी की संतान के हाथों अपनी मृत्यु होने का भय था अतः वह नहीं चाहता था कि देवकी की कोई संतान जीवित बची रहे । इसी कारण श्रीकृष्ण की सुरक्षा हेतु उनका लालन-पालन गोकुल में किया गया । बालक कृष्ण के अनेक अद्भुत शौर्य और साहसपूर्ण कार्यों की कहानी कंस ने सुनी तो उस को संदेह हो गया कि कहीं यही बालक बड़ा होने पर उसका प्राणान्त न कर दे, अतः उसने बालक कृष्ण को मरवा डालने के लिये अनेक षड्यन्त्र किये । कंस ने अपने अनेक विश्वस्त मायावी मित्रों एवं सहायकों को छद्म वेष में गोकुल भेजा। बालक कृष्ण को मार डालने के लिए अनेक बार छल-प्रपंच पूर्ण प्रयास किये गये, पर हर बार श्रीकृष्ण को मारने का प्रयास करने वाले वे मायावी ही बलराम और कृष्ण द्वारा मार डाले गये । अन्त में कंस ने मथुरा में अपने राजप्रासाद में मल्लयुद्ध का आयोजन किया और कृष्ण एवं बलराम को मारने के लिए मदोन्मत्त दो हाथियों व चारपूर १ वसुदेव हिण्डी के आधार पर । Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और कंस को वचन-दान] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ३४३ तथा मष्टिक नामक दो दुर्दान्त मल्लों को तैनात किया । पर कृष्ण और बलराम ने उन दोनों मल्लों और मत्त हाथियों को मौत के घाट उतार दिया। अपने षड्यन्त्र को विफल हुमा देखकर कंस बड़ा क्रुद्ध हुआ । उसने अपने योद्धाओं को आदेश दिया कि वे कृष्ण और बलराम को तत्काल मार डालें। तत्क्षण कंस के अनेक सैनिक कृष्ण और बलराम पर टूट पड़े। महाबली बलराम कंस के सैनिकों का संहार करने लगे और कृष्ण ने क्रुद्ध शार्दूल की तरह छलांग भर कंस को राजसिंहासन से पृथ्वी पर पटक कर पछाड़ डाला। इस प्रकार कृष्ण ने कंस का वध कर डाला जिससे कि कंस के अत्याचारों से त्रस्त प्रजा ने सुख की सांस ली। कंस के वध से जरासंध का प्रकोप कंस के मारे जाने पर महाराज समुद्रविजय ने उग्रसेन को कारागार से मुक्त कर अपने भाइयों तथा बलराम एवं कृष्ण के परामर्श से उन्हें मथुरा के राजसिंहासन पर बिठाया । उग्रसेन ने भी अपनी पुत्री सत्यभामा का श्रीकृष्ण के साथ बड़ी धूमधाम से विवाह कर दिया। अपने पति कंस की मृत्यु से क्रुद्ध हो जीवयशा यह कहती हुई राजगृह (कुसुमपुर)' की अोर प्रस्थान कर गयी कि बलराम कृष्ण और दशाों का संतति सहित सर्वनाश करके ही वह शान्त बैठेगी, अन्यथा अम्नि-प्रवेश कर आत्मदाह कर लेगी। जीवयशा ने राजगृह पहंचकर रोते-रोते, अपने पिता जरासंध को मनि अतिमक्तक की भविष्यवाणी से लेकर कृष्ण द्वारा कंसवध तक का सारा विवरण कह सुनाया। जरासंध सारा वृत्तान्त सुनकर अपनी पुत्री के वैधव्य से बड़ा दुःखित हुप्रा । उसने जीवयशा को आश्वस्त करते हुए कहा -"पुत्री ! तू मत रो। अब तो सब ही यादवों की स्त्रियाँ रोगी । मैं यादवों को मारकर पृथ्वी को यादवविहीन कर दूंगा।" कालकुमार द्वारा यादवों का पीछा और अग्नि-प्रवेश अपनी पुत्री को आश्वस्त कर जरासंध ने अपने पुत्र एवं सेनापति कालकुमार को मादेश दिया कि वह पांच सौ राजाओं और एक प्रबल एवं विशाल सेना के साथ जाकर समस्त यादवों को मौत के घाट उतार दे। १ 'चउप्पन्न महापुरिस चरियं' में कुसुमपुर को जरासंध की राजधानी बताया गया है । यथा" कुसुमपुरे पयरे जरासंधो महाबलपरक्कमो राया। [पृ० १८१] Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [कालकुमार का अग्नि-प्रवेश नाम के अनुरूप ही सेनापति कालकुमार ने जरासंध के समक्ष प्रतिज्ञा की-"देव ! यादव लोग जहाँ भी गये होंगे उनको मारकर ही मैं लौटूगा । अगर वे मेरे भय से अग्नि में भी प्रवेश कर गये होंगे तो मैं वहां भी उनका पीछा करूंगा।" ... जब यादवों को अपने गुप्तचरों से यह पता चला कि कालकुमार टिड्डी दल के समान अपार सेना लेकर मथुरा की ओर बढ़ रहा है, तो मथा और शौर्यपुर से १८ कोटि यादवों को अपनी चल-सम्पत्ति सहित साथ लेकर समुद्रविजय और उग्रसेन ने दक्षिण-पश्चिम समुद्र की ओर प्रयाण कर दिया। कल्पान्त कालीन विक्षुब्ध समुद्र की तरह कालकुमार की सेना यादवों का पीछा करती हुई बड़ी तेजी के साथ बढ़ने लगी और थोड़े ही समय में विन्ध्य पर्वत की उन उपत्यकाओं के पास पहुंच गयी जहां से थोड़ी ही दूरी पर समस्त यादवों ने पड़ाव डाल रक्खा था। उस समय हरिवंश की कुलदेवी ने अपनी देव-माया से उस मार्ग पर एक ही द्वार वाला गगनचुम्बी पर्वत खड़ा कर दिया और उसमें अगणित चितायें जला दीं। ___कालकुमार ने उस उत्तुग गिरिराज की घाटी में अपनी. सेना के साथ प्रवेश किया और देखा कि वहाँ अगणित चितायें धांय-धाँय करती हुई जल रही हैं तथा एक बड़ी चिता के पास बैठी हुई एक बुढ़िया हृदयद्रावी करुण-विलाप कर रही है। कालकुमार ने उस बुढ़िया से पूछा- "वृद्धे ! यह सब क्या है और तुम . . इस तरह फूट-फूटकर क्यों रो रही हो?" उसने सिसकियां भरते हुए उत्तर दिया-"देव ! त्रिखण्डाधिपति जरासंध के भय से समस्त यादव समुद्र की ओर भागे चले जा रहे थे । जब उन्हें यह सूचना मिली कि साक्षात् काल के समान कालकुमार एक प्रचण्ड सेना के साथ उनका संहार करने के लिए उनके पीछे - पवनवेग से बढ़ता हुआ पा रहा है, तो अपने प्राणों की रक्षा का कोई उपाय न देख कर उन्होंने यहां चिताएं जला लीं और सबने धधकती चितानों में प्रवेश कर आत्मदाह कर लिया है। दशों ही दशाह, बलदेव और कृष्ण भी इन चिताओं में जल मरे हैं । अत: अपने कूटम्बियों के विनाश से दुखित होकर अब मैं भी अग्नि-प्रवेश कर रही हूं।" ..यह कहकर वह महिला धधकती हुई उस भीषण चिता में कूद पड़ी और कालकुमार के देखते २ जलकर राख हो गयी। .. यह देखकर कालकुमार ने अपने भाई सहदेव, यवन एवं साथ के राजानों से कहा-"मैंने अपने पिता के समक्ष प्रतिज्ञा की थी कि यदि यादव आग में Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारिका नगरी का निर्माण] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ३४५ प्रविष्ट हो जायेंगे तो उनका पीछा करते हुए प्राग में से भी मैं उन्हें बाहर खींचखींचकर मारूगा । सब यादव मेरे डर से आग में कूद पड़े हैं, तो अब मैं भी अपनी प्रतिज्ञा के निर्वाह हेतु आग में कूदूगा और एक-एक यादव को प्राग में से घसीट-घसीटकर मारूंगा।" यह कहकर कालकुमार हाथ में नंगी तलवार लिये हए क्रोधावेश में परिणाम की चिंता किये बिना चिता की धधकती आग में प्रवेश कर गया और अपने बंधु-बांधवों एवं सैनिकों के देखते ही देखते जलकर भस्मीभूत हो गया। जरासंध की सेना हाथ मलते हुए वापिस राजगृह की ओर लौट पड़ी। द्वारिका नगरी का निर्माण जब यादवों को कालकूमार के अग्निप्रवेश और जरासन्ध की सेना के लौट जाने की सूचना मिली तो वे प्रसन्नतापूर्वक समुद्रतट की ओर बढ़ने लगे। उन्होंने सौराष्ट्र प्रदेश में रैवत पर्वत के पास आकर अपना खेमा डाला। वहाँ सत्यभामा ने भान और भामर नामक दो युगल पुत्रों को जन्म दिया एवं कृष्ण ने दो दिन का उपवास कर लवण समुद्र के अधिष्ठाता सुस्थित देव का एकाग्रचित्त से ध्यान किया। तृतीय रात्रि में सुस्थित देव ने प्रकट हो श्रीकृष्ण को पांचजन्य शंख, बलराम को सुघोष नामक शंख एवं दिव्य-रत्न और वस्त्रादि भेंट में दिये तथा कृष्ण से पूछा कि उसे किस लिए याद किया गया है ? श्रीकृष्ण ने कहा-'पहले के अर्द्धचक्रियों की द्वारिका नगरी को आपने अपने अंक में छिपा लिया है । अब कृपा कर वह मुझे फिर दीजिए।" . देव ने तत्काल उस स्थल से अपनी जलराशि को हटा लिया । शक्र की आज्ञा से वैश्रवण ने उस स्थल पर बारह योजन लम्बी और ६ योजन चौड़ी द्वारिकापुरी का एक अहोरात्र में ही निर्माण कर दिया । अपार धनराशि से भरे मणिखचित भव्य प्रासादों, सुन्दर वापी-कप-तड़ागों, रमणीय उद्यानों एवं विस्तीर्ण राजपथों से सुशोभित दृढ़ प्राकारयुक्त तथा अनेक गोपुरों वाली द्वारिकापुरी में यादवों ने शुभ-मुहूर्त में प्रवेश किया और वे वहाँ महान् समृद्धियों का उपभोग करते हुए प्रानन्द से रहने लगे। द्वारिका की स्थिति द्वारिका के पूर्व में शैलराज रेवत, दक्षिण में माल्यवान पर्वत, पश्चिम में सौमनस पर्वत और उत्तर में गन्धमादन पर्वत था।' इस तरह चारों भोर से '१ तस्याः पुरो रैवतकोऽपाच्यामासीत्तु माल्यवान् । सौमनसाऽद्रि प्रतीच्यामुदीच्यां गन्धमादनः ।।४१८।। . [त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व ८, सर्ग ५] Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [बालक प्र० की प्र० बाललीलाएं उत्तुग एवं दुर्गम शैलाधिराजों से घिरी हुई वह द्वारिकापुरी प्रबल से प्रबल शत्रुओं के लिए भी अजेय और दुर्भेद्य थी। बालक अरिष्टनेमि को प्रलौकिक बाललीलाएं जरासन्ध के आतंक से जिस समय यादवों ने मथुरा और शौर्यपुर से निष्क्रमण कर अपने समस्त परिवार स्त्री, पुत्र, कलत्र आदि के साथ समुद्रतट की ओर प्रयारण किया, उस समय भगवान अरिष्टनेमि की आयु लगभग चार, साढ़े चार वर्ष की थी और वे भी अपने माता-पिता तथा बन्धु-बान्धवों के साथ थे। यादवों के द्वारिका नगरी में बस जाने पर बालक अरिष्टनेमि दशों दशा) और राम-कृष्ण आदि को प्रमुदित करते हुए क्रमशः बड़े होने लगे। उनकी विविध बाल-लीलाएं बड़ी ही आकर्षक और अतिशय आनन्दप्रदायिनी होती थीं, अत: उनके साथ खेलने की अद्भुत सुखानभूति के लिए उनसे बड़ी वय के यादवकुमार भी अरिष्टनेमि के सूकोमल छोटे शरीर के अनुरूप अपना कद छोटा बनाने की चेष्टा करते हुए खेला करते थे। बालक अरिष्टनेमि की सभी बाल-लीलाएं और समस्त चेष्टाएं मातापिता, परिजनों एवं नागरिकों को आश्चर्यचकित कर देने वाली होती थीं। यादव कुल के सभी राजकुमारों में बालक अरिष्टनेमि अतिशय प्रतिभाशाली, प्रोजस्वी एवं अनुपम शक्ति-सम्पन्न माने जाते थे । आपके प्रत्येक कार्य एवं चेष्टा को देखकर, देखने वाले बड़े प्रभावित हो जाते थे। उन्हें यह दृढ़ विश्वास हो गया था कि यह बालक आगे चलकर महान् प्रतापी महापुरुष होगा और संसार में अनेक महान् कार्य करेगा। राजकीय समुचित लालन-पालन के पश्चात् ज्योंही अरिष्टनेमि कुछ बड़े हुए तो उन्हें योग्य आचार्य के पास विद्याभ्यास कराने की बात सोची गई। पर महाराज समुद्रविजय ने देखा कि बालक अरिष्टनेमि तो इस वय में भी स्वतः ही सर्व विद्यासम्पन्न हैं, उन्हें क्या सिखाया जाये ? महापुरुषों में पूर्वजन्मों की संचित ऐसी अलौकिक प्रतिभा होती है कि वे संसार के उच्च से उच्च कोटि के विद्वानों को भी चमत्कृत कर देते हैं। जिस प्रकार श्रीकृष्ण का बाल्यकाल १ त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व ८, सर्ग ५, पलोक ३८८ २ तन्वन्मुदं दशार्हाणां, भ्रातोश्च हलिकृष्णयोः । परिष्टनेमिर्मगवान्, ववृधे तत्र च क्रमात् ॥२॥ ज्यायांसोऽपि लघूभूय, चिक्रीडः स्वामिना समम् । सर्वेऽपि भ्रातरः क्रीड़ा शैलोद्यानादि भूमिषु ।।३।। [त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, वं ८, सन ६] Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४७ जरासंध के दूत का प्रागमन] भगवान् श्री अरिष्टनेमि गोकूल में और शेष प्रायः सारा जीवन भीषण संघर्षों में बीतने के कारण प्राचार्य संदीपन के पास शिक्षा-ग्रहण का उन्हें यथेष्ट समय नहीं मिला था तथापि वे सर्वकला-विशारद थे। भगवान अरिष्टनेमि तो जन्म से ही विशिष्ट मति, श्रुति एवं अवधिज्ञान के धारक थे। उन्हें भला संसार का कोई भी कलाचार्य या शिक्षाशास्त्री क्या सिखाता? जरासन्ध के दूत का यादव-सभा में प्रागमन यादवों के साथ द्वारिकापुरी में रहते हए बलराम और कृष्ण ने अनेक राजाओं को वश में कर अपनी राज्यश्री का विस्तार किया । यादवों की समद्धि और ऐश्वर्य की यशोगाथाएं देश के सुदूर प्रान्तों में भी गाई जाने लगीं। . जब जरासंध को ज्ञात हुआ कि उसके शत्रु यादवगण तो अतुल धनसम्पत्ति के साथ द्वारिका में देवोपम सुख भोग रहे हैं और उसका पुत्र कालकुमार व्यर्थ ही पतंगे की तरह छल-प्रपंच से अग्नि-प्रवेश द्वारा मारा गया, तो उसने ऋद्ध होकर एक दूत समुद्रविजय के पास द्वारिका भेजा। दूत ने द्वारिका पहुँचकर यादवों की सभा में महाराज समुद्रविजय को सम्बोधित करते हुए जरासंध का उन लोगों के लिए लाया हुआ सन्देश सुनाया "मेरा सेनापति मारा गया, उसकी तो मझे चिन्ता नहीं है क्योंकि अपने स्वामी के लिए रणक्षेत्र में जूझने वाले सुभटों के लिए विजय या प्राणाहुति इन दो में से एक अवश्यंभावी है । पर अपने भुजबल और पराक्रम पर ही विश्वास करने वाले आप जैसे युद्धनीति-निपुण राजारों के लिए इस प्रकार का छलप्रपंच नितान्त अशोभनीय और निन्दाजनक है । आप लोगों ने युद्धनीति का उल्लंघन कर जो कपटपूर्ण व्यवहार कालकुमार के साथ किया है, उसका फल भोगने के लिए उद्यत हो जाइये । त्रिखण्ड भरताधिपति महाराज जरासंध अपने कल्पान्त-कालोपम क्रोधानल में सब यादवों को भस्मीभूत कर डालने के लिए सदलबल आ रहे हैं । अब चाहे आप लोग समुद्र के उस पार चले जाओ, दुर्गम पर्वतों के शिखरों पर चढ़ जानो, चाहे ईश्वर की भी शरसा में चले जायो, तो भी किसी दशा में कहीं पर भी आप लोगों के प्राणों का त्राण नहीं है । अब तो आप लोग यदि डर कर पाताल में भी प्रवेश कर जानोगे तो भी क्रुद्ध शार्दूल जरासंध तुम्हारा सर्वनाश किये बिना नहीं रहेगा।" जरासन्ध के दूत के मुख से इस प्रकार की अत्यन्त कटु और धृष्टतापूर्ण बातें सुनकर अक्षोभ, अचल आदि दशा), बलराम-कृष्ण, प्रद्यम्न, शाम्ब और सब यदुसिंहों के भुजदण्ड फड़क उठे; यहां तक कि त्रैलोक्यैकधीर, अथाह Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [उस समय की राजनीति अम्बुधि-गम्भीर, किशोर अरिष्टनेमि की शान्त मुखमुद्रा पर भी हल्की सी लाली दृष्टिगोचर होने लगी। यादव योद्धाओं के हाथ अनायास ही अपने-अपने शस्त्रों पर जा पडे। महाराज समुद्रविजय ने इंगित मात्र से सबको शान्त करते हुए घनवत् गम्भीर स्वर में कहा-“दूत ! यदि यादवों के विशिष्ट गुणों पर मुग्ध हो स्नेह के वशीभूत होकर किसी देवी ने तुम्हारे सेनापति को मार दिया तो इसमें यादवों ने कौनसा छल-प्रपञ्च किया ?" __ “यदि पीढियों से चले आ रहे अपने परस्पर के प्रगाढ़ प्रेमपूर्ण सम्बन्धों को तोड़कर तेरा स्वामी सेना लेकर आ रहा है तो उसे आने दे । यादव भी भीरु नहीं हैं।" भोज नरेश उग्रसेन ने कहा- "सुनो दूत ! तुम दूत हो और हमारे घर आये हुए हो, अतः यादव तुम्हें अवध्य समझकर क्षमा कर रहे हैं । अब व्यर्थ प्रलाप की आवश्यकता नहीं । जाप्रो और अपने स्वामी से कह दो कि जो कार्य प्रारम्भ कर दिया है, उसे आप शीघ्र पूर्ण करो।"१ उस समय की राजनीति दूत के चले जाने के अनन्तर दशाह, बलराम-कृष्ण, भोजराज उग्रसेन, मन्त्रिपरिषद् और प्रमुख यादव मन्त्रणार्थ मन्त्रणाभवन में एकत्रित हुए । गुप्त मंत्ररणा प्रारम्भ करते हुए समुद्रविजय ने मन्त्रणा-परिषद् के समक्ष यह प्रश्न रखा-"हमें इस प्रकार की अवस्था में शत्रु के साथ किस नीति का अवलम्बन करते हुए कैसा व्यवहार करना चाहिये ?" भोजराज उग्रसेन ने कहा-"महाराज ! राजनीति-विशारदों ने साम, भेद, उपप्रदान (दाम) और दण्ड-ये चार नीतियां बताई हैं । जरासंध के साथ साम-नीति से व्यवहार करना अब पूर्णरूपेण व्यर्थ है क्योंकि अब वह हमारी भोर से किये गये मृदु से मृदुतर व्यवहार से भी छेड़े हुए भयानक काले नाग की तरह क्रुद्ध हो कर फूत्कार कर उठेगा।" __. “दूसरी जो भेदनीति है उसका भी जरासन्ध पर प्रयोग किया जाना असम्भव है क्योंकि मगधेश द्वारा अतिशय दान-मानादि से सुसमृद्ध एवं सम्मानित उसके समस्त सामन्त मगधपति के ऋण से उऋण होने के लिए उसके एक ही इंगित पर अपने सर्वस्व और प्रारणों तक को न्योछावर करने में अपना महोभाग्य समझते हैं।" १ चउवन महापुरुष चरियम् [पृ० १८३-८४] - Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस समय की राजनीति] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ३४६ "तीसरी उपप्रदान (दाम) नीति का तो जरासंध के विरुद्ध प्रयोग करना . नितान्त प्रसाध्य है । क्योंकि जरासंध ने अपनी अनुपम उदारता से अपने समस्त सामन्तों, अधिकारियों एवं सैनिकों तथा दासादिकों को कंचन-कामिनी, मरिण रत्नादि से पूर्ण वैभवसम्पन्न बना रखा है।" "प्रतः चौथी दण्ड-नीति का अवलम्बन ही हमारे लिए उपादेय और श्रेयस्कर है।" "इन चार नीतियों के अतिरिक्त नीति-निपुणों ने एक और उपाय भी बताया है कि प्रजेय प्रबल शत्रु से संघर्ष को टालने हेतु उसके समक्ष आत्मसमर्पण कर देना चाहिये अथवा अपने स्थान का परित्याग कर किसी अन्य स्थान की मोर पलायन कर जाना चाहिये।" "पर ये दोनों प्रकार के हीन पाचरण हमारे प्रात्म-सम्मान के घातंक हैं और बलराम व कृष्ण जैसे पुरुषसिंह जब हमारे सहायक हैं, उस अवस्था में पलायन अथवा मात्म-समर्पण का प्रश्न ही नहीं उठता।" "किन्तु दण्ड-नीति का अवलम्बन करते समय रण-नीति के इस अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त का प्रक्षरशः पालन करना होगा कि युद्ध में उलझा हा व्यक्ति अन्तिम विजय तक प्राण-परण से जूझता रहे और एक क्षणभर के लिए भी सुख और विश्राम की माकांक्षा न करे।" उग्रसेन की साहस और नीतिपूर्ण बातों का सभी सभासदों ने 'साधु-साधु' कहकर एक स्वर से समर्थन करते हुए कहा-"धन्य है आपकी नीतिकुशलता, मामिक अभिव्यंजना और वीरोचित गौरव-गरिमा को । हम सब हृदय से प्रापका अभिनन्दन करते हैं।" तदनन्तर सभी सभासद महाराज समुद्रविजय का अभिमत जानने के लिए उनकी मोर उत्कंठित हो देखने लगे। महाराज समुद्रविजय ने गम्भीर स्वर में कहा-"महाराज उग्रसेन ने मानो मेरे ही मन की बात कह दी है । जिस प्रकार तीव्र ज्वर में सम अर्थात् ठंडी मौषधि ज्वर के प्रकोप को भीषण रूप से बढ़ा देती है, उसी प्रकार अपने बल-दर्प से गर्वोन्मत्त शत्रु के प्रति किया गया साम-नीति का व्यवहार उसके दर्प को बढ़ाने वाला और अपनी भीरुता का द्योतक होता है।" "भेद-नीति भी छल-प्रपञ्च, कूटिलता और वंचना से भरी होने के कारण गर्हित और निन्दनीय है, अतः वह भी महापुरुषों की दृष्टि में हेय मानी गई है।" Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [दोनों ओर युद्ध की तैयारियाँ “इसी तरह उपप्रदान की नीति भी अात्मसम्मान का हनन करने वाली व अपमानजनक है।" "अतः अभिमानी जरासन्ध के गर्व को चूर-चूर करने के लिए हमें दण्डनीति का ही प्रयोग करना चाहिये और वह भी दुर्ग का आश्रय लेकर नहीं अपितु उसके सम्मुख जाकर उसकी सीमा पर उससे युद्ध के रूप में करना चाहिये। क्योंकि दुर्ग का आश्रय लेकर शत्र से लड़ने में संसार के सामने अपनी भीरुता प्रकट होने के साथ ही साथ अपने राज्य के बहुत बड़े भाग पर शत्रु का अधिकार . भो हो जाता है। शत्र के सम्मख जाकर उसकी सीमा पर यद्ध करने की दशा में अपनी भीरुता के स्थान पर पौरुष प्रकट होता है, अपने राज्य का समस्त भू-भाग अपने अधिकार में रहता है । शत्र भी हमारे शौर्य एवं साहस से आश्चर्यचकित हो किंकर्तव्यविमूढ हो जाता है । अपनी प्रजा और सैन्यबल का साहस तथा मनोबल बढ़ता है और अपनी सीमा-रक्षक सेनाएं भी युद्ध में हमारी सहायता कर सकती हैं । दण्ड-नीति के इन सब गुणों को ध्यान में रखते हुए हमारे लिए यही श्रेयस्कर है कि हम अपने शत्रु को उसके सम्मुख जाकर युद्ध में परास्त करें।" __ दोनों मोर युद्ध की तैयारियां मन्त्रणा-परिषद में उपस्थित सभी सदस्यों ने जयजयकार और हर्षध्वनि क साथ महाराज समद्रविजय की मन्त्रणा को स्वीकार किया। शंख-ध्वनि और रणभेरी के नाद से समस्त गगनमण्डल गूज उठा । मित्र राजाओं के पास तत्काल दूत भेज दिये गये । योद्धा रण-साज सजने लगे। शुभ मुहूर्त में यादवों की चतुरंगिणी प्रबल सेना ने रणक्षेत्र की ओर प्रलयकालीन आँधी की तरह प्रयाग कर दिया । आषाढ़ की घनघोर मेघघटा के गर्जन तुल्य 'घर-घर' रव से गगनमण्डल को गजाते हए रथों के पहियों से, तरल तुरंग-सेना की टापों से और पदाति सेना के पाद-प्रहारों से उड़ी हुई धूलि के समूहों ने अस्ताचल पर अस्त होने वाले सूर्य को मध्याह्न-वेला में ही अस्तप्राय: कर दिया। इस तरह कूच पर कूच करती हुई यादवों की सेना कुछ ही दिनों में द्वारिका से ४५ योजन अर्थात् ३६० माइल (१८० कोस) दूर सरस्वती नदी के तटवर्ती सिनीपल्ली (सिणवल्लिया) नामक ग्राम के पास पहँची और वहां १ चउवन महापुरुष चरियम् [पृ १८४-८५] Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनों ओर युद्ध की तैयारियाँ ] रणक्षेत्र के लिए उपयुक्त समतल करा समुद्रविजय ने सेना का पड़ाव डाल दिया । " भगवान् श्री अरिष्टनेमि ३५१ भूमि देख, वहां पर सैन्य शिविरों का निर्मारण यादवों की सेना के पड़ाव से आगे अर्थात् सेनपल्ली ग्राम से ४ योजन की दूरी पर जरासन्ध की सेना पड़ाव डाले हुए थी । यादव सेना ने जिस समय सेनपल्ली में पड़ाव डाला उस समय अपने भ्रमणकाल में वसुदेव द्वारा उपकृत कतिपय विद्याधर- पति अपनी सेनाओं के साथ यादवों की सहायता के लिए वहाँ आये और उन्होंने समुद्रविजय को प्ररणाम कर निवेदन किया- " आपके महामहिम यादव कुल में यों तो महापुरुष अरिष्टनेमि एकाकी ही समस्त विश्व का त्राण और विनाश करने में समर्थ हैं, कृष्ण और बलदेव जैसे अनुपम बलशाली व प्रद्युम्न, शाम्ब आदि करोड़ों योद्धा हैं, वहां हमारे जैसे लोग आपकी सहायता कर ही क्या सकते हैं । तथापि हम भक्तिवश इस अवसर पर आपकी सेवा में आ गये हैं. अतः आप हमें अपने सामन्त समझ कर आज्ञा दीजिये कि हम भी आपकी यथाशक्ति सेवा करें | कृपा कर आप वसुदेव को हमारा सेनापति रखिये और शाम्ब एवं प्रद्युम्न को वसुदेव की सहायतार्थ हमारे साथ रखिये ।" उन विद्याधरों ने समुद्रविजय से यह भी निवेदन किया "वैताढ्य गिरि के अनेक शक्तिशाली विद्याधर- राजा मगधराज जरासन्ध के मित्र हैं और वे जरासन्ध की इस युद्ध में सहायता करने के लिये अपनी सेनाओं के साथ आ रहे हैं । आप हमें आज्ञा दें कि हम उन विद्याधर पतियों को वैताढ्य गिरि पर ही युद्ध करके उलझाये रखें।" समुद्रविजय ने कृष्ण की सलाह से वसुदेव, शाम्ब और प्रद्युम्न को विद्याधरों के साथ रहकर वैताढ्य गिरि के जरासन्ध-समर्थक विद्याधर राजाश्र के साथ युद्ध करने का आदेश दिया । उस समय भगवान् अरिष्टनेमि ने अपनी १ (क) कइवय पयारणएहि च पत्ता सरस्सतीए तीरासण्णं सिरणवल्लियाहियारणं गामं ति । तत्थ य समथल समरजोग्ग भूमिभागम्मि प्रावासियो समुद्दविजयो त्ति । [ चउवन म. पु. च., पृ. १८६ ] (ख) पंच चत्वारिंशतं तु योजनानि स्वकात् पुरात् । गत्वा तस्थौ सेनपल्ल्यां, ग्रामे संग्राम कोविदः || [ त्रिषष्टि शलाका पु. च., पर्व ८, स. ७, श्लो. १६६ ] २ प्रर्वान् जरासंघ सैन्याच्चतुभिर्योजनः स्थिते । [त्रिषष्टि श. पु. च., प. ८, सं. ७, श्लो. १६७ ] Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ श्रमात्य हंस की जरासंध को सलाह भुजा पर जन्माभिषेक के समय देवताओं द्वारा बाँधी गई अस्त्रों के प्रभाव का निराकरण करने वाली प्रौषधि वसुदेव को प्रदान की ।' श्रमात्य हंस की जरासन्ध को सलाह गुप्तचरों द्वारा यादवों की सेना के आगमन का समाचार सुन कर जरासन्ध के हंस नामक अमात्य ने जरासन्ध को समझाने का प्रयास करते हुए कहा - " त्रिखण्डाधिपते ! अपने हित तथा श्रहित की मन्त्ररणा के पश्चात् ही प्रारम्भ किया हुआ कार्य श्रेयस्कर होता है। बिना मन्त्ररणा किये कार्य करने के फलस्वरूप कंस काल का ग्रास बन गया । याद कीजिये, आपकी उपस्थिति में ही रोहिणी के स्वयंवर के समय अकेले वसुदेव ने सब राजाओं को पराजित कर दिया था । वसुदेव से भी बलिष्ठ समुद्रविजय ने अनेक बार आपकी सेनाओं की रक्षा की है। अब तो उनकी शक्ति में पहले से भी अधिक अभिवृद्धि हो चुकी है।" "वसुदेव के पुत्र कृष्ण और बलराम दोनों ही प्रतिरथी हैं । इन दोनों का प्रबल प्रताप और ऐश्वर्य देखिये कि स्वयं वैश्रवरण ने इनके लिये अलका सी अनुपम द्वारिकापुरी का निर्मारण किया है । महाकाल के समान प्रबल पराक्रमी भीम और अर्जुन, बलराम और कृष्ण के समान बल वाले शाम्ब एवं प्रद्युम्न प्रादि अगणित अजेय योद्धा यादव - सेना में हैं। यादव सेना के प्रन्यान्य वीरों की नाम पूर्वक गणना की आवश्यकता नहीं, अकेले अरिष्टनेमि को ही ले लीजिये । वे एकाकी केवल अपने ही भुजबल से समस्त पृथ्वी को जीतने में समर्थ हैं ।" "इधर आपकी सेना में सबसे उच्चकोटि के योद्धा शिशुपाल और रुक्मी हैं, जिनका बल प्राप रुक्मिणी हरण के समय देख चुके हैं कि किस तरह हलधर के हाथों वे पराजित हुए ।” " दुर्योधन और शकुनि कायरों की तरह केवल छल-बल ही जानते हैं, अतः उनकी वीरों में कहीं गणना ही नहीं की जा सकती । कर अथाह समुद्र में मुट्ठी भर शक्कर के समान है क्योंकि यादव सेना में एक करोड़ महारथी हैं ।" "हमारी सेना में केवल आप ही एक प्रतिरथी हैं जबकि यादव- सेना में श्री अरिष्टनेमि, कृष्ण और बलराम ये तीन प्रतिरथी हैं । अच्युतेन्द्र प्रादि सभी सुरेन्द्र जिनके चरणों में भक्तिपूर्वक सिर झुकाते हैं, भला उन अरिष्टनेमि के साथ युद्ध करने का दुस्साहस कौन कर सकता है ? " २ १ तदा च वसुदेवाय प्रददेऽरिष्टनेमिना । जन्मस्नात्रे सुरैर्दोष्णि, बद्धोषध्यस्त्रवारणी ।। - [त्र. श. पु. च, पर्व ८, स. ७ - श्लो. २०६ ] २ नेमिः कृष्णो बलश्चातिरथाः परबले त्रयः । त्वमेक एव स्वबले बलयोर्महदन्तरम् ॥ अच्युताद्याः सुरेन्द्रा यं, नमस्कुर्वन्ति भक्तितः । तेन श्री नेमिना सार्धं, युद्धाय प्रोत्सहेव ।। [त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र प. ८ स. ७ श्लो. २२०-२१] Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ दोनों सेनाओं की व्यूह रचना ] भगवान् श्री श्ररिष्टनेमि "जिस दिन आपका प्रिय पुत्र कालकुमार कुलदेवी द्वारा छलपूर्वक मार दिया गया, उसी दिन से आपका भाग्य आपसे विपरीत हो गया। नीति का अनुसरण करते हुए यादव शक्तिशाली होते हुए भी मथुरा से भागकर द्वारिका में जा बसे । अब भी कृष्ण स्वेच्छा से आपके साथ युद्ध करने नहीं आया है अपितु पूंछ पर पाणि प्रहार कर जिस तरह भीषरण काले विषधर को बिल से आकृष्ट किया जाता है, उसी प्रकार वह आपके द्वारा आकृष्ट किया जाकर आपके सम्मुख आया है ।" " इतना सब कुछ हो जाने पर भी अभी समय है । आप यदि इसके साथ युद्ध नहीं करेंगे तो यह अपने आप ही द्वारिका की ओर लौट जायगा ।" ३५३ हंस के मुख से इस कटु सत्य को सुनकर जरासन्ध प्राग-बबूला हो गया और उसे तिरस्कृत करते हुए बोला - "दुष्ट ! तेरे मुख से शत्रु की प्रशंसा सुन कर ऐसा आभास होता है कि इन मायावी यादवों ने तुझे भेद-नीति से अपनी ओर मिला लिया है । मूर्ख ! तू शत्रु की सराहना करके मुझे डराने का व्यर्थ प्रयास मत कर । श्राज तक कहीं कभी शृगालों की 'हुकी-हुकी' से सिंह डरा है ? ये प्रकिंचन ग्वाले तेरे देखते ही देखते मेरी क्रोधाग्नि में जल कर भस्म हो जायेंगे ।" दोनों सेनाओंों की व्यूह-रचना तदनन्तर दोनों सेनाओं ने व्यूह रचना आरम्भ की । जरासन्ध के सेनानियों ने चक्रव्यूह की रचना की । उस चक्रव्यूह में एक हजार आरे रखे गये । प्रत्येक प्रारे पर एक-एक नृपति, एक सौ हाथी, २ हजार रथी, पाँच हजार अश्वारोही सैनिक और सोलह हजार प्रबल पराक्रमी भीषरण - संहारक शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित पदाति-सैनिक तैनात किये गये । चत्रनाभि के चारों ओर नियत किये गये ११२५० राजानों के बीच त्रिखण्डाधिपति जरासन्ध ने उस चक्रव्यूह की नाभि में इस भीषण युद्ध का संचालन करने के लिए मोर्चा सँभाला । मगधेश्वर की पीठ के पीछे की ओर गान्धार और सिन्धु जनपद की सेनाएं, दक्षिण - पार्श्व में दुर्योधन आदि १०० भाइयों की कौरव सेनाएं, आगे की ओर मध्य प्रदेश के सभी राजा और वाम पार्श्व में अगणित भूपतियों की सेनाएं मोर्चा संभाले युद्ध के लिए तैयार खड़ी थीं । चक्रव्यूह के इन एक हजार श्रारों की प्रत्येक संधि पर पांच सौ शकटव्यूहों की रचना की गई। प्रत्येक शकट व्यूह के मध्य में एक-एक नृपति उन शकट-व्यूहों के समुचित संचालन के लिये नियत किये गये थे। उस चक्रव्यूह के चारों तरफ विविध प्रकार के प्रभेद्य व्यूहों की रचना की गई । Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ दोनों सेनाओं की इस प्रकार महाकाल के आन्त्रजाल की तरह विशाल, दुर्गम, दुर्भेद्य, अजेय और सुदृढ़ चक्रव्यूह की रचना सम्पन्न हो जाने पर जरासन्ध ने अनेक भीषण युद्धों को जीतने वाले विकट योद्धा कौशल - नरेश हिरण्यनाभ को चक्रव्यूह के सेनापति पद पर अभिषिक्त किया । ३५४ यादवों ने भी जरासन्ध के दुर्भेद्य चक्रव्यूह से टक्कर लेने में सक्षम, गरुड़ की तरह भोषरण प्रहार करने वाले गरुड़ व्यूह की रचना की । गरुड़ के शौण्ड - तुण्ड (चोंच) के आकार के गरुड़ - व्यूह के अग्रभाग पर पचास लाख उद्भट यादव-योद्धाओं के साथ कृष्ण और बलराम सन्नद्ध थे । कृष्ण-बलराम के पृष्ठभाग पर जराकुमार, अनावृष्टि आदि सभी वसुदेव-पुत्र अपने एक लाख रथी योद्धाओं के साथ तैनात थे । इनके पीछे उग्रसेन अपने पुत्रों सहित एक करोड़ रथारोही सैनिकों के साथ डटे थे । उग्रसेन की सहायता के लिए अपने योद्धाओं सहित घर, सारण आदि यदुवीर, उग्रसेन के दक्षिण - पार्श्व में प्रबल प्रतापी स्वयं महाराज समुद्रविजय अपने भाइयों, पुत्रों और अगणित सैनिकों के साथ शत्रु सेना के लिए काल के समान प्रतीत हो रहे थे । अतिरथी अरिष्टनेमि तथा महारथी महानेमि, सत्यनेमि, दृढ़नेमि, सुनेमि, विजयसेन, मेद्य, महीजय, तेजसेन, जयसेन, जय और महाद्युति ये समुद्रविजय के पुत्र उनके दोनों पार्श्व में एवं अनेकों नृपति पच्चीस लाख रथी - योद्धाओं के साथ परिपार्श्व में उनके सहायतार्थ सन्नद्ध थे । समुद्रविजय के वामपक्ष की ओर बलराम के पुत्र तथा धृतराष्ट के सौ पुत्रों का संहार करने के लिये कृत-संकल्प पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव अपनी सेना के साथ भीषण संहारक शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित खड़े थे । पाण्डवों के पीछे की ओर २५ लाख रथारूढ़ सैनिकों के साथ सात्यकि आदि अनेक महारथी तथा इनके पृष्ठ भाग में ६० लाख रथी सैनिकों के साथ सिंहल, बर्बर, कम्बोज, केरल और द्रविड़ राज्यों के महीपाल अपनी सेनाओं के साथ नियुक्त किये गये । 1 पंख फैला कर विषधरों पर विद्युत् वेग से झपटते हुए गरुड़ की मुद्रा के आकार वाले इस गरुड़ व्यूह के दोनों पक्षों के रक्षार्थ भानु, भामर, भीरुक, असित, संजय, शत्रुंजय, महासेन, वृहद्ध्वज, कृतवर्मा आदि अनेक महारथी शक्तिशाली अश्वारोहियों, रथारोहियों, गजारोहियों एवं पदाति योद्धाओं के साथ नियुक्त किये गये थे । इस प्रकार स्वयं श्रीकृष्ण ने शत्रु पर भीषरण प्रहार करने में गरुड़ के समान अत्यन्त शक्तिशाली अभेद्य गरुड़ व्यूह की रचना की । Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्यूह रचना ] भगवान् श्री श्ररिष्टनेमि ३५५. महाराज समुद्रविजय ने कृष्ण के बड़े भाई अनाधृष्टि को जब यादवसेना का सेनापति नियुक्त किया, उस समय शंख प्रादि रणवाद्यों की ध्वनि एवं यादव - सेना के जय घोषों से गगनमण्डल गूंज उठा। दोनों ओर के योद्धा भूखे मृगराज की तरह अपने-अपने शत्रुदल पर टूट पड़े । भ्रातृ-स्नेह के कारण अरिष्टनेमि भी युद्ध के लिए रणांगण में जाने को तत्पर हुए । यह देखकर इन्द्र ने उनके लिए दिव्य शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित जैत्ररथं " और अपने सारथि मातलि को भेजा । मातलि द्वारा प्रार्थना करने पर अरिष्टनेमि सूर्य के समान तेजस्वी रथ पर आरूढ़ हुए । ' दोनों व्यूहों के अग्रभाग पर स्थित दोनों पक्षों की रक्षक सेनाओं के योद्धा प्राणपण से अपने शत्रु का संहार करने में जुट गये। बड़ी देर तक भीषरण संग्राम होता रहा पर उनमें से कोई भी अपने प्रतिपक्षी के व्यूह का भेदन नहीं कर सके । अन्त में जरासन्ध के सैनिकों ने गरुड़-व्यूह के रक्षार्थ श्रागे की ओर लड़ती हुई यादव - सेना की सुदृढ़ अग्रिम रक्षापंक्ति को भंग करने में सफलता प्राप्त कर ली । उस समय कृष्ण ने गरुड़ ध्वज को फहराते हुए अपने सैनिकों को स्थिर किया । तत्काल महानेमि, अर्जुन और अनावृष्टि ने अपने-अपने शंखों के घोर निनाद के साथ क्रुद्ध हो जरासंध की अग्रिम सेना पर भीषरण प्रक्रमरण किया और प्रलय-पवन के वेग की तरह बढ़कर न केवल जरासंध के चक्रव्यूह की रक्षक सेनाओं का ही संहार किया अपितु चक्रव्यूह को भी तीन प्रोर से तोड़कर उसमें तीन बड़ी-बड़ी दरारें डाल दीं । ये तीनों महान् योद्धा प्रलयकाल की घनघोर घटाओं के समान शरवर्षा करते हुए शत्रु सेना के प्रगणित उद्भट योद्धाओं को धराशायी करते हुए जरासन्ध के चक्रव्यूह में काफी गहराई तक घुस गये । इनके पीछे यादव सेना की अन्य पंक्तियाँ भी चक्रव्यूह के अन्दर प्रवेश कर शत्रु सैन्य का दलन करने लगीं । २ १ भ्रातृस्नेहाद्युयुत्सु च शक्रो विज्ञाय नेमिनम् । प्रेषीद्रथं मातलिनो, जैत्रं शस्त्रांचितं निजम् ॥ २६९॥ सूर्योदयमिवातन्वन्, स रथो रत्नभासुरः । उपानीतो मातलिनालचक्रेऽरिष्टनेमिना ॥२६२॥ २ उद्वेलित विक्षुब्ध समुद्र की तरह बढ़ती हुई जरासन्ध की विशाल सेना को भ्ररिष्टनेमि द्वारा पराजित करने का आचार्य शीलांक ने चउवन महापुरिस चरियं में इस प्रकार वर्णन किया है : अहरणवर तत्थ थक्कड़ कठिणगुरणप्पहर किरण इयपउट्ठी । तेल्लोक्कमंदिरक्खंभविग्भमोऽरिट्ठवर मी ।। ११४।। तो श्रायण्णयङ्क्षिय चंडकोयंड मुक्कसरपसरेण लीहायड़कियं व. तुलिय तेल्लोकधीरमुप्पण्णपयावेरणं थंभियं व, श्रचितसत्तिसामत्थयामंतेण मोहियं व घरियं पराणीयं । एत्थावसरम्मि य एक्कपाससंगलन्तकुमाराणुगयराम केसवं, प्रणम्रो भीम अज्जुरण - रणउल-सहदेवाहिट्ठियजुहिट्ठिलं प्रणश्रो भोयरणरिदोववेयससहोदर - समुद्द विजयं पर्यट्टियं पहाणसमरं ति । [च० म० पु० च०, पृ० १८८ ] Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [दोनों सेनामों की ___महानेमि, अर्जुन और अनाधृष्टि निरन्तर जरासंध की सेना को अर्कतूल (आक की रूई) की तरह धुनते हुए आगे बढ़ने लगे। इन तीनों महारथियों ने शत्रु-सेना में प्रलय मचा दी। अर्जुन के गाण्डीव धनुष की टंकारों से जरासंघ की सेना के हृदय धड़क उठे, उसके द्वारा की गई शरवर्षा से दिशाएं ढंक गई और अंधकार सा छागया। तीव्र वेग से शत्रु-सेना में बढ़ते हुए अर्जुन से युद्ध करने के लिए दुर्योधन अपनी सेना के साथ उसके सम्मुख प्रा खड़ा हुआ। अनाधृष्टि रौधिर और महानेमि से रुक्मी युद्ध करने लगे। ___ इन छहों वीरों का बड़ा भीषण युद्ध हुआ । दुर्योधन, रुक्मी और रौधिर की रक्षार्थ जरासन्ध के अनेक योद्धा मिलकर अर्जुन अनाधृष्टि और महानेमि पर शस्त्रास्त्रों से प्रहार करने लगे । महानेमि ने रुक्मी के रथ को चूर-चूर कर दिया और उसके सब शस्त्रास्त्रों को काटकर उसे शस्त्र-विहीन कर दिया। शत्रुजय आदि सात राजाओं ने देखा कि रुक्मी महानेमि के द्वारा काल के गाल में जाने ही वाला है, तो वे सब मिलकर महानेमि पर टूट पड़े । शत्रुजय द्वारा महानेमि पर चलाई गई भीषण ज्वाला-मालाकुला-अमोघ शक्ति को अरिष्टनेमि की अनुज्ञा प्राप्त कर मातलि ने महानेमि के बाण में बज पारोपित कर विनष्ट कर दिया। इस तरह युद्ध भीषणतर होता गया। इस युद्ध में अर्जुन ने जयद्रथ और कर्ण को मार डाला । भीम ने दुर्योधन, दुःशासन आदि अनेक घृतराष्ट्र पुत्रों को मौत के घाट उतार दिया। महाबली भीम ने जरासन्ध की सेना के हाथियों को हाथियों से, रथों को रथों से और घोड़ों को घोड़ों से भिड़ाकर शत्रु-सेना का भयंकर संहार कर डाला। युधिष्ठिर ने शल्य को, सहदेव ने शकुनि को रणक्षेत्र में हरा कर यमधाम पहुँचा दिया । महाराज समुद्रविजय के जयसेन और महीजय नामक दो पुत्र जरासन्ध के सेनापति हिरण्यनाभ से लड़ते हए युद्ध में काम पाये । सात्यकि ने भूरिश्रवा को मौत के घाट उतार दिया । महानेमि ने प्राग्योतिषपति भगदत्तको और उसके मदोन्मत्त हस्ति-श्रेष्ठ को मार डाला। यादव-सेना के सेनापति अनाधृष्टि ने जरासन्ध की सेना के सेनापति हिरण्यनाभ के साथ युद्ध करते हुए उसके धनुष के टुकड़े करके रथ को भी नष्ट कर डाला और उसे पदाति, केवल प्रसिपाणि देख कर भी अपने रथ से तलवार लिये कूद पड़े। दोनों सेनामों के सेनापतियों का अद्भुत प्रसियुद्ध बड़ी देर तक होता रहा । अन्त में मनापुष्टि ने अपनी तलवार से हिरण्यनाभ के सिर को धड़ से अलग कर दिया। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यूह रचना] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ३५७ अपने सेनापति हिरण्यनाभ के मारे जाते ही जरासन्ध की सेना में हाहाकार और भगदड़ मच गई एवं यादव-सेना के जयघोषों से नभमण्डल प्रतिध्वनित हो उठा। उस समय अंशुमाली अस्ताचल की ओट में अस्त हो चुके थे, अतः दोनों सेनाएँ अपने-अपने शिविरों की ओर लौट गई। जरासंध ने अपने सेनानायकों और मन्त्रियों से मंत्रणा कर सेनापति के स्थान पर शिशुपाल को अभिषिक्त किया । दूसरे दिन भी यादव-सेना ने गरुड़-व्यूह और जरासन्ध की सेना ने चक्रव्यूह की रचना की और दोनों सेनाएं रणक्षेत्र में आमने-सामने आ डटीं। रणवाद्यों और शंख-ध्वनि के साथ ही दोनों सेनाएं क्रुद्ध हो भीषण हुंकार करती हुई रणक्षेत्र में जूझने लगीं। ___ क्रुद्ध जरासन्ध धनुष की प्रत्यंचा से टंकार करता हुआ बलराम एवं कृष्ण की ओर बढ़ा । जरासन्ध-पुत्र यवराज यवन भी बड़े वेग से अऋरादि वसुदेव के पुत्रों पर शरवर्षा करता हुआ आगे बढ़ा। देखते ही देखते संग्राम बड़ा वीभत्स रूप धारण कर गया । सारण कुमार ने तलवार के एक ही प्रहार से यवन कुमार का सिर काट गिराया । अपने पुत्र की मृत्यु से क्रुद्ध हो जरासन्ध यादव-सेना का भीषण रूप से संहार करने लगा । उसने बलराम के प्रानन्द प्रादि दश पुत्रों को बलि के बकरों की तरह निर्दयतापूर्वक काट डाला । जरासन्ध द्वाग दश यदुकुमारों और अनेक योद्धाओं का संहार होते देख कर यादवों की सेना के पैर उखड गये । खिल-खिलाकर अट्टहास करते हुए शिशुपाल ने कृष्ण से कहा -- "अरे कृष्ण ! यह गोकुल नहीं है, रणक्षेत्र है।" शिशुपाल से कृष्ण ने कहा-“शिशुपाल ! अभी तू भी उनके पीछे-पीछे ही जाने वाला है।" कृष्ण का यह वाक्य शिशुपाल के हृदय में तीर की तरह चुभ गया और उसने कृष्ण पर अनेक दिव्यास्त्रों की वर्षा के साथ-साथ गालियों की भी वर्षा प्रारम्भ कर दी। कृष्ण ने शिशुपाल के धनुष, कवच और रथ की धज्जियां उड़ा दीं । जब शिशुपाल तलवार का प्रहार करने के लिए कृष्ण की ओर लपका तो कृष्ण ने उसके मुकुट, तलवार और सिर को काट कर पृथ्वी पर गिरा दिया। ___ अपने सेनापति शिशुपाल का अपने ही समक्ष वध होते देख कर जरासंध अत्यन्त क्रुद्ध हो विक्रान्त-काल की तरह अपने पुत्रों और राजाओं के साथ कृष्ण Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [मरिष्टनेमि का सार्य-प्रदर्शन. की अोर झपटा तथा यादवों से कहने लगा-"यादवो ! क्यों वृथा ही मेरे हाथ से मरना चाहते हो? अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है, यदि प्राणों का त्राण चाहते हो तो कृष्ण और बलराम-इन दोनों ग्वालों को पकड़ कर मेरे सम्मुख उपस्थित कर दो।" जरासन्ध की इस बात को सुनते ही यादव योद्धा आँखों से भाग पौर धनुषों से बाण बरसाते हुए जरासन्ध पर टूट पड़े। पर पकेले जरासन्ध ने ही तीव्र बाणों के प्रहार से उन अगणित योद्धाओं को वेध डाला। यादव सेना इधर-उधर भागने लगी। - जरासन्ध के २८ पुत्रों ने एक साथ बलराम पर माक्रमण किया । एकाकी बलराम ने उन सब जरासन्ध-पुत्रों के साथ घोर संग्राम किया और जरासन्ध के देखते ही देखते उन अट्ठाइसों ही जरासन्ध-पुत्रों को अपने हल द्वारा अपनी पोर खींच कर मूसल के प्रहारों से पीस डाला। अपने पुत्रों का युगपद्विनाश देखकर जरासन्ध ने क्रोधाभिभूत हो बलराम पर गदा का भीषण प्रहार किया । गदा-प्रहार से घायल हो रुधिर का वमन करते हुए बलराम मूच्छित हो गये। बलराम पर दूसरी बार गदा-प्रहार करने के लिए जरासन्ध को आगे बढ़ते देख कर अर्जुन विद्युत् वेग से जरासन्ध के सम्मुख प्रा खड़ा हुआ और उससे युद्ध करने लगा। बलराम की यह दशा देखकर कृष्ण ने क्रुद्ध हो जरासन्ध के सम्मुख ही उसके प्रवशिष्ट १६ पुत्रों को मार डाला। यह देख जरासन्ध क्रोध से तिलमिला उठा। "यह बलराम तो मर ही जायेगा, इसे छोड़ कर अब इस कृष्ण को मारना चाहिये" यह कहकर वह कृष्ण की भोर झपटा। "भोहो! अब तो कृष्ण भी मारा गया" सब पोर यह ध्वनि सुनाई देने लगी। ___यह देख कर मातलि ने हाथ जोड़ कर अरिष्टनेमि से निवेदन किया"त्रिलोकना ! यह जरासन्ध मापके सामने एक तुच्छ कीट के समान है। मापकी उपेक्षा के कारण यह पृथ्वी को यादवविहीन कर रहा है। प्रभो! यकी माप जन्म से ही सावध (पापपूर्ण) कार्यों से पराम् मुख है, तथापि शत्रु द्वारा जो मापके कुल का विनाश किया जा रहा है, इस समय मापको उसकी उपेवा नहीं करनी चाहिये । नाथ ! अपनी थोड़ी सी लीला दिखाइये।" परिष्टनेमि का शौर्य-प्रदर्शन और रुष्ण द्वारापरासंब-वध . मातलि की प्रार्थना सुन परिष्टनेमि ने बिना किसी प्रकार की उत्तेजना के सहज भाव में ही पौरंदर शंख का घोष किया। उस शंख के नाद से दसों Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौर कृष्ण द्वारा जरासंध-वष] भगवान् श्री परिष्टनेमि ३५६ दिशाएं, सारा नभोमण्डल और शत्रु काँप उठे, यादव प्राश्वस्त हो पुनः युद्ध में जूझने लगे। अरिष्टनेमि की प्राज्ञा से मातलि ने रथ को भीषण वर्तुल-वात की तरह धुमाया। उसी समय अभिनव वारिदघटा की तरह परिष्टनेमि ने जरासन्ध की सेना पर शरवर्षा प्रारम्भ की और शत्रु-सैन्य के रयों, ध्वजामों, धनुषों और मुकुटों को उन्होंने शरवर्षा से चूर्ण-विचूर्ण कर डाला ! इस तरह प्रभु ने बहुत ही स्वल्प समय में एक लाख शत्रु-योद्धामों को नष्ट कर डाला । प्रलयकाल के प्रखर सूर्य सदृश प्रचण्ड तेजस्वी प्रभु की भोर शत्रु आँख उठा कर भी नहीं देख सके । प्रतिवासुदेव को केवल वासुदेव ही मारता है, इस प्रटल नियम को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए अरिष्टनेमि ने जरासन्ध को नहीं मारा किन्तु अपने रथ को मनोवेग से शत्रु-राजाओं के चारों ओर घुमाते हुए जरासन्ध की सेना को अवरुद्ध किये रखा। श्री अरिष्टनेमि के इस अत्यन्त प्रभुत, अलौकिक एवं चमत्कारपूर्ण प्रोज, तेज तथा शौर्य से यादवों की सेना में नवीन उत्साह एवं साहस भर गया और वह शत्रु सेना पर पुनः भीषण प्रहार करने लगी। गदा के घातक प्रहार का प्रभाव कम होते ही बलराम हल-मूसल संभाले. शत्रु-सेना का संहार करने लगे । समस्त रण-क्षेत्र टूटे हुए रयों, मारे गये हाथियों, घोड़ों एवं काटे हुए मानव-मुण्डों और रुण्डों से पटा हुमा दृष्टिगोचर हो रहा था। अपनी सेना के भीषण संहार से जरासन्ध तिलमिला उठा । उसने अपने रथ को श्रीकृष्ण की ओर बढ़ाया और अत्यन्त क्रुद्ध हो कहने लगा-"मो ग्वाले ! तु अभी तक गीदड़ की तरह केवल छल-बल पर ही जीवित है। कंस और कालकुमार को तूने कपट से ही मारा है । ले, अब मैं तेरे प्राणों के साथ ही तेरी माया का अन्त कर जीवयशा की प्रतिज्ञा को पूर्ण करता हूं।" १ माकृष्टाखण्डलधनुन वांभोद इब प्रभुः । ववर्ष सरपाराभिः परितस्त्रासयनरीन् ॥४२८ प्रभाक्षीद मामुर्जा लक्ष स्वाम्येकोऽपि किरीटिनाम् । उद्घान्तस्य महाम्भोः सानुमंतोऽपि के पुरः ।।४३१ ॥ परसैन्यानि रुख वास्थान्छीनेमिनमयन् रपम्.४३३ ॥ [विषष्टि स. पु. क, पर्व ८, स.७] Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [अरिष्टनेमि का शौर्य-प्रदर्शन श्रीकृष्ण ने हँसते हए कहा- "जरासन्ध ! मैं तुम्हारी तरह आत्मश्लाघा करना तो नहीं जानता, पर इतना बताये देता हूं कि तुम्हारी पुत्री जीवयशा की प्रतिज्ञा तो उसके अग्नि-प्रवेश से ही पूर्ण होगी।" श्रीकृष्ण के उत्तर से जरासन्ध की क्रोधाग्नि और भभक उठी । उसने अपने धनुष की प्रत्यंचा को प्राकान्त खींचते हुए कृष्ण पर बारणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी । कृष्ण उसके सब बागों को बीच में ही काटते रहे । दोनों उत्कट योद्धा एक दूसरे पर भीषण शस्त्रों और दिव्यास्त्रों से प्रहार करते हुए युद्ध करने लगे । उन दोनों के तीव्रगामी भारी-भरकम रथों की घोर घरघराहट से नभोमण्डल फटने सा लगा और धरती कॉपने सी लगी। कृष्ण पर अपने सब प्रकार के घातक और अमोघ शस्त्रास्त्रों का प्रयोग कर चुकने के पश्चात् जब जरासन्ध ने देखा कि उन दिव्यास्त्रों से कृष्ण का बाल भी बांका नहीं हुआ है तो उसने क्रुद्ध हो अपने अन्तिम अमोघ-शस्त्र चक्र को कृष्ण की ओर प्रेषित किया । ज्वाला-मालाओं को उगलता हुआ कल्पान्तकालीन सूर्य के समान दुनिरीक्ष्य वह चक्ररत्न प्रलयकालीन मेघ की अमित घटाओं के समान गर्जना करता हुमा श्रीकृष्ण की ओर बढ़ा । उस समय समस्त यादव-सेना त्रस्त हो स्तब्ध सी रह गई। अजन, बलराम, कृष्ण और अन्य यादव योद्धानों ने चक्र को चकनाचूर कर डालने के लिए अमोघ दिव्यास्त्रों का प्रयोग किया, पर सब निष्फल । चक्र कृष्ण की ओर बढ़ता ही गया। देखते ही देखते चक्र ने अपने मध्य भाग के धुरि-स्थल से कृष्ण के वज्र-कपाटोपम वक्षःस्थल पर हल्का सा प्रहार' किया, मानो चिरकाल से बिछुड़ा मित्र अपने प्रिय मित्र से, वक्ष से वक्ष लगा मिल रहा हो। तदनन्तर वह चक्र कृष्ण की तीन बार प्रदक्षिणा कर उनके दक्षिण पार्श्व में, उनके दक्षिण-स्कंध से कुछ ऊपर इस प्रकार स्थिर हो गया, मानो भेद-नीतिकुशल कृष्ण ने उसे भेद-नीति से अपना बना लिया हो। कृष्ण ने तत्काल अपने दाहिने हाथ की तर्जनी अंगली पर चक्ररत्न को धारण किया और अनादिकाल से लोक में प्रचलित इस कहावत को चरितार्थ कर दिया कि पुण्यात्माओं के प्रभाव से दूसरों के शस्त्र भी उनके अपने हो जाते हैं। १ एत्य तुम्बेन तच्चक्र कृष्णं वक्षस्यताब्यत ।।४५०।। [त्रिषष्टि श. पु. प., प. ८, स. ७] २ तं च पयाहिणीकाऊरण""पलग्गं केसवकरयलम्मि । [चउवन महापुरिस चरियं, पृ० १८६] Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और कृष्ण द्वारा जरासंध-वध] भगवान् श्री अरिष्टनेमि आकाश की अदृश्य शक्तियों ने इस घोषणा के साथ कि "नवें वासुदेव प्रकट हो गये हैं", कृष्ण पर गन्धोदक और पुष्पों की वर्षा की। करुणा कृष्ण ने जरासन्ध से कहा-"मगधराज ! क्या यह भी मेरी कोई माया है ? अब भी समय है कि तुम मेरे प्राज्ञानुवर्ती होकर अपने घर लौट जानो और आनन्द के साथ अपनी सम्पदा का उपभोग करो । दुःख के मूल कारण मान को छोड़ दो।" पर अभिमानी जरासन्ध ने बड़े गर्व के साथ कहा-"जरा मेरे चक्र को मेरी ओर चला कर तो देख ।" बस, फिर क्या था, कृष्ण ने चक्ररत्न को जरासन्ध की ओर घमाया। उसने तत्काल जरासन्ध का सिर काट कर पृथ्वी पर लुढ़का दिया। यादव विजयोल्लास में जयजयकार से दशों दिशाओं को गुजाने लगे। भगवान् अरिष्टनेमि ने भी अपने रथ की वर्तुलाकारगति से अवरुद्ध सब राजाओं को मुक्त कर दिया । उन सब राजामों ने प्रभु-चरणों में नमस्कार करते हुए कहा--"करुणासिन्धो ! जरासन्ध और हम लोगों ने अपनी मूढ़तावश स्वयं का सर्वनाश किया है । जिस दिन प्राप यदुकुल में अवतरित हुए, उसी दिन से हमें समझ लेना चाहिए था कि यादवों को कोई नहीं जीत सकता । अस्तु, अब हम लोग आपकी शरण में हैं।" __ अरिष्टनेमि उन सब राजाओं के साथ कृष्ण के पास पहुंचे। उन्हें देखते ही श्रीकृष्ण रथ से कूद पड़े और मरिष्टनेमि का प्रगाढ़ प्रालिंगन करने लगे। अरिष्टनेमि के कहने पर श्रीकृष्ण ने उन सब राजामों के राज्य उन्हें दे दिये । समुद्रविजय के कहने से जरासन्ध के पुत्र सहदेव को मगध का चतुर्थाश राज्य दिया। • तदनन्तर पाण्डवों को हस्तिनापुर का, हिरण्य नाम के पुत्र रुक्मनाभ को कोशल का और समद्रविजय के पुत्र महानेमि को शौर्यपुर का तथा उग्रसेन के पुत्र धर को मथुरा का राज्य दिया । सूर्यास्त के समय श्री अरिष्टनेमि की प्राज्ञा से मातलि ने सौधर्म स्वर्ग की मोर प्रस्थान किया और यादव-सेना अपने शिविर की ओर लोट पड़ी। उसी समय तीन विद्यारियों ने नभोमार्ग से पाकर समद्रविजय को सूचना दी कि जरासन्ध के सहायतार्थ इस युद्ध में सम्मिलित होने हेतु प्राने वाले वैतादयगिरि के विविध विद्यानों के बल से अजेय विद्याधर राजानों को वसुदेव, Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [अरिष्टनेमि का शौर्य-प्रदर्शन प्रद्युम्न, शाम्ब और वसुदेव के मित्र विद्याधर राजाओं ने वहीं पर युद्ध में उलझाये रखा था। जरासन्ध की पराजय और मृत्यु के समाचार सुन कर जरासन्ध के समर्थक सभी विद्याधर राजा वसुदेव के चरण-शरण में प्रा गये। प्रद्युम्न एवं शाम्ब के साथ उन्होंने अपनी कन्याओं का विवाह कर दिया। अब वे सब यहाँ आ रहे हैं। यादवों के शिविर में महाराज समुद्रविजय आदि सभी यादव-प्रमुख विद्याधरियों के मुख से वसुदेव मादि के कुशल-मंगल और शीघ्र ही आगमन के समाचार सुनकर बड़े प्रसन्न हुए । थोड़ी ही देर में वसुदेव, प्रद्युम्न, शाम्ब और मुकुटधारी अनेक विद्याधरपति वहां आ पहुंचे और सबने समुद्रविजय आदि पूज्यों के चरणों में सिर झुकाया । यादव-सेना ने अपनी महान् विजय के उपलक्ष्य में बड़े ही समारोह के साथ प्रानन्दोत्सव मनाया । अपने इस प्रानन्दोत्सव की याद को चिरस्थायी बनाने के लिए यादवों ने अपने शिविर के स्थान पर सिनपल्ली ग्राम के पास सरस्वती नदी के तट पर प्रानन्दपुर नामक एक नगर बसाया ।' तदनन्तर तीन खण्ड की साधना करके श्रीकृष्ण समस्त यादवों और यादव-सेनाओं के साथ द्वारिकापुरी पहुंचे और सभी यादव वहां विविध भोगोपभोगों का आनन्दानुभव करते हुए बड़े सुख से रहने लगे। __ महाराज समुद्रविजय, महारानी शिवादेवी और सभी यादव-मुख्यों ने कुमार अरिष्टनेमि से बड़े दुलार के साथ विवाह करने का अनेक बार अनुरोध किया, पर कुमार अरिष्टनेमि तो जन्म से ही संसार से विरक्त थे। उन्होंने हर बार विवाह के प्रस्ताव को गम्भीरतापूर्वक यह कहकर टाल दिया-"नारी वास्तव में भवभ्रमण के घोर दुःखसागर में गिराने वाली है। मैं संसार के भवचक्र में परिभ्रमण करते-करते बिल्कुल पक चुका हूं, अब इस विकट भवाटवी में भटकने का कोई काम करू', ऐसी किंचित् भी इच्छा नहीं है। मतः मैं इस विवाह के चक्र से सदा कोसों दूर ही रहूंगा।" समुद्रविजयजी को नेमकुमार को मनाने में सफलता नहीं मिली। परिष्टनेमिका मलौकिक वन ____एक दिन कुमार परिष्टनेमि यादव कुमारों के साथ घूमते हुए वासुदेव । कृष्ण की प्रायुधशाला में पहुंच गये । उन्होंने वहां ग्रीष्मकालीन मध्याह्न के सूर्य के समान प्रतीव प्रकाशमान सुदर्शन चक्र, शेषनाग की तरह भयंकर शाङ्ग धनुष, कौमोदकी गदा, नन्दक तलवार और वृहदाकार पांचजन्य शंख को देखा। १ ............."तत्रानन्दपुरं चके सिनपल्लीपदे पुरम् ॥२६॥ [त्रिषष्टि शलाका पुरुष परित्र, पर्व, ८, सर्ग, क] Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरिष्टनेमि का प्रलौकिक बल ] भगवान् श्री प्ररिष्टनेमि कुमार अरिष्टनेमि को कौतुक से शंख की ओर हाथ बढ़ाते देख चारुकृष्ण नामक प्रायुधशाला - रक्षक ने कुमार को प्रणाम कर कहा - " यद्यपि श्राप श्रीकृष्ण के भ्राता हैं और निस्संदेह प्रबल पराक्रमी भी हैं, फिर भी इस शंख को पूरना तो दूर रहा, आप इसको उठाने में भी समर्थ नहीं होंगे। इसको तो केवल श्रीकृष्ण ही उठा और बजा सकते हैं, अतः प्राप इसे उठाने का वृथा प्रयास न कीजिये ।" रक्षक पुरुष की बात सुनकर कुमार अरिष्टनेमि ने मुस्कुराते हुए अनायास ही शंख को उठा अधर-पल्लवों के पास ले जाकर पूर (बजा) दिया । ३६३ प्रथम तो कुमार अरिष्टनेमि तीर्थंकर होने के कारण अनन्त शक्ति सम्पन्न थे, फिर पूर्ण ब्रह्मचारी थे, अतः उनके द्वारा पूरे गये पांचजन्य की ध्वनि से लवण समुद्र में भीषण उत्ताल तरंगें उठीं और उछल उछल कर बड़े वेग के साथ द्वारिका के प्राकार से टकराने लगीं । द्वारिका के चारों ओर के नगाधिराजों के शिखर और द्वारिका के समग्र भव्य भवन थर्रा उठे । श्रौरों का तो ठिकाना ही क्या, स्वयं श्रीकृष्ण और बलराम भी क्षुब्ध हो उठे । खम्भों में बंधे हाथी खम्भों को उखाड़, लौह शृंखलाओं को तोड़ चिघाड़ते हुए इधर-उधर वेग से भागने लगे, द्वारिका के नागरिक उस शंख के प्रतिघोर निर्घोष से मूच्छित हो गये और शंखनिनाद के प्रत्यन्त सन्निकट होने के कारण शस्त्रागार के रक्षक तो मृतप्राय ही हो गये । श्रीकृष्ण साश्चर्य सोचने लगे – “इस प्रकार इतने अपरिमित वेग से शंख बजाने वाला कौन हो सकता है ? क्या कोई चक्रवर्ती प्रकट हो गया है। अथवा इन्द्र पृथ्वी पर भ्राया है ? मेरे शंख के निर्घोष से तो सामान्य भूपति ही भौंचक्के होते हैं, पर शंख के इस अद्भुत निर्घोष से तो मैं स्वयं मोर बलराम भी क्षुब्ध हो गये ।" थोड़ी ही देर में श्रायुधशाला के रक्षक ने वहाँ ग्राकर कृष्ण से निवेदन किया - "देव ! कुतूहलवश कुमार प्ररिष्टनेमि ने प्रायुधशाला में पांचजन्य शंख बजाया है । यह सुनकर कृष्ण बहुत विस्मित हुए, पर उन्हें उस बात पर विश्वास नहीं हुआ । उसी समय कुमार अरिष्टनेमि वहाँ भ्रा पहुँचे । कृष्ण ने अतिशय प्राश्चर्य, स्नेह एवं प्रादरयुक्त मनःस्थिति में प्ररिष्टनेमि को अपने श्रद्ध सिंहासन पर पास बैठाया और बड़े दुलार से पूछा - "प्रिय भ्रात ! क्या तुमने पांचजन्य शंख बजाया था, जिसके कारण कि सारा वातावरण प्रभी तक विक्षुब्ध हो रहा है ?" कुमार अरिष्टनेमि ने सहज स्वर में उत्तर दिया- "हाँ भैया ।" Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [अंरिष्टनेमि का कृष्ण ने स्नेहातिरेक से कुमार अरिष्टनेमि को अंक में भरते हए कहा"मझे प्रसन्नता हो रही है कि मेरे छोटे भाई ने पाञ्चजन्य शंख को बजाया है। माज तक मेरी यह धारणा थी कि इसे मेरे अतिरिक्त कोई नहीं बजा सकता। कुमार ! अपन दोनों भाई व्यायामशाला में चलकर बल-परीक्षा करलें कि किसमें कितना अधिक बल है।" कुमार अरिष्टनेमि ने सहज सरल स्वर में कहा- “जैसी आपकी इच्छा।" यादव कुमारों से घिरे हुए दोनों नर-शार्दूल व्यायामशाला में पहुँचे । सहज करुणार्द्र कुमार अरिष्टनेमि ने मन ही मन सोचा-"कहीं मेरी भुजाओं, वक्ष और जंघाओं के संघर्ष से मल्लयुद्ध में मेरे बल से अनभिज्ञ बड़े भाई कृष्ण को पीड़ा न हो जाय ।" यह सोचकर उन्होंने कहा--"भैया ! भूलुण्ठनादि क्रिया वाले इस ग्राम्य मल्लयुद्ध की अपेक्षा बाहु को झुकाने से भी बल का परीक्षण किया जा सकता है ।" श्रीकृष्ण ने कुमार अरिष्टनेमि से सहमति प्रकट करते हुए अपनी प्रचण्ड विशाल दाहिनी भुजा फैला दी और कहा-“कुमार ! देखें, इसे झुकाना ।" कुमार अरिष्टनेमि ने बिना प्रयास के सहज ही में कमल की कोमल डण्डी की तरह कृष्ण की भुजा को झुका दिया। श्रीकृष्ण ने कहा-"अच्छा कुमार ! अब तुम अपनी भुजा फैलानो।" कुमार अरिष्टनेमि ने भी सहज-मुद्रा में अपनी भुजा फैलाई। . श्रीकृष्ण ने अपनी पूरी शक्ति लगाकर कुमार अरिष्टनेमि की भजा को झुकाने का प्रयास किया पर वह किंचित् मात्र भी नहीं झुकी । अन्त में कृष्ण ने अपने दोनों वज्र-कठोर हाथों से कुमार अरिष्टनेमि की भुजा को कस कर पकड़ा और अपनी सम्पूर्ण शक्ति से अपने पैरों को भूमि से ऊपर उठा शरीर का सारा भार भुजा पर पटकते हुए बड़े जोर का झटका लगाया, वे कुमार अरिष्टनेमि की भुजा पकड़े अधर झूलने लगे पर कुमार की भुजा को नहीं झुका सके। श्रीकृष्ण को कूमार का अपरिमित बल देखकर बड़ा आश्चर्य हमा। उन्होंने कुमार की भुजा छोड़कर उन्हें हृदय से लगा लिया और बोले-"प्रिय अनुज ! मुझे तुम्हारे अलौकिक बल को देखकर इतनी प्रसन्नता हुई है कि जिस प्रकार मेरे भुजबल के सहारे बलराम सभी योद्धाओं को तुच्छ समझते हैं, उसी तरह मैं तुम्हारी शक्ति के भरोसे समस्त संसार के योद्धाओं को तृणवत् समझता हूँ।" Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रलौकिक बल] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ३६५ कुमार अरिष्टनेमि के चले जाने के अनन्तर कृष्ण ने बलराम से कहा"भैया ! देखा आपने अपने छोटे भाई का बल ! मैं तो वृक्ष की डाल पर गोपबाल की तरह कुमार की भुजा पर लटक गया । इतना अपरिमित बल तो चक्रवर्ती और इन्द्र में भी नहीं होता। इतनी अमित शक्ति के होते हुए भी यह हमारा अनुज समग्र भरत के छःहों खण्डों को क्यों नहीं जीत लेता?" बलराम ने कहा-"चक्रवर्ती और इन्द्र से अधिक शक्तिशाली होते हुए भी कुमार स्वभाव से बिल्कुल शान्त हैं। उन्हें किंचित् मात्र भी राज्यलिप्सा नहीं है ।" फिर भी कृष्ण के मन का सन्देह नहीं मिटा । उस समय आकाशवाणी हुई कि ये बाईसवें तीर्थंकर हैं, बिना विवाह किये ब्रह्मचर्यावस्था में ही प्रवजित होंगे। तदनन्तर कृष्ण ने अपने अन्तःपुर में जाकर कुमार अरिष्टनेमि को बुलाया और बड़े प्रेम से अपने साथ खाना खिलाया । कृष्ण ने अपने अन्तःपुर के रक्षकों को आदेश दिया कि कुमार अरिष्टनेमि को बिना रोक-टोक के समस्त अन्तःपुर में आने-जाने दिया जाय, क्योंकि ये पूर्णरूपेण निर्विकार हैं। कुमार अरिष्टनेमि सहज शान्त, भोगों से विमुख और निर्विकार भाव से सुखपूर्वक सर्वत्र विचरण करते । रुक्मिणी आदि सभी रानियाँ उनका बड़ा सम्मान रखतीं । कृष्ण उनके साथ ही खाते-पीते और क्रीड़ा करते हुए बड़े मानन्द से रहने लगे । कुमार नेमि पर कृष्ण का स्नेह दिन प्रति दिन बढ़ता हो गया। एक दिन उन्होंने सोचा-"नेमि कुमार का विवाह कर इन्हें दाम्पत्य जीवन में सुखी देख सकू तभी मेरा राज्य, ऐश्वर्य एवं भ्रातृ-प्रेम सही माने में सार्थक हो सकता है और यह तभी सम्भव हो सकता है जब कि कुमार अरिष्टनेमि को भोग-मार्ग की ओर आकर्षित कर उनके मन में भोग-लिप्सा पैदा की जाय ।" यह सोचकर श्रीकृष्ण ने अपनी सब रानियों से कहा- "मैं कुमार अरिष्टनेमि को सब प्रकार से सुखी देखना चाहता हूँ । मेरी यह आन्तरिक अभिलाषा है कि किसी सुन्दर कन्या के साथ उनका विवाह कर दिया जाय और वे विवाहित जीवन का आनन्दोपभोग करें । पर कुमार सांसारिक भोगों के प्रति पूर्ण उदासीन हैं । अतः यह आवश्यक है कि विरक्त और भोगों से पराङ मुख अरिष्टनेमि को हर सम्भव प्रयास कर विवाह करने के लिये राजी किया जाय ।" Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [रुक्मिणी आदि का नेमि रुक्मिणी, सत्यभामा आदि रानियों ने श्रीकृष्ण की आज्ञा को सहर्ष शिरोधार्य करते हए कहा-"महाराज! बड़े-बड़े योगियों को भी योगमार्ग से विचलित कर देने वाली रमणियों के लिए यह कोई कठिन कार्य नहीं है । हम हमारे प्रिय देवर को विवाह करने के लिए अवश्य सहमत कर लेंगी।" रुक्मिणी आदि का नेमिकुमार के साथ वसन्तोत्सव श्रीकृष्ण के संकेतानुसार रुक्मिणी, सत्यभामा प्रादि ने वसंत-क्रीड़ा के निमित्त रेवताचल पर एक कार्यक्रम प्रायोजित किया। निविकार नेमिनाथ को भी अपने बड़े भाई कृष्ण द्वारा आग्रह करने पर वसन्तोत्सव में सम्मिलित होना पड़ा। वसन्तोत्सव के प्रारम्भ में रुक्मिणी, सत्यभामा आदि रानियों ने विविध रंगों और सुगन्धियों से मिश्रित पानी पिचकारियों और डोलियों में भर-भर कर कृष्ण और नेमिनाथ पर बरसाना प्रारम्भ किया । कृष्ण ने भी उन्हें उन्हीं के द्वारा लाये गये पानी से सराबोर कर दिया। कृष्ण द्वारा किये गये जलधारा प्रपात से विचलित होकर भी वे बारबार कृष्ण को चारों ओर से घेर कर पद्मपराग मिश्रित जल की अनवरत धाराओं से भिगोती हुई खिलखिलाकर हँसतीं। किन्तु कृष्ण और रानियों की विभिन्न प्रकार की क्रीड़ाओं से नेमिकुमार आकृष्ट नहीं हुए। वे निर्विकार भाव से सारी लीला को देखते रहे, केवल अपनी भाभियों के विनम्र निवेदन का मान रखने कभी-कभी उनके द्वारा उँडेले गये पानो के उत्तर में उन पर कुछ पानी उड़ेल देते। ___ बड़ी देर तक विविध हासोल्लास से फाग खेला जाता रहा । वारिधाराओं की तीव्र बौछारों से सब के नेत्र लाल हो चुके थे । अब सभी रानियाँ मिल कर नेमिनाथ के साथ फाग खेलने लगीं। निविकार रूप से नेमिकुमार भी अपने पर अनेक बार पानी उँडेलने पर उत्तर-प्रत्युत्तर के रूप में एक दो बार उन पर पानी उछाल देते। ___अपने प्रिय छोटे भाई नेमिकुमार को फाग खेलते देख कर कृष्ण अलग. हो, सरोवर में जल-क्रीड़ा करने लगे। फिर क्या था, अब तो सभी सुन्दरियों ने प्रापस में सलाह कर नेमिनाथ को अपना मुख्य लक्ष्य बना लिया। वे उन्हें मोह राग और भोग-मार्ग में प्राकर्षित कर वैवाहिक बन्धन में बाँधने का दृढ़ संकल्प लिए नारी-लीला का प्रदर्शन करने लगीं। सभी रानियां दिव्य वस्त्राभूषणादि से षोडश अलंकार किये रूप-लावण्य में सुरवधुओं को भी तिरस्कृत करती हुई चारुहासों, तीक्ष्ण-तिरछे चितवनों Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमार के साथ वसन्तोत्सब] भगवान् श्री अरिष्टनेमि के कटाक्षों और हंसने-हंसाने, रूठने-मनाने आदि विविध मनोरम हावभावों से एवं नर-नारी के संगजन्य मानन्द को ही जीवन का सार प्रकट करने वाले अनुपम अभिनयों से कुमार के मन में मनसिज को जगाने एवं नारी के रमणीय कलेवर की मोर उत्कट भाकर्षण व स्पृहा पैदा करने में ऐसी जुट गई मानों स्वयं पुष्पायुध ही सदलबल नेमिनाथ पर विजय पाने चढ़ भाया हो। पर इन सब हावभावों और कमनीय कटाक्षों का नेमिनाथ के मन पर कोई असर नहीं हुमा । प्रलयकाल के प्रचण्ड पवन के झोंकों में जैसे सुमेरु प्रचलअडोल खड़ा रहता है उसी तरह उनका मन भी इस रंग भरे वातावरण में निर्विकार-निर्मल बना रहा। अपनी असफलता से उत्तेजित हो उन रमणी-रत्नों ने अपने किन्नर-कण्ठों से वन-कठोर हृदय को भी गुदगुदा देने वाले मधुर प्रणय-गीत गाने भारम्भ किये । पर जिन्होंने इस सार तत्त्व को जान लिया है कि-"सव्वं विलवियं गीयं, सव्वं नटें विडम्बियं”–उन प्रभु नेमिनाथ पर इस सब का क्या असर होने वाला था। जब कृष्ण जल-क्रीड़ा कर सरोवर से बाहर निकले तो कृष्ण की सभी रानियां सरोवर तट के माजानु पानी में जल-कोड़ा करने लगी और नेमिकुमार ने भी राजहंस की तरह सरोवर में प्रवेश किया। पर घुटनों तक के तटवर्ती पानी में स्नान करने लगे । रुक्मिणी ने रत्न-जटित चौकी विधा उस पर नेमिकुमार को बिठाया और अपनी चुनरी से वह उनके शरीर को मलने लगीं । शेष सभी रानियों उनके चारों ओर एकत्रित हो गई। रानियों द्वारा नेमिनार को भोगना की मोर मोड़ने का पल सत्यभामा बड़े ही मीठे शब्दों में कहने लगीं-"प्रिय देवर ! पाप सदा हमारी सब बातें शान्ति से सुन लिया करते हो इसलिए मैं पाप से यह प्रचना चाहती हैं कि पापके बड़े भैया तो सोलह हजार रानियों के पति हैं, उनके छोटे भाई होकर माप कम से कम एक कन्या के साथ भी विवाह नहीं करते, यह कैसी अद्भुत् पटपटी बात है ? सौन्दर्य और लावण्य की दृष्टि से तीनों लोको में कोई भी प्रापकी तुलना नहीं कर सकता । युवावस्था में भी पदार्पण कमी के कर चुके हो फिर समझ में नहीं पाता कि मापकी यह क्या स्थिति है? पापकमातापिता, भाई और हम सब भापकी भाभियाँ, सब के सब मापसे प्रार्थना करते है, एक बार तो सब का कहना मान कर विवाह कर ही लो।" "भाप स्वयं विचार कर देखो-बिना जीवन-संगिनी के कुमारे कितने दिन तक रह सकोगे ? माखिर बोलो तो सही, क्या तुम काम-कला से अनामिक Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ३६८ जन धर्म का मौलिक इतिहास [ रा० द्वारा ने० को भोगमार्ग. हो, नीरस हो अथवा पौरुष-विहीन हो ? याद रखो कुमार ! बिना स्त्री के तुम्हारा जीवन निर्जन वन में खिले सुन्दर-मनोहर सुरभिसंयुक्त पुष्प के समान निरर्थक ही रहेगा ।" "जिस प्रकार प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने पहले विवाह किया, फिर धर्म - तीर्थ की स्थापना की, उसी प्रकार प्राप भी पहले गृहस्थोचित सब कार्य सम्पन्न कर फिर समय पर यथारुचि ब्रह्मव्रत को साधना कर लेना । गृहस्थजीवन में ब्रह्मचर्यं प्रशुचि स्थान में मन्त्रोचारण के समान है।" फिर आप ही के वंश में मुनिसुव्रत तीर्थंकर हुए । उन्होंने भी पहले विवाहित होकर फिर मुनिव्रत ग्रहण किया था । श्रापके पीछे होने वाले तीर्थंकर भी ऐसा ही करेंगे । फिर आप ही क्या ऐसे नये मुमुक्षु हैं जो पूर्व-पुरुषों के पथ को छोड़कर जन्म से ही स्त्री, भोग एवं विषयादि से पराङ्मुख हो रहे हैं ?" सत्यभामा ने तमक कर कहा - "ये मिठास से रास्ते आने वाले नहीं हैं । माता-पिता भाई सब समझाते -समझाते हार गये, अब कड़ाई से काम लेना होगा । हम सबको मिल कर अब इन्हें पास के एक स्थान में बन्द कर देना चाहिए और जब तक ये हमारी बात मान नहीं लें तब तक छोड़ना ही नहीं चाहिए ।" रुक्मिणी ने कहा - "बहिन ! हमें अपने प्रिय सुकुमार देवर के साथ ऐसा कठोर व्यवहार नहीं करना चाहिए, हमें बड़े मीठे वचनों से नम्रतापूर्वक इन्हें विवाह के लिए राजी करना चाहिए ।" I रुक्मिणी यह कह कर श्री नेमिकुमार के चरणों में झुक गई । श्रीकृष्ण की शेष सब रानियों ने भी नेमि के चरणों में अपने सिर झुका दिये और विवाह की स्वीकृति हेतु अनुनय-विनय करने लगीं । यह देख कर कृष्ण प्रा गये और नेमिनाथ से बड़े ही मीठे वचनों से कहने लगे - " भाई ! अब तुम विवाह कर लो ।” इतने में अन्य यादवगरण भी वहाँ श्रा पहुँचे और नेमिनाथ से कहने लगे“कुमार ! अपने बड़े भाई का कहना मान लो और माता-पिता एवं अपने स्वजन - परिजन को प्रमुदित करो। " इन सब के हठाग्रह को देख, नेमिकुमार ने मन ही मन विचार किया"प्रोह ! इन लोगों का कैसा मोह है कि ये लोग केवल स्वयं ही संसार-सागर में १ समये प्रतिपद्येथा, ब्रह्मापि हि यथा रुचि । गार्हस्थ्ये नोचितं ब्रह्म, मंत्रोद्गार इवाशुचौ ।। १०५ [त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्रं, पर्व ८, सर्ग ६ ] Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओर मोड़ने का यत्न ] • भगवान् श्री श्ररिष्टनेमि ३६६ नहीं डूब रहे हैं अपितु दूसरों को भी स्नेह - शिला से बाँध कर भवार्णव में डाल रहे हैं । इनके आग्रह को देखते हुए यही उपयुक्त है कि इस समय मुझे केवल वचन मात्र से इनका कहना मान लेना चाहिए और समय आने पर अपना कार्य कर लेना चाहिए । ऐसा करने से गृह, कुटुम्ब आदि का परित्याग करने का कारण भी मेरे सम्मुख उपस्थित होगा ।" यह सोच कर नेमि ने कहा - "हाँ ठीक है, ऐसा ही करेंगे ।" " मकुमार की बात सुन कर कृष्ण और सभी यादव बड़े प्रसन्न हुए । श्रीकृष्ण सपरिवार द्वारिका में आकर नेमिनाथ के योग्य कन्या ढूंढने का प्रयत्न करने लगे । सत्यभामा ने कृष्ण से कहा- “मेरी अनुपम रूप-गुण-सम्पन्ना छोटी बहिन राजीमती पूर्णरूपेण नेमिकुमार के अनुरूप एवं योग्य है ।" यह सुन कर कृष्ण प्रति प्रसन्न हुए और उन्होंने तत्काल महाराज उग्रसेन के पास पहुँच कर अपने भाई नेमिकुमार के लिए उनकी पुत्री राजीमती की उनसे याचना की । उग्रसेन ने अपना अहोभाग्य समझते हुए प्रमुदित हो कृष्ण के प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया । नेमिनाथ यहाँ आवें तो मैं अपनी पुत्री देने को तैयार हूँ । उग्रसेन द्वारा स्वीकृति मिलते ही कृष्ण महाराज समुद्रविजय के पास ये और उनकी सेवा में नेमिनाथ के लिए राजीमती की याचना और उग्रसेन द्वारा सहर्ष स्वीकृति आदि के सम्बन्ध में निवेदन किया । समुद्रविजय ने हर्ष - गद्गद् स्वर में कहा - "कृष्ण ! तुम्हारी पितृ-भक्ति एवं भ्रातृ-प्रेम बहुत ही उच्चकोटि के हैं । इतने दिनों से जो हमारी मनोभिलाषा केवल मन में ही मरी पड़ी थी, उसे तुमने नेमिकुमार को विवाह करने हेतु राजी कर सजीव कर दिया है। पुत्र ! बड़ी कठिनाई से नेमिकुमार ने विवाह करने की स्वीकृति दी है, अतः कालक्षेप उचित नहीं है ।" समुद्रविजय आदि ने नैमित्तिक को बुलाया और श्रावण शुक्ला ६ को विवाह का मुहूर्त निश्चित कर लिया । २ श्रीकृष्ण ने भी द्वारिका नगरी के प्रत्येक पथ, वीथि, उपवीथि, अट्टालियों, गोपुर और घर-घर को रत्नमंचों, तोरणों १ एवं चैव कीरतं मज्भं पि परिच्चायकारणं भविस्सइ । त्ति कलिकरण परिहास पयारणापुष्वयं पि भरिणऊण पडिवणं एवं चेव कीर । [चउवन्न महापुरिसचरियं, पृष्ठ १६२ ] २ चउत्रन महापुरिस चरियं में उसी समय भगवान् श्ररिष्टनेमि द्वारा वार्षिक दान देना प्रारम्भ कर देने का उल्लेख है । यथा - "भयवं पुरण तेरणेव वव एसेरण संच्छरियं महादाणं दाउमाढत्तो..... [चउवन महापुरिस, चरियं पृष्ठ १६२ ] Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [रा. द्वारा ने को भोगमा मादि से खूब सजाया। बड़ी धूमधाम के साथ नेमिकुमार के विवाह की तैयारियां की गई। विवाह से एक दिन पहले दशों दशाहो, बलभद्र, कृष्ण आदि ने अन्तःपूर को समस्त सुहागिनियों द्वारा गाये जा रहे मंगल-गीतों की मधुर ध्वनि के बीच नेमिनाथ को एक ऊँचे सिंहासन पर पूर्वाभिमुख बैठाया । अनेक सुगन्धित महाऱ्या, विलेपनादि के पश्चात् स्वयं बलराम और कृष्ण ने उन्हें सब प्रकार की प्रौषधियों से स्नान कराया' और उनके हाथ पर कर-सूत्र (कंकण-डोरा) बांधा। तदनन्तर श्रीकृष्ण उग्रसेन के राजप्रासाद में गये । वहाँ पर भी उन्होंने दुलहिन राजीमती के कर में उसी प्रकार मंगल-मृदु गीतों की स्वर-लहरियों के बीच उबटन-विलेपन-स्नानादि के पश्चात् कर-सत्र बँधवाया और अपने भवन को लौटे। दूसरे दिन भगवान् नेमिनाथ की बगत सजायी गई। महाय, सुन्दर श्वेत वस्त्र एवं बहुमूल्य मोतियों के प्राभूषण पहने, श्वेत छत्र तथा श्वेत चामरों से सुशोभित, कस्तूरी और गौशीर्ष चन्दन का विलेपन किये दूल्हा अरिष्टनेमि श्रीकृष्ण के सर्वश्रेष्ठ मस्त गन्धहस्ती पर प्रारूढ़ हुमा । नेमिकुमार के हाथी के आगे अनेक देवोपम यादव कुमार घोड़ों पर सवार हो चल रहे थे। घोड़ों की हिनहिनाहट से सारा वायुमण्डल गूज रहा था । नेमिकुमार के दोनों पावों में मदोन्मत्त हाथियों पर बैठे हजारों राजा चल रहे थे और नेमिकुमार के हाथी के पीछे-पीछे दशों भाई दशाह, बलराम और कृष्ण हाथियों पर प्रारूढ़ थे तथा उनके पीछे बहुमूल्य सुन्दर पालकियों में बैठी हुई राजरानियां, मन्तःपुर की व अन्य सुन्दर रमणियां मंगल-गीतों से वायुमण्डल में स्वरलहरियां पैदा करती हुई चल रही थीं। उच्च स्वर से किये जाने वाले मंगल पाठ से और विविध वाद्यों की कर्णप्रिय ध्वनि से सारा वातावरण बड़ा मृदु, मनोरम एवं मादक बन गया । इस तरह बड़े ठाठ-बाट के साथ नेमिकुमार की बरात महाराज उग्रसेन के प्रासाद की ओर बढ़ी । वर-यात्रा का दृश्य बड़ा ही सम्मोहक, मनोहारी और दर्शनीय था। सुन्दर, समृद्ध एवं सुसज्जित बरातियों के बीच दूल्हा नेमिकुमार संसार के सिरमौर, त्रैलोक्य ग़ामरिण की तरह सुशोभित हो रहे थे। योसहीहि म्हवियो कयकोउय मंगलो। [उत्तराध्ययन, म २२, गा..] २ (क) मतप गन्ध हत्यि वासुदेवस्स जेट्टगं प्रारूढ़ो सोहए पहियं, सिरे चूगमणि जहा। [उत्तराध्ययन, अ० २२ गा०१०] (ब) त्रिषष्टि शलाका पु० चरित्र में श्वेत घोड़ों के रथ पर भारूढ़ होने का उल्लेख है। यथाः-प्रारुरोहारिष्टनेमिः स्यन्दनं श्वेतवाजिनम् ।। [पर्व८, स०६, श्लो०१४६] Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की ओर मोड़ने का यत्न] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ३७१ राजमार्ग के दोनों ओर वातायन, अट्टालिकाएं, गृहद्वार प्रादि द्वारिका की रमणियों के समूहों से खचाखच भरे थे। त्रिभुवन-मोहक दूल्हे नेमिकुमार को देखकर पाबाल वद्ध-नरनारी-वन्द अपनी दृष्टि को सफल और जीवन को धन्य मानते हुए दूल्हे की भूरि-भूरि सराहना करने लगे। ___ इस तरह पौरजनों के नयनों और मनों को प्रानन्द-विभोर करते हुए नेमिनाथ की बरात उग्रसेन के भवन के पास आ पहुंची। बरात के प्रागमन के तुमुलनाद को सुनते ही राजीमती मेघ-गर्जन रव से मस्त हुई मयूरी की तरह परम प्रमुदित हो खड़ी हुई । सखियों ने वर को देखते ही दौड़कर राजीमती को घेर लिया और उसके भाग्य की सराहना करती हुई कहने लगीं-राजदुलारी! तुम परम भाग्यवती हो जो नेमिनाथ जैसा त्रैलोक्य-तिलक वर तुम्हारा पाणिग्रहण करेगा। नयनाभिराम वर पाखिर तो यहाँ हमारे सामने पायेंगे ही पर हम अपनी वर-दर्शन की प्रबल उत्कण्ठा को रोक नहीं सकतीं, अतः सलोनी सखि ! लज्जा का परित्याग कर शीघ्रता से चलो। हम सब प्रति कमनीय वर को गवाक्षों से देखलें।" मनोभिलषिता बात सुनकर सघन घन-घटा में चमचमाती हुई चंचल चपला सी राजीमती एक झरोखे की ओर बढ़ी और वहाँ से उसने रोम-रोम में झनझनाहट सी पैदा कर देने वाले साक्षात् कामदेव के समान ठाठ-बाट से पाते हुए नेमिकुमार को देखा । राजीमती निनिमेष नयनों से अपने प्रियतम की रूपसुधा का पान करती हुई विचारने लगी-"अहोभाग्य ! मन से भी अचिन्त्य ऐसा त्रैलोक्य-मुकुटमरिण नर-रत्न यदि मुझे मेरे प्राणनाथ के रूप में प्राप्त हो जाय तो मेरा जन्म सफल हो जाय । यद्यपि ये स्वतः मुझे अपनी जीवन-संगिनी बनाने की इच्छा लिये यहां पा रहे हैं फिर भी मेरे मन को धैर्य नहीं होता कि मैं अपने किन सुकृतों के फलस्वरूप इन्हें अपने प्राणनाथ के रूप में प्राप्त कर सकूगी।" इस प्रकार मन ही मन ऊहापोह में डूबी हुई राजकुरी राजीमती की सहसा दाहिनी आँख और भुजा फड़कने लगी । अनिष्ट की आशंका से उसका हृदय धड़कने लगा और विकसित कमल के फूलों के समान सुन्दर नेत्रों से अश्रुधाराएं बहाते हुए उसने अवरुद्ध कण्ठ से अपनी सखियों को अनिष्ट-सूचक अंगस्फुरण की बात कही। सखियों ने उसे ढाढस बंधाते हुए कहा-"राजदुलारी ! इस मंगलमय बेला में तुम अमंगल की आशंका क्यों कर रही हो ? हमारी कुलदेवियाँ प्रसन्न हो तुम जैसी पुण्यशालिनी का सब तरह से कल्याण ही करेंगी । कुमारी ! धैर्य रखो। अब तो कुछ ही क्षणों की देर है, बस अब तो तुम्हारे पारिण-ग्रहण के लिए वर पा चुका है।" Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [रा० द्वारा ने० को भोगमा इधर राजीमती अनिष्ट की आशंका से सिसक-सिसक कर रोती हई प्रांसू बहा रही थी और उसे उसकी सहेलियां धैर्य बँधा रही थी। उधर पाते हुए नेमिकुमार ने पशुओं के करुण क्रन्दन को सुनकर जानते हुए भी अपने सारथि (गज-वाहक) से पूछा- “सारथे ! यह किसका करुण-क्रन्दन कर्णगोचर हो रहा है ?" सारथि ने कहा-"स्वामिन ! क्या आपको पता नहीं कि आपके विवाहोत्सव के उपलक्ष में विविध भोज्य-सामग्री बनाने हेतु अनेक बकरे, मेंढे तथा वन्य पशु-पक्षी लाये गये हैं। प्राणिमात्र को अपने प्राण परम प्रिय हैं, अतः ये क्रन्दन कर रहे हैं।" नेमिनाथ ने महावत को पशुओं के बाड़ों की ओर हाथी को बढ़ाने की आज्ञा दी। वहाँ पहुँच कर नेमिकूमार ने देखा कि अगणित पशूत्रों की गर्दन और पैर रस्सियों से बंधे हुए हैं एवं अगणित पक्षी पिंजरों तथा जाल-पाशों में जकड़े म्लानमुख कांपते हुए दयनीय स्थिति में बन्द हैं । __ आनन्ददायक नेमिकुमार को देखते ही पशु-पक्षियों ने अपनी बोली में अपनी करुण पुकार सुनानी प्रारम्भ की-"नाथ ! हम दीन, दुःखी, असहायों की रक्षा करो।" दयामूर्ति नेमिकुमार का करुण, कोमल हृदय द्रवीभूत हो गया और उन्होंने अपने सारथि को प्राज्ञा दी कि वह उन सब पशु-पक्षियों को तत्क्षण मुक्त कर दे। देखते ही देखते सब पशु-पक्षी मुक्त कर दिये गये। स्नेहपूर्ण दृष्टि से नेमिनाथ के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हए पशू यथेप्सित स्थानों की ओर दौड़ पड़े और पक्षि-समूह पंख फैला कर अपने विविध कण्ठरवों से खुशी-खुशी नेमिनाथ की यशोगाथाएं गाते हुए, अनन्त आकाश में उड़ते हुए तिरोहित हो गये। पशु-पक्षियों को विमुक्त करने के पश्चात् नेमिनाथ ने अपने कानों के कुडल-यूगल, करधनी एवं समस्त प्राभूषण उतार कर सारथि को दे दिये और अपना हाथी अपने प्रासाद की ओर मोड़ दिया। उनको लौटते देख यादवों पर मानो अनभ्र वज्रपात सा हो गया । माता शिवा महारानी, महाराज समुद्रविजय, श्रीकृष्ण-बलदेव आदि यादव-मुख्य अपने-अपने वाहनों से उतर पड़े और नेमिनाथ के सम्मुख राह रोककर खड़े हो गये । १ सो कुण्डलाण जुयलं, सुत्तगं च महायसो । प्राभरणारिण य सव्वारिण, सारहिस्स परणामए ।।२०।। [उत्तराध्ययन सूत्र, अ० २२, गाथा २०] Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की मोर मोड़ने का बल] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ३७३ - मांखों से अनवरत प्रश्रुधारा बहाते हुए समुद्रविजय और माता शिवा ने बड़े दुलार से अनुनयपूर्वक कहा-"वत्स ! तुम अचानक ही इस मंगल-महोत्सव से मुख मोड़ कर कहां जा रहे हो?" विरक्त नेमिकुमार ने कहा-"अम्ब-तात ! जिस प्रकार ये पशु-पक्षी बन्धनों से बंधे हए थे, उसी प्रकार आप और हम सब भी कर्मों के प्रगाढ़ बन्धन बन्धे हुए हैं। जिस प्रकार मैंने इन पशु-पक्षियों को बन्धनमुक्त कर दिया, उसी कार में अब अपने पापको कर्म-बन्धन से सदा-सर्वदा के लिए मुक्त करने हेतु कर्म-बन्धन काटने वाली शिव-सुख प्रदायिनी दीक्षा ग्रहण करूंगा।" नेमिकमार के मख से दीक्षा ग्रहण को बात सुनते ही माता शिवादेवी और महाराज समुद्रविजय मूच्छित हो गये एवं समस्त यादव-परिवार की आँखें रोते-रोते लाल हो गई। श्रीकृष्ण ने सबको ढाढस बंधाते हुए नेमिकुमार से कहा-"भ्रात ! तुम तो हम सबके परम माननीय रहे हो, हर समय तुमने भी हमारा बड़ा मान रखा है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि तुम्हारा सौन्दर्य त्रैलोक्य में अनुपम है और तुम अभिनव यौवन के धनी हो, राजकुमारी राजीमती भी पूर्णरूपेण तुम्हारे ही अनुरूप है, ऐसी दशा में तुम्हारे इस असामयिक वैराग्य का क्या कारण है.? अब रही पशु-पक्षियों की हिंसा की बात, तो उनको तुमने मुक्त कर दिया है। तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो गई, अब माता-पिता और हम सब प्रियजनों के प्रभिलषित मनोरथ को पूर्ण करो।" "साधारण मानव भी अपने माता-पिता को प्रसन्न रखने का प्रयास करता है, फिर आप तो महान पुरुष हैं। आपको अपने इन शोक-सागर में डूबे हुए माता-पिता की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। जिस प्रकार आपने इन दीन पशु-पक्षियों को प्राणदान देकर प्रमुदित कर दिया उसी प्रकार इन प्रियबन्धुबान्धवों को भी अपने विवाह के सुन्दर दृश्य का दर्शन कराकर प्रसन्न कर दीजिये।" अरिष्टनेमि ने कहा- "चक्रपाणे ! माता-पिता और आप सब सज्जनों के दुःख का कोई कारण दृष्टिगोचर नहीं होता। देव-मनुष्य-नरक और तिर्यंच गति में पुनः पुनः जन्म-मरण के चक्कर में फंसा हुआ प्राणी अनन्त, असह्य दुःख पाता है । यही मेरे वैराग्य का मुख्य कारण है । अनन्त जन्मों में अनन्त मातापिता, पुत्र और बन्धु-बान्धवादि हो गये, पर कोई किसी के दुःख को नहीं बँटा सका । अपने-अपने कृत-कर्मों के दारुण विपाक सभी को स्वयमेव भोगने पड़ते है। यदि पुत्रों को देखने से माता-पिता को आनन्दानुभव होता है तो महानेमि बादि मेरे भाई हैं, अतः मेरे न रहने पर भी माता-पिता के इस प्रानन्द में किसी हार की कमी नहीं पायेगी। हरे ! मैं तो संसार के इस बिना ओर-छोर के पथ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ रा० द्वारा ने० को भागमार्ग पर चलते २ प्रत्यन्त वृद्ध और निर्बल पथिक की तरह थककर चूर-चूर हो चुका हूँ, अतः मैं असह्य दु:ख का अनुभव कर रहा हूँ। मैं अपने लिए, आप लोगों के लिए और संसार के समस्त प्राणियों के लिए परम शान्ति का प्रशस्त मार्ग ढूंढने को लालायित हूँ। मैंने दृढ़ निश्चय कर लिया है कि अब इस अनन्त दुःख के मूलभूत कर्मों का समूलोच्छेद करके ही दम लूंगा। बिना संयम ग्रहण किये कर्मों को ध्वस्त कर देना संभव नहीं, अतः मुझे अब निश्चित रूप से प्रव्रजित होना है । आप लोग वृधा ही बाधा न डालें ।" नेमकुमार की बात सुनकर समुद्रविजय ने कहा- " वत्स ! गर्भ में प्रवतीर्ण होने के समय से श्राज तक तुम ऐश्वर्यसम्पन्न रहे हो, तुम्हारा भोग भोगने योग्य यह सुकुमार शरीर ग्रीष्मकालीन घोर प्रातप, शिशिरकाल की ठिठुरा देने वाली ठंड और क्षुधा पिपासा श्रादि प्रसह्य दुःखों को सहने में किस तरह समर्थ होगा ?" नेमिकुमार ने कहा- "तात ! जो लोग नर्कों के उत्तरोत्तर घोरातिघोर दुःखों को जानते हैं, उनके सम्मुख श्रापके द्वारा गिनाये गये ये दुःख तो नगण्य और नहीं के बराबर हैं । तात ! इन तपश्चरण सम्बन्धी दुःखों को सहने से कर्मसमूह जलकर भस्मावशेष हो जाते हैं एवं प्रक्षय - अनन्त सुखस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति होती है, पर विषयजन्य सुखों से नर्क के अनन्त दारुण दुःखों की प्राप्ति होती है । अतः प्राप स्वयं ही विचार कर फरमाइये कि मनुष्य को इन दोनों में से कौनसा मार्ग चुनना चाहिए ?" नेमकुमार के इस प्राध्यात्मिक चिंतन से प्रोतप्रोत शाश्वत सत्य उत्तर को सुनकर सब यदुश्रेष्ठ निरुत्तर हो गये। सबको यह दृढ़ विश्वास हो गया कि अब नेमकुमार निश्चित रूप से प्रव्रजित होंगे। सबकी प्रां प्रजस प्रश्रुधाराएं प्रवाहित कर रही थीं । नेमिनाथ ने भ्रात्मीयों की स्नेहमयी लोहट खलानों के प्रगाढ़ बन्धनों को एक ही झटके में तोड़ डाला और सारथी को हाथी हाँकने की आज्ञा दे तत्काल अपने निवास स्थान पर चले प्राये । उपयुक्त अवसर देख लोकान्तिक देव नेमिनाथ के समक्ष प्रकट हुए मौर उन्होंने प्राञ्जलिपूर्वक प्रभु से प्रार्थना की- "प्रभो ! भव धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन कीजिये ।" लोकान्तिक देवों को भ्राश्वस्त कर प्रभु ने उन्हें ससम्मान विदा किया मीर इन्द्र की प्राज्ञा से जृम्भक देवों द्वारा द्रव्यों से भरे हुए भण्डार में से वर्ष भर दान देते रहे । उधर अपने प्राणेश्वर नेमिकुमार के लौट जाने और उनके द्वारा प्रवजित होने के निश्चय का संवाद सुनते ही राजीमती वृक्ष से काटी गई लता की तरह निश्चेष्ट हो धरणी पर धड़ाम से गिर पड़ी। शोकाकुल सखियों ने सुगन्धित Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की ओर मोड़ने का यत्न] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ३७५ शीतल जल के उपचार और व्यजनादि से उसको होश में लाने का प्रयास किया तो होश में आते ही राजीमती बड़ा हृदयद्रावी करुण-विलाप करते हुए बोली"कहाँ त्रिभवनतिलक नेमिकुमार और कहां मैं हतभागिनी! मुझे तो स्वप्न में भी पाशा नहीं थी कि नेमिकुमार जैसा नरशिरोमणि मुझे वर रूप में प्राप्त होगा । पर मो निर्मोही ! तुमने विवाह की स्वीकृति देकर मेरे मन में प्राशा लता अंकुरित क्यों की पौर असमय में ही उसे उखाड़ कर क्यों फेंक दिया ?" "महापुरुष अपने वचन को जीवन भर निभाते हैं। यदि मैं आपको अपने अनरूप नहीं झुंची तो पहले मेरे साथ विवाह की स्वीकृति ही क्यों दी? जिस दिन आपने वचन से मुझे स्वीकार किया, उसी दिन मेरा आपके साथ पाणिग्रहण हो चुका, उसके बाद यह विवाह-मण्डप-रचना और विवाह का समस्त प्रायोजन तो व्यर्थ ही किया गया। नाथ ! मुझे सबसे बड़ा दुःख तो इस बात का है कि आप जैसे समर्थ महापुरुष भी वचन-भंग करेंगे तो सारी लौकिक मर्यादाएं विनष्ट हो जायेंगी। प्राणेश! इसमें प्रापका कोई दोष नहीं, मझे तो यह सब मेरे ही किसी घोर पाप का प्रतिफल प्रतीत होता है । अवश्य ही मैंने पूर्व-जन्म में किसी चिरप्रणयी मिथुन का विछोह कर उसे विरह की वीभत्स ज्वाला में जलाया है। उसी जघन्य पाप के फलस्वरूप में हतभागिनी अपने प्राणाधार प्रियतम के करस्पर्श का भी सुखानुभव नहीं कर सकी।" इस प्रकार पत्थर को भी पिघला देने वाले करुण-क्रन्दन से विह्वल राजीमती ने हृदय के हार एवं कर-कंकणों को तोड़कर टुकड़े २ कर डाला और अपने वक्षःस्थल पर अपने ही हाथों से प्रहार करने लगी। सखियों ने राजीमती की यह दशा देखकर उसे समझाने का प्रयास करते हुए कहा-"नहीं, नहीं, राजदुलारी ! ऐसा न करो, उस निर्दयी नेमिकुमार से तुम्हारा क्या सम्बन्ध है ? उस मायावी से अब तुम्हें मतलब ही क्या है ? वह तो लोक-व्यवहार से विमुख, गृहस्थ-जीवन से सदा डरने वाला और स्नेह से अनभिज्ञ केवल मानव-वसति में मा बसे वनवासी प्राणी की तरह है । ससि! यदि वह चातुर्य-गणविहीन, निष्ठर, स्वेच्छाचारी और तुम्हारा शत्रु चला गया है तो जाने दो। यह तो खुशी की बात है कि विवाह होने से पहले ही उसके लक्षण प्रकट हो गये । यदि विवाह कर लेने के पश्चात् इस तरह ममत्वहीन हो जाता तो तुम्हारी दमा अन्धकूप में ढकेल देने जैसी हो जाती । सुघ्र ! अब तुम उस निष्ठुर को भूल जामो। तुम अभी तक कुमारी हो, क्योंकि उस मेमि कुमार को तो तुम केवल संकल्प मात्र से वाग्दान में ही दी गई हो। प्रद्युम्न, शाम्ब प्रादि एक से एक बढ़कर सुन्दर, सशक्त, सर्वगुणसम्पन्न अनेक यादवकुमार है, उनमें से अपनी इच्छानुसार किसी एक को अपना वर चुन लो।" Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ . जैन धर्म का मौलिक इतिहास [निष्क्रमणोत्सव इतना सुनते ही राजीमती ऋद्धा बाघिनी की तरह अपनी सखियों पर गरज पड़ी-"हमारे निष्कलंक कुल पर काला धब्बा लगाने जैसी तुम यह कैसी बात करती हो? मेरे प्राणनाथ नेमि तीनों लोक में सर्वोत्कृष्ट नररत्न हैं, भला बताओ तो सही, कोई है ऐसा जो उनकी तुलना कर सके ? क्षण भर के लिए मानलो अगर कोई है भी, तो मुझे उससे क्या प्रयोजन, कन्या एक बार ही दी जाती है।" "वष्णि कुमारों में से उनका ही मैंने अपने मन और वचन से वरण किया है, और अपने गुरुजनों द्वारा भी उन्हें दी जा चुकी हैं, अत: मैं तो अपने प्रियतम नेमिकुमार की पत्नी हो चुकी। तीनों लोकवासियों में सर्वश्रेष्ठ मेरे उस वर ने आज मेरे साथ विवाह नहीं किया है तो मैं भी आज से सब प्रकार के भोगों को तिलाञ्जलि देती हूं। उन्होंने यद्यपि विवाह-विधि से मेरे कर का स्पर्श नहीं किया है पर मुझे व्रतदान देने में तो उनकी वाणी अवश्यमेव मेरे अन्तस्तल का स्पर्श करेगी।" इस तरह काम-भोग के त्याग एवं व्रत-ग्रहण की दृढ़ प्रतिज्ञा से सहेलियों को चप कर राजीमती अहर्निश भगवान नेमिनाथ के ही ध्यान में निमग्न रहने लगी। इधर भगवान नेमिनाथ प्रतिदिन दान देते हुए अनेक रंकों को राव बना रहे थे। उन्हें अपने विशिष्ट ज्ञान और लोगों के मख से राजीमती द्वारा की गई भोग-परित्याग की प्रतिज्ञा का पता चल गया था, फिर भी वे पूर्णरूपेण ममत्व से निर्लिप्त रहे। निष्क्रमणोत्सव एवं दीक्षा वार्षिक दान सम्पन्न होने के पश्चात् मानवों, मानवेन्द्रों, देवों और देवेन्द्रों द्वारा भगवान का निष्क्रमणोत्सव बड़े प्रानन्द और अलौकिक ठाठ-बाट.के साथ सम्पन्न किया गया। उत्तरकुरु नाम की रत्नमयी शिबिका पर भगवान नेमिनाथ आरूढ़ हुए । निष्क्रमणोत्सव में देवों का सहयोग इस प्रकार बताया है-उस पालकी को देवताओं और राजा-महाराजाओं ने उठाया । सनत्कुमारेन्द्र प्रभु पर दिव्य छत्र किये हुए थे। शक्र और ईशानेन्द्र प्रभु के सम्मुख चवर-व्यजन कर रहे थे । माहेन्द्र हाथ में नग्न खङ्ग धारण किये और ब्रह्मन्द्र प्रभु के सम्मुख दर्पण लिये चल रहे थे । लान्तकेन्द्र पूर्ण-कलश लिये, शुक्रेन्द्र हाथ में स्वस्तिक धारण १ सकृत्कन्याः प्रदीयन्ते, त्रीण्येतानि सकृत् सकृत् । २ नेमिर्जगत्त्रयोत्कृष्टः कोऽन्यस्तत्सदृशो वरः । सहशो वास्तु किं तेन, कन्यादानं सकृत् खलु ।।२३१।। [त्रिषष्टि शलाका पु० च०, १०८, सर्ग 8] Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७७ एवं दीक्षा] भगवान् श्री अरिष्टनेमि किये हुए और सहस्रार धनुष की प्रत्यञ्चा पर बाण चढ़ाये हुए प्रभु के आगे चल रहे थे। प्राणतेन्द्र श्रीवत्स, अच्युतेन्द्र, नन्द्यावर्त और चमरादि शेष इन्द्र विविध शस्त्र लिये साथ थे । भगवान् नेमि को दशों दशाह, मातृवर्ग और कृष्णबलराम आदि चारों ओर से घेरे हुए चल रहे थे। इस प्रकार भगवान नेमि के निष्क्रमणोत्सव का वह विशाल जन-समह राजपथ से होता हुआ जब राजीमती के प्रासाद के पास पहुँचा तो एक वर्ष पुराना राजीमती का शोक भगवान् नेमिनाथ को देख कर तत्काल नवीन हो गया और वह मूच्छित होकर गिर पड़ी। देवों और मानवों के जन-सागर से घिरे हुए नेमिनाथ उज्जयंत पर्वत के परम रमरणीय सहस्राम्र उद्यान में पहुंचे और वहां अशोक वृक्ष के नीचे शिबिका से उतर कर उन्होंने अपने सब प्राभरण उतार दिये । इन्द्र ने प्रभु द्वारा उतारे गये वे सब आभूषण श्रीकृष्ण को अर्पित किये। ३०० वर्ष गृहस्थ-पर्याय में रह कर श्रावण शुक्ला ६ के दिन पूर्वाह्न में चन्द्र के साथ चित्रा नक्षत्र के योग में तेले की तपस्या से प्रभु नेमिनाथ ने सुगन्धियों से सुवासित कोमल अाचित केसों का स्वयमेव पंचमष्टि लूञ्चन किया।' शक्र ने प्रभ के केसों को अपने उत्तरीय में लेकर तत्काल क्षीर समुद्र में प्रवाहित किया। जब लुञ्चन कर प्रभु ने सिद्ध-साक्षी से संपूर्ण सावद्य-त्याग रूप प्रतिज्ञा-पाठ का उच्चारण किया, तब इन्द्र-प्राज्ञा ते देवों एवं मानवों का सारा समुदाय पूर्ण शान्त-निस्तब्ध हो गया । प्रभ ने १००० पुरुषों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की। उस समय क्षण भर के लिये नारकीय जीवों को भी सुख प्राप्त हुआ । दीक्षा ग्रहण करते ही प्रभु को मनःपर्यव नामक चौथा ज्ञान भी हो गया। ___ अरिष्टनेमि के दीक्षित होने पर वासुदेव श्रीकृष्ण ने अान्तरिक उद्गार अभिव्यक्त करते हुए कहा-“हे दमीश्वर ! आप शीघ्र ही अपने ईप्सित मनोरथ को प्राप्त करें। सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यगचारित्र, तप, शान्ति और मुक्ति के मार्ग पर निरंतर आगे बढ़ते रहें।" प्रभु द्वारा मुनि-धर्म स्वीकार करने के पश्चात् समस्त देव और देवेन्द्र, दशों दशाह, बलराम-कृष्ण मादि प्रभु अरिष्टनेमि को वन्दन कर अपने-अपने स्थान को लौट गये। [उत्तराध्ययन सूत्र, म० २२] १ ग्रह से सुगन्धगन्धिए, तुरियं मउयकुचिए । सयमेव लुचई केसे, पंचमुट्ठीहिं समाहिरो ॥२४ २ वासुदेवो य णं भणइ, लुत्तकेसं जिइन्दियं । इच्छियमणोरहं तुरियं, पावसु तं दमीसरा ॥२॥ [उत्तराध्ययन सूत्र, म० २२] Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [रथनेमि का राजीवतो पारगा दूसरे दिन प्रातःकाल प्रभु नेमिनाथ ने सहस्राम्रवन-उद्यान से निकल कर 'गोष्ठ' में 'वरदत्त' नामक ब्राह्मण के यहां अष्टम-तप का परमान से पारण किया। “अहो दानं, अहो दानम्" की दिव्य ध्वनि के साथ देवतामों ने दुन्दुभि बजाई, सुगन्धित जल, पुष्प, दिव्य-वस्त्र और सोनयों की वर्षा, इस तरह पाँच दिव्य वर्षा कर दान की महिमा प्रकट की। तदनन्तर प्रभु नेमिनाथ ने अपने घातिक कर्मों का क्षय करने के दढ़ संकल्प के साथ कठोर तप और संयम की साधना प्रारम्भ की और वहाँ से अन्य स्थान के लिए विहार कर दिया। रथनेमि का राजीमती के प्रति मोह अरिष्टनेमि के तोरण से लौट जाने पर भगवान् नेमिनाथ का छोटा भाई रथनेमि राजीमती को देखकर उस पर मोहित हो गया और वह नित्य नई, सुन्दर वस्तुओं की भेंट लेकर राजीमती के पास जाने लगा। रथनेमि के मनोगत कलुषित भावों को नहीं जानते हए राजीमती ने यही समझ कर निषेध नहीं किया-कि "भ्रातृ-स्नेह के कारण मेरे लिए देवर पादर से भेंट लाता है, तो मुझे भी इनका मान रखने के लिए इन वस्तुओं को ग्रहण कर लेना चाहिए।" उन सौगातों की स्वीकृति का अर्थ रथनेमि ने यह समझा कि उस पर अनुराग होने के कारण ही राजीमती उसके हर उपहार को स्वीकार करती है । इस प्रकार उसकी दुराशा बलवती होने लगी और वह क्षद्रबुद्धि प्रतिदिन राजीमती के घर जाने लगा। भावज होने के कारण वह रथनेमि के साथ बड़ा शिष्ट व्यवहार करती। एक दिन एकान्त पा रथनेमि ने राजीमती से कहा- "मुग्धे ! मैं तुम्हारे साथ विवाह करना चाहता हूं। इस अनुपम अमूल्य यौवन को व्यर्थ ही बरबाद मत करो। मेरे भैया भोगसुख से नितान्त अनभिज्ञ थे, इसी कारण उन्होंने आप जैसी परम सुकुमार सुन्दरी का परित्याग कर दिया। खैर, जाने दो उस बात को । उनके द्वारा परित्याग करने से तुम्हारा क्या बिगड़ा, वे ही घाटे में रहे कि भोगजन्य सुखों से पूर्णरूपेण वंचित हो गये । उनमें और मुझमें नभ-पाताल जितना अन्तर है । एक ओर तो वे इतने अरसिक कि तुम्हारे द्वारा प्रार्थना करने पर भी उन्होंने तुम्हारे साथ विवाह नहीं किया, दूसरी भोर मेरी गुणग्राहकता पर गम्भीरता से विचार करो कि मैं स्वयं तुम्हें अपनी प्राणेश्वरी, चिरप्रेयसी बनाने के लिए तुम्हारे सम्मख प्रार्थना कर रहा हूं।" १ प्रार्थ्यमानोऽपि नाभूते, स वरो वरवरिणनि । अहं प्रार्थयमानस्त्वामस्मि पश्यान्तरं महत् ॥२६४।। [त्रि० श. पु० च०, पर्व ८, सर्ग ६] . Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के प्रति मोह] भगवान् श्री अरिष्टनेमि रथनेमि की बात सुनकर राजीमती के हृदय पर बड़ा आघात लगा। क्षण भर के लिए वह अवाक सी रह गई। उस सरल स्वभाव वाली विशुद्धहृदया राजीमती की समझ में अब पाया कि वे सारे उपहार इस हीन भावना से ही भेंट किये गये थे। धर्मनिष्ठा राजीमती ने रथनेमि को अनेक प्रकार से समझाया कि यशस्वी हरिवंशीय कुमार के मन में इस प्रकार के हीन विचारों का माना लज्जास्पद है, पर उस भ्रष्ट-बुद्धि रथनेमि पर राजीमती के समझाने का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। उसने अपनी दुरभिलाषा को इसलिए नहीं छोड़ा कि निरन्तर के प्रेमपूर्ण व्यवहार से एक न एक दिन वह राजीमती को अपनी भोर आकर्षित करने में सफल हो सकेगा। इस प्रकार की प्राशा लिए उस दिन रथनेमि राजीमती से यह कह कर चला गया कि वह कल फिर पायेगा। रथनेमि के चले जाने पर राजीमती सोचने लगी कि यह संसार का कुटिल काम-व्यापार कितना परिणत है। कामान्ध और पथभ्रष्ट रथनेमि को सही राह पर लाने के लिए कोई न कोई प्रभावोत्पादक उपाय किया जाना. चाहिए। वह बड़ी देर तक विचारमग्न रही और अन्त में उसने एक अद्भुत उपाय ढूढं ही निकाला। राजीमती ने दूसरे दिन रथनेमि के अपने यहां आने से पहले ही भरपेट दूध पिया और उसके आने के पश्चात् वमनकारक मदनफल को नासा-रन्ध्रों से छकर सूघा ओर रथनेमि से कहा कि शीघ्र ही एक स्वर्ग-थाल ले आओ। रथनेमि ने तत्काल राजीमती के सामने सुन्दर स्वर्ण पात्र रख दिया। राजीमती ने पहले पिये हुए दूध का उस स्वर्ण-पात्र में वमन कर दिया और रथनेमि से गम्भीर दृढ़ स्वर में कहा-"देवर ! इस दूध को पी जामो।" रथनेमि ने हकलाते हुए कहा-"क्या मुझे कुत्ता समझ रखा है, जो इस वमन किये हुए दूध को पीने के लिए कह रही हो?" राजीमती ने जिज्ञासा के स्वर में कहा-“रथनेमि ! क्या तुम भी जानते हो कि यह वमन किया हुआ दूध पीने योग्य नहीं है ?" रथनेमि ने उत्तर दिया-“वाह खूब ! केवल मैं ही क्या, मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति भी वमन की हुई हर वस्तु को अग्राह्य, अपेय एवं अभक्ष्य जानता और मानता है।" राजीमती ने कठोर स्वर में कहा- "अरे रथनेमि ! यदि तुम यह जानते हो कि वमन की हुई वस्तु अपेय और अभोग्य है-खाने-पीने और उपभोग करने योग्य नहीं है, तो फिर मेरा उपभोग करना क्यों चाहते हो ? मैं भी तो वमन की हुई हूँ। उन महान् अलौकिक पुरुष के भाई होकर भी तुम्हें अपनी इस Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ समवसरण और घृणित इच्छा के लिए लज्जा नहीं आती ? सावधान ! भविष्य में कभी ऐसी गहित घृणित और नारकीय आयु का बन्ध करने वाली बात मुंह से न निकालना 19" ३८० राजीमती की इस युक्तिपूर्ण फटकार से रथनेमि बड़ा लज्जित हुआ । उसके मुंह से एक भी शब्द नहीं निकल सका। उसके सारे कलुषित मनोरथ मिट्टी में मिल गये और वह उन्मना हो अपना-सा मुंह लिए अपने घर लौट गया । उसने फिर कभी राजीमती के प्रासाद की ओर मुंह करने का भी साहस नहीं किया । कुछ समय पश्चात् रथनेमि विरक्त हुए और दीक्षित होकर भगवान् नेमिनाथ की सेवा में रेवताचल की ओर निकल पड़े । केवलज्ञान प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् चौवन (५४) दिन तक विविध प्रकार के तप करते हुए प्रभु उज्जयंतगिरि-रेवतगिरि पधारे और वहीं अष्टम-प से ध्यानस्थ हो गये । एक रात्रि की प्रतिमा से शुक्ल-ध्यान की अग्नि में मो नीय ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि घाति-कर्मों का क्षय कर आश्विन कृष्णामावस्या को पूर्वाह्न काल में, चित्रा नक्षत्र के योग में उन्होंने केवलज्ञान प्रौर केवलदर्शन की प्राप्ति की । समवसरण और प्रथम देशना भगवान् अरिष्टनेमि को केवलज्ञान की प्राप्ति होते ही देवेन्द्रों के सन चलायमान हुए । देवेन्द्र तत्क्षरग अपने देव - देवी समाज के साथ रैवतक पर्वत पर सहस्रास्र वन में आये और भगवान् के चरणों में भक्तिसहित वन्दन कर उन्होंने अनुपम समवसरण की रचना की । उस समय सारा रेवताचल देव-देवियों की कमनीय कान्ति से जगमगा उठा । वहां के रक्षक यह सब अदृष्टपूर्व दृश्य देखकर बड़े विस्मित हुए और तत्क्षरण कृष्ण के पास जाकर उन्हें अरिष्टनेमि के समसरण एवं देव - देवियों के आगमन का सारा हाल कह सुनाया । श्रीकृष्ण ने परम प्रसन्न हो उन रक्षक पुरुषों को साढ़े बारह करोड़ रौप्य मुद्रा ( रुपयों) का पारितोषिक प्रदान कर भगवान् नेमिनाथ के प्रति अपनी अपूर्व श्रद्धा और निष्ठा का परिचय दिया । १ तस्य भ्रातापि भूत्वा त्वं कथमेवं चिकीर्षसि । मातः परमिदंवा दीर्नरकायुनिबन्धनम् ।।२७२।। [त्रि० श० पु० च०, पर्व ८, स०] Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८१ प्रथम देलना] भगवान् श्री परिष्टनेमि तदनन्तर श्रीकृष्ण अपने श्रेष्ठ हाथी पर मारूढ़ हो दशों दशा), शिवा, रोहिणी और देवकी आदि माताओं तथा बलभद्र आदि भाइयों, एक करोड़ यादव कुमारों एवं समस्त अन्तःपुर और सोलह हजार राजाओं के साथ अर्द्ध चक्री की समस्त समृद्धि से सुशोभित हो भगवान् नेमिनाथ के समवसरण की ओर चल पड़े। समवसरण को देखते ही श्रीकृष्ण आदि अपने-२ वाहनों से उतर पड़े और राजचिह्नों को वहीं रखकर सबने समवसरण के उत्तर द्वार से भीतर प्रवेश किया। अष्ट महाप्रातिहार्यों में सुशोभित प्रभु एक अलौकिक स्फटिक सिंहासन पर पूर्वाभिमुख विराजमान थे। प्रभु का मुखारविन्द तीर्थकर के विशिष्ट अतिथियों के कारण चारों ही दिशाओं में यथावत् समान रूप से दिख रहा था। प्रभु की प्रदक्षिणा और भक्तिसहित विधिवत् वन्दना के पश्चात् श्रीकृष्ण और अन्य सब यथास्थान बैठ गये। इन्द्र और श्रीकृष्ण ने बड़े भक्तिभाव से प्रभु की स्तुति की। तदनन्तर प्रभु नेमिनाथ ने सबकी समझ में आने वाली भाषा में भव्यों के प्रज्ञान-तिमिर का विनाश कर ज्ञान का परम प्रकाश प्रकट करने वाली देशना दी। तीर्थ-स्थापना प्रभु की ज्ञान-विरागपूर्ण देशना सुन कर सर्वप्रथम 'वरदत्त' नामक नृपति ने संसार से विरक्त हो तत्क्षण प्रभु-चरणों में दीक्षित होने की प्रार्थना की। - भगवान् नेमिनाथ ने भी योग्य समझ कर वरदत्त को दीक्षा दी। उसी समय श्रीकृष्ण ने नमस्कार कर प्रभु से पूछा-"प्रभो ! यों तो प्रत्येक प्राणी का भापके प्रति अनुराग है, पर राजीमती का पापके प्रति सबसे अधिक अनुराग क्यों है ?" उत्तर में प्रभु ने राजीमती के साथ अपने पूर्व के पाठ भवों के सम्बन्धों का विवरण सुनाया। पूर्वभव के इस वृत्तान्त को सुन कर तीन राजाओं को जो समवसरण में आये हुए थे और पूर्वभवों में प्रभु के साथ रहे थे, तत्क्षण जातिस्मरण ज्ञान हो गया और उन्होंने उसी समय प्रभु के पास श्रमरण-दीक्षा स्वीकार कर ली। और भी अनेक मुमुक्षुत्रों ने प्रभु-चरणों में दीक्षा ग्रहण की । इस प्रकार प्रभु के उपदेश को सुन कर विरक्त हुए दो हजार क्षत्रियों ने वरदत्त के पश्चात उसी समय प्रभु की सेवा में दीक्षा ग्रहण की। उन २००१ सद्यःदीक्षित साधुओं में से वरदत्त आदि ग्यारह (११) मनियों को प्रभ ने उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप त्रिपदी का ज्ञान देकर गणधर-पदों पर नियुक्त किया । त्रिपदी के आधार पर उन मुनियों ने बारह अंगों की रचना की और गणधर कहलाये । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [राजीमती की प्रव्रज्या उसी समय यक्षिणी आदि अनेक राजपुत्रियों ने भी प्रभु-चरणों में दीक्षा ग्रहण की। प्रभु ने यक्षिणी प्रार्या को श्रमणी-संघ की प्रवर्तिनी नियुक्त किया । दशों दशा), उग्रसेन, श्रीकृष्ण, बलभद्र व प्रद्युम्न आदि ने प्रभु से श्रावकधर्म स्वीकार किया।' महारानी शिवादेवी, रोहिणी, देवकी और रुक्मिणी आदि अनेक महिंमाओं ने प्रभु के पास श्राविका-धर्म स्वीकार किया। इस प्रकार प्रभु ने प्राणिमात्र. के कल्याण के लिए साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका-रूप चतुर्विध तीर्थ की स्थापना की और तीर्थ-स्थापना के कारण प्रभु मरिष्टनेमि भाव-तीर्थकर कहलाये । राजीमती की प्रव्रज्या उधर राजीमती अपने तन-मन की सुधि भूले रात-दिन नेमिनाथ के चिंतन में ही डूबी रहने लगी । अपने प्रियतम के विरह में उसे एक-एक दिन एकएक वर्ष के समान लम्बा लगता था। बारह मास तक मपलक प्रतीक्षा के बाद जब राजीमती ने भगवान् अरिष्टनेमि की प्रव्रज्या की बात सुनी तो हर्ष और आनन्द से रहित होकर स्तब्ध हो गई। वह सोचने लगी--"धिक्कार है मेरे जीवन को, जो मैं प्रारणनाथ नेमिनाथ के द्वारा ठुकराई गई है। अब तो उन्हीं के मार्ग का अनुसरण करना मेरे लिए श्रेयस्कर है । उन्होंने प्रव्रज्या ग्रहण को है तो अब मेरे लिए भी प्रव्रज्या ही हितकारी है।" किसी तरह माता-पिता की अनुमति लेकर उसने प्रव्रज्या का निश्चय किया एवं अपने सुन्दर-श्यामल बालों का स्वयमेव लुचन कर धैर्य एवं दढ़ निश्चय के साथ वह संयम-मार्ग पर बढ़ चली । लूचित केश वाली जितेन्द्रिया सुकुमारी राजीमती से वासुदेव श्रीकृष्ण प्राशीर्वचन के रूप में बोले-“हे कन्ये! जिस लक्ष्य से दीक्षित हो रही हो, उसकी सफलता के लिए घोर संसार-सागर १ दशार्हा उग्रसेनश्च, वासुदेवश्च लांगली। प्रद्युम्नाद्याः कुमाराश्च, श्रावकत्वं प्रपेदिरे ॥३७८।। २ शिवा रोहिणीदेवक्यो, रुक्मिण्याचाश्च योषितः । जगृहुः श्राविका-धर्ममन्याश्च स्वामिसनिधी ॥३७॥ [त्रिषष्टि शलाका पुरुष परित्र, पर्व ८, सर्ग १] ३ सोऊण रायवरकन्ना, पवज्ज सा जिस्स उ । णीहासा य गिराणन्दा, सोगेण उ समुत्यिया ॥ [उत्तराध्ययन २० २२, श्लो. २८] Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रथनेमि का आकर्षण ] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ३८३ को शीघ्रातिशीघ्र पार करना ।" राजीमती ने दीक्षित होकर बहुत सी राजकुमारियों एवं अन्य सखियों को भी दीक्षा प्रदान की । शीलवती होने के साथसाथ नेमिनाथ के प्रति धर्मानुराग से अभ्यास करते हुए राजीमती बहुश्रुता भी हो गई थीं । भगवान् नेमिनाथ को चौवन दिन के छद्मस्थकाल के पश्चात् केवलज्ञान प्राप्त हुआ और वे रेवताचल पर विराजमान थे, अतः साध्वी राजीमती अनेक साध्वियों के साथ भगवान् को वन्दन करने के लिए रेवतगिरि की ओर चल पड़ीं । अकस्मात् आकाश में उमड़-घुमड़ कर घटाएँ घिर आई और वर्षा होने लगी, जिससे मार्गस्थ साध्वियां भीग गईं । वर्षा से बचने के लिए सब साध्वियाँ इधर-उधर गुफाओं में चली गईं। राजीमती भी पास की एक गुफा में पहुँची, जिसे आज भी लोग राजीमती - गुफा कहते हैं । उसको यह ज्ञात नहीं था कि इस गुफा में पहले से ही रथनेमि बैठे हुए हैं। उसने अपने भीगे कपड़े उतार कर सुखाने के लिए फैलाये । रथनेमि का आकर्षण नग्नावस्था में राजीमती को देख कर रथनेमि का मन विचलित हो उठा । उधर राजीमती ने रथनेमि को सामने ही खड़े देखा तो वह सहसा भयभीत हो गईं । उसको भयभीत और काँपती हुई देख कर रथनेमि बोले- "हे भद्रे ! मैं वही तेरा अनन्योपासक रथनेमि हूँ । हे सुरूपे ! मुझे अब भी स्वीकार करो । हे चारुलोचने ! तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं होगा। संयोग से ऐसा सुअवसर हाथ आया है । आओ, जरा इन्द्रिय सुखों का भोग करलें । मनुष्य जन्म बहुत दुर्लभ है । अत: भुक्तभोगी होकर फिर जिनराज के मार्ग का अनुसरण करेंगे । रथनेमि को इस प्रकार भग्नचित्त और मोह से पथभ्रष्ट होते देख कर राजीमती ने निर्भय होकर अपने आपका संवरण किया और नियमों में सुस्थिर होकर कुल जाति के गौरव को सुरक्षित रखते हुए वह बोली - " रथनेमि ! तुम तो साधारण पुरुष हो, यदि रूप से वैश्रमण देव और सुन्दरता में नलकूबर तथा साक्षात् इन्द्र भी प्रा जायँ तो भी मैं उन्हें नहीं चाहूँगी, क्योंकि हम कुलवती हैं । नाग जाति में अगंधन कुल के सर्प होते हैं, जो जलती हुई ग्राग में गिरना स्वीकार करते हैं, किन्तु वमन किये हुए विष को कभी वापिस नहीं लेते । फिर तुम तो उत्तम कुल के मानव हो, क्या त्यागे हुए विषयों को फिर से ग्रहण करोगे ? तुम्हें इस विपरीत मार्ग पर चलते लज्जा नहीं आती ? रथनेमि तुम्हें धिक्कार है । इस प्रकार अंगीकृत व्रत से गिरने की अपेक्षा तो तुम्हारा मरण श्रेष्ठ है । " २ [उ० सू० अ० २२] १ संसार सायरं घोरं तर कन्ने लहुं लहुं । २ धिरस्तु तेऽजसोकामी, जो तं जीविय कारणा । वंतं इच्छसि श्रावेउं, सेयं ते मरणं भवे ||७|| [ दशवेकालिक सूत्र, प्र० २] उत्त० २२ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [रथनेमि का प्राकर्षण राजीमती की इस प्रकार हितभरी ललकार और फटकार सुन कर अंकुश से उन्मत्त हाथी की तरह रथनेमि का मन धर्म में स्थिर हो गया। उन्होंने भगवान अरिष्टनेमि के चरणों में पहुँच कर, पालोचन-प्रतिक्रमण पूर्वक प्रात्मशद्धि की और कठोर तपश्चर्या की प्रचण्ड अग्नि में कर्मसमूह को काष्ठ के ढेर की तरह भस्मसात् कर वे शुद्ध, बुद्ध एवं मुक्त हो गये । राजीमती ने भी भगवच्चरणों में पहुंच कर वंदन किया और तप-संयम का साधन करते हुए केवलज्ञान की प्राप्ति कर ली और अन्त में निर्वाण प्राप्त किया। अरिष्टनेमि द्वारा अद्भुत रहस्य का उद्घाटन धर्मतीर्थ की स्थापना के पश्चात् भगवान् अरिष्टनेमि भव्यजनों के अन्तमन को ज्ञान के प्रकाश से पालोकित कुमार्ग पर लगे हुए असंख्य लोगों को धर्म के सत्पथ पर प्रारूढ़ एवं कनक-कामिनी और प्रभुता के मद में अन्धे बने राजाओं, श्रेष्ठियों और गृहस्थों को परमार्थ-साधना के अमृतमय उपदेश मे मद-विहीन करते हुए कुसट्ट, मानर्त, कलिंग प्रादि अनेक जनपदों में विचरण कर भहिलपुर नगर में पधारे। भहिलपुर में भगवान् की भवभयहारिणी अमोघ देशना को सुनकर देवकी के ६ पुत्र अनीक सेन, अजित सेन, अनिहत रिपु, देवसेन, शत्रसेन और सारण ने. जो सुलसा गाथापत्नी के द्वारा पुत्र रूप में बड़े लाड़-प्यार से पाले गये थे, विरक्त हो भगवान् के चरणों में श्रमणदीक्षा ग्रहण की। इनका प्रत्येक का बत्तीस २ इभ्य कन्याओं के साथ पाणिग्रहण करायागया था। वैभव का इनके पास कोई पार नहीं था' पर भगवान् नेमिनाथ की देशना सुन कर ये विरक्त हो गये। भहिलपुर से विहार कर भगवान अरिष्टनेमि अनेक श्रमणों के साथ द्वारिकापुरी पधारे । भगवान् के समवसरण के समाचार सुनकर श्रीकृष्ण भी अपने समस्त यादव-परिवार और अन्तःपुर आदि के साथ भगवान के समवसरण में आये । जिस प्रकार गंगा और यमुना नदियाँ बड़े वेग से बढ़ती हुई समुद्र में समा जाती हैं, उसी तरह नर-नारियों की दो धाराओं के रूप में द्वारिकापुरी की सारी प्रजा भगवान् के समवसरण-रूप सागर में कुछ ही क्षणों में समा गई। भगवान् की भवोदधितारिणी वाणी सुन कर अगणित लोगों ने अपने कर्मों के गुरुतर भार को हल्का किया । अनेक भव्य-भाग्यवान् नर-नारियों ने दीक्षित हो प्रभ के चरणों की शरण ली । अनेक व्यक्ति श्रावक-धर्म स्वीकार कर मुक्ति-पथ के पथिक बने १ अन्तगढ़ दसा वर्ग ३ म०१ से ६ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८५ अरि० द्वारा प्र० रहस्य का उद्०] भगवान् श्री अरिष्टनेमि और भवभ्रमण से विभ्रान्त अगणित व्यक्तियों के अन्तर में मिथ्यात्व के निबिड़. तम तिमिर को ध्वस्त करने वाले सम्यक्त्व सूर्य का उदय हुआ। धर्म-परिषद् में आये हुए श्रोताओं के देशनानन्तर यथास्थान चले जाने के पश्चात् छ? २ भक्त की निरन्तर तपस्या के कारण कृशकाय वे अनीकसेन प्रादि छहों मुनि अर्हन्त अरिष्टनेमि की अनुमति लेकर दो दिन के-छ? तप के पारण हेतु दो-दो के संघाटक से, भिक्षार्थ द्वारिकापुरी की ओर अग्रसर हुए। इन मुनियों का प्रथम युगल विभिन्न कुलों में मधुकरी करता हा देवकी के प्रासाद में पहुँचा । राजहंसों के समान उन मुनियों को देखते ही देवकी ने उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और प्रेमपूर्वक विशुद्ध एषणीय आहार की भिक्षा दी । भिक्षा ग्रहण कर मुनि वहाँ से लौट पड़े। __ मुनि-युगल की सौम्य आकृति, सदृश-वय, कान्ति और चाल-ढाल को परीक्षात्मक सक्ष्म दष्टि से देखकर देवकी ने रोहिणी से कहा-"दीदी ! देखो, देखो, इस वय में दुष्कर कठोर तपस्या से शुष्क एवं कृशकाय इन युवा-मुनियों को ! इनका रूप, सौन्दर्य, लावण्य और सहज प्रफुल्लित मुखड़ा कितना अद्भुत है ? दीदी! वह देखो, इनके सुकुमार तन पर कृष्ण के समान ही श्रीवत्स का चिह्न दिखाई दे रहा है।" देवकी ने दीर्घ निःश्वास छोड़ते हए शोकातिरेक से अवरुद्ध करुण स्वर में कहा-"दीदी ! देव दुर्विपाक से यदि बिना कारण शत्रु कंस ने मेरे छह पुत्रों को नहीं मारा होता तो वे भी आज इन मुनियों के समान वय और वपु वाले होते । धन्य है वह माता, जिसके ये लाल हैं।" देवको के नयनों से अनवरत अश्रुधाराएँ बह रहीं थीं। देवकी का अन्तिम वाक्य पूरा ही नहीं हो पाया था कि उसने मुनि-युगल के दूसरे संघाटक को आते देखा । यह मुनि-युगल भी दिखने में पूर्णरूपेण प्रथम मुनि-युगल के समान था । इस संघाटक ने भी कृतप्रणामा देवकी से भिक्षा की याचना की। वही पहले के मुनियों का सा कण्ठ-स्वर देवकी के कर्णरन्ध्रों में गूंज उठा । वही नपे-तुले शब्द और वही कण्ठ-स्वर । देवकी ने मन ही मन यह सोचते हुए कि पहले जो भिक्षा में इन्हें दिया गया, वह इनके लिए पर्याप्त नहीं होगा, इसलिए पुनः लौटे हैं, उसने बड़े प्रादर और हर्षोल्लास से मनियों को पुनः प्रतिलाभ दिया। दोनों साधु भिक्षा लेकर चले गये । Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ श्ररि० द्वारा अदभुत उन दोनों साधुनों के जाने पर संयोगवश छोटे बड़े कुलों में मधुकरी के लिए घूमता हुआ तीसरा मुनि-संघाटक भी देवकी के यहाँ जा पहुँचा। यह युगलजोड़ी भी पूर्ण रूप से भिक्षार्थ पहले ग्राये हुए दोनों संघाटकों के मुनि-युगल से मिलती-जुलती थी । देवकी ने पूर्गा श्रद्धा, सम्मान और भक्ति के साथ तृतीय संघाटक को भी विशुद्ध भाव से भिक्षा दी । अन्तगड़ दशा सूत्र के एतद्विषयक विशद वर्णन में बताया गया है कि उस संघाटक को देवकी ने पूर्ण सम्मान और बड़े प्रेम से भिक्षा दी । मुनियों को भिक्षा देने के कारण देवकी का अन्तर्मन असीम आनन्द का अनुभव करते हुए इतना पुलकित हो उठा था कि वह स्नेहातिरेक और परा भक्ति के उद्रेक से अपने आपको संभाल भी नहीं पा रही थी । फिर भी अन्तर में उठे हुए एक कुतूहल और सन्देह का निवाररण करते हेतु हर्षाश्रमों से मुनि-युगल की ओर देखते हुए उसने कहा- "भगवन् ! मन्दभाग्य वाले लोगों के आँगन में प्राप जैसे महान् त्यागियों के चरण कमल दुर्लभ हैं । मेरा अहोभाग्य है कि आपने अपने पावन चरण-कमलों से इस प्रांगन को पवित्र किया. पर मेरी शंका है कि द्वारिका में हजारों गुणानुरागी, सन्तसेवी कुलों को छोड़कर प्राप मेरे यहाँ तीन बार कैसे पधारे ? " ३८६ देवकी देवी द्वारा इस प्रकार का प्रश्न पूछे जाने पर वे मुनि उससे इस प्रकार बोले - "हे देवानुप्रिये ! ऐसी बात तो नहीं है कि कृष्ण वासुदेव की यावत् प्रत्यक्ष स्वर्ग के समान, इस द्वारिका नगरी में श्रमरण निर्ग्रन्थ उच्चनीच - मध्यम कुलों में यावत् भ्रमरण करते हुए आहार पानी प्राप्त नहीं करते और न मुनि लोग भी प्रहार- पानी के लिए उन एक बार स्पृष्ट कुलों में दूसरीतीसरी बार जाते हैं । वास्तव में बात इस प्रकार है - "हे देवानुप्रिये ! भद्दिलपुर नगर में हम नाग गाथापति के पुत्र और नाग की सुलसा भार्या के आत्मज छै सहोदर भाई हैं. पूर्णत: समान प्रकृति वाले यावत् नलकुबेर के समान । हम छहों भाइयों ने अरिहन्त अरिष्टनेमि के पास धर्म उपदेश सुनकर और उसे धारण करके संसार के भय से उद्विग्न एवं जन्म मरण से भयभीत हो मुण्डित होकर यावत् श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण की । तदनन्तर हमने जिस दिन दीक्षा ग्रहण की थी, उसी दिन अरिहन्त अरिष्टनेमि को वंदन नमन किया और वंदन नमस्कार कर इस प्रकार का यह अभिग्रह धारण करने की प्राज्ञा चाही - "हे भगवन् ! आपकी अनुज्ञा पाकर हम जीवन पर्यन्त बेले- बेले की तपस्या पूर्वक अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरना चाहते हैं ।" यावत् प्रभु ने कहा – “देवानुप्रियो ! जिससे तुम्हें सुख हो वैसा ही करो, प्रमाद न करो।" Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहस्य का उद्घाटन] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ३८७ उसके बाद अरिहन्त अरिष्टनेमि की अनुज्ञा प्राप्त होने पर हम जीवन भर के लिए निरन्तर बेले-बेले की तपस्या करते हुए विचरण करने लगे। इस प्रकार आज हम छहों भाई-बेले की तपस्या के पारण के दिन प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करने के पश्चात्-प्रभु अरिष्टनेमि की आज्ञा प्राप्त कर यावत् तीन संघाटकों में भिक्षार्थ उच्च-मध्यम एवं निम्न कुलों में भ्रमण करते हए तुम्हारे घर आ पहँचे हैं । अतः हे देवानप्रिये ! ऐसी बात नहीं है कि पहले दो संघाटकों में जो मनि तुम्हारे यहाँ आये थे वे हम ही हैं। वस्तुत: हम दूसरे हैं।" उन मनियों ने देवकी देवी को इस प्रकार कहा और यह कहकर वे जिस दिशा से आये थे उसी दिशा की ओर चले गये । इस प्रकार की बात कह कर मुनियों के लोट जाने के पश्चात् उस देवकी देवी को इस प्रकार का विचार यावत् चिन्तापूर्ण अध्यवसाय उत्पन्न हुमा : "पोलासपुर नगर में प्रतिमुक्त कुमार नामक श्रमरण ने मेरे समक्ष बचपन में इस प्रकार भविष्यवाणी की थी कि हे देवानुप्रिये देवकी ! तुम परस्पर पूर्णतः समान आठ पुत्रों को जन्म दोगी, जो नलकूबर के समान होंगे । भरतक्षेत्र में दूसरी कोई माता वैसे पुत्रों को जन्म नहीं देगी।" पर यह भविष्यवाणी मिथ्या सिद्ध हुई । क्योंकि यह प्रत्यक्ष ही दिख रहा है कि भरतक्षेत्र में अन्य माताओं ने भी सुनिश्चित रूपेरण ऐसे पूत्रों को जन्म दिया है । मनि की बात मिथ्या नहीं होनी चाहिये, फिर यह प्रत्यक्ष में उससे विपरीत क्यों ? ऐसी स्थिति में मैं अरिहन्त अरिष्टनेमि भगवान की सेवा में जाऊँ, उन्हें वंदन नमस्कार करूं और वंदन नमस्कार करके इस प्रकार के कथन के विषय में प्रभु से पूछू, इस प्रकार सोचा । ऐसा सोचकर देवकी देवी ने प्राज्ञाकारी पुरुषों को बलाया और बलाकर ऐसा कहा-"लघ कर्प वाले (शीघ्रगामी) श्रेष्ठ प्रांखों से युक्त रथ को उपस्थित करो।" आज्ञाकारी पुरुषों ने रथ उपस्थित किया । देवकी महारानी उस रथ में बैठकर यावत् प्रभु के समवसरण में उपस्थित हुई और देवानन्दा द्वारा जिस प्रकार भगवान् महावीर की पर्यपासना किये जाने का वर्णन है, उसी प्रकार महारानी देवकी भगवान् अरिष्टनेमि की यावत् पर्युपासना करने लगी। तदनन्तर महत् अरिष्टनेमि देवकी को सम्बोधित कर इस प्रकार बोले"हे देवकी ! क्या इन छः साधुओं को देखकर वस्तुत: तुम्हारे मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हसा कि पोलासपुर नगर में अतिमुक्त कुमार ने तुम्हें प्राठ 'प्रतिम पुत्रों को जन्म देने का जो भविष्य कथन किया था, वह मिथ्या सिद्ध हुप्रा । उस विषय में पृच्छा करने के लिये तुम यावत् वन्दन को निकली और Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [परि० द्वारा अद्भुत निकलकर शीघ्रता से मेरे पास चली प्राई हो, हे देवकी ! क्या यह बात ठीक देवकी ने कहा-"हाँ भगवन् ! ऐसा ही है।" प्रभु की दिव्य ध्वनि प्रस्फुटित हुई–"हे देवानुप्रिये ! उस काल उस समय में भहिलपुर नगर में नाग नाम का गायापति रहा करता था, जो प्राढ्य (महान् ऋद्धिशाली) था । उस नाग गाथापति की सुलसा नामक पत्नी थी। उस सुलसा गाथापत्नी को बाल्यावस्था में ही किसी निमित्तज्ञ ने कहा-यह बालिका मतवत्सा यानी मत बालको को जन्म देने वाली होगी। तत्पश्चात् वह सुलसा बाल्यकाल से ही हरिणेगमेषी देव की भक्त बन गई। __ उसने हरिणेगमेषी देव की मूर्ति बनाई । मूर्ति बना कर प्रतिदिन प्रात:काल स्नान करके यावत् दुःस्वप्न निवारणार्थ प्रायश्चित्त कर गीली साड़ी पहने हुए बहुमूल्य पुष्पों से उसकी मर्चना करती। पुष्पों द्वारा पूजा के पश्चात् घुटने टिकाकर पांचों अंग नवा कर प्रणाम करती, तदनन्तर पाहार करती, निहार करती एवं प्रपनी दैनन्दिनी के अन्य कार्य करती। तत्पश्चात् उस सुलसा गाथापत्नी की उस भक्ति-बहुमान पूर्वक की गई सुश्रूषा से देव प्रसन्न हो गया । प्रसन्न होने के पश्चात् हरिणगमेषी देव सुलसा गाथापत्नी पर अनुकम्पा करने हेतु सुलसा गाथापत्नी को तथा तुम्हें-दोनों को समकाल में ही ऋतुमती (रजस्वला) करता और तब तुम दोनों समकाल में हो गर्भ धारण करतीं, समकाल में ही गर्भ का वहन करतीं और समकाल में ही बालक को जन्म देती। प्रसवकाल में वह सुलसा गाथापत्नी मरे हुए बालक को जन्म देती। तब वह हरिणगमेषी देव सुलसा पर अनुकम्पा करने के लिये उसके मत बालक को दोनों हाथों में लेता और लेकर तुम्हारे पास लाता । इधर उस समय तुम भी नव मास का काल पूर्ण होने पर सुकुमार बालक को जन्म देतीं। हे देवानुप्रिये ! जो तुम्हारे पुत्र होते उनको भी हरिणगमेषी देव तुम्हारे पास से अपने दोनों हाथों में ग्रहण करता और उन्हें ग्रहण कर सुलसा गाथापत्नी के पास लाकर रख देता (पहँचा देता)। प्रतः वास्तव में हे देवकी ! ये तुम्हारे पुत्र हैं, सुलसा गाथापत्नी के नहीं है । इसके अनन्तर उस देवकी देवी ने अरिहंत अरिष्टनेमि के मुखारविन्द से इस प्रकार की यह रहस्यपूर्ण बात सुनकर तथा हृदयंगम कर हृष्ट-तुष्ट यावत् प्रफुल्ल हृदया होकर अरिहन्त अरिष्टनेमि भगवान् को वंदन-नमस्कार किया Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३८६ रहस्य का उद्घाटन भगवान् श्री अरिष्टनेमि और वंदन-नमस्कार करके जहाँ वे छहों मुनि विराजमान थे, वहाँ पाई । पाकर वह उन छहों मुनियों को वंदन-नमस्कार करने लगी। उन अनगारों को देखकर पुत्र-प्रेम के कारण उसके स्तनों से दूध झरने लगा। हर्ष के कारण उसकी आँखों में आँस भर पाये एवं अत्यन्त हर्ष के कारण शरीर फूलने से उसकी कंचुकी की कसें टूट गई और भुजाओं के प्राभूषण तथा हाथ की चूड़ियाँ तंग हो गई। जिस प्रकार वर्षा की धारा के पड़ने से कदम्ब पुष्प एक साथ विकसित हो जाते हैं उसी प्रकार उसके शरीर के सभी रोम पुलकित हो गये । वह उन छहों मुनियों को निनिमेष दृष्टि से चिरकाल तक निरखती ही रही। तत्पश्चात उसने छहों मुनियों को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके जहाँ भगवान् अरिष्टनेमि विराजमान हैं, वहाँ आई और पाकर अहत् अरिष्टनेमि को तीन बार दक्षिण तरफ से प्रदक्षिणा करके नमस्कार किया, तदनन्तर उसी धार्मिक श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ हो द्वारिका नगरी की ओर लौट गई। 'चउवन्न महापूरिस चरियं' में इन छहों मुनियों के सम्बन्ध में अन्तगड़ सत्र के उपरिलिखित विवरण से कतिपय अंशों में भिन्न, किन्तु बड़ा ही रोचक वर्णन किया गया है, जो इस प्रकार है : देवकी ने मुनि-युगल से कहा- “महाराज कृष्ण की देवपुरी सी द्वारिका नगरो में क्या श्रमण निर्ग्रन्थों को अटन करते भिक्षा-लाभ नहीं होता, जिससे उन्हीं कुलों में दूसरी तीसरी बार वे प्रवेश करते हैं ?" देवकी की वात सुनकर मुनि समझ गये कि उनसे पूर्व उनके चारों भाइयों के दो संघाड़े भी यहाँ पा चुके हैं। उनमें से एक ने कहा- "देवकी ! ऐसी बात नहीं है कि द्वारिका नगरी के विभिन्न कुलों में घूमकर भी भिक्षा नहीं मिलने से हम तीसरी बार तुम्हारे यहाँ भिक्षा को प्राये हैं। पर सही बात यह है कि हम एक ही माँ के उदर से उत्पन्न हुए छः भाई हैं । शरीर और रूप की समानता से हम सब एक से प्रतीत होते हैं । कंस के द्वारा हम मार दिये जाते किन्तु हरिणगमेषी देव ने भद्दिलपुर की मृतवत्सा सुलसा गाथापत्नी की भक्ति से प्रसन्न हो, हमें जन्म लेते ही सुलसा के प्रीत्यर्थ तत्काल उसके पुत्रों से बदल दिया' । सुलसा ने ही हमें पाल-पोषकर बड़ा किया और हम सब का पाणिग्रहण करवाया। बड़े होकर हमने भगवान नेमिनाथ के मुखारविन्द से अपने कुल-परिवर्तन का १ जन्मजात छः पुत्रों के परिवर्तन की बात देवकी को भगवान् अरिष्टनेमि से ज्ञात हुई, इस प्रकार का अन्तगड़ में उल्लेख है । Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [परि० द्वारा अद्भुत पूरा वृत्तान्त सुना और एक ही जन्म में दो कुलों में उत्पन्न होने की घटना से हम छहों भाइयों को संसार से पूर्ण विरक्ति हो गई । कर्मों का कैसा विचित्र खेल है ? यह संसार प्रसार है और विषयों का अन्तिम परिणाम घोर दुःख हैं-यह सोचकर हम छहों भाइयों ने भगवान् नेमिनाथ के चरणों में दीक्षा ग्रहण करली।" मुनि की बात समाप्त होते ही महारानी देवकी मूछित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ी। दासियों द्वारा शीतलोपचार से थोड़ी देर में देवकी फिर सचेत हुई और उस का मातहृदय सागर की तरह हिलोरें लेने लगा। मुनियों को देखकर उसके स्तनों से दूध की और अाँखों से अश्रुओं की धाराएं एक साथ बहने लगीं। देवकी रोते-रोते अत्यन्त करुण स्वर में कहने लगी- "अहो ! ऐसे पुत्र रत्नों को पाकर भी मैं परम प्रभागिन ही रही जो दुर्दैव ने मुझसे इनको छीन लिया । मेरी पुत्र-प्राप्ति तो बिल्कुल उस अभागे के समान है जो स्वप्न में अमूल्य रत्न प्राप्त कर धन-कुवेर बन जाता है किन्तु जगने पर कंगाल का कंगाल । कितनी दयनीय है मेरी स्थिति कि पहले तो मैं सजल उपजाऊ भूमि के फल-फूलों से लदे सघन सुन्दर तरुवर की तरह खूब फली-फली, किन्तु असमय में ही ऊसर भूमि की लता के समान ये मेरे अनुपम अमृतफल-मेरे पुत्र मुझसे विलग हो दूर गिर पड़े। परम भाग्यवती है वह नारी, जिसने बाललीला के कारण बूलि-धूसरित इन सलोने शिशुओं के मुखकमल को अगणित बार बड़े प्यार से चूमा है।" देवकी के इस अन्तस्तलस्पशी करुण विलाप को सुनकर मुनियों को छोड़ वहाँ उपस्थित अन्य सब लोगों की आंखें अश्रु-प्रवाहित करने लगीं।' ___ बिजली की तरह यह समाचार सारी द्वारिका में फैल गया। नागरिकों के मुख से यह बात सुनकर वे चारों मुनि भी वहाँ लौट आये और छहों मनि देवकी को समझाने लगे-"न कोई किसी की माता है और न कोई किसी का पिता अथवा पुत्र । इस संसार में सब प्राणी अपने-अपने कर्म-बन्धन से बँधे रहट में मत्तिका-पात्र (घटी-घड़ली) की तरह जन्म-मरण के चक्कर में निरन्तर परिभ्रमण करते हुए भटक रहे हैं । प्राणी एक जन्म में किसी का पिता होकर दूसरे जन्म में उसका पुत्र हो जाता है और तदनन्तर फिर किसी जन्म में पिता बन जाता है। इसी तरह एक जन्म की माता दूसरे जन्म में पुत्री, एक जन्म का १ अन्तगड़ सूत्र में देवकी द्वारा पूछे जाने पर यह बात प्ररिहन्त नेमिनाथ ने कही है और वहीं पर देवकी का मुनियों के दर्शन से वात्सल्य उमड़ पड़ा और उसके स्तनों से दूध छूटने लगा एवं हर्षातिरेक से रोम-रोम पुलकित हो गया । Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहस्य का उद्घाटन] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ३६१ स्वामी दूसरे जन्म में दास बन जाता है। एक जन्म की माँ दूसरे जन्म में सिंहनी बनकर अपने पूर्व के प्रिय पुत्र को मार कर उसके मांस से अपनी भूख मिटाने लग जाती है । एक जन्म में एक पिता अपने पुत्र को बड़े दुलार से पाल-पोसकर बड़ा करता है, वही पुत्र भवान्तर में उस पिता का भयंकर शत्र बनकर अपनी तीक्ष्ण तलवार से उसका सिर काट देता है । जिस माँ ने अपनी कुक्षि से जन्म दिये हुए पुत्र को अपने स्तनों का दूध पिलाकर प्यार से पाला, कर्मवश भटकती हुई वही माँ अपने उस पुत्र से अनंग-क्रीड़ा करती हुई अपनी काम-पिपासा शान्त करती है। उसी तरह पिता अपने दुष्कर्मों से अभिभूत अपनी पुत्री से मदन-क्रीड़ा करता हुआ अपनी कामाग्नि को शान्त करता है-ऐसे अनेक उदाहरण उपलब्ध होते हैं। यह है इस संसार की घृणित और विचित्र नट-क्रीड़ा, जिसमें प्राणी अपने ही किये कर्मों के कारण नट की तरह विविध रूप धारण कर भव-भ्रमण करता रहता है और पग-पग पर दारुण दुःखों को भोगता हुअा भी मोह एवं अज्ञानवश लाखों जीवों का घोर संहार करता हुआ मदोन्मत्त स्वेच्छाचारी हाथी की तरह दुःखानुबन्धी विषय-भोगों में निरन्तर प्रवृत्त होता रहता है। निविड़ कर्म-बन्धनों से जकड़े हुए प्राणी को माता-पिता-पुत्र-कलत्र सहज ही प्राप्त हो जाते हैं और वह मकड़ी की तरह अपने ही बनाये हुए भयंकर कुटुम्ब-जाल में फंसकर जीवन भर तड़पता एवं दुःखों से बिलबिलाता रहता है तथा अन्त में मर जाता है।" "इस तरह पुनः पुनः जन्म ग्रहण करता और मरता है । संसार की इस दारुण व भयावह स्थिति को देखकर हम लोगों को विरक्ति हो गई। हमने भगवान् नेमिनाथ के पास संयम ग्रहण कर लिया और संसार के इस दुःखदायक आवागमन के मूल कारण कर्म-बन्धनों को काटने में सतत प्रयत्नशील रहने लगे हैं।" __इस परमाश्चर्योत्पादक वृत्तान्त को सुनकर वसुदेव, बलराम और कृष्ण आदि भी वहाँ श्रा पहुंचे । वसुदेव अपने सात पुत्रों के बीच ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो अपने सात नक्षत्रों के साथ स्वयं चन्द्रमा ही वहां प्रा उपस्थित हो गया हो। सबकी आँखों से आँसूत्रों की मानो गंगा-यमुना पूर्ण प्रवाह से बह रही थी, सबके हृदयों में स्नेह-सागर हिलोरें ले रहा था, सब विस्फारित नेत्रों से टकटकी लगाये साश्चर्य उन छहों मुनियों की ओर देख रहे थे, पर छहों मुनि शान्त रागरहित निर्विकार सहज मुद्रा में खड़े थे। कृष्ण ने भावातिरेक के कारण अवरुद्ध कण्ठ से कहा-"हमारे इस अचिन्त्य, अदभत मिलन से किसको आश्चर्य नहीं होगा? हा दुर्दैव ! कंस के मारे जाने के पश्चात् भी हम उसके द्वारा पैदा किये गये विछोह के दावानल में अब तक जल रहे हैं । कैसी है यह विधि की विडम्बना कि एक ओर मैं त्रिखण्ड १ चउप्पन महापुरिस चरियं, पृ० १९६-१९७ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [अरिष्टनेमि द्वारा अद्भुत की राज्यश्री का उपभोग कर रहा हूँ और दूसरी ओर मेरे सहोदर छ: भाई भिक्षान्न पर जीवन-निर्वाह कर रहे हैं।'' "मेरे प्राणाधिक अग्रजो ! आज हम सबका नया जन्म हसा है । प्रायो! हम सातों सहोदर मिलकर इस अपार वैभव और राज्य-लक्ष्मी का उपभोग करें।" वसुदेव आदि सभी उपस्थित यादवों ने श्रीकृष्ण की बात का बड़े हर्ष के साथ अनुमोदन करते हुए उन मुनियों से राज्य-वैभव का उपभोग करने की प्रार्थना की। मनियों ने कहा-. "व्याध के जाल में एक बार फंसकर उस जाल से निकला हुया हरिण जिस प्रकार फिर कभी जाल के पास नहीं फटकता, उसी तरह विषय-भोगों के दारुण जाल से निकलकर अब हम उसमें नहीं फंसना चाहते । जन्म लेकर, एक बार फिर मिले हुए मर कर बिछुड़ जाते हैं, तत्त्ववेत्ताओं के लिये यही तो वैराग्य का मुख्य कारण होता है, पर हमने तो एक ही जन्म में दो जन्मों का प्रत्यक्ष अनुभव कर लिया है, फिर हमें क्यों नहीं विरक्ति होती ? सब प्रकार के स्नेह-बन्धनों को काटना ही तो साधुनों का चरम लक्ष्य है। फिर हम लोग स्नेहपाश को दुःख:मूल समझते हुए इन काटे हुए स्नेह-बन्धनों को पुनः जोड़ने का विचार ही क्यों करेंगे? हम तो इस स्नेह-बन्धन से मुक्त हो चुके हैं।" "कर्मवश भवार्णव में डूबे हुए प्राणी को पग-पग पर वियोग का दारुण दुःख भोगना पड़ता है। अज्ञानवश मोहजाल में फंसा हुया प्राणी यह नहीं सोचता कि इन्द्रियों के विषय भयंकर काले सर्प की तरह सर्वनाश करने वाले हैं । लक्ष्मी प्रोस-बिन्दु के समान क्षण विध्वंसिनी है, अगाध समुद्र में गिरे हुए रत्न की तरह यह मनुष्य-जन्म पुनः दुर्लभ है । अतः मनुष्य जन्म पाकर सब दुःखों के मूलभूत कर्मबन्ध को काटने का प्रत्येक समझदार व्यक्ति को प्रयत्न करना चाहिये। इस प्रकार अपने माता-पिता आदि को प्रतिबोध देकर वे छहों साधु भगवान् नेमिनाथ की सेवा में लौट गये । शोकसंतप्त देवकी भगवान् के समवसरण में पहुंची और त्रिकालदर्शी प्रभु नेमिनाथ ने कर्मविपाक की दारुणता बताते हुए अपने अमृतमय उपदेश से १ केरिसा वा मइ रिद्धिसमंदये भिक्खा भोइणो तुम्हे ? किंवा ममेइण रज्जेण ? [चउप्पन्न महापुरिस चरियं पृ० १९७] २ चउवन. महापुरिस चरियं । Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहस्य का उद्घाटन] भगवान् श्री अरिष्टनेमि उसकी शोक-ज्वाला को शान्त किया।' अंतगड़ सूत्र से मिलता-जुलता हुअा वर्णन त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र में निम्न प्रकार से उपलब्ध होता है : सर्वज्ञ प्रभु के वचन सुनकर देवकी ने हर्षविभोर हो तत्काल उन छहों मनियों को वन्दन करते हए कहा- "मुझे प्रसन्नता है कि आखिर मुझे अपने पुत्रों को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुअा । यह भी मेरे लिये हर्ष का विषय है कि मेरी कुक्षि से उत्पन्न हुए एक पुत्र ने उत्कृष्ट कोटि का विशाल साम्राज्य प्राप्त किया है और शेष छहों पुत्रों ने मुक्ति का सर्वोत्कृष्ट साम्राज्य प्राप्त कराने वाली मुनिदीक्षा ग्रहण की है । पर मेरा हृदय इस संताप की भीषण ज्वाला से संतप्त हो रहा है कि तुम सातों सुन्दर पुत्रों के शैशवावस्था के लालन-पालन का अति मनोरम प्रानन्द मैंने स्वल्पमात्र भी अनुभव नहीं किया।" देवकी को शान्त करते हुए करुणासागर प्रभु मरिष्टनेमि ने कहा"देवकी! तुम व्यर्थ का शोक छोड़ दो । अपने पूर्व-भव में तुमने अपनी सपत्नी के सात रत्नों को चरा लिया था और उसके द्वारा बार-बार माँगने पर भी उसे नहीं लौटाया । अन्त में उसके बहुत कुछ रोने-धोने पर उसका एक रत्न लौटाया और शेष छः रत्न तुमने अपने पास ही रखे । तुम्हारे उसी पाप का यह फल है कि तुम्हारे छः पुत्र अन्यत्र पाले गये पौर श्रीकृष्ण ही एक तुम्हारे पास हैं। क्षमामूर्ति महामुनि गज सुकुमाल भगवान के समवसरण से लौटकर देवकी अपने प्रासाद में आ गई । पर भगवान् के मुख से छः मुनियों के रहस्य को जान कर उसका अन्तर्मन पुत्र-स्नेह से विकल हो उठा और उसके हृदय में मातृ-स्नेह हिलोरें लेने लगा। वह यह सोच कर चिन्तामग्न हो गई कि ७ पुत्रों की जननी होकर भी मैं कितनी हतभागिनी हं कि एक भी स्तनधय पुत्र को गोद में लेकर स्तनपान नहीं करा पाई, मीठी-मीठी लोरियाँ गाकर अपने एक भी शिशु पर मातृ-स्नेह नहीं उँडेल सकी और एक भी पुत्र की शैशवावस्था की तुतलाती हुई मीठी बोली का पवणों से पान नर प्रानन्दविभोर न हो सकी। इस प्रकार विचार करती हुई वह अथाह शोकसागर में गोते लगाने लगी। उसने चिन्ता ही चिन्ता में खानापीना छोड़ दिया। १ तो तमायण्णिऊरण देवतीए वियलियो सोयप्पसरो ।। [चउवन महापुरिस चरियं, पृ० १९८] २ सपल्या सप्त रत्नानि, त्वमाहार्षीः पुरा भवे । रुदत्याश्चापितं तस्या, रत्नमेकं पुनस्त्वया ॥ [त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व ८, सर्ग १०, श्लोक ११५] Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [क्षमामूर्ति महामुनि माता को उदास देख कर कृष्ण के मन में चिन्ता हुई । उन्होंने माता की मनोव्यथा समझी और उसे आश्वस्त किया । देवकी के मनोरथ की पूर्ति हेतु कृष्ण ने तीन दिन का निराहार तप कर देव का स्मरण किया। एकाग्र मन द्वारा किया गया चिन्तन इन्द्र-महेन्द्र का भी हृदय हर लेता है, फलस्वरूप हरिणगमेषी का प्रासन डोलायमान हुमा । वह प्राया। देव के पूछने पर कृष्ण ने कहा-"मैं अपना लघु भाई चाहता हूं।" देव ने कहा- "देवलोक से निकल कर एक जीव तुम्हारे सहोदर भाई के रूप में उत्पन्न होगा, पर बाल भाव से मुक्त होकर तरुण अवस्था में प्रवेश करते ही वह महन्त अरिष्टनेमि के पदारविन्द की शरण ले मण्डित हो दीक्षित होगा।" __कृष्ण बड़े प्रसन्न हुए, उन्होंने सोचा-"माता की मनोभिलाषा पूर्ण होगी, मेरे लघु भाई होगा।" प्रसन्न मद्रा में कृष्ण ने पाकर देवकी से सारी घटना कह सुनाई। कालान्तर में देवकी ने गर्भधारण किया और सिंह का शुभ-स्वप्न देखकर जागृत हुई । स्वप्नफल को जानकर महाराज वसुदेव और देवकी आदि सव प्रसन्न हुए। समय पर देवकी ने प्रशस्त-लक्षण सम्पन्न पुत्ररत्न को जन्म दिया । गजतालू के समान कोमल होने के कारण बालक का नाम गज सुकुमाल रखा गया। द्वितीया के चन्द्र की तरह क्रमशः सुखपूर्वक बढ़ते हुए गज सुकुमाल तरुण एवं भोग-समर्थ हुए। द्वारिका नगरी में सोमिल नाम का एक ब्राह्मण रहता था, जो वेद-वेदांग 'का पारगामी था। उसकी भार्या सोमश्री से उत्पन्न सोमा नामकी एक कन्या थी। किसी दिन सभी अलंकारों से विभूषित हो सोमा कन्या राजमार्ग के एक पार्श्व में अवस्थित अपने भवन के कीडांगण में स्वर्णकन्दुक से खेल रही थी। .... उस समय अरहा अरिष्टनेमि द्वारिका के सहस्राम्र उद्यान में पधारे हुए थे । अतः कृष्ण वासुदेव गज सुकुमाल के साथ गजारूढ़ हो प्रभु-वन्दन को निकले । मार्ग में उन्होंने उत्कृष्ट रूपलावण्य युक्त सर्वांग सुन्दरी सोमा कन्या को देखा । सोमा के रूप से विस्मित होकर कृष्ण ने राजपुरुषों को मादेश दिया"जाम्रो सोमिल ब्राह्मण से मांग कर इस सोमा कन्या को उसकी अनुमति से अन्त:पुर में पहुंचा दो। यह गज सुकुमाल की भार्या बनाई जायगी।" तदनन्तर श्रीकृष्ण नगरी के मध्य मध्यवर्ती राजमार्ग से सहस्राम उद्यान में पहुंचे और प्रभु को वन्दन कर भगवान् की देशना सुनने लगे। Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गज सुकुमाल] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ३६५ धर्म कथा की समाप्ति पर कृष्ण अपने राज प्रासाद की ओर लौट गये किन्तु गज सुकुमाल शान्त मन से चिन्तन करते रहे । गज सुकुमाल ने खड़े होकर भगवान से कहा-"जगन्नाथ ! मैं आपकी वाणी पर श्रद्धा एवं प्रतीति करता हूँ. मेरी इच्छा है कि माता-पिता से पूछ कर आपके पास श्रमण-धर्म स्वीकार करू।" अहत् अरिष्टनेमि ने कहा-'हे देवानुप्रिय ! जिसमें तुम्हें सुखानुभूति हो, वही करो। प्रमाद न करो।" प्रभु को वन्दन कर गज सुकुमाल द्वारका की ओर प्रस्थित हुए। राजभवन में प्राकर गज सुकुमाल ने माता देवकी के समक्ष प्रवजित होने की अपनी अभिलाषा प्रकट की। देवकी अश्रुतपूर्व अपने लिए इस वज्रकठोर वचन को सुन कर मूच्छित हो गई। ज्ञात होते ही श्रीकृष्ण आये और गज सुकुमाल को दुलार से गोद में लेकर बोले-"तुम मेरे प्राणप्रिय लघु सहोदर हो, मैं अपना सर्वस्व तुम पर न्यौछावर करता हूं। अतः प्रर्हत् अरिष्टनेमि के पास प्रव्रज्या ग्रहण मत करो, मैं द्वारवती नगरी के महाराज पद पर तुम्हें अभिषिक्त करता हूं। गज सुकुमाल ने कहा-"अम्म-तात ! ये मनुष्य के काम-भोग मलवत छोड़ने योग्य हैं। आगे पीछे मनुष्य को इन्हें छोड़ना ही होगा। इसलिए मैं चाहता हूं कि आपकी अनुमति पाकर मैं अरिहन्त अरिष्टनेमि के चरणों में प्रव्रज्या लेकर स्व-पर का कल्याण करू ।" विविध युक्ति-प्रयुक्तियों से समझाने पर भी जब गज सुकुमाल संसार के बन्धन में रहने को तैयार नहीं हुए, तब इच्छा न होते हुए भी माता-पिता और कृष्ण ने कहा-"वत्स! हम चाहते हैं कि अधिक नहीं तो कम से कम एक दिन के लिये ही सही, तू राज्य-लक्ष्मी का उपभोग अवश्य कर।" __ श्री कृष्ण ने गज सुकुमाल का राज्याभिषेक किया, किन्तु गज सुकुमाल अपने निश्चय पर अडिग रहे । बड़े समारोह से गज सुकुमाल का निष्क्रमण हुआ। महंत अरिष्टनेमि के चरणों में दीक्षित होकर गज सुकुमाल भणगार बन गये। दीक्षित होकर उसी दिन दोपहर के समय वे महंत अरिष्टनेमि के पास माये और तीन बार प्रदक्षिणापूर्वक वन्दन कर बोले-"भगवन् ! आपकी मात्रा हो तो में महाकाल श्मशान में एक रात्रि की प्रतिमा ग्रहण कर रहना चाहता भगवान् की अनुमति पाकर गज सुकुमाल ने प्रभु को वन्दन-नमस्कार किया और सहस्रान वन उद्यान से भगवान् के पास से निकलकर महाकाल Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भमामूर्ति महामुनि श्मशान में प्राये, स्थंडिल की प्रतिलेखना की और फिर थोड़ा शरीर को झुका कर दोनों पैर संकुचित कर एक रात्रि की महाप्रतिमा में ध्यानस्थ हो गये। उधर सोमिल ब्राह्मण, जो यज्ञ की समिधा-लकडी आदि के लिए नगर के बाहर गया हुआ था, समिधा, दर्भ, कुश और पत्ते लेकर लौटते समय महाकाल श्मशान के पास से निकला। सन्ध्या के समय वहां गज सुकमाल मुनि को ध्यानस्थ देखते ही पूर्वजन्म के वैर की स्मृति से वह क्रुद्ध हुमा और उत्तेजित हो बोला- "अरे इस गज सुकमाल ने मेरी पुत्री सोमा को बिना दोष के काल-प्राप्त दशा में छोड़कर प्रव्रज्या ग्रहण की है, अतः मुझे गज सुकमाल से बदला लेना चाहिए।" ऐसा सोच कर उसने चहं ओर देखा और गीली मिट्टी लेकर गज सुकमाल मुनि के सिर पर मिट्टी की पाज बांधकर जलती हुई चिता में से केसू के फूल के समान लाल-लाल ज्वाला से जगमगाते अंगारे मस्तक पर रख दिये। पाप मानव को निर्भय नहीं रहने देता । सोमिल भी भयभीत होकर पीछे हटा और छुपता हुआ दबे पाँवों अपने घर चला गया । गज सुकुमाल मुनि के शरीर में उन अंगारों से भयंकर वेदना उत्पन्न हुई जो असह्य थी, पर मुनि ने मन से भी सोमिल ब्राह्मण से द्वेष नहीं किया। शान्त मन से सहन करते रहे। ज्यों-ज्यों श्मशान की सनसनाती वायु से मुनि के मस्तक पर अग्नि की ज्वाला तेज होती गई और सिर की नाड़िये, नसें तड़तड़कर टूटने लगीं, त्यों-त्यों मुनि के मन की निर्मल ज्ञान-धारा तेज होने लगी। शास्त्रीय शब्दज्ञान अति अल्प होने पर भी मुनि का प्रात्मज्ञान और चरित्रबल उच्चतम था । दीक्षा के प्रथम दिन बिना पूर्वाभ्यास के ही भिक्षु प्रतिमा की इस कठोर साधना पर अग्रसर होना ही उनके उन्नत-मनोबल का परिचायक था। शुक्ल-ध्यान के चारित्र के सर्वोच्च शिखर पर चढ़कर उन्होंने वीतराग वाणी को पूर्णरूप से हृदयंगम कर लिया। वे तन्मय हो गये, स्व-पर के भेद को समझ लेने से उनका अन्तर्मन गूंज रहा था-"शरीर के जलने पर मेरा कुछ भी नहीं जल रहा है, क्योंकि मैं अजर, अमर, अविनाशी हूं। मुझे न अग्नि जला सकती, न शस्त्र काट सकते और न भौतिक सुख-दुःखों के ये झोंके ही हिला सकते हैं। मैं सदा अच्छेद्य, अभेद्य और अदाह्य हं। यह सोमिल जो अपना पुराना ऋण ले रहा है, वह मेरा कुछ नहीं बिगाड़ता, वह तो उल्टे मेरे ऋणमुक्त होने में सहायता कर रहा है । अतः ऋण चुकाने में दुःख, चिन्ता, क्षोभ और पानाकानी का कारण ही क्या है ?" कितना साहसपूर्ण विचार था ! गज सुकुमाल चाहते तो सिर को थोड़ासा झुकाकर उस पर रखे भंगारों को एक हल्के झटके से ही नीचे गिरा सकते थे Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ गज सुकुमाल] भगवान् श्री अरिष्टनेमि पर वे महामुनि प्रहत् अरिष्टनेमि के उपदेश से जड़-चेतन के पृषकत्व को समझकर सच्चे स्थितप्रज्ञ एवं अन्तर्द्रष्टा राजर्षि बन चुके थे। नमी राजर्षि ने मिथिला को जलते देखकर कहा था "मिहिलाए डज्झमाणीए न मे डन्झइ किंचणं" परन्तु गज सुकुमाल ने तो अपने शरीर के उत्तमांग को जलते हुए देखकर भी निर्वात प्रदेश-स्थित दीपशिखा की तरह अचल-प्रकम्प ध्यान से अडोल रहकर बिना बोले ही यह बता दिया "डझमाणे सरीरम्मि, न मे डज्झइ किंचरणं" घन्य है उस वीर साधक के अदम्य धैर्य और निश्चल मनोवृत्ति को ! राग-ष रहित होकर उसने उत्कृष्ट प्रध्यवसायों की प्रबल भाग में समस्त कर्मसमूह को अन्तमुहर्त में ही भस्मावशेष कर केवलज्ञान और केवलदर्शन के साथ शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, निरंजन, निरंकार, सच्चिदानन्द शिवस्वरूप की अवाप्ति एवं मुक्ति की प्राप्ति करली। कोटि-कोटि जन्मों की तपस्यामों से भी दुष्प्राप्य मोक्ष को उन्होंने एक दिन से भी कम की सच्ची साधना से प्राप्त कर यह सिद्ध कर दिया कि मानव की भावपूर्ण उत्कट साधना और लगन के सामने सिद्धि कोई दूर एवं दुष्प्राप्य नहीं है। गज सुकुमाल के लिए कृष्ण की जिज्ञासा दूसरे दिन प्रातःकाल कृष्ण महाराज गज पर मारूढ़ हो भगवान् नेमिनाथ को वन्दन करने निकले । वन्दन के पश्चात् जब उन्होंने गज सुकुमाल मुनि को नहीं देखा तो पूछा-"भगवन् ! मेरा छोटा भाई गज सुकुमाल मुनि कहां है ?" भगवान् ने कहा-"कृष्ण ! मुनि गज सुकुमाल ने अपना कार्य सिद्ध कर लिया है।" कृष्ण बोले-“भगवन्, यह कैसे ?" इस पर परिहंत अरिष्टनेमि ने सारी घटना कह सुनाई। कृष्ण ने रोष में प्राकर कहा-"प्रभो ! वह कौन है, जिसने गज सुकुमाल को अकाल में ही गीवन-रहित कर दिया ?" भगवान् ने कृष्ण को उपशान्त करते हुए कहा-"कृष्ण! तुम रोष मत करो, उस पुरुष ने गज सुकुमाल को सिद्धि प्राप्त करने में सहायता प्रदान की है। द्वारवती से प्राते समय जैसे तुमने ईट उठा कर वृद्ध ब्राह्मण की सहायता. Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास (नेमिनाथ के मुनिसंघ में की वैसे ही उस पुरुष ने गज सुकुमाल के लाखों भवो के कर्मों को क्षय करने में सहायता प्रदान की है।" । जब श्रीकृष्ण ने उस पुरुष के सम्बन्ध में जानने का विशेष आग्रह किया तब श्री नेमिनाथ ने कहा-"द्वारिका लौटते समय जो तुम्हें अपने सम्मुख देख कर भूमि पर गिर पड़े, वहीं गज सुकुमाल का प्राणहारी है।" कृष्ण त्वरा में भगवान् को वन्दन कर द्वारिका की ओर चल पड़े। जब सोमिल को यह मालम हा कि कृष्ण भगवान नेमिनाथ के दर्शन एवं वन्दन के लिए गये हैं, तो वह मारे भय के थर-थर काँपने लगा। उसने सोचा- "सर्वज्ञ भगवान नेमिनाथ से कृष्ण को मेरे अपराध के सम्बन्ध में पता चल जायेगा और कृष्ण अपने प्राणप्रिय छोटे भाई की हत्या के अपराध में मुझे दारुण प्राणदण्ड देंगे।" यह सोच कर सोमिल अपने प्राण बचाने के लिए अपने घर से भाग निकला । संयोगवश वह उसी मार्ग से आ निकला, जिस मार्ग से श्रीकृष्ण लौट रहे थे । गजारूढ़ श्रीकृष्ण को अपने सम्मुख देखते ही सोमिल पातंकित हो भूमि पर गिर पड़ा और मारे भय के वह तत्काल वहीं पर मर गया। अरिहंत अरिष्टनेमि ने गज सुकुमाल जैसे राजकुमार को क्षमावीर बनाकर उनका उद्धार किया। गज सुकुमाल की संयमसाधना से यादव-कुल में व्यापक प्रभाव फैल गया और उसके फलस्वरूप अनेक कर्मवीर राजकुमारों ने धर्मवीर बनकर यात्म-साधना के मार्ग में प्रादर्श प्रस्तुत किया। नेमिनाथ के मुनिसंघ में सर्वोत्कृष्ट मुनि भगवान नेमिनाथ के साधु-संघ में यों तो सभी साधु घोर तपस्वी और दकर करणी करने वाले थे, तथापि उन सब मुनियों में ढंढरण मुनि का स्थान म्वयं भगवान् नेमिनाथ द्वारा सर्वोत्कृष्ट माना गया है । वासूदेव श्री कृष्ण की 'ढंढरणा' रानी के आत्मज 'ढंढरण कमार' भगवान नेमिनाथ का धर्मोपदेश सुन कर विरक्त हो गये। उन्होंने पूर्ण यौवन में अपनी अनेक सद्यःपरिणीता सुन्दर पत्नियों और ऐश्वर्य का परित्याग कर भगवान् नेमिनाथ के पास मुनि-दीक्षा ग्रहण की। इनकी दीक्षा के समय श्री कृष्ण ने वड़ा ही भव्य निष्क्रमणोत्सव किया । मनि ढंढण दीक्षित होकर सदा प्रभ नेमिनाथ की सेवा में रहे। सहज Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वोत्कृष्ट मुनि] भगवान् श्री अरिष्टनेमि '३६६ विनीत और मद स्वभाव के कारण वे थोड़े ही दिनों में सबके प्रिय और सम्मानपात्र बन गये । कठिन संयम और तप की साधना करते हुए उन्होंने शास्त्रों का भी अध्ययन किया। कुछ काल व्यतीत होने पर ढंढण मुनि के पूर्व-संचित अन्तराय-कर्म का उदय हुअा। उस समय वे कहीं भी भिक्षा के लिए जाते तो उन्हें किसी प्रकार की भिक्षा नहीं मिलती। उनका अन्तराय-कर्म इतनी उग्रता के साथ उदित हा कि उनके साथ भिक्षार्थ जाने वाले साधूत्रों को भी कहीं से भिक्षा प्राप्त नहीं होती और ढंढण मुनि एवं उनके साथ गये हुए साधुओं को खाली हाथ लौटना पड़ता । यह क्रम कई दिन तक चलता रहा । एक दिन साधुषों ने भगवान् नेमिनाथ को वन्दन करने के पश्चात् पूछा"भगवन् ! यह ढंढण ऋषि माप जैसे त्रिलोकीनाथ के शिष्य हैं, महाप्रतापी अर्द्धचक्री कृष्ण के पुत्र हैं पर इन्हें इस नगर के बड़े-बडे श्रेष्ठियों, धर्मनिष्ठ श्रावकों एवं परम उदार गृहस्थों के यहां से किंचित् मात्र भी भिक्षा प्राप्त नहीं होती । इसका क्या कारण है ?" __मुनियों के प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रभु नेमिनाथ ने कहा-"ढंढरण अपने पूर्व भव में मगध प्रान्त के 'धान्यपुर' ग्राम में 'पारासर' नाम का ब्राह्मण था। वहां राजा की ओर से वह कृषि का प्रायुक्त नियुक्त किया गया। स्वभावतः कठोर होने से वह ग्रामीणों के द्वारा राज्य की भूमि में खेती करवाता और उनको भोजन के समय भोजन ग्रा जाने पर भी खाने की छुट्टी न देकर काम में लगाये रखता । भूखे, प्यासे और थके हुए बैलों एवं हालियों से पृथक-२ एक. एक हलाई (हल द्वारा भूमि को चीरने को रेखा) निकलवाता । अपने उस दष्कृत के फलस्वरूप इसने घोर अन्तराय-कर्म का बन्ध किया। वही पारासर मर कर अनेक भवों में भ्रमण करता हुमा ढंढरण के रूप में जन्मा है । पूर्वकृत अन्तराय-कर्म के उदय से ही इसको सम्पन्न कुलों में चाहने पर भी भिक्षा नहीं मिलती।" भगवान् के मुखारविन्द से यह सब सुनकर ढंढरण मुनि को अपने पूर्वकृत दुष्कृत के लिए बड़ा पश्चात्ताप हुमा । उसने प्रभु को नमस्कार कर यह अभिग्रह किया, "मैं अपने दुष्कर्म को स्वयं भोग कर काटूगा मौर कभी दूसरे के द्वारा प्राप्त हुमा भोजन ग्रहण नहीं करूंगा।" अन्तराय के कारण ढंढण को कहीं से भिक्षा मिलती नहीं और दूसरों द्वारा लाया गया माहार उन्हें अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार लेना था नहीं, इसके परिणामस्वरूप ढंढरण मुनि को कई दिनों की निरन्तर निराहार तपस्या हो गई। फिर भी वे समभाव से तप और संयम की साधना प्रविचल भाव से करते रहे। एक दिन श्रीकृष्ण ने समवसरण में ही पूछा-"भगवन् ! प्रापके इन सभी महान् मुनियों में कठोर साधना करने वाले कौनसे मुनि हैं ?" Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ने० के मुनि में सर्वो० मुनि भगवान ने फरमाया-"हरे! सभी मनि कठोर साधना करने वाले हैं पर इन सबमें ढंढरण दुष्कर करणी करने वाला है। उसने काफी लम्बा काल अलाभपरिषह को समभाव से सहते हुए अनशन-पूर्वक बिताया है । उसके मन में किंचिन्मात्र भो ग्लानि नहीं. अतः यह सर्वोत्कृष्ट तपस्वी मनि है।" कृष्ण यह सुन कर बड़े प्रसन्न हए और देशना के पश्चात भगवान नेमिनाथ को वन्दन कर मन ही मन ढंढरण मुनि की प्रशंसा करते हुए अपने राजप्रासाद की ओर लौटे । उन्होंने द्वारिका में प्रवेश करते ही ढंढण मुनि को गोचरी जाते हुए देखा । कृष्ण तत्काल हाथी से उतर पड़े और बड़ी भक्ति से उन्होंने ढंढरण ऋषि को नमस्कार किया। एक श्रेष्ठी अपने द्वार पर खड़ा-खड़ा यह सब देख रहा था। उसने सोचा कि धन्य है यह मुनि जिनको कृष्ण ने हाथी से उतर कर श्रद्धावनत हो बड़ी भक्ति के साथ वन्दन किया है । संयोग से ढंढरण भी भिक्षाटन करते हुए उस श्रेष्ठी के मकान में भिक्षार्थ चले गये । सेठ ने बड़े आदर के साथ ढंढरण मुनि के पात्र में लड्डू बहराये । ढंढरण मुनि भिक्षा लेकर प्रभु की सेवा में पहुँचे और वन्दन कर उन्होंने प्रभु से पूछा--"प्रभो! क्या मेरा अन्तराय कर्म क्षीण हो गया है, जिससे कि मुझे प्राज भिक्षा मिली है ?" प्रभु ने फरमाया-"ढंढरण मुने! तुम्हारा अन्तराय कर्म अभी क्षीण नहीं हुआ है । हरि के प्रभाव से यह भिक्षा तुम्हें मिली है । हरि ने तुम्हें प्रणाम किया इससे प्रभावित हो श्रेष्ठी ने तुम्हें यह भिक्षा दी है।" चिरकाल से उपोषित ढंढरण ने अपने मन में भिक्षा के प्रति राग का लेश भी पैदा नहीं होने दिया । “यह भिक्षा अपनी लब्धि नहीं अपितु पर-प्राप्ति है, अतः मुझे इसे एकान्त निर्जीव भूमि में परिष्ठापित कर देना चाहिये" यह सोचकर ढंढण ऋषि स्थंडिल भूमि में उस भिक्षा को परठने चल पड़े । उन्होंने एकान्त में पहुँच कर भूमि को रजोहरण से परिमार्जित किया और वहाँ भिक्षान्न परठने लगे। उस समय उनके अन्तस्तल में शुभ भावों का उद्रेक हुआ । वे स्थिर मन से सोचने लगे -- "प्रोह ! उपाजित कर्मों को क्षय करना कितना दुस्साध्य है। प्राणो मोह में फँसकर दुष्कृत करते समय यह नहीं सोचता कि इन दुप्कृतों का परिणाम मुझे एक न एक दिन भोगना ही पड़ेगा।" । इस प्रकार विचार करते २ उनका चिन्तन शुभ-ध्यान की उच्चकोटि पर पहुँच गया । शुक्ल-ध्यान की इस प्रक्रिया में उनके चारों घातिक-कर्म नष्ट हो गये और उन्हें केवलज्ञान, केवलदर्शन की प्राप्ति हो गई। तत्क्षण गगनमण्डल देव दुन्दुभियों की ध्वनि से गूंज उठा । Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० अरि० के समय का महान् आश्चर्य ] भगवान् श्री श्ररिष्टनेमि समस्त लोकालोक को हस्तामलक के समान देखने वाले मुनि ढंढर स्पंडल भूमि से प्रभु की सेवा में लौटे और भगवान् नेमिनाथ को वन्दन कर वे प्रभु की केवली -परिषद में बैठ गये । ४०१ ढंढण मुनि ने केवल अन्तराय ही नहीं, चारों घाती कर्मों का क्षयकर केवलज्ञान प्राप्त किया और फिर सकल कर्म क्षय कर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गये । भगवान् श्ररिष्टनेमि के समय का महान् श्राश्चर्य श्री कृष्ण का यादवों की ही तरह पाण्डवों के प्रति भी पूर्ण वात्सल्य था । वे सबके सुख-दुःख में सहायक होकर सब की प्रतिपालना करते । श्री कृष्ण की छत्रछाया में पाण्डव इन्द्रप्रस्थ में बड़े आनन्द से राज्यश्री का उपभोग कर रहे थे । एक समय नेमिनारद इन्द्रप्रस्थ नगर में प्राये और महारानी द्रौपदी के भव्य प्रासाद में जा पहुँचे । पाण्डवों ने नारद का सत्कार किया, पर द्रौपदी ने नारद को अविरति समझ कर विशेष प्रदर-सत्कार नहीं दिया । नारद क्रुद्ध हो मन ही मन द्रौपदी का कुछ अनिष्ट करने की सोचते हुए वहाँ से चले गये । वे यह भली प्रकार जानते थे कि पाण्डवों पर श्रीकृष्ण की असीम कृपा के कारण भरतखण्ड में कृष्ण के भय से कोई द्रौपदी की ओर आँख उठाकर भी नहीं देख सकता, अत: द्रौपदी के लिये अनिष्टप्रद कुछ प्रपञ्च खड़ा करने की उधेड़-बुन में वे धातकी खण्ड द्वीप के भरतक्षेत्र की प्रमरकंका नगरी में स्त्रीलम्पट पद्मनाभ राजा के राज- प्रासाद में पहुँचे । राजा पद्म ने राजसिंहासन से उठकर नारद का बड़ा सत्कार किया और उन्हें अपने अन्तःपुर में ले गया। उसने वहाँ अपनी सात सौ ( ७०० ) परम सुन्दरी रानियों की ओर इंगित करते हुए नारद से गर्व सहित पूछा - " महर्षे ! आपने विभिन्न द्वीप - द्वीपान्तरों के राज- प्रासादों और बड़े-बड़े अवनिपतियों के अन्तःपुरों को देखा है, पर क्या कहीं इस प्रकार की चारुहासिनी, सर्वांगसुन्दरी स्त्रियों में रत्नतुल्य रमणियाँ देखी हैं ?" अपने अभीप्सित कार्य के सम्पादन का उचित अवसर समझ कर नारद बोले ' - " राजन् ! तुम कूपमण्डूक की तरह बात कर रहे हो । जम्बूद्वीपस्थ भरतखण्ड के हस्तिनापुराधिप पाण्डवों की महारानी द्रौपदी के सामने तुम्हारी ये सब रानियाँ दासियाँ सी लगती हैं ।" यह कहकर नारद वहाँ से चल दिये । द्रौपदी को प्राप्त करने हेतु पद्मनाभ ने तपस्यापूर्वक अपने मित्र देव की आराधना की और देव के प्रकट होने पर उससे द्रौपदी को लाने की १ ज्ञाता धर्म कथा, १।१६ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् अरिष्टनेमि के प्रार्थना की । देव ने पद्मनाभ से कहा-"द्रौपदी पतिव्रता है । वह पांडवों के अतिरिक्त किसी भी पुरुष को नहीं चाहती। फिर भी तुम्हारी प्रीति हेतु मैं उसे ले पाता है।" यह कहकर देव हस्तिनापुर पहुंचा और अवस्वापिनी विद्या से द्रौपदी को प्रगाढ़ निद्राधीन कर पानाम के पास ले पाया। निद्रा खुलते ही सारी स्थिति देख कर द्रौपदी बड़ी चिन्तित हुई। उसे चिन्तित देख पद्मनाभ ने कहा-"सुन्दरी ! किसी प्रकार की चिन्ता मत करो। मैं धातकीखण्ड द्वीप की अमरकंका नगरी का नरेश्वर पमनाभ हूँ। तुम्हें अपनी पट्टमहिषी बनाने हेतु मैंने तुम्हें यहाँ मंगवाया है।" द्रौपदी ने क्षणभर में ही अपनी जटिल स्थिति को समझ लिया और बड़ा दूरदर्शितापूर्ण उत्तर दिया-"राजन् ! भरतखण्ड में कृष्ण वासुदेव मेरे रक्षक हैं, वे यदि छः मास के भीतर मेरी खोज करते हुए यहाँ नहीं पायेंगे तो मैं तुम्हारे निर्देशानुसार विचार करूंगी।" ___ यहाँ किसी दूसरे द्वीप के किसी आदमी का पहुंचना अशक्य है, यह समझ कर कुटिल पद्मनाभ ने द्रौपदी की बात मान ली और द्रौपदी को कन्याओं के अन्तःपुर में रख दिया । वहाँ द्रौपदी प्रायंबिल तप करते हुए रहने लगी। प्रातःकाल होते ही पाण्डवों ने द्रौपदी को न पाकर उसे ढूढ़ने के सब प्रयास किये, पर द्रौपदी का कहीं पता न चला । लाचार हो उन्होंने कुन्ती के माध्यम से श्रीकृष्ण को निवेदन किया। __ कृष्ण भी यह सुन कर क्षणभर विचार में पड़ गये । उसी समय नारद स्वयं द्वारा उत्पन्न किये गये अनर्थ का कौतुक देखने वहाँ आ पहुँचे । कृष्ण द्वारा द्रौपदी का पता पूछने पर नारद ने कहा कि उन्होंने धातकीखण्ड द्वीप की अमरकंका नगरी के राजा पद्मनाभ के रनिवास में द्रौपदी जैसा रूप देखा है। नारद की बात सुन कर कृष्ण ने पाण्डवों एवं सेना के साथ मागध तीर्थ की ओर प्रयाण किया और वहाँ अष्टम तप से लवण समुद्र के अधिष्ठाता सुस्थित देव का चिंतन किया । सुस्थित यह कहते हुए उपस्थित हुअा-“कहिये ! मैं आपकी क्या सेवा करू ?" कृष्ण ने कहा-"पद्मनाभ ने सती द्रौपदी का हरण कर लिया है, इसलिए ऐसा उपाय करो जिससे वह लाई जा सके।" १ ज्ञाता धर्म कथा, १११६ २ वही। Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय का महान् पाश्चर्य] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ४०३ सुस्थित देव ने कहा--"पद्मनाभ के एक मित्र देव ने द्रौपदी का हरण कर उसे सौंपा है, उसी प्रकार मैं द्रौपदी को वहाँ से आपके पास ले पाऊँ अथवा आप आज्ञा दें तो पद्मनाभ को सदलबल समुद्र में डुबो दूं और द्रौपदी आपको सौंप दूं।" श्री कृष्ण ने कहा-"इतना कष्ट करने की आवश्यकता नहीं । हमारे छहों के रथ लवण सागर को निर्बाध गति से पार कर सकें, ऐसा प्रबन्ध कर दो। हम खुद ही जाकर द्रौपदी को लायें, यह हमारे लिए शोभनीय कार्य होगा।" सुस्थित देव ने श्रीकृष्ण के इच्छानुसार प्रबन्ध कर दिया और छहों रथ स्थल की तरह विस्तीर्ण लवणोदधि को पार कर अमरकंका पहुँच गये। कृष्ण ने अपने सारथि दारुक को पद्मनाभ के पास भेज कर द्रौपदी को लौटाने को कहलवाया' पर पद्मनाभ यह सोचकर कि ये छह आदमी मेरी अपार सेना के सामने क्या कर पायेंगे, युद्ध के लिए सन्नद्ध हो पा डटा। पाण्डवों के इच्छानुसार कृष्ण ने पहले पाण्डवों को पद्मनाभ से युद्ध करने की अनुमति दी, पर वे पद्मनाभ के अपार सैन्यबल से पराजित हो कृष्ण के पास लौट आये। तदनन्तर श्री कृष्ण ने पांचजन्य शंख का महाभयंकर घोष किया और साङ्ग-धनुष की टंकार लगाई तो पद्मनाभ की दो तिहाई सेना नष्टप्राय हो तितर-बितर हो गई और भय से थर-थर काँपताहमा पद्मनाभ एक तिहाई अपनी बची-खुची भयत्रस्त सेना के साथ अपने नगर की ओर भाग खड़ा हुआ। __ पद्मनाभ ने नगर के अन्दर पहुँच कर अपने नगरद्वार के लोह-कपाट बन्द कर दिये और रनिवास में जा छूपा। इधर श्री कृष्ण ने नृसिंह रूप धारण कर एक हत्यल (हस्ततल) के प्रहार से ही नगर के लोह-कपाटों को चूर्ण कर दिया और वे सिंह-गर्जना करते हुए पद्मनाभ के राज-प्रासाद की ओर बढ़ चले । उनकी सिंह-गर्जना से सारी अमरकंका हिल उठी और शत्रुओं के दिल दहल गये । साक्षात् महाकाल के समान अपनी ओर झपटते श्री कृष्ण को देख कर पद्मनाभ द्रौपदी के चरणों में जा गिरा और प्राण भिक्षा माँगते हुए गिड़गिड़ा कर कहने लगा-"देवि ! क्षमा करो, मैं तुम्हारी शरण में हैं, इस कराल कालोपम केशव से मेरी रक्षा करो।" १ ज्ञाता धर्म कमा १११६ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ भगवान् परिष्टनेमि के द्रोपदी ने कहा - "यदि प्रारणों की कुशल चाहते हो तो स्त्री के कपड़े पहन कर मेरे पीछे-पीछे चले श्राश्रो ।” Yor भयकंपित पद्मनाभ ने तत्काल अबला नारी का वेष बनाया और द्रौपदी को आगे कर उसके पीछे-पीछे जा उसने श्री कृष्ण के चररणों में नमस्कार किया । शरणागतवत्सल कृष्ण ने भी उसे अभयदान दिया श्रौर द्रौपदी को पाण्डवों के पास ले प्राये ।" तदनन्तर द्रौपदी सहित वे सब छह रथों पर भारूढ़ हो, जिस पथ से प्राये थे उसी पथ से लौट पड़े । उस समय धातकीखण्ड की चम्पानगरी के पूर्णभद्र उद्यान में वहाँ के तीर्थंकर मुनिसुव्रत के समवसरण में बैठे हुए घातकीखण्ड के वासुदेव कपिल ने कृष्ण द्वारा किये गये शंखनाद को सुन कर जिनेन्द्र प्रभु से प्रश्न किया- "प्रभो ! मेरे शंखनाद के समान यह किसका शंखनाद कर्णगोचर हो रहा है ?" द्रौपदी - हरण का सारा वृत्तान्त सुनाते हुए सर्वज्ञ प्रभु मुनिसुव्रत ने कहा"कपिल ! जम्बूद्वीपस्थ भरतक्षेत्र के त्रिखण्डाधिपति वासुदेव कृष्ण द्वारा किया हुआ यह शंख - निनाद है ।" कपिल ने कहा - "भगवन् ! मुझे उस प्रतिथि का स्वागत करना चाहिए ।" भगवान् मुनिसुव्रत ने कहा - " कपिल जिस तरह दो तीर्थंकर श्रौर दो चक्रवर्ती एक जगह नहीं मिल पाते, उसी प्रकार दो वासुदेव भी नहीं मिल सकते । हाँ तुम कृष्ण की श्वेत-पीत ध्वजा के अग्रभाग को देख सकोगे ।"२ भगवान् से यह सुन कर कपिल वासुदेव श्रीकृष्ण वासुदेव से मिलने की इच्छा लिये कृष्ण के रथ के पहियों का अनुसरण करता हुआ त्वरित गति से १ साप्यूचे मां पुरस्कृत्य, स्त्रीवेशं विरचय्य च । प्रयाहि शरणं कृष्णं, तथा जीवसि नान्यथा ।। ६१ ।। इत्युक्तः स तथा चक्रे, नमश्चक्रे च शाङ्गिणम् । शरण्यो वासुदेवोऽपि मा भैषीरित्युवाच तम् ॥ ६२ ॥ [ त्रिषष्टि शलाका पु० चरित्र, पर्व ८ सर्ग १० ] २ तए ग मुरिण सुब्बए रहा कविलं वासुदेवं एवं वयासी, गो खलु देवाणुप्पिया एवं भूयं वा ३ जणं अरिहंता वा श्ररहंतं पासंति, चक्कवटी वा चक्कवट पासति..... .....वासुदेवा वा वासुदेवं पासन्ति । तह वि य गं तुमं कण्हस्स वासुदेवस्स लवरणसमुद्द मज्मरणं बीईवयमारणस्स सेया पीयाइं धयग्गाई पासिहिसि । [ ज्ञाता धर्म कथा, सूत्र १, अध्याय १६ ] Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय का महान भारत] भगवान् श्री परिष्टनेमि समुद्रतट की भोर बढ़ा और उसने समुद्र में जाते हुए कृष्ण के रथ की श्वेत और पीत वर्ण की ध्वजाओं के अग्रभाग देखे । उसने अपने शंख में इस प्राशय की ध्वनि को पूरित कर शंखनाद किया-"यह मैं कपिल वासुदेव मापसे मिलने की उत्कंठा लिये आया हूँ। कृपा कर लौटिये।" श्रीकृष्ण ने भी शंख-निनाद से ही उत्तर दिया-"हम बहुत दूर निकल माये हैं। प्रब प्राप पाने को कुछ न कहिये।" शंख-ध्वनि से कृष्ण का उत्तर पा कपिल अमरकंका नगरी पहुँचा । उसने पप्रनाभ की भर्त्सना कर उसे निर्वासित कर दिया एवं उसके पुत्र को अमरकंका के राजसिंहासन पर आसीन किया। इधर लवण समद्र पार कर कृष्ण ने पाण्डवों से कहा-"मैं सुस्थित देव को धन्यवाद देकर पाता हूँ, तब तक माप लोग गंगा के उस पार पहुँच जाइये।" पाण्डवों ने नाव में बैठ कर गंगा के प्रबल प्रवाह को पार किया और परस्पर यह कहते हुए कि प्राज श्रीकृष्ण के बल को देखेंगे कि वे गंगा. के इस प्रतितीव्र प्रवाह को कैसे पार करते हैं, नाव को वहीं रख लिया। सुस्थित देव से विदा हो कृष्ण गंगा तट पर पाये और वहाँ नाव न देख कर एक हाथ से घोड़ों सहित रथ को पकड़े दूसरे हाथ से जल में तैरते हुए गंगा को पार करने लगे। पर गंगा के प्रवाह के बीचोंबीच पहुंचते २ वे थक गये और सोचने लगे कि बिना नाव के पाण्डवों ने गंगा नदी पार कर ली, वे बड़े सशक्त हैं। कृष्ण के मन में यह विचार उत्पन्न होते ही गंगा के प्रवाह की गति धीमी पड़ गई और उन्होंने सहज ही गंगा को पार कर लिया। गंगा के तट पर पहुंचते ही कृष्ण ने पाण्डवों से प्रश्न किया-"आप लोगों ने गंगा को कैसे पार कर लिया ?" पाण्डवों ने उत्तर दिया-"नाव से।" कृष्ण ने पूछा--"फिर. आप लोगों ने मेरे लिए नाव क्यों नहीं भेजी ?" १ कपिलो विष्णुरेषोऽहमुत्कस्त्वां द्रष्टुमागतः । तद्वलस्वेत्यक्षराव्यं, शंखं दध्मौ स शाङ्गभृत् ॥७२।। प्रागमाम वयं दूरं त्वया वाच्यं न किंचन । इति व्यक्ताक्षरध्वानं, शंख कृष्णोऽप्यपूरयत् ।।७३।। [त्रिषष्टि शलाका पु. चरित्र, पर्व ८, सर्ग १०] २ द्रक्ष्यामोऽद्य बलं विष्णोनीरत्रव विधार्यताम् । [त्रिषष्टि शलाका पु० च०, पर्व ८, सर्ग १०, श्लो. ७८] Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भ० परि० का महान् पाश्चर्य पाण्डवों ने हँसते हुए कहा--."आपके बल की परीक्षा करने के लिए।" कृष्ण उस उत्तर से अतिक्रुद्ध हो बोले-'मेरे बल की परीक्षा क्या अभी भी अवशिष्ट रह गई थी ? अथाह-अपार लवण समद्र को पार करने और अमरकंका की विजय प्राप्त करने के पश्चात भी आप लोगों को मेरा बल ज्ञात नहीं हुआ ?" यह कहते हए कृष्ण ने लौह-दण्ड से पाण्डवों के रथों को चकनाचूर कर डाला और उन्हें अपने राज्य से बाहर चले जाने का आदेश दिया। तदनन्तर श्रीकृष्ण अपनी सेना के साथ द्वारिका की ओर चल पडे और पाँचों पाण्डव द्रौपदी सहित हस्तिनापुर प्राये । उन्होंने माता कुन्ती से सारा वृत्तान्त कह सुनाया। सारा वृत्तान्त सुन कर कुन्ती द्वारिका पहुंची और श्रीकृष्ण से कहने लगी-"कृष्ण ! तुम्हारे द्वारा निर्वासित मेरे पुत्र कहाँ रहेंगे ? क्योंकि इस भरताद्ध में तो तिल रखने जितनी भूमि भी ऐसी नहीं है, जो तुम्हारी न हो।" कृष्ण ने कहा-"दक्षिण सागर के तट के पास पाण्डु-मथुरा' नामक नया नगर बसा कर आपके पुत्र वहाँ रहें । कुन्ती के लौटने पर पाण्डवों ने दक्षिण समुद्र के तट के पास पाण्डु-मथुरा बसाई और वहाँ रहने लगे।' उधर श्रीकृष्ण ने हस्तिनापुर के राजसिंहासन पर अपनी बहिन सुभद्रा के पौत्र एवं अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को अभिषिक्त किया। १ (क) तं गच्छंतु णं पंच पंडवा दाहिणिल्लवेयालि तत्थ पंडु महुरं निवेसंतु............... [जाता धर्म कथा, ११६] (ख) कृष्णोऽप्यूचे दक्षिणाब्धे रोषस्यभिनवां पुरीम् । निवेश्य पाण्डुमथुरा, वसन्तु तव सूनवः ॥११॥ [त्रिषष्टि स. पू. परित्र, प ८, सर्ग १०] २ ..... "पंडु महुरं नगरं निवेसंति । [भाता. ११६] ३ कृष्णोऽपि हस्तिनापुरेऽभिविषेत्र परीक्षितम् ।.......... [त्रिषष्टि श. पु. प., पर्व ८, सर्ग १०, श्लो. ९३] Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हारिका का भविष] भगवान् श्री परिष्टनेमि जिस स्थान पर कृष्ण ने क्रुद्ध हो पाण्डवों के रथों को तोड़ा था, वहां कालान्तर में 'रथमर्दन' नामक नगर बसाया गया।' द्वारिका का भविष्य भगवान् अरिष्टनेमि भारतवर्ष के अनेक प्रान्तों में अपने प्रमोष अमृतमय उपदेशों से भव्य प्राणियों का उद्धार करते हुए द्वारिका पधारे । भगवान् के पधारने का समाचार सुन कर कृष्ण-बलराम अपने समस्त राज परिवार के साथ समवसरण में गये और भगवान को वन्दन कर यथास्थान बैठ गये। द्वारिका और उसके आसपास की बस्तियों का जनसमूह भी समवसरण में उमड़ पड़ा। देशना के पश्चात कृष्ण ने सविधिवन्दन कर प्रांजलिपूर्वक भगवान् से पूछा--"भगवन् ! सुरपुर के समान इस द्वारिका का इस विशाल मौर. समृद्ध यदुवंश का तथा मेरा अन्त कालवश स्वतः ही होगा अथवा किसी निमित्त से, किसी दूसरे व्यक्ति के हाथ से होगा।" भगवान् ने कृष्ण के प्रश्न का उत्तर देते हुए फरमाया-"कृष्ण ! धोर तपस्वी पराशर के पुत्र ब्रह्मचारी परिव्राजक पायन को शाम्ब प्रादि यादव. कुमार सुरापान से मदोन्मत्त हो निर्दयतापूर्वक मारेंगे । इससे क्रुद्ध हो द्वैपायन यादवों के साथ ही साथ द्वारिका को जलाने का निदान कर देव होगा और वह यादवों सहित द्वारिका नगरी को जला कर राख कर डालेगा। तुम्हारा प्राणान्त तुम्हारे बड़े भाई जराकुमार के बाण से कौशाम्बी वन में होगा।" - - - त्रिकालदर्शी सर्वश प्रभु के उत्तर को सुनकर सभी श्रोता स्तब्ध रह गये । सबकी घृणादृष्टि जराकुमार पर पड़ी । जराकुमार प्रात्मग्लानि से बड़ा खिन्न हुप्रा । उसने तत्काल उठ कर प्रभु को प्रणाम किया और अपने आपको इस घोर कलंकपूर्ण पातक से बचाने के लिए केवल धनुष-बाण ले द्वारिका से प्रस्थान कर वनवासी बन गया। १ ..........."लोहदण्ड परामुसह पंचण्हं पंडवाणं रहे सूचूरेइ, निविसए प्राणवेइ..."तत्य रणं रहमद्दणे नामं कोडे निविट्ठे । [माता धर्म कथा. सु. १, प्र. १६] २ पवन महापुरिस परिय में बलदेव द्वारा प्रश्न किये जाने का उल्लेख है। यथा-"मवाब सरेण य पुब्धिय बलदेवेणं जहाभगवं केचिराउकालामो इमीए परीए प्रवसाणं पवि. •स्साह ? मोपा समासामो बासुदेवस्स य?" [चउवन महापुरिस परियं, पृ. १९८] ३ त्रिषष्टि जलाका पुरुष चरित्र, पर्व ८, सर्ग ११, श्लो. ३ से ६ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ द्वारिका के रक्षार्थ लोगों के मुख से प्रभु प्ररिष्टनेमि द्वारा कही गई बात सुन कर द्वैपायन परिव्राजक भी द्वारिका एवं द्वारिकावासियों के रक्षार्थ नगर से दूर वन में रहने लगा । ४०६ बलराम के सारथि व भाई सिद्धार्थ ने भावी द्वारिकादाह की बात सुन कर संसार से विरक्त हो प्रभु के पास दीक्षा ग्रहण की। बलराम ने भी उसे यह कहते हुए दीक्षा ग्रहण करने की अनुमति दी कि देव होने पर वह समय पर प्रतिबोध देने अवश्य श्रावे । मुनि-धर्म स्वीकार कर सिद्धार्थ ने छः मास की घोर तपस्या की और आयु पूर्ण कर देव हो गया । द्वारिका के रक्षार्थ मद्य-निषेध श्री कृष्ण ने भी द्वारिका, यादवों एवं प्रजाजनों के रक्षार्थ द्वारिका में कड़ी मद्य-निषेधाज्ञा घोषित करवाई कि जो भी कोई सुरापान करेगा उसे कड़े से कड़ा दण्ड दिया जायगा । " न रहेगा बाँस, न बजेगी बांसुरी" इस कहावत को चरितार्थ करते हुए कृष्ण ने सुरा को सब अनर्थों का मूल समझ कर द्वारिका के समस्त मद्यपात्रों को द्वारिका से कुछ दूर कदम्ब वन में पर्वत की कादम्बरी गुफा के शिलाखण्डों पर फिंकवा दिया । प्रत्येक नागरिक के मन में द्वारिका के प्रति प्रगाढ़ प्रेम था, अतः उसे विनाश से बचाने के लिए समस्त प्रजाजन द्वारिका से सुरा का नाम तक मिटा देने का दृढ़ संकल्प लिए प्रगणित मद्यपात्रों को ले जाकर कादम्बरी गुफा की चट्टानों पर पटकने में जुट गये । श्रीकृष्ण ने प्रमुख नागरिकों को और विशेषतः समस्त क्षत्रिय कुमारों को इस निषेधाज्ञा का पूर्णरूप से पालन करने के लिए सावधान किया कि वे जीवन भर कभी मद्यपान न करें, क्योंकि मद्य बुद्धि को विलुप्त करने वाला धौर सब अर्थो का मूल है । इस प्रज्ञा के साथ ही साथ श्रीकृष्ण ने यह भी घोषणा करवा दी कि अलकासी इस सुन्दर द्वारिकापुरी का सुरा, अग्नि एवं द्वंपायन के निमित्त विनाश हो उससे पूर्व जो भी भगवान् नेमिनाथ के चरणों में दीक्षित होना चाहें, उन्हें वे सब प्रकार से हार्दिक सहयोग देने के लिए सहर्ष तत्पर हैं । 1 श्रीकृष्ण की इस उदार घोषणा से उत्साहित हो अनेक राजानों, रानियों राजकुमारों एवं नागरिकों ने संसार को निस्सार और दुःख का चाकर समझकर भगवान् अरिष्टनेमि के पास मुनि-धर्म स्वीकार किया । कुछ ही समय पश्चात् शाम्बकुमार का एक सेवक किसी कार्यवश ' कादम्बरी गुफा की ओर जा पहुँचा । वैशाख की कड़ी धूप के कारण प्यास Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मद्य-निषेध] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ४०६ लगने पर इधर-उधर पानी की तलाश करता हुआ वह एक शिलाकुण्ड के पास गया और अपनी प्यास बझाने हेतु उसमें से पानी पीने लगा। प्रथम चल्ल के प्रास्वादन से ही उसे पता चल गया कि कुण्ड में पानी नहीं अपितु परम स्वादिष्ट मदिरा है। द्वारिकावासियों ने जो सुरापात्र वहां शिलाओं पर पटके थे वह सुरा बह कर उस शिलाकुण्ड में एकत्रित हो गई थी। सुगन्धित विविध पुष्पों के कण्ड में भरकर गिरने से वह मदिरा बड़ी ही सुगन्धित और सुस्वादु हो गई थी। शाम्ब के सेवक ने जी भर वह स्वादु सुरा पी और अपने पास की केतली भी उससे भर ली। द्वारिका लौटकर उस सेवक ने मदिरा की केतली शाम्ब को भेंट की। शाम्ब सायंकाल में उस सुस्वादु सुरा का रसास्वादन कर उस सुरा की सराहना करते हुए बार-बार अपने सेवक से पूछने लगे कि इतनी स्वादिष्ट सूरा वह कहां से लाया है ? सेवक से सुराकुण्ड का पता पाकर शाम्ब दूसरे दिन कई युवा यदु-कमारों के साथ कादम्बरी गुफा के पास उस कुण्ड पर गया। उन यादव-कमारों ने उस कादम्बरी मदिरा को बड़े ही चाव के साथ खूब छक कर पिया और नशे में झूमने लगे। अचानक उनकी दृष्टि उस पर्वत पर ध्यानस्थ द्वैपायन ऋषि पर पड़ी। नशे में चर शाम्ब उसे देखते ही उस पर यह कहते हुए टूट पड़ा-"यह स्वान हमारी प्यारी द्वारिका और प्राणप्रिय यादव कुल का नाश करेगा । अरे ! इसे इसी समय मार दिया जाय, फिर यह मरा हुआ किसे मारेगा?'' बस, फिर क्या था, वे सभी मदान्ध यादव-कुमार द्वैपायन पर लातों, घसों और पत्थरों की वर्षा करने लगे और उसे अधमरा कर भूमि पर पटक द्वारिका में प्रा अपने-अपने घरों में जा घुसे । श्रीकृष्ण को अपने गुप्तचरों से इस घटना का पता चला तो वे यदुकमारों के इस कर कृत्य पर बड़े क्रुद्ध हुए। बलराम को साथ ले कृष्ण तत्काल द्वैपायन के पास पहुंचे और कुमारों की दुष्टता के लिए क्षमा माँगते हए बारबार उसे शान्त करने का पूर्ण रूप से प्रयास करने लगे। द्वैपायन का क्रोध किसी तरह शान्त नहीं हुआ। उसने कहा- "कमार जिस समय मुझे निर्दयतापूर्वक मार रहे थे, उस समय मैं निदान कर चुका है कि १ शाम्बो बभाषे स्वानित्थमयं मे नगरि कुलम् । हन्ता तदन्यतामेष, हनिष्यति हतः कथम् ॥२८॥ [त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व ८, सर्ग १] Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० जैन धर्म का मौलिक इतिहास कृष्ण की चिन्ता और तुम दोनों भाइयों को छोड़ कर सब यादवों और नागरिकों को द्वारिका के साथ ही जलाकर खाक कर दूंगा। तुम दोनों के सिवा द्वारिका का कोई कुत्ता तक भी नहीं बच पायेगा।"१ श्रीकृष्ण द्वारा रक्षा के उपाय हताश हो बलराम और कृष्ण द्वारिका लौट आये और द्वैपायन द्वारा द्वारिकावासियों सहित द्वारिकादाह का निदान करने की बात द्वारिका के घर-घर में फैल गई। श्रीकृष्ण ने दूसरे दिन द्वारिका में घोषणा करवा दी.--"अाज से सब द्वारिकावासी अपना अधिकाधिक समय व्रत, उपवास, स्वाध्याय, ध्यान आदि धार्मिक कृत्यों को करते हुए बितायें । श्रीकृष्ण के निर्देशानुसार सब द्वारिकावासी धार्मिक कार्यों में जुट गये । उन्हीं दिनों भगवान् अरिष्टनेमि रैवतक पर्वत पर पधारे । श्रीकृष्ण और बलराम के पीछे-पीछे द्वारिका के प्रमुख नागरिक भगवान् के अमृतमय उपदेश को सनने के लिए रैवतक पर्वत की ओर उमड़ पड़े। मोहान्धकार को मिटाने वाले भगवान् के प्रवचनों को सुनकर शाम्ब, प्रद्युम्न, सारण, उन्मक निसढ़ आदि अनेक यादव-कुमारों और रुक्मिणी जाम्बवती आदि अनेक स्त्रीरत्नों ने विरक्त हो प्रभु के चरणों में श्रमण-दीक्षा स्वीकार की। श्रीकृष्ण द्वारा किये गये एक प्रश्न के उत्तर में भगवान् अरिष्टनेमि ने फरमाया-"प्राज से बारहवें वर्ष में कैपायन द्वारिका को भस्मसात् कर देगा।" श्रीकृष्ण को चिन्ता और प्रभु द्वारा प्राश्वासन भगवान अरिष्टनेमि के मखारविन्द से अपने प्रश्न का उत्तर सनते ही श्रीकष्ण की आँखों के सामने द्वारिकादाह का भावी वीभत्स-दारुण-दुखान्त दृश्य साकार हो मँडराने लगा। वे सोचने लगे- "धनपति कुबेर की देखरेख में विश्वकर्मा द्वारा स्वर्ण-रजत एवं मरिण-माणिक्य, हीरों, पन्नों आदि अमूल्य रत्नों से निर्मित इस धरा का साकार स्वर्ग-सा यह नगर आज से बारहवें वर्ष में सुरों और सुररमरिगयों से स्पर्धा करने वाले समस्त नागरिकों सहित जलाकर भस्मसात् कर दिया जायगा।" १ तो दीवायरणेण भणियं-कण्ह ! मया पहम्ममाणेण पइण्णा पडिवण्णा जहा-तुमे मोत्त रण परं दुवे वि ण अण्णस्स सुरगय मेतम्स वि जन्तुगो मोक्खो,........... [चउवन महापुरिस चरियं, पृष्ठ १६६] Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु द्वारा प्राश्वासन ] भगवान् श्री अरिष्टनेमि उनकी अन्तर्व्यथा प्रसह्य हो उठी, उनके हृदयपटल पर संसार की नश्वरता का, जीवन, राज्यलक्ष्मी एवं ऐश्वर्य की क्षणभंगुरता का अमिट चित्र अंकित हो गया। वे सोचने लगे-- "धन्य हैं महाराज समुद्रविजय, धन्य हैं जालि मालि, प्रद्युम्न, शाम्ब, रुक्मिणी, जाम्बवती आदि, जिन्होंने भोगों एवं भवनादि की भंगुरता के तथ्य को समझ कर त्याग मार्ग अपना लिया । उन्हें अब द्वारिकादाह का ज्वाला - प्रलय नहीं देखना पड़ेगा । प्रोफ् ! मैं अभी तक त्रिखण्ड के विशाल साम्राज्य और ऐश्वर्य में मूच्छित हूँ ।" अन्तर्यामी भगवान् श्ररिष्टनेमि से श्रीकृष्ण की अन्तर्वेदना छुपी न रही । उन्होंने कहा - "त्रिखण्डाधिप वासुदेव ! निदान की लोहार्गला के कारण त्रिकाल में भी यह संभव नहीं कि कोई भी वासुदेव प्रव्रज्या ग्रहण करे । निदान. का यही अटल नियम है, अतः तुम प्रव्रज्या ग्रहण न कर सकने की व्यर्थ चिन्ता न करो । प्रागामी उत्सर्पिणीकाल में इसी भरत क्षेत्र में तुम भी मेरी तरह बारहवें तीर्थंकर बनोगे' मोर बलराम भी तुम्हारे उस तीर्थकाल में सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होंगे ।" ४११ भगवान् के इन परम प्राह्लादकारी वचनों को सुन कर श्रीकृष्ण मानन्द विभोर हो पुलकित हो उठे । बड़ी ही श्रद्धा से उन्होंने प्रभु को वन्दन किया और द्वारिका लौट आये । उन्होंने पुन: द्वारिका में घोषरणा करवाई - " द्वारिका का दाह अवश्यंभावी है, अतः जो भी व्यक्ति प्रभु चरणों में प्रव्रजित हो मुनि-धर्म स्वीकार करना चाहता है, वह अपने प्राश्रितों के निर्वाह, सेवा-शुश्रूषा प्रादि की सब प्रकार की चिन्ताओं का परित्याग कर बड़ी खुशी के साथ प्रव्रज्या ग्रहणं कर सकता है। मुनि-धर्म स्वीकार करने की इच्छा रखने वालों को मेरी ओर से पूर्णरूपेण अनुमति है । उनके प्राश्रितों के भरण-पोषण आदि का सारा भार मैं अपने कंधों पर लेता हूं।" उन्होंने द्वारिकावासियों को निरन्तर धर्म की भाराधना करते रहने की सलाह दी । श्रीकृष्ण की इस घोषणा से पद्मावती श्रादि अनेक राज्य परिवार की महिलाओं, कई राजकुमारों और अन्य अनेकों स्त्री-पुरुषों ने प्रबुद्ध एवं विरक्त हो २ (क) एएसिणं चब्बीसाए तित्थकराणं पुब्वभविया चउव्वीस नामघेज्जा भविस्संति तं हा सेरिगए सुपास" [ समवायांग सूत्र, सूत्र २१४ ] (ख) च्युत्वा भाब्यत्र भरते गंगाद्वार पुरेशितुः । जितशत्रोः सुतोऽहंस्त्वं द्वादशो नामतोऽममः । ! [ त्रिषष्टि श. पु. चरित्र, पर्व ८ सर्ग ११, श्लो. ५२] (ग) अरहा मरिट्ठणेमी कण्हं वासुदेवं एवं बयासी मा गं तुमं देवारणुप्पिया श्रोह्य-जाव "तुमं" वारसमे श्रममे नाम रहा भविस्ससि झियाहि" [ अंतगड दशा | ******** Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [पायन द्वारा प्रभु चरणों में दीक्षा ग्रहण की। श्रीकृष्ण ने शासन और धर्म की प्रत्युत्कृष्ट भावना से सेवा की और इस तरह उन्होंने तीर्थंकर गोत्र का उपार्जन किया । इस प्रकार अनेक भव्य प्राणियों को मुक्तिपथ का पथिक बना प्रभु अरिष्टनेमि वहां से अन्य स्थान के लिए विहार कर गये। उधर द्वैपायन निदानपूर्वक आयुष्य पूर्ण कर अग्निकुमार देव हमा और अपने वैर का स्मरण कर वह क्रुद्ध हो द्वारिका को भस्मसात् कर डालने की इच्छा से द्वारिका पहुँचा । पर उस समय सारी द्वारिका तपोभूमि बनी हुई थी। समस्त द्वारिकावासी प्रात्म-चिन्तन, धर्माराधन और प्रसिद्ध प्रायम्बिल (प्राचाम्ल) तप की साधना में निरत थे, अनेक नागरिक चतुर्थ भक्त, षष्टम भक्त और अष्टम भक्त किये हुए थे, अतः धर्म के प्रभाव से अभिभूत हो वह द्वारिकावासियों का कुछ भी अनिष्ट नहीं कर सका और हताश हो लौट गया। द्वारिका को जलाने के लिए वह सदा छिद्रान्वेषण और उपयुक्त अवसर की टोह में रहने लगा। द्वैपायन द्वारा द्वारिकादाह इस प्रकार द्वैपायन निरन्तर ग्यारह वर्ष तक द्वारिका को दग्ध करने का अवसर देखता रहा, पर द्वारिकावासियों की निरन्तर धर्माराधना के कारण ऐसा अवसर नहीं मिला। ___ इधर द्वारिकावासियों के मन में यह धारणा बलवती होती गई कि उनके निरन्तर धर्माराधन और कठोर तपस्या के प्रभाव से उन्होंने द्वैपायन के प्रभाव को नष्ट कर उसे जीत लिया है, अतः अब काय-क्लेश की प्रावश्यकता नहीं है। इस विचार के आते ही कुछ लोग स्वेच्छापूर्वक सुरा, मांसादिक का सेवन करने लगे। "गतानगतिको लोकः" इस उक्ति के अनसार अंनेक द्वारिकावासी धर्माराधन एवं तप-साधना के पथ का परित्याग कर अनर्थकर-पथ में प्रवृत्त होने लगे। द्वंपायन के जीव अग्निकुमार ने तत्काल यह रन्ध्र देख द्वारिका पर प्रलय ढाना प्रारम्भ कर दिया। अग्नि की भीषण वर्षा से द्वारिका में सर्वत्र प्रचण्ड ज्वालाएँ भभक उठीं । अशनिपात एवं उल्कापात से धरती धूजने लगी । द्वारिका के प्राकार, द्वार और भव्य-भवन भूलुण्ठित होने लगे। कृष्ण और बलराम के चक्र व हल आदि सभी रत्न विनष्ट हो गये । समस्त द्वारिका देखते ही देखते ज्वाला का सागर बन गई। रमणियों, किशोरों, बच्चों और वृद्धों के करुणक्रन्दन से प्राकाश फटने लगा। बड़े अनुराग और प्रेम से पोषित किये गये Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारिकादाह ] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ४१३ सुगौर, सुन्दर और पुष्ट अगणित मानव शरीर कपूर की पुतलियों की तरह जलने लगे । भागने का प्रयास करने पर भी कोई द्वारिकावासी भाग नहीं सका । अग्निकुमार द्वारा जो जहाँ था, वहीं स्तंभित कर दिया गया । 1 श्रीकृष्ण और बलराम ने वसुदेव, देवकी और रोहिरणी को एक रथ में बिठाकर रथ चलाना चाहा, पर हजार प्रयत्न करने पर भी घोड़ों ने एक डग तक आगे नहीं बढ़ाया । हताश हो कृष्ण और बलदेव ने रथ को स्वयं खींचना प्रारम्भ किया, पर एक विशाल द्वार से कृष्ण और बलराम के निकलते ही वह द्वार भयंकर शब्द करता हुआ रथ पर गिर पड़ा । द्वैपायन देव ने कहा - " कृष्ण-बलराम ! मैंने पहले ही कह दिया था कि आप दोनों भाइयों को छोड़कर और कोई बचा नहीं रह सकेगा ।" वसुदेव, देवकी और रोहिणी ने कहा - "पुत्रो ! हमें बचाने का तुम पूरा प्रयास कर चुके हो, कर्मगति बलीयसी है, हम अब प्रभु शरण लेते हैं । तुम दोनों भाई कुशलपूर्वक जाओ ।" कृष्ण और बलराम बड़ी देर तक वहां खड़े रहे । सब प्रोर से स्त्रियों की चीत्कारें, बच्चों एवं वृद्धों के करुण क्रन्दन और जलते हुए नागरिकों की पुकारें उनके कानों के द्वार से हृदय में गूंज रही थी - " कृष्ण ! हमारी रक्षा करो, हलधर ! हमें बचाओ ।" पर दोनों भाई हाथ मलते ही खड़े रह गये, कुछ भी न कर सके । संभवतः इन नरशार्दूलों ने अपने जीवन में पहली ही बार विवशता का यह दुःखद अनुभव किया था । सारी द्वारिका जल गई और भू-स्वर्ग द्वारिका के स्थान पर धधकती आग का दरिया हिलोरें ले रहा था । अन्ततोगत्वा असह्य अन्तर्व्यथा से संतप्त हो कृष्ण और बलदेव वहाँ से चल दिये । शोकातुर कृष्ण ने बलराम से पूछा - "भैया ! अब हमें किस ओर जाना है ? प्रायः सभी नृपवर्ग अपने मन में हमारे प्रति शत्रुतापूर्ण भावना रखते हैं ।" बलराम ने कहा- दक्षिण दिशा में पाण्डव-मथुरा की ओर । श्रीकृष्ण ने कहा - "बलदाउ भैया ! मैंने पाण्डवों को निर्वासित कर उनका अपकार किया है ।" बलराम बोले—“उन पर तुम्हारे उपकार असीम हैं ? इसके अतिरिक्त पाण्डव बड़े सज्जन और हमारे सम्बन्धी हैं । इस विपन्नावस्था में हमें वे बड़े Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास स्नेह, सौहार्द और सम्मान के साथ रखेंगे ।' कृष्ण ने भी "अच्छा" कहते हुए अपने बड़े भाई के प्रस्ताव से सहमति प्रकट की और दोनों भाइयों ने दक्षिणापथ की ओर प्रयाण किया । [ बलदेव की विरक्ति और शत्रु राजाओं से संघर्षों और मार्ग की अनेक कठिनाइयों का दृढ़तापूर्वक सामना करते हुए कई दिनों बाद दोनों भाई अत्यन्त दुर्गम कौशाम्बी वन में जा पहुँचे । वहां पिपासाकुल हो कृष्ण ने अपने ज्येष्ठ भाई बलदेव से कहा - "आर्य! मैं प्यास से इतना व्याकुल हूँ कि इस समय एक डग भी आगे बढ़ना मेरे लिए असंभव है । कहीं से ठंडा जल लाकर पिलानो तो अच्छा है ।" बलदेव तत्क्षरण कृष्ण को एक वृक्ष की छाया में बैठाकर पानी लाने के लिए चल पड़े । बलदेव की विरक्ति और कठोर संयम - साधना पिपासाकुल कृष्ण पीताम्बर प्रोढ़े बांये घुटने पर दाहिना पैर रखे छाया में लेटे हुए थे । उसी समय शिकार की टोह में जराकुमार उधर से निकला और पीताम्बर प्रोढ़े लेटे हुए कृष्ण पर हरिण के भ्रम में बारण चला दिया ।" बारण कृष्ण के दाहिने पादतल में लगा । कृष्ण ने ललकारते हुए कहा - "सोते हुए मुझ पर इस तरह तीर का प्रहार करने वाला कौन है ? मेरे सामने आये ।" कृष्ण के कण्ठ-स्वर को पहचान कर जराकुमार तत्क्षण कृष्ण के पास आया और उसने रोते हुए कहा--- " मैं तुम्हारा हतभाग्य बड़ा भाई जराकुमार हूं। तुम्हारे प्राणों की रक्षा हेतु बनवासी होकर भी दुर्देव से मैं तुम्हारे प्राणों का ग्राहक बन गया ।" कृष्ण ने संक्षेप में द्वारिकादाह, यादव -कुल- विनाश आदि का वृत्तान्त सुनाते हुए जराकुमार को अपनी कौस्तुभमरिण दी और कहा - " हमारे यादवकुल में केवल तुम्हीं बचे हो, अतः पाण्डवों को यह मरिण दिखाकर तुम उनके पास ही रहना । शोक त्याग कर शीघ्र ही यहाँ से चले जाओ, बलराम आने ही वाले हैं। उन्होंने यदि तुम्हें देख लिया तो तत्क्षण मार डालेंगे ।" १ श्रीमद्भागवत में जरा नामक व्याध द्वारा श्रीकृष्ण के पादतल में बारण का प्रहार करने का उल्लेख है : मुसलावशेषायः खण्ड कृतेषुलु ब्धको जरा । मृगास्याकारं तच्चरणं, विव्याध मृगशंकया ||३३|| [ श्रीमद्भागवत, स्कंध ११, प्र० ३० ] Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कठोर संयम-साधना भगवान् श्री अरिष्टनेमि ४१५ कृष्ण के समझाने पर जराकुमार ने पाण्डव-मथुरा की ओर प्रस्थान कर दिया । प्यास के साथ बाण की तीव्र वेदना से व्यथित श्रीकृष्ण बलदेव के आने से पूर्व ही एक हजार वर्ष की आयु पूर्ण कर जीवनलीला समाप्त कर गये। . थोड़ी ही देर में शीतल जल लेकर ज्योंही बलदेव पहुंचे और दूर से ही कृष्ण को लेटे देखा तो उन्हें निद्राधीन समझ कर उनके जगने की प्रतीक्षा करते रहे। बड़ी इन्तजार के बाद भी जब कृष्ण को जगते नहीं देखा तो बलदेव ने पास आकर कृष्ण को सम्बोधित करते हुए कहा-"भाई ! जगो बहुत देर हो गई।" पर कृष्ण की ओर से कोई उत्तर न पा उन्होंने पीताम्बर हटाया। कृष्ण के पादतल में घाव देखते ही वे क्रुद्ध सिंह की तरह दहाड़ने लगे-"अरे कौन है वह दुष्ट, जिसने सोते हुए मेरे प्राणप्रिय भाई पर प्रहार किया है ? वह नराधम मेरे सम्मुख आये, मैं अभी उसे यमधाम पहुँचाये देता हूँ।" बलदेव बडी देर तक जंगल में इधर-उधर घातक को खोजने लगे। पर कृष्ण पर प्रहार करने वाले का कहीं पता न चलने पर वे पुनः कृष्ण के पास लौटे और शोकाकुल हो करुण विलाप करते हुए बार-बार कृष्ण को जगाने लगे और भीषण. वन की काली अन्धेरी रात में कृष्ण के पास बैठे-बैठे करुण विलाप करते रहे। अन्त में सूर्योदय होने पर बलराम ने कृष्ण को सम्बोधित करते हुए कहा-"भाई ! उठो, महापुरुष होकर भी आज तुम साधारण पुरुष की तरह इतने अधिक कैसे सोये हो? उठो, सूर्योदय हो गया, प्रब यहाँ सोने से क्या होगा? चलो मागे चलें।" ___ यह कह कर बलराम ने अपने भाई के प्रति प्रबल अनुराग और मोह के कारण निर्जीव कृष्ण के तन को भी सजीव समझकर अपने कन्धे पर उठाया और ऊबड़-खाबड़ दुर्गम भूमि पर यत्र-तत्र स्खलित होते हुए भी आगे की ओर चल पड़े। इस तरह वे बिना विश्राम किये कृष्ण के पार्थिव शरीर को कन्धे पर उठाये, करुण-क्रन्दन करते हुए बीहड़ वनों में निरन्तर इधर-उधर घूमते रहे । बलराम को इस स्थिति में देखकर उनके सारथि सिद्धार्थ का जीव जो भगवान् नेमिनाथ के चरणों में दीक्षित हो संयमसाधना कर आयु पूर्ण होने पर देव हो गया था, बड़ा चिन्तित हुमा । उसने सोचा-"महो! कर्म की परिणति कैसी दुनिवार है। त्रिखण्डाधिपति कृष्ण और बलराम की यह अवस्था ? मेरा कर्तव्य है कि में बलदेव को जाकर समझाऊँ।" Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास (बलदेव की विरक्ति मौर इस प्रकार सोचकर देव ने विभिन्न प्रकार के दृष्टान्तों से बलराम को समझाने का प्रयत्न किया। उसने बढ़ई का वेष बना कर, जिस पथ पर बलदेव जा रहे थे, उसी पथ में मागे बढ़ विकट पर्वतीय ऊंचे मार्ग को पार कर समतल भूमि में चकनाचूर हुए रथ को ठीक करने का उपक्रम प्रारम्भ किया। जब बलदेव उसके पास पहुंचे तो उन्होंने बढ़ई से कहा-"क्यों व्यर्थ प्रयास कर रहे हो ? दुलंध्य पर्वतीय विकट मार्ग को पार करके जो रथ समतल भूमि में टूट गया, वह अब भला क्या काम देगा?" बढ़ई बने देव ने अवसर देख तत्काल उत्तर दिया-"महाराज ! जो कष्ण तीम सौ साठ (३६०) भीषण युद्धों में नहीं मरे और अन्त में बिना किसी युद्ध के ही मारे गये, वे जीवित हो जायेंगे तो मेरा यह विकट दुलंध्य गिरि-पथों को पार कर समतल भूमि में टूटा हुमा रथ क्यों नहीं ठीक होगा ?" "कौन कहता है कि मेरा प्राणप्रिय भाई कष्ण मर गया है? यह तो प्रगाढ़ निद्रा में सोया हुआ है। तुम महामूढ़ हो।" बलदेव गरजकर बोले और पथ पर मागे की ओर बढ़ गये। देव उसी पथ पर आगे पहुंच गया और माली का रूप बनाकर मार्ग में ही निर्जल भूमि की एक शिला पर कमल उगाने का उपक्रम करने लगा। __वहाँ पहुँचने पर बलदेव ने उसे देख कर कहा-"क्या पागल हो गये हो जो निर्जल स्थल में और वह भी पाषारण-शिला पर कमल लगा रहे हो। भला शिला पर भी कभी कमल उगा है ?" माली बने देव ने कहा-"महाराज! मृत कृष्ण जीवित हो जायेंगे तो यह कमल भी इस शिला पर खिल जायगा।" बलदेव क्रोधपूर्वक अपना उपर्युक्त उत्तर दोहराते हुए आगे बढ़ गये । देव ने भी अपना प्रयास नहीं छोड़ा और वह राह पर आगे पहुँच कर जले हुए वृक्ष के अवशेष ठूठ को पानी से सींचने लगा। बलदेव ने जब उस जले हए सखे ठंठ को पानी से सींचते हए देखा तो कहने लगे-"अरे तुम विक्षिप्त तो नहीं हो गये हो, यह जला हुमा ठूठ भी कहीं जल सींचने से हरा हो सकता है ?" उस छद्म-वेषधारी देव ने कहा-"महाराज ! जब मरे हुए कृष्ण जीवित हो सकते हैं तो यह जला हुआ वक्ष क्यों नहीं हरा होगा ?" Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१७ कठोर संयम-साधना] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ४१७ बलराम भृकुटि-विभंग से उसे देखते हुए आगे बढ़ गये । देव भी आगे पहुँच गया और एक मत बैल के मुह के पास घास और पानी रख कर उसे खिलाने-पिलाने की चेष्टा करने लगा। जब बलदेव उस स्थान पर पहँचे तो यह सब देख कर बोले-"भले मनुष्य ! तुम में कुछ बुद्धि भी है या नहीं ? मरा जानवर भी कहीं खाता पीता है ?" किसान बने हुए उस देव ने कहा--"पृथ्वीनाथ ! मत कृष्ण भोजन पानी ग्रहण करेंगे तो यह बैल भी अवश्य घास चरेगा और पानी पीयेगा।" इस पर बलराम कुछ नहीं बोले और मार्ग पर आगे बढ़ गए। इस प्रकार उस देव ने विविध उपायों से बलदेव को समझाने का प्रयास किया, तब अन्त में बलदेव के मन में यह विचार आया-"क्या सचमुच कंसकेशिनिषदन केशव अब नहीं रहे ? क्या जरासन्ध जैसे प्रबल पराक्रमी शत्रु का प्राणहरण करने वाले मेरे भैया कृष्ण परलोकगमन कर चुके हैं, जिस कारण कि ये सब लोग एक ही प्रकार की बात कह रहे हैं ?" । उसी समय उपयक्त अवसर समझ कर देव अपने वास्तविक स्वरूप में बलदेव के समक्ष प्रकट हुआ और कहने लगा-"बलदेव ! मैं वही आपका सारथि सिद्धार्थ हूं। भगवान की कृपा से संयम-साधना कर मैं देव बना हूं। आपने मुझे मेरी दीक्षा के समय कहा था कि सिद्धार्थ ! यदि देव बन जानो तो मुझे प्रतिबोध देने हेतु अवश्य पाना । आपके उस वचन को याद करके आया हूं । महाराज ! यह ध्र व सत्य और संसार का अपरिवर्तनीय अटल नियम है कि जो जन्म ग्रहण करता है, वह एक न एक दिन अवश्य मरता है । सच बात यह है कि श्रीकृष्ण अब नहीं रहे। आप जैसे महान् और समर्थ सत्पुरुष भी इस अपरिहार्य मृत्यु से विचलित हो मोह और शोक के शिकार हो जायेंगे तो साधारण व्यक्तियों को क्या स्थिति होगी? स्मरण है आपको, प्रभ नेमिनाथ ने द्वारिकादाह के लिये पहले ही फरमा दिया था। वह भीषण लोमहर्षक काण्ड श्रीकृष्ण और आपके देखते-देखते हो गया।" "जो बीत चका, उसका शोक व्यर्थ है। अब आप अरणगार-धर्म को ग्रहण कर आत्मोद्धार कीजिए, जिससे फिर कभी प्रिय-वियोग का दारुण दुःख सहना ही नहीं पड़े। सिद्धार्थ की बातों से बलदेव का व्यामोह दूर हुआ। उन्होंने ससम्मान श्रीकृष्ण के पार्थिव शरीर का अन्त्येष्टि संस्कार किया। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [बलदेव की विरक्ति और उसी समय भगवान अरिष्टनेमि ने बलराम की दीक्षा ग्रहण करने की अन्तर्भावना जान कर अपने एक जंघाचारण मुनि को बलराम के पास भेजा । बलराम ने प्राकाश-मार्ग से पाये हए मुनि को प्रणाम किया और तत्काल उनके पास दीक्षा ग्रहण कर श्रमण धर्म स्वीकार किया और कठोर तपस्या की ज्वाला में अपने कर्मसमूह को इंधन की तरह जलाने लगे। कालान्तर में उन हलायध मुनि ने परम संवेग और वैराग्य भाव से षष्ठम अष्टम, मासक्षमणादि तप करते हए गरु-आज्ञा से एकल विहार स्वीकार किया। वे ग्राम नगरादि में विचरण करते हुए जिस स्थान पर सूर्य अस्त हो जाता वहीं रात भर के लिए निवास कर लेते । किसी समय मासोपवास की तपस्या के पारण हेतु बलराम मुनि ने एक नगर में भिक्षार्थ प्रवेश किया । उनका तप से शुष्क शरीर भी अप्रतिहत सौन्दर्ययुक्त था। धूलि-धूसरित होने पर भी उनका तन बड़ा मनोहर, कान्तिपूर्ण और लुचितकेश-सिर भी बड़ा मनोहर प्रतीत हो रहा था । बलराम के अदभत रूप-सौन्दर्य से प्राकृष्ट नगर का सुन्दरी-मण्डल भिक्षार्थ जाते हुए महषि बलदेव को देख कुलमर्यादा को भूल कर उनके प्रति हाव-भाव बताने लगा । कप-तट पर एक पुर-सुन्दरी ने तो मुनि की ओर एकटक देखते हुए कुए से जल निकालने के लिए कलश के बदले अपने शिशु के गले में ही रज्जु डाल दी। वह अपने शिशु को कुएं में डाल ही रही थी कि पास ही खड़ी एक अन्य स्त्री ने उसे-"अरे क्या अनर्थ कर रही है" यह कहकर सावधान किया । ___ लोक-मुख से यह बात सुनकर महामुनि बलराम ने सोचा-"अहो कैसो मोह की छलना है, जिसके वशीभूत हो हमारे जैसे मुण्डित सिर वालों के पीछे भी ये ललनाएँ ऐसा कार्य करती हैं। पर इनका क्या दोष, मेरे ही पूर्वकृत कर्मों की परिणति से पूदगलों का ऐसा परिणमन है। ऐसी दशा में अब भिक्षा हेतू नगर या ग्राम में मुझे प्रवेश नहीं करना चाहिए । आज से मैं वन में ही निवास करूंगा।" ऐसा विचार कर मुनि बलराम बिना भिक्षा ग्रहण किए ही वन की ओर लौट गये और तुगियागिरी के गहन वन में जाकर घोर तपस्या करने लगे। १ (क) ताव य णहंगणाप्रो समुद्देस समागमो भयवनो सयासाम्रो एक्को विज्जाहर समणो। दटूण य त......"पडिवण्णा रामेण तस्सन्तिए दिक्खा । चिउवन महापुरिस चरियं, पृष्ठ २०४] (ख) दीक्षां जिघृक्षु रामं च, ज्ञात्वा श्री नेम्यपि द्रुतम् । विद्याधरमृषि प्रेषीदेकमैकः कृपालुषु ॥३६॥ त्रि. श. पु. च., ८।१२ २ ......."हा ! हयासि त्ति हयासे ! भणमारणेण संवोहिया [चउवन म. पु. च., पृ २०८] Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कठोर संयम-साधना] भगवान् श्री अरिष्टनेमि __४१६ शत्रु राजाओं ने हलधर का एकाकी वनवास जान कर उन्हें मारने की तैयारी की, परन्तु सिद्धार्थ देव की रक्षा-व्यवस्था से वे वहां नहीं पहुँच सके । मुनि बलराम वन में शान्त भाव से तप आराधन करने लगे। . उनके तपः प्रभाव से वन्य प्राणी सिंह और मग परस्पर का वैर भूल उनके निकट बैठे रहते। एक दिन वे सर्य की अोर मह किये कायोत्सर्ग मद्रा में ध्यानस्थ खड़े थे। उस समय कोई वन-छेदक वक्ष काटने हेतु उधर आया और उसने मुनि को देखकर भक्ति सहित प्रणाम किया। तपस्वी मुनि को धन्य-धन्य कहते हुए पास के वृक्षों में से एक वृक्ष को काटने में जुट गया। भोजन के समय अधकटे वक्ष के नीचे छाया में वह भोजन करने बैठा । उसी समय अवसर देख मुनि शास्त्रोक्त विधि से चले । शुभ अध्यवसाय से एक हरिण भी यह सोच कर कि अच्छा धर्म-लाभ होगा, महामुनि का पारणा होगा, मुनि के आगे-आगे चला। वृक्ष काटने वाले ने ज्योंही मुनि को देखा तो वह बड़ा प्रसन्न हुआ और बड़ी श्रद्धा, भक्ति एवं प्रेम के साथ मुनि को अपने भोजन में से भिक्षा देने लगा। 'काकतालीय' न्याय से उसी समय बड़े तीव्र वेग से वायु का झोंका आया और वह अधकटा विशाल वृक्ष मुनि बलराम, उस श्रद्धावनत सुथार और हरिण पर गिर पड़ा शुभ अध्यवसाय में मुनि बलराम, सुथार और हरिण तीनों एक साथ काल कर ब्रह्मलोक-पंचम कल्प में देव रूप से उत्पन्न हुए। मनि की तपस्या के साथ हरिण और सुथार की भावना भी बड़ी उच्चकोटि की रही। मग ने बिना कुछ दिये शुभ-भावना के प्रभाव से पंचम स्वर्ग की प्राप्ति कर ली। महामुनि थावच्चापुत्र द्वारिका के समृद्धिशाली श्रेष्ठिकुलों में थावच्चापुत्र का प्रमुख स्थान था । इनकी अल्पाय में ही इनके पिता के दिवंगत हो जाने के कारण कुल का साग कार्यभार थावच्चा गाथा-पत्नी चलाती रही। उसने अपने कुल की प्रतिष्ठा और धाक उसी प्रकार जमाये रखी जैसी कि श्रेष्ठी ने जमाई थी। थावच्चा गाथा. पत्नी की लोक में प्रसिद्धि होने के कारण उसके पुत्र की भी (थावच्चापुत्र की भी) थावच्चापुत्र के नाम से ही प्रसिद्धि हो गई। १ (क) ....""सुभभावणोवगयमाणसा य समुप्पण्णा बम्भलोयकप्पम्मि"...." ___ [चउवन महा. पु. चरियं. पृ. २०६] (ख) ते त्रयस्तरुणा तेन, पतितेन हता मृताः । पद्मोत्तरविमानान्तब्रह्मलोकेऽभवन् सुराः ।।७०।। [त्रिषष्टि शलाका पु. च., पर्व ८, मर्ग ११] Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [महामुनि गाथा-पत्नी ने बड़े लाड़-प्यार से अपने पुत्र थावच्चापुत्र का लालन-पालन किया और आठ वर्ष की आयु में उन्हें एक योग्य प्राचार्य के पास शिक्षा ग्रहण करने के लिए रखा। कुशाग्रेबुद्धि थावच्चापुत्र ने विनयपूर्वक अपने कलाचार्य के पास विद्याध्ययन किया और सर्वकलानिष्णात हो गये। गाथा-पत्नी ने अपने इकलौते पुत्र का, युवावस्था में पदार्पण करते ही बड़ी धूमधाम से, बत्तीस इभ्यकूल की सर्वगुणसम्पन्न सुन्दर कन्याओं के साथ पाणिग्रहण कराया। थावच्चापुत्र पहले ही विपुल सम्पत्ति के स्वामी थे फिर कन्यादान के साथ प्राप्त सम्पदा के कारण उनकी समृद्धि और अधिक प्रवृद्ध हो गई । वे बड़े आनन्द के साथ गार्हस्थ्य जीवन के भोगों का उपभोग करने लगे। एक बार भगवान अरिष्टनेमि अठारह हजार श्रमण और चालीस हजार श्रमणियों के धर्मपरिवार सहित विविध ग्राम-नगरों को अपने पावन चरणों से पवित्र करते हुए रैवतक पर्वत के नन्दन-वन उद्यान में पधारे। प्रभु के शुभागमन के सुसंवाद को पाकर श्रीकृष्ण वासुदेव ने अपनी सुधर्म-सभा की कौमुदी घंटी बजवाई और द्वारिकावासियों को प्रभुदर्शन के लिए शीघ्र ही समद्यत होने की सूचना दी। तत्काल दशों दशाह, समस्त यादव परिवार और द्वारिका के नागरिक स्थानानन्तर सुन्दर वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो भगवान् के समवसरण में जाने के लिए कृष्ण के पास पाये। श्रीकृष्ण भी अपने विजय नामक गन्धहस्ती पर आरूढ़ हो दशों दशाहों, परिजनों, पुरजनों, चतुरंगिणी सेना और वासुदेव की सम्पूर्ण ऋद्धि के साथ द्वारिका के राजमार्गों पर अग्रसर होते हुए भगवान् के समवसरण में पहुँचे । थावच्चाकुमार भी इस विशाल जनसमुदाय के साथ समवसरण में पहुँचा । अत्यन्त प्रियदर्शी, नयनाभिराम एवं मनोहारी भगवान के दर्शन करते ही सबके नयन-कमल और हृदय-कुमुद विकसित हो गये । सबने बड़ी श्रद्धा और भक्तिपूर्वक भगवान् को वन्दन किया और यथोचित स्थान ग्रहण किया। ___भगवान् की अघदलहारिणी देशना सुनने के पश्चात् श्रोतागण अपने-अपने आध्यात्मिक उत्थान के विविध संकल्पों को लिए अपने-अपने घर की ओर लौट गये। थावच्चापुत्र भी भगवान् को वन्दन कर अपनी माता के पास पहुंचा और माता को प्रणाम कर कहने लगा--'अम्बे ! मुझे भगवान अरिष्टनेमि के अमोघ प्रवचन सुन कर बड़ी प्रसन्नता हुई है। मेरी इच्छा संसार के विषय-भोगों से विरत हो गई है । मैं जन्म-मरण के बन्धनों से सदा-सर्वदा के लिए छुटकारा पाने हेतु प्रभु के चरण-शरण में प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता हूँ।" Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थावच्चापुत्र] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ४२१ अपने पुत्र की बात सुन कर गाथा-पत्नी थावच्चा अवाक रह गई, मानो उस पर अनभ्र वज्र गिरा हो। उसने अपने पुत्र को त्याग-मार्ग से आने वाले घोर कष्टों से अवगत कराते हुए ग्रहस्थ-जीवन में रह कर ही यथाशक्ति धर्मसाधना करते रहने का आग्रह किया पर थावच्चा कुमार के अटल निश्चय को देख कर अन्त में उसने अपनी प्रान्तरिक इच्छा नहीं होते हुए भी उसे प्रव्रज्या लेने की अनुमति प्रदान की। ___ गाथा-पत्नी ने बड़ी धूमधाम के साथ अपने पुत्र का अभिनिष्क्रमणोत्सव करने का निश्चय किया। वह अपने कुछ प्रात्मीयों के साथ श्रीकृष्ण के प्रासाद में पहुँची और बहमूल्य भेंट अर्पित कर उसने कृष्ण से निवेदन किया-"राजराजेश्वर ! मेरा इकलौता पुत्र थावच्चा कुमार प्रभु अरिष्टनेमि के पास श्रमरणदीक्षा स्वीकार करना चाहता है। मेरी महती आकांक्षा है कि मैं बड़े ठाट के साथ उसका निष्क्रमण करू । अतः आप कृपा कर छत्र चंवर और मुकुट प्रदान कीजिये।" श्रीकृष्ण ने कहा-"देवानप्रिये ! तुम्हें इसकी किंचितमात्र भी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं । मैं स्वयं तुम्हारे पुत्र का निष्क्रमणोत्सव करूगा।" कृष्ण की बात से गाथा-पत्नी आश्वस्त हो अपने घर लौट आई। श्रीकृष्ण भी अपने विजय नामक गन्धहस्ती पर आरूढ़ हो चतुरंगिणी सेना के साथ थावच्चा गाथा-पत्नी के भवन पर गये और थावच्चा पुत्र से बड़े मीठे वचनों में बोले-“देवानुप्रिय ! तुम मेरे बाहुबल की छत्रछाया में बड़े प्रानन्द के साथ सांसारिक भोगों का उपभोग करो। मेरी छत्रछाया में रहते हुए तुम्हारी इच्छा के विपरीत सिवा वायु के तुम्हारे शरीर का कोई स्पर्श तक भी नहीं कर सकेगा। तुम सांसारिक सुखों को ठुकरा कर व्यर्थ ही क्यों प्रवजित होना चाहते हो?" थावच्चापूत्र ने कहा- "देवानप्रिय ! यदि आप मत्य और बढापे से मेरी रक्षा करने का दायित्व अपने ऊपर लेते हो तो मैं दीक्षित होने का विचार त्याग कर बेखटके सांसारिक सुखों को भोगने के लिए तत्पर हो सकता हूँ । वास्तव में मैं इस जन्म-मरण से इतना उत्पीड़ित हो चुका हूँ कि गला फाड़ कर रोने की इच्छा होती है। त्रिखण्डाधिपते ! क्या आप यह उत्तरदायित्व लेते हैं कि जरा और मरण मेरा स्पर्श नहीं कर सकेंगे ?" श्रीकृष्ण बड़ी देर तक थावच्चापुत्र के मुख की ओर देखते ही रहे और अन्त में अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए उन्होंने कहा- "जन्म, जरा और मरण तो दुनिवार्य हैं। अनन्तबली तीर्थंकर और महान् शक्तिशाली देव भी इनका Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [महामुनि निवारण करने में असमर्थ हैं। इनका निवारण तो केवल कम-मल का क्षय करने से ही संभव है।" थावच्चापुत्र ने कहा-"हरे ! मैं इस जन्म, जरा और मृत्यु के दुःख को मूलतः विनष्ट करना चाहता हूँ, वह बिना प्रव्रज्या-ग्रहण के संभव नहीं, अतः मैं प्रवजित होना चाहता हूँ।" परम विरक्त थावच्चापुत्र के इस ध्र व-सत्य उत्तर से श्रीकृष्ण बड़े प्रभावित हए । उन्होंने तत्काल द्वारिका में घोषणा करवा दी कि थावच्चापुत्र अर्हत अरिष्टनेमि के पास प्रवजित होना चाहते हैं। उनके साथ जो कोई राजा, युवराज, देवी, रानी, राजकुमार, ईश्वर, तलवर, कौटुम्बिक, माण्डविक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति या सार्थवाह दीक्षित होना चाहते हों तो कृष्ण वासुदेव उन्हें सहर्ष प्रज्ञा प्रदान करते हैं । उनके आश्रित-जनों के योग-क्षेम का सम्पूर्ण दायित्व कृष्ण लेते हैं।" श्रीकृष्ण की इस घोषणा को सुन कर थावच्चापुत्र के प्रति असीम अनुराग रखने वाले उग्रं-भोगवंशीय व इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति ग्रादि एक हजार पुरुष दीक्षित होने हेतु तत्काल तहाँ पा उपस्थित हुए। __स्वयं श्रीकष्ण ने जलपूर्ण चांदी-सोने के घड़ों से थावच्चापुत्र के साथसाथ उन एक हजार दीक्षार्थियों का अभिषेक किया और उन सब को बहमूल्य सुन्दर वस्त्राभूषणों से अलंकृत कर एक विशाल पालकी में बिठा उनका दीक्षामहोत्सव किया। निष्क्रमणोत्सव की शोभायात्रा में सबसे आगे विविध वाद्यों पर मन को मुग्ध करने वाली मधुर धुन बजाते हुए वादकों की कतारें, उनके पीछे वाद्यध्वनि के साथ-साथ पदक्षेप करती हुई वासुदेव की सेना, नाचते हुए तरल तुरंगों की सेना, फिर मेघगर्जना सा 'घर-घर' रव करती रथसेना, चिंघाड़ते हुए दीर्घदन्त, मदोन्मत्त हाथियों की गजसेना और तदनन्तर एक हजार एक दीक्षार्थियों की देवविमान सी सुन्दर विशाल पालकी, उनके पीछे श्रीकृष्ण, दशाह, यादव कुमार और उनके पीछे लहराते हुए सागर की तरह अपार जन-समूह । समुद्र की लहरों की तरह द्वारिका के विस्तीर्ण स्वच्छ राजपथ पर अग्रसर होता हुआ निष्क्रमरणोत्सव का यह जलूस समवसरण की ओर बढ़ा । समवसरण के छत्रादि दृष्टिगोचर होते ही दीक्षार्थी पालकी से उतरे । ___ श्रीकृष्ण थावच्चापुत्र को प्रागे लिये प्रभु के पास पहुंचे और तीन प्रदक्षिणापूर्वक उन्हें वन्दन किया। थावच्चापुत्र ने भगवान् को वन्दन किया और Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थावच्चापुत्र] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ४२३ एक हजार पुरुषों के साथ सब आभूषणों को उतार स्वयमेव पंचमुष्टि लुचन कर प्रभु नेमिनाथ के पास मुनि-दीक्षा ग्रहण की। दीक्षित होकर थावच्चापुत्र ने भगवान् अरिष्टनेमि के स्थविरों के पास चौदह पूर्वी एवं एकादश अंगों का अध्ययन किया और चतुर्थ भक्तादि तपस्या से अपने कर्म-मल को साफ करने लगे। अहंत अरिष्टनेमि ने थावच्चाकूमार की आत्मनिष्ठा. तपोनिष्ठा, तीक्षण बुद्धि और हर तरह योग्यता देखकर उनके साथ दीक्षित हुए एक हजार मुनियों को उनके शिष्य रूप में प्रदान किया और उन्हें भारत के विभिन्न जनपदों में विहार कर जन-कल्याण करने की आज्ञा दी। अणगार थावच्चापुत्र ने प्रभुप्राज्ञा को शिरोधार्य कर भारत के सुदूर प्रान्तों में मप्रतिहत विहार एवं धर्म का प्रचार करते हुए अनेक भव्यों का उद्धार किया। अनेक जनपदों में विहार करते हुए थावच्चापुत्र अपने एक हजार शिष्यों के साथ एक समय शैलकपुर पधारे। वहाँ आपके तात्त्विक एवं विरक्तिपूर्ण उपदेश को सुनकर 'शैलक' जनपद के नरपति 'शैलक राजा' ने अपने पंथक प्रादि पाँच सौ मन्त्रियों के साथ श्रावक-धर्म स्वीकार किया। ___ इस प्रकार धर्मपथ से भूले-भटके अनेक लोगों को सत्पथ पर अग्रसर करते हुए थावच्चापुत्र सौगन्धिका नगरी पधारे । सौगन्धिका नगरी में अरणगार थावच्चापुत्र के पधारने से कुछ दिनों पहले वेद-वेदांग और सांख्यदर्शन के पारगामी गैरुक वस्त्रधारी शुक नामक प्रकाण्ड विद्वान परिव्राजकाचार्य आये थे। शुक के उपदेश से सौगन्धिका नगरी का सुदर्शन नामक प्रतिष्ठित श्रेष्ठी बड़ा प्रभावित हुआ और शुक द्वारा प्रतिपादित शौचधर्म को स्वीकार कर वह शुक का उपासक बन गया था। अरणगार थावच्चापुत्र के सौगन्धिका नगरी में पधारने की सूचना मिलते ही सुदर्शन सेठ और सौगन्धिका नगरी के निवासी उनका धर्मोपदेश सुनने गये। उपदेश-श्रवण के पश्चात् सुदर्शन ने थावच्चापुत्र से धर्म एवं प्राध्यात्मिक ज्ञान सम्बन्धी अनेक प्रश्न किये । थावच्चापुत्र के यूक्तिपूर्ण और सारगर्भित उत्तर से सुदर्शन के सब संशय दूर हो गये और उसने थावच्चापुत्र से श्रावक-धर्म अंगीकार किया । किसी अन्य स्थान पर विचरण करते हुए शुक परिव्राजक को जब सुदर्शन के श्रमणोपासक बनने की सूचना मिली तो वे सौगन्धिका नगरी पाये और सुदर्शन के घर पहुँचे । Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ __ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [महामुनि किन्तु सुदर्शन से पूर्व की तरह अपेक्षित वन्दन, सत्कार, सम्मान न पाकर शुक ने उससे उस उदासीनता और उपेक्षा का कारण पूछा। सुदर्शन ने खड़े हो हाथ जोड़कर उत्तर दिया--"विद्वन् ! मैंने अणगार थावच्चापुत्र से जीवाजीवादि तत्त्वों का वास्तविक स्वरूप समझ कर विनयमूलक धर्म स्वीकार कर लिया है।" परिव्राजकाचार्य शुक ने सुदर्शन से पूछा--- "तेरे वे धर्माचार्य कहाँ हैं ?" सुदर्शन ने उत्तर दिया-“वे नगर के बाहर नीलाशोक उद्यान में विराजमान हैं।" शुक ने कहा-“मैं अभी तुम्हारे धर्म-गुरु के पास जाता हूँ और उनसे सैद्धान्तिक, तात्त्विक, धर्म सम्बन्धी और व्याकरण विषयक जटिल प्रश्न पूछता हूँ। अगर उन्होंने मेरे सब प्रश्नों का संतोषप्रद उत्तर दिया तो मैं उनको नमस्कार करूंगा अन्यथा उन्हें अकाट्य युक्तियों और नय-प्रमाण से निरुत्तर कर दूंगा।" यह कह कर परिवाडराज शूक अपने एक हजार परिव्राजकों और सुदर्शन सेठ के साथ नीलाशोक उद्यान में अनगार थावच्चापुत्र के पास पहुंचे। उसने उनके समक्ष अनेक जटिल प्रश्न रखे । अणगार थावच्चापुत्र ने उसके प्रत्येक प्रश्न का प्रमाण, नय एवं यक्तिपूर्ण ढंग से हृदयग्राही स्पष्ट उत्तर दिया। शुक को उन उत्तरों से पूर्ण संतोष के साथ वास्तविक बोध हुआ। उसने थावच्चापुत्र से प्रार्थना की कि वे उसे धर्मोपदेश दें। अरणगार थावच्चापुत्र से हृदयस्पर्शी धर्मोपदेश सुन कर शुक ने धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझा और तत्काल अपने एक हजार परिव्राजकों के साथ पंचमष्टि-लुचन कर उनके पास श्रमण-दीक्षा स्वीकार की तथा अरागार थावच्चापुत्र के पास चौदह पूर्व एवं एकादश अंगों का अध्ययन कर स्वल्प समय में ही आत्मविद्या का वह पारगामी बन गया । थावच्चापुत्र ने शुक को सब तरह से योग्य समझ कर आज्ञा दी कि वह अपने एक हजार शिष्यों के साथ भारतवर्ष के सन्निकट त सुदूर प्रदेशों में विचरण कर भव्य प्राणियों को धर्म-मार्ग पर आरूढ करे। अपने गुरु थावच्चापुत्र की आज्ञा शिरोधार्य कर महामनि शुक ने अपने एक हजार प्रणगारों के साथ अनेक प्रदेशों में धर्म का प्रचार किया। थावच्चापूत्र के श्रमणोपासक शैलकपुर के महाराजा शैलक ने भी शक के उपदेश से प्रभावित हो पंथक आदि अपने पांच सौ मन्त्रियों के साथ श्रमण-दीक्षा स्वीकार की। Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थावच्चापुत्र] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ४२५ थावच्चापुत्र ने अनेक वर्षों की कठोर संयम-साधना, धर्म-प्रसार और अनेक प्राणियों का कल्याण कर अन्त में पुण्डरीक पर्वत पर आकर एक मास की संलेखना को और केवलज्ञान प्राप्त कर निर्वाण-पद प्राप्त किया। थावच्चापुत्र के शिष्य शुक और प्रशिष्य शैलक राजर्षि ने भी कालान्तर में पुण्डरीक पर्वत पर एक मास की संलेखना कर निर्वाण प्राप्त किया। शैलक राजषि कठोर तपस्या और अन्तप्रान्त अननुकूल आहार के कारण भयंकर व्याधियों से पीड़ित हो गये थे। यद्यपि वे रोगोपचार के समय प्रमादी और शिथिलाचारी हो गये थे । पर कुछ ही समय पश्चात् अपने शिष्य पंथक के प्रयास से सम्हल गये और अपने शिथिलाचार का प्रायश्चित्त कर तप-संयम की कठोर साधना द्वारा स्वपर-कल्याण-साधन में लग गये । जैसा कि ऊपर वर्णन किया जा चुका है, वे अन्त में पाठों कर्मों का क्षय कर निर्वाण को प्राप्त हए। इस प्रकार थावच्चामनि आदि इन पच्चीस सौ (२५००) श्रमणों ने अरिहंत अरिष्टनेमि के शासन की शोभा बढ़ाते हुए अपनी आत्मा का कल्याण किया। अरिष्टनेमि का द्वारिका-विहार और भव्यों का उद्धार भगवान नेमिनाथ अप्रतिबद्ध विहारी थे। वीतरागी व केवली होकर भी वे एक स्थान पर स्थिर नहीं रहे । उन्होंने दूर-दूर तक विहार किया। सौराष्ट की भूमि उनके विहार, विचार और प्रचार से आज भी पूर्ण प्रभावित है। यद्यपि उनके वर्षावास का निश्चित पता नहीं चलता, फिर भी इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि उनका विहार-क्षेत्र अधिकांशतः द्वारिका रहा है। वासूदेव कृष्ण की भक्ति और पुरवासी जनों की श्रद्धा से द्वारिका उस समय का धार्मिक केन्द्र सा प्रतीत होता है। भगवान् नेमिनाथ का बार-बार द्वारिका पधारना भी इसका प्रमाण है। ___एक समय की बात है कि जब भगवान् द्वारिका के नन्दन वन में विराजे हए थे, उस समय अन्धकवष्णि के समुद्र, सागर, गंभीर, स्तिमित, अचल. कम्पित, अक्षोभ, प्रसेन और विष्णू आदि दश पुत्रों ने राज्य वैभव छोड़कर प्रभ के चरणों में प्रव्रज्या ग्रहण की । दूसरी बार हिमवंत, अचल, धरण, पूरण आदि वष्णि-पूत्रों के भी इसी भाँति प्रवजित होने का उल्लेख मिलता है। तीसरी बार प्रभु के पधारने पर वसुदेव और धारिणी के पुत्र सारण कुमार ने दीक्षा ग्रहण की। सारणकुमार की पचास पत्नियां थीं, पर प्रभ की वाणी से विरक्त होकर उन्होंने सब भोगों को ठकरा दिया। बलदेव पुत्र सुमुख, दुर्मुख, कृपक और वसुदेव पुत्र दारुक एवं अनाधृष्टि की प्रव्रज्या भी द्वारिका में ही हुई प्रतीत होती Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [पाण्डवों का है। फिर वसुदेव और धारिणी के पुत्र जालि, मयालि, उपयालि, पुरुषसेन, वारिषेण तथा कृष्ण के नन्दन प्रद्युम्न एवं जाम्बवती के पुत्र साम्बकुमार, वैदर्भीकुमार अनिरुद्ध तथा समुद्रविजय के सत्यनेमि, दृढ़नेमि ने तथा कृष्ण की अन्य रानियों ने भी द्वारिका में ही दीक्षा ग्रहण की थी। रानियों के अतिरिक्त मूलश्री और मूलदत्ता नाम की दो पुत्रवधुओं की दीक्षा भी द्वारिका में ही हुई थी। इन सबसे ज्ञात होता है कि कृष्ण वासुदेव के परिवार के सभी लोग भगवान् अरिष्टनेमि के प्रति अटूट श्रद्धा रखते थे । पाण्डवों का वैराग्य और मुक्ति । श्रीकृष्ण के अन्तिम आदेश का पालन करते हुए जब जराकुमार पाण्डवों के पास पाण्डव-मथुरा' में पहुँचा तो उसने श्रीकृष्ण द्वारा प्रदत्त कौस्तुभ मणि पाण्डवों को दिखाई और रोते-रोते द्वारिकादाह, यदुवंश के सर्वनाश और अपने द्वारा हरिण की आशंका से चलाये गये बाण के प्रहार से श्रीकृष्ण के निधन आदि की सारी दुःखद घटनाओं का विवरण उन्हें कह सुनाया। जराकुमार के मुख से हृदयविदारक शोक-समाचार सुन कर पाँचों पाण्डव और द्रौपदी आदि शोकाकुल हो विलख-विलख कर रोने लगे। अपने परम सहायक और अनन्य उपकारक श्रीकृष्ण के निधन से तो उन्हें वज्रप्रहार से भी अधिक प्राघात पहुँचा । उन्हें सारा विश्व शून्य सा लगने लगा। उन्हें संसार के जंजाल भरे क्रिया-कलापों से सर्वथा विरक्ति हो गई। घट-घट के मन की बात जानने वाले अन्तर्यामी प्रभु अरिष्टनेमि ने पाण्डवों की संयम-साधना की आन्तरिक इच्छा को जान कर तत्काल अपने चरमशरीरी चार ज्ञान के धारक स्थविर मुनि धर्मघोष को ५०० मुनियों के साथ पाण्डवमथुरा भेजा । पाण्डवमथुरा में ज्योंही स्थविर धर्मघोष के प्राने का समाचार पाण्डवों ने सुना तो वे सपरिवार मुनि को वन्दन करने गये और उनके उपदेश से आत्मशुद्धि को ही सारभूत समझ कर युधिष्ठिर आदि पांचों भाइयों ने अपने पुत्र पाण्डुसेन को पाण्डव-मथुरा का राज्य दे धर्मघोष के पास श्रमरणदीक्षा स्वीकार की। १ ........केणइ कालंतरेण संपत्तो दाहिण महुरं । [च. म. पु. च., पृ. २०५] २ तान् प्रविजिषूज्ञात्वा, श्रीनेमिः प्राहिणोन्मुनिम् । धर्मघोपं चतुर्ज्ञानं, मुनिपञ्चशतीयुतम् ।।२।। [त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व ८, सर्ग १२] १ (क) ज्ञाता धर्म कथा में पाण्डुसेन को ही राज्य देने का उल्लेख है । (ख) जारेयं न्यस्य ते राज्ये "। __ [त्रिषष्टि श. पु. च., ८।१२, श्लोक ६३] (ग) ........"सयलसामन्ताणं समत्त्थिऊरण णिवेसियो नियय रज्जे जराकुमारो। - [च. म. पु. च., पृष्ठ २०५] Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२७ वैराग्य और मुक्ति भगवान् श्री अरिष्टनेमि महारानी द्रौपदी भी आर्या सुव्रता के पास दीक्षित हो गई। दीक्षित होने के पश्चात् पाँचों पाण्डवों और सती द्रौपदी ने क्रमशः चौदह पूर्व और एकादश अंगों का अध्ययन करने के साथ-साथ बड़ी घोर तपस्याएँ की । कठोर संयम और तप की तीव्र अग्नि में अपने कर्मसमूह को भस्मसात करते हुए जिस समय युधिष्ठिर, भीम आदि पाँचों पाण्डव-मुनि ग्रामानुग्राम विचरण कर रहे थे, उस समय उन्होंने सुना कि अरिहंत अरिष्टनेमि सौराष्ट्र प्रदेश में अनेक भव्य जीवों का उद्धार करते हए विचर रहे हैं, तो पांचों मनियों के मन में भगवान् के दर्शन एवं वन्दन की तीव्र उत्कण्ठा हुई। उन्होंने अपने गुरु से प्राज्ञा प्राप्त कर सौराष्ट्र की ओर विहार किया। पांचों मुनि मास, अर्द्ध मास की तपस्या करते हुए सौराष्ट्र की ओर बढ़ते हुए एक दिन उज्जयन्तगिरि से १२ योजन दूर हस्तकल्प' नगर के बाहर सहस्राम्रवन में ठहरे । युधिष्ठिर मनि को उसी स्थान पर छोड़ कर भीम, अर्जन, नकूल और सहदेव मास-तप के पारण हेतु नगर में भिक्षार्थ गये। भिक्षार्थ घमते समय उन्होंने सुना कि भगवान् नेमिनाथ उज्जयन्तगिरि पर एक मास की तपस्यापूर्वक ५३६ साधुओं के साथ चार अघाती कर्मों का क्षय कर निर्धारण प्राप्त कर चुके हैं। चारों मुनि यह सुन कर बड़े खिन्न हुए और तत्काल ही सहस्राम्रवन में लौट प्राये। यधिष्ठिर के परामर्शानसार पूर्वग्रहीत आहार का परिष्ठापन कर पाँचों मुनि शत्रुजय पर्वत पहुंचे और वहां उन्होंने संलेखना की। ___ अनेक वर्षों की संयम-साधना कर युधिष्ठिर, भीम, अर्जन, नकूल और सहदेव ने २ मास की संलेखना से आराधना कर कैवल्य की उपलब्धि के पश्चात अजरामर निर्वाण-पद प्राप्त किया। आर्या द्रौपदी भी अनेक वर्षों तक कठोर संयम-तप की साधना और एक मास की संलेखना में काल कर पंचम कल्प में महद्धिक देव रूप से उत्पन्न हुई ।२ धर्म-परिवार भगवान् अरिष्टनेमि के संघ में निम्न धर्म-परिवार था : गणधर एवं गण - ग्यारह (११) वरदत्त आदि गणधर एवं १ अस्मात् द्वादशयोजनानि स गिरिनमि प्रगे वीक्ष्य तत् .. ...। [त्रिषष्टि श. पु. च., ८।१२, श्लो० १२६] २ ज्ञाता धर्म कथांग १।१६ । Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ केवली मनः पर्यवज्ञानी अवधिज्ञानी चौदह पूर्वधारी वादी साधु साध्वी श्रावक श्राविका अनुत्तरगति वाले जैन धर्म का मौलिक इतिहास ११ ही गरण १ एक हजार पाँच सौ (१,५०० ) एक हजार (१,००० ) एक हजार पाँच सौ (१,५०० ) चार सौ (४००) आठ सौ ( ८५०० ) अठारह हजार (१८,००० ) चालीस हजार (४०,००० ) [ ऐतिहासिक एक लाख उनहत्तर हजार ( १,६६,००० ) तीन लाख छत्तीस हजार ( ३, ३६०,०० ) एक हजार छः सौ (१,६०० ) एक हजार पाँच सौ ( १५०० ) श्रमण और तीन हजार ( ३००० ) श्रमणियां, इस प्रकार प्रभु के कुल चार हजार पाँच सौ अन्तेवासी सिद्ध-बुद्धमुक्त हुए । परिनिर्वाण कुछ कम सात सौ वर्ष की केवलीचर्या के पश्चात् प्रभु ने जब प्रयुकाल निकट समझा तो उज्जयंतगिरि पर पाँच सौ छत्तीस साधुओं के साथ एक मास का अनशन ग्रहण कर आषाढ शुक्ला अष्टमी को चित्रा नक्षत्र के योग में मध्यरात्रि के समय आयु, नाम, गोत्र और वेदनीय इन चार प्रघाति कर्मों का क्षय कर निषद्या प्रसन से वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए । अरिहन्त प्ररिष्टनेमि तीन सौ वर्ष कुमार अवस्था में रहे, चौवन दिनों तक छद्मस्थ रूप से साधनारत रहे और कुछ कम सात सौ वर्ष केवली रूप में विचरे । इस तरह प्रभु को कुल आयु एक हजार वर्ष की थी । ऐतिहासिक परिपार्श्व आधुनिक इतिहासज्ञ भगवान् महावीर और भगवान् पार्श्वनाथ को ही अब तक ऐतिहासिक पुरुष मान रहे थे, परन्तु कुछ वर्षों के तटस्थ एवं निष्पक्ष अनुसंधान से यह प्रमाणित हो गया है कि अरिहन्त अरिष्टनेमि भी ऐतिहासिक १ (क) अरिष्टनेमेरेकादश नेमिनाथस्याष्टादशेति केचिन्मन्यन्ते । [ प्रवचन सारोद्धार, पूर्व भाग, द्वार १५, पृष्ठ ८६ (२)] (ख) अरह गं रिट्टनेमिस्स अट्ठारस गरणा, अट्ठारस गरगहरा हुत्था ।। १७५ ।। [ कल्प ० स० ] २ प्राव० निर्युक्ति, गाथा ३३०, पृ. २१४ प्रथम । น Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिपार्श्व ] भगवान् श्री श्ररिष्टनेमि 1 पुरुष थे । प्रसिद्ध कोशकार डॉ० नरेन्द्रनाथ बसु, पुरातत्वज्ञ डॉ० फूहर्र प्रोफेसर वारनेट, कर्नल टॉड, मिस्टर करवा, डॉ० हरिसन, डॉ० प्रारणनाथ विद्यालंकार डॉ० राधाकृष्णन् आदि अनेक विज्ञों ने धारणा व्यक्त की है कि अरिष्टनेमि एक ऐतिहासिक पुरुष रहे हैं । महाभारत में । उन तार्क्ष्य उसकी तुलना ऋग्वेद में अरिष्टनेमि शब्द बार-बार प्रयुक्त हुआ है ।" तार्क्ष्य शब्द अरिष्टनेमि के पर्यायवाची रूप में प्रयुक्त हुआ है अरिष्टनेमि ने राजा सगर को जो मोक्ष सम्बन्धी उपदेश दिया है जैन धर्म के मोक्ष सम्बन्धी मन्तव्यों से की जा सकती है । तार्क्ष्य अरिष्टनेमि ने सगर से कहा – “सगर ! संसार में मोक्ष का सुख ही वास्तविक सुख है किन्तु धन, धान्य, पुत्र, कलत्र एवं पशु आदि में आसक्त मूढ़ मनुष्य को इसका यथार्थ ज्ञान नहीं होता । जिसकी बुद्धि विषयों में अनुरक्त एवं मन अशान्त है, ऐसे जनों की चिकित्सा अत्यन्त कठिन है । स्नेह-बन्धन में बँधा हुआ मूढ़ मोक्ष पाने के योग्य नहीं है ।" ४२६ ऐतिहासिक दृष्टि से स्पष्ट है कि सगर के समय में वैदिक लोग मोक्ष में विश्वास नहीं करते थे, एतदर्थ यह उपदेश किसी वैदिक ऋषि का नहीं हो सकता । ऋग्वेद में भी तार्क्ष्य अरिष्टनेमि की स्तुति की गई है । इसके लिए विशेष पुष्ट प्रमाण की आवश्यकता है । "लंकावतार" के तृतीय परिवर्तन में बुद्ध के अनेक नामों में अरिष्टनेमि का नाम भी आया है । वहाँ लिखा है कि एक ही वस्तु के अनेक नाम होने की तरह बुद्ध के भी असंख्य नाम हैं। लोग इन्हें तथा गत, स्वयंभू, नायक, विनायक, परिणायक, बुद्ध, ऋषि, वृषभ, ब्राह्मण, ईश्वर, विष्णु, प्रधान, कपिल, भूतान्त, भास्कर, अरिष्टनेमि आदि नामों से पुकारते हैं । यह उल्लेख इससे पूर्व अरिष्टनेमि का होना प्रमाणित करता है । 'ऋषि - भासित सुत्त' में अरिष्टनेमि और कृष्ण-निरूपित पैंतालीस अध्ययन हैं, उनमें बीस अध्ययनों के प्रत्येक बुद्ध अरिष्टनेमि के तीर्थकाल में हुए थे । उनके द्वारा निरूपित अध्ययन अरिष्टनेमि के अस्तित्व के स्वयंसिद्ध प्रमारग हैं । ऋग्वेद के अतिरिक्त वैदिक साहित्य के अन्यान्य ग्रन्थों में भी अरिष्टनेमि का उल्लेख हुआ है । इतना ही नहीं, तीर्थंकर अरिष्टनेमि का प्रभाव भारत के बाहर विदेशों में पहुँचा प्रतीत होता है। कर्नल टॉड के शब्द हैं- "मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में चार बुद्ध या मेधावी महापुरुष हुए हैं । उनमें पहले आदिनाथ और दूसरे नेमिनाथ थे । नेमिनाथ ही स्केन्डोनेविया निवासियों के प्रथम "प्रोडिन" और चीनियों के प्रथम " फो" देवता थे ।" धर्मानन्द कौशाम्बी ने घोर आंगिरस को नेमिनाथ माना है । १ ऋग्वेद : १।१४ । ८६| ६| १|२४| १८०|१०|३ | ४ । ५३ । १७।१०।१२।१७८ |१| मथुरा १९६० २ महाभारत का शान्ति पर्व २८८ | ४ || २८८|५|६| ३ सगर चक्रवर्ती से भिन्न, यह कोई अन्य राजा सगर होना चाहिए । Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० जैन धर्म का मौलिक इतिहास ऐतिहासिक परिपावं प्रसिद्ध इतिहासज्ञ डॉ० राय चौधरी ने अपने "वैष्णव धर्म के प्राचीन इतिहास" में अरिष्टनेमि को कृष्ण का चचेरा भाई लिखा है, किन्तु उन्होंने इससे अधिक जैन ग्रन्थों में वर्णित अरिष्टनेमि के जीवन वृत्तान्त का कोई उल्लेख नहीं किया । इसका कारण यह हो सकता है कि अपने ग्रन्थ में डॉ० राय चौधरी ने कृष्ण के ऐतिहासिक व्यक्ति होने के सम्बन्ध में उपलब्ध प्रमाणों का संकलन किया है । अतः उनकी दृष्टि उसी ओर सीमित रही है।' प्रभास पुराण में भी अरिष्टनेमि और कृष्ण से सम्बन्धित इस प्रकार का उल्लेख है। यजुर्वेद में स्पष्ट उल्लेख है-"अध्यात्मवेद को प्रकट करने वाले संसार के सब जीवों को सब प्रकार से यथार्थ उपदेश देने वाले और जिनके उपदेश से जीवों की आत्मा बलवान होती है, उन सर्वज्ञ अरिष्टनेमि के लिए आहुति समर्पित है।" इनके अतिरिक्त अथर्ववेद के मांडक्य प्रश्न और मुडक में भी अरिष्टनेमि का नाम आया है। महाभारत में विष्णु के सहस्र नामों का उल्लेख है। उनमें "शूरः शौरिर्जनेश्वरः” पद व्यवहृत हुआ है। इन श्लोकों का अन्तिम चरण ध्यान देने योग्य है । उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में जयपुर में टोडरमल नामक एक जैन विद्वान् हुए हैं। उन्होंने “मोक्ष मार्ग प्रकाश" नामक अपने ग्रन्थ में 'जनेश्वर' के स्थान पर 'जिनेश्वर' लिखा है। दूसरी बात यह है कि इसमें श्रीकृष्ण को 'शौरिः' लिखा है । प्रागरा जिले में वटेश्वर के पास शोरिपुर नामक स्थान है । जैन ग्रन्थों के अनुसार प्रारम्भ में यहीं पर यादवों की राजधानी थी। यहीं से यादवगण भाग कर द्वारिकापुरी पहुँचे थे। यहीं पर भगवान् अरिष्टनेमि का जन्म हुआ था, अतः उन्हें 'शौरि' भी कहा है, और वे जिनेश्वर तो थे ही। उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट होता है कि भगवान अरिष्टनेमि निस्संदेह एक ऐतिहासिक व्यक्ति हैं। अब तो आजकल के विद्वान् भी उन्हें ऐतिहासिक पुरुष मानने लगे हैं। १ जैन साहित्य का इतिहास, पूर्व पीठिका, पृ. १७० से । २ प्रशोकस्तारणस्तारः शूरः शौरिर्जनेश्वरः ।।५०॥ .. कालनेमिनिहा वीरः शूरः शौरिजनेश्वरः ।।८२॥ ३ वाजस्यनु प्रसव बभूवे मा च विश्वा भुवनानि सर्वतः, स नेमिराजा परियाति विद्वान् प्रजां पुष्टिं वर्द्धमानो प्रस्मै स्वाहा ।। [वाजसनेयि माध्यंदिन शुक्ल यजुर्वेद संहिता प्र० ६ मंत्र २५ । यजुर्वेद सातवलेकर संस्करण (वि० सं० १९८४)] | Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३१ वै० सा० में परि० और उनका वंश-वर्णन] भगवान् श्री अरिष्टनेमि वैदिक साहित्य में परिष्टनेमि और उनका वंश-वर्णन संसार के प्रायः सभी प्राचीन और अर्वाचीन इतिहासज्ञों का अभिमत है कि श्रीकृष्ण एक ऐतिहासिक महापुरुष हो गये हैं । ऐसी स्थिति में श्रीकृष्ण के ताऊ के सुपुत्र भगवान् अरिष्टनेमि को ऐतिहासिक महापुरुष स्वीकार करने में कोई दो राय नहीं हो सकती और न इस सम्बन्ध में किसी प्रकार के विवाद की ही गुजायश रहती है। फिर भी आज तक यह प्रश्न इतिहासज्ञों के समक्ष अनबूझी पहेली को तरह उपस्थित रहा है कि वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में, जहां कि यादववंश का विस्तार के साथ वर्णन किया गया है, अरिष्टनेमि का कहीं उल्लेख है अथवा नहीं। इस प्रहेलिका को हल करने के लिये इतिहास के विद्वानों ने समय-समय पर कई प्रयास किये. पर उनकी शोध के केन्द्रबिन्दु संभवतः श्रीमद्भागवत और महाभारत ही रहे, अतः इस पहेली के समाधान में उन्हें पर्याप्त सफलता नहीं मिल सकी । फलतः अन्यत्र सूक्ष्म अन्वेषण एवं गहन गवेषणा के अभाव में इस अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथ्य की वास्तविक स्थिति के ज्ञान से संसार को वंचित ही रहना पड़ा। ___ इस तथ्य के सम्बन्ध में यह धूमिल एवं अस्पष्ट स्थिति हमें बहुत दिनों से राती रही है । हमने वैदिक परम्परा के अनेक ग्रन्थों में इस पहेली के हल को ढूढ़ने का अनवरत प्रयास किया और अन्ततोगत्वा वेदव्यास प्रणीत 'हरिवंश' को गहराई से देखा तो यह उलझी हुई गुत्थी स्वतः सुलझ गई और भारतीय इतिहास का एक धूमिल तथ्य स्पष्टतः प्रकट हो गया। हरिवंश में महाभारतकार वेदव्यास ने श्रीकृष्ण और अरिष्टनेमि का चचेरे भाई होना स्वीकार किया है । इस विषय से सम्बन्धित 'हरिवंश' के मूल श्लोक इस प्रकार हैं : बभूवुस्तु यदोः पुत्राः, पंच देवसुतोपमाः । सहस्रदः पयोदश्च, क्रोष्टा नीलांऽजिकस्तथा ।।१।। [हरिवंश पर्व १, अध्याय ३३] अर्थात् महाराज यदु के सहस्रद, पयोद, कोष्टा, नील और अंजिक नाम के देवकुमारों के तुल्य पाँच पुत्र हुए। Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४३२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [वैदिक माहित्य में गान्धारी चैव माद्री च, क्रोष्टोभर्य बभूवतुः । गान्धारी जनयामास, अनमित्रं महाबलम् ॥१॥ माद्री युधाजितं पुत्रं, ततोऽन्यं देवमीढुपम् ।। तेषां वंशस्त्रिधाभूतो, वृष्णीनां कुलवर्द्धनः ।।२।। [हरिवंश, पर्व १, अध्याय ३४] अर्थात् कोष्टा की माद्री नाम की दूसरी रानी से युधाजित् और देवमीढुष नामक दो पुत्र हुए। माद्रयाः पुत्रस्य जज्ञाते, सूतौ वष्ण्यन्धकावभौ । जज्ञाते तनयो वृष्णेः, स्वफल्कश्चित्रकस्तथा ।।३।। _[वही] कोष्टा के बड़े पुत्र युधाजित् के वृष्णि और अन्धक नामक दो पुत्र हुए। वृष्णि के दो पुत्र हुए, एक का नाम स्वफल्क और दूसरे का नाम चित्रक था । अक्रूरः सुषुवे तस्माच्छ्वफल्काद् भूरिदक्षिणः ।।११।। अर्थात् स्वफल्क के अक्रूर नामक महादानी पुत्र हुए। चित्रकस्याभवन् पुत्राः, पृथुविपृथुरेव च । अश्वग्रीवोऽश्वबाहुश्च, सुपार्श्वकगवेषणौ ।।१५।। अरिष्टनेमिरश्वश्च, सुधर्माधर्मभृत्तथा । सुबाहुबहुबाहुश्च, श्रविष्ठाश्रवणे स्त्रियौ ।।१६।। . [हरिवंश, पर्व १, अध्याय ३४] चित्रक के पृथु,' विपृथु, अश्वग्रीव, अश्वबाहु, सुपार्श्वक, गवेषण, अरिष्टनेमि, अश्व, सुधर्मा, धर्मभृत्, सुबाहु और बहुबाहु नामक बारह पुत्र तथा श्रविष्ठा व श्रवणा नाम की दो पुत्रियाँ हुईं।। १ श्रीमद्भागवत में वृष्णि के दो पुत्रों का नाम स्वफल्क और चित्ररथ (चित्रक) दिया है । चित्ररथ (चित्रक) के पुत्रों का नाम देते हुए 'पृथुर्विपृथु धन्याद्याः' दूसरे पाठ में 'पृथुर्विदूरथाद्याश्च' इतना ही उल्लेख कर केवल तीन और दो पुत्रों के नाम देने के पश्चात् प्रादि-प्रादि लिख दिया है। [श्रीमद्भागवत, नवम स्कन्ध, अ० २४, श्लोक १८] Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परि० और उनका वंश-वर्णन] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ४३३ श्री अरिष्टनेमि के वशवर्णन के साथ-साथ श्रीकृष्ण के वंश का वर्णन भी 'हरिवंश' में वेदव्यास ने इस प्रकार किया है : अश्मक्यां जनयामास, शूरं वै देवमीढुषः । महिष्यां जज्ञिरे शूराद्, भोज्यायां पुरुषा दश ।।१७।। वसुदेवो महाबाहुः पूर्वमानकदुदुभिः । ...................॥१८॥ देवभागस्ततो जज्ञे, तथा देवश्रवा पुनः । अनाधृष्टि कनवको, वत्सवानथ गृजिमः ।।२१।। श्यामः शमीको गण्डूषः, पंच चास्य वरांगनाः । पृथुकीति पृथा चैव, श्रुतदेवा श्रुतश्रवाः ।।२२।। राजाधिदेवी च तथा, पंचते वीरमातरः । ...||२३॥ [हरिवंश, पर्व १, अ० ३४] वसुदेवाच्च देवक्यां, जज्ञे शौरि महायशाः । ..........."||७॥ [हरिवंश, पर्व १, अ० ३५] अर्थात यदु के क्रोष्टा, क्रोष्टा के दूसरे पुत्र देवमीढ़ष के पुत्र शूर तथा शूर के वसुदेव अादि दश पुत्र तथा पृथुकीर्ति आदि पाँच पुत्रियां हुईं । वसुदेव की देवकी नाम की रानी से श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। इस प्रकार वैदिक परम्परा के मान्य ग्रन्थ 'हरिवंश' में दिये गये यादववंश के वर्णन से भी यह सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण और श्री अरिष्टनेमि चचेरे भाई थे और दोनों के परदादा युधाजित् और देवमीढुष सहोदर थे। दोतों परम्पराओं में अन्तर इतना ही है कि जैन परम्परा के साहित्य में अरिष्टनेमि के पिता समद्रविजय को वसुदेव का बड़ा सहोदर माना गया है। जब कि 'हरिवंश पुराण' में चित्रक और वसुदेव को चचेरे भाई माना है । संभव है कि चित्रक (श्रीमद्भागवत के अनुसार चित्ररथ) समुद्रविजय का ही अपर नाम रहा हो। __ पर दोनों परम्पराओं में श्री अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण को चचेरे भाई मानने में कोई दो राय नहीं है। दोनों परम्पराओं के नामों की असमानता लम्बे अतीत में हुए ईति, भीति, दुष्काल, अनेक घोर युद्ध, गृह-कलह, विदेशी आक्रमण आदि अनेक कारणों से हो सकती है। Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [वै. सा. में परि. और उनका वंश-वर्णन किन्तु जैन साहित्य ने तीर्थंकरों के सम्बन्ध में जो विवरण प्रागमों और इतिहास-ग्रन्थों में संजोये रखा है, उसे प्रामाणिक मानने में कोई सन्देह की गुंजायश नहीं रहती। इतना ही नहीं 'हरिवंश' में श्रीकृष्ण की प्रमुख महारानी सत्यभामा की मझली बहिन वतिनी-दृढ़व्रता का भी उल्लेख है', जिसके विवाह होने का वहाँ कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है । दृढ़व्रता, इस गुण-निष्पन्न नाम से, सम्भव है कि वह राजीमती के लिये ही संकेत हो, कारण कि राजीमती से बढ़ कर व्रतिनी अथवा दृढव्रता उस समय के कन्यारत्नों में और कौन हो सकती है, जिसने केवल वाग्दत्ता होते हुए भी तोरण से अपने वर के लौट जाने पर आजीवन अविवाहिता रहने का प्रण कर दृढ़ता के साथ महावतों का पालन किया। इतिहासप्रेमियों के विचारार्थ व पाठकों की सुविधा के लिये श्रीकृष्ण व श्री अरिष्टनेमि से सम्बन्धित यदुकुल के तुलनात्मक वंशवृक्ष यहाँ दिये जा भगवान् अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण के जैन व वैदिक परम्परा के अनुसार वंशवृक्ष : जैन परम्परा । सौरी अन्धकवृष्णि अन्धकवृष्णि भोगवृष्णि भोगवृष्णि समृद्रविजय, प्रक्षोभ, स्तिमित, सागर, हिमवान्, प्रचल, धरण, पूरण, अभिचन्द, वसुदेव श्री अरिष्टनेमि, रथनेमि, सत्यनेमि, दृढ़नेमि श्रीकृष्ण बलराम १ सत्यभामोत्तमा स्त्रीणां, व्रतिनी च दृढव्रता । [हरिवंश पर्व, प्र० ३८, श्लोक ४७] Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैदिक परम्परा ] वृष्णि स्वफल्क अक्रूर युधाजित १. यदु २. ३. ४. ५. चित्रक I श्री अरिष्टनेमि वैदिक परम्परा की ही दूसरी मान्यता के अनुसार यादव वंशवृक्ष : 19. माधव सत्वत भीम T T ६. रैवत अन्धक भगवान् श्री अरिष्टनेमि वैदिक परम्परा विश्वगर्भ यदु 'क्रोष्टु अन्धक हर्यश्व देवमीढ़ ष ४३५ वसुदेव (१०) भाई 1 श्रीकृष्ण (कुल पाठ) Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ ८. वसु T ६. वसुदेव १०. श्रीकृष्ण' १ प्रासीद् राजा मनोवंशे, श्रीमानिक्ष्वाकुसंभवः । हर्यश्व इति विख्यातो महेन्द्रसम विक्रमः || १२|| तस्यैव च सुवृत्तस्य मधुमत्यां सुतो जज्ञे पुत्रकामस्य धीमतः । यदुर्नाम महायशाः ।। ४४ ।। [ हरिवंश पर्व २, अध्याय ३७ ] स तासु नागकन्यासु, कालेन महता नृपः । जनयामास विक्रान्तान्पंच पुत्रान् कुलोद्वहान् ॥ १ ॥ मुचुकुन्दं महाबाहु, पद्मवर्णं तथैव च । माधव सारसं चंव, हरितं चैव पार्थिवम् ।। २ ।। एवमिक्ष्वाकुवंशात्तु यदुवंशो विनिःसृतः । चतुर्धा यदुपुत्रस्तु चतुर्भिभिद्यते पुनः ।। ३५ ।। स यदुर्माघवे राज्यं विसृज्य यदुपुंगवे । त्रिविष्टपं गतो राजा, देहं त्यक्त्वा महीतले || ३६ || बभूव माधवसुतः सत्वतो नाम वीर्यवान् । *********** जैन धर्म का मौलिक इतिहास सत्वतस्य सुतो राजा, भीमो नाम महानभूत् । 7 ॥३७॥ ********... ............. ! अन्धको नाम भीमस्य सुतो राज्यमकारयत् ।।४३ || पर्वतमूर्धनि ॥ ४४ ॥ अन्धकस्य सुतो जज्ञे, रवतो नाम पार्थिवः । ऋक्षोऽपि रैवताञ्जज्ञे रम्ये रैवतस्यात्मजो राजा, विश्वगर्भो महायशाः । बभूव पृथिवीपालः पृथिव्यां प्रथितः प्रभुः || ४६॥ ||३८|| तस्य तिसृषु भार्यासु, दिव्यरूपासु केशवः । चत्वारो जज्ञिरे पुत्रा, लोकपालोपमाः शुभाः ॥४७॥ वसुबंध सुषेणश्च सभाक्षश्चैव वीर्यवान् । यदु प्रवीराः प्रख्याता, लोकपाला इवापरे ॥ ४८॥ [ हर्यश्व Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्यश्व] * ..................... भगवान् श्री अरिष्टनेमि वैदिक परम्परा की ही तीसरी मान्यता के अनुसार यादव वंशवृक्ष' १. यदु २. क्रोष्टा ३. जिनिवान् उषंगु ५. चित्ररथ ६. शूर ...(छोटा पुत्र) ७. वसुदेव ८. श्रीकृष्ण ....(वासुदेव) वैदिक परम्परा की ही चौथी मान्यता के अनुसार यादव वंशवृक्ष १. यदु वसोस्तु कुन्ति विषये, वसुदेवः सुतो विभुः । ........॥५०॥ एष ते स्वस्य वंशस्य, प्रभवः संप्रकीर्तितः । श्रुतो मया पुरा कृष्ण, कृष्णद्वैपायनान्तिकात् ॥५२।। [हरिवंश, पर्व २, मध्याय ३८] १ बुधात् पुरुरवश्चापि, तस्मादायुभविष्यति । नहुषो भविता तस्माद, ययातिस्तस्य चात्मजः ।।२७॥ यदुस्तस्मान्महासत्वाः, क्रोष्टा तस्माद् भविष्यति । क्रोष्टुश्चैव महान् पुत्रो, वृजिनिवान् भविष्यति ॥२८॥ वृजिनिवतश्च भविता उषंगुरपराजितः ।। उषंगोर्मविता पुत्रः, शूरश्चित्ररथस्तथा ॥२६।। तस्य न्ववरजेः पुत्रः शूरो नाम भविष्यति । .................. ॥३०॥ स शूरः क्षत्रियश्रेष्ठो, महावीर्यो महायशाः । स्ववंश विस्तरकर, जनयिष्यति ' मानदः ।।३१।। वसुदेव इति ख्यातं, पुत्रमानकदुन्दुभिम् । तस्य पुत्रश्चतुर्बाहुर्वासुदेवो भविष्यति ।।३२।। [महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय १४७] २ ययातेदेवयान्यां तु, यदुज्येष्ठोऽभवत् सुतः । यदोरभूदन्ववाये, देवमीढ़ इति स्मृतः ।। ६ ।। यादवस्तस्य तु सुतः, शूरस्त्रलोक्यसम्मतः । शूरस्य शौरिनुं वरो, वसुदेवो महायशाः ।। ७ ।। [महाभारत, द्रोणपर्व, अध्याय १४४] Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જય जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती 6.00 २. .. ( इनके वंश में देवमीढ़ नाम से विख्यात एक यादव हो गये हैं) ' ३. देवमीढ़ ४. शूर ५. वसुदेव ६. श्रीकृष्ण ब्रह्मवत चक्रवर्ती भगवान् अरिष्टनेमि के निर्वारण के पश्चात् और भगवान् पार्श्वनाथ के जन्म से पूर्व के मध्यकाल में प्रर्थात् भगवान् ग्ररिष्टनेमि के धर्म-शासन में इस अवसर्पिणी काल का भारतवर्ष का अन्तिम चक्रवर्ती सम्राट् ब्रह्मदत्त हुआ । ब्रह्मदत्त का जीवन एक प्रोर भ्रमावस्या की दुखद, बीभत्स प्रन्धेरी रात्रि की तरह भीषरण दुःखों से भरपूर; और दूसरी ओर शरद पूरिंगमा की सुखद सुहावनी चटक चाँदनी से शोभायमान रात्रि की तरह सांसारिक सुखों से श्रोतप्रोत था । इसके साथ ही साथ ब्रह्मदत्त के चक्रवर्ती - जीवन के बाद के एवं पहले के भव दारुरण से दारुरणतम दुःखों के केन्द्र रहे । ब्रह्मदत्त के ये भव भीषण भवाटवी के और भवभ्रमरण की भयावहता के वास्तविक चित्र प्रस्तुत करते । उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है : -- काम्पिल्य नगर के पांचालपति ब्रह्म की महारानी चुलनी ने गर्भधारण के पश्चात् चक्रवर्ती के शुभजन्मसूचक चौदह महास्वप्न देखे । समय पर महारानी चुलनी ने तपाये हुए सोने के समान कान्ति वाले परम तेजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया । ! ब्रह्म नृपति को इस सुन्दर-तेजस्वी पुत्र का मुख देखते ही बह्य में रमरण (प्रात्मरमरण) के समान परम आनन्द की अनुभूति हुई इसलिये बालक का नाम ब्रह्मदत्त रखा गया। माता-पिता और स्वजनों को अपनी बाललीलाओं से श्रानन्दित करता हुआ बालक ब्रह्मदत्त शुक्लपक्ष की द्वितीया के चन्द्र की तरह बढ़ने लगा । काशी - नरेश कटक, हस्तिनापुर के राजा करणेरुदत्त, कोशलेश्वर दीर्घ प्रौर चम्पापति पुष्पचूलक ये चार नरेश्वर काम्पिल्याधिपति ब्रह्म के अन्तरंग मित्र थे । इन पाँचों मित्रों में इतना घनिष्ठ प्रेम था कि वे पाँचों राज्यों की राजधानियों में क्रमशः एक-एक वर्ष साथ ही रहा करते थे । निश्चित क्रम के अनुसार वे पांचों मित्र वर्षभर साथ-साथ रहने के लिये काम्पिल्यपुर में एकत्रित हुए । ग्रामोदप्रमोद के साथ पाँचों मित्रों को काम्पिल्यपुर में रहते हुए काफी समय बीत गया । १ इससे यह प्रतीत होता है कि सम्भवतः यहां एक, दो या इससे अधिक भी कुछ राजानों का नामोल्लेख नहीं किया गया है । [ सम्पादक ] Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ४३६ एक दिन अचानक ही महाराजा ब्रह्म का देहावसान हो गया । शोकसन्तप्त परिजन, पुरजन श्रौर काशीपति आदि चारों मित्र राजानों ने ब्रह्म का अन्त्येष्टि संस्कार किया । उस समय ब्रह्मदत्त की आयु केवल बारह वर्ष की थी, अत: काशीपति आदि चारों नृपतियों ने मन्त्ररणा कर यह निश्चय किया कि जब तक ब्रह्मदत्त युवा नहीं हो जाय तब तक एक-एक वर्ष के लिए उन चारों मित्रों में से एक नरेश काम्पिल्यपुर में ब्रह्मदत्त का और काम्पिल्य के राज्य का श्रभिभावक अथवा प्रहरी की तरह संरक्षक बन कर रहे । इस सर्वसम्मत निर्णय के अनुसार प्रथम वर्ष के लिए कोशलनरेश दीर्घ को ब्रह्मदत्त और उसके राज्य का संरक्षक नियुक्त किया गया और शेष तीनों राजा अपनी २ राजधानी को लौट गये । कथा विभाग में कहा गया है कि कोशलपति दीर्घ बड़ा विश्वासघाती निकला । शनैः-शनैः उसने न केवल काम्पिल्य के कोष और राज्य पर ही अपना अधिकार किया, अपितु अपने दिवंगत मित्र की पत्नी चुलना को भी कामवासना के जाल में फँसा कर अपना मुंह काला कर लिया और कोशल एवं काम्पिल्य के यशस्वी राजवंशों के उज्ज्वल भाल पर कलंक का काला टीका लगा दिया । कुलशील को तिलांजलि दे कर दीर्घ और चुलना यथेप्सित कामकेलि करते हुए एक दूसरे पर पूर्ण श्रासक्त हो व्यभिचार के घृरिणत गर्त में उत्तरोत्तर गहरे डूबते गये । चतुर प्रधानामात्य धनु उन दोनों के पापपूर्ण प्राचरण से बड़ा चिन्तित हुआ । उसे यह आशंका हुई कि ये दोनों कामवासना के कीट किसी भी समय बालक बह्मदत्त के प्राणों के ग्राहक बन सकते हैं । अतः उसने अपने पुत्र वरधनु के माध्यम से कुमार ब्रह्मदत्त को पूर्ण सतर्क रहने की सलाह दी और अपने पुत्र को अहर्निश कुमार के साथ रहने की आज्ञा दी । मन्त्री पुत्र वरधनु से अपनी माता के व्यभिचारिणी होने की बात सुनकर ब्रह्मदत्त वज्राहत सा तिलमिला उठा। सिंह - शावक की तरह अत्यन्त क्रुद्ध हो वह गुर्राने लगा । एक कोकिल और काक को साथ-साथ बांध कर दीर्घं और चुलना के केलिसदन के द्वार पर जाकर बड़ी क्रोधपूर्ण मुद्रा में ब्रह्मदत्त बार-बार तीव्र स्वर में कहने लगा-- "श्री नीच कौए ! तेरी यह धृष्टता कि इस कोकिल के साथ केलि कर रहा है ? तुम दोनों का प्रारणान्त कर मैं तुम्हारी इस दुष्टता का तुम्हें दण्ड दूंगा ।" कुमार की इस आक्रोशपूर्ण व्याजोक्ति को सुनकर दीघं उसके अन्तर्द्वन्द्व को भाँप गया । उसने चुलना से कहा - "देखा प्रिये ! यह कुमार मुझे कौश्रा और तुम्हें कोकिल बताकर हम दोनों को मारने की धमकी दे रहा है ?" Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० जैन धर्म का मौलिक इतिहास ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती __ कामासक्ता चुलना ने यह कह कर बात टाल दी-"यह अभी निरा बालक है, इसकी बालचेष्टाओं से तुम्हें नहीं डरना चाहिये ।" बालक ब्रह्मदत्त के अन्तर में दीर्घ और अपनी माता के पापाचार के प्रति विद्रोह का ज्वालामुखी फट चुका था। वह बालक बालकेलियों को भूल रातदिन उन दोनों को उनके दुराचार के लिये येन-केन-प्रकारेण सबक सिखाने की उधेड़-बुन में लग गया। दूसरे दिन ब्रह्मदत्त एक राजहंसिनी और बगले को साथ-साथ बांध कर दीर्घ और चुलना को दिखाते हुए आक्रोश भरे तीव्र स्वर में बार-बार कहने लगा-"यह महा अधम बगुला इस राजहंसिनी के साथ सहवास कर रहा है। इस निकृष्ट पापाचार को कोई भी कैसे सहन कर सकता है ? मैं इन्हें अवश्य ही मौत के घाट उतारूगा।" कुमार ब्रह्मदत्त के इस इंगित और आक्रोशपूर्ण उद्गारों को सुनकर दीर्घ को पूर्ण विश्वास हो गया कि ब्रह्मदत्त की ये चेष्टाएँ केवल बालचेष्टाएँ नहीं हैं, वरन् उसके अन्तर में प्रतिशोध की भीषण ज्वालाएँ भभक उठी हैं । उसने चलना से कहा-"देवि ! देख रही हो तुम्हारे इस पुत्र की करतूतें ? यह तुम्हें हंसिनी और मुझे बगुला समझ कर हम दोनों को मारने का दृढ़ संकल्प कर चुका है । यह थोड़ा बड़ा हुआ नहीं कि हम दोनों का वड़ा प्रबल शत्रु और घातक हो जायगा । यह निश्चित समझो कि तुम्हारी मृत्यु के लिए साक्षात काल ही तुम्हारे पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ है, अतः तुम्हारा और मेरा इसी में हित है कि राजसिंहासनारूढ़ होने से पहले ही इस जहरीले काले नाग को कुचल दिया जाय । हम दोनों का वियोग नहीं होगा तो तुम और भी पत्रों को जन्म दे सकोगी । अतः इस प्रारणहारी पुत्र-मोह का परित्याग कर इसका प्राणान्त कर दो।" _ अन्त में कामान्धा चुलना पिशाचिनी की तरह अपने पुत्र के प्राणों की प्यासी हो गई । लोकापवाद से बचने के लिये उन दोनों ने कुमार ब्रह्मदन का विवाह कर सुहागरात्रि के समय वर-वधू को लाक्षागृह में सुलाकर भस्मसात् कर डालने का षड्यन्त्र रचा। ब्रह्मदत्त के लिए उसके मातुल पुष्पचूल नपति की पुत्री पुष्पवती को वाग्दान में प्राप्त किया गया और विवाह की बड़ी तेजी के साथ तैयारियां होने लगीं। प्रधानामात्य धनु पूर्ण सतर्क था और रात दिन दीर्घ और चुलना की हर गतिविधि पर पूरा-पूरा ध्यान रखता था । उसने इस गुप्त षड्यंत्र का पता लगा लिया और वर-वधू के प्राणों की रक्षा का उपाय सोचने लगा। Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ४४१ उसने दीर्घ नृपति से बड़ी नम्रतापूर्वक निवेदन किया- "महाराज ! मेरा पुत्र प्रधानामात्य के पदभार को सम्भालने के पूर्ण योग्य हो चुका है और मैं जराग्रस्त हो जाने के कारण राज्य संचालन के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्यों में भी अब अपेक्षित तत्परता से दौड़धूप करने में असमर्थ हूँ । अब दान-धर्मादि पुण्य कार्यों में अपना शेष जीवन व्यतीत करना चाहता हूँ । अतः प्रार्थना है कि मुझे प्रधानामात्य के कार्यभार से कृपा कर मुक्त कीजिये ।" कुटिल दीर्घ ने सोचा कि यदि इस प्रत्युत्पन्नमती, अनुभवी, राजनीतिनिष्णात को राज- कार्यों से अवकाश दे दिया गया तो यह कोई न कोई अचिन्त्य उत्पात खड़ा कर मेरी सभी दुरभिसन्धियों को चौपट कर देगा । उसने प्रकट में बड़े मधुर स्वर में कहा- “मन्त्रिवर ! आप जैसे विलक्षरण बुद्धि वाले योग्य मंत्री के बिना तो हमारा राज्य एक दिन भी नहीं चल सकता, क्योंकि आप ही तो इस राज्य की धुरी हैं। कृपया आप मंत्रिपद पर बने रहकर दान आदि धार्मिक कृत्य करते रहिये ।" चतुर प्रधान मंत्री धनु दीर्घ के प्रति पूर्ण स्वामिभक्ति का प्रदर्शन करते हुए जलिबद्ध हो उसकी आज्ञा को शिरोधार्य किया और गंगा नदी के तट पर विशाल यज्ञमण्डप का निर्माण करवाया । राज्य के सम्पूर्ण कार्यों को देखते हुए उसने गंगातट पर अन्नदान का महान् यज्ञ प्रारम्भ किया । वह यज्ञमण्डप में प्रतिदिन हजारों लोगों को अन्न-पानादि से तृप्त करने लगा । इस अन्नयाग के व्याज से उसने अपने विश्वस्त पुरुषों द्वारा बड़ी तेजी से यज्ञमण्डप से लाक्षागृह तक एक सुरंग का निर्माण करवा लिया और अपने गुप्तचर के द्वारा पुष्पचूल को दीर्घ और चुलना के भीषरण षड्यंत्र से अवगत करा बड़ी चतुराई से चाल चलने की सलाह दी । विवाह की तिथि से पूर्व ही कन्यादान की विपुल बहुमूल्य सामग्री के साथ बड़े समारोहपूर्वक कन्या काम्पिल्य नगर के राज- प्रासाद में पहुँच गई । पूर्व महोत्सव और बड़ी धूमधाम के साथ ब्रह्मदत्त का विवाह सम्पन्न हुआ । सुहागरात्रि के लिये देवमन्दिर की तरह सजाये गये लाक्षागृह में वर-वधू को पहुँचा दिया गया । स्वच्छन्द विषयानन्द लूटने के लोभ में कामान्ध बनी माँ ने अपने पुत्र को और अपनी समझ में अपने सहोदर की पुत्री को मौत के मुह में ढकेल कर - ऋणकर्ता पिता शत्रुः, माता च व्यभिचारिणी । भार्या रूपवती शत्रुः पुत्रः शत्रुरपण्डितः ॥ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती इस सनातन नीति-श्लोक के द्वितीय चरण को चरितार्थ कर दिया। __ मन्त्री-पुत्र वरधन भी शरीर की छाया की तरह राजकुमार के साथ ही उस लाक्षागृह में प्रविष्ट हो गया। धन की दरदशिता और नीति-निपुणता क कारण किसी को किचितमात्र भी शंका करने का अवसर नहीं मिला कि वधू वास्तव में राजा पुष्पचूल की पुत्री पुष्पवती नहीं, अपितु उसी के समान स्वरूप वाली सर्वतो अनुरूपिणी दासी पुत्री है। __ अन्त में अर्द्धरात्रि के समय दीर्घ और चलना की दूरभिसन्धि को कार्यरूप में परिणत किया गया । लाक्षागृह लपलपाती हुई लाल-लाल ज्वालामालाओं का गगनचुम्बी शिखर सा बन गया। ब्रह्मदत्त वरधनु द्वारा सारी स्थिति से अवगत हो उसके साथ सुरंग-द्वार में प्रवेश कर गंगातट के यज्ञमण्डप में जा पहुँचा । तीव्र गति वाले सजे-सजाये दो घोड़ों पर ब्रह्मदत्त एवं वरधनु को बैठा अज्ञात सुदूर प्रदेश के लिए उन्हें विदा कर प्रधानामात्य धनु स्वयं भी किसी निरापद स्थान को ओर पलायन कर गया। __ जो अतीत में बड़े लाड़-प्यार से राजसी ठाट-बाट में पला और जो भविष्य में सम्पूर्ण भारतवर्ष के समस्त छहों खण्डों की प्रजा का पालक प्रतापी चक्रवर्ती सम्राट बनने वाला है, वही ब्रह्मदत्त अपने प्राणों को बचाने के लिए घने, भयावने, अगम्य अरण्यों में, अर्द्धरात्रि में, अनाथ की तरह अज्ञात स्थान की ओर अन्धाधुन्ध भागा जा रहा था। पवन-वेग से निरन्तर सरपट भागते हए घोड़ों ने काम्पिल्यपर को पचास योजन पीछे छोड़ दिया, पर अनवरत तीव्र गति से इतनी लम्बी दौड़ के कारण दोनों घोड़ों के फेफड़े फट गये और वे धराशायी हो चिरनिद्रा में सो गये। ब्रह्मदत्त और वरधन ने अब तक पराये पैरों पर भाग कर पचास योजन पथ पार किया था। अब वे अपने प्राणों को बचाने के लिए अपने पैरों के बल बेतहाशा भागने लगे । भागते-भागते उनके श्वास फूल गये, फिर भी, क्योंकि अपने प्राण सबको अति प्रिय हैं, अतः वे भागते ही रहे । अन्ततोगत्वा वे बड़ी कठिनाई से कोष्ठक नामक ग्राम के पास पहुंचे। ___ वरधनु गाँव में पहुँचा और एक हज्जाम को साथ लिए लौटा । ब्रह्मदत्त ने नाई से अपना सिर मण्डित करवा काला परिधान पहन महान् पुण्य और प्रताप के द्योतक श्रीवत्स चिह्न को ढंक लिया । वरधन ने उसके गले में अपना यज्ञोपवीत डाल दिया। Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ] भगवान् श्री अरिष्टनेमि इस तरह वेश बदलकर वे ग्राम में घुसे । एक ब्राह्मण उन्हें अपने घर ले गया और बड़े सम्मान एवं प्रेम के साथ उसने उन्हें भोजन करवाया । भोजनोपरान्त गृहस्वामिनी ब्राह्मणी ब्रह्मदत्त के मस्तक पर अक्षतों की वर्षों करती हुई अपनी परम सुन्दरी पुत्री को साथ लिये ब्रह्मदत्त के सम्मुख हाथ जोड़े खड़ी हो गई । दोनों मित्र एक-दूसरे का मुँह देखते ही रह गये | 1 ४४३ वरधनु ने कृत्रिम आश्चर्यद्योतक स्वर में कहा - " देवि ! इस अनाडी भिक्षुक को अप्सरा सी अपनी यह कन्या देकर क्यों गजब ढा रही हो ! तुम्हारा यह कृत्य तो गौ को भेड़िये के गले में बांधने के समान मूर्खतापूर्ण है ।" गृहस्वामी ब्राह्मण ने उत्तर दिया- "सौम्य ! भस्मी रमा लेने से भी कहीं भाग्य छुपाया जा सकता है ? मेरी इस सर्वोत्तम गुरण सम्पन्ना पुत्री बन्धुमती का पति इन पुण्यशाली कुमार के अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकता क्योंकि इस कन्या के चक्रवर्ती की पत्नी होने का योग है । निमित्तज्ञों ने मुझे इस कन्या के वर की जो पहचान बताई है, उस महाभाग को मैंने आज सौभाग्य से प्राप्त कर लिया है। उन्होंने जो पहिचान बताई वह भी मैं आपको बताये देता हूँ । निष्णात निमित्तज्ञों ने मुझे कहा था कि जो व्यक्ति अपने 'श्रीवत्स चिह्न' को वस्त्र से छुपाये हुए तुम्हारे घर आकर भोजन करे, उसी के साथ इस कन्या का विवाह कर देना । यह देखिये यन्त्र से ढका होने पर भी यह श्रीवत्स का चिह्न चमक रहा है ।" दोनों मित्र आश्चर्यचकित हो गये । ब्रह्मदत्त का बन्धुमती के साथ विवाह हो गया । प्रलयानिल के दारुप दुखद अन्धड़ में उड़ने के पश्चात् मानो ब्रह्मदत्त मादक मन्द मलयानिल के मधुर झोके का अनुभव किया, दम घोंट देने वाले दुखों की कालरात्रि के पश्चात् मानो पूर्णिमा की सुखद श्वेत चाँदनी उसकी आँखों के समक्ष थिरक उठी। एक रात्रि के सुख के पश्चात् पुनः दुःख का दरिया | ने उसे फिर ना धर दिनमणि के उदय होते-होते दीर्घराज के दुःख दबाया । दोनों कोष्ठक ग्राम से भागे पर देखा कि दीर्घ के तरह सब रास्तों को रोके खड़े हैं। यह देख दोनों मित्र वन्य बचाने के लिए घने वनों की झाड़ियों में छुपते हुए भाग रहे थे । उस समय 'छिद्रेष्वनर्थाः बहुली भवन्ति' इस उक्ति के अनुसार ब्रह्मदत्त को जोर की प्यास लगी और मारे प्यास के उसके प्रारण-पंखेरू उड़ने लगे । सैनिक दानवों की मृगों की तरह प्राण ब्रह्मदत्त ने एक वृक्ष की प्रोट में बैठते हुए कहा - "वरधनु ! मारे प्यास के अब एक डग भी नहीं चला जाता । कहीं न कहीं से शीघ्र ही पानी लाभो ।" Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती वरधनु “अभी लाया", कह कर पानी लाने दौड़ा । वह पानी लेकर लौट ही रहा था कि दीर्घराज के घुड़सवारों ने उसे आ घेरा और " कहां है ब्रह्मदत्त ? बता कहां है ब्रह्मदत्त ?” कहते हुए वरधनु को निर्दयतापूर्वक पीटने लगे । ४४४ ब्रह्मदत्त ने देखा, पिटा जाता हुआ वरधनु उसे भाग जाने का संकेत कर रहा है । घोर दारुण दुखों से पीड़ित प्यासे ब्रह्मदत्त ने देखा उसके प्राणों के प्यासे दुष्ट दीर्घ के सैनिक यमदूत की तरह उसके सिर पर खड़े हैं । वह घने वृक्षों और झाड़ियों की प्रोट में घुस कर भागने लगा । कांटों से बिंध कर उसका सारा शरीर लहूलुहान हो गया, प्यास से पीड़ित, प्रारणों के भय से पीड़ित, प्रिय साथी के करालकाल के गाल में पड़ जाने के शोक से पीड़ित, प्रथक थकान से केवल पांव ही नहीं रोम-रोम पीड़ित, कोई पारावर ही नहीं था पीड़ाओं का, फिर भी प्रारणों के जाने के भय से भयभीत भागा ही चला जा रहा था ब्रह्मदत्तक्योंकि प्राण सबको सर्वाधिक प्रिय होते हैं । जब निरन्तर तीन दिन तक भागते-भागते दुःख और पीड़ा चरम सीमा तक पहुँच चुके तो परिवर्तन अवश्यंभावी था । अत्यन्त दु:खी अवस्था में पहुँचे ब्रह्मदत्त ने वन में एक तापस को देखा । वह उसे अपने आश्रम में कुलपति के पास ले गया । कुलपति ने ब्रह्मदत्त के धूलिधूसरित तन की तेजस्विता और वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का लांछन देख साश्चर्य उससे उस दशा में वन में आने का कारण पूछा । ब्रह्मदत्त से सारा वृत्तान्त सुनते ही आश्रम के कुलपति ने उसे अपने हृदय से लगाते हुए कहा – “कुमार ! तुम्हारे पिता महाराज ब्रह्म मेरे बड़े भाई के तुल्य थे । इस आश्रम को तुम अपना घर ही समझो और बड़े श्रानन्द से यहाँ रहो ।” ब्रह्मदत्त वहाँ रहता हुआ कुलपति के पास विद्याध्ययन करने लगा । कुलपति ने कुशाग्रबुद्धि ब्रह्मदत्त को सब प्रकार की शस्त्रास्त्र विद्याओं का अध्ययन कराया और उसे धनुर्वेद, नीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र व वेद-वेदांग का पारंगत विद्वान् बना दिया । अब वह प्रलम्ब बाहु, उन्नत तेजस्वी भाल, विशाल वक्ष, वृषस्कन्ध, पुष्टमांसल पेशियों से शरीर की सात धनुष ऊँचाई वाला पूर्ण युवा हो चुका था । उसके रोम-रोम से तेज और प्रोज टपकने लगे । एक दिन ब्रह्मदत्त कुछ तपस्वियों के साथ कन्द, मूल, फल-फूलादि लेने जंगल में निकल पड़ा । वन में प्रकृति-सौन्दर्य का निरीक्षण करते हुए उसने हाथी Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ] भगवान् श्री श्ररिष्टनेमि के तुरन्त के पद चिह्न देखे | यौवन का मद उस पर छा गया। हाथी को छकाने के लिए उसके भुजदण्ड फड़क उठे । तापसों द्वारा मना किये जाने पर भी हाथी के पदचिह्नों का अनुसरण करता हुआ वह उन तपस्वियों से बहुत दूर निकल गया । अन्ततोगत्वा उसने, अपनी सूंड से एक वृक्ष को उखाड़ते हुए मदोन्मत्त जंगली हाथी को देखा और उससे जा भिड़ा । हाथी क्रोध से चिंघाड़ता हुआ ब्रह्मदत्त पर झपटा । ब्रह्मदत्त ने अपने ऊपर लपकते हुए हाथी के सामने अपना उत्तरीय फेंका और ज्योंही हाथी अपनी सूंड ऊँची किये हुए उस वस्त्र की ओर दौड़ा त्योंही ब्रह्मदत्त अवसर देख उछला और हाथी के दाँतों पर पैर रख पीठ पर सवार हो गया । ४४५ इस प्रकार हाथी से वह बड़ी देर तक क्रीड़ाएँ करता रहा । उसी समय काली मेघ घटाएँ घुमड़ पड़ीं और मूसलाधार वृष्टि होने लगी । वर्षा से भीगता हुआ हाथी चिंघाड़ कर भागा । प्रत्युत्पन्नमति ब्रह्मदत्त एक विशाल वृक्ष की शाखा को पकड़ कर वृक्ष पर चढ़ गया । वर्षा कुछ मन्द पड़ी पर घनी मेघ- घटाओं के कारण दिशाएँ धुंधली हो चुकी थीं । ब्रह्मदत्त वृक्ष से उतर कर आश्रम की ओर बढ़ा, पर दिग्भ्रान्त हो जाने के कारण दूसरे ही वन में निकल गया । इधर-उधर भटकता हुआ वह एक नदी के पास आया । उस नदी को भुजाओं से तैर कर उसने पार किया और नदी तट के पास ही उसने एक उजड़ा हुआ ग्राम देखा । ग्राम में आगे बढ़ते हुए उसने बांसों की एक घनी झाड़ी के पास एक तलवार और ढाल पड़ी देखी । उसकी मांसल भुजाएँ अभी और श्रम करना चाहती थीं। उसने तलवार म्यान से बाहर कर बांसों की झाड़ी को काटना प्रारम्भ किया कि बाँसों की झाड़ी को काटतेकाटते उसने देखा कि उसकी तलवार के वार से कटा एक मनुष्य का मस्तक एवं धड़ उसके सम्मुख तड़फड़ा रहे हैं। उसने ध्यान से देखा तो पता चला कि कोई व्यक्ति बाँस पर उल्टा लटके किसी विद्या की साधना कर रहा था । उसे बड़ी आत्मग्लानि हुई कि उसने व्यर्थ ही साधना करते हुए एक युवक को मार दिया है । पश्चात्ताप करता हुआ ज्योंही वह आगे बढ़ा तो उसने एक रमणीय उद्यान में एक भव्य भवन देखा । कुतूहलवश वह उस भवन की सीढ़ियों पर चढ़ने लगा । ऊपर चढ़ते हुए उसने देखा कि ऊपर के एक सजे हुए कक्ष में कोई अपूर्व सुन्दरी कन्या पलंग पर चिंतित मुद्रा में बैठी है । आश्चर्य करते हुए वह उस 'बाला के पास पहुँचा और पूछने लगा - "सुन्दरी ! तुम कौन हो और इस निर्जन भवन में एकाकिनी शोकमग्न मुद्रा में क्यों बैठी हो ?" Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती अचानक एक तेजस्वी युवक को सम्मुख देखते ही वह अबला भयविह्वल हो गई और भयाक्रान्त जिज्ञासा के स्वर में बोली-"आप कौन हैं ? आपके यहाँ पाने का प्रयोजन क्या है ?" ब्रह्मदत्त ने उसे निर्भय करते हुए कहा-“सुभ्र ! मैं पाँचाल-नरेश ब्रह्म का पुत्र ब्रह्मदत्त हूँ............।" ब्रह्मदत्त अपना वाक्य पूरा भी नहीं कर पाया था कि वह कन्या उसके पैरों में गिर कर कहने लगी- "कुमार ! मैं आपके मामा पुष्पचूल की पुष्पवती नामक पुत्री हूँ, जिसे वाग्दान में आपको दिया गया था। मैं आपसे विवाह की बड़ी ही उत्कण्ठा से प्रतीक्षा कर रही थी कि नाटयोन्मत्त नामक विद्याधर अपने विद्याबल से मेरा हरण कर मुझे यहाँ ले आया । वह दुष्ट मुझे अपने वश में करने के लिए पास ही की बाँसों की झाड़ी में किसी विद्या की साधना कर रहा है । मेरे चिर अभिलषित प्रिय ! अब मैं आपकी शरण में हूँ। आप ही मेरी मझधार में डूबती हुई जीवन-तरणी के कर्णधार हो।" कुमार ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा-"वह विद्याधर अभी-अभी मेरे हाथों अज्ञान में ही मारा गया है । अब मेरी उपस्थिति में तुम्हें किसी प्रकार का भय नहीं है।" __ तदनन्तर ब्रह्मदत्त और पुष्पवती गान्धर्व विधि से विवाह के सूत्र में बँध गये और इस प्रकार चिर-दुःख के पश्चात् फिर सुख के झूले में झूलने लगे। मधु-बिन्दु के समान मधुर सुख की वह एक रात्रि मधुरालाप और प्रणयकेलि में कुछ क्षणों के समान ही बीत गई । फिर प्रिय-वियोग की वेला आ पहुंची। गगन में धनरव के समान घोष को सुन कर पुष्पवती ने कहा-"प्रियतम ! विद्याधर नाट्योन्मत्त की खण्डा और विशाखा नाम की दो बहिनें आ रही हैं। इन अबलाओं से तो कोई भय नहीं, पर अपने प्रिय सहोदर की मृत्यु का समाचार पाये अपने विविध-विद्याओं से सशक्त विद्याधर बन्धों को ले आईं तो अनर्थ हो जायगा । अतः आप थोड़ी देर के लिए छिप जाइये । मैं बातों ही बातों में इन दोनों के अन्तर में आपके प्रति आकर्षण उत्पन्न करने का प्रयास करती हूँ। यदि उनकी क्रोधाग्नि को शान्त होते न देखा तो मैं श्वेत पताका को हिलाकार आपको यहाँ से भाग जाने का संकेत करूंगी और यदि वे मेरे द्वारा वरिणत आपके अलौकिक गरण सौन्दर्यादि पर आसक्त हो गई तो मैं लाल पताका को फहराऊँगी, उस समय आप निश्शंक हो हमारे पास चले आना।" Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ४४७ यह कह कर पुष्पवती उन विद्याधर कन्याओं की अगवानी के लिए चली गई। कुमार एकटक उस ओर देखता रहा । उसने देखा कि संकट की सूचक श्वेत-पताका हिल रही है । ब्रह्मदत्त वहाँ से वन की ओर चल पड़ा। एक विस्तीर्ण सघन वन को पार करने पर उसने स्वच्छ जल से भरे एक बड़े जलाशय को देखा । मार्ग की थकान मिटाने हेतु वह उसमें कूद पड़ा और जी भर जल-क्रीड़ा करने के उपरान्त तैरता हुआ दूसरे तट पर जा पहुँचा । वहाँ उसने पास ही के एक लता-कुञ्ज में फूल चुनती हुई एक अत्यन्त सुकुमार सर्वांग-सुन्दरी कन्या को देखा । ब्रह्मदत्त निनिमेष दृष्टि से उसे देखता ही रह गया क्योंकि उसने इतनी रूपराशि धरातल पर कभी नहीं देखी थी। वह अनुपम सुन्दरी भी तिरछी चितवन से उस पर अमृत वर्षा सी करती हुई मन्दमन्द मुस्कुरा रही थी । ब्रह्मदत्त ने देखा कि वह वनदेवी सी बाला उसी की ओर इंगित करते हए अपनी सखी से कुछ कह रही है। उसने यह भी देखा कि उस पर विस्फारित नेत्रों से एकबारगी ही अमृत की दोहरी धारा बहा कर खुशी से मस्त मयूर सी नाचती हुई वह लता-कुञ्ज में अदृश्य हो गई। उसे पुनः देखने के लिए ब्रह्मदत्त की आँखें बड़ी बेचैनी से उसी लता-कुञ्ज पर न मालूम कितनी देर तक अटकी रहीं, इसका उसे स्वयं को ज्ञान नहीं। एकदम उसके पास ही में हुई नपुर की झंकार से उसकी तन्मयता जब टूटी तो ताम्बल, वस्त्र और आभूषण लिए उस सुन्दरी की दासी को अपने संमुख खड़े पाया। दासी ने कहा-"अभी थोड़ी ही देर पहले आपने जिन्हें देखा था उन राजकुमारीजी ने अपनी इष्ट सिद्धि हेतु ये चीजें आपके पास भेजी हैं और मुझे यह भी आदेश दिया है कि मैं आपको उनके पिताजी के मंत्री के घर पहुंचा दूं।" ब्रह्मदत्त वनों के वनचरों जैसे जीवन से ऊब चुका था, अतः प्रसन्न होते हए वह दासी के पीछे-पीछे चल पड़ा। राजकीय अतिथि के रूप में उसका खूब प्रतिथि-सत्कार हुआ और वहाँ के राजा ने अपनी पुत्री श्रीकान्ता का उसके साथ बड़ी धूमधाम के साथ विवाह कर दिया । ब्रह्मदत्त एक बार फिर दुःखी से सुखी बन गया । वह वहाँ कुछ दिन बड़े आमोद-प्रमोद के साथ आनन्दमय जीवन बिताता रहा। श्रीकान्ता का पिता वसन्तपुर का राजा था, पर गृह-कलह के कारण वह वहाँ से भाग कर चौर-पल्ली का राजा बन गया । वह लट-पाट से अपने कुटुम्ब Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ ब्रह्मदत्त वरधनु ने कहा - " कुमार ! मैं आपके लिए पानी ला रहा था, उस समय मुझे दीर्घ के सैनिकों ने निर्दयता से पीटना प्रारम्भ कर दिया और आपके बारे में पूछने लगे। मैंने रोते हुए कहा कि कुमार को तो सिंह खा गया है । इस पर उन्होंने जब उस स्थान को बताने को कहा तो मैंने उन्हें इधर से उधर भटकाते हुए आपको भाग जाने का संकेत किया । आपके भाग जाने पर मैं आश्वस्त हुआ और मैंने मौन ही साध ली। उन दुष्टों ने मुझे बड़ी निर्दयता से मारा और मैं अधमरा हो गया । मैं असह्य यातना से तिलमिला उठा और मौका पा मैंने उन लोगों की नजर बचा मूच्छित होने की गोली अपने मुंह में रख ली । उस गोली के प्रभाव से मैं निश्चेष्ट हो गया और वे मुझे मरा हुआ समझ हताश हो लौट गये । उनके जाते ही मैंने अपने मुख में से उस गोली को निकाल लिया और आपको इधर-उधर ढूंढ़ने लगा, पर आपका कहीं पता नहीं चला । पिताजी के एक मित्र से पिताजी के भाग निकलने और माता को दीर्घ द्वारा दु:ख दिये जाने का वृत्तान्त सुन कर मैंने माता को काम्पिल्यपुर से किसी न किसी तरह ले ने का दृढ़ संकल्प किया । बड़े नाटकीय ढंग से मैं माता को वहां से ले आया और उसे पिताजी के एक अन्तरंग मित्र के पास छोड़ कर आपको इधर-उधर ढूंढ़ने लगा । अन्त में मैंने आज महान् सुकृत के फल की तरह आपको पा ही लिया ।" ૪૪૬ ब्रह्मदत्त ने भी दीर्घकालीन दुःख के पश्चात् थोड़ी सुख घोर दुःख भरे अपने सुख-दुःख के घटनाचक्र का वृत्तान्त वरधनु को की झलक, सुनाया 1 ब्रह्मदत्त अपनी बात पूरी भी नहीं कह पाया था कि उन्हें दीर्घराज के सैनिकों के बड़े दल के आने की सूचना मिली। वे दोनों अन्धेरे गिरि-गह्वरों की ओर दौड़ पड़े । अनेक विकट वनों और पहाड़ों में भटकते २ वे दोनों कौशाम्बी नगरी पहुँचे । फिर कोशाम्बी के उद्यान में उन्होंने देखा कि उस नगर के सागरदत्त और बुद्धिल नामक दो बड़े श्रेष्ठी एक-एक लाख रुपये दाँव पर लगा अपने कुक्कुटों को लड़ा रहे हैं । दोनों श्रेष्ठियों के कुक्कुटों की बड़ी देर तक मनोरंजक झड़पें होती रहीं पर अन्त में अच्छी जाति का होते हुए भी सागरदत्त का मुर्गा बुद्धिल के मुर्गे से हार कर मैदान छोड़ भागा ! सागरदत्त एक लाख का दाँव हार चुका था । ब्रह्मदत्त को सागरदत्त के अच्छी नस्ल के कुक्कुट की हार से आश्चर्य हुआ । उसने बुद्धिल के कुक्कुट को पकड़ कर अच्छी तरह देखा और उसके पंजों में लगी सूई की तरह तीक्ष्ण लोहे की पतली कीलों को निकाल फेंका । दोनों कुक्कुट पुनः मैदान में उतारे गये, पर इस बार सागरदत्त के कुक्कुट ने बुद्धिल के कुक्कुट को कुछ ही क्षणों में पछाड़ डाला । Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ४४६ हारे हए दाँव को जीत कर सागरदत्त बड़ा प्रसन्न हुमा और कुमार के प्रति आभार प्रकट करते हुए उन दोनों मित्रों को अपने घर ले गया। सागरदत्त ने अपने सहोदर की तरह उन्हें अपने यहाँ रखा। बुद्धिल को बहिन रत्नवती उद्यान में हुए कुक्कुट-युद्ध के समय ब्रह्मदत्त को देखते ही उस पर अनुरक्त हो गई। रत्नवती बड़ी ही चतुर थी। उसने अपने प्रियतम को प्राप्त करने का पूरा प्रयास किया। पहले उसने ब्रह्मदत्त के नाम से अंकित एक कीमती हार अपने सेवक के साथ ब्रह्मदत्त के पास भेजकर उसके मन में तीव्र उत्कण्ठा उत्पन्न करदी और तत्पश्चात् अपनी विश्वस्त वृद्धा परिचारिका के साथ अपनी प्रीति का संदेश भेजा। ब्रह्मदत्त भी रत्नवती के अनुपम रूप एवं गुणों की प्रशंसा सुन उनके पास जाने को व्याकुल हो उठा, पर दीर्घ के अनुरोध पर कौशाम्बी का राजा ब्रह्मदत्त और वरधनु को सारे नगर में खोज करवा रहा था। इस कारण उसे अपने साथी वरधनु के साथ सागरदत्त के तलगृह में छिपे रहना पड़ा। अर्द्धरात्रि के समय ब्रह्मदत्त और वरधनु सागरदत्त के रथ में बैठ कर कौशाम्बी से निकले। नगर के बाहर बड़ी दूर तक उन्हें पहुँचा कर सागरदत्त अपने घर लौट गया । ब्रह्मदत्त और वरधनु आगे की ओर बढ़े। वे थोड़ी ही दर चले होंगे कि उन्होंने एक पूर्णयौवना सुन्दर कन्या को शस्त्रास्त्रों से सजे रथ में बैठे देखा। उस सुन्दरी ने सहज आत्मीयता के स्नेह से सने स्वर में पूछा--"प्राप दोनों को इतनी देर कहाँ हो गई ? मैं तो आपकी बड़ी देर से यहाँ प्रतीक्षा कर रही हूँ।" कुमार ने आश्चर्य से पूछा-"कुमारिके ! हमने तुम्हें पहले कभी नहीं देखा, हम कौन हैं, यह तुम कैसे जानती हो?" रथारूढ़ा कुमारी ने अपना परिचय देते हुए कहा-“कुमार ? मैं बद्धिल की बहिन रत्नवती हूं । मैंने बुद्धिल और सागरदत्त के कुक्कुट-युद्ध में जिस दिन आपके प्रथम दर्शन किये तभी से मैं आपसे मिलने को लालायित थी-अब चिर-अभिलाषा को पूर्ण करने हेतु यहाँ उपस्थित हूं ! इस चिर-विरहिणी अपनी दासी को अपनी सेवा में ग्रहण कर अनुगृहीत कीजिये ।" रत्नवती की बात सुनते ही दोनों मित्र उसके रथ पर बैठ गये। वरधन ने अश्वों की रास सम्हाल ली। ब्रह्मदत्त ने रत्नावती से पूछा- “अब किस ओर चलना होगा ?" Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ब्रह्मदत्त रत्नावती ने कहा-“मगधपुर में मेरे पितृव्य धनावह श्रेष्ठी के घर ।" वरधनु ने रथ को मगधपुरी की ओर बढ़ाया। तरल तुरंगों की वायुवेग सी गति से दौड़ता हा रथ कौशाम्बी की सीमा पार कर भीषण वन में पहुंचा। मार्ग में डाकदल से संघर्ष, वरधन से वियोग आदि संकटों के बाद ब्रह्मदत्त राजगृह में पहुँचा । राजगृह के बाहर तापसाश्रम में रत्नवती को छोड़कर वह नगर में पहुँचा । राजगृह में विद्याधर नाट्योन्मत्त की खण्डा एवं विशाखा नाम को दो विद्याधर कन्याओं के साथ गान्धर्व विवाह सम्पन्न हुआ और दूसरे दिन वह श्रेष्ठी धनावह के घर पहुंचा। धनावह ब्रह्मदत्त को देखकर बड़ा प्रसन्न हुमा पौर उसने रत्नवती के साथ उसका विवाह कर दिया। धनावह ने कन्यादान के साथ-साथ अतुल धन-सम्पत्ति भी ब्रह्मदत्त को दी। ब्रह्मदत्त रत्नवती के साथ बड़े प्रानन्द से राजगृह में रहने लगा, पर अपने प्रिय मित्र वरधनु का वियोग उसके हृदय को शल्य की तरह पीड़ित करता रहा । उसने वरधन को ढंढने में किसी प्रकार को कोर-कसर नहीं रखो, पर हर संभव प्रयास करने पर भी उसका कहीं पता नहीं चला तो ब्रह्मदत्त ने वरधनु को मत समझ कर उसके मृतक-कर्म कर ब्राह्मणों को भोजन के लिये आमन्त्रित किया। सहसा वरधनु भी ब्राह्मणों के बीच आ पहुँचा और बोला-"मुझे जो भोजन खिलाया जायेगा, वह साक्षात् वरधनु को ही प्राप्त होगा। अपने अनन्य सखा को सम्मुख खड़ा देख ब्रह्मदत्त ने उसे अपने बाहपाश में जकड़कर हृदय से लगा लिया और हर्षातिरेक से बोला-"लो! अपने पीछे किये जाने वाले भोजन को खाने के लिये स्वयं वह वरधनु का प्रेत चला पाया है।" सब खिलखिला कर हँस पड़े । शोकपूर्ण वातावरण क्षणभर में ही सुख और आनन्द के वातावरण से परिणत हो गया। ब्रह्मदत्त द्वारा यह पूछने पर कि वह एकाएक रथ पर से कहां गायब होगया ? वरधनु ने कहा-"दस्युमों के युद्धजन्य श्रमातिरेक से आप प्रगाढ़ निद्रा में सो गये । उस समय कुछ लुटेरों ने रथ पर पुनः प्राक्रमण किया । मैंने बाणों की बौछार कर उन्हें भगा दिया, पर वृक्ष की ओट में छपे एक चोर ने मुझ पर निशाना साध कर तीर मारा और में तत्क्षण पृथ्वी पर गिर पड़ा तथा झाड़ियों में छुप गया। चोरों के चले जाने पर झाड़ियों में से रेंगता हुआ धीरे-धीरे उस गांव में आ पहुँचा जहाँ आप ठहरे हुए थे। ग्राम के ठाकुर से आपके कुशल समाचार विदित हो गये और अपने प्रेत-भोजन को ग्रहण करने में स्वयं आपको सेवा में उपस्थित हो गया।" Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ४५१ दोनों मित्र राजगृह में आनन्दपूर्वक रहने लगे, पर अब उन पर काम्पिल्य के राजसिंहासन से दीर्घ को हटाने की धुन सवार हो चुकी थी। __दोनों मित्र एक दिन वसन्त-महोत्सव देखने निकले । सुन्दर वसन्ती परिधान और अमूल्य आभूषण पहने खुशी में झूमती हुई राजगृह की तरुणियां और विविध सुन्दर वस्त्राभूषणों एवं चम्पा-चमेली की सुगन्धित फूलमालाओं से सजे खशी से अठखेलियां करते हुए राजग्रह के तरुण रमणीय उद्यान में मादक मधु-महोत्सव का आनन्द लूट रहे थे। उसी समय राजगृह की राजकीय हस्तिशाला से एक मदोन्मत्त हाथी लौह शृखलामों और हस्ती-स्तम्भ को तोड़कर मद में झूमता हुमा मधु-महोत्सव के उद्यान में प्रा पहुंचा। उपस्थित लोगों में भगदड़ मच गई, त्राहि-त्राहि की पुकारों और कुसुम-कली सी कमनीय सुकुमार तरुरिणयों की भय-त्रस्त चीत्कारों से नन्दन वन सा रम्य उद्यान यमराज का क्रीड़ास्थल बन गया। वह मस्त गजराज एक मधुबाला सो सुन्दर सुगौर बाला की ओर झपटा और उसने उसे अपनी सूड में पकड़ लिया। सब के कलेजे धक् होगये। ब्रह्मदत्त विद्युत् वेग से उछल कर हाथी के सम्मुख सीना तान कर खड़ा हो गया और उसके अन्तस्तल पर तीर की तरह चुभने वाले कर्कश स्वर में उसे ललकारने लगा। हाथी उस कन्या को छोड़ अपनी लम्बी सूड और पूंछ से पाकाश को विलोडित करता हुआ ब्रह्मदत्त की ओर झपटा। हस्ति-युद्ध का मर्मज्ञ कुमार हाथी को इधर-उधर नचाता-कुदाता उसे भुलावे में डालता रहा और फिर बड़ी तेजी से कूदकर हाथी के दांतों पर पैर रखते हुए उसकी पीठ पर जा बैठा। हाथी थोड़ी देर तक चिंघाड़ता हुआ इधर से उधर अन्धाधुन्ध भागता रहा, पर अन्त में कुमार ने हाथी को वश में करने वाले गूढ़ सांकेतिक अद्भुत शब्दों के उच्चारण से उसे वश में कर लिया। वसंतोत्सव में सम्मिलित हुए सभी नर-नारी, जो अब तक श्वास रोके चित्रलिखित से खड़े महामृत्यु का खेल देख रहे थे, हाथी को वश में हुअा जानकर जयघोष करने लगे। तरुणों और तरुरिणयों ने अपने गलों में से फलमालाएं उतार-उतार कर कुमार पर पुष्पवर्षा प्रारम्भ कर दी। उस समय कुमार वसन्ती फूल और फूलमालाओं से लदा इतना मनोहर प्रतीत हो रहा था मानो मधु-महोत्सव की मादकता पर मुग्ध हो मस्ती से झूमता हुआ स्वयं मधुराज ही उस मदोन्मत्त हाथी पर प्रा बैठा हो। Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ब्रह्मदत्त कुमार स्वेच्छानुसार हाथी को हाँकता हुमा हस्तिशाला की ओर अग्रसर हुआ । हजारों हर्षविभोर युवक जयघोष करते हुए उसके पीछे-पीछे चल रहे थे। कुमार ने उस हाथी को हस्तिशाला में ले जाकर स्तम्भ से बांध दिया। गगनभेदी जयघोषों को सुनकर मगधेश्वर भी हस्तिशाला में प्रा पहुँचे । सुकुमार देव के समान सुन्दर कुमार के अलौकिक साहस को देखकर मगधेश्वर अत्यन्त विस्मित हुआ और उसने अपने मन्त्रियों और राज्य सभा के सदस्यों की ओर देखते हुए साश्चर्य जिज्ञासा के स्वर में पूछा- “सूर्य के समान तेजस्वी और शक्र के समान शक्तिशाली यह मनमोहक युवक कौन है ?" नगरश्रेष्ठी धनावह से ब्रह्मदत्त का परिचय पाकर मगधपति बड़ा प्रसन्न हुआ । उसने अपनी पुत्री पुण्यमानी का ब्रह्मदत्त के साथ बड़े हर्षोल्लास, धूमधाम और ठाट-बाट से विवाह कर दिया। राजगृही नगरी कई दिनों तक महोत्सवपुरी बनी रही। राजकीय दामाद के सम्मान में मन्त्रियों, श्रेष्ठियों और गण्य-मान्य नागरिकों की ओर से भव्यभोजों का आयोजन किया गया। जिस कुमारी को वसन्तोत्सव के समय ब्रह्मदत्त ने हाथी से बचाया था, वह राजग्रह के वैश्रवण नामक धनाढ्य श्रेष्ठी की श्रीमती नाम की पुत्री थी। श्रीमती ने उसी दिन प्रण कर लिया था कि जिसने उसे हाथी से बचाया है, उसी से विवाह करेगी अन्यथा जीवनभर अविवाहित रहेगी। ब्रह्मदत्त को जब श्रीमती पर माँ से भी अधिक स्नेह रखने वाली एक वृद्धा से श्रीमती के प्रण का पता चला तो उसने विवाह की स्वीकृति दे दी। वैश्रवण श्रेष्ठी ने बड़े समारोहपूर्वक अपनी कन्या श्रीमती का ब्रह्मदत्त के साथ पाणिग्रहण करा दिया। मगधेश के मन्त्री सुबुद्धि ने भी अपनी पुत्री नन्दा का वरधनु के साथ विवाह कर दिया। थोड़े ही दिनों में ब्रह्मदत्त की यशोगाथाएं भारत के घर-घर में गाई जाने लगीं। कुछ दिन राजगृह में ठहर कर ब्रह्मदत्त और वरधनु युद्ध के लिये तैयारी करने हेतु वाराणसी पहुंचे। _वाराणसी-नरेश ने जब अपने प्रिय मित्र ब्रह्म के पुत्र ब्रह्मदत्त के प्रागमन का समाचार सुना तो वह प्रेम से पुलकित हो उसका स्वागत करने के लिये स्वयं ब्रह्मदत्त के सम्मुख आया और बड़े सम्मान के साथ उसे अपने राज-प्रासाद में ले गया। Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५३ चक्रवर्ती] भगवान् श्री अरिष्टनेमि वाराणसी-पति कटक ने अपनी कन्या कटकवती का ब्रह्मदत्त के साथ विवाह कर दिया और दहेज में अपनी शक्तिशालिनी चतुरंगिणी सेना दी। ब्रह्मदत्त के वाराणसी आगमन का समाचार सुनकर हस्तिनापुर के नृपति कणेरुदत्त, चम्पानरेश पुष्पचूलक, प्रधानामात्य धनु और भगदत्त आदि अनेक राजा अपनी-अपनी सेनामों के साथ वाराणसी नगरी में आगये। सभी सेनाओं को सुसंगठित कर वरधन को सेनापति के पद पर नियुक्त किया और ब्रह्मदत्त ने दीर्घ पर आक्रमण करने के लिये सेना के साथ काम्पिल्यपुर की ओर प्रयारण किया। दीर्घ ने सैनिक अभियान का समाचार सुनकर वाराणसी-नरेश कटक के पास दूत भेजा और कहलाया कि वे दीर्घ के साथ अपनी बाल्यावस्था से चली आई अटूट मैत्री न तोड़ें। भूपति कटक ने उस दूत के साथ दीर्घ को कहलवाया-"हम पाँचों मित्रों में सहोदरों के समान प्रेम था। स्वर्गीय काम्पिल्येश्वर ब्रह्म का पुत्र और राज्य तुम्हें धरोहर के रूप में रक्षार्थ सौंपे गये थे । सौंपी हुई वस्तु को डाकिनी भी नहीं खाती, पर दीर्घ तुमने जैसा घरिणत और क्षुद्र पापाचरण किया है, वैसा तो अधम से अधम चांडाल भी नहीं कर सकता । अतः तेरा काल बनकर ब्रह्मदत्त पा रहा है, युद्ध या पलायन में से एक कार्य चुन लो।" । दीर्घ भी बड़ी शक्तिशाली सेना ले ब्रह्मदत्त के साथ युद्ध करने के लिये रणक्षेत्र में प्रा डटा। दोनों सेनामों के बीच भयंकर युद्ध हुप्रा । दीर्घ की उस समय के रणनीति-कुशल शक्तिशाली योद्धाओं में गणना की जाती थी। उसने ब्रह्मदत्त और उसके सहायकों की सेनाओं को अपने भीषण प्रहारों से प्रारम्भ में छिन्न-भिन्न कर दिया। अपनी सेनाओं को भय-विह्वल देख ब्रह्मदत्त क्रुद्ध हो कृतान्त की तरह दीर्घ की सेना पर भीषण शस्त्रास्त्रों से प्रहार करने लगा। ब्रह्मदत्त के असह्य पराक्रम के सम्मुख दीर्घ की सेना भाग खड़ी हुई । ब्रह्मदत्त ने दण्डनीति के साथ-साथ भेदनीति से भी काम लिया और दीर्घ के अनेक योद्धाओं को अपनी ओर मिला लिया। __ अन्त में दीर्घ और ब्रह्मदत्त का द्वन्द्व-युद्ध हुमा। दोनों एक-दूसरे पर घातक से घातक शस्त्रास्त्रों के प्रहार करते हुए बड़ी देर तक द्वन्द्व-युद्ध करते रहे, पर जय-पराजय का कोई निर्णय नहीं हो सका। दोनों ने एक-दूसरे के अमोघास्त्रों को अपने पास पहुंचने से पहले ही काट डाला । दोनों योद्धा एक-दूसरे के लिये अजेय थे। एक पतित पुरुषाधम में भी इतना पौरुष और पराक्रम होता है, यह दीर्घ के अद्भुत युद्ध-कौशल को देखकर दोनों मोर की सेनाओं के योद्धामों को प्रथम Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ब्रह्मदत्त बार अनुभव हुआ। दोनों ओर के सैनिक चित्रलिखित से खड़े दोनों विकट योद्धाओं का द्वन्द्व-युद्ध देख रहे थे। दर्शकों को सहसा यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि आषाढ़ की घनघोर मेघ-घटाओं के समान गम्भीर ध्वनि करता हुआ,. प्रलयकालीन अनल की तरह जाज्वल्यमान ज्वालाओं को उगलता हुआ, भीषण उल्कापात-का-सा दृश्य प्रस्तुत करता हा, अपनी अदष्टपूर्व तेज चमक से सबकी आँखों को चकाचौंध करता हुमा एक चक्ररत्न अचानक प्रकट हुआ और ब्रह्मदत्त की तीन प्रदक्षिणा कर उसके दक्षिण पार्श्व में मुण्ड हस्त मात्र की दूरी पर प्रकाश में अधर स्थित हो गया। ब्रह्मदत्त ने अपने दाहिने हाथ की तर्जनी पर चक्र को धारण कर घुमाया और उसे दीर्घ की ओर प्रेषित किया । क्षण भर में ही परिणत पापाचरणों और भीषण षड्यन्त्रों का उत्पत्तिकेन्द्र दीर्घ का मस्तक उसके कालिमा-कलुषित धड़ से चक्र द्वारा अलग किया जाकर पृथ्वी पर लुढ़क गया। पापाचार की पराजय और सत्य की विजय से प्रसन्न हो सेनाओं ने जयघोषों से दिशाओं को कंपित कर दिया। बड़े समारोहपूर्वक ब्रह्मदत्त ने काम्पिल्यपुर में प्रवेश किया। चुलनी अपने पतित पापाचार के लिए पश्चात्ताप करती हुई ब्रह्मदत्त के नगर-प्रवेश से पूर्व ही प्रव्रजित हो अन्यत्र विहार कर गई । प्रजाजनों और मित्र-राजाओं ने बड़े ही आनन्दोल्लास और समारोह के साथ ब्रह्मदत्त का राज्याभिषेक महोत्सव सम्पन्न किया। इस तरह ब्रह्मदत्त निरन्तर सोलह वर्ष तक कभी विभिन्न भयानक जंगलों में भूख-प्यास आदि के दुःख भोगता हुआ और कभी भव्य-प्रासादों में सुन्दर रमणी-रत्नों के साथ आनन्दोपभोग करता हुआ अपने प्राणों की रक्षा के लिए पृथ्वी-मण्डल पर घूमता रह कर अन्त में भीषण संघर्षों के पश्चात् अपने पैतृक राज्य का अधिकारी हुआ। काम्पिल्यपुर के राज्य सिंहासन पर बैठते ही उसने बन्धुमती, पुष्पवती, श्रीकान्ता, खण्डा, विशाखा, रत्नवली, पुण्यमानी, श्रीमती और कटकवती इन नवों ही अपनी पत्नियों को उनके पितगहों से बला लिया। ब्रह्मदत्त छप्पन्न वर्षों तक माण्डलिक राजा के पद पर रहकर राज्य-सूखों का उपभोग करता रहा और तदनन्तर बहुत बड़ी सेना लेकर भारत के छह Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ४१५ खण्डों की विजय के लिए निकल पड़ा । सम्पूर्ण भारत खण्ड की विजय के अभियान में उसने सोलह वर्ष तक अनेक लड़ाइयां लड़ी और भीषण संघर्षों के बाद वह सम्पूर्ण भारत पर अपनी विजय-वैजयन्ती फहरा कर काम्पिल्यपुर लौटा। - वह चौदह रत्नों, नवनिधियों और चक्रवर्ती की सब समृद्धियों का स्वामी बन गया। नवनिधियों से चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त को सब प्रकार की यथेप्सित भोग सामग्री इच्छा करते ही उपलब्ध हो जाती थी। देवेन्द्र में समान सांसारिक भोगों का उपभोग करते हुए बड़े प्रानन्द के साथ उसका समय व्यतीत हो रहा था। एक दिन ब्रह्मदत्त अपनी रानियों, परिजनों एवं मंत्रियों से घिरा हुआ अपने रंगभवन में बैठा मधुर संगीत और मनोहारी नाटकों से मनोरंजन कर रहा था । उस समय एक दासी ने ब्रह्मदत्त की सेवा में एक बहुत ही मनोहर पूष्प-स्तवक प्रस्तुत किया, जिस पर सुगन्धित फूलों से हंस, मग, मयूर, सारस, कोकिल आदि की बड़ी सुन्दर और सजीव प्राकृतियां गफित की हई थीं। उच्चकोटि की कलाकृति के प्रतीक परम मनोहारी उस पुष्प-कन्दुक को विस्मय और कौतुक से देखते-देखते ब्रह्मदत्त के हृदय में धुधली सी स्मृति जागृत हुई कि इस तरह अलौकिक कलापूर्ण पुष्प-स्तवक पर अंकित नाटक उसने कहीं देखे हैं। ऊहापोह, एकाग्र चिन्तन, ज्ञानावरण कर्म के उपशम और स्मति पर अधिक जोर देने से उसके स्मृति-पटल पर सौधर्मकल्प में पद्मगुल्म विमान के देव का अपना पूर्व-भव स्पष्टतः अंकित हो गया। उसे उसी समय जाति-स्मरण ज्ञान हो गया और अपने पूर्व के पांच भव यथावत् दिखने लगे। ब्रह्मदत्त तत्क्षण मूच्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ा। यह देख साम्राज्ञियों, अमात्यों और आत्मीयों पर मानों वज्रपात सा हो गया । विविध शीतलोपचारों से बड़ी देर में ब्रह्मदत्त की मूर्छा टूटी, पर अपने पूर्व भवों को याद कर वह बार-बार मूच्छित हो जाता । प्रात्मीयों द्वारा मूच्र्छा का कारण बार-बार पूछने पर भी उसने अपने पूर्व भवों की स्मृति का रहस्य प्रकट नहीं किया और यही कहता रहा कि यों ही पित्तप्रकोप से मूर्छा आ जाती है। ब्रह्मदत्त एकान्त में निरन्तर यही सोचता रहा कि वह अपने पूर्व भवों के सहोदर से कहाँ, कब और कैसे मिल सकता है। अन्त में एक उपाय उसके मस्तिष्क में पाया । उसने अपने विशाल साम्राज्य के प्रत्येक गाँव और नगर में घोषणा करवा दी कि जो इस गाथाद्वय के चतुर्थ पद की पूर्ति कर देगा उसे वह अपना आधा राज्य दे देगा । वे गाथाएं इस प्रकार थीं : Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ब्रह्मदत्त दासा दसण्णए पासी, मिया कालिंजरे णगे । हंस मयंग तीराए, सोवागा कासिभुमिए । देवा य देवलोयम्मि, आसि अम्हे महिड्ढिया । आधे राज्य की प्राप्ति की आशा में प्रत्येक व्यक्ति ने इस समस्या-पति का पूरा प्रयास किया और यह डेढ़ गाथा जन-जन की जिह्वा पर मुखरित हो गई। __ एक दिन चित्त नामक एक महान तपस्वी श्रमण ग्राम नगरादि में विचरण करते हुए काम्पिल्यनगर के मनोरम उद्यान में पाये और एकान्त में कायोत्सर्ग कर ध्यानावस्थित हो गये । अपने कार्य में व्यस्त उस उद्यान का माली उपर्युक्त तीन पंक्तियां बार-बार गुनगुनाने लगा। माली के कंठ से इस डेढ़ गाथा को सुन कर चित्त मुनि के मन में भी संकल्प-विकल्प व ऊहापोह उत्पन्न हुआ और उन्हें भी जातिस्मरण ज्ञान हो गया। वे भी अपने पूर्व-जन्म के पांच भवों को अच्छी तरह से देखने लगे । उन्होंने समस्या-पूर्ति करते हुए मालाकार को निम्नलिखित प्राधी गाथा कण्ठस्थ करवा दी : इमा णो छट्ठिया जाई, अण्णमण्णेहिं जा विणा । माली ने इसे कंठस्थ कर खुशी-खुशी ब्रह्मदत्त के समक्ष जाकर समस्यापूर्ति कर दोनों गाथाएं पूरी सुना दी। सुनते ही राजा पुनः भूच्छित हो गया। यह देख ब्रह्मदत्त के अंगरक्षक यह समझकर कि इस माली के इन कठोर वचनों के कारण राजाधिराज मूच्छित हुए हैं, उस माली को पीटने लगे। राज्य पाने की आशा से आया हा माली ताड़ना पाकर स्तब्ध रह गया और बार-बार कहने लगा- "मैं निरपराध हूं, मैंने यह कविता नहीं बनाई है। मुझे तो उद्यान में ठहरे हुए एक मुनि ने सिखाई है।" थोड़ी ही देर में शीतलोपचारों से ब्रह्मदत्त पुनः स्वस्थ हुआ । उसने राजपुरुषों को शान्त करते हुए माली से पूछा-"भाई ! क्या यह चौथा पद तुमने बनाया है ?" माली ने कहा-"नहीं पृथ्वीनाथ ! यह रचना मेरी नहीं। उद्यान में आये हुए एक तपस्वी मुनि ने यह समस्या-पूर्ति की है।" ब्रह्मदत्त ने प्रसन्न हो मुकुट के अतिरिक्त अपने सब आभूषण उद्यानपाल को पारितोषिक के रूप में दे दिये और अपने अन्तःपुर एवं पूर्ण ऐश्वर्य के साथ वह मनोरम उद्यान पहुंचा। चित्त मुनि को देखते हो ब्रह्मदत्त ने उनके चरणों पर मुकुट-मरिणयों से प्रकाशमान अपना मस्तक झुका दिया। उसके साथ ही Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ४५७ साम्राज्ञियों, सामन्तों आदि के लाखों मस्तक भी झुक गये । पूर्व के अपने पांचों भवों का भ्रातृस्नेह ब्रह्मदत्त के हृदय में हिलोरें लेने लगा। उसकी आँखों से अविरल अश्रुधाराएं बहने लगीं। पूर्व स्नेह को याद कर वह फूट-फूटकर रोने लगा। मुनि के अतिरिक्त सभी के विस्फारित नेत्र सजल हो गये । राजमहिषी पूष्पवती ने साश्चर्य ब्रह्मदत्त से पूछा-"प्राणनाथ ! चक्रवर्ती सम्राट होकर आज आप सामान्य जन की तरह करुण विलाप क्यों कर रहें हैं ?" ब्रह्मदत्त ने कहा-“महादेवि ! यह महामुनि मेरे भाई हैं।" पुष्पवती ने साश्चर्य प्रश्न किया-"यह किस तरह महाराज ?" ब्रह्मदत्त ने गद्गद स्वर में कहा-“यह तो मुनिवर के मुखारविन्द से ही सुनो।" साम्राज्ञियों के विनय भरे अनुरोध पर मुनि चित्त ने कहना प्रारम्भ किया-"इस संसार-चक्र में प्रत्येक प्राणी कुम्भकार के चक्र पर चढ़े हुए मृपिण्ड की तरह जन्म, जरा और मरण के अनवरत क्रम से अनेक प्रकार के रूप धारण करता हुआ अनादिकाल से परिभ्रमण कर रहा है । प्रत्येक प्राणी अन्य प्राणी से माता, पिता, पुत्र, सहोदर, पति, पत्नी आदि स्नेहपूर्ण सम्बन्धों से बंधकर अनन्त बार बिछुड़ चुका है ।" ___ "संक्षेप में यही कहना पर्याप्त होगा कि यह संसार वास्तव में संयोगवियोग, सुख-दुःख और हर्ष-विषाद का संगमस्थल है। स्वयं अपने ही बनाये हुए कर्मजाल में मकड़ी की तरह फँसा हा प्रत्येक प्राणी छटपटा रहा है । कर्मवश नट की तरह विविध रूप बनाकर भव-भ्रमण में भटकते हुए प्राणी के अन्य प्राणियों के साथ इन विनाशशील पिता, पुत्र, भाई आदि सम्बन्धों का कोई पारावार ही नहीं है।" ___ "हम दोनों भी पिछले पाँच भवों में सहोदर रहे हैं। पहले भव में श्रीदह ग्राम के शाण्डिल्यायन ब्राह्मण की जसमती नामक दासी के गर्भ से हम दोनों दास के रूप में उत्पन्न हुए। वह ब्राह्मण हम दोनों भाइयों से दिन भर कसकर श्रम करवाता । एक दिन उस ब्राह्मण ने कहा कि यदि कृषि की उपज अच्छी हुई तो वह हम दोनों का विवाह कर देगा। इस प्रलोभन से हम दोनों भाई और भी अधिक कठोर परिश्रम से बिना भूख-प्यास आदि की चिन्ता किये रात-दिन जी तोड़ कर काम करने लगे।" “एक दिन शीतकाल में हम दोनों भाई खेत में कार्य कर रहे थे कि अचानक आकाश काली मेघ-घटाओं से छा गया और मूसलाधार पानी बरसने Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ ब्रह्मदत्त लगा। ठंड से ठिठुरते हुए हम दोनों भाई खेत में ही एक विशाल वटवृक्ष के तने के पास बैठ गये । वर्षा थमने का नाम नहीं ले रही थी और चारों ओर जल ही जल दृष्टिगोचर हो रहा था । क्रमशः सूर्यास्त हुआ और चारों ओर घोर अन्धकार ने अपना एकछत्र साम्राज्य फैला दिया । दिन भर के कठिन श्रम से हमारा - रोमरोम दर्द कर रहा था, भूख बुरी तरह सता रही थी, उस पर शीतकालीन वर्षा की तीर-सी चुभने वाली शीत लहरों से ठिठुरे हुए हम दोनों भाइयों के दाँत बोलने लगे ।" " वटवृक्ष के कोटर में सो जाने की इच्छा से हमने अन्धेरे में इधर-उधर टटोलना प्रारम्भ किया तो भयंकर विषधर ने हम दोनों को डस लिया । हम दोनों भाई एक-दूसरे से सटे हुए कीट-पतंग की तरह कराल काल के ग्रास बन गये ।" " तदनन्तर हम दोनों कालिंजर पर्वत पर एक हरिणी के गर्भ से हरिण - युगल के रूप में उत्पन्न हुए । क्रमशः हम युवा हुए और दोनों भाई अपनी माँ के साथ वन में चौकड़ियाँ भरते हुए इधर से उधर विचरण करने लगे । एक दिन हम दोनों प्यास से व्याकुल हो वेत्रवती नदी के तट पर अपनी प्यास बुझाने गये । पानी में मुँह भी नहीं दे पाये थे कि हम दोनों को निशाना बनाकर एक शिकारी ने एक ही तीर से बींध दिया। कुछ क्षण छटपटाकर हम दोनों पञ्चत्व को प्राप्त हुए ।" । "उसके पश्चात् हम दोनों मयंग नदी के तट पर स्थित सरोवर में एक हंसिनी के उदर से हंस - युगल के रूप में उत्पन्न हुए और सरोवर में क्रीड़ा करते हुए हम युवा हुए। वहाँ पर भी एक पारधी ने हम दोनों को एक साथ जाल में फँसा लिया और गर्दन तोड़-मरोड़ कर हमें मार डाला ।" "हंसों की योनि के पश्चात् हम दोनों काशी जनपद के वाराणसी नगर के बड़े समृद्धिशाली भूतदिन्न नामक चाण्डाल की पत्नी अह्निका ( अरहिया ) के गर्भ से युगल सहोदर के रूप में उत्पन्न हुए । मेरा नाम चित्र और इन ( ब्रह्मदत्त) का नाम संभूत रखा गया । बड़े लाड़-प्यार से हम दोनों भाइयों का लालन-पालन किया गया । जिस समय हम ८ वर्ष के हुए, उस समय काशीपति अमितवाहन ने अपने नमूची' नामक पुरोहित को किसी अपराध के कारण मौत के घाट उतारने के लिए गुप्त रूप से हमारे पिता को सौंपा ।" १ चउवन महापुरिस चरियं में पुरोहित का नाम 'सच्च' दिया हुआ है । [ पृष्ठ २१५] Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ चक्रवर्ती ] भगवान् श्री अरिष्टनेमि हमारे पिता ने पुरोहित नमूची से कहा - "यदि तुम मेरे इन दोनों पुत्रों को सम्पूर्ण कलाओं में निष्णात करना स्वीकार कर लो तो मैं तुम्हें गृहतल में प्रच्छन्न रूप से सुरक्षित रखूंगा । अन्यथा तुम्हारे प्राण किसी भी दशा में नहीं बच सकते । " "अपने प्राणों के रक्षार्थ पुरोहित ने हमारे पिता की शर्त स्वीकार कर ली और वह हमें पढ़ाने लगा ।" "हमारी माता पुरोहित के स्नान, पान भोजनादि की स्वयं व्यवस्था करती थी । कुछ ही समय में पुरोहित और हमारी माता एक दूसरे पर ग्रासक्त हो विषय-वासना के शिकार हो गये । हम दोनों भाइयों ने विद्या अध्ययन के लोभ में यह सब जानते हुए भी अपने पिता को उन दोनों के अनुचित सम्बन्ध के विषय में सूचना नहीं दी । निरन्तर अध्ययन कर हम दोनों भाई सब कलानों में निष्णात हो गये ।” "अन्त में एक दिन हमारे पिता को पुरोहित और हमारी माता के पापाचरण का पता चल गया और उन्होंने पुरोहितजी को मार डालने का निश्चय कर लिया, पर हम दोनों ने अपने उस उपाध्याय को चुपके से वहाँ से भगा दिया । वह पुरोहित भाग कर हस्तिनापुर चला गया और वहाँ सनत्कुमार चक्रवर्ती का मंत्री बन गया ।" "हम दोनों भाई वाराणसी के बाजारों, चौराहों और गलीकू चों में लयताल पर मधुर संगीत गाते हुए स्वेच्छापूर्वक घूमने लगे । हमारी सुमधुर स्वरलहरियों से पुर जन विशेषतः रमणियां आकृष्ट हो मन्त्रमुग्ध सी दौड़ी चली आतीं। यह देख वाराणसी के प्रमुख नागरिकों ने काशीनरेश से कह कर हम दोनों भाइयों का नगर प्रवेश निषिद्ध करवा दिया । हम दोनों भाइयों ने मन मसोस कर नगर में जाना बन्द कर दिया ।" " एक दिन वाराणसी नगर में कौमुदी - महोत्सव था । सारा नगर हॅमीखुशी के मादक वातावरण में झूम उठा। हम दोनों भाई भी महोत्सव का आनन्द लूटने के लोभ का संवरण नहीं कर सके और लोगों की दृष्टि से छिपते हुए शहर में घुस पड़े तथा हम दोनों ने नगर में घुस कर महोत्सव के मनोरम दृश्य देखे ।" " एक जगह संगीत - मण्डली का संगीत हो रहा था । हठात् हम दोनों भाइयों के कण्ठों से अज्ञात में ही स्वरलहरियां निकल पड़ीं। जिस-जिस के कर्णरन्धों में हमारी मधुर संगीत ध्वनि पहुँची वही मन्त्रमुग्ध सा हमारी ओर आकृष्ट हो दौड़ पड़ा । हम दोनों भाई तन्मय हो गा रहे थे । हमारे चारों ओर Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० ___ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ब्रह्मदत . हजारों नर-नारी एकत्रित हो गये और हमारा मनमोहक संगीत सुनने लगे। __"सहसा भीड़ में से किसी ने पुकार कर कहा-अरे ! ये तो वही चाण्डाल के छोकरे हैं, जिनका राजाज्ञा से नगर-प्रवेश निषिद्ध है।" "बस, फिर क्या था, हम दोनों भाइयों पर थप्पड़ों, लातों, मक्कों और भागने पर लाठियों व पत्थरों की वर्षा होने लगी। हम दोनों अपने प्राणों की रक्षा के लिए प्राण-प्रण से भाग रहे थे और नागरिकों की भीड़ हमारे पीछे भागती हई हम पर पत्थरों की इस तरह वर्षा कर रही थी मानों हम मानववेषधारी पागल कुत्ते हों।" ___ "हम दोनों नागरिकों द्वारा कूटते-पिटते शहर के बाहर आ गये। तब कहीं क्रुद्ध जनसमूह ने हमारा पीछा छोड़ा। फिर भी हम जंगल की ओर बेतहाशा भागे जा रहे थे । अन्त में हम एक निर्जन स्थान में रुके और यह सोचकर कि ऐसे तिरस्कृत पशुतुल्य जीवन से तो मर जाना अच्छा है, हम दोनों भाइयों ने पर्वत से गिर कर आत्महत्या करने का निश्चय कर लिया।" "आत्महत्या का दृढ़ निश्चय कर हम दोनों भाई एक विशाल पर्वत के उच्चतम शिखर की ओर चढ़ने लगे। पर्वत शिखर पर चढ़ कर हमने देखा कि एक मुनि शान्त मुद्रा में ध्यानस्थ खड़े हैं । मूनि के दर्शन करते ही हम दोनों ने शान्ति का अनुभव किया। हम मुनि के पास गये और उनके चरणों पर गिर पड़ें।" ___तपस्वी ने थोड़ी ही देर में ध्यान समाप्त होने पर आँखें खोली और हमें पूछा-"तुम कौन हो और इस गिरिशिखर पर किस प्रयोजन से पाये हो?" ____ "हमने अपना सारा वृत्तान्त यथावत् सुनाते हुए कहा कि इस जीवन से ऊबे हुए हम पर्वतशिखर से कूद कर आत्महत्या करने के लिये यहाँ आये हैं।" "इस पर करुणार्द्र मुनि ने कहा- "इस प्रकार आत्महत्या करने से तो तुम्हारे ये पार्थिव शरीर ही नष्ट होंगे। दुःखमय जीवन के मूल कारण जो तुम्हारे जन्मान्तरों के अजित कर्म हैं, वे तो ज्यों के त्यों विद्यमान रहेंगे। शरीर का त्याग ही करना चाहते हो तो सुरलोक और मुक्ति का सुख देने वाले तपश्चरण से अपने शरीर का पूरा लाभ उठा कर फिर शरीर-त्याग करो। तपस्या की प्राग में तुम्हारे पूर्व-संचित अशुभ कर्म तो जल कर भस्म होंगे ही, पर इसके साथ-साथ शुभ-कर्मों को भी तुम उपाजित कर सकोगे।" "मुनि का हितपूर्ण उपदेश हमें बड़ा ही यक्तिसंगत तथा रुचिकर लगा और हम दोनों भाइयों ने तत्क्षण उनके पास मुनि धर्म स्वीकार कर लिया। Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती भगवान् श्री मरिष्टनेमि ४६१ दयालु मुनि ने मोक्षमार्ग के मूल सिद्धान्तों का हमें अध्ययन कराया। हमने षष्टम-अष्टम भक्त, मासक्षमण प्रादि तपस्याएं कर अपने शरीर को सुखा डाला।" "विभिन्न क्षेत्रों में विचरण करते हुए हम दोनों एक दिन हस्तिनापुर पहुंचे पौर नगर के बाहर एक उद्यान में कठोर तपश्चरण करने लगे।" __ "एकदा मास-क्षमण के पारण के दिन संभूत मुनि भिक्षार्थ हस्तिनापुर नगर में गये। राजपथ पर नमूची ने संभूत मुनि को पहिचान लिया और यह सोच कर कि यह कहीं मेरे पापाचरण का भण्डाफोड़ न कर दे, मुनि को नगर से बाहर ढकेलने के लिए राजपुरुषों को आदेश दिया। नमूची का आदेश पाकर राजपुरुष घोर तपश्चरण से क्षीणकाय संभूत ऋषि पर तत्काल टूट पड़े और उन्हें निर्दयतापूर्वक पीटने लगे।' मनि शान्तभाव से उद्यान की ओर लौट पड़े। इस पर भी जब नमूची के सेवकों ने पीटना बन्द नहीं किया तो मुनि क्रुद्ध हो गये। उनके मुख से भीषण आग की लपटें उगलती हुई तेजोलेश्या प्रकट हुई। बिजली की चमक के समान चकाचौंध कर देने वाली अग्निज्वालाओं से सम्पूर्ण गगनमण्डल लाल हो गया ।२ सारे नगर में 'त्राहि-त्राहि' मच गई। झुण्ड के झुण्ड भयभीत नगरनिवासी आकर मुनि के चरणों में मस्तक झुका कर उन्हें शान्त होने की प्रार्थना करने लगे। पर मुनि का कोप शान्त नहीं हुमा। तेजोलेश्या को ज्वालाएं भीषण रूप धारण करने लगीं।" "सारे नभमण्डल को अग्निज्वालाओं से प्रदीप्त देख कर मैं भी घटनास्थल पर पहुंचा और मैंने शोघ्र ही अपने भाई को शान्त किया।" पश्चात्ताप के स्वर में संभूत ने कहा-"प्रोफ! मैंने बहुत बुरा किया और वे मेरे पीछे-पीछे चल दिये। क्षण भर में ही अग्निज्वालाएं तिरोहित हो गईं।" १ चउप्पन्न महापुरिस परियं में स्वयं पुरोहित द्वारा मुनि को पीटने का उल्लेख है। यषा.......""पुरोहियेण । 'प्रमंगलं' ति कलिऊरण दहं कसप्पहारेण ताड़ियो। [पृष्ठ २१६] २ तेजोलेश्योल्ललासाथ, ज्वालापटलमालिनी। तउिन्मण्डलसंकीर्णामिव धामभितन्वती ॥७२।। [विषष्टि शलाका पु. च., पर्व ६, सर्ग १] ३ 'अहो दुक्कयं कयं' ति भणतो उष्टिमो तप्पएसामो। [चउप्पन्न म. पुरिस च, पृ० २१६] Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ ब्रह्मदत्त "हम दोनों भाई उद्यान में लौटे और हमने विचार किया- इस नश्वर शरीर के पोषण हेतु हमें भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है । हम निरीह-निर्मोही साधुनों को आहार एवं इस शरीर से क्या प्रयोजन है ? ऐसा विचार कर हम दोनों भाइयों ने संलेखना कर चारों प्रकार के आहार का जीवन भर के लिए परित्याग कर दिया । " ४६२ "उधर चक्रवर्ती सनत्कुमार ने अपराधी का पता लगाने के लिए अपने अधिकारियों को आदेश देते हुए कहा- "मेरे राज्य में मुनि को कष्ट देने का किसने दुस्साहस किया ? इसी समय उसे मेरे सम्मुख प्रस्तुत किया जाय ।" " तत्क्षण नमूची अपराधी के रूप से प्रस्तुत किया गया । " " सनत्कुमार ने कुद्ध हो कर्कश स्वर में कहा - "जो साधुत्रों की सत्कारसम्मानादि से पूजा नहीं करता वह भी मेरे राज्य में दण्डनीय है, इस दुष्ट ने तो महात्मा को ताड़ना देकर बड़ा कष्ट पहुँचाया है। इसे चोर की तरह रस्सों से बांध कर सारे नगर में घुमाया जाय और मेरी उपस्थिति में मुनियों के समक्ष प्रस्तुत किया जाय । मैं इसे कठोर से कठोर दण्ड दूंगा ताकि भविष्य में कोई भी इस प्रकार का धर्मपूर्ण साहस न कर सके ।” "नमूची को रस्सों से बाँध कर सारे नगर में घुमाया गया । सनत्कुमार अपने अनुपम ऐश्वर्य के साथ हमारे पास श्राया और रस्सों से बँधे हुए नमूची को हमें दिखाते हुए बोला- “ पूज्यवर ! आपका यह अपराधी प्रस्तुत है । श्राज्ञा दीजिये, इसे क्या दण्ड दिया जाय ?” "हमने चक्रवर्ती को उसे मुक्त कर देने को कहा । तदनुसार सनत्कुमार ने भी उसे तत्काल मुक्त कर अपने नगर से बाहर निकलवा दिया ।" "उसी समय सनत्कुमार की चौंसठ हजार राजमहीषियों के साथ पट्टमहिषी सुनन्दा हमें वन्दन करने के लिए आई ।' मुनि संभूत के चरणों में नमस्कार करते समय स्त्री-रत्न सुनन्दा के भौंरों के समान काले-घुंघराले, सुगन्धित लम्बे बालों की सुन्दर लटी का संभूत के चरणों से स्पर्श हो गया । विधिवत् वन्दन के पश्चात् चक्रवर्ती अपने समस्त परिवार सहित लौट गया ।" १ चउप्पन्न महापुरिस चरियं में किसी दूसरे मुनि को, जो उस उद्यान में ठहरे हुए थे, चक्रवर्ती की रानियों का वन्दन हेतु श्राने का उल्लेख है । [ पृष्ठ २१६] २ तस्याश्चालकसंस्पर्श, संभूतमुनिरन्वभूत् । रोमांचितश्च सद्योऽभूच्छलान्वेषी हि मन्मथः ॥६।। [ त्रिषष्टि श. पु. च. पर्व ६, सर्ग १] Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती] भगवान् श्री मरिष्टनेमि ४६३ "हम दोनों साधु समाधिपूर्वक साथ-साथ ही अपनी प्रायु पूर्ण कर सौधर्म कल्प के नलिनी गुल्म (पपगुल्म) नामक विमान में देव हुए। वहाँ हम दोनों दिव्य सुखों का उपभोग करते रहे। देव प्रायु पूर्ण होने पर मैं पुरिमताल नगर । के महान समद्धिशाली गणपुञ्ज नामक श्रेष्ठी की पत्नी नन्दा के गर्भ से उत्पन्न हुप्रा और युवा होने पर भी विषय-सुखों में नहीं उलझा तथा एक मुनि के पास धर्मोपदेश सुनकर प्रवजित हो गया। संयम का पालन करते हुए अनेक क्षेत्रों में विचरण करता हुमा मैं इस उद्यान में आया और उद्यान-पालक के मुख से ये गाथाएं सुनकर मुझे जाति-स्मरण ज्ञान हो गया। इस छठे जन्म में हम दोनों भाइयों का वियोग किस कारण से हुमा, इसका मुझे पता नहीं।' यह सुनकर सब श्रोता स्तब्ध रह गये और साश्चर्य विस्फारित नेत्रों से कभी मुनिवर की ओर एवं कभी ब्रह्मदत्त की ओर देखने लगे। ब्रह्मदत्त ने कहा-"महामुने ! इस जन्म में हम दोनों भाइयों के बिछुड़ जाने का कारण मुझे मालूम है । चक्रवर्ती सनत्कुमार के अद्भुत ऐश्वर्य और उसके सुनन्दा आदि स्त्रीरत्नों के अनुपम रूप-लावण्य को देखकर मैंने तत्क्षण निदान कर लिया था कि यदि मेरी इस तपस्या का कुछ फल है तो मुझे भी चक्रवर्ती के सम्पूर्ण ऐश्वर्य की प्राप्ति हो । मैंने अपने इस अध्यवसाय की अन्तिम समय तक पालोचना निन्दा नहीं की, अतः सौधर्म देवलोक की आयुष्य पूर्ण होने पर उस निदान के कारण मैं छह खण्ड का अधिपति बन गया और देवताओं के समान यह महान् ऋद्धि मुझे प्राप्त हो गई। मेरे इस विशाल राज्य एवं ऐश्वर्य को आप अपना ही समझिये । अभी आपकी इस युवावस्था में विषयसुखों और सांसारिक भोगों के उपभोग करने का समय है । आप मेरे पाँच जन्मों के सहोदर हैं, अतः यह समस्त साम्राज्य आपके चरणों में समर्पित है । आइये! आप स्वेच्छापूर्वक सांसारिक सुखों का यथारुचि उपभोग कीजिये और जब १ (क) ता ण याणामि छट्ठीए जातीए विप्रोमो कहमम्ह जामो त्ति । [चउप्पन्न महापुरिस चरियं, पृष्ठ २१७] (ख) त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र में संभूत द्वारा किये गये निदान का चित्त को उसी समय पता चल जाने और चित्त द्वारा संभूत को निदान न करने के सम्बन्ध में समझाने का उल्लेख है, किन्तु उत्तराध्ययन सूत्र के अध्याय १३ की गाथा २८ और २६ से स्पष्ट है कि चित्त को संभूत के निदान का ज्ञान नहीं था। २ हत्थिणपुरम्मि चित्ता, दट्टणं नरवई महिड्ढियं कामभोगेसु गिद्धणं, नियाणमसुहं कडं ॥२८॥ तस्स मे अपडिकन्तस्स, इमं एयारिसं फलं । जाणमाणो वि जं धम्म, कामभोगेसु मुच्छिो ॥२६॥ [उत्तराध्ययन सूत्र, मध्ययन १३] Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ . जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ब्रह्मदत सुखोपभोग से सब इन्द्रियाँ तृप्त हो जायं तब वृद्धावस्था में संयम लेकर प्रात्मकल्याण की साधना कर लेना। तपस्या से भी आखिर सब प्रकार की समृद्धि, ऐश्वर्य और भोगोपभोग की प्राप्ति होती है, जो आपके समक्ष सहज उपस्थित है, फिर आपको तपस्या करने की क्या आवश्यकता है ? महान् पुण्यों के प्रकट होने से मुझे आपके दर्शन हुए हैं । कृपा कर इच्छानुसार इस ऐश्वर्य का प्रानन्द लीजिये, यह सब कुछ आपका ही है।" मुनि चित्त ने कहा-"चक्रवतिन् ! इस निस्सार संसार में केवल धर्म ही सारभूत है। शरीर, यौवन, लक्ष्मी, ऐश्वर्य, समृद्धि और बन्धु-बान्धव, ये सब जल-बदबद के समान क्षरण-विध्वंसी हैं। तुमने षटखण्ड की साधना कर बहिरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त करली, अब मुनिधर्म अंगीकार कर कामक्रोधादि अन्तरंग शत्रुओं को भी जीत लो, जिससे कि तुम्हें मुक्ति का अनन्त शाश्वत सुख प्राप्त हो सके।" "प्रगाढ़ स्नेह के कारण तुम मुझे अपने ऐश्वर्य का उपभोग करने के लिये आग्रहपूर्वक आमन्त्रित कर रहे हो, पर मैंने तो प्राप्त संपत्ति का भी सहर्ष परित्याग कर संयम ग्रहण किया है, क्योंकि मैं समस्त विषय-सुखों को विषवत् घातक और त्याज्य समझता हूँ।" "तुम स्वयं यथावत् यह अनुभव कर रहे हो कि हम दोनों ने दास, मृग, हंस और मातंग के भवों में कितने दारुण दुःख देखे एवं तपश्चरण के प्रभाव से सौधर्म कल्प के दिव्य सुखों का उपभोग किया। पुण्य के क्षीण हो जाने से हम देवलोक से गिरकर इस पृथ्वी पर उत्पन्न हए हैं। यदि तुमने इस अलभ्य मानवजन्म का मुक्तिपथ की साधना में उपयोग नहीं किया तो और भी अधोगतियों में असह्य दुःख उठाते हुए तुम्हें भव-भ्रमण करना पड़ेगा।" "इस आर्य धरा पर तुमने श्रेष्ठ कुल में मानव-जन्म पाया है । इस अमूल्य मानव-जन्म को विषय-सुखों में व्यर्थ ही बिताना अमृत को कण्ठ में न उतार कर पैर धोने के उपयोग में लेने के समान है। राजन् ! तुम यह सब जान-बूझकर भी बालक की तरह अनन्त दुःखदायी इन्द्रिय-सुख में क्यों लुब्ध हो रहे हो?" ब्रह्मदत्त ने कहा-भगवन् ! जो आपने कहा है, वह शतप्रतिशत सत्य है। मैं भी जानता हूँ कि विषयासक्ति सब दुःखों की जननी और सब अनर्थों की मूल है, किन्तु जिस प्र.ार गहरे दलदल में फँसा हा हाथी चाहने पर भी उससे बाहर नहीं निकल सकता, उसी प्रकार मैं भी निदान से प्राप्त इन कामभोगों के कीचड़ में बुरी तरह फँसा हुआ हूँ, अतः मैं संयम ग्रहण करने में असमर्थ हूँ।" चित्त ने कहा- "राजन् ! यह दुर्लभ मनुष्य-जीवन तीव्र गति से बीतता चला जा रहा है, दिन और रात्रियां दौड़ती हुई जा रही हैं। ये काम-भोग भी Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती] भगवान् श्री प्ररिष्टनेमि जिनमें तुम फसे हुए हो सदा बने रहने वाले नहीं है । जिस प्रकार फलविहीन वृक्ष को पक्षी छोड़कर चले जाते हैं, उसी प्रकार ये काम भोग एक दिन तुम्हें अवश्य छोड़ देंगे ।" अपनी बात समाप्त करते हुए मुनि ने कहा- "राजन् ! निदान के कारण तुम भोगों का पूर्णतः परित्याग करने में असमर्थ हो, पर तुम प्राणिमात्र के साथ मैत्री रखते हुए परोपकार के कार्यों में तो संलग्न रहो, जिससे कि तुम्हें दिव्य सुख प्राप्त हो सके ।" ૪૬૧ यह कहकर मुनि चित्त वहां से अन्यत्र विहार कर गये । उन्होंने अनेक वर्षों तक संयम का पालन करते हुए कठोर तपस्या की प्राग में समस्त कर्मों को भस्मसात् कर अन्त में शुद्ध-बुद्ध हो निर्वाण प्राप्त किया । मुनि के चले जाने के पश्चात् ब्रह्मदत्त अपनी चक्रवर्ती की ऋद्धियों और राज्यश्री का उपभोग करने लगा। भारत के छह ही खण्डों के समस्त भूपति उसकी सेवा में सेवक की तरह तत्पर रहते थे । वह दुराचार का कट्टर विरोधी था । एक दिन ब्रह्मदत्त युवनेश्वर ( यूनान के नरेश) से उपहार में प्राप्त एक अत्यन्त सुन्दर घोड़े पर आरूढ़ हो उसके वेग की परीक्षा के लिये काम्पिल्यपुर के बाहर घूमने को निकला । चाबुक की मार पड़ते ही घोड़ा बड़े वेग से दौड़ा । ब्रह्मदत्त द्वारा रोकने का प्रयास करने पर भी नहीं रुका और अनेक नदी, नालों एवं वनों को पार करता हुआ दूर के एक घने जंगल में जा रुका । उस वन में सरोवर के तट पर उसने एक सुन्दर नागकन्या को किसी जार पुरुष के साथ संभोग करते देखा और इस दुराचार को देख कर वह क्रोध से तिलमिला उठा । उसने स्वैर और स्वैरिणी को अपने चाबुक से धुनते हुए उनकी चमड़ी उधेड़ दी । थोड़ी ही देर में ब्रह्मदत्त के अंगरक्षक अश्व के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए वहाँ आ पहुँचे और वे भी उनके साथ काम्पिल्यपुर लौट आये । उधर उस स्वैरिणी नागकन्या ने चाबुक की चोटों से लहूलुहान अपना तन अपने पति नागराज को बताते हुए करुण पुकार की - " नाथ ! प्राज तो आपकी प्राणप्रिया को कामुक ब्रह्मदत्त ने मार ही डाला होता । मैं अपनी सखियों के साथ वन-विहार एवं जल क्रीड़ा के पश्चात् लौट रही थी कि मुझे उस स्त्री लम्पट ने देखा और वह मेरे रूप लावण्य पर मुग्ध हो मेरे पतिव्रत धर्म को नष्ठ करने के लिए उद्यत हो गया । मेरे द्वारा प्रतीकार करने पर मुझे निर्दयतापूर्वक चाबुक से पीटने लगा । मैंने बार-बार आपका नाम बताते हुए Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૬૬ जैन धर्म का मौलिक इतिहास ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती उससे कहा कि मैं महान् प्रतापी नागराज की पतिव्रता प्रेयसी हूँ, पर वह अपने चक्रवर्तित्व के घमण्ड में प्रापसे भी नहीं डरा और मुझ पतिपरायणा प्रबला को तब तक पीटता ही रहा जब तक मैं अधमरी हो मूच्छित नहीं हो गई ।” यह सुन कर नागराज प्रकुपित हो ब्रह्मदत्त का प्रारणान्त कर डालने के लिए प्रच्छन्न रूप से उसके शयनागार में प्रविष्ट हुभ्रा । उस समय रात्रि हो चुकी थी और ब्रह्मदत्त पलंग पर लेटा हुआ था । उस समय राजमहिषी ने ब्रह्मदत्त से प्रश्न किया - "स्वामिन् ! प्राज प्राप अश्वारूढ़ हो अनेक प्ररण्यों में घूम आये हैं, क्या वहाँ आपने कोई प्राश्चर्यजनक वस्तु भी देखी ?" उत्तर में ब्रह्मदत्त ने नागकन्या के दुश्चरित्र और अपने द्वारा उसकी पिटाई किये जाने की सारी घटना सुना दी । यह त्रिया चरित्र सुनकर छिपे हुए नागराज की श्राँखें खुल गईं । उसी समय ब्रह्मदत्त शारीरिक शंका निवारणार्थ शयन कक्ष से बाहर निकला तो उसने कान्तिमान नागराज को साञ्जलि मस्तक झुकाये अपने सामने खड़े देखा । अभिवादन के पश्चात् नागराज ने कहा- "नरेश्वर ! जिस पुंश्चली नागकन्या को प्रापने दण्ड दिया, उसका मैं पति हूँ। उसके द्वारा प्राप पर लगाये गये प्रसत्य आरोप से क्रुद्ध हो मैं प्रापके प्रारण लेने प्राया था पर भाप के मुँह से वास्तविक तथ्य सुनकर आप पर मेरा प्रकोप परम प्रीति में परिवर्तित हो गया है । दुराचार का दमन करने वाली प्रापकी दण्ड-नीति से मैं प्रत्यधिक प्रभावित मौर प्रसन्न हूँ, कहिये मैं प्रापकी क्या सेवा करू ?" - ब्रह्मदत्त ने कहा – “नागराज ! मैं यह चाहता हूं कि मेरे राज्य में परस्त्रीगमन, चोरी और अकाल-मृत्यु का नाम तक न रहे ।" "ऐसा ही होगा", यह कहते हुए नागराज बोला- "भारतेश ! प्रापकी परोपकारपरायणता प्रशंसनीय है । अब भाप कोई निज हित की बात कहिये ।" ब्रह्मदत्त ने कहा- "नागराज ! मेरी अभिलाषा है कि मैं प्राणिमात्र की भाषा को समझ सकेँ ।” नागराज बोला- "राजन् ! मैं वास्तव में भाप प्रसन्न हूँ, इसलिये यह प्रदेय विद्या भी प्रापको देता हूँ, पर प्रौर कंठोर नियम को श्राप सदा ध्यान में रखें कि किसी पर बहुत ही अधिक इस विद्या के घटल प्रारणी की बोली को Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती भगवान् श्री अरिष्टनेमि समझ कर यदि आपने किसी और के सम्मुख उसे प्रकट कर दिया तो आपके सिर के सात टुकड़े हो जायेंगे।" ब्रह्मदत्त ने सावधानी रखने का आश्वासन देते हुए नागराज के प्रति आभार प्रकट किया और नागराज भी ब्रह्मदत्त का अभिवादन करते हुए तिरोहित हो गया। एक दिन ब्रह्मदत्त अपनी अतीव प्रिया महारानी के साथ प्रसाधन-गह में बैठा हुआ था । उस समय नर-घरोली और नारी-घरोली अपनी बोली में बात करने लगे। गर्भिणी घरोली अपने पति से कह रही थी कि वह उसके दोहद की प्रति के लिए ब्रह्मदत्त का अंगराग ला दे । नर-घरोली उससे कह रहा था"क्या तुम मुझसे ऊब चुकी हो, जो जानबूझ कर मुझे मौत के मुंह में ढकेल रही हो?" ब्रह्मदत्त घरोली दम्पति की बात समझ कर सहसा अट्टहास कर हँस पड़ा। रानी ने अकस्मात् हँसने का कारण पूछा । ब्रह्मदत्त जानता था कि यदि उसने उस रहस्य को प्रकट कर दिया. तो तत्काल मर जायगा, अतः वह बड़ी देर तक अनेक प्रकार की बातें बना कर उसे टालता रहा । रानी को निश्चय हो गया कि उस हँसी के पीछे अवश्य ही कोई बड़ा रहस्य छिपा हुआ है और उसके स्वामी उससे वह छिपा रहे हैं । रानी ने नारीहठ का आश्रय लेते हुए दृढ़ स्वर में कहा-"महाराज ! आप अपनी प्रारणप्रिया से भी कुछ छिपा रहे हैं, यह मुझे इस जीवन में पहली ही बार अनभव हुअा है । यदि आप मुझे हँसी का सही कारण नहीं बतायेंगे तो मैं इसी समय अपने प्राण दे दूंगी।" ब्रह्मदत्त ने कहा-"महारानी! मैं तुमसे कुछ भी छिपाना नहीं चाहता पर केवल यही एक ऐसा रहस्य है कि यदि इसे मैंने प्रकट कर दिया तो तत्काल मेरे प्राण निकल जायेंगे।" रानी ने ब्रह्मदत्त की बात पर अविश्वास करते हुए निश्चयात्मक स्वर में कहा-"यदि ऐसा हुआ तो आपके साथ ही साथ मैं भी अपने प्राण दे दूंगी, पर इस हँसी का कारण तो मालूम करके ही रहूँगी।" रानी में अत्यधिक आसक्ति होने के कारण ब्रह्मदत्त ने रानी के साथ मरघट में जा चिता चुनवाई और रहस्य को प्रकट करने के लिए उद्यत हो गया। नारी में प्रासक्ति के कारण अकाल-मत्य के लिए तैयार हए ब्रह्मदत्त को समझाने के लिए उसकी कुलदेवी ने देवमाया से एक गर्भवती बकरी और बकरे का रूप बनाया। Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती बकरी ने अपनी बोली में बकरे से कहा- 'स्वामिन् ! राजा के घोड़े को चराने के लिए जो हरी-हरी जी की पूलियाँ पड़ी हुई हैं, उनमें से एक पूली लामो जिसे खाकर मैं अपना दोहला पूर्ण करूं।" बकरे ने कहा- “ऐसा करने पर तो मैं राज-पुरुषों द्वारा मार डाला जाऊँगा।" - बकरी ने हठपूर्वक कहा-“यदि तुम जो की पूली नहीं लायोगे तो मैं मर जाऊँगी।" बकरे ने कहा-"तू मर जायगी तो मैं दूसरी बकरी को अपनी पत्नी बना लूंगा।" बकरी ने कहा- "इस राजा के प्रेम को भी तो देखो कि अपनी पत्नी के स्नेह में जान-बूझ कर मृत्यु का आलिंगन कर रहा है।" बकरे ने उत्तर दिया- "अनेक पत्नियों का स्वामी होकर भी ब्रह्मदत्त एक स्त्री के हठ के कारण पतंगे की मौत मरने की मूर्खता कर रहा है, पर मैं इसकी तरह मूर्ख नहीं हूँ।" बकरे की बात सुन कर ब्रह्मदत्त को अपनी मूर्खता पर खेद हुअा और अपने प्रारण बचाने वाले बकरे के गले में अपना अमूल्य हार डाल कर राजप्रासाद की ओर लौट गया तथा प्रानन्द के साथ राज्यश्री का उपभोग करने लगा। चक्रवर्ती की राज्यश्री का उपभोग करते हुए जब ५८४ वर्ष बीत चुके उस समय उसका पूर्व-परिचित एक ब्राह्मण उसके पास पाया । ब्रह्मदत्त ने परिचय पाकर ब्राह्मण को बड़ा आदर-सम्मान दिया। भोजन के समय ब्राह्मण ने ब्रह्मदत्त से कहा-"राजन् ! जो भोजन आपके लिए बना है, उसी भोजन को खाने की मेरी अभिलाषा है।" ब्रह्मदत्त ने कहा- "ब्रह्मन् ! वह आपके लिए दुष्पाच्य और उन्मादकारी होगा।" . ब्रह्महठ के सामने ब्रह्मदत्त को हार माननी पड़ी और उसने उस ब्राह्मण तथा उसके परिवार के सब सदस्यों को अपने लिए बनाया हुमा भोजन खिला दिया। रात्रि होते ही उस अत्यन्त गरिष्ठ प्रौर उत्तेजक भोजन ने अपना प्रभाव प्रकट करना प्रारम्भ किया। अदम्य कामाग्नि ब्राह्मण-परिवार के रोम-रोम से Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ४६६ प्रस्फुटित होने लगी । कामोन्माद में अन्धा ब्राह्मण परिवार मां, बहिन, बेटी, पुत्रवधू, पिता, पुत्र, भाई आदि अगभ्य सम्बन्ध को भूल गया । उस ब्राह्मण ने और उसके पुत्र ने अपने परिवार की सब स्त्रियों के साथ पशु की तरह कामक्रीड़ा करते हुए सारी रात्रि व्यतीत की। प्रातःकाल होते ही जब उस भोजन का प्रभाव कुछ कम हुमा तो ब्राह्मणपरिवार का कामोन्माद थोड़ा शान्त हुआ और परिवार के सभी सदस्य अपने घृणित दुष्कृत्य से लज्जित हो एक दूसरे से कतराते हुए अपना मुंह छुपाने लगे। "अरे! इस दुष्ट राजा ने अपने दूषित अन्न से मेरे सारे परिवार को घोर पापाचार में प्रवृत्त कर पतित कर दिया।" यह कहता हुमा ब्राह्मण अपने पाशविक कृत्य से लज्जित हो नगर के बाहर चला गया। वन में निरुद्देश्य इधर-उधर भटकते हुए ब्राह्मरण ने देखा कि एक चरवाहा पत्थर के छोटे-छोटे ढेलों को गिलोल से फेंक कर वटवृक्ष के कोमल और कच्चे पत्ते पृथ्वी पर गिरा कर अपनी बकरियों को चरा रहा है। गड़रिये की अचूक और अद्भुत निशानेबाजी को देख कर ब्राह्मण ने सोचा कि इसके द्वारा ब्रह्मदत्त से अपने वैर का बदला लिया जा सकता है। ब्राह्मण ने उस गड़रिये को धन दिया और कहा-"नगर में राजमार्ग पर श्वेत छत्र-चवरधारी जो व्यक्ति हाथी की सवारी किये निकले उसकी आंखें एक साथ दो पत्थर की गोलियों के प्रहार से फोड़ देना।" "अपने कृत्य के दुष्परिणाम का विचार किये बिना ही गड़रिये ने नगर में जाकर, राजपथ से गजारूढ़ हो निकलते हुए ब्रह्मदत्त की दोनों प्रांखें एक साथ गिलोल से दो गोलियाँ फेंक कर फोड़ डालीं।" "तत्क्षण राजपुरुषों द्वारा गड़रिया पकड़ लिया गया। उससे यह ज्ञात होने पर कि इस सारे दुष्कृत्य का सूत्रधार वही ब्राह्मण है, जिसे गत दिवस भोजन कराया गया था, ब्रह्मदत्त बड़ा क्रुद्ध हुप्रा । उसने उस ब्राह्मण को परिवार सहित मरवा डाला। फिर भी अन्धे ब्रह्मदत्त का क्रोध शान्त नहीं हमा। वह बार-बार सारी ब्राह्मण जाति को ही कोसने लगा एवं नगर के सारे ब्राह्मणों और अपने पुरोहितों तक को चुन-चुन कर उसने मौत के घाट उतार दिया।" १ 'कण उण उवाएण पच्चु (पच्च) वयारो परवइणो कीरई ?" त्ति झायमाणेण को बहुहिम (उ) वरियव्य विण्णासेहिं गुलियाषणुविक्खेवरिणतणो वयंसो । कयसभावाइसयस्स य साहिमो रिणयया हिप्पाप्रो । तेरणावि पडिवण्णं सरहसं । [चउवन्न महापुरिस चरियं, पृ० २४३] Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास प्राचीन इतिहास की अपने अन्धे कर दिये जाने की बात से प्रतिपल उसकी क्रोधाग्नि उग्ररूप धारण करती गई । उसने अपने मंत्री को आदेश दिया कि अगणित ब्राह्मणों की अांखें निकलवा कर बडे थाल में उसके सम्मुख रख दी जाय । मंत्री ने प्रांखों के समान श्लेष्मपूज चिकने लेसवा-लसोड़ा (गूदे) के गठली निकले फलों से बड़ा थाल भर कर अन्धे ब्रह्मदत्त के सम्मुख रखवा दिया। गूदों को ब्राह्मणों की आँखें समझ कर ब्रह्मदत्त अतिशय आनन्दानुभव करते हुए कहता-"ब्राह्मणों की आँखों से थाल को बहुत अच्छी तरह भरा गया है।" वह एक क्षण के लिए भी उस थाल को अपने पास से नहीं हटाता । रात दिन बार-बार उसका स्पर्श कर परम संतोष का अनुभव करता। इस प्रकार ब्रह्मदत्त ने अपनी प्रायु के अन्तिम सोलह वर्ष निरन्तर प्रति तीव्र प्रार्त और रौद्र ध्यान में बिताये एवं सात सौ वर्ष की प्राय पूर्ण होने पर अपनी पट्टमहिषी कुरुमती के नाम का बार-बार उच्चारण करता हुआ मर कर सातवें नर्क में चला गया। प्राचीन इतिहास की एक भग्न कड़ी बारहवें चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त का जैन आगमों और गन्थों से कतिपय अंशों में मिलता-जुलता वर्णन वेदव्यास रचित महाभारत पुराण और हरिवंश पुराण में भी उपलब्ध होता है। ब्रह्मदत्त के जीवन की कतिपय घटनाएँ जिनके सम्बन्ध में जैन और वैदिक परम्परात्रों के साहित्य में समान मान्यता है, उन्हें तुलनात्मक विवेचन हेतु यहाँ दिया जा रहा है। (१) ब्रह्मदत्त पांचाल जनपद के काम्पिल्यनगर में निवास करता था। वैदिक परम्परा :-काम्पिल्ये ब्रह्मदत्तस्य, त्वन्तःपुरनिवासिनी। (महाभारत, शा० ५०, अ० १३६, श्लो० ५) १ मंतिणा वि मुणिकरण तस्स कम्मवसत्तणमो तिव्वमझवसायविसेसं घेत्तूण लेसुरुडयतरुणो बहवे फलठ्ठिया पक्खिविऊण थालम्भि णिवेइया पुरो । २ (क) यातेषु जन्मदिवसोऽथ समा शतेषु, सप्तस्वसो कुरुमतीत्यसकृदन वाणः । हिंसानुबन्धिपरिणामफलानुरूपां, तो सप्तमी नरकलोकभुवं जगाम ।। [त्रिषष्टि श. पु. चरित्र, पर्व ६, सर्ग १, श्लो, ६००] (ख) 'चउवन्न महापुरिस चरियं' में ब्रह्मदत्त की ७१६ वर्ष की आयु बताई गई है। यथा-""प्रइक्कंताई कइवयदिणाणि सतवाससयाई सोलसुत्तराई। [चउवन्न महापुरिस परियं, पृष्ठ २४४] Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक भग्न कड़ी] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ब्रह्मदत्तश्च पांचाल्यो, राजा बुद्धिमतां वरः । (वही, अ० २२४, श्लो० २६) जैन परम्परा: 'अत्यि इहेव जंबुद्दीवे भारहे वासे गिरतरं... पंचालाहिहाणो जगवो । तत्थ य..."कपिल्लं रणाम रणयरं । तम्मि...."बम्भयत्तो रणाम चक्कवट्टी।' (चउवन्न महापुरिस चरियं, पृ० २१०) (२) ब्रह्मदत्त के जीव ने पूर्व भव में एक राजा की ऋद्धि देखकर यह निदान किया था-"यदि मैंने कोई सुकृत, नियम और तपश्चरण किया है तो उस सबके फलस्वरूप में भी ऐसा राजा बनू।" बंदिक परम्परा : स्वतन्त्रश्च विहंगोऽसौ, स्पृहयामास तं नृपम् । दृष्ट्वा यान्तं श्रियोपेतं, भवेयमहमीदृशः ॥४३॥ यद्यस्ति सुकृतं किंचित्तपो वा नियमोऽपि वा। खिन्नोऽस्मि ह्य पवासेन, तपसा निष्फलेन च ॥४४॥ (हरिवंश, पर्व १, प्र० २३) जन परम्परा : 'सलाहणीओ चक्कट्टिविहवो ममंपि एस संपज्जउत्ति जइ इमस्स तवस्स सामत्थमस्थि' ति हियएण चितिऊरण कयं णियाणं ति । परिणयं छक्खंडभरहाहिवत्तणं । (चउवन महापुरिस चरियं पृ० २१७) (३) ब्रह्मदत्त को जातिस्मरण-ज्ञान (पूर्वजन्म का ज्ञान) हुआ, इसका . दोनों परम्परामों में निमित्तभेद को छोड़ कर समान वर्णन है। वैदिक परम्परा : तच्छ त्वा मोहमगमद्, ब्रह्मदत्तो नराधिपः । सचिवश्चास्य पांचाल्यः, कण्डरीकश्च भारत ।।२२।। ततस्ते तत्सरः स्मत्वा, योगं तनुपलभ्य च । ब्राह्मणं विपुलरर्थर्भोगैश्च समयोजयन् ।।२५।। जैन परम्परा : 'समुप्पण्णो मणम्मि वियप्पो-अण्णया वि मए एवं विहसंगीनोवलक्खिया णाड़यविहि दिट्ठउवा, एयं च सिरिदामकुसुमगंडं ति । एवं च परिचिंतयंतेण Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [प्राचीन इतिहास की सोहम्मसुरकप्पे पउमगुम्मे विमारणे सुरविलासिणीकलिज्ज मारणरणाड़यविही दिट्ठा। सुमरिमो प्रत्तणो पुग्वभवो तो मुच्छावसमउलमाण लोयरणो सुकुमारतरणीसह वेविरसरीरो तक्खणं चैव धरायलम्मि विड़िओो ति ।' ( चउवन्न महापुरिस चरियं पृ० २११ ) ४७२ (४) ब्रह्मदत्त के पूर्वभवों का वर्णन दोनों परम्पराओं द्वारा एक दूसरे से काफी मिलता जुलता दिया गया है। वैदिक परम्परा : सप्त व्याधाः दशार्णेषु, मृगा कालिंजरे गिरौ । चक्रवाकाः शरद्वीपे, हंसा सरसि मानसे ||२०|| तेऽभिजाता कुरुक्षेत्रे, ब्राह्मणा वेदपारगाः । प्रस्थिताः दीर्घमध्वानं, यूयं किमवसीदथ ||२१|| जैन परम्परा : ( हरिवंश पर्व १, प्रध्याय २५) दासा दसपणे प्रासी, मिया कालिंजरे नगे । हंसा मयंगतीराए सोवागा कासिभूमिए ||६|| देवाय देवलोयम्मि, आसी भ्रम्हे महिड्डिया । इमा णो छट्ठिया जाई प्रन्नमन्नेरण जा विणा ||७|| ( उत्तराध्ययन सूत्र, प्र० १३ ) (५) ब्रह्मदत्त का विवाह एक ब्राह्मण कन्या के साथ हुआ था, इस सम्बन्ध में भी दोनों परम्पराम्रों की समान मान्यता है । वैदिक परम्परा : ब्रह्मदत्तस्य भार्या तु देवलस्यात्मजाभवत् । प्रसितस्य हि दुर्धर्षा, सन्मतिर्नाम नामतः ।। २६ ।। ( हरिवंश पर्व १, अ० २३) जैन परम्परा : ताव य एक दियवरमंदिराम्रो पेसिएण ग्गिंतूरण दासचेड़एण भणिया प्रम्हे एह भुजह ति । भोय गावसारणम्मि तम्रो तम्म चैव दिणे जहाविहववित्यरेरण वत्तं पाणिग्गणं । ( चउवन महापुरिस चरियं पृ० २२१ ) ******** / Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक भग्न कड़ी] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ४७३ (६) ब्रह्मदत्त पशु-पक्षियों की भाषा समझता था, इस बात का उल्लेख दोनों परम्परामों में है। वैदिक परम्परा : ततः पिपीलिकारुतं, स शुश्राव नराधिपः । कामिनी कामिनस्तस्य, याचतः क्रोशतो भृशम् ।।३।। श्रुत्वा तु याच्यमानां तां, क्रुद्धां सूक्ष्मां पिपीलिकाम् । ब्रह्मदत्तो महाहासमकस्मादेव चाहसत् ।।४॥ तथा श्लोक ७ से १०। (हरिवंश, पर्व १, अ० २४) जैन परम्परा : गृहगोलं गृहगोला, तत्रोवाचानय प्रिय । राज्ञोऽङ्गरागमेतं मे, पूर्यते येन दोहदः ॥५५२।। प्रत्यचे गहगोलोऽपि, कार्य किं मम नात्मना। भाषां ज्ञात्वा तयोरेवं, जहास वसुधाधिपः ।।५५३।। (त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व ६, सर्ग १) इसके अतिरिक्त वैदिक परम्परा में पूजनिका नाम की एक चिड़िया के द्वारा ब्रह्मदत्त के पुत्र की आँखें फोड़ डालने का उल्लेख है, तो जैन परम्परा के ग्रन्थों में ब्रह्मदत्त के परिचित एक ब्राह्मण के कहने से अचूक निशाना मारने वाले किसी गड़रिये द्वारा स्वयं ब्रह्मदत्त की आँखें फोड़ने का उल्लेख है। इन कतिपय समान मान्यतामों के होते हुए भी ब्रह्मदत्त के राज्यकाल के सम्बन्ध में दोनों परम्परामों के ग्रंथों में बड़ा अन्तर है। हरिवंश' में महाभारतकाल से बहुत पहले ब्रह्मदत्त के होने का उल्लेख है; ' पर इसके विपरीत जैन परम्परा के प्रागम व अन्य ग्रन्थों में पाण्डवों के निर्वाण के बहुत काल पश्चात् ब्रह्मदत्त के होने का उल्लेख है।। जैन परम्परा के प्रागमों और प्राचीन ग्रन्थों में प्रत्येक तीर्थकर, चक्रवर्ती बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेव के पूरे जीवनचरित्र के साथ-साथ इन सब का १ प्रतीपस्य तु राजर्षस्तुल्यकालो नराधिप । पितामहस्य मे राजन्, बभूवेति मया श्रुतम् ।।११।। ब्रह्मदत्तो महाभागो, योगी राजर्षिसत्तमः । रुतमः सर्वभूतानां, सर्वभूतहिते रतः ॥१२॥ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [प्राचीन इ० की एक भग्न कड़ी काल उपलब्ध होता है। इसके साथ ही एक उल्लेखनीय बात यह है कि इन तिरेसठ श्लाघ्य पुरुषों का जो समय एक प्रागम में दिया गया है, वही समय अन्य प्रागमों एवं सभी प्राचीन ग्रन्थों में दिया हया है। अतः ऐसी दशा में जैन परम्परा के साहित्य में दिये गये इनके जीवनकाल के सम्बन्ध में शंका के लिये अवकाश नहीं रह जाता। भारतवर्ष की इन दो अत्यन्त प्राचीन परम्परात्रों के मान्य ग्रन्थों में जो अधिकांशतः समानता रखने वाला ब्रह्मदत्त का वर्णन उपलब्ध है, उसके सम्बन्ध में इतिहासज्ञों द्वारा खोज की जाय तो निश्चित रूप से यह भारतीय प्राचीन इतिहास की शृखला को जोड़ने में सहायक सिद्ध हो सकता है। 000 Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् श्री पार्श्वनाथ भगवान् मरिष्टनेमि (नेमिनाथ) के पश्चात् तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ हए । पापका समय ईसा से पूर्व नवी-दशवीं शताब्दी है । आप भगवान् महावीर से दो सौ पचास वर्ष पूर्व हुए। ऐतिहासिक शोध के आधार पर आज के ऐतिहासिक विषय के विद्वान् भगवान पार्श्वनाथ को ऐतिहासिक पुरुष मानने लगे हैं। ' मेजर जनरल फलांग ने ऐतिहासिक शोध के पश्चात् लिखा है-"उस काल में सम्पूर्ण उत्तर भारत में एक ऐसा प्रतिव्यवस्थित, दार्शनिक, सदाचार एवं तप-प्रधान धर्म, अर्थात् जैनधर्म, अवस्थित था, जिसके आधार से ही ब्राह्मण एवं बौद्धादि धर्म संन्यास बाद में विकसित हुए । मार्यों के गंगा-तट एवं सरस्वती. तट पर पहुंचने से पूर्व ही लगभग बाईस प्रमुख सन्त अथवा तीर्थंकर जैनों को धर्मोपदेश दे चुके थे, जिनके बाद पार्श्व हुए और उन्हें अपने उन समस्त पूर्व तीर्थकरों का प्रथवा पवित्र ऋषियों का ज्ञान था, जो बड़े-बड़े समयान्तरों को लिए हुए पहले हो चुके थे। उन्हें उन अनेक धर्मशास्त्रों का भी ज्ञान था जो प्राचीन होने के कारण पूर्व या पुराण कहलाते थे और जो सुदीर्घकाल से मान्य मुनियों, वानप्रस्थों या वनवासी साधुनों की परम्परा में मौखिक द्वार से प्रवाहित होते पा रहे थे। डॉ. हर्मन जैकोबी जैसे लब्धप्रतिष्ठ पश्चिमी विद्वान् भी भगवान् पार्श्वनाथ को ऐतिहासिक पुरुष मानते हैं। उन्होंने जैनागमों के साथ ही बौद्ध पिटकों के प्रकाश में यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि पार्श्वनाथ ऐतिहासिक व्यक्ति थे। डॉ. हर्मन जैकोबी के प्रस्तुत कथन का समर्थन अन्य अनेक इतिहासविज्ञों ने भी किया है । डॉ० 'वासम' के अभिमतानुसार भगवान् महावीर बौद्ध पिटकों में बुद्ध के प्रतिस्पर्धी के रूप में उट्ट कित किये गये हैं, एतदर्थ उनकी ऐतिहासिकता में सन्देह नहीं रह जाता। १ भारतीय इतिहास : एक दृष्टि : डॉ. ज्योतिप्रसाद, पृष्ठ १४६ 2 The Sacred Books of the East Vol. XLV, Introduction, page 21 "That Parsva was a historical person, is now admitted by all as very probable..........." 3 The Wonder that was India (A. L. Basham B.A., Ph.D., F. R. A. S.) Reprinted 1956, P.287-288 : "As he (Vardhaman Mahavira) is referred to in the Buddhist Scriptures as one of the Buddha's chief opponents, his historicity is beyond doubt...Parswa was remembered as twenty-third of the twenty-four great teachers or Tirthakaras (Ford makers) of the Jaina faith." - Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ भगवान् पार्श्वनाथ के डॉ० चार्ल शापेंटियर ने लिखा है - "हमें इन दो बातों का भी स्मरण रखना चाहिये कि जैन धर्म निश्चितरूपेरण महावीर से प्राचीन है । उनके प्रख्यात पूर्वगामी पार्श्व प्रायः निश्चितरूपेण एक वास्तविक व्यक्ति के रूप में विद्यमान रह चुके हैं; एवं परिणामस्वरूप मूल सिद्धान्तों की मुख्य बातें महावीर से बहुत पहले सूत्र रूप धारण कर चुकी होंगी ।"" ४७६ भगवान पार्श्वनाथ के पूर्व धार्मिक स्थिति ·3 भगवान् पार्श्वनाथ के उपदेशों की विशिष्टता समझने के लिये उस समय की देश की धार्मिक स्थिति कैसी थी, यह समझना प्रावश्यक है । उपलब्ध वैदिक साहित्य के परिशीलन से ज्ञात होता है कि ई० वीं सदी से पूर्व ऋग्वेद के अन्तिम मंडल की रचना हो चुकी थी। मंडल के नासदीय सूक्त, हिरण्यगर्भसूक्त' तथा पुरुषसूक्त प्रभृति से प्रमाणित होता है कि उस समय देश में तस्व-जिज्ञासाएँ उद्भूत होने लगीं और उन पर गम्भीर चिंतन चलने लगे थे । उपनिषद्काल में ये जिज्ञासाएँ इतनी प्रबल हो चुकी थीं कि उनके चिन्तन-मनन के लिए विद्वानों की सभाएं की जाने लगीं। उनमें राजा, ऋषि, ब्राह्मण और क्षत्रिय समान रूप से भाग लेते थे । उनमें जगत् के मूलभूत तत्त्वों के सम्बन्ध में गम्भीर चिन्तन कर सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये, जिनको पराविद्या' कहा गया । उनमें गार्ग्यायरण. जनक भुगु, वारुणि, उद्दालक और याज्ञवल्क्य आदि पराविद्या के प्रमुख प्राचार्य थे। इनके विचारों में विविधता थी । म्रात्मविषयक चिन्तन में गति बढ़ने पर सहज-स्वाभाविक था कि यज्ञ-यागादि क्रियाकाण्ड में रुचि कम हो, कारण कि मोक्ष प्राप्ति के लिए यज्ञ प्रादि क्रियानों का किसी प्रकार का उपयोग नहीं है । गहन चिन्तन-मनन के पश्चात् विचारकों को यज्ञ-यागादि कर्मकाण्ड को 'अपराविद्या' और मोक्षदायक प्रात्मज्ञान को 'पराविद्या' की संज्ञा देकर 'अपराविद्या' से 'पराविद्या' को श्रेष्ठ बतलाया । 1 कठोपनिषद् में तो यहाँ तक कहा गया कि : नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो, न मेघया वा बहुना श्रुतेन । यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष श्रात्मा विवृणुते तनुं स्वाम् ॥ • The Uttaradhyayana Sutra, Introduction, Page 21 :-- "We ought also to remember both the Jain religion is certainly older than Mahavira, his reputed predecessor Parshva having almost certainly existed as a real person, and that consequently, the main points of the original doctrine may have been codified long before Mahavira." २ ऋग्वेद १०।१२६ ३ वही १०।१२१ ४ वही १०/६० [१/२/२,३] Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व धार्मिक स्थिति] भगवान् श्री पार्श्वनाथ इस प्रकार की विचारधाराएँ मागे बढ़ी तो वेदों के प्रपौरुषेयत्व और अनादित्व पर माक्षेप आने लगा। ये विचारक एकान्त, शान्त वन-प्रदेशों में ब्रह्म, जगत् और प्रात्मा प्रादि अतीन्द्रिय विषयों पर चिन्तन किया करते । ये अधिकांशतः मौन रहते, अतः मुनि कहलाये । वेदों में भी ऐसे वासरशना तत्वचिन्तकों को ही मुनि' कहा गया है ।। • इन वनवासियों का जीवन-सिद्धान्त तपस्या, दान, पाव, महिंसा और सत्य था। छान्दोग्योपनिषद में श्री कृष्ण को घोर अंगिरस ऋषि ने यज्ञ की यही सरल विधि बतलाई थी और उनकी दक्षिणा भी यही थी । गीता के अनुसार इन भावनाओं की उत्पत्ति ईश्वर (स्वयं प्रात्मदेव) से बताई गई है। उस समय एक ओर इस प्रकार का ज्ञान-यज्ञ चल रहा था, तो दूसरी मोर यज्ञ के नाम पर पशुओं की बलि चढ़ा कर देवों को प्रसन्न करने का प्रायोजन भी खुल कर होता था। जब लोक-मानस कल्यारणमार्ग का निर्णय करने में दिकमढ़ होकर किसी विशिष्ट नेतृत्व की अपेक्षा में था ऐसे ही समय में भगवान् पार्श्वनाथ का भारत की पुण्यभूमि वाराणसी में उत्तरण हुमा । उनका करुणाकोमल मन प्राणिमात्र को सुख-शान्ति का प्रशस्त मार्ग दिखाना चाहता था। उन्होंने अनुकूल समय में यज्ञ-याग की हिंसा का प्रबल विरोध किया और प्रात्मध्यान, इन्द्रियदमन पर जनता का ध्यान आकर्षित किया । माधुनिक इतिहास-लेखकों की कल्पना है कि हिंसामय यज्ञ का विरोध करने से यशप्रेमी उनके कट्टर विरोधी हो गये। उनके विरोध के फलस्वरूप भगवान पार्श्वनाथ को अपना जन्मस्थान छोड़कर अनार्य देश को अपना उपदेश-क्षेत्र बनाना पड़ा। वास्तव में ऐसी बात नहीं है । यज्ञ का विरोध भगवान महावीर के समय में भगवान पार्श्वनाथ के समय से भी उग्र रूप से किया गया था, फिर भी वे अपने जन्मस्थान और उसके भासपास धर्म का प्रचार करते रहे । ऐसी स्थिति में पार्श्वनाथ का अनार्य प्रदेश में भ्रमण भी विरोध के भय से नहीं, किन्तु सहज धर्म-प्रचार की भावना से ही होना संगत प्रतीत होता है। - पूर्वमव की साधना अन्य सभी तीर्थकरों के समान भगवान् पार्श्वनाथ ने भी पूर्वभव की १ भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ. १४.१६ '२ चान्दोग्यपनिषद्, ३।१७।४-६ ३ अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यथोऽयशः । भवन्ति भावाः भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ॥ - [गीता १०।५] ४ हिस्टोरिकल बिगिनिंग प्राफ जैनिज्म, पृ० ७८ । Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [पूर्वभव की साधना के फलस्वरूप ही तीर्थंकर-पद की योग्यता प्राप्त की थी। कोई भी आत्मा एकाएक पूर्ण विकास नहीं कर लेता । जन्मजन्मान्तर की करनी और साधना से ही विशुद्धि प्राप्त कर वह मोक्ष योग्य स्थिति प्राप्त करता है । भगवान् पार्श्व का साधनारम्भकाल दश भव पूर्व से बतलाया गया है, जिसका विस्तृत परिचय 'चउवन महापुरिस चरियम्', 'त्रिषष्टि शलाका पुरिष चरित्र' आदि में द्रष्टव्य है । यहाँ उनका नामोल्लेख कर आठवें भव से, जहाँ तीर्थंकर-गोत्र का बन्ध किया, संक्षिप्त परिचय दिया जाता है। - प्रभु पार्श्वनाथ के १० भव इस प्रकार हैं :-प्रथम मरुभूति और कमठ का भव, दूसरा हाथी का भव, तीसरा सहस्रार देव का, चौथा किरण देव विद्याधर का, पाँचवां अच्युत देव का, छठा वज्रनाभ का, सातवाँ अवेयक देव का, आठवाँ स्वर्णबाहु का, नवाँ प्राणत देव का और दशवाँ पार्श्वनाथ का। इन्होंने स्वर्णबाह के (अपने आठवें) भव में तीर्थंकर-गोत्र उपार्जित करने के बीस बोलों की साधना की और तीर्थंकर-गोत्र का उपार्जन किया, जिसका संक्षिप्त वृत्तान्त इस प्रकार है : वजनाभ का जीव देवलोक से च्युत हो पूर्व-विदेह में महाराज कुलिशबाहु की धर्मपत्नी सुदर्शना की कुक्षि से चक्रवर्ती के सब लक्षणों से युक्त सुवर्णबाहु के रूप में उत्पन्न हुआ । सुवर्णबाहु के युवा होने पर महाराज कुलिशबाहु ने योग्य कन्याओं से उनका विवाह कर दिया और उन्हें राजपद पर अभिषिक्त कर वे स्वयं दीक्षित हो गये। . राजा होने के पश्चात् सुवर्णबाहु एक दिन अश्व पर आरूढ़ हो प्रकृतिदर्शन के लिए वन की ओर निकले । घोड़ा बेकाबू हो गया और उन्हें एक गहन बीहड़ वन में ले गया। उनके सब साथी पीछे रह गये । एक सरोवर के पास घोड़े के खड़े होने पर राजा घोड़े से नीचे उतरे । उन्होंने सरोवर में जलपान किया और घोड़े को एक वृक्ष से बाँधकर वन-विहार के लिए निकल पड़े। घूमते हुए सुवर्णबाहु एक आश्रम के पास पहुँचे, जिसमें कि पाश्रमवासी तापस रहते थे । राजा ने देखा कि उस आश्रम के कुसुम-उद्यान में कुछ युवा कन्यायें क्रीड़ा कर रही हैं। उनमें से एक अति कमनीय सुन्दरी को देख कर सूवर्णबाहु का मन उस कन्या के प्रति आकृष्ट हो गया और वे उस कन्या के सौन्दर्य को अपलक देखने लगे । कन्या के ललाट पर किये गये चन्दनादि के लेप और सुवासित हार से उसके मुख पर भौरे मंडराने लगे। कन्या द्वारा बार-बार हटाये जाने पर भी भौंरे अधिकाधिक संख्या में उसके मुखमण्डल पर मँडराने लगे, इससे घबड़ा कर कन्या सहसा चिल्ला उठी । इस पर सुवर्णबाहु ने अपनी चादर के छोर से भौंरों को हटा कर कन्या को भयमुक्त कर दिया। Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ साधना] भगवान् श्री पार्श्वनाथ सुवर्णबाहु के इस अयाचित साहाय्य से क्रीड़ारत सभी कन्याएँ प्रभावित हुई और राजकुमारी का परिचय देते हुए बोलीं-"यह राजा खेचरेन्द्र की राजकुमारी पद्मा हैं । अपने पिता के देहान्त के कारण राजमाता रत्नावली के साथ यह यहाँ गालव ऋषि के आश्रम में सुरक्षा हेतु प्राई हुई हैं। यहाँ कल एक दिव्यज्ञानी ने आकर रत्नावली से कहा-"तुम चिन्ता न करो, तुम्हारी कन्या को चक्रवर्ती सुवर्णबाहु जैसे योग्य पति की प्राप्ति होगी । आज वह बात सत्य सिद्ध हुई है।" आश्रम के प्राचार्य गालव ऋषि ने जब सुवर्णबाहु के आने की बात सुनी तो महारानी रत्नावली को साथ लेकर वे भी वहाँ आये और अतिथि सत्कार के पश्चात् सुवर्णबाहु के साथ पदमा का गांधर्व-विवाह कर दिया। उस समय राजा सुवर्णबाहु का सैन्यदल और पद्मा के भाई पद्मोत्तर भी वहाँ आ गये । पद्मोत्तर के प्राग्रह से सुवर्णबाहु कुछ समय तक वहाँ रहे और फिर अपने नगर को लौट आये। राज्य का उपभोग करते हुए सुवर्णबाहु के यहाँ चक्ररत्न प्रकट हुमा । उसके प्रभाव से षट्खंड की साधना कर सुवर्णबाहु चक्रवर्ती सम्राट् बन गये।' - एक दिन पुराणपुर के उद्यान में तीर्थंकर जगन्नाथ का समवशरण हुमा । सुवर्णबाहु ने सहस्रों नर-नारियों को समवशरण की ओर जाते देख कर द्वार. पाल से इसका कारण पूछा और जब उन्हें तीर्थंकर जगन्नाथ के पधारने की बात मालूम हई तो हर्षित होकर वे भी सपरिवार उन्हें वन्दन करने गये । तीर्थंकर जगन्नाथ के दर्शन और समवशरण में आये हुए देवों का बार बार स्मरण कर सुवर्णबाहु बहुत प्रभावित हुए और उन्हें वीतराग-जीवन की महिमा पर चिन्तन करते हुए जातिस्मरण हो पाया । फलतः पुत्र को राज्य सौंप कर उन्होंने तीर्थकर जगन्नाथ के पास दीक्षा ग्रहण की एवं उग्र तपस्या करते हुए गीतार्थ हो गये । मुनि सुवर्णबाहु ने तीर्थंकर गोत्र उपार्जित करने के अर्हद्भक्ति प्रादि बीस साधनों में से अनेक की सम्यकरूप से प्राराधना कर तीर्थकर गोत्र का बंध किया । तपस्या के साथ-साथ उनकी प्रतिज्ञा बड़ी बढ़ी-चढ़ी थी। एक बार वे विहार करते हए क्षीरगिरि के पास क्षीरवर्ण नामक वन में आये और सूर्य के सामने दृष्टि रख कर कायोत्सर्गपूर्वक प्रातापना लेने खड़े हो गये । उस समय कमठ का जीव, जो सप्तम नर्क से निकल कर उस वन में सिंह रूप से उत्पन्न हुआ था, अपने सामने सुवर्णबाहु मुनि को खड़े देख कर क्रुद्ध हो गर्जनों करता हुआ उन पर झपट पड़ा। • १ विषष्टि शलाका पु० च०६।२१ २. चउ. म. प्र. च., पृ. २५५ ३ चउवन्न महापुरिस परियं, पृ० २५६ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [विविध ग्रन्थों में पूर्वभव मुनि सुवर्णबाहु ने कायोत्सर्ग पूर्ण किया और अपनी प्रायु निकट समझ कर संलेखनापूर्वक अनशन कर वे ध्यानावस्थित हो गये। सिंह ने पूर्वभव के वैर के कारण मुनि पर माक्रमण किया और उनके शरीर को चीरने लगा, पर मुनि सर्वथा शान्त और प्रचल रहे । समभाव के साथ मायु पूर्ण कर वे महाप्रभ नाम के विमान में बीस सागर की स्थिति वाले देव हुए। _ सिंह भी मर कर चौथी नभमि में दश सांगर की स्थिति वाले नारकजीव के रूप में उत्पन्न हम्रा । नारकीय प्राय पूर्ण करने के पश्चात् कमठ का जीव दीर्घकाल तक तिर्यग् योनि में अनेक प्रकार के कष्ट भोगता रहा। विविध ग्रन्थों में पूर्वभव पद्मचरित्र के अनुसार पार्श्वनाथ की पूर्वजन्म की नगरी का नाम साकेता और पूर्वभव का नाम आनन्द था और उनके पिता का नाम वीतशोक डामर था । रविसेन ने पार्श्वनाथ को वैजयन्त स्वर्ग से अवतरित माना है, जबकि तिलोयपण्णत्ती और कल्पसूत्र में पार्श्वनाथ के प्राणत कल्प से माने का उल्लेख था। जिनसेन का आदि पुराण और गुणभद्र का उत्तर पुराण पद्मचरित्र के पश्चात् की रचनाएँ हैं। उत्तरपुराण और पासनाह चरिउं में पार्श्वनाथ के पूर्वभव का वर्णन प्रायः समान है। प्राचार्य हेमचन्द्र के त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र और लक्ष्मी वल्लभ की उत्तराध्ययन सूत्र की टीका के तेईसवें अध्ययन में भी पूर्वभवों का वर्णन प्राप्त होता है। पश्चाद्वर्ती प्राचार्यों द्वारा पार्श्वनाथ की जीवनगाथा स्वतन्त्र प्रबन्ध के रूप में भी प्रथित की गई है । श्वेताम्बर परम्परा में पहले पहल श्री देवभद्र सूरि ने 'सिरि पासनाह चरिउं' के नाम से एक स्वतन्त्र प्रबन्ध लिखा है। उसमें निर्दिष्ट पूर्वभवों का वर्णन प्रायः वही है जो गणभद्र के उत्तर पुराण में उल्लिखित है। केवल परम्परा की दृष्टि से कुछ स्थलों में भिन्नता पाई जाती है, जो श्वेताम्बर परम्परा के उत्तरवर्ती ग्रन्थों में भी स्वीकृत है। देवभद्र सरि के अनुसार मरुभूति अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् खिन्नमन रहने लगे एवं हरिश्चन्द्र नामक मुनि के द्वारा दिये गये. उपदेश का अनुसरण करके अपने घरबार, यहाँ तक कि अपनी पत्नी के प्रति भी वे सर्वथा उदासीन रहने लगे। इसके Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म और मातापिता] भगवान् श्री पाश्र्धनाथ ४८१ SHANAMAVASHIKARIMINAR. परिणामस्वरूप उनकी पत्नी वसुन्धरी का कमठ नामक किसी व्यक्ति के प्रति आकर्षण हो गया । कमठ और अपनी पत्नी के पापाचरण की कहानी मरुभूति को कमठ की पत्नी वरुणा से ज्ञात हुई । मरुभूति ने इसकी सचाई को जानने के लिये नगर के बाहर जाने का ढोंग किया। रात्रि में याचक के वेष में लौटकर उसी स्थान पर ठहरने की अनुमति पा ली । वहाँ उसने कमठ और वसुन्धरी को मिलते देखा। जन्म और मातापिता चैत्र कृष्णा चतुर्थी के दिन विशाखा नक्षत्र में स्वर्णबाहु का जीव प्राणत देवलोक से बीस सागर की स्थिति भोग कर च्युत हुप्रा और भारतवर्ष की प्रसिद्ध नगरी वाराणसी के महाराज अश्वसेन की महारानी वामा की कुक्षि में मध्यरात्रि के समय गर्भरूप से उत्पन्न हुआ । माता वामादेवी चौदह शुभ-स्वप्नों को मुख में प्रवेश करते देखकर परम प्रसन्न हुई और पुत्र-रत्न की सुरक्षा के लिए सावधानीपूर्वक गर्भ का धारण-पालन करती रही । गर्भकाल के पूर्ण होने पर पौष कृष्णा दशमी के दिन मध्यरात्रि के समय विशाखा नक्षत्र से चन्द्र का योग होने पर प्रारोग्ययुक्त माता ने सुखपूर्वक पुत्र-रत्न को जन्म दिया। तिलोयपन्नत्ती में भगवान नेमिनाथ के जन्मकाल से ८४ हजार छह सौ ५० वर्ष बीतने पर भगवान पार्श्वनाथ का जन्म लिखा है। प्रभु के जन्म से घर-घर में प्रामोद-प्रमोद का मंगलमय वातावरण प्रसरित हुआ और क्षणभर के लिए समग्र लोक में उद्योत हो गया। ___ समवायांग और प्रावश्यक नियुक्ति में पार्श्व के पिता का नाम प्राससेण (अश्वसेन) तथा माता का नाम वामा लिखा है। उत्तरकालीन अनेक ग्रन्थकारों ने भी यही नाम स्वीकृत किये हैं। . प्राचार्य गुणभद्र और पुष्पदन्त ने (उत्तरपुराण और महापुराण में) पिता का नाम विश्वसेन और माता का नाम ब्राह्मी लिखा है । वादिराज ने पार्श्वनाथ चरित्र में माता का नाम ब्रह्मदत्ता लिखा है। तिलोयपन्नत्ती में पार्श्व की माता का नाम मिला भी दिया है । अश्वसेन का पर्यायवाची हयसेन नाम भी मिलता है। मौलिक रूप से देखा जाय तो इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता । गण, प्रभाव और बोलचाल की दृष्टि से व्यक्ति के नाम में भिन्नता होना माश्चर्य की बात नहीं है। १ पासनाह चरित्रं, पद्यकीर्ति विरचित, प्रस्तावना, पृष्ठ ३१ २ उत्तरपुराण में दशमी के स्थान पर एकादशी को विशाखा नक्षत्र में जन्म माना गया है। ३ पण्णासाधियधस्सयचुलसीविसहस्स-वस्सपरिवते। णेमि जिणुत्पत्तीदो, उप्पत्ती पासणाहस्स । ति. प., ४१५७६।पृ. २१४ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [वंश एवं कुल वंश एवं कुल भगवान् पार्श्वनाथ के कुल और वंश के सम्बन्ध में समवायांग आदि मूल आगमों में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं प्राप्त होता । केवल आवश्यक नियुक्ति में कुछ संकेत मिलता है, वहाँ बाईस तीर्थंकरों को काश्यपगोत्रीय और मूनिसुव्रत एवं अरिष्टनेमि को गौतमगोत्रीय बतलाया है । पर देवभद्र सूरि के “पार्श्वनाथ चरित्र" और त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र में अश्वसेन भूप को इक्ष्वाकुवंशी' माना गया है । काश्यप और इक्ष्वाकु एकार्थक होने से कहीं इक्ष्वाकु के स्थान पर काश्यप कहते हैं । पूष्पदन्त ने पार्श्व को उग्रवंशीय कहा है । तिलोयपन्नत्ती में भी आपका वंश उग्रवंश बतलाया है और आजकल के इतिहासज्ञ विद्वान् पार्श्व को उरग या नागवंशी भी कहते हैं। नामकरण JAISGAREKn.maharth पुत्रजन्म की खुशी में महाराज अश्वसेन ने दश दिनों तक मंगल-महोत्सव मनाया और बारहवें दिन नामकरण करने के लिए अपने सभी स्वजन एवं मित्र-वर्ग को आमन्त्रित कर बोले-“बालक के गर्भस्थ रहते समय इसकी माता ने अँधेरी रात में भी पास (पार्श्व) में चलते हुए सर्प को देख कर मुझे सूचित किया और अपनी प्राणहानि से मुझे बचाया, अत: इस बालक का नाम पार्श्वनाथ रखना चाहिए।" इस निश्चय के अनसार बालक का नाम पार्श्वनाथ रखा गया। १ तस्यामिक्ष्वाकुवंश्योऽभूदश्वसेनो महीपतिः । [त्रि.श.पु०२०, प. ६, स. ३, श्लो० १४] २ महापुराण--१४।२२।२३ ३. (क) सामण सम्वे जाणका पासका य सम्व भावाणं, विसेसो माता अन्धारे सप्पं पासति, रायाणं भणति-हत्यं विनएह सप्पो जाति, किह एस दीसति ? दीवएणं पलोइनो दिट्ठो। [प्रावश्यक चूणि, उत्तर भाग, पृष्ठ ११] (ख) मर्मस्थितेऽस्मिञ्जननी, कृष्णनिश्यपि पार्श्वतः । सर्पन्तं सर्पमद्राक्षीत्, सब: पत्युः शशंस च ।। स्मृत्वा तदेष गर्भस्य, प्रभाव इति निर्णयन् । पाश्वं इत्यभिषा सूनोरश्वसेननृपोफ्ररोत् ।। [त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व १, सर्ग ३, श्लो. ४५) (4) पासोबसप्पेण सुविणयंमि सप्पं पलोहत्या..... [सिरि पासनाह परिउ, गापा ११, प्र. ३ पृष्ठ १४०] Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८३ बाललीला] भगवान् श्री पार्श्वनाथ उत्तरपुराण के अनुसार इन्द्र ने बालक का नाम पार्श्वनाथ रखा।' बाललीला नीलोत्पल सी कान्ति वाले श्री पार्श्व बाल्यकाल से ही परम मनोहर और तेजस्वी प्रतीत होते थे । अतुल बल-वीर्य के धारक प्रभ १००८ शुभ लक्षणों से विभूषित थे । सर्प-लांछन वाले पार्श्व कुमार बालभाव में अनेक राजकुमारों और देवकुमारों के साथ क्रीड़ा करते हुए उडुगण में चन्द्र की तरह चमक रहे थे। पार्श्वकुमार की बाल्यकाल से ही प्रतिभा और उसके बुद्धिकौशल को देख कर महारानी वामा और महाराज अश्वसेन परम संतुष्ट थे। गर्भकाल से ही प्रभ मति, श्रति और अवधिज्ञान के धारक तो थे ही फिर बाल्यकाल पूर्ण कर जब यौवन में प्रवेश करने लगे तो आपकी तेजस्विता और अधिक चमकने लगी । आपके पराक्रम और साहस की द्योतक एक घटना इस प्रकार है : पार्श्व को वीरता और विवाह महाराज अश्वसेन एक दिन राजसभा में बैठे हुए थे कि सहसा कुशस्थल नगर से एक दूत आया और बोला- "कुशस्थल के भूपति नरवर्मा, जो बड़े धर्मप्रेमी साधु-महात्माओं के परम उपासक थे, उन्होंने संसार को तृणवत् त्याग कर जैन-श्रमण-दीक्षा स्वीकार की और उनके पुत्र प्रसेनजित इस समय राज्य का संचालन कर रहे हैं। उनकी पुत्री प्रभावती ने जब से आपके पुत्र पार्श्वकूमार के अनुपम रूप एवं गुणों की महिमा सुनी, तभी से वह इन पर मुग्ध है। उसने यह प्रतिज्ञा कर रखी है कि मैं पार्श्वनाथ के अतिरिक्त अन्य किसी का भी वरण नहीं करूंगी। माता-पिता भी कुमारी की इस पसंद से प्रसन्न थे, किन्तु कलिंग देश के यवन नामक राजा ने जब यह सुना, तो उसने कुशस्थल पर चढ़ाई की प्राज्ञा देते हुए भरी सभा में यह घोषणा की-"मेरे रहते हुए प्रभावती को ब्याहने वाला पाव कौन है ?" ऐसा कह कर उसने एक विशाल सेना के साथ कुशस्थल नगर पर घेरा डाल दिया । उसका कहना है कि या तो प्रभावती दो या यद्ध करो। कुशस्थल १ जन्माभिषेककल्याणपूजानिवृत्यनन्तरम् । पाभिधानं कृत्वास्य, पितृभ्यां तं समर्पयन् ।। [उत्तरपुराण, पर्व ७३, श्लोक १२] Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास पार्श्वनाथ की वीरता के महाराज प्रसेनजित बड़े असमंजस में हैं । उन्होंने मुझे सारी स्थिति से आपको अवगत करने के लिए आपकी सेवा में भेजा है। अब आगे क्या करना है, इसमें देव ही प्रमाण हैं।" दूत की बात सुन कर महाराज अश्वसेन क्रोधावेश में बोले- "अरे ! उस पामर यवनराज की यह हिम्मत जो मेरे होते हुए तुम पर आक्रमण करे । मैं कुशस्थल के रक्षण की अभी व्यवस्था करता हूँ।" ___ यह कहकर महाराज अश्वसेन ने युद्ध की भेरी बजवा दी। क्रीडांगण में खेलते हुए पार्श्वकुमार ने जब रणभेरी की आवाज सुनी तो वे पिता के पास आये और प्रणाम कर पूछने लगे-“तात ! यह कैसी तैयारी है ? आप कहां जा रहे हैं ? मेरे रहते आपके जाने की क्या आवश्यकता है ? छोटे-मोटे शत्रों को तो मैं ही शिक्षा दे सकता है। कदाचित आप सोचते होंगे कि यह बालक है, इसको खेल से क्यों वंचित रखा जाय, परन्तु महाराज क्षत्रियपुत्र के लिए युद्ध भी एक खेल ही है । मुझे इसमें कोई विशेष श्रम प्रतीत नहीं होता।" पुत्र के इन साहस भरे वचनों को सुन कर महाराज अश्वसेन ने उन्हें सहर्ष कुशस्थल जाने की अनमति प्रदान कर दी। पार्श्वकुमार ने गजारूढ़ हो चतुरंगिणी सेना के साथ शुभमुहूर्त में वहाँ से प्रयाण किया। प्रभु के प्रयाण करने पर शक का सारथि सहयोग हेतु प्राया और विनयपूर्वक नमस्कार कर बोला-"भगवन् ! क्रीड़ा की इच्छा से आपको युद्ध के लिए तत्पर देख कर इन्द्र ने मेरे साथ सांग्रामिक रथ भेजा है। आपकी अपरिमित शक्ति को जानते हए भी इन्द्र ने अपनी भक्ति प्रकट की है।" कुमार पार्श्वनाथ ने भी कृपा पर घरातल से ऊपर चलने वाले उस रथ पर आरोहण किया' और कुछ ही दिनों में कुशस्थल पहुँच कर युद्ध की घोषणा करवा दी। उन्होंने पहले यवनराज के पास अपना दूत भेज कर कहलाया कि राजा प्रसेनजित ने महाराज अश्वसेन की शरण ग्रहण की है। इसलिए कुशस्थल को घेराबन्दी से मुक्त कर दो, अन्यथा महाराज अश्वसेन के कोप-भाजन बनने में तुम्हारा भला नहीं है। दूत की बात सुनकर यवनराज ने आवेश में प्राकर कहा-"जाओ, अपने स्वामी पार्श्व को कह दो कि यदि वह अपनी कुशल चाहता है तो बीच में न पड़े । ऐसा न हो कि हमारे क्रोध की आग में पड़ने से उस बालक को असमय में ही प्राण गंवाना पड़े।" दूत के मुख से यवनराज की बात सुनकर करुणासागर पावकुमार ने यवनराज को समझाने के लिये दूत को दूसरी बार मोर भेजा। १ त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व ६, सर्ग ३, श्लोक ११७-१२० । Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और विवाह भगवान् श्री पार्श्वनाथ ४८५ दूत ने दुबारा जाकर यवनराज से फिर कहा-"स्वामी ने तुम पर कृपा करके पुन: मुझे भेजा है, न कि किसी प्रकार की कमजोरी के कारण । तुम्हारा इसी में भला है कि उनकी आज्ञा को स्वीकार कर लो।" दूत की बात सुनकर यवनराज के सैनिक उठे और जोर-जोर से कहने लगे-"अरे! अपने स्वामी के साथ क्या तुम्हारी कोई शत्रुता है, जिससे तुम उन्हें युद्ध में ढकेल रहे हो?" ___ सैनिकों को रोक कर वृद्ध मन्त्री बोला- "सैनिको ! स्वामी के प्रति द्रोह यह दूत नहीं अपितु तुम लोग कर रहे हो । पार्श्व की महिमा तुम लोग नहीं जानते, वह देवों, दानवों और मानवों के पूजनीय एवं महान् पराक्रमी हैं। इन्द्र भी उनकी शक्ति के सामने सिर झुकाते हैं, अतः सबका हित इसी में है कि पार्श्वनाथ की शरण स्वीकार कर लो।" मन्त्री की इस स्व-परहितकारिणी शिक्षा से यवनराज भी प्रभावित हुआ और पार्श्वनाथ का वास्तविक परिचय प्राप्त कर उनकी सेवा में पहुँचा । विशाल सेना से युक्त प्रभु के अद्भुत पराक्रम को देखकर उसने सविनय अपनी भूल स्वीकार करते हुए क्षमा-याचना की। पार्श्वनाथ ने भी उसको अभय कर विदा कर दिया। उसी समय कुशस्थल का राजा प्रसेनजित प्रभावती को लेकर पार्श्वकुमार के पास पहुंचा और बोला-"महाराज! जिस प्रकार आपने हमारे नगर को पावन कर दुष्टों के आक्रमण से बचाया है, उसी प्रकार हमारी प्राणाधिका पुत्री प्रभावती का पारिणग्रहण कर हमें अनुगृहीत कीजिये ।" इस पर पार्श्वनाथ बोले- “राजन् ! मैं पिता की आज्ञा से आपके नगर की रक्षा करने के लिये पाया हूँ न कि आपकी कन्या के साथ विवाह करने, अतः इस विषय में वृथा आग्रह न करिये।'' यह कहकर पार्श्वनाथ अपनी सेना सहित वाराणसी की मोर चल पड़े। प्रसेनजित भी अपनी पुत्री प्रभावती सहित पार्श्वकुमार के साथ-साथ वाराणसी आये और महाराज अश्वसेन को सारी स्थिति से अवगत कराते हुए उन्होंने निवेदन किया--"आपकी छत्र-छाया में हम सबका सब तरह से कुशलमंगल है, केवल एक ही चिन्ता है और वह भी प्रापकी दया से ही दूर होगी। १ ताताज्ञया त्रातुनेव, त्वामायाताः प्रसेनजित् । भवतः कन्यकामेतामुढोढ न पुनर्वयम् ॥ [त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व, सर्ग ३, श्लो. १८५] Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास पार्श्वनाथ की वीरता मेरी एक प्रभावती नाम की कन्या है, मेरी आग्रहपूर्ण प्रार्थना है कि उसे पार्श्वकुमार के लिये स्वीकार किया जाय ।" महाराज अश्वसेन ने कहा--"राजन् ! कुमार सर्वदा संसार से विरक्त रहता है, न मालूम कब क्या करले, फिर भी तुम्हारे आग्रह से इस समय बलात भी कुमार का विवाह करा दूंगा।" तदनन्तर महाराज अश्वसेन प्रसेनजित के साथ पार्श्वकुमार के पास आये और बोले- "कुमार ! प्रसेनजित की सर्वगुणसम्पन्ना पुत्री प्रभावती से विवाह कर लो।" पिता के वचन सुनकर पार्श्वकूमार बोले- "तात ! मैं मल से ही अपरिग्रही हो संसारसागर को पार करूगा, अत: संसार चलाने हेतु इस कन्या से विवाह कैसे करूं?" महाराज अश्वसेन ने आग्रह भरे स्वर में कहा- "तुम्हारी ऐसी भावना है तो समझ लो कि तुमने संसारसागर पार कर ही लिया। वत्स ! एक बार हमारा मनोरथ पूर्ण करदो, फिर विवाहित होकर समय पर तुम आत्म-साधन कर लेना।'' अंत में पिता के प्राग्रह को टालने में असमर्थ पार्श्वकूमार ने भोग्य कर्मों का क्षय करने हेतु पितृ-वचन स्वीकार किया और प्रभावती के साथ विवाह कर लिया । भगवान् पार्श्व के विवाह के विषय में प्राचार्यों का मतभेद त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र और चउपन्न महापुरिस चरियं में पार्श्व के विवाह का जिस प्रकार वर्णन मिलता है, उस प्रकार का वर्णन तिलोयपन्नत्ती, पद्मचरित्र, उत्तरपुराण, महापुराण और वादोराजकृत पार्श्व चरित में नहीं मिलता । देवभद्र कृत पालनाह चरियं और त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र में यवन के आत्मसमर्पण के पश्चात् विवाह का वर्णन है, किन्तु पद्मकीति ने विवाह का प्रसंग उठाकर भी विवाह होने का प्रसंग नहीं दिया है। वहां पर यवन राज के साथ पार्श्व के युद्ध का विस्तृत वर्णन है । १ संसारोऽपि स्वयोत्तीर्ण, एव यस्येदृशं मनः । कृतोद्वाहोऽपि तज्जात, समये स्वार्थमाधरे ॥२०॥ [त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व ६, स० ३] २ इत्यं पितृवचः पावोऽप्युल्लंघयितुमनीश्वरः । भोग्यं कर्म क्षपयितुमुदुवाह प्रभावतीम् ॥२१॥ [वही] Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौर विवाह भगवान् श्री पार्श्वनाथ ४८७ मूल आगम समवयांग और कल्पसूत्र में विवाह का वर्णन नहीं है । श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के कुछ प्रमुख ग्रन्थों में यह उल्लेख मिलता है कि वासुपूज्य, मल्ली, नेमि, पाव और महावीर तीथंकर कुमार अवस्था में दीक्षित हए और उन्नीस (१६) तीर्थंकरों ने राज्य किया। इसी आधार पर दिगम्बर परम्परा इन्हें अविवाहित मानती है। श्वेताम्बर परम्परा के प्राचार्यों का मन्तव्य है कि कुमारकाल का अभिप्राय यहां युवराज अवस्था से है। जैसा कि शब्दरत्न-कोष और वैजयन्ती में भी कुमार का अर्थ युवराज किया है।' पार्श्व को विवाहित मानने वालों की दृष्टि में वे पिता के प्राग्रह से विवाह करने पर भी भोग-जीवन से अलिप्त रहे और तरुण एवं समर्थ होकर भी उन्होंने राज्यपद स्वीकार नहीं किया। इसी कारण उन्हें कुमार कहा गया है। किन्तु दूसरे प्राचार्यों की दृष्टि में वे अविवाहित रहने के कारण कुमार कहे गये हैं । यही मतभेद का मूल कारण है । नाग का उद्धार लोकानुरोध से पार्श्वनाथ ने प्रभावती के साथ वन, उद्यान आदि की क्रीड़ा में कितने ही दिन बिताये । __ एक दिन प्रभु पार्श्वनाथ राजभवन के झरोखे में बैठे हए कतहल से वाराणसी पुरी की छटा निहार रहे थे। उस समय उन्होंने सहस्रों नर-नारियों को पत्र, पुष्पादि के रूप में प्रर्चा की सामग्री लिये बड़ी उमंग से नगर के बाहर जाते देखा। जब उन्होंने इस विषय में अनचर से जिज्ञासा की तो ज्ञात हा कि नगर के उपवन में कमठ नाम के एक बहुत बड़े तापस आये हुए हैं। वे बड़े तपस्वी हैं और सदा पंचाग्नि-तप करते हैं । यह मानव-समुदाय उन्हीं की सेवा-पूजा के लिये जा रहा है। अनुचर की बात सुनकर कुमार भी कतुहलवश तापस को देखने चल पड़े। वहाँ जाकर उन्होंने देखा कि तापस धनी लगाये पंचाग्नि-तप तप रहा है। उसके चारों ओर अग्नि जल रही है और मस्तक पर सूर्य तप रहा है । झुण्ड के १ कुमारो युवराजेश्ववाहके बालके शुके । -शब्दरत्न समन्वय कोष, पृ. २६८ कुमारस्स्याद्रहे वाले बरणेऽश्वानुचारके ।।२८।। युवराजे.... -वैजयन्ती कोष, पृ० २५६ २ जनोपरोधादुवानक्रीड़ा शैलादिषु प्रमुः । रममारणस्तया साधं, वासरानत्यवाहयत् ।।२११॥ [त्रिषष्टि श० पु०, १०, पर्व ६, स० ३] Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [नाग का झुण्ड भक्त लोग जाते हैं और विभूति का प्रसाद लेकर अपने आपको धन्य और कृतकृत्य मानते हैं । तपस्वी के सिर की फैली हुई लम्बी जटामों के बीच लाललाल आँखें डरावनी-सी प्रतीत हो रही थीं। पार्श्वकुमार ने अपने अवधिज्ञान से जाना कि धूनी में जो लक्कड़ पड़ा है, उसमें एक बड़ा नाग (उत्तरपुराण के अनुसार नाग-नागिन का जोड़ा) जल रहा है। उसके जलने की घोर आशंका से कुमार का हृदय दयावश द्रवित हो गया। वे मन ही मन सोचने लगे-"अहो ! कैसा अज्ञान है, तप में भी दया नहीं।" पार्श्वकुमार ने कमठ से कहा-"धर्म का मूल दया है, वह आग के जलाने में किस तरह संभव हो सकती है ? क्योंकि अग्नि प्रज्वलित करने से सब प्रकार के जीवों का विनाश होता है ।। अहो ! यह कैसा धर्म है, जिसमें कि धर्म की मूल दया ही नहीं ? बिना जल के नदी की तरह दया-शून्य धर्म निस्सार है।" पार्श्वकुमार की बात सुनकर तापस पाग-बबूला हो उठा- "कूमार ! तुम धर्म के विषय में क्या जानते हो? तुम्हारा काम हाथी-घोड़ों से मनोविनोद करना है। धर्म का मर्म तो हम मुनि लोग ही जानते हैं। इतनी बढ़कर बात करते हो तो क्या इस धूनी में कोई जलता हुआ जीव बता सकते हो ?" यह सुनकर राजकुमार ने सेवकों को अग्निकुण्ड में से लक्कड़ निकालने की आज्ञा दी । लक्कड़ आग से बाहर निकालकर सावधानीपूर्वक चीरा गया तो उसमें से जलता हुआ एक · साँप बाहर निकला । भगवान ने सर्प को पीड़ा से तड़पते हुए देखकर सेवक से नवकार मन्त्र सुनवाया और पच्चक्खाण दिलाकर उसे आर्त-रौद्ररूप दुर्ध्यान के बचाया । शुभ भाव से आयु पूर्ण कर नाग भी नाग १ (क) तत्थ पुलइयो ईसीसि डज्झमाणो एको महाणागो। तो भयवयाणिययपुरिसवयणेण दवाविप्रो से पंचणमोकारो पच्चखाणं च ।। - [चउपन्न म० पु० चरियं, पृ० २६२] (ख) नागी नागश्च तच्छेदात्, द्विधा खण्डमुपागती ।। [उत्तरपुराण, पर्व ७३, श्लोक १०३] (ग) सुमहानुरगस्तस्मात् सहसा निर्जगाम च ॥२२४॥ [त्रिषष्टि शलाका पु० च०, पर्व , सर्ग ३] २ (क) धम्मस्स दयामूलं, सा पुण पज्जालणे कहं सिहियो । [सिरि पासनाह चरिउं, ३ । १६६] Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ उद्धार] भगवान् श्री पार्श्वनाथ जाति के भवन वासी देवों में धरणेन्द्र नाम का इन्द्र हुआ ।' इस तरह प्रभु की कृपा से नाग का उद्धार हो गया । पार्श्वकुमार के ज्ञान और विवेक की सब लोग मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करने लगे। इस तापस की प्रतिष्ठा कम होगई और लोग उसे धिक्कारने लगे । तापस मन ही मन पार्श्वकुमार पर बहुत जलने लगा पर कुछ कर न सका । अन्त में अज्ञान-तप से आयु पूर्ण कर वह असुर-कुमारों में मेघमाली नाम का देव हुआ । वैराग्य और मुनि-दीक्षा तीर्थकर स्वयंबुद्ध (स्वतः बोधप्राप्त) होते हैं, इस बात को जानते हुए भी कुछ आचार्यों ने पार्श्वनाथ के चरित्र का चित्रण करते हुए उनके वैराग्य में बाह्य कारणों का उल्लेख किया है । जैसे 'चउपन महापुरुष चरियं' के कर्ता आचार्य शीलांक, 'सिरि पास नाह चरियं' के रचयिता, देव भद्र सरि और 'पार्श्वचरित्र' के लेखक भावदेव तथा हेम विजयगरिण ने भित्तिचित्रों को देखने से वैराग्य होना बतलाया है। इनके अनुसार उद्यान में घूमने गये हुए पार्श्वकमार को नेमिनाथ के भित्तिचित्र देखने से वैराग्य उत्पन्न हुआ। उत्तरपराण के अनुसार नाग-उद्धार की घटना वैराग्य का कारण नहीं होती, क्योंकि उस समय पार्श्वकुमार सोलह वर्ष से कुछ अधिक बय के थे। जब पार्श्वकुमार तीस वर्ष की प्राय प्राप्त कर चुके तब अयोध्या के भूपति जयसेन ने उनके पास दूत के माध्यम से एक भेंट भेजी । जब पार्श्वकुमार ने अयोध्या की विभूति के लिए पूछा तो दूत ने पहले आदिनाथ का परिचय दिया और फिर अयोध्या के अन्य समाचार बतलाये । ऋषभदेव के त्याग-तपोमय जीवन की बात सुनकर पार्श्व को जातिस्मरण हो पाया। यही वैराग्य का कारण बताया गया है, किन्तु पद्मकीति के अनुसार नाग की घटना इकतीसवें वर्ष में हुई और यही पार्श्व के वैराग्य का मुख्य कारण बनी। महापुराण में पुष्पदन्त ने भी नाग की मृत्यु को पार्श्व के वैराग्यभाव का कारण माना है। १ तत्रेषद्दह्यमानस्य, महाहेभगवान्नृभिः । अदापयन् नमस्कारान्, प्रत्याख्यानं च तत्क्षणम् ।।२२।। नागः समाहितः सोऽपि, तत्प्रतीयेष शुद्धधीः । वीक्ष्यमाणो भगवता, कृपामधुरया दृशा ॥२२६।। नमस्कारप्रभावेण, स्वामिनो दर्शनेन च । विपद्य धरणो नाम, नागराजो बभूव सः ॥२२॥ [त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व ६, सर्ग ३] २ शास्त्र में तीर्थंकर के जन्मतः ३ बतलाये हैं । फिर जातिस्मरण का क्या उपयोग? Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [वैराग्य और किन्तु प्राचार्य हेमचन्द्र और वादिराज ने पार्श्व की वैराग्योत्पत्ति में बाह्य कारण को निमित्त न मानकर स्वभावतः ज्ञान भाव से विरक्त होना माना है। शास्त्रीय दृष्टि से विचार करने पर भी वही पक्ष समीचीन और यक्तिसगत प्रतीत होता है। शास्त्र में लोकान्तिक देवों द्वारा तीर्थंकरों से निवेदन करने का उल्लेख आता है, वह भी केवल मर्यादा-रूप ही माना गया है, कारण कि संसार में बोध पाने वालों की तीन श्रेणियां मानी गई हैं -(१) स्वयंबुद्ध, (२) प्रत्येक बुद्ध और (३) बुद्धबोधित । इनमें तीर्थंकरों को स्वयंबद्ध कहा हैवे किसी गुरु आदि से बोध पाकर विरक्त नहीं होते। किसी एक बाह्यनिमित्त को पाकर बोध पाने वाले प्रत्येक बुद्ध और ज्ञानवान गुरु से बोध पाने वाले को बुद्ध-बोधित कहते हैं। तीन ज्ञान के धनी होने से तीर्थंकर स्वयंबुद्ध होते हैं, अतः इनका बाह्यकारण-सापेक्ष वैराग्य मानना ठीक नहीं। पार्श्वनाथ सहज-विरक्त थे । तीस वर्ष तक गहस्थ जीवन में रहकर भी वे काम-भोग में आसक्त नहीं हुए। भगवान पार्श्व ने भोग्य कर्मों के फलभोगों को क्षीण समझ कर जिस समय संयम ग्रहण करने का संकल्प किया, उस समय लोकान्तिक देवों ने उपस्थित होकर प्रार्थना की- "भगवन् ! धर्मतीर्थ को प्रकट करें।"१ तदनुसार भगवान् पार्श्वनाथ वर्षभर स्वर्ण-मुद्राओं का दान कर पौष कृष्णा एकादशी को दिन के पूर्व भाग में देवों, असुरों और मानवों के साथ वाराणसी नगरी के मध्यभाग से निकले और आश्रमपद उद्यान में पहुँच कर अशोक वृक्ष के नीचे विशाला शिविका से उतरे । वहाँ भगवान ने अपने ही हाथों आभषणादि उतार कर पंचमुष्टि लोच किया और तीन दिन के निर्जल उपवास अर्थात् अष्टम-तप से विशाखा नक्षत्र में तीन सौ पुरुषों के साथ गहवास से निकलकर सर्वसावद्यत्याग रूप प्रणगार-धर्म स्वीकार किया। प्रभु को उसी समय चौथा मनः पर्यवज्ञान हो गया। प्रथम पारणा दीक्षा-ग्रहण के दूसरे दिन प्राश्रमपद उद्यान से विहार कर प्रभु कोपकटक सन्निवेश में पधारे। वहां धन्य नामक गृहस्थ के यहां आपने परमान्न-खीर से १ इतश्च पावो भगवान्, कर्मभोगफलं निजम् । उपभुक्तं हरिज्ञाय, प्रव्रज्यायां दधौ मनः ॥२३१॥ भावज्ञा इव तत्कालमेत्य लोकान्तिकामराः । पावं विज्ञापयामासुर्नाथ तीर्थ प्रवर्तय ।।२३२॥ [त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व, ६ सर्ग ३] Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि-दीक्षा भगवान् श्री पार्श्वनाथ ४६१ अष्टमतप का पारणा किया। देवों ने पंच-दिव्यों की वर्षा कर दान की महिमा प्रकट की। प्राचार्य गुणभद्र ने 'उत्तरपुराण' में गुल्मखेट नगर के राजा धन्य' के यहां अष्टम-तप का पारगगा होना लिखा है। पद्मकीति ने अष्टम-तप के स्थान पर पाठ उपवास से दीक्षित होना लिखा है, जो विचारणीय है। अभिग्रह दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् भगवान् ने यह अभिग्रह किया "तिरासी (८३) दिन का छद्मस्थ-काल का मेरा साधना-समय है, उसे पूरे समय में शरीर से ममत्व हटा कर मैं पूर्ण समाधिस्थ रहूंगा। इस अवधि में देव, मनष्य और पशु-पक्षियों द्वारा जो भी उपसर्ग उपस्थित किये जायेंगे, उनको मैं अविचल भाव से सहन करता रहूँगा।" भ० पार्श्वनाथ की साधना और उपसर्ग वाराणसी से विहार करते हए उपर्य क्त अभिग्रग्रहानसार भगवान शिवपुरी नगर पधारे और कौशाम्बवन में ध्यानस्थ हो खड़े हो गये ।२ वहां पूर्वभव को स्मरण कर धरणेन्द्र पाया और धूप से रक्षा करने के लिये उसने भगवान् पर छत्र कर दिया । कहते हैं उसी समय से उस स्थान का नाम 'अहिछत्र' प्रसिद्ध हो गया । फिर विहार करते हुए प्रभु एक नगर के पास तापसाश्रम पहुँचे और सायंकाल हो जाने के कारण वहीं एक वटवृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग कर खड़े हो गये। सहसा कमठ के जीव ने, जो मेघमाली असुर बना था, अपने ज्ञान से प्रभु को ध्यानस्थ खड़े देखा तो पूर्वभव के वैर की स्मृति से वह भगवान पर बड़ा ऋद्ध हा। वह तत्काल सिंह, चीता, मत्त हाथी, आशुविष वाला बिच्छ और साँप आदि के रूप बनाकर भगवान को अनेक प्रकार के कष्ट देने लगा। तदनन्तर उसने बीभत्स वैताल का रूप धारण कर प्रभु को अनेक प्रकार से १ गुल्मखेटपुरं कायस्थित्यर्थं समुपेयिवान् ।। १३२।। तत्र धनाख्य भूपालः श्यामवर्णोऽष्ट मंगलः प्रतिगृह्याशनं शुद्ध, दत्वापत्तत्क्रियोचितम् ।।१३३॥ [उत्तरपुराण, पर्व ७३] २ सिवनयरीए बहिया, कोसंबवणे ट्ठियो य पडिमाए [पासनाह चरियं, ३, पृ० १८७] ३ ........पहुणो उवरि धरइ छत्त । [वी पृ० १८८] Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भ० पार्श्वनाथ की डराने-धमकाने का प्रयास किया, परन्तु भगवान पार्श्वनाथ पर्वतराज की तरह अडोल एवं निर्मम भाव से सब कुछ सहते रहे। मेघमाली अपनी इन करतूतों की विफलता से और अधिक क्रुद्ध हुआ । उसने वैक्रिय-लब्धि की शक्ति से घनघोर मेघघटा की रचना की । भयंकर गर्जन और विद्युत की कड़कड़ाहट के साथ मूसलधार वर्षा होने लगी । दनादन अोले गिरने लगे, वन्य-जीव भय के मारे त्रस्त हो इधर-उधर भागने लगे । देखते ही देखते सारा वन-प्रदेश जलमय हो गया । प्रभु पार्श्व के चारों ओर पानी भर गया और वह चढ़ते-चढ़ते घुटनों, कमर और गर्दन तक पहुँच गया। नासाग्र तक पानी आ जाने पर भी भगवान् काध्यानभंग नहीं हुआ ।' जबकि थोड़ी ही देर में भगवान् का सारा शरीर पानी में डूबने ही वाला था, तब धरणेन्द्र का आसन कम्पित हुआ। उसने अवधिज्ञान से देखा तो, पता चला--"मेरे परम उपकारी भगवान् पार्श्वनाथ इस समय घोर कष्टों से घिरे हुए हैं।" यह देख कर वह बहुत ही क्षब्ध हना और पद्मावती, वैरोट्या आदि देवियों के साथ तत्काल दौड़कर प्रभु की सेवा में पहुंचा। धरणेन्द्र ने प्रभु को नमस्कार किया और उनके चरणों के नीचे दीर्घनाल युक्त कमल की रचना की एवं प्रभु के शरीर को सप्तफरणों के छत्र से अच्छी तरह ढक दिया। भगवान देव-कृत उस कमलासन पर समाधिलीन राजहंस की तरह शोभा पा रहे थे। वीतराग भाव में पहँचे भगवान पार्श्वनाथ कमठासुर की उपसर्ग लीला और धरणेन्द्र की भक्ति, दोनों पर समदृष्टि रहे। उनके हृदय में न तो कमठ के प्रति द्वष था और न धरणेन्द्र के प्रति अनुराग। वे मेघमाली के उपसर्ग से किंचिन्मात्र भी क्षब्ध नहीं हए । इतने पर भी मेघमाली क्रोधवश वर्षा करता रहा तब धरणेन्द्र को अवश्य रोष आया और वह गरज कर बोला-"दुष्ट ! तू यह क्या कर रहा है ? उपकार के बदले अपकार का पाठ तूने कहां पढ़ा है ? जिन्होंने तुम्हें प्रज्ञानगर्त से निकाल कर समुज्ज्वल सुमार्ग का दर्शन कराया, उनके प्रति कृतघ्न होकर उनको ही उपसर्ग-पीड़ा से पीड़ित करने का प्रयास १ अवगणियासेसोवसग्गस्स य लग्गं नासियाविवरं जाव सलिलं । [चउवन्न म. पु. चरियं, पृ. २६७] २ एत्थावसरम्मि य चलियमासणं धरणराइयो । [वही] ३ (क) सिरिपासणाह चरियं में सात फणों का छत्र करने का उल्लेख है । यथा-""" सत्तसंखफारफणाफल गमयं....... (स) चउवन्न महापुरिस चरियं में सहस्रफण का उल्लेख है । यथा :-विरइयं भयवो उरि फणसहस्सायवत्त । [पृ० २६७] Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना और उपसर्ग] भगवान् श्री पार्श्वनाथ ४६३ कर रहा है । तुम्हें नहीं मालूम कि ऐसी महान् आत्मा की अवज्ञा व प्रशातना अग्नि को पैर से दबाने के समान दुःखप्रद है। इनका तो कुछ भी नहीं बिगड़ेगा, किन्तु तेरा सर्वनाश हो जायगा। भगवान् तो दयालु हैं, पर मैं इस तरह सहन नहीं करूंगा।" धरणेन्द्र की बात सुनकर मेघमाली भयभीत हुमा और प्रभु की अविचल शान्ति एवं धरणेन्द्र की भक्ति से प्रभावित होकर उसने अपनी माया तत्काल समेट ली। प्रभु के चरणों में सविनय क्षमा याचना कर वह अपने स्थान को चला गया। धरणेन्द्र भी भक्ति-विभोर ही पावं की सेवा-भक्ति कर वहाँ से अपने स्थान को चला गया। उपसर्ग पर विजय प्राप्त कर भगवान् अपनी अखण्ड साधना में रत रहे । इस तरह अनेक स्थलों का विचरण करते हुए प्रभु वाराणसी के बाहर पाश्रमपद नामक उद्यान में पधारे और उन्होंने छद्मस्थकाल की तिरासी रातें पूर्ण की। केवलज्ञान छद्मस्थ दशा की तिरासी रात्रियां पूर्ण होने के पश्चात चौरासीवें दिन प्रभु वाराणसी के निकट आश्रमपद उद्यान में घातकी वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ खड़ हो गये । अष्टम तप के साथ शुक्लध्यान के द्वितीय चरण में मोह कर्म का क्षय कर आपने सम्पूर्ण घातिक कर्मों पर विजय प्राप्त की और केवलज्ञान, केवलदर्शन की उपलब्धि की। जिस समय आपको केवलज्ञान हुया उस समय चैत्र कृष्णा चतुर्थी के दिन विशाखा नक्षत्र में चन्द्र का योग था। पद्मकीर्ति ने कमठ द्वारा उपस्थित किये गये उपसर्ग के समय प्रभु के केवलज्ञान होना माना है, जबकि अन्य श्वेताम्बर आचार्यों ने कुछ दिनों बाद । तिलोयपण्णत्ती ने चार मास के बाद केवली होना माना है, पर सबने केवलज्ञान प्राप्ति का दिन चैत्र कृष्णा चतुर्थी और विशाखा नक्षत्र ही मान्य किया है। भगवान् पार्श्वनाथ को केवलज्ञान की उपलब्धि होने की सूचना पाकर महाराज अश्वसेन वन्दन करने आये और देव-देवेन्द्रों ने भी हर्षित मन से आकर केवलज्ञान की महिमा प्रकट की। उस समय सारे संसार में क्षण भर के लिये प्रद्योत हो गया । देवों द्वारा समवसरण की रचना की गई। देशना और संघ-स्थापना केवलज्ञान की उपलब्धि के बाद भगवान् ने जगजीवों के हितार्थ धर्म१ दिगम्बर परम्परा में प्रभु का छपस्थकाल चार मास और उपसर्गकर्ता का नाम शंबर माना गया है । हेमचन्द्र ने 'दीक्षादिनादतिगतेषु तु दिनेषु चतुरणीति' ८४ दिन लिखा है। -सम्पादक २ कल्पसूत्र में छ? तप का उल्लेख है। SUBASTISHALINGAMAGRAM E NTara Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [देशना और उपदेश दिया। आपने प्रथम देशना में फरमाया-"मानवो! प्रनादिकालीन इस संसार में जड़ और चेतन ये दो ही मुख्य पदार्थ हैं । इनमें जड़ तो चेतनाशून्य होने के कारण केवल ज्ञातव्य है। उसका गुण-स्वभाव चेतन द्वारा ही प्रकट होता है । चेतन ही एक ऐसा द्रव्य है, जो ज्ञाता, द्रष्टा, कर्ता, भोक्ता, एवं प्रमाता हो सकता है। यह प्रत्येक के स्वानुभव से प्रत्यक्ष है। कर्म के सम्बन्ध में प्रात्मचन्द्र की ज्ञान किरणे आवृत हो रही हैं, उनको ज्ञान-वैराग्य की साधना से प्रकट करना ही मानव का प्रमुख धर्म है । सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र ही आवरण-मुक्ति का सच्चा मार्ग है, जो श्रुत और चारित्र धर्म के भेद से दो प्रकार का है। कर्मजन्य आवरण और बन्धन काटने का एकमात्र मार्ग धर्म-साधन है । बिना धर्म के जीवन शून्य व सारहीन है, अतः धर्म की आराधना करो। चारित्र धर्म आगार और अनगार के भेद से दो प्रकार का है । चार महाव्रत रूप अनगार-धर्म मुक्ति का अनन्तर कारण है और देश-विरति रूप आगारधर्म परम्परा से मुक्ति दिलाने वाला है। शक्ति के अनुसार इनका पाराधन कर परम तत्त्व की प्राप्ति करना ही मानव-जीवन का चरम और परम लक्ष्य है। इस प्रकार त्याग-वैराग्यपूर्ण प्रभु की वाणी सुन कर महाराज अश्वसेन विरक्त हुए और पुत्र को राज्य देकर स्वयं प्रवजित हो गये । महारानी वामा देवी, प्रभावती आदि कई नारियों ने भी भगवान की देशना से प्रबद्ध हो पार्हतीदीक्षा स्वीकार की । प्रभु के प्रोजपूर्ण उपदेश से प्रभावित हो कर शुभदत्त आदि वेदपाठी विद्वान भी प्रभ की सेवा में दीक्षित हए और पार्श्व प्रभ से त्रिपदी का ज्ञान पाकर वे चतुर्दश पर्वो के ज्ञाता एवं गणधर पद के अधिकारी बन गये। इस प्रकार पार्श्वनाथ ने चतुर्विध संघ की स्थापना की और भावतीर्थकर कहलाये। पाव के गणधर समवायांग और कल्पसूत्र में पार्श्वनाथ के पाठ गणधर बतलाये हैं। जबकि आवश्यक नियुक्ति एवं तिलोयपन्नत्ती आदि ग्रन्थों में दश गणधरों का उल्लेख है। इस संख्याभेद के सम्बन्ध में कल्पसूत्र के टीकाकार उपाध्याय १ पासस्स णं अरहो पुरिसादारणीयस्स अट्ठगणा, अट्ठ गणहरा हुत्या तंजहाः सुभेय, प्रज्जघोसेय, बसिठे बंभयारि य । सोमे सिरिहरे चेव, वीरभद्दे जसे विय ।। २ प्रार्यदत्त, प्रार्यघोषो वशिष्ठो ब्रह्मनामकः । सोमश्च श्रीधरो वारिषेणो भद्रयशो जयः ।। विजयश्चेति नामानो, दशैते पुरुषोत्तमाः । पास. च. ५१४३७।२८ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ-स्थापना] भगवान् श्री पार्श्वनाथ ४६५ श्री विनय विजय ने लिखा है कि दो गणधर अल्पायु वाले थे' अत: सूत्र में पाठ का ही निर्देश किया गया है। केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात जब भगवान का प्रथम समवसरण हुअा, सहस्रों नर-नारियों ने प्रभु की त्याग-वैराग्यपूर्ण वाणी को श्रवण कर श्रमरणदीक्षा ग्रहण की। उनमें आर्य शुभदत्त आदि विद्वानों ने प्रभु से त्रिपदी का ज्ञान प्राप्त कर चौदह पूर्व की रचना की और गणनायक-गणधर कहलाये । श्री पासनाह चरिउं के अनुसार गणधरों का परिचय निम्न प्रकार है : (१) शुभदत्त-ये भगवान पार्श्वनाथ के प्रथम गणधर थे। इनकी जन्मस्थली क्षेमपुरी नगरी थी। पिता का नाम धन्य एवं माता का नाम लीलावती था । सम्भूति मुनि के पास इन्होंने श्रावकधर्म ग्रहण किया और माता-पिता के परलोकवासी होने पर संसार से विरक्त होकर बाहर निकल गये और आश्रमपद उद्यान में आये, जहां कि भगवान् पार्श्वनाथ का प्रथम समवसरण हुआ। भगवान् की देशना सुनकर उन्होंने प्रव्रज्या ग्रहण की और वे प्रथम गणधर बन गये। ..(२) आर्य घोष-पार्श्वनाथ के दूसरे गणधर का नाम आर्य घोष था। ये राजगृह नगर के निवासी अमात्यपुत्र थे। जिस समय भगवान को केवलज्ञान हुआ, वे अपने स्नेही साथियों के साथ वहाँ आये और दीक्षा लेकर गणधर पद के अधिकारी हो गये। (३) वशिष्ठ-भगवान् पार्श्वनाथ के तीसरे गणधर वशिष्ठ हुए। ये कम्पिलपुर के अधीश्वर महाराज महेन्द्र के पुत्र थे। बाल्यावस्था से ही इनकी रुचि प्रव्रज्या ग्रहण करने की ओर रही। संयोग पाकर भगवान् पार्श्वनाथ के प्रथम समवसरण में उपस्थित हुए और वहीं संयम ग्रहण करके तीसरे गणधर बन गये। . (४) आर्य ब्रह्म-भगवान् पार्श्वनाथ के चौथे गणधर आर्यब्रह्म हुए। ये सुरपुर नगर के महाराजा कनककेतु के पुत्र थे। इनकी माता शान्तिमती थीं। भगवान् पार्श्वनाथ को केवलज्ञान होने पर ये भी अपने साथियों सहित वंदन करने उनके पास पहुंचे और देशना श्रवण कर प्रवजित हो गये । " (५) सोम-भगवान पार्श्वनाथ के पांचवें गणधर सोम थे। क्षितिप्रतिष्ठित नगर के महाराजा महीधर के ये पुत्र थे । इनकी माता का नाम रेवती १ द्वौ अल्पायुष्कत्वादि कारणान्नोक्तौ इति टिप्पणके व्याख्यातम् । [कल्पसूत्र, सुबोधिका टीका, पृष्ठ ३८१] Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [पार्श्व के था। युवावस्था प्राप्त होने पर "चम्पकमाला" नाम की कन्या के साथ इनका पाणिग्रहरण हुआ । इनके हरिशेखर नाम का पुत्र हुआ, जो चार वर्ष की उम्र में ही निधन को प्राप्त हो गया। पुत्र की मृत्यु एवं पत्नी चम्पकमाला की लम्बी रुग्णता तथा निधन-लीला से इनको संसार से विरक्ति हो गई और भगवान् पार्श्वनाथ के प्रवचन से प्रभावित होकर संयममार्ग में प्रवजित हो गये। (६) आर्य श्रीधर-भगवान् पार्श्वनाथ के छठे गणधर आर्य श्रीधर हुए । इनके पिता का नाम नागबल एवं माता का महासुन्दरी था। युवावस्था प्राप्त होने पर महाराजा प्रसेनजित की पुत्री राजमती के साथ इनका पारिणग्रहण हुआ । सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए उनको किसी दिन एक श्रेष्ठिपुत्र के द्वारा पूर्वजन्म की भगिनी के समाचार सुनाये गये। समाचार सुनकर इनको जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ और संसार से विरक्ति हो गई। एक दिन वे अपने माता-पिता से दीक्षा की अनुमति देने का आग्रह कर रहे थे कि सहसा अन्तःपुर में कोलाहल मच गया। उन्हें अपने छोटे भाई के असमय में ही आकस्मिक निधन का समाचार मिला। इससे इनकी वैराग्यभावना और प्रबल हो गई । भगवान् पार्श्वनाथ का संयोग पाकर ये भी दीक्षित हो गये ... (७) वारिसेन-ये भगवान् के सातवें गणधर थे। ये विदेह राज्य की राजधानी मिथिला के निवासी थे। इनके पिता का नाम नमिराजा तथा माता का यशोधरा था । पूर्वजन्म के संस्कारों के कारण वारिसेन प्रारम्भ से ही संसार से विरक्त थे। उनके अन्तर्मन में प्रव्रज्या ग्रहण करने की प्रबल इच्छा जागृत हो रही थी । माता-पिता की आज्ञा ग्रहण कर वे अपने साथी राजपुत्रों के साथ भगवान् पार्श्वनाथ के समवसरण में पहुंचे । वहाँ उनकी वीतरागता भरी देशना श्रवण की और प्रव्रज्या ग्रहण कर गणधर बन गये । (८) भद्रयश--भगवान् के आठवें गणधर भद्रयश हए । इनके पिता का नाम समरसिंह और माता का पद्मा था। किसी तरह मत्तकुज नामक उद्यान में गये। वहां उन्होंने एक व्यक्ति को नुकीली कीलों से वेष्टित देखा। करुणा से द्रवित होकर उन्होंने उसकी वे नुकीली कीलें शरीर से निकालीं और जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि उनके भाई ने हो पूर्वजन्म के वैर के कारण उसकी यह दशा की है तो उनको संसार की इस स्वार्थपरता के कारण विरक्ति हो गई। वे अपने कई साथियों के साथ भगवान पार्श्वनाथ की सेवा में दीक्षित होकर गणधर पद के अधिकारी बने । (6), (१०) जय एवं विजय-इसी तरह जय एवं विजय क्रमशः भगवान् के नवें एवं दसवें गणधर के रूप में विख्यात हुए। ये दोनों श्रावस्ती नगरी के रहने वाले सहोदर थे। इनमें परस्पर अत्यन्त स्नेह था। एक बार Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणपर भगवान् श्री पार्श्वनाथ ४९७ उन्होंने स्वप्न देखा कि उनका प्रायुष्य अत्यल्प है। इससे विरक्त होकर दोनों भाई प्रव्रज्या ग्रहण करने हेतु भगवान् पार्श्वनाथ की सेवा में पहुंचे और दीक्षित होकर गणधर पद के अधिकारी बने । पारवनाथ का चातुर्याम धर्म भगवान् पार्श्वनाथ के धर्म को चातुर्याम धर्म भी कहते हैं । तत्कालीन ऋजु एवं प्राज्ञजनों को लक्ष्य कर पार्श्वनाथ ने जिस चारित्र-धर्म की दीक्षा दी, वह चातुर्याम-चार व्रत के रूप में थी। यथा :-(१) सर्वथा प्राणातिपात विरमणहिंसा का त्याग, (२) सर्वथा मृषावाद विरमण-असत्य का त्याग, (३) सर्वथा अदत्तादान विरमण-चौर्य-त्याग और (४) सर्वथा बहिखादान विरमरण अर्थात परिग्रह-त्याग। इस प्रकार पार्श्वनाथ ने चातुर्याम धर्म को प्रात्म-साधना का पुनीत मार्ग बतलाया। यम का अर्थ दमन करना कहा गया है। चार प्रकार से प्रात्मा का दमन करना, अर्थात् उसे नियन्त्रित रखना ही चातुर्याम धर्म का मर्म है। इसमें हिंसा आदि चार पापो की विरति होती है। इन चारों में ब्रह्मचर्य का पृथक स्थान नहीं है । इसका मतलब यह नहीं कि पार्श्वनाथ की श्रमण परम्परा में ब्रह्मचर्य उपेक्षित था अथवा ब्रह्मचर्य की साधना कोई गौण मानी गई हो । ब्रह्मचर्य-पालन भी और व्रतों की तरह परम प्रधान और अनिवार्य था, किन्तु पार्श्वनाथ के संत विज्ञ थे, अत: वे स्त्री को भी परिग्रह के अन्तर्गत समझकर बहिद्धादान में ही स्त्री और परिग्रह दोनों का अन्तर्भाव कर लेते थे। क्योंकि बहिद्धादान का अर्थ बाह्य वस्तु का आदान होता है। अतः धन-धान्य प्रादि की तरह स्त्री भी बाह्य वस्तु होने से दोनों का बहिद्धादान में अन्तर्भाव माना गया है। कुछ लेखक चातुर्याम धर्म का उद्गम वेदों एवं उपनिषदों से बतलाते हैं पर वास्तव में चातुर्याम धर्म का उद्गम वेदों या उपनिषदों से बहुत पहले श्रमण संस्कृति में हो चुका था। इतिहास के विद्वान् धर्मानन्द कौशाम्बी ने भी इस बात को मान्य किया है । उनके अनुसार चातुर्याम का मूल पहले के ऋषि-मुनियों का तपोधर्म माना गया है। वे ऋषि-मुनि संसार के दुःखों और मनुष्य-मनुष्य के बीच होने वाले प्रसद्व्यवहार से ऊबकर अरण्य में चले जाते एवं चार प्रकार की तपश्चर्या करते थे। उनमें से एक तप अहिंसा या दया का होता था। पानी की एक बूंद को भी कष्ट न देने की साधना प्राखिर तपश्चर्या नहीं तो और क्या थी? उन पर प्रसत्य बोलने का अभियोग लग ही नहीं सकता था, क्योंकि वे जनशून्य अरण्य में एकान्त, शान्त स्थान में निवास करते तथा फल-मूलों द्वारा जीवन निर्वाह करते थे । चोरी के लिये भी उन्हें न तो कोई प्रावश्यकता थी और न निकट सम्पर्क में चित्ताकर्षक परकीय सामग्री थी । अत: वे जगत् में रहकर भी Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [विहार और एक तरह से संसार से अलिप्त थे। वे या तो नग्न रहते थे या फिर इच्छा हुई तो वल्कल पहनते थे। इसलिये यह स्पष्ट है कि वे पूर्णरूपेण अपरिग्रह प्रत का पालन करते थे, परन्तु इन यामों का वे प्रचार नहीं करते थे, अतः ब्राह्मणों के साथ उनका विवाद कभी नहीं हुआ। परन्तु पार्श्व ने मधुकरी अंगीकार कर लोगों को इसकी शिक्षा दी, जिससे ब्राह्मणों के यज्ञ अप्रिय होने लगे।' ब्राह्मण-संस्कृति में अहिंसादि व्रतों का मूल नहीं है, क्योंकि वैदिक परम्परा में पुत्रषणा, वित्तषणा और लोकषणा की प्रधानता है । सन्यास परम्परा का वहाँ कोई प्रमुख स्थान नहीं है । अतः विशुद्ध अध्यात्म पर आधारित संन्यास-परम्परा, श्रवण-परम्परा की ही देन हो सकती है। आज वैदिक परम्परा के पुराणों, स्मृतियों तथा उपनिषदों में जो व्रतों एवं महाव्रतों के उल्लेख उपलब्ध होते हैं, वे सभी भगवान् पार्श्वनाथ के उत्तरकालीन हैं । इसलिये पूर्वकालीन व्रत-व्यवस्था को उत्तरकाल से प्रभावित कहना उचित नहीं। डॉ० हरमन जेकोबी ने भ्रांतिवश इनका स्रोत ब्राह्मण-संस्कृति को माना है, संभव है उन्होंने बोधायन के आधार पर ऐसी कल्पना की है। विहार और धर्म प्रचार केवलज्ञान प्राप्त करने के पश्चात भगवान पार्श्वनाथ कहाँ-कहाँ विचर और किस वर्ष किस नगर में चातुर्मास किया, इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता फिर भी सामान्य रूप से उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्री के आधार पर समझा जाता है कि महावीर की तरह भगवान पार्श्वनाथ का भी सुदूर प्रदेशों में विहार एवं धर्म प्रचार हुआ हो। काशी-कोशल से नेपाल तक प्रभु का विहार-क्षेत्र रहा है। भक्त, राजा और उनकी कथाओं से यह मानना उचित प्रतीत होता है कि भगवान् पार्श्वनाथ ने कुरु, काशी, कोशल, अवन्ति, पौण्ड, मालव, अंग, बंग, कलिंग, पांचाल, मगध, विदर्भ, दशार्ण, सौराष्ट्र, कर्नाटक, कोकरण, मेवाड़, लाट, द्राविड़, कच्छ, काश्मीर, शाक, पल्लव, वत्स और आभीर आदि विभिन्न क्षेत्रों में विहार किया। दक्षिण कर्णाटक, कोंकण, पल्लव और द्रविड़ आदि उस समय अनार्य क्षेत्र माने जाते थे । शाक भी अनाय देश था परन्तु भगवान् पार्श्वनाथ व उनकी निकट परम्परा के श्रमण वहाँ पहुंचे थे। शाक्य भूमि नेपाल की उपत्यका में है, वहाँ भी पार्श्व के अनुयायी थे। महात्मा बुद्ध के काका स्वयं भगवान पार्श्वनाथ के श्रावक थे, जो शाक्य देश में भगवान् को विहार होने से ही संभव हो सकता १ "पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म" धर्मानन्द कौशाम्बी, पृ० १७-१८ २ सकलकीर्ति, पार्श्वनाथ चरित्र २३, १८-१६/१५/७६-८५ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म प्रचार] भगवान् श्री पार्श्वनाथ ४६8 है । सिकन्दर महान और चीनी यात्री फाहियान, नत्मांग के समय में उत्तर. पश्चिम सीमाप्रान्त एवं अफगानिस्तान में विशाल संख्या में जैन मुनियों के पाये जाने का उल्लेख मिलता है, वह तभी संभव हो सकता है, जबकि वह क्षेत्र भगवान पार्श्वनाथ का विहारस्थल माना जाय ।' सात सौ ई० में चीनी यात्री ह्वेनसांग ने तथा उसके भी पूर्व सिकन्दर ने मध्य एशिया के “कियारिशि" नगर में बहुसंख्यक निर्ग्रन्थ संतों को देखा था । अतः यह अनमान से सिद्ध होता है कि मध्य एशिया के समरकन्द, बल्ल आदि नगरों में जैन धर्म उस समय प्रचलित था । आधुनिक खोज से यह प्रमाणित हो चुका है कि पार्श्वनाथ के धर्म का उपदेश सम्पूर्ण पार्यावर्त में व्याप्त था। पार्श्वनाथ एक बार ताम्रलिप्ति से चलकर कोपकटक पहुंचे थे और उनके वहां प्राहार ग्रहण करने से वह धन्यकटक कहलाने लगा। अाजकल वह "कोपारि" कहा जाता है । इन प्रदेशों में भगवान् पार्श्वनाथ की मान्यता आज भी बनी हुई है। बिहार के रांची और मानभूमि आदि जिलों में हजारों मनुष्य आज भी केवल पार्श्वनाथ की उपासना करते हैं और उन्हीं को अपना इष्टदेव मानते हैं । वे आज सराक (श्रावक) कहलाते हैं । लगभग सत्तर (७०) वर्ष तक भगवान पार्श्वनाथ ने देश-देशान्तर में विचरण किया और जैन धर्म का प्रचार किया। भगवान् पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता भगवान् पार्श्वनाथ ऐतिहासिक पुरुष थे, यह आज ऐतिहासिक तथ्यों से असंदिग्ध रूप से प्रमाणित हो चुका है । जैन साहित्य ही नहीं, बौद्ध साहित्य से भी भगवान् पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता प्रमाणित है। बौद्ध साहित्य के उल्लेखों के आधार पर बुद्ध से पहले निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय का अस्तित्व प्रमाणित करते हुए डॉ० जेकोबी ने लिखा है-“यदि जैन और बौद्ध सम्प्रदाय एक से ही प्राचीन होते, जैसा कि बद्ध और महावीर की समकासीनता तथा इन दोनों को इन दोनों संप्रदायों का संस्थापक मानने से अनुमान किया जाता है, तो हमें आशा करनी चाहिये कि दोनों ने ही अपने अपने साहित्य में अपने प्रतिद्वन्द्वी का अवश्य ही निर्देश किया होता, किन्तु बात ऐसी नहीं है। बौद्धों ने तो अपने साहित्य में, यहां तक कि त्रिपटकों में भी, निग्रंथों का बहुतायत से उल्लेख किया है पर जैनों के प्रागमों में बौद्धों का कहीं उल्लेख नहीं है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि बौद्ध, निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय को एक प्रमुख सम्प्रदाय मानते थे, किन्तु निर्ग्रन्थों की धारणा इसके विपरीत थी और वे अपने प्रतिद्वन्द्वी १ पार्श्वनाथ चरित्र सर्ग १५-७६-८५ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् पाश्वनाथ की उपेक्षा तक करते थे। इससे हम इस निर्णय पर पहुंचते हैं कि बुद्ध के समय निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय कोई नवीन स्थापित संप्रदाय नहीं था। यही मत पिटकों का भी जान पड़ता है।' मज्झिम निकाय के महासिंहनाद सूत्र में बुद्ध ने अपनी कठोर तपस्या का वर्णन करते हुए तप के चार प्रकार बतलाये हैं, जो इस प्रकार हैं :-(१) तपस्विता, (२) रुक्षता, (३) जुगुप्सा और (४) प्रविविक्तता। इनका अर्थ है तपस्या करना, स्नान नहीं करना, जल की बूंद पर भी दया करना और एकान्त स्थान में रहना। ये चारों तप निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय के होते थे। स्वयं भगवान महावीर ने इनका पालन किया था और अन्य निर्ग्रन्थों के लिये इनका पालन प्रावश्यक था। बौद्ध साहित्य दीर्घ निकाय में अजातशत्रु द्वारा भगवान् महावीर और उनके शिष्यों को चातुर्याम-युक्त कहलाया है । यथा : "भंते ! मैं निगन्ठ नातपुत्र के पास भी गया और उनसे श्रामण्यफल के विषय में पूछा। उन्होंने चातुर्याम संवरद्वार बतलाया और कहा, निगण्ठ चार संवरों से युक्त होता है, यथा :-(१) वह जल का व्यवहार वर्जन करता है जिससे कि जल के जीव न मरें, (२) सभी पापों का वर्जन करता है, (३) पापों के वर्जन से धुत-पाप होता है और (४) सभी पापों के वर्जन से लाभ रहता है।" पर जैन साहित्य की दृष्टि से यह पूर्णतया सिद्ध है कि भगवान् महावीर की परम्परा पंचमहाव्रत रूप रही है, फिर भी उसे चातुर्याम रूप से कहना इस बात की ओर संकेत करता है कि बौद्धभिक्ष पार्श्वनाथ की परम्परा से परिचित रहे हैं और उन्होंने महावीर के धर्म को भी उसी रूप में देखा है । हो सकता है बद्ध और उनके अनुयायी विद्वानों को, श्रमण भगवान महावीर की परम्परा में जो आन्तरिक परिवर्तन हुआ, उसका पता न चला हो । बुद्ध के पूर्व की यह चातुर्याम परम्परा भगवान् पार्श्वनाथ की ही देन थी। इससे यह प्रमाणित होता है कि बद्ध पार्श्वनाथ के धर्म से परिचित थे।२ बौद्ध वाङमय के प्रकांड पंडित धर्मानन्द कौशाम्बी ने लिखा है :निर्ग्रन्थों के श्रावक ‘बप्प' शाक्य के उल्लेख से स्पष्ट है कि निर्ग्रन्थों का चातुर्याम धर्म शाक्य देश में प्रचलित था, परन्तु ऐसा उल्लेख कहीं नहीं मिलता कि उस देश में निर्ग्रन्थों का कोई प्राश्रम हो। इससे ऐसा लगता है कि निग्रन्थ १ इण्डियन एन्टीक्वेरी, जिल्द ६, पृ० १६० । २ मज्झिम निकाय महासिंहनाद सुत्त, १० ४८-५० । ३ चातुर्याम (धर्मानन्द कौशाम्बी) Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० पा० का धर्म परिवार ] भगवान् श्री पार्श्वनाथ ५०१ श्रमरण बीच-बीच में शाक्य देश में जाकर अपने धर्म का उपदेश करते थे । शाक्यों में प्रालारकालाम के श्रावक अधिक थे, क्योंकि उनका श्राश्रम कपिलवस्तु नगर में ही था । श्रलार के समाधिमार्ग का अध्ययन गौतम बोधिसत्त्व ने बचपन में ही किया। फिर गृहत्याग करने पर वे प्रथमतः आलार केही आश्रम में गये और उन्होंने योगमार्ग का आगे अध्ययन प्रारम्भ किया । आलार ने उन्हें समाधि की सात सीढ़ियां सिखाई। फिर वे उद्रक रामपुत्र के पास गये और उससे समाधि की आठवीं सीढ़ी सीखी, परन्तु इतने ही से उन्हें संतोष नहीं हुआ, क्योंकि उस समाधि से मानव-मानव के बीच होने वाले विवाद का अन्त होना संभव नहीं था । तब बोधिसत्त्व "उद्रक रामपुत्र" का आश्रम छोड़कर राजगृह चले गये । वहाँ के श्रमणसम्प्रदाय में उन्हें शायद निर्ग्रन्थों का चातुर्याम-संवर ही विशेष पसंद आया, क्योंकि प्रागे चलकर उन्होंने जिस श्रार्य अष्टांगिक मार्ग का प्रवर्त्तन किया, उसमें चातुर्याम का समावेश किया गया है ।" भ० पार्श्वनाथ का धर्म-परिवार पुरुषादानीय भगवान् पार्श्वनाथ के संघ में निम्नलिखित धर्म - परिवार था :--- गणधर एवं गण केवली मनः पर्यवज्ञानी अवधिज्ञानी चौदह पूर्वधारी वादी - एक हजार चार सौ [१,४०० ] - साढ़े तीन सौ [ ३५० ] - छह सौ [ ६०० ] अनुत्तरोपपातिक मुनि - एक हजार दो सौ [१,२००] साधु साध्वी श्रावक श्राविका १ कल्पसूत्र' - शुभदत्त प्रादि आठ गणधर और आठ ही गण - एक हजार [१,००० ] - साढ़े सात सौ [७५० ] "सूत्र १५७ । - श्रार्यदिन प्रादि सोलह हजार [१६,००० ] - पुष्पचूला प्रादि प्रड़तीस हजार [३८,००० ] - सुनन्द आदि एक लाख चौसठ हजार [१,६४,००० ] -नन्दिनी प्रादि तीन लाख सत्ताईस हजार [३,२७,०००]' ३ लाख ७७ हजार श्राविका [त्रि.श.पु. च. १ ४ १ ३१५ ] Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [परिनिर्वाण भगवान पार्श्वनाथ के शासन में एक हजार साधुओं और दो हजार साध्वियों ने सिद्धिलाभ किया । यह तो मात्र व्रतधारियों का ही परिवार है। इनके अतिरिक्त करोड़ों नर-नारी सम्यग्दृष्टि बनकर प्रभु के भक्त बने । परिनिर्वाण कुछ कम सत्तर वर्ष तक केवलचर्या से विचर कर जब भगवान पार्श्वनाथ ने अपना प्रायुकाल निकट समझा, तब वे वाराणसी से प्रामलकप्पा होकर सम्मेतशिखर पधारे और तेतीस साधुओं के साथ एक मास का अनशन कर उन्होंने शुक्लध्यान के तृतीय और चतुर्थ चरण का आरोहण किया। फिर प्रभु ने श्रावण शुक्ला अष्टमी को विशाखा नक्षत्र में चन्द्र का योग होने पर योग-मुद्रा में खड़े ध्यानस्थ ासन से वेदनीय आदि कर्मों का क्षय किया और वे सिद्ध-बुद्धमुक्त हुए। श्रमरण-परम्परा और पार्व श्रमण-परम्परा भारतवर्ष की बहत प्राचीन धार्मिक परम्परा है। मन और इन्द्रिय से तप करने वाले श्रमण कहलाते हैं। जैन आगमों एवं ग्रन्थों में श्रमण पाँच प्रकार के बतलाये हैं, यथा-(१) निर्ग्रन्थ. (२) शाक्य, (३) तापस, (४) गेरुपा और (५) आजीवक । इनमें जैन श्रमणों को निर्ग्रन्थ श्रमरण कहा गया है। सुगतशिष्य-बौद्धों को शाक्य और जटाधारी वनवासी पाखंडियों को तापस कहा गया है । गेरुए वस्त्र वाले त्रिदण्डी को गेरुक या परिव्राजक तथा गोशालकमती को आजीवक कहा गया है । ये पांचों श्रमण रूप से लोक में प्रसिद्ध हुए हैं। श्रमण परम्परा की नींव ऋषभदेव के समय में ही डाली गई थी, जिसका कि श्रीमद्भागवत आदि ग्रन्थों में भी उल्लेख है । २ वृहदारण्यक उपनिषद् एवं वाल्मीकि रामायण में भी श्रमण शब्द का प्रयोग हुआ है। त्रिपिटक साहित्य में भी "निर्ग्रन्थ" शब्द का स्थान-स्थान पर उल्लेख पाया है। डॉ० हरमन जेकोबी ने त्रिपिटक साहित्य के आधार पर यह प्रमाणित किया है कि बुद्ध के पूर्व निर्ग्रन्थ १ निग्गंथा, सक्क, तावस, गेरुय, प्राजीव पंचहा समणा । तम्मिय निग्गंथा ते, जे जिणसासणभवा मुरिणणो ॥३८।। सक्काय सूगय सिस्सा, जे जडिला ते उ तावसा गीता। जे पाउरत्तवत्या, तिदंडिरयो गेरुया तेज ॥३६।। जे गोसालकमयमणुसरंति भन्नति तेउ पाजीवा । समणत्तागण भुवणे, पंच वि पत्ता पसिद्धिमिमे ।।४०।। [प्रवचन मारोद्धार, द्वार ६४] 2 The Sacred book of the East Vol. XXII, Introduction page 24. Jccoby. ३ बालकाण्ड, सर्ग १४, श्लोक २२ । Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण परम्परा और पार्श्व ] भगवान् श्री पार्श्वनाथ सम्प्रदाय विद्यमान था । " अंगुत्तर निकाय" में " बप्प" नाम के शाक्य को निर्ग्रन्थ श्रावक बतलाया है, जो कि महात्मा बुद्ध का चाचा था। इससे सिद्ध होता है कि बुद्ध से पहले या उसके बाल्यकाल में शाक्य देश में निर्ग्रन्थ धर्म का प्रचार था । भगवान् महावीर बुद्ध के समकालीन थे । उनको निर्ग्रन्थ धर्म का प्रवर्तक मानना युक्तिसंगत नहीं लगता । अतः यह प्रमाणित होता है कि इनके पूर्ववर्ती तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ ही श्रमण परम्परा के प्रर्वतक थे । " उपर्युक्त आधार से आधुनिक इतिहासकार पार्श्वनाथ को निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय के प्रवर्तक मानते हैं । वास्तव में निर्ग्रन्थ धर्म का प्रवर्तन पार्श्वनाथ से भी पहले का है । पार्श्वनाथ को जैन धर्म का प्रवर्तक मानने का प्रतिवाद करते हुए डॉ० हर्मन जेकोबी ने लिखा है। I -: ५०३ 1 "यह प्रमाणित करने के लिए कोई आधार नहीं है कि पार्श्वनाथ जैन धर्म के संस्थापक थे । जैन परम्परा ऋषभ को प्रथम तीर्थंकर ( प्रादि-संस्थापक) मानने में सर्वसम्मति से एकमत है । इस पुष्ट परम्परा में कुछ ऐतिहासिकता भी हो सकती है, जो उन्हें (ऋषभ को ) प्रथम तीर्थंकर मान्य करती है ।" " डॉ० राधाकृष्णन् के अनुसार यह असंदिग्ध रूप से कहा जा सकता है कि जैन धर्म का अस्तित्व वर्द्ध मान और पार्श्वनाथ से बहुत पहले भी था । भगवान् पार्श्वनाथ का व्यापक प्रभाव भगवान् पार्श्वनाथ की वाणी में करुरणा मधुरता और शान्ति की त्रिवेणी एक साथ प्रवाहित होती थी । परिणामतः जन-जन के मन पर उनकी वारणी का मंगलकारी प्रभाव पडा, जिससे हजारों ही नहीं, लाखों लोग उनके अनन्य भक्त बन गये । पार्श्वनाथ के कार्यकाल में तापस परम्परा का प्राबल्य था । लोग तप के नाम पर जो अज्ञान-कष्ट चला रहे थे, प्रभु के उपदेश से उसका प्रभाव कम पड़ गया । अधिक संख्या में लोगों ने आपके विवेकयुक्त तप से नवप्रेरणा प्राप्त की । आपके ज्ञान-वैराग्यपूर्ण उपदेश से तप का सही रूप निखर प्राया । 'पिप्पलाद' जो उस समय का एक मान्य वैदिक ऋषि था, उसके उपदेशों पर भी आपके उपदेश की प्रतिच्छाया स्पष्ट रूप से झलकती है । उसका कहना 1 Indian Antigwary, Vol. IX, page 163 : But there is nothing to prove that Parsva was a founder of Jainism. Jain tradition is unanimous in making Rishabh, the first Tirthankara, as the founder. There may be some Historical tradition, which makes him the first Tirthankara. 2 Indian Philosophy, Vol. I, Page 281. Radhakrishnan. 3 Cambridge History of India, part I, page 180. · Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् पार्श्वनाथ था कि प्राण या चेतना जब शरीर से पृथक् हो जाती है, तब वह शरीर नष्ट हो जाता है । वह निश्चित रूप से भगवान् पार्श्वनाथ के, 'पुद्गलमय शरीर से जीव के पृथक होने पर विघटन' इस सिद्धान्त की अनुकृति है । 'पिप्पलाद' की नवीन दृष्टि से निकले हुए ईश्वरवाद से प्रमाणित होता है कि उनकी विचारधारा पर पार्श्व का स्पष्ट प्रभाव है। प्रख्यात ब्राह्मण ऋषि 'भारद्वाज', जिनका अस्तित्व बौद्ध धर्म से पूर्व है, पार्श्वनाथ-काल में एक स्वतन्त्र मण्डक संप्रदाय के नेता थे।' बौद्धों के अंगत्तर निकाय में उनके मत की गणना मुण्डक श्रावक के नाम से की गई है। जैन 'राजवात्तिक' ग्रन्थ में उन्हें क्रियावादी आस्तिक के रूप में बताया गया है । मुण्डक मत के लोग वन में रहने वाले, पशु-यज्ञ करने वाले तापसों तथा गृहस्थवित्रों से अपने आपको पृथक् दिखाने के लिए सिर मुडा कर भिक्षावृत्ति से अपना उदर-पोषणं करते थे, किन्तु वेद से उनका विरोध नहीं था। उनके इस मत पर पार्श्वनाथ के धर्मोपदेश का प्रभाव दिखाई देता है । यही कारण है कि एक विद्वान ने उसकी परिगणना जैन सम्प्रदाय के अन्तर्गत की है, पर उनकी जैन सम्प्रदाय में परिगणना युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होती। ____ नचिकेता, जो कि उपनिषद्कालीन एक वैदिक ऋषि थे, उनके विचारों पर भी पार्श्वनाथ की स्पष्ट छाप दिखाई पड़ती है । वे भारद्वाज के समकालीन थे तथा ज्ञान-यज्ञ को मानते थे। उनकी मान्यता के मुख्य अंग थे :- इन्द्रियनिग्रह, ध्यानवृद्धि, प्रात्मा के अनीश्वर स्वरूप का चिन्तन तथा शरीर और प्रात्मा का पृथक् बोध । इसी तरह प्रबुद्ध कात्यायन, जो कि महात्मा बुद्ध से पूर्व हुए थे तथा जाति से ब्राह्मण थे, उनको विचारधारा पर भी पार्श्व के मन्तव्यों का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । वे शीत जल में जीव मान कर उसके उपयोग को धर्मविरुद्ध मानते थे, जो पार्श्वनाथ की श्रमण-परम्परा से प्राप्त है। उनकी कुछ अन्य मान्यताएँ भी पार्श्वनाथ की मान्यताओं से मेल खाती हैं। 'अजितकेशकम्बल' भी पार्श्व-प्रभाव से अछूते दिखाई नहीं देते । यद्यपि उन्होंने पार्श्व के सिद्धान्त को विकृत रूप से प्रकट किया था, फिर भी वे वैदिक क्रियाकाण्ड के कट्टर विरोधी थे। __ भारत की तो बात ही क्या, इससे बाहर के देशों पर भी पावं के प्रभाव की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। ई. पू. ५८० में उत्पन्न यूनानी दार्शनिक | Bilongs of the Boudha, Part II, page 22. २ बातरशनाहा.......... ३ धर्मान्दर्शयितुकामो....... ४ वृहदारण्यकोपनिषद्, ४॥३॥२२ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का व्यापक प्रभाव] भगवान् श्री पार्श्वनाथ ५०५ पाइथोगोरस, जो स्वयं महावीर और बुद्ध के समकालीन थे, जीवात्मा के पुनर्जन्म तथा कर्म-सिद्धान्त में विश्वास करते थे । इतना ही नहीं मांसप्रेमी जातियों को भी वे सभी प्रकार की हिंसा तथा मांसाहार से विरत रहने का उपदेश देते थे। यहां तक कि कतिपय वनस्पतियों को भी वे धार्मिक दृष्टि से अभक्ष्य मानते थे । वे पूर्वजन्म के वृत्तान्त को भी स्मति से बताने का दावा करते थे और आत्मा की तुलना में देह को हेय और नश्वर समझते थे। उपयुक्त विचारों का बौद्ध और ब्राह्मण धर्म से कोई सादृश्य नहीं, जबकि जैन धर्म के साथ उनका अद्भुत सादृश्य है । ये मान्यताएँ उस काल में प्रचलित थी, जबकि महावीर और बद्ध अपने-अपने धर्मों का प्रचलन प्रारम्भ ही कर रहे थे । अतः पाइथोगोरस प्रादि दार्शनिक पार्श्वनाथ के उपदेशों से किसी न किसी तरह प्रभावित रहे हैं, ऐसा प्रतीत होता है । का प्रभाव बद्ध के जीवन-दर्शन से यह बात साफ झलकती है कि उन पर भगवान् पार्श्व के प्राचार-विचार का गहरा प्रभाव पड़ा था । शाक्य देश, जो कि नेपाल की उपत्यका में है और जहाँ कि बद्ध का जन्म हया था, वहाँ पाश्र्वानयायी संतों का आना-जाना बना रहता था। और तो क्या, उनके राजघराने पर भी पार्श्वकी वाणी का स्पष्ट प्रभाव था। बुद्ध के चाचा भी पार्श्व-मतावलम्बी थे । इन सबसे सिद्ध होता है कि बचपन में बद्ध के कोमल अन्तःकरण में संसार की प्रसारता एवं त्याग-वैराग्य के जो अंकुर जमे, उनके बीज भगवान् पार्श्वनाथ के उपदेश रहे हों तो कोई आश्चर्य नहीं। गह-त्याग के पश्चात् बुद्ध की चर्या पर जब दृष्टिपात करते हैं तो यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है कि वे ज्ञानार्जन के लिए विभिन्न स्थानों पर घूमते रहे, किन्तु उन्हें प्रात्मबोध या सच्ची शान्ति कहीं प्राप्त नहीं हुई। जब वे उद्रक-राम पुत्र का प्राश्रम छोड़ कर राजगृह प्राए नो वहाँ के निर्ग्रन्थ श्रमरण सम्प्रदाय में उन्हें निग्रन्थों का चातुर्याम संवर अत्यधिक पसन्द माया। क्योंकि आगे चल कर उन्होंने जिस आर्य अष्टांगिक मार्ग का प्राविष्कार किया, उसमें चातुर्याम का समावेश किया गया है।' प्रागे चल कर केवल चार यामों से ही काम चलने वाला नहीं, ऐसा जान कर उन्होंने उसमें समाधि एवं प्रज्ञा को भी जोड़ दिया। शीलस्कन्ध बद्ध धर्म की नींव है। शील के बिना अध्यात्म-मार्ग में प्रगति पाना असम्भव है। पार्श्वनाथ १ "पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म" पृ० २८ । Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ बुद्ध पर पार्श्व मत का प्रभाव के चातुर्याम का सनिवेश शीलस्कन्ध में किया गया है और उस ही की रक्षा एवं अभिवृद्धि के लिए समाधित प्रज्ञा की आवश्यकता है ।' ५०६ प्राकं सुत्त (मज्झिम निकाय) पढ़ने से पता चलता है कि बुद्ध ने शील को कितना महत्त्व दिया है । अतः यह स्पष्ट है कि बुद्ध ने पार्श्वनाथ के चारों यामों को पूर्णतया स्वीकार किया था । उन्होंने उन यामों में नालारकलाम की समाधि और अपनी खोजी हुई चार श्रार्य-सत्यरूपी प्रज्ञा को जोड़ दिया और उन यामों को तपश्चर्या एवं श्रात्मवाद से पृथक् कर दिया । बुद्ध ने तपश्चर्या का त्याग कर दिया, जो कि उन दिनों साधु वर्ग में अत्यधिक प्रचलित थी, अतः लोग उन्हें और उनके शिष्यों को विलासी (मौजी) कहते थे । इस सम्बन्ध में 'दीर्घनिकाय' के पासादिक सुत्त में भगवान् बुद्ध चुन्द से कहते हैं - " अपन सब पर तपश्चर्या की कमी से आक्षेप रूप में प्राने वाले मौजों के बारे में तुम प्रक्षेप करने वाले लोगों से कहना - "हिंसा, स्तेय, सत्य और भोगोपभोग ( काम सुखल्लिकानुयोग ) - ये चार मौजें हीन गंवार, पृथक् जनसेवित, अनार्य एवं अनर्थकारी हैं - अर्थात् इनके विपरीत चतुर्याम पालन ही सच्ची तपस्या है और हम सब इस प्रार्य सिद्धान्त को अच्छी तरह समझते और पालते हैं ।" कहा जाता है कि बुद्ध के न सिर्फ विचारों पर ही जैन धर्म की छाप पड़ी थी बल्कि संन्यास धारण के बाद छः वर्षों तक जैन श्रमरण के रूप में उन्होंने जीवन व्यतीत किया था । 3 ' दर्शनसार' के रचनाकार आचार्य देवसेन ने अपनी इस कृति में लिखा है कि श्री पार्श्वनाथ भगवान् के तीर्थ में सरयू नदी के तटवर्ती पलाश नामक नगर में पिहिताश्रव साधु का शिष्य बुद्धकीर्ति मुनि हुना जो बहुश्रुत या बड़ा भारी शास्त्रज्ञ था । परन्तु मछलियों का प्रहार करने से बह ग्रहण की हुई दीक्षा से भ्रष्ट हो गया और रक्ताम्बर ( लाल वस्त्र ) धारण करके उसने एकान्त मत की प्रवृत्ति की - "फल, दही, दूध, शक्कर श्रादि के समान माँस में भी जीव नहीं है, अतएव उसकी इच्छा करने और भक्षरण करने में कोई पाप नहीं है । जिस प्रकार जल एक द्रव द्रव्य अर्थात् तरल या बहने वाला पदार्थ है, उसी प्रकार शराब है, वह त्याज्य नहीं है ।" इस प्रकार की घोषणा से उसने संसार में पापकर्म की परिपाटी चलाई। एक पाप करता है और दूसरा उसका फल भोगता १ पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म, पृ० ३० । २ पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म, पृ० ३१ । ३ जैन सूत्र (एस.बी. ई.), भाग १, पृ० ३६ ४१ और रत्नकरण्डक श्रावकाचार १।१० Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वभक्त राजन्यवर्ग] भगवान् श्री पार्श्वनाथ है, ऐसे सिद्धान्त की कल्पना कर लोगों को अपना अनुयायी बना कर वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। पार्श्वभक्त राजन्यवर्ग पार्श्वनाथ की वाणी का ऐसा प्रभाव था कि उससे बड़े-बड़े राजा महाराजा भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके । व्रात्य क्षत्रिय सब जैन धर्म के ही उपासक थे । पार्श्वनाथ के समय में कई ऐसे राज्य थे, जिनमें पार्श्वनाथ ही इष्टदेव माने जाते थे। डॉ. ज्योति प्रसाद के अनुसार उनके समय में पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण भारत के विभिन्न भागों में अनेक प्रबल नाग-सत्ताएँ राजतन्त्रों अथवा गणतन्त्रों के रूप में उदित हो चुकी थीं और उन लोगों के इष्टदेव पार्श्वनाथ ही रहे प्रतीत होते हैं। उनके अतिरिक्त मध्य एवं पूर्वी देशों के अधिकांश व्रात्य क्षत्रिय भी पार्श्व के उपासक थे । लिच्छवी प्रादि आठ कुलों में विभाजित वैशाली और विदेह के शक्तिशाली वज्जिगण में तो पार्श्व का धर्म हो लोकप्रिय धर्म था। कलिंग के शक्तिशाली राजा "करकंड" जो कि एक ऐतिहासिक नरेश थे, तीर्थंकर पार्श्वनाथ के ही तीर्थ में उत्पन्न हुए थे और उस युग के उनके उपासक आदर्श नरेश थे । राजपाट का त्याग कर जैन मुनि के रूप में उन्होंने तपस्या की और सद्गति प्राप्त की, ऐसा उल्लेख है। इनके अतिरिक्त पांचाल नरेश दुर्मुख या द्विमुख, विदर्भ नरेश भीम और गान्धार नरेश नागजित या नागाति भी तीर्थंकर पार्श्व के समसामयिक नरेश थे। भगवान पार्श्वनाथ के शिष्य ज्योतिर्मण्डल में निरयावलिका सूत्र के पुष्पिता नामक तृतीय वर्ग के प्रथम तथा द्वितीय १ सिरि पासणाहतित्थे, सरयूतीरे पलास पयरत्यो। पिहियासवस्स सिस्सो महासुबो बुड्ढकित्तिमुणी ।।६।। तिमिपूरणासणेहिं अहिगय पवज्जापो परिभट्टो।। रतंबरं परित्ता पट्टियं तेरण एवं तं ॥७॥ मंसस्स पत्थि जीवो जहा फले दहिय, दुद, सक्करए । तम्हा तं वंछित्ता तं भक्खंतो ण पाविट्ठो ॥६॥ मज्जं ण वज्जणिज्ज दवदव्वं जह जलं तहा एदं । इदिलोए घोसित्ता पवट्टियं सम्वसावज्जं ॥६॥ प्रष्णो करेदि कम्मं प्रष्णो सं मुजदीदि सिद्धतं । परिकप्पिकरण पूणं वसिकिच्चा रिणरयमुववष्णो ॥१०॥ दर्शनसार । २ भारतीय इतिहास में जैन धर्म का योगदान । Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् पार्श्वनाथ के अध्ययनों में क्रमशः ज्योतिषियों के इन्द्र, चन्द्र और सूर्य का तथा तृतीय अध्ययन में शुक्र महाग्रह का वर्णन है, जो इस प्रकार है : एक समय जब भगवान् महावीर राजगृह नगर के गुणशिलक नामक उद्यान में पधारे हए थे, उस समय ज्योतिष्चक्र का इन्द्र 'चन्द्र' भी प्रभुदर्शन के लिए समवसरण में उपस्थित हा । प्रभु को वन्दन करने के पश्चात् उसने प्रभुभक्ति से प्रानन्दविभोर हो जिन-शासन की प्रभावना हेतु समवसरण में उपस्थित चतुर्विध-संघ एवं अपार जनसमूह के समक्ष अपनी वैक्रियशक्ति से अगणित देवदेवी समूहों को प्रकट कर बड़े मनोहारी, अत्यन्त सुन्दर एवं अत्यद्भुत अनेक दृश्य प्रस्तुत किये । अलौकिक नटराज के रूप में चन्द्र द्वारा प्रदर्शित आश्चर्यजनक दृश्यों को देख कर परिषद् चकित हो गई। चन्द्र के अपने स्थान को लौट जाने के अनन्तर गौतम गणधर ने प्रभ से पूछा- "भगवन् ! ये चन्द्रदेव पूर्वजन्म में कौन थे? इस प्रकार की ऋद्धि इन्हें किस कारण मिली है ?" भगवान महावीर ने फरमाया-"पूर्वकाल में श्रावस्ती नगरी का निवासी अंगति नाम का एक सुसमद्ध, उदार. यशस्वी-राज्य-प्रजा एवं समाज द्वारा सम्मानित गाथापति था।" "किसी समय भगवान पार्श्वनाथ का श्रावस्ती के कोष्ठक चैत्य में शुभागमन हुा । विशाल जनसमूह के साथ अंगति गाथापति भी भगवान् पाश्वनाथ के समवसरण में पहुँचा और प्रभु के उपदेशामृत से प्राप्यायित एवं संसार से विरक्त हो प्रभु की चरणशरण में श्रमण बन गया।" "अंगति प्रणगार ने स्थविरों के पास एकादश अंगों का अध्ययन कर कठोर तपश्चरण किया । उसने अनेक चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम, दशम, द्वादश, मासाई एवं मास क्षमण आदि उग्र तपस्याओं से अपनी प्रात्मा को भावित किया ।" "संयम के मूल गणों का उसने पूर्ण रूपेण पालन किया पर कभी बयालीस दोषों में से किसी दोषसहित पाहार-पानी का ग्रहण कर लेना, ईर्या प्रादि समितियों की आराधना में कभी प्रमाद कर बैठना, अभिग्रह ग्रहण कर लेने पर उसका पूर्ण रूप से पालन न करना, शरीर चरण आदि का बार-बार प्रक्षालन करना इत्यादि संयम के उत्तर गुरणों की विराधना के कारण अंगति प्रणगार विराधित-चरित्र वाला बन गया।" "उसने संयम के उत्तर गुणों के अतिचारों की आलोचना नहीं की और अन्त में पन्द्रह दिन के संथारे से प्रायु पूर्ण होने पर वह अंगति प्रपगार Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ शिष्य ज्योतिर्मण्डल में] भगवान् श्री पार्श्वनाथ ज्योतिषियों का इन्द्र अर्थात् एक पल्योपम और एक लाख वर्ष की स्थिति वाला चन्द्रदेव बना । तप और संयम से प्रभाव से उन्हें यह ऋद्धि मिली है।" गणधर गौतम ने पुनः प्रश्न किया-“भगवन् ! अपनी देव-आयु पूर्ण होने पर चन्द्र कहाँ जायेंगे ?" भगवान् महावीर ने कहा-"गौतम ! यह चन्द्रदेव आयुष्यपूर्ण होने पर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध, बद्ध एवं मुक्त होगा।" इसी प्रकार उपयंक्त सत्र के द्वितीय अध्ययन में ज्योतिर्मण्डल के इन्द्र सूर्य और उनके पूर्वभव का वर्णन किया गया है कि राजगृह नगर के गुण शिलक चैत्य में भगवान महावीर के पधारने पर सूर्य भी प्रभु के समवसरण में रपस्थित हुप्रा। चन्द्र की तरह सूर्य ने भी प्रभ-वन्दन के पश्चात परिषद के समक्ष वैत्रियशक्ति के अद्भुत चमत्कार प्रदर्शित किये और अपने स्थान को लौट गया। गौतम गणधर द्वारा सूर्य के पूर्वभव का वृत्तान्त पूरने पर भगवान् महावीर ने फरमाया कि श्रावस्ती नगरी का सुप्रतिष्ठ नामक गाथापति भी अंगति गाथापति के ही समान समद्धिशाली, उदार, राज्य तथा प्रजा द्वारा सम्मानित एवं कीर्तिशाली था। सुप्रतिष्ठ गाथापति भी भगवान पार्श्वनाथ के थावरती-आगमन पर धर्मदेशना सनने गया और संसार से विरक्त हो प्रभ-चरणों में दीक्षित हो गया। उसने भी अंगति की ही तरह उग्र तपस्याएँ की, संयम के मूल गरगों का पूर्णरूपेण पालन किया, संयम के उत्तरगणों की विराधना की और अन्त में वह संयम के अतिचारों की आलोचना किये बिना ही संलेखनापूर्वक काल कर सूर्यदेव बना। देवायुष्य पूर्ण होने पर वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म ग्रहण कर तप-संयम . की साधना से सिद्धि प्राप्त करेगा। श्रमणोपासक सोमिल निरयावलिका सूत्र के तृतीय वर्ग के तीसरे अध्ययन में शुक्र महाग्रह का निम्नलिखित कथानक दिया हुआ है "श्रमण भगवान महावीर एक बार राजगह नगर के गणशिलक उद्यान में पधारे । प्रभु के आगमन की सूचना पाकर नर-नारियों का विशाल समूह बड़े हर्षोल्लास के साथ भगवान् के समवसरण में पहुँचा। Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [श्रमणोपासक सोमिल उस समय शुक्र भी वहाँ पाया और भगवान् को वन्दन करने के पश्चात् उसने अपनी वैक्रियशक्ति से अगणित देव उत्पन्न कर अनेक प्रकार के आश्चर्योत्पादक दृश्यों का धर्म परिषद् के समक्ष प्रदर्शन किया। तदनन्तर प्रभ को भक्तिभाव से वन्दन-नमन कर अपने स्थान को लौट गया।" गणधर गौतम के प्रश्न के उत्तर में शुक्र का पूर्वभव बताते हुए भगवान् महावीर ने कहा-"भगवान् पार्श्वनाथ के समय में वाराणसी नगरी में वेदवेदांग का पारंगत विद्वान् सोमिल नामक ब्राह्मण रहता था। एक समय भगवान पार्श्वनाथ का वाराणसी नगरी के अाम्रशाल वन में आगमन सुनकर सोमिल ब्राह्मण भी बिना छात्रों को साथ लिए उनको वन्दन करने गया । सोमिल ने पार्श्व प्रभु से अनेक प्रश्न पूछे तथा अपने सब प्रश्नों का सुन्दर एवं समुचित उत्तर पाकर वह परम सन्तुष्ट हुआ और भगवान् पार्श्वनाथ से बोध पाकर श्रावक बन गया। कालान्तर में असाधुदर्शन और मिथ्यात्व के उदय से सोमिल के मन में विचार उत्पन्न हुआ कि यदि वह अनेक प्रकार के उद्यान लगाये तो बड़ा श्रेयस्कर होगा । अपने विचारों को साकार बनाने के लिए सोमिल ने आम्रादि के अनेक पाराम लगवाये। कालान्तर में आध्यात्मिक चिन्तन करते हुए उसके मन में तापस बनने की उत्कट भावना जगी । तदनुसार उसने अपने मित्रों और जातिबन्धुओं को अशनपानादि से सम्मानित कर उनके समक्ष अपने ज्येष्ठ पुत्र को कूटम्ब का भार सौंप दिया। तदनन्तर अनेक प्रकार के तापसों को लोहे की कड़ाहियाँ, कलछू तथा ताम्बे के पात्रों का दान कर वह दिशाप्रोक्षक तापसों के पास प्रवजित हो गया। - तापस होकर सोमिल ब्राह्मण छट्ठ-छट्ठ की तपस्या और दिशा-चक्रवाल से सूर्य की आतापना लेते हुए विचरने लगा। प्रथम पारण के दिन उसने पूर्व दिशा का पोषण किया और सोम लोकपाल की अनुमति से उसने पूर्व दिशा के कन्द-मूलादि ग्रहण किये। फिर कुटिया पर आकर उसने क्रमशः वेदी का निर्माण, गंगा-स्नान और विधिवत् हवन किया । इस सब कर्मकाण्ड को सम्पन्न करने के पश्चात् सोमिल ने पारणा किया। इसी प्रकार सोमिल ने द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ पारण क्रमश: दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा में किये । Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमणोपासक सोमिल ] भगवान् श्री पार्श्वनाथ एक रात्रि में अनित्य जागरण करते हुए उसके मन में विचार उत्पन्न हुआ कि तापसों से पूछ कर उत्तर दिशा में महाप्रस्थान करे, काष्ठमुद्रा में मुँह बाँध कर मौनस्थ रहे और चलते-चलते जिस किसी भी जगह स्खलित हो जाय अथवा गिर जाय उस जगह से उठे नहीं, अपितु वहीं पड़ा रहे । प्रातःकाल तापसों से पूछ कर सोमिल ने अपने संकल्प के अनुसार उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान कर दिया । चलते-चलते अपराह्नकाल में वह एक अशोक वृक्ष के नीचे पहुँचा । वहाँ उसने बाँस की छाब रक्खी और मज्जन एवं बलिवैश्वदेव करके काष्ठमुद्रा से मुँह बाँधे वह मौनस्थ हो गया । अर्द्ध रात्रि के समय एक देव ने आकर उससे कहा - "सोमिल तेरी प्रव्रज्या ठीक नहीं है ।" सोमिल ने देव की बात का कोई उत्तर नहीं दिया । देव ने उपर्युक्त वाक्य दो तीन बार दोहराया । पर सोमिल ने उसकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया और मौन रहा । अन्त में देव वहाँ से चला गया । ५११ सोमिल निरन्तर उत्तर दिशा की ओर आगे बढ़ता रहा और दूसरे, तीसरे व चौथे दिन के अपराह्नकाल में क्रमशः सप्तपर्ण, अशोक और वटवृक्ष के नीचे उपर्युक्त विधि से कर्मकाण्ड सम्पन्न कर एवं काष्ठमुद्रा से मुख बाँध कर प्रथम रात्रि की तरह उसने तीनों रात्रियाँ व्यतीत कीं । तीनों ही मध्यरात्रियों में उपर्युक्त देव सोमिल के समक्ष प्रकट हुआ और उसने वही उपर्युक्त वाक्य " सोमिल तेरी प्रव्रज्या ठीक नहीं है, दुष्प्रव्रज्या है" को दो तीन बार दोहराया । सोमिल ने हर बार देव की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया और मौनस्थ रहा । उत्तर दिशा में अग्रसर होते हुए सोमिल पाँचवें दिन की अन्तिम वेला में एक गूलर वृक्ष के नीचे पहुँचा और वहाँ अपनी कावड़ रख, वेदीनिर्माण, गंगामज्जन, शरक एवं अरणि से अग्निप्रज्वालन और दैनिक यज्ञ से निवृत्त होकर काष्ठमुद्रा में मुँह बाँध कर मौनस्थ हो गया । मध्यरात्रि में फिर वही देव सोमिल के समक्ष प्रकट होकर कहने लगा“सोमिल तुम्हारी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है ।" सोमिल फिर भी मौन रहा । सोमिल के मौन रहने पर देव ने दूसरी बार अपनी बात दोहराई। इस बार भी सोमिल ने अपना मौन भंग नहीं किया । Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [श्रमणोपासक सोमिल देव ने तीसरी बार फिर कहा-"सोमिल ! तेरी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या इस पर सोमिल ने अपना मौन तोड़ते हए देव से पूछा-"देवानप्रिय ! आप बतलाइये कि मेरी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या किस प्रकार है ?' उत्तर में देव ने कहा- "सोमिल ! तुमने अर्हत् पार्श्व के समक्ष पाँच अणुव्रत, सात शिक्षावत, इस तरह बारह व्रत वाला श्रावकधर्म स्वीकार किया था। उनका तुमने त्याग कर दिया और दिशाप्रोक्षक तापस बन गये हो। यह तुम्हारी दुष्प्रव्रज्या है। मैंने बार-बार तुम्हें समझाया, फिर भी तुम नहीं समझे।" सोमिल ने पूछा-"देव ! मेरी सुप्रव्रज्या कैसे हो सकती है ?" "सोमिल ! यदि तुम पूर्ववत् श्रावक के बारह व्रत धारण करो तो तुम्हारी प्रव्रज्या सुप्रव्रज्या हो सकती है।" यह कहकर देव सोमिल को नमस्कार कर तिरोहित हो गया। तदनन्तर सोमिल देव के कथनानुसार स्वत: ही पूर्ववत श्रावकधर्म स्वीकार कर बेला, तेला, चोला, अर्द्धमास, मास आदि की धोर तपश्चर्याओं के साथ श्रमरणोपासक-पर्याय का पालन करता हुना बहुत वर्षों तक विचरण करता रहा। अन्त में १५ दिन की संलेखना से आत्मा को भावित करता हा पूर्वकृत दुष्कृत की आलोचना किये बिना आयुष्य पूर्ण कर वह शुक्र महाग्रह रूप से देव हया । कठोर तप और श्रमणोपासकधर्म के पालन के कारण इसे यह ऋद्धि प्राप्त हुई है। गौतम ने पुनः प्रश्न किया-"भगवन् ! यह शुक्रदेव प्रायुध्य पूर्ण होने पर कहाँ जायगा?" भगवान महावीर ने कहा-"गौतम ! देवाय पूर्ण होने पर यह शुक्र नहाविदेह क्षेत्र में जन्म ग्रहण करेगा और वहाँ प्रवजित हो सकल कर्मों का क्षय कर निर्वाण प्राप्त करेगा।" यहाँ पर सोमिल का काष्ठमुद्रा से मुख बाँध कर मौन रहना विचारणीय एतं शोध का विषय है । जैन दर्शन के अतिरिक्त अन्य दर्शनों में कहीं भी मुख बाँधने का विधान उपलब्ध नहीं होता । ऐसी स्थिति में निरयावलिका में सोमिल द्वारा काष्ठमुद्रा से मुह बाँधना प्रमाणित करता है कि प्राचीन समय में जनेतर Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमणोपासक सोमिल] भगवान् श्री पार्श्वनाथ ५१३ धार्मिक परम्पराओं में काष्ठमुद्रा से मुख बाँधने की परम्परा थी और पार्श्वनाथ के समय में जैन परम्परा में भी मुखवस्त्रिका बाँधने की परम्परा थी । अन्यथा देव सोमिल को काष्ठमुद्रा का परित्याग करने का परामर्श अवश्य देता। जहाँ तक हमारा अनमान है, जैन साधु की मुखवस्त्रिका का तापस सम्प्रदाय पर भी अवश्य प्रभाव पड़ा होगा । काष्ठमुद्रा से मूह बाँधने वाली परम्परा का परिचय देते हुए राजशेखर ने षड्दर्शन प्रकरण में कहा है वोटेति भारते ख्याता, दारवी मुखवस्त्रिका । दयानिमित्तं भूतानां मुखनिश्वासरोधिका ।। घ्राणादनप्रयातेन, श्वासेनैकेन जन्तवः । हन्यन्ते शतशो ब्रह्मन्नरणमात्राक्षरवादिना ।। श्लो. ऐतिहासिक तथ्य की गवेषणा करने वाले विद्वानों को इस पर तटस्थ दृष्टि से गम्भीर विचार कर तथ्य प्रस्तुत करना चाहिए। इसके साथ ही जो मुख-वस्त्रिका को अर्वाचीन और शास्त्र के पन्नों की थूक से रक्षा के लिए' ही मानते हैं, उन विद्वानों को तटस्थता से इस पर पुनर्विचार करना चाहिये। बहुपुत्रिका देवी के रूप में पार्श्वनाथ की प्रार्या निरयावलिका सूत्र के तृतीय वर्ग के चतुर्थ अध्याय में बहुपुत्रिका देवी के सम्बन्ध में निम्नलिखित रूप से विवरण दिया गया है-- एक समय राजगृह नगर के गुण शिलक उद्यान में भगवान महावीर के पधारने पर विशाल जनसमुदाय प्रभु के दर्शन व वन्दन को गया । उस समय सौधर्मकल्प की ऋद्धिशालिनी बहुपुत्रिका देवी भी भगबान को वन्दन करने हेतु समवसरण में उपस्थित हुई। देशनाश्रमण एवं प्रभुवन्दन के पश्चात् उस देवी ने अपनी दाहिनी भुजा फैला कर १०८ देवकुमारों और बांई भुजा से १०८ देवकुमारियों तथा अनेक छोटी-बड़ी उम्र के पोगण्ड एवं वयस्क अगणित बच्चेबच्चियों को प्रकट कर बड़ी ही अद्भुत तथा मनोरंजक नाट्यविधि का प्रदर्शन किया और अपने स्थान को लौट गई। गौतम गणधर ने भगवान महावीर स्वामी से साश्चर्य पूछा-"भगवन् ! यह बहुपुत्रिका देवी पूर्वभव में कौन थी और इसने इस प्रकार की अद्भुत ऋद्धि किस प्रकार प्राप्त की है ?" भगवान् ने कहा-"पूर्व समय की बात है कि वाराणसी नगरी में भद्र नामक एक प्रतिसमृद्ध सार्यवाह रहता था। उसकी पत्नी सुभद्रा बड़ी सुन्दर मोर सुकुमार थी। अपने पति के साथ दाम्पत्य जीवन के सभी प्रकार के भोगों Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास (बहुपुत्रिका देवी के रूप में का उपभोग करते हुए अनेक वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी सुभद्रा ने एक भी संतान को जन्म नहीं दिया क्योंकि वह बन्ध्या थी। __ संतति के अभाव में अपने आपको बड़ी अभागिन, अपने स्त्रीत्व और स्त्रीजीवन को निन्दनीय, अकिंचन और विडम्बनापूर्ण मानती हुई वह विचारने लगी कि वे माताएँ धन्य हैं, उन्हीं स्त्रियों का स्त्री-जीवन सफल और सारभूत है, जिनकी कुक्षि से उत्पन्न हुए कुसुम से कोमल बच्चे कर्णप्रिय 'माँ' के मधुर सम्बोधन से सम्बोधित करते हुए, संततिवात्सल्य के कारण दूध से भरे मातानों के स्तनों से दुग्धपान करते हुए, गोद, आँगन और घर भर को अपनी मनोमुग्धकारिणी बालकेलियों से सुशोभित और अपनी माताओं एवं परिजनों को हर्षविभोर कर देते हैं । इस तरह सुभद्रा गाथापत्नी अपनी बन्ध्यत्व से अत्यन्त दुखित हो रातदिन चिन्ता में घुलने लगी। एक दिन भगवान् पार्श्वनाथ की शिष्या प्रार्या सुव्रता की प्रार्यानों का एक संघाटक वाराणसी के विभिन्न कुलों में मधूकरी करता हुप्रा सुभद्रा के घर पहुँचा । सुभद्रा ने बड़े सम्मान के साथ उन साध्वियों का सत्कार करते हुए उन्हें अपनी सन्ततिविहीनता का दुखड़ा सुना कर उनसे सन्तान उत्पन्न होने का उपाय पूछा। ___आर्या ने उत्तर में कहा-"देवानुप्रिये ! हम श्रमणियों के लिए इस प्रकार का उपाय बताना तो दूर रहा, ऐसी बात सुनना भी वर्जित है । हम तो तुम्हें सर्व-दुखनाशक वीतरागधर्म का उपदेश सुना सकती हैं । सुभद्रा द्वारा धर्मश्रवण की रुचि प्रकट किये जाने पर आर्या ने उसे सांसारिक भोगोपभोगों की विडम्बना बताते हुए वीतराग द्वारा प्ररूपित त्यागमार्ग का महत्त्व समझाया। आर्याओं के मुख से धर्मोपदेश सुन कर सुभद्रा ने संतोष एवं प्रसन्नता का अनुभव करते हुए श्राविकाधर्म स्वीकार्य किया और अन्ततोगत्वा कालान्तर में संसार से विरक्त हो अपने पति की आज्ञा प्राप्त कर वह आर्या सुव्रता के पास प्रवजित हो गई साध्वी बनने के पश्चात् आर्या सुभद्रा कालान्तर में लोगों के बालकों को देख कर मोहोदय से उन्हें बड़े प्यार और दुलार के साथ खिलाने लगी। वह उन बालकों के लिए अंजन, विलेपन, खिलौने, प्रसाधन एवं खिलाने-पिलाने की सामग्री लाती, स्नान-मंजन, अंजन, बिंदी, प्रसाधन प्रादि से उन बच्चों को सजाती, मोदक आदि खिलाती और उन बाल-क्रीड़ानों को बड़े प्यार से देख कर अपने आपको पुत्र-पौत्रवती समझती हुई अपनी संततिलिप्सा को शान्त करने का प्रयास करती। Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ की प्रार्या ] भगवान् श्री पार्श्वनाथ ५१५ आर्या सुव्रता ने यह सब देख कर उसके इस आचरण को साधुधर्म के विरुद्ध बताते हुए उसे ऐसा न करने का आदेश दिया पर सुभद्रा अपने उस असाधु आचरण से बाज न आई। सुव्रता द्वारा और अधिक कहे जाने पर सुभद्रा अलग उपाश्रय में चली गई । वहाँ निरंकुश हो जाने के कारण वह पासत्था, पासत्थविहारिणी, उसन्ना, उसन्नविहारिणी, कुशीला, कुशील- विहारिणी, संसत्ता, संसत्त - विहारिणी एवं स्वच्छन्दा, स्वच्छन्दविहारिणी बन गई । इस प्रकार शिथिलाचारपूर्वक श्रामण्यपर्याय का बहुत करने के पश्चात् अंत में प्रार्या सुभद्रा मासार्द्ध की संलेखना से किये ही आयुष्य पूर्ण कर सौधर्म कल्प में बहुपुत्रिका देवी रूप से वर्षों तक पालन बिना आलोचना उत्पन्न हुई ।" गौतम ने प्रश्न किया- "भगवन् ! इस देवी को बहुपुत्रिका किस कारण कहा जाता है ?" भगवान् महावीर ने कहा - "यह देवी जब-जब सौधर्मेन्द्र के पास जाती है तो अपनी वैक्रियशक्ति से अनेक देवकुमारों और देवकुमारियों को उत्पन्न कर उनको साथ लिए हुए जाती है, अतः इसे बहुपुत्रिका के नाम से सम्बोधित किया जाता है ।" गौतम ने पुनः प्रश्न किया- " भगवन् ! सौधर्म कल्प की आयुष्य पूर्ण होने के पश्चात् यह बहुपुत्रिका देवी कहाँ उत्पन्न होगी ?" 7 भगवान् महावीर ने फरमाया - " सौधर्म कल्प से च्यवन कर यह देवी भारत के विभेल सन्निवेश में सोमा नाम की ब्राह्मण पुत्री के रूप में उत्पन्न होगी । उसका पिता अपने भानजे राष्ट्रकूट नामक युवक के साथ सोमा का विवाह करेगा । पूर्वभव को अत्युत्कट पुत्रलिप्सा के कारण सोमा प्रतिवर्ष युगल बालकबालिका को जन्म देगी और इस प्रकार विवाह के पश्चात् सोलह वर्षों में वह बत्तीस बालक-बालिकाओं की माता बन जायगी । अपने उन बत्तीस बालकबालिकाओं के क्रंदन, चीख-पुकार, सार-सँभाल, मल-मूत्र वमन को साफ करने आदि कार्यों से वह इतनी तंग आ जायगी कि बालक-बालिकाओं के मल-मूत्र से सने अपने तन-बदन एवं कपड़ों तक को साफ नहीं कर पायेगी । जहाँ वह सुभद्रा सार्थवाहिनी के भव में संतान के लिए छटपटाती रहती थी वहाँ अपने आगामी सोमा के भव में संतति से ऊब कर बंध्या स्त्रियों को धन्य प्रौर ने प्रापको हतभागिनी मानेगी । कालान्तर में सोमा सांसारिक जीवन को विडम्बनापूर्ण समझ कर सुव्रता नाम की किसी श्रार्या के पास प्रव्रजित हो जायगी और घोर तपस्या कर एक Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ जैन धर्म का मोलिक इतिहास [भ० पार्श्व० की साध्वियां मास की संलेखनापूर्वक काल कर शक्रेन्द्र के सामानिक देव रूप में उत्पन्न होगी। देवभवपूर्ण होने पर महाविदेह क्षेत्र में मनुष्य होकर बहुपुत्रिका का जीव तपसंयम की साधना से निर्वाणपद प्राप्त करेगा।" भगवान पार्श्वनाथ की साध्वियां विशिष्ट देवियों के रूप में भगवान् पार्श्वनाथ के उपदेशों से प्रभावित हो समय-समय पर २१६ जराजीर्ण कुमारिकाओं ने पार्श्व प्रभु की चरणशरण ग्रहण कर प्रव्रज्या ली, इस प्रकार के वर्णन निरयावलिका और ज्ञाताधर्म कथा सुत्रों में उपलब्ध होते हैं। - उन आख्यानों से तत्कालीन सामाजिक स्थिति पर, भगवान् पार्श्वनाथ की अत्यधिक लोकप्रियता और उनके नाम के साथ 'पुरुषादानीय' विशेषण प्रयुक्त किये जाने के कारणों पर काफी अच्छा प्रकाश पड़ता है, अतः उन उपाख्यानों को यहां संक्षेप में दिया जा रहा है । निरयावलिका सूत्र के पुष्पचूलिका नामक चौथे वर्ग में श्री, ह्री, धी, कीति, बद्धि, लक्ष्मी, इलादेवी, सुरादेवी, रसदेवी और गन्धदेवी नाम की दश देवियों के दश अध्ययन हैं । प्रथम अध्ययन में श्रीदेवी के सम्बन्ध में वर्णन किया गया है कि एक समय भगवान् महावीर राजगृह नगर के गणशील नामक उद्यान में पधारे । उस समय सौधर्म कल्प के श्री अवतंसक विमान को महती ऋद्धिशालिनी श्रीदेवी भी भगवान् महावीर के दर्शन करने के लिए समवशरण में आयी। श्रीदेवी ने अपने नाम-गोत्र का उच्चारण कर प्रभ को प्रांजलिपूर्वक आदक्षिणा-प्रदक्षिणा के साथ वन्दन कर समवशरण में अपनी उच्चकोटि की वैक्रियल ब्धि द्वारा अत्यन्त मनोहारी एवं परम अद्भुत नाट्यविधि का प्रदर्शन किया। तदनन्तर वह भगवान महावीर को वन्दन कर अपने देवलोक को लौट गई। - गौतम गणधर द्वारा किये गये प्रश्न के उत्तर में भगवान महावीर ने श्रीदेवी का पूर्वजन्म बताते हुए फरमाया-“गौतम ! राजा जितशत्रु के राज्यकाल में सुदर्शन नामक एक समृद्ध गाथापति राजगह नगर में निवास करता था। उसकी पत्नी का नाम प्रिया और इकलौती पुत्री का नाम भूता था । कन्या भूता का विवाह नहीं हुआ और वह जराजीर्ण हो वृद्धावस्था को प्राप्त हो गई। बुढ़ापे के कारण उसके स्तन और नितम्ब शिथिल हो गये थे। एक समय पुरुषादानीय प्रहंत् पार्श्व राजगृह नगर में पधारे। नगरनिवासी हर्षविभोर हो प्रभुदर्शन के लिए गये । वृद्धकुमारिका भूता भी अपने माता-पिता Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्ट देवियों के रूप में ] भगवान् श्री पार्श्वनाथ ५१७ की आज्ञा लेकर भगवान् के समवशरण में पहुँची और पार्श्वनाथ के उपदेश को सुन कर एवं हृदयंगम करके बड़ी प्रसन्न हुई । उसने वन्दन के पश्चात् प्रभु से हाथ जोड़ कर कहा- "प्रभो ! मैं निर्ग्रथ प्रवचन पर श्रद्धा रखती हूँ और उसके आराधन के लिए समुद्यत हूँ । अपने मातापिता की आज्ञा प्राप्त कर मैं आपके पास प्रव्रजित होना चाहती हूँ ।" प्रभु पार्श्वनाथ ने कहा - " देवान्प्रिये ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो वैसा ही करो ।" घर लौट कर भूता कन्या ने अपने माता-पिता के समक्ष दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा प्रकट कर उनसे प्राज्ञा प्राप्त कर ली । सुदर्शन गाथापति ने बड़े समारोह के साथ दीक्षा - महोत्सव प्रायोजित किया और एक हजार पुरुषों द्वारा उठाई जाने वाली सुन्दर पालकी में भूता को बिठा कर दिशाओं को प्रतिध्वनित करने वाली विविध वाद्यों की ध्वनि के बीच स्वजन - परिजन सहित शहर के मध्यभाग के विस्तीर्ण राजपथ से वह गुणशील चैत्य के पास पहुँचा । तीर्थंकर पार्श्वनाथ के प्रतिशयों को देखते ही भूता कन्या शिबिका से उतरी । गाथापति सुदर्शन और उसकी पत्नी प्रिया अपनी पुत्री भूता को आगे कर प्रभु के पास पहुँचे और प्रदक्षिणापूर्वक वन्दन, नमस्कार के पश्चात् कहने लगे -- "भगवन् ! यह भूता दारिका हमारी इकलौती पुत्री है, जो हमें प्रत्यन्त प्रिय है । यह संसार के जन्म-मरण के भय से उद्विग्न हो आपकी सेवा में प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहती है । अतः हम आपको यह शिष्यारूपी भिक्षा समर्पित करते हैं । प्रभो ! अनुग्रह कर आप इस भिक्षा को स्वीकार कीजिये ।" भगवान् पार्श्वनाथ ने कहा - "देवानुप्रियो ! जैसी तुम्हारी इच्छा हो ।” तदनन्तर वृद्धकुमारिका भूता ने हृष्टतुष्ट हृदय से ईशान कोण में जाकर आभूषण उतारे और वह पुष्पचूला आर्या के पास प्रव्रजित हो गई । उसके बाद कालान्तर में वह भूता प्रार्या शरीरबाकुशिका ( अपने शरीर की अत्यधिक सार सम्हाल करने वाली ) हो गई और अपने हाथों, पैरों, शिर, मुँह आदि को बार-बार धोती रहती । जहाँ कहीं, सोने, बैठने और स्वाध्याय श्रादि के लिए उपयुक्त स्थान निश्चित करती तो उस स्थान को पहले पानी से छिड़कती और फिर उस स्थान पर सोती, बैठती अथवा स्वाध्याय करती थी । यह देख कर प्रार्या पुष्पचूला ने उसे बहुतेरा समझाया कि साध्वी के लिए शरीरबाकुशिका होना उचित नहीं है, अतः इस प्रकार के आचरण के लिए वह Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भ० पार्श्व० की साध्वियां आलोचना करे और भविष्य में ऐसा कभी न करे, पर भूता आर्या ने पुष्पचला की बात नहीं मानी। वह अकेली ही अलग उपाश्रय में रहने लगी और स्वतन्त्र होकर पूर्ववत् शरीरबाकुशिका ही बनी रही। __तत्पश्चात् भूता आर्या ने अनेक चतुर्थ, षष्ठ और अष्टमभक्त आदि तप कर के अपनी आत्मा को भावित किया और संलेखनापूर्वक, अपने शिथिलाचार की आलोचना किये बिना ही, आयुष्य पूर्ण होने पर वह सौधर्म कल्प के श्री अवतंसक विमान में देवी हुई और इस प्रकार वह ऋद्धि उसे प्राप्त हुई। देवलोक में एक पल्योपम को आयुष्य भोग कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगी और वहाँ वह सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होगी। श्रीदेवी की ही तरह ही आदि ६ देवियों ने भी भगवान् महावीर के दर्शन, वन्दन हेतु समवशरण में उपस्थित हो अपनी अत्यन्त आश्चर्यजनक वैक्रियलब्धि द्वारा मनोहारी दृश्यों का प्रदर्शन किया और प्रभ को वन्दन कर क्रमशः अपने स्थान को लौट गईं। उन ६ देवियों के पूर्वभव सम्बन्धी गौतम की जिज्ञासा का समाधान करते हए श्रमण भगवान् महावीर ने फरमाया कि वे ही देवियाँ अपने समान नाम वाले गाथापति दम्पतियों की पुत्रियाँ थीं। वृद्धावस्था को प्राप्त हो जाने तक उनका विवाह नहीं हुआ, अतः वे वृद्धा-वृद्धकुमारिका, जी-जीर्णकुमारिका के विशेषणों से सम्बोधित की गई हैं। उन सभी वृद्धकुमारिकाओं ने भूता वृद्धकुमारिका की तरह भगवान् पार्श्वनाथ के उपदेशों से प्रभावित हो प्रवतिनी पुष्पचूला के पास दीक्षा ग्रहण कर अनेक प्रकार की तपस्याएँ कीं, पर शरीरबाकुशिका बन जाने के कारण संयम की विराधिकाएँ हुईं। अपनी प्रवर्तिनी पुष्पचूला द्वारा समझाने पर भी वे नहीं मानी और स्वतन्त्र एकलविहारिणी हो गई। अन्त समय में संलेखना कर अपने शिथिलाचार की आलोचना किये बिना ही मर कर सौधर्म कल्प में ऋद्धिशालिनी देवियाँ हुईं । देवलोक की आयष्य पर्ण होने पर ये सब महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होंगी और अन्त में वहाँ निर्वाण प्राप्त करेंगी। __ इसी प्रकार ज्ञाताधर्मकथा सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के १० वर्गों में कुल मिला कर २०६ जराजीर्ण वृद्धकुमारिकाओं द्वारा प्रभु पार्श्वनाथ के पास प्रव्रजित होने का निम्न क्रम से उल्लेख है पथम वर्ग में चमरेन्द्र की पांच (५) अग्रिमहिषियाँ । दूसरे वर्ग में बलीन्द्र की पांच (५) अग्रमहिषियाँ। तीसरे वर्ग में नव निकाय के नौ दक्षिणेन्द्रों में से प्रत्येक की छ:-छः अग्रमहिषियों के हिसाब से कुल ५४ अग्रमहिषियाँ। Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्ट देवियों के रूप में] भगवान् श्री पार्श्वनाथ ५१६ चौथे वर्ग में उत्तर के नव निकायों के उत्तरेन्द्रों की ५४ अग्रमहिषियाँ । पाँचवें वर्ग में व्यन्तर के ३२ दक्षिणेन्द्रों की ३२ देवियाँ । छठे वर्ग में व्यन्तर के ३२ उत्तरेन्द्रों की ३२ देवियाँ।। सातवें वर्ग में चन्द्र की ४ अग्रमहिषियाँ । आठवें वर्ग में सूर्य की चार (४) अग्रमहिषियाँ । नवें वर्ग में शकेन्द्र की ८ अग्रमहिषियाँ और दशवें वर्ग में ईशानेन्द्र की पाठ (८) अग्रमहिषियाँ । प्रथम वर्ग में चमरेन्द्र की काली, राई, रयणी, विज्जू और मेघा इन ५ अग्रमहिषियों के कथानक दिये हुए हैं। प्रथम काली देवी ने भगवान् महावीर को राजगृह नगर में विराजमान देख कर भक्तिपूर्वक सविधि वन्दन किया और फिर अपने देव-देवीगण के साथ प्रभ की सेवा में आकर सूर्याभ देव की तरह अपनी वैक्रियशक्ति से नाट्यकला का प्रदर्शन किया और अपने स्थान को लौट गई। गौतम गणधर द्वारा उसके पूर्वभव की पच्छा करने पर प्रभु ने फरमाया"जम्बू द्वीप के भारतवर्ष की आमलकल्पा नाम की नगरी में काल नामक गाथापति की काल श्री भार्या की कुक्षि से काली बालिका का जन्म हुआ । वह वृद्ध वय की हो जाने तक भी कुमारी ही रही, इसलिए उसे वृद्धा-वृद्धकुमारी, जुन्नाजुन्नकुमारी कहा गया है। आमलकल्पा नगरी में किसी समय भगवान् पार्श्वनाथ का शुभागमन हुआ। भगवान का आगमन जान कर काली भी प्रभुवन्दन के लिए समवशरण में गई और वहाँ प्रभु के मुखारविन्द से धर्मोपदेश सुन कर संसार से विरक्ति हो गई। उसने अपने घर लौट कर मातापिता के समक्ष प्रव्रज्या ग्रहण करने की इच्छा प्रकट की और मातापिता की आज्ञा प्राप्त होने पर वह भगवान् पार्श्वनाथ के पास प्रवजित हो गई । स्वयं पुरुषादानीय भगवान् पाश्वनाथ ने उसे पुष्पचूला प्रार्या को शिष्या रूप में सौंपा। प्रार्या काली एकादश अंगों की ज्ञाता होकर चतुर्थ, षष्ठ, अष्टभक्तादि तपस्या से प्रात्मा को भावित करती हुई विचरने लगी। अन्यदा आर्या काली शरीरबाकूशिका होकर बार-बार अपने अंग-उपांगों को धोती और बैठने, सोने आदि के स्थान को पानी से छींटा करती । पुष्पचूला Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भ० पार्श्वनाथ की साध्वियां आर्या द्वारा मना किये जाने पर भी उसने शरीर बाकुशिकता का शिथिलाचार नहीं छोड़ा और अलग उपाश्रय में रह कर स्वतन्त्र रूप से विचरने लगी। ___ज्ञान, दर्शन, चारित्र से अलग रहने के कारण उसे पासत्था, पासत्थ विहारिणी, उसन्ना, उसन्न विहारिणी आदि कहा गया । वर्षों चारित्र का पालन कर एक पक्ष की संलेखना से अन्त में वह बिना आलोचना किये ही काल कर चमरचंचा राजधानी में काली देवी के रूप में चमरेन्द्र की अग्रमहिषी हुई। चमरचंचा से च्यव कर काली महाविदेह में उत्पन्न होगी और वहाँ अन्त में मुक्ति प्राप्त करेगी।" काली देवी की ही तरह रात्रि, रजनी, विद्युत और मेधा नाम की चमरेन्द्र की अग्रमहिषियों ने भी भगवान महावीर के समवशरण में उपस्थित हो प्रभु को वन्दन करने के पश्चात् अपनी वैक्रियलब्धियों का चमत्कारपूर्ण प्रदर्शन किया। गौतम गणधर के प्रश्न के उत्तर में भगवान् महावीर ने उनके पूर्वभव का परिचय देते हए फरमाया कि ये चारों देवियां अपने पर्वभव में आमलकल्पा नगरी के अपने समान नाम वाले गाथापति दम्पतियों की पुत्रियाँ थीं और जराजीणं वद्धाएं हो जाने तक भी उनका विवाह नहीं हुआ था। भगवान पार्श्वनाथ के उपदेश से विरक्त हो उन्होंने काली की तरह प्रव्रज्या ग्रहण की, विविध तपस्याएं की, शरीर बाकुशिका बनीं, श्रमणी संघ से अलग हो स्वतन्त्रविहारिणी बनी और अन्त में बिना अपने शिथिलाचार की आलोचना किये ही संलेखना कर वे चमरेन्द्र की अग्रमहिषियां बनीं। ये रात्रि आदि चारों देवियां भी देवीमायुष्य पूर्ण होने पर महाविदेह क्षेत्र में एक भव कर मुक्त होंगी। __ ज्ञाताधर्म कथा सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के दूसरे वर्ग में वरिणत शुभा, निशुभा, रंभा, निरंभा और मदना नाम की बलीन्द्र की पांचों अग्रमहिषियों ने भी भगवान् महावीर के समवशरण में उपस्थित हो काली देवी की तरह अपनी अद्भुत वैक्रियशक्ति का प्रदर्शन किया। उन देवियों ने अपने स्थान पर लौट जाने के अनन्तर गणधर गौतम के प्रश्न के उत्तर में भगवान् महावीर ने उनके पूर्वभव बताते हुए फरमाया कि वे सब अपने पूर्वभवों में सावत्थी नगरी में अपने समान नाम वाले गाथापति दम्पतियों की पुत्रियाँ थीं। ___ तीसरे वर्ग में वर्णित नव निकायों के ६ ही दक्षिणेन्द्रों की छ-छ के हिसाब से कुल ५४ अग्रमहिषियाँ-इला, सतेरा, सोयामणि आदि--अपने Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्ट देवियों के रूप में भगवान् श्री पार्श्वनाथ ५२१ पूर्वभव में वाराणसी नगरी के अपने समान नाम वाले गाथापति दम्पतियों की पुत्रियां थीं। ___ इसी प्रकार चौथे वर्ग में उल्लिखित उत्तर के नव निकायों के ६ भूतानन्द आदि उत्तरेन्द्रों की ५४ अग्रमहिषियां भगवान् महावीर के समवशरण में उपस्थित हुई। भगवान् को वन्दन करने के पश्चात् क्रमश: उन्होंने भी काली देवी की तरह अपनी अद्भुत वैक्रियशक्ति का परिषद् के समक्ष अत्यद्भुत चमत्कार प्रदर्शित किया। गणधर गौतम द्वारा उन ५४ देवियों के पूर्वभव के सम्बन्ध में प्रश्न करने पर भगवान महावीर ने फरमाया- "गौतम ये ५४ ही उत्तरेन्द्रों की अग्रमहिषियाँ अपने पूर्वजन्म में चम्पा नगरी के निवासी अपने समान नाम वाले माता-पिताओं की रूपा, सुरूपा, रूपांसा, रूपकावती, रूपकान्ता, रूपप्रभा, आदि नाम की पुत्रियां थीं। ये सभी वृद्धकुमारियां थीं। जराजीर्ण हो जाने पर भी इन सबका विवाह नहीं हुआ था । भगवान् पार्श्वनाथ के चम्पानगरी में पधारने पर इन सब वृद्धकुमारिकाओं ने उनके उपदेश से प्रभावित हो प्रवर्तिनी सुव्रता के पास यम ग्रहण किया । इन सबने कठोर तपस्या करके संयम के मूल गणों का पूर्णरूपेण पालन किया । लेकिन शरीरबाकुशिका होकर संयम के उत्तर गुणों की यह सब विराधिकायें बन गई। बहत वर्षों तक संयम और तप की साधना से इन्होंने चरित्र का पालन किया और अन्त में संलेखनापूर्वक प्रायुष्य पूर्ण कर अपने चारित्र के उत्तर गणों के दोषों की आलोचना नहीं करने के कारण उत्तरेन्द्र की अग्रमहिषियां हुईं। पंचम वर्ग में दक्षिण के व्यन्तरेन्द्रों की ३२ अग्रमहिषियों का वर्णन है । कमला, कमलप्रभा, उत्पला, सुदर्शना, रूपवती, बहुरूपा, सुरूपा, सुभगा, पूर्णा, बहुपुत्रिका, उत्तमा, भार्या, पद्मा, वसुमती, कनका, कनकप्रभा, बडेसा, केतमती, नइरसेणा, रईप्रिया, रोहिणी, नमिया, ह्री, पुष्पवती, भुजगा. भुजगावती, महाकच्छा, अपराजिता, सुघोषा, विमला, सुस्सरा, सरस्वती, इन सब देवियों ने भी काली की ही तरह भगवान महावीर के समवशरण में उपस्थित हो अपनी वैक्रियशक्ति का प्रदर्शन किया। गौतम द्वारा इनके पूर्वभव के सम्बन्ध में जिज्ञासा करने पर भगवान् महावीर ने कहा-ये बत्तीसों देवियां पूर्वभव में नागपुर निवासी अपने समान नाम वाले गाथापति दम्पतियों को पुत्रियां थीं। ये भी जीवनभर अविवाहित रहीं। जब ये वृद्ध कन्यायें--जीर्ण कन्यायें हो चुकी थीं, उस समय नागपूर में भगवान पार्श्वनाथ का आगमन सुन कर ये भी भगवान् के समवशरण में पहँची और उनके उपदेश से विरक्त हो सुव्रता प्रार्या के पास प्रवजित हो गई। इन्होंने अनेक वर्षों तक संयम का पालन किया और अनेक प्रकार की उग्र तपस्यायें Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भ० पार्श्वनाथ की साध्वियां की। किन्तु शरीरबाकुशिका हो जाने के कारण इन्होंने संयम के उत्तर गुणों की विराधना की और अन्त समय में बिना संयम के अतिचारों की आलोचना किये संलेखनापूर्वक काल धर्म को प्राप्त हो ये दक्षिणेन्द्रों की अग्रमहिषियां बनीं। षष्ट वर्ग में निरूपित व्यन्तर जाति के महाकाल आदि ३२ उत्तरेन्द्रों की देवियां अपने पूर्वभव में साकेतपुर के अपने समान नाम वाले गाथापति दम्पतियों की पुत्रियाँ थीं। इन्होंने भी भगवान पार्श्वनाथ के उपदेशों से विरक्त हो आर्या सुव्रता के पास प्रव्रज्या ग्रहण की। अनेक वर्षों तक इन सबने संयम एवं तप की साधना की, किन्तु संयम के उत्तर गुणों की विराधिकाएं होने के कारण बिना पालोचना किये ही संलेखनापूर्वक आयुष्य पूर्ण कर महाकाल आदि ३२ उत्तरेन्द्रों की अग्रमहिषियां बनीं। सप्तम वर्ग में उल्लिखित सूरप्रभा, पातपा, अचिमाली और प्रभंकरा नाम की सूर्य की ४ अग्रमहिषियां अपने पूर्वभव से अरक्खुरी नगरी के अपने समान नाम वाले गाथापति दम्पतियों की पुत्रियाँ थीं । __ अष्टम वर्ग में वणित चन्द्रप्रभा, ज्योत्स्नाभा, अचिमाली और प्रभंगा नाम की चन्द्र की चार अग्रमहिषियां अपने पूर्वभव में मथुरा के अपने समान नाम वाले गाथापति दम्पतियों को पुत्रियां थीं। नवम वर्ग में वर्णित पद्मा, शिवा, सती, अंजु, रोहिणी, नवमिया, अचला और अच्छरा नाम की सौधर्मेन्द्र की ८ अग्रमहिषियों के पूर्वभव बताते हुए प्रभु महावीर ने फरमाया कि पद्मा और शिवा श्रावस्ती नगरी के, सती और प्रजु हस्तिनापुर के, रोहिणी और नवमिया कम्पिलपुर के तथा अचला और अच्छरा साकेतपुर के अपने समान नाम वाले गाथापतियों की पुत्रियां थीं। ___ दशम वर्ग से वणित ईशानेन्द्र की कृष्णा तथा कृष्णराजि अग्रमहिषियाँ वाराणसी, रामा और रामरक्खिया राजगृह नगर, वसु एवं वसुदत्ता श्रावस्ती नगरी, तथा वसुमित्रा और वसुधरा नाम को अग्रमहिषियों कोशाम्बी के अपने समान नाम वाले गाथापति दम्पतियों की पुत्रियां थीं। दूसरे वर्ग से दशम वर्ग तक में वणित ये सभी २०१ देवियाँ अपने अपने पूर्वभव में जीवन भर अविवाहित रहीं, जराजीर्ण वृद्धावस्था में इन सभी वृद्धकुमारियों ने भगवान् पार्श्वनाथ के उपदेशों से विरक्त हो श्रमणीधर्म स्वीकार किया । ग्यारह अंगों की ज्ञाता होकर इन सबने अनेक प्रकार की तपस्याएं की, पर कालान्तर में ये सबकी सब शरीरबाकुशिका हो साध्विसंघ से पृथक हो स्वतन्त्रविहारिणियां एवं शिथिलाचारिणियां बन गई और अन्त में अपने अपने Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्ट देवियों के रूप में] भगवान् श्री पार्श्वनाथ ५२३ शिथिलाचार की आलोचना किये बिना ही संलेखनापूर्वक कालकवलिताएं हो उपरिवर्णित इन्द्रों एवं सूर्य तथा चन्द्र की अग्रमहिषियां बनीं। भगवान् पार्श्वनाथ का व्यापक और अमिट प्रभाव वीतरागता और सर्वज्ञता आदि आत्मिक गुणों की सब तीर्थंकरों में समानता होने पर भी संभव है, पार्श्वनाथ में कोई विशेषता रही हो, जिससे कि वे अधिकाधिक लोकप्रिय हो सके । जैन साहित्य के अन्तर्गत स्तुति, स्तोत्र और मंत्रपदों से भी ज्ञात होता है कि वर्तमान अवसर्पिणी काल के चौबीस तीर्थंकरों में से भगवान् पार्श्वनाथ की स्तुति के रूप में जितने मंत्र या स्तोत्र उपलब्ध होते हैं, उतने अन्य के नहीं हैं। भगवान पार्श्वनाथ की भक्ति से ओतप्रोत अनेक महात्माओं एवं विद्वानों द्वारा रचित प्रभु पार्श्वनाथ की महिमा से पूर्ण कई महाकाव्य, काव्य, चरित्र, अगणित स्तोत्र आदि और देश के विभिन्न भागों में प्रभु पार्श्व के प्राचीन भव्य कलाकृतियों के प्रतीक विशाल मन्दिरों का बाहल्य, ये सब इस बात के पुष्ट प्रमाण हैं कि भगवान पार्श्वनाथ के प्रति धर्मनिष्ठ मानवसमाज पीढ़ियों से कृतज्ञ और श्रद्धावनत रहा है । आगमों में अन्यान्य तीर्थंकरों का 'अरहा' विशेषण से ही उल्लेख किया गया है । जैसे-'मल्ली अरहा', 'उसभेणं अरहा', 'सीयलेणं अरहा', 'संतिस्सणं अरहो' आदि । पर पार्श्वनाथ का परिचय देते समय भागमों में लिखा गया है-'पासेणं अरहा पुरिसादाणीए' 'पासस्सरणं अरहो पुरिसादारिणअस्स' ।। इससे प्रमाणित होता है कि आगमकाल में भी भगवान पार्श्वनाथ की कोई खास विशिष्टता मानी जाती थी। अन्यथा उनके नाम से पहले विशेषण के रूप में 'अरहा अरिट्टनेमी' की तरह 'पासेणं अरहा' केवल इतना ही लिखा जाता। _ 'पुरुषादानीय' का अर्थ होता है पुरुषों में आदरपूर्वक नाम लेने योग्य । महावीर के विशिष्ट तप के कारण जैसे उनके नाम के साथ 'समणे भगवं महावीरे' लिखा जाता है, वैसे ही पार्श्वनाथ के नाम के साथ अंग-शास्त्रों में 'पूरिसादाणी' विशेषण दिया गया है। अतः इस विशेषण के जोड़ने का कोई न कोई विशिष्ट कारण अवश्य होना चाहिये । वह कारण यह हो सकता है कि पूर्वोक्त २२० देवों और देवियों के प्रभाव से जनता अत्यधिक प्रभावित हुई हो। देवियों एवं देवताओं की आश्चर्यजनक विपुल ऋद्धि और अत्यन्त अद्भुत शक्ति के प्रत्यक्षदर्शी विभिन्न नगरों के विशाल १ समवायांग व कल्पसूत्र आदि । २ समवायांग सूत्र, समवाय ३८ व कल्पसूत्र आदि । Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भ० पार्श्वनाथ का व्यापक जनसमहों ने जब उन देवताओं और देवियों के पूर्वभव के सम्बन्ध में त्रिकालदर्शी सर्वज्ञ, तीर्थंकर भगवान् महावीर के मुखारविन्द से यह सुना कि ये सभी देव और देवियां भगवान् पार्श्वनाथ के अन्तेवासी और अन्तेवासिनियाँ थीं तो निश्चित रूप से भगवान् पार्श्वनाथ के प्रति उस समय के जनमानस में प्रगाढ़ भक्ति और अगाध श्रद्धा का घर कर लेना सहज स्वाभाविक ही था। इसके साथ ही साथ अपने नीरस नारी जीवन से ऊबी हुई उन दो सौ सोलह (२१६) वृद्धकुमारिकाओं ने भगवान पार्श्वनाथ की कृपा से महती देवीऋद्धि प्राप्त की । अतः सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि देवियां बन कर उन्होंने निश्चित रूप से जिनशासन की प्रभावना के अनेक कार्य किये होंगे और उस कारण भारत का मानवसमाज निश्चित रूप से भगवान पार्श्वनाथ का विशिष्ट उपासक बन गया होगा। भगवान पार्श्वनाथ के कृपाप्रसाद से ही तापस की धनी में जलता हुआ नाग और नागिन का जोड़ा धरणेन्द्र और पद्मावती बना तथा भगवान् पार्श्वनाथ के तीन शिष्य क्रमशः सूर्यदेव, चन्द्रदेव और शुक्रदेव बने । श्रद्धालु भक्तों की यह निश्चित धारणा है कि इन देवियों, देवों और देवेन्द्रों ने समय-समय पर शासन को प्रभावना की है। इसका प्रमाण यह है कि धरणेन्द्र और पद्मावती के स्तोत्र आज भी प्रचलित हैं । भद्रबाह के समय में संघ को संकटकाल में पार्श्वनाथ का स्तोत्र ही दिया गया था। सिद्धसेन जैसे पश्चाद्वर्ती प्राचार्यों ने भी पार्श्वनाथ की स्तुति से ही शासनप्रभावना की। इन वृद्धकुमारिकाओं के आख्यानों से उस समय की सामाजिक स्थिति का दिग्दर्शन होता है कि सामाजिक रूढ़ियों अथवा अन्य किन्हीं कारणों से उस समय समृद्ध परिवारों को भी अपनी कन्याओं के लिये योग्य वरों का मिलना बड़ा दूभर था। भगवान पार्श्वनाथ ने जीवन से निराश ऐसे परिवारों के समक्ष साधना का प्रशस्त मार्ग प्रस्तुत कर तत्कालीन समाज को बड़ी राहत प्रदान की। इन सब पाख्यानों से सिद्ध होता है कि भगवान पार्श्वनाथ ने उस समय के मानवसमाज को सच्चे सुख की राह बताई एवं उलझी हई जटिल समस्याओं को सुलझा कर मानव समाज की अत्यधिक भक्ति और प्रगाढ़ प्रीति प्राप्त की और अपने अमृतोपम प्रभावशाली उपदेशों से जनमन पर ऐसी अमिट छाप लगाई कि हजारों वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी प्रभु पार्श्वनाथ को परम्परागत छाप प्राज के जनमानस पर भी स्पष्टतः दिखाई दे रही है। Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और अमिट प्रभाव] भगवान् श्री पार्श्वनाथ ५२५ इसके अतिरिक्त भगवान पार्श्वनाथ के विशिष्ट प्रभाव का एक कारण उनका प्रबल पुण्यातिशय एवं अधिष्ठाता देव-देवियों का सान्निध्य भी हो सकता है। भगवान् पार्श्वनाथ ने केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् अपने दीर्घकाल के विहार में अनार्य देशों में भ्रमण कर अनार्यजनों को भी अधिकाधिक संख्या में धर्मानुरागी बनाया हो, तो यह भी उनकी लोकप्रियता का विशेष कारण हो सकता है। जैसा कि भगवान पार्श्वनाथ के विहारक्षेत्रों के सम्बन्ध में अनेक प्राचार्यों द्वारा किये गये वर्णनों से स्पष्ट प्रतीत होता है। पार्श्व ने कुमारकाल में प्रसेनजित की सहायता की और राजा यवन को अपने प्रभाव से मुकाया। संभव है कि यवनराज भी आगे चल कर भगवान पार्श्वनाथ के उपदेशों से अत्यधिक प्रभावित हुअा हो और उसके फलस्वरूप अनार्य कहे जाने वाले उस समय के लोग भी अधिकाधिक संख्या में धर्ममार्ग पर आरूढ़ हुए हों और इस कारण भगवान् पार्श्वनाथ आर्य और अनार्य जगत् में अधिक अादरणीय और लोकप्रिय हो गये हों। भगवान् पार्श्वनाथ की प्राचार्य परम्परा यह एक सामान्य नियम है कि किन्हीं भी तीर्थंकर के निर्वाण के पश्चात जब तक दूसरे तीर्थंकर द्वारा अपने धर्म-तीर्थ की स्थापना नहीं कर दी जाती तब तक पूर्ववर्ती तीर्थंकर का ही धर्म-शासन चलता रहता है और उनकी प्राचार्य परम्परा भी उस समय तक चलती रहती है । इस दृष्टि से मध्यवर्ती तीर्थंकरों के शासन में असंख्य आचार्य हुए हैं, पर उन आचार्यों के सम्बन्ध में प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध नहीं होने के कारण उनका परिचय नहीं दिया जा सका है। तेईसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ का वर्तमान जैन धर्म के इतिहास से बड़ा निकट का सम्बन्ध है और भगवान महावीर के शासन से उनका अन्तरकाल भी २५० वर्ष का ही माना गया है तथा कल्पसूत्र के अनुसार भगवान् पार्श्वनाथ की जो दो प्रकार की अन्तकड़ भूमि बतलाई गई है, उसमें उनकी युगान्तकृत भूमि में चौथे पुरुषयुग (आचार्य) तक मोक्ष-गमन माना गया है । अतः भगवान् पार्श्वनाथ की प्राचार्य परम्परा का उल्लेख यहाँ किया जाना ऐतिहासिक दृष्टि से आवश्यक है। उपकेशगच्छ-चरितावली में भगवान पार्श्वनाथ की प्राचार्य परम्परा का जो परिचय दिया गया है, वह संक्षेप में इस प्रकार है : Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् पार्श्वनाथ की १. मार्य शुभवत्त .. भगवान् पार्श्वनाथ के निर्वाण के पश्चात् उनके प्रथम पट्टधर गणधर शुभदत्त हुए। उन्होंने चौबीस वर्ष तक आचार्यपद पर रहते हुए चतुर्विध संघ का बड़ी कुशलता से नेतृत्व किया और धर्म का उपदेश करते रहें । भगवान् पार्श्वनाथ के निर्वाण के चौबीस वर्ष पश्चात् आर्य हरिदत्त को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर आर्य शुभदत्त मोक्ष पधारे । २. प्रार्य हरिदत्त भगवान् पार्श्वनाथ के द्वितीय पट्टधर आर्य हरिदत्त हुए। पार्श्वनिर्वाण संवत् २४ से ६४ तक आप आचार्यपद पर रहे। श्रमण बनने से पूर्व हरिदत्त ५०० चोरों के नायक थे । गणधर शुभदत्त के शिष्य श्री वरदत्त मुनि को एक बार जंगल में ही अपने ५०० शिष्यों के साथ रुकना पड़ा । उस समय चोर-नायक हरिदत्त अपने ५०० साथी चोरों के साथ मुनियों के पास इस प्राशा से गया कि उनके पास जो भी धन-सम्पत्ति हो वह लूट ली जाय। पर वरदत्त मुनि के पास पहुँचने पर ५०० चोरों और चोरों के नायक को धन के स्थान पर उपदेश मिला। मुनि वरदत्त के उपदेश से हरिदत्त अपने ५०० साथियों सहित दीक्षित हो गये और इस तरह जो चोरों के नायक थे, वे ही हरिदत्त मुनिनायक और धर्मनायक बन गये। गरुसेवा में रह कर मूनि हरिदत्त ने बड़ी लगन के साथ ज्ञान-संपादन किया और अपनी कुशाग्रबुद्धि के कारण एकादशांगी के पारगामी विद्वान् हो गये। इनकी योग्यता से प्रभावित हो आचार्य शुभदत्त ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। प्राचार्य हरिदत्त अपने समय के बड़े प्रभावशाली प्राचार्य हुए हैं । आपने "वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति" इस मत के कट्टर समर्थक और प्रबल प्रचारक, उद्भट विद्वान् लौहित्याचार्य को शास्त्रार्थ द्वारा राज्यसभा में पराजित कर 'अहिंसा परमो धर्मः' की उस समय के जनमानस पर धाक जमा दी थी। सत्य के पुजारी लौहित्याचार्य अपने एक हजार शिष्यों सहित आचार्य हरिदत्तसरि के पास दीक्षित हो गये और उनकी आज्ञा लेकर दक्षिण में अहिंसाधर्म का प्रचार करने के लिए निकल पड़े। आपने प्रतिज्ञा की कि जिस तरह अज्ञानवश उन्होंने हिंसा-धर्म का प्रचार किया था, उससे भी शतगणित वेग से वे अहिंसाधर्म का प्रचार करेंगे । अपने संकल्प के अनुसार उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा को निरन्तर धर्मप्रचार द्वारा कार्यरूप में परिणत कर बताया । Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य परम्परा भगवान् श्री पार्श्वनाथ ५२७ w indinok कहा जाता है कि लौहित्याचार्य ने दक्षिण में लंका तक जैन धर्म का प्रचार किया। बौद्ध भिक्षु धेनुसेन ने ईसा की पांचवीं शताब्दी में लंका के इतिहास से सम्बन्ध रखने वाला 'महादेश काव्य' नामक पाली भाषा का एक काव्य लिखा था। उस काव्य में ईस्वी सन् पूर्व ५४३ से ३०१ वर्ष तक की लंका की स्थिति का वर्णन करते हुए धेनुसेन ने लिखा है कि सिंहलद्वीप के राजा 'पनगानय' ने लगभग ई० सन पूर्व ४३७ में अपरी राजधानी अनुराधापुर में स्थापित की और वहां निग्रंथ मुनियों के लिए 'गिरी' नामक एक स्थान खुला छोड़ रक्खा । ___ इससे सिद्ध होता है कि सुदूर दक्षिण में उस समय जैन धर्म का प्रचार और प्रसार हो चुका था। इस प्रकार आचार्य हरिदत्त के नेतृत्व में उस समय जैन धर्म का दूर-दूर तक प्रभाव फैल गया था। प्राचार्य हरिदत्त ने ७० वर्ष तक धर्म का प्रचार कर समुद्रसूरि को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया और अन्त में पावनिर्वाण संवत् ६४ में मुक्ति के अधिकारी हुए। ३. प्रार्य समुद्रसूरि भगवान् पार्श्वनाथ के तीसरे पट्टधर आर्य समुद्रसूरि हुए । पार्श्व सं० ६४ से १६६ तक ये भी जिनशासन की सेवा करते रहें। इन्होंने विविध देशों में घूम-घूम कर धर्म का प्रचार किया। आप चतुर्दश पूर्वधारी और यज्ञवाद से होने वाली हिंसा के प्रबल विरोधी थे । आपके आज्ञानुवर्ती विदेशी नामक एक मुनि, जो बड़े प्रतिभाशाली और प्रकाण्ड विद्वान् थे, एक बार विहार करते हुए उज्जयिनी पधारे। कहा जाता है कि आपके त्याग-विरागपूर्ण उपदेश से प्रभावित हो उज्जयिनी के राजा जयसेन और रानी अनंग सून्दरी ने अपने प्रिय पूत्र केशी के साथ जैन श्रमरण-दीक्षा अंगीकार की। उपकेशगच्छ-पट्टावली के अनुसार बालर्षि केशी जातिस्मरण के साथ-साथ चतुर्दश पूर्व तक श्रुतज्ञान के धारक थे। इन्हीं केशी श्रमण ने प्राचार्य समुद्रसूरि के समय में यज्ञवाद के प्रचारक मुकुद नामक प्राचार्य को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। अन्त में प्राचार्य समुद्रसूरि ने अपना अन्तिम समय निकट देख केशी को प्राचार्यपद पर नियुक्त किया और पार्श्व सं० १६६ में सकल कमों का क्षय कर निर्वाण-पद प्राप्त किया। ४. मार्य केशी श्रमण भगवान पार्श्वनाथ के चौथे पट्टधर प्राचार्य केशी श्रमण हुए, जो बड़े ही Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् पाश्वनाथ की प्रतिभाशाली, बालब्रह्मचारी, चौदह पूर्वधारी और मति, श्रुति एवं अवधिज्ञान के धारक थे। कहा जाता है कि आपने बड़ी योग्यता के साथ श्रमणसंघ के संगठन को सुदढ़ बना कर विद्वान् श्रमणों के नेतृत्व में पांच-पांच सौ (५००-५००) साधूनों की टुकड़ियों को पांचाल, सिन्धु-सौवीर, अंग-बंग, कलिंग, तेलंग, महाराष्ट्र, काशी,कोशल, सूरसेन, अवन्ती, कोंकण आदि प्रान्तों में भेज कर और स्वयं ने एक हजार साधुओं के साथ मगध प्रदेश में रह कर सारे भारत में जैन धर्म का प्रचार और प्रसार किया। पार्श्व संवत् १६६ से २५० तक आपका प्राचार्यकाल बताया गया है। आपने ही अपने अमोघ उपदेश से श्वेताम्बिका के महाराज 'प्रदेशी' को घोर नास्तिक से परम आस्तिक बनाया। राजा प्रदेशी ने आपके पास श्रावकधर्म स्वीकार किया और अपने राज्य की आय का चतुर्थ भाग दान में देता हुआ वह सांसारिक भोगों से विरक्त हो छट्ठ-छट्ठ-भक्त की तपस्यापूर्वक प्रात्मकल्याण में जुट गया। अपने पति को राज्य-व्यवस्था के कार्यों से उदासीन देख कर रानी सरिकान्ता ने स्वार्थवश अपने पुत्र सूरिकान्त को राजा बनाने की इच्छा से महाराज प्रदेशी को उनके तेरहवें छ?-भक्त के पारणे के समय विषाक्त भोजन खिला दिया। प्रदेशी ने भी विष का प्रभाव होते ही सारी स्थिति समझ ली, किन्तु रानी के प्रति किसी भी प्रकार की दुर्भावना न रखते हुए समाधिपूर्वक प्राणोत्सर्ग किया और सौधर्मकल्प में ऋद्धिमान् सूर्याभ देव बना। प्राचार्य केशिकुमार पार्श्वनिर्माण संवत् १६६ से २५० तक, अर्थात् चौरासी (८४) वर्ष तक प्राचार्यपद पर रहे और अन्त में स्वयंप्रभ सूरि को अपना उत्तराधिकारी बना कर मुक्त हुए। 'इस प्रकार भगवान पार्श्वनाथ के चार पट्टधर भगवान् पार्श्वनाथ के निर्वाण बाद के २५० वर्षों के समय में मुक्त हुए । अनेक विद्वान् प्राचार्य केशिकुमार और कुमार केशिश्रमण को, जिन्होंने गौतम गणधर के साथ हुए संवाद से प्रभावित हो सावत्थी नगरी में पंच महाव्रत रूप श्रमणधर्म स्वीकार किया, एक ही मानते हैं, पर उनकी यह मान्यता समीचीन विवेचन के पश्चात् संगत एवं शास्त्रसम्मत प्रतीत नहीं होती। शास्त्र में केशी नाम के दो मुनियों का परिचय उपलब्ध होता है । एक तो प्रदेशी राजा को प्रतिबोध देने वाले केशिश्रमण का और दूसरे गौतम के साथ सवाद के पश्चात् चातुर्यामधर्म से पंचमहावत रूप श्रमणधर्म स्वीकार करने वाले Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य परम्परा ] भगवान् श्री पार्श्वनाथ ५२६ केशकुमार श्रमण का । इन दोनों में से भगवान् पार्श्वनाथ के चौथे पट्टधर कौनसे केशिश्रमण थे, यह यहां एक विचारणीय प्रश्न है । श्राचार्य राजेन्द्रसूरि ने अपने अभिधान राजेन्द्र-कोष में दो स्थानों पर शिश्रमण का परिचय दिया है। उन्होंने इस कोष के भाग प्रथम, पृष्ठ २०१ पर 'अजरिणय कण्णिया' शब्द की व्युत्पत्ति बताते हुए केशिश्रमण के लिए निग्रंथी पुत्र, कुमारावस्था में प्रव्रजित एवं युगप्रवर्तक आचार्य होने का उल्लेख किया है और आगे चल कर इसी कोष के भाग ३, पृष्ठ ६६६ पर 'केशी' शब्द की व्युत्पत्ति में उपर्युक्त तथ्यों की पुष्टि करते हुए लिखा है : “केससंस्पृष्टशुक्रपुद्गलसम्पर्काज्जाते निर्ग्रन्थी पुत्रे, ( स च यथा जातस्तथा 'अणिकन्निया' शब्दे प्रथम भागे १०१ पृष्ठे दर्शितः ) स च कुमार एव प्रवजितः पार्श्वापत्ययश्चतुर्ज्ञानी अनगारगुणसम्पन्नः सूर्याभदेव - जीवं पूर्वभवे प्रदेशी नामानं राजानं प्रबोधयदिति । रा० नि० । ध० २० । ( तद्वर्णकविशिष्टं 'पए सि' शब्दे वक्ष्यते गोयम केसिज्ज शब्दे गौतमेन सहास्य संवादो वक्ष्यते ) " इस प्रकार राजेन्द्रसूरि ने केशिश्रमण आचार्य को ही प्रदेशी प्रतिबोधक, चार ज्ञान का धारक और गौतम गणधर के साथ संवाद करने वाला केशी बताकर एक ही केशिश्रमण के होने की मान्यता प्रकट की है । उपकेशगच्छ चरित्र से केशिकुमार श्रमण को उज्जयिनी के महाराज जयसेन व रानी अनंग सुन्दरी का पुत्र, आचार्य समुद्रसूरि का शिष्य, पार्श्वनाथ की आचार्य परम्परा व चतुर्थ पट्टधर, प्रदेशी राजा का प्रतिबोधक तथा गौतम गणधर के साथ संवाद करने वाला बताया गया है । एक ओर उपकेशगच्छ पट्टावली में निर्ग्रन्थीपुत्र केशी का कहीं कोई उल्लेख नहीं किया गया है, तो दूसरी ओर अभिधान राजेन्द्र कोष में उज्जयिनी के राजा जयसेन के पुत्र केशी का कोई जिक्र नहीं किया गया है । पर दोनों ग्रन्थों में केशिश्रमरण को भगवान् पार्श्वनाथ का चतुर्थ पट्टधर आचार्य, प्रदेशी का प्रतिबोधक तथा गौतम गणधर के साथ संवाद करने वाला मान कर एक ही केशिश्रमरण के होने की मान्यता का प्रतिपादन किया है । 'जैन परम्परा नो इतिहास' नामक गुजराती पुस्तक के लेखक मुनि दर्शनविजय आदि ने भी समान नाम वाले दोनों केशिश्रमरणों को अलग न मान कर एक ही माना है । इसके विपरीत ' पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास' नामक पुस्तक के दोनों केशश्रमणों का भिन्न-भिन्न परिचय नहीं देते हुए भी प्राचार्य केशी और Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान पार्श्वनाथ की केशिकुमार श्रमण को अलग-अलग मान कर दो केशिश्रमणों का होना स्वीकार किया गया है। इस सम्बन्ध में वास्तविक स्थिति यह है कि प्रदेशी राजा को प्रतिबोध देने वाले प्राचार्य केशी और गौतम गणधर के साथ संवाद के पश्चात् पंच महाव्रत-धर्म स्वीकार करने वाले केशिकुमार श्रमण एक न होकर अलग-अलग समय में केशिश्रमण हुए हैं। प्राचार्य केशी, जो कि भगवान् पार्श्वनाथ के चौथे पट्टधर और श्वेताम्बिका के महाराज प्रदेशी के प्रतिबोधक माने गये हैं, उनका काल उपकेशगच्छ पट्टावली के अनुसार पाव-निर्वाण संवत् १६६ से २५० तक का है। यह काल भगवान् महावीर की छद्मस्थावस्था तक का ही हो सकता है। इसके विपरीत श्रावस्ती नगरी में दूसरे केशिकुमार श्रमण और गौतम गणधर का सम्मिलन भगवान् महावीर के केवलीचर्या के पन्द्रह वर्ष बीत जाने के पश्चात् होता है। इस प्रकार प्रथम केशिश्रमण का काल भगवान महावीर के छद्मस्थकाल तक का और दूसरे केशिकुमार श्रमण का महावीर की केवलीचर्या के पन्द्रहवें वर्ष के पश्चात् तक ठहरता है । इसके अतिरिक्त रायप्रसेणी सूत्र में प्रदेशिप्रतिबोधक केशिश्रमण को चार ज्ञान का धारक बताया गया है तथा जिन केशिकुमार श्रमण का गौतम गणधर के साथ श्रावस्ती में संवाद हुआ, उन केशिकुमार श्रमण को उत्तराध्ययन सूत्र में तीन ज्ञान का धारक बताया गया है। ऐसी दशा में प्रदेशिप्रतिबोधक चार ज्ञानधारक केशिश्रमण, जो महावीर के छद्मस्थकाल में हो सकते हैं, उनका महावीर के केवलीचर्या के पन्द्रह वर्ष व्यतीत हो जाने के पश्चात् तीन ज्ञानधारक के रूप में गौतम के साथ मिलना किसी भी तरह युक्तिसंगत और संभव प्रतीत नहीं होता ।। १ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास (पूर्वाद्ध), पृ०४८ २ इच्चेए एं पदेसी ! महं तव चउविहेणं नाणेणं इमेयारूवं प्रभत्थियं जाव समुप्पनं जाणामि । [रायपसेणी] ३ तस्स लोगपईवस्स, पासी सीसे महायसे । केसीकुमार समणे, विज्जाचरण पारगे ।।२।। मोहिनाण सुए बुद्ध, सीससंघसमाउले । गामाणुगाम रीयन्ते, सावत्थि नगरिमागए ।।३।। [उत्तराध्यथन सूत्र, प्र० २३] Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भावार्य परम्परा भगवान् श्री पार्श्वनाथ ५३१ रायप्रसेणी और उत्तराध्ययन सूत्र में दिये गये दोनों केशिश्रमणों के परिचय के समीचीन मनन के अभाव में और समान नाम वाले इन दोनों श्रमणों के समय का सम्यक्रूपेण विवेचनात्मक पर्यवेक्षण न करने के कारण ही कुछ विद्वानों द्वारा दोनों को ही केशिश्रमण मान लिया गया है । उपर्युक्त तथ्यों से यह निर्विवादरूप से सिद्ध हो जाता है कि प्रदेशिप्रतिबोधक चार ज्ञानधारी केशिश्रमण आचार्य समुद्रसूरि के शिष्य एवं पार्श्वपरंपरा के मोक्षमार्गी चतुर्थ प्राचार्य थे, न कि गौतम गणधर के साथ संवाद करने वाले तीन ज्ञानधारक केशिकुमार श्रमरण । दोनों एक न होकर भिन्न-भिन्न हैं । एक का निर्वाण पार्श्वनाथ के शासन में हुआ जबकि दूसरे का महावीर के शासन में । 000 Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल में भरतक्षेत्र के चौबीसवें एवं अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर हुए। घोरातिघोर परीषहों को भी अतुल धैर्य, अलौकिक . साहस, सुमेरुतुल्य अविचल दृढ़ता, अथाह सागरोपम गम्भीरता एवं अनुपम समभाव के साथ सहन कर प्रभु महावीर ने अभूतपूर्व सहनशीलता, क्षमा एवं अद्भुत घोर तपश्चर्या का संसार के समक्ष एक नवीन कीर्तिमान प्रतिष्ठापित किया। भगवान महावीर न केवल एक महान धर्मसंस्थापक ही थे अपितु वे महान् लोकनायक, धर्मनायक, क्रान्तिकारी सुधारक, सच्चे पथ-प्रदर्शक, विश्वबन्धुत्व के प्रतीक, विश्व के कर्णधार और प्राणिमात्र के परमप्रिय हितचिन्तक भी थे। 'सव्वे जीवा वि इच्छंति जीविउं न मरीजिउं' इस दिव्यघोष के साथ उन्होंने न केवल मानव समाज को अपितु पशुओं तक को भी अहिंसा, दया और प्रेम का पाठ पढ़ाया। धर्म के नाम पर यज्ञों में खुलेआम दी जाने वाली क्रूर पशुबली के विरुद्ध जनमत को आन्दोलित कर उन्होंने इस घोर पापपूर्ण कृत्य को सदा के लिये समाप्तप्राय कर असंख्य प्राणियों को अभयदान दिया। यही नहीं, भगवान् महावीर ने रूढ़िवाद, पाखण्ड, मिथ्याभिमान और वर्णभेद के अन्धकारपूर्ण गहरे गर्त में गिरती हुई मानवता को ऊपर उठाने का अथक प्रयास भी किया। उन्होंने प्रगाढ़ अज्ञानान्धकार से आच्छन्न मानव-हृदयों में अपने दिव्य ज्ञानालोक से ज्ञान की किरणें प्रस्फुटित कर विनाशोन्मुख मानवसमाज को न केवल विनाश से बचाया अपितु उसे सम्यगज्ञान, सम्यगदर्शन और सम्यक्चारित्र की रत्नत्रयी का अक्षय पाथेय दे मुक्तिपथ पर अग्रसर किया । भगवान महावीर ने विश्व को सच्चे समतावाद, साम्यवाद, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का प्रशस्त मार्ग दिखा कर अमरत्व की ओर अग्रसर किया, जिसके लिये मानव-समाज उनका सदा-सर्वदा ऋणी रहेगा। (भगवान् महावीर का समय ईसा पूर्व छठी शताब्दो माना गया है, जो कि विश्व के सांस्कृतिक एवं धार्मिक इतिहास में बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। ई० पूर्व छठी शताब्दी में, जबकि भारत में भगवान महावीर ने और उनके समकालीन महात्मा बुद्ध ने अहिंसा का उपदेश देकर धार्मिक एवं सांस्कृतिक क्रान्ति का सूत्रपात किया, लगभग उसी समय चीन में लाप्रोत्से और कांगफयत्सी Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ महावीरकालीन देश - दशा ] भगवान् महावीर यूनान में पाइथागोरस, अफलातून श्रीर सुकरात, ईरान में 'जरथुष्ट, फिलिस्तीन में जिरेमियां और इर्जाकेल आदि महापुरुष अपने-अपने क्षेत्र में सांस्कृतिक एवं धार्मिक क्रान्ति के सूत्रधार बने । रूढ़िवाद और अन्धविश्वासों का विरोध कर उन सभी महापुरुषों ने जनता को सही दिशा में बढ़ने का मार्ग-दर्शन किया और उन्हें शुद्ध चिन्तन की प्रबल प्रेररणा दी । समाज की तत्कालीन कुरीतियों में युगान्तरकारी परिवर्तन प्रस्तुत कर वे सही अर्थ में युगपुरुष बने । इस सम्बन्ध में उन्होंने अपने ऊपर आने वाली आपदाओं का डटकर मुकाबला किया और प्रतिशोधात्मक परीषहों के आगे वे रत्ती भर भी नहीं झुके । ५३३ भगवान् महावीर का उपर्युक्त युगपुरुषों में सबसे उच्च, प्रमुख और बहुत ही सम्माननीय स्थान है । विश्वकल्याण के लिये उन्होंने धर्ममयी मानवता का जो आदर्श प्रस्तुत किया, वह अनुपम और अद्वितीय है । महावीरकालीन देश-दशा भगवान पार्श्वनाथ के २५० वर्ष पश्चात् भगवान् श्री महावीर' चौबीसवें तीर्थंकर के रूप में भारत-वसुधा पर उत्पन्न हुए। उस समय देश और समाज की दशा काफी विकृत हो चुकी थी । खास कर धर्म के नाम पर सर्वत्र आडंबर का ही बोलबाला था । पार्श्वकालीन तप, संयम और धर्म के प्रति रुचि मंद पड़ गई थी । ब्राह्मण संस्कृति के बढ़ते हुए वर्चस्व में श्रमण संस्कृति दबी जा रही थी । यज्ञ-याग और बाह्य क्रिया काण्ड को ही धर्म का प्रमुख रूप माना जाने लगा था । यज्ञ में घृत, मधु ही नहीं अपितु प्रकट रूप में पशु भी होमे जाते और उसमें अधर्म नहीं, धर्म माना जाता था । डंके की चोट कहा जाता था कि भगवान् ने यज्ञ के लिये ही पशुओं की रचना की है । २ वेदविहित यज्ञ में की जाने वाली हिंसा, हिंसा नहीं प्रत्युत अहिंसा है । 3 धार्मिक क्रियाओं और संस्कृति संरक्षरण का भार तथाकथित ब्राह्मणों के ही अधीन था। वे चाहे विद्वान् हों या अविद्वान्, सदाचारी हों या दुराचारी, १ ( क ) " पास जिणाओ य होइ वीरजिणो, अड्ढाइज्जसयेहि गयेहि चरिमो समुत्पन्नो । आवश्यक नियुक्ति (मलय), पृ० २४१, गाथा १७ (ख) आवश्य चूरिंग, गा० १७, पृ० २१७ २ यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः । मनुस्मृति ५|२२|३६ ३ यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा । यज्ञस्य मूल्य सर्वस्य तस्माद् यज्ञे वधोऽवधः || या वेदविहिता हिंसा, नियतास्मिश्चराचरे । हिंसामेव तां विद्याद्, वेदाद् धर्मो हि निर्बभौ ।। [ मनुस्मृति, ५।२२। ३६।४४ ] Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [महावीरकालीन अग्नि के समान सदा पवित्र और पूजनीय माने जाते थे।' मनष्य और ईश्वर के बीच सम्बन्ध जोड़ने की सारी शक्ति उन्हीं के अधीन समझी जाती थी। वे जो कुछ कहते, वह अकाट्य समझा जाता और इस तरह हिंसा भी धर्म का एक प्रमुख अंग माना जाने लगा । वर्ण-व्यवस्था और जातिवाद के बन्धन में मानवसमाज इतना जकड़ा हुआ और उलझा हुअा था कि निम्नवर्ग के व्यक्तियों को अपनी सुख-सुविधा और कल्याण-साधन में भी किसी प्रकार की स्वतन्त्रता नहीं थी। समाज में यद्यपि अमीर और गरीब का वर्ग-संघर्ष नहीं था, फिर भी गरीबों के प्रति अमीरों की वत्सलता का स्रोत सूखता जा रहा था । ऊंच-नीच का मिथ्याभिमान मानवता को व्यथित और क्षुब्ध कर रहा था। जाति-पूजा और वेष-पूजा ने गुण-पूजा को भुला रखा था। निम्नवर्ग के लोग उच्चजातीय लोगों के सामने अपने सहज मानवीय भाव भी भलीभांति व्यक्त नहीं कर पाते थे। कई स्थानों पर तो ब्राह्मणों के साथ शूद्र चल भी नहीं सकते थे । शिक्षा-दीक्षा और वेदादि शास्त्र-श्रवण पर द्विजातिवर्ग का एकाधिपत्य था। शूद्र लोग वेद की ऋचाएं न सुन सकते थे, न पढ़ सकते थे और न बोल ही सकते थे । स्त्रीसमाज को भी वेद-पठन का अधिकार नहीं था। शूद्रों के लिए वेद सुनने पर कानों में शीशा भरने, बोलने पर जीभ काटने और ऋचाओं को कण्ठस्थ करने पर शरीर नष्ट कर देने का कठोर विधान था। इतना ही नहीं, उनके लिए प्रार्थना की जाती कि उन्हें बुद्धि न दें, यज्ञ का प्रसाद न दें और वतादि का उपदेश भी नहीं दें। स्त्री जाति को प्रायः दासी मान कर हीन दृष्टि से देखा जाता था और उन्हें किसी भी स्थिति में स्वतन्त्रता का अधिकार नहीं था। १ अविद्वांश्चैव विद्वांश्च, ब्राह्मणो देवतं महत् । प्रणीतश्चाप्रणीतश्च, यथाग्निदेवतं महत् ।। श्मशानेष्वपि तेजस्वी, पावको नव दुष्यति । हूयमानश्च यज्ञेषु, भूय एवाभिवर्द्धते ।। एवं यद्यप्यनिष्टेषु, वर्तन्ते सर्वकर्मसु । सर्वथा ब्राह्मणाः पूज्याः , परमं दैवतं हि तत् ।। [मनुस्मृति, ६।३१७।३१८॥३१६] २ न स्त्रीशूद्रो वेदमधीयेताम् । ३ (क) वेदमुपशृण्वतस्तस्य जतुभ्यां श्रोत्रः प्रतिपूरणमुच्चारणे जिह्वाच्छेदो धारणे शरीरभेदः । [गौतम धर्म सूत्र, पृ० १६५] (ख) न शूद्राय मति दद्यान्नोच्छिष्टं नहविष्कृतम् । न चास्योपदिशेधर्म, न चास्य, व्रतमादिशेत् ।। [वशिष्ठ स्मृति १८।१२।१३] ४ न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति । [वशिष्ठ स्मृति] Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देश-दशा] भगवान् महावीर ५३५ राजनैतिक दृष्टि से भी यह समय उथल-पुथल का था। उसमें स्थिरता व एकरूपता नहीं थी। कई स्थानों पर प्रजातन्त्रात्मक गणराज्य थे, जिनमें नियमित रूप से प्रतिनिधियों का चुनाव होता था। जो प्रतिनिधि राज्य-मंडल या सांथागार के सदस्य होते, वे जनता के व्यापक हितों का भी ध्यान रखते थे । तत्कालीन गणराज्यों में लिच्छवी गणराज्य सबसे प्रबल था। इसकी राजधानी वैशाली थी । महाराजा चेटक इस गणराज्य के प्रधान थे। महावीर स्वामी की माता त्रिशला इन्हीं महाराज चेटक की बहिन थीं। काशी और कौशल के प्रदेश भी इसी गणराज्य में शामिल थे। इनकी व्यवस्थापिका-सभा "वज्जियन राजसंघ" कहलाती थी। (लिच्छवी गणराज्य के अतिरिक्त शाक्य गणराज्य का भी विशेष महत्त्व था। इसकी राजधानी कपिलवस्तू' थी। इसके प्रधान महाराजा शुद्धोदन थे, जो गौतम बुद्ध के पिता थे । इन गणराज्यों के अलावा मल्ल गणराज्य, जिसकी राजधानी कुशीनारा और पावा थी, कोल्य गणराज्य, प्राम्लकप्पा के बुलिगण, पिप्पलिवन के मोरीयगण आदि कई छोटे-मोटे गणराज्य भी थे। इन गणराज्यों के अतिरिक्त मगध, उत्तरी कोशल, वत्स, अवन्ति, कलिंग, अंग, बंग आदि कतिपय स्वतन्त्र राज्य भी थे। इन गणराज्यों में परस्पर मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे। इस तरह उस समय विभिन्न गरण एवं स्वतन राज्यों के होते हए भी तथाकथित निम्नवर्ग की दशा अत्यन्त चिन्तनीय बनी हुई थी। ब्राह्मण-प्रेरित राजन्यवर्गों के उत्पीड़न से जनसाधारण में क्षोभ और विषाद का प्राबल्य था। इन सब परिस्थितियों का प्रभाव उस समय विद्यमान पार्श्वनाथ के संघ पर भी पड़े बिना नहीं रहा। श्रमणसंघ की स्थिति प्रतिदिन क्षीण होने लगी। मति-बल में दर्बलता पाने लगी तथा अनुशासन की अतिशय मदता से प्राचारव्यवस्था में शिथिलता दिखाई देने लगो। फिर भी कुछ विशिष्ट मनोबल वाले श्रमण इस विषम स्थिति में भी अपने मूलस्वरूप को टिकाये हुए थे । वे याज्ञिकी हिंसा का विरोध और अहिंसा का प्रचार भी करते थे, पर उनका बल पर्याप्त नहीं था। फिर साधना का लक्ष्य भी बदला हुआ था। धर्म-साधना का हेतु निर्वाण-मक्ति के बदले मात्र अभ्यदय-स्वर्ग रह गया था। यह चतुर्थकाल की समाप्ति का समय था। फलतः जन-मन में धर्म-भाव की रुचि कम पड़ती जा रही थी। ऐसे विषम समय में जन-समुदाय को जागृत कर, उसमें सही भावना भरने और सत्यमार्ग बताने के लिए ज्योतिर्धर भगवान् महावीर का जन्म हुआ। पूर्वभव को साधना जैन धर्म यह नहीं मानता कि कोई तीर्थकर या महापुरुष ईश्वर का अंश १ मि० ह्रीस डैविड्स-बुद्धिस्ट इंडिया, पृ० २३ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [पूर्वभव की होकर अवतार लेता है। जैन शास्त्रों के अनसार प्रत्येक प्रात्मा परमात्मा बनने की योग्यता रखती है और विशिष्ट क्रिया के माध्यम से उसका तीर्थकर या भगवान् रूप से उत्तर-जन्म होता है। किन्तु ईश्वर कर्ममुक्त होने के कारण पुनः मानव रूप में अवतार-जन्म नहीं लेते। हाँ, स्वर्गीय देव मानवरूप में अवतार ले सकते हैं। मानव सत्कर्म से भगवान् हो सकता है। इस प्रकार नर का नारायण होना अर्थात् ऊपर चढना यह उत्तार है । अतः जैन धर्म अवतारवादी नहीं उत्तारवादी है। भगवान महावीर के जीव ने नयसार के भव में सत्कर्म का बीज डाल कर क्रमशः सिंचन करते हुए तीर्थकर-पद की प्राप्ति की, जो इस प्रकार है किसी समय प्रतिष्ठानपुर का ग्रामचिन्तक नयसार, राजा के आदेश से वन में लकड़ियों के लिये गया हुआ था । एकदा मध्याह्न में वह खाने बैठा ही था कि उसी समय वन में मार्गच्यत कोई तपस्वी मनि उसे दष्टिगोचर हए। उसने भूख-प्यास से पीड़ित उन मुनि को भक्तिपूर्वक निर्दोष आहार-प्रदान किया और उन्हें गाँव का सही मार्ग बतलाया। मुनि ने भी नयसार को उपदेश देकर आत्म-कल्याण का मार्ग समझाया। फलस्वरूप उसने वहाँ सम्यक्त्व प्राप्त कर भव-भ्रमण को परिमित कर लिया। दूसरे भव में वह सौधर्म कल्प में देव हुआ और तीसरे भव में भरत-पुत्र मरीचि के रूप में उत्पन्न हुआ। चौथे भव में ब्रह्मलोक में देव, पाँचवें भव में कौशिक ब्राह्मण, छठे भव में पुष्यमित्र ब्राह्मण, सातवें भव में सौधर्म देव, आठवें भव में अग्निद्योत, नवें भव में द्वितीय कल्प का देव, दशवें भव में अग्निभूति ब्राह्मण, ग्यारहवें भव में सनत्कुमार देव, बारहवें भव में भारद्वाज, तेरहवें भव में महेन्द्रकल्प का देव, चौदहवें भव में स्थावर ब्राह्मण, पन्द्रहवें भव में ब्रह्मकल्प का देव और सोलहवें भव में युवराज विशाखभूति का पुत्र विश्वभूति हुआ। संसार की कपट-लीला देखकर उन्हें विरक्ति हो गई। मुनि बनकर उन्होंने घोर तपस्या की और अन्त में अपरिमित बलशाली बनने का निदान कर काल किया। सत्रहवां भव महाशुक्र देव का कर इन्होंने अठारहवें भव में त्रिपृष्ठ । वासुदेव के रूप से जन्म ग्रहण किया। --एक दिन त्रिपृष्ठ वासुदेव के पिता प्रजापति के पास प्रतिवासुदेव अश्वग्रीव का सन्देश आया कि शाली-क्षेत्र पर शेर के उपद्रव से कृषकों की रक्षा करने के लिये उनको वहाँ जाना है। महाराज प्रजापति कृषकों की रक्षा के लिये प्रस्थान कर ही रहे थे कि राजकुमार त्रिपृष्ठ ने आकर कहा-"पिताजी! हम लोगों के रहते आपको कष्ट करने की आवश्यकता नहीं। उस अकिंचन शेर के लिये तो हम बच्चे ही पर्याप्त हैं।" इस तरह त्रिपष्ठ कूमार राजा की आज्ञा लेकर उपद्रव के स्थान पर पहुंचे और खेत के रखवालों से बोले-"भाई ! यहाँ कैसे प्रौर कब तक रहना है ?" Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना] भगवान् महावीर ५३७ रक्षकों ने कहा-"जब तक शालि-धान्य पक नहीं जाता तब तक सेना सहित घेरा डाल कर यहीं रहना है। और शेर से रक्षा करनी है।" इतने समय तक यहाँ कौन रहेगा, ऐसा विचार कर त्रिपृष्ठ ने शेर के रहने का स्थान पूछा और सशस्त्र रथारूढ़ हो गुफा पर पहुँच कर गुफास्थित शेर को ललकारा । सिंह भी उठा और भयंकर दहाड़ करता हुआ अपनी माँद से बाहर निकला। उत्तम पुरुष होने के कारण त्रिपष्ठ ने शेर को देख कर सोचा-"यह तो पैदल और शस्त्ररहित निहत्था है, फिर मैं रथारूढ़ और शस्त्र से सुसज्जित हो इस पर आक्रमण करू, यह कैसे न्यायसंगत होगा? मुझे भी रथ से नीचे उतर कर बराबरी से मुकाबला करना चाहिये।" ऐसा सोच कर वह रथ से नीचे उतरा और शस्त्र फेंक कर सिंह के सामने तन कर खड़ा हो गया। सिंह ने ज्यों ही उसे बिना शस्त्र के सामने खड़ा देखा तो सोचने लगा--"अहो ! यह कितना धृष्ट है, रथ से उतर कर एकाकी मेरी गफा पर आ गया है । इसे मारना चाहिये । ऐसा सोच सिंह ने प्राक्रमण किया। त्रिपष्ट ने साहसपूर्वक छलांग भर कर मेर के जबड़े दोनों हाथों से पकड लिये और जीर्ण वस्त्र की तरह शेर को अनायास ही चीर डाला । दर्शक, कुमार का साहस देख कर स्तब्ध रह गये और कुमार के जय-घोषों से गगन गूंज उठा।२ अश्वग्रीव ने जब कुमार त्रिपष्ठ के अद्भुत शौर्य की यह कहानी सुनी तो उसे कुमार के प्रबल शौर्य से बड़ी ईर्ष्या हुई। उसने कुमार को अपने पास बलवाया और उसके न पाने पर नगर पर चढ़ाई कर दी। दोनों में खूब जमकर यद्ध हमा। त्रिपष्ठ की शक्ति के सम्मुख अश्वग्रीव ने जब अपने शस्त्रों को निस्तेज देखा तो उसने चक्र-रत्न चलाया, किन्तु त्रिपृष्ठ ने चक्र-रत्न को पकड़ कर उस ही के द्वारा अश्वग्रीव का शिर काट डाला और स्वयं प्रथम वासुदेव बना। ____ एक दिन त्रिपृष्ठ के राजमहल में कुछ संगीतज पाये और अपने मधुर संगीत की स्वर-लहरी से उन्होंने श्रोताओं को मंत्र-मुग्ध कर दिया। राजा ने सोते समय शय्यापालकों से कहा- "मुझे जब नींद आ जाय तो गाना बन्द करवा देना।" किन्तु शय्यापालक संगीत की माधुरी से इतने प्रभावित हए कि १ त्रि. श. पु. च., १५०, १० स०, श्लोक १४० । २ ॥न पाणिनोवोष्ठमपणाधरं पुनः । धृत्वा त्रिपृष्ठस्तं सिंह जीर्णवस्त्रमिवाटणात् । पुष्पाभरण वस्त्राणि ...... | त्रि० १० पु० च० १०१।१४१-१५० Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [पूर्वभव की राजा के सो जाने पर भी वे संगीत को बन्द नहीं करा सके । रात के अवसान पर जब राजा की नींद भंग हुई तो उसने संगीत को चालू देखा। क्रोध में भर कर त्रिपृष्ठ शय्यापालक से बोले-"गाना बन्द नहीं करवाया ?" उसने कहा-“देव ! संगीत की मीठी तान में मस्त होकर मैंने गायक को नहीं रोका।" त्रिपृष्ठ ने प्राज्ञाभंग के अपराध से रुष्ट हो शय्यापालक के कानों में शीशा गरम करवा कर डाल दिया। * इस घोर कृत्य से उस समय त्रिपष्ठ ने निकाचित कर्म का बन्ध किया । और मर कर सप्तम नरक में नेरइया रूप से उत्पन्न हया।' यह महावीर के जीव का उन्नीसवां भव था। बीसवें भव में सिंह और इक्कीसवें भव में चतुर्थ मेरक का नेरइया हुआ । तदनन्तर अनेक भव कर पहली नरक में उत्पन्न हुआ, वहाँ की आयु पूर्ण कर बाईसवें प्रियमित्र (पोट्टिल) चक्रवर्ती के भव में दीर्घकाल तक राज्यशासन करके पोट्टिलाचार्य के पास संयम स्वीकार किया और करोड़ वर्ष तक तप-संयम की साधना की। तेईसवें भव में महाशुक्र कल्प में देव हुआ और चौबीसवें भव में नन्दन राजा के भव में तीर्थंकरगोत्र का बंध किया, जो इस प्रकार है : छत्रा नगरी के महाराज जितशत्रु के पुत्र नन्दन ने पोट्टिलाचार्य के उपदेश से राजसी वैभव और काम-भोग छोड़ कर दीक्षा ग्रहण की। चौबीस लाख वर्ष तक इन्होंने संसार में भोग-जीवन बिताया और फिर एक लाख वर्ष की संयम पर्याय में निरन्तर मास-मास की तपस्या करते रहे और कर्मशूर से धर्मशूर बनने को कहावत चरितार्थ की । इस लाख वर्ष के संयमजीवन में इन्होंने ग्यारह लाख साठ हजार मास-खमण किये । सब का पारण-काल तीन हजार तीन सौ तैंतीस वर्ष, तीन मास और उन्तीस दिनों का हुमा । तप-संयम मौर अर्हत् आदि बीसों ही बोलों की उत्कट आराधना करते हुए इन्होंने तीर्थंकर-नामकर्म का बन्ध किया, एवं अन्त में दो मास का अनशन कर समाधिभाव में आयु पूर्ण की। पच्चीसवें भव में प्राणत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में देवरूप से उत्पन्न हुए। समवायांग स्त्र के अनुसार प्राणत स्वर्ग से च्यवन कर नन्दन का जीव देवानन्द की कुक्षि में उत्पन्न हना, इसे भगवान का छब्बीसवाँ भव और देवानन्दा की कुक्षि से त्रिशला देवी की कुक्षि में शक्राज्ञा से हरिणेगमेषी देव द्वारा गर्भ-परिवर्तन किया गया. इसे भगवान का सत्ताईसवां भव माना गया है । क्रमशः दो गर्भो में आगमन को पृथक-पृथक भव मान लिया गया है। १ त्रि० श० पु० च० १०।१।१७८ से १८१ Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना] भगवान् महावीर ५३६ इस सम्बन्ध में समवायांग सूत्र का मूल पाठ व श्री अभय देव सूरी द्वारा निर्मित वृत्ति का पाठ इस प्रकार है : “समणे भगवं महावीरे तित्थगरभवग्गहणालो छ8 पोटिल्ल भवग्गहरणे एगं वास कोडि सामण्ण परियागं"......" [ समवायांग, समवाय १३४, पत्र ६८ (१) ] "समणेत्यादि यतो भगवान् प्रोट्टिलाभिधान राजपुत्रो बभूव, तत्र वर्षकोटिं प्रव्रज्यां पालितवानित्येको भवः, ततो देवोऽभूदिति द्वितीयः, ततो नन्दनाभिधानो राजसूनुः छत्राग्रनगर्यां जज्ञे इति तृतीयः, तत्र वर्षलक्षं सर्वथा मासक्षपणेन तपस्तप्त्वा दशमदेवलोके पुष्पोत्तर वरविजयपुण्डरीकाभिधाने विमाने देवोऽभवदिति चतुर्थस्ततो ब्राह्मणकुण्डग्रामे ऋषभदत्तब्राह्मणस्य भार्याया देवानन्दाभिधानाया कुक्षावत्पन्न इति पञ्चमस्ततस्त्र्यशीतितमे दिवसे क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे सिद्धार्थमहाराजस्य त्रिशलाभिधानभार्याया कुक्षाविन्द्रवचनकारिगा हरिनैगमेषिनाम्ना देवेन संहृतस्तीर्थकरतया च जातः इति षष्ठः, उक्तभवग्रहणं हि विनानान्य-द्रवग्रहणं षष्ठं श्रूयते भगवत इत्येतदेव षष्ठभवग्रहणतया व्याख्यातं, यस्माच्च भवग्रहणादिदं षष्ठं तदप्येतस्मात् षष्ठमेवेति सुष्ठच्यते तीर्थकर भवग्रहणात षष्ठे पोट्टिलभवग्रहणे इति ।" [ समवायांग, अभय देववृत्ति, पत्र ६८ ] प्राचार्य हेमचन्द्र सूरि कृत त्रिशष्टि शलाका पुरुष चरित्र, प्राचार्य गगचन्द्रगणि कृत श्री महावीर चरियं, आवश्यक नियुक्ति और आवश्यकमलयगिरिबत्ति में पोट्रिल (प्रियमित्र चक्रवर्ती) से पहले बाईसवां भव मानव के रूप में उत्पन्न होने का उल्लेख कर देवानन्दा के गर्भ में उत्पन्न होने और त्रिशला के गर्भ में संहारण इन दोनों को भगवान् महावीर का सत्ताईसवां भव माना है। पर मूल पागम समवायांग के उपर्युक्त उद्धरण के समक्ष इस प्रकार की अन्य किसी मान्यता को स्वीकार करने का कोई प्रश्न पैदा नहीं होता। दिगम्बर परम्परा में भगवान् महावीर के ३३ भवों का वर्णन है।' इतिहास-प्रेमियों की सुविधा हेतु एवं पाठकों की जानकारी के लिये श्वेताम्बर और दिगम्बर इन दोनों परम्पराओं की मान्यता के अनुसार भगवान महावीर के भव यहाँ दिये जा रहे हैं : Pandur m ininnifunde+re १ गुग्गभद्राचार्य रचित उत्तरपुराण , पर्व ७८, पृ० ४४४ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [पूर्वभव की साधना श्वेताम्बर मान्यता--- दिगम्बर मान्यता १. नयसार ग्राम चिन्तक । १. पुरुरवा भील २. सौधर्मदेव । २. सौधर्म देव ३. मरीचि ३. मरीचि ४. ब्रह्म स्वर्ग का देव ४. ब्रह्म स्वर्ग का देव ५, कौशिक ब्राह्मरण (अनेक भव) ५. जटिल ब्राह्मण ६. पुष्यमित्र ब्राह्मण ६. सौधर्म स्वर्ग का देव ७. सौधर्मदेव ७. पुष्यमित्र ब्राह्मण ८. अग्निद्योत ८. सौधर्म स्वर्ग का देव ६. द्वितीय कल्प का देव ६. अग्निसह ब्राह्मण १०. अग्निभूति ब्राह्मण १०. सनत्कुमार स्वर्ग का देव ११. सनत्कुमारदेव ११. अग्निमित्र ब्राह्मण १२. भारद्वाज १२. माहेन्द्र स्वर्ग का देव १३. महेन्द्रकल्प का देव १३. भारद्वाज ब्राह्मण १४. स्थावर ब्राह्मण १४. माहेन्द्र स्वर्ग का देव १५. ब्रह्मकल्प का देव स स्थावर योनि के असंख्य भव १६. विश्वभूति १५. स्थावर ब्राह्मण १७. महाशुक्र का देव १६. माहेन्द्र स्वर्ग का देव १८. त्रिपृष्ठ नारायण १७, विश्वनन्दी १६. सातवीं नरक १८. महाशुक्र स्वर्ग का देव २०. सिंह १६. त्रिपृष्ठ नारायण २१. चतुर्थ नरक (अनेक भव, अन्त २०. सातवीं नरंक का नारकी में पहली नरक का नेरिया) २१. सिंह २२ पोट्टिल (प्रियमित्र) चक्रवर्ती २२. प्रथम नरक का नारकी २३. महाशुक्रकल्प का देव २३. सिंह २४. नन्दन २४. प्रथम स्वर्ग का देव २५. प्राणत देवलोक २५. कनकोज्वल राजा २६. देवानन्दा के गर्भ में २६. लान्तक स्वर्ग का देव २७. त्रिशला की कुक्षि से भगवान् २७. हरिषेण राजा महावीर २८. महाशुक्र स्वर्ग का देव Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वभव की साधना] भगवान् महावीर २६. प्रियमित्र चक्रवर्ती ३०. सहस्रार स्वर्ग का देव ३१. नन्द राजा ३२. अच्यत स्वर्ग का देव ३३. भगवान् महावीर दोनों परम्परागों में भगवान् के पूर्वभवों के नाम एवं संख्या में भिन्नता होने पर भी इस मूल एवं प्रमुख तथ्य को एकमत से स्वीकार किया गया है कि अनन्त भवभ्रमण के पश्चात् सम्यग्दर्शन की उपलब्धि तथा कर्मनिर्जरा के प्रभाव से नयसार का जीव अभ्युदय और आत्मोन्नति की ओर अग्रसर हुआ । दुष्कृतपूर्ण कर्मबन्ध से उसे पुनः एक बहुत लम्बे काल तक भवाटवी में भटकना पड़ा और अन्त में नन्दन के भव में अत्युत्कट चिन्तन, मनन एवं भावना के साथ-साथ उच्चतम कोटि के त्याग, तप, संयम, वैराग्य, भक्ति और वैगावत्य के प्राचरण से उसने महामहिमापूर्ण सर्वोच्चपद तीर्थंकर-नामकर्म का उपार्जन किया। भगवान महावीर के पूर्वभवों की जो यह संख्या दी गई है, उसमें नयसार के भव से महावीर के भव तक के सम्पर्ण भव नहीं पाये हैं। दोनों परम्पराओं की मान्यता इस सम्बन्ध में समान है कि ये २७ भव केवल प्रमुख-प्रमुख भव हैं। इन सत्ताईस भवों के बीच में भगवान् के जीव ने अन्य अगणित भवों में भ्रमण किया। भ० महावीर के कल्याणक भगवान महावीर के पाँच कल्याणक उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में हुए । उत्तराफाल्गनी नक्षत्र में दशम स्वर्ग से च्यवन कर उसी उत्तराफाल्गनी नक्षत्र में वे देवानन्दा के गर्भ में आये । उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में ही उनका देवानन्दा के गर्भ से महारानी त्रिशलादेवी के गर्भ में साहरण किया गया । उत्तराफाल्गनी नक्षत्र में ही भ० महावीर का जन्म हुआ। उत्तराफाल्गनी नक्षत्र में ही प्रभ महावीर मण्डित हो सागार से अरणगार बने और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में ही प्रभ महावीर ने कृत्स्न (समग्र), प्रतिपूर्ण, अव्याघात, निरावरण अनन्त और अनुत्तर केवलज्ञान एवं केवलदर्शन एक साथ प्राप्त किया। स्वाति नक्षत्र में भगवान् महावीर ने निर्वाण प्राप्त किया।' च्यवन और गर्भ में प्रागमन प्रवर्तमान अवसपिरणी काल के सुषम-सुषम, सुषम, सुषम-दष्षम नामक १ आचारांग सूत्र, श्रु० २, तृतीया चूला, भावना नामक १५वां अध्ययन का प्रारम्भिक सूत्र । Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [च्यवन और गर्भ में आगमन तीन आरकों के व्यतीत हो जाने पर और दुष्षम-सुषम नामक चौथे प्रारक का बहुत काल व्यतीत हो जाने पर जब कि उस चौथे प्रारक के केवल ७५ वर्ष और साढे आठ मास ही शेष रहे थे, उस समय ग्रीष्म ऋतु के चौथे मास, आठवें पक्ष में आषाढ़ शुक्ला छट्ठ की रात्रि में चन्द्र का उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ योग होने पर भ० महावीर (नन्दन राजा का जीव) महाविजय सिद्धार्थ-पूष्पोत्तर वर पुण्डरीक, दिकस्वस्तिक वद्ध मान नामक महा विमान में सागरोपम की देवआयु पूर्ण कर देवायु, देवस्थिति और देवभव का क्षय होने पर उस दशवें स्वर्ग से च्यवन कर इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र के दक्षिणार्द्ध भरत के दक्षिण ब्राह्मणकुण्ड पुर सन्निवेश में कूडाल गोत्रीय ब्राह्मण ऋषभदत्त की भार्या जालन्धर गोत्रीया ब्राह्मणी देवानन्दा की कुक्षि में, गुफा में प्रवेश करते हुए सिंह के समान गर्भ रूप में उत्पन्न हुए।) श्रमण भ० महावीर के जीव ने जिस समय दशवें स्वर्ग से च्यवन किया, उस समय वह मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान-इन तीन ज्ञानों से यक्त था। मैं दशवें स्वर्ग से च्यवन करूंगा-यह वे जानते थे । स्वर्ग से च्यवन कर मैं गर्भ में आ गया है, यह भी वे जानते थे, किन्तु मेरा इस समय च्यवन हो रहा है, इस च्यवन-काल को वे नहीं जानते थे, क्योंकि वह च्यवनकाल अत्यन्त सूक्ष्म कहा गया है । वह काल केवल केवलीगम्य ही होता है, छद्मस्थ उसे नहीं जान सकता। आषाढ़ शुक्ला षष्ठी की अर्द्धरात्रि में भगवान महावीर गर्भ में आये और उसी रात्रि के अन्तिम प्रहर में सुखपूर्वक सोयी हुई देवानन्दा ने अदजागृत और अर्द्ध सुप्त अवस्था में चौदह महान् मंगलकारी शुभ स्वप्न देखे । महास्वप्नों को देखने के पश्चात् तत्काल देवानन्दा उठी । बह परम प्रमुदित हई । उसने उसी समय अपने पति ऋषभदत्त के पास जा कर उन्हें अपने चौदह स्वप्नों का विवरण सुनाया। देवानन्दा द्वारा स्वप्न-दर्शन की बात सुनकर ऋषभदत्त बोले-"अयि देवानुप्रिये ! तुमने बहुत ही अच्छे स्वप्न देखे हैं । ये स्वप्न शिव और मंगलरूप हैं। विशेष बात यह है कि नौ मास और साढ़े सात रात्रि-दिवस बीतने पर तुम्हें पुण्यशाली पुत्र की प्राप्ति होगी । वह पुत्र शरीर से सुन्दर, सुकुमार, अच्छे लक्षण, व्यञ्जन, सद्गुरणों से युक्त और सर्वप्रिय होगा । जब वह बाल्यकाल पूर्ण कर यवावस्था को प्राप्त होगा तो वेद-वेदाङ्गादि का पारंगत विद्वान, बड़ा १ समणे भगवं महावीरे इमाए प्रोसप्पिणीए"...........""देवाणंदाए माहणीए जालंधर स्सगुत्ताए मीहुन्भवभूएणं अप्पाणेरणं कुच्छिसि गम्भं वक्ते । २ समणे भगवं महावीरे तिन्नागोवगए यावि हुत्था, चइस्सामिति जारण इ, चुएमित्ति जाणइ, चयमाणे न जाणइ, मुहुमे रणं से काले पन्नत्ते। प्राचारांग, श्रु० २, अ० १५ । Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्र का अवधिज्ञान से देखना] भगवान् महावीर ५४३ शूरवीर और महान् पराक्रमी होगा । ऋषभदत्त के मुख से स्वप्नफल सुन कर देवानन्दा बड़ी प्रसन्न हुई तथा योग्य माहार-विहार भोर अनुकूल माचार से गर्भ का परिपालन करने लगी। इन्द्र का प्रवधिज्ञान से देखना m arn.50 उसी समय देवपति शकेन्द्र ने सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को अवधिज्ञान से देखते हुए श्रमण भगवान् महावीर को देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में उत्पन्न हुए देखा । वे प्रसन्न होकर सिंहासन पर से उठकर पादपीठ से नीचे उतरे और मरिणजटित पादुकाओं को उतार कर बिना सिले एक शाटक-वस्त्र से उत्तरासन (मुह की यतना) किये और अंजलि जोड़े हुए तीर्थकर के सम्मुख सात आठ पैर आगे चले तथा बायें घटने को ऊपर उठाकर एवं दाहिने घटने को भूमि पर टिका कर उन्होंने तीन बार सिर झुकाया और फिर कुछ ऊँचे होकर, दोनों भुजाओं को संकोच कर, दशों अंगुलियाँ मिलाये अंजलि जोड़कर वंदन करते हुए वे बोले"नमस्कार हो अर्हन्त भगवान् ! यावत् सिद्धिगति नाम स्थान प्राप्त को। फिर नमस्कार हो श्रमण भगवान महावीर ! धर्मतीर्थ की आदि करने वाले चरमतीर्थकर को।" इस प्रकार भावी तीर्थंकर को नमस्कार करके इन्द्र पूर्वाभिमुख हो सिंहासन पर बैठ गये।' इन्द्र को चिन्ता और हरिणेगमेषी को प्रादेश इन्द्र ने जब अवधिज्ञान से देवानन्दा की कुक्षि में भगवान महावीर के गर्भरूप से उत्पन्न होने की बात जानी तो उसके मन में यह बिचार उत्पन्न हुआ"अर्हत, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव सदा उग्रकुल मादि विशुद्ध एवं प्रभावशाली वंशों में ही जन्म लेते पाये हैं, कभी अंत, प्रान्त, तुच्छ या भिक्षुक कूल में उत्पन्न नहीं हुए मोर न भविष्य में होंगे। चिरन्तन काल से यही परम्परा रही है कि तीर्थंकर आदि उग्रकुल, भोगकुल प्रभृति प्रभावशाली वीरोचित कुलों में ही उत्पन्न होते हैं । फिर भी प्राक्तन कर्म के उदय से श्रमण भगवान् महावीर देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में उत्पन्न हुए हैं, यह अनहोनी और आश्चर्यजनक बात है । मेरा कर्तव्य है कि तथाविध अन्त आदि कुलों से उनका उग्र आदि विशुद्ध कुल-वंश में साहरण करवाऊँ।" ऐमा सोचकर इन्द्र ने हरिणगमेषी देव को बुलाया और उसे श्रमण भगवान् महावीर को सिद्धार्थ राजा की पत्नी त्रिशला के गर्भ में साहरण करने का आदेश दिया। १ (क) आव० भाष्य ०, गा० ५८,५६ पत्र २५६ (ख) कल्पसूत्र, सू० ६१ । Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [हरिणगमेषी द्वारा गर्भापहार हरिणगमेषी द्वारा गर्भापहार । इन्द्र का आदेश पाकर हरिगेगमेषी प्रसन्न हुआ और "तथास्तु देव !" कह कर उसने विशेष प्रकार की क्रिया से कृत्रिम रूप बनाया। उसने ब्राह्मणकुण्ड ग्राम में आकर देवानन्दा को निद्रावश करके बिना किसी प्रकार की बाधा-पीड़ा के महावीर के शरीर को करतल में ग्रहण किया एवं त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में लाकर रख दिया तथा त्रिशला का गर्भ लेकर देवानन्दा की क ख में बदल दिया और उसकी निद्रा का अपहरण कर चला गया। आचारांग सूत्र के भावना अध्ययन में कब और किस तरह गर्भपरिवर्तन किया, इसका उल्लेख इस प्रकार किया गया है : जम्बद्वीप के दक्षिणार्द्ध भरत में, दक्षिण ब्राह्मणकुडपूर सन्निवेश में कोडालसगोत्रीय उसभदत्त ब्राह्मण की जालंधर गोत्र वाली देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में सिंहअर्भक की तरह भगवान् महावीर गर्भरूप से उत्पन्न हुए। उस समय श्रमण भगवान महावीर तीन ज्ञान के धारक थे । श्रमगा भगवान् महावीर को हितानुकम्पी देव ने जीतकल्प समझ कर, वर्षाकाल के तीसरे मास, अर्थात पाँचवें पक्ष में, आश्विन कृष्णा त्रयोदशी को जब चन्द्र का उत्तराफाल्गनी नक्षत्र के साथ योग था, बयासी अहोरात्रियाँ बीतने पर तियासीवीं रात्रि में दक्षिरण ब्राह्मणकुडपुर सन्निवेश से उत्तर क्षत्रिय कुण्डपुर सन्निवेश में ज्ञातक्षत्रिय, काश्यप गोत्रीय सिद्धार्थ की वशिष्ठ गोत्रीया क्षत्रियाणी त्रिशला की कुक्षि में अशुभ पुद्गलों को दूर कर शुभ पुद्गलों के साथ गर्भ रूप में रखा और जो त्रिशला क्षत्रियाणी का गर्भ था उसको दक्षिण-ब्राह्मणकुण्डपुर सन्निवेश में ब्राह्मण ऋषभदत्त की पत्नी देवानन्दा की क ख में स्थापित किया । ___ गर्मापहार-विधि इस प्रकार ८२ रात्रियों तक देवानन्दा के गर्भ में रहने के पश्चात् ८३वीं रात्रि में जिस समय हरिणगमेषी देव द्वारा गर्भ रूप में रहे हए भगवान महावीर का महारानी त्रिशलादेवी की कुक्षि में माहरण किया गया- "हे प्रायष्मन श्रमणे ! उस समय वे भगवान तीन ज्ञान से युक्त थे । मेरा देवानन्दा की कुक्षि से त्रिशलादेवी की कुक्षि में साहरण किया जायगा, इस समय मेरा साहरण किया जा रहा है और देवानन्दा की कुक्षि से मेरा साहरण त्रिशलादेवी की कुक्षि में कर दिया गया है-ये तीनों ही बातें भगवान महावीर जानते थे।"3। १ प्राचारांग सूत्र २ प्राचारोग सूत्र ३ समणे भगवं महावीरे तिनाणोवगए यावि होत्था-साहरिज्जिसामित्ति जाणइ, साहरिज्जमाणे वि जाणइ, साहरिएमित्ति जाण इ समरणाउमो । प्राचारांग सूत्र, ध्रु० २, ५० १५ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र्भापहार-विधि भगवान् महावीर ५४५ देवकृत साहरण का कार्य च्यवन काल के समान अत्यन्त सूक्ष्म नहीं होता, अतः तीन ज्ञान के धनी भ० महावीर साहरण की भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीनों ही क्रियाओं को जानते थे । कल्पसूत्र में जो उल्लेख है कि "इस समय मेरा साहरण किया जा रहा है, यह भ० महावीर नहीं जानते थे", वह उल्लेख ठीक नहीं है । कल्पसूत्र के टीकाकार विनय विजयजी ने "साहरिज्जमाणे वि जारगइ" इस प्रकार के प्राचीन प्रति के पाठ को प्रामाणिक माना है। भगवती सत्र में हरिणगमेषी द्वारा जिस प्रकार गर्भ-परिवर्तन किया जाता है, उसकी चर्चा की गई है । इन्द्रभूति गौतम ने जिज्ञासा करते हए भगवान महावीर से पूछा-"प्रभो ! हरिणैगमेषी देव जो गर्भ का परिवर्तन करता है, वह गर्भ से गर्भ का परिवर्तन करता है या गर्भ से लेकर योनि द्वारा परिवर्तन करता है अथवा योनिद्वार से निकाल कर गर्भ में परिवर्तन करता है या योनि से योनि में परिवर्तन करता है ?" उत्तर में कहा गया-“गौतम ! गर्भाशय से लेकर हरिणगमेषी दूसरे गर्भ में नहीं रखता किन्तु योनि द्वारा निकाल कर बाधा-पीड़ा न हो, इस तरह गर्भ को हाथ में लिए दूसरे गर्भाशय में स्थापित करता है। गर्भपरिवर्तन में माता को पीड़ा इस कारण नहीं होती कि हरिरणेगमेषी देव में इस प्रकार की लब्धि है कि वह गर्भ को सक्ष्म रूप से नख या रोमकप से भी भीतर प्रविष्ट कर सकता है।" जैसा कि कल्पसूत्र में कहा है : "हरिणैगमेषी ने देवानन्दा ब्राह्मणी के पास पाकर पहले श्रमण भगवान महावीर को प्रणाम किया और फिर देवानन्दा को परिवार सहित निद्राधीन कर अशुभ पुद्गलों का अपहरण किया और शुभ पुद्गलों का प्रक्षेप कर प्रभु की अनुज्ञा से श्रमण भगवान् महावीर को बाधा-पीड़ा रहित दिव्य प्रभाव से करतल में लेकर त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में गर्भ रूप से साहरण किया।" [कल्पसूत्र, सू० २७] गर्भापहार असंभव नहीं, पाश्चर्य है वास्तव में ऐसी घटना अद्भुत होने के कारण आश्चर्यजनक हो सकती है, पर असंभव नहीं। प्राचार्य भद्रबाहु ने भी कहा है-"गर्भपरिवर्तन जैसी घटना लोक में प्राश्चर्यभूत है जो अनन्त अवसर्पिणी काल और अनन्त उत्सपिणी काल व्यतीत होने पर कभी-कभी होती है।" दिगम्बर परम्परा ने गर्भापहरण के प्रकरण को विवादास्पद समझ कर मूल से ही छोड़ दिया है । पर श्वेताम्बर परम्परा के मूल सूत्रों और टीका चूणि प्रादि में इसका स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध होता है । श्वेताम्बर प्राचार्यों का कहना Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [गर्भापहार प्रसंभव नही, है कि तीर्थंकर का गर्भहरण आश्चर्यजनक घटना हो सकती है, पर असंभव नहीं। समवायांग सूत्र के ८३ वें समवाय में गर्भपरिवर्तन का उल्लेख मिलता है। स्थानांग सूत्र के पांचवें स्थान में भी भगवान् महावीर के पंचकल्याणकों में उत्तराफाल्गुनी नक्षण में गर्भपरिवर्तन का स्पष्ट उल्लेख है । स्थानांग सूत्र के . १०वें स्थान में दश आश्चर्य गिनाये गये हैं। उनमें गर्भ-हरण का दूसरा स्थान है । वे आश्चर्य इस प्रकार है : उवसम्ग, गब्भहरणं इत्थीतित्थं प्रभाविया-परिसा । कण्हस्स अवरकंका, उत्तरणं चंद-सूराणं ।। हरिवंसकुलुप्पत्ती चमरुप्पातो य अट्ठसयसिद्धा। अस्संजतेसु पूा, दस वि अगतेण कालेण ।। [स्थानांग भा. २ सूत्र ७७७, पत्र ५२३-२] १. उपसर्ग :-श्रमण भगवान् महावीर के समवसरण में गोशालक ने सर्वानुभूति और सुनक्षत्र मुनि को तेजोलेश्या से भस्मीभूत कर दिया । भगवान् पर भी तेजोलेश्या का उपसर्ग किया। यह प्रथम आश्चर्य है। २. गर्भहरण :-तीर्थंकर का गर्भहरण नहीं होता, पर श्रमण भगवान् महावीर का हना । यह दूसरा आश्चर्य है। जैनागमों की तरह वैदिक परम्परा में भी गर्भ-परिबर्तन की घटना का उल्लेख है। वसुदेव की संतानों को कंस जब नष्ट कर देता था तब विश्वात्मा विष्णु योगमाया को आदेश देते हैं कि देवकी का गर्भ रोहिणी के उदर में रखा जाय । विश्वात्मा के आदेश से योगमाया ने देवकी के गर्भ को रोहिणी के उदर में स्थापित किया ।' ३. स्त्री-तीर्थंकर :-सामान्य रूप से तीर्थंकरपद पुरुष ही प्राप्त करते हैं, स्त्रियाँ नहीं। वर्तमान अवसपिणी काल में १९वें तीर्थंकर मल्ली भगवती स्त्री रूप से उत्पन्न हुए, अतः आश्चर्य है। ४. प्रभाविता परिषद् :-तीर्थंकर का प्रथम प्रवचन अधिक प्रभावशाली होता है, उसे श्रवण कर भोगमार्ग के रसिक प्राणी भी त्यागभाव स्वीकार करते १ गच्छ देवि व्रज भद्रे, गोपगोभिरलंकृतम् । रोहिणी वसुदेवस्य, भार्यास्ते नन्दगोकुले । अन्याश्च कंससंविग्नाः, विवरेषु वसन्ति हि ॥७॥ देवक्या जठरे गर्म, शेषाख्यं धाम मामकम् । तत् सन्निकृष्य रोहिण्या, उदरे सन्निवेशय ॥८॥ [श्रीमद्भागवत, स्कंध १०, अध्याय २] Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्चर्य है] भगवान् महावीर १४७ हैं। किन्तु भगवान महावीर की प्रथम देशना में किसी ने चारित्र स्वीकार नहीं किया, वह परिषद् अभावित रही, यह प्राश्चर्य है। ५. कृष्ण का अमरकंका गमन :-द्रौपदी की गवेषणा के लिए श्रीकृष्ण धातकीखण्ड की अमरकंका नगरी में गये और वहाँ के कपिल वासुदेव के साथ शंखनाद से उत्तर-प्रत्युत्तर हुमा । साधारणतया चक्रवर्ती एवं वासुदेव अपनी सीमा से बाहर नहीं जाते, पर कृष्ण गये, यह पाश्चर्य की बात है। ६. चन्द्र-सूर्य का उतरना :-सूर्य चन्द्रादि देव भगवान् के दर्शन को प्राते हैं, पर मूल विमान से नहीं। किन्तु कौशाम्बी में भगवान् महावीर के दर्शन हेतु चन्द्र-सूर्य अपने मूल विमान से प्राये।' महावीर चरियं के अनुसार चन्द्र-सूर्य भगवान के समवसरण में आये, जबकि सती मृगावती भी वहाँ बैठी थी। रात होने पर भी उसे प्रकाश के कारण ज्ञात नहीं हुआ और वह भगवान् की वाणी सुनने में वहीं बैठी रही । चन्द्र-सूर्य के जाने पर जब वह अपने स्थान पर गई तब चन्दनबाला ने उपालम्भ दिया। मृगावती को प्रात्मालोचन करते-करते केवलज्ञान हो गया । यह भगवान् की केवली-चर्या के चौबीसवें वर्ष की घटना है। ७. हरिवंश कुलोत्पत्ति :- हरि और हरिणीरूप युगल को देखकर एक देव को पूर्वजन्म के वैर की स्मति हो पाई। उसने सोचा "ये दोनों यहां भोगभूमि में सुख भोग रहे हैं और आयु पूर्ण होने पर देवलोक में जायेंगे। प्रतः ऐसा यत्न करू कि जिससे इनका परलोक दुःखमय हो जाय ।" उसने देव शक्ति से उनकी दो कोस की ऊँचाई को सौ धनुष कर दिया, प्राय भी घटाई और दोनों को भरतक्षेत्र की चम्पानगरी में लाकर छोड़ दिया। वहाँ के भूपति १ आव० नियुक्ति में प्रभु की छमस्थावस्था में संगम देव द्वारा घोर परीषह देने के बाद कौशाम्बी में चन्द्र-सूर्य का मूल विमान से प्रागमन लिखा है । कोसंवि चंद सूरो अरणं.. ..." । प्राव नि० दी०, गा० ५१८. पत्र १०५ । २ साहावियाई पच्चक्ख दिस्समारणाणि पारुहेउण । प्रोयरिया भत्तीए वंदरणवडियाए ससिसूरा ।।६।। तेसि विमाणनिम्मल मऊह निवहप्पयासिए गयणे । जायं निसिपि लोगो प्रवियाणंतो सुणइ धम्मं ।।१०।। नवरं नाउं समयं चंदणबाला मवत्तिणी नमिउं। . सामि समणीहि समं निययावासं गया सहसा ॥११॥ सा पुरण मिगावई जिणकहाए वक्खित्तमाणसा परिणयं । एगागिरणी चियट्ठिया दिणंति काऊण प्रोसरणे ।।१२।। [महावीर चरियं (गुणचन्द्र), प्रस्ताव ८, पत्र १७५] ३ कुणतिय से दिनप्पभावेण धणुसयं उच्चत्तं ।। वसु० हि०, पृ० ३५७ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ ___ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [गर्भापहार प्राश्चर्य है का वियोग होने से 'हरि' को अधिकारियों द्वारा राजा बना दिया गया। कुसंगति के कारण दोनों ही दुर्व्यसनी हो गये और फलतः दोनों मरकर नरक में उत्पन्न हुए। इस युगल से हरिवंश की उत्पत्ति हुई। युगलिक नरक में नहीं जाते पर ये दोनों हरि और हरिणी नरक में गये । यह पाश्चर्य की बात है। ८. चमर का उत्पात :-पूरण तापस का जीव असुरेन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ । इन्द्र बनने के पश्चात् उसने अपने ऊपर शकेन्द्र को सिंहासन पर दिव्यभोगों का उपभोग करते हुए देखा और उसके मन में विचार हुआ कि इसकी शोभा को नष्ट करना चाहिए । भगवान् महावीर की शरण लेकर उसने सौधर्म देवलोक में उत्पात मचाया। इस पर शकेन्द्र ने क्रुद्ध हो उस पर वज्र फेंका। चमरेन्द्र भगभीत हो भगवान् के चरणों में गिरा । शक्रेन्द्र भी चमरेन्द्र को भगवान् महावीर की चरण-शरण में जानकर बड़े वेग से वज के पीछे पाया और अपने फेंके हुए वज़ को पकड़ कर उसने चमर को क्षमा प्रदान कर दो। चमरेन्द्र का इस प्रकार अरिहंत की शरण लेकर सौधर्म देवलोक में जाना पाश्चर्य है। ६. उत्कृष्ट प्रवगाहना के १०८ सिद्ध :-भगवान् ऋषभदेव के समय में ५०० धनष की प्रवगाहना वाले १०८ सिद्ध हुए। नियमानुसार उत्कृष्ट अवगाहना वाले दो' ही एक साथ सिद्ध होने चाहिये, पर ऋषभदेव और उनके पुत्र आदि १०८ एक समय में साथ सिद्ध हुए, यह आश्चर्य की बात है। . १०. प्रसंयत पूजा :-संयत ही वंदनीय-पूजनीय होते हैं, पर नौवें तीर्थकर सुविधिनाथ के शासन में श्रमण-श्रमणी के प्रभाव में असंयति की ही पूजा हुई. प्रतः यह माश्चर्य माना गया है। वंज्ञानिक दृष्टि से गर्मापहार भारतीय साहित्य में वरिणत गर्भापहार जैसी कितनी ही बातों को लोग अब तक अविश्वसनीय मानते रहे हैं, पर विज्ञान के अन्वेषण ने उनमें से बहुत कुछ प्रत्यक्ष कर दिखाया है । गुजरात वर्नाक्यूलर सोसायटी द्वारा प्रकाशित "जीवन विज्ञान" (पृष्ठ ४३) में एक पाश्चर्यजनक घटना प्रकाशित की गई है, जो इस प्रकार है:१ उक्कोसोगाहणाए म सिजते जुग दुवे। उ०३६, गा० ५४ २ रिसहो रिसहस्स सुया, भरहेण विवज्जिया नवनवई । पठेव भरहस्स सुया, सिद्विगया एग समम्मि । Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिशला के यहाँ] भगवान् महावीर ५४६ ___ "एक अमेरिकन डॉक्टर को एक भाटिया-स्त्री के पेट का ऑपरेशन करना था । वह गर्भवती थी, अत: डॉक्टर ने एक गभिरणी बकरी का पेट चीर कर उसके पेट का बच्चा बिजली की शक्ति से युक्त एक डिब्बे में रखा और उस औरत के पेट का बच्चा निकाल कर बकरी के गर्भ में डाल दिया । औरत का ऑपरेशन कर नुकने के बाद डॉक्टर ने पुनः औरत का बच्चा औरत के पेट में रख दिया और बकरी का बच्चा बकरी के पेट में रख दिया। कालान्तर में बकरी और स्त्री ने जिन बच्चों को जन्म दिया वे स्वस्थ और स्वाभाविक रहे ।" 'नवनीत की तरह अन्य पत्रों में भी इस प्रकार के अनेक वृत्तान्त प्रकाशित हुए हैं, जिनसे गर्भापहरण की बात संभव और साधारण सी प्रतीत होती है । त्रिशला के यहाँ जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, जिस समय हरिणंगमेषी देव ने इन्द्र की प्राज्ञा से महावीर का देवानन्दा की कुक्षि से त्रिशला की कुक्षि में साहरण किया, उस समय वर्षाकाल के तीसरे मास अर्थात् पाँचवें पक्ष का आश्विन कृष्णा त्रयोदशी का दिन था । देवानन्दा के गर्भ में बयासी (८२) रात्रियाँ विता चुकने के पश्चात् तियासीवीं रात्रि में चन्द्र के उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ योग के समय भगवान् महावीरं का देवानन्दा की कुक्षि से त्रिशलादेवी की कुक्षि में साहरण किया गया। गर्भसाहरण के पश्चात् देवानन्दा यह स्वप्न देखकर कि उसके चौदह मंगलकारी शुभस्वप्न उसके मुखमार्ग से बाहर निकल गये हैं, तत्क्षरण जाग उठी। वह शोकाकुल हो बारम्बार विलाप करने लगी कि किसी ने उसके गर्भ का अपहरण कर लिया है। उधर त्रिशला रानी को उसी रात उन चौदह महामंगलप्रद शुभस्वप्नों के दर्शन हुए । वह जागृत हो महाराज सिद्धार्थ के पास गई और उसने अपने स्वप्न सुनाकर बड़ी मृदु-मंजुल वाणी में उनसे स्वप्नफल की पच्छा की। __ महाराज सिद्धार्थ ने निमित्त-शास्त्रियों को ससम्मान बुलाकर उनसे उन चौदह स्वप्नों का फल पूछा । निमित्तज्ञों ने शास्त्र के प्रमारणों से बताया-"इस प्रकार के मांगलिक शुभस्वप्नों में से तीर्थंकर अथवा चक्रवर्ती की माता चौदह महास्वप्न देखती है । वासुदेव की माता सात महास्वप्न, बलदेव की माता चार महास्वप्न तथा १ (क) महावीर चरित्रम् (गुणचन्द्र सूरि), पत्र २१२ (२) । (ख) त्रिषष्टि भलाका पुरुष चरित्र, पर्व १०, सर्ग २, श्लोक २७ मोर २८ । Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैन धर्म का मौलिक इतिहास [त्रिशला के यहाँ माण्डलिक की माता एक शुभस्वप्न देखकर जागृत होती है । महारानी त्रिशला देवी ने चौदह शुभस्वप्न देखे हैं, अतः इनको तीर्थकर अथवा चक्रवर्ती जैसे किसी महान् भाग्यशाली पुत्ररत्न का लाभ होगा। निश्चित रूप से इनके ये स्वप्न परम प्रशस्त और महामंगलकारी हैं।" स्वप्नपाठकों की बात सुनकर महाराज सिद्धार्थ परम प्रमुदित हुए और उन्होंने उनको जीवनयापन योग्य प्रीतिदान देकर सत्कार एवं सम्मान के साथ विदा किया। महारानी त्रिशला भी योग्य आहार-विहार और मर्यादित व्यवहारों से गर्भ का सावधानीपूर्वक प्रतिपालन करती हुई परमप्रसन्न मुद्रा में रहने लगीं। महारानी त्रिशलादेवी ने जिस समय भगवान् महावीर को अपने गर्भ में धारण किया, उसी समय से तुजभक देवों ने इन्द्र की माज्ञा से पुरातन निधियों लाकर महाराज सिद्धार्थ के राज्य-भण्डार को हिरण्य-सुवर्णादि से भरना प्रारंभ कर दिया और समस्त ज्ञातकुल की विपुल धन-धान्यादि ऋद्धियों से महती अभिवृद्धि होने लगी।' महावीर का गर्भ में अभिग्रह भगवान् महावीर जब त्रिशला के गर्भ में थे, तब उनके मन में विचार पाया कि उनके हिलने-डुलने से माता अतिशय कष्टानभव करती है। यह विचार कर उन्होंने हिलना-डुलना बन्द कर दिया। किन्तु गर्भस्थ जीव के हलनचलनादि क्रिया को बन्द देख कर माता बहुत घबराई। उनके मन में शंका होने लगी कि उनके गर्भ का किसी ने हरण कर लिया है अथवा वह मर गया है या गल गया है । इसी चिन्ता में वह उदास और व्याकुल रहने लगीं । माता की उदासी से राज-भवन का समस्त प्रामोद-प्रमोद एवं मंगलमय वातावरण शोक और चिन्ता में परिणत हो गया । गर्भस्थ महावीर ने अवधिज्ञान द्वारा मां को यह करुणावस्था प्रौर राजभवन की विषादमयी स्थिति देखी तो वे पुनः अपने अंगोपांग हिलाने-डुलाने लगे जिससे मां का मन फिर प्रसन्नता से नाच उठा और राजभवन में हर्ष का वातावरण छा गया। मां के इस प्रबल स्नेहभाव को देख कर महावीर मे गर्भकाल में ही यह अभिग्रह धारण किया-"जब तक १ अदिवस भय...तिसला देवीए उदरकमलमइगमो तदिवसामोवि सुरवाइवयणेरण तिरिवगंभगा देवा विविहाई महानिहाणाई सिबत्पनरिवमुवणंमि मुबो-मुबो परिमिति, तपि नायकुलं पणेणं पोवाडमभिव ..... [महावीर परित्र (गुणचना), पत्र ११४ (१)] Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म-महिमा] भगवान् महावीर ५५१ मेरे माता-पिता जीवित रहेंगे तब तक मैं मुडित होकर दीक्षा-ग्रहण नहीं करूंगा।" जन्म-महिमा प्रशस्त दोहद और मंगलमय वातावरण में गर्भकाल पूर्ण कर नौ मास. और साढ़े सात दिन बीतने पर चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को मध्यरात्रि के समय उत्तराफाल्गनी नक्षत्र में त्रिशला क्षत्रियारणी ने सुखपूर्वक पुत्ररत्न को जन्म दिया। प्रभु के जन्मकाल में सभी ग्रह उच्च स्थान में आये हुए थे। समस्त दिशाएँ परम सौम्य, प्रकाशपूर्ण और अत्यन्त मनोहर प्रतीत हो रही थीं। धन-धान्य की मृद्धि एवं सुख-सामग्री की अभिवृद्धि के कारण जन-जीवन बड़ा प्रमोदपूर्ण था। गगनमण्डल से देवों ने पंचदिव्यों की वर्षा की। प्रभु के जन्म लेते ही समस्त लोक में अलौकिक उद्योत और शान्ति का वातावरण व्याप्त हो गया । प्रभु का मंगलमय जन्ममहोत्सव मनाने वाले देवदेवियों के प्रागमन से सम्पूर्ण गगनमण्डल एवं भूमण्डल एक अपूर्व उद्योत से प्रकाशमान और मृदु-मंजुल रव से मुखरित हो उठा। जिस रात्रि में क्षत्रियाणी माता त्रिशलादेवी ने प्रभु महावीर को जन्म दिया, उस रात्रि में बहत से देवों और देवियों ने अमृतवृष्टि, मनोज्ञ सुगन्धित गन्धों की वृष्टि, सुगन्धित चूर्णो की वृष्टि, सुन्दर सुगन्धित पंच वर्ण पुष्पों की वृष्टि, हिरण्य की वृष्टि, स्वरणं की वृष्टि और रत्नों की वृष्टि-इस प्रकार सात प्रकार की विपुल वृष्टियाँ की। भगवान महावीर का जन्म होते ही ५६ दिवकूमारियों और ६४ देवेन्द्रों के आसन दोलायमान हुए । अवधिज्ञान के उपयोग द्वारा जब उन्हें ज्ञात हुमा कि जम्बद्वीप के भरतक्षेत्र में चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म हमा है तो अपने पद के त्रिकालवर्ती जीताचार के परिपालनार्थ उन सब ने अपनेअपने आभियोगिक देवों को अतीव मनोहर-विशाल एवं विस्तीर्ण अनुपम विमानों की विकुर्वणा करने और सभी देवी-देवियों को अपनी सम्पूर्ण दिव्य देवद्धि के साथ प्रभु का जन्म-महोत्सव मनाने हेतु प्रस्थान करने के लिए शीघ्र ही समुद्यत होने का आदेश दिया। सबसे पहले अधोलोक निवासिनी भोगंकरा आदि पाठ दिवकुमारियां अपनी दिव्य ऋद्धि और विशाल देव-देवी परिवार के साथ एक विशाल विमान १ (क) भाव० भाष्य० गा० ५८।५६, पत्र २५६ (ख) कल्पसूत्र, सूत्र ९१ २ विषष्टि शलाका पुरुष परिष, पर्व १०, सर्ग २, श्लोक ६० से ६४ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [जन्म-महिमा में बैठ क्षत्रिय कुण्डनगर में पाई । उन्होंने महाराज सिद्धार्थ के राजप्रासाद की तीन बार प्रदक्षिणा करके अपने विमान को ईशान कोण में भूमि से चार अंगुल ऊपर ठहराया और उससे उतर कर वे सम्पूर्ण ऋद्धि के साथ प्रभु के जन्म ग्रह में आई । उन्होंने माता और प्रभु दोनों को प्रणाम करने के पश्चात् त्रिशला महारानी से सविनय मदु-मंजल स्वर में निवेदन किया-"हे. त्रैलोक्यकनाथ तीर्थेश्वर की त्रिलोकवन्दनीया मातेश्वरी! आप धन्य हैं, जो आपने त्रिभुवनभास्कर जगदेकबन्धु जगन्नाथ को पुत्र रूप में जन्म दिया है । जगदम्ब ! हम अधोलोक की आठ दिवकूमारिकाएँ अपने देव-देवी परिवार के साथ इन निखिलेश जिनेश्वर का जन्मोत्सव मनाने आई हैं, अतः आप किसी प्रकार के भय का विचार तक मन में न आने दें।" वे प्रभु के जन्म भवन में और उसके चारों ओर चार-चार कोस तक भूमि को साफ-सुथरी और स्वच्छ बनाने के पश्चात् माता त्रिशलादेवी के चारों ओर खड़ी हो सुमधुर स्वर में विविध वाद्ययन्त्रों की ताल एवं तान के साथ मंगलगीत गाती हैं । तत्पश्चात उर्वलोक-वासिनी मेघंकरा आदि पाठ दिवकुमारियाँ भी उसी प्रकार प्रभु के जन्मगृह में आ वन्दन-नमन-स्तुति-निवेदन आदि के उपरान्त जन्मगृह और उसके चारों ओर चार-चार कोस तक जलवृष्टि, गन्धवृष्टि और पुष्पवृष्टि कर समस्त भूमिभाग को सुखद-सुन्दर-सुरम्य बना माँ त्रिशला महारानी के चारों ओर खड़ी हो विशिष्टतर मंगल गीत गाती हैं । ऊर्ध्वलोक निवासिनी दिवकुमारियों के पश्चात् पूर्वीय रुचक कूट पर रहने वाली नन्दुत्तरा आदि आठ दिवकुमारिकाएँ हाथों में दर्पण लिए, दक्षिणी रुचक कट-गिरि निवासिनी समाहारा आदि पाठ दिवकूमारियाँ झारियाँ हाथ में लिए, पश्चिमी रुचक-कूट-निवासिनी इनादेवी आदि पाठ दिशाकुमारियाँ हाथों में सुन्दर तालवन्तों से व्यजन करती हई और उत्तरी रुचक कट वासिनी अलम्बुषा आदि पाठ दिवकुमारिकाएँ तीर्थंकर माता त्रिशला और नवजात प्रभु महावीर को श्वेत चामर ढुलाती हुई मधुर स्वर में मंगलगीत गाती हैं। तदनन्तर चित्रा, चित्रकनका, सतेरा और सुदामिनी नाम्नी विदिशा के रुचक-कूट पर रहने वाली चार दिशाकुमारिकाएँ वन्दन-नमन-स्तुति निवेदन के पश्चात् जगमगाते प्रदीप हाथों में लिए माता त्रिशला के चारों ओर चारों विदिशाओं में खड़ी हो मंगल गीत गाती हैं। ये सब कार्य दिव्य द्रुत गति से शीघ्र ही सम्पन्न हो जाते हैं । उसी समय रूपा, रूपांशा, सुरूपा और रूपकावती नाम की, मध्य रुचक पर्वत पर रहने वाली चार महत्तरिका दिशाकुमारियाँ वहाँ पा वन्दन आदि के पश्चात् नाभि के ऊपर चार अंगल छोड़ कर नाल को काटती है । प्रासाद के प्रांगरण में गड्ढा खोद कर उसमें नाल को गाड़ कर रत्नों और रत्नों के चूर्ण से उस खड्डे को Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म-महिमा भगवान् महावीर ५५३ भरती हैं । तदनन्तर तीन दिशाओं में तीन कदलीघर, प्रत्येक कदलीगृह में एकएक चतुश्शाल और प्रत्येक चतुश्शाल के मध्यभाग में एक-एक अति सुन्दर सिंहासन की विकुर्वणा करती हैं । ये सब कार्य निष्पन्न करने के पश्चात् वे माता त्रिशला के पास प्रा नवजात शिशु प्रभु को करतल में ग्रहण कर और माता त्रिशला को बहुओं में समेटे दक्षिणी कदलीगृह को चतुश्शाला में सिंहासन पर बिठा शतपाक, सहस्रपाक तैल से मर्दन और उबटन कर उसी प्रकार पूर्वीय कदलीगृह की चतुःशाला में ला सिंहासन पर बिठाती हैं । वहाँ माता और पुत्र दोनों को क्रमशः गन्धोदक, पुष्पोदक और शुद्धोदक से स्नान करा वस्त्रालंकारों से विभूषित कर उत्तरी कदलीगृह की चतुःशाला के मध्यस्थ सिंहासन पर प्रभ की माता और प्रभ को आसीन करती हैं । आभियोगिक देवों से गौशीर्ष चन्दन मंगवा अरणी से आग उत्पन्न कर हवन करती हैं । हवन के पश्चात् उन चारों दिवकुमारिकानों ने भूतिकर्म किया, रक्षा पोटलिका बाँधी और प्रभु के कर्णमल में मणिरत्नयुक्त दो छोटे-छोटे गोले इस प्रकार लटकाये जिससे कि वे टन-टन शब्द करते रहें। तदनन्तर वे देवियाँ तीर्थंकर प्रभ को उसी प्रकार करतल में लिये और माता को बाहुओं में समेटे जन्मगृह में लाईं और उन्हें शय्या पर बिठा दिया। वे सब दिवकुमारियाँ माता की शय्या के चारों ओर खड़ी हो प्रभु की और प्रभु की माता की पर्युपासना करती हुई मंगल गीत गाने लगीं। उसी समय सौधर्मेन्द्र देवराज शक्र अपनी सम्पूर्ण दिव्य ऋद्धि और परिवार के साथ प्रभु के जन्मगृह की प्रदक्षिणा आदि के पश्चात् माता त्रिशला देवी के पास आ उन्हें वन्दन-नमन-स्तुति-निवेदन के पश्चात् अवस्वापिनी विद्या से निद्राधीन कर दिया। प्रभु के दूसरे स्वरूप की विकुर्वरणा कर शक्र ने उसे माता के पास रखा। तदनन्तर वैक्रिय शक्ति से शक ने अपने पाँच स्वरूप बनाये । एक शक ने प्रभु को अपने करतल में लिया, एक शक्र ने प्रभु पर छत्र किया, दो शक प्रभु के पार्श्व में चामर ढुलाते हुए चलने लगे और पांचवां शक्र का स्वरूप हाथ में वज्र धारण किये प्रभु के आगे-आगे चलने लगा। चारों जाति के देवों और देवियों के प्रति विशाल समूह से परिवत शक्र जयघोष एवं विविध देव-वाद्यों के तुमूल निर्घोष से गगनमण्डल को गजाता हा दिव्य देवगति से चल कर मेरुपर्वत पर पण्डक वन में अभिषेक-शिला के पास पहुँचा । शेष ६३ इन्द्र भी अपनी सम्पूर्ण ऋद्धि के साथ देव-देवियों के अति विशाल' परिवार से परिवृत हो उसी समय अभिषेक-शिला के पास पहुँचे । शक ने प्रभु महावीर को अभिषेकशिला पर पूर्वाभिमुख कर बिठाया और ६४ इन्द्र प्रभु की पर्युपासना करने लगे। अच्युतेन्द्र की आज्ञा से स्वर्ण, रजत, मणि, स्वर्णरोप्य, स्वर्णमणि, स्वर्णरजतमरिण, मत्तिका और चन्दन इन प्रत्येक के एक-एक हजार और आठ-आठ कलश, इन सब के उतने ही लोटे, थाल, पात्री, सुप्रतिष्ठिका, चित्रक, रत्नकरण्ड, Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [जन्म-महिमा पुष्पाभरणादि की चंगेरियां, सिंहासन, छत्र, चामर आदि-आदि अभिषेक योग्य महायं विपुल सामग्री आभियोगिक देवों ने तत्काल प्रस्तुत की। सभी कलशों को क्षीरोदक, पुष्करोदक, भरत-एरवत क्षेत्रों के मागधादि तीर्थों और गंगा आदि महानदियों के जल से पूर्ण कर उन पर क्षीरसागर के सहस्रदल कमलपुष्पों के पिधान लगा पाभियोगिक देवों द्वारा वहाँ अभिषेक के लिए प्रस्तुत किया गया। सर्वप्रथम अच्युतेन्द्र ने और तदनन्तर शेष सभी इन्द्रों ने उन कलशों और सभी प्रकार की अभिषेक योग्य महद्धिक, महाध्य सामग्री से प्रभु महावीर का महाजन्माभिषेक किया ।' देवदुन्दुभियों के निर्घोषों, जयघोषों, सिंहनादों, प्रास्फोटनों और विविध विवुध वाद्ययन्त्रों के तुमुल निनाद से गगन, गिरीन्द्र वसुन्धरातल एक साथ ही गुजरित हो उठे । देवों ने पंच दिव्यों की वृष्टि की, अद्भुत नाटक किये और अनेक देवगण आनन्दातिरेक से नाचते-नाचते झूम उठे। ___ इस प्रकार असीम हर्षोल्लासपूर्वक प्रभु महावीर का जन्माभिषेक करने के पश्चात् देवराज शक्र जिस प्रकार प्रभु को जन्म गृह से लाया था उसी प्रकार पूरे ठाठ के साथ जन्म-गृह में ले गया । शक ने प्रभु को माता के पास सुला कर प्रभ के विवित कृत्रिम स्वरूप को हटाया। प्रभु तदनन्तर देवराज शक्र ने प्रभु के सिरहाने क्षोमयुगल और कुण्डलयुगल रख त्रिशलादेवी की अवस्वापिनी निद्रा का हरण किया और तत्काल वह वहाँ से तिरोहित हो गया। सौधर्मेन्द्र शक्र की आज्ञा से कुबेर ने जम्भक देवों को आदेश दे महाराजा सिद्धार्थ के कोशागारों को बत्तीस-बत्तीस कोटि हिरण्य-मद्रानों, स्वर्णमद्रानों, रत्नों तथा अन्यान्य भण्डारों को नन्द नामक वृत्तासनों, भद्रासनों एवं सभी प्रकार की प्रसाधन-सामग्रियों से भरवा दिया। १ मेरु पर्वत पर इन्द्रों द्वारा अभिषेक किये जाने के सम्बन्ध में प्राचार्य हेमचन्द्र सूरि ने अपने त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र में निम्नाशय का उल्लेख किया है : इन्द्र ने प्रभु को सुमेरु पर्वत पर ले जा कर जन्म-महोत्सव किया, उस समय शक के मन में शंका उत्पन्न हुई कि नवजात प्रभु का कुसुम सा सुकोमल व नन्हा सा वपु अभिषेक कलशों के जलप्रपात को किस प्रकार सहन कर सकेगा? भ० महावीर ने इन्द्र की इस शंका का निवारण करने हेतु अपने वाम पाद के अंगुष्ठ से सुमेरु को दबाया। इसके परिणामस्वरूप गिरिराज के उत्तुंग शिखर झंझावात से झकझोरे गये वेत्रवन की तरह प्रकम्पित हो उठे। शक को अवधिज्ञान से जब यह ज्ञात हुआ कि यह सब प्रभु के अनन्त बल की माया है, तो उसने नतमस्तक हो प्रभु से क्षमायाचना की। त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व १०, सर्ग २, श्लोक ६०-६४ Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म-महिमा ] भगवान् महावीर ५५५ महाराजा सिद्धार्थ के कोशागारों और भण्डारों को इस प्रकार भरपूर करवा कर देवराज शक्र ने कुण्डनपुर नगर के सभी बाह्याभ्यन्तर भागों, श्रृंगाटकों, त्रिकों, चतुष्कों प्रादि में अपने श्राभियोगिक देवों से निम्नाशय की घोषणा करवाई : " चार जाति के देव - देवियों में यदि कोई भी देवी अथवा देव तीर्थंकर की माता अथवा तीर्थंकर के प्रति किसी भी प्रकार का अशुभ विचार करेगा तो उसका मस्तक आम्र - मंजरी की भांति शतधा तोड़ दिया जायगा ।" इस प्रकार की घोषणा करवाने के पश्चात् शक्र और सभी देवेन्द्रों ने नन्दीश्वर द्वीप में जा कर तीर्थंकर भगवान् का अष्टाह्निक जन्म महोत्सव मनाया । बड़े हर्षोल्लास के साथ अष्टाह्निक महोत्सव मनाने के पश्चात् सभी देव और देवेन्द्र आदि अपने-अपने स्थान को लोट गये ।" देवियों, देवों और देवेन्द्रों द्वारा भ० महावीर का शुचि-कर्म और तीर्थंकराभिषेक किये जाने के सम्बन्ध में आचारांग सूत्र में जो सार रूप में उल्लेख किया गया है, वह इस प्रकार है : "क्षत्रियाणी त्रिशलादेवी ने जिस रात्रि में भ० महावीर को जन्म दिया, उस रात्रि में भवनपति, वारणव्यन्तर, ज्योतिषी एवं वैमानिक देवों और देवियों ने भ० महावीर का शुचिकर्म और तीर्थंकराभिषेक किया ।" " श्वेताम्बर परम्परा के आचार्य विमल सूरि ने 'पउम चरियम्' में और दिगम्बर परम्परा के प्राचार्य जिनसेन ने 'आदि पुराण' में यह मान्यता अभिव्यक्त की है कि प्रत्येक तीर्थंकर के गर्भावतरण के छह मास पूर्व से ही देवगण तीर्थंकर के माता-पिता के राजप्रासाद पर रत्नों की वृष्टि करना प्रारम्भ कर देते हैं । आचार्य हेमचन्द्र और गुणचन्द्र प्रादि ने तीर्थंकर के गर्भावतरण के पश्चात् तृजृंभक देवों द्वारा शक्राज्ञा से तीर्थंकरों के पिता के राज्य-कोषों को विपुल १ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, पाँचवाँ बक्षस्कार । २ जंगं रयरिंग तिसला खत्तियागी समरणं भगवं महावीरं पसूया तसं रयरिंग भवणवइवारण मंतर जोइसिय विमारणवासिरगो देवा य देवियो य समरणस्स भगवप्रो महावीरस्स सुइकम्माई तित्थयराभिसेयं च करिंसु । प्राचारांग, श्रु० २, प्र० १५ ३ छम्मासेण जिरणवरो, होही गन्भम्मि चवरणकालानो । पाड़ेइ रयणवुट्ठी, घणो मासारिण पष्णरस ॥ ४ षड्भिर्मासंरथैतस्मिन् स्वर्गादवतरिष्यति । रत्नवृष्टि दिवो देवाः, पातयामासुरादरात् ॥ [ पउम चरिउं, ३ श्लोक ६७ ] [ श्रादि पुराण. १२, श्लोक ८४ ] Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ जन्मस्थान निधियों से परिपूर्ण करने और उनके जन्म के समय रत्नादि की वृष्टि करने का उल्लेख किया है । ५५६ पुत्रजन्म की खुशी में महाराज सिद्धार्थ ने राज्य के बन्दियों को कारागार मुक्त किया और याचकों एवं सेवकों को मुक्तहस्त से प्रीतिदानं दिया । दस दिन तक बड़े हर्षोल्लास के साथ भगवान् का जन्मोत्सव मनाया गया । समस्त नगर में बहुत दिनों तक ग्रामोद-प्रमोद का वातावरण छाया रहा । जन्मस्थान महावीर की जन्मस्थली के सम्बन्ध में इतिहासज्ञ विद्वानों में मतभेद है । कुछ विद्वान् श्रागम साहित्य में उल्लिखित 'वेसालिय' शब्द को देख कर इनकी जन्मस्थली वैशाली मानते हैं । क्योंकि पाणिनीय व्याकरण के अनुसार 'विशालायां भव:' इस अर्थ में छ प्रत्यय होकर 'वेसालिय' शब्द बनता है, जिसका अर्थ है - वैशाली में उत्पन्न होने वाला । कुछ विद्वानों के मतानुसार भगवान् का जन्मस्थान 'कु' डनपुर' है तो कुछ के 'अनुसार क्षत्रियकुड । क्षत्रियकुंड के सम्बन्ध में भी विद्वानों में मतैक्य नहीं है । कुछ इसे मगध देश में मानते हैं तो कुछ इसे विदेह में । श्राचारांग और कल्पसूत्र में महावीर को विदेहवासी कहा गया है ।' डॉ० हर्मनजेकोबी ने विदेह का अर्थ विदेहवासी किया है । परन्तु 'विदेह जच्चे' का अर्थ 'देह में श्रेष्ठ' होना चाहिये, क्योंकि 'जच्चे' जात्यः का अर्थ उत्कृष्ट होता है । कल्पसूत्र के बंगला अनुवादक बसंतकुमार चट्टोपाध्याय ने इसी मत का समर्थन किया है । 3 दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों से भी इसी धारणा का समर्थन होता है । वहाँ कुडपुर-क्षत्रियकुंड की अवस्थिति जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में विदेह के २ अन्तर्गत मानी है । ४ [ कल्पसूत्र, सू० ११०] १ नाए नायपुत्ते, नायकुलचन्दे, विदेहे - विदेहदिन्ने, विदेहजच्चे २ सेक्रेड बुक्स प्रॉफ दी ईस्ट, सेक्ट २२, पृ० २५६ ३ वसंतकुमार लिखते हैं-- दक्ष, दक्षप्रतिज्ञ, प्रादर्श रूपवान्, बालीन, भद्रक, विनीत, ज्ञात, ज्ञातीपुत्र, ज्ञाती कुलचन्द्र, विदेह, विदेह दत्तात्मज, वैदेहश्रेष्ठ, वैदेह सुकुमार श्रमण भगवान् महावीर त्रिश वत्सर विदेह देशे काटाइयां, माता पितार देवत्व प्राप्ति हइसे गुरुजन श्रो महत्तर गणेर अनुमति लइया स्वत्रतिज्ञा समाप्त करिया छिलेन । कल्प सू० प्र० व० कलकत्ता वि० वि० १९५३ ई० ४ (क) विक्रमी पांचवी सदी के प्राचार्य पूज्यपाद दशभक्ति में लिखते है : 'सिद्धार्थनृपति तनयो, भारतवास्ये विदेह कुंडपुरे । पृ० ११६ (ख) विक्रमी आठवीं सदी के प्राचार्य जिनसेन हरिवंश पुराण, खण्ड १, सर्ग २ में लिखते हैं : भरतेऽस्मिन् विदेहाख्ये, विषये भवनांगरणे । राज्ञः कुण्डपुरेशस्य, वसुधारापतत् पृथुः ।। २५१ । २५२ । उत्तरार्द्ध Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्मस्थान] भगवान् महावीर शास्त्र में 'वेसालिय' शब्द होने के कारण वैशाली से भगवान का सम्बन्ध प्रायः सभी इतिहास-लेखकों ने माना है, किन्तु उस सम्बन्ध का अर्थ जन्मस्थान मानना ठीक नहीं । मुनि कल्याण विजयजी ने कुडपुर को वैशाली का उपनगर लिखा है, जबकि विजयेन्द्रसूरि के अनुसार कुंडपुर वैशाली का उपनगर नहीं बल्कि एक स्वतन्त्र नगर माना गया है । मालूम होता है, दोनों ने दृष्टिभेद से ऐसा उल्लेख किया हो और इसी दृष्टि से ब्राह्मणकुडग्राम नगर और क्षत्रियकुंडग्राम नगर लिखा गया हो। ये दोनों पृथक-पृथक् बस्ती के रूप में होकर भी इतने नजदीक थे कि उनको कुडपुर के सन्निवेश मानना भी अनुचित नहीं समझा गया । दोनों की स्थिति के विषय में भगवती सूत्र के नवें उद्देशगत प्रकरण से अच्छा प्रकाश मिलता है । वहाँ ब्राह्मणकुड ग्राम से पश्चिम दिशा में क्षत्रियकुड ग्राम और दोनों के मध्य में बहुशाल चैत्य बतलाया गया है। जैसाकि ___ एक बार भगवान महावीर ब्राह्मणकुड के बहुशाल चैत्य में पधारे, तब क्षत्रियड के लोग सूचना पाकर वंदन करने को जाने लगे। लोगों को जाते हुए देखकर राजकुमार जमालि भी वंदन को निकले और क्षत्रियकुड के मध्य से होते हुए ब्राह्मणकुण्ड के बहुशाल चैत्य में, जहाँ भगवान महावीर थे, वहाँ पहुँचे । उनके साथ पांच सौ क्षत्रियकुमारों के दीक्षित होने का वर्णन बतलाता है कि वहाँ क्षत्रियों की बड़ी बस्ती थी। संभव है, बढ़ते हुए विस्तार के कारण ही इनको ग्राम-नगर कहा गया हो। डॉ० हारनेल ने महावीर का जन्मस्थान कोल्लाग सन्निवेश होना लिखा है, पर यह ठीक नहीं। उपर्युक्त प्रमारणों से सिद्ध किया जा चुका है कि भगवान् महावीर का जन्मस्थान कुडपुर के अन्तर्गत क्षत्रियकुड ग्राम है, मगध या अंग देश नहीं । इन सब उल्लेखों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भगवान् महावीर का जन्म मगध या अंग देश में न हो कर विदेह में हुआ था। कछ विद्वानों का कहना है कि महावीर के जन्मस्थान के सम्बन्ध में शास्त्र के जो उल्लेख हैं, उनमें कडपुर शब्द ही पाया है, क्षत्रियकंड नहीं। प्रावश्यक नियुक्ति में कडपुर या कंडग्राम का उल्लेख है और प्राचारांग सत्र में १ (क) तस्सणं माहणकुडग्गामस्स एयरस्स पच्चत्थिमेणं एत्थरणं खत्तियकुडग्गामे नाम नयरे होत्या । भ० ६।३३ । सूत्र ३८३ । पत्र ४६१ (ख) जाव एगाभिमुहे खत्तियकुंडग्गामं नयरं मझमझेणं निगच्चइ, निगच्छित्ता जेणेव माहरणकुंगामे नयरे घेणेव बहुसालए पेइए । भ० श० ६।३३ । सूत्र ३८३ । पत्र ४६१ । २ (क) मह चेत्तसुद्ध पक्खस्स, तेरसी पुव्यरत्त कालम्मि हत्युत्तराहिं जामो, कुंडग्गामे महावीरो ॥६१ भा.भा. नि. पृ. २५६ (स) प्रावश्यक नि० ३६४११८० Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [जन्मस्थान क्षत्रियकुडपुर भी आता है । वास्तव में बात यह है कि दोनों स्थानों में कोई मौलिक अन्तर नहीं है । कुण्डपुर के ही उत्तर भाग को क्षत्रियकुड और दक्षिण भाग को ब्राह्मणकड कहा गया है। आचारांग सूत्र से भी यह प्रमाणित होता हैं कि वहाँ दक्षिण में ब्राह्मणकुड सन्निवेश और उत्तर में क्षत्रियक डपुर सन्निवेश था।'क्षत्रियकड में "ज्ञात" क्षत्रिय रहते थे, इस कारण बौद्ध ग्रन्थों में "ज्ञातिक" ग्रंथवा "नातिक" नाम से भी इसका उल्लेख किया गया है। ज्ञातियों की बस्ती होने से इसको ज्ञातग्राम भी कहा गया है। "ज्ञातक" की अवस्थिति 'वज्जी' देश के अन्तर्गत वैशाली और कोटिग्राम के बीच बताई गई है। उनके अनुसार कुडपुर क्षत्रियकुड अथवा "ज्ञातृक" वज्जि विदेह देश के अन्तर्गत था। महापरिनिव्वान सुत्त के चीनी संस्करण में इस नातिक की स्थिति और भी स्पष्ट कर दी गई है। वहाँ इसे वैशाली से सात ली अर्थात् १३ मील दूर बताया गया है। वैशाली आजकल बिहार प्रान्त के मुजफ्फरपुर (तिरहुत) डिविजन में 'वनियां वसाढ़' के नाम से प्रसिद्ध है और वसाढ़ के निकट जो वासुकूड है, वहाँ पर प्राचीन कुडपुर की स्थिति बताई जाती है। उपर्युक्त प्रमाणों और ऐतिहासिक आधारों से यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान् महावीर का जन्म वैशाली के कुडपुर (क्षत्रियकुड) सन्निवेश में हुआ था । यह 'कुडपुर" वैशाली का उपनगर नहीं, किन्तु एक स्वतन्त्र नगर था। . महावीर के मातापिता ravina ज्ञात-वंशीय महाराज सिद्धार्थ भगवान महावीर के पिता और महारानी त्रिशला माता थीं। डॉ० हार्नेल और जैकोबी सिद्धार्थ को राजा न मान कर एक प्रतिष्ठित उमराव या सरदार मानते हैं, जो कि शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर उपयुक्त नहीं जंचता । शास्त्रों में भगवान् महावीर को महान् राजा के कुल का कहा गया है। यदि सिद्धार्थ साधारण क्षत्रिय सरदार मात्र होते तो राजा शब्द का प्रयोग उनके लिए नहीं किया जाता। १ दाहिण माहणकुपुर सन्निवेसामो उत्तर खत्तिय कुडपुर सग्निवेसंसि नायाणं खत्तियाणं सिद्धत्थस्स....।।प्राचा० भावना म० १५ २ (क) Sino Indian Studies vol. I, part 4, page 195, July 1945. (ख) Comparative studies "The parinivvan Sutta and its Chinese version, by Faub. (ग) ली, दूरी नापने का एक पैमाना है । कनिंघम के अनुसार १ ली ११५ मील के बराबर होती है । एन्सियेन्ट जोग्राफी माफ इण्डिया। Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर के माता पिता] भगवान् महावीर ५५६ शास्त्रों में आये हुए सिद्धार्थ के साथ 'क्षत्रिय' शब्द के प्रयोग से सिद्धार्थ को क्षत्रिय सरदार मानना ठीक नहीं, क्योंकि कल्पसूत्र में "तएणं से सिद्धत्थे राया" आदि रूप से उसको राजा भी कहा गया है । इतना ही नहीं, उनके बारे में बताया गया है कि वे मुकुट, कुण्डल आदि से विभूषित "नरेन्द्र" थे। "महावीर चरित्र" में भी "सिद्धत्थो य नरिंदो" ऐसा उल्लेख मिलता है। प्राचीन साहित्य अथवा लोक व्यवहार में नरेन्द्र शब्द का प्रयोग साधारण सरदार या उमराव के लिए न होकर राजा के लिए ही होता आया है। साथ ही सिद्धार्थ के साथ गणनायक आदि राजकीय अधिकारियों का होना भी शास्त्रों में उल्लिखित है । निश्चित रूप से इस प्रकार के अधिकारी किसी राजा के साथ ही हो सकते हैं। दूसरी बात क्षत्रिय का अर्थ गण-कर्म विभाग से तथाकथित वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत आने वाली युद्धप्रिय क्षत्रिय जाति नहीं, अपितु राजा भी होता है । जैसे कि अभिधान चिन्तामणि में लिखा है :-क्षत्रं तु क्षत्रियो राजा, राजन्यो बाहुसंभवः' ।। महाकवि कालिदास ने भी रघुवंश महाकाव्य में राजा दिलीप के लिए, जो क्षत्रिय कुलोद्भव थे, लिखा है : 'क्षतात किल त्रायत इत्युदन:, क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढः ।' वस्तुतः विपत्ति से बचाने वाले के लिए रूढ "क्षत्रिय' शब्द राजा का भी पर्यायवाची हो सकता है, केवल साधारण क्षत्रिय का नहीं: डॉ० हार्नेल और जैकोबी ने सिद्धार्थ को राजा मानने में जो आपत्ति की है, उसका एकमात्र कारण यही दिखाई देता है कि वैशाली के चेटक जैसे प्रमख राजाओं की तरह उस समय उनका विशिष्ट स्थान नहीं था, फिर भी राजा तो वे थे ही । बड़े या छोटे जो भी हों, सिद्धार्थ उन सभी सुख-साधनों से सम्पन्न थे जो कि एक राजा के रूप में किसी को प्राप्त हो सकते हैं। इस तरह सिद्धार्थ को राजा मानना उचित ही है, इसमें किसी प्रकार की कोई बाधा दिखाई नहीं देती। सिद्धार्थ की तरह त्रिशला के साथ भी क्षत्रियाणी शब्द देख कर इस प्रकार उठने वाली शंका का समाधान उपयुक्त प्रमाण से हो जाता है। वैशाली जैसे शक्तिशाली राज्य की राजकुमारी और उस समय के महान प्रतापी राजा चेटक की सहोदरा त्रिशला का किसी साधारण क्षत्रिय से विवाह कर १ अभिधान चिन्तामणि, काण्ड ३, श्लो० ५२७ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [नामकरण दिया गया हो, यह नितान्त प्रसंभव सा प्रतीत होता है । क्षत्रियाणी की तरह श्वेताम्बर, दिगम्बर दोनों परम्परा के ग्रन्थों में देवी रूप में भी त्रिशला का उल्लेख किया गया है। अतः उसे रानी समझने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये । महावीर चरियं', त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र और दशभक्ति ग्रन्थ' इसके लिए द्रष्टव्य हैं। सिद्धार्थ को इक्ष्वाकुवंशी और गोत्र से काश्यप कहा गया है। कल्पसूत्र और प्राचारांग में सिद्धार्थ के तीन नाम बताये गये हैं : (१) सिद्धार्थ, (२) श्रेयांस और (३) यशस्वी। त्रिशला वासिष्ठ गोत्रीयाथीं, उनके भी तीन नाम उल्लिखित हैं-(१) त्रिशला, (२) विदेहदिन्ना और (३) प्रियकारिणी। वैशाली के राजा चेटक की बहिन होने से ही इसे विदेहदिन्ना कहा गया है। ammarkeamerimentatramarwain name नामकरण नामकरण के सम्बन्ध में आचारसंग में निम्नलिखित उल्लेख है-निवत्तदसाहंसि वुक्तंसि सुइभूयंसि विपुलं असणपाणखाइमसाइमं उक्खडावित्ति २ ता मित्तनाइसयणसंबंधिवग्गं उवनिमंतंति, मित्त० उवनिमंतित्ता बहवे समरणमाहरणकिवरणवरिणमगाहिं भिच्छुडग पंडरगाईण विच्छडडंति विग्गोविति विस्सारिणति, दायारेसु दाणं, पज्जभाइंति, विच्छड्डित्ता....."मित्तनाइसयणसंबंधिवग्गं भुजाविति मित्त० भुजावित्ता मित्त० वग्गेण इमेयारूवं नामधिज्जं कारविति-जनो रणं पमिइ इमे कुमारे तिसलाए ख० कुच्छिसि गम्भे आहए तो रणं पमिइ इमं कुलं विपुलणं हिरण्णेणं सुवण्णेणं धणेणं धन्नेणं माणिक्केणं मुत्तिएणं संखसिलप्यवालेणं, अईव अईव परिवड्ढइ, ता होउ णं कुमारे बद्धमारणे। दश दिन तक जन्म-महोत्सव मनाये जाने के बाद राजा सिद्धार्थ ने मित्रों और बन्धुजनों को आमन्त्रित कर स्वादिष्ट भोज्य पदार्थों से उन सबका सत्कार करते हुए कहा-"जब से यह शिश हमारे कुल में पाया है तबसे धन, धान्य, कोष, भण्डार, बल, वाहन प्रादि समस्त राजकीय साधनों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई. १ (क) तस्स घरे तं साहर, तिसला देवीए कुच्छिसि ।५१॥ [महावीर चरियं, पृ. २८) (ख) सिद्धत्थो य नरिंदो, तिसला देवी य रायलोप्रो य ।६। [महावीर चरियं ३३] २ दधार त्रिशला देवी, मुदिता गर्भमद्भुतम् ।३३। देव्या पाश्र्वे च भगवत्प्रतिरूपं निधाय सः ॥५५॥ उवाच त्रिशला देवी, सदने नस्त्वमागमः ।१४१[त्रिषष्टि शलाका, ५० १०, सर्ग २] ३ देव्या प्रियकारिण्यां सुस्वप्नान् संप्रदर्श्य विभुः ।।। [दशभक्ति, पृ० ११६] ४ कल्पसूत्र, १०५।१०६ सूत्र । प्राचारांग भावनाध्ययन ५ (अ) कल्पसूत्र, सूत्र १०३ । प्राचारांग सूत्र, श्रु० २, अ० १५ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामकरण] भगवान् महावीर है, अतः मेरी सम्मति में इसका 'वर्द्धमान" नाम रखना उपयुक्त जंचता है।" उपस्थित लोगों ने राजा की इच्छा का समर्थन किया । फलतः त्रिशलानन्दन का नाम वर्द्ध मान रखा गया । आपके बाल्यावस्था के कतिपय वीरोचित अद्भुत कार्यों से प्रभावित होकर देवों ने गुण-सम्पन्न दूसरा नाम 'महावीर' रखा। ___ त्याग-तप की साधना में विशिष्ट श्रम करने के कारण शास्त्र में आपको 'श्रमण' भी कहा गया है । विशिष्ट ज्ञानसम्पन्न होने से 'भगवान्' और ज्ञात कुल में उत्पन्न होने से 'ज्ञातपुत्र' आदि विविध नामों से भी आपका परिचय मिलता है। भद्रबाहु ने कल्पसूत्र में आपके तीन नाम बताये हैं, यथा :-माता-पिता के द्वारा 'वर्द्धमान', सहज प्राप्त सद्बुद्धि के कारण 'समण' अथवा शारीरिक व बौद्धिक शक्ति से तप आदि की साधना में कठिन श्रम करने से 'श्रमण' और परीषहों में निर्भय-अचल रहने से देवों द्वारा 'महावीर' नाम रखा गया । शिशु जिनेश्वर भ० महावीर के लालन-पालन के लिए पांच सुयोग्य धाय माताओं को नियुक्त किया गया, एक दूध पिलाने वाली, दूसरी प्रभु को स्नानमज्जन कराने वालो, तीसरी उन्हें वस्त्राभूषणों से अलंकृत करने वाली, चौथी उन्हें क्रीड़ा कराने वाली और पाँचवीं प्रभु को एक गोद से दूसरी गोद में बाल-लीलाएँ करवाने वाली धाय । माता त्रिशला महारानी और इन पाँच धाय माताओं के प्रगाढ़ दुलार से ओतप्रोत लालन-पालन और सतर्क देख-रेख में प्रभु महावीर शुक्ल पक्षीया द्वितीया के चन्द्र के समान निर्विघ्न रूप से उत्तरोत्तर इस कारप्र अभिवद्धित होने लगे, मानो गगनचुम्बी गिरिराज की सुरम्य गहन गुहा में पनपा हा कल्पवृक्ष का पौधा बढ़ रहा हो । तीन ज्ञान के धनी शिशु महावीर इस प्रकार उत्तरोत्तर अभिवृद्ध होते हुए स्वतः एक व्यवहार ज्ञान को सँजो लौकिक ज्ञान-विज्ञान में निष्णात हो क्रमशः बाल वय से किशोर वय में और किशोर वय से युवावस्था में प्रविष्ट हुए और अतीव सुखद-सुन्दर शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्धादि से युक्त पाँच प्रकार के मानवीय उत्तम भोगोपभोगों का निस्संग भाव से उपभोग करते हुए विचरण करने लगे। संगोपन और बालक्रीड़ा महावीर का लालन-पालन राजपुत्रोचित्त सुसम्मान के साथ हुआ । इनकी १ कल्पसूत्र, सूत्र १०३ २ कल्पसूत्र, १०४ ३ तो णं समणे भगवं महावीरे पंचधाइपरितुडे........."विन्नाण-परिणय (मित्ते) विरिणयत बालभावे अप्पुस्सुयाई उरालाई माणुस्सगाइं पंचलक्खरणाई कामभोगाई सफरिसरसरूवगन्धाई परियारेमारणे एवं च णं विहरेइ । [प्राचारांग सूत्र, श्रु० २, प्र० १५] Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [संगोपन और सेवा-शुश्रूषा के लिए पांच परम दक्ष धाइयाँ नियुक्त की गई, जो कि अपने-अपने काय को यथासमय विधिवत् निष्ठापूर्वक संपादित करतीं। उनमें से एक का काम दूध पिलाना, दूसरी का स्नान-मंडन कराना, तीसरी का वस्त्रादि पहनाना, चौथी का क्रीड़ा कराना और पांचवीं का काम गोद में खिलाना था। बालक महावीर की बालक्रीड़ाएँ केवल मनोरंजक ही नहीं अपितु शिक्षाप्रद एवं बलवर्द्धक भी होती थीं। एक बार प्राप समवयस्क साथियों के साथ राजभवन के उद्यान में 'संकूली' नामक खेल खेल रहे थे। उस समय इनकी अवस्था पाठ वर्ष के लगभग थी, पर साहस और निर्भयता में आपकी तुलना करने वाला कोई नहीं था। कुमार की निर्भयता देख कर एक बार देवपति शक्र ने देवों के समक्ष उनकी प्रशंसा करते हुए कहा- "भरत क्षेत्र में बालक महावीर बाल्यकाल में ही इतने साहसी और पराक्रमी हैं कि देव-दानव और मानव कोई भी उन्हें पराजित नहीं कर सकता।" इन्द्र के इस कथन पर एक देव को विश्वास नहीं हुआ और वह परीक्षा के लिए महावीर के क्रीड़ा-प्रांगण में पाया। संकुली खेल की यह रीति है कि किसी वृक्ष-विशेष को लक्षित कर सभी कोड़ारत बालक उस ओर दौड़ते हैं । जो बालक सबसे पहले उस वृक्ष पर चढ़ कर उतर पाता है, वह विजयी माना जाता है.और पराजित बालक के कन्धे पर सवार होकर वह उस स्थान तक जाता है जहाँ से दौड़ प्रारम्भ होती है । परीक्षक देव विकट विषधर सर्प का रूप बना कर वृक्ष के तने पर लिपट गया और फूत्कार करने लगा। महावीर उस समय पेड़ पर चढ़े हुए थे। उस भयंकर सर्प को देखते ही सभी बालक डर के मारे इधर-उधर भागने लगे, किन्तु महावीर तनिक भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने भागने वाले साथियों से कहा"तुम सब भागते क्यों हो? यह छोटा सा प्राणी अपना क्या बिगाड़ने वाला है ? इसके तो केवल मह ही है, हम सब के पास तो दो हाथ, दो पैर, एक मख, मस्तिष्क पोर बुद्धि प्रादि बहुत से साधन हैं । प्रायो, इसे पकड़ कर अभी दूर फेंक प्रायें।" । यह सुन कर सभी बच्चे एक साथ बोल उठे-"महावीर, भूल से भी इसको छना नहीं, इसके काटने से प्रादमी मर जाता है।" ऐसा कह कर सब बच्चे वहां से भाग गये। महावीर ने निःशंक भाव से बायें हाथ से सर्प को पकडा पौर रज्जु की तरह उठा कर उसे एक ओर डाल दिया।' १ (क) यहि समं सुकलिकउएण प्रभिरमति। [मा.पू., पृ. २४६ पूर्वभाग] (स) स्मित्वा रमिवोरिक्षप्य, तं विक्षेप क्षितो विभुः । त्रिपु. प., १०१२।१०७ श्लो. Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालक्रीड़ा] भगवान् महावीर महावीर द्वारा सर्प के हटाये जाने पर पुनः सभी बालक वहाँ चले पाये और तिदुसक खेल खेलने लगे। यह खेल दो-दो बालकों में खेला जाता है । दो बालक एक साथ लक्षित वृक्ष की ओर दौड़ते हैं और दोनों में से जो वृक्ष को पहले छू लेता है, उसे विजयी माना जाता है । इस खेल का नियम है कि विजयी बालक पराजित पर सवार होकर मूल स्थान पर प्राता है। परीक्षार्थी देव भी बालक का रूप बना कर खेल को टोली में सम्मिलित हो गया और खेलने लगा। महावीर ने उसे दौड़ में पराजित कर वृक्ष को छू लिया । तब नियमानुसार पराजित बालक को सवारी के रूप में उपस्थित होना पड़ा। महावीर उस पर आरूढ़ होकर नियत स्थान पर प्राने लगे तो देव ने उनको भयभीत करने और उनका अपहरण करने के लिए सात ताड़ के बराबर ऊँचा और भयावह शरीर बना कर डराना प्रारम्भ किया। इस अजीब दृश्य को देख कर सभी बालक घबरा गये परन्तु महावीर पूर्ववत् निर्भय चलते रहे । उन्होंने ज्ञान-बल से देखा कि यह कोई मायावी जीव हमसे वंचना करना चाहता है। ऐसा सोच कर उन्होंने उसकी पीठ पर साहसपूर्वक ऐसा मुष्टि-प्रहार किया कि देव उस प्राघात से चीख उठा और गेंद की तरह उसका फूला हुमा शरीर दब कर वामन हो गया। उस देव का मिथ्याभिमान चूर-चूर हो गया। देव ने बालक महावीर से क्षमायाचना करते हुए कहा-"वर्तमान ! इन्द्र ने जिस प्रकार प्रापके पराक्रम की प्रशंसा की वह अक्षरशः सत्य सिद्ध हुई । वास्तव में आप वीर ही नहीं, महावीर हैं।" इस प्रकार महावीर की वीरता, धीरता और सहिष्णुता बाल्यावस्था से ही अनुपम थी। जीयंकर का प्रतुल बल भगवान महावीर जन्म से ही प्रतुल बली थे। उनके बल की उपमा देते हुए कहा गया है कि-बारह सुभटों का बल एक वृषभ में, वृषभ से दश गुना बल एक अश्व में, अश्व से बारह गुना बल एक महिष में, महिष से पन्द्रह गुना बल एक गज में, पाँच सौ गजों का बल एक केशरीसिंह में, दो हजार सिंहों का बल एक अष्टापद में, दस लाख अष्टापदों का बल एक बलदेव में, बलदेव से दुगना बल एक वासुदेव में, वासुदेव से द्विगुरिणत बल एक चक्रवर्ती में, चक्रवर्ती से लाख गुना बल एक नागेन्द्र में, नागेन्द्र से करोड़ गुना बल एक इन्द्र में और इन्द्र से अनन्त गुना अधिक बल तीर्थंकर की एक कनिष्ठा अंगली में होता है। सचमुच तीर्थकर के बल की तुलना किसी से नहीं की जा सकती। उनका बल १ तस्स तेसु रुक्खेसु जो पढ़मं विलग्गति, जो पढ़मं प्रोलुगति सो चेड़ रूवाणि वाहेति ।। माव० चू० भा० १, पत्र २४६ २ (क) स व्यरंसीवर्धनान्न, यावत्तावन्महोजसा। माहत्य मुष्टिना पृष्ठे, स्वामिना वामनीकृतः । त्रि. पु. च,. १०२ श्लो. २१७ (स) प्राव. पू. १ भा., पृ. २४६ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ यशोदा से जन्म-जन्मान्तर की करणी से संचित होता है । उनका शारीरिक संहनन वज्रऋषभनाराच' और संस्थान समचतुरस्र होता है । ५६४ महावीर और कलाचार्य महावीर जब आठ वर्ष के हुए तब माता-पिता ने शुभ मुहूर्त देख कर उनको अध्ययन के लिये कलाचार्य के पास भेजा । माता-पिता को उनके जन्मसिद्ध तीन ज्ञान और अलौकिक प्रतिभा का परिज्ञान नहीं था । उन्होंने परम्परानुसार पण्डित को प्रथम श्रीफल आदि भेंट किये श्रौर वर्द्धमान कुमार को सामने खड़ा किया | जब देवेन्द्र को पता चला कि महावीर को कलाचार्य के पास ले जाया जा रहा है तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि तीन ज्ञानधारी को अल्पज्ञानी पंडित क्या पढ़ायेगा | उसी समय वे निमेषार्ध में विद्या - गुरु और जनसाधारण को प्रभु की योग्यता का ज्ञान कराने के लिये एक वृद्ध ब्राह्मरण के रूप में वहाँ प्रकट हुए और महावीर से व्याकरण सम्बन्धी अनेक जटिल प्रश्न पूछने लगे । महावीर द्वारा दिये गये युक्तिपूर्ण यथार्थ उत्तरों को सुन कर कलाचार्य सहित सभी उपस्थित जन चकित हो गये । पंडित ने भी अपनी कुछ शंकाएँ बालक महावीर के सामने रखी और उनका सम्यक् समाधान पा कर वह अवाक् रह गया । जब पंडित बालक वर्द्ध मान की ओर साश्चर्य देखने लगा तो वृद्ध ब्राह्मण रूपधारी इन्द्र ने कहा - " पंडितजी ! यह साधारण बालक नहीं, विद्या का सागर और सकल शास्त्रों का पारंगत महापुरुष है ।" जातिस्मरण और जन्म से तीन ज्ञान होने के कारण ये सब विद्याएं जानते हैं । वृद्ध ब्राह्मण ने महावीर के तत्काल प्रश्नोत्तरों का संग्रह कर 'ऐन्द्र व्याकरण' की रचना की । ' महाराज सिद्धार्थ और माता त्रिशला महावीर की इस असाधारण योग्यता को देख कर परम प्रसन्न हुए और बोले - "हमें पता नहीं या कि हमारा कुमार इस प्रकार का 'गुरूणां गुरु: है ।” यशोदा से विवाह बाल्यकाल पूर्ण कर जब वर्द्धमान युवावस्था में आये तब राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिशला ने वर्द्धमान महावीर के मित्रों के माध्यम से उनके सम्मुख विवाह का प्रस्ताव रखा । राजकुमार महावीर भोग- जीवन जीना नहीं चाहते थे क्योंकि वे सहज-विरक्त थे । अतः पहले तो उन्होंने इस प्रस्ताव का विरोध किया १ अन्नया अधित ट्ठवासजाते "तप्पभिति च गं ऐद्रं व्याकरणं संवृत्त, [ श्रावश्यक चूरिंग, भाग १, पृ० २४८ ] Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह] भगवान् महावीर ५६५ और अपने मित्रों से कहा-"प्रिय मित्रो! तुम विवाह के लिये जो आग्रह कर रहे हो, वह मोह-वृद्धि का कारण होने से भव-भ्रमण का हेतु है । फिर भोग में रोग का भय भी भुलाने की वस्तु नहीं है। माता-पिता को मेरे वियोग का दुःख न हो, इसलिये दीक्षा लेने हेतु उत्यूक होते हुए भी मैं अब तक दीक्षा नहीं ले रहा हूँ।" जिस समय वर्द्धमान और उनके मित्रों में परस्पर इस प्रकार की बात हो ही रही थी तभी माता त्रिशलादेवी वहां आ पहुंची । भगवान् ने खड़े होकर माता के प्रति आदर प्रशित किया। माता त्रिशला ने कहा-"वद्ध मान ! मैं जानती हूं कि तुम भोंगों से विरक्त हो, फिर भी हमारी प्रबल इच्छा है कि तुम एक बार योग्य राज-कन्या से पाणिग्रहण करो।" अन्ततोगत्वा गाता-पिता के अनवरत प्रबल अाग्रह के समक्ष महावीर को झुकना पड़ा और वसतपुर के महासामन्त समरवीर की सर्वगुण सम्पन्ना पुत्री यशोदा' के साथ शुभ-मुहूर्त में उनका पाणिग्रहण सम्पन्न हुआ । संच है, भोगकर्म तीर्थंकर को भी नहीं छोडते। गर्भकाल में ही माता के स्नेहाधिक्य को देख कर महावीर ने अभिग्रह कर रखा था कि जब तक माता-पिता जीवित रहेंगे, वे दीक्षा ग्रहण नहीं करेंगे। माता-पिता को प्रसन्न रखने के इस अभिग्रह के कारण ही महावीर का विवाहबन्धन में बंधना पड़ा। भगवान महावीर के विवाह के सम्बन्ध में कुछ विद्वान शंकाशील हैं। श्वेताम्बर परम्परा के पागम पाचारांग, कल्पसूत्र और आवश्यक नियुक्ति आदि सभी ग्रन्थों में विवाह होने का उल्लेख है। पर दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में यह स्वीकृत नहीं है, पर माता-पिता का विवाह के लिये अत्याग्रह और विभिन्न राजाओं द्वारा अपनी कन्याओं के लिये प्रार्थना एवं जितशत्रु की पुत्री यशोदा के लिये साननय निवेदन उन ग्रन्थों में भी मिलता है। भगवान महावीर विवाहित थे या नहीं, इस शंका का आधार शास्त्र में प्रयुक्त 'कुमार' शब्द है। उसका सही अर्थ समझ लेने पर समस्या का सरलता से समाधान हो सकता है । दोनों परम्पराओं में वासुपूज्य, मल्ली, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर इन पांच तीर्थंकरों को 'कुमार प्रवजित' कहा है। कुमार का अर्थ प्रकृत-राज्य और १ उम्मुक्त बालभावो कमेण अह जोव्वणं अणुपत्तो । भागसमत्यं गाउं, अम्मापियरो उ वीरस्स । ७८ तिहि रिक्खम्मि पसत्थे, महन्त सामंत कुलप्पसूयाए। कारेन्ति पाणिग्गहणं, जसोयवर रायकण्णाए । ७६ [प्रा० नि० भा०, पृ० २५६] Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [माता-पिता का अविवाहित दोनों मान लिया जाय जैसा कि एक एकविंशतिस्थान प्रकरण' की टीका में लिखा है, तो सहज ही समाधान हो सकता है। दिगम्बर परम्परा के तिलोयपन्नत्ती, हरिवंशपुराण और पद्मपुराण में भी पांच तीर्थंकरों के कुमार रहने और शेष तीर्थंकरों के राज्य करने का उल्लेख मिलता है। लोक प्रकाश में स्पष्ट रूप में लिखा है कि मल्लिनाथ और नेमिनाथ के भोग-कर्म शेष नहीं थे, अत: उन्होंने बिना विवाह किये ही दीक्षा ग्रहण की। 'कुनार' शब्द का अर्थ, एकान्ततः कुपारा-अविवाहित नहीं होता। कुमार का अर्थ युवराज, राजकुमार भी होता है इसीलिये आवश्यक नियुक्ति दीपिका में 'नय इच्छिमाभिसेया, कुमार वासंमि पव्वइया' अर्थात् राज्याभिषेक नहीं करने से कुमारवास में प्रव्रज्या लेना माना है। माता-पिता का स्वर्गवास राजसी भोग के अनुकूल साधन पाकर भी ज्ञानवान् महावीर उनसे अलिप्त थे । वे संसार में रहकर भो कमलपत्र की तरह निर्लेप थे। उनके संसारवास का प्रमुख कारण था-कृतकर्म का उदयभोग और बाह्य कारण था-मातापिता का अतुल स्नेह । महावीर के माता-पिता भगवान् पार्श्वनाथ के श्रमणोपासक थे। बहत वर्षों तक श्रावक-धर्म का परिपालन कर जब अन्तिम समय निकट समझा तो उन्होंने प्रात्मा की शुद्धि के लिए अर्हत्, सिद्ध एवं प्रात्मा की साक्षी से कृत पाप के लिए पश्चात्ताप किया। दोषों से दूर हट कर यथायोग्य प्रायश्चित्त स्वीकार किया। डाभ के संथारे पर बैठ कर चतुर्विध पाहार के १ एकविंशतिस्थान प्रकरण में कहा है : 'वसुपुज्ज, मल्ली, नेमी, पासो, वीरो कुमार पव्वइया । रज्जं काउं सेसा, मल्ली नेमी अपरिणीया ।' ३४ । वासुपूज्य, मल्ली, नेमिनाथ. पार्श्वनाथ और महावीर कुमार अवस्था में प्रवजित हुए । शेष तीर्थंकरों ने राज्य किया। मल्लीनाथ और नेमिनाथ ये दो अविवाहित प्रवजित हुए। २ कुमाराः निर्गता गेहात्, पृथिवीपतयोऽपरे ।। पद्म पु०, २०६७ ३ प्रभोगफलकर्माणो, मल्लिनेमिजिनेश्वरौ । निरीयतुरनुद्वाही, कृतोद्वाहापरे जिनाः ।१००४। लोक० प्रकाश, सर्ग ३२, पृष्ठ ५२४ ४ (क) कुमारो युवराजेऽश्ववाहके बालके शुके । शब्दरत्न सम० कोष, पृ० २६८ (ख) युवराजः कुमारो भर्तृ दारकः । अभि० चि०, काण्ड २, श्लोक २४६, पृ० १३६ (ग) कुमार-सन, बॉय, यूथ, ए बॉय बिलो फाइव, ए प्रिन्स । प्राप्टे संस्कृत, इंग्लिश डि०, पृ० ३६३। (घ) युवराजस्तु कुमारो भर्तृ दारकः ।। अमरकोष, कांड १, नाट्यवर्ग, श्लोक १२, पृ० ७५ । Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गवास भगवान् महावीर ५६७ त्याग क साथ उन्होंने संथारा ग्रहण किया और तत्पश्चात् अपश्चिम मरणान्तिक संलेखना से झूषित शरीर वाले वे काल के समय में काल कर अच्युत कल्प (बारहवें स्वर्ग) में देव रूप से उत्पन्न हए ।' वे स्वर्ग से च्युत हो महाविदेह में उत्पन्न होंगे और सिद्धि प्राप्त करेंगे । भ० महावीर के माता-पिता के स्वर्गारोहण के सम्बन्ध में आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के १५ वें अध्ययन में जो उल्लेख है, वह इस प्रकार "समरणस्स रणं भगवो महावीरस्स अम्मापियरो पासावचिज्जा समणोवासगा यावि होत्था। ते णं बहूई वासाइं समणोवासगपरियागं पालइत्ता छण्हं जीवनिकायारणं सारक्खरणनिमित्तं पालोइत्ता निंदिता गरिहित्ता पडिकम्मित्ता अहारिहं उत्तरगणपायच्छित्ताई पडिवज्जित्ता कुससंथारगं दुरूहिता भत्तं पच्चक्खायंति २ अपच्छिमाए मारणंतियाए संलेहणाए झूयिसरीरा कालमासे कालं किच्चा तं सरीरं विप्पजहित्ता अच्चए कप्पे देवत्ताए उववन्ना,, तो रणं आउक्खएणं, भवक्खएणं, टिइक्खएणं चुए चइत्ता महाविदेहे वासे चरमेणं उस्सासेणं सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खारणमंतं करिस्संति । त्याग की ओर माता-पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर महावीर की गर्भकालीन प्रतिज्ञा पूर्ण हो गई। उस समय वे २८.वर्ष के थे। प्रतिज्ञा पूर्ण होने से उन्होंने अपने ज्येष्ठ भ्राता नन्दिवर्धन आदि स्वजनों के सम्मुख प्रव्रज्या की भावना व्यक्त की। किन्तु नन्दिवर्धन इस बात को सुनकर बहुत दुःखी हुए और बोले-“भाई ! अभी माता-पिता के वियोगजन्य दुःख को तो हम भूल ही नहीं पाये कि इसी बीच तुम भी प्रव्रज्या की बात कहते हो। यह तो घाव पर नमक छिड़कने जैसा है। अतः कुछ काल के लिए ठहरो, फिर प्रव्रज्या लेना। तब तक हम गत-शोक हो जायं ।"३ भगवान् ने अवधिज्ञान से देखा कि उन सब का इतना प्रबल स्नेह है कि इस समय उनके प्रवजित होने पर वे सब भ्रान्तचित्त हो जायेंगे और कई तो प्राण भी छोड़ देंगे। ऐसा सोच कर उन्होंने कहा-"अच्छा, तो मुझे कब तक ठहरना होगा ?" इस पर स्वजनों ने कहा- "कम से कम अभी दो वर्ष तक तो १ समणस्सणं भगवो महावीरस्स अम्मापियरो पासावच्चिज्जा, समणोवासगा यावि होत्था ।.........."अच्चुएकप्पे देवताए उववण्णा ।..........."महाविदेहवासे चरिमेणं । [प्रावश्यक चू., १ भा. पृ. २४६ ] २ अच्छह कंचिकालं, जाव अम्हे विसोगाणि जाताणि । प्राचा. २०१५ । (भावना) Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [त्याग की ठहरना ही चाहिए।" महावीर ने उन सब की बात मान ली और बोले-"इस अवधि में मैं पाहारादि अपनी इच्छानुसार करूगा ।" स्वजनों ने भी सहर्ष यह बात स्वीकार की। ___ दो वर्ष से कुछ अधिक काल तक महावीर विरक्तभाव से घर में रहे. पर उन्होंने सचित्त जल गौर रात्रि-भोजन का उपयोग नहीं किया। ब्रह्मचर्य का भी पालन किया ।' टीकाकार के उल्लेखानुसार महावीर ने इस अवधि में प्राणातिपात की तरह असत्य, कृशील और अदत्त प्रादि का भी परित्याग कर रखा था । ते पाद-प्रक्षालन आदि क्रियाएं भी अचित्त जल से ही करते थे । भूमिशयन करते एवं क्रोधादि से रहित हो एकत्व भाव में लीन रहते ।२ इम प्रकारे एक वर्ष तक वैराग्य की साधना कर प्रभु ने वर्षीदान प्रारम्भ किया। प्रतिदिन एक करोड़ पाठ लाख स्वर्णमुद्राओं का दान करते हए उन्होंने वर्ष भर में तीन अरब अठ्यासी करोड़ एवं अस्सी लाख स्वरर्णमुद्रामों का दान किया । .. तीस वर्ष की प्रायु होने पर ज्ञात-पुत्र महावीर की भावना सफल हुई । उस समय लोकान्तिक देव अपनी नियत मर्यादा के अनुसार आये और महावीर को निम्न प्रकार से निवेदन करने लगे.-"भगवन् ! मुनि दीक्षा ग्रहण कर समस्त जीवों के हितार्थ धर्मतीर्थ का प्रवर्तन कीजिये।" भगवान् महावीर ने भी अपने ज्येष्ठ भ्राता नन्दिवर्धन और चाचा सुपार्श्व आदि की अनुमति प्राप्त कर दीक्षा की तैयारी की। नन्दिवर्धन ने भगवान् के निष्क्रमण की तैयारी के लिए अपने कौटुम्बिक पुरुषों को आदेश दिया-"एक हजार आठ सुवर्ण, रूप्य आदि कतश तैयार करो।" आचारांग सूत्र के अनुसार श्रमरण भगवान् महावीर के अभिनिष्क्रमण के अभिप्राय को जान कर चार प्रकार के देव और देवियों के समूह अपने-अपने विमानों से सम्पूर्ण ऋद्धि और कान्ति के साथ आये और उत्तर क्षत्रियकुण्ड सन्निवेश में उतरे। वहाँ उन्होंने वैक्रिय शक्ति से सिंहासन की रचना की । सबने मिल कर महावीर को सिंहासन पर पूर्वाभिमख बैटाया। उन्होंने शतपाक एवं सहस्रपाक तेल से महावीर का अभ्यंगन किया और स्वच्छ जल से मज्जन १ (क) अविसाहिए दुवेवासे सीतोदगमभोच्चा रिणक्खंते, अफासुगं प्राहारं राइसत्तच ___अरगाहारेंतो अविसाहिए दुते वासे, सीतोदं प्रभोच्चा रिएक्खते [प्राव. चुणि. पृ.२४६] (ख) प्राचा,, प्र. ६, अ, ११। २ (क) प्राचा. प्र. टीका, पृ. २७५ । समिति (ख) बंभयारी प्रसंजमवावाररहिलो ठिमो, ण य फासुगेण विण्हातो, हत्यपादसोयणं तु फासुगेगा प्रायमणं च ।......"णय बंधवेहिंवि प्रतिणेहं कतवं । प्राव. चू. १, पृ. २४६ Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोर] भगवान् महावीर ५६६ कराया । गन्धकाषाय वस्त्र से शरीर पोंछा और गौशीर्ष चन्दन का लेपन किया । भार में हल्के और मूल्यवान् वस्त्र एवं आभूषण पहनाये । कल्पवृक्ष की तरह रामलंकृत कर देवों ने वर्द्धमान ( महावीर ) को चन्द्रप्रभा नामक शिविका में प्रारूढ़ किया । मनुष्यों, इन्द्रों और देवों ने मिल कर शिविका को उठाया । राजा नंदिवर्धन गजारूड़ हो चतुरंगिरणी सेना के साथ भगवान् महावीर के पीछे-पीछे चल रहे थे । प्रभु की पालकी के आगे घोड़े, दोनों ओर हाथी और पीछे रथ चल रहे थे । इस प्रकार विशाल जन समूह से घिरे प्रभु क्षत्रियकुण्ड ग्राम के मध्यभाग में होते हुए ज्ञातृ- खण्ड- उद्यान में आये और अशोक वृक्ष के नीचे शिविका से उतरे । आभूषणों एवं वस्त्रों को हटा कर प्रभु ने अपने हाथ से पंच मुष्टि लोच किया । वैश्रमरण देव ने हंस के समान श्वेत वस्त्र में महावीर के वस्त्रालंकार ग्रहण किये । शक्रेन्द्र ने विनयपूर्वक वज्रमय थाल में प्रभु के लु ंचित केश ग्रहण किये तथा "अनुजानासि " कह कर तत्काल क्षीर सागर में उनका विसर्जन किया । 1 दीक्षा उस समय हेमन्त ऋतु का प्रथम मास, मृगशिर कृष्णा दशमी तिथि का समय, सुव्रत दिवस, विजय नामक मुहूर्त और चतुर्थ प्रहर में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र था । ऐसे शुभ समय में निर्जल बेले की तपस्या से प्रभु ने दीक्षा ग्रहण की। शकेन्द्र के प्रदेश से दीक्षा प्रसंग पर बजने वाले वाद्य भी बन्द हो गये और सर्वत्र शान्ति छा गई । " प्रभु ने देव- मनुष्यों की विशाल परिषद् के समक्ष सिद्धों को नमस्कार करते हुए यह प्रतिज्ञा की -- "सव्वं मे प्रकरणिज्जं पावं कम्मं" । अब से मेरे लिए सब पाप कर्म प्रकरणीय हैं, अर्थात् मैं आज से किसी भी प्रकार के पापकार्य में प्रवृत्ति नहीं करूंगा । यह कहते हुए प्रभु ने सामायिक चारित्र स्वीकार किया। उन्होंने प्रतिज्ञा की - "करेमि सामाइयं सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि " । आज से सम्पूर्ण सावद्यकर्म का तीन करण और तीन योग से त्याग करता हूं।" जिस समय प्रभु ने यह प्रतिज्ञा ग्रहण की, उस समय देव-मनुष्यों की सम्पूर्ण परिषद् चित्रलिखित सी रह गई । सभी देव और मनुष्य शान्त एवं निर्निमेष - नेत्रों से उस नयनाभिराम एवं अन्तस्तलस्पर्श दृश्य को देख रहे थे, जो राग पर त्याग की विजय के रूप में उन सबके सामने प्रत्यक्ष था । १ (क) दिखी मणुस्सघोसो, तुरियरिणरणाम्रो य सक्कवयणेणं ।' farपामेव णिलुक्को, जाहे पडिवज्जइ चरित ं |१| प्राचा. भा. । (ख) प्रावश्यक चूरिंग, प्रथम भाग, पृ० २६२ Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [प्रथम उपसर्ग .. महावीर के सामने सुख-साधनों की कोई कमी नहीं थी और न कमी थी चाहने वालों की, प्यार और सत्कार करने वालों की, फिर भी सब कुछ ठुकरा कर वे साधना के कंटकाकीर्ण पथ पर बढ़ चले। चारित्र ग्रहण करते ही भगवान् को मनःपर्यवज्ञान हो गया। इससे ढाई द्वीप और दो समुद्र तक के समनस्क प्राणियों के मनोगत भावों को महावीर जानने लगे। महावीर का अभिग्रह और विहार सबको विदा कर प्रभु ने निम्न अभिग्रह धारण किया : "आज से साढ़े बारह वर्ष पर्यन्त, जब तक केवलज्ञान उत्पन्न न हो, तब तक मैं देह की ममता छोड़ कर रहूंगा, अर्थात् इस बीच में देव, मनुष्य या तियंच जीवों को अोर से जो भी उपसर्ग-कष्ट उत्पन्न होंगे, उनको समभावपूर्वक सम्यक्रूपेण सहन करूंगा।' अभिग्रह ग्रहण के पश्चात् उन्होंने ज्ञातखण्ड उद्यान से विहार किया। उस समय वहाँ उपस्थित सारा जनसमूह जाते हुए को तब तक देखता रहा, जब तक कि वे उनकी आंखों से ओझल नहीं हो गये। भगवान् संध्या के समय मुहूर्त भर दिन शेष रहते कुर्मारग्राम पहुंचे, तथा वहाँ ध्यानावस्थित हो गये। कई प्राचार्यों की मान्यता है कि साधना मार्ग में प्रविष्ट होकर जब भगवान् ने विहार किया तो मार्ग में एक वृद्ध ब्राह्मण मिला, जो वर्षीदान के समय नहीं पहुंच सका था। कुछ न कुछ मिलेगा, इस आशा से वह भगवान के पास पहंचा। भगवान् ने उसकी करुणाजनक स्थिति देख कर कंधे पर रखे हुए देवदृष्य वस्त्र में से प्राधा फाड़ कर उसको दे दिया। कल्पसूत्र मूल या अन्य किसी शास्त्र में प्राधा वस्त्र फाड़कर देने का उल्लेख नहीं है। प्राचारांग और कल्पसूत्र में १३ मास के बाद देवदूष्य का गिरना लिखा है, पर ब्राह्मण को प्राधा देने का उल्लेख नही है। हां, चूरिग टीका आदि में ब्राह्मण को प्राधा देवदूष्य वस्त्र देने का उल्लेख अवश्य मिलता है। प्रथम उपसर्ग और प्रथम पारणा जिस समय भगवान कुर्मारग्राम के बाहर स्थाणु की तरह अचल ध्यानस्थ खड़े थे, उस समय एक ग्वाला अपने बैलों सहित वहाँ पाया। उसने महावीर के १ वारस वासाई वोसटुकाए चियत्त देहे जे केई उवसग्गा समुप्पज्जंति, तं जहा, दिव्वा वा, माणुस्सा वा, तेरिच्छिया वा, ते सव्वे उवसग्गे समुप्पणे समाणे सम्मं सहिस्सामि, खमिस्सामि, अहियासिस्सामि ।। प्राचा०, श्रु० २, अ० २३, पत्र ३६१ । २ तो णं समणस्स भगवनो....... दिवसे मुहूत्तसेसे कुमारगाम समणुपत्ते । [प्राचारांग भावना] Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और प्रथम पारणा] भगवान् महावीर पास बैलों को चरने के लिये छोड़ दिया और गाय दूहने के लिये स्वयं पास के गाँव में चला गया। पशु-स्वभाव के अनुसार बैल चरते-चरते वहां से बहुत दूर कहीं निकल गये । कुछ समय बाद जब ग्वाला लौट कर वहाँ पाया, तो बैलों को वहाँ न देख कर उसने पास खड़े महावीर से पूछा- "कहो, हमारे बैल कहां गये ?' ध्यानस्थ महावीर की अोर से कोई उत्तर नहीं मिलने पर वह स्वयं उन्हें ढूढ़ने के लिये जंगल की ओर चला गया। संयोगवश सारी रात खोजने पर भी उसे बैल नहीं मिले। कालान्तर में बैल यथेच्छ चर कर पुनः महावीर के पास आकर बैठ गये । बैल नहीं मिलने पर उद्विग्न ग्वाला प्रातःकाल वापिस महावीर के पास आया और अपने बैलों को वहां बैठे देख कर आग बबूला हो उठा। उसने सोचा कि निश्चय ही इसने रात भर बैलों को कहीं छिपा रखा था। इस तरह महावीर को चोर समझ कर वह उन्हें बैल बांधने की रस्सी से मारने दौड़ा। इन्द्र, जो भगवान की प्राथमिक चर्या को जानना चाहता था, उसने जब यह देखा कि ग्वाला भगवान् पर प्रहार करने के लिये झपट रहा है, तो वह भगवान् के रक्षार्थ निमेषार्ध में ही वहां आ पहुंचा। ग्वाले के उठे हुए हाथ देवी प्रभाव से उठे के उठे ही रह गये। इन्द्र ने ग्वाले के सामने प्रकट होकर कहा"अो मुर्ख ! त क्या कर रहा है ? क्या तू नहीं जानता कि ये महाराज सिद्धार्थ के पुत्र वर्द्धमान महावीर हैं ? आत्मकल्याण के साथ जगत् का कल्याण करने हेतु दीक्षा धारण कर साधना में लीन हैं ।"१ इस घटना के बाद इन्द्र भगवान् से अपनी सेवा लेने की प्रार्थना करने लगा। परन्तु प्रभु ने कहा-"अर्हन्त केवलज्ञान और सिद्धि प्राप्त करने में किसी की सहायता नहीं लेते जिनेन्द्र अपने बल से ही केवलज्ञान प्राप्त करते हैं।" फिर भी इन्द्र ने अपने संतोषार्थ मारणान्तिक उपसर्ग टालने के लिये सिद्धार्थ नामक व्यन्तर देव को प्रभु की सेवा में नियुक्त किया और स्वयं भगवान् को वन्दन कर चला गया । दूसरे दिन भगवान् वहाँ से विहार कर कोल्लाग सन्निवेश में आये और वहां बहुल नाम के ब्राह्मण के घर घी और शक्कर से मिश्रित परमान्न (खीर) १ त्रि० श० पु० च०, १०।३।१७ से २६ श्लो० २ (क) प्राव० चू० १, पृ० २७० । सक्को पडिगतो, सिद्धत्थठितो । (ख) नापेक्षां चक्रिरेऽर्हन्तः पर साहायिक क्वचित् । २६ केवलं केवलज्ञानं, प्राप्नुवन्ति स्ववीर्यतः । स्ववीर्येणैव गच्छन्ति, जिनेन्द्राः परमं पदम् । ३१ । त्रि० श० पु० च०, १०।३।२६ से ३३ । Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ भगवान् महावीर उन्होंने तप का प्रथम पारखा किया ।' 'अहो दानमहो दानम्' के दिव्यघोष के साथ देवगरण ने नभामण्डल से पंच- दिव्यों की वर्षा कर दान की महिमा प्रकट की । ५७२ भगवान् महावीर की साधना श्राचारांगसूत्र और कल्पसूत्र में महावीर की साधना का बहुत विस्तृत वर्णन करते हुए लिखा गया है कि दीक्षित होकर महावीर ने अपने पास देवदूष्य वस्त्र के अतिरिक्त कुछ नहीं रखा । लगभग तेरह मास तक वह वस्त्र भगवान् के कंधे पर रहा। तत्पश्चात् उस वस्त्र के गिर जाने से वे पूर्णरूपेण ग्रचल हो गये । अपने साधनाकाल में वे कभी निर्जन झोंपड़ी, कभी कुटिया, कभी धर्मशाला या प्याऊ में निवास करते थे । शीतकाल में भयंकर से भयंकर ठंड पड़ने पर भी वे कभी बाहुनों को नहीं समेटते थे ! वे नितान्त सहज मुद्रा में दोनों हाथ फैलाये विचरते रहे । शिशिरकाल में जब जोर-जोर से सनसनाता हुआ पदन चलता, कड़कड़ाती सर्दी जब शरीर को ठिठुरा कर असह्य पीड़ा पहुंचाती, उस समय दूसरे साधक शीत से बचने हेतु गर्म स्थान की गवेषणा करते, गर्म वस्त्र बदन पर लपेटते और तापस आग जला कर सर्दी से बचने का प्रयत्न करते, परन्तु श्रमण भगवान् महावीर ऐसे समय में भी खुले स्थान में नंगे खड़े रहते और सर्दी से बचाव की इच्छा तक भी नहीं करते । खुले शरीर होने के कारण सर्दी-गर्मी के अतिरिक्त उनको दंश, मशक श्रादि के कष्ट एवं अनेक कोमल तथा कठोर स्पर्श भी सहन करने पड़ते । निवासप्रसंग में भी, जो प्रायः शून्य स्थानों में होता, प्रभु को विविध उपसर्गों का सामना करना पड़ता । कभी सर्पादि विषैले जन्तु और काक, गीध प्रादि तीक्ष्ण चञ्चु वाले पक्षियों के प्रहार भी सहन करने पड़ते । कभी-कभी साधनाकाल में दुष्ट लोग उन्हें चोर समझ कर उन पर शस्त्रों से प्रहार करते, एकान्त में पीटते और अत्यधिक तिरस्कार करते । कामातुर नारियाँ उन्हें भोग- भावना से विमुख देख विविध उपसर्ग देतीं, किन्तु उन सारी बाधाओं और उपसर्गों के बीच भी प्रभु समभाव से अचल, शान्त और समाधिस्थ रहते, कभी किसी प्रकार से मन में उद्वेग नहीं लाते और रात-दिन समाधिभाव १ (ग) प्राचारांग द्वितीय भावना ॥ (ख) बीय दिवसे छट्ट पाल्लरगए कोल्लाए सन्निवेसे घयमहुसंजुत्तणं परमन्नेणं बहुलेण माहणेण पडिलाभितो, पंच दिव्वा । प्राव० ० २७० पृ० । २ प्रा० प्र०, ६।१।४५ Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७३ की साधना भगवान् महावीर से ध्यान करते रहते। जहाँ भी कोई स्थान छोड़ने के लिये कहता, सहर्ष वहाँ से हट जाते थे । साधनाकाल में महावीर ने प्राय: कभी नींद नहीं ली, दर्शनावरणीय कर्म के उदय से जब उन्हें निद्रा सताती तो वे खड़े हो जाते अथवा रात्रि में कुछ समप चंक्रमण कर नींद को भगा देते थे। इस प्रकार प्रतिक्षण, प्रतिपल जागृत रह कर वे निरन्तर ध्यान, चिन्तन और कायोत्सर्ग में रमण करते । विहार के प्रसंग में प्रभु कभी अगल-बगल में या मुड़कर पीछे की ओर भी नहीं देखते । मार्ग में वे किसी से बोलते नहीं थे । क्षुधा-शान्ति के लिये वे कभी आधाकर्मी या अन्य सदोष आहार ग्रहण नहीं करते थे। लाभालाभ में समभाव रखते हुए वे घर-घर भिक्षाचर्या करते । महल, झोंपड़ी या धनी-निर्धन का उनकी भिक्षाचर्या में कोई भेद-भाव नहीं होता था। साथ ही आहार के लिये वे कभी किसी के आगे दीन-भाव भी नहीं दिखाते थे। सुस्वादु पदार्थों की आकांक्षा न करते हुए अवसर पर जो भी रूखा-सूखा ठंडा-बासी, उड़द, सूखा भात, थंथ-बोर की कुट्टी आदि आहार मिल जाता उसे वे निस्पृह भाव से ग्रहण कर लेते।' शरीर के प्रति महावीर की निर्मोह भावना बड़ी आश्चर्योत्पादक थी। वे न सिर्फ शीतातप की ही उपेक्षा करते थे बल्कि रोग उत्पन्न होने पर भी कभी औषधसेवन नहीं करते थे । अाँख में रज-करण आदि के पड़ जाने पर भी वे उसे निकालने की इच्छा नहीं रखते थे। कारणवश शरीर खुजलाने तक का भी वे प्रयत्न नहीं करते थे। इस रह देह के ममत्व से अत्यन्त ऊपर उठ कर वे संदेह होते हुए भी देह मुक्त से, विदेवत् प्रतीत होते थे। दीक्षा के समय जो दिव्य सुगन्धित वस्त्र और विलेपन उनके शरीर पर थे, उनको उत्कट सुवास-सुगन्ध से आकृष्ट होकर चार मास तक भ्रमर आदि सुरभिप्रेमी कीट उनके शरीर पर मँडराते रहे और अपने तीक्ष्ण दंश से पीड़ा पहुंचाते रहे, मांस को नोचते रहे, कीड़े शरीर का रक्त पीते रहे, पर महावीर ने कभी उफ तक नहीं किया और न उनका निवारण ही किया। वस्तुतः साधना की ऐसी अनुपम सहिष्णुता का उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है। साधना का प्रथम वर्ष 'कोल्लाग' सनिवेश से विहार कर भगवान महावीर 'मोराक' सन्निवेश पधारे । वहाँ का 'दूइज्जतक' नाम के पाषंडस्थों के आश्रम का कुलपति महाराज सिद्धार्थ का मित्र था। महावीर को आते देख कर वह स्वागतार्थ सामने आया १ अविसूइयं वा, सुक्कं वा सीयपिडं पुराण कुम्मासं । अदुवुकस पुलागं वा, [प्राचारांग भा० ४] Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [साधना का और उनसे वहाँ ठहरने की प्रार्थना करने लगा। उसकी प्रार्थना को मान देकर महावीर ने रात्रिपर्यन्त वहाँ रहना स्वीकार किया। दूसरे दिन जब महावीर वहाँ से प्रस्थान करने लगे तो कुलपति ने भावपूर्ण प्राग्रह के साथ कहा-"यह प्राश्रम दूसरे का नहीं, आपका ही है, अतः वर्षाकाल में यहीं रहें तो बहुत अच्छा रहेगा।" कुलपति की प्रार्थना को स्वीकार करते हुए भगवान् कुछ समय के लिये आसपास के ग्रामों में घूम कर पुनः वर्षावास के लिये वहीं पा गये और वहीं एक पर्णकुटी में रहने लगे। महावीर के हृदय में प्राणिमात्र के लिये मैत्री-भावना थी। किसी का कष्ट देख कर उनका मन दया से द्रवित हो जाता था। यथासंभव किसी को किसी प्रकार का कष्ट न होने देना, यह उनका अटल संकल्प था । संयोगवश उस वर्ष पर्याप्त रूप से वो नहीं होने के कारण कृषि तो दरकिनार, घास, दूब, वल्लरी, पत्ते आदि तक भी अंकुरित नहीं हुए। परिणामतः भूखों मरती गायें आश्रम की झोंपड़ियों के तृण खाने लगीं। अन्यान्य कुटियों में रहने वाले परिव्राजक गायों को भगा कर अपनी-अपनी झोंपड़ी की रक्षा करते, पर महावीर सम्पूर्ण सावध कर्म के त्यागी और निःस्पृह होने के कारण सहज भाव से ध्यान में खड़े रहे। उनके मन में न कुलपति पर राग था और न गायों पर द्वेष । वे पूर्ण निर्मोही थे । किसी को पीड़ा पहुंचाना उनके साधु-हृदय को स्वीकार नहीं हुआ। अतः वे इन बातों की ओर ध्यान न देकर रात-दिन अपने ध्यान में ही निमग्न रहे । ___ जब दूसरे तापसों ने कुलपति से कुटी की रक्षा न करने के सम्बन्ध में महावीर की शिकायत की तो मधुर उपालंभ देते हुए कुलपति ने महावीर से कहा- "कुमार ! ऐसी उदासीनता किस काम की? अपने घोंसले की रक्षा तो पक्षी भी करता है,फिर आप तो क्षत्रिय राजकुमार हैं । क्या आप अपनी झोंपड़ी भी नहीं सँभाल सकते ?" महावीर को कुलपति की बात नहीं जंची । उन्होंने सोचा-"मेरे यहां रहने से पाश्रमवासियों को कष्ट होता है, कुटी की रक्षा का प्रश्न तो एक बहाना मात्र है । सचेतन प्राणियों की रक्षा को भुला कर क्या में अचेतन कुटी के संरक्षण के लिए ही साधु बना हूँ ? महल छोड़ कर पर्णकुटीर में बसने का क्या मेरा यही उद्देश्य है कि आपद्ग्रस्त जीवों को जीने में बाधा दू? और ऐसा न कर सकतो अकर्मण्य तथा अनुपयोगी सिद्ध होऊं । मुझे अब यहाँ नहीं रहना चाहिये ।" ऐसा सोच कर उन्होंने वर्षाऋतु के पन्द्रह दिन बीत १ (क) ताहे सामी विहरमाणो गतो मोरागं सन्निवेस, तत्थ दूइज्जंतगाणाम पासरत्या - प्राव. चू. उपोद्घात नि., पृ० २७१ (ख) अन्यदा विहरन् स्वामी मोराके सन्निवेशने । [त्रि. श. पु. च., १०१३।४६ से] Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम वर्ष] भगवान् महावीर ५७५ जाने पर वहाँ से विहार कर दिया। उस समय प्रभु ने पाँच प्रतिज्ञाएं' ग्रहण की। यथा : (१) अप्रीतिकारक स्थान में कभी नहीं रहूँगा। (२) सदा ध्यान में ही रहूँगा। (३) मौन रखूगा, किसी से नही बोलूगा । (४) हाथ में ही भोजन करूंगा और (५) गृहस्थों का कभी विनय नहीं करूंगा। मूल शास्त्र में इन प्रतिज्ञाओं का कहीं उल्लेख नहीं मिलता । परम्परा से प्रत्येक तीर्थंकर छद्मस्थकाल तक प्राय: मौन माने गये हैं। प्राचारांग के अनुसार महावीर ने कभी परपात्र में भोजन नहीं किया । परन्तु मलयगिरि ने प्रतिज्ञा से पूर्व भगवान् का गृहस्थ के पात्र में आहार ग्रहण करना स्वीकार किया है। यह शास्त्रीय परम्परा से विचारणीय है । अस्थिग्राम में यक्ष का उपद्रव आश्रम से विहार कर महावीर अस्थिग्राम की ओर चल पड़े। वहाँ पहुँचते-पहुँचते उनको संध्या का समय हो गया। वहाँ प्रभु ने एकान्त स्थान की खोज करते हुए नगर के बाहर शूलपाणि यक्ष के यक्षायतन में ठहरने की अनमति ली। उस समय ग्रामवासियों ने कहा-"महाराज! यहाँ एक यक्ष रहता है, जो स्वभाव से क्रूर है । रात्रि में वह यहाँ किसी को नहीं रहने देता । अतः प्राप कहीं अन्य स्थान में जाकर ठहरे तो अच्छा रहेगा। पर भगवान् ने परीषह १ (क) इमेण तेण पंच अभिग्गहा गहिया..... [प्रा. मलय नि,, पत्र २६८ (१)] (ख) इमेण तेण पंच अभिग्गहा गहिता...... [प्रावश्यक चू., पृ० २७१] (ग) नाप्रीतिमद् गृहे वासः, स्थेयं प्रतिमया सह । न गेहिविनयं कार्यो, मौनं पाणी च भोजनम् ।। [कल्पसूत्र सुबोधा०, पृ० २८८] २ नो सेवई य परवत्थं, परसाए वि से त भुजित्था [प्राचा., ११६१, गा० १६] ३ (क) प्रथमं पारणकं गृहस्थपात्रे बभूव, ततः पाणिपात्रभोजिना मया भवितव्यमित्यभिग्रहो गृहीतः । [प्राव. म. टी., पृ. २६८ (२)] (ख) भगवया पढ़म पारणगे परपत्तमि मुत्तं ।।महावीर चरिय।। Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ जैन धर्म का मौलिग इतिहास [अस्थिग्राम में सहने और यक्ष को प्रतिबोध देने के लिए वहीं ठहरना स्वीकार किया। भगवान् वहाँ एक कोने में ध्यानावस्थित हो गये।' संध्या के समय पपा के लिए पुजारी इन्द्रशर्मा यक्षायतन में पाया । उसने पूजा के बाद सब यात्रियों को वहाँ से बाहर निकाला और महावीर से भी बाहर जाने को कहा, किन्तु वे मौन थे । इन्द्रशर्मा ने वहा होने वाले यक्ष के भयंकर उत्पात की सूचना दी, फिर भी महावीर वहीं स्थिर रहे । अाखिर इन्द्र शर्मा वहाँ से चला गया । रात्रि में अंधकार होने के पश्चात् यक्ष प्रकट हुआ। भगवान् को ध्यानस्थ देख कर वह बोला- "विदित होता है, लोगों के निषेध करने पर भी यह नहीं माना । संभवतः इसे मेरे पराक्रम का पता नहीं है।" इस विचार से उसने भयंकर अट्टहास किया, जिससे सारा वन-प्रदेश कांप उठा। किन्तु महावीर सुमेरु की तरह अडिग बने रहे। उसने हाथी का रूप बना कर महावीर को दाँतों से बुरी तरह गोदा और पैरों से रौंदा तथापि प्रभु किञ्चिन्मात्र भी विचलित नहीं हुए। तत्पश्चात् पिशाच का रूप बना कर उसने तीक्ष्ण नखों व दाँतों से महावीर के शरीर को नोंचा, सर्प बन कर डसा, फिर भी महावीर ध्यान में स्थिर रहे । बाद में उसने महावीर के अाँख, कान, नासिका, शिर, दाँत, नख और पीठ इन सात स्थानों में ऐसी भयंकर वेदना उत्पन्न की कि साधारण प्राणी तो छटपटा कर तत्काल प्राण ही छोड़ देता, पर महावीर सभी प्रकार के कष्टों को शान्त भाव से सहते रहे । परिणामस्वरूप यक्ष हार कर प्रभु के चरणों में गिर पड़ा और अपने अपराध के लिए क्षमा माँगते हुए प्रणाम कर वहाँ से चला गया। रात्रि के अन्त में उसके उपसर्ग बन्द हुए। प्रथम वर्षावास में अस्थिग्राम के बाहर शलपाणि ने उपसर्ग दिये, ४ पहर कुछ कम मुहूर्त भर निद्रा, १० स्वप्न--प्राब० मल और चूणि । भगवती सूत्र में छद्मस्थकाल की अंतिम रात्रि में दश स्वप्नों को देखकर जागृत होना लिखा है, वहां का पाठ इस प्रकार है-'समणे भ० म० छउमत्थ १ अथ ग्राम्यैरनुज्ञाता, बोधार्ह व्यन्तरं विदन् । तदायतनंककोणे, तस्थौ प्रतिमया प्रभुः । [त्रि. श. पु. च, १०३।२१७] २ खोभेठं ताहे पभायसमए सत्तविवं वेयरणं करेति ।। [प्राव. चू, १ भाग, पृ० २७४] ३ चक्रे सर्प सुधाभूते, भूतराट् सप्तवेदनाः ।...... एकापि वेदना मृत्युकारणं प्राकृते नरे । अधिसेहे तु ताः स्वामी, सप्ताऽपियुगपद्भवाः । [त्रि. श. पु. च., १०।३।१३१ से] Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यश का उपद्रव] भगवान् महावीर ५७७ कलियाए अंतिमराइयंसि इमे दस० छद्मस्थकालिकायां अंतिमरात्री, जिसका अर्थ छद्मस्थकाल की अंतिम रात्रि होता है । सं० भगवती सूत्र के अनुसार छद्मस्थकाल की अंतिम रात्रि में ये दशमहास्वप्न देखना प्रमाणित होता है। जैसा कि सत्र में कहा है-समणे भगवं महावीरे छउमत्थकालियाए अंतिम राइयंसि इमे दस सुमिरणा पासित्तारणं पडिबद्ध ....! मूल आगम की भावना को देखते हुए प्राव० जूणि एवं कल्पसूत्र में कथित उपर्युक्त अस्थिग्राम में प्रभु का स्वप्न-दर्शन मेल नहीं खाता । संभव है, प्राचार्यों ने शूलपाणि के रात भर उवसर्ग के बाद निद्रा की बात लिखते 'छउमत्थ कालि. याए' पाठ ध्यान में नहीं रखा है । ना ऐसी कोई उनके सामने परंपरा है । भग० १६।६ उ० सू० १६ । निद्रा और स्वप्न-दर्शन मुहूर्त भर रात्रि शेष रहते-रहते महावीर को क्षण भर के लिए निद्रा आई । प्रभु के साधनाकाल में यह प्रथम तथा अन्तिम निद्रावस्था थी । इस समय प्रभु ने निम्नलिखित दश स्वप्न देखे : (१) एक ताड़-पिशाच को अपने हाथों पछाड़ते देखा । (२) श्वेत पुस्कोकिल (उनकी) सेवा में उपस्थित हुआ । (३) विचित्र वर्ण वाला पुस्कोकिल सामने देखा । (४) देदीप्यमान दो रत्नमालाएँ देखीं। (५) एक श्वेत गौवर्ग सम्मुख खड़ा देखा । (६) विकसित पद्म-कमल का सरोवर देखा । (७) अपनी भुजाओं से महासमुद्र को तैरते हुए देखा। (८) विश्व को प्रकाशित करते हुए सहस्र-किरण-सूर्य को देखा। (६) वैदूर्य-वर्ण सी अपनी आँतों से मानुषोत्तर पर्वत को वेष्टित करते देखा। (१०) अपने आपको मेरु पर आरोहण करते देखा। स्वप्न-दर्शन के पश्चात् तत्काल भगवान की निद्रा खुल गई, क्योंकि निद्राग्रहण के समय भगवान् खड़े ही थे। उन्होंने निद्रावरोध के लिए निरन्तर योग का मोर्चा लगा रखा था, फिर भी उदय के जोर से क्षरण भर के लिए निद्रा आ ही गई। साधनाकालीन यह प्रथम प्रसंग था, जब क्षण भर भगवान् को नींद पाई। यह भगवान के जीवनकाल की अन्तिम निद्रा थी। १ (क) तत्थ सामी देसूणे चत्तारि जामे अतीव परितावितो, पभायकाले मुहूत्तमेत्तं निद्दापमाय गतो। [प्राव. म. प० २७०।१] Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [निमित्तश रा निमित्तज्ञ द्वारा स्वप्न-फल कथन उस गाँव में उत्पल नाम का एक निमित्तज्ञ रहता था। वह पहले भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का श्रमण था, किन्तु संयोगवश श्रमण-जीवन से च्युत हो गया था। उसने जब भगवान महावीर के यक्षायतन में ठहरने की बात सुनी तो अनिष्ट की आशंका से उसका हृदय हिल उठा। प्रातःकाल वह भी पुजारी के साथ यक्षायतन में पहुँचा । वहां पर उसने भगवान् को ध्यानावस्था में अविचल खड़े देखा तो उसके आश्चर्य और प्रानन्द की सीमा न रही। उसने रात में देखे हुए स्वप्नों के फल के सम्बन्ध में प्रभु से निम्न विचार व्यक्त किये : (१) पिशाच को मारने का फल :-आप मोह कर्म का अन्त करेंगे। (२) श्वेत कोकिल-दर्शन का फल :-आपको शुक्लध्यान प्राप्त होगा। (३) विचित्र कोकिल-दर्शन से आप विविध ज्ञान रूप श्रुत की देशना करेंगे। (४) देदीप्यमान दो रत्नमालाएं देखने के स्वप्न का फल निमितज्ञ नहीं जान सका। (५) श्वत गौवर्ग देखने से आप चतुर्विध संघ की स्थापना करेंगे। (६) पद्म-सरोवर विकसित देखने से चार प्रकार के देव आपकी सेवा करेंगे। (७) समुद्र को तैर कर पार करने से आप संसार-सागर को पार करेंगे। (८) उदीयमान सूर्य को विश्व में आलोक करते देखा। इससे आप केवलज्ञान प्राप्त करेंगे। () प्रांतों से मानुषोत्तर पर्वत वेष्टित करने से आपकी कीति सारे मनुष्य लोक में फैलेगी। (१०) मेरु-पर्वत पर चढ़ने से आप सिंहासनारूढ़ होकर लोक में धर्मो - पदेश करेंगे। चौथे स्वप्न का फल निमितज्ञ नहीं जान सका, इसका फल भगवान् ने स्वयं बताया-"दो रत्नमालानों को देखने का फल यह है कि मैं दो प्रकार के धर्म, साधु धर्म और श्रावक धर्म का कथन करूगा।" भगवान् के वचनों को सुनकर निमित्तज्ञ अत्यन्त प्रसन्न हुमा । प्रस्थिग्राम के इस वर्षाकाल में फिर भगवान् को किसी प्रकार का उपसर्ग Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वप्न फल कथन ] भगवान् महावीर ५७६ प्राप्त नहीं हुआ । उन्होंने शान्तिपूर्वक पन्द्रह - पन्द्रह दिन के उपवास आठ बार किये । इस प्रकार यह प्रथम वर्षावास शान्तिपूर्वक सम्पन्न हुआ ।" साधना का दूसरा वर्ष अस्थिग्राम का वर्षाकाल समाप्त कर मार्गशीर्ष कृष्णा प्रतिपदा को भगवान् ने मोराक सन्निवेश की ओर विहार किया । मोराक पधार कर श्राप एक उद्यान में विराजे । वहाँ अच्छंदक नाम का एक अन्यतीर्थी पाखंडी रहता था, जो ज्योतिष से अपनी जीविका चलाता था । सिद्धार्थ देव ने प्रभु की महिमा बढ़ाने के लिए मोराक ग्राम के अधिकारी से कहा - "यह देवार्य तीन ज्ञान के धारक होने के कारण भूत, भविष्यत् और वर्तमान की सब बातें जानते हैं ।" सिद्धार्थ देव की यह बात सब जगह फैल गई और लोग बड़ी संख्या में उस उद्यान में आने लगे, जहां पर कि प्रभु ध्यान में तल्लीन थे । सिद्धार्थ श्राये हुए लोगों को उनके भूत-भविष्यत् काल की बातें बताता । उससे लोग बड़े प्रभावित हुए और इसके परिणामस्वरूप सिद्धार्थ देव सदा लोगों से घिरा रहता । उन लोगों में से किसी ने सिद्धार्थ देव से कहा - "यहाँ प्रच्छंदक नामक एक प्रच्छा ज्योतिषी रहता है ।" इस पर सिद्धार्थ देव ने उत्तर दिया- "वह कुछ भी नहीं जानता । वास्तव में देवार्य ही भूत, भविष्यत् और वर्तमान के सच्चे जानकार हैं ।" सिद्धार्थ व्यन्तरदेव ने अच्छंदक द्वारा किये गये अनेक गुप्त पापों को प्रकट कर दिया। लोगों द्वारा छानबीन करने पर सिद्धार्थ देव द्वारा कही गई सब बातें सच्ची सिद्ध हुईं। इस प्रकार अच्छंदक की 'सारी' पोपलीला की कलई खुल गई और लोगों पर जमा हुआ उसका प्रभाव समाप्त हो गया । भगवान् महावीर के उज्ज्वल तप से प्रभावित जन-समुदाय दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक संख्या में प्रभु की सेवा में आने लगा । अच्छंदक इससे बड़ा उद्विग्न हुआ । अन्य कोई उपाय न देख कर वह भगवान् महावीर के पास पहुंचा और करुण स्वर में प्रार्थना करने लगा"भगवन् ! आप तो सर्वशक्तिमान् और निःस्पृह हैं । आपके यहां विराजने से मेरी आजीविका समाप्तप्राय हो रही है । प्राप तो महान् परोपकारी हैं, फिर मेरा वृत्तिछेद, जो कि वधतुल्य ही माना गया है-वह आप कभी नहीं कर सकते । अतः श्राप मुझ पर दया कर अन्यत्र पधार जायँ ।” १ भाव० चू० पृ० २७४ - २७५ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1८० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [चण्डकौशिक भगदान अच्छंदक के अन्तर के नर्म को जान कर अपनी प्रतिज्ञा के मनसार वहाँ से विहार कर उत्तर वाचाला की ओर पधार गये ।' सुवर्णकला और रूप्यकला नदी के कारण 'वाचाला' के उत्तर और दक्षिण दो भाग हो गये थे। सुवर्णकला के किनारे प्रभु के स्कन्ध का देवदूष्य वस्त्र काँटो में उलझ कर गिर पड़ा। प्रभु ने थोड़ा सा मुड़ कर देखा कि वह वस्त्र कही प्रस्थान में तो नहीं गिर पड़ा है। काँटों में उलझ कर गिरे वस्त्र को देख कर प्रभु ने समझ लिया कि शिष्यों को वस्त्र सुगमता से प्राप्त होंगे। तदनन्तर प्रभ ने उस देवदृष्य को वहीं वोसिरा दिया और स्वयं अचेल हो गये । तत्पश्चात् प्रभु जीवन भर अचेल रहे। देवदृष्य वस्त्र प्राप्त करने की लालसा से प्रभ के पीछे-पीछे घमते रहने वाले महाराज सिद्धार्थ के परिचित ब्राहारण ने उस वस्त्र को उठा लिया और वह अपने घर लौट आया। चण्डकौशिक को प्रतिबोध मोराक सन्निवेश से विहार कर प्रभु उत्तर वाचाला की ओर बढ़ते हुए कनखमल नामक आश्रम पर पहुंचे । उस आश्रम से उत्तर वाचाला पहुंचने के दो मार्ग थे। एक मार्ग आश्रम के बीच से होकर और दूसरा बाहर से जाता था। भगवान् सीधे मार्ग पर चल पड़े। मार्ग में उन्हें कुछ ग्वाले मिले और उन्होंने प्रभु से निवेदन किया-“भगवन् ! जिस मार्ग पर आप बढ़ रहे हैं, उसमें प्राणपहारी संकट का भय है। इस पथ पर आगे की ओर वन में चण्डकौशिक नामक दृष्टिविष वाला भयंकर सर्प रहता है, जो पथिकों को देखते ही अपने विष से भस्मसात कर डालता है। उसकी विषैलो फत्कारों से आकाश के पक्षी भी भूमि पर गिर पड़ते हैं। वह इतना भयंकर है कि किसी को देखते ही जहर बरसाने लगता है। उस चण्डकौशिक के उग्र विष के कारण आसपास के वृक्ष भी सूख कर ठंठ बन चुके हैं। अतः अच्छा होगा कि आप कृपा कर इस मार्ग को छोड़ कर दूसरे बाहर वाले मार्ग से आगे की अोर पधारें।" भगवान् महावीर ने उन ग्वालों की बात पर न कोई ध्यान ही दिया और न कुछ उत्तर ही। कारण करुणाकर प्रभ ने सोचा कि चण्डकौशिक सर्प व्य प्राणी है, अत: वह प्रतिबोध देने से अवश्यमेव प्रतिबद्ध होगा। चण्डकौशिक का उद्धार करने के लिए प्रभु उस छोर संकटपूर्ण पथ पर बढ़ चले। १ अावश्यक चूरिण, पृष्ठ २७७ १ तस्थ सुवण्णकूलाए वुलिणे तं वत्थं कंटियाए लग्गं, ताहे तं थितं तं एतेण पितुततंस. धिज्जातितेरण गहितं । [प्रावश्यक चूणि, पत्र २७७] Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को प्रतिबोध भगवान् महावीर ५८१ वह चण्डकौशिक सर्प अपने पूर्वभव में एक तपस्वी था। एक बार तप के पारण के दिन वह तपस्वी अपने एक शिष्य के साथ भिक्षार्थ निकला । भिक्षार्थ भ्रमण करते समय अज्ञात दशा में उन तपस्वी मुनि के पैर के नीचे एक मण्डकी दब गई। यह देख कर शिष्य ने कहा- "गुरुदेव ! आपके पैर से दब कर मेंढकी मर गई।" उन तपस्वी मुनि ने मार्ग में दबी हई एक दसरी मेंढकी की ओर अपने शिष्य का ध्यान आकर्षित करते हुए कहा-"क्या इस मेंढकी को भी मैंने मारा है ?" शिष्य ने सोचा कि सायंकाल के प्रतिक्रमण के समय गुरुदेव इस पाप की आलोचना कर लेंगे। सायंकाल के प्रतिक्रमण के समय भी तपस्वी मनि अन्य आवश्यक पालोचनाएं कर के बैठ गये और उस मेंढकी के अपने पैर के नीचे दब जाने के पाप की पालोचना उन्होंने नहीं की। शिष्य ने यह सोच कर कि गुरुदेव उस पाप की आलोचना करना भूल गये हैं, अपने गुरु को स्मरण दिलाते हुए कहा--"गुरुदेव! मण्डुकी आपके पैर के नीचे दब कर मर गई, उसकी आलोचना कीजिए।" एक बार में नहीं सुना तो उसने दूसरी व तीसरी बार कहा-"महाराज? मेंढ़की की आलोचना कीजिए।" ___ इस पर वे तपस्वी मुनि क्रुद्ध हो अपने शिष्य को मारने के लिए उठे। क्रोधावेश में ध्यान न रहने के कारण एक स्तम्भ से उनका शिर टकरा गया। इसके परिणामस्वरूप तत्काल उनके प्राण निकल गये और वे ज्योतिष्क जाति में देव रूप में उत्पन्न हए। वहाँ से आयष्य पूर्ण कर उस तपस्वी का जीव कनकखल आश्रम के ५०० तापसों के कुलपति की पत्नी की कुक्षि से बालक के रूप में उत्पन्न हुआ । बालक का नाम कौशिक रखा गया । कौशिक बाल्यकाल से ही बहुत चण्ड प्रकृति का था। उस प्राश्रम में कौशिक नाम के अन्य भी तापस थे इसलिए उसका नाम चण्डकौशिक रखा गया । समय पाकर चण्डकौशिक उस पाश्रम का कुलपति बन गया। उसकी अपने आश्रम के वन के प्रति प्रगाढ़ ममता थी। वह तापसों को उस वन से फल नहीं लेने देता था, अत: तापस उस आश्रम को छोड़ कर इधर-उधर चले गये। उस आश्रम के वन में जो भी गोपालक प्राते उनको वह चण्डकौशिक मार-पीट कर भगा देता। एक बार पास की नगरी 'सेयविया' के राजपुत्रों ने वहां आकर वनप्रदेश को पाकर नष्ट कर दिया। गोपालकों ने चण्डकौशिक के बाहर से लौटने पर उसे सारी घटना सुना दी। चन्द्रकौशिक लकड़ियां डाल कर Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास (चण्डकौशिक का परशु हाथ में लिए क्रुद्ध हो कुमारों के पीछे दौड़ा। तापस को आते देख कर राजकुमार भाग निकले। तापस परशु हाथ में लिए उन कुमारों के पीछे दौड़ा और एक गड्ढे में गिर पड़ा। परशु की धार से तापस चण्डकौशिक का शिर कट गया और तत्काल मर कर वह उसी वन में दृष्टिविष सर्प के रूप में उत्पन्न हुअा। वह अपने पहले के क्रोध और ममत्व के कारण वनखण्ड की रक्षा करने लगा। वह चण्डकौशिक सर्प उस वन में किसी को नहीं आने देता था। आश्रम के बहत से तापस भी उस सर्प के विष के. प्रभाव से जल गये और जो थोड़े बहत बचे थे, वे भी उस आश्रम को छोड़ कर अन्यत्र चले गये । वह चण्डकौशिक महानाग रात-दिन उस सारे वनखण्ड में इधर से उधर चक्कर लगाता रहता था और पक्षी तक को भी वन में देखता तो उसे तत्काल अपने भयंकर विष से जला डालता था। उत्तर विशाला के पथ पर आगे बढ़ते हुए भगवान् महावीर चण्डकौशिक द्वारा उजाड़े गये उस वन में पहुंचे। उन्होंने बिना किसी भय और संशय के उस वन में स्थित यक्षगह के मण्डप में ध्यान लगाया। उनके मन में विश्वप्रेम की विमल गंगा बह रही थी और विमल दृष्टि में अमृत का सागर हिलोरें ले रहा था। प्रभ के मन में सर्प चण्डकौशिक का कोई भय नहीं था। उनके मन में तो चण्डकौशिक का उद्धार करने की भावना थी। अपने रक्षणीय वन की सीमा में महावीर को ध्यानस्थ खड़े देख कर चण्डकौशिक सर्प ने अपनी क्रोधपूर्ण दृष्टि डाली और अतीव क्रुद्ध हो फूत्कार करने लगा। किन्तु भगवान महावीर पर उसकी विषमय दष्टि का किंचिन्मात्र भी प्रभाव नहीं हुआ। यह देख कर चण्डकौशिक को क्रोधाग्नि और भी अधिक प्रचण्ड हो गई। उसने अावेश में प्राकर भगवान महावीर के पैर और शरीर पर जहरीला दंष्टाघात किया । इस पर भी भगवान् निर्भय एवं अडोल खड़े ही रहे । नाग ने देखा कि रक्त के स्थान पर प्रभु के शरीर से दूध सी श्वेत और मधुर धारा बह रही है। साधारण लोग इस बात पर आश्चर्य करेंगे किन्तु वास्तव में आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं है । देखा जाता है कि पुत्रवती माँ के मन में एक बालक के प्रति प्रगाढ़ प्रीति होने के कारण उसके स्तन दूध से भर जाते हैं, रक्त दूध का रूप धारण कर लेता है। Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिबोध] भगवान् महावीर ऐसी दशा में त्रैलोक्यैकमित्र जिन प्रभ के रोम-रोम में प्राणिमात्र के प्रति पूर्ण वात्सल्य हो, उनके शरीर का रुधिर दूध सा श्वेत और मधुर हो जाय तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? इसके उपरान्त तीर्थंकर प्रभु के शरीर का यह एक विशिष्ट अतिशय होता है कि उनका रक्त और मांस गौदुग्ध के समान श्वेत वर्ण का ही होता है। चण्डकौशिक चकित हो भगवान् महावीर की सौम्य, शान्त और मोहक मुखमुद्रा को अपलक दृष्टि से देखने लगा । उस समय उसने अनुभव किया कि भगवान महावीर के रोम-रोम से अलौकिक विश्वप्रेम और शान्ति का प्रमतरस बरस रहा है । चण्डकौशिक के विषमय दंष्ट्राघात से वे न तो उद्विग्न हुए और न उसके प्रति किसी प्रकार का रोष ही प्रकट किया। चण्डकौशिक का क्रोधानल मेघ की जलधारा से बुझे दावानल की तरह शान्त हो गया। चण्डकौशिक को शान्त देख कर महावीर ध्यान से निवृत्त हुए और बोले"उवसम भो चण्डकोसिया ! हे चण्डकौशिक ! शान्त हो, जागृत हो, प्रज्ञान में कहाँ भटक रहा है ? पूर्व-जन्म के दुष्कर्मों के कारण तुम्हें सर्प बनना पड़ा है। अब भी संभलो तो भविष्य नहीं बिगड़ेगा, अन्यथा इससे भी निम्न भव में भ्रमरण करना पड़ेगा।" भगवान के इन सुधासिक्त वचनों को सुन कर 'चण्डकौशिक' जागत हमा, उसके अन्तर्मन में विवेक की ज्योति जल उठी। पूर्वजन्म की सारी घटनाएं चलचित्र की भांति एक-एक कर उसके नेत्रों के सामने नाचने लगीं। वह अपने कृतकर्म के लिए पश्चात्ताप करने लगा । भगवान् की प्रचण्ड तपस्या और निश्छल, विमल करुणा के आगे उसका पाषाणहृदय भी पिघल कर पानी बन गया। उसने शुद्ध मन से संकल्प किया-"अब मैं किसी को भी नहीं सताऊंगा और न प्राज से मरणपर्यन्त कभी अशन ही ग्रहण करूंगा।" कुछ लोग भगवान् पर चण्डकौशिक की लीला देखने के लिए इधर-उधर दूर खड़े थे, किन्तु भगवान् पर सर्प का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा देख कर घे धीरे-धीरे पास आये और प्रभु के अलौकिक प्रभाव को देख कर चकित हो गये। चण्डकौशिक सर्प को प्रतिबोध दे प्रभु अन्यत्र विहार कर गये। सर्प बिल में मह डाल कर पड़ गया। लोगों ने कंकर मार-मार कर उसको उत्तेजित करने का प्रयास किया पर नाग बिना हिले-डुले ज्यों का त्यों पड़ा रहा। उसका प्रचण्ड क्रोध क्षमा के रूप में बदल चुका था । नाग के इस बदले हुए जीवन को देख व सुन कर पाबाल वृद्ध नर-नारी उसकी अर्चा-पूजा करने लगे। कोई उसे दूध शक्कर चढ़ाता तो कोई कुकुम का टीका लगाता । इस तरह मिठास के कारण १ न ही चिंता-सरणं जोइस कोवाहि जामोऽहं । [प्राव. नि., गा. ४६७] Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [विहार और नौकारोहण थोड़े ही समय में बहुत सी चींटियां प्रा-मा कर नाग के शरीर से चिपट गई और काटने लगीं, पर नाग उस असह्य पीड़ा को भी समभाव से सहन करता रहा। इस प्रकार शुभ भावों में प्रायु पूर्ण कर उसने अष्टम स्वर्ग की प्राप्ति की।' भगवान् के उद्बोधन से चण्डकौशिक ने अपने जीवन को सफल बनाया। उसका उद्धार हो गया। विहार और नौकारोहण चण्डकौशिक का उद्धार कर भगवान् विहार करते हुए उत्तर वाचाला पधारे । वहाँ उनका नागसेन के यहाँ पन्द्रह दिन के उपवास का परमान्न से पारणा हा । फिर वहाँ से विहार कर प्रभु श्वेताम्बिका नगरी पधारे । वहाँ के राजा प्रदेशी ने भगवान् का खभावभीना सत्कार किया। श्वेताम्बिका से विहार कर भगवान् सुरभिपुर की ओर चले । बीच में गंगा नदी बह रही थी। अतः गंगा पार करने के लिए प्रभु को नौका में बैठना पड़ा। नौका ने ज्यों ही प्रयारण किया त्यों ही दाहिनी ओर से उल्ल के शब्द सुनाई दिये। उनको सुन कर नौका पर सवार खेमिल निमित्तज्ञ ने कहा-"बड़ा संकट पाने वाला है, पर इस महापुरुष के प्रबल पुण्य से हम सब बच जायेंगे।"२ थोड़ी दूर आगे बढ़ते ही अाँधी के प्रबल झोंकों में पड़ कर नौका भँवर में पड़ गई। कहा जाता है कि त्रिपुष्ट के भव में महावीर ने जिस सिंह को मारा था उसी के जीव ने वैर-भाव के कारण सुदंष्ट्र देव के रूप से गंगा में महावीर के नौकारोहण के पश्चात् तूफान खड़ा किया। यात्रीगण घबराये, पर महावीर निर्भय-अडोल थे। अन्त में प्रभु की कृपा से आँधी रुकी और नाव गंगा के किनारे लगी। कम्बल और शम्बल नाम के नागकुमारों ने इस उपसर्ग के निवारण में प्रभु की सेवा की। पुष्य निमित्तज्ञ का समाधान नाव से उतर कर भगवान् गंगा के किनारे 'स्थूणाक' सन्निवेश पधारे पौर वहां ध्यान-मुद्रा में खड़े हो गये । गाँव के पुष्य नामक निमित्तज्ञ को भगवान् के चरण-चिह्न देख कर विचार हुमा-"इन चिह्नों वाला अवश्य ही कोई चक्रवर्ती या सम्राट होना चाहिये । संभव है, संकट में होने से वह अकेला घम रहा हो । मैं जाकर उसकी सेवा करू।" इन्हीं विचारों से वह चरण-चिह्नों को देखता हुमा बड़ी माशा से भगवान् के पास पहुंचा। किन्तु भिक्षकरूप में भगवान को खड़े देख कर उसके भाश्चर्य का पारावार नहीं रहा । वह समझ नहीं पाया १ प्रबमासस्स कालगतो सहस्सारे उववन्नो । [भा. चू. १, पृ. २७६] २ मा०पू० पूर्वभाग. पृ० २८० Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोशालक का प्रभु-सेवा में प्रागमन] भगवान् महावीर कि चक्रवर्ती के समस्त लक्षण शरीर पर होते हए भी यह भिक्षक कैसे है। उसकी ज्योतिष-शास्त्र से श्रद्धा हिल गई और वह शास्त्र को गंगा में बहाने को तैयार हो गया। उस समय देवेन्द्र ने प्रकट होकर कहा-'पंडित ! शास्त्र को अश्रद्धा की दृष्टि से न देखो। यह कोई साधारण पुरुष नहीं, धर्म-चक्रवर्ती हैं, देव-देवेन्द्र और नरेन्द्रों के वन्दनीय हैं ।' पुष्य की शंका दूर हुई और वह वन्दन कर चला गया। गोशालक का प्रभु-सेवा में प्रागमन विहार-क्रम से घूमते हुए भगवान् ने दूसरा वर्षावास राजगह के उपनगर नालन्दा में किया । वहाँ प्रभु एक तन्तुवाय-शाला में ठहरे हुए थे । मंखलिपुत्र गौशालक भी उस समय वहाँ वर्षावास हेतु आया हुआ था । भगवान् के कठोर तप और त्याग को देख कर वह माकर्षित हुमा । भगवान् के प्रथम मासतप का पारणा विजय सेठ के यहाँ हुआ। उस समय पंच-दिव्य प्रकट हुए और प्राकाश में देव-दुन्दुभि बजी । भाव-विशुद्धि से विजय ने संसार परिमित किया और देवप्राय का बन्ध किया। राजगह में सर्वत्र विजय गाथापति की प्रशंसा हो रही थी। गोशालक ने तप की यह महिमा देखी तो वह भगवान् के पास पाया। भगवान् ने वर्षाकाल भर के लिए मास-मास का दीर्घ तप स्वीकार कर रखा था । दूसरे मास का पारणा प्रानन्द गाथापति ने करवाया। उसके बाद तीसरा मास खमरण किया और उसका पारणा सुनन्द गाथापति के यहाँ क्षीर से सम्पन्न हुआ। कार्तिकी पूर्णिमा के दिन भिक्षा के लिये जाते हुए गोशालक ने भगवान् से पूछा- “हे तपस्वी ! मुझे प्राज भिक्षा में क्या मिलेगा?" सिद्धार्थ ने कहा"कोदों का बासी भात, खट्टी छाछ और खोटा रुपया।" भगवान की भविष्यवाणी को मिथ्या सिद्ध करने हेतु गोशालक ने श्रेष्ठियों के उच्च कुलों में भिक्षार्थ प्रवेश किया, पर संयोग नहीं मिलने से उसे निराश होकर खाली हाथ लौटना पड़ा । अन्त में एक लुहार के यहाँ उसको खट्टी छाछ, १ प्रा० चू० १, पृ० २८२ । २ विजयस्स गाहावइस्स तेणं दव्वसुद्धणं दायगंसुद्धणं, तिविहेणं तिकरण सुद्धणं दाणेणं मए पड़िलाभिए समारणे, देवाउए निबद्ध, संसारे परित्तीकए गिहंसि य से, इमाई पंचदिव्वाइं पाउन्भूयाई। [भगवती, १५ श०, सू० ५४१, पृ० १२१४] ३ तच्च मासक्खमण पारणगंसि तंतुवाय सालापौ....... [भगवती, शतक १५, उ० १, सूत्र ५४१] ४ सिद्धार्थ: स्वामिसंक्रान्तो, बभाषे भद्र लप्स्यसे । धान्याम्लं कोद्रवरमेकं कूटं च रूप्यकम् । [त्रि० श० पु. १०, १०।३।३६३ श्लो॰] Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ गोशालक का सेवा में प्रागमन बासी भात और दक्षिणा में एक रुपया प्राप्त हुआ जो बाजार में नकली सिद्ध हुआ । गोशालक के मन पर इस घटना का यह प्रभाव पड़ा कि वह नियतिवाद का भक्त बन गया । उसने निश्चय किया कि जो कुछ होने वाला है, वह पहले से ही नियत होता है । भगवती सूत्र में उपर्युक्त भविष्यवारणी का उल्लेख नहीं मिलता । ५८६ इधर चातुर्मास समाप्त होने पर भगवान् ने राजगृही के नालन्दा से विहार किया और 'कोल्लाग' सन्निवेश में जाकर 'बहुल ब्राह्मण' के यहाँ अन्तिम मास-खमरण का पारणा किया । गोशालक उस समय भिक्षा के लिये बाहर गया हुआ था । जब वह लौट कर तन्तुवायशाला में आया और भगवान् को नहीं देखा तो सोचा कि भगवान् नगर में कहीं गये होंगे। वह उन्हें नगर में जाकर ढूँढ़ने लगा । पर भगवान् का कहीं पता नहीं चला तो निराश होकर लौट आया और वस्त्र, कुंडिका, चित्रफलक आदि अपनी सारी वस्तुएँ ब्राह्मणों को देकर तथा शिर मुंडवाकर भगवान् की खोज में निकल पड़ा । प्रभु को ढूँढ़ते हुए वह कोल्लाग सन्निवेश पहुँचा और लोगों के मुख से बहुल ब्राह्मण की दान- महिमा सुनकर विचारने लगा कि अवश्य ही यह मेरे धर्माचार्य की महिमा होनी चाहिये। दूसरे का ऐसा तपः प्रभाव नहीं हो सकता । 'कोल्लाग सन्निवेश' के बाहर प्रणीत भूमि में उसने भगवान् के दर्शन किये । दर्शनानन्तर भाव-विभोर हो उसने प्रभु को वन्दन किया और बोला- 'आज से श्राप मेरे धर्माचार्य और मैं आपका शिष्य हूँ ।' उसके ऐसा बारम्बार कहने से भगवान् ने उसकी प्रार्थना स्वीकार की । २ रागरहित भी भगवान् ने भाविभाव को जानते हुए उसके वचन को स्वीकार किया । 3 इसके बाद छह वर्ष तक गोशालक प्रभु के साथ विचरता रहा । साधना का तीसरा वर्ष कोल्लाग सन्निवेश से विहार कर प्रभु गोशालक के साथ स्वर्णखल पधारे । मार्ग में उनको खीर पकाते हुए कुछ ग्वाले मिले । गोशालक का मन खीर देखकर मचल उठा । उसने महावीर से कहा - "भगवन् ! कुछ देर ठहरें तो खीर खाकर लेंगे ।" सिद्धार्थ ने कहा- "खीर खाने को नहीं मिलेगी, क्योंकि इंडिया फूटने के कारण खीर पकने से पूर्व ही मिट्टी में मिल जायेगी ।" १ साडियाम्रो य पाड़िया य कुडियाओ य पाहणाश्रो य चित्तफलगं च माहणे श्रायामेति प्रायामेता सउत्तरोट्ठे नुडं करोति... | [ भगवती श० १५।१ स० ५४१ पृ० १२१७] (स) प्रा० चू० १, पृ० २८३ । २ गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयमट्ठे परिसुरोमि । ३ नीरागोऽपि भब्यतार्थं, तद्भावं च विदन्नपि । तद्वचः [ भगवती शतक, १५।१ सूत्र ५४१ ] प्रत्यपादीशो, महान्तः क्व न वत्सलाः । [त्रि० श० पु० ब०, १०।३।४१२] Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियतिवाद ] भगवान् महावीर नियतिवाद पर गोशालक ग्वालों को सचेत कर स्वयं खीर के लिए रुका रहा । भगवान् प्रागे प्रयाण कर गये । सुरक्षा का पूर्ण प्रयत्न करने पर भी चावलों के फूलने से हँडिया फूट गई और खीर धूल में मिल गई । गोशालक निराश होकर नन्हा सा मुँह लिए महावीर के पास पहुँचा । उसे इस बार दृढ़ विश्वास हो गया कि होनहार कभी टलता नहीं । इस तरह वह 'नियतिवाद' का पक्का समर्थक बन गया । कालान्तर में वहाँ से बिहार कर भगवान् 'ब्राह्मणगाँव' पधारे । ब्राह्मणगाँव दो भागों में विभक्त था - एक 'नन्दपाटक' और दूसरा 'उपनन्दपाटक' । नन्द और उपनन्द नाम के दो प्रसिद्ध पुरुषों के नाम पर गाँव के भाग इन नामों से पुकारे जाते थे । भगवान् महावीर 'नन्दपाटक' में नन्द के घर पर भिक्षा को पधारे । वहाँ उनको दही मिश्रित भात मिला । गोशालक 'उपनन्दपाटक' में उपनन्द के घर गया था वहाँ उपनन्द की दासी उसको बासी भात देने लगी किन्तु गोशालक ने दुर्भाव से उसे अस्वीकार कर दिया। गोशालक के इस अभद्र व्यवहार से क्रुद्ध हो उपनन्द दासी से बोला- “यदि यह भिक्षा नहीं ले तो इसके सिर पर फेंक देना ।" दासी ने स्वामी की ग्राज्ञा से वैसा ही किया । इस घटना से गोशालक बहुत कुपित हुआ और उसके घर वालों को शाप देकर वहाँ से चल दिया ! ५८७ आवश्यक चूर्णिकार के मतानुसार गोशालक ने उपनन्द को उसका घर जल जाने का शाप दिया । भगवान् के तप की महिमा असत्य प्रमारित न हो इस दृष्टि से निकटवर्ती व्यन्तरों के द्वारा घर जलाया गया और उसका शाप सच्चा ठहरा । " ब्राह्मणगाँव से विहार कर भगवान् चम्पा पधारे और वहीं पर तृतीय ... वर्षाकाल पूर्ण किया । वर्षाकाल में दो-दो मास के उत्कट तप के साथ प्रभु ने विविध ग्रासन व ध्यानयोग की साधना की । प्रथम द्विमासीय तप का पारणा चंपा में और द्वितीय द्विमासीय तप का पारणा चंपा के बाहर किया । २ साधना का चतुर्थ वर्ष अंग देश की चम्पा नगरी से विहार कर भगवान् 'कालाय' सन्निवेश पधारे । वहाँ गोशालक के साथ एक सूने घर में ध्यानावस्थित हुए । गोशालक वहाँ द्वार के पास छिप कर बैठ गया और पास प्रायी हुई 'विद्युन्मती' नाम की १ प्राव० चू० पूर्व भाग, पृ० २६४ वाणमंत रेहि मा भगवतो अलियं भवतुत्ति तं घरं दड्ढ़ 1 २ जं चरिमं दो मासियपाररणयं तं बाहि पारेति । [ श्राव. चू., ११२८४] Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास क का दासी के साथ हंसी-मजाक करने लगा। दासी ने गांव में जाकर मुखिया से शिकायत की और इसके परिणामस्वरूप मुखिया के पुत्र पुरुषसिंह द्वारा गोशालक पीटा गया। __ कालाय सन्निवेश से प्रभु 'पत्तकालय' पधारे । वहाँ भी एक शून्य स्थान देख कर भगवान् ध्यानारूढ़ हो गये । गोशालक वहाँ पर भी अपनी विकृत .. भावना और चंचलता के कारण जनसमुदाय के क्रोध का शिकार बना। गोशालक का शाप-प्रदान 'पत्तकालय' से भगवान् 'कुमारक सन्निवेश' पधारे।' वहाँ चंपगरमरणीय नामक उद्यान में ध्यानावस्थित हो गये । वहाँ के कूपनाथ नामक कुम्भकार की शाला में पार्श्वनाथ के संतानीय प्राचार्य मुनिचन्द्र अपने शिष्यों के संग ठहरे हुए थे। उन्होंने अपने एक शिष्य को गच्छ का मुखिया बना कर स्वयं जिनकल्प स्वीकार कर रखा था। गोशालक ने भगवान् को भिक्षा के लिए चलने को कहा किन्तु प्रभु की ओर से सिद्धार्थ ने उत्तर दिया कि आज इन्हें नहीं जाना है। ___ गोशालक अकेला भिक्षार्थ गाँव में गया और वहाँ उसने रंग-बिरंगे वस्त्र पहने पाव-परम्परा के साधुओं को देखा । उसने उनसे पूछा- "तुम सब कोन हो?" उन्होंने कहा-"हम सब पार्श्व परम्परानुयायी श्रमरण निर्ग्रन्थ हैं।" इस पर गोशालक ने कहा-“तुम सब कैसे निर्ग्रन्थ हो ? इतने सारे रंग-बिरंगे वस्त्र और पात्र रख कर भी अपने को निर्ग्रन्थ कहते हो । सच्चे निर्ग्रन्थ तो मेरे धर्माचार्य हैं, जो वस्त्र व पात्र से रहित हैं और त्याग-तप के साक्षात् रूप हैं । पार्श्व संतानीय ने कहा-"जैसा तू, वैसे ही तेरे धर्माचार्य भी, स्वयंगृहीतलिंग होंगे।"२ इस पर गोशालक ऋद्ध होकर बोला-"अरे! मेरे धर्माचार्य की तुम निन्दा करते हो । यदि मेरे धर्माचार्य के दिव्य तप और तेज का प्रभाव है तो तुम्हारा उपाश्रय जल जाय ।" यह सुन कर पापित्यों ने कहा--"तुम्हारे जैसों के कहने से हमारे उपाश्रय जलने वाले नहीं हैं।" यह सुन कर गोशालक भगवान के पास आया और बोला-"प्राज मैंने सारंभी और सपरिग्रही साधुओं को देखा । उनके द्वारा आपके अपवाद करने पर मैंने कहा-"धर्माचार्य के दिव्य तेज से तुम्हारा उपाश्रय जल जाय, किन्तु उनका उपाश्रय जला नहीं, इसका क्या कारण है ?" सिद्धार्थ देव ने कहा"गोशालक ! वे पार्श्वनाथ के सन्तानीय साधु हैं । साधुओं के तपस्तेज उपाश्रय जलाने के लिए नहीं होता।" १ ततो कुमारायं संनिवेसं गता। [प्राव. चू., १ । पृ० २८५] २ प्राव. चू., पृ० २८५ Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साप-प्रदान] भगवान् महावीर उधर प्राचार्य मुनिचन्द्र उपाश्रय के बाहर खड़े हो ध्यानमग्न हो गये। मदं रात्रि के समय कूपनय नामक कुम्भकार अपनी मित्रमण्डली में सुरापान कर अपने घर की ओर लौटा। उपाश्रय के बाहर ध्यानमग्न मुनि को देख कर मद्य के नशे में मदहोश उस कुम्भकार ने उन्हें चोर समझ कर अपने दोनों हाथों से मुनि का गला धर दबाया । असह्य वेदना होने पर भी मुनिचन्द्र ध्यान में अडोल खड़े रहे । समभाव से शुक्लध्यान में स्थित होने के कारण मुनिचन्द्र को तत्काल केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई और उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। देवों ने पुष्पादि की वर्षा कर केवलज्ञान की महिमा की । जब गोशालक ने देवों को प्राते-जाते देखा तो उसने समझा कि उन साधुओं का उपाश्रय जल रहा है। गोशालक ने भगवान ने कहा-"उन विरोधियों का उपाश्रय जल रहा है।" इस पर सिद्धार्थ देव ने कहा-"उपाश्रय नहीं जल रहा है। प्राचार्य को केवलज्ञान की उपलब्धि हुई है, इसलिए देवगण महिमा कर रहे हैं।" गन्धोदक और पुष्पों की वर्षा देख कर गोशालक को बड़ा हर्ष हुअा । वह उपाश्रय में जाकर मुनिचन्द्र के शिष्यों से कहने लगा-"अरे ! तुम लोगों को कुछ भी पता नहीं है, खाकर अजगर की तरह सोये पड़े हो । तुम्हें अपने प्राचार्य के काल-कवलित हो जाने का भी ध्यान नहीं है । गोशालक की बात सुन कर साधु उठे और अपने प्राचार्य को कालप्राप्त समझ कर प्रगाढ़ पश्चात्ताप और अपने आपकी निन्दा करते रहे । गोशालक ने भी अवसर देख कर उन्हें जी भर भला-बुरा कहा.।' प्राचार्य हेमचन्द्र के अनुसार मुनिचन्द्र को उस समय अवधिज्ञान हुमा और उन्होंने स्वर्गगमन किया। कुमारक से विहार कर भगवान् 'चोराक सन्निवेश'3 पधारे । वहां पर चोरों का प्रत्यधिक भय था। प्रतः वहाँ के पहरेदार अधिक सतर्क रहते थे। भगवान उधर पधारे तो पहरेदारों ने उनसे परिचय पूछा, पर मौनस्थ होने के कारण प्रभु की ओर से कोई उत्तर नहीं मिला । पहरेदार उनके इस प्राचरण से सशंक और बड़े ऋद्ध हए । फलतः प्रभु को गुप्तचर या चोर समझ कर उन्होंने उन्हें अनेक प्रकार की यातनाएं दीं। जब इस बात की सूचना ग्रामवासी 'उत्पल' निमित्तज्ञ की बहिनों, 'सोमा और जयंती' को मिली तो वे घटना स्थल पर १ प्रावश्यक चूणि, भाग १, पृ० २८६ २ त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, १०१३।४७० से ४७७ ३ गोरखपुर जिले में स्थित चौराचौरी [तीपंकर महावीर, पृ० १९७] MPuranARAIPMwomamar Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [साधना का पंचम वर्ष उपस्थित हुई और रक्षक पुरुषों को उन्होंने महावीर का सही परिचय दिया। परिचय प्राप्त कर प्रारक्षकों ने महावीर को मुक्त किया और अपनी भूल के लिए क्षमायाचना की। चौराक से भगवान महावीर पृष्ठ चंपा' पधारे और चतुर्थ वर्षाकाल वहीं बिताया। वर्षाकाल में चार मास का दीर्घ तप और अनेक प्रकार की प्रतिमाओं से ध्यान-मद्रा में कायोत्सर्ग करते रहे । चार मास की तप-समाप्ति के बाद भगवान् ने चम्पा बाहिरिका में पारणा किया। साधना का पंचम वर्ष पृष्ठ चम्पा का वर्षाकाल पूर्ण कर भगवान 'कयंगला' पधारे।' वहाँ 'दरिद्द थेर' नामक पाषंडी के देवल में कायोत्सर्ग-स्थित हो कर रहे । कयंगला से विहार कर भगवान 'सावत्थी' पधारे और नगर के बाहर ध्यानावस्थित हो गये । कड़कड़ाती सर्दी पड़ रही थी, फिर भी गवान उसकी परवाह किये बिना रात भर ध्यान में लीन रहे । गोशालक सर्दी नहीं सह सका और रात भर जाड़े के मारे ठिठता-सिसकता रहा । उधर देवल में धार्मिक उत्सव होने से बहुत से स्त्री-पुरुष मिल कर नृत्य-गान में तल्लीन हो रहे थे। गोशालक ने उपहास करते हुए कहा--"अजी ! यह कैसा धर्म, जिसमें स्त्री और पुरुष साथ-साथ लज्जारहित हो गाते व नाचते हैं ?" ___लोगों ने उसे धर्म-विरोधी समझ कर वहाँ से बाहर धकेल दिया । वह सर्दी में ठिठरते हए बोला-"अरे भाई ! सच बोलना आजकल विपत्ति मोल लेना है । लोगों ने दया कर फिर उसे भीतर बुलाया । पर वह तो आदत से लाचार था । अतः अनर्गल प्रलाप के कारण वह दो-तीन बार बाहर निकाला गया और युवकों के द्वारा पीटा भी गया। तदनन्तर जब जन-समुदाय को यह ज्ञात हुआ कि यह देवार्य महावीर का शिष्य है, तो सोचा कि इसे यहां रहने देने में कोई हानि नहीं है । वद्धों ने जोरजोर से बाजे बजवाने शुरू किये, जिससे उसकी बातें न सुनी जा सके। इस प्रकार रात कुशलता से बीत गई। प्रातःकाल महावीर वहाँ से विहार कर श्रावस्ती नगरी में पधारे । वहाँ पर 'पितदत्त' गाथापति की पत्नी ने अपने बालक की रक्षा के लिए किसी निमितज्ञ के कथन से किसी एक गर्भ के मांस से खीर बनाई और तपस्वी को देने के विचार से गोशालक को दे डाली। उसने भी अनजाने ले ली। सिद्धार्थ ने पहले १ पाव. पू., पृ० २८८ Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना का पंचम वर्ष] भगवान् महावीर ही इसकी सूचना कर दी थी । जब गोशालक ने इसे झठलाने का प्रयत्न किया तो सिद्धार्थ ने कहा-वमन कर । वमन करने पर असलियत प्रकट हो गई। पर इस घटना का ऐसा प्रभाव पड़ा कि गोशालक पक्का नियतिवादी हो गया। सावत्थी से विहार कर प्रभु 'हलेदुग' पधारे । गांव के पास ही 'हलेदुग' नाम का एक विशाल वृक्ष था। भगवान् ने उस स्थान को ध्यान के लिए उपयुक्त समझा और वहीं रात्रि-विश्राम किया। दूसरे अनेक पथिक भी रात्रि में वहाँ विश्राम करने को ठहरे हुए थे। उन्होंने सर्दी से बचने के लिए रात में प्राग जलाई और प्रातःकाल बिना प्राग बुझाये ही वे लोग चले गये । इधर सूखे घास के संयोग से हवा का जोर पा कर अग्नि की लपटें जलती हुई महावीर के निकट आ पहुँची और उनके पैर आग की लपटों से झुलस गये फिर भी ध्यान से चलायमान नहीं हुए। मध्याह्न में ध्यान पूर्ण होने पर भगवान महावीर ने आगे प्रयाण किया और 'नांगला' होते हुए 'आवर्त' पधारे । वहाँ बलदेव के मंदिर में ध्यानावस्थित हो गये। भगवान के साथ रहते हुए भी गोशालक अपने चंचल स्वभाव के कारण लोगों के बच्चों को डराता और चौकाता था जिसके कारण वह अनेक बार पीटा गया। आवर्त से विहार कर प्रभु अनेक क्षेत्रों को अपनी चरणरज से पवित्र करते हुए 'चौराक सन्निवेश' पधारे । वहाँ भी गुप्तचर समझ कर लोगों ने गोशालक को पीटा । गोशालक ने रुष्ट होकर कहा- “अकारण यहाँ के लोगों ने मुझे पीटा है, अतः मेरे धर्माचार्य के तपस्तेज का प्रभाव हो तो यह मंडप जल जाय" और संयोगवश मंडप जल गया। उसके इस उपद्रवी स्वभाव से भगवान् विहार कर 'कलंबुका' पंधारे । वहाँ निकटस्थ पर्वतीय प्रदेश के स्वामी 'मेघ' और 'कालहस्ती' नाम के दो भाइयों में से कालहस्ती की महावीर से मार्ग में भेंट हुई । 'कालहस्ती' ने उनसे पूछा-- "तुम कौन हो?" महावीर ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। इस पर कालहस्ती ने उन्हें पकड़ कर खूब पीटा, फिर भी महावीर नहीं बोले । कालहस्ती ने इस पर महावीर को अपने बड़े भाई मेघ के पास भिजवाया। मेघ ने महावीर को एक बार पहले गृहस्थाश्रम में कुडग्राम में देखा था, अतः देखते ही वह उन्हें पहचान गया। उसने उठ कर प्रभु का सत्कार किया और उन्हें मुक्त ही नहीं किया अपितु अपने भाई द्वारा किये गये अभद्र व्यवहार के लिये क्षमा-याचना भी की। १ माव० चू० पृ० २८८ । २ प्राव० चू०, पृ० २६० । Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [अनार्य क्षेत्र के मेघ से मुक्त होने पर भगवान् ने सोचा-"मुझे अभी बहुत से कर्म क्षय करने हैं। यदि परिचित प्रदेश में ही घूमता रहा तो कर्मों का क्षय विलम्ब से होगा । यहाँ कष्ट से बचाने वाले परिचित एवं प्रेमी भी मिलते रहेंगे । अत: मुझे ऐसे अनार्य प्रदेश में विचरण करना चाहिये, जहां मेरा कोई परिचित न हो।" ऐसा सोच कर भगवान् लाढ़ देश की ओर पधारे। लाढ़ या सढ़ देश, जो उस समय पूर्ण अनार्य माना जाता था, उस ओर सामान्यतः मुनियों का विचरण नहीं होता था। कदाचित कोई जाते तो वहाँ के लोग उनकी हीलना-निन्दा करते और कष्ट देते। उस प्रान्त के दो भाग थे-एक वन भूमि और दूसरा शुभ्र भूमि । इनको उत्तर राढ़ और दक्षिण राढ़ के नाम से कहा जाता था। उनके बीच अजय नदी' बहती थी। भगवान् ने उन स्थानों में विहार किया और वहाँ के कठोरतम उपसर्गों को समभाव से सहन किया। प्रनार्य क्षेत्र के उपसर्ग लाढ़ देश में भगवान् को जो भयंकर उपसर्ग उपस्थित हुए, उनका रोमांचकारी वर्णन प्राचारांग सूत्र में आर्य सुधर्मा ने निम्नरूप से किया है :___ "वहाँ उनको रहने के लिये अनूकूल आवास प्राप्त नहीं हुए। रूखा-सूखा बासी भोजन भी बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता। वहां के कुत्ते दूर से ही भगवान् को देखकर काटने को दौड़ते किन्तु उन कुत्तों को रोकने वाले लोग वहाँ बहुत कम संख्यां में थे। अधिकांश तो ऐसे थे जो छुछुकार कर कुत्तों को काटने के लिये प्रेरित करते । रूक्षभोजी लोग वहाँ लाठी लेकर विचरण करते । पर भगवान् तो निर्भय थे, वे ऐसे दुष्ट स्वभाव वाले प्राणियों पर भी दुर्भाव नहीं करते, क्योंकि उन्होंने शारीरिक ममता को शुद्ध मन से त्याग दिया था। कर्मनिर्जरा का हेतु समझ कर ग्रामकंटकों-दुर्वचनों को सहर्ष सहन करते हुए वे सदा प्रसन्न रहते । वे मन में भी किसी के प्रति हिंसा भाव नहीं लाते । जैसे संग्राम में शत्रुओं के तीखे प्रहारों की तनिक भी परवाह किये बिना गजराज आगे बढ़ता जाता है, वैसे ही भगवान् महावीर भी लाढ़ देश के विभिन्न उपसगों को किंचिन्मात्र भी परवाह किये बिना विचरते रहे। वहां उन्हें ठहरने के लिये कभी दूर-दूर तक गाँव भी उपलब्ध नहीं होते । भयंकर अरण्य में ही रात्रिवास करना पड़ता । कभी गांव के निकट पहुंचते ही लोग उन्हें मारने लग जाते और दूसरे गाँव जाने को बाध्य कर देते । अनार्य लोग भगवान पर दण्ड, मुष्टि, भाला, पत्थर तथा ढेलों से प्रहार करते और इस कार्य से प्रसन्न होकर अट्टहास करने लगते। १ पापा० पू०, पृ० २८७ । २ महमूहा देसिए भत्ते, कुमकुरा तत्व हिसिसु निवइंसु । [भाचा. ६।३ पृ० ८३।८४-] । पापा, शासना० १३ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसर्ग] भगवान् महावीर ५६३ वहाँ के लोगों की दुष्टता असाधारण स्तर की थी। उन्होंने विविध प्रहारों से भगवान् के सुन्दर शरीर को क्षत-विक्षत कर दिया। उन्हें अनेक प्रकार के असहनीय भयंकर परीषह दिये। उन पर धूल फैकी तथा उन्हें ऊपर उछालउछाल कर गेंद की तरह पटका । अासन पर से धकेल कर नीचे गिरा दिया। हर तरह से उनके ध्यान को भंग करने का प्रयास किया। फिर भी भगवान् शरीर से ममत्व रहित होकर, बिना किसी प्रकार की इच्छा व आकांक्षा के संयम-साधना में स्थिर रह कर शान्तिपूर्वक कष्ट सहन करते रहे।"१ इस प्रकार उस अनार्य प्रदेश में समभावपूर्वक भयंकर उपसर्गों को सहन कर भगवान ने विपूल कर्मों की निर्जरा की। वहाँ से जब वे आर्य देश की ओर चरण बढ़ा रहे थे कि पूर्णकलश नाम के सीमाप्रान्त के ग्राम में उन्हें दो तस्कर मिले। वे अनार्य प्रदेश में चोरी करने जा रहे थे । सामने से भगवान् को पाते देख कर उन दोनों ने अपशकुन समझा और तीक्ष्ण शस्त्र लेकर भगवान् को मारने के लिये लपके । इस घटना का पता ज्योंही इन्द्र को चला, इन्द्र ने प्रकट होकर तस्करों को वहां से दूर हटा दिया ।। भगवान आर्य देश में विचरते हए मलय देश पधारे और उस वर्ष का वर्षावास मलय की राजधानी 'भद्दिला नगरी' में किया। प्रभु ने चातुर्मास में विविध आसनों के साथ ध्यान करते हुए चातुर्मासिक तप की आराधना की और चातुर्मास पूर्ण होने पर नगरी के बाहर तप का पारणा कर 'कदली समागम' और 'जंबू संड' की ओर प्रस्थान किया। साधना का छठा वर्ष 'कदली समागम' और 'जंबू संड' में गोशालक ने दधिकूर का पारणा किया। वहाँ भी उसका तिरस्कार हुमा । भगवान 'जंबू संड' से 'तंबाय' सन्निवेश पधारे। उस समय पाश्वापत्य स्थविर नन्दिषेण वहाँ पर विराज रहे थे । गोशालक ने भी उनसे विवाद किया । फिर वहाँ से प्रभु ने 'कविय' सन्निवेश की मोर विहार किया, जहाँ वे गुप्तचर समझ कर पकड़े गये और मौन रहने के कारण बंदी बना कर पीटे गये। वहाँ पर विजया और प्रगल्भा नाम की दो परिवाजिकाएं, जो पहले पार्श्वनाथ की शिष्यायें थीं, इस घटना का पता पाकर लोगों के बीच आयीं और भगवान् का परिचय देते हुए बोलीं-"दुरात्मन् ! नहीं जानते हो कि यह चरम तीर्थंकर महावीर हैं । इन्द्र को पता चला तो वह १ भाषा०, ६॥३॥ पृ. ९२ २ सिखत्वेण ते प्रसी तेसिं चेव उपरि ढो, तेसि सीसाणि चिन्माणि । भन्ने भएंति-सस्करण मोहिणा प्रमोइता दोषि बजेण हता। [भाव. पु. १, पृ० २६०] ३ पाव. पू., पृ० १९१ Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९४ ___ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [व्यंतरी का उपद्रव तुम्हें दण्डित करेगा।" परिवाजिकानों की बातें सुन कर उन लोगों ने प्रभु को मुक्त किया और अपनी भूल के लिए क्षमायाचना की ।' । वहां से मुक्त होकर प्रभ वैशाली की ओर अग्रसर हुए। कुविय सनिवेश से प्रभु ने जिस ओर चरण बढ़ाये, वहाँ दो मार्ग थे । गोशालक ने प्रभु से कहा"आपके साथ मुझे अनेक कष्ट भोगने पड़ते हैं और आप मेरा बचाव भी नहीं करते। इसलिए यह अच्छा होगा कि मैं अकेला ही विहार करू।" इस पर सिद्धार्थ बोले - "जैसी तेरी इच्छा ।" वहाँ से महावीर वैशाली के मार्ग पर बढ़े और गोशालक राजगृह की ओर चल पड़ा। वैशाली पधार कर भगवान लोहार की 'कम्मशाला' में अनुमति लेकर ध्यानावस्थित हो गये। कर्मशाला के एक कर्मकार-लुहार ने अस्वस्थता के कारण छै मास से काम बन्द कर रखा था। भगवान के आने के दूसरे दिन से ही वह स्वस्थता का अनुभव करने लगा, अतः अौजार लेकर शुभ मुहूर्त में यंत्रालय पहुंचा । भगवान को यंत्रालय में खड़े देख कर उसने अमंगल मानते हुए उन पर प्रहार करना चाहा, किन्तु ज्योंही वह हथोड़ा लेकर आगे बढ़ा त्योंही दैवी प्रभाव से सहसा उसके हाथ स्तंभित हो गये और प्रहार बेकार हो गया। वैशाली से विहार कर भगवान 'ग्रामक सनिवेश' पधारे और 'विभेलक' यक्ष के स्थान में ध्यानस्थ हो गये । भगवान् के तपोमय जीवन से प्रभावित होकर यक्ष भी गुरण-कीर्तन करने लगा। व्यंतरी का उपद्रव और विशिष्टावधि लाम ..'ग्रामक सनिवेश' से विहार कर भगवान 'शालि शीर्ष' के रमणीय उद्यान में पधारे। माघ मास की कड़कड़ाती सर्दी पड़ रही थी । मनुष्य घरों में गर्म वस्त्र पहने हुए भी काँप रहे थे। परन्तु भगवान् उस समय भी खुले शरीर ध्यान में खड़े थे । वन में रहने वाली 'कटपतना' नाम की व्यन्तरी ने जब भगवान् को ध्यानस्थ देखा तो उसका पूर्वजन्म का वैर जागृत हो उठा और उसके क्रोध का पार नहीं रहा। वह परिवाजिका के रूप में बिखरी जटाओं से मेघधाराओं की तरह जल बरसाने लगी और भगवान् के कंधों पर खड़ी हो तेज हवा चलाने लगी। कड़कड़ाती सर्दी में वह बर्फ सा शीतल जल, तेज हवा के कारण तीक्ष्ण काँटों से भी अधिक कष्टदायी प्रतीत हो रहा था, फिर भी भग १ प्राव. चू., पृ० २६२ २ सिदार्थोऽयावदत्तम्यं, रोचते यत्कुरुष्व तत् । ३ सक्केण तस्स उवरि घणो पावियो तह चेव मतो। ४ प्राव० चू०, पृ० २६२ [त्रि. श. पु. च., १०१३३५९४] [भाव. चू., पृ. २९२] .. Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना का सप्तम वर्ष ] भगवान् महावीर वान् ध्यान में अडोल रहे और मन में भी विचलित नहीं हुए। समभावपूर्वक उस कठोर उपसर्ग को सहन करते हुए भगवान् को विशिष्टावधि ज्ञान प्राप्त हुआ । वे सम्पूर्ण लोक को देखने लगे ।' भगवान् की सहिष्णुता व क्षमता देख कर 'कटपूतना' हार गई, थक गई और शान्त होकर कृत अपराध के लिये प्रभु से क्षमायाचना करती हुई, वन्दन कर चली गई । 'शालिशीर्ष' से विहार कर भगवान् 'भद्रिका " नगरी पधारे । वहाँ चातुर्मासिक तप से प्रासन तथा ध्यान की साधना करते हुए उन्होंने छठा वर्षाकाल बिताया। खै मास तक परिभ्रमण कर अनेक कष्टों को भोगता हुना आखिर गोशालक भी पुन: वहाँ श्रा पहुंचा और भगवान् की सेवा में रहने लगा । वर्षाकाल समाप्त होने पर प्रभु ने नगर के बाहर पारण किया और मगध की प्रोर चल पड़े | 3 ५६५ साधना का सप्तम वर्ष मगध के विविध भागों में घूमते हुए प्रभु ने आठ मास बिना उपसर्ग के पूर्ण किये। फिर चातुर्मास के लिये 'प्रालंभिया' नगरी पधारे और चातुर्मासिक तप के साथ ध्यान करते हुए सातवाँ चातुर्मास वहाँ पूर्ण किया । चातुर्मास पूर्ण होने पर नगर के बाहर चातुर्मासिक तप का पारण कर 'कंडाग' सन्निवेश और 'भद्दणा' नाम के सन्निवेश पधारे मोर क्रमश: वासुदेव तथा बलदेव के मंदिर में ठहरे । गोशालक ने देवमूर्ति का तिरस्कार किया जिससे वह लोगों द्वारा पीटा गया । 'भट्टणा' से निकल कर भगवान् 'बहुसाल' गाँव गये और गांव के बाहर सालवन उद्यान में ध्यानस्थ हो गये । यहाँ शालार्य नामक व्यन्तरी ने भगवान् को अनेक उपसर्ग दिये, किन्तु प्रभु के विचलित नहीं होने से अन्त में थक कर वह क्षमायाचना करती हुई अपने स्थान को चली गई । साधना का श्रष्टम वर्ष 'भद्दरणा' से विहार कर भगवान् 'लोहार्गला' पधारे। 'लोहार्गला के पड़ोसी राज्यों में उस समय संघर्ष होने से वहाँ के सभी अधिकारी श्राने वाले यात्रियों से पूर्ण सतर्क रहते थे। परिचय के बिना किसी का राजधानी में प्रवेश संभव नहीं था । भगवान् से भी परिचय पूछा गया । उत्तर नहीं मिलने पर १ वेयरणं श्रहिया संतस्स भगवतो ओही विगसिप्रो सव्वं लोगं पासिउमारद्धो । प्रा० चू०, पृ० २६३ । २ " भद्दिया" अंग देश का एक नगर था, भागलपुर से म्राठ मील दूर दक्षिण में भदरिया ग्राम है, वहीं पहले भद्दिया थी । तीर्थंकर महावीर, पृ० २०६ । ३ बाहि पारेता ततो पच्छा मगहविसए विहरति निरुवसग्गं भट्ट मासे उबद्धिए । [भाव० चू०, पृ० २६३] Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [साधना का नवम वर्ष उनको पकड़ कर अधिकारी राज-सभा में 'जितशत्रु' के पास ले गये। वहां 'अस्थिक' गाँव का नैमित्तिक उत्पल आया हुआ था। उसने जब भगवान् को देखा तो उठ कर त्रिविध वंदन किया और बोला--"यह कोई गुप्तचर नहीं है, यह तो सिद्धार्थ-पुत्र, धर्म-चक्रवर्ती महावीर हैं।" परिचय पाकर राजा जितशत्रु ने भगवान् की वंदना की और उन्हें सम्मानपूर्वक विदा किया।' लोहार्गला से प्रभु ने 'पुरिमताल' की ओर प्रयाण किया। नगर के बाहर 'शकटमुख' उद्यान में वे ध्यानावस्थित रहे। 'पुरिमताल' से फिर 'उन्नाग' और 'गोभूमि' को पावन करते हुए प्रभु राजगृह पधारे । वहाँ चातुर्मासिक तपस्या ग्रहण कर विविध आसनों और अभिग्रहों के साथ प्रभु ध्यानावस्थित रहे । इस प्रकार पाठवाँ वर्षाकाल पूर्ण कर प्रभु ने नगर के बाहर पारणा ग्रहण किया। साधना का नवम वर्ष भगवान् महावीर ने सोचा कि प्रार्य देश में जन-मन पर अंकित सुसंस्कारों के कारण कर्म की अत्यधिक निर्जरा नहीं होती, इसलिये इस सम्बन्ध में कुछ उपाय करना चाहिये। जैसे किसी कुटुम्बी के खेत में शालि उत्पन्न होने पर पथिकों से कहा जाता है कि कटाई करो, इच्छित भोजन मिलेगा, फिर चले जाना । इस बात से प्रभावित होकर, जैसे लोग उसका धान काट देते हैं वैसे ही उन्हें भी बहुत कर्मों को निर्जरा करनी है। इस कार्य में सफलता अनार्य देश में ही मिल सकती है। इस विचार से भगवान् फिर अनार्य भूमि की ओर पधारे और पहले की तरह इस बार भी लाढ़ और शुभ्र-भूमि के अनार्य खण्ड में जाकर उन्होंने विविध कष्टों को सहन किया, क्योंकि वहाँ के लोग अनुकम्पारहित व निर्दयी थे । योग्य स्थान नहीं मिलने से वहाँ वृक्षों के नीचे, खण्डहरों में तथा घूमते-घामते वर्षाकाल पूर्ण किया। छ मास तक अनार्यदेश में विचरण करने के फलस्वरूप विभिन्न प्रकार के कष्ट सहते हुए भी भगवान् को इस बात का हर्ष था कि उनके कर्म कट रहे हैं। इस तरह अनार्य देश का प्रथम चातुर्मास समाप्त कर प्रभु फिर आर्य देश में पधारे । साधना का देशम वर्ष अनार्य प्रदेश से विहार कर भगवान् 'सिद्धार्थपुर' से 'कूर्मग्राम' की ओर पधार रहे थे, तब गोशालक भी साथ ही था। उसने मार्ग में सात पुष्प वाले एक तिल के पौधे को देख कर प्रभु से जिज्ञासा की-"भगवन् ! यह पौधा फलयुक्त होगा क्या ?" उत्तर देते हुए भगवान् ने कहा--"हां पौधा फलेगा और सातों फूलों के जीव इसकी एक ही फली में उत्पन्न होंगे।" १ भाव०पू०, पृ. २१४ । २ माव. पू., पृ. २९६-"दइव नियोगेण लेहट्ठो प्रासी वसही वि न लम्मति ।" - Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना का दशम वर्ष] भगवान् महावीर ५६७ PORY गोशालक ने भगवान के वचन को मिथ्या प्रमाणित करने की दष्टि से उस पौधे को उखाड़ कर एक किनारे फेंक दिया। संयोगवश उसी समय थोड़ी वर्षा हुई और तिल का उखड़ा हुआ पौधा पुनः जम कर खड़ा हो गया। फिर भगवान् 'कर्मग्राम'२ आये। वहाँ गाँव के बाहर 'वैश्यायन' नाम का तापस प्राणायाम-प्रव्रज्या से सूर्यमंडल के सम्मुख दृष्टि रख कर दोनों हाथ ऊपर उठाये आतापना ले रहा था । धूप से संतप्त हो कर उसकी बड़ी बड़ी जटाओं से यूकाएं नीचे गिर रही थीं और वह उन्हें उठा कर पुनः जटाओं में रख रहा था। गोशालक ने देखा तो कुतूहलवश वह भगवान् के पास से उठकर तपस्वी के पास पाया और बोला- "अरे ! त कोई तपस्वी है या जों का शय्यातर (घर)?" तपस्वी चुप रहा । जब गोशालक बार वार इस बात को दुहराता रहा तो तपस्वी को क्रोध आ गया। प्रातापना भूमि से सात आठ पग पीछे जाकर उसने जोश में तपोबल से प्राप्त अपनी तेजो-लब्धि गोशालक को भस्म करने के लिये छोड़ दी । अब क्या था ! गोशालक मारे भय के भागा और प्रभु के चरणों में आकर छिप गया। दयालु प्रभु ने उस समय गोशालक की अनुकम्पा के लिये शोतल लेश्या से उस तेजी लेश्या को शान्त किया । गोशालक को सुरक्षित देखकर तापस ने महावीर की शक्ति का रहस्य समझा और विनम्र शब्दों में बोला"भगवन् ! मैं इसे आपका शिष्य नहीं जानता था, क्षमा कीजिये ।"3 कुछ समय पश्चात् भगवान् ने पुनः सिद्धार्थपुर' की ओर प्रयास किया। तिल के खेत के पास आते ही गोशालक को पुरानी बात याद आ गई। उसने महावीर से कहा--"भगवन् ! आपकी वह भविष्यवाणी कहाँ गई ?" प्रभ बोले--- "बात ठीक है। वह बाजू में लगा हुआ पौधा ही पहले वाला तिल का पौधा है, जिसको तुने उखाड़ फेंका था।" गोशालक को इस पर विश्वास नहीं हुप्रा । वह तिल के पौधे के पास गया और फली को तोड़ कर देखा तो महावीर के कथनानुसार सात ही तिल निकले। इस घटना से वह नियतिवाद का पक्का समर्थक बन गया। उस दिन से उसकी दृढ़ मान्यता हो गई कि सभी जीव मरकर पुनः अपनी ही योनि में उत्पन्न होते हैं। वहां से गोशालक ने भगवान का साथ छोड़ दिया और वह अपना मत चलाने की बात सोचने लगा। सिद्धार्थपुर से भगवान् वैशाली पधारे। नगर के बाहर भगवान को ध्यान-मद्रा में देख कर अबोध बालकों ने उन्हें पिशाच समझा और अनेक प्रकार की यातनाएं दीं। सहसा उस मार्ग से राजा सिद्धार्थ के स्नेही मित्र शंख भूपति १ तेण असद्दहतेण प्रवक्कमित्ता सलेठ्ठो उप्पाड़ितो एगते य एडिप्रो...."बुढें । "... [प्राव. चू., पृ. २६७] २ भगवती में कूर्मग्राम के स्थान पर कुडग्राम लिखा है। ३ भ. श. श. १५, उ. १, स. ५४३ समिति । Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [साधना का ग्यारहवां वर्ष निकले । उन्होंने उन उपद्रवी बालकों को हटाया और स्वयं प्रभु की वंदन कर आगे बढ़े।' वैशाली से भगवान् 'वारिणयगाम' की ओर चले। मार्ग में गंडकी नदी पार करने के लिए उन्हें नाव में बैठना पड़ा। पार पहुंचने पर नाविक ने किराया माँगा पर भगवान मौनस्थ रहे । नाविक ने ऋद्ध होकर किराया न देने के कारण भगवान् को तवे सी तपी हुई रेत पर खड़ा कर दिया। संयोगवश उस समय 'शंख' राजा का भगिनी-पुत्र 'चित्र' वहाँ आ पहुँचा। उसने समझा कर नाविक से प्रभु को मुक्त करवाया। आगे चलते हुए भगवान् 'वारिणयग्राम' पहुंचे। वहाँ 'आनन्द' नामक श्रमणोपासक को शवधिज्ञान की उपलब्धि हुई थी। वह बेले-बेले की तपस्या के साथ आतापना करता था। उसने तीर्थंकर महावीर को देख कर वंदन किया और बोला-"आपका शरीर और मन वज्र सा दृढ़ है, इसलिए आप कठोर से कठोर कष्टों को भी मुस्कुराते हुए सहन कर लेते हैं । आपको शीघ्र ही केवलज्ञान उत्पन्न होने वाला है।" यह उपासक 'प्रानन्द' पार्श्वनाथ की परम्परा का था, भगवान महावीर का अन्तेवासी 'पानन्द' नहीं । 'वारिणयग्राम' से विहार कर भगवान ‘सावत्थी' पधारे और विविध प्रकार की तपस्या एवं योग-साधना से आत्मा को भावित करते हुए वहाँ पर दशवाँ चातुर्मास पूर्ण किया । साधना का ग्यारहवाँ वर्ष 'सावत्या' से भगवान् ने 'सानुला?य' सन्निवेश की ओर विहार किया। वहाँ सोलह दिन के निरन्तर उपवास किये और भद्र प्रतिमा, महाभद्र प्रतिमा एवं सर्वतोभद्र प्रतिमाओं द्वारा विविध प्रकार से ध्यात की साधना करते रहे। भद्र आदि प्रतिमाओं में प्रभु ने निम्न प्रकार से ध्यान की साधना की। __ भद्र प्रतिमा में पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा में चार-चार प्रहर ध्यान करते रहे। दो दिन की तपस्या का बिना पारणा किये प्रभु ने महाभद्र प्रतिमा अंगीकार की। इसमें प्रति दिशा में एक-एक अहोरात्र पयंत ध्यान किया। फिर इसका विना पारणा किये ही सर्वतोभद्र प्रतिमा की आराधना प्रारम्भ की। इसमें दश दिशाओं के क्रम से एक-एक अहोरात्र ध्यान करने से दस दिन हो १ प्राव. चू., २६६ २ आव. चू., पृ. २६६ ३ प्राव. च. पृ० ३०० Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९६ संगम देव के उपसर्ग] भगवान् महावीर गये । इस प्रकार सोलह दिन के उपवासों में तीनों प्रतिमाओं को ध्यान-साधना भगवान् ने पूर्ण की। प्रतिमाएं पूर्ण होने पर प्रभ 'मानन्द' गाथापति के यहां पहुंचे । उस समय आनन्द की 'बहुला' दासी रसोईघर के बर्तनों को खाली करने के लिए रात्रि का अवशेष दोषीण अन्न डालने को बाहर आयी थी। उसने स्वामी को देख कर पूछा-"क्या चाहिए महाराज !" महावीर ने हाथ फैलाया तो दासी ने बड़ी श्रद्धा से अवशेष बासी भोजन भगवान् को दे डाला। भगवान् ने निर्दोष जानकर उसी बासी भोजन से सहज भाव से पारणा किया । देवों ने पंच-दिव्य प्रकटाये और दान की महिमा से दासी को दासीत्व से मुक्त कर दिया।' __संगम देव के उपसर्ग वहाँ से प्रभ ने 'दढ़ भूमि' की ओर प्रयाण किया। नगरी के बाहर 'पढाल' नाम के उद्यान में 'पोलास' नाम का एक चैत्य था। वहां अष्टम तप कर भगवान् ने थोड़ा सा देह को झुकाया और एक पुद्गल पर दृष्टि केन्द्रित कर ध्यानस्थ हो गये। फिर सब इन्द्रियों का गोपन कर दोनों पैरों को संकोच कर हाथ लटकाये, एक रात की पडिमा में स्थित हुए । उस समय देव-देवियों के विशाल समह के बीच सभा में बैठे हए देवराज शक्र ने भगवान को अवधिज्ञान से ध्यानस्थ देख कर नमस्कार किया और बोले-"भगवान् महावीर का धैर्य और साहस इतना अनूठा है कि मानव तो क्या, शक्तिशाली देव और दानव भी उनको साधना से विचलित नहीं कर सकते ।" सब देवों ने इन्द्र को बात का अनुमोदन किया किन्तु संगम नामक एक देव के गले यह बात नहीं उतरी। उसने सोचा-"शक यों ही झूठी-मूठी प्रशंसा कर रहे हैं। मैं अभी जाकर उनको विचलित कर देता हूँ।" ऐसा सोच कर वह जहाँ भगवान् ध्यानस्थ खड़े थे, वहां पाया। पाते ही उसने एक-से एक बढ़ कर उपसर्गों का जाल बिछा दिया। शरीर के रोम-रोम में वेदना उत्पन्न कर दी। फिर भो जब भगवान् प्रतिकूल उपसगों से किंचिन्मात्र भी चलायमान नहीं हुए तो उसने अनुकूल उपसर्ग प्रारम्भ किये । प्रलोभन के मनमोहक दृश्य उपस्थित किये । गगनमंडल से तरुणी व सुन्दर अप्सराएं उतरी और हाव-भाव आदि करती हुई प्रभु से काम-याचना करने लगीं। पर महावीर पर उनका कोई असर नहीं हुआ, वे सुमेरु की तरह ध्यान में अडोल खड़े रहे । संगम ने एक रात में निम्नलिखित बीस भयंकर उपसर्ग उपस्थित किये(१) प्रलयकारी धूल की वर्षा की। १ प्रावश्यक चूणि, पृ० ३०१ । Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [संगम देव के (२) वज्रमुखी चींटियाँ उत्पन्न की, जिन्होंने काट-काट कर महावीर के ___ शरीर को खोखला कर दिया। (३) डाँस और मच्छर छोड़े, जो प्रभु के शरीर का खून पीने लगे। (४) दीमक उत्पन्न की- जो शरीर को काटने लगीं। (५) बिच्छुओं द्वारा डंक लगवाये । (६) नेवले उत्पन्न किये जो भगवान् के मांस-खण्ड को छिन्न-भिन्न करने लगे। (७) भीमकाय सर्प उत्पन्न कर प्रभु को उन सो से कटवाया। (८) चूहे उत्पन्न किये, जो शरीर को काट-काट कर ऊपर पेशाब कर जाते। (६-१०) हाथी और हथिनी प्रकट कर उनको सडों से भगवान के शरीर को उछलवाया और उनके दाँतों से प्रभु पर प्रहार करवाये। (११) पिशाच बन कर भगवान को डराया धमकाया और बी मारने लगा। (१२) बाघ बन कर प्रभु को नखों से विदारण किया। (१३) सिद्धार्थ और त्रिशला का रूप बना कर करुणविलाप करते दिखाया। (१४) शिविर की रचना कर भगवान के पैरों के बीच आग जला कर भोजन पकाने की चेष्टा की। (१५) चाण्डाल का रूप बना कर भगवान् के शरीर पर पक्षियों के पिंजर लटकाये जो चोंचों और नखों से प्रहार करने लगे। (१६) अाँधी का रूप खड़ा कर कई बार भगवान् के शरीर को उठाया। (१७) कलंकलिका वायु उत्पन्न कर उससे भगवान् को चक्र की तरह घुमाया। (१८) कालचक्र चलाया जिससे भगवान् घुटनों तक जमीन में धंस गये । (१९) देव रूप से विमान में बैठ कर पाया और बोला-"कहो तुमको स्वर्ग चाहिए या अपवर्ग (मोक्ष) ? और (२०) एक अप्सरा को लाकर भगवान् के सम्मुख प्रस्तुत किया, किन्तु उसके रागपूर्ण हाव-भाव से भी भगवान् विचलित नहीं हुए। रात भर के इन भयंकर उपसर्गों से भी जब भगवान् विचलित नहीं हुए तो संगम कुछ और उपाय सोचने लगा। महावीर ने भी ध्यान पूर्ण कर Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसर्ग] भगवान् महावीर ६०१ 'बालुका' की अोर विहार किया। भगवान की मेरुतूल्य धीरता और सागरवत गम्भीरता को देख कर संगम लज्जित हुआ। उसे स्वर्ग में जाते लज्जा पाने लगी। इतने पर भी उसका जोश ठंडा नहीं हुआ। उसने पाँच सौ चोरों को मार्ग में खड़ा करके प्रभु को भयभीत करना चाहा। 'बालुका' से भगवान 'सुयोग', 'सुच्छेत्ता', 'मलभ' और हस्तिशीर्ष आदि गाँवों में जहाँ भी पधारे वहाँ संगम अपने उपद्रवी स्वभाव का परिचय देता रहा । एक बार भगवान् 'तोसलि गाँव' के उद्यान में ध्यानस्थ विराजमान थे, तब संगम साधु-वेष बना कर गाँव के घरों में सेंध लगाने लगा। लोगों ने चोर समझ कर जब उसको पकड़ा और पीटा तो वह बोला--"मुझे क्यों पीटते हो? मैंने तो गुरु की आज्ञा का पालन किया है। यदि तुम्हें असली चोर को पकड़ना है तो उद्यान में जाओ, जहाँ मेरे गुरु कपट रूप में ध्यान किये खड़े हैं और उनको पकड़ो।" उसकी बात पर विश्वास कर तत्क्षरण लोग उद्यान में पहुँचे और ध्यानस्थ महावीर को पकड़ कर रस्सियों से जकड़ कर गाँव की ओर ले जाने लगे । उस समय 'महाभूतिल' नाम के ऐन्द्रजालिक ने भगवान् को पहचान लिया, क्योंकि उसने पहले 'कुडग्राम' में भगवान महावीर को देखा था। उसने लोगों को समझा कर महावीर को छुड़ाया और कहा--"यह सिद्धार्थ राजा के पूत्र हैं, चोर नहीं।" ऐन्द्रजालिक की बात सुन कर लोगों ने प्रभु से क्षमायाचना की। झूठ बोल कर साधु को चोर कहने वाले संगम को लोग खोजने लगे तो उसका कहीं पता नहीं चला। इस पर लोगों ने समझा कि यह कोई देवकृत उपसर्ग है 13 इसके पश्चात् भगवान् 'मोसलि ग्राम' पधारे। संगम ने वहाँ पर भी उन पर चोरी का आरोप लगाया। भगवान् को पकड़ कर राज्य-सभा में ले जाया गया। वहाँ 'सुमागध' नामक प्रान्ताधिकारी, जो सिद्धार्थ राजा का मित्र था, उसने महावीर को पहचान कर छुड़ा दिया। यहाँ भी संगम लोगों की पकड़ में नहीं पाया और भाग गया। फिर भगवान् लौट कर 'तोसलि' आये और गाँव के बाहर ध्यानावस्थित हो गये । संगम ने यहाँ भी चोरी करके भारी शस्त्रास्त्र महावीर के पास, उन्हें फंसाने की भावना से ला रखे और स्वयं कहीं जाकर सेंध लगाने लगा। पकड़े जाने पर उसने धर्माचार्य का नाम बता कर भगवान् को पकड़वा दिया। अधिकारियों ने उनके पास शस्त्र देखे तो नामी चोर समझ कर फाँसी की सजा सुना दी। ज्योंहीं प्रभु को फांसी के तख्ते पर चढ़ा कर उनकी गर्दन में फंदा डाला और नीचे तख्ती हटाई कि गले का फंदा टूट गया। पुन: फंदा लगाया और वह भी टूट गया । इस प्रकार सात बार फांसी पर चढ़ाने पर १ मावश्यक चरिण, पृ० ३११ । २ आवश्यक चूरिण, पृ० ३११ । ३ प्रावश्यक चूणि, पृ. ३१२ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [संगम देव के भी फाँसी का फंदा टूटता ही रहा तो दर्शक एवं अधिकारी चकित हो गये। अधिकारी पुरुषों ने प्रभु को महापुरुष समझ कर मुक्त कर दिया ।' __यहाँ से भगवान् सिद्धार्थपुर पधारे। वहाँ भी संगम देव ने महावीर पर चोरी का आरोप लगा कर उन्हें पकड़वाया, किन्तु कौशिक नाम के एक अश्वव्यापारी ने पहचान कर भगवान को मुक्त करवा दिया । भगवान् वहाँ से व्रजगाँव पधारे, वहाँ पर उस दिन कोई महोत्सव था। अतः सब घरों में खीर पकाई गई थी। भगवान् भिक्षा के लिए पधारे तो संगम ने सर्वत्र 'अनेषणा' कर दी । भगवान् इसे संगमकृत उपसर्ग समझ कर लौट आये और ग्राम के बाहर ध्यानावस्थित हो गये। इस प्रकार लगातार छः मास तक अगणित कष्ट देने पर भी जब संगम ने देखा कि महावीर अपनी साधना से विचलित नहीं हए बल्कि वे पूर्ववत ही विशुद्ध भाव से जीवमात्र का हित सोच रहे हैं, तो परीक्षा करने का उसका धैर्य टूट गया, वह हताश हो गया। पराजित होकर वह भगवान के पास आया और बोला-"भगवन् ! देवेन्द्र ने आपके विषय में जो प्रशंसा की है, वह सत्य है। प्रभो ! मेरे अपराध क्षमा करो। सचमुच आपकी प्रतिज्ञा सच्ची है और आप उसके पारगामी हैं। अब आप भिक्षा के लिए जायें, किसी प्रकार का उपसर्ग नहीं होगा।" संगम की बात सुन कर महादीर बोले- "संगम ! मैं इच्छा से ही तप या भिक्षा--ग्रहण करता हूं। मुझे किसी के आश्वासन की अपेक्षा नहीं है ।" दूसरे दिन छह माम की तपस्या पूर्ण कर भगवान् उसी गाँव में भिक्षार्थ पधारे और 'वस्सपालक' बुढ़िया के यहाँ परमान्न से पारणा किया । दान की महिमा से वहाँ पर पंच-दिव्य प्रकट हुए। यह भगवान् की दीर्घकालीन उपसर्ग सहित तपस्या थी। संगम देव के सम्बन्ध में आवश्यक नियुक्ति, मलयवृत्ति और आवश्यक चूर्षिण में निम्नलिखित उल्लेख किये हैं : "छम्मासे प्रणबद्ध, देवो कासी य सो उ उवसग्गं । दठण वयग्गामे वंदिय वीरं पडिनियत्तो ॥५१२।। एवं सोऽभविकः संगमक नामा देवः षण्मासान् अनुबद्ध-सन्ततं उपसर्गमकार्षीत् इति दृष्ट्वा च व्रजग्रामे गोकुले गो परिणाममभग्नं उपशान्तो वीरंमहावीरं वन्दित्वा प्रतिनिवृत्तः । १ प्रावश्यक चूरिण, पृ. ३१३ २ अावश्यक चू., पृ० ३१३ ATEHPATWARINAUTANAGARIRAM Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसर्ग] भगवान् महावीर ६०३ ___ इतो य-सोहम्मे कप्पे सव्वे देवा तद्दिवसं उविग्गमणा अच्छंति, संगमतो य सोहम्मं गतो, तत्थ सवको तं दठूण परम्महो ठितो भणइ-देवे भो । सुणह, एस दुरप्पा, न एएण ममवि चित्तरक्खा कया, नवि अन्नेसि देवारणं, जतो तित्थगरो प्रासातितो, न एएण अम्हं कज्जं, असंभासो, निव्विसतो उ की रउ । ततो निच्छूढ़ो सह देवीहिं, सेसा देवा इंदेण वारिया।। देवो चुतो पहिड्ढी, सो मंदरचूलियाए सिहरंमि । परिवारितो सुरबहूहि, तस्स य अयरोवमं सेसं ॥५१३॥ स संगमकनामा महद्धिको देवः स्वर्गात् च्युतः-भ्रष्टः सन् परिवारितः सुरवधूभिर्गृहीताभिर्मन्दर चूलिकायाः शिखरे-उपरितनविभागे यानकेन विमानेनागत्य स्थितः. तस्य एकमतरोपमं आयुषः शेषम् ।' अर्थात्-छह मास तक निरन्तर भ० महावीर को घोरतर उपसर्ग देने 'के पश्चात् भी संगम देव ने देखा कि प्रभु किसी भी दशा में, किसी भी उपाय द्वारा ध्यान से विचलित नहीं किये जा सकते तो भ० महावीर से व्रजग्राम में क्षमा मांग कर और उन्हें वन्दन कर वह सौधर्म देवलोक में लौट गया। सौधर्मकल्प में सभी देव उस दिन उद्विग्नावस्था में बैठे थे। संगम देव को देखते ही देवराज शक्र ने उसकी ओर से अपना मुख मोड़ लिया और देवों को सम्बोधित करते हुए कहा-हे देवो । सुनो, यह संगम देव बड़ा दुरात्मा-दुष्ट है । इसने तीर्थकर प्रभु की प्रासातना कर मेरे मन को भी गहरी चोट पहुंचाई है और अन्य सब देवों के चित्त को भी। अब यह अपने काम का नहीं है। वस्तुतः यह संगम संभाषण करने योग्य भी नहीं है । अतः देवलोक से इसे निष्कासित किया जाय। उसे तत्काल उसकी देवियों के साथ सौधर्मकल्प से जीवन भर के लिये निष्का-सित कर दिया गया। उसके पाभियोगिक शेष देवों को शक ने उसके साथ जाने से रोक कर सौधर्मकल्प में ही रखा। सौधर्मकल्प से भ्रष्ट हो वह संगम अपनी देवियों के साथ एक विमान में बैठ मन्दरगिरि के शिखर पर पाया और वहां रहने लगा । उस समय उसकी एक सागर आयु शेष थी। निखिल विश्वकबन्धु भ० भहावीर को निरन्तर घोर उपसर्ग दे कर संगम देव ने प्रगाढ़ दुष्कर्मों का बन्ध किया। उन दुष्कर्मों का प्रति कटु फल भवान्तर में ही तो उसे मिलेगा ही परन्तु अपने वर्तमान के देवभव में भी वह शक्र द्वारा सौधर्म देवलोक से निष्कासित कर दिया गया। दिव्य सुखों से प्रोतप्रोत सौधर्म स्वर्ग से मक्खी की तरह फेंका जाकर मर्त्यलोक के मन्दरगिरि पर रहने के लिये बाध्य कर दिया गया। इन्द्र के सामानिक देव को भी, उसके द्वारा केवल परीक्षा के लिये किये .१ मावश्यक मलय वृत्ति, पूर्वभाग, पत्र २६३ Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [साधना का बारहवाँ वर्ष : गये दुष्कायों का इस प्रकार का कट फल भोगना पड़ रहा है तो जान बूझ कर किसी के प्रहित की भावना से किये गये पापों का कितना तीव्रतम कट फल भोगना पड़ेगा, उसका संगम के उदाहरण से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। वज गाँव से 'प्रालंभिया', 'श्वेताम्बिका', 'सावत्थी', 'कौशाम्बी., 'वाराणसी', 'राजगृह' और मिथिला आदि को पावन करते हुए भगवान वैशाली पधारे और नगर के बाहर समरोद्यान में बलदेव के मन्दिर में चातुर्मासिक तप अंगीकार कर व्यानस्थ हुए । इस वर्ष का वर्षाकाल वहीं पूर्ण हुआ। जीरण सेठ की भावना वैशाली में जिनदत्त नामक एक भावुक एवं श्रद्धालु श्रावक रहता था। प्रार्थिक स्थिति क्षीण होने से उसका घर पुराना हो गया और लोग उसको जीर्ण सेठ कहने लगे । वह सामुद्रिक शास्त्र का भी ज्ञाता था । भगवान् की पद-रेखाओं के अनुसंधान में वह उस उद्यान में गया और प्रभु को ध्यानस्थ देख कर परम प्रसन्न हुआ। प्रीतिवश वह प्रतिदिन भगवान को नमस्कार करने आता और आहारादि के लिए भावना करता। इस तरह निरन्तर चार मास तक चातक की तरह चाह करने पर भी उसको भव्य भावना पूर्ण नहीं हो सको। चातुर्मास पूर्ण होने पर भगवान् भिक्षा के लिए निकले और अपने सकल्प के अनुसार गवेषणा करते हुए 'अभिनव' श्रेष्ठी के द्वार पर खड़े रहे। यह नया धनी था, इसका मूल नाम पूर्ण था । प्रभु को देख कर सेठ ने लापरवाही से दासी को आदेश दिया और चम्मच भर कुलत्थ बहराये । भगवान् ने उसी से चार मास की तपस्या का पारणा किया। पंच-दिव्य वृष्टि के साथ देव-दुन्दुभि बजी। उधर जीणं सेठ भगवान के पधारने की प्रतिक्षा में उत्कट भावना के साथ प्रभु को पारणा कराने की प्रतीक्षा में खड़ा रहा, वह भावना की अत्यन्त उच्चतम स्थिति पर पहुँच चुका था। इसी समय देव दुन्दुभि का दिव्य घोष उसके कर्णरन्ध्रों में पड़ा और इस प्रकार उसकी प्रतीक्षा केवल प्रतीक्षा ही बनी रही। इस उत्कट-उज्ज्वल भावना से जीर्ण सेठ ने बारहवें स्वर्ग का बन्ध किया। कहा जाता है कि यदि दो घड़ी देव-दुन्दुभि वह नहीं सुन पाता तो भावना के बल पर केवलज्ञान प्राप्त कर लेता । साधना का बारहवाँ वर्ष : चमरेन्द्र द्वारा शरण-ग्रहण वर्षाकाल पूर्ण कर भगवान् वहाँ से 'सुसुमार' पधारे। यहाँ 'भूतानन्द' ने पाकर प्रभु से कुशल पूछा और सूचित किया--"कुछ समय में आपको केवल Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमरेन्द्र द्वारा शरण ग्रहण] भगवान् महावीर ६०५ ज्ञान और केवलदर्शन की प्राप्ति होगी। भूतानन्द की बात सुन कर प्रभु मौन ही रहे। ___ 'सुसुमारपुर' में चमरेन्द्र के उत्पात की घटना और शरण-ग्रहण का भगवती सूत्र में विस्तृत वर्णन है, जो इस प्रकार है : भगवान् ने कहा- "जिस समय मैं छद्मस्थचर्या के ग्यारह वर्ष बिता चुका था उस समय की बात है कि छट्ट-छ? तप के निरन्तर पारणा करते हुए मैं सुसुमारपुर के वनखण्ड में पाया और अशोक वृक्ष के नीचे पृथ्वी-शिला-पट्ट पर ध्यानावस्थित हो गया। उस समय चमरचंचा में 'पूरण' बाल तपस्वी का जीव इन्द्र रूप से उत्पन्न हुआ। उसने अवधिज्ञान से अपने ऊपर शक्रेन्द्र को सिंहासन पर दिव्य भोग भोगते देखा। यह देख कर उसके मन में विचार उत्पन्न हया"यह मृत्यु को चाहने वाला लज्जारहित कौन है जो मेरे ऊपर पैर किये इस तरह दिव्य भोग भोग रहा है ?" चमरेन्द्र को सामानिक देवों ने परिचय दिया कि यह देवराज शकेन्द्र हैं, सदा से ये अपने स्थान को भोग रहे हैं । चमरेन्द्र को इससे संतोष नहीं हुआ। वह शकेन्द्र की शोभा को नष्ट करने के विचार से निकला और मेरे पास आकर बोला-"भगवन् ! मैं आपकी शरण लेकर स्वयं ही देवेन्द्र शक्र को उसकी शोभा से भ्रष्ट करना चाहता हूँ।" इसके बाद वह वैक्रिय रूप बना कर सौधर्म देवलोक में गया और हुंकार करते हुए बोलाकहाँ है ? देवराज शकेन्द्र कहाँ है ? चौरासी हजार सामानिक देव और करोड़ों अप्सरायें कहाँ हैं, उन सब को मैं अभी नष्ट करता हूँ।" चमरेन्द्र के रोषभरे अप्रिय शब्द सुन कर देवपति शकेन्द्र को क्रोध आया और वे भृकुटि चढ़ाकर बोले - "अरे होन-पुण्य ! असुरेन्द्र ! असुरराज ! तू आज ही मर जायेगा।" ऐसा कह कर शकेन्द्र ने सिंहासन पर बैठे-बैठे ही वज्र हाथ में ग्रहण किया और चमरेन्द्र पर दे मारा । हजारों उल्काओं को छोड़ता हुमा वह वज्र चमरेन्द्र की ओर बढ़ा। उसे देख कर असुरराज चमरेन्द्र भयभीत हो गया और सिर नीचा व पद ऊपर कर के भागते हुए तेज गति से मेरे पास आया एवं अवरुद्ध कण्ठ से बोला-"भगवन् ! आप ही शरणाधार हो" और यह कहते हुए वह मेरे पाँवों के बीच गिर पड़ा। उस समय शकेन्द्र को विचार हा कि चमर अपने बल से तो इतना साहस नहीं कर सकता, इसके पीछे कोई पीठ-बल होना चाहिए। विचार करते हुए उसने अवधिज्ञान से मुझे देखा और जान लिया कि भगवान महावीर की १ ममं च णं चउरंगुलमसंपत्तं वज्ज पडिसाहरइ । [भगवती शतक, ३।२।सू. १४५३३०२] Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Parbato जैन धर्म का मौलिक इतिहास [कठोर अभिग्रह शरण लेकर यह यहाँ पाया है। अतः ऐसा न हो कि मेरे छोड़े हुए वज्र से भगवान् को पीड़ा हो जाय । यह सोच कर इन्द्र तीव्र गति से दौड़ा और मुझ से चार अंगुल दूर स्थित वज्र को उसने पकड़ लिया। भगवान् की चरण-शरण में होने से शकेन्द्र ने चमरेन्द्र को अभय प्रदान किया, और स्वयं प्रभु से क्षमायाचना कर चला गया। सुन्सुमारपुर से भगवान् ‘भोगपुर', 'नंदिग्राम' होते हुए 'मेढ़ियाग्राम' पधारे । वहाँ ग्वालों ने उन्हें अनेक प्रकार के उपसर्ग दिये। कठोर अभिग्रह मेंढ़िया ग्राम से भगवान् कोशाम्बी पधारे और पौष कृष्णा प्रतिपदा के दिन उन्होंने एक विकट-अभिग्रह धारण किया, जो इस प्रकार है : ___ "द्रव्य से उडद के बाकले सप के कोने में हों२, क्षेत्र मे देहली के बीच खड़ी हो, काल से भिक्षा समय बीत चुका हो', भाव से राजकुमारी दासी बनी हो, हाथ में हथकड़ी और पैरों में बेड़ी हो, मडित हो, आँखों में माँस' और तेले की तपस्या किये हए हो, इस प्रकार के व्यक्ति के हाथ से यदि भिक्षा मिले तो लेना, अन्यथा नहीं।"" उपर्यत कठोरतम प्रतिज्ञा को ग्रहण कर महावीर प्रतिदिन भिक्षार्थ कोशाम्बी में पर्यटन करते । वैभव, प्रतिष्ठा और भवन की दृष्टि से उच्च, नीच एवं मध्यम सब प्रकार के कुलों में जाते और भक्तजन भी भिक्षा देने को लालायित रहते, पर कठोर अभिग्रहधारी महावीर बिना कुछ लिए ही उल्टे पैरों लौट आते । जन-समुदाय इस रहस्य को समझ नहीं पाता कि ये प्रतिदिन भिक्षा के लिए आकर यों ही लौट क्यों जाते हैं । इस तरह भिक्षा के लिए घूमते हुए प्रभु को चार महीने बीत गये, किन्तु अभिग्रह पूर्ण नहीं होने के कारण भिक्षा-ग्रहण का संयोग प्राप्त नहीं हुआ । नगर भर में यह चर्चा फैल गई कि भगवान् इस नगर की भिक्षा ग्रहण करना नहीं चाहते। सर्वत्र प्राश्चर्य प्रकट किया जाने लगा कि आखिर इस नगर में कौनसी ऐसी बुराई या कमी है, जिससे भगवान् बिना कुछ लिए ही लौट जाते हैं। उपासिका नन्दा को चिन्ता एक दिन भगवान् कोशाम्बी के अमात्य 'सुगुप्त' के घर पधारे । अमात्यपत्नी 'नन्दा' जो कि उपासिका थी, बड़ी श्रद्धा से भिक्षा देने उठी, किन्तु पूर्ववत् महावीर बिना कुछ ग्रहण किये ही लौट गये । नन्दा को इससे बड़ा दुःख हुना। १ भाव. चू,, प्रथम भाग, पृ. ३१६-३१७ Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०७ उपासिका नन्दा की चिन्ता] भगवान् महावीर उस समय दासियों ने कहा- "देवार्य तो प्रतिदिन ऐसे ही प्राकर लौट जाते हैं।" तब नन्दा ने निश्चय किया कि अवश्य ही भगवान ने कोई अभिग्रह ले रखा होगा । नन्दा ने मन्त्री मुगुप्त के सम्मुख अपनी चिन्ता व्यक्त की और बोली"भगवान महावीर चार महीनों से इस नगर में बिना कुछ लिए ही लौट जाते हैं, फिर आपका प्रधान पद किस काम का और किस काम की प्रापकी बुद्धि, जो आप प्रभु के अभिग्रह का पता भी न लगा सकें ?" सुगुप्त ने आश्वासन दिया कि वह इसके लिए प्रयत्न करेगा। इस प्रसंग पर राजा की प्रतिहारी 'विजया' भी उपस्थित थी, उसने राजभवन में जाकर महारानी मगावती को सूचित किया । रानी मगावती भी इस बात को सुन कर बहुत दुःखी हुई और राजा से बोली-"महाराज ! भगवान् महावीर बिना भिक्षा लिए इस नगर से लौट जाते हैं और अभी तक आप उनके अभिग्रह का पता नहीं लगा सके।" राजा शतानीक ने रानी को आश्वस्त किया और कहा कि शीघ्र ही इसका पता लगाने का यत्न किया जायगा। उसने 'तथ्यवादी' नाम के उपाध्याय से भगवान के अभिग्रह की बात पूछी, मगर वह बता नहीं सका । फिर राजा ने मंत्री सुगप्त से पूछा तो उसने कहा-"राजन् ! अभिग्रह अनेक प्रकार के होते हैं, पर किसके मन में क्या है, यह कहना कठिन है।" उन्होंने साधनों के प्राहार-पानी लेने-देने के नियमों की जानकारी प्रजाजनों को करा दी, किन्तु भगवान् ने फिर भी भिक्षा नहीं ली। भगवान को अभिग्रह धारण किये पांच महीने पच्चीस दिन हो गये थे। संयोगवश एक दिन भिक्षा के लिए प्रभु 'धन्ना' श्रेष्ठी के घर गये, जहाँ राजकुमारी चन्दना तीन दिन की भूखी-प्यासी, सूप में उड़द के बाकले लिए हुए अपने धर्मपिता के आगमन की प्रतीक्षा कर रही थी । सेठानी मूला ने उसको, सिर मुडित कर, हथकड़ी पहनाये तलघर में बन्द कर रखा था । भगवान् को आया देख कर वह प्रसन्न हो उठी। उसका हृदय-कमल खिल गया, किन्तु भगवान् अभिग्रह की पूर्णता में कुछ न्यूनता देख कर वहाँ से लौटने लगे, तो चन्दना के नयनों से नीर बह चला । भगवान् ने अपना अभिग्रह पूरा हुआ जान कर राजकुमारी चन्दना के हाथ से भिक्षा ग्रहण कर ली। चन्दना की हथकड़ियाँ और बेड़ियाँ टूट कर बहुमूल्य आभूषणों में बदल गईं। प्राकाश में देव-दुन्दुभि बजी, पंच-दिव्य प्रकट हुए। चन्दना का चिन्तातुर चित्त और अपमान-प्रपीड़ित-मलिन मुख सहसा चमक उठा । पाँच महिने पच्चीस दिन के बाद भगवान् का पारणा हुआ । भगवान् को केवलज्ञान उत्पन्न होने पर यही चन्दना भगवान् की प्रथम शिष्या और साध्वी-संघ की प्रथम सदस्या बनी। जनपद में बिहार 'कोशाम्बी' से विहार कर प्रभु सुमंगल, सुछेत्ता, पालक प्रभृति गाँवों में NWARRIAJLAN walaMERI O R Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [स्वातिदत्त के तात्त्विक प्रश्न होते हुए चम्पा नगरी पधारे और चातुर्मासिक तप करके उन्होंने वहीं 'स्वातिदत्त' ब्राह्मण की यज्ञशाला में बारहवाँ चातुर्मास पूर्ण किया ।' स्वातिदत्त के तात्त्विक प्रश्न भगवान् की साधना से प्रभावित होकर 'पूर्णभद्र' और 'मणिभद्र' नाम के दो यक्ष रात को प्रभु की सेवा में पाया करते थे । यह देख कर स्वातिदत्त ने सोचा कि ये कोई विशिष्ट ज्ञानी हैं, जो देव इनकी सेवा में आते हैं । ऐसा सोचकर वह महावीर के पास आया और बोला कि शरीर में आत्मा क्या है ? २ भगवान् ने कहा- 'मैं' शब्द का जो वाच्यार्थ है, वही आत्मा है।" स्वातिदत्त ने कहा--"मैं' शब्द का वाच्यार्थ किसको कहते हैं ? आत्मा का स्वरूप क्या है ?" प्रभु बोले-"प्रात्मा इन अग-उपांगों से भिन्न अत्यन्त सूक्ष्म और रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि से रहित है, उपयोग-चेतना ही उसका लक्षण है । अरूपी होने के कारण इन्द्रियाँ प्रात्मा को ग्रहण नहीं कर पातीं । अतः शब्द, रूप, प्रकाश और किरण से भी प्रात्मा सूक्ष्मतम है।" फिर स्वातिदत्त ने कहा-- "क्या ज्ञान का ही नाम आत्मा है ?" भगवान् बोले-"ज्ञान आत्मा का असाधारण गुण है और प्रात्मा ज्ञान का आधार है । गुरणी होने से आत्मा को ज्ञानी कहते हैं।" इसी तरह स्वातिदत्त ने प्रदेशन और प्रत्याख्यान के स्वरूप तथा भेद के बारे में भी प्रभु से पूछा, जिसका समाधानकारक उत्तर पाकर वह बहुत ही प्रसन्न हुमा । ग्वाले द्वारा कानों में कील ठोकना वहाँ से विहार कर प्रभु 'जंभियग्राम' पधारे । वहाँ कुछ समय रहने के पश्चात् प्रभु मेढ़ियाग्राम होते हुए 'छम्माणि ग्राम गये और गाँव के बाहर ध्यान में स्थिर हो गये। संध्या के समय एक ग्वाला वहाँ पाया और प्रभ के पास अपने बैल छोड़ कर कार्य हेतु गाँव में चला गया। लौटने पर उसे बैल नहीं मिले तो उसने महावीर से पूछा, किन्तु महावीर मौन थे। उनके उत्तर नहीं देने से क्रुद्ध होकर उसने महावीर के दोनों कानों में कांस नामक घास की शलाकाएँ डालीं और पत्थर से ठोक कर कान के बराबर कर दी। भगवान को इस १ प्राव० चू०, पृ० ३२० । २ त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व १०, सर्ग ४, श्लोक ६१० । ३ आव० चू०, पृ. ३२०-३२१ ।। ४ आव० चू०, पृ० ३२१ । ५ छम्माणि मगध देश में था, बौद्ध ग्रन्थों में इसका नाम खाउमत प्रसिद्ध है। [वीर विहार मीमांसा हिन्दी, पृ० २८] - Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसर्ग और सहिष्णुता] भगवान् महावीर शलाका-बेधन से अति वेदना हो रही थी, तदुपरान्त भी वे इस वेदना को पूर्वसंचित कर्म का फल समझ कर, शान्त और प्रसन्न मन से सहते रहे। _ 'छम्मारिण' से विहार कर प्रभु 'मध्यम पावा' पधारे और भिक्षा के लिए 'सिद्धार्थ' नामक वणिक के घर गये । उस समय सिद्धार्थ अपने मित्र 'खरक' वैद्य से बातें कर रहा था । वन्दना के पश्चात् खरक ने भगवान् की मुखाकृति देखते ही समझ लिया कि इनके शरीर में कोई शल्य है और उसको निकालना उसका कर्तव्य है। उसने सिद्धार्थ से कहा और उन दोनों मित्रों ने भगवान से ठहरने की प्रार्थना की किन्तू प्रभ रुके नहीं। वे वहाँ से चल कर गाँव के बाहर उद्यान में आये और ध्यानारूढ़ हो गयं । AmandednanewmaratswYETHA इधर सिद्धार्थ और खरक दवा आदि लेकर उद्यान में पहँचे। उन्होंने भगवान् के शरीर की तेल से खूब मालिश की और फिर संडासी से कानों की शलाकाएँ खींच कर बाहर निकालीं । रुधिरयुक्त शलाका के निकलते ही भगवान् के मुख से एक ऐसी चीख निकली, जिससे कि सारा उद्यान गज उठा । फिर वैद्य खरक ने संरोहण औषधि घाव पर लगा कर प्रभु की वन्दना की और दोनों मित्र घर की ओर चल पड़े। __उपसर्ग और सहिष्णुता कहा जाता है कि दीर्घकाल की तपस्या में भगवान को जो अनेक प्रकार के अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्ग सहने पड़े, उन सबमें कानों से कील निकालने का उपसर्ग सबसे अधिक कष्टप्रद रहा। इस भयंकर उपसर्ग के सामने 'कटपूतना' का शैत्यवर्धक उपसर्ग जघन्य और संगम के कालचक्र का उपसर्ग मध्यम कहा जा सकता है । जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट इन सभी उपसर्गों में भगवान ने समभाव से रहकर महती कर्म-निर्जरा की । आश्चर्य की बात है कि भगवान का पहला उपसर्ग कुर्मार ग्राम में एक ग्वाले से प्रारम्भ हुआ और अन्तिम उपसर्ग भी एक ग्वाले के द्वारा उपस्थित किया गया । .. छद्मस्थकालीन तप छद्मस्थकाल के साधिक साढ़े बारह वर्ष जितने दीर्घकाल में भगवान् महावीर ने केवल तीन सौ उनचास दिन ही आहार ग्रहण किया, शेष सभी दिन निर्जल तपस्या में व्यतीत किये। . कल्पसूत्र के अनुसार श्रमण भगवान् महावीर दीक्षित होकर १२ वर्ष से कुछ अधिक काल तक निर्मोह भाव से साधना में तत्पर रहे । उन्होंने शरीर की १ प्रा० मलय नि०, गा० ५२४ की टीका । पृ० १९८ । २ कल्पसूत्र, ११६ । --Hum..tammana.velmजान Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [छद्मस्थकालीन तप ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया । जो भी उपसर्ग, चाहे वे देव सम्बन्धी, मनुष्य सम्बन्धी अथवा तियंच सम्बन्धी उत्पन्न हुए, उन अनुकूल एवं प्रतिकूल सभी उपसर्गों को महावीर ने निर्भय होकर समभावपूर्वक सहन किया। उनकी कठोर साधना और उग्र-तपस्या बेजोड़ थी। भगवान महावीर ने अपनी तप:साधना में कई बार पन्द्रह-पन्द्रह दिन और महीने-महीने तक जल भी ग्रहण नहीं किया । कभी वे दो-दो महीने और अधिक छ-छै महीने तक पानी नहीं पीते हए रात दिन निःस्पृह होकर विचरते रहे। पारणे में भी वे नीरस आहार पाकर सन्तोष मानते । उनकी छद्मस्थकालोन तपस्या इस प्रकार है:(१) एक छमासी तप । (6) बहत्तर पाक्षिक तप । (२) एक पाँच दिन कम छमासी तप। (१०) एक भद्र प्रतिमा दो दिन की। (३) नौ [६] चातुर्मासिक तप। (११) एक महाभद्र प्रतिमा चार दिन की। (४) दो त्रैमासिक तप । (१२) एक सर्वतोभद्र प्रतिमा दस दिन की। (५) दो [२] सार्धद्वैमासिक तप । (१३) दो सौ उनतीस छ8 भक्त । (६) छै [६] द्वमासिक तप । (१४) बारह अष्टम भक्त । (७) दो [२] सार्धमासिक तप । (१५) तीन सौ उनचास दिन पारणा । (८) बारह [१२] मासिक तप । (१६) एक दिन दीक्षा का ।' प्राचारांग सत्र के अनसार दशमभक्त आदि तपस्यायें भी प्रभ ने की थीं। इस प्रकार की कठोर साधना और उग्र तपस्या के कारण ही अन्य तीर्थंकरों की अपेक्षा महावीर की तपःसाधना उत्कृष्ट मानी गई है । नियुक्तिकार भद्रबाहु के अनुसार महावीर की तपस्या सबसे अधिक उग्र थी । कहा जाता है कि उनके संचित कर्म भी अन्य तीर्थंकरों की अपेक्षा अधिक थे। महावीर को उपमा भगवान् महावीर की विशिष्टता शास्त्र में निम्न उपमानों से बताई गई है । वे :[१] कांस्य-पात्र की तरह निर्लेप, [५] वायु की तरह अप्रतिबद्ध, [२] शंख की तरह निरंजन राग- [६] शरद् ऋतु के स्वच्छ जल के रहित, समान निर्मल, [३] जीव की तरह अप्रतिहत गति, [७] कमलपत्र के समान भोग में [४] गगन की तरह पालम्बन रहित, निर्लेप, १ कल्पसूत्र, ११७ । Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान] भगवान् महावीर ६११ [८] कच्छप के समान जितेन्द्रिय, [१५] सुमेरु की तरह परीषहों के बीच अचल, [६] गेंडे की तरह राग-द्वेष से [१६] सागर की तरह गंभीर, रहित-एकाकी, [१०] पक्षी की तरह अनियत विहारी, [१७] चन्द्रवत् सौम्य । [११] भारण्ड की तरह अप्रमत्त, [१८] सूर्यवत् तेजस्वी, [१२] उच्च जातीय गजेन्द्र के समान [१६] स्वर्ण की तरह कान्तिमान, [१३] वृषभ के समान पराक्रमी, [१४] सिंह के समान दुर्द्धर्ष, [२०] पृथ्वी के समान सहिष्णु और [२१] अग्नि की तरह जाज्वल्यमान तेजस्वी थे। केवलज्ञान अनुत्तर ज्ञान, अनुत्तर दर्शन और अनुत्तर चारित्र आदि गुणों से आत्मा को भावित करते हुए भगवान् महावीर को साढ़े बारह वर्ष पूर्ण हो गये । तेरहवें वर्ष के मध्य में ग्रीष्म ऋतु के दूसरे मास एवं चतुर्थ पक्ष में वैशाख शुक्ला दशमी के दिन जिस समय छाया पूर्व की ओर बढ़ रही थी, दिन के उस पिछले प्रहर में, जुभिकाग्राम नगर के बाहर, ऋजुबालुका नदी के किनारे, जीर्ण उद्यान के पास, श्यामाक नामक गाथापति के क्षेत्र में, शाल वृक्ष के नीचे, गोदोहिका आसन से प्रभ आतापना ले रहे थे। उस समय छटठ भक्त की निर्जल तपस्या से उन्होंने क्षपक श्रेणी का आरोहण कर, शुक्ल-ध्यान के द्वितीय चरण में मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन चार घाती कर्मों का क्षय किया और उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के योग में केवलज्ञान एवं केवल दर्शन की उपलब्धि की। अब भगवान भाव अर्हन्त कहलाये और देव, मनष्य, असुर, नारक, तिर्यंच, चराचर, सहित सम्पूर्ण लोक की त्रिकालवर्ती पर्याय को जानने तथा देखने वाले, सब जीवों के गुप्त अथवा प्रकट सभी तरह के मनोगत भावों को जानने वाले, सर्वज्ञ व सर्वदर्शी बन गये। प्रथम देशना भगवान् महावीर को केवलज्ञान उत्पन्न होते ही देवगण पंचदिव्यों की वष्टि करते हुए ज्ञान की महिमा करने आये । देवताओं ने सुन्दर और विराट समवशरण की रचना की। यह जानते हुए भी कि यहाँ सर्वविरति व्रत ग्रहण करने योग्य कोई नहीं है, भगवान् ने कल्प समझ कर कुछ काल उपदेश दिया। वहां मनुष्यों की उपस्थिति नहीं होने से किसी ने विरति रूप चारित्र-धर्म स्वीकार नहीं किया। तीर्थकर का उपदेश कभी व्यर्थ नहीं जाता, किन्तु महावीर Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [प्रथम देशना की प्रथम देशना का परिणाम विरति-ग्रहण की दृष्टि से शून्य रहा, जो कि अभूतपूर्व होने के कारण आश्चर्य माना गया। श्वेताम्बर परम्परा के प्रागम साहित्य में, और शीलांकाचार्य के 'चउवन्न महापुरिस चरिउ' को छोड़कर प्रायः सभी प्रागमेतर साहित्य में भी यह सर्वसम्मत मान्यता दृष्टिगोचर होती है कि भगवान महावीर की प्रथम देशना प्रभाविता परिषद् के समक्ष हुई । उसके परिणामस्वरूप जिस प्रकार भगवान महावीर के पूर्ववर्ती तेईस तीर्थंकरों को प्रथम देशना से प्रभावित होकर अनेक भव्यात्माओं ने सर्वविरति महाव्रत अंगीकार किये, उस प्रकार भगवान् महावीर की प्रथम देशना से एक भी व्यक्ति ने सर्वविरति महाव्रत धारण नहीं किये। इस सन्दर्भ में श्री हेमचन्द्र आदि प्रायः सभी प्राचार्यों का यह अभिमत ध्वनित होता है कि भगवान् की प्रथम देशनों के अवसर पर समवशरण में एक भी भव्य मानव उपस्थित नहीं हो सका था । पर प्राचार्य गुणचन्द्र ने अपने 'महावीर चरियम्' में भगवान महावीर के प्रथम समवशरण की परिषद् को प्रभाविता-परिषद स्वीकार करते हए भी यह स्पष्ट उल्लेख किया है कि उस परिषद् में मनुष्य भी उपस्थित हुए थे। शीलांक जैसे उच्च कोटि के विद्वान् और प्राचीन आचार्य ने अपने 'चउवन्न महापुरिस चरियम्' में 'प्रभाविता-परिषद्' का उल्लेख तक भी नहीं करते हुए 'ऋजुबालुका' नदी के तट पर हुई भगवान् महावीर की प्रथम देशना में ही इन्द्रभति आदि ग्यारह विद्वानों के अपने-अपने शिष्यों सहित उपस्थित होने, उनकी मनोगत शंकाओं का भगवान् द्वारा निवारण करने एवं प्रभचरणों में दीक्षित हो गणधर-पद प्राप्त करने आदि का विवरण दिया है । मध्यमापावा में समवशरण यहां से भगवान् 'मध्यमापावा' पधारे । वहाँ पर 'आर्य सोमिल' द्वारा एक विराट यज्ञ का आयोजन किया जा रहा था जिसमें कि उच्च कोटि के अनेक विद्वान् निमन्त्रित थे। भगवान् ने वहाँ के विहार को बड़ा लाभ का कारण समझा । जब 'जभिय गाँव' से आप पावापुरी पधारे तब देवों ने अशोक वक्ष १ ताहे तिलायनाहो थुव्वन्तो देवनरनरिंदेहिं । सिंहासणे निसीयइ, तित्थपणाम पकाऊण ॥४॥ जइविहु एरिसनाररोण जिणवरो मुणइ जोग्गयारहियं । कप्पोति तहवि साहइ, खणमेत्तं धम्मपरमत्थं ।।५।। [महावीर चरियम् (प्राचार्य गुणचन्द्र), प्रस्ताव ७] २ चउप्पन्नमहापुरिसचरियं, पृ० २६९ से ३०३ । Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति का आगमन] भगवान् महावीर आदि महाप्रोतिहार्यों से प्रभु की महती महिमा की । देवों द्वारा एक भव्य और विराट् समवशरण की रचना की गई । वहाँ देव-दानव और मानवों आदि की विशाल सभा में भगवान् उच्च सिंहासन पर विराजमान हुए। मेघ-सम गम्भीर ध्वनि में महावीर ने अर्धमागधी भाषा में देशना प्रारम्भ की। भव्य भक्तों के मनमयूर इस अलौकिक उपदेश को सुनकर भावविभोर हो उठे। इन्द्रभूति का आगमन समवशरण में आकाश-मार्ग से देव-देवियों के समूदाय आने लगे । यज्ञस्थल के पण्डितों ने देवगण को बिना रुके सीधे ही आगे निकलते देखा तो उन्हें आश्चर्य हुप्रा । प्रमुख पण्डित इन्द्रभूति को जब मालूम हुआ कि नगर के बाहर सर्वज्ञ महावीर आये हैं और उन्हीं के समवशरण में ये देवगण जा रहे हैं, तो उनके मन में अपने पाण्डित्य का दर्प जागृत हुआ। वे भगवान महावीर के अलौकिक ज्ञान की परख करने और उन्हें शास्त्रार्थ में पराजित करने की भावना से समवशरण में आये । उनके साथ पाँच सौ छात्र और अन्य विद्वान् भी थे। समवशरण में आकर इन्द्रभूति ने ज्योंही महावीर के तेजस्वी मुख-मण्डल एवं छत्रादि अतिशयों को देखा तो अत्यन्त प्रभावित हुए और महावीर ने जब उन्हें "इन्द्रभूति गौतम" कहकर सम्बोधित किया तो वे चकित हो गये । इन्द्रभूति ने मन ही मन सोचा- "मेरी ज्ञान विषयक सर्वत्र प्रसिद्धि के कारण इन्होंने नाम से पुकार लिया है। पर जब तक ये मेरे अंतरंग संशयों का छेदन नही कर दें, मैं इन्हें सर्वज्ञ नहीं मानूंगा।" इन्द्रभूति का शंका-समाधान गौतम के मनोगत भावों को समझकर महावीर ने कहा-"गौतम ! मालूम होता है, तुम चिरकाल से प्रात्मा के विषय में शंकाशील हो।" इन्द्रभूति अपने अन्तर्मन के निगूढ़ प्रश्न को सुनकर अत्यन्त विस्मित हुए। उन्होंने कहा"हाँ मुझे यह शंका है। 'श्रुतियों में', विज्ञान-घन आत्मा भूत-समदाय से ही उत्पन्न हैती है और उसी में पुनः तिरोहित हो जाती है, अतः परलोक की संज्ञा नहीं, ऐसा कहा गया है । जैसे-'विज्ञानधन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवान विनश्यति, न प्रेत्य संज्ञास्ति ।' इसके अनुसार पृथ्वी आदि भूतों से पृथक् पुरुषका अस्तित्व कैसे संभव हो सकता है ?" १ अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिः, दिव्यध्वनिश्चामरमासनं च । भामण्डलं दुन्दुम्भिरातपत्रं, सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वरस्य ।। २ प्रावश्यक, गा० ५३६ । Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ इन्द्रभूति का शंका-समाधान इन्द्रभूति का प्रश्न सुनकर प्रभु महावीर ने शान्तभाव से उत्तर देते हुएकहा - । 'इन्द्रभूति ! तुम विज्ञानघन....' इस श्रुतिवाक्य का जिस रूप में अर्थ समझ रहे हो, वस्तुतः उसका वैसा अर्थ नहीं है । तुम्हारे मतानुसार विज्ञानधन का प्रर्थं भूत समुदायोत्पन्न चेतनापिण्ड है, पर उसका सही अर्थ विविध ज्ञानपर्यायों से है । आत्मा में प्रतिपल नवीन ज्ञानपर्यायों का आविर्भाव और पूर्व - कालीन ज्ञानपर्यायों का तिरोभाव होता रहता है । जैसे कि कोई व्यक्ति एक घट को देख रहा है, उस पर विचार कर रहा है, उस समय उसकी आत्मा में घट विषयक ज्ञानोपयोग समुत्पन्न होता है । इस स्थिति को घट विषयक ज्ञानपर्याय कहेंगे । कुछ समय के बाद वही मनुष्य जब घट को छोड़कर पट आदि पदार्थों को देखने लगता है तब उसे पट आदि पदार्थों का ज्ञान होता है और पहले का घट सम्बन्धी ज्ञान - पर्याय सत्ताहीन हो जाता है । अतः कहा जा सकता है कि विविध पदार्थ विषयक ज्ञान के पर्याय ही विज्ञानघन हैं । यहाँ भूत शब्द का अर्थ पृथ्वी आदि पंच महाभूत से न होकर जड़-चेतन रूप समस्त ज्ञेय पदार्थ से है । 'न प्रेत्य संज्ञास्ति' इस वाक्य का अर्थ परलोक का प्रभाव नहीं, पर पूर्व पर्याय की सत्ता नहीं, यह समझना चाहिये । इस प्रकार जब पुरुष में उत्तरकालीन ज्ञानपर्याय उत्पन्न होता है, तब पूर्वकालीन ज्ञानपर्याय सत्ताहीन हो जाता है । क्योंकि किसी भी द्रव्य या गुरण की उत्तर पर्याय के समय पूर्व पर्याय की सत्ता नहीं रह सकती । अत: 'न प्रेत्य संज्ञास्ति' कहा गया है ।" ६१४ भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित इस तर्क-प्रधान विवेचना को सुनकर इन्द्रभूति के हृदय का संशय नष्ट हो गया और उन्होंने अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ प्रभु का शिष्यत्व स्वीकार किया । ये ही इन्द्रभूति प्रागे चलकर भगवान् महावीर के शासन में गौतम के नाम से प्रसिद्ध हुए दिगम्बर - परम्परा की मान्यता इस सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा की मान्यता है कि भगवान् महावीर को केवलज्ञान की उपलब्धि होने पर देवों ने पंच- दिव्यों की वृष्टि की और इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने वैशाख शुक्ला १० के दिन ही समवशरण की रचना कर दी । भगवान् महावीर ने पूर्वद्वार से समवशरण में प्रवेश किया और वे सिंहासन पर विराजमान हुए । भगवान् का उपदेश सुनने के लिये उत्सुक देवेन्द्र अन्य देवों के साथ हाथ जोड़े अपने प्रकोष्ठ में प्रभु के समक्ष बैठ गये । पर प्रभु के मुखारविन्द से दिव्य ध्वनि प्रस्फुटित नहीं हुई । निरन्तर कई दिनों की प्रतीक्षा के बाद भी जब प्रभु ने उपदेश नहीं दिया तो इन्द्र ने चिन्तित हो सोचा कि आखिर भगवान् के उपदेश न देने का कारण क्या है । Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा की मान्यता] भगवान महावीर ६१५ अवधिज्ञान से इन्द्र को जब यह ज्ञात हुआ कि गणधर के अभाव में भगवान का उपदेश नहीं हो रहा है, तो वे उपयुक्त पात्र की खोज में लगे और विचार करते करते उन्हें उस समय के प्रकाण्ड पण्डित इन्द्रभूति का ध्यान आया । देवराज शक्र तत्काल शिष्य का छद्मवेश बना कर इन्द्रभूति के पास पहुंचे और सादर अभिवादन के पश्चात् बोले-"विद्वन् ! मेरे गुरु ने मुझे एक गाथा सिखाई थी। उस गाथा का अर्थ मेरी समझ में अच्छी तरह नहीं आ रहा है। मेरे गुरु इस समय मौन धारण किये हुए हैं, अत: आप कृपा कर मुझे उस गाथा का अर्थ समझा दीजिये ।" । उत्तर में इन्द्रभूति ने कहा--"मैं तुम्हें गाथा का अर्थ इस शर्त पर समझा सकता हूँ कि उस गाथा का अर्थ समझ में आ जाने पर तुम मेरे शिष्य बन जाने की प्रतिज्ञा करो।" छद्मवेशधारी इन्द्र ने इन्द्रभूति की शर्त सहर्ष स्वीकार करते हुए उनके सम्मुख यह गाथा प्रस्तुत की : पंचेव अस्थिकाया, छज्जीवरिणकाया महन्वया पंच । अट्ठ य पवयणमादा, सहेउमो बंध-मोक्खो य ।। [षट्खण्डागम, पु० ६, पृ० १२६] इन्द्रभूति उक्त गाथा को पढ़ते ही असमंजस में पड़ गये। उनकी समझ में नहीं पाया कि पंच अस्तिकाय, षड्जीवनिकाय और अष्ट प्रवचन मात्राएँ कौनकौन सी हैं । गाथा में उल्लिखित 'छज्जीवरिणकाया' इस शब्द से तो इन्द्रभूति एकदम चकरा गये, क्योंकि जीव के अस्तित्व के विषय में उनके मन में शंका घर किये हुए थी। उनके मन में विचारों का प्रवाह उमड़ पड़ा। हठात् अपने विचार-प्रवाह को रोकते हुए इन्द्रभूति ने आगन्तुक से कहा"तुम मुझे तुम्हारे गुरु के पास ले चलो। उनके सामने ही मैं इस गाथा का अर्थ समझाऊँगा।" __ अपने अभीप्सित कार्य को सिद्ध होता देख इन्द्र बड़ा प्रसन्न हया और वह इन्द्रभूति को अपने साथ लिये भगवान् के समवशरण में पहुंचा। गौतम के वहाँ पहुँचते ही भगवान् महावीर ने उन्हें नाम-गोत्र के साथ सम्बोधित करते हुए कहा-"अहो गौतम इन्द्रभूति ! तुम्हारे मन में जीव के अस्तित्व के विषय में शंका है कि वास्तव में जीव है या नहीं। तुम्हारे अन्तर में जो इस प्रकार का विचार कर रहा है, वही निश्चित रूप से जीव है। उस जीव का सर्वदा प्रभाव न तो कभी हुआ है और न कभी होगा ही।" Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [तीर्थस्थापना भगवान के मुखारविन्द से कभी किसी के सम्मुख प्रकट नहीं की हई अपने मन की शंका एवं उस शंका का समाधान सुन कर इन्द्रभूति श्रद्धा तथा भक्ति के उद्रेक से प्रभुचरणों पर अवनत हो प्रभु के पास प्रथम शिष्य के रूप से दीक्षित हो गये। इस प्रकार गौतम इन्द्रभूति का निमित्त पाकर केवलज्ञान होने के ६६ दिन पश्चात् श्रावण-कृष्णा प्रतिपदा के दिन भगवान् महावीर ने प्रथम उपदेश दिया । यथा : वासस्स पढममासे, सावरणरणामम्मि बहुल पडिवाए । अभिजीणक्खत्तम्मि य, उप्पत्ती धम्मतित्थस्स ।। [तिलोयपण्णत्ती, १६८] तीर्थ स्थापना इन्द्रभति के पश्चात अग्निभूति आदि अन्य दस पण्डित भी क्रमशः प्राये और भगवान महावीर से अपनी शंकाओं का समाधान पा कर शिष्य मण्डली सहित दीक्षित हो गये। भगवान् महावीर ने उनको "उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा, धवेइ वा" इस प्रकार त्रिपदी का ज्ञान दिया। इसी त्रिपदी से इन्द्रभृति आदि विद्वानों ने द्वादशांग और दृष्टिवाद के अन्तर्गत चौदह पूर्व की रचना की और वे गणधर कहलाये। महावीर की वीतरागमयी वाणी श्रवण कर एक ही दिन में उनके इन्द्रभूति आदि चार हजार चार सौ शिष्य हुए । प्रथम पाँच के पाँच-पाँच सौ, छठे और सातवें के साढ़े तीन तीन सौ, और शेष अन्तिम चार पण्डितों के तीनतीन सौ छात्र थे। इस तरह कुल मिलाकर चार हजार चार सौ हुए । भगवान् के धर्म संघ में राजकुमारी चन्दनबाला प्रथम साध्वी बनी। शंख शतक आदि ने श्रावक धर्म और सुलेसा आदि ने श्राविका धर्म स्वीकार किया। इस प्रकार 'मध्यमपावा' का वह 'महासेन वन' और वैशाख शुक्ला एकादशी का दिन धन्य हो गया जब भगवान महावीर ने श्रुतधर्म और चारित्र-धर्म की शिक्षा दे कर साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ की स्थापना को और स्वयं भावतीथंकर कहलाये। महावीर को भाषा भगवान् महावीर ने अपना प्रवचन अर्धमागधी भाषा में किया था। भगवान् की भाषा को आर्य-अनार्य सभी सरलता से समझ लेते थे। जर्मन १ उप्पन्न विगम धुअपय तिम्मि कहिए जरणेण तो तेहिं । सव्वेहि विय बुद्धीहिं बारस अंगाई रइयाई ।। १५६४, महावीर चरित्र, (नेमिचन्द्र रचित) २ (क) समवा०, पृ० ५७ । (ख) प्रोपपातिक सूत्र, सू० ३४, पृ० १४६ । ३ (क) समवायांग, पृ० ५७। (ख) प्रोपपातिक सूत्र, पृ० १४६ AAP Hary Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलचर्या का प्रथम वर्ष ] भगवान् महावीर ६१७ विद्वान् रिचार्ड पिशल ने इसके अनेक प्राचीन रूपों का उल्लेख किया है ।" निशीथ चूरिंग में मगध के अर्द्ध भाग में बोली जाने वाली अठारह देशी भाषात्रों में नियत भाषा को अर्धमागधी कहा है । नवांगी टीकाकार अभयदेव के मतानुसार इस भाषा को अर्धमागधी कहने का कारण यह है कि इसमें कुछ लक्षण मागधी के और कुछ लक्षण प्राकृत के पाये जाते हैं । ४ 3 तीर्थ स्थापना के पश्चात् पुनः भगवान् 'मध्यमापावा' से राजगृही को पधारे और इस वर्ष का वर्षावास वहीं पूर्ण किया । केवल चर्या का प्रथम वष बहुत मध्यमपावा से ग्रामानुग्राम विहार करते हुए भगवान् साधु परिवार के साथ 'राजगृह' पधारे । राजगृह में उस समय पार्श्वनाथ की परम्परा के से श्रावक और श्राविकाएँ रहती थीं । भगवान् नगर के बाहर गुणशील चैत्य में विराजे । राजा श्रेणिक को भगवान् के पधारने की सूचना मिली तो वे राजसी शोभा में अपने अधिकारियों, अनुचरों और पुत्रों आदि के साथ भगवान् की वन्दना करने को निकले और विधिपूर्वक वन्दन कर सेवा करने लगे । उपस्थित सभा को लक्ष्य कर प्रभु ने धर्म देशना सुनाई । श्रेणिक ने धर्म सुन कर सम्यक्त्व स्वीकार किया और अभयकुमार आदि ने श्रावक-धर्म ग्रहरण किया । " १ हेमचन्द्र जोशी द्वारा अनूदित 'प्राकृत भाषाओंों का व्याकरण, पृ० ३३ । २ (क) बृहत्कल्प भाष्य १ प्र० की वृत्ति १२३१ में मगध, मालव, महाराष्ट्र, लाट, कर्णाटक, गौड़, विदर्भ प्रादि देशों की भाषात्रों को देशी भाषा कहा है । (ख) उद्योतन सूरि ने कुवलयमाला में, गोल्ल, मगध, कर्णाटक, अन्तरवेदी, कीर, ढबक, सिंधु, मरु, गुर्जर, लाट, मालवा, ताइय ( ताजिक), कोशल, मरहट्ठ भीर मान्ध्र प्रदेशों की भाषाभों का देशी भाषा के रूप से सोदाहरण उल्लेख किया है । [ डॉ० जगदीशचन्द्र जैन - प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० ४२७ - ४२८ ] ३ मगह विसय भासा, निबद्ध प्रद्धमागहां श्रहवा अट्ठारह देसी भासा यितं श्रद्धमागहं ११, ३६१६ निशीथ चूरिंग ४ (क) व्याख्या प्र० ५।४ सूत्र १६१ की टीका, पृ० २२१ (ख) प्रोपपातिक, सू० ५६ टी०, पृ० १४८ ५ (क) एमाइ धम्मकहं सोउं सेरिणय निवाइया भव्वा । संमत' परिपना केई पुरा देस विरयाई ।। १२६४ (ख) श्रुत्वा तां देशना भर्तुः सम्यक्त्वं श्रेणिकोऽश्रयत् श्रावकधर्म त्वभय कुमाराद्याः प्रपेदिरे । ३७६ [ नेमिचन्द्र कृत महावीर चरियं ] । [ क्रि० श०, प० १०, स० ६ ] Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [नन्दिषेण की दीक्षा नन्दिषरण की दीक्षा राजकुमार मेषकुमार और नन्दिषेण ने धर्मदेशना सुन कर उस दिन भगवान् के पास दीक्षा ग्रहण की थी, जिसका वर्णन इस प्रकार है : महावीर प्रभु की वाणी सुनकर नन्दिषेण ने माता-पिता से दीक्षा ग्रहण करने की अनुमति चाही। श्रेणिक ने भी धर्मकार्य समझकर उसको अनुमति प्रदान की। अनुमति प्राप्त कर ज्योंही नन्दिषेण घर से चला कि आकाश से एक देवता ने कहा-"वत्स ! अभी तुम्हारे चारित्रावरण का प्राबल्य है, अतः कुछ काल घर में ही रहो, फिर कर्मों के हल्का हो जाने पर दीक्षित हो जाना।" नन्दिषेण भावना के प्रवाह में बह रहा था, अतः वह बोला-"अजी ! मेरे भाव पक्के हैं तथा मैं संयम में लीन हूँ फिर मेरा चारित्रावरण क्या करेगा ?" इस प्रकार कह कर वह भगवान् के पास आया और प्रभु-चरणों में उसने दीक्षा ग्रहण कर ली । स्थविरों के पास ज्ञान सीखा और विविध प्रकार की तपस्या के साथ आतापना आदि से वह आत्मा को भावित करता रहा। कुछ काल के पश्चात जब देव ने मुनि को विकट तप करते हए देखा तो उसने फिर कहा"नन्दिषेण ! तुम मेरी बात नहीं मान रहे हो, सोच लो, बिना भोग-कर्म को चुकाये संसार से त्राण नहीं होगा, चाहे कितना ही प्रयत्न क्यों न करो।" देव के बार-बार कहने पर भी नन्दिषेण ने उस पर ध्यान नहीं दिया। एक बार बेले की तपस्या के पारण के दिन वे अकेले भिक्षार्थ निकले और कर्मदोष से वेश्या के घर पहुँच गये। ज्यों ही उन्होंने धर्मलाभ की बात कही तो वेश्या ने कहा- “यहाँ तो अर्थ-लाभ की बात है" और फिर हँस पड़ी। उसका हँसना मुनि को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने एक तरण खींच कर रत्नों का ढेर कर दिया और "ले यह अर्थ लाभ" कहते हुए घर से बाहर निकल पड़े । रत्नराशि देख आश्चर्याभिभूत हुई वेश्या, मुनि नन्दिषेण के पीछे-पीछे दौड़ी और बोली-“प्राणनाथ ! जाते कहाँ हो ? मेरे साथ रहो, अन्यथा मैं अभी प्राण-विसर्जन कर दूगी।" उसके अतिशय अनरोध एवं प्रेमपूर्ण आग्रह को कर्माधीन नन्दिषेण ने स्वीकार कर लिया, किन्तु उन्होंने एक शर्त रखी--"प्रतिदिन दस मनुष्यों को प्रतिबोध दूंगा तब भोजन करूगा और जिस दिन ऐसा नहीं कर सकूगा, उस दिन मैं पुनः गुरु-चरणों में दीक्षित हो जाऊंगा।" देव-वाणी का स्मरण करते हए और वेश्या के साथ रहते हए भी मनि प्रतिदिन दस व्यक्तियों को प्रतिबोध देकर भगवान् के पास दीक्षा ग्रहण करने के लिये भेजने के पश्चात् भोजन करते । अन्ततोगत्वा एक दिन भोग्य-कर्म क्षीण हए । नन्दिषेण ने नौ व्यक्तियों को प्रतिबोध देकर तैयार किया, परन्तु दसवां सोनी प्रतिबोध पा कर भी दीक्षार्थ तैयार नहीं हुआ। भोजन का समय मा गया । अतः वेश्या बार-बार भोजन के लिये बुलावा भेज रही थी। पर अभिग्रह Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलीचर्या का द्वितीय वर्ष] भगवान् महावीर ६१६ पूर्ण नहीं होने के कारण नंदिषेण नहीं उठे। कुछ देर बाद वेश्या स्वयं पायी प्रोर भोजन के लिये प्राग्रहपूर्वक कहने लगी। पर नन्दिषेण ने कहा- "दसवाँ तैयार नहीं हुआ, तो अब मैं ही दसवाँ होता है।" ऐसा कह कर वे वेश्यालय से बाहर निकल पड़े और भगवच्चरणों में पुनः दीक्षा ले कर विशुद्ध रूप से संयमसाधना में तत्पर हो गये ।। इस प्रकार अनेक भव्य-जीवों का कल्याण करते हुए प्रभु ने तेरहवाँ वर्षाकाल राजगृह में ही पूर्ण किया। केवलीचर्या का द्वितीय वर्ष राजगृही में वर्षाकाल पूर्ण कर ग्रामानुग्राम विचरते हुए प्रभु ने विदेह की पोर प्रस्थान किया। वे 'ब्राह्मण कुण्ड' पहुँचे और पास में 'बहुशाल' चैत्य में विराजमान हुए । भगवान् के आने का शुभ समाचार सुन कर पण्डित ऋषभदत्त देवानन्दा ब्राह्मणी के साथ वन्दनार्थ समवसरण की अोर प्रस्थित हुया और पाँच नियमों के साथ भगवान् की सेवा में पहुंचा। ऋषभदत्त और देवानन्दा को प्रतिबोध भगवान को देखते ही देवानन्दा का मन पूर्वस्नेह से भर पाया । वह प्रानन्दमग्न एवं पुलकित हो गई। उसके स्तनों से दूध की धारा निकल पड़ी। नेत्र हथि से डब-डबा आये । गौतम के पूछने पर भगवान् ने कहा- "यह मेरी माता हैं, पुत्र-स्नेह के कारण इसे रोमाञ्च हो उठा है।"२ भगवान की वाणी सुन कर ऋषभदत्त और देवानन्दा ने भी प्रभु के पास दीक्षा ग्रहण की और दोनों ने ११ अंगों का अध्ययन किया एवं विचित्र प्रकार के तप, व्रतों से वर्षों तक संयम की साधना कर मुक्ति प्राप्त की। राजकुमार जमालि को दीक्षा ब्राह्मणकुण्ड के पश्चिम में क्षत्रियकुण्ड नगर था। वहाँ के राजकुमार जमालि ने भी भगवान् के चरणों में उपस्थित पाँच सौ क्षत्रिय-कुमारों के साथ दीक्षा ग्रहण की और ग्यारह अंगों का अध्ययन कर वे विविध प्रकार के १ त्रिषष्टि श० पु० च०, पर्व १०, सर्ग ६, श्लोक ४०८ से ४३६ । २ गोयमा ! देवाणंदा माहणी ममं अम्मगा, अहं णं देवाणंदाए माहणीए उत्तए, तए णं सा देवाणंदा माहणी तेणं पुष्वपुत्तसिणेहाणुरागेणं भागयपण्हया जाव समूसवियरोमकूवा [भ., श. ६, अ.. ३३, सू. ३८०] ३ जाव तभट्ठे पासहेत्ता आव सव्वदुक्खप्पहीणे जाव सव्वदुक्खप्पहीणा । [भ., श. ६, उ. ६, सू. ३८२] Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [केवलीचर्या का तृतीय वर्ष तपःकर्मों से प्रात्मा को भावित करते हुए विचरने लगे ।' राजकुमार जमालि की पत्नी प्रियदर्शना ने भी एक हजार स्त्रियों के साथ दीक्षा ग्रहण की। इस प्रकार जन-गरण का विविध उपकार करते हुए भगवान ने इस वर्ष का वर्षाकाल वैशाली में पूरण किया। केवलीचर्या का तृतीय वर्ष वैशाली से विहार कर भगवान् वत्सदेश की राजधानी 'कौशाम्बी' पधारे और 'चन्द्रावतरण' चैत्य में विराजमान हए । कोशाम्बी में राजा सहस्रानीक का पौत्र और शतानीक तथा वैशाली के गण-राज चेटक की पुत्री मृगावती का पुत्र 'उदयन' राज्य करता था। यहाँ उदयन की बम एवं शतानीक की बहिन जयंती श्रमणोपासिका थीं। भगवान के पधारने की बात सुन कर 'मगावती' राजा उदयन और जयंती के साथ भगवान् को वन्दना करने गयी। जयंती श्राविका ने प्रभ की देशना सुनकर भगवान से कई प्रश्नोत्तर किये, जो पाठकों के लाभार्थ यहाँ प्रस्तुत किये जाते हैं । जयंती विवाहिता थी या अविवाहिता-साधार विचार । जयंती के धार्मिक प्रश्न जयन्ती ने पूछा--"भगवन् ! जीव हल्का कैसे होता और भारी कैसे होता है ? उत्तर में प्रभु ने कहा-'जयंती ! अठारह पाप--(१) हिंसा, (२) मृषावाद-झूठ, (३) अदत्तादान, (४) मैथुन, (५) परिग्रह, (६) क्रोध, (७) मान, (८) माया, (६) लोभ, (१०) राग, (११) द्वेष, (१२) कलह, (१३) अभ्याख्यान, (१४) पैशुन्य, (१५) पर परवाद-निन्दा, (१६) रतिअरति, (१७) माया-मषा कपटपूर्वक झठ और (१८) मिथ्यादर्शन शल्य के सेवन से जीव भारी होता है तथा चतुर्गतिक संसार में भ्रमण करता है और इन प्राणातिपात आदि १८ पापों को विरति-निवृत्ति से ही जीव संसार को घटाता है, अर्थात् हल्का होकर संसार-सागर को पार करता है।" "भगवन् ! भव्यपन अर्थात मोक्ष की योग्यता, जीव में स्वभावतः होती है या परिणाम से ?" जयंती ने दूसरा प्रश्न पूछा। भगवान ने इसके उत्तर में कहा-"मोक्ष पाने की योग्यता स्वभाव से होती है, परिणाम से नहीं।" १ भ., श. ६, उ. ३३, सू. ३८४ २ भगवती-श. ६, ३१६ (क) त्रिष., १०८ श्लो. ३९ (ख) महावीर च., २ प्र. प. २६२ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयंती के धार्मिक प्रश्न भगवान् महावीर "क्या सब भव-सिद्धिक मोक्ष जाने वाले हैं ?" यह तीसरा प्रश्न जयंती ने किया । भगवान् ने उत्तर में कहा-हाँ, भव-सिद्धिक सब मोक्ष जाने वाले हैं।" जयन्ती ने चौथा प्रश्न किया- "भगवन् ! यदि सब भव-सिद्धिक जीवों की मुक्ति होना माना जाय तो क्या संसार कभी भव्य जीवों से खाली, शून्य हो जायेगा?" इसके उत्तर में भगवान् ने फरमाया-"जयंती ! नहीं, जैसे सर्व प्राकाश की श्रेणी जो अन्य श्रेणियों से घिरी हो, एक परमाणु जितना खंड प्रति समय निकालते हुए अनन्त काल में भी खाली नहीं होती, वैसे ही भव-सिद्धिक जीवों में से निरन्तर मुक्त होते रहें, तब भी संसार के भव्य कभी खत्म नहीं होंगे, वे अनन्त हैं।" . टीकाकार ने एक अन्य उदाहरण भी यहाँ दिया है। यथा-मिट्टी में घड़े बनने की और अच्छे पाषाण में मूर्ति बनने की योग्यता है, फिर भी कभी ऐसा नहीं हो सकता कि सबके घड़े और मूर्तियां बन जायं और पीछे वैसी मिट्टी और पाषाण न रहें । बीज में पकने की योग्यता है फिर भी कभी ऐसा नहीं होता कि कोई भी बीज सीझे बिना न रहे। वैसा ही भव्यों के बारे में भी समझना चाहिए। जयन्ती ने जीवन से सम्बन्धित कुछ और प्रश्न किये जो इस प्रकार हैं :"भगवन् ! जीव सोता हुआ अच्छा या जगता हुआ अच्छा?" इस पर भगवान् ने कहा-"कुछ जीव सोये हुए अच्छे और कुछ जागते अच्छे । जो लोग अधर्म के प्रेमी, अधर्म के प्रचारक और अधर्माचरण में ही रँगे रहते हैं, उनका सोया रहना अच्छा । वे सोने की स्थिति में बहुत से प्राणभूत जीव और सत्वों के लिए शोक एवं परिताप के कारण नहीं बनते । उनके द्वारा स्व-पर की अधर्मवत्ति नहीं बढ़ पाती, अतः उनका सोना ही अच्छा है। किन्तु जो जीव धार्मिक, धर्मानुसारी और धर्मयुक्त विचार, प्रचार एवं प्राचार में रत रहने वाले हैं, उनका जगना अच्छा है । ऐसे लोग जगते हुए किसी के दुःख और परिताप के कारण नहीं होते। उनका जगना स्व-पर को सत्कार्य में लगाने का कारण होता है ।" इसी प्रकार सबल-निर्बल और दक्ष एवं आलसी के प्रश्नों पर भी अधिकारी भेद से अच्छा और बुरा बताया गया। इससे प्रमाणित हुआ कि शक्ति, सम्पत्ति और साधनों का अच्छापन एवं बुरापन सदुपयोग और दुरुपयोग पर निर्भर है। Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् का विहार और उपकार भगवान् के युक्तियुक्त उत्तरों से संतुष्ट होकर उपासिका जयन्ती ने भी संयम-ग्रहण कर प्रात्म-कल्यारण कर लिया।' भगवान् का विहार और उपकार कोशाम्बी से विहार कर भगवान श्रावस्ती आए। यहाँ 'सूमनोभद्र' और 'सुप्रतिष्ठ' ने दीक्षा ग्रहण की। वर्षों संयम का पालन कर अन्त समय में 'सुमनोभद्र' ने 'राजग्रह' के विपुलाचल पर अनशनपूर्वक मुक्ति प्राप्ति की। इसी प्रकार सुप्रतिष्ठित मुनि ने भी सत्ताईस वर्ष संयम का पालन कर विपुलगिरि पर सिद्धि प्राप्त की। तदनन्तर विचरते हुए प्रभु 'वारिणयगाँव' पधारे और 'मानन्द' गाथापति को प्रतिबोध देकर उन्हें श्रावक-धर्म में दीक्षित किया। फिर इस वर्ष का वर्षावास 'वाणियग्राम' में ही पूर्ण किया । केवलीचर्या का चतुर्थ वर्ष वर्षाकाल पूर्ण होने पर भगवान् ने वाणियग्राम से मगध की ओर विहार किया। ग्रामानुग्राम उपदेश करते हुए प्रभु राजगृह के 'गुण शील' चैत्य में पधारे। प्रभ ने वहां के जिज्ञासुजनों को शालि आदि धान्यों को योनि एवं उनकी स्थिति-अवधि का परिचय दिया। वहाँ के प्रमुख श्रेष्ठी 'गोभद्र' के पुत्र शालिभद्र ने भगवान् का उपदेश सुनकर ३२ रमरिणयों और भव्य भोगों को छोड़कर दीक्षा ग्रहण को। शालिभद्र का वैराग्य कहा जाता है कि शालिभद्र के पिता 'गोभद्र', जो प्रभु के पास दीक्षित होकर देवलोकवासी हुए थे वे स्नेहवश स्वर्ग से शालिभद्र और अपनी पुत्रवधुनों को नित नये वस्त्राभूषण एवं भोजन पहुंचाया करते थे । शालिभद्र की माता भद्रा भी इतनी उदारमना थी कि व्यापारी से जिन रत्न-कम्बलों को राजा श्रेणिक भी नहीं खरीद सके, नगरी का गौरव रखने हेतु वे सारी रत्न-कम्बलें उन्होंने खरीद ली और उनके टुकड़े कर, वधुओं को पैर पोंछने को दे दिये । भद्रा के वैभव और प्रौदार्य से महाराज श्रेणिक भी दंग थे। शालिभद्र के घर का प्रामन्त्रण पाकर जब राजा वहाँ पहुँचा, तो उसके ऐश्वर्य को देखकर चकित हो गया । राज-दर्शन के लिये भद्रा ने जब शालिभद्र कुमार को बुलाया १ भग., श. १२, उ. २, सू. ४३ । २ अंत० प्रणुतरो, एन. वी. वैच सम्पादित । ३ त्रि.. पु०, १९५०, १० स०, ८४ श्लो. (ब) उ० माला, या० २० भरतेश्वर बाहुबलिवृत्ति । Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शालिभद्र का वैराग्य] भगवान् महावीर ६२३ तो वह अपने अलबेलेपन में बोला-"माता ! मेरे पाने की क्या जरूरत है, जो भी मल्य हो, देकर भंडार में रख लो।" इस पर भद्रा बोली--"पूत्र ! कोई किराणा नहीं, यह तो अपना नाथ है, आओ, शीघ्र दर्शन करके चले जाना।" नाथ शब्द सुनते ही शालिभद्र चौंका और सोचने लगा-"अहो, मेरे ऊपर भी कोई नाथ है। अवश्य ही मेरी करणी में कसर है। अब ऐसी करणी करू कि सदा के लिये यह पराधीनता छूट जाय ।" शालिभद्र माता के परामर्शानसार धीरे-धीरे त्याग की साधना करने लगा और इसके लिये उसने प्रतिदिन एक-एक स्त्री छोड़ने की प्रतिज्ञा की। धन्ना सेठ को जब शालिभद्र की बहिन सुभद्रा से पता चला कि उसका भाई एक-एक स्त्री प्रतिदिन छोड़ते हए दीक्षित होना चाहता है, तो उसने कहा, छोड़ना है तो एक-एक क्या छोड़ता है ? यह तो कायरपन है। सुभद्रा अपने भाई की न्यूनताकमजोरी की बात सुनकर बोल उठी-"पतिदेव ! कहना जितना सरल है, उतना करना नहीं।" बस, इतना सुनते ही चाबुक की मार खाये उच्च जातीय अश्व की तरह धन्ना स्नान-पीठ से उठ बैठे। नारियों का अनुनय विनय सब व्यर्थ रहा, उन्होंने तत्काल जाकर शालिभद्र को साथ लिया और साला-बहनोई दोनों भगवान के चरणों में दीक्षित हो गये । विभिन्न प्रकार की तप:साधना करते हए अन्त में दोनों ने वैभार गिरि' पर अनशन करके काल प्राप्त किया और सर्वार्थ सिद्ध विमान में उत्पन्न हुए।' इस प्रकार सहस्रों नर-नारियों को चारित्र-धर्म की शिक्षा-दीक्षा देते हुए प्रभु ने इस वर्ष का वर्षावास राजगृह में पूर्ण किया। केवलोचर्या का पंचम वर्ष राजगृह का वर्षाकाल पूर्ण कर भगवान् ने चम्पा की ओर विहार किया और 'पूर्णभद्र यक्षायतन' में विराजमान हुए । भगवान् के आगमन की बात सुन कर नगर का अधिपति महाराज 'दत्त' सपरिवार वन्दन को प्राया। भगवान् की अमोघ देशना सुनकर राजकुमार 'महाचन्द्र' प्रतिबद्ध' हुआ। उसने प्रथम श्रावकधर्म ग्रहण किया और कुछ काल पश्चात् भगवान् के पुनः पधारने पर राज-ऋद्धि और पाँच सौ रानियों को त्याग कर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। संकटकाल में भी कल्परक्षार्थ कल्पनीय तक का परित्याग कुछ समय के पश्चात् भगवान् चम्पा से 'वीतभया' नगरी की पोर पधारे । वहाँ का राजा 'उद्रायण' जो व्रती श्रावक था, पौषधशाला में बैठकर १ त्रि० श०, १०प० १० स०, श्लो० १४६ से १८१। २ विपाक सू०, २ श्रु० ६ अध्याय । Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [केवलीचर्या का छठा वर्ष धर्म-जागरण किया करता था। उद्रायण के मनोगत भावों को जानकर भगवान ने 'वीतभय' नगर की मोर प्रस्थान किया । गर्मी के कारण मार्ग में साधुओं को बड़े कष्ट झेलने पड़े । कोसों दूर-दूर तक बस्ती का प्रभाव था । जब भगवान् भूखे-प्यासे शिष्यों के संग विहार कर रहे थे, तब उनको तिलों से लदी गाड़ियाँ नजर पायीं। साधु-समुदाय को देखकर गाड़ी वालों ने कहा-"इनको खाकर क्षुधा शान्त कर लीजिये ।" पर भगवान् ने साधुनों को लेने की अनुमति नहीं दी । भगवान् को ज्ञात था कि तिल अचित्त हो चुके हैं । पास के ह्रद का पानी भी प्रचित्त था फिर भी भगवान् ने साधुओं को उससे प्यास मिटाने की अनुमति नहीं दी। कारण कि स्थिति क्षय से निर्जीव बने हुए धान्य और जल को सहज स्थिति में लिया जाने लगा तो कालान्तर में अग्राह्य-ग्रहरण में भी प्रवत्ति होने लगेगी और इस प्रकार मुनि धर्म की व्यवस्था में नियन्त्रण नहीं रहेगा । अतः छद्मस्थ के लिए कहा है कि निश्चय में निर्दोष होने पर भी लोकविरुद्ध वस्तु का ग्रहण नहीं करना चाहिये ।' वीतभय नगरी में भगवान के विराजने के समय वहाँ के राजा उद्रायण ने प्रभु की सेवा का लाभ लिया और कइयों ने त्यागमार्ग ग्रहण किया। फिर वहाँ से विहार कर भगवान वारिणयग्राम पधारे और यहीं पर वर्षाकाल पूर्ण किया। केवलीचर्या का छठा वर्ष वारिणयग्राम में वर्षाकाल पूर्ण कर भगवान वाराणसी की ओर पधारे और वहाँ के 'कोष्ठक चैत्य' में विराजमान हुए । भगवान् का आगमन सुनकर महाराज जितशत्रु वंदन करने आये । भगवान् ने उपस्थित जन-समुदाय को धर्मदेशना फरमाई । उपदेश से प्रभावित होकर चल्लिनी-पिता, उनकी भार्या श्यामा तथा सुरादेव और उसकी पत्नी धन्या ने भी श्रावक-धर्म ग्रहण किया, जो कि भगवान् के प्रमुख श्रावकों में गिने जाते हैं। इस तरह प्रभु के उपदेशों से उस समय के समाज का अत्यधिक उपकार हुआ। वाराणसी से भगवान् ‘ालंभिया' पधारे और 'शंखनाद' उद्यान में शिष्य-मंडली सहित विराजमान हुए। भगवान् के पधारने की बात सुनकर प्रालंभिया के राजा जितशत्रु भी वन्दन के लिए प्रभु की सेवा में आये । पुद्गल परिव्राजक का बोध शंखवन उद्यान के पास ही 'पुदगल' नाम के परिव्राजक का स्थान था। वह वेद और ब्राह्मण ग्रन्थों का विशिष्ट ज्ञाता था । निरन्तर छठ-छट्ठ की तपस्या से प्रातापना लेते हुए उसने विभंग ज्ञान प्राप्त किया, जिससे वह ब्रह्मलोक तक की देवस्थिति जानने लगा। १ बृहत्कल्प भा० बृ० भा० २, गा० ६६७ से ६६६, पृ० ३१४-१५ । Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल परिव्राजक का बोध] भगवान् महावीर ६२५ एक बार अज्ञानता के कारण उसके मन में विचार हा कि देवों की स्थिति जघन्य दश हजार वर्ष और उत्कृष्ट दश सागर की है। इससे आगे न देव हैं और न उनकी स्थिति ही । उसने घूम-घूम कर सर्वत्र इस बात का प्रचार किया । फलतः भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए गौतम ने भी सहज में यह चर्चा सुनी। उन्होंने भगवान् के चरणों में आकर पूछा तो प्रभु ने कहा- “गौतम ! यह कहना ठीक नहीं । दोनों की उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागर तक है ।" पुद्गल ने कर्णपरम्परा से भगवान् का निर्णय सुना तो वह शंकित हुप्रा और महावीर के पास पूछने को आ पहुँचा । वह महावीर की देशना सुन कर प्रसन्न हुआ। भक्तिपूर्वक प्रभु की सेवा में दीक्षित होकर उसने तप-संयम की आराधना करते हुए मुक्ति प्राप्त की।' इसी विहार में 'चुल शतक' ने भी श्रावक-धर्म स्वीकार किया। पालभिया से विभिन्न स्थानों में विहार करते हुए भगवान् राजगृह पधारे और वहाँ 'मंकाई', 'किं.कत', अर्जनमाली एवं काश्यप को मुनि-धर्म की दीक्षा प्रदान की । गाथापति 'वरदत्त' ने भी यहीं संयम ग्रहण किया और बारह वर्ष तक संयमधर्म की पालना कर, मुक्ति प्राप्त की। इस वर्ष प्रभु का वर्षावास भी राजगृह में व्यतीत हुआ । 'नंदन' मणिकार ने इसी वर्ष श्रावक-धर्म ग्रहण किया। केवलीचर्या का सातवां वर्ष वर्षाकाल के बीतने पर भी भगवान् अवसर जानकर राजगृह में विराजे रहे । एक बार श्रेणिक भगवान के पास बैठा था कि उस समय कोढ़ी के रूप में एक देव भी वहाँ उपस्थित हुया । भगवान् को छींक आई तो उसने कहा-"जल्दी मरो।" और जब श्रेणिक को छींक आई तो उसने कहा-"चिरकाल तक जोयो।" अभय छोंका तो वह बोला- "जीवो या मरो।" 'काल शौकरिक' के छोंकने पर उसने कहा--"न जीयो न मरो।" इस तरह कोढ़ी रूप देव ने भिन्न. भिन्न व्यक्तियों के छोकने पर भिन्न-भिन्न शब्द कहे । भगवान् के लिए 'मरो' कहने से महाराज श्रेणिक रुष्ट हुए । उनकी सुखाकृति बदलते हो सेवक पुरुष उस कोढ़ी को मारने उठ किन्तु तब तक वह अदृश्य हो गया। दूसरे दिन श्रेणिक ने उस कोढ़ी एवं उसके कहे हुए शब्दों के बारे में भगवान् से पूछा तो प्रभु ने फरमाया-''राजन् ! वह कोई कोढ़ी नहीं, देव था। मुझे मरने को कहा, इसका अर्थ जल्दी मोक्ष जा, ऐसा है । तुम जीते हो तब तक सुख है, फिर नर्क में दुःख भोगना होगा, इसलिए तुम्हें कहा-खूब जीयो। अभय का जीवन और मरण दोनों अच्छे हैं और कालशौकरिक के दोनों १ भतवती शतक ११, उ० १२, सू० ४३६ । २ अंत कृतदशासूत्र, ६।६, ४, ६ पृ. १०४-१०५ । (जयपुर) Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [केवलीचर्या का सातवां वर्ष बुरे, उसके लिए न जीने में लाभ और न मरने में सुख, अत: कहा-न जीयो, न मरो।" ___ यह सुनकर श्रेणिक ने पूछा- "भगवन् ! मैं किस उपाय से नारकीय दुःख से बच सकता है, यह फरमायें।" इस पर प्रभु ने कहा--"यदि कालशौकरिक से हत्या छुड़वा दे या 'कपिला' ब्राह्मणी दान दो तो तुम नरक गति से छूट सकते हो।" श्रेणिक ने भरसक प्रयत्न किया, पर न तो कसाई ने हत्या छोड़ी और न 'कपिला' ने ही दान देना स्वीकार किया। इससे श्रेणिक बड़ा दुःखी हुमा, किन्तु प्रभु ने कहा-“चिन्ता मत कर, तू भविष्य में तीर्थंकर होगा।"२ समय पाकर राजा श्रेणिक ने यह घोषणा करवाई-"जो कोई भगवान् के पास प्रव्रज्या ग्रहण करेगा, मैं उसे यथोचित सहयोग दूंगा, पीछे के परिवार की सँभाल करूंगा।" घोषणा से प्रभावित हो अनेक नागरिकों के साथ[१] जालि, [२] मयालि, [३] उपालि, [४] पुरुषसेन, [५] वारिषेण, [६] दीर्घदंत, [७] लष्टदंत, [८] बेहल्ल, [६] बेहास, [१०] अभय, [११] दीर्घसेन, [१२] महासेन, [१३] लष्टदंत, [१४] गूढ़दंत, [१५] शुद्धदंत, [१६] हल्ल, [१७] द्रुम, [१८] द्रुमसेन, [१६] महाद्रुमसेन, [२०] सिंह, [२१] सिंहसेन, [२२] महासिंहसेन और [२३] पूर्णसेन इन तेईस राजकुमारों ने तथा [१] नंदा, [२] नंदमती, [३] नंदोत्तरा, [४] नंदिसेणिया, [५] मरुया, [६] सुमरिया, [७] महामस्ता , [८] मरुदेवा, [8] भद्रा, [१०] सुभद्रा, [११] सुजाता, [१२] सुमना और [१३] भूतदत्ता, इन तेरह रानियों ने दीक्षित होकर भगवान के संघ में प्रवेश किया । ग्राईक मुनि भी भगवान् को वन्दन करने यहीं आये । इस प्रकार इस वर्ष प्रभु ने अनेक उपकार किये । सहस्रों लोगों को सत्पथ पर लगाया और इस वर्ष का चातुर्मास भी राजगृह में व्यतीत किया। केवलीचर्या का प्राठवाँ वर्ष वर्षाकाल के पश्चात् कुछ दिन तक राजगृह में विराजकर भगवान् आलंभिया' नगरी में ऋषिभद्रपुत्र श्रावक के उत्कृष्ट व जघन्य देवायुध्य सम्बन्धी विचारों का समर्थन करते हुए कौशाम्बी पधारे और 'मगावती' को संकटमुक्त किया । क्योंकि मृगावती के रूपलावण्य पर मुग्ध हो चण्डप्रद्योत उसे अपनी १ प्रावश्यक चू०, उत्तर०, पृ० १६६ । २ महावीर चरियं, गुरणचन्द्र, पत्र ३३४ । ३ अणुतरोववाई। ४ अंतगड़। ५ २३-१३ सा०। Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलीचर्या का नवम वर्ष ] भगवान् महावीर ६२७ रानी बनाने के लिए कौशाम्बी के चारों ओर घेरा डाले हुए था । उदयन की लघु वय होने के कारण उस समय चंडप्रद्योत को भुलावे में डाल कर रानी मृगावती ही राज्य का संचालन कर रही थी । भगवान् के पधारने की बात सुन कर वह वन्दन करने गई तथा त्याग विरागपूर्ण उपदेश सुन कर प्रव्रज्या लेने को उत्सुक हुई और बोली - "भगवन् ! चण्डप्रद्योत की आज्ञा ले कर मैं श्री चरणों में प्रव्रज्या लेना चाहती हूँ ।" उसने वहीं पर चण्डप्रद्योत से जा कर अनुमति के लिए कहा । प्रद्योत भी सभा में लज्जावश मना नहीं कर सका और उसने अनुमति प्रदान कर सत्कारपूर्वक मृगावती को भगवान् की सेवा में प्रव्रज्या प्रदान करवा दी । भगवत् कृपा से मृगावती पर आया हुआ शील-संकट सदा के लिए टल गया । इस वर्ष भगवान् का वर्षावास वैशाली में व्यतीत हुआ । केवलचर्या का नवम वर्ष वैशाली का वर्षावास पूर्ण कर भगवान् मिथिला होते हुए 'काकंदी' पधारे और सहस्राम्र उद्यान में विराजमान हुए। भगवान् के श्रागमन का समाचार सुन कर राजा जितशत्रु भी सेवा में वन्दन करने गया । 'भद्रा' सार्थवाहिनी का पुत्र धन्यकुमार भी प्रभु की सेवा में पहुँचा । प्रभु का उपदेश सुन कर काकंदी का धन्यकुमार बड़ा प्रभावित हुआ और माता की अनुमति ले कर विशाल वैभव एवं ३२ कुलीन सुन्दर भार्यानों को छोड़ कर भगवान् के चरणों में दीक्षित हो गया । राजा जितशत्रु इतने धर्म प्रेमी थे कि उन्होंने यह घोषणा करवा दी - "जो लोग जन्म-मरण का बन्धन काटने हेतु भगवान् महावीर के पास दीक्षित होना चाहते हों, वे प्रसन्नता से दीक्षा ग्रहण करें, मैं उनके सम्बन्धियों के योगक्षेम का भार अपने ऊपर लेता हूँ ।" महाराज जितशत्रु ने बड़ी धूम-धाम से धन्यकुमार की दीक्षा करवाई । दीक्षित हो कर धन्यकुमार ने स्थविरों के पास ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । धन्यकुमार ने जिस दिन दीक्षा ग्रहरण की उसी दिन से प्रभु की अनुमति पाकर उसने प्रतिज्ञा की - "मुझे आजीवन छट्ठ-छट्ठ की तपस्या करते हुए विचरना, दो दिन के छट्ठ तप के पारणे में भी आयंबिल करना एवं उज्झित भोजन ग्रहण करना है ।" इस प्रकार की घोर तपश्चर्या करते हुए उनका शरीर सूख कर हड्डियों का ढाँचा मात्र शेष रह गया, फिर भी वे मन में किचिन्मात्र भी खिन्न नहीं हुए । उनके अध्यवसाय इतने उच्च थे कि भगवान् महावीर ने चौदह हजार साधुत्रों में धन्यकुमार मुनि को सबसे बढ़ कर दुष्कर करणी करने वाला बतलाया और श्रेणिक के सम्मुख उनकी प्रशंसा की । नव मास की साधु१ श्राव० ० प्र० १, पृ० ६१ । , Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ केवलीचर्या का पर्याय में धन्य मुनि ने अनशनपूर्वक देहत्याग किया और वे सर्वार्थसिद्ध विमान में देव रूप से उत्पन्न हुए । ' 'सुनक्षत्रकुमार' भी इसी प्रकार भगवान् के पास दीक्षित हुए और अनशन कर सर्वार्थसिद्ध में उत्पन्न हुए । काकंदी से विहार कर भगवान् कंपिलपुर, पोलासपुर होते हुए वाणिज्यग्राम पधारे। कंपिलपुर में कुरंडकौलिक ने श्रावकधर्म ग्रहण किया और पोलासपुर में सद्दालपुत्र ने बारह व्रत स्वीकार किये । इनका विस्तृत विवरण उपासक दशा सूत्र में उपलब्ध होता है । वाणिज्यग्राम भगवान् विहार कर वैशाली पधारे और इस वर्ष का वर्षावास भी वैशाली में पूर्ण किया । केवलोचर्या का दशम वर्ष वर्षांकाल के पश्चात् भगवान् मगध की ओर विहार करते हुए राजगृह पहुँचे । वहाँ भगवान् के उपदेश से प्रभावित हो कर 'महाशतक' गाथापति ने श्रावक-धर्म स्वीकार किया । पार्श्वपत्य स्थविर भी यहाँ पर भगवान् के समवशरण में आये और भगवान् महावीर से अपनी शंका का समाधान पा कर सन्तुष्ट हुए । उन्होंने महावीर को सर्वज्ञ माना और उनकी वन्दना की एवं चतुर्यामधर्म से पंच महाव्रत रूप धर्म स्वीकार कर विचरने लगे । उस समय रोहक मुनि ने भगवान् से लोक के विषय में कुछ प्रश्न किये जो उत्तर सहित इस प्रकार हैं : : (१) लोक और अलोक में पहले पीछे कौन है ? भगवान् ने कहा - " अपेक्षा से दोनों पहले भी हैं और पीछे भी हैं । इनमें कोई नियत कम नहीं है । (२) जीव पहले है या ग्रजीव पहले ? भगवान् ने फरमाया - "लोक और प्रलोक की तरह जीव और प्रजीव तथा भवसिद्धिक-प्रभवसिद्धिक और सिद्ध व प्रसिद्ध में भी पहले पीछे का कोई नियत कम नहीं है ।" (३) संसार के आदिकाल की दृष्टि से रोहक ने पूछा - "प्रभो ! अंडा पहले हुआ या मुर्गी पहले ?" १ श्रणुत्तरो०, ३१० । २ भग० श०५, उ०६। Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम वर्ष ] भगवान् महावीर ६२६ भगवान् ने कहा- "अंडा किससे उत्पन्न हुआ ? मुर्गी से । मुर्गी कहाँ से आई ? तो कहना होगा अंडे से उत्पन्न हुई । इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि कौन पहले और कौन पीछे । इनमें शाश्वतभाव है, यह अनादि परम्परा है अतः पहले पीछे का क्रम नहीं कह सकते ।" इस प्रकार भगवान् ने रोहक की अन्य शंकाओं का भी उचित समाधान किया ।" इसी प्रसंग में अधिक स्पष्टीकरण के लिए गौतम ने लोक की स्थिति के बारे में पूछा—''भगवन् ! संसार और पृथ्वी किस पर ठहरी हुई है, इस विषय में विविध कल्पनाएँ प्रचलित हैं, कोई पृथ्वी को शेषनाग पर ठहरी हुई कहता है तो कोई वराह के पृष्ठ पर ठहरी हुई बतलाते हैं । वस्तुस्थिति क्या है, कृपया स्पष्ट कीजिये ।" महावीर ने कहा - " गौतम ! लोक की स्थिति और व्यवस्था आठ प्रकार की है, जो इस प्रकार है (१) श्राकाश पर वायु है । (२) वायु के आधार पर पानी है । (३) पानी पर पृथ्वी टिकी हुई है । (४) पृथ्वी के आधार से त्रस -स्थावर जीव हैं । (५) अजीव जीव के प्राश्रित हैं । (६) जीव कर्म के प्राधार से विविध पर्यायों में प्रतिष्ठित हैं । (७) मन भाषा आदि के अजीव पुद्गल जीवों द्वारा संगृहीत हैं । (८) जीव कर्म द्वारा संगृहीत हैं । इसको समझाने के लिए भगवान् ने एक दृष्टान्त बतलाया, जैसे किसी मशक को हवा से भरकर मुँह बन्द कर दिया जाय और फिर बीच से बाँधकर मुँह खोल दिया जाय तो ऊपर खाली हो जायेगी । उसमें पानी भरकर मशक खोल दी जाय तो पानी ऊपर ही तैरता रहेगा । इसी प्रकार हवा के आधार पर पानी समझना चाहिये । हवा से मशक को भरकर कोई अपनी कमर में बाँधे और जलाशय में घुसे तो वह ऊपर तैरता रहेगा । इसी प्रकार जीव और कर्म का सम्बन्ध भी पानी में गिरी हुई सछिद्र नौका जैसा बतलाया । जिस तरह नौका के बाहर-भीतर पानी है, वैसे ही जीव और पुद्गल परस्पर बँधे हुए हैं ।" १ (क) यथा नौश्च ह्रदोदकं चान्योन्यावगाहेन वर्तते एवं जीवश्च पुद्गलाश्चेति भावना | - भगवती श०, ११६ | सू० ५५ । टीका | (ख) भगवती सूत्र, २ ।१ सू० ५५ । Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [केवलीचर्या का ग्यारहवां वर्ष इस प्रकार ज्ञान की गंगा बहाते हुए भगवान् ने यह चातुर्मास राजगृह में पूर्ण किया। केवलीचर्या का ग्यारहवां वर्ष भगवान महावीर की देशना में जो विश्वमैत्री और त्याग-तप की भावना थी, उससे प्रभावित होकर वेद परम्परा के अनेक परिव्राजकों ने भी प्रभ का शिष्यत्व स्वीकार किया । राजगृह से विहार कर जब प्रभु 'कृतंगला-कयंगला' नगरी पधारे तो वहाँ के "छत्रपलाश उद्यान में समवशरण हुआ। उस समय कयंगला के निकट श्रावस्ती नगर में “स्कंदक" नाम का परिव्राजक रहता था जो कात्यायन गोत्रीय ‘गर्दभाल' का शिष्य था । वह वेद-वेदांग का विशेषज्ञ था । वहाँ एक समय पिंगल नाम के एक निग्रंथ से उसकी भेंट हुई। स्कंदक के आवास की ओर से निकलते हुए पिंगल ने स्कंदक से पूछा-“हे मागध ! लोक अन्त वाला है या अन्तरहित ? इसी प्रकार जीव, सिद्धि और सिद्ध अंत वाले हैं या अंतरहित ? और किस मरण से मरता हुअा जीव घटता अथवा बढ़ता है ? इन चार प्रश्नों का उत्तर दो।" स्कंदक बहुत बार सोच कर भी निर्णय नहीं कर सका कि उत्तर क्या दिया जाय ? वह शंकित हो गया। उस समय उसने 'छत्रपलाश' में भगवान के पधारने की बात सुनी तो उसने विचार किया कि क्यों नहीं भगवान महावीर के पास जाकर हम शंकाओं का निराकरण करलें । वह मठ में आया और त्रिदंड, कुडिका, गेरुमां वस्त्र प्रादि धारण कर कयंगला की ओर चल पड़ा। उधर महावीर ने गौतम को सम्बोधन कर कहा-“गौतम ! आज तुम अपने पूर्व-परिचित को देखोगे।" गौतम ने प्रभु से पूछा-"भगवन् ! वह कौन पूर्व-परिचित है, जिसे मैं देखूगा ।" प्रभु ने स्कंदक परिव्राजक का परिचय दिया और बतलाया कि वह थोड़े ही समय बाद यहाँ पाने वाला है। गौतम ने जिज्ञासा की-"भगवन् ! क्या वह आपके पास शिष्यत्व ग्रहण करेगा ?" महावीर बोले-"हाँ गौतम ! स्कंदक निश्चय ही मेरा शिष्यत्व स्वीकार करने वाला है।" स्कंदक के प्रश्नोत्तर गौतम मौर महावीर स्वामी के बीच इस प्रकार वार्तालाप हो ही रहा Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्कंदक के प्रश्नोत्तर भगवान् महावीर ६३१ था कि परिव्राजक स्कंदक भी आ पहुंचा । गौतम ने स्वागत करते हुए पूछा"स्कंदक ! क्या यह सच है कि पिंगल नियंठ ने तुमसे कुछ प्रश्न पूछे और उनके उत्तर नहीं दे सकने से तुम यहाँ आये हो ?" गौतम की बात सुनकर स्कंदक बड़ा चकित हुआ और बोला-"गौतम ! ऐसा कौन ज्ञानी है, जिसने हमारी गुप्त बात तुम्हें बतला दी ?" गौतम ने भगवान की सर्वज्ञता की महिमा बतलाई। स्कंदक परिव्राजक ने बड़ी श्रद्धा से भगवान् को वन्दन कर अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत की। भगवान ने लोक के विषय में कहा-"स्कंदक ! लोक चार प्रकार का है, द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक और भावलोक । द्रव्य से लोक एक और सान्त है, क्षेत्र से लोक असंख्य कोटिकोटि योजन का है, वह भी सान्त है। काल से लोक की कभी आदि नहीं और अन्त भी नहीं । भाव से लोक वर्णादि अनन्त-अनन्त पर्यायों का भंडार है, इसलिये वह अनन्त है। इस प्रकार लोक सान्त भी है और वर्णादि पर्यायों का अन्त नहीं होने से अनन्त भी है। जीव, सिद्धि और सिद्ध भी इसी तरह द्रव्य से एक अोर अन्त वाले हैं। क्षेत्र से सीमित क्षेत्र में हैं, अतः सान्त हैं । काल एवं भाव से कभी जीव या सिद्ध नहीं था, ऐसा नहीं है और अनन्त-अनन्त पर्यायों के आधार हैं, अतः अनन्त हैं। मरण विषय में पूछे गये प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-बाल-मरण और पण्डित-मरण के रूप में मरण दो प्रकार का है । बाल-मरण से संसार बढ़ता है और पण्डित के ज्ञानपूर्वक समाधि-मरण से संसार घटता है। बाल-मरण के बारह प्रकार हैं । क्रोध, लोभ या मोहादि भाव में अज्ञानपूर्वक असमाधि से मरना बाल-मरण है।" उपर्यत रोति से समाधान पाकर स्कन्दक ने प्रभ के चरणों में प्रवजित होने की अपनी इच्छा एवं आस्था प्रकट की। स्कन्दक को योग्य जानकर भगवान ने भी प्रव्रज्या प्रदान की तथा श्रमरण-जीवन की चर्या से अवगत किया। दीक्षा ग्रहण कर स्कन्दक मुनि बन गया। उसने बारह वर्ष तक साधु-धर्म का पालन किया और भिक्षु प्रतिमा व गुण-रत्न-संवत्सर आदि विविध तपों से प्रात्मा को भावित कर अंत में 'विपुलाचल' पर समाधिपूर्वक देह-त्याग किया। कयंगला से सावत्थी होते हुए प्रभु 'वाणिय ग्राम' पधारे और वर्षा काल यहीं पर पूर्ण किया। १ भगवती सूत्र २॥१॥ सू० ६१ । - Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [केवलीचर्या का बारहवां वर्ष केवलीचर्या का बारहवां वर्ष वर्षाकाल पूर्ण होने पर भगवान् ने वारिणय ग्राम से विहार किया और ब्राह्मणकुड के 'बहुशाल' चैत्य में आकर विराजमान हुए । जमालि अनगार ने यहीं पर भगवान् से अलग विचरने की अनुमति मांगी और उनके मौन रहने पर अपने पाँच सौ अनुयायी साधुओं के साथ वह स्वतन्त्र विहार को निकल पड़ा। प्रभु भी वहाँ से 'वत्स' देश की अोर विहार करते हुए कौशाम्बी पधारे । यहाँ चन्द्र और सूर्य अपने मूल विमान से वन्दना को आये थे।' प्राचार्य शीलांक ने चन्द्र सूर्य का अपने मूल विमानों से राजगृह में आगमन बताकर इसे आश्चर्य बताया है। कौशाम्ती से महावीर राजगृह पधारे और 'गुणशील' चैत्य में विराजमान हुए। यहां 'तुगिका' नारी के श्रावकों की बड़ी ख्याति थी। एक बार तुगिका में पापित्य नन्दादि स्थविरों ने श्रावकों के प्रश्न का उत्तर दिया। जिसकी चर्चा चल रही थी। भगवान गौतम ने भिक्षा के समय नगर में सूनी हई चर्चा का निर्णय' प्रभु से चाहा ता भगवान् बोले-"गौतम ! पावापत्य स्थविरों ने जो तप संयम का फः 'ताया, वह ठीक है। मैं भी इसी प्रकार कहता हूँ"3 फिर भगवान् ने तथारूप हण की पर्युपासना के फल बताते हुए कहा-"श्रमणों की पर्यपासना का प्रथम फल अपूर्वज्ञान श्रवण, श्रवण से ज्ञान, ज्ञान से विज्ञान, विज्ञान से पच्चखाण अर्थात त्याग, पच्चखाण से संयम, संयम से कर्मास्रव का निरोध, अनास्रव से तप, तप से कर्मनाश, कर्मनाश से अक्रिया और प्रक्रिया से सिद्धिफल प्राप्त होता है ।" इसी वर्ष प्रभु के शिष्य 'वेहास' और 'अभय' आदि ने विपुलाचल पर अनशन कर देवत्व प्राप्त किया। इस बार का वर्षाकाल राजगृह में ही पूर्ण हुआ। केवलीचर्या का तेरहवां वर्ष वर्षाकाल के पश्चात् विहार करते हुए भगवान् फिर चम्पा पधारे और वहां के 'पूर्णभद्र' उद्यान में विराजमान हुए । चम्पा में उस समय 'कोरिणक' का राज्य था। भगवान के पाने की बात सुनकर कौणिक बड़ी सज-धज से वन्दन करने को गया। कौणिक ने भ. Tन के प्रवृत्ति-वृत्त (कुशल समाचार) जानने की बड़ी व्यवस्था कर रक्खी थी। पने राजपुरुषों द्वारा भगवान् के विहारवृत्त सुन कर ही वह प्रतिदिन भोजन करता था। भगवान ने कौणिक आदि १ त्रिषिष्टशलाकापुरुष, ५० १०, स० ८, श्लोक ३३७-३५३ २ खः पयहा दोवि दिणाहिव तारयाहिवइणौ सविमाणा चेव भयवनो समीवं । पोइण्णा रिणययप्पएसानो । च० म० पु. च., पृ. ३०५ ३ भगवती शतक (घासीलालजी), श०, उ० ५, पू, सूत्र १४, पृ. ९३७ । ४ प्रोपपातिक सूत्र १३ से २१ Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलीचर्या का चौदहवां वर्ष] भगवान् महावीर ६३३ उपस्थित जनों को धर्म देशना दी । देशना से प्रभावित हो अनेक गृहस्थों ने मुनि धर्म अंगीकार किया। उनमें श्रेणिक के पद्म १, महापद्म २, भद्र ३, सुभद्र ४, महाभद्र ५, पद्मसेन ६, पद्मगुल्म ७, नलिनीगुल्म ८, आनन्द ६ और नन्दन १०, ये दस पौत्र प्रमुख थे।' इनके अतिरिक्त जिनपालित आदि ने भी श्रमणधर्म अंगीकार किया। यहीं पर पालित जैसे बड़े व्यापारी ने श्रावकधर्म स्वीकार किया था। इस वर्ष का चातुर्मास चम्पा में ही हुआ। केवलीचर्या का चौदहवां वर्ष चम्पा से भगवान ने विदेह की अोर विहार किया। बीच में काकन्दी नगरी में गाथा-पति 'खेमक' और 'धतिधर' ने प्रभु के पास दीक्षा स्वीकार की। १६ वर्षों का संयम पाल कर दोनों विपुलाचल पर सिद्ध हुए। विहार करते हुए प्रभु मिथिला पधारे और वहीं पर वर्षाकाल पूर्ण किया। फिर वर्षाकाल के पश्चात प्रभ विहारक्रम से अंगदेश होकर चम्पानगरी पधारे और 'पूर्णभद्र' नामक चैत्य में समवशरण किया। प्रभु के पधारने का समाचार पाकर नागरिक लोग और राजघराने की राजरानियां वन्दन करने को गई। उस समय वैशाली में युद्ध चल रहा था। एक अोर १८ गणराजा और दूसरी ओर कौणिक तथा उसके दस भाई अपने दल-बल सहित जूझ रहे थे। देशना समाप्त होने पर काली आदि रानियों ने अपने पुत्रों के लिए भगवान् से जिज्ञासा की-"भगवन् ! हमारे पुत्र युद्ध में गए हैं। उनका क्या होगा? वे कब तक कुशलपूर्वक लौटेंगे?" काली प्रावि रानियों को बोष उत्तर में भगवान् द्वारा पुत्रों का मरण सुनकर काली आदि रानियों को अपार दुःख हुमा । पर प्रभु के वचनों से संसार का विनश्वरशील स्वभाव समझ कर वे विरक्त हुई और कोणिक की अनुमति से भगवान् के चरणों में दीक्षित हो गई। प्रार्या चन्दना की सेवा में काली १, सुकाली २, महाकाली ३, कृष्णा ४, सुकृष्णा ५, महाकृष्णा ६, वीरकृष्णा ७, रामकृष्णा ८, पितृसेनकृष्णा और महासेनकृष्णा १०, इन सबने दीक्षित होकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। भार्या चन्दना की अनुमति से काली ने रत्नावली, सुकाली ने कनकावली, महा १ निरयावलिका २ २ निरयावलिका, अध्ययन १ Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [गोशालक का प्रानन्द मुनि काली ने लघुसिंह निष्क्रीड़ित, कृष्णा ने महासिंह-निष्क्रीड़ित, सुकृष्णा ने सप्तसप्तति भिक्षु प्रतिमा, महाकृष्णा ने लघुसर्वतोभद्र, वीरकृष्णा ने महासर्वतोभद्र तप, रामकृष्णा ने भद्रोत्तर प्रतिमा और महासेनकृष्णा ने प्रायंबिल-वर्धमान तप किया। अन्त में अनशनपूर्वक समाधिभाव से काल कर सब ने सब दुःखों का अन्त कर निर्वाण प्राप्त किया।' कुछ काल तक चम्पा में ठहरकर भगवान् फिर मिथिला नगरी पधारे और वहीं पर वर्षाकाल व्यतीत किया । केवलीचर्या का पन्द्रहवां वर्ष फिर चातुर्मास समाप्त कर प्रभु ने वैशाली के पास होकर श्रावस्ती की पोर विहार किया। कौणिक के भाई हल्ल, वेहल्ल, जिनके कारण वैशाली में युद्ध हो रहा था, किसी तरह वहाँ से भगवान के पास आ पहुँचे और प्रभु चरणों में श्रमण' धर्म की दीक्षा ग्रहण कर तपश्चरण एवं आत्मोद्धार में निरत हुए। श्रावस्ती पहँचकर भगवान कोष्ठक' चैत्य में विराजमान हए । मंखलिपुत्र गोशालक भी उन दिनों श्रावस्ती में ही था। भगवान् महावीर से पृथक होने के पश्चात् वह अधिकांश समय श्रावस्ती के आसपास ही घूमता रहा । श्रावस्ती में 'हालाहला' कुम्हारिन और अयंपुल गाथापति उसके प्रमुख भक्त थे। गोशालक जब कभी आता, हालाहला की भांडशाला में ठहरता। अब वह 'प्राजीवक' मत का प्रचारक बनकर अपने को तीर्थकर बतला रहा था। जब भिक्षार्थ घूमते हुए गौतम ने नगरी में यह जनप्रवाद सुना कि श्रावस्ती में दो तीर्थकर विचर रहे हैं, एक श्रमण भगवान् महावीर और दूसरे मंखलि गोशालक, तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने भगवान् के चरणों में पहुंचकर इसकी वास्तविकता जाननी चाही और भगवान् से पूछा-"प्रभो! यह कहाँ तक ठीक है ?" गौतम के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् महावीर ने गोशालक का प्रारम्भ से सम्पूर्ण परिचय प्रस्तुत करते हुए कहा- "गौतम ! गोशालक जिन नहीं, पर जिनप्रलापी है।" नगर में सर्वत्र गौतम और महावीर के प्रश्नोत्तर की चर्चा थी। गोशालक का प्रानन्द मुनि को भयभीत करना मंखलिपुत्र गोशालक, जो उस समय नगर के बाहर प्रातापना ले रहा था, १ अंतगढ़ सूत्र, सप्तम व अष्टमवर्ग । २ (क) तेवि कुमारा सामिस्स सीसत्ति वोसिरन्ति, देवताए हरिता । [माव. नि. जिनदास, दूसरा भाग, पृ० १७४] (ख) भरतेश्वर बाहुबली वृत्ति, पत्र १०० Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को भयभीत करना भगवान् महावीर उसने जब लोगों से यह बात सुनी तो वह अत्यन्त क्रोधित हुमा । क्रोध से जलता हुआ वह आतापना भूमि से 'हालाहला' कुम्हारिन की भांडशाला में पाया और अपने प्राजीवक संघ के साथ क्रोधावेश में बात करने लगा। उस समय श्रमण भगवान महावीर के शिष्य आनन्द अनगार भिक्षाचर्या में घूमते हुए उधर से जा रहे थे। वे सरल और विनीत थे तथा निरन्तर छ? तप किया करते थे। गोशालक ने उन्हें देखा तो बोला-"प्रानन्द ! इधर पा, जरा मेरी बात तो सुन।" आनन्द के पास आने पर गोशालक ने अपनी बात इस प्रकार कहनी आरम्भ की : "पुराने समय की बात है। कुछ व्यवसायी व्यापार के लिए अनेक प्रकार का किराना और विविध सामान गाड़ियों में भरकर यात्रा को जा रहे थे। मार्ग में ग्राम-रहित, निर्जल, दीर्घ अटवी में प्रविष्ट हुए। कुछ मार्ग पार करने पर उनका साथ में लाया हुआ पानी समाप्त हो गया। तृषा से आकुल लोग परस्पर सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। उनके सामने बड़ी विकट समस्या थी। वे चारों ओर पानी की गवेषणा करते हुए एक घने जंगल में जा पहुँचे। वहां एक विशाल वल्मीक था। उसके चार ऊंचे-ऊंचे शिखर थे । प्यासपीड़ित लोगों ने उनमें से एक शिखर को फोड़ा। उससे उन्हें स्वच्छ, शीतल, पाचक और उत्तम जल प्राप्त हुआ। प्रसन्न हो उन्होंने पानी पिया, बैलों को पिलाया और मार्ग के लिए बर्तनों में भरकर भी साथ ले लिया। फिर लोभ से दुसरा शिखर भी फोड़ा। उसमें उनको विशाल स्वर्ण-भंडार प्राप्त हुआ । उनका लोभ बढ़ा, उन्होंने तीसरा शिखर फोड़ डाला, उसमें मरिण रत्न प्राप्त हुए । अब तो उन्हें और अधिक प्राप्त करने की इच्छा हुई और उन्होंने चौथा शिखर भी फोड़ने का विचार किया । उस समय उनमें एक अनुभवी और सर्वहितैषी वरिणकू था । वह बोला-"भाई ! हमको चौथा शिखर नहीं फोड़ना चाहिए । हमारी मावश्यकता पूरी हो गई, अब चतुर्थ शिखर का फोड़ना कदाचित दुःख और संकट का कारण बन जाय, अतः हमको इस लोभ का संवरण करना चाहिए।" ____ व्यापारियों ने उसकी बात नहीं मानकर चौथा शिखर भी फोड़ डाला। उसमें से महा भयंकर दृष्टिविष कृष्ण सर्प निकला। उसकी विषमय उग्र दष्टि पड़ते ही सारे व्यापारी सामान सहित जलकर भस्म हो गये। केवल वह एक व्यापारी बचा जो चौथा शिखर फोड़ने को मना कर रहा था। उसको सामान सहित सर्प ने घर पहुंचाया। मानन्द ! तेरे धर्माचार्य और धर्मगुरु श्रमण भगवान् महावीर ने भी इसी तरह श्रेष्ठ अवस्था प्राप्त की है। देव-मनुष्यों में उनकी प्रशंसा होती है किन्तु वे मेरे सम्बन्ध में यदि कुछ भी कहेंगे तो मैं अपने तेज से उनको व्यापा Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [मानन्द मुनि का म. से समाधान रियों की तरह भस्म कर दूंगा। अतः उनके पास जाकर तू यह बात सुना दे।" प्रानन्द मुनि का म० से समाधान गोशालक की बात सुनकर आनन्द सरलता के कारण बहुत भयभीत हुए. और महावीर के पास आकर सारा वृत्तान्त उन्होंने कह सुनाया तथा पूछा"क्या गोशालक तीर्थंकर को भस्म कर सकता है ?" महावीर ने कहा-"आनन्द ! गोशालक अपने तपस्तेज से किसी को भी एक बार में भस्म कर सकता है, परन्तु अरिहन्त भगवान् को नहीं जला सकता, कारण कि गोशालक में जितना तपस्तेज है, अनगार का उससे अनन्त गुना तेज है । अनगार क्षमा द्वारा उस क्रोध का निरोध करने में समर्थ हैं। अनगार के तपस्तेज से स्थविर का तप अनन्त गुना विशिष्ट है । सामान्य स्थविर के तप से अरिहन्त का तपोबल अनन्त गुना अधिक है क्योंकि उसकी क्षमा अतुल है, अतः कोई उनको नहीं जला सकता। हां, परिताप-कष्ट उत्पन्न कर सकता है। इसलिए तुम जानो और गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थों से यह कह दो कि गोशालक इधर पा रहा है। इस समय वह द्वेषवश म्लेच्छ की तरह दुर्भाव में है। इसलिए उसकी बातों का कोई कुछ भी उत्तर न दे। यहां तक कि उसके साथ कोई धर्मचर्चा भी न करे और न धार्मिक प्रेरणा ही दे।" गोशालक का प्रागमन आनन्द ने प्रभु का सन्देश सबको सुनाया ही था कि इतने में गोशालक अपने प्राजीवक संघ के साथ महावीर के पास कोष्ठक उद्यान में आ पहुँचा । वह भगवान् से कुछ दूर हटकर खड़ा हो गया और थोड़ी देर के बाद बोला"काश्यप ! तुम कहते हो कि मंखलिपुत्र गोशालक तुम्हारा शिष्य है । बात ठीक है । पर, तुमको पता नहीं कि वह तुम्हारा शिष्य मृत्यु प्राप्त कर देवलोक में देव हो चुका है। मैं मंखलिपुत्र गोशालक से भिन्न कौडिन्यायन गोत्रीय उदायी है। गोशालक का शरीर मैंने इसलिए धारण किया है कि वह परीषह सहने में सक्षम है । यह मेरा सातवाँ शरीरान्तर प्रवेश है।" "हमारे धर्म सिद्धान्त के अनसार जो भी मोक्ष गए हैं, जाते हैं और जाएंगे, वे सब चौरासी लाख महाकल्प के उपरांत सात दिव्य संयूथ-निकाय, सात सन्निगर्भ और सात प्रवृत्त परिहार करके पांच लाख साठ हजार छ: सौ तीन (५६०६०३) कर्माशों का अनुक्रम से क्षय करके मोक्ष गए, जाते हैं और जाएंगे।" महाकल्प का कालमान समझाने हेतु जैन सिद्धान्त के पल्य और सागर के Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोशालक का प्रागमन] भगवान् महावीर समान प्राजीवक मत में सर और महाकल्प का प्रमाण बतलाया है। एक लाख सत्तर हजार छः सौ उनचास (१७०६४९) गंगानों का एक सर मानकर सौसो वर्ष में एक-एक बालुका निकालते हुए जितने समय में सब खाली हो उसको एक सर माना है । वैसे तीन लाख सर खाली हों तब महाकल्प माना गया है।' गोशालक ने प्रभु को पुनः सम्बोधित करते हुए कहा : "मार्य काश्यप ! मैंने कुमार की प्रव्रज्या में बालवय से ही ब्रह्मचर्यपूर्वक रहने की इच्छा की और प्रव्रज्या स्वीकार की । मैंने निम्न प्रकार से सात प्रवृत्तपरिहार किए, यथा ऐणेयक, मल्लाराम, मंडिक, रोहक, भारद्वाज, अर्जुन गौतमपुत्र और गौशालक मंखलिपुत्र ।" _ "प्रथम शरीरान्तरप्रवेश राजगह के बाहर मंडिकुक्षि चैत्य में उदायन कौडिन्यायन गोत्री के शरीर का त्यागकर ऐणेयक के शरीर में किया । बाईस वर्ष वहां रहा । द्वितीय शरीरान्तरप्रवेश उद्दण्डपुर के बाहर चन्द्रावतरण चैत्य में ऐणेयक के शरीर का त्याग कर मल्लराम के शरीर में किया । २१ वर्ष तक उसमें रह कर चंपानगरी के बाहर अंग मन्दिर चैत्य में मल्लराम का शरीर छोड़ कर मंडिक के देह में तीसरा शरीरान्तर प्रवेश किया। वहां बीस वर्ष तक रहा। फिर वाराणसी नगरी के बाहर काम महावन चैत्य में मंडिक के शरीर का त्याग कर रोहक के शरीर में चतुर्थ शरीरान्तर प्रवेश किया। वहां २६ वर्ष रहा । पाँचवें में प्रालंभिका नगरो के बाहर प्राप्त-काल चैत्य में रोहक का शरीर छोड़कर भारद्वाज के शरीर में प्रवेश किया । उसमें १८ वर्ष रहा. । छठी बार वैशाली के बाहर कुडियायन चैत्य में भारद्वाज का शरीर छोड़कर गौतमपुत्र अर्जुन के शरीर में प्रवेश किया। वहां सत्रह वर्ष तक रहा। वहां से इस बार श्रावस्ती में हालाहला कुम्हारिन के कुभकारापरण में गौतमपुत्र का शरीर त्यागकर गोशालक के शरीर में प्रवेश किया । इस प्रकार पायं काश्यप ! तुम मुझको अपना शिष्य मंखलिपुत्र बतलाते हो, क्या यह ठीक है ?" गोशालक की बात सुन कर महावीर बोले-"गोशालक ! जैसे कोई चोर बचाव का साधन नहीं पाकर तण की आड़ में अपने को छिपाने की चेष्टा करता है, किन्तु वह उससे छिप नहीं सकता, फिर भी अपने को छिपा हुआ मानता है। उसी प्रकार तू भी अपने आपको शब्दजाल से छिपाने का प्रयास कर रहा है। तू गोशालक के सिवाय अन्य नहीं होते हुए भी अपने को अन्य बता रहा है, तेरा ऐसा कहना ठीक नहीं, तू ऐसा मत कह ।" भगवान् की बात सुनकर गोशालक अत्यन्त क्रुद्ध हुआ और आक्रोशपूर्ण वचनों से गाली बोलने लगा। वह जोर-जोर से चिल्लाते हुए तिरस्कारपूर्ण १ भग० श० १५, उ० १, सूत्र ५५० Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३५ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [गोशालक का प्रागमन शब्दों में बोला-"काश्यप ! तुम आज ही नष्ट, विनष्ट व भ्रष्ट हो जानोगे । आज तुम्हारा जीवन नहीं रहेगा । अब मुझसे तुमको सुख नहीं मिलेगा।" सर्वानुभूति के वचन से गोशालक का रोष भगवान् महावीर वीतराग थे । उन्होंने गोशालक की तिरस्कारपूर्ण बात सुनकर भी रोष प्रकट नहीं किया। अन्य मुनि लोग भी भगवान् के सन्देश से चुप थे । पर भगवान् के एक शिष्य 'सर्वानुभूति' अनगार, जो स्वभाव से सरल एवं विनीत थे, उनसे यह नहीं सहा गया। वे भगवद्भक्ति के राग से उठकर गोशालक के पास आए और बोले-"गोशालक! जो गणवान श्रमरण माहरण के पास एक भी धार्मिक सुवचन सुनता है, वह उनको वन्दन-नमन और उनकी सेवा करता है । तो क्या, तुम भगवान् से दीक्षा-शिक्षा ग्रहण कर उनके साथ ही मिथ्या एवं अनुचित व्यवहार करते हो? गोशालक ! तुमको ऐसा करना योग्य नहीं है । आवेश में आकर विवेक मत छोड़ो।" सर्वानुभूति की बात सुनकर गोशालक तमतमा उठा। उसने क्रोध में भरकर तेजोलेश्या के एक ही प्रहार से सर्वानुभूति अरणगार को जलाकर भस्म कर दिया और पूनः भगवान के बारे में निन्दा वचन बोलने लगा। प्रभु के अन्य अन्तेवासी स्थिति को देखकर मौन थे, किन्तु अयोध्या के 'सुनक्षत्र' मुनि ने, जो उसके अपलाप सुने, तो उनसे भी नहीं रहा गया। उन्होंने गोशालक को कटवचन बोलने से मना किया। इससे रुष्ट होकर गोशालक ने सूनक्षत्र मुनि पर भी उसी प्रकार तेजोलेश्या का प्रहार दिया। इस बार लेश्या का तेज मन्द हो गया था। पीड़ा की भयंकरता देखकर सुनक्षत्र मुनि श्रमण भगवान् महावीर के पास पाए और वन्दना कर भगवान् के चरणों में आलोचनापूर्वक उन्होंने पुनः महाव्रतों में प्रारोहण किया और फिर श्रमण-श्रमणियों से क्षमा-याचना कर समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त किया। गोशालक फिर भी भगवान महावीर को अनर्गल कटुवचन कहता रहा। कुछ काल के बाद भगवान महावीर ने सर्वानुभूति की तरह गोशालक को समझाया, पर मूों के प्रति उपदेश क्रोध का कारण होता है, इस उक्ति के अनुसार गोशालक प्रभु की बात से अत्यधिक क्रुद्ध हुआ और उसने उनको भस्म करने के लिए सात पाठ कदम पीछे हटकर तेजोलेश्या का प्रहार किया। किन्तु महावीर के अमित तेज के कारण गोशालक द्वारा प्रक्षिप्त तेजोलेश्या उन पर असर नहीं कर सकी। वह भगवान् की प्रदक्षिणा करके एक बार ऊपर उछली और गोशालक के शरीर को जलाती हुई, उसी के शरीर में प्रविष्ट हो गई। गोशालक अपनी ही तेजोलेश्या से पीड़ित होकर श्रमण भगवान् महावीर से बोला-"काश्यप ! यद्यपि अभी तुम बच गए हो किन्तु मेरी इस तेजोलेश्या से Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वानुभूत के वचन से गोशालक का रोष] भगवान् महावीर ६३६ पराभूत होकर तुम छः मास की अवधि में ही दाह-पीड़ा से छमस्थ अवस्था में काल प्राप्त करोगे । इस पर भगवान् ने कहा-"गोशालक ! मैं तो अभी सोलह वर्ष तक तीर्थकर पर्याय से विचरण करूंगा पर तुम अपनी तेजोलेश्या से प्रभावित एवं पीड़ित होकर सात रात्रि के अन्दर ही छमस्थ भाव से काल प्राप्त करोगे।" तेजोलेश्या के पूनः पुनः प्रयोग से गोशालक निस्तेज हो गया और उसका तपस्तेज उसी के लिए घातक सिद्ध हुआ। महावीर ने निर्ग्रन्थों को बुलाकर कहा-"श्रमणो ! जिस प्रकार अग्नि से जलकर तृण या काष्ठ नष्ट हो जाता है उसी प्रकार गोशालक मेरे वध के लिए तेजोलेश्या निकाल कर अब तेज भ्रष्ट हो गया है । तुम लोग उसके विचारों का खण्डन कर अब प्रश्न और हेतुओं से उसे निरुत्तर कर सकते हो।" निर्ग्रन्थों ने विविध प्रश्नोत्तरों से उसको निरुत्तर कर दिया। अत्यन्त क्रुद्ध होकर भी गोशालक निर्ग्रन्थों को कुछ भी पीड़ा नहीं दे सका। इधर श्रावस्ती नगरी के त्रिकमार्ग और राजमार्ग में सर्वत्र यह चर्चा होने लगी कि श्रावस्ती के बाहर कोष्ठक चैत्य में दो जिन परस्पर पालाप-संलाप कर रहे हैं। एक कहता है तुम पहले काल प्राप्त करोगे तो दूसरा कहता है पहले तुम्हारी मृत्यु होगी। इसमें कौन सच्चा और कौन झूठा है ? प्रभु की अलौकिक महिमा से परिचित, नगर के प्रमुख व्यक्ति कहने लगे-"श्रमण भगवान् महावीर सम्यग्वादी हैं और गोशालक मिथ्यावादी ।"२ । गोशालक को अन्तिम चर्या अपनी अभिलाषा की सिद्धि में असफलता के कारण गोशालक इधरउधर देखता, दोर्घ निश्वास छोड़ता, दाढ़ी के बालों को नोचता, गर्दन खुजलाता, पांवों को पछाड़ता, हाय मरा-हाय मरा ! चिल्लाता हुमा आजीवक समूह के साथ 'कोष्ठक-चत्य से निकल कर 'हालाहला' कुम्हारिन के कुम्भकारापण में पहुंचा । वहाँ वह अपनी दाह-शान्ति के लिए कभी कच्चा ग्राम चूसता, मद्यपान करता और बार-बार गाता-नाचता एवं कुम्हारिन को हाथ जोड़ता हुमा मिट्टी के भांड में रखे हुए शीतल जल से गात्र का सिंचन करने लगा। १ नो खलु अहं गोसाला। तव तवेरणं तेएणं प्रनाइट्ठे समारणे अंतो छण्हं जाव कालं करिस्सामि, अहन्न अन्नाई सोलसवासाई जिणे सुहत्थी विहरिस्सामि । तुम्हं णं गोसाला! अप्परगा चेव सयेणं तेएणं प्रणाइट्टे समाणे सत्तरत्तस्स पित्तज्जरपरिगयसरीरे जाव छउ. मत्थे चेव कालं करिस्ससि । २ भग. श. १५, सूत्र ५५३, पृ० ६७८ । Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [गोशालक की अन्तिम चर्या भगवान महावीर ने निर्ग्रन्थों को आमन्त्रित कर कहा-"पायों! मंखलिपुत्र गोशालक ने जिस तेजोलेश्या का मेरे वध हेतु प्रहार किया था, वह (१) अंग, (२) बंग, (३) मगध, (४) मलय, (५) मालव, (६) अच्छ, (७) वत्स, (८) कौत्स, (8) पाठ, (१०) लाट, (११) वज्र, (१२) मौजि, (१३) काशी, (१४) कोशल, (१५) अबाध और (१६) संभुत्तर इन समस्त देशों को जलाने, नष्ट करने तथा भस्म करने में समर्थ थी । अव वह कुम्भकारापण में कच्चा प्राम चूसता हा यावत ठंडे पानी से शरीर का सिंचन कर रहा है। अपने दोषों को छिपाने के लिए उसने आठ चरम बतलाये हैं, जैसे(१) चरम-पान, (२) चरम-गान, (३) चरम-नाट्य, (४) चरम-अंजलिकर्म, (५) चरम-पुष्कलसंवर्त मेघ, (६) चरम-सेचनक गंध-हस्ती, (७) चरममहाशिलाकंटक संग्राम और [८] चरम तीर्थंकर, अवसर्पिणी काल के अन्तिम तीर्थंकर के रूप में अपना सिद्ध होना। अपना मृत्यु समय निकट जान कर गोशालक ने आजीवक स्थविरों को बुला कर कहा-"मैं मर जाऊँ तो मेरी देह को सुगन्धित जल से नहलाना, सुगन्धित वस्त्र से देह को पोंछना, चन्दन का लेप करना, बहुमूल्य श्वेत वस्त्र पहिनाना तथा अलंकारों से भूषित करना और शिविका में बिठा कर यह घोषणा करते हुए ले जाना कि चौबीसवें तीर्थंकर गोशालक जिन हुए, सिद्ध हुए आदि । किन्तु सातवीं रात्रि में गोशालक का मिथ्यात्व दूर हुआ । उसकी दृष्टि निर्मल और शुद्ध हई। उसको अपने किये पर पश्चात्ताप होने लगा। उसने सोचा-"मैंने जिन नहीं होकर भी अपने को जिन घोषित किया है। श्रमणों का घात और धर्माचार्य का द्वेष करना वास्तव में मेरी भूल है । श्रमण भगवान् महावीर ही वास्तव में सच्चे जिन हैं।" ऐसा सोच कर उसने स्थविरों को बलाया और कहा-"स्थविरो! मैंने अपने पाप के लिए जो जिन होने की बात कही है, वह मिथ्या है, ऐसा कह कर मैंने तुम लोगों से वंचना की है । अतः अब मेरी मृत्यु के पश्चात् प्रायश्चित्त-स्वरूप मेरे बाएं पैर में डोरी बाँध कर, तुम मेरे मुह पर तीन बार थूकना और श्रावस्ती के राजमार्गों में यह कहते हुए मेरे शव को खींच कर ले जाना कि गोशालक जिन नहीं था, जिन तो महावीर ही हैं।" उसने अपनी इस अन्तिम भावना के पालन के लिए स्थविरों को शपथ दिलायी और सातवीं रात्रि में ही उसकी मृत्यु हो गई। १ भग. श. १५, पृ० ६८२, सू. ५५४ । Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका समाधान] भगवान महावीर ६४१ गोशालक के भक्त और स्थविरों ने सोचा-"प्रादेशानुसार यदि नगरी में पैर बांध कर घसीटते हुए निकालेंगे तो अपनी हल्की लगेगी और ऐसा नहीं करने से प्राज्ञा-भंग होगी। ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए ?" उन्होंने एक उपाय निकाला-"हालाहला कुम्हारिन के घर में ही द्वार बन्द कर नगरी और राजमार्ग की रचना करें। उसमें घुमा लेने से आज्ञा-भंग और बदनामी दोनों से ही बच जायेंगे। उन्होंने वैसा ही किया । गोशालक के निर्देशानुसार बंद मकान में शव को घुमा कर फिर नगर में धूम-धाम से शव-यात्रा निकाली और सम्मान पूर्वक उसका अन्तिम संस्कार सम्पन्न किया। शंका समाधान गोशालक के द्वारा समवशरण में तेजोलेश्या-प्रहा के प्रसंग से सहज शंका उत्पन्न होती है कि महावीर ने छद्मस्थ अवस्था में गोशालक की तो तेजोलेश्या से रक्षा की पर समवशरण में गोशालक द्वारा तेजोलेश्या का प्रहार किये जाने पर सर्वानुभूति और सुनक्षत्र मुनि को अपनी शीत-लेश्या के प्रभाव से क्यों नहीं बचाया ? टीकाकार प्राचार्य ने इस पर स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि महावीर वीतराग होने से निज-पर के भेद और रागद्वेष से रहित थे । केवली होने के कारण उनका व्यवहार निश्चयानुगामी होता था, जबकि छमस्थ अवस्था में व्यवहार से ही निश्चय धोतित होता और उसका अनुमान किया जाता था। सर्वानुभूति और सुनक्षत्र मुनि का गोशालक के निमित्त से मरण अवश्यंभावी था, ऐसा प्रभु ने जान रखा था। दूसरी बात यह भी है कि केवली राग और प्रमाद रहित होने से लब्धि का प्रयोग नहीं करते, इसलिए वे उस अवसर पर तटस्थ रहे। गोशालक के रक्षण के समय में भगवान् का जीवन किसी एक सूक्ष्म हद तक पूर्णतः रागविहीन और व्यवहार निरपेक्ष जीवन नहीं था। उस समय शरणागत का रक्षण नहीं करना अनुकम्पा का प्रत्यनीकपन होता । गोशालक द्वारा तेजोलेश्या के प्रहार किये जाने के समय में प्रभु पूर्ण वीतराग थे । यही कारण है कि सर्वानुभूति और सुनक्षत्र मुनि पर गोशालक द्वारा प्रहार किये जाने के समय गोशालक को न समझा कर प्रभु ने उससे पीछे बात की। कुछ लोग कहते हैं कि गोशालक पर अनुकम्पा दिखा कर भगवान् ने बड़ी भल की। यदि ऐसा नहीं करते तो कुमत का प्रचार और मुनि-हत्या जैसी अनर्थमाला नहीं बढ़ पाती, किन्तु उनका ऐसा कहना भूल है। सत्पुरुष अनुकम्पाभाव से बिना भेद के हर एक का हित करते हैं। उसका प्रतिफल क्या होगा, यह सौदेबाजी उनमें नहीं होती। वे जीवन भर अप्रमत्तभाव से चलते रहे, उन्होंने कभी कोई पापकर्म एवं प्रमाद नहीं किया, जैसा कि आचारांग सूत्र में स्पष्ट निर्देश है-'छउमत्थोवि परक्कममाणो ण पमायं सइंपि कवित्था।" १ माचा., श्रु. १, मध्ययन ६, उद्देशा ४, गा. १५ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् का विहार भगवान् का विहार श्रावस्ती के 'कोष्ठक चैत्य' से विहार कर भगवान् महावीर ने जनपद की ओर प्रयाण किया। विचरते हुए प्रभु 'मेढ़ियाग्राम' पहुँचे और ग्राम के बाहर 'सालकोष्ठक चैत्य' में पृथ्वी शिला-पट्ट पर विराजमान हुए। भक्तजन दर्शनश्रवण एवं वंदन करने आये । भगवान् ने धर्म-देशना सुनाई। जिस समय भगवान साल कोष्ठक चैत्य में विराज रहे थे, गोशालक द्वारा प्रक्षिप्त तेजोलेश्या के निमित्त से भगवान के शरीर में असाता का उदय हुआ, जिससे उनको दाह-जन्य अत्यन्त पीड़ा होने लगी। साथ ही रक्तातिसार की बाधा भी हो रही थी। पर वीतराग भगवान इस विकट वेदना में भी शान्तभाव से सब कुछ सहन करते रहे। उनके शरीर की स्थिति देख कर लोग कहने लगे कि गोशालक की तेजोलेश्या से पीड़ित भगवान महावीर छह माह के भीतर ही छद्मस्थभाव में कहीं मृत्यु न प्राप्त कर जायं । उस समय सालकोष्ठक के पास मालुयाकच्छ में भगवान् का एक शिष्य ‘सीहा' मुनि, जो भद्र प्रकृति का था, बेले की तपस्या के साथ ध्यान कर रहा था। ध्यानावस्था में ही उसके मन में यह विचार हा कि मेरे धर्माचार्य को विपुल रोग उत्पन्न हुआ है और वे इसी दशा में कहीं काल कर जायेंगे तो लोग कहेंगे कि ये छमस्थ अवस्था में ही काल कर गये और इस तरह हम सब की हँसी होगी । इस विचार से सीहा अनगार फूट-फूट कर रोने लगा। घट-घट के अन्तर्यामी त्रिकालदर्शी श्रमण भगवान महावीर ने तत्काल निर्ग्रन्थों को बुला कर कहा- “पार्यो ! मेरा अन्तेवासी सीहा अनगार, जो प्रकृति का भद्र है, मालुयाकच्छ में मेरी बाधा-पीड़ा के विचार से तेज स्वर में रुदन कर रहा है, अतः जाकर उसे यहां बुला लायो।" प्रभु के संदेश से श्रमरणनिर्ग्रन्थ मालुयाकच्छ गए और सीहा अनगार को भगवान् द्वारा बुलाये जाने की सूचना दो । सीहा मुनि भी निग्रंथों के साथ भगवान महावीर के पास आये और वन्दना नमस्कार कर उपासना करने लगे। सीहा मुनि को सम्बोधित कर प्रभु ने कहा- “सीहा ! ध्यानान्तरिका में तेरे मन में मेरे अनिष्ट की कल्पना हुई और तुम रोने लगे, क्या यह ठीक है ?" सीहा द्वारा इस तथ्य को स्वीकृत किये जाने पर प्रभु ने कहा- “सीहा ! गोशालक की तेजोलेश्या से पीड़ित हो कर मैं छह महीने के भीतर मत्य प्राप्त करूगा, ऐसी बात नहीं है। मैं सोलह वर्ष तक जिनचर्या से सूहस्ती की तरह और विचरूंगा। अतः हे आर्य ! तुम मेढ़ियाग्राम में "रेवती" गाथापत्नी के घर जाओ और उसके द्वारा मेरे लिये तैयार किया हुआ आहार न लेकर अन्य जो बासी बिजोरा पाक है, वह ले आयो । व्याधि मिटाने के लिये उसका प्रयोजन है।" भगवान् की आज्ञा पा कर सीहा अनगार बहुत प्रसन्न हुए और प्रभु को Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् की रोग-मुक्ति] भगवान् महावीर ६४३ वन्दन कर अचपल एवं असंभ्रान्त भाव से गौतम स्वामी की तरह शाल कोष्ठक चैत्य से निकल कर, मेढ़ियाग्राम के मध्य में होते हए, रेवती के घर पहुंचे। रेवती ने सीहा अनगार को विनयपूर्वक वन्दना की और आने का कारण पूछा। सीहा मुनि ने कहा-"रेवती ! तुम्हारे यहाँ दो औषधियाँ हैं, उनमें से जो तुमने श्रमण भगवान् महावीर के लिये तैयार की हैं, मुझे उससे प्रयोजन नहीं, किन्तु अन्य जो बिजोरापाक है, उसकी आवश्यकता है।" भगवान् की रोग-मुक्ति सीहा मुनि की बात सुन कर रेवती आश्चर्य-चकित हुई और बोली"मुने ! ऐसा कौनसा ज्ञानी या तपस्वी है, जो मेरे इस गप्त रहस्य को जानता है ?" सोहा अनगार ने कहा-"श्रमण भगवान महावीर, जो चराचर के ज्ञाता व दष्टा हैं, उनसे मैंने यह जाना है।" फिर तो रेवती श्रद्धावनत एवं भाव-विभोर हो भोजनशाला में गई और बिजोरा-पाक लेकर उसने मुनि के पात्र में वह सब पाक बहरा दिया । रेवती के यहाँ से प्राप्त बिजोरापाक रूप आहार के सेवन से भगवान् का शरीर पीड़ारहित हुप्रा और धीरे-धीरे वह पहले की तरह तेजस्वी होकर चमकने लगा। भगवान् के रोग-निवृत्त होने से श्रमण-श्रमणी और श्रावक-श्राविका वर्ग ही नहीं अपितु स्वर्ग के देवों तक को हर्ष हआ। सुरासुर और मानव लोक में सर्वत्र प्रसन्नता की लहर सी दौड़ गई।' रेवती ने भी इस अत्यन्त विशिष्ट भावपूर्वक दिये गये उत्तम दान से देवगति का आयुबन्ध एवं तीर्थंकर नामकर्भ का उपार्जन कर जीवन सफल किया। कुतर्कपूर्ण भ्रम “सीहा अणगार को भगवान महावीर ने रेवती के घर पौषधि लाने के लिये भेजा, उसका उल्लेख भगवती सूत्र के शतक १५, उद्देशा १ में इस प्रकार किया गया है : .... अहं एवं अण्णाइं सोलसवासाइं जिणे सुहत्थी विहरिस्सामि, तं गच्छह णं तमं सीहा । मिढ़ियागामं रणयरं रेवतीए गाहावयणीए गिहे, तत्थ णं रेवतीए गाहावईए मम अट्ठाए दुवे कवोयसरीरा उवक्खडिया तेहिं णो अट्ठो अत्थि । से अणे परिवासो मज्जारकड़ए कुक्कुडमंसए तमाहराहि, तेणं अट्ठो । तएणं..." इस पाठ को लेकर ई० सन् १८८४ से अर्थात लगभग ८७ वर्ष से पाश्चास्य एवं भारतीय विद्वानों में अनेक प्रकार के तर्क-वितर्क चल रहे हैं। जैन परम्परा से अनभिज्ञ कुछ विद्वानों की धारणा कुछ और ही तरह की रही है कि १ भग. श. १५, सू ५५७ । Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [कुतर्कपूर्ण इस पाठ में भगवान महावीर के मांसभक्षण का संकेत मिलता है। पर वास्तव में ऐसी बात नहीं है। पाठ में आये हए शब्दों का सही अर्थ समझने के लिये हमें प्रसंग और तत्कालीन परिस्थिति में होने वाले शब्द प्रयोगों को लक्ष्य में लेकर ही अर्थ करना होगा। उसके लिये सबसे पहले इस बात को ध्यान में रखना होगा कि रेवती श्रमण भगवान महावीर की परम भक्त श्रमणोपासिका एवं सती जयंती तथा सुश्राविका मगावती की प्रिय सखी थी। अत: मत्स्यमांसादि अभक्ष्य पदार्थों से उसका कोई सम्बन्ध हो ही नहीं सकता। रेवती ने परम उत्कृष्ट भावना से इस औषधि का दान देकर देवायु और महामहिम तीर्थकर नामकर्म का उपार्जन किया था। भगवती सूत्र के पाठ में आये हुए खास विचारणीय शब्द "कवोयसरीर", "मज्जारकडए कुक्कुडमंसए" शब्द हैं। जिनके लिये भगवती सूत्र के टीकाकार प्राचार्य अभयदेव सरि और दानशेखर सूरि ने क्रमशः कुष्मांड फल और मार्जार नामक वायु की निवृत्ति के लिये बिजोरा (बीजपूरक कटाह) अर्थ किया है । विक्रम संवत् ११२० में अभयदेव ने स्थानांग सूत्र की टीका बनाई। उस टीका में उन्होंने अन्य मत का उल्लेख तक नहीं किया है और उन्होंने स्पष्टतः निश्चित रूप से "कवोयसरीर" का अर्थ कुष्मांडपाक और "मज्जारकडए कुक्कुडमंसए" का अर्थ मार्जार नामक वायु के निवृत्त्यार्थ बीजपूरक कटाह अर्थात् बिजौरापाक किया है। अभयदेव द्वारा की गई स्थानांग सूत्र की व्याख्या में किंचितमात्र ध्वनि तक भी प्रतिध्वनित नहीं होती कि इन शब्दों का अर्थ मांसपरक भी हो सकता है। जैसा कि स्थानांग की टीका के निम्नलिखित अंश से स्पष्ट है: "भगवांश्च स्थविरैस्तमाकार्योक्तवान् हे सिंह ! यत् त्वया व्यकल्पि न तद्भावि, यत इतोऽहं देशोनानि षोडश वर्षाणि केवलिपर्यायं पूरयिष्यामि, ततो गच्छ त्वं नगरमध्ये, तत्र रेवत्यभिधानया गृहपतिपत्न्या मदर्थं द्वे कुष्मांडफलशरीरे उपस्कृते, न च ताभ्यां प्रयोजनम् तथान्यदस्ति तदग्रहे परिवासितं मार्जाराभिधानस्य वायोनिवृत्तिकारकं कुक्कुटमांसकं बीजपूरककटाहमित्यर्थः, तदाहर, तेन नः प्रयोजनमित्येवमुक्तोऽसौ तथैव कृतवान्, "......" स्थांनांग सूत्र की टीका का निर्माण करने के ८ वर्ष पश्चात् अर्थात् वि० सं० ११२८ में अभयदेव सूरि ने भगवती सूत्र की टीका का निर्माण किया। उसमें उन्होंने भगवती सूत्र के पूर्वोक्त मूल पाठ की टीका करते हुए लिखा है : "दुवेकवोया" इत्यादेः श्रूयमाणमेवार्थ केचिन्मन्यन्ते, अन्ये त्वाहुः-कपोतकः पक्षिविशेषस्तद्वद् ये फले वर्णसाधात्ते कपोते, कुष्मांडे ह्रस्वे कपोते कपोतके ते च ते शरीरे वनस्पतिजीवदेहत्वात् कपोतकशरीरे अथवा कपोतकशरीरे इव Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्रम] भगवान् महावीर ६४५ धसरवर्णसाधादेव कपोतक शरीरे-कुष्मांड फले..."परिमासिए ति परिवासितं ह्यस्तनमित्यर्थः, 'मज्जारकडए' इत्यादेरपि केचित् श्रूयमाणमेवार्थं मन्यन्ते, अन्ये त्वाहुः-मार्जारो वायुविशेषस्तदुपशमनाय कृत-संस्कृतं मार्जारकृतम्, अपरे त्वाहु:मार्जारो विरालिकाभिधानो वनस्पतिविशेषस्तेन कृतं भावितं यत्तत्तथा कि तत् इति ? आह 'कुर्कुटक मांसकं बीजपूरक कटाहम्...।" । भगवती सूत्र अभयदेवकृत टीका, शतक १५, उ० १] इसमें अभयदेव ने अन्य भत का उल्लेख किया है पर उनकी निजी निश्चित मान्यता इन शब्दों के लिये मांसपरक अर्थ वाली किसी भी दशा में नहीं कही जा सकती। अर्थ का अनर्थ करने को कुचेष्टा रखने वाले लोगों को यह बात सदा ध्यान में रखनी चाहिये कि सामान्य जैन साधु का जीवन भो 'श्रमज्झमंसासिणो' विशेषण के अनसार मद्यमांस का त्यागी होता है, तब महावीर के लिये मांसभक्षण की कल्पना ही कैसे की जा सकती है? इसके साथ ही साथ इस महत्त्वपूर्ण तथ्य को भी सदा ध्यान में रखना होगा कि भगवान् महावीर ने अपनी देशना में नरक गति के कारणों का प्रतिपादन करते हुए मांसाहार को स्पष्ट शब्दों में नरक गति का कारण बताया है।' आचारांग सूत्र में तो श्रमण को यहां तक निर्देश दिया गया है कि भिक्षार्थ जाते समय साधु को यदि यह ज्ञात हो जाय कि अमुक गृहस्थ के घर पर मद्यमांसमय भोजन मिलेगा तो उस घर में जाने का साधु को विचार तक नहीं करना चाहिए। भगवान महावीर की पितज्वर की व्याधि को देखते हए भी मांस अर्थ अनुकूल नहीं पड़ता किन्तु बिजोरे का गिरभाग जो मांस पद से उपलक्षित है, वही हितकर माना गया है । जैसा कि सुश्रूत से भी प्रमाणित होता है १ (क) ठाणांग सूत्र, ठा० ४, उ० ४, सू० ३७३ (ख) गोयमा ! महारंभायाए, महापरिग्गयाए, कुरिणमाहारेणं पंचिन्दियवहेणं..... नेरइयाउयकम्मा-सरीर जाव पयोग बंधे। [भगवती सू०, शतक ८, उ० ६, सू० ३५०] (ग) चउहि ठाणेहिं जीवा ऐरइयत्ताए कम्म पकरेंति......"कुरिणमाहारेणं । [प्रौपपातिक सूत्र, सू० ५६] २ से भिक्खू वा. जाव समाणे से जं पुण जाणेज्जा मंसाई व मच्छाई मंस खलं व मच्छ खलं वा मच्छो खलं नो अभिसंधारिज्ज गमणाए ......"[प्राचारांग, श्रु. २, अ. १, उ. ४, सू. २४५] Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [कुतर्कपूर्ण लघ्वम्लं दीपनं हृद्यं मातुलुगमुदाहृतम् । त्वक् तिक्ता दुर्जरा तस्य वातकृमिकफापहा ।। स्वादु शीतं गुरु स्निग्धं मांसं मारुतपित्तजित् । मेघ्यं शूलानिलदिकफारोचक नाशनम ।। निघण्टु में भी बिजौरा के गुण इस प्रकार बताये गये हैं : रक्तपित्तहरं कण्ठजिह्वाहृदयशोधनम् । श्वासकासारुचिहरं हृद्यं तृष्णाहरं स्मृतम् ।।१३२।। बीजपूरो परः प्रोक्तो मधुरो मधुकर्कटी। मधुकर्कटिका स्वादी रोचनी शीतला गुरुः ।।१३३।। रक्तपित्तक्षयश्वासकासंहिक्काभ्रमापहा ।।१३४।। [भावप्रकाश निघण्टु वैजयन्ती कोष में बीजपूरक को मधुकुक्कुटी के नाम से उल्लिखित किया गया है । यथा : देविकायां महाशल्का दूष्यांगी मधुकुक्कुटी। अथात्ममूला मातुलुगी पूति पुष्पी वृकाम्लिका । 1 [वैजयन्ती कोष, भूमिकाण्ड, वनाध्याय, श्लोक ३३-३४] पित्तज्वर के उपशमन में बीजपूरक ही हितावह होता है, इसलिए यहाँ पर कुक्कुडमंस शब्द से मधुकुक्कुटी अर्थात् बिजौरे का गिर ही समझना चाहिए। जिस संस्कृति में जीवन निर्वाह के लिए अत्यावश्यक फल, मूल एवं सचित्त जल का भी भक्ष्याभक्ष्य रूप से विचार किया गया है, वहां पर स्वयं उस संस्कृति के प्रणेता द्वारा मांस जैसे महारम्भी पदार्थ का ग्रहण, कभी मानने योग्य नहीं हो सकता। जिन भगवान महावीर ने कौशाम्बी पधारते समय प्राणान्त संकट की स्थिति में भी क्षधा एवं तषा से पीड़त मुनिवर्ग को वन-प्रदेश में सहज अचित्त जल को सम्मुख देख कर भी पीने की अनुमति नहीं दी, वे परम दयालु महामुनि स्वयं की देह-रक्षा के लिए मांस जैसे अग्राह्य पदार्थ का उपयोग करें, यह कभी बद्धिगम्य नहीं हो सकता । अतः बुद्धिमान पाठकों को शब्दों के बाहरी कलेवर की ओर दृष्टि न रख कर उनके प्रसंगानुकूल सही अर्थ, अर्थात बिजोरापाक को ही प्रमाणभूत मानना चाहिए । साधु को किस प्रकार का प्राहार त्याज्य है, इस सम्बन्ध में प्राचारांग सूत्र के उदाहरणपरक मूल पाठ 'बहु अट्ठिएण मंसेण वा मच्छेण वा बहुकण्टएण' Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्रम ] भगवान् महावीर को लेकर सर्वप्रथम डॉक्टर हर्मन जैकोबी को भ्रम उत्पन्न हुआ और उन्होंने आचारांग के अंग्रेजी अनुवाद में यह मत प्रकट करने का प्रयास किया कि इन शब्दों का अर्थ मांस ही प्रतिध्वनित होता है। जैन समाज द्वारा हर्मन जैकोबी की इस मान्यता का डट कर उग्र विरोध किया गया और अनेक शास्त्रीय प्रमाण उनके समक्ष रखे गये। उन प्रमारणों से हर्मन जैकोबी की शंका दूर हुई और उन्होंने अपने दिनांक २४-२-२८ के पत्र में अपनी भूल स्वीकार करते हुए आचारांग सूत्र के उक्त पाठ को उदाहरणपरक माना । श्री हीरालाल रसिकलाल rasया ने 'हिस्ट्री आफ कैनानिकल लिटरेचर आव जैनाज' में डॉक्टर जैकोबी के उक्त पत्र का उल्लेख किया है जो इस प्रकार है : There he has said that 'बहु प्रट्ठिएण मंसेण वा मच्छेग वा बहुकण्टर' has been used in the metaphorical sense as can be seen from the illustration of नान्तरीयकत्व given by Patanjali in discussing a Vartika at Panini (III, 3, 9 ) and from Vachaspati's com. oh Nyayasutra (iv, 1, 54). He has concluded: "This meaning of the passage is therefore, that a monk should not accept in alms any substance of which only a part can be eaten and a greater part must be rejected," ६४७ जिस भक्ष्य पदार्थ का बहुत बड़ा भाग खाने के काम में न आने के कारण त्याग कर डालना पड़े उसके साथ नान्स रोवकत्व भाव धारण करने वाली वस्तु के रूप में उदाहरणपरक मत्स्य शब्द का प्रयोग किया गया है, क्योंकि मत्स्य के काँटों को बाहर ही डालना पड़ता है । डॉ० हरमन जैकोबी ने नान्तरीयकत्व भाव के रूप में उपर्युक्त पाठ को माना है । आचारांग सूत्र के उपर्युक्त पाठ का और अधिक स्पष्टीकरण करते हुए डॉक्टर स्टेन कोनो ने डॉक्टर वाल्थेर शूविंग द्वारा जर्मन भाषा में लिखी गई पुस्तक 'दाई लेह देर जैनाज' की आलोचना में लिखा था : "I shall mention only one detail, because the common European view has here been largely resented by the Jainas. The mention of Bahuasthiyamansa and Bahukantakamachha 'meat' or 'fish' with many bones in Acharanga has usually been interpreted so as to imply that it was in olden times, allowed to eat meat and fish, and this interpretation is given on p. 137, in the Review of Philosophy and Religion, १ देखिये - भगवान् महावीर का सिन्धु-सौवीर की राजधानी वीतभया नगरी की ओर विहार । Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [कुतर्कपूर्ण भ्रम Vol. IV-2, Poona 1933, pp. 75. Prof. Kapadia has, however, published a letter from Prof. Jacoby on the 14th February. 1928 which in my opinion settles the matter. Fish of which the fiesh may be eaten, but scales and bones must be taken out was a school example of an object containing the substance which is wanted in intimate conexion with much that must be rejected. The words of the Acharanga are consequently technical terms and do not imply that 'meat' and 'fish' might be earen."१ प्रोस्ली के विद्वान डॉक्टर स्टेन कोनो ने जैनाचार्य श्री विजयेन्द्र सरिजी को लिखे गये पत्र में डॉ. हर्मन जैकोबी के स्पष्टीकरण की सराहना करते हुए यह मत व्यक्त किया है कि पूर्ण अहिंसावादी और आस्तिक जैनों में कभी मांसाहार का प्रचलन रहा हो , इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। वह पत्र इस प्रकार है :-- "Prof. Jacoby has done a great service to scholars in clearing up the much discussed question about meat eating among Jainas. On the face of which, it has always seemed incredible to me that it had at any time, been allowed in a religion where Ahimsa and also Ascetism play such a prominent role...." Prof. Jacoby's short remarks on the other hand make the whole matter clear. My reason for mentioning it was that I wanted to bring his explanation to the knowledge of so many scholars as possible. But there will still, no doubt, be people who stick to the old theory. It is always difficult to do away with false ditthi but in the end truth always prevails.". इन सब प्रमारणों से स्पष्टतः सिद्ध होता है कि अहिंसा को सर्वोपरि स्थान देने वाले जैन धर्म में मांस-भक्षण को सर्वथा त्याज्य और नर्क में पतन का कारण माना गया है । इस पर भी जो लोग कुतर्कों से यह सिद्ध करना चाहते हैं हैं कि जैन प्रागमों में मांस-भक्षण का उल्लेख है, उनके लिए हम इस नीति पद को दोहराना पर्याप्त समझते हैं : "ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापितं नरं न रंजयति ।" १ तीपंकर महावीर भाग, २, (जैनाचार्य श्री विजयेन्द्र सूरि) पृ० १८२ Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौतम की जिज्ञासा का समाधान ] भगवान् महावीर गौतम की जिज्ञासा का समाधान एक दिन गौतम स्वामी ने भगवान् से पूछा - " भदन्त ! श्रापका अन्तेवासी सर्वानुभूति अनगार, जो गोशालक की तेजोलेश्या से भस्म कर दिया गया है, यहाँ कालधर्म को प्राप्त कर कहाँ उत्पन्न हुआ और उसकी क्या गति होगी ?" भगवान् ने उत्तर में कहा - " गौतम ! सर्वानुभूति अनगार आठवें स्वर्ग में अठारह सागर की स्थिति वाले देव के रूप से उत्पन्न हुआ है और वहां से च्यवन होने पर महाविदेह - क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध, बुद्ध तथा मुक्त होगा ।" ६४६ इसी तरह सुनक्षत्र के बारे में भी गौतम द्वारा प्रश्न किये जाने पर भगवान् ने फरमाया - " सुनक्षत्र अनगार बारहवें अच्युत कल्प में बाईस सागर की देवायु भोग कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा और वहां उत्तम करणी करके सर्व कर्मों का क्षय कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होगा । गौतम ने फिर पूछा - "भगवन् ! आपका कुशिष्य मंखलिपुत्र गोशालक काल प्राप्त कर कहाँ गया और कहाँ उत्पन्न हुआ ! प्रभु ने उत्तर में कहा - " गौतम ! गोशालक भी अन्त समय की परिणाम शुद्धि के फलस्वरूप छद्मस्थदशा में काल कर बारहवें स्वर्ग में बाईस सागर की स्थिति वाले देव के रूप में उत्पन्न हुआ है । वहाँ से पुनः जन्म-जन्मान्तर करते हुए वह सम्यग्दृष्टि प्राप्त करेगा । अन्त समय में दृढ़-प्रतिज्ञ के रूप से वह संयम धर्म का पालन कर केवलज्ञान प्राप्त करेगा और कर्मक्षय कर सर्व दुःखों का अन्त करेगा । " मेढ़ियग्राम से विहार करते हुए भगवान् महावीर मिथिला पधारे और वहीं पर वर्षाकाल पूर्ण किया । इसी वर्ष जमालि मुनि का भगवान् महावीर से मतभेद हुन और साध्वी सुदर्शना ढंक कुम्हार द्वारा प्रतिबोध पाकर फिर भगवान् के संघ में सम्मिलित हो गई । haara का सोलहवाँ वर्ष मिथिला का वर्षाकाल पूर्ण कर भगवान् ने हस्तिनापुर की ओर बिहार किया । उस समय गौतम स्वामी कुछ साधु समुदाय के साथ विचरते हुए श्रावस्ती १ भग. श., १५, सू. ५६० पु० ५३५ २ पियदसरणा वि पइरणोऽणुरागम्रो तमायं चिय पवण्णा । कोहियागणिदड्डत्थ ऐसा तरं भग्गुई || [विशेषावश्यक, गाथा २३२५ से ] Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [केवलीचर्या का सोलहवां वर्ष आये और कोष्ठक उद्यान में विराजमान हुए । नगर के बाहर 'तिन्दुक उद्यान' में पार्श्व-संतानीय 'केशिकुमार' भी अपने मुनि-मण्डल के साथ ठहरे हुए थे। कुमारावस्था में ही साधु होने से ये कुमार श्रमण कहलाये । ये ज्ञान तथा क्रिया के पारगामी थे । मति, श्रुति और अवधि रूप तीनों ज्ञानों से वे रूपी द्रव्य के वस्तु-स्वरूप को जानते थे।' श्रावस्ती में केशी और गौतम दोनों के श्रमण समुदाय समाधिपूर्वक विचर रहे थे, किन्तु दोनों के बीच दिखने वाले वेष-भूषा और प्राचार के भेद से दोनों समुदाय के श्रमणों के मन शंकाशील थे। दोनों श्रमण-समुदायों के मन में यह चिन्ता उत्पन्न हुई कि यह धर्म कैसा और वह दूसरा कैसा? हमारी और इनकी प्राचार-विधि में इतना अन्तर क्यों है ? पार्श्वनाथ ने चातुर्याम रूप और वर्द्धमान-महावीर ने पंच शिक्षा रूप धर्म कहा है। महावीर का धर्म अचेलक और पार्श्वनाथ का धर्म सचेलक है, ऐसा क्यों ? एक लक्ष्य के लिए चलने वालों के प्राचार में इस विभेद का कारण क्या है ? केशी-गौतम मिलन केशी और गौतम दोनों ने अपने-अपने शिष्यों के मनोगत भावों को जान कर परस्पर मिलने का विचार किया । केशिकुमार के ज्येष्ठकुल का विचार कर मर्यादाशील गौतम अपनी शिष्य-मंडली सहित स्वयं 'तिदुक वन' की ओर पधारे। केशिकूमार ने जब गौतम को प्राते देखा तो उन्होंने भी गौतम का यथोचित रूप से सम्यक सत्कार किया और गौतम को बैठने के लिए प्राशुक पराल आदि तण आसन रूप से भेंट किये । दोनों एक दूसरे के पास बैठे हुए ऐसी शोभा पा रहे थे मानों सूर्य-चन्द्र की जोड़ी हो। दोनों स्थविरों के इस अभूतपूर्व संगम के रम्य दश्य को देखने के लिए बहुत से व्रती, कुतूहली और सहस्रों गृहस्थ भी आ पहुँचे । अदृश्य देवादि का भी बड़ी संख्या में समागम था । सबके समक्ष केशिकुमार ने प्रेमपूर्वक गौतम से कहा"महाभाग ! आपकी इच्छा हो तो मैं कुछ पूछना चाहता हूँ।" गौतम की अनुमति पा कर केशी बोले-"पार्श्वनाथ ने चातुर्याम धर्म कहा और महावीर ने पंचशिक्षारूप धर्म, इसका क्या कारण है ?" उत्तर में गौतम बोले-"महाराज! धर्म-तत्त्व का निर्णय बुद्धि से होता है। इसलिए जिस समय लोगों की जैसी मति होती है, उसी के अनुसार धर्म-तत्त्व का उपदेश किया जाता है । प्रथम तीर्थंकर के समय में लोग सरल और जड़ थे तथा अन्तिम तीर्थंकर महावीर के समय में लोग वक्र और जड़ हैं। पूर्व वरिणत १ उत्तराध्ययन, २३॥३ Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशी - गौतम मिलन ] भगवान् महावीर ६५१ लोगों को समझाना कठिन था और पश्चात् वरित लोगों के लिये धर्म का पालन करना कठिन है, अतः भगवान् ऋषभदेव और भगवान् महावीर ने पंच महाव्रत रूप धर्म बतलाया । मध्य तीर्थंकरों के समय में लोग सरल प्रकृति और बुद्धिमान् होने के कारण थोड़े में समझ भी लेते और उसे पाल भी लेते थे । अतः पार्श्वनाथ ने चातुर्याम धर्म कहा है । आशय यह है कि प्रत्येक को सरलता से व्रतों का बोध हो और सभी अच्छी तरह उनको पाल सकें । यही चातुर्याम और पंच - शिक्षा रूप धर्म-भेद का दृष्टिकोण है ।" (२) गौतम के उत्तर से केशी बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने दूसरी शंका वेष के विषय में प्रस्तुत की और बोले - " गौतम ! वर्द्धमान महावीर ने अचेलक धर्म बतलाया और पार्श्वनाथ ने उत्तरोत्तर प्रधान वस्त्र वाले धर्म का उपदेश दिया । इस प्रकार दो तरह का लिंग भेद देख कर क्या आपके मन में विपर्यय नहीं होता ?" गौतम ने कहा - " लोगों के प्रत्ययार्थ यानी जानकारी के लिए नाना प्रकार के वेष की कल्पना होती है । संयम रक्षा और धर्म - साधना भी लिंग-धारण का लक्ष्य है । वेष से साधु की सरलता से पहिचान हो जाती है, अतः लोक में बाह्य लिंग की आवश्यकता है । वास्तव में सद्भूत मोक्ष की साधना में ज्ञान, दर्शन और चरित्र ही निश्चय लिंग हैं । बाह्य लिंग बदल सकता है पर अन्तर्लिंग एक और अपरिवर्तनीय है । अतः लिंग-भेद के तत्त्वाभिमुख-‍ -गमन में संशय करने की आवश्यकता नहीं रहती ।" (३) फिर केशिकुमार ने पूछा - " गौतम ! आप सहस्रों शत्रुओं के मध्य में खड़े हैं, वे आपको जीतने के लिये आ रहे हैं। आप उन शत्रुओं पर कैसे विजय प्राप्त करते हैं ?" गौतम स्वामी बोले - “एक शत्रु के जीतने से पाँच जीते गये और पाँच की जीत से दश तथा दश शत्रुओं को जीतने से मैंने सभी शत्रुओं को जीत लिया है ।" केशिकुमार बोले - " वे शत्रु कौनसे हैं ? " गौतम ने कहा - " हे महामुने ! नहीं जीता हुआ अपना आत्मा ( मन ) शत्रुरूप है, एवं चार कषाय तथा ५ इन्द्रियाँ भी शत्रुरूप हैं । एक आत्मा के जय से ये सभी वश में हो जाते हैं । जिससे मैं इच्छानुसार विचरता हूँ और मुझे ये शत्रु बाधित नहीं करते ।" (४) केशिकुमार ने पुन: पूछा - " गौतम ! संसार के बहुत से जीव पाशबद्ध देखे जाते हैं, परन्तु प्राप पाशमुक्त लघुभूत होकर कैसे विचरते हैं ?” Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [केशी-गौतम गौतम स्वामी ने कहा-"महामुने ! राग-द्वेष रूप स्नेह-पाश को मैंने उपाय पूर्वक काट दिया है, अतः मैं मुक्तपाश और लघुभूत हो कर विचरता हूँ।" (५) केशिकुमार बोले-"गौतम ! हृदय के भीतर उत्पन्न हुई एक लता है, जिसका फल प्राणहारी विष के समान है । आपने उसका मूलोच्छेद, कैसे किया है ?" __ गौतम ने कहा-"महामने ! भव-तृष्णा रूप लता को मैंने समूल उखाड़ कर फेंक दिया है, अतः मैं निश्शंक होकर विचरता हूँ।" (६) केशिकुमार बोले-"गौतम ! शरीर-स्थित घोर तथा प्रचण्ड कषायाग्नि, जो शरीर को भस्म करने वाली है, उसको आपने कैसे बुझा रखा है ?" गौतम ने कहा-"महामने ! वीतरागदेवरूप महामेघ से ज्ञान-जल को प्राप्त कर मैं इसे निरन्तर सींचता रहता हूँ। अध्यात्म-क्षेत्र में कषाय ही अग्नि और श्रुत-शील एवं तप ही जल है । अतः श्रुत-जल की धारा से परिषिक्त कषाय की अग्नि हमको नहीं जलाती है।" (७) केशिकुमार बोले-"गौतम ! एक साहसी और दुष्ट घोड़ा दौड़ रहा है, उस पर आरूढ़ होकर भी आप उन्मार्ग में किस कारण नहीं गिरते ?" ___ गौतम ने कहा-"श्रमणवर ! दौड़ते हुए अश्व का मैं श्रुत की लगाम से निग्रह करता हूँ । अतः वह मुझे उन्मार्ग पर न ले जा कर सुमार्ग पर ही बढ़ाता है। आप पूछेगे कि वह कौन सा घोड़ा है, जिसको तुम श्रुत की लगाम से निग्रह करते हो । इसका उत्तर यह है कि मन ही साहसी और दुष्ट अश्व है, जिस पर मैं बैठा हूँ। धर्मशिक्षा ही इसकी लगाम है, जिससे कि मैं सम्यगरूप से मन का निग्रह कर पाता हूँ।" (८) केशिकुमार ने पूत्दा-"गौतम ! संसार में बहुत से कुमार्ग हैं जिनमें लोग भटक जाते हैं किन्तु श्राप मार्ग पर चलते हैं, मार्गच्युत कैसे नहीं होते हैं ?" गौतम ने कहा- "महाराज ! मैं सन्मार्ग पर चलने वाले और उन्मार्ग पर चलने वाले, दोनों को ही जानता हूँ, इसलिये मार्ग-च्युत नहीं होता । मैंने समझ लिया है कि कुप्रवचन के व्रती सब उन्मार्गगामी हैं, केवल वीतराग जिनेन्द्रप्रणीत मार्ग ही उत्तम मार्ग है ।" (8) केशिकुमार बोले-"गौतम ! जल के प्रबल वेग में जग के प्राणी Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलन] भगवान् महावीर ६५३ बहे जा रहे हैं, उनके लिए आप शरण गति और प्रतिष्ठा रूप द्वीप किसे मानते हैं ?" गौतम ने कहा-"महामुने ! उस पानी में एक बहुत बड़ा द्वीप है, जिस पर पानी नहीं पहुँच पाता। इसी प्रकार संसार के जरा-मरण के वेग में बहते हुए जीवों के लिए धर्म रक्षक होने से द्वीप का काम करता है। यही शरण, गति और प्रतिष्ठा है।" (१०) केशी बोले-“गौतम ! बड़े प्रवाह वाले समुद्र में नाव उत्पथ पर जा रही है, उस पर आरूढ़ होकर आप कैसे पार जा सकेंगे?" . ___ गौतम ने कहा-"केशी महाराज ! नौका दो तरह की होती है : (१) सच्छिद्र और (२) छिद्ररहित । जो नौका छिद्र वाली है वह पार नहीं करती, किन्तु छिद्र रहित नौका पार पहुँचाती है । आप कहेंगे कि संसार में नाव क्या है, तो उत्तर है-शरीर नौका और जीव नाविक है । आस्रवरहित शरीर से महर्षि संसार-समुद्र को पार कर लेते हैं ?" (११) फिर केशिकुमार ने पूछा--"गौतम ! संसार के बहुत से प्राणी घोर अंधकार में भटक रहे हैं, लोक में इन सब प्राणियों को प्रकाश देने वाला कौन है ?" गौतम ने कहा-"लोक में विमल प्रकाश करने वाले सूर्य का उदय हो गया है, जो सब जीवों को प्रकाश-दान करेगा । सर्वज्ञ जिनेश्वर ही वह भास्कर है, जो तमसावृत संसार को ज्ञान का प्रकाश दे सकते हैं।" . (१२) तदनन्तर केशी ने सुख-स्थान की पृच्छा करते हुए प्रश्न किया"संसार के प्राणी शारीरिक और मानसिक आदि विविध दुःखों से पीड़ित हैं, उनके लिये निर्भय, उपद्रवरहित और शान्तिदायक स्थान कौनसा है ?" इस पर गौतम ने कहा--"लोक के अग्रभाग पर एक निश्चल स्थान है, जहाँ जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि और पीड़ा नहीं होती। वह स्थान सबको सुलभ नही है । उस स्थान को निर्वाण, सिद्धि, क्षेम एवं शिवस्थान आदि नाम से कहते हैं। उस शाश्वत स्थान को प्राप्त करने वाले मुनि चिन्ता से मुक्त हो जाते हैं।" इस प्रकार गौतम द्वारा अपने प्रत्येक प्रश्न का समुचित समाधान पाकर केशिकुमार बड़े प्रसन्न हुए और गौतम को श्रुतसागर एवं संशयातीत कह, उनका अभिवादन करने लगे। फिर सत्यप्रेमी और गुणग्राही होने से घोर पराक्रमी केशी ने शिर नवा कर गौतम के पास पंच-महाव्रत रूप धर्म स्वीकार किया। Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [शिव केशी और गौतम की इस ज्ञान-गोष्ठी से श्रावस्ती में ज्ञान और शील धर्म का बड़ा अभ्युदय हुआ । उपस्थित सभी सभासद इस धर्म-चर्चा से सन्तुष्ट होकर सन्मार्ग पर प्रवृत्त हुए । श्रमरण भगवान् महावीर भी धर्म-प्रचार करते हुए कुरु जनपद होकर हस्तिनापुर की ओर पधारे और नगर के बाहर सहस्राम्रवन में अनुज्ञा लेकर विराजमान हुए। शिव राषि हस्तिनापुर में उस समय राजा शिव का राज्य था। वे स्वभाव से संतोषी, भावनाशील और धर्मप्रेमी थे । एक बार मध्यरात्रि के समय उनकी निद्रा भंग हई तो वे राज-काज की स्थिति पर विचार करते-करते सोचने लगे-"अहो! इस समय मैं सब तरह से सुखी हूँ। धन, धान्य, राज्य, राष्ट्र, पुत्र, मित्र, यान, वाहन, कोष और कोष्ठागार आदि से बढ़ रहा हूँ । वर्तमान में शुभ कर्मों का फल भोगते हुए मुझे भविष्य के लिए भी कुछ कर लेना चाहिये । भोग और ऐश्वर्य का कीट बनकर जीवन-यापन करना प्रशंसनीय नहीं होता । अच्छा हो, कल सूर्योदय होने पर मैं लोहमय कड़ाह, कड़च्छूल और ताम्रपात्र बनवाकर 'शिवभद्रकुमार' को राज्याभिषिक्त करूं और स्वयं गंगातटवासी, दिशापोषक वानप्रस्थों के पास जाकर प्रव्रज्या ग्रहण कर लूं।" प्रातःकाल संकल्प के अनुसार उन्होंने सेवकजनों को आज्ञा देकर शिवभद्र कुमार का राज्याभिषेक किया। तदनन्तर लोहमय भाण्ड आदि बनवाकर उन्होंने मित्र-ज्ञातिजनों का भोजनादि से उचित सत्कार किया एवं उनके सम्मुख अपने विचार व्यक्त किये । सबकी सम्मति से तापसी-दीक्षा ग्रहण कर उन्होंने यह प्रतिज्ञा की-"मैं निरन्तर छट्ठ-बेले की तपस्या करते हुए दिशा चक्रवाल से दोनों बाहें उठाकर सूर्य के सम्मुख पातापना लेते हुए विचरूंगा।" प्रातःकाल होने पर उन्होंने वैसा ही किया। अब वह राजर्षि बन गया । प्रथम छ? तप के पारणे में शिव राजर्षि वल्कल पहने तपोभूमि से कुटिया में आये और कठिन संकायिका-बाँस की छाव को लेकर पूर्व दिशा को पोषण करते हुए बोले- "पूर्व दिशा के सोम महाराज प्रस्थान में लगे हुए शिव राजर्षि का रक्षण करें और कंद, मूल, त्वचा, पत्र, फूल, फल आदि के लिए अनुज्ञा प्रदान करें।" ऐसा कहकर वे पूर्व की ओर चले और वहाँ से पत्रादि छाब में भरकर तथा दर्भ, कुश, समिधा आदि हवनीय सामग्री लेकर लौटे । कठिन संयामिका को रखकर प्रथम उन्होंने वेदिका का निर्माण किया और फिर दर्भ सहित कलश लिए गंगा पर गये । वहाँ स्नान किया और देव-पितरों का तर्पण कर भरे कलश के साथ वे कुटिया में पहुँचे । वहाँ विधिपर्वक अररिण से अग्नि उत्पन्न की और अग्ति-कुण्ड के दाहिने बाज सक्था, वल्कल, Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजर्षि] भगवान् महावीर ६५५ स्थान, शय्या-भाण्ड, कमंडलु, दण्ड, काष्ठ और अपने आपको एकत्र कर मधु एवं घृत आदि से आहुति देकर चरु तैयार किया। फिर वैश्वदेव-बलि तथा अतिथिपूजा करने के पश्चात् स्वयं ने भोजन किया।' इस तरह लम्बे समय तक आतापनापूर्वक तप करते हए शिव राजर्षि को विभंग ज्ञान उत्पन्न हो गया। वे सात समुद्र और सात द्वीप तक जानने व देखने लगे। इस नवीन ज्ञानोपलब्धि से शिव राजर्षि के मन में प्रसन्नता हुई और वे सोचने लगे- "मुझे तपस्या के फलस्वरूप विशिष्ट ज्ञान उत्पन्न हुआ है । सात द्वीप और सात समुद्र के आगे कुछ नहीं है ।" शिव राजर्षि ने हस्तिनापुर में जाकर अपने ज्ञान की बात सुनाई और कहा-“सात द्वीप और समुद्रों के आगे कुछ नहीं है।" उस समय श्रमण-भगवान्-महावीर भी हस्तिनापुर आये हुए थे । भगवान् की आज्ञा लेकर इन्द्रभूति (गौतम) हस्तिनापुर में भिक्षार्थ निकले तो उन्होंने लोक-मख से सात द्वीप और सात समुद्र की बात सुनी । गौतम ने आकर भगवान् से पूछा- "क्या शिव राजर्षि का सात द्वीप और सात समुद्र का कथन ठीक है?" भगवान् ने सात द्वीप, सात समुद्र सम्बन्धी शिव राजर्षि की बात को मिथ्या बतलाते हुए कहा-"इस धरातल पर जंबूद्वीप आदि असंख्य द्वीप और असंख्य समुद्र हैं।" लोगों ने गौतम के प्रश्नोत्तर की बात सुनी तो नगर में सर्वत्र चर्चा होने लगी कि भगवान महावीर कहते हैं कि द्वीप और समुद्र सात ही नहीं, असंख्य हैं । शिव राजर्षि को यह सुनकर शंका हुई, संकल्प-विकल्प करते हुए उनका वह प्राप्त विभंग-ज्ञान चला गया। शिव राजर्षि ने सोचा-"अवश्य ही मेरे ज्ञान में कमी है, महावीर का कथन सत्य होगा।" वे तापसी-आश्रम से निकलकर नगर के मध्य में होते हुए सहस्राम्रवन पहुँचे और महावीर को वन्दन कर योग्य स्थान पर बैठ गये। श्रमण-भगवान्-महावीर ने जब धर्म-उपदेश दिया तो शिव राजर्षि के सरल व कोमल मन पर उसका बड़ा प्रभाव पड़ा। वे विनयपूर्वक बोले"भगवन् ! मैं आपकी वाणी पर श्रद्धा करता हूँ। कृपा कर मुझे निर्ग्रन्थ धर्म में दीक्षित कीजिये।" उन्होंने तापसी उपकरणों का परित्याग किया और भगवच्चरणों में पंच मुष्टि लोचकर श्रमण-धर्म स्वीकार किया। निर्ग्रन्थमार्ग में प्रवेश करने के बाद भी वे विविध तप करते रहे । उन्होंने १ भग० शतक ११, उ० ६, सू० ४१८ । Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [केवलीचर्या का १७वा वर्ष एकादश अंग का अध्ययन किया और अन्त में सकल कर्मों का क्षय कर निर्वाण प्राप्त किया। भगवान के पीयषवर्षी अमोघ उपदेशों से सत्पथ को पहिचान कर यहाँ कई धर्मार्थियों ने मुनि-धर्म की दीक्षा ली, उनमें पोट्टिल अनगार का नाम उल्लेखनीय है । कुछ काल पश्चात् महावीर हस्तिनापुर से ‘मोका' नगरी होते हुए फिर वारिणयग्राम पधारे और वहीं पर वर्षाकाल पूर्ण किया। केवलीचर्या का सत्रहवां वर्ष वर्षाकाल पूर्ण होते ही भगवान् विदेह भूमि से मगध की ओर पधारे और विहार करते हुए राजगृह के 'गुरणशील' चैत्य में समवशरण किया । राजगह में उस समय निर्ग्रन्थ प्रवचन को मानने वालों की संख्या बहुत बड़ी थी, फिर भी अन्य मतावलम्बियों का भी प्रभाव नहीं था। बौद्ध, आजीवक और अन्यान्य सम्प्रदायों के श्रमण एवं गृहस्थ भी अच्छी संख्या में वहाँ रहते थे । वे समयसमय पर एक-दूसरे की मान्यताओं पर विचार-चर्चा भी किया करते थे। एक समय इन्द्रभूति गौतम ने आजीवक भिक्षुओं के सम्बन्ध में भगवान से पूछा-"प्रभो! आजीवक, स्थविरों से पूछते हैं कि यदि तुम्हारे श्रावक का, जब वह सामायिक व्रत में रहा हा हो, कोई भाण्ड चोरी चला जाय तो सामायिक पूर्ण कर वह उसकी तलाश करता है या नहीं? यदि तलाश करता है तो वह अपने भांड की तलाश करता है या पराये की ?" इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया-"गौतम ! वह अपने भाण्ड की तलाश करता है, पराये की नहीं । सामायिक और पोषधोपवास से उसका भाण्ड, प्रभाण्ड नहीं होता है। केवल जब तक वह सामायिक आदि व्रत में रहता है, तब तक उसका भाण्ड उसके लिए प्रभाण्ड माना जाता है । आगे चलकर प्रभु ने श्रावक के उनचास भंगों का परिचय देते हुए श्रमणोपासक और आजीवक का भेद बतलाया। प्राजीवक अरिहन्त को देव मानते और माता-पिता की सेवा करने वाले होते हैं। वे गूलर, बड़, बोर, शहतूत और पीपल-इन पाँच फलों और प्याजलहसुन प्रादि कंद के त्यागी होते हैं। वे ऐसे बैलों से काम लेते हैं. जिनको बधिया नहीं किया जाता मोर न जिनका नाक ही बेधा जाता । जब पाजीवक उपासक भी इस प्रकार निर्दोष जीविका चलाते हैं तो श्रमणोपासकों का तो - . १ भग० श० ११, उ० ६, सूत्र ४१८ । Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलीचर्या का १८वाँ वर्ष] . भगवान् महावीर ६५७ कहना ही क्या ? श्रमणोपासक पन्द्रह कर्मादानों के त्यागी' होते हैं, क्योंकि अंगार-कर्म आदि महा हिंसाकारी खरकर्म श्रावक के लिए त्याज्य कहे गये हैं। इस वर्ष बहुत से साधुओं ने राजगह के विपुलाचल पर अनशन कर प्रात्मा का कार्य सिद्ध किया । भगवान् का यह वर्षाकाल भी राजगृही में सम्पन्न हुआ। केवलीचर्या का प्रगहरवाँ वर्ष राजगह का चातुर्मास पूर्ण कर भगवान ने चम्पा की पोर विहार किया और उसके पश्चिम भाग, पृष्ठचम्पा नामक उपनगर में विराजमान हुए । प्रभ के विराजने की बात सुनकर पृष्ठचम्पा का राजा शाल और उसके छोटे भाई युवराज महाशाल ने भक्तिपूर्वक प्रभु का उपदेश सुना और शालनाजा न संहार से विरक्त होकर प्रभु के चरणों में श्रमणधर्म स्वीकार करना चाहा । जब उसन यवराज महाशाल को राज्य सम्भालने की बात कही तो उसने उत्तर दिया-- "जैसे आप संसार से विरक्त हो रहे हैं, वैसे मैं भी प्रभु के उपदेश सुनकर प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता हूँ।" इस प्रकार दोनों के विरक्त हो जाने पर शाल ने अपने भानजे 'गाँगली' नामक राजकुमार को बुलाया और उसे राज्यारूढ़ कर दोनों ने प्रभु के चरणों में श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण की। पष्ठचम्पा से भगवान चम्पा के पूर्णभद्र चैत्य में पधारे । भगवान महावीर के पदार्पण की शुभसूचना पाकर वहाँ के प्रमुख लोग वन्दन करने को गये। श्रमणोपासक कामदेव, जो उन दिनों अपने ज्येष्ठ पुत्र को गहभार संभलाकर विशेष रूप से धर्मसाधना में तल्लीन था, वह भी प्रभु के चरण-वन्दन हेतू पगभद्र उद्यान में आया और देशना श्रवण करने लगा। धर्म-देशना पूर्ण होने पर प्रभु ने कामदेव को सम्बोधित करते हुए कहा"कामदेव ! रात में किसी देव ने तुमको पिशाच, हाथी और सर्प के रूप बनाकर विविध उपसर्ग दिये और तुम अडोल रहे, क्या यह सच है ?" कामदेव ने विनयपूर्वक कहा-"हाँ भगवन् ! यह ठीक है ।" भगवान् ने श्रमण निर्ग्रन्थों को सम्बोधित कर कहा- "पायों ! कामदेव ने गहस्थाश्रम में रहते हए दिव्य मानषी और पशु सम्बन्धी उपसर्ग समभाव से सहन किये हैं । श्रमण निर्ग्रन्थों को इससे प्रेरणा लेनी चाहिये ।" श्रमण १ भगवती सूत्र, श० ८, उ०५। २ उपासक दशा सूत्र, २ अ० सू० ११४ । Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [दशार्णभद्र को प्रतिबोध श्रमरिणयों ने भगवान् का वचन सविनय स्वीकार किया । चम्पा में इस प्रकार प्रभु ने बहुत उपकार किया। दशार्णभद्र को प्रतिबोध चम्पा से विहार कर भगवान् ने दशार्णपुर की ओर प्रस्थान किया । वहाँ का महाराजा प्रभु महावीर का बड़ा भक्त था । उसने बड़ी धूमधाम से प्रभु-वंदन की तैयारी की और चतुरंग सेना व राज-परिवार सहित सजधज कर वन्दन को निकला । उसके मन में विचार आया कि उसकी तरह उतनी बड़ी ऋद्धि के साथ भगवान् को वन्दन करने के लिए कौन आया होगा? इतने में सहसा गगनमंडल से उतरते हुए देवेन्द्र की ऋद्धि पर दृष्टि पड़ी तो उसका गर्व चूर-चूर हो गया। उसने अपने गौरव की रक्षा के लिये भगवान् के पास तत्क्षण दीक्षा ग्रहण की और श्रमण-संघ में स्थान पा लिया। देवेन्द्र, जो उसके गर्व को नष्ट करने के लिये अदभत ऋद्धि से आया हुआ था, दशार्णभद्र के इस साहस को देखकर लज्जित हुआ और उनका अभिवादन कर स्वर्गलोक की ओर चला गया । सोमिल के प्रश्नोत्तर दशार्णपुर से विदेह प्रदेश में विचरण करते हुए प्रभु वारिणयग्राम पधारे। वहाँ उस समय 'सोमिल' नाम का ब्राह्मण रहता था, जो वेद-वेदांग का जानकार और पाँच सौ छात्रों का गरु था। नगर के 'दति पलाश' उद्यान में महावीर का आगमन सुनकर उसकी भी इच्छा हुई कि वह महावीर के पास जाकर कुछ पूछे। सौ छात्रों के साथ वह घर से निकला और भगवान् के पास आकर खड़े-खड़े बोला-"भगवन् ! आपके विचार से यात्रा, यापनीय, अव्याबाध और प्रासुक विहार का क्या स्वरूप है ? तुम कैसी यात्रा मानते हो?" महावीर ने कहा-“सोमिल ! मेरे मत में यात्रा भी है, यापनीय, अव्याबाध और प्रासुक विहार भी है । हम तप, नियम, संयम, स्वाध्याय, ध्यान और आवश्यक आदि क्रियाओं में यतनापूर्वक चलने को यात्रा कहते हैं । शुभ योग में यतना ही हमारी यात्रा है।"२ सोमिल ने फिर पूछा-"यापनीय क्या है ?" महावीर ने कहा-“सोमिल यापनीय दो प्रकार का है, इन्द्रिय यापनीय और नो इन्द्रिय यापनीय । श्रोत्र, चक्ष, घ्राण, जिह्वा और स्पर्शेन्द्रिय को वश में १ (क) उत्तराध्ययन १८ प्र० की टीका. (ख) त्रिष०, १० ५०, १० स० । २ भगवती सू०, १८ श०, उ० १०, सू० ६४६ ।। Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमिल के प्रश्नोत्तर ] भगवान् महावीर ६५ε रखना मेरा इन्द्रिय यापनीय हैं और क्रोध, मान, माया, लोभ को जागृत नहीं होने देना एवं उन पर नियन्त्रण रखना मेरा नो-इन्द्रिय यापनीय है ।" सोमिल ने फिर पूछा -भगवन् ! आपका अव्याबाध क्या है ? भगवान् बोले – “सोमिल ! शरीरस्थ वात, पित्त, कफ और सन्निपातजन्य विविध रोगातंकों को उपशान्त करना एवं उनको प्रकट नहीं होने देना, यही मेरा अव्याबाध है ।" सोमिल ने फिर प्रासु विहार के लिये पूछा तो महावीर ने कहा"सोमिल ! आराम, उद्यान, देवकुल, सभा, प्रपा आदि स्त्री, पशु-पण्डक रहित बस्तियों में प्रासुक एवं कल्पनीय पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक स्वीकार कर विचरना ही मेरा प्रासुक विहार है ।" उपर्युक्त प्रश्नों में प्रभु को निरुत्तर नहीं कर सकने की स्थिति में सोमिल ने भक्ष्याभक्ष्य सम्बन्धी कुछ अटपटे प्रश्न पूछे- “भगवन् ! सरिसव आपके भक्ष्य है या अभक्ष्य ?" महावीर ने कहा - "सोमिल ! सरिसव को मैं भक्ष्य भी मानता हूँ और अभक्ष्य भी । वह ऐसे कि ब्राह्मण-ग्रन्थों में 'सरिसव' शब्द के दो अर्थ होते हैं, एक सदृशवय और दूसरा सर्षप याने सरसों । इनमें से समान वय वाले मित्तसरिसव श्रमरण निर्ग्रन्थों के लिये अभक्ष्य हैं और धान्य सरिसव जिसे सर्षप कहते हैं, उसके भी सचित्त और चित्त, एषणीय - अनेषणीय याचित- अयाचित और लब्ध- अलब्ध, ऐसे दो-दो प्रकार होते हैं । उनमें हम अचित्त को ही निर्ग्रन्थों के लिये भक्ष्य मानते हैं, वह भी उस दशा में कि यदि वह एषणीय, याचित और लब्ध हो | इसके विपरीत सचित्त, अनेषणीय और प्रयाचित आदि प्रकार के सरिसव श्रमणों के लिये अभक्ष्य हैं । इसलिये मैंने कहा कि सरिसव को मैं भक्ष्य और अभक्ष्य दोनों मानता हूँ ।" सोमिल ने फिर दूसरा प्रश्न रखा - "मास आपके लिये भक्ष्य है या अभक्ष्य ?" महावीर ने कहा - "सोमिल ! सरिसव के समान 'मास' भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी । वह इस तरह कि ब्राह्मण ग्रन्थों में मास दो प्रकार के कहे गये हैं, एक द्रव्य मास और दूसरा काल मास । काल मास जो श्रावण से प्राषाढ़ पर्यन्त बारह हैं, वे अभक्ष्य हैं । रही द्रव्य मास की बात, वह भी अर्थ मास और धान्य मास के भेद से दो प्रकार का है । अर्थ मास - सुवर्ण मास और रौप्य मास श्रमणों के लिये अभक्ष्य हैं । अब रहा धान्य मास, उसमें भी शस्त्र परिणतचित्त, एषणीय, याचित और लब्ध ही श्रमरणों के लिये भक्ष्य है । शेष सचित्त आदि विशेषणवाला धान्य मास अभक्ष्य है ।" Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ सोमिल के प्रश्नोत्तर सरिसव और मास के संतोषजनक उत्तर पाने के बाद सोमिल ने पूछा“भगवन् ! कुलत्था आपके भक्ष्य हैं या अभक्ष्य ?" ६६० महावीर ने कहा - "सोमिल ! कुलत्था भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी । भक्ष्याभक्ष्य उभयरूप कहने का कारण इस प्रकार है - " शास्त्रों में 'कुलत्था' के अर्थ कुलीन स्त्री और कुलधी धान्य दो किये गये । कुल-कन्या, कुल-वधू प्रौर कुल - माता ये तीनों 'कुलत्था' अभक्ष्य हैं । धान्य कुलत्या जो अचित्त, एषणीय, निर्दोष, याचित और लब्ध हैं, वे भक्ष्य हैं। शेष सचित्त, सदोष अयाचित श्रीर अलब्ध कुलत्था निर्ग्रन्थों के लिये अभक्ष्य हैं ।" , अपने इन अटपटे प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर पा लेने के बाद महावीर की तत्त्वज्ञता को समझने के लिये उसने कुछ सैद्धान्तिक प्रश्न पूछे - "भगवन् ! आप एक हैं अथवा दो ? अक्षय, अव्यय और अवस्थित हैं अथवा भूत, भविष्यत्, वर्तमान के अनेक रूपधारी हैं ? महावीर ने कहा - " मैं एक भी हूँ और दो भी हूँ। अक्षय हूँ, अव्यय हूँ और अवस्थित भी हूँ। फिर अपेक्षा से भूत, भविष्यत् और वर्तमान के नाना रूपधारी भी हूँ ।" अपनी बात का स्पष्टीकरण करते हुए प्रभु ने कहा - " द्रव्यरूप से मैं एक आत्म-द्रव्य हूँ । उपयोग गुण की दृष्टि से ज्ञान, उपयोग और दर्शन उपयोग रूप चेतना के भेद से दो हूँ । ग्रात्म प्रदेशों में कभी क्षय, व्यय और न्यूनाधिकता नहीं होती इसलिये अक्षय, अव्यय और अवस्थित हूँ । पर परिवर्तनशील उपयोगपर्यायों की अपेक्षा भूत, भविष्य एवं वर्तमान का नाना रूपधारी भी हूँ ।" " सोमिल ने अद्वैतद्वत, नित्यवाद और क्षणिकवाद जैसे वर्षों चर्चा करने पर भी न सुलझाने वाले दर्शन के प्रश्न रखे, पर महावीर ने अपने अनेकान्त सिद्धान्त से उनका क्षणभर में समाधान कर दिया, इससे सोमिल बहुत प्रभावित हुआ । उसने श्रद्धापूर्वक भगवान् की देशना सुनी, श्रावकधर्म स्वीकार किया और उनके चरणों में वन्दना कर अपने घर चला गया । सोमिल ने श्रावकधर्म की साधना कर अन्त में समाधिपूर्वक आयु पूर्ण किया और स्वर्गगति का अधिकारी बना । भगवान् का यह चातुर्मास 'वारिणयग्राम' में ही पूर्ण हुआ । केवलीचर्या का उन्नीसवाँ वर्ष वर्षाकाल समाप्त कर भगवान् कौशल देश के साकेत, सावत्थी आदि १ भम०, १५ शतक, १० उ०, सूत्र ६४७ । Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलीचर्या का उन्नीसवी वर्ष] भगवान् महावीर ६६१ नगरों को पावन करते हुए पांचाल की पोर पधारे और कपिलपुर के बाहर सहस्राम्रवन में विराजमान हुए। कम्पिलपुर में अम्बड़ नाम का एक ब्राह्मण परिव्राजक अपने सात सौ शिष्यों के साथ रहता था। जब उसने महावीर के त्याग-तपोमय जीवन को देखा और वीतरागतामय निर्दोष प्रवचन सुने, तो वह शिष्य-मंडली सहित जैनधर्म का उपासक बन गया। परिव्राजक सम्प्रदाय की वेष-भूषा रखते हुए भी उसने जैन देश-विरति धर्म का अच्छी तरह पालन किया। एक दिन भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए गौतम ने अम्बड़ के लिये सुना कि अम्बड़ संन्यासी कम्पिलपुर में एक साथ सौ घरों में माहार ग्रहण करता और सौ ही घरों में दिखाई देता है। गौतम ने जिज्ञासापूर्ण स्वर में विनयपूर्वक भगवान् से पूछा-"भगवन् ! अम्बड़ के विषय में लोग कहते है कि वह एक साथ सौ घरों में प्राहार ग्रहण करता है। क्या यह सच है ?" प्रभु ने उत्तर में कहा-"गौतम ! अम्बड़ परिव्राजक विनीत और प्रकृति का भद्र है। निरन्तर छ? तप-बेले-बेले की तपस्या के साथ प्रातापना करते हुए उसको शुभ-परिणामों से वीर्यलब्धि और वैक्रियलब्धि के साथ अवधिज्ञान भी प्राप्त हुआ है। अतः लब्धिबल से वह सौ रूप बना कर सौ घरों में दिखाई देता और सो घरों में आहार ग्रहण करता है, यह ठीक है।" "गौतम ने पूछा-"प्रभो! क्या वह आपकी सेवा में श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण करेगा?" प्रभु ने उत्तर में कहा-"गौतम! अम्बड़ जीवाजीव का ज्ञाता श्रमणोपासक है। वह उपासक जीवन में ही आयु पूर्ण करेगा। श्रमणधर्म ग्रहण नहीं करेगा।" अम्बड़ की चर्या भगवान् ने अम्बड़ की चर्या के सम्बन्ध में कहा-"गौतम ! यह अम्बड़ स्थूल हिंसा, झूठ और अदत्तादान का त्यागी, सर्वथा ब्रह्मचारी और संतोषी होकर विचरता है। वह यात्रा में चलते हुए मार्ग में पाए पानी को छोड़कर अन्यत्र किसी नदी, कूप या तालाब प्रादि में नहीं उतरता। रथ, गाड़ी, पालकी आदि यान अथवा हाथी, घोड़ा आदि वाहनों पर भी नहीं बैठता। मात्र चरणयात्रा करता है। खेल, तमाशे, नाटक आदि नहीं देखता और न राजकथा, देशकथा आदि कोई विकथा ही करता है। वह हरी वनस्पति का छेदन-भेदन और स्पर्श भी नहीं करता । पात्र में तुम्बा, काष्ठ-पात्र और मृत्तिका-भाजन के Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ अम्बड़ की चर्या प्रतिरिक्त तांबा, सोना और चांदी आदि किसी धातु के पात्र नहीं रखता । गेरुश्रा चादर के प्रतिरिक्त किसी अन्य रंग के वस्त्र धाररण नहीं करता है । एक ताम्रमय पवित्रक को छोड़ कर किसी प्रकार का आभूषण धाररण नहीं करता । एक कर्णपूर के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार का पुष्पहार आदि का उपयोग भी नहीं करता । शरीर पर केसर, चन्दन आदि का विलेपन नहीं करता, मात्र गंगा की मिट्टी का लेप चढ़ाता है। आहार में वह अपने लिये बनाया हुआ, खरीदा हुआ और अन्य द्वारा लाया हुआ भोजन भी ग्रहण नहीं करता । उसने स्नान और पीने के लिये जल का भी प्रमारण कर रखा है । वह पानी भी छाना हुआ और दिया हुआ ही ग्रहण करता है । बिना दिया पानी स्वयं जलाशय से नहीं लेता ।" अनेक वर्षो तक इस तरह साधना का जीवन व्यतीत कर श्रम्बड़ संन्यासी अन्त में एक मास के अनशन की आराधना कर ब्रह्मलोक-स्वर्ग में ऋद्धिमान् देव के रूप में उत्पन्न हुआ । अम्बड़ के शिष्यों ने भी एक बार जंगल में जल देने वाला नहीं मिलने से तृषा - पीड़ित हो गंगा नदी के तट पर बालुकामय संथारे पर श्राजीवन अनशन कर प्राणोत्सर्ग कर दिया और ब्रह्मकल्प में बीस सागर की स्थिति वाले देवरूप से उत्पन्न हुए । विशेष जानकारी के लिये औपपातिक सूत्र का अम्बड़ प्रकरण द्रष्टव्य है । कम्पिलपुर से विचरते हुए भगवान् वैशाली पधारे और यहीं पर वर्षाकाल व्यतीत किया । केवलचर्या का बीसवाँ वर्ष वर्षाकाल समाप्त कर अनेक भूभागों में विचरण करते हुए प्रभु पुनः एक बार वारिणयग्राम पधारे । वारिणयग्राम के दूतिपलाश चैत्य में जब भगवान् धर्मदेशना दे रहे थे, उस समय एक दिन पार्श्व सन्तानीय 'गांगेय' मुनि वहाँ आये और दूर खड़े रहकर भगवान् से निम्न प्रकार बोले “भगवन् ! नारक जीव सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर ?” भगवान् ने कहा- “गांगेय ! नारक अन्तर से भी उत्पन्न होते हैं और बिना अन्तर के निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं ।" इस प्रकार के अन्यान्य प्रश्नों के भी समुचित उत्तर पाकर गांगेय ने भगवान् को सर्वज्ञ रूप से स्वीकार किया और तीन बार प्रदक्षिणा एवं वन्दना कर उसने चातुर्याम धर्म से पंच महाव्रत रूप धर्म स्वीकार किया । वे महावीर के श्रमरणसंघ में सम्मिलित हो गये ।' १ भग०, ६ श, ५ उ० । Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६३ केवलीचर्या का इक्कीसवाँ वर्ष] भगवान् महावीर तदनन्तर अन्यान्य स्थानों में विहार करते हुए भगवान् वैशाली पधारे और वहाँ पर दूसरा चातुर्मास व्यतीत किया। केवलीचर्या का इक्कीसवाँ वर्ष वर्षाकाल पूर्ण कर भगवान् ने वैशाली से मगध की ओर प्रस्थान किया। वे अनेक क्षेत्रों में धर्मोपदेश करते हुए राजगृह पधारे और गुणशील उपवन में विराजमान हुए। गणशील उद्यान के पास अन्यतीर्थ के बहुत से साधु रहते थे। उनमें समय-समय पर कई प्रकार के प्रश्नोत्तर होते रहते थे । अधिकांशतः वे स्वमत का मंडन और परमत का खण्डन किया करते। गौतम ने उनकी कुछ बातें सुनी तो उन्होंने भगवान् के सामने जिज्ञासाएं प्रस्तुत कर शंकाओं का समाधान प्राप्त किया। भगवान ने, श्रुतसम्पन्न और शीलसम्पन्न में कौन श्रेष्ठ है, यह बतलाया और जीव तथा जीवात्मा को भिन्न मानने की लोक-मान्यता का भी विरोध किया। उन्होंने कहा-“जीव और जीवात्मा भिन्न नहीं, एक ही हैं।" एक दिन तैथिकों में पंचास्तिकाय के विषय में भी चर्चा चली। वे इस पर तर्क-वितर्क कर रहे थे। उस समय भगवान् के प्रागमन की बात सुनकर राजगृह का श्रद्धाशील श्रावक 'मद्दुक' भी तापसाश्रम के पास से प्रभु-वन्दन के लिये जा रहा था। कालोदायी आदि तैथिक, जो पंचास्तिकाय के सम्बन्ध में चर्चा कर रहे थे, मददुक श्रावक को जाते देखकर आपस में बोले-"अहो अर्हद्भक्त मद्दुक इधर से जा रहा है। वह महावीर के सिद्धान्त का अच्छा ज्ञाता है। क्यों नहीं प्रस्तुत विषय पर उसकी भी राय ले ली जाय ।" ऐसा सोचकर वे लोग पास आये और मदुक को रोककर बोले"मद्दुक ! तुम्हारे धर्माचार्य श्रमण भगवान् महावीर पंच अस्तिकायों का प्रतिपादन करते हैं। उनमें एक को जीव और चार को अजीव तथा एक को रूपी और पाँच को प्ररूपी बतलाते हैं। इस विषय में तुम्हारी क्या राय है तथा अस्तिकायों के विषय में तुम्हारे पास क्या प्रमाण हैं ?" ___उत्तर देते हुए मद्दुक ने कहा-“अस्तिकाय अपने-अपने कार्य से जाने जाते हैं । संसार में कुछ पदार्थ दृश्य और कुछ अदृश्य होते हैं जो अनुभव, अनुमान एवं कार्य से जाने जाते हैं। ___ तीथिक बोले-“मद्दुक ! तू कैसा श्रमणोपासक है, जो अपने धर्माचार्य के कहे हुए द्रव्यों को जानता-देखता नहीं, फिर उनको मानता कैसे है ?" ... मद्दुक ने कहा-"तीथिको ! हवा चलती है, तुम उसका रंग रूप देखते हो?" Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [केवलीचर्या का बाईसवाँ वर्ष तीथिकों ने कहा- "सूक्ष्म होने से हवा का रूप देखा नहीं जाता।" इस पर मददुक ने पूछा--"गंध के परमाणु, जो घ्राणेन्द्रिय के तीन विषय होते हैं, क्या तुम सब उनका रूप-रंग देखते हो?" "नहीं, गंध के परमाणु भी सूक्ष्म होने से देखे नहीं जाते", तीथिकों ने कहा। ___ मद्दुक ने एक और प्रश्न रखा-"अरणिकाष्ठ में अग्नि रहती है, क्या तुम सब मरणि में रही हुई आग के रंग-रूप को देखते हो? क्या देवलोक में रहे हए रुषों को तुम देख पाते हो? नहीं, तो क्या तुम जिनको नहीं देख सको, वह वस्तु नहीं है ? दृष्टि में प्रत्यक्ष नहीं आने वाली वस्तुओं को यदि अमान्य करोगे तो तुम्हें बहुत से इष्ट पदार्थों का भी निषेध करना होगा। इस प्रकार लोक के अधिकतम भाग और भूतकाल की वंश-परम्परा को भी अमान्य करना होगा।" मद्दुक की युक्तियों से तैथिक अवाक रह गये और उन्हें मदुक की बात माननी पड़ी। अन्य तीथियों को निरुत्तर कर जब मद्दुक भगवान् की सेवा में पहुंचा तब प्रभु ने मद्दुक के उत्तरों का समर्थन करते हुए उसकी शासन-प्रीति का अनुमोदन किया। ज्ञातृपुत्र भ० महावीर के मुख से अपनी प्रशंसा सुनकर मदुक बहुत प्रसन्न हुआ और ज्ञानचर्चा कर अपने स्थान की ओर लौट गया । गौतम को मद्दुक श्रावक की योग्यता देखकर जिज्ञासा हुई और उन्होंने प्रभु से पूछा-"प्रभो! क्या मदुक श्रावक आगार-धर्म से अनगार-धर्म ग्रहण करेगा? क्या यह आपका श्रमण शिष्य होगा ?" प्रभु ने कहा-"गौतम ! मद्दुक प्रव्रज्या ग्रहण करने में समर्थ नहीं है। यह गृहस्थधर्म में रह कर ही देश-धर्म की आराधना करेगा और अन्तिम समय समाधिपूर्वक प्रायु पूर्ण कर 'अरुणाभ' विमान में देव होगा और फिर मनुष्य भव में संयमधर्म की साधना कर सिद्ध, बुद्ध मुक्त होगा।" तत्पश्चात विविध क्षेत्रों में धर्मोपदेश देते हए अन्त में राजगह में ही भगवान् ने वर्षाकाल व्यतीत किया । प्रभु के विराजने से लोगों का बड़ा उपकार हुआ। . केवलीचर्या का बाईसवाँ वर्ष राजगृह से विहार कर भगवान् हेमन्त ऋतु में विभिन्न स्थानों में विचरण करते एवं धर्मोपदेश देते हुए पुनः राजगृह पधारे तथा गुणशील चैत्य में विराजमान हुए। Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६५ केवलीचर्या का बाईसवाँ वर्ष] भगवान् महावीर , एक बार जब इन्द्रभूति राजगृह से भिक्षा लेकर भगवान के पास गणशील उद्यान की ओर आ रहे थे, तो मार्ग में कालोदायी शैलोदायी आदि तैथिक पंचास्तिकाय की चर्चा कर रहे थे । गौतम को देख कर वे पास आये और बोले"गौतम ! तुम्हारे धर्माचार्य ज्ञातपुत्र महावीर धर्मास्तिकाय आदि पंचास्तिकायों को प्ररूपणा करते हैं, इसका मर्म क्या है और इन रूपी-अरूपी कार्यों के सम्बन्ध में कैसा क्या समझना चाहिये ? तुम उनके मुख्य शिष्य हो, अतः कुछ स्पष्ट कर सको तो बहुत अच्छा हो।" गौतम ने संक्षेप में कहा-"हम अस्तित्व में 'नास्तित्व' और 'नास्तित्व' में अस्तित्व नहीं कहते । विशेष इस विषय में तुम स्वयं विचार करो, चिन्तन से रहस्य समझ सकोगे।" ___ गौतम तीथिकों को निरुत्तर कर भगवान के पास आये, पर कालोदायी आदि तीथिकों का इससे समाधान नहीं हुआ। वे गौतम के पीछे-पीछे भगवान् के पास आये । भगवान ने भी प्रसंग पाकर कालोदायी को सम्बोधित कर कहा"कालोदायी ! क्या तुम्हारे साथियों में पंचास्तिकाय के सम्बन्ध में चर्चा चली?" कालोदायी ने स्वीकार करते हुए कहा-"हां महाराज ! जब से हमने आपके सिद्धान्त सुने हैं, तब से हम इस पर तर्क-वितर्क किया करते हैं। भगवान् ने उत्तर में कहा-"कालोदायी ! यह सच है कि इन पंचास्तिकायों पर कोई सो, बैठ या चल नहीं सकता, केवल पुद्गलास्तिकाय ही ऐसा है जिस पर ये क्रियायें हो सकती हैं। कालोदायी ने फिर पूछा-"भगवन् ! जीवों के दुष्ट-विपाक रूप पापकर्म पुद्गलास्तिकाय में किये जाते हैं या जीवास्तिकाय में ?" . महावीर ने कहा-"कालोदायी ! पुद्गलास्तिकाय में जीवों के दुष्ट-विपाक रूप पाप नहीं किये जाते, किन्तु वे जीवास्तिकाय में ही किये जाते हैं। पाप ही नहीं सभी प्रकार के कर्म जीवास्तिकाय में ही होते हैं। जड़ होने से अन्य धर्मास्तिकाय आदि कार्यों में कर्म नहीं किये जाते।" इस प्रकार भगवान् के विस्तृत उत्तरों से कालोदायी की शंका दूर हो गई । उसने भगवान् के चरणों में निर्ग्रन्थ प्रवचन सुनने की अभिलाषा व्यक्त की। अवसर देख कर भगवान् ने भी उपदेश दिया। उसके फलस्वरूप कालोदायी निर्ग्रन्थ मार्ग में दीक्षित हो कर मुनि बन गया । क्रमश: ग्यारह अंगों का अध्ययन कर वह प्रवचन-रहस्य का कुशल ज्ञाता हुअा।' १ भग० स०, ७।१०।३०५ । Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [उदक पेढाल और गौतम उदक पेढाल और गौतम राजगृह के ईशान कोण में नालंदा नाम का एक उपनगर था। वहाँ 'लेव' नामक गाथापति निर्ग्रन्थ-प्रवचन का अनुयायी और श्रमणों का बड़ा भक्त था। लेव' ने नालंदा के ईशान कोण में एक शाला का निर्माण करवाया जिसका नाम 'शेष द्रविका' रखा गया। कहा जाता है कि गृहनिर्माण से बचे हुए द्रव्य से वह शाला बनाई गई थी, अतः उसका नाम 'शेष द्रविका' रखा गया। उसके निकटवर्ती 'हस्तियाम' उद्यान में एक समय भगवान् महावीर विराजमान थे। वहाँ पेढ़ालपुत्र 'उदक', जो पार्श्वनाथ परम्परा के श्रमण थे, इन्द्रभूतिगौतम से मिले और उनसे बोले-"आयुष्मन् गौतम ! मैं तुमसे कुछ पूछना चाहता हूं।" गौतम की अनुमति पा कर उदक बोले-"कुमार पुत्र श्रमण ! अपने पास नियम लेने वाले उपासक को ऐसी प्रतिज्ञा कराते हैं-'राजाज्ञा आदि कारण से किसी गृहस्थ या चोर को बाँधने के अतिरिक्त किसी त्रस जीव की हिंसा नहीं करूंगा।" ऐसा पच्चखाण दुपच्चखाण है, यानी इस तरह के प्रत्याख्यान करना-कराना प्रतिज्ञा में दूषण रूप हैं। क्योंकि संसारी प्राणी स्थावर मर कर त्रस होते और त्रस मर कर स्थावर रूप से भी उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार जो जीव त्रस रूप में प्रघात्य थे, वे ही स्थावर रूप में उत्पन्न होने पर घात-योग्य हो जाते हैं। इसलिये प्रत्याख्यान में इस प्रकार का विशेषण जोड़ना चाहिये कि 'सभूत जीवों की हिसा नहीं करूंगा। भूत विशेषण से यह दोष टल सकता है । हे गौतम ! तुम्हें मेरी यह बात कैसी जंचती है ?" उत्तर में गौतम ने कहा-"आयुष्मन् उदक ! तुम्हारी बात मेरे ध्यान में ठोक नहीं लगती और मेरी समझ से पूर्वोक्त प्रतिज्ञा कराने वालों को दुपच्चखारण कराने वाला कहना भी उचित नहीं, क्योंकि यह मिथ्या आरोप लगाने के समान है। वास्तव में त्रस और सभूत का एक ही अर्थ है। हम जिसको त्रस कहते हैं, उस ही को तुम त्रसभूत कहते हो। इसलिये त्रस की हिंसा त्यागने वाले को वर्तमान बस पर्याय की हिंसा का त्याग होता है, भूतकाल में चाहे वह स्थावर रूप से रहा हो या बस रूप से, इसकी अपेक्षा नहीं है । पर जो वर्तमान में बस पर्यायधारी है, उन सबकी हिंसा उसके लिये वर्ण्य होती है । त्यागी का लक्ष्य वर्तमान पर्याय से है, भूत पर्याय किसी की क्या थी, अथवा भविष्यत् में किसी की क्या पर्याय होने वाली है यह ज्ञानी ही समझ सकते हैं। अतः जो लोग सम्पूर्ण हिसा त्यागरूप श्रामण्य नहीं स्वीकार कर पाते वे मर्यादित प्रतिज्ञा करते हुए कुशल परिणाम के ही पात्र माने जाते हैं। इस प्रकार त्रस हिंसा के त्यागी श्रमणोपासक का स्थावर-पर्याय की हिंसा से व्रत-भंग नहीं होता।" १ सूत्र कृतांग, २।७।७२ सूत्र, (नालंदीयाध्ययन) २ सूत्र कृतांग सू०, २१७, सूत्र ७३-७४ । (नालंदीयाध्ययन) Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदक पेढ़ाल और गौतम] भगवान् महावीर ___ गौतम स्वामी और उदक-पेढाल के बीच विचार-चर्चा चल रही थी कि उसी समय पापित्य अन्य स्थविर भी वहाँ आ पहुँचे । उन्हें देख कर गौतम ने कहा- “उदक ! ये पापित्य स्थविर आये हैं, लो इन्हीं से पूछ लें।" ___ गौतम ने स्थविरों से पूछा- "स्थविरो! कुछ लोग ऐसे होते हैं, जिनको जीवनपर्यन्त अनगार-साधु नहीं मारने की प्रतिज्ञा है। कभी कोई वर्तमान साधु पर्याय में वर्षों रह कर फिर गहवास में चला जाय और किसी अपरिहार्य कारण से वह साधु की हिंसा त्यागने वाला गृहस्थ उसकी हिंसा कर डाले तो उसे साधु की हिंसा का पाप लगेगा क्या?" स्थविरों ने कहा-"नहीं, इससे प्रतिज्ञा का पंग नहीं होता।" गौतम ने कहा-"निर्ग्रन्थो! इसी प्रकार त्रसकाय की हिंसा का त्यागी गृहस्थ भी स्थावर की हिंसा करता हुआ अपने पच्चखाण का भंग नहीं करता।" इस प्रकार अन्य भी अनेक दृष्टान्तों से गौतम ने उदक-पेढ़ाल मुनि की शंका का निराकरण किया और समझाया कि त्रस मिट कर सब स्थावर हो जायँ या स्थावर सब के सब त्रस हो जायँ, यह संभव नहीं । __ गौतम के युक्तिपूर्ण उत्तर और हित-वचनों से मुनि उदक ने समाधान पाया और सरलभाव से बिना वन्दन के ही जाने लगा तो गौतम ने कहा"आयुष्मन् उदक ! तुम जानते हो, किसी भी श्रमण-माहरण से एक भी आर्यधर्म युक्त वचन सुन कर उससे ज्ञान पाने वाला मनुष्य देव की तरह उसका सत्कार करता है।" गौतम की इस प्रेरणा से उदक समझ गया और बोला-“गौतम महाराज ! मुझे पहले इसका ज्ञान नहीं था, अतः उस पर विश्वास नहीं हुआ। अब आपसे सुनकर मैंने इसको समझा है, मैं उस पर श्रद्धा करता है।" गौतम द्वारा प्रेरित हो निर्ग्रन्थ उदक ने पूर्ण श्रद्धा व्यक्त की और भगवान् के चरणों में जाकर विनयपूर्वक चातुर्याम परम्परा से पंच महाव्रत रूप धर्मपरम्परा स्वीकार की। अब ये भगवान् महावीर के श्रमण संघ में सम्मिलित हो गये ।' इधर-उधर कई क्षेत्रों में विचरण करने के पश्चात् प्रभु ने इस वर्ष का चातुर्मास भी नालन्दा में व्यतीत किया। १ सूत्र कृ० २१७ नालंदीय, ८१ सूः । Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દર जैन धर्म का मौलिक इतिहास [केवलीचर्या का तेईसवाँ वर्ष केवलीचर्या का तेईसवाँ वर्ष __ वर्षाकाल समाप्त होने पर भगवान् नालन्दा से विहार कर विदेह की राजधानी के पास वाणिज्यग्राम पधारे। उन दिनों वाणिज्यग्राम व्यापार का एक अच्छा केन्द्र था । वहाँ के विभिन्न धनपतियों में सुदर्शन सेठ एक प्रमुख व्यापारी था । जब भगवान् वारिणयग्राम के 'दूति पलाश' चैत्य में पधारे तो दर्शनार्थ नगरवासियों का तांता सा लग गया। हजारों नर-नारी भगवान को वन्दन करने एवं उनकी अमृतमयी वाणी को सुनने के लिये वहाँ एकत्र हुए। सुदर्शन भी उनके बीच सेवा में पहुँचा । सभाजनों के चले जाने पर सुदर्शन ने वन्दन कर पूछा--"भगवन् ! काल कितने प्रकार का है ?" प्रभु ने उत्तर में कहा-"सुदर्शन ! काल चार प्रकार का है : (१) प्रमाणकाल, (२) यथायुष्क-निवृत्तिकाल, (३) मरणकाल और (४) अद्धाकाल।"" सुदर्शन ने फिर पूछा-"प्रभो ! पल्योपम और सागरोपम काल का भी क्षय होता है या नहीं ?" सुदर्शन को पल्योपम का काल-मान समझाते हुए भगवान ने उसके पूर्वभव का वृत्तान्त सुनाया । भगवान् के मुख से अपने बीते जीवन की बात सुनकर सुदर्शन का अन्तर जागृत हुआ और चिन्तन करते हुए उसे अपने पूर्वजन्म का स्मरण हो आया । अपने पूर्वभव के स्वरूप को देखकर वह गद्गद् हो गया। हर्षाश्रु से पुलकित हो उसने द्विगुरिणत वैराग्य एवं उल्लास से भगवान् को वन्दन किया । श्रद्धावनत हो उसने तत्काल वहीं पर श्रमण भगवान् महावीर के चरणों में श्रमण-दीक्षा स्वीकार कर ली। फिर क्रमशः एकादशांगी और चौदह पर्वो का अध्ययन कर उसने बारह वर्ष तक श्रमण-धर्म का पालन किया और अन्त में कर्मक्षय कर निर्वाण प्राप्त किया ।२। गौतम और प्रानन्द श्रावक एक बार गणधर गौतम भगवान् की आज्ञा से वाणिज्य ग्राम में भिक्षा के लिये पधारे । भिक्षा लेकर जब वे 'द्रति पलाश' चैत्य की ओर लौट रहे थे तो मार्ग में 'कोल्लाग सनिवेश' के पास उन्होंने प्रानन्द श्रावक के अनशन ग्रहण की बात सुनी । गौतम के मन में विचार हुआ कि आनन्द प्रभु का उपासक शिष्य है और उसने अनशन कर रखा है, तो जाकर उसे देखना चाहिये । ऐसा विचार कर वे 'कोल्लाग सन्निवेश' में आनन्द के पास दर्शन देने पधारे। १ भगवती सूत्र, शतक ११, उ० ११, सूत्र ४२४ । २ भग० श०, श० ११, उ• ११, सूत्र ४३२ । Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौतम और मानन्द श्रावक] भगवान् महावीर गौतम को पास आये देख कर आनन्द अत्यन्त प्रसन्न हुए और विनयपूर्वक बोले-“भगवन् ! अब मेरी उठने की शक्ति नहीं है, अतः जरा चरण मेरी ओर बढ़ायें, जिससे कि मैं उनका स्पर्श और वन्दन कर लू।" गौतम के समीप पहुँचने पर प्रानन्द ने वन्दन किया और वार्तालाप के प्रसंग से वे बोले-"भगवन् ! घर में रहते हुए गृहस्थ को अवधिज्ञान होता है क्या ?" गौतम ने कहा- "हाँ" आनन्द फिर बोले- "मुझे गहस्थ धर्म का पालन करते हुए अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है । मैं लवण समुद्र में तीनों ओर ५००-५०० योजन तक, उत्तर में चुल्ल हिमवंत पर्वत तक तथा ऊपर सौधर्म देवलोक तक और नीचे 'लोलच्चुअ' नरकावास तक के रूपी पदार्थों को जानता और देखता हूँ।" इस पर गौतम सहसा बोले- "पानन्द ! गहस्थ को अवधिज्ञान तो होता है, पर इतनी दूर तक का नहीं होता । अतः तुमको इसकी आलोचना करनी चाहिए।" आनन्द बोला-"भगवन् ! जिन-शासन में क्या सच कहने वालों को आलोचना करनी होती है ?" गौतम ने कहा--"नहीं, सच्चे को आलोचना नहीं करनी पड़ती।" यह सुन कर आनन्द बोला-"भगवन् ! फिर आपको ही आलोचना करनी चाहिए।" मानन्द की बात से गौतम का मन शंकित हो गया । वे शीघ्र ही भगवान के पास 'दूति पलाश' चैत्य में आये । भिक्षाचर्या दिखाकर मानन्द की बात सामने रखी और बोले-"भगवन् ! क्या प्रानन्द को इतना अधिक अवधिज्ञान हो सकता है ? क्या वह आलोचना का पात्र नहीं है ?" भगवान ने उत्तर में कहा- "गौतम ! प्रानन्द श्रावक ने जो कहा, वह ठीक है । उसको इतना अधिक अवधिज्ञान हुआ है यह सही है, अत: तुमको ही आलोचना करनी चाहिये ।" भगवान् की आज्ञा पाकर बिना पारणा किये ही गौतम मानन्द के पास गये और उन्होंने अपनी भूल स्वीकार कर, आनन्द से क्षमायाचना की।' ग्राम नगरादि में विचरते हुए फिर भगवान् वैशाली पधारे और वहीं पर इस वर्ष का वर्षावास पूर्ण किया। १ उपास० १, गाथा ८४ । Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [केवलीचर्या का चौबीसवां वर्ष देवलीचर्या का चौबीसवाँ वर्ष वैशाली का चातुर्मास पूर्ण कर भगवान् कोशल भूमि के ग्राम-नगरों में धर्मोपदेश करते हुए साकेतपुर पधारे । साकेत कोशल देश का प्रसिद्ध नगर था। वहाँ का निवासी जिनदेव श्रावक दिग्यात्रा करता हुआ 'कोटिवर्ष' नगर पहुंचा। उन दिनों वहाँ म्लेच्छ का राज्य था । व्यापार के लिये आये हए जिनदेव ने 'किरातराज' को बहुमूल्य रत्न आभूषणादि भेंट किये। अदृष्ट पदार्थों को देखकर किरातराज बहुत प्रसन्न हुआ और बोला- “ऐसे रत्न कहाँ उत्पन्न होते हैं ?" जिनदेव बोला-“राजन् ! हमारे देश में इनसे भी बढ़िया रत्न उत्पन्न होते हैं।" किरातराज ने उत्कण्ठा भरे स्वर में कहा--"मैं चाहता हूँ कि तुम्हारे यहाँ चलकर उन रत्नों को देखू, पर तुम्हारे राजा का डर लगता है।" जिनदेव ने कहा- “महाराज ! राजा से डर की कोई बात नहीं है । फिर भी आपकी शंका मिटाने हेतु मैं उनकी अनुमति प्राप्त कर लेता हूँ।" ऐसा कह कर जिनदेव ने राजा को पत्र लिखा और उनसे अनमति प्राप्त कर ली। किरातराज भी अनुमति प्राप्त कर साकेतपुर आये और जिनदेव के यहाँ ठहर गये । संयोगवश उस समय भगवान् महावीर साकेतपुर पधारे हुए थे। नगर में महावीर के पधारने के समाचार पहुँचते ही महाराज शत्रुजय प्रभु को वन्दन करने निकल पड़े । नागरिक लोग भी हजारों की संख्या में भगवान की सेवा में पहुँचे । नगर में दर्शनार्थियों की बड़ी हलचल थी। किरातराज ने जनसमूह को देखकर जिनदेव से पूछा-"सार्थवाह ! ये लोग कहाँ जा रहे हैं ?" जिनदेव ने कहा-"महाराज ! रत्नों का एक बड़ा व्यापारी आया है, जो सर्वोत्तम रत्नों का स्वामी है । उसी के पास ये लोग जा रहे हैं।" किरातराज ने कहा-"फिर तो हमको भी चलना चाहिये।" यह कह कर वे जिनदेव के साथ धर्म-सभा की ओर चल पड़े । तीर्थंकर के छत्रत्रय और सिंहासन आदि देखकर किरातराज चकित हो गये । किरातराज ने महावीर के चरणों में वन्दन कर रत्नों के भेद और मूल्य के सम्बन्ध में पूछा। महावीर बोले-“देवानुप्रिय ! रत्न दो प्रकार के हैं, एक द्रव्यरत्न और दूसरा भावरत्न । भावरत्न के मुख्य तीन प्रकार हैं :- (१) दर्शन रत्न, (२) ज्ञान रत्न और (३) चारित्र रत्न ।" भावरत्नों का विस्तृत वर्णन करके प्रभ ने कहा-"यह ऐसे प्रभावशाली रत्न हैं, जो धारक की प्रतिष्ठा बढ़ाने के अतिरिक्त Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलीचर्या का पच्चीसौं वर्ष] भगवान् महावीर ६७१ उसके लोक और परलोक दोनों का सुधारते हैं । द्रव्यरत्नों का प्रभाव परिमित है । वे वर्तमान काल में ही सुखदायी होते हैं पर भावरत्न भव-भवान्तर में भी सद्गतिदायक और सुखदायी होते हैं !" भगवान का रत्न-विषयक प्रवचन सुनकर किरातराज बहुत प्रसन्न हुआ। वह हाथ जोड़कर बोला-"भगवन् ! मुझे भावरत्न प्रदान कीजिये ।" भगवान् ने रजोहरण और मुखवस्त्रिका दिलवाये जिनको किरात राज ने प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार किया और वे भगवान् के श्रमण-संघ में दीक्षित हो गये।' फिर साकेतपुर से विहार कर भगवान पांचाल प्रदेश के कम्पिलपुर में पधारे । प्रभु ने वहाँ से सूरसेन देश की अोर प्रस्थान किया। फिर मथरा, सौरिपुर, नन्दीपुर आदि नगरों में भ्रमण करते हुए प्रभु पुनः विदेह की ओर पधारे और इस वर्ष का वर्षाकाल आपने मिथिला में ही व्यतीत किया। केवलीचर्या का पच्चीसवाँ वर्ष वर्षाकाल समाप्त होने पर भगवान् ने मगध की अोर प्रयाण किया। गाँव-गाँव में निर्ग्रन्थ प्रवचन का उपदेश करते हुए प्रभु राजगृह पधारे और वहाँ के 'गुरणशोल' चैत्य में विराजमान हुए । गुणशील चैत्य के पास अत्य तीथियों के बहुत से आश्रम थे। एक बार धर्म-सभा समाप्त होने पर कुछ तैर्थिक वहाँ आये और स्थविरों से बोले-"आर्यो! तुम त्रिविध-त्रिविध असंयत हो, अविरत हो, यावत् बाल हो।" अन्य तीथिकों की ओर से इस तरह के आक्षेप सुनकर स्थविरों ने उन्हें शान्तभाव से पूछा- "हम असंयत और बाल कैसे हैं ? हम किसी प्रकार भी अदत्त नहीं लेकर दीयमान ही लेते हैं।" इत्यादि प्रकार से तैथिकों के आक्षेप का शान्ति के साथ युक्तिपूर्वक उत्तर देकर स्थविरों ने उनको निरुत्तर कर दिया। वहाँ पर गति प्रपात अध्ययन की रचना की गई। कालोदायी के प्रश्न कालोदायी श्रमण ने एक बार भगवान् को वन्दना कर प्रश्न किया"भगवन् ! जीव अशुभ फल वाले कर्मों को स्वयं कैसे करता है ?" भगवान् ने उत्तर देते हुए कहा-“कालोदायी ! जैसे कोई दूषित पक्वान्न या मादक पदार्थ का भोजन करता है, तब वह बहुत रुचिकर लगता है। खाने १ "कोडीवरिस चिलाए, जिणदेवे रयणपुच्छ कहणाय ।" प्रावश्यक नियुक्ति, दूसरा भाग, गा०, १३०५ की टीका देखिये। २ भगवती, श० ८, उ० ७, सूत्र ३३७ । Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [कालोदायी के प्रश्न वाला स्वाद में लुब्ध हो तज्जन्य हानि को भूल जाता है किन्तु परिणाम उसका दुखदायी होता है । भक्षक के शरीर पर कालान्तर में उसका बुरा प्रभाव पड़ता है। इसी प्रकार जब जीव हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ और राग-द्वेष आदि पापों का सेवन करता है, तब तत्काल ये कार्य सरल व मनोहर प्रतीत होने के कारण अच्छे लगते हैं, परन्तु इनके विपाक परिरणाम बड़े अनिष्टकारक होते हैं, जो करने वालों को भोगने पड़ते हैं।" कालोदायी ने फिर शुभ कर्मों के विषय में पूछा-"भगवन् ! जीव शुभ कर्मों को कैसे करता है ?" भेगवान् महावीर ने कहा- "जैसे औषधिमिश्रित भोजन तीखा और कड़वा होने से खाने में रुचिकर नहीं लगता, तथापि बलवीर्य-वर्द्धक जान कर बिना मन भी खाया एवं खिलाया जाता है और वह लाभदायक होता है। उसी प्रकार अहिंसा, सत्य, शील, क्षमा और अलोभ आदि शुभ कर्मों की प्रवत्तियाँ मन को मनोहर नहीं लगती, प्रारम्भ में वे भारी लगती हैं । वे दूसरे की प्रेरणा से प्रायः बिना मन, की जाती हैं, परन्तु उनका परिणाम सुखदायी होता है।" कालोदायी ने दूसरा प्रश्न हिंसा के विषय में पूछा-"भगवन् ! समान उपकरण वाले दो पुरुषों में से एक अग्नि को जलाता है और दूसरा बझाता है तो इन जलाने और बुझाने वालों में अधिक प्रारम्भ और पाप का भागी कौन होता है ?" भगवान् ने कहा-कालोदायी ! आग बुझाने वाला अग्नि का आरम्भ तो अधिक करता है, परन्तु पृथ्वी, जल, वाय, वनस्पति और त्रस की हिंसा कम करता है, होने वाली हिंसा को घटाता है। इसके विपरीत जलाने वाला पृथ्वी, जल, वायु वनस्पति और त्रस की हिंसा अधिक और अग्नि की कम करता है। प्रतः प्राग जलाने वाला अधिक प्रारम्भ करता है और बुझाने वाला कम । अतः आग जलाने वाले से बुझाने वाला अल्पपापी कहा गया है ।"२ मचित्त पुद्गलों का प्रकाश फिर कालोदायी ने अचित्त पुद्गलों के प्रकाश के विषय में पूछा तो प्रभु ने कहा-"प्रचित्त पुद्गल भी प्रकाश करते हैं । जब कोई तेजोलेश्याधारी मुनि तेजोलेश्या छोड़ता है, तब वे पुद्गल दूर-दूर तक गिरते हैं, वे दूर और समीप प्रकाश फैलाते हैं । पुद्गलों के प्रचित्त होते हुए भी प्रयोक्ता हिंसा करने वाला १ भग०, श०७, उ० १०, सू० ३०६ । २ भग० सू०, ७।१०, सू०.३०७ । Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७३ केवलीचर्या का छम्बीसवां वर्ष] भगवान् महावीर और प्रयोग हिंसाजनक होता है । पुद्गल मात्र रत्नादि की तरह प्रचित्त होते हैं।" प्रभु के उत्तर से संतुष्ट होकर कालोदायी भगवान् को वन्दन करता हुआ और छट्ठ, अट्ठमादि तप करता हुआ अन्त में अनशनपूर्वक कालधर्म प्राप्त कर निर्वाण प्राप्त करता है। गणधर प्रभास ने भी एक मास का अनशन कर इसी वर्ष निर्वाण प्राप्त किया। इस प्रकार विविध उपकारों के साथ इस वर्ष भगवान् का चातुर्मास राजगृह में पूर्ण हुआ। केवलीचर्या का छन्बीसवाँ वर्ष वर्षाकाल के पश्चात् विविध ग्रामों में विचरण कर प्रभु पुनः 'गुणशील' चैत्य में पधारे । गौतम ने यहाँ प्रभु से विविध प्रकार के प्रश्न किये, जिनमें परमाणु का संयोग-वियोग, भाषा का भाषापन और दुःख की प्रकृत्रिमता आदि प्रश्न मुख्य थे। भगवान् ने अन्य तीर्थ के क्रिया सम्बन्धी प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा-"एक समय में जीव एक ही क्रिया करता है ईर्यापथिकी अथवा सांपरायिकी । जिस समय ईपिथिकी क्रिया करता है, उस समय सांपरायिकी नहीं और सांपरायिकी क्रिया के समय ईपिथिकी नहीं करता। देखना, बोलना जैसी दो क्रियाएँ एक साथ हों, इसमें आपत्ति नहीं है, आपत्ति एक समय में दो उपयोग होने में है।" इसी वर्ष प्रचलभ्राता और मेतार्य गणधरों ने भी अनशन कर निर्धारण प्राप्त किया। भगवान् ने इस वर्ष का वर्षाकाल नालंदा में ही व्यतीत किया । केवलीचर्या का सत्ताईसौं वर्ष . नालन्दा से विहार कर भगवान् ने विदेह जनपद की ओर प्रस्थान किया। विदेह के ग्राम-नगरों में धर्मोपदेश करते हुए प्रभु मिथिला पधारे । यहाँ राजा जितशत्रु ने प्रभु के प्रागमन का समाचार सुना तो वे नगरी के बाहर मणिभद्र चैत्य में वन्दन करने को माये । महावीर ने उपस्थित जनसमुदाय को धर्मोपदेश दिया। लोग वन्दन एवं उपदेश-श्रवण कर यथास्थान लौट गये। अवसर पाकर इन्द्रभूति-गौतम ने विनयपूर्वक सूर्य चन्द्रादि के विषय में प्रभु से प्रश्न किये। जिनमें सूर्य का मंडल-भ्रमण, प्रकाश-क्षेत्र, पौरुषी छाया, १ भग० सू०, ७.१०, सू० ३०८ । २ भगवान् महावीर-कल्याणविजय । ३ भग०१० १, उ० १०, सू०७१। Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [केवलीचर्या का संवत्सर का प्रारम्भ, चन्द्र की वृद्धि-हानि, चन्द्रादि ग्रहों का उपपात एवं च्यवन, चन्द्रादि की ऊंचाई एवं चन्द्र-सूर्य की जानकारी प्रादि प्रश्न मुख्य हैं। इस वर्ष का वर्षाकाल भी भगवान् ने मिथिला में ही व्यतीत किया। केवलीचर्या का अट्ठाईसवाँ वर्ष .... चातुर्मास के पश्चात् भगवान् ने विदेह में विचर कर अनेक श्रद्धालुनों को श्रमण-धर्म में दीक्षित किया और अनेक भव्यों को श्रावकधर्म के पथ पर प्रारूढ़ किया। संयोगवश इस वर्ष का चातुर्मास भी मिथिला में ही पूर्ण किया। .. केवलीचर्या का उनतीसा वर्ष वर्षाकाल के बाद भगवान ने मिथिला से मगध की ओर विहार किया और राजगृह पधार कर गुणशील उद्यान में विराजमान हुए। उन दिनों नगरी में महाशतक श्रावक ने अन्तिम आराधना के लिए अनशन कर रखा था। उसको अनशन में अध्यवसाय की शुद्धि से अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया था । आनन्द के समान वह भी चारों दिशाओं में दूर-दूर तक देख रहा था। उसकी अनेक स्त्रियों में 'रेवती' अभद्र स्वभाव की थी। उसका शील-स्वभाव श्रमणोपासक महाशतक से सर्वथा भिन्न था । महाशतक की धर्म-साधना से उसका मन असंतुष्ट था। एक दिन बेभान हो कर वह, जहां महाशतक धर्म-साधना कर रहा था, वहाँ पहुँची और विविध प्रकार के आक्रोशपूर्ण वचनों से उसका ध्यान विचलित करने लगी । शान्त होकर महाशतक सब कुछ सुनता रहा, पर जब वह सिर के बाल बिखेर कर अभद्र चेष्टानों के साथ यद्वा, तद्वा बोलती ही रही तो वे अपने रोष को नहीं संभाल सके । महाशतक को रेवती के व्यवहार से बहुत लज्जा और खेद हुआ, वह सहसा बोल उठा-"रेवती ! तू ऐसी अभद्र और उन्मादभरी चेष्टा क्यों कर रही है ? असत्कर्मों का फल ठीक नहीं होता। तू सात दिन के भीतर ही अलस रोग से पीड़ित हो कर असमाधिभाव में आयु पूर्ण कर प्रथम नर्क में जाने वाली है।" __ महाशतक के वचन सुन कर रेवती भयभीत हुई और सोचने लगी"अहो ! आज सचमुच ही पतिदेव मुझ ऊपर क्रुद्ध हैं । न जाने मुझे क्या दण्ड देंगे?" वह धीरे-धीरे वहाँ से पीछे की ओर लौट गई। महाशतक का भविष्य कथन अन्ततोगत्वा उसके लिये सत्य सिद्ध हुआ और वह दुर्भाव में मर कर प्रथम नरक की अधिकारिणी बनी। अन्तर्यामी भगवान महावीर को महाशतक की विचलित मनःस्थिति तत्काल विदित हो गई। उन्होंने गौतम से कहा- "गौतम ! राजगह में मेरा अन्तेवासी उपासक महाशतक पौषधशाला में अनशन करके विचर रहा है। Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनतीसा वर्ष] भगवान् महावीर ६७५ उसको रेवती ने दो-तीन बार उन्मादपूर्ण वचन कहे, इससे रुष्ट होकर उसने रेवती को प्रथम नरक में उत्पन्न होने का अप्रिय वचन कहा है । अतः तुम जाकर महाशतक को सूचित करो कि भक्त प्रत्याख्यानी उपासक को सद्भूत भी ऐसे वचन कहना नहीं कल्पता । इसके लिए उसको पालोचना करनी चाहिये ।" प्रभु के प्रादेशानुसार गौतम ने जाकर महाशतक से यथावत् कहा और उसने विनयपूर्वक प्रभु-वाणी को सुनकर आलोचना के द्वारा प्रात्मशुद्धि की।' महावीर ने गौतम के पूछने पर 'वैभार गिरि' के 'महा-तपस्तीर प्रभव' जलस्रोत-कुण्ड की भी चर्चा की। उन्होंने कहा-"उसमें उष्ण योनि के जीव जन्मते और मरते रहते हैं तथा उष्ण स्वभाव के जल पुद्गल भी आते रहते हैं, यही जल की उष्णता का कारण है।"२ फिर भगवान ने बताया कि एक जीव एक समय में एक ही प्रायु का भोग करता है । ऐहिक प्रायु-भोग के समय परभव की प्राय नहीं भोगता और परभव की प्राय के भोगकाल में वह इह भव की प्राय नहीं भोगता । इहभविक या परभविक' दोनों आयु सत्ता में रह सकती हैं।" "सुख-दुःख बताये क्यों नहीं जा सकते"-अन्य तीथिकों की इस शंका के समाधानार्थ भगवान् ने कहा-"केवल राजगह के ही नहीं, अपितु समस्त संसार के सूख-दुःखों को भी यदि एकत्र करके कोई बताना चाहे तो सूक्ष्म प्रमाण से भी नहीं बता सकता।" प्रसंग को सरलता से समझाने के लिए प्रभु ने एक उदाहरण प्रस्तुत किया-"जैसे कोई शक्तिशाली देव सुगंध का एक डिब्बा लेकर जम्बद्वीप के चारों प्रोर चक्कर काटता हुआ चारों दिशामों में सुगन्धि बिखेर दे, तो वे गन्ध के पुद्गल जम्बूद्वीप में फैल जायेंगे, किन्तु यदि कोई उन गन्ध-पुद्गलों को फिर से एकत्र कर दिखाना चाहे तो एक लीख के प्रमाण में भी उनको एकत्र कर नहीं दिखा सकता । ऐसे ही सुख-दुःख के लिए भी समझना चाहिये ।" इस प्रकार अनेक प्रश्नों का प्रभु ने समाधान किया। __भगवान् के प्रमुख शिष्य अग्निभूति और वायभूति नाम के दो गणधरों ने इसी वर्ष राजगृह में अनशन कर निर्वाण प्राप्त किया। भगवान् का यह चौतुमांस भी राजगृह में ही पूर्ण हुआ। Aarada १ उपासक०, भ० ८, सू. २५७, २६१ । २ भग० २।५ सू० ११३ । ३ भग० ५।३ सूत्र १८३ । ४ भग• ६६ सूत्र २५३ । Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ जन धर्म का मौलिक इतिहास [केवलीवर्या का तीसवां वर्ष केवलीचर्या का तीसवां वर्ष चातुर्मास की समाप्ति के पश्चात् भी भगवान् महावीर कुछ काल तक राजगृह नगर में विराजे रहे । इसी समय में उनके गणधर 'अव्यक्त', 'मंडित' और 'प्रकृम्पित' गुणशील उद्यान में एक-एक मास का अनशन पूर्ण कर निर्वाण को प्राप्त हुए। दुषमा-दुषम काल का वर्णन एक समय राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में गणधर इन्द्रभूति गौतम ने भगवान् महावीर से प्रश्न किया-"भगवन् ! दुषमा-दुषम काल में जम्बूद्वीप के इस भरतक्षेत्र की क्या स्थिति होगी ?" . भारे के समय में भरतक्षेत्र की सर्वतोमुखी स्थिति के सम्बन्ध में भगवान् महावीर ने विस्तारपूर्वक वर्णन करते हुए प्रकाश डाला। इसका पूर्ण विवरण 'कालचक्र का वर्णन' शीर्षक में आगे दिया जा रहा है । इस प्रकार ज्ञानादि अनन्त-चतुष्टयो के अचिन्त्य, अलौकिक पालोक से असंख्य मात्मार्थी भव्य जीवों के अन्तस्तल से प्रज्ञानान्धकार का उन्मूलन करते हुए इस अवसर्पिणीकाल के अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीर ने केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् भारतवर्ष के विभिन्न प्रदेशों में अप्रतिहत विहार कर तीस वर्ष तक देव, मनुष्य और तियंचों को विश्वबन्धुत्व का पाठ पढ़ाया। उन्होंने अपने अमोघ उपदेशों के महानाद से जन-जन के कर्णरन्ध्रों में मानवता का महामंत्र फूक कर जनमानस को जागृत किया और विनाशोन्मुख मानवसमाज को कल्याण के प्रशस्त मार्ग पर अग्रसर किया। राजगृह से विहार कर भगवान् महावीर पावापुरी के राजा हस्तिपाल की रज्जुग सभा में पधारे ।' प्रभु का अन्तिम चातुर्मास पावा में हुप्रा । सुरसमूह ने तत्काल सुन्दर समवशरण की महिमा की। अपार जनसमूह के समक्ष धर्मोपदेश देते हुए प्रभु ने फरमाया कि प्रत्येक प्राणी को जीवन, सुख और मधुर व्यवहार प्रिय हैं। मृत्यु, दुःख और अभद्र व्यवहार सब को अप्रिय हैं। अतः प्राणिमात्र का परम कर्तव्य है कि जिस व्यवहार को वह अपने लिए प्रतिकूल समझता है, वैसा अप्रीतिकर व्यवहार किसी दूसरे के प्रति नहीं करे । दूसरों से जिस प्रकार के सुन्दर एवं सुखद व्यवहार की वह अपेक्षा करता है, वैसा ही व्यवहार वह प्राणिमात्र के साथ करे । यही मानवता का मूल सिद्धान्त और धर्म की आधारशिला है। इस सनातन-शाश्वत धर्म के सतत समाचरण से ही मानव मुक्तावस्था को प्राप्त कर सकता है और इस धर्मपथ से स्खलित हुप्रा प्राणी दिग्विमूढ़ हो भवाटवी में भटकता फिरता है। १ त्रिषष्टि श. पु. च., १०।१२। श्लोक ४४० । muni Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यपाल के स्वप्नों का फल] भगवान् महावीर प्रभु के उपदेशामत का पान करने के पश्चात् राजा पुण्यपाल को सविधि बन्दन कर पूछा-"प्रभो ! गत रात्रि के अवसानकाल में मैंने हानी, बन्दर, क्षीरदु, (क्षीरतरु), कौमा, सिंह, पप, बीज और कुभ ये आठ अशुभ स्वप्न देखे हैं। करुणाकर ! मैं बड़ा चिन्तित है कि कहीं यं स्वप्न किसी मावी अमंगल के सूचक तो नहीं हैं।" भगवान महावीर ने पुण्यपाल के स्वप्नों का फल सुनाते हए कहा"राजन् ! प्रथम स्वप्न में जो तुमने हाथी देखा है, वह इस भावी का सूचक है कि अब भविष्य के विवेकशील श्रमणोपासक भी क्षणिक समृद्धिसम्पन्न गृहस्थ जीवन में हाथी की तरह मदोन्मत्त होकर रहेंगे। भयंकर से भयंकर संकटापन्न स्थिति अथवा पराधीनता की स्थिति में भी वे प्रव्रजित होने का विचार तक भी मन में नहीं लायेगे। जो गृह त्याग कर संयम ग्रहण करेंगे, उनमें से भी अनेक कुसंगति में फंसकर या तो संयम का परित्याग कर देंगे या अच्छी तरह संयम का पालन नहीं करेंगे । विरले ही संयम का दृढ़ता से पालन कर सकेंगे।" दूसरे स्वप्न में कपि-दर्शन का फल बताते हुए प्रभु ने कहा-"स्वप्न में जो तुमने बन्दर देखा है, वह इस अनिष्ट का सूचक है कि.भविष्य में बड़े-बड़े संधपति आचार्य भी बन्दर की तरह चंचल प्रकृति के, स्वल्पपराक्रमी और व्रताचरण में प्रमादी होंगे। जो प्राचार्य या साधु विशुद्ध, निर्दोष संयम एवं व्रतों का पालन करेंगे तथा वास्तविक धर्म का उपदेश करेंगे, उनको अधिकांश दुराचाररत लोगों द्वारा यत्र-तत्र खिल्ली उड़ाई जा कर धर्मशास्त्रों की उपेक्षा ही नहीं, अपितु घोर अवज्ञा भी की जायगी। इस प्रकार भविष्य में अधिकांश लोग बन्दर के समान अविचारकारी, विवेकशून्य और अतीव अस्थिर एवं चंचल स्वभाव वाले होंगे।" तीसरे स्वप्न में क्षीरतरु (अश्वत्थ) देखने का फल बताते हुए प्रभु ने कहा-"राजन् ! कालस्वभाव से अब आगामी काल में क्षुद्र भाव से दान देने वाले श्रावकों को साधु नामधारी पाखण्डी लोग घेरे रहेंगे। पाखण्डियों की प्रवंचना में फंसे हुए दानी सिंह के समान आचारनिष्ठ साधुओं को शृगालों की तरह शिथिलाचारी और शृगालवत् शिथिलाचारी साधुओं को सिंह के समान आचारनिष्ठ समझेगे। यत्र-तत्र कण्टकाकीर्ण बबूल वक्ष की तरह पाखण्डियों का पृथ्वी पर बाहुल्य होगा।" ___चौथे स्वप्न में काक-दर्शन का फल बताते हुए प्रभु ने फरमाया"भविष्य में अधिकांश साधु अनुशासन का उल्लंघन एवं साधु-मर्यादामों का परित्याग कर कौवे की तरह विभिन्न पाखण्ड पूर्ण पंथों का पाश्रय ले मत परिवर्तन करते रहेंगे । वे लोग कौवे के 'कांव-कांव' शब्द की तरह वितण्डावाद करते हुए सद्धर्म के उपदेशकों का खण्डन करने में ही सदा तत्पर रहेंगे।" Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ पुण्यपाल के स्वप्नों का फल अपने पाँचवें स्वप्न में राजा पुण्यपाल ने जो सिंह को विपन्नावस्था में देखा, उसका फल बताते हुए भगवान् महावीर ने कहा - " भविष्य में सिंह के समान तेजस्वी वीतराग - प्ररूपित जैन धर्म निर्बल होगा, धर्म की प्रतिष्ठा से विमुख हो लोग हीन सत्व, साधारण श्वानादि पशुओं के समान मिथ्या मतावलम्बी साधु वेषधारियों की प्रतिष्ठा करने में तत्पर रहेंगे। आगे चलकर जैन धर्म के स्थान पर विविध मिथ्या धर्मों का प्रचार-प्रसार एवं सम्मान अधिक होगा ।" ६७८ छठे स्वप्न में कमलदर्शन का फल बताते हुए प्रभु ने कहा - "समय के प्रभाव से आगामी काल में सुकुलीन व्यक्ति भी कुसंगति में पड़ कर धर्ममार्ग से विमुख हो पापाचार में प्रवृत्त होंगे ।" राजा पुण्यपाल के सातवें स्वप्न का फल सुनाते हुए भगवान् ने फरमाया" राजन् ! तुम्हारा बीज-दर्शन का स्वप्न इस भविष्य का सूचक है कि जिस प्रकार एक अविवेकी किसान अच्छे बीज को ऊसर भूमि में और घुन से बींदे हुए खराब बीज को उपजाऊ भूमि में बो देता है, उसी प्रकार गृहस्थ श्रमणोपासक आगामी काल में सुपात्र को छोड़ कर कुपात्र को दान करेंगे ।" भगवान् महावीर ने राजा पुण्यपाल के आठवें व अन्तिम स्वप्न का फल सुनाते हुए फरमाया-'पुण्यपाल ! तुमने अपने अन्तिम स्वप्न में कुंभ देखा है, वह इस आशय का द्योतक है कि भविष्य में तप, त्याग एवं क्षमा यादि गुणसम्पन्न, आचारनिष्ठ महामुनि विरले ही होंगे । इसके विपरीत शिथिलाचारी, वेषधारी, नाममात्र के साधुओंों का बाहुल्य होगा । शिथिलाचारी साधु निर्मल चारित्र वाले साधुओं से द्वेष रखते हुए सदा कलह करने के लिये उद्यत रहेंगे । ग्रह - ग्रस्त की तरह प्रायः सभी गृहस्थ तत्त्वदर्शी साधुओं और वेशधारी साधुनों के भेद से अनभिज्ञ, दोनों को समान समझते हुए व्यवहार करेंगे ।" भगवान् महावीर के मुखारविन्द से अपने स्वप्नों के फल के रूप में भावी विषम स्थिति को सुनकर राजा पुण्यपाल को संसार से विरक्ति हो गई । उसने तत्काल राज्यलक्ष्मी और समस्त वैभव को ठुकरा कर भगवान् की चरण-शरण में श्रमण-धर्म स्वीकार कर लिया और तप-संयम की सम्यक् रूप से आराधना कर वह कालान्तर में समस्त कर्म - बन्धनों से विनिर्मुक्त हो निर्वाण को प्राप्त हुआ । कालचक्र का वर्णन कुछ काल पश्चात् भगवान् महावीर के प्रथम गणधर गौतम ने प्रभु चरण कमलों में सिर झुकाकर कालचक्र की पूर्ण जानकारी के सम्बन्ध में अपनी जिज्ञासा अभिव्यक्त की । Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालचक्र का वर्णन] भगवान् महावीर ६७६ कालचक्र का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हए प्रभ ने फरमाया-"गौतम ! काल चक्र के मुख्य दो भाग हैं, अवपिणीकाल और उत्सपिणीकाल । क्रमिक अपकर्षोन्मुख काल अवसर्पिणीकाल कहलाता है और ऋमिक उत्कर्षोन्मुख काल उत्सपिणीकाल। इनमें से प्रत्येक दश कोडाकोड़ी सागर का होता है और इस तरह अवसर्पिणी एवं उत्सपिणी को मिलाकर बीस कोड़ाकोड़ी सागर का एक कालचक्र होता है। अवसपिणी काल के क्रमिक अपकर्षोन्मुख काल को छ: विभागों में बाँटा जाकर उन छः विभागों को षट् प्रारक की संज्ञा दी गई है। उन छः प्रारों का निम्नलिखित प्रकार से गुणदोष के आधार पर नामकरण किया गया है १. सुषमा-सुषम २. सुषम ३. सुषमा-दुषम ४. दुषमा-सुषम ५. दुषम ६. दुषमा-दुषम प्रथम प्रारक सुषमा-सुषम एकान्ततः सुखपूर्ण होता है । चार कोडाकोड़ी सागर की अवस्थिति वाले सुषमा-सुषम नामक इस प्रथम पारे में मानव की प्राय तीन पल्योपम की व देह की ऊँचाई तीन कोस की होती है। उस समय के मानव का शरीर २५६ पसलियों से युक्त वज्रऋषभ नाराच संहनन और सम. चतुरस्र संस्थानमय होता है। उस समय में माता, पुत्र और पुत्री को युगल रूप में एक साथ जन्म देती है। उस समय के मानव परम दिव्य रूप सम्पन्न, सौम्य भद्र, मृदुभाषी, निलिप्त, स्वल्पेच्छा वाले अल्पपरिग्रही, पूर्णरूपेण शान्त, सरल स्वभावी, पृथ्वी-पुष्प-फलाहारी और क्रोध, मान, मोह, मद, मात्सर्य आदि से अल्पता वाले होते हैं । उनका आहार चक्रवर्ती के सुस्वादु पौष्टिक षट्रस भोजन से भी कहीं अधिक सुस्वादु और बल-वीर्यवर्द्धक होता है। उस समय चारों ओर का वातावरण अत्यन्त मनोरम, मोहक, मधुर, सुखद, तेजोमय, शान्त, परम रमणीय, मनोज्ञ एवं प्रानन्दमय होता है। उस प्रथम मारक में पृथ्वी का वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श अत्यन्त सम्मोहक, प्राणिमात्र को प्रानन्दविभोर करने वाला एवं अत्यन्त सुखप्रद होता है। उस समय पृथ्वी का स्वाद मिश्री से कहीं अधिक मधुर होता है । भोगयुग होने के कारण उस समय के मानव को जीवनयापन के लिये किंचिन्मात्र भी चिन्ता अथवा परिश्रम की आवश्यकता नहीं पड़ती, क्योंकि दश प्रकार के कल्पवृक्ष उनकी सभी इच्छाएं पूर्ण कर देते हैं। मतंगा नामक कल्पवृक्षों से अमृततुल्य मधुर फल, भिंगा नामक कल्पवृक्षों से स्वर्णरत्नमय भोजनपात्र, तुडियंगा नामक कल्पवृक्षों से उन्हें उनचास प्रकार के ताल-लयपूर्ण मधुर संगीत, जोई नामक कल्पवृक्षों से अद्भुत आनन्दप्रद तेजोमय प्रकाश, जिसके Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [कालचक्र कारण कि प्रथम धारक से लेकर तृतीय धारक के तृतीय चरण के लम्बे समय तक चन्द्र-सूर्य तक के दर्शन नहीं होते, दीव नामक कल्पवृक्षों से उन्हें प्रकाशस्तम्भों के समान दिव्य रंगीन रोशनी, चितंगा नामक कल्पवृक्षों से मनमोहक सुगन्धिपूर्ण सुन्दर पुष्पाभरण, चित्तरसा नामक कल्पवृक्षों से प्रठारह प्रकार के सुस्वादु भोजन, मणेयंगा नामक कल्पवृक्ष' से स्वर्ण, रत्नादि के दिव्य प्राभूषरण, बयालीस मंजिले भव्य प्रासादों की प्राकृति वाले गेहागारा नामक कल्पवृक्षों से आवास की स्वर्गोपम सुख-सुविधा और प्रनिगरणा नामक कल्पवृक्षों से उन्हें अनुपम सुन्दर, सुखद, अमूल्य वस्त्रों की प्राप्ति हो जाती है । ६८० जीवनोपयोगी समस्त सामग्री की यथेप्सित रूप से सहज प्राप्ति हो जाने के कारण उस समय के मानव का जीवन परम सुखमय होता है । उस समय के मानव को तीन दिन के अन्तर से भोजन करने की इच्छा होती है । प्रथम आरक के मानव छै प्रकार के होते हैं : (१) पद्मगंधा - जिनके शरीर से कमल के समान सुगन्ध निकलती रहती है । (२) मृगगन्धा - जिनके शरीर से कस्तूरी के समान मादक महक निकलकर चारों ओर फैलती रहती है । (३) श्रममा = जो ममतारहित हैं (४) तेजस्तलिनः = तेजोमय सुन्दर स्वरूप वाले । (५) सहा = उत्कट साहस करने वाले । (६) शनैश्चारिण: = उत्सुकता के अभाव में सहज शान्तभाव में चलने वाले | उनका स्वर प्रत्यन्त मधुर होता है और उनके श्वासोच्छ्वास से भी कमलपुष्प के समान सुगन्ध निकलती है । उस समय के युगलिकों की आयु जिस समय छे महीने अवशिष्ट रह जाती है, उस समय युगलिनी पुत्र-पुत्रों के एक युगल को जन्म देती है। मातापिता द्वारा ४६ दिन प्रतिपालना किये जाने के पश्चात् वे नव-युगल पूर्ण युवा हो दाम्पत्य जीवन का सुखोपभोग करते हुए यथेच्छ विचरण करते हैं । तीन पल्योपम की श्रायुष्य पूर्ण होते ही एक को छींक और दूसरे को उबासी आती है और इस तरह युगल दम्पति तत्काल एक साथ बिना किसी प्रकार की व्याधि, पीड़ा प्रथवा परिताप के जीवनलीला समाप्त कर देवयोनि में उत्पन्न होते हैं । उनके शवों को क्षेत्राधिष्ठायक देव तत्काल क्षीरसमुद्र में डाल देते हैं । Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का वर्णन] भगवान् महावीर ६८१ सुषमा नामक दूसरा प्रारक तीन कोडाकोड़ी सागर का होता है। इसमें प्रथम भारक की अपेक्षा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्याय की अनन्त गुनी हीनता हो जाती है। इस प्रारक के मानव की प्रायु दो पल्योपम, देहमान दो कोस और पसलियाँ १२८ होती हैं । दो दिन के अन्तर से उनको प्रहार ग्रहण करने की आवश्यकता प्रतीत होती है । इस प्रारक में पृथ्वी का स्वाद घटकर शक्कर तुल्य हो जाता है। इस दूसरे प्रारक में भी मानव की सभी इच्छाएं उपर्युक्त १० प्रकार के कल्पवृक्षों द्वारा पूर्ण की जाती हैं, अतः उन्हें किसी प्रकार के श्रम की आवश्यकता नहीं होती। जिस समय युगल दम्पति की आयु छ महीने अवशेष रह जाती है, उस समय युगलिनी, पुत्र-पुत्री के एक युगल को जन्म देती है । मातापिता द्वारा ६४ दिन तक प्रतिपालित होने के बाद ही नवयुगल, दम्पति के रूप में सुखपूर्वक यथेच्छ विचरण करने लग जाता है। दूसरे बारे में मनुष्य चार प्रकार के होते हैं । यथा : (१) एका (२) प्रचुरजंघा (३) कुसुमा (४) सुशमना आयु की समाप्ति के समय इस प्रारक के युगल को भी छींक एवं उबासी आती है और वह युगल दम्पति एक साथ काल कर देवगति में उत्पन्न होता है । सुषमा-दुषम नामक तीसरा पारा दो कोड़ाकोड़ी सागर के काल प्रमाण का होता है । इस तृतीय प्रारक के प्रथम और मध्यम विभाग में दूसरे प्रारक की अपेक्षा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अनन्तगुनी अपकर्षता हो जाती है। इस आरे के मानव वज्रऋषभनाराच संहनन, समचतुरस्र संस्थान, २००० धनुष की ऊँचाई, एक पल्योपम की आयु और ६४ पसलियों वाले होते हैं। उस समय के मनुष्यों को एक दिन के अन्तर से प्रहार ग्रहण करने की इच्छा होती है । उस समय पृथ्वी का स्वाद गुड़ के समान होता है। मृत्यु से ६ मास पूर्व युगलिनी एक पुत्र तथा एक पुत्री को युगल के रूप में जन्म देती है। उन बच्चों का ७६ दिन तक माता-पिता द्वारा पालन-पोषण किया जाता है। तत्पश्चात् वे पूर्ण यौवन को प्राप्त हो दम्पति के रूप में स्वतन्त्र और स्वेच्छापूर्वक आनन्दमय जीवन बिताते हैं। उनके जीवन की समस्त आवश्यकताएं दश प्रकार के कल्पवृक्षों द्वारा पूर्ण कर दी जाती हैं । अपने जीवन-निर्वाह के लिये उन्हें किसी प्रकार का कार्य अथवा श्रम नहीं करना पड़ता, अतः वह युग भोगयग कहलाता है। अंत समय में युगल स्त्री-पुरुष को एक साथ एक को छींक और दूसरे को उबासी आती है और उसी समय वे एक साथ आयुष्य पूर्ण कर देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होते हैं। एerePERFAIRMAN Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [कालचक्र यह स्थिति तृतीय पारक के प्रथम विभाग और मध्यम विभाग तक रहती है। उस प्रारक के अन्तिम विभाग के मनुष्यों का छै प्रकार का संहनन, छ प्रकार का संस्थान, कई सौ धनुष की ऊँचाई, जघन्य संख्यात वर्ष की और उत्कृष्ट असंख्यात वर्ष की प्रायुष्य होती है। उस समय के मनुष्यों में से अनेक नरक में, अनेक तिर्यंच योनि में, अनेक मनुष्य योनि में, अनेक देव योनि में और अनेक मोक्ष में जाने वाले होते हैं । उस तीसरे पारे के अन्तिम विभाग के समाप्त होने में जब एक पल्योपम का आठवाँ भाग अवशेष रह जाता है, उस समय भरत क्षेत्र में क्रमश: १५ कुलकर' उत्पन्न होते हैं। उस समय कालदोष से कल्पवृक्ष उस समय के मानवों के लिये जीवनोपयोगी सामग्री अपर्याप्त मात्रा में देना प्रारम्भ कर देते हैं, जिससे उनमें शनै:शनैः आपसी कलह का सूत्रपात हो जाता है। कुलकर उन लोगों को अनुशासन में रखते हुए मार्गदर्शन करते हैं । प्रथम पाँच कुलकरों के काल में हाकार दण्डनीति, छठे से १०वें कुलकर तथा 'माकार' नीति और ग्यारहवें से १५वें कुलकर तक 'धिक्कार' नीति से लोगों को अनुशासन में रखा जाता है। तीसरे आरे के समाप्त होने में जिस समय चौरासी लाख पूर्व, तीन वर्ष और साढ़े आठ मास अवशेष थे, उस समय प्रथम राजा, प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव का जन्म हुआ। भगवान् ऋषभदेव ने ६३ लाख पूर्व तक सुचारु रूप से राज्यशासन चला कर उस समय के मानव को असि, मसि और कृषि के अन्तर्गत समस्त विद्याएं सिखा कर भोगभूमि को पूर्णरूपेण कर्मभूमि में परिवर्तित कर दिया। ___ इस अवसर्पिणी काल में सर्वप्रथम धर्म-तीर्थ की स्थापना भगवान ऋषभदेव ने की। तीसरे बारे में प्रथम तीर्थंकर और प्रथम 'चक्रवर्ती हुए। तृतीय पारे के समाप्त होने में तीन वर्ष और साढ़े आठ मास अवशेष रहे, तब भगवान् ऋषभदेव का निर्वाण हुआ। दुषमा-सुषम नामक चतुर्थ प्रारक बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर का होता है। इस बारे में तृतीय प्रारक की अपेक्षा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की तथा उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषाकार और पराक्रम की अनन्तगुनी अपकर्षता हो जाती है। इस चतुर्थ प्रारक में मनुष्यों के छहों प्रकार के संहनन, छहों प्रकार के संस्थान, बहुत से धनुष की ऊँचाई, जघन्य अन्तमुहूर्त की ओर उत्कृष्ट पूर्वकोटि की आयु होती है तथा वे मर कर पाँचों प्रकार की गति में जाते हैं। १ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में भगवान् ऋषभदेव को पन्द्रहवें कुलकर के रूप में भी माना गया है । Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का वर्णन] भगवान् महावीर ६८३ चतुर्थ प्रारक में २३ तीर्थंकर, ११ चक्रवर्ती, ६ बलदेव, ६ वासुदेव और प्रतिवासुदेव होते हैं । " गौतम ! यह भरतक्षेत्र तीर्थंकरों के समय में सुन्दर, समृद्ध, बड़े-बड़े ग्रामों, नगरों तथा जनपदों से संकुल एवं धन-धान्यादिक से परिपूर्ण रहता है । उस समय सम्पूर्ण भरतक्षेत्र साक्षात् स्वर्गतुल्य प्रतीत होता है । उस समय का प्रत्येक ग्राम नगर के समान और नगर अलकापुरी की तरह सुरम्य और सुखसामग्री से समृद्ध होता है। तीर्थंकरकाल में यहाँ का प्रत्येक नागरिक नृपति के समान ऐश्वर्य सम्पन्न और प्रत्येक नरेश वैश्रवरण के तुल्य राज्यलक्ष्मी का स्वामी होता है । उस समय के प्राचार्य शरद् पूर्णिमा के पूर्णचन्द्र की तरह अगाध ज्ञान की ज्योत्स्ना से सदा प्रकाशमान होते हैं । उन प्राचार्यों के दर्शन मात्र से जनगरण के नयन अतिशय तृप्ति और वाणी - श्रमरण से जन-जन के मन परमाह्लाद का अनुभव करते हैं । उस समय के माता-पिता देवदम्पति तुल्य, श्वसुर पिता तुल्य और सासु माता के समान वात्सल्यपूर्ण हृदयवाली होती हैं । तीर्थंकरों के समय के नागरिक सत्यवादी, पवित्र हृदय, विनीत, धर्म व अधर्म के सूक्ष्म से सूक्ष्म भेद को समझने वाले, देव और गुरु की उचित पूजा-सम्मान करने वाले एवं पर-स्त्री को माता तथा बहिन के समान समझने वाले होते हैं । तीर्थंकर काल में विज्ञान, विद्या, कुल- गौरव और सदाचार उत्कृष्ट कोटि के होते हैं । न तीर्थंकरों के समय में डाकुनों, आततायियों और अन्य राजाओं द्वारा आक्रमण का ही किसी प्रकार का भय रहता है और न प्रजा पर करों का भार ही । तीर्थंकरकाल के राजा लोग वीतराग प्रभु के परमोपासक होते है और तीर्थंकरों के समय की प्रजा पाखण्डियों के प्रति किंचित्मात्र भी आदर का भाव प्रकट. नहीं करती ।" भगवान् ने पंचम आरक की भीषण स्थिति का दिग्दर्शन कराते हुए कहा - " गौतम ! मेरे मोक्ष-गमन के तीन वर्ष साढ़े आठ मास पश्चात् दुषम नामक पांचवाँ आरा प्रारम्भ होगा जो कि इक्कीस हजार वर्ष का होगा । उस पंचम आरे के अन्तिम दिन तक मेरा धर्म-शासन अविच्छिन्न रूप से चलता रहेगा । लेकिन पाँचवें आरे के प्रारम्भ होते ही पृथ्वी के रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्श के ह्रास के साथ ही साथ क्रमशः ज्यों-ज्यों समय बीतता जायगा, त्यों-त्यों लोकों में धर्म, शील, सत्य, शान्ति, शौच, सम्यक्त्व, सद्बुद्धि, सदाचार, शौर्य, प्रोज, तेज, क्षमा, दम, दान, व्रत, नियम, सरलता आदि गुणों का क्रमिक हास और अधर्म - बुद्धि का क्रमशः अभ्युत्थान होता जायगा । पंचम प्रारक में ग्राम श्मशान के समान भयावह और नगर प्रेतों की क्रीड़ास्थली तुल्य प्रतीत होंगे । उस समय के नागरिक क्रीतदास तुल्य और राजा लोग यमदूत के समान दुःखदायी होंगे ।" Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [कालचक्र पंचम प्रारक की राजनीति का दिग्दर्शन कराते हुए भगवान् ने कहा"गौतम ! जिस प्रकार छोटी मछलियों को मध्यम आकार-प्रकार की मछलियाँ और मध्यम स्थिति की मछलियों को वहदाकार वाली मछलियाँ खा जाती हैं, उसी प्रकार पंचम पारक में सर्वत्र 'मत्स्यन्याय' का बोलबाला होगा, राज्याधिकारी प्रजाजनों को लूटेंगे और राजा लोग राज्याधिकारियों को । उस समय सब प्रकार की व्यवस्थाएं अस्त-व्यस्त हो जायेंगी। सब देशों की स्थिति भीषण तूफान में फँसो नाव के समान डांवाडोल हो जायगी।" उस समय की सामाजिक स्थिति का वर्णन करते हुए प्रभु ने कहा"गौतम ! प्रजा को एक ओर तो चोर पीड़ित करेंगे और दूसरी ओर कमरतोड़ करों से राज्य । उस समय में व्यापारीगण प्रजा को दुष्ट ग्रह की तरह पीड़ित कर देंगे और अधिकारीगण बड़ी-बड़ी रिश्वतें लेकर प्रजाजनों का सर्वस्व हरण करेंगे । प्रात्मीयजनों में परस्पर सदा गृहकलह घर किये रहेगा। प्रजाजन एक दूसरे से द्वेष व शत्रुता का व्यवहार करेंगे । उनमें परोपकार, लज्जा, सत्यनिष्ठा और उदारता का लवलेश भी अवशेष नहीं रहेगा। शिष्य गुरुभक्ति को भूल कर अपने-अपने गुरुजनों की अवज्ञा करते हुए स्वच्छन्द विहार करेंगे और गुरुजन भी अपने शिष्यों को ज्ञानोपदेश देना बन्द कर देंगे और अन्ततोगत्वा एक दिन गुरुकुलव्यवस्था लुप्त ही हो जायगी। लोगों में धर्म के प्रति रुचि क्रमशः बिल्कुल मन्द हो जायगी। पुत्र अपने पिता का तिरस्कार करेंगे, बहुएँ अपनी सासों के सामने काली नागिनों की तरह हर समय फूत्कार करती रहेंगी और सासें भी अपनी बहुओं के लिये भैरवी के समान भयानक रूप धारण किये रहेंगी। कुलवधुओं में लज्जा का नितान्त अभाव होगा । वे हास-परिहास, विलास-कटाक्ष, वाचालता और वेश-भषा में वेश्यानों से भी बढ़ी-चढ़ी निकलेंगी। इस सबके परिणामस्वरूप उस समय किसी को साक्षात् देवदर्शन नहीं होगा।" ___उस समय की धार्मिक स्थिति का वर्णन करते हुए वीर प्रभु ने कहा"गौतम ! ज्यों-ज्यों पंचम पारे का काल व्यतीत होता जायगा, त्यों-त्यों साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध धर्मसंघ क्रमशः क्षीण होता जायगा। झूठ और कपट का सर्वत्र साम्राज्य होगा। धर्म-कार्यों में भी कूटनीति, कपट और दुष्टता का बोलबाला होगा । दुष्ट और दुर्जन लोग आनन्दपूर्वक यथेच्छ विचरण करेंगे पर सज्जन पुरुषों का जीना भी दूभर हो जायगा।" पंचम आरक में सर्वतोमुखी ह्रास का दिग्दर्शन कराते हुए भगवान् ने कहा-“गौतम ! पंचम पारे में रत्न, मणि, माणिक्य, धन-सम्पत्ति, मंत्र, तंत्र, औषधि, ज्ञान, विज्ञान, प्रायष्य, पत्र, पुष्प, फल, रस, रूप-सौन्दर्य, बल-वीर्य, Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का वर्णन ] भगवान् महावीर ६८५ समस्त सुखद-सुन्दर वस्तुनों और शारीरिक शक्ति एवं स्थिति का क्रमशः हास ही ह्रास होता चला जायगा । असमय में वर्षा होगी, समय पर वर्षा नहीं होगी । इस प्रकार के ह्रासोन्मुख, क्षीणपुण्य वाले कालप्रवाह में जिन मनुष्यों की रुचि धर्म में रहेगी, उन्हीं का जीवन सफल होगा ।" भगवान् ने फिर फरमाया - " इस दुषमा नामक पंचम आरे के अन्त में दुःप्रसह प्राचार्य, फल्गुश्री साध्वी, नागिल श्रावक और सत्यश्री श्राविका इन चारों का चतुविध संघ शेष रहेगा । इस भारतवर्ष का अन्तिम राजा विमल वाहन और अन्तिम मंत्री सुमुख होगा ।" "इस प्रकार पंचम आरे के अन्त में मनुष्य का शरीर दो हाथ की ऊंचाई वाला होगा और मानव की अधिकतम आयु बीस वर्ष की होगी । दुःप्रसह प्राचार्य, फल्गुश्री साध्वी, नागिल श्रावक और सत्यश्री श्राविका के समय में बड़े से बड़ा तप बेला ( षष्ठभक्त) होगा । उस समय में दशवैकालिक सूत्र को जानने वाला चतुर्दश पूर्वधर के समान ज्ञानवान् समझा जायगा । श्राचार्य दुः प्रसह अन्तिम समय तक चतुविध संघ को प्रतिबोध करते रहेंगे । अन्तिम समय में प्राचार्य दुःप्रसह संघ को सूचित करेंगे कि त्र धर्म नहीं रहा, तो संघ उन्हें संघ से बहिष्कृत कर देगा । दुःप्रसह बारह वर्ष तक गृहस्थ पर्याय में रहेंगे और आठ वर्ष तक मुनिधर्म का पालन कर तेले के अनशनपूर्वक आयुष्य पूर्ण कर सौधर्मकल्प में देवरूप से उत्पन्न होंगे ।" पंचम आारक की समाप्ति के दिन गणधर्म, पाखण्डधर्म, राजधर्म, चारित्रधर्म और अग्नि का विच्छेद हो जायगा । पूर्वाह्न में चारित्र धर्म का, मध्याह्न में राजधर्म का और अपराह्न में अग्नि का इस भरतक्षेत्र की धरा से समूलोच्छेद हो जायगा ।" " छट्ठे आरे के समय में भरतक्षेत्र की सर्वतोमुखी स्थिति के सम्बन्ध में गौतम के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् महावीर ने फरमाया - " गौतम ! पंचम आारक की समाप्ति के बाद वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के अनन्त पर्यवों के ह्रास को लिये हुए २१००० वर्ष का दुषमा दुषम नामक छट्ठा प्रारक प्रारम्भ होगा । उस छट्ठे श्रारे में दशों दिशाएँ हाहाकार, भांय- भांय (भंभाकार) श्रौर कोलाहल से व्याप्त होंगी। समय के कुप्रभाव के कारण प्रत्यन्त तीक्ष्ण, कठोर, धूलिमिश्रित, नितान्त प्रसह्य एवं व्याकुल कर देने वाली भयंकर आँधियाँ एवं तृणकाष्ठादि को उड़ा देने वाली संवर्तक हवाएँ चलेंगी। समस्त दिशाएँ निरन्तर १ स्थानांग और त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र के आधार पर । २ भ० श० श० ७, उ० ६ । Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ कालचक्र का वर्णन चलने वाले श्रन्धड़ों व तूफानों के कारण धूमिल तथा अन्धकारपूर्ण रहेंगी । समय की रूक्षता के कारण चन्द्रमा अत्यधिक शीतलता प्रकट करेगा श्रौर सूर्य अत्यधिक उष्णता ।" " तदनन्तर रसरहित - श्ररस मेघ, विपरीत रस वाले - विरस मेघ, क्षारमेघ, विष मेघ, अम्ल मेघ, अग्नि मेघ, विद्युत् मेघ, वज्र मेघ, विविध रोग एवं पीड़ाएँ बढ़ाने वाले मेघ प्रचण्ड हवानों से प्रेरित हो बड़ी तीव्र एवं तीक्ष्ण धाराओं से वर्षा करेंगे । इस प्रकार की तीव्र एवं प्रचुर अतिवृष्टियों के कारण भरतक्षेत्र के ग्राम, नगर, आगर, खेड़े, कव्वड़, मडंब, द्रोणमुख, पत्तन, समग्र जनपद, चतुष्पद, गौ आदि पशु, पक्षी, गाँवों और वनों के अनेक प्रकार के द्वीन्द्रियादिक त्रस प्राणी, वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, वल्ली, प्रवाल, अंकुर, तृणवनस्पति, बादर वनस्पति, सूक्ष्म वनस्पति, औषध और वैताढ्य पर्वत को छोड़कर सब पर्वत, गिरि, डूंगर टीबे, गंगा और सिन्धु को छोड़कर सब नदियाँ, भरने, विषम गड्ढे आदि विनष्ट हो जायेंगे । भूमि सम हो जायगी ।" "उस समय समस्त भरतक्षेत्र की भूमि अंगारमय, चिनगारियों के समान, राख तुल्य, अग्नि से तपी हुई बालुका के समान तथा भीषरण ताप के कारण की ज्वाला के समान दाहक होगी । धूलि, रेणु, पंक एवं धसान वाले दलदलों के बाहुल्य के कारण पृथ्वी पर चलने वाले प्रारणी भूमि पर इधर-उधर बड़ी कठिनाई से चल-फिर सकेंगे ।" छट्ठे मारक में मनुष्य अत्यन्त कुरूप, दुर्वर्ण, दुर्गन्धयुक्त, दुखद रस एवं स्पर्श वाले अनिष्ट, चिन्तन मात्र से दुखद, हीन - दीन, करकटु अत्यन्त कर्कश स्वर वाले, श्रनादेय-अशुभ भाषरण करने वाले, निर्लज्ज, झूठ-कपट- कलह, वधबन्ध और वैरपूर्ण जीवन वाले, मर्यादा का उल्लंघन करने में सदा प्रग्ररणी, कुकर्म करने के लिये सदा उद्यत, प्राज्ञापालन, विनयादि से रहित, विकलांग, बढ़े हुए रूक्ष नख, केश, दाढ़ी-मूछ व रोमावली वाले, काल के समान काले-कलूटे, फटी हुई दाड़िम के समान ऊबड़-खाबड़ सिर वाले, रूक्ष, पीले पके हुए बालों वाले, मांसपेशियों से रहित व चर्मरोगों के कारण विरूप, प्रथम प्रायु में ही बुढ़ापे से घिरे हुए, सिकुड़ी हुई सलदार चमड़ी वाले, उड़े हुए बाल और टूटे हुए दांतों के कारण घड़े के समान मुख वाले, विषम भांखों वाले, टेढ़ी नाक, भौंहें व प्रादि के कारण बीभत्स मुख वाले, सुजली कुष्ठ प्रादि के कारण उघड़ी हुई चमड़ी वाले, कसरे व खसरे के कारण तीले नखों से निरन्तर शरीर को खुजलाते रहने के कारण घावों से परिपूर्ण विकृत शरीर वाले, ऊबड़-खाबड़ प्रस्थिसंघियों एवं प्रसम अंगों के कारण विकृत प्राकृति वाले, दुर्बल, कुसंहनन, कुप्रमारण एवं हीन संस्थान के कारण प्रत्यन्त कुरूप, कुत्सित स्थान, शय्या और खानपान वाले, प्रशुचि के भण्डार, अनेक व्याधियों से पीड़ित, स्खलित विह्वल गति वाले, Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालचक्र का वर्णन भगवान् महावीर ६८७ निरुत्साही, सत्त्वहीन, विकृत चेष्टा वाले, तेजहीन, निरन्तर शीत, ताप और उष्ण, रूक्ष एवं कठोर वायु से पीड़ित, धूलिधूसरित मलिन अंग वाले, अपार क्रोध, मान, माया, लोभ एवं मोह वाले, दुखानुबन्धी दु:ख के भोगी, अधिकांशतः धर्म-श्रद्धा एवं सम्यक्त्व से भ्रष्ट होंगे।" "उन मनुष्यों का शरीरमान अधिक से अधिक एक हाथ के बराबर होगा, उनकी अधिक से अधिक आयु १६ अथवा २० वर्ष की होगी, बहुत से पुत्रों, न्यातियों और पौत्रों आदि के परिवार के स्नेहपाश में वे लोग प्रगाढ़ रूप से बँधे रहेंगे।" "वैताढ्य गिरि के उत्तर-दक्षिण में गंगा एवं सिन्धु नदियों के तटवर्ती ७२ बिलों में, अर्थात् उत्तरार्द्ध भरत में गंगा और सिन्धु नदी के तटवर्ती ३६ बिलों में तथा उसी प्रकार वैताढ्य गिरि के दक्षिण में अर्थात् दक्षिणार्द्ध भरत में गंगा एवं सिन्धु नदियों के तटवर्ती ३६ बिलों में केवल बीज रूप में मनुष्य एवं पशुपक्षी आदि प्राणी रहेंगे।" | ___"उस समय गंगा एवं सिन्धु नदियों का प्रवाह केवल रथ-पथ के बराबर रह जायगा और पानी की गहराई रथचक्र की धुरी के बराबर होगी। दोनों नदियों के पानी में मछलियों और कमों का बाहुल्य होगा और पानी कम होगा। सूर्योदय और सूर्यास्त बेला में वे लोग बिलों के अन्दर से शीघ्र गति से निकलेंगे। इन नदियों में से मछलियों और कछुओं को पकड़ कर तटवर्ती बाल मिट्टी में गाड़ देंगे। रात्रि की कड़कड़ाती सर्दी और दिन की चिलचिलाती धूप में वे मिट्टी में गाड़ी हुई मछलियाँ और कछुए पक कर उनके खाने योग्य हो जायेंगे। ___ "इस तरह २१,००० वर्ष के छठे बारे में मनुष्य केवल मछलियों और कछुनों से अपना उदर-भरण करेंगे।" "उस समय के निश्शील, निर्वत, गुणविहीन, मर्यादारहित, प्रत्याख्यानपौषध-उपवास प्रादि से रहित व प्राय: मांसभक्षी मनुष्य प्रायः नरक और तिर्यंच योनियों में उत्पन्न होंगे। इसी प्रकार उस समय के सिंह व्याघ्रादि पशु और ढंक, कंक आदि पक्षी भी प्रायः नरक और तियंच योनियों में उत्पन्न होंगे।" उत्सपिणीकाल "अवसर्पिणीकाल के दुषमा-दुषम नामक छठे आरे की समाप्ति पर उत्कर्षोन्मुख उत्सर्पिणीकाल प्रारम्भ होगा। उस उत्सपिणीकाल में प्रवसर्पिणीकाल की तरह छ पारे प्रतिलोम रूप से (उल्टे क्रम से) होंगे।" १ भगवती शतक, शतक ७, उद्देशा ६ । Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [उत्सर्पिणीकाल "उत्सर्पिणी काल का दुषमा-दुषम नामक प्रथम आरक अवसर्पिणीकाल के छठे आरे की तरह २१ हजार वर्ष का होगा । उसमें सब स्थिति उसी प्रकार की रहेगी जिस प्रकार की कि अवसर्पिणीकाल के छठे आरे में रहती है।" _ "उस प्रथम प्रारक की समाप्ति पर जब २१ हजार वर्ष का दुषम नामक दूसरा पारा प्रारम्भ होगा, तब शुभ समय का श्रीगणेश होगा । पुष्कर संवर्तक नामक मेघ निरन्तर सात दिन तक सम्पूर्ण भरतक्षेत्र पर मूसलाधार रूप में बरस कर पृथ्वी के ताप का हरण करेगा और फिर अन्यान्य मेघों से धान्य एवं औषधियों की उत्पत्ति होगी। इस प्रकार पुष्करमेघ, क्षीरमेघ, घृतमेघ, अमृतमेघ और रसमेघ सात-सात दिनों के अन्तर से अनवरत बरस कर सूखी धरती की तपन एवं प्यास बुझा कर उसे हरी भरी कर देंगे।" "भमि की बदली हई दशा देखकर गफावासी मानव गफाओं से बाहर प्रायेंगे और हरियाली से लहलहाती सस्यश्यामला धरती को देखकर हर्षविभोर हो उठेगे । वे लोग आपस में विचार-विमर्श कर मांसाहार का परित्याग कर शाकाहारी बनेंगे। वे लोग अपने समाज का नवगठन करेंगे और नये सिरे से ग्राम, नगर आदि बसायेंगे । शनैः-शनैः ज्ञान, विज्ञान, कला, शिल्प आदि की अभिवृद्धि होगी। २१ हजार वर्ष की अवधि वाले दषम नामक द्वितीय प्रारक की समाप्ति पर दुषमा-सुषम नामक तीसरा पारा प्रारम्भ होगा । वह बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर का होगा। उस प्रारक के तीन वर्ष साढ़े आठ मास बीतने पर उत्सपिरगीकाल के प्रथम तीर्थंकर का जन्म होगा। उस ततीय प्रारक में २३ तीर्थंकर, ११ चक्रवर्ती, ६ बलदेव, ६ वासुदेव और ६ प्रतिवासुदेव होंगे । उत्सपिणीकाल के इस दषमा-सूषम नामक पारे में अवसपिणीकाल के दुःषमा-सुषम नामक चतुर्थ प्रारे के समान सभी स्थिति होगी। अन्तर केवल इतना ही होगा कि अवसर्पिणीकाल में वर्ण, गन्ध, रूप, रस, स्पर्श, आयु, उन्सेध, बल, वीर्य आदि अनुक्रमशः अपकर्षोन्मुख होते हैं और उत्सर्पिणी में उत्कर्षोन्मुख । उत्सर्पिणीकाल का सुषमा-दुःषम नामक चतुर्थ प्रारक दो कोड़ाकोड़ी सागर का होगा । इस प्रारक के प्रारम्भ में उत्सर्पिणीकाल के चौबीसवें तीर्थंकर और बारहवें चक्रवर्ती होंगे ।' १ दूसरे पारे में ७ कुलकर होंगे, इस प्रकार का उल्लेख 'विविध तीर्थ कल्प' के २१ अपापा वृहत्कल्प' में है । स्थानांग में भी प्रथम तीर्थंकर को कुलकर का पुत्र बताया है। २ एक मान्यता यह भी है कि उत्सर्पिणीकाल के चतुर्थ प्रारक के प्रारम्भ में कुलकर होते हैं । यथा : "अण्णे पढंति । तिस्सेणं समाए पढ़मे तिभाये इमे पणरस कुलगरा समुप्पज्जिस्संति........ _ [जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, वक्ष० २, प० १६४, शान्तिचन्द्र गणि] Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्सर्पिणीकाल] भगवान् महावीर ६८६ इस चतुर्थ प्रारक का एक करोड़ पूर्व से कुछ अधिक समय बीत जाने पर कल्पवृक्ष उत्पन्न होंगे और तब यह भरतभूमि पुनः भोगभूमि बन जायगी। उत्सपिणीकाल के सुषम और सुषमा-सुषम नामक क्रमश: पाँचवें और छठे आरों में अवसर्पिणी के प्रथम दो पारों के समान ही समस्त स्थिति रहेगी। इस प्रकार अवसर्पिणी और उत्सपिणीकाल के छः-छः आरों को मिलाकर कुल बीस कोडाकोड़ी सागर का एक कालचक्र होता है। गौतम गणधर ने भगवान से एक और प्रश्न किया-"भगवन ! आपके निर्वारण के पश्चात् मुख्य-मुख्य घटनाएँ क्या होंगी ?" उत्तर में प्रभु ने फरमाया--"गौतम ! मेरे मोक्ष-गमन के तीन वर्ष साढ़े आठ मास पश्चात् दुःषम नामक पाँचवाँ पारा लगेगा। मेरे निर्वाण के चौसठ (६४) वर्ष पश्चात अन्तिम केवली जम्ब सिद्ध गति को प्राप्त होंगे। उसी समय मनःपर्यवज्ञान, परम अवधिज्ञान, पुलाकलब्धि, आहारक शरीर, क्षपकश्रेणी, उपशमश्रेणी, जिनकल्प, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय, यथाख्यातचारित्र, केवलज्ञान और मुक्तिगमन इन बारह स्थानों का भरतक्षेत्र से विलोप हो जायगा।" "मेरे निर्वाण के पश्चात् मेरे शासन में पचम आरे के अन्त तक २००४ युगप्रधान प्राचार्य होंगे । उनमें प्रथम प्रार्य सुधर्मा और अन्तिम दुःप्रसह होंगे।" "मेरे निर्वाण के १७० वर्ष पश्चात् प्राचार्य भद्रबाहु के स्वर्गारोहण के अनन्तर अन्तिम चार वर्ष पूर्व, समचतुरस्र संस्थान, वज्रऋषभनाराच संहनन और महाप्राणध्यान इन चार चीजों का भरतक्षेत्र से उच्छेद हो जायगा।" "मेरे निर्वाण के ५०० वर्ष पश्चात् प्राचार्य आर्य वज्र के समय में दसवाँ पूर्व और प्रथम संहनन-चतुष्क समाप्त हो जायेंगे।" "मेरे मोक्षगमन के अनन्तर पालक, नन्द, चन्द्रगुप्त आदि राजाओं के अवसान के पश्चात्, अर्थात् मेरे निर्वाण के ४७० वर्ष बीत जाने पर विक्रमादित्य नामक राजा होगा । पालक का राज्यकाल ६० वर्ष, (नव) नन्दों का राज्यकाल १५५ वर्ष, मौर्यों का १०८ वर्ष, पूष्यमित्र का ३० वर्ष, बलमित्र व भानुमित्र का राज्यकाल ६० वर्ष, नरवाहन का ४० वर्ष, गर्दभिल्ल का १३ वर्ष, शक का राज्यकाल ४ वर्ष और उसके पश्चात विक्रमादित्य का शासन होगा । सज्जन और स्वर्णपुरुष विक्रमादित्य पृथ्वी का निष्कंटक राज्य कर अपना संवत् चलायेगा।" Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९० जैन धर्म का मौलिक इतिहास उत्सपिणाकाल "मेरे निर्वाण के ४५३ वर्ष पश्चात् गर्दभिल्ल के राज्य का अन्त करने वाला कालकाचार्य होगा।' "विशेष क्या कहा जाय, बहुत से साधु भाँडों के समान होंगे, पूर्वाचार्यों से परम्परागत चली आ रही समाचारी का परित्याग फर अपनी कपोलकल्पना के अनसार समाचारी और चारित्र के नियम बना-बना कर उस समय के अल्पज्ञ मनष्यों को विमुग्ध कर आगम के विपरीत प्ररूपणा करते हुए प्रात्मप्रशंसा और परनिन्दा में निरत रहेंगे। विपुल प्रात्मबल वालों की कोई पूछ नहीं रहेगी और आत्मबलविहीन लोग पूजनीय बनेंगे।" "इस प्रकार अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी रूप इस संसारचक्र में धर्माराधन करने वाले ही वस्तुतः कालचक्र को पार कर सिद्धि प्राप्त कर पायेंगे।" ___ भगवान् के द्वारा इस तरह संसार-भ्रमण और दुखों की भयंकरता का विवरण सुन हस्तिपाल आदि आदि अनेक भव्य प्रात्माओं ने निर्ग्रन्थ धर्म की शरण ली। इस वर्ष निर्ग्रन्थ प्रवचन का प्रचुर प्रचार एवं विस्तार हुमा' और अनेक भव्यात्माओं ने निर्ग्रन्थ-धर्म की श्रमण-दीक्षाएँ स्वीकार की। इस प्रकार वर्षाकाल के तीन महीने बीत गये । चौथे महीने में कार्तिक कृष्णा अमावस्या के प्रातःकाल ‘रज्जुग सभा' में भगवान् के मुखारविन्द से अन्तिम उपदेशामृत की अनवरत वृष्टि हो रही थी। सभा में काशी, कोशल के नौ लिच्छवी, नौ मल्ल एवं अठारह गणराजा भी उपस्थित थे। शक्र द्वारा प्रायुवद्धि की प्रार्थना प्रभु के मोक्ष समय को निकट जानकर शक्र वन्दन करने को आया और अंजलि जोड़कर बोला-"भगवन् ! आपके जन्मकाल में जो उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र था, उस पर इस समय भस्मग्रह संक्रान्त होने वाला है, जो कि जन्म-नक्षत्र १ तह गद्दभिल्लरज्जस्सुठायगो कालगायरियो होही । तेवण्ण चउसएहिं, गुणसवकलिभो सुअपउत्तो।। २ विविध ती० क०, २० कल्प, अभिधान राजेन्द्र, चौथा भाग, पृ० २६०१ । ३ महावीर चरित्र, हेमचन्द्र सूरिकृत । ४ रज्जुगा-लेहगा, तेसि सभा रज्जुयसभा, अपरिमुज्जमाण करणसाला । -कल्पसूत्र, सू० १२२ । (टीका) Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१ परिनिर्वाण भगवान् महावीर पर दो हजार वर्ष तक रहेगा । अतः उसके संक्रमणकाल तक माप प्रायु को बढ़ा लें तो वह निष्फल हो जायेगा।" । भगवान् ने कहा-"इन्द्र ! प्रायु के घटाने-बढ़ाने की किसी में शक्ति नहीं है।' ग्रह तो केवल आगामी काल में शासन की जो गति होने वाली है, उसके दिग्दर्शक मात्र हैं।" इस प्रकार इन्द्र की शंका का समाधान कर भगवान ने उसे संतुष्ट कर दिया। परिनिर्वाण भगवान् महावीर का कार्तिक कृष्णा अमावस्या की पिछली रात्रि में निर्वाण हुमा, उस समय तक सोलह प्रहर जितने दीर्घकाल पर्यंत प्रभु अनन्त बली होने के कारण बिना खेद के प्रवचन करते रहे। प्रभु ने अपनी इस मन्तिम देशना में पुण्यफल के पचपन अध्ययनों का और पापफल विपाक के पचपन . अध्ययनों का कथन किया, जो वर्तमान में सुख विपाक और दुःख विपाक नाम से विपाक सूत्र के दो खंडों में प्रसिद्ध हैं। भगवान महावीर ने इस प्रन्तिम देशना में अपृष्ट व्याकरण के छत्तीस अध्ययन भी कहे', जो वर्तमान में उत्तराध्ययन सूत्र के रूप में प्रख्यात हैं। सेंतीसवा प्रधान नामक मरदेवी का अध्ययन फरमातेफरमाते भगवान् पर्यकासन में स्थिर हो गये। भगवान ने बादर काययोग में स्थित रह क्रमशः बादर मनोयोग और बादर वचनयोग का निरोध किया, फिर सूक्ष्म काययोग में स्थित रह बादर काययोग को रोका, वाणी और मन के सूक्ष्म योग को रोका । शुक्लध्यान के सूक्ष्म क्रिया प्रप्रतिपाती तीसरे चरण को प्राप्त कर सूक्ष्म काययोग का निरोष किया और समुच्छिन क्रिया पनिवृत्ति नाम के चौथे चरण में पहुँच अ, इ, उ, ऋ, और ल इन पांच अक्षरों को उच्चारण करें, १ (क) भयवं कुणह पसायं, विगमह एयंपि ताव सरगमेक्कं। जावेस भासरासिस्स, नूणभुवमो प्रवक्कमह ॥१॥ महावीर १०, प्रस्ता०८, प. ३३८ । (ख) मह जय गुरुणा भरिणयं सुरिंद, तीयाइतिविहकामेऽपि । नो भूयं न भविस्सइ न हवइ नूणं इमं कज्ज । जं पाऊकम्म विगमेऽवि, कोऽवि पच्छेज्ज समयमेसमवि मच्चताणतविसिट्ठसत्तिपम्भारजुत्तोऽवि । २ (क) समवा०, ५५वा समवाय (स) कल्पसूत्र, १४७ सू० ३ (क) कल्पसूत्र, १४७ सू० (ख) उत्तराध्ययन चूरिण, पत्र २८३ । ४ संपलिग्रंक निसणे...... समवायांग । Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [परिनिर्वाण जितने काल तक शैलेशी-दशा में रहकर चार अघातिकर्मों का क्षय किया और सिद्ध, बुद्ध, मुक्त अवस्था को प्राप्त हो गये ।' उस समय वर्षाकाल का चौथा मास और सातवाँ पक्ष अर्थात् कार्तिक कृष्ण पक्ष की चरम रात्रि अमावस्या थो। निर्वाणकाल में प्रभु महावीर छट्ठभक्त (बेले) की तपस्या से सोलह प्रहर तक देशना करते रहे । २ देशना के मध्य में कई प्रश्न और चर्चाएँ भी हुईं। प्रभु महावीर ने अपना निर्वाण-समय सन्निकट जान प्रथम गणधर इन्द्रभूति को, देवशर्मा नामक ब्राह्मण को प्रतिबोध देने के लिए अन्यत्र भेज दिया। अपने चिर-अन्तेवासी गौतम को दूर भेजने का कारण यह था कि भगवान् के निर्वाण के समय गौतम अधिक स्नेहाकुल न हों । इन्द्रभूति ने भगवान् की आज्ञा के अनसार देव शर्मा को प्रतिबोध दिया। प्रतिबोध देने के पश्चात् वे प्रभु के पास लौटना चाहते थे पर रात्रि हो जाने के कारण लौट नहीं सके । अर्द्धरात्रि के पश्चात उन्हें भगवान के निर्वाण का संवाद मिला। भगवान के निर्वाण को सुनते ही इन्द्रभूति अति खिन्न हो गये और स्नेह-विह्वल हो कहने लगे-"भगवन् ! यह क्या ? आपने मुझे इस अन्तिम समय में अपने से दूर क्यों किया ! क्या मैं आपको मोक्ष जाने से रोकता था, क्या मेरा स्नेह सच्चा नहीं था अथवा क्या मैं आपके साथ होकर मुक्ति में आपका स्थान रोकता ? अब मैं किसके चरणों में प्रणाम करूंगा और कहाँ अपनी मनोगत शंकाओं का समाधान प्राप्त करूंगा? प्रभो ! अब मुझे "गौतम" "गौतम" कौन कहेगा ?" इस प्रकार भावना-प्रवाह में बहते-बहते गौतम ने स्वयं को सम्हाला और विचार किया- "अरे ! यह मेरा कैसा मोह ? भगवान् तो वीतराग हैं, उनमें कैसा स्नेह ! यह तो मेरा एकपक्षीय मोह है । क्यों नहीं मैं भी प्रभु चरणों का अनुगमन करूं, इस नश्वर जगत् के दृश्यमान पदार्थों में मेरा कौन है ?" इस प्रकार चिन्तन करते हुए गौतम ने उसी रात्रि के अन्त में घाती कर्मों का क्षय कर क्षण भर में केवलज्ञान के अक्षय आलोक को प्राप्त कर लिया । वे त्रिकालदर्शी हो गये। ___ गौतम के लिए कहा जाता है कि एक बार अपने से छोटे साधुओं को केवलज्ञान से विभूषित देखकर उनके मन में बड़ी चिन्ता उत्पन्न हुई और वे सोचने लगे कि उन्हें अभी तक केवलज्ञान किस कारण से प्राप्त नहीं हुआ है। १ कल्पसूत्र, सू० १४७ । २ सौभाग्य पंचम्यादि पर्वकथा संग्रह, पृ० १०० । 'षोडश प्रहरान् यावद् देशनां दत्तवान् ।" ३ जं रयरिंग च णं समणे भगवं महावीरे कालगए जाव सव्वदुक्ख पहीणे तं रयरिंण च णं जेठ्ठस्स गोयमस्स इंदभूइस्स......"केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने । [कल्पसूत्र, सूत्र १२६-सिवाना संस्करण] Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिनिर्वाण] भगवान् महावीर ६६३ घट-घट के अन्तर्यामी प्रभ महाबीर ने अपने प्रमुख शिष्य गौतम की उस चिन्ता को समझ कर कहा- "गौतम ! तुम्हारा मेरे प्रति प्रगाढ़ स्नेह है। अनेक भवों से हम एक दूसरे के साथ रहे हैं । यहाँ से प्रायु पूर्ण कर हम दोनों एक ही स्थान पर पहुंचेंगे और फिर कभी एक दूसरे से विलग नहीं होंगे। मेरे प्रति तुम्हारा यह धर्मस्नेह ही तुम्हारे लिये केवलज्ञान की प्राप्ति को रोके हुए हैं। स्नेहराग के क्षीण होने पर तुम्हें केवलज्ञान की प्राप्ति अवश्य होगी।" प्रभु का अन्तिम निर्णय सुनकर गौतम उस समय अत्यन्त प्रसन्न हुए थे। भगवान के निर्वाण के समय समवसरण में उपस्थित गण-राजाओं ने भावभीने हृदय से कहा-"अहो ! आज संसार से वस्तुतः भाव उद्योत उठ गया, अब द्रव्य प्रकाश करेंगे।" कार्तिक कृष्णा अमावस्या की जिस रात को श्रमण भगवान महावीर काल-धर्म को प्राप्त हुए, जन्म, जरा-मरण के सब बन्धनों को नष्ट कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए, उस समय चन्द्र नाम का संवत्सर, प्रीतिवर्द्धन नाम का मास और नन्दिवर्द्धन नाम का पक्ष था । दिन का नाम 'अग्निवेश्म' या 'उपशम' था। देवानन्दा रात्रि और अर्थ नाम का लव था। महर्त नाम का प्राण प्रौर सिद्ध नाम का स्तोक था । नागकरण और सर्वार्थसिद्ध महर्त में स्वाति-नक्षत्र के योग में जब भगवान् षष्ठ-भक्त के तप में पर्यकासन से विराजमान थे, सिद्ध बुद्ध-मुक्त हो गये। देवादिकृत शरीर-किया भगवान् का निर्वाण हुमा जान कर स्वर्ग से शक प्रादि इन्द्र, सहस्रों देवदेवियाँ एवं स्थान-स्थान से नरेन्द्रादि सभी वर्गों के अपरिमेय जनौघ उद्वेलित समुद्र के समान पावापुरी में राजा हस्तिपाल की रज्जुग सभा की ओर उमड़ पड़े और अश्रुपूर्ण नयनों से भगवान् के पाथिव शरीर को शिविका में विराजमान कर चितास्थान पर ले गये । वहाँ देवनिर्मित गोशीर्ष चन्दन की चिता में प्रभु के शरीर को रखा गया। अग्निकुमार द्वारा अग्नि प्रज्वलित की गई और वायुकुमार ने वायु संचारित कर सुगन्धित पदार्थों के साथ प्रभु के शरीर की दाह-क्रिया सम्पन्न की। फिर मेघकुमार ने जल बरसा कर चिता शान्त की। निर्वाणकाल में उपस्थित अठारह गरण-राजाओं ने अमावस्या के दिन .. पौषध, उपवास किया और प्रभु निर्वाणानन्तर भाव उद्योत के उठ जाने से महावीर के ज्ञान के प्रतीक रूप से संस्मरणार्थ द्रव्य-प्रकाश करने का निश्चय किया, चहुं ओर ग्राम-ग्राम, नगर-नगर और डगर-डगर में घर-घर दीप जला कर प्रभु द्वारा लोक में केवलज्ञान द्वारा किये गये अनिर्वचनीय उद्योत की स्मति Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् महावीर की प्रायु में दीप-महोत्सव के रूप में जनगण ने द्रव्योद्योत किया । उस दिन जब दीप जला कर प्रकाश किया गया तभी से दीपावली पर्व प्रारम्भ हुना, जो कार्तिक कृष्णा प्रमावस्या को प्रति वर्ष बड़ी धूम-धाम के साथ आज भी मनाया जाता है।' भगवान महावीर की प्रायु श्रमण भगवान महावीर तीस वर्ष गृहवास में रहे । साधिकद्वादश वर्ष छद्मस्थ-पर्याय में साधना की और कुछ कम तीस वर्ष केवली रूप से विचरे। इस तरह सम्पूर्ण बयालीस वर्ष का संयम पाल कर बहत्तर वर्ष की पूर्ण प्राय में प्रभु मुक्त हुए । समवायांग में भी बहत्तर वर्ष का सब आयु भोग कर सिद्ध होने का उल्लेख है । छद्मस्थ पर्याय का कालमान स्थानांग में निम्न प्रकार से स्पष्ट किया गया है-बारह वर्ष और तेरह पक्ष छद्मस्थ पर्याय का पालन किया और १३ पक्ष कम ३० वर्ष केवली पर्याय में रहे । पूर्ण आयु सब में बहत्तर वर्ष मानी गई है। भगवान् महावीर के चातुर्मास श्रमण भगवान् महावीर ने अस्थिग्राम में प्रथम चातुर्मास किया। चम्पा पौर पृष्ठ चम्पा में तीन (३) चातुर्मास किये । वैशाली नगरी और बाणिज्य ग्राम में प्रभु के बारह (१२) चातुर्मास हुए । राजगृह और उसके उपनगर नालंदा में चौदह (१४) चातुर्मास हुए । मिथिला नगरी में भगवान् ने छ (६) चातुर्मास" किये । भड्डिया नगरी में दो, आलंभिका और सावत्थी में एक एक चातुर्मास हुआ । वज्रभूमि (अनार्य) में एक चातुर्मास और पावापुरी में एक अंतिम इस प्रकार कुल बयालीस चातुर्मास किये। भगवान् महावीर का धर्म-परिवार भगवान् महावीर ने चतुर्विध संघ में निम्नलिखित धर्म-परिवार था :-- गणधर एवं गण-गौतम इन्द्रभूति प्रादि ग्यारह (११) गणधर और नव (९) गण १ (क) गते से भावुज्जोये दवज्जोयं करिस्सामो ॥ कल्प सू., सू० १२७ (शिवाना सं.) (ख) ततस्तु लोकः प्रतिवर्षमादराद्, प्रसिद्ध दीपावलिकात्र भारते । -त्रि०, १० १० १३ स० १४८ श्लो० (हरिवंश) (ग) एवं सुरगणपहामुज्जयं तस्सि दिणे सयलं महीमंडखं दळूण तहच्चेव कीरमाणे जणवएण 'दीवोसवो' ति पासिदि गमो। च. म., पृ. ३३४ । २ समवायांग, समवाय ७२ ३ स्थानांग, ६ स्था० ३ ० ० ६९३ । दुवालस संवन्धरा तेरस पास घउमत्य० ॥ (अमोलक ऋषि द्वारा अनूषित, पृष्ठ ८१६) Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु गणपर भगवान् महावीर केवली ___सात सौ (७००) मनःपर्यवज्ञानी पांच सौ (५००) अवधिज्ञानी तेरह सौ (१,३००) चौदह पूर्वधारी तीन सौ (३००) वादी चार सी (४००) वैक्रिय लब्धिधारी सात सौ (७००) अनुत्तरोपपातिक मुनि पाठ सौ (८००) चौदह हजार (१४,०००) साध्वियाँ चन्दना प्रादि छत्तीस हजार (३६,०००) श्रावक शंख प्रादि एक लाख उनसठ हजार (१,५६,०००) श्राविकाएं सुलसा, रेवती प्रभृत्ति तीन लाख अठारह हजार (३,१८,०००) भगवान् महावीर के शासन में सात सौ साधुनों और चौदह सौ साध्वियों ने निर्वाण प्राप्त किया। यह तो केवल व्रतधारियों का ही परिवार है । इनके अतिरिक्त प्रभु के लाखों भक्त थे। गरणपर श्रमण भगवान् महावीर के धर्म-परिवार में नौ गण और ग्यारह गणधर थे जो इस प्रकार हैं-(१) इन्द्रभूति, (२) अग्निभूति, (३) वायुभूति (४) व्यक्त, (५) सुधर्मा, (६) मंडित, (७) मौर्यपुत्र, (८) प्रकम्पित, (६) अचलभ्राता, (१०) मेतार्य और (११) श्री प्रभास ।। ये सभी गृहस्थ-जीवन में विभिन्न क्षेत्रों के निवासी जातिमान् ब्राह्मण थे। मध्यम पावा के सोमिल ब्राह्मण का आमन्त्रण पाकर अपने-अपने छात्रों के साथ ये वहां के यज्ञ में आये हुए थे। केवलज्ञान प्राप्त हो जाने पर भगवान् भी पावापुरी पधारे और यज्ञस्थान के उत्तर भाग में विराजमान हुए । इन्द्रभूति प्रादि विद्वान् भी समवशरण की महिमा से आकर्षित हो भगवान की सेवा में पाये और अपनी-अपनी शंकामों का समाधान पाकर वैशाख शुक्ला एकादशी के दिन अपने शिष्य-मंडल के साथ भगवान् महावीर के चरणों में दीक्षित हुए। त्रिपदी का ज्ञान प्राप्त कर इन्होंने चतुर्दश पूर्व की रचना की और गणधर कहलाये। उनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है १ समवायांग, समवाय ११। Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [इन्द्रभूति १. इन्द्रभूति प्रथम गणधर इन्द्रभूति मगध देश के अन्तर्गत 'गोबर' ग्रामवासी गौतम गोत्रीय वसुभूति ब्राह्मण के पुत्र थे। इनकी माता का नाम पृथ्वी था। ये वेदवेदान्त के पाठी थे । महावीर स्वामी के पास आत्मा विषयक संशय की निवृत्ति पाकर ये पांच सौ छात्रों के साथ दीक्षित हुए। दीक्षा के समय इनको अवस्था ५० वर्ष की थी। इनका शरीर सुन्दर, सुडौल और सुगठित था । महावीर के चौदह हजार साधुओं में मुख्य होकर भी आप बड़े तपस्वी थे। आपका विनय गुण भी अनुपम था। भगवान् के निर्वाण के बाद आपने केवलज्ञान प्राप्त किया। तीस वर्ष तक छद्मस्थ-भाव रहने के पश्चात् फिर बारह वर्ष केवली-पर्याय में विचरे । प्रायुकाल निकट देखकर अन्त में अपने गुणशील चैत्य में एक मास के अनशन से निर्वाण प्राप्त किया । इनकी पूर्ण प्रायु बाणवें वर्ष की थी। २. अग्निभूति दूसरे गणधर अग्निभूति इन्द्रभूति के मझले सहोदर थे। 'पुरुषावत' की शंका दूर होने पर इन्होंने भी पांच सौ छात्रों के साथ ४६ वर्ष की अवस्था में श्रमण भगवान् महावीर की सेवा में मनि-धर्म स्वीकार किया और बारह वर्ष तक छद्मस्थ-भाव में रह कर केवलज्ञान प्राप्त किया। सोलह वर्ष केवली-पर्याय में रहकर इन्होंने भगवान् के जीवनकाल में ही गुणशील चैत्य में एक मास के अनशन से मुक्ति प्राप्त की। इनकी पूर्ण आयु चौहत्तर वर्ष की थी।' ३. वायुभूति तीसरे गणधर वायुभूति भी इन्द्रभूति तथा अग्निभूति के छोटे सहोदर थे । इन्द्रभूति की तरह इन्होंने भी 'तज्जीव तच्छरीर-वाद' को छोड़ कर भगवान महावीर से भूतातिरिक्त आत्मा का बोध पाकर पांच सौ छात्रों के साथ प्रभ की सेवा में दीक्षा ग्रहण की । उस समय इनकी अवस्था बयालीस वर्ष की थी । दश वर्ष छद्मस्थभाव में साधना करके इन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया और ये अठारह वर्ष तक केवली रूप से विचरते रहे। भगवान महावीर के निर्वाण से दो वर्ष पहले एक मास के अनशन से इन्होंने भी सत्तर [७०] वर्ष की अवस्था में गुरणशील चैत्य में सिद्धि प्राप्त की। ४. प्रार्य व्यक्त चौथे गणधर मार्य व्यक्त कोल्लाग सन्निवेश के भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनकी माता का नाम वारुणी और पिता का नाम धनमित्र था । इन्हें शंका १ मावश्यक नियुक्ति, गाथा ६५६, पृ० १२३ (१) Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रार्य व्यक्त भगवान् महावीर ६९७ थी कि ब्रह्म के अतिरिक्त सारा जगत मिथ्या है । भगवान महावीर से अपनी शंका का सम्यक समाधान पाकर इन्होंने भी पाँच सौ छात्रों के साथ पचास वर्ष की वय में प्रभु के पास धमण-दीक्षा ग्रहण की। बारह वर्ष तक छद्मस्थ साधना करके इन्होंने भी केवलज्ञान प्राप्त किया और अठारह वर्ष तक केवली-पर्याय में रहकर भगवान् के जीवनकाल में ही एक मास के अनशन से गुणशील चैत्य में अस्सी वर्ष की वय में सकल कर्म क्षय कर मुक्ति प्राप्त की। ५. सुधर्मा पंचम गणधर सुधर्मा 'कोल्लाग' सन्निवेश के अग्नि वेश्यायन गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनकी माता का नाम भद्दिला और पिता का नाम धम्मिल था। इन्होंने भी जन्मान्तर विषयक संशय को मिटाकर भगवान् के चरणों में पांच सौ छात्रों के साथ दीक्षा ग्रहण की। ये ही भगवान् महावीर के उत्तराधिकारी आचार्य हुए। ये वीर निर्वाण के बीस वर्ष बाद तक संघ की सेवा करते रहे। अन्यान्य सभी गणधरों ने दीर्घजीवी समझ कर इनको ही अपने-अपने गण सँभला दिये थे। आप ५० वर्ष गहवास में एवं ४२ वर्ष छद्मस्थ-पर्याय में रहे और ७ वर्ष केवली रूप से धर्म का प्रचार कर १०० वर्ष की पूर्ण प्रायु में राजगह नगर में मोक्ष पधारे। ६. मंडित छठे गणधर मंडित मौर्य सन्निवेश के वसिष्ठ गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम धनदेव और माता का नाम विजया देवी था । भगवान महावीर से आत्मा का संसारित्व समझ कर इन्होंने भी गौतम आदि की तरह तीन सौ पचास ३५० छात्रों के साथ श्रमण-दीक्षा ग्रहण की। दीक्षाकाल में इनकी अवस्था तिरेपन वर्ष की थी। चौदह वर्ष साधना कर सड़सठ [६७] वर्ष की अवस्था में इन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया। भगवान् के निर्वाण-पूर्व इन्होंने भी सोलह वर्ष केवली-पर्याय में रह कर तिरासी [८३] वर्ष की अवस्था में गुणशील चैत्य में अनशनपूर्वक मुक्ति प्राप्त की। ७. मौर्यपुत्र सातवें गणधर मौर्यपुत्र मौर्य सन्निवेश के काश्यप गोत्रीय ब्राह्मण थे । इनके पिता का नाम मौर्य और माता का नाम विजया देवी था । देव और देवलोक सम्बन्धी शंका की निवत्ति होने पर इन्होंने भी तीन सौ पचास [३५०] छात्रों के साथ पैसठ वर्ष की वय में श्रमण दीक्षा स्वीकार की। १४ वर्ष छद्मस्थ भाव में रहकर उन्हासी [७६] वर्ष की अवस्था में इन्होंने तपस्या से केवलज्ञान प्राप्त किया और सोलह वर्ष तक केवली पर्याय में रहकर भगवान् के सामने ही Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भकम्पित पचानवे [६५] वर्ष की अवस्था में गुणशील चैत्य में अनशनपूर्वक निर्वाण प्राप्त किया। ८. अकम्पित आठवें गणधर अकम्पित मिथिला के रहने वाले, गौतम गोत्रीय ब्राह्मण थे । आपकी माता का नाम जयन्ती और पिता का नाम देव था। नरक और नारकीय जीव सम्बन्धी संशय-निवृत्ति के बाद इन्होंने भी अड़तालीस वर्ष की अवस्था में अपने तीन सौ शिष्यों के साथ भगवान् महावीर की सेवा में श्रमणदीक्षा स्वीकार की। ९ वर्ष तक छप्रस्थ रहकर सत्तावन वर्ष की अवस्था में इन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया और इक्कीस वर्ष केवली-पर्याय में रह कर प्रभु के जीवन के अन्तिम वर्ष में गुणशील चैत्य में एक मास का अनशन पूर्ण कर अठहत्तर वर्ष की अवस्था में निर्वाण प्राप्त किया। ९. प्रचलभ्राता नवें गणधर अचल भ्राता कोशला निवासी हारीत गोत्रीय ब्राह्मण थे। आपकी माता का नाम नन्दा और पिता का नाम वसू था। पूण्य-पाप सम्बन्धी अपनी शंका निवृत्ति के बाद इन्होंने भी छियालीस वर्ष की अवस्था में तीन सौ छात्रों के साथ भगवान महावीर की सेवा में श्रमण दीक्षा स्वीकार की। बारह वर्ष पर्यन्त तीव्र तप एवं ध्यान कर अट्ठावन वर्ष की अवस्था में आपने केवलज्ञान प्राप्त किया और चौदह वर्ष केवली-पर्याय में रह कर बहत्तर वर्ष की वय में एक मास का अनशन कर गुरणशील चैत्य में निर्वाण प्राप्त किया। १०. मेतार्य दसवें गणधर मेतार्य वत्स देशान्तर्गत तुंगिक सन्निवेश के रहने वाले कौडिन्य गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनकी माता का नाम वरुणा देवी और पिता का नाम दत्त था। इनको पुनर्जन्म सम्बन्धी शंका थी। भगवान महावीर से समाधान प्राप्त कर तीन सौ छात्रों के साथ छत्तीस वर्ष की अवस्था में इन्होंने भी श्रमण-दीक्षा स्वीकार की। दश वर्ष की साधना के बाद छियालीस वर्ष की अवस्था में इन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुप्रा और सोलह वर्ष केवली-पर्याय में रह कर भगवान के जीवनकाल में ही बासठ वर्ष की अवस्था में गुणशील चैत्य में इन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। ११. प्रभास ग्यारहवें गणधर प्रभास राजगृह के रहने वाले, कौडिन्य गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनकी माता का नाम 'प्रतिभद्रा' और पिता का नाम बल था। मुक्ति विषयक शंका का प्रभु महावीर द्वारा समाधान हो जाने पर इन्होंने भी तीन सौ Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ इन्द्रभूति] भगवान् महावीर शिष्यों के साथ सोलह वर्ष की अवस्था में भगवान महावीर का शिष्यत्व स्वीकार किया। आठ वर्ष बाद चौबीस वर्ष की अवस्था में इन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ और सोलह वर्ष तक केवली-पर्याय में रहकर चालीस वर्ष की वय में गुणशील चैत्य में एक मास का अनशन कर इन्होंने भगवान् के जीवनकाल में ही निर्वाण प्राप्त किया। सबसे छोटी आयु में दीक्षित होकर केवलज्ञान प्राप्त करने वाले ये ही एक गणधर हैं । ये सभी गणधर जाति से ब्राह्मण और वेदान्त के पारगामी पण्डित थे व इन सबका संहनन वव ऋषभ नाराच तथा समचतुरस्र संस्थान था। दीक्षित होकर सबने द्वादशांग का ज्ञान प्राप्त किया, अतः सब चतुर्दश पूर्वधारी एवं विशिष्ट लब्धियों के धारक थे।' दिगम्बर परम्परा में गौतम प्रादि का परिचय दिगम्बर परम्परा के मंडलाचार्य धर्मचन्द्र ने अपने ग्रन्थ “गौतम चरित्र" में प्रभु महावीर के प्रथम तीन गणधरों का परिचय दिया है, जिसका सारांश इस प्रकार है : इन्द्रभूति मगध प्रदेश के ब्राह्मणनगर ग्राम में शाण्डिल्य नामक एक विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण रहता था। शाण्डिल्य के स्थंडिला और केसरी नाम की दो धर्मपत्नियाँ थीं, जो रूप-लावण्य-गुणसम्पन्ना एवं पतिपरायणाएं थीं। __ एक समय रात्रि के अन्तिम प्रहर में सुखप्रसुप्ता स्थण्डिला ने शुभ स्वप्न देखे और पंचम देवलोक का एक देव देवाय पूर्ण कर उसके गर्भ में पाया । गर्भकाल पूर्ण होने पर माता स्थण्डिला ने एक अति सौम्य एवं प्रियदर्शी पुत्र को जन्म दिया। बालक महान् पुण्यशाली था, उसके जन्म के समय सुखद, शीतल, मन्द-मन्द सुगन्धित पवन प्रवाहित हुआ, दिशाएँ निर्मल एवं प्रकाशपूर्ण हो गई और दिव्य जयघोषों से गगन गुजरित हो उठा। विद्वान् ब्राह्मण शाण्डिल्य ने पुत्र-जन्म के उपलक्ष्य में बड़े हर्षोल्लास के साथ मुक्तहस्त हो याचकों को यथेप्सित दान दिया। नवजात शिशु की जन्म-कुण्डली देख भविष्यवाणी की कि यह बालक आगे चल कर चौदह विद्यानों का निधान एवं सकल शास्त्रों का पारगामी विद्वान् बनेगा और निखिल महीमण्डल में इसका यश प्रसृत होगा । मातापिता ने उस बालक का नाम इन्द्रभूति रखा। प्रग्निभूति कुछ समय पश्चात् पंचम स्वर्ग का एक और देव अपनी देवायु पूर्ण होने १ प्राव. नि., गाथा ६५८-६६० Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [वायुभूति पर ब्राह्मणी स्थण्डिला के गर्भ में आया। जिस समय बालक इन्द्रभूति था, उस समय माता स्थण्डिला ने गर्भकाल पूर्ण होने पर एक महान् तेजस्वी एवं सुन्दर पूत्र को जन्म दिया। माता-पिता ने अपने इस द्वितीय पुत्र का नाम गार्ग्य रखा। यही बालक आगे चल कर अग्निभूति के नाम से विख्यात हुआ। वायुभूति कालान्तर में शाण्डिल्य की द्वितीय पत्नी केसरी के गर्भ में भी पंचम स्वर्ग से च्युत एक देव उत्पन्न हुआ। समय पर केसरी ने भी पुत्ररत्न को जन्म दिया। शाण्डिल्य ने अपने उस तीसरे पुत्र का नाम भार्गव रखा। वही बालक भार्गव आगे चल कर लोक में वायुभूति के नाम से विश्रुत हुआ। एक बहुत बड़ा भ्रम भगवान महावीर के छठे गणधर मंडित और सातवें गणधर मौर्यपत्र के सम्बन्ध में पूर्वकालीन कुछ आचार्यों और वर्तमान काल के कुछ विद्वानों ने यह मान्यता प्रकट की है कि वे दोनों सहोदर थे। उन दोनों की माता एक थी जिसका कि नाम विजयादेवी था। आर्य मण्डित के पिता का नाम धनदेव और आर्य मौर्यपुत्र के पिता का नाम मौर्य था । आर्य मण्डित को जन्म देने के कुछ काल पश्चात् विजयादेवी ने अपने पति धनदेव का निधन हो जाने पर धनदेव के मौसेरे भाई मौर्य के साथ विवाह कर लिया और मौर्य के साथ दाम्पत्य जीवन बिताते हुए विजयादेवी ने दूसरे पुत्र को जन्म दिया। मौर्य का अंगज होने के कारण बालक का नाम मौर्यपुत्र रखा गया। प्राचार्य हेमचन्द्र ने आर्य मण्डित और आर्य मौर्यपुत्र के माता-पिता का परिचय देते हुए 'त्रिपष्टि शलाका पुरुष चरित्र' में लिखा है : पत्न्यां विजयदेव्यां तु, धनदेवस्य नन्दनः । मण्डकोऽभूत्तत्र जाते, धनदेवो व्यपद्यत ॥५३ लोकाचारो ह्यसौ तत्रेत्यभार्यो मौर्यकोऽकरोत् । भार्या विजयदेवी तां, देशाचारो हि न ह्रिये ॥५४ क्रमाद् विजयदेव्यां तु मौर्यस्य तनयोऽभवत् । स च लोके मौर्यपुत्र इति नाम्नैव पप्रथे ।।५५ [त्रिष. श. पु. च., प. १०, स. ५] प्राचार्य जिनदासगणी ने भी 'पावश्यकचूणि' में इन दोनों गणधरों के सम्बन्ध में लिखा है :--- _..."तंमि चेव मगहा जणयते मोरिय सन्निवेसे मंडिया मोरिया दो भायरो।"........ [प्राव. चूणि, उपोद्घात पृ. ३३७ Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक बहुत बड़ा भ्रम ] भगवान् महावीर मुनि श्री रत्नप्रभ विजयजी ने Sramana Bhagwan Mahavira, Vol. V Part I Sthaviravali के पृष्ठ १३६ और १३७ पर मंडित एवं मौयंपुत्र की माता एक और पिता भिन्न-भिन्न बताते हुए यहां तक लिख दिया है कि उस समय मौर्य निवेश में विधवा विवाह निषिद्ध नहीं था। मुनि श्री द्वारा लिखित पंक्तियाँ यहाँ उद्धत की जाती हैं "Besides Sthavira Mandita and Sthavira Mauyraputra were brothers having one mother Vijayadevi, but have different gotras derived from the gotras of their different fathers-the father of Mandit was Dhanadeva of Vasistha-gotra and the father of Mauryaputra was Maurya of Kasyaqa-gotra, as it was not forbidden for a widowed female in that country, to have a re-marriage with another person, after the death of her former husband.,' ७०१ वास्तव में उपर्युक्त दोनों गणधरों की माता का नाम एक होने के कारण ही प्राचार्यों एवं विद्वानों की इस प्रकार की धारणा बनी कि इनकी माता एक थी और पिता भिन्न । उपर्युक्त दोनों गणधरों के जीवन के सम्बन्ध में जो महत्त्वपूर्ण तथ्य समवायांग सूत्र में दिये हुए हैं उनके सम्यग् अवलोकन से आचार्यों एवं विद्वानों द्वारा अभिव्यक्त की गई उपरोक्त धारणा सत्य सिद्ध नहीं होती । समवायांग सूत्र की तियासीवीं समवाय में आर्य मंडित की सर्वायु तियासी वर्ष बताई गई है । यथा : "थेरेरणं मंडियपुत्ते तेसीइं वासाइं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्ध जावप्पहीणे ।" समवायांग सूत्र की तीसवीं समवाय में प्रायं मंडित के सम्बन्ध में स्पष्ट उल्लेख है कि वे तीस वर्ष तक श्रमरणधर्म का पालन कर सिद्ध हुए । यथा : "थेरेणं मंडियपुत्ते तीसं वासाई सामण्णपरियायं पाउरिणत्ता सिद्ध बुद्ध जाव सव्वदुक्खपहीणे ।” सूत्र के मूल पाठ से यह निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है कि आर्य मंडित ने ५३ वर्ष की अवस्था में भगवान् महावीर के पास दीक्षा ग्रहरण की प्रार्य मौर्यपुत्र के सम्बन्ध में समवायांग सूत्र की पैंसठवीं समवाय में लिखा है कि उन्होंने ६५ वर्ष की अवस्था में दीक्षा ग्रहण की । यथा : "थेरेगं मोरियपुत्ते परणसट्ठिवासाइं प्रागारमज्झे वसित्ता मुडे भवित्ता प्रगारा अरणगारियं पव्वइये ।" Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [एक बहुत बड़ा भ्रम सभी ग्यारहों गणधरों ने एक ही दिन भगवान् महावीर के पास श्रमणदीक्षा ग्रहण की, यह तथ्य सर्वविदित है । उस दशा में यह कैसे संभव हो सकता है कि एक ही दिन दीक्षा ग्रहण करते समय बड़ा भाई ५३ वर्ष की अवस्था का हो और छोटा भाई ६५ वर्ष का, अर्थात् बड़े भाई से उम्र में १२ वर्ष बड़ा हो? स्वयं मुनि श्री रत्नप्रभ विजयजी ने अपने ग्रंथ Sramana Bhagvan Mahavira, Vol. IV Part I Sthaveravali' के पृष्ठ १२२ और१२४ पर दीक्षा के दिन आर्य मंडित की अवस्था ५३ वर्ष और प्रार्य मौर्यपुत्र की अवस्था ६५ वर्ष होने का उल्लेख किया यथा : "Gandhara Maharaja Mandita was fifty-three years old when he renounced the world........ After a period of fourteen years of ascetic life, Mandita acquired Kevala Gyana........and he acquired Moksha Pada........when he was eighty three years old." (p. 122) "Gandhara Maharaja Mauryaputra was sixty-five years old when he renounced the world........After a period of fourteen years of ascetic life, Ganadhara Mauryaputra acquired Kevala Gyana.......at the age of seventynine. Ganadhara Maharaja Mauryaputra remained a Kevali for sixteen years and he acquired Moksha Pada........when he was ninetyfive years old." (p. 124) इन सब तथ्यों से उपयुक्त प्राचार्यों की मान्यता केवल भ्रम सिद्ध होती है। वास्तव में ये सहोदर नहीं थे । प्राचार्य हेमचन्द्र ने भी आगमीय वयमान को लक्ष्य में नहीं रखते हुए केवल दोनों की माता का नाम एक होने के आधार पर ही दोनों को सहोदर मान लिया और 'लोकाचारो हि न हिये' लिख कर अपनी मान्यता का प्रौचित्य सिद्ध करने का प्रयास किया। मगवान् महावीर की प्रथम शिष्या भगवान् महावीर की प्रथम शिष्या एवं श्रमणीसंघ की प्रवर्तिनी महासती चन्दनबाला थी। - चन्दनबाला चम्पानगरी के महाराजा दधिवाहन और महारानी धारिणी की प्राणदुलारी पुत्री थी। माता-पिता द्वारा आपका नाम वसुमती रखा गया। महाराजा दधिवाहन के साथ कौशाम्बी के महाराजा शतानीक की किसी कारण से अनबन हो गई। शतानीक मन ही मन दधिवाहन से शत्रुता रख कर Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर की प्रथम शिष्या] भगवान् महावीर ७०३ चम्पा नगरी पर आक्रमण करने की टोह में रहने, लगा। दधिवाहन बड़े प्रजाप्रिय नरेश थे, अतः शतानीक ने अप्रत्याशित रूप से चम्पा पर अचानक आक्रमण करने की अभिलाषा से अपने अनेक गुप्तचर चम्पानगरी में नियुक्त किये। कुछ ही दिनों के पश्चात् शतानीक को अपने गुप्तचरों से ज्ञात हुमा कि चम्पा पर आक्रमण करने का उपयुक्त अवसरमा गया है, अत: चार-पांच दिन के अन्दर-अन्दर ही आक्रमण कर दिया जाय । शतानीक तो उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा में ही था । उसने तत्काल एक बड़ी सेना के साथ चम्पा पर धावा करने के लिये जलमार्ग से सैनिक अभियान कर दिया। तेज हवाओं के कारण शतानीक के जहाज बड़ी तीव्रगति से चम्पा की ओर बढ़े। एक रात्रि के अल्प समय में ही शतानीक अपनी सेनाओं के साथ चम्पा जा पहुंचा और सूर्योदय से पूर्व ही उसने चम्पा नगरी को चारों ओर से घेर लिया। इस अनभ्र वज्रपात से चम्पा के नरेश और नागरिक सभी अवाक रह गये । अपने आप को शत्रु के प्राकस्मिक आक्रमण का मुकाबला कर सकने की स्थिति में न पाकर दधिवाहन ने मन्त्रिपरिषद् की आपात्कालीन बैठक बुलाकर गुप्त मंत्रणा की। अन्त में मन्त्रियों के प्रबल अनुरोध पर दधिवाहन को गुप्त मार्ग से चम्पा को त्याग कर बीहड़ वनों की राह पकड़नी पड़ी। शतानीक ने अपने सैनिकों को खुली छूट दे दी कि चम्पा के प्राकारों एवं द्वारों को तोड़कर उस को लूट लिया जाय और जिसे जो चाहिये वह अपने घर ले जाय । इस प्राज्ञा से सैनिकों में उत्साह और प्रसन्नता की लहर दौड़ गई पौर वे द्वारों तथा प्राकारों को तोड़कर नगर में प्रविष्ट हो गये। ____ शतानीक की सेनामों ने यथेच्छ रूप से नगर को लूटा। महारानी धारिणी राजकुमारी वसुमती सहित शतानीक के एक सैनिक द्वारा पकड़ ली गई। वह उन दोनों को अपने रथ में डालकर कौशाम्बी की ओर द्रुत गति से लौट पड़ा। महारानी धारिणी के देवांगना तुल्य रूप-लावण्य पर मुग्ध हो सैनिक राह में मिलने वाले अपने परिचित लोगों से कहने लगा-"इस लूट में इस त्रैलोक्य सुन्दरी को पाकर मैंने सब कुछ पा लिया है । घर पहुंचते ही मैं इसे अपनी पत्नी बनाऊँगा।" इतना सुनते ही महारानी धारिणी क्रोध और घृणा से तिलमिला उठी। महान् प्रतापी राजा की पुत्री और चम्पा के यशस्वी नरेश दधिवाहन की राजमहिषी को एक अकिंचन व्यक्ति के मुंह से इस प्रकार की बात सुनकर वन से भी भीषण आघात पहुँचा। अपने सतीत्व. पर आँच पाने की आशंका से धारिणी सिहर उठी । उसने एक हाथ से अपनी जिह्वा को मुख से बाहर खींच Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [धारिणी के मरण का कारण कर दूसरे हाथ से अपनी ठुड्डी पर प्रति वेग से प्राघात किया। इसके परिणामस्वरूप वह तत्क्षण निष्प्राण हो रथ में गिर पड़ी ।' धारिणी के मरण का कारण-वचन या बलात् धारिणी के प्राकस्मिक अवसान से सैनिक को अपनी भूल पर प्रात्मग्लानि के साथ साथ बड़ा दुःख हुअा। उसे निश्चय हो गया कि किसी प्रत्युच्च कुल की कुलवधू होने के कारण वह उसके वाग्बाणों से माहत हो मृत्यु की गोद में सदा के लिये सो गई है। सैनिक ने इस आशंका से कि कहीं अधखिली पारिजात पुष्प की कली के समान यह सुमनोहर बालिका भी अपनी माता का अनुसरण न कर बैठे, उसने वसुमती को मृदु वचनों से आश्वस्त करने का प्रयास किया। राजकुमारी वसुमती को लिये वह सैनिक कौशाम्बी पहँचा और उसे विक्रय के लिये बाजार में चौराहे पर खड़ा कर दिया। धार्मिक कृत्य से निवृत्त हो अपने घर की ओर लौटते हुए धनावह नामक एक श्रेष्ठी ने विक्रय के लिये खड़ी बालिका को देखा। उसने कुसुम सी सुकुमार बालिका को देखते ही समझ लिया कि वह कोई बहुत बड़े कुल को कन्या है और दुर्भाग्यवश अपने मातापिता से बिछुड़ गई है। वह उसकी दयनीय दशा देखकर द्रवित हो गया और उसने सैनिक को महमांगा द्रव्य देकर उसे खरीद लिया। धनावह श्रेष्ठी वसुमती को लेकर अपने घर पहुंचा। उसने बड़े दुलार से उसके माता-पिता एवं उसका नाम पूछा, पर स्वाभिमानिनी वसुमती ने अपना नाम तक भी नहीं बताया। वह मौन ही रही । अन्त में लाचार हो धनावह ने उसे अपनी पत्नी को सौंपते हुए कहा-"यह बालिका किसी साधारण कुल की प्रतीत नहीं होती। इसे अपनी ही पुत्री समझ कर बड़े दुलार और प्यार से रखना" ___ श्रेष्ठिपत्नी मला ने अपने पति की आज्ञानुसार प्रारम्भ में वसुमती को अपनी पुत्री के समान ही रक्खा । वसुमती श्रेष्ठी परिवार में घुल-मिल गई। उसके मृदु सम्भाषण, व्यवहार एवं विनय प्रादि सद्गुणों ने श्रेष्ठी परिवार एवं भृत्य वर्ग के हृदय में दुलार भरा स्थान प्राप्त कर लिया। उसके चन्दन के समान शीतल सुखद स्वभाव के कारण वसुमती उसे श्रेष्ठी परिवार द्वारा चन्दना के नाम से पुकारी जाने लगी। १ प्राचार्य हेमचन्द्र ने शोकातिरेक से धारिणी के प्राण निकलने का उल्लेख किया है , देखिये-[त्रि. श. पु., पर्व १०, सं० ४, श्लो. ५२७] Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचन या बलात्] भगवान् महावीर ७०५ चन्दना ने जब कुछ समय बाद यौवन में पदार्पण किया तो उसका अनुपम सौन्दर्य शतगुणित हो उठा। उसकी कज्जल से भी अधिक काली केशराशि बढ़कर उसकी पिण्डलियों से अठखेलियां करने लगी । उस अपार रूपराशि को देखकर श्रेष्ठिपत्नी के हृदय का सोता हुया स्त्री-दौर्बल्य जग पड़ा। उसके अन्तर में कलुषित विचार उत्पन्न हुए और उसने सोचा-"यह अलौकिक रूपलावण्य की स्वामिनी किसी दिन मेरा स्थान छीन कर गृहस्वामिनी बन सकती है । मेरे पति इसे अपनी पुत्री मानते हैं, पर यदि उन्होंने कहीं इसके अलौकिक रूप-लावण्य पर विमोहित हो इससे विवाह कर लिया तो मेरा सर्वनाश सुनिश्चित है । अतः फूलने-फलने से पहले ही इस विषलता को मूलतः उखाड़ फेंकना ही मेरे लिये श्रेयस्कर है । दिन-प्रति-दिन मूला के हृदय में ईर्ष्या की अग्नि प्रचण्ड होती गई और वह चन्दना को अपनी राह से सदा के लिये हटा देने का उपाय सोचने लगी। एक दिन दोपहर के समय ग्रीष्म ऋतु की चिलचिलाती धूप में चल कर धनावह बाजार से अपने घर लौटा । उसने पैर धुलाने के लिये अपने सेवकों को पुकारा । पर संयोगवश उस समय कोई भी सेवक वहां उपस्थित नहीं था। धूप से श्रान्त धनावह को खड़े देख कर चन्दना जल की झारी ले सेठ के पैर धोने पहुंची। सेठ द्वारा मना करने पर भी वह उसके पैर धोने लगी। उस समय नीचे झुकने के कारण चन्दना का जूड़ा खुल गया और उसकी केशराशि बिखर गई। चन्दना के बाल कहीं कीचड़ से न सन जावें इस दृष्टि से सहज सन्ततिवात्सल्य से प्रेरित हो धनावह ने चन्दना की केशराशि को अपने हाथ में रही हुई यष्टि से ऊपर उठा लिया और अपने हाथों से उसका जूड़ा बाँध दिया। मला ने संयोगवश जब यह सब देखा तो उसने अपने सन्देह को वास्तविकता का रूप दे डाला और उसने चन्दना का सर्वनाश करने की ठान ली। थोड़ी ही देर पश्चात् श्रेष्ठी धनावह जब किसी कार्यवश दूसरे गाँव चला गया तो मूला ने तत्काल एक नाई को बुलाकर चन्दना के मस्तक को मुडित करवा दिया। मूला ने बड़ी निर्दयता से चन्दना को जी भर कर पीटा । तदनन्तर उसके हाथों में हथकड़ी एवं पैरों में बेड़ी डालकर उसे एक भँवारे में बन्द कर दिया और अपने दास-दासियों एवं कुटुम्ब के लोगों को सावधान कर दिया कि श्रेष्ठी द्वारा पूछने पर भी यदि किसी ने उन्हें चन्दना के सम्बन्ध में कुछ भी बता दिया तो वह उसका कोपभाजन बनेगा। चन्दना तीन दिन तक तलघर में भूखी प्यासी बन्द रही। तीसरे दिन जब धनावह घर लौटा तो उसने चन्दना के सम्बन्ध में पूछताछ की । सेवकों को मौन देखकर धनावह को शंका हुई और उसने क्रुद्ध स्वर में चन्दना के सम्बन्ध में सच-सच बात बताने के लिये कड़क कर कहा- "तुम लोग मूक की तरह चप क्यों हो, बतायो पुत्री चन्दना कहाँ है ?" Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [धारिणी के मरण का कारण इस पर एक वृद्धा दासी ने चन्दना की दुर्दशा से द्रवित हो साहस बटोर कर सारा हाल कह सुनाया। तलघर के कपाट खोलकर धनावह ने ज्यों ही चन्दना को उस दुर्दशा में देखा तो रो पड़ा। चन्दना के भूख और प्यास से मुआये हुए मुख को देखकर वह रसोईघर की ओर लपका। उसे सूप में कुछ उड़द के बाकलों के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिला। वह उसी को उठाकर चन्दना के पास पहुंचा और सूप चन्दना के समक्ष रखते हुए अवरुद्ध कण्ठ से बोला-"पुत्री, अभी तुम इन उड़द के बाकलों से ही अपनी भूख की ज्वाला को कुछ शान्त करो, मैं अभी किसी लोहार को लेकर आता हूँ।" यह कह कर धनावह किसी लोहार की तलाश में तेजी से बाजार की पोर निकला। भूख से पीड़ित होते हुए भी चन्दना ने मन में विचार किया-"क्या मुझ हतभागिनी को इस अति दयनीय विषम अवस्था में आज बिना अतिथि को खिलाये ही खाना पड़ेगा ? मध्याकाश से अब सूर्य पश्चिम की ओर ढल चुका है, इस वेला में अतिथि कहाँ ?" अपने दुर्भाग्य पर विचार करते-करते उसकी आँखों से अश्रुषों की अविरल धारा फूट पड़ी। उसने अतिथि की तलाश में द्वार की ओर देखा। सहसा उसने देखा कि कोटि-कोटि सूर्यो की प्रभा के समान देदीप्यमान मुखमण्डल वाले प्रति कमनीय, गौर, सुन्दर, सुडौल दिव्य तपस्वी द्वार में प्रवेश कर उसकी ओर बढ़ रहे हैं । हर्षातिरेक से उसके शोकाश्रुओं का सागर निमेषार्द्ध में ही सूख गया। उसके मुखमण्डल पर शरदपूर्णिमा की चन्द्रिका से उद्वेलित समुद्र के समान हर्ष का सागर हिलोरें लेने लगा। चन्दना सहसा सप को हाथ में लेकर उठी। बेड़ियों से जकड़े अपने एक पैर को बड़ी कठिनाई से देहली से बाहर निकाल कर उसने हर्षगद्गद स्वर में अतिथि से प्रार्थना की-"प्रभो ! यद्यपि ये उड़द के बाकले आपके खाने योग्य नहीं हैं, फिर भी मुझ अबला पर अनुग्रह कर इन्हें ग्रहण कीजिये।" __ अपने अभिग्रह की पूर्ति में कुछ कमी देखकर वह अतिथि लोटने लगा। इससे अति दुखित हो चन्दना के मुंह से सहसा ही ये शब्द निकल पड़े-"हाय रे दुर्देव ! इससे बढ़कर मेरा और क्या दुर्भाग्य हो सकता है कि आँगन में पाया हुमा कल्पतरु लौट रहा है ?" इस शोक के प्राघात से चन्दना की आँखों से पुनः अश्रुओं की धारा बह चली । अतिथि ने यह देख कर कि उनके अभिग्रह की सभी शर्ते पूर्ण हो चुकी हैं, चन्दना के सम्मुख अपना करपात्र बढ़ा दिया। चन्दना ने हर्ष विभोर होकर प्रत्युत्कट श्रद्धा से सूप में रक्खे उड़द के बाकलों को अतिथि के करपात्र में उंडेल दिया। Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचन या बलात् ] भगवान् महावीर यह अतिथि और कोई नहीं, श्रमण भगवान् महावीर ही थे । तत्क्षण "महा दानं, महा दानं" के दिव्य घोष और देव दुन्दुभियों के निश्वन से गगन गूंज उठा । गन्धोदक, पुष्प और दिव्य वस्त्रों की आकाश से देवगरण वर्षा करने लगे । चन्दना के दान की महिमा करते हुए देवों ने धनावह सेठ के घर पर १२ ।। करोड़ स्वर्ण मुद्राओं की वर्षा की । सुगन्धित - मन्द-मधुर मलयानिल से सारा वातावरण सुरभित हो उठा। यह अद्भुत दृश्य देखकर कौशाम्बी के सहस्रों नर-नारी वहाँ एकत्रित हो गये और चन्दना के भाग्य की सराहना करने लगे । उस महान् दान के प्रभाव से तत्क्षरण चन्दना के मुण्डित शीश पर पूर्ववत् लम्बी सुन्दर. केशराशि पुनः उद्भूत हो गई । चन्दना के पैरों में पड़ी लोहे की बेड़ियां सोने के नूपुरों में और हाथों की हथकड़ियां करकंकरणों के रूप में परिरगत हो गईं। देवियों ने उसे दिव्य आभूषणों से अलंकृत किया । सूर्य के समान चमचमाती हुई मरिणयों से जड़े मुकुट को धारण किये हुए स्वयं देवेन्द्र वहाँ उपस्थित हुए और उन्होंने भगवान् को वन्दन करने के पश्चात् चन्दना का अभिवादन किया । ७०७ कौशाम्बीपति शतानीक भी महारानी मृगावती एवं पुरजन-परिजन प्रादि के साथ धनावह के घर आ पहुँचे । उनके साथ बन्दी के रूप में प्राये हुए दधिवाहन के अंगरक्षक ने चन्दना को देखते ही पहचान लिया और वह चन्दना के पैरों पर गिर कर रोने लगा । जब शतानीक और मृगावती को उस अंगरक्षक के द्वारा यह विदित हुना कि चन्दना महाराजा दधिवाहन की पुत्री है तो मृगावती ने अपनी भानजी को अंक में भर लिया । चन्दना की इच्छानुसार धनावह उन १२|| करोड़ स्वर्ण मुद्राओंों का स्वामी बना । ' इन्द्र ने शतानीक से कहा कि यह चन्दनबाला भगवान् को केवलज्ञान होने पर उनकी पट्ट शिष्या बनेगी और इसी शरीर से निर्वाण प्राप्त करेगी, अतः इसकी बड़ी सावधानी से सार-संभाल की जाय । यह भोगों से नितान्त विरक्त है इसलिये इसका विवाह करने का प्रयास नहीं किया जाय । तत्पश्चात् देवेन्द्र एवं देवगरण अपने-अपने स्थान की ओर लौट गये और महाराजा शतानीक, महारानी मृगावती व चन्दनबाला के साथ राजमहलों में लौट आये । चन्दनबाला राजप्रासादों में रहते हुए भी साध्वी के समान विरक्त जीवन व्यतीत करने लगी । आठों प्रहर यही लगन उसे लगी रहती कि वह दिन शीघ्र प्राये जब भगवान् महावीर को केवलज्ञान प्राप्त हो और वह उनके पास दीक्षित १ चउवन महापुरिस चरियं Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास भगवान् पार्श्वनाथ और होकर संसार सागर को पार करने के लिये तप-संयम की पूर्ण साधना में तत्परता से लग जावे। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है भगवान् को केवलज्ञान होने पर चन्दनबाला ने प्रभु के पास दीक्षा ग्रहण की और भगवान् के श्रमणी संघ का समीचीन रूप से संचालन करते हुए अनेक प्रकार को कठोर तपश्चर्याओं से अपने समस्त कों को क्षय कर निर्वाण प्राप्त किया। भगवान् पार्श्वनाथ और महावीर का शासन-भेद प्रागैतिहासिक काल में भगवान् ऋषभदेव ने पांच महाव्रतों का उपदेश दिया और उनके पश्चाद्वर्ती अजितनाथ से पार्श्वनाथ तक के बाईस तीर्थंकरों ने चातुर्याम रूप धर्म की शिक्षा दी । उन्होंने अहिंसा, सत्य, अचौर्य और बहिस्तात्आदान-विरमण अर्थात् बिना दी हुई बाह्य वस्तुओं के ग्रहण का त्याग रूप चार याम वाला धर्म बतलाया। पार्श्वनाथ के बाद जब महावीर का धर्मयग पाया तो उन्होंने फिर पांच महाव्रतों का उपदेश दिया। पांच महाव्रत इस प्रकार हैं:-अहिंसा, सत्य, प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । इस तरह दोनों के व्रत-विधान में संख्या का अन्तर होने से यह प्रश्न सहज ही उठता है कि ऐसा क्यों ? यही प्रश्न केशिकुमार ने गौतम से भी किया था। इसका उत्तर देते हुए गौतम ने बतलाया कि स्वभाव से प्रथम तीर्थंकर के साधु, ऋजु और जड़ होते हैं, अन्तिम तीर्थंकर के साधु वक्र एवं-जड़ तथा मध्यवर्ती तीर्थंकरों के साधु ऋजु और प्राज्ञ होते हैं। इस कारण प्रथम तीर्थंकर के साधुनों के लिये जहाँ मुनि-धर्म के प्राचार का यथावत् ज्ञान करना कठिन होता है वहां चरम तीर्थकर के शासनवर्ती साधुओं के लिये मुनि-धर्म का यथावत् पालन करना कठिन होता है। पर मध्यवर्ती तीर्थंकरों के शासनवर्ती साधु व्रतों को यथावत् ग्रहण और णम्यक रीत्या पालन भी कर लेते हैं। इसी आधार पर इन तीर्थंकरों के शासन व्रत-निर्धारण में संख्या-भेद पाया जाता है । भरत ऐरावत क्षेत्र में प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर को छोड़ कर मध्य के बाईस परिहन्त भगवान् चातुर्याम-धर्म का प्रज्ञापन करते हैं । यथा : सर्वथा प्राणातिपात विरमण, सर्वथा मृषावाद विरमण, सर्वथा प्रदत्तादान विरमण र सर्वथा बहिदादान विरमण । [स्था०, स्था० ४, उ० १, सूत्र २६६, पत्र २०१ (१)] Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ महावीर का शासन-भेद] भगवान् महावीर उपर्युक्त समाधान से ध्वनित होता है कि भगवान पार्श्वनाथ ने मैथुन को भी परिग्रह के अन्तर्गत माना था।' कुछ लेखकों ने चातुर्याम का सम्बन्ध महाव्रत से न बताकर चारित्र से बतलाया है पर ऐसा मानना उचित प्रतीत नहीं होता। बाईस तीथंकरों के समय में सामायिक, सूक्ष्म संपराय और यथाख्यात चारित्र में से कोई एक होता है। किन्तु महावीर के समय में पांच में से कोई भी एक चारित्र एक साधक को हो सकता है। सामायिक या छेदोपस्थापनीय चारित्र के समय अन्य चार नहीं रहते। अत: चातुर्याम का अर्थ 'चारित्र' करना ठीक नहीं। योगाचार्य पतञ्जलि ऋषि ने भी याम का अर्थ अहिंसा आदि व्रत ही लिया है । ' डॉ० महेन्द्रकुमार ने स्पष्ट लिखा है कि अहिंसा, सत्य, अचौर्य और अपरिग्रह इन चातुर्याम धर्म के प्रवर्तक भगवान् पार्श्वनाथ जी थे ।' श्वेताम्बर प्रागमों की दृष्टि से भी स्त्री को परिग्रह की कोटि में ही शामिल किया गया है । भगवान् द्वारा व्रत-संख्या में परिवर्तन का कारण समय और बुद्धि का प्रभाव हो सकता है। भगवान् पार्श्व के परिनिर्वाण के पश्चात् और महावीर के तीर्थकर होने से कुछ पूर्व संभव है, इस प्रकार के तर्क का सहारा लेकर साधक विचलित होने लगा हो और भगवान् पार्श्व की परम्परा में उस पर पूण व दृढ़ अनुशासन नहीं रखा जा सका हो । वैसी स्थिति में भगवान महावीर ने वक्र स्वभाव के लोग अपनी रुचि के अनुकूल परिग्रह या स्त्री का त्याग कर दूसरे का उपयोग प्रारम्भ न करें, इस भावो हित को ध्यान में रख कर ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का स्पष्टतः पृथक् विधान कर दिया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। संख्या का अन्तर होने पर भी दोनों परम्पराओं के मौलिक प्राशय में भेद नहीं है । केवल स्पष्टता के लिये पृथक्करण किया गया है । चारित्र भगवान् पार्श्वनाथ के समय में श्रमणवर्ग को सामायिक चारित्र दिया जाता था जब कि भगवान महावीर ने सामायिक के साथ छेदोपस्थापनीय १ उत्तराध्ययन सूत्र, प्र० २३, गाथा २६-२७ । (ब) मैथुनं परिग्रहेऽन्तर्भवति, न अपरिग्रहीता योषिद् भुज्यते । स्था० ५०, ४ उ० सू० २६६ । पत्र २०२ (१) २ अहिंसासत्यास्तेय ब्रह्मचर्याऽपरिग्रहा यमाः । पतंजलि (योगसूत्र) सू० २० । ३ डॉ. महेन्द्रकुमार-जैन दर्शन-पृ० ६० Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [चारित्र चारित्र का भी प्रवर्तन किया। चारित्र के मख्यार्थ समता की आराधना को ध्यान में लेकर भगवान् पार्श्वनाथ ने चारित्र का विभाग नहीं किया। फिर उन्हें वैसी आवश्यकता भी नहीं थी। किन्तु महावीर भगवान के सामने एक विशेष प्रयोजन उपस्थित हुआ, एतदर्थ साधकों की विशेष शुद्धि के लिये उन्होंने सामायिक के पश्चात् छेदोपस्थापनीय चारित्र का उपदेश दिया। भगवान् महावीर ने पार्श्वनाथ के निविभाग सामायिक चारित्र को विभागात्मक सामायिक के रूप में प्रस्तुत किया । छेदोपस्थापनीय में जो चारित्र पर्याय का छेद किया जाता है, पार्श्वनाथ की परम्परा में सजग साधकों के लिये उसकी आवश्यकता ही नहीं थी, अतः उन्होंने निविभाग सामायिक चारित्र का विधान किया। भगवती सत्र के उल्लेख से स्पष्ट होता है कि जो मनि चातुर्याम धर्म का पालन करते, उनका चारित्र सामायिक कहा जाता और जब इस परम्परा को बदल कर पंच याम धर्म में प्रवेश किया, तब उनका चारित्र छेदोपस्थापनीय कहलाया।' भगवान् महावीर के समय में दोनों प्रकार की व्यवस्थाएं चलती थीं। उन्होंने अल्पकालीन निविभाग में सामायिक चारित्र को और दीर्घकाल के लिये छेदोपस्थापनीय चारित्र को मान्यता प्रदान की। महावीर ने इसके अतिरिक्त व्रतों में रात्रिभोजन-विरमण को भी अलग व्रत के रूप में प्रतिष्ठित किया । उन्होंने स्थानांग सूत्र में स्पष्ट कहा है-"आर्यो! मैंने श्रमण-निग्रंथों को स्थविरकल्प, जिनकल्प, मुडभाव, अस्नान, अदंतधावन, अछत्र, उपानत् त्याग, भूमिशय्या, फलकशय्या, काष्ठशय्या, केशलोच, ब्रह्मचर्यवास, भिक्षार्थ परगृहप्रवेश तथा लब्धालब्ध वृत्ति की प्ररूपणा की है। जैसे मैंने श्रमणों को पंचमहाव्रतयुक्त सप्रतिक्रमण अचेलक धर्म कहा गया है, वैसे महापद्म भी कथन करेंगे। __ भगवान् पार्श्वनाथ और महावीर के शासन में दूसरा अन्तर सचेल-अचेल का है, जो इस प्रकार है : पार्श्वनाथ की परम्परा में सचेल-धर्म माना जाता था, किन्तु महावीर ने अचेल धर्म की शिक्षा दी। कल्पसमर्थन में कहा है कि प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर १ सामाइयंमि उ कए, चाउज्जामं अणुत्तरं धम्म । तिविहेण फासयंतो, सामाइयं संजो स खलु । छेत्तगा उ परियागं, पोराणं जो ठवेई अप्पारणं । धम्ममि पंचजामे, छेदोवट्ठाणो स खलु ।।भग०, श० २५, उ. ७।७८६।गा० ११२ २ स्थानांग, स्थान Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र] भगवान् महावीर का धर्म अचेलक है और बाईस तीथंकरों का धर्म सचेलक एवं अचेलक दोनों प्रकार का है। अभिप्राय यह है कि भगवान् ऋषभदेव और महावीर के श्रमणों के लिये यह विधान है कि वे श्वेत और मानोपेत वस्त्र रखें पर बाईस तीर्थंकरों के श्रमणों के लिये ऐसा विधान नहीं है। वे विवेकनिष्ठ और जागरूक होने से चमकीले, रंग-बिरंगे और प्रमाण से अधिक भी वस्त्र रख सकते थे, क्योंकि उनके मन में उत्तम वस्त्रों के प्रति आसक्ति नहीं होती थी। ____ "अचेलक" पद का सीधा अर्थ वस्त्राभाव होता है किन्तु यहाँ "अ" का अर्थ सर्वथा अभाव न मान कर अल्प मानना चाहिये । व्यवहार में भी सम्पदाहीन को "अधन" कहते हैं। साधारण द्रव्य होने पर भी व्यक्ति व्यवहार-जगत् में "प्रधन" कहलाता है। प्राचारांग सूत्र की टीका में यही अल्प अर्थ मानकर अचेलक का अर्थ "अल्प वस्त्र" किया है। उत्तराध्ययन सूत्र और कल्प की टीका में भी मानप्रमाण सहित जीर्णप्राय और श्वेतवस्त्र को अचेल में माना गया है। जैन श्रमणों के लिये दो प्रकार के कल्प बताये गये हैं-जिनकल्प और स्थाविरकल्प । नियुक्ति और भाष्य के अनुसार जिनकल्पी श्रमण वह हो सकता है जो वज्रऋषभ नाराच संहनन वाला हो, कम से कम नव पूर्व की ततीय प्राचार-वस्तु का पाठी हो और अधिक से अधिक कुछ कम दश पूर्व तक का श्रुतपाठी हो। जिनकल्पी भी पहले स्थविरकल्पी होता है। जिनकल्प के भी दो प्रकार हैं-(१) पाणिपात्र और (२) पात्रधारी । पाणिपात्र के भी चार भेद बतलाये हैं। जिनकल्पी श्रमण नग्न और निष्प्रतिकर्म शरीरी होने से आँख का मल भी नहीं निकालते । वे रोग-परीषहों को १ आचेलुक्को धम्मो पुरिमस्स य पच्छिस्स य जिरणस्स । मज्झिमगाण जिणाणं, होई सचेलो अचेलो य॥ [कल्प समर्थन, गा० ३, पृ० १] २ अचेल:-प्रल्पचेलः । [प्राचा० टी०, पत्र २२१] ३ लघुत्व जीणंत्वादिना चेलानि वस्त्राण्यस्येत्येवमचेलकः । [उतरा० वृहद् वृत्ति, प० ३५९] (ख) "अचेलत्वं श्री आदिनाथ-महावीर साधूनां वस्त्रं मानप्रमाण सहितं जीर्णप्रायं धवलं च कल्पते । श्री अजितादि द्वाविंशती तीर्थंकर साधूनां तु पंचवणंम् ।। [कल्प सूत्र कल्पलता, प० २।१। समयसुन्दर] ४ जिनकल्पिकस्य तावज्जघन्यतो नवमस्य पूर्वस्य तृतीयमाचारवस्तु । [विशेषा० वृहद् वृत्ति, पृष्ठ १३, गा० ७ की टीका] Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ चारित्र सहन करते, कभी किसी प्रकार की चिकित्सा नहीं कराते । ' पात्रधारी हों या पात्र - रहित, दोनों प्रकार के जिनकल्पी रजोहरण और मुखवस्त्रिका, ये दो उपकरण तो रखते ही हैं । अतः यहाँ पर अचेलक का अर्थ सम्पूर्ण वस्त्रों का त्यागी नहीं, किन्तु अल्प मूल्य वाले प्रमाणोपेत जीर्ण-शीर्ण वस्त्र धारी समझना चाहिये । इसीलिये भाष्यकार ने कहा है कि अचेलक दो प्रकार के होते हैं:- सदचेल और प्रसदचेल । तीर्थंकर असद्-चेल होते हैं । वे देवदृष्य वस्त्र गिर जाने पर सर्वदा वस्त्ररहित रहते हैं । शेष सभी जिनकल्पिक आदि साधु सदचेल कहे गये हैं । कम से कम भी रजोहरण और मुखवस्त्रिका का तो उनको सद्भाव रहता ही है । वस्त्र रखने वाले साधु भी मूर्च्छारहित होने के कारण अचेल कहे गये हैं, क्योंकि वे जिन वस्त्रों का उपयोग करते हैं वे दोषरहित, पुराने, सारहीन और अल्प प्रमाण में होते । इसके अतिरिक्त उनका उपयोग भी कदाचित् का होता है जैसे भिक्षार्थ जाते समय देह पर वस्त्र डाला जाता है, उसे भिक्षा से लौटने पर हटा दिया जाता है । इस प्रकार कटि वस्त्र भी रात्रि में अलग कर दिया जाता है । लोकोक्ति में जीर्ण-शीर्ण- तार-तार फटे वस्त्र को धारण करने वाला नग्न ही कहा जाता है । जैसे कोई बुढ़िया जिसके शरीर पर पुरानी व अनेक स्थानों से फटी हुई साड़ी लिपटी है, तन्तुवाय से कहती है - "भाई ! मेरी साड़ी जल्दी तैयार कर देना । मैं नंगी फिरती हूँ ।" तो यह फटा पुराना कपड़ा होने पर भी नग्नपन कहा गया है । इसी प्रकार अल्प वस्त्र रखने वाला मुनि अचेल माना गया है । १ निप्पडिकम्मसरीरा, श्रवि श्रच्छिमलंपि न श्र प्रवरिंगति । विसहंति जिरणा रोगं, कारिति कयाइ न तिगिच्छं ॥ [विशेषावश्यक प्रथम भाग, प्रथम अंश. पृ० १४, गाथा ७ की टोका की गाथा ३ ] २ (क) वृह० भा० १ उ०- - दुविहो होति प्रचेलो, संताचेलो प्रसंतचेलोय तित्थगर प्रसंत चेला, संताचेता भवे सेसा ॥ (ख) सवसंतचेलगोऽचेलगो य जं लोग - समयसंसिद्धो । तेरगावेला मुग्राप्रो संतेहि, जिरणा असंतेहि ॥ ३ तह थोव जुन कुच्छिय चेलेहि वि भन्नएं प्रचेलोत्ति । जहन्तरसालिय लहं दो पोति नाग्गया मोत्ति ॥ [विशेषावश्यक भाष्य, गा० २५६८ ] [वि० २६०१, पृ० १०३५ ] Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र] भगवान् महावीर ७१३ मूल बात यह है कि परिग्रह मूर्छाभाव में है । मूर्छाभाव रहित मुनियों को वस्त्रों के रहते हुए भी मूर्छाभाव नहीं होने से अचेलक कहा गया है । दशवकालिक सूत्र में स्पष्ट कहा गया है- "न सो परिग्गहो वुत्तो" वह परिग्रह नहीं है । परिग्रह मूर्छाभाव है-"मूच्छा परिग्गहो वुत्तो।" भगवान महावीर ने पार्श्वनाथ के सचेल धर्म का साधुनों में दुरुपयोग समझा और निमित्त से प्रभावित मंदमति साधक-मोह-मा न गिरे, इस हेतु अचेल धर्म के उपदेश से साधुवर्ग को वस्त्र-ग्रहण में नियन्त्रित रखा । उत्तराध्ययन सूत्र में केशी श्रमण की जिज्ञासा का उत्तर देते हुए गौतम ने कहा है कि भगवान् ने वेष धारण के पीछे एक प्रयोजन धर्म-साधना को निभाना और दूसरा साधु रूप को अभिव्यक्त करना कहा है।' ___डॉ० हर्मन जेकोबी ने भगवान महावीर की अचेलता पर भाजीवक गोशालक का प्रभाव माना है, किन्तु यह निराधार जंचता है, क्योंकि गोशालक से प्रथम ही भगवान् देवदूष्य वस्त्र गिरने से नग्नत्व धारण कर चुके थे। फिर भगवती सूत्र में स्पष्ट लिखा है "साडियागो य पाडियायो य डियाग्रो य पाहणाम्रोय चित्तफलगं च माहणे पायामेति मायामेत्ता स उत्तरोठं मुडं करोति ।" इस पाठ से यह सिद्ध होता है कि गोशालक ने भगवान् महावीर का मनसरण करते हुए उनके साधना के द्वितीय वर्ष में नग्नत्व स्वीकार किया। सप्रतिक्रमण धर्म अजितनाथ से पार्श्वनाथ तक बाईस तीर्थंकरों के समय में प्रतिक्रमण दोनों समय करना नियत नहीं था। कुछ प्राचार्यों का ऐसा अभिमत है कि इन बाईस तीथंकरों के समय में देवसिक और राइय ये दो ही प्रतिक्रमण होते थे शेष नहीं, किन्तु जिनदास महत्तर का स्पष्ट मन्तव्य है कि प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के समय में नियमित रूप में उभयकाल प्रतिक्रमण करने का विधान है और साथ ही दोष के समय में भी ईर्यापथ और भिक्षा प्रादि के रूप में तत्काल प्रतिक्रमण का विधान है। बाईस तीर्थंकरों के शासनकाल में दोष लगते ही शुद्धि कर ली जाती थी, उभयकाल नियम रूप से प्रतिक्रमण का उनके लिये १ विनाणेण समागम्म, धम्मसाहणमिच्छियं । जत्तत्थं गहणत्यं च, लोगे लिंगपोयणं । उ० २३ २ देसिय, राइय, पक्खिय चउमासिय वच्छरिय नामामो । दुहं पण पडिक्कमणा, मज्झिमगाणं तु दो पढ़मा। [सप्ततिशतस्थान प्राया• I Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [सप्रतिक्रमण धर्म विधान नहीं था।' स्थानांग सूत्र में कहा है कि प्रथम तथा अन्तिम तीर्थंकरों का धर्म सप्रतिक्रमण है । इस प्रकार भगवान् महावीर ने अपने शिष्यों के लिये दोष लगे या न लगे, प्रतिदिन दोनों संध्या प्रतिक्रमरण करना अनिवार्य बताया है।' स्थित कल्प प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के समय में सभी (१) अचेलक्य, (२) उद्देशिक, (३) शय्यातर पिंड, (४) राजपिंड, (५) कृतिकर्म, (६) व्रत, (७) ज्येष्ठ, (८) प्रतिक्रमण, (६) मासकल्प और (१०) पर्युषणकल्प अनिवार्य होते हैं । अतः इन्हें स्थितकल्प कहा जाता है। प्रजितादि बाईस तीर्थंकरों के लिये चार कल्प-(१) शय्यातर, (२) चातुर्याम धर्म का पालन, (३) ज्येष्ठ पर्याय-वृद्ध का वंदन और (४) कृतिकर्म, ये चार स्थित और छ कल्प (१) अचेलक, (२) प्रौद्देशिक, (३) प्रतिक्रमण, (४) राजपिंड, (५) मासकल्प एवं (६) पर्युषणा ये अस्थित माने गये हैं। भगवान महावीर के श्रमणों के लिये मासकल्प आदि नियत हैं । बाईस तीर्थंकरों के साधु चाहें तो दीर्घकाल तक भी रह सकते हैं, पर महावीर के साधुसाध्वी मासकल्प से अधिक बिना कारण न रहें, यह स्थितकल्प है। आज जो साधु-साध्वी बिना खास कारण एक ही ग्राम-नगर आदि में धर्म-प्रचार के नाम से बैठे रहते हैं, यह शास्त्र-मर्यादा के अनुकूल नहीं है । भगवान् महावीर के निन्हव भगवान महावीर के शासन में सात निन्हव हुए हैं, जिनमें से दो भगवान् महावीर के सामने हुए, प्रथम जमालि और दूसरा तिष्यगुप्त । जो इस प्रकार है :१ पुरिम पच्छिमएहिं उभरो कालं पडिकमितव्वं इरियावहियमागतेहिं उच्चार पासवरण माहारादीण वा विवेगं कातूण पदोस पूच्चूसेसु, मतियारो होतु वा मा वा तहावस्सं पडिक्कमितव्वं एतेहिं चेव ठाणेहिं । मज्झिमगाणं तित्थे जदि प्रतियारो प्रत्थि तो दिवसो होतु रत्ती वा, पुष्वण्हो, प्रवरण्हो, मज्झण्हो, पुष्वरत्तोवरत्तं वा, प्रड्ढरत्तो वा ताहेचेव पडिक्कमति । नत्थि तो न पडिक्कमंति । जेण ते प्रसढा पण्णवंता परिणामगा न य पमादोबहुलो, तेण तेसिं एवं भवति, पुरिमा उज्जुजडा, पच्छिमा वकजडा नीसाणाणि मगंति पमादबहुला य, तेण तेहिं अवस्सं पडिकमितव्वं ।। [प्राव० चू०, उत्तर भाग, पृ० ६६] २ (क) मए समणाणं निग्गंथाणं पंचमहव्वइए सपडिकम्मरणे.... [स्थानांग, स्था. ६] (ख) सपडिक्कमणो धम्मो पुरिमस्सय पच्छिमस्स य जिणाणं ।। [प्राव०नि०गा० १२४१] ३ आचेलक्कुद्दे सिय पडिक्कमण रायपिंड मासेसु । पज्जुसणाकप्पाम्म य, अट्ठियकप्पो मुणेयन्वो ।। [भिधान राजेन्द्र, गाथा १] ४ मूलाचार-७।१२५-१२६ । Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जमालि] भगवान् महावीर ७१५ लमालि __जमालि महावीर का भानेज और उनकी एकमात्र पुत्री प्रियदर्शना का पति होने से जामाता भी था । श्रमण भगवान् महावीर के पास इसने भी भावपूर्वक श्रमरण दीक्षा ली और भगवान् के केवल ज्ञान उत्पन्न होने पर चौदह वर्ष के बाद प्रथम निन्हव के रूप में प्रख्यात हुआ। जमालि के प्रवचन-निन्हव होने का इतिहास इस प्रकार है : दीक्षा के कुछ वर्ष बाद जमालि ने भगवान् से स्वतन्त्र विहार करने की आज्ञा माँगी । भगवान् ने उसके पूछने पर कुछ भी उत्तर नहीं दिया। उसने दुहरा-तिहरा कर अपनी बात प्रभु के सामने रखी, किन्तु भगवान् मौन ही विराजे रहे । प्रभु के मौन को ही स्वीकृति समझ कर पाँच सौ साधुनों के साथ जमालि अनगार महावीर से पृथक् हो कर जनपद की ओर विहार कर गया । अनेक ग्राम-नगरों में विचरण करते हुए वह 'सावत्थी' पाया और वहां के कोष्ठक उद्यान में अनुमति लेकर स्थित हुआ। विहार के अन्त, प्रान्त, रूक्ष एवं प्रतिकूल आहार के सेवन से जमालि को तीव्र रोगातंक उत्पन्न हो गया। उसके शरीर में जलन होने लगी। भयंकर दाह-पीड़ा के कारण उसके लिये बैठे रहना भी संभव नहीं था। उसने अपने श्रमणों से कहा-"आर्यो ! मेरे लिये संथारा कर दो जिससे मैं उस पर लेट जाऊं। मुझसे अब बैठा नहीं जाता।" साधुनों ने "तथास्तु" कह कर संथारा-आसन करना प्रारम्भ किया। जमालि पीड़ा से अत्यंत व्याकुल था। उसे एक क्षण का भी विलम्ब असह्य था। अतः उसने पूछा-"क्या आसन हो गया ?" विनयपूर्वक साधुओं ने कहा"महाराज ! कर रहे हैं, अभी हुअा नहीं है ।" ___ साधुओं के इस उत्तर को सुन कर जमालि को विचार हुग्रा-"श्रमण भगवान महावीर जो चलमान को चलित एवं क्रियमारण को कृत कहते हैं, वह मिथ्या है । मैं प्रत्यक्ष देख रहा हूं कि क्रियमाण शय्या संस्तारक प्रकृत है। फिर तो चलमान को भी प्रचलित ही कहना चाहिये । ठीक है, जब तक शय्यासंस्तारक पूरा नहीं हो जाता तब तक उसको कृत कैसे कहा जाय ?" उसने अपनी इस नवीन उपलब्धि के बारे में अपने साधुओं को बुला कर कहा"मार्यो ! श्रमण भगवान् महावीर जो चलमान को चलित और क्रियमाण को कृत मादि कहते हैं, वह ठीक नहीं है । चलमान आदि को पूर्ण होने तक प्रचलित कहना चाहिये।" बहुत से साधु, जो जमालि के अनुरागी थे, उसकी बात पर श्रद्धा करने १ पियदंसरणा वि पइणोऽणुरागओ तम्मयं चिय पवण्णा । विशे. २३२५ Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [जमालि लगे और जो भगवद्वाणी पर श्रद्धाशील थे, उन्होंने युक्तिपूर्वक जमालि को समझाने का प्रयत्न किया, पर जब यह बात उसकी समझ में नहीं पाई तो वे उसे छोड़कर पुनः भगवान् महावीर की शरण में चले गये। - जमालि की अस्वस्थता की बात सुनकर साध्वी प्रियदर्शना भी वहाँ पाई। वह भगवान् महावीर के परमभक्त ढंक कुम्हार के यहाँ ठहरी हुई थी। जमालि के अनुराग से प्रियदर्शना ने भी उसका नवीन मत स्वीकार कर लिया और ढंक को भी स्वमतानुरागी बनाने के लिये समझाने लगी। ढंक ने प्रियदर्शना को मिथ्यात्व के उदय से प्राकान्त जान कर कहा-"आर्ये ! हम सिद्धान्त की बात नहीं जानते, हम तो केवल अपने कर्भ-सिद्धान्त को समझते हैं और यह जानते हैं कि भगवान वीतराग ने जो कहा है, वह मिथ्या नहीं हो सकता।" उसने प्रियदर्शना को उसकी भूल समझाने का मन में पक्का निश्चय किया। एक दिन प्रियदर्शना साध्वी ढंक की शाला में जब स्वाध्यायमग्न थी, ढंक ने अवसर देखकर उसके वस्त्रांचल पर एक अंगार का कण डाल दिया। शामांचल जलने से साध्वी बोल उठी-"श्रावक! तुमने मेरी साड़ी जला दी।" उसने कहा-"महाराजसाड़ी तो अभी आपके शरीर पर है, जली कहाँ है ? साड़ी का कोण जलने से यदि उसका जलना कहती हैं तो ठीक नहीं। आपके मन्तव्यानुसार तो दह्यमान वस्तु अदग्ध कही गई है। अतः कोण के जलने से साड़ी को जली कहना आपकी परम्परानुसार मिथ्या है। ऐसी बात तो भगवान महावीर के अनुयायी कहें तो ठीक हो सकती है । जमालि के मत से ऐसी बात ठीक नहीं होती।" ढंक की युक्तिपूर्ण बातें सुन कर साध्वी प्रियदर्शना प्रतिबुद्ध हो गई। ... प्रियदर्शना ने अपनी भूल के लिये "मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु" कहकर प्रायश्चित्त किया और जमालि को समझाने का प्रयत्न किया तथा जमालि के न मानने पर वह अपनी शिष्याओं के संग भगवान के पास चली गई। शेष साधु भी धीरे-धीरे जमालि को अकेला छोड़कर प्रभु की सेवा में चले गये । अन्तिम समय तक भी जमालि अपने दुराग्रह पर डटा रहा ।' जमालि का मन्तव्य था कि कोई भी कार्य लंबे समय तक चलने के बाद · ही पूर्ण होता है, अतः किसी भी कार्य को 'क्रियाकाल' में किया कहना ठीक नहीं है । भगवान् महावीर का 'करेमाणे कडे' वाला सिद्धान्त 'ऋजुसूत्र' नय की दृष्टि से है। ऋजुसूत्र-नय केवल वर्तमान को ही मानता है। इसमें किसी भी कार्य का वर्तमान ही साधक माना गया है। इस विचार से कोई भी क्रिया अपने वर्तमान समय में कार्यकारी हो कर दूसरे समय में नष्ट हो जाती है । १ विशेष गा० २३०७, पृ० ६३४ से ६३६ । Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जमालि] भगवान् महावीर ०१७ प्रथम समय की क्रिया प्रथम समय में और दूसरे समय की क्रिया दूसरे समय में ही कार्य करेगी। इस प्रकार प्रति-समय भावी क्रियाएं प्रति समय होने वाले पर्यायों का कारण हो सकती हैं, उत्तरकाल भावी कार्य के लिये नहीं, प्रतः महावीर का 'करमारणे कडे' सिद्धान्त सत्य है । जमालि इस भाव को नहीं समझ सका । उसने सोचा कि पूर्ववर्ती क्रियाओं में जो समय लगता है, वह सब उत्तरकालभावी कार्य का ही समय है। पट-निर्माण के प्रथम समय में प्रथम तन्तु, फिर दूसरा, तीसरा आदि, इस प्रकार प्रत्येक का समय अलग-अलग है। जिस समय जो क्रिया हुई, उसका फल उसी समय हो गया । विशेषावश्यक भाष्य में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है। जमालि को जिस समय 'बहुरत दृष्टि' उत्पन्न हुई, उस समय भगवान् महावीर चंपा में विराजमान थे। जमालि भी कुछ काल के बाद जब रोग से मुक्त हुआ, तब सावत्थी के कोष्ठक चैत्य से विहार कर चम्पा नगरी आया और पूर्णभद्र उद्यान में श्रमण भगवान महावीर के पास उपस्थित होकर बोला"देवानुप्रिय ! जैसे मापके बहुत से शिष्य छद्मस्थ विहार से विचरते हैं, मैं वैसे छद्मस्थ विहार से विचरने वाला नहीं हूँ। मैं केवलज्ञान को धारण करने वाला अरहा, जिन केवली होकर विचरता है।" जमालि की असंगत बात सुन कर गौतम ने कहा-"जमालि ! केवली का ज्ञान पर्वत, स्तूप, भित्ति प्रादि में कहीं रुकता नहीं, तुम्हें यदि केवलज्ञान हुआ है तो मेरे दो प्रश्नों का उत्तर दो :- "(१) लोक शाश्वत है या अशाश्वत ? (२) जीव शाश्वत है या प्रशाश्वत?" जमालि इन प्रश्नों का कुछ भी उत्तर नहीं दे सका और शंका, कांक्षा से मन में विचलित हो गया।' - भगवान् महावीर ने जमालि को सम्बोधित कर कहा-"जमालि ! मेरे बहुत से अन्तेवासी छपस्थ हो कर भी इन प्रश्नों का उत्तर दे सकते हैं, फिर भी वे अपने को तुम्हारी तरह केवली नहीं कहते ।" बाद में गौतम ने जमालि को लोक का शाश्वतपन और प्रशाश्वतपन किस अपेक्षा से है, विस्तार से समझाया। बहत सम्भव है, जमालि का यह 'बहुरत' सम्प्रदाय उसके पश्चात नहीं रहा हो क्योंकि उसके अनुयायी उसकी विद्यमानता में ही साथ छोड़ कर चले गये थे। प्रतः अपने मत को मानने वाला वह अकेला ही रह गया था। १ भग०, श० ६, उ ३३ । २ इच्छामो संवोहणमजो, पियदसणादमो उकं । वोत्तुंजमालिमेक्क, मोत्तूरण गया जिणसगासं ॥ वि. २३३२ । Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [२. (निन्हव) तिष्यगुप्त बहुत कुछ समझाने पर भी जमालि की भगवान के वचनों पर श्रद्धा, प्रतीति नहीं हई और वह भगवान के पास से चला गया। मिथ्यात्व के अभिनिवेश से उसने स्व-पर को उन्मार्गगामी बनाया और बिना पालोचना के मरण प्राप्त कर किल्विषी देव हुआ। २. (निन्हव) तिष्यगुप्त भगवान महावीर के केवलज्ञान के सोलह वर्ष बाद दूसरा निन्हव तिष्यगुप्त हुआ। वह प्राचार्य वसु का, जो कि चतुर्दश पूर्वविद् थे, शिष्य था। एक बार प्राचार्य वसु राजगह के गणशील चैत्य में पधारे हुए थे। उनके पास आत्मप्रवाद का आलापक पढ़ते हुए तिष्यगुप्त को यह दृष्टि पैदा हुई कि जीव का एक प्रदेश जीव नहीं, वैसे दो, तीन, संख्यात आदि भी जीव नहीं-किन्तु असंख्यात प्रदेश होने पर ही उसे जीव कहना चाहिये। इसमें एक प्रदेश भी कम हो तो जीव नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जीव लोकाकाश-प्रदेश तुल्य है', ऐसा शास्त्र में कहा है। इस आलापक को पढ़ते हुए तिष्यगुप्त को नय-दृष्टि का ध्यान नहीं होने से विपर्यास हो गया। उसने समझा कि अन्ति प्रदेश में ही जीवत्व है। गुरु द्वारा विविध प्रकार से समझाने पर भी तिष्यगुप्त की धारणा जब नहीं बदली तो गुरु ने उसे संघ से बाहर कर दिया। स्वच्छन्द विचरता हा तिष्यगप्त 'पामलकल्पा' नगरी में जाकर 'प्राम्रसालवन में ठहरा। वहाँ 'मित्रश्री' नाम का एक श्रावक था। उसने तिष्यगुप्त को निन्हव जानकर समझाने का उपाय सोचा। उसने सेवक-पुरुषों द्वारा भिक्षा जाते हुए तिष्यगुप्त को कहलाया 'आज आप कृपा कर मेरे घर पधारें।" तिष्यगुप्त भी भावना समझ कर चला गया। मित्रश्री ने तिष्यगुप्त को बैठा कर बड़े आदर से विविध प्रकार के अन्न-पान-व्यञ्जन और वस्त्रादि लाकर देने को रखे और उनमें से सबके अन्तिम भाग का एक-एक करण लेकर मुनि को प्रतिलाभ दिया। तिष्यगुप्त यह देखकर बोले-"श्रावक ! क्या तुम हँसी कर रहे हो या हमको विधर्मी समझ रहे हो?" श्रावक ने कहा-"महाराज! आपका ही सिद्धान्त है कि अन्तिम प्रदेश जीव है, फिर मैंने गलती क्या की है ? यदि एक करण में भोजन नहीं मानते तो आपका सिद्धान्त मिथ्या होगा।" मित्रश्री की प्रेरणा से तिष्यगुप्त समझ गये और श्रावक मित्रश्री ने भी १ विशेषावश्यक, गा. २३३३ से २३३६ । Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर और गोशालक] भगवान् महावीर ७१६ विधिपूर्वक प्रतिलाभ देकर तिष्यगुप्त को प्रसन्न किया एवं सादर उन्हें गुरु-सेवा में भेज कर उनकी संयम शुद्धि में सहायता प्रदान की। - महावीर और गोशालक भगवान् महावीर और गोशालक का वर्षों निकटतम सम्बन्ध रहा है। जैन शास्त्रों के अनुसार गोशालक प्रभु का शिष्य हो कर भी प्रबल प्रतिद्वन्द्वी के रूप में रहा है । भगवती सूत्र में इसका विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है । भगवान ने गोशालक को अपना कूशिष्य कह कर, परिचय दिया है। यहाँ ऐतिहासिक दृष्टि से गोशालक पर कुछ प्रकाश डाला जा रहा है। डॉ. विमलचन्द्र झा ने गोशालक को चित्रकार अथवा चित्रविक्रेता का पुत्र बतलाया है।' कुछ इतिहास लेखकों ने मंखलि का अर्थ बांस की लाठी ले कर चलने वाला साधु किया है, पर उपलब्ध प्रमाणों के प्रकाश में प्रस्तुत कथन प्रमाणित नहीं होता। वास्तव में गोशालक का पिता मंखलि-मंख था, मंख का अर्थ चित्रकार या चित्रविक्रेता नहीं होता । मंख केवल शिव का चित्र दिखला कर अपना जीवनयापन करता था।२ कारपेंटियर ने भी अपना यही मत प्रकट किया है। जैन सत्रों में गोशालक के साथ मंखलि-पुत्र शब्द का भी प्रयोग मिलता है जो गोशालक के विशेषण रूप से प्रयुक्त है। टीकाकार अभयदेवसूरि ने भगवती सूत्र की टीका में कहा-"चित्रफलकं हस्ते गतं यस्य स तथा"। इसके अनुसार मंख का अर्थ चित्र-पट्ट हाथ में रख कर जीविका चलाने वाला होता है। पूर्व समय में मंख एक जाति थी, जिसके लोग शिव या किसी देव का चित्रपट्ट हाथ में रखकर अपनी जीविका चलाते थे। आज भी 'डाकोत' जाति के लोग शनि देव की मूर्ति या चित्र दिखा कर जीविका चलाते हैं । गोशालक का नामकरण गोशालक के नामकरण के सम्बन्ध में भगवती सूत्र में स्पष्ट निर्देश मिलता है। वहां कहा गया है कि 'मंख' जातीय मंखली गोशालक का पिता था और भद्रा माता थी। मंखली की गर्भवती भार्या भद्र ने 'सरवरण' ग्राम के गोबहुल ब्राह्मण की गोशाला में, जहां कि मंखली जीविका के प्रसंग से चलते १ इन्डोलोजिकल स्टगेज सैकिंड, पेज २४५ ।। २ डिक्श० माफ पेटी प्रोपर नेम्न पार्ट १ पेज ४० । ३ (क) केदारपट्टिक, पृ० २४११, (ब) हरिभद्रीय प्राव. वृ०, पृ० २४१ । Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [गोबालक का नामकरण चलते पहुंच गया था, बालक को जन्म दिया। इसलिए उसका नाम 'गोशालक' रखा गया। मंखलि का पुत्र होने से वह मंखलि-पुत्र और गोशाला में जन्म लेने के कारण गोशालक' कहलाया। बड़ा होने पर चित्रफलक हाथ में लेकर गोशालक मंखपने से विचरने लगा। त्रिपिटक में प्राजीवक नेता को मंखलि गोशालक कहा गया है। उसके मंखलि. नामकरण पर बौद्ध परम्परा में एक विचित्र कथा प्रचलित है। उसके अनुसार गोशालक एक दास था। एक बार वह तेल का घड़ा उठाये मागे मागे चल रहा था और पीछे पीछे उसका मालिक । मार्ग में प्रागे फिसलन होने से मालिक ने कहा'तात मंखलि! तात मंखलि! अरे स्खलित मत होना, देख कर चलना' किन्तु मालिक के द्वारा इतना सावधान करने पर भी गोशालक गिर गया, जिससे घड़े का तेल भूमि पर बह चला। गोशालक स्वामी के डर से भागने लगा तो स्वामी ने उसका वस्त्र पकड़ लिया। फिर भी वह वस्त्र छोड़ कर नंगा ही भाग चला। तब से वह नग्न साधु के रूप में रहने लगा और लोग उसे माखलि कहने लगे। - व्याकरणकार 'पाणिनि' और भाष्यकार पतंजलि ने 'मंखलि' का शुद्ध रूप 'मस्करी माना है। "मस्कर मस्करिणो वेणु-परिव्राजकयोः" ६।१।२५४ में मस्करी का सामान्य अर्थ परिव्राजक किया है। भाष्यकार का कहना है कि मस्करी वह साधु नहीं जो हाथ में मस्कर या बांस की लाठी ले कर चलता है, किन्तु मस्करी वह है जो 'कर्म मत करो' का उपदेश देता है और कहता है"शान्ति का मार्ग ही श्रेयस्कर है ।"3 यहाँ गोशालक का नाम स्पष्ट नहीं होने पर भी दोनों का अभिमत उसी प्रोर संकेत करता है । लगता है, गोशालक जब समाज में एक धर्माचार्य के रूप से विख्यात हो चुका, तब 'कर्म मत करो' की व्याख्या प्रचलित हुई, जो उसके नियतिवाद की ओर इशारा करती है। आचार्य गुणचन्द्र रचित 'महावीर चरियं' में गोशालक की उत्पत्ति विषयक सहज ही विश्वास कर लेने और मानने योग्य रोचक एवं सुसंगत विवरण मिलता है। उसमें गोशालक के जीवनचरित्र का भी पूर्णरूपेण परिचय उपलब्ध होता है, इस दष्टि से प्राचार्य गुणचन्द्र द्वारा दिये गये गोशालक के विवरण का अविकल अनुवाद यहां दिया जा रहा है :१ भगवती सूत्र, श० १५२१ । २ (क) माचार्य बुद्धघोष, धम्मपद मट्ठकथा १३१४३ (ख) मज्झिमनिकाय अट्ठकथा, ११४२२ । ३ न वै मस्करोऽस्यास्तीति मस्करी परिप्राजकः । कि तहि माकृत कर्माणि माकृत कर्माणि, शान्तिवः श्रेयसीत्याहातो मस्करी परिव्राजकः॥ [पातजब महानाय ६-१-१५४] - Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोशालक का नामकरण ] भगवान् महावीर "उत्तरापथ में सिलिन्ध नाम का सन्निवेश था। वहां केशव नाम के एक ग्रामरक्षक की शिवा नाम की प्रारणप्रिया एवं विनीता पत्नी की कुक्षि से मंख नामक एक पुत्र का जन्म हुआ । क्रमशः वह मंख युवावस्था को प्राप्त हुआ । एक दिन मंख अपने पिता के साथ स्नानार्थ एक सरोवर पर गया और स्नान करने के पश्चात् एक वृक्ष के नीचे बैठ गया। वहां बैठे-बैठे मंख ने देखा कि एक चक्रवाकयुगल परस्पर प्रगाढ़ प्रेम से लबालब भरे हृदय से अनेक प्रकार की प्रेम-क्रीड़ाएं कर रहा है । कभी तो वह चक्रवाक - मिथुन अपनी चंचुत्रों से कुतरे गये नवीन ताजे पद्मनाल के टुकड़े की छीना-झपटी करके एक दूसरे के प्रति अपने प्रणय को प्रकट करता था तो कभी सूर्य के प्रस्त हो जाने की आशंका से दूसरे को अपने प्रगाढ़ आलिंगन में जकड़ लेता था तो कभी जल में अपने प्रतिबिम्ब को देख कर विरह की आशंका से त्रस्त हो निष्कपट भाव से एक दूसरे को अपना सर्वस्व समर्पण करते हुए मधुर प्रेमालाप में आत्मविभोर हो जाता था । ७२१ चक्रवाक - युगल को इस प्रकार प्रेमकेलि में खोये हुए जानकर काल की तरह चुपके से सरकते हुए शिकारी ने श्राकर्णान्त धनुष की प्रत्यंचा खींचकर उन पर तीर चला दिया । देव संयोग से वह तीर चकवे के लगा और वह उस प्रहार से मर्माहत हो छटपटाने लगा । चक्रवाक की तथाविध व्यथा को देखकर चकवी ने क्षणभर विलाप कर प्राण त्याग दिये । मुहूर्त्त भर बाद चकवा भी कालधर्म को प्राप्त हुआ । इस प्रकार चकवे और चकवी की यह दशा देखकर मंख की आँखें मुद गईं और मूच्छित होकर धरणितल पर गिर पड़ा। जब केशव ने यह देखा तो वह विस्मित हो सोचने लगा कि यह अकल्पित घटना कैसे घटी । उसने शीतलोपचारों से मंख को आश्वस्त किया और थोड़ी देर पश्चात् मंख की मूर्च्छा दूर होने पर केशव ने उससे पूछा - " पुत्र ! क्या किसी वात दोष से, पित्त दोष से अथवा और किसी शारीरिक दुर्बलता के कारण तुम्हारी ऐसी दशा हुई है जिससे कि तुम चेष्टा रहित हो बड़ी देर तक मूच्छित पड़े रहे ? क्या कारण है, सच सच बताओ ?" मंख ने भी अपने पिता की बात सुनकर दीर्घ विश्वास छोड़ते हुए कहा“ तात ! इस प्रकार के चक्रवाक - युगल को देखकर मुझे अपने पूर्वजन्म का स्मरण हो आया । मैंने पूर्वजन्म में मानसरोवर पर इसी प्रकार चक्रवाक के मिथुन रूप से रहते हुए एक भील द्वारा छोड़े गये बारण से अभिहत हो विरह-व्याकुला चकवी के साथ मरण प्राप्त किया था और तत्पश्चात् मैं आपके यहाँ पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ हूं। इस समय मैं स्मृतिवश अपनी उस चिरप्रणयिनी चकवी के विरह को सहने में असमर्थ होने के कारण बड़ा दुखी हूं।" केशव ने कहा - " वत्स ! प्रतीत दुःख के स्मरण से क्या लाभ? कराल Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [गोशालक का नामकरण काल का यही स्वभाव है, वह किसी को भी चिरकाल तक प्रिय-संयोग से सुखी नहीं देख सकता । जैसे कि कहा भी है : __ “स्वर्ग के देवगण भी अपनी प्रणयिनी के विरहजन्य दुःख से संतप्त होकर मूच्छित की तरह किसी न किसी तरह अपना समय-यापन करते हैं, फिर तुम्हारे जैसे प्राणी, जिनका चर्म से मंढ़ा हुआ शरीर सभी आपत्तियों का घर है, उनके दुःखों की गणना ही क्या है ? इसलिये पूर्वभव के स्मरण को भूलकर वर्तमान को ध्यान में रखकर यथोचित व्यवहार करो । क्योंकि भूत-भविष्यत् की चिन्ता से शरीर क्षीण होता है। इससे यह और भी निश्चित रूप से सिद्ध होता है कि यह संसार प्रसार है, जहां जन्म-मरण, जरा, रोग-शोक आदि बड़े-बड़े दुःख हैं।" __इस प्रकार विविध हेतुओं और युक्तियों से मंख को समझाकर केशव किसी तरह उसे घर ले गया। घर पहुँच कर भी मंख बिना अन्नजल ग्रहण किये शून्य मन से धरणितल की ओर निगाह गड़ाये, किसी बड़े योगी की तरह निष्क्रिय होकर, निरन्तर चिन्तामग्न हो, अपने जीवन को तृण की तरह तुच्छ मानता हुअा रहने लगा। मंख की ऐसी दशा देखकर चिन्तित स्वजनवर्ग ने, कहीं कोई छलनाविकार तो नहीं है, इस विचार से तान्त्रिक लोगों को बुलाकर उन्हें उसे दिखाया। मंख का अनेक प्रकार से उपचार किया गया, पर सब निरर्थक । एक दिन देशान्तर से एक वृद्ध पुरुष आया और केशव के घर पर ठहरा। उसने जब मंख को देखा तो वह केशव से पूछ बैठा-- "भद्र ! यह तरुण रोगादि से रहित होते हुए भी रोगी की तरह क्यों दिख रहा है ?" केशव ने उस वृद्ध पुरुष को सारी स्थिति से अवगत किया। वृद्ध पुरुष ने पूछा--"क्या तुमने इस प्रकार के दोष का कोई प्रतिकार किया है ?" केशव ने उत्तर दिया-"इसे बड़े-बड़े निष्णात मान्त्रिकों और तान्त्रिकों को दिखाया है।" वृद्ध ने कहा-"यह सभी उपक्रम व्यर्थ है, प्रेम के ग्रह से ग्रस्त का वे बेचारे क्या प्रतिकार करेंगे?" कहा भी है : "भयंकर विषधर के डस लेने से उत्पन्न वेदना को शान्त करने में कुशल, सिंह, दुष्ट हाथी और राक्षसी का स्तंभन करने में प्रवीण और प्रेतबाधा से उत्पन्न उपद्रव को शान्त करने में सक्षम उच्चकोटि के मान्त्रिक अथवा तान्त्रिक भी प्रेमपरवश हृदय वाले व्यक्ति को स्वस्थ करने में समर्थ नहीं होते।" केशव ने पूछा-"तो फिर अब इसका क्या किया जाय ?" Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोशालक का नामकरण] भगवान् महावीर ७२३ वृद्ध ने उत्तर दिया-"यदि तुम मुझ से पूछते हो तो जब तक कि यह दशवी दशा (विक्षिप्तावस्था) प्राप्त न कर ले उससे पहले-पहले इसके पूर्वजन्म के वृत्तान्त को एक चित्रपट पर अंकित करवालो, जिसमें यह दृश्य अंकित हो कि भील ने बाण से चकवे पर प्रहार किया, चकवा घायल हो गिर पड़ा, चकवी उस चकवे की इस दशा को देखकर मर गई और उसके पश्चात् वह चकवा भी मर गया।" "इस प्रकार का चित्रफलक तैयार करवा कर मंख को दो जिसे लिये-लिये यह मंख ग्राम-नगरादि में परिभ्रमण करे । कदाचित् ऐसा करने पर किसी तरह विधिवशात् इसकी पूर्वभव की भार्या भी मानवी भव को पाई हुई उस चित्रफलक पर अंकित चक्रवाक-मिथुन के उस प्रकार के दृश्य को देखकर पूर्वभव की स्मृति से इसके साथ लग जाय।" "प्राचीन शास्त्रों में इस प्रकार के वृत्तान्त सुने भी जाते हैं। इस उपाय से आशा का सहारा पाकर यह भी कुछ दिन जीवित रह सकेगा।" वृद्ध की बात सुनकर केशव ने कहा-"आपकी बुद्धि की पहुँच बहुत ठीक है। आप जैसे परिणत बुद्धि वाले पुरुषों को छोड़कर इस प्रकार के विषम अर्थ का निर्णय कौन जान सकता है ?" इस प्रकार वृद्ध की प्रशंसा कर केशव ने मंख से सब हाल कहा । मंख बोला-"तात ! इसमें क्या अनचित है ? शीघ्र ही चित्रपट को तैयार करवा दीजिये । कुविकल्पों की कल्लोलमाला से आकुल चित्त वाले के समाधानार्थ यही उपक्रम उचित है।" ___मंख के अभिप्राय को जानकर केशव ने भी यथावस्थित चक्रवाक-मिथन का चित्रपट पर आलेखन करवाया और वह चित्रफलक और मार्ग में जीवननिर्वाह हेतु संबल के रूप में द्रव्य मंख को प्रदान किया। . मंख उस चित्रफलक और एक सहायक को साथ लेकर ग्राम, नगर सन्निवेशादि में बिना किसी प्रकार का विश्राम किये आशापिशाचिनी के वशीभूत हो धूमने लगा। मंख उस चित्रफलक को घर-घर और नगर के त्रिकचतुष्क एवं चौराहों पर ऊंचा करके दिखाता और कुतूहल से जो भी चित्रपट के विषय में उससे पूछता उसे सारी वास्तविक स्थिति समझाता । निरन्तर विस्तार के साथ अपनी आत्मकथा कहकर यह लोगों को चित्रफलक पर अंकित चक्रवाक-मिथुन की ओर इंगित कर कहता- “देखो, मानसरोवर के तट पर परस्पर प्रेमकेलि में निमग्न यह चकवा-चकवी का जोड़ा किसी शिकारी द्वारा छोड़े गये बाण से शरीर त्याग कर एक दूसरे से बिछुड़ गया। इस समय यह प्रियमिलन के लिये छटपटा रहा है।" Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [गोशालक का नामकरण ____मंख के मुख से इस प्रकार की कथा सूनकर कुछ लोग उसकी खिल्ली उड़ाते, कुछ भला बुरा कहते तो कुछ उस पर दयार्द्र हो अनुकम्पा करते। - इस प्रकार मंख भी अपने कार्यसाधन में दत्तचित्त हो घूमता हुमा चम्पा नगरी पहुंचा। उसका पाथेय समाप्त हो चुका था, अतः जीवन-निर्वाह का अन्य कोई साधन न देख मंख उसी चित्रफलक को अपनी वृत्ति का आधार बनाकर गाने गाता हुआ भिक्षार्थ घूमने लगा और उस भिक्षाटन के कार्य से क्षुधा-शान्ति एवं अपनी प्रेयसी की तलाश, ये दोनों कार्य करने लगा। उसी नगर में मंखली नाम का एक गृहस्थ रहता था। उसकी स्त्री का नाम सुभद्रा था । वह वाणिज्य कला से नितान्त अनभिज्ञ, नरेन्द्र सेवा के कार्य में अकुशल, कृषि कार्यों में सामर्थ्यहीन एवं प्रालसी तथा अन्य प्रकार के प्रायः सभी सामान्य कष्टसाध्य कार्यों को करने में भी अविचक्षरण था। सारांश यह कि वह केवल भोजन का भाण्ड था। वह निरन्तर इसी उपाय की टोह में रहता था कि किस प्रकार वह आसानी से अपना निर्वाह करे। एक दिन उसने मंख को देखा कि वह केवल चित्रपट को दिखाकर प्रतिदिन भिक्षावृत्ति से सुखपूर्वक निर्वाह कर रहा है। उसे देखकर मंखली ने सोचा-"अहो! इसकी यह वृत्ति कितनी अच्छी है जिसे कभी कोई चुरा नहीं सकता। नित्यप्रति दूध देने वाली कामधेनु के समान, बिना पानी के धान्यनिष्पत्ति की तरह यह एक क्लेशरहितं महानिधि है। चिरकाल से जिस वस्तु की मैं चाह कर रहा था उसकी प्राप्ति से मैं जीवन पा चुका हूं। यह बहुत ही अच्छा उपाय है।" ऐसा सोचकर वह मंख के पास गया और उसकी सेवा करने लगा। उसने उससे कुछ गाने सीखे और अपने पूर्वभव की भार्या के विरह-वज से जर्जरित हृदय वाले उस मंख की मत्य के पश्चात् मंखली अपने आपको सारभूत तत्त्व का ज्ञाता समझते हुए बड़े विस्तृत विवरण के साथ वैसा चित्रफलक तैयार करवाकर अपने घर पहुंचा। मंखली ने अपनी गहिणी से कहा-"प्रिये ! अब भूख के सिर पर वज्र मारो और विहार-यात्रा के लिये स्वस्थ हो जाओ।" _____ मंखली की पत्नी ने उत्तर दिया-"मैं तो तैयार ही हूं, जहां प्रापकी रुचि हो वहीं चलिये।" चित्रफलक लेकर मंखली अपनी पत्नी के साथ नगर से निकल पड़ा और मंखवृत्ति से देशांतर में भ्रमण करने लगा। लोग भी उसे पाया देखकर पहले देखे हुए मंख के खयाल से "मंख आ गया, यह मंख पा गया" इस तरह कहने लगे। Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२५ जैनागमों की मौलिकता] भगवान् महावीर __इस प्रकार मंख द्वारा उपदिष्ट पासंड व्रत से संबद्ध होने के कारण वह मंखली मंख कहलाया। अन्यदा मंख परिभ्रमण करते हए सरवण ग्राम में पहुंचा और गोबहल बाह्मण की गोशाला में ठहरा । गोशाला में रहते हुए उसकी पत्नी सुभद्रा ने एक पुत्र को जन्म दिया। गोशाला में उत्पन्न होने के कारण उसका गुणनिष्पन्न नाम गोशालक रखा गया । अनुक्रम से बढ़ता हुआ गोशालक बाल्यक्य को पूर्ण कर तरुण हुआ । वह स्वभाव से ही दुष्ट प्रकृति का था, अत: सहज में ही विविध प्रकार के अनर्थ कर डालता, माता-पिता की आज्ञा में नहीं चलता और सीख देने पर द्वेष करता । सम्मानदान से संतुष्ट किये जाने पर क्षण भर सरल रहता और फिर कुत्ते की पंछ की तरह कुटिलता प्रदर्शित करता। बिना थके बोलते ही रहने वाले, कड़कपट के भण्डार और परम मर्मवेधी उस वैताल के समान गोशालक को देखकर सभी सशंक हो जाते। माँ के द्वारा यह कहने पर-"हे पाप ! मैंने नव मास तक तुझे गर्भ में वहन किया और बड़े लाड़ प्यार से पाला है, फिर भी तू मेरी एक भी बात क्यों नहीं मानता ?" गोशालक उत्तर में यह कहता- "अम्ब ! तू मेरे उदर में प्रविष्ट हो जा मैं दुगुने समय तक तुझे धारण कर रखू गा।" जब तक गोशालक अपने पिता के साथ कलह नहीं कर लेता तब तक उसे खुलकर भोजन करने की इच्छा नहीं होती । निश्चित रूप से सारे दोष समूहों से उसका निर्माण हुआ था जिससे कि सम्पूर्ण जगत् में उसके समान कोई और दूसरा दृष्टिगोचर नहीं होता था। इस प्रकार की दुष्ट प्रकृति के कारण उसने सब लोगों को अपने से पराङ मुख कर लिया था। लोग उसको दुष्टजनों में प्रथम स्थान देने लगे। विष-वृक्ष और दृष्टि-विष वाले विषधर की तरह वह प्रथम उद्गगमकाल में ही दर्शनमात्र से भयंकर प्रतीत होने लगा। किसी समय पिता के साथ खूब लड़-झगड़कर उसने वैसा ही चित्रफलक तैयार करवाया और एकाकी भ्रमण करते हुए उस शाला में चला आया, जहां भगवान् महावीर विराजमान थे। [महावीर चरियं (गुणचन्द्र रचित) प्रस्ताव ६, पत्र १८३-१८६] जैनागमों को मौलिकता इस विषय में जैनागमों का कथन इसलिये मौलिक है कि उसे मंखलि का पुत्र बतलाने के साथ गोशाला में उत्पन्न होना भी कहा है। पाणिनि कृत Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [गौशालक का महावीर से सम्पर्क "गोशालायां जातो गोशालः" इस व्युत्पत्ति से भी इस कथन की पुष्टि होती है। बौद्ध आचार्य बुद्धघोष ने 'सामन्न फलसुत्त' की टीका में गोशालक का जन्म गोशाला में हा माना है।' इतिहास लेखकों ने पाणिनि का काल ई० पूर्व ४०० से ई० पूर्व ४१० माना है। गोशालक के निधन और पाणिनि के रचनाकाल में लगभग एक सौ बयालीस वर्ष का अन्तर है। संभव है, गोशालक-मत के उत्कर्षकाल में यह व्याख्या की गई हो। गोशालक का आजीवक सम्प्रदाय में प्रमुख स्थान रहा है। कुछ विद्वानों ने उसे प्राजीवक सम्प्रदाय का प्रवर्तक भी बताया है। पर सही बात यह है कि आजीवक सम्प्रदाय गोशालक के पूर्व से ही चला आ रहा था। जैनागम एवं त्रिपिटक में गोशालक की परम्परा को आजीवक या आजीविक कहा है। दोनों का अर्थ एक ही है । प्रतिपक्ष द्वारा निर्धारित इस नाम की तरह वे स्वयं इसका क्या अर्थ करते होंगे, यह स्पष्ट नहीं होता । हो सकता है, उन्होंने इसका शुभरूप स्वीकार किया हो। ___ डॉ० बरुया ने आजीविक के सम्बन्ध में लिखा है कि यह ऐसे संन्यासियों की एक श्रेणी है, जिनके जीवन का आधार भिक्षावृत्ति है, जो नग्नता को अपनी स्वच्छता एवं त्याग का बाह्य चिह्न बनाये हुए हैं, जिनका सिर मुडा हुआ रहता है और जो हाथ में बांस के डंडे रखते हैं। इनकी मान्यता है कि जीवन-मरण, सुख-दुःख और हानि-लाभ यह सब अनतिक्रमणीय हैं, जिन्हें टाला नहीं जा सकता । जिसके भाग्य में जो लिखा है, वह होकर ही रहता है। गोशालक से महावीर का सम्पर्क साधना के दूसरे वर्षावास में जब भगवान महावीर राजगृह के बाहर नालन्दा में मासिक तप के साथ चातुर्मास कर रहे थे, उस समय गोशालक भी हाथ में परम्परानुकल चित्रपट लेकर ग्राम-ग्राम घूमता हुआ प्रभ के पास तन्तुवाय शाला में आया । अन्य योग्य स्थान न मिलने के कारण उसने भी उसी तन्तुवाय शाला में चातुर्मास व्यतीत करने का निश्चय किया। भगवान् महावीर ने प्रथम मास का पारणा 'विजय' गाथापति के यहां किया। विजय ने बड़े भक्तिभाव से प्रभु का सत्कार किया और उत्कृष्ट अशनपान आदि से प्रतिलाभ दिया । त्रिविध-त्रिकरण शुद्धि से दिये गये उसके पारणदान की देवों ने महिमा की, उसके यहां पंच-दिव्य प्रकट हुए। क्षणभर में यह अद्भुत समाचार अनायास नगर भर में फैल गया और दृश्य देखने को जन-समह उमड़ पड़ा । मंखलिपुत्र गोशालक भी भीड़ के साथ चला पाया और द्रव्य-वृष्टि आदि आश्चर्यजनक दृश्य देखकर दंग रह गया । वह वहां से लौटकर भगवान् १ सुमंगल विलासिनी (दीर्घ निकाम अट्ठकहा) पृ० १४३-४४ २ बासुदेवशरण अग्रवाल । पाणिनीकालीन भारतवर्ष । Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्यत्व की मोर] भगवान् महावीर ७२७ महावीर के पास प्राया और प्रदक्षिणापूर्वक वन्दन करके बोला-"भगवन ! आज से प्राप मेरे धर्माचार्य और मैं पापका शिष्य हूं। मैंने मन में भली-भांति सोचकर ऐसा निश्चय किया है। मुझे अपनी चरण-शरण में लेकर सेवा का अवसर दें।" प्रभु ने सहज में उसकी बात सुन ली और कुछ उत्तर नहीं दिया। भगवान महावीर के चतुर्थ मासिक तप का. पारणा नालन्दा के पास 'कोल्लाग' गांव में 'बहल' ब्राह्मण के यहां हुआ था। गोशालक की अनुपस्थिति में भगवान् गोचरी के लिये बाहर निकले थे, अतः गोशालक जब पुनः तन्तुवायशाला में पाया तो वहां प्रभु को न देखकर उसने सारी राजगृही छान डाली मगर प्रभु का कुछ पता नहीं लगा । अन्त में हार कर उदास मन से वह तन्तुवायशाला में लौट पाया और अपने वस्त्र, पात्र, जूते प्रादि ब्राह्मणों को बांटकर स्वयं दाढ़ी मूछ मुडवा कर प्रभु की खोज में कोल्लाग सन्निवेग की ओर चल दिया। शिष्यत्व को प्रोर मार्ग में जन-समुदाय के द्वारा 'बहुल' के यहां हुई दिव्य-वृष्टि के समाचार सुनकर गोशालक को पक्का विश्वास हो गया कि निश्चय ही भगवान् यहाँ विराजमान हैं, क्योंकि उनके जैसे तपस्तेज की ऋद्धि वाले अन्यत्र दुर्लभ हैं। उनके चरण-स्पर्श के बिना इस प्रकार की द्रव्य-वष्टि संभव नहीं है। इस तरह अनुमान के आधार पर पता लगाते हुए वह महावीर के पास पहुंच गया। - गोशालक ने प्रभु को सविधि वन्दन कर कहा-"प्रभो ! मुझसे ऐसा क्या अपराध हो गया जो इस तरह बिना बताये आप यहाँ चले आये ?. मैं आपके बिना अब एक क्षण भी अन्यत्र नहीं रह सकता। मैंने अपना जीवन आपके चरणों में समर्पित कर दिया है। मैं पहले ही निवेदन कर चुका हूं कि आप मेरे धर्माचार्य और मैं पापका शिष्य हूं।" प्रभु ने जब गोशालक के विनयावनत अन्तःकरण को देखा तो उसकी प्रार्थना पर "तथास्तु" की मुहर लगा दी। प्रभु के द्वारा अपनी प्रार्थना स्वीकृत होने पर वह छः वर्ष से अधिक काल तक शिष्य रूप में भगवान के साथ विभिन्न स्थानों में विचरता रहा, जिसका उल्लेख महावीर-चर्या के प्रसंग में यथास्थान किया जा चुका है। विरुवाचरण प्रभु के साथ विहार करते हुए गोशालक ने कई बार भगवान् की बात को मिथ्या प्रमाणित करने का प्रयत्न किया, परन्तु उसे कहीं भी सफलता नहीं मिली। दुराग्रह के कारण उसके मन में प्रभु के प्रति श्रवा में कमी पायी किन्तु वह प्रभु से तेजोलेश्या का ज्ञान प्राप्त करना चाहता था, अतः उस अवधि Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [विरुद्धाचरण तक वह मन मसोस कर भी जैसे-तैसे उनके साथ चलता रहा । अन्ततः एक दिन भगवान् से तेजोलेश्या प्राप्त करने की विधि जानकर वह उनसे अलग हो गया और नियतिवाद का प्रबल प्रचारक एवं समर्थक बन गया । कुछ दिनों के बाद उसे कुछ मत समर्थक साथी या शिष्य भी मिल गये, तब से वह अपने को जिन और केवली भी घोषित करने लगा । ७२८ भगवान् जिस समय श्रावस्ती में विराजमान थे, उस समय गोशालक का जिन रूप से प्रचार जोरों से चल रहा था । गोशालक के जिनत्व के सम्बन्ध में गौतम द्वारा जिज्ञासा करने पर प्रभु ने कहा- "गौतम ! गोशालक जिन नहीं, जिन प्रलापी है ।" प्रभु की यह वारणी श्रावस्ती नगरी में फैल गई । गोशालक ने जब यह बात सुनी तो वह क्रोध से तिलमिला उठा । उसने महावीर के शिष्य आनन्द को बुलाकर भला-बुरा कहा और स्वयं प्रावेश में प्रभु के पास पहुँचकर रोषपूर्ण भाषा बोलने लगा । महावीर ने पहले से ही अपने श्रमरणों को सूचित कर रखा था कि गोशालक यहाँ आने वाला है और वह अभद्र वचन बोलेगा, अतः कोई भी मुनि उससे संभाषण नहीं करे । प्रभु द्वारा इस प्रकार सावचेत करने के उपरान्त भी गोशालक के अनर्गल प्रलाप और अपमानजनक शब्दों को सुनकर भावावेश में दो मुनि उससे बोल गये । गोशालक ने क्रुद्ध हो उन पर तेजोलेश्या फेंकी, जिससे वे दोनों मुनि काल कर गये । भगवान् द्वारा उद्बोधित किये जाने पर उसने भगवान् को भी तेजोलेश्या से पीड़ित किया । वास्तव में मूढमति पर किये गये उपदेश का ऐसा ही कुपरिणाम होता है, जैसा कि कहा है- “पयः पानं भुजंगानां केवलं विषवर्धनम् ।” विशेष जानकारी के लिये साधनाकालीन विहारचर्या द्रष्टव्य है । प्राजीवक नाम की सार्थकता गोशालक - परम्परा का प्राजीवक नाम केवल आजीविका का साधन होने से ही पड़ा हो, ऐसी बात नहीं है । इस मत के अनुयायी भी विविध प्रकार के तप और ध्यान करते थे। जैसे कि जैनागम स्थानांग में प्राजीवकों के चार प्रकार के तप बतलाये हैं । कल्प चूरिंग आदि ग्रन्थों में पाँच प्रकार के श्रमणों का उल्लेख है, जिसमें एक प्रष्ट्रिका श्रमरण का भी उल्लेख है । ये मिट्टी के बड़े बर्तन में ही बैठ कर तप करते थे । 1 उपर्युक्त निर्देशों को ध्यान में रखते हुए यह कहा जाना कठिन है कि प्राजीवकमति केवल उदरार्थी होते थे । आश्चर्य की बात तो यह है कि वे श्रात्मवादी, निर्वारणवादी और कष्टवादी होकर भी कट्टर नियतिवादी थे । उनके मत में पुरुषार्थं कुछ भी कार्यसाधक नहीं था, फिर भी अनेक प्रकार के तप और Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजीवक चर्या] भगवान् महावीर ७२६ अातापनायें किया करते थे। मुनि कल्याण विजयजी के अनुसार वे अपनी इस विरोधात्मक प्रवृत्ति के कारण ही विरोधी लोगों के आक्षेप के पात्र बने । लोग कहने लगे कि ये जो कुछ भी करते हैं, आजीविका के लिये करते हैं, अन्यथा नियतिवादी को इसकी क्या आवश्यकता है ? आजीवक नाम प्रचलित होने के मूल में चाहे जो अन्य कारण रहे हों पर इस नाम के सर्वमान्य होने का एक प्रमुख कारण आजीविका भी है। जैनागम भगवती के अनुसार गोशालक निमित्त-शास्त्र का भी अभ्यासी था। वह समस्त लोगों के हानि-लाभ, सुख-दुःख एवं जीवन-मरण विषयक भविष्य बताने में कुशल और सिद्धहस्थ माना जाता था। अपने प्रत्येक कार्य में वह उस ज्ञान की सहायता लेता था। आजीवक लोग इस विद्या के बल से अपनी सुख-सामग्री जुटाया करते थे। इसके द्वारा वे सरलता से अपनी आजीविका चलाते । यही कारण है कि जैन शास्त्रों में इस मत को आजीवक और लिंगजीवी कहा है। इस तरह नियतिवादी होकर भी विविध क्रियाओं के करने और आजीविका के लिये निमित्त विद्या का उपयोग करने से वे विरोधियों, खासकर जैनों द्वारा 'आजीवक' नाम से प्रसिद्ध हुए हों, यह संगत प्रतीत होता है। प्राजीवक-चर्या 'मज्झिमनिकाय' के अनसार निर्ग्रन्थों के समान प्राजीविकों की जीवनचर्या के नियम भी कठोर बताये गये हैं । 'मज्झिमनिकाय' में आजीवकों की भिक्षाचरी का प्रशंसात्मक उल्लेख करते हुए एक स्थान पर लिखा है- “गाँवों, नगरों में आजीवक साधु होते हैं, उनमें से कुछ एक दो घरों के अन्तर से, कुछ एक तीन घरों के अन्तर से, यावत् सात घरों के अन्तर से भिक्षा ग्रहण करते हैं। संसार-शुद्धि को दृष्टि से जैनों के चौरासी लाख जीव-योनि के सिद्धान्त की तरह वे चौरासी लाख महाकल्प का परिमाण मानते हैं। छः लेश्यामों की तरह गोशालक ने छः अभिजातियों का निरूपण किया है, जिनके कृष्ण, नील आदि नाम भी बराबर मिलते हैं।" भगवती में आजीवक उपासकों के प्राचार-विचार का संक्षिप्त परिचय मिलता है, जो इस प्रकार है : "गोशालक के उपासक अरिहन्त को देव मानते, माता-पिता की सेवा करते, गूलर, बड़, बेर, अंजीर, एवं पिलखु इन पाँच फलों का भक्षण नहीं करते, Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [माजीवक मत बैलों को लांछित नहीं करते, उनके नाक, कान का छेदन नहीं करते एवं जिससे वस प्राणियों की हिंसा हो, ऐसा व्यापार नहीं करते थे।' प्राजीवक मत का प्रवर्तक अभी तक बहुत से जैन-अजैन विद्वान् गोशालक को आजीवक मत का संस्थापक मानते आ रहे हैं। जैन शास्त्रों के अनुसार गोशालक नियतिवाद का समर्थक और आजीवक मत का प्रमुख आचार्य रहा है, किन्तु कहीं भी उसका इस मत के संस्थापक के रूप में नामोल्लेख नहीं मिलता। जैन शास्त्रों में जो अन्य तीर्थों के चार प्रकार बतलाये गये हैं, उनमें नियतिवाद का स्थान चौथा है। इससे महावीर के समय में "नियतिवादी" संघ पूर्व से ही प्रचलित होना प्रमाणित होता है। बौद्धागम 'विनयपिटक' में बुद्ध के साथ एक 'उपक' नाम के प्राजीवक भिक्षु के मिलने की बात आती है। यदि आजीवक मत की स्थापना गोशालक से मानी जाय तो उसका मिलना संभव नहीं होता, क्योंकि महावीर की बत्तीस वर्ष की वय में जब पहले पहल गोशालक उनसे मिला तब वह किशोरावस्था में पन्द्रह-सोलह वर्ष का था । जिस समय वह महावीर के साथ हुआ, उस समय प्रव्रज्या के दो वर्ष हो चुके थे। इसके बाद उसने नौवें वर्ष में पृथक हो, श्रावस्ती में छ: माह तक आतापना लेकर तेजोलेश्या प्राप्त की। फिर निमित्त शास्त्र का अध्ययन कर वह आजीवकः संघ का नेता बन गया। निमित्त ज्ञान के लिये कम से कम तीन-चार वर्ष का समय माना जाय तो गोशालक द्वारा आजीवक संघ का नेतृत्व ग्रहण करना लगभग महावीर के तीर्थंकरपद-प्राप्ति के समय हो सकता है । ऐसी स्थिति में बुद्ध को बुद्धत्व प्राप्त होने के समय गोशालक के मिलने की बात ठीक नहीं लगती। फिर बौद्ध ग्रन्थ "दीर्घ निकाय" और "मज्झिम निकाय" में मंखलि गोशालक के अतिरिक्त "किस्स संकिच्च" और "नन्दवच्छ” नाम के दो और आजीवक नेताओं के नाम मिलते हैं। इससे यह अनुमान होता है कि गोशालक से पूर्व ये दोनों आजीवक भिक्ष थे। इन्होंने आजीवक मत स्वीकार करने के बाद गोशालक को लब्धिधारी और निमित्त शास्त्र का ज्ञाता जान कर संघ का नायक बना दिया हो, यह संभव है। प्राजीवक मत की स्थापना का स्पष्ट निर्देश नहीं होने पर भी गोशालक के शरीरान्तर प्रवेश के सिद्धान्त से यह अनुमान लगाया जाता है कि उदायी १ इच्चेए दुवालस आजीविनोवासगा अरिहंत देवयागा अम्मापिउसुस्सूसगा पंचफल-पडिकन्ता त० उडंबरेहि बडेहि बोरेहि, सतरेहि, पिलक्खूहि, पलंडुल्हसूणकन्दमूलविवज्जगा अरिगल्लंछिएहि अणकभिण्योहिं तसपारण विवज्जिएहिं चित्तेहिं वित्ति कप्पेमारणा विहरंति । [भगवती सूत्र, शतक ८, उ० ५, सू० ३३०, अभयदेवीयावृत्ति, ५० ३७० (१)] Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का प्रवर्तक भगवान् महावीर ७३१ कुडियायन प्राजीवक संघ का प्रादिप्रवर्तक हो, जो गोशालक के स्वर्गवास से १३३ वर्ष पूर्व हो चुका था। गोशालक के सम्बन्ध में इन वर्षों में काफी गवेषणा हुई है। पूर्व और पश्चिम के विद्वानों ने भी बहुत कुछ नयी शोध की है, फिर भी यह निश्चित है कि गोशालक विषयक जो सामग्री जैन और बौद्ध साहित्य में उपलब्ध होती है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। कुछ विद्वान इस बात को भूल कर मूल से ही विपरीत सोचते हैं। उनका कहना है कि जैन दृष्टि गोशालक को महावीर के ढोंगी शिष्यों में से एक मानती है, पर वास्तव में ऐसी बात नहीं है । डॉ० बरुग्रा ने अपनी इस धारणा की पृष्ठभूमि में माना है कि-महावीर पहले तो पार्श्वनाथ के पंथ में थे, किन्तु एक वर्ष बाद वे अचेलक हुए, तब अचेलक पंथ में चले गये। इन्होंने यह भी माना कि गोशालक को महावीर से दो वर्ष पूर्व ही जिनत्व प्राप्त हो गया। उनके ये सब विचार कल्पनाश्रित हैं, फिर भी साधारण विचारकों पर उनका प्रभाव होना सहज है। जैसा कि गोपालदास जीवाभाई पटेल ने बरुपाजी के ग्रन्थ से प्रभावित हो कर लिखा--"जैन सत्रों में गोशालक के विषय में जो परिचय मिलता है, उसमें उसको चरित्र-भ्रष्ट तथा महावीर का शिष्य ठहराने का इतना अधिक प्रयत्न किया गया है कि उन लेखों को आधारभूत मानने को ही मन नहीं मानता।२ वास्तव में गोपालदास ने जैन सत्रों के भाव को नहीं समझा, ते पश्चिमी विचार के प्रभाव में ऐसा लिख गये। असल में जैन और बौद्ध परम्पराग्यों मे हटकर यदि इसका अन्वेषण किया जाय तो संभव है कि गोशालक नाम का कोई व्यक्ति ही हमें न मिले । जब हम कुछ आधारों को सही मानते हैं, तब किसी कारण से कुछ अन्य को असत्य मान लें, यह उचित प्रतीत नहीं होता। भले ही जैन और बौद्ध आधार किसी अन्य भाव या भाषा में लिखे गये हों, फिर भी वे हमें मान्य होने चाहिये । क्योंकि वे निहतुक नहीं हैं, निहतुक होते तो दो भिन्न परम्पराओं के उल्लेख में एक दूसरे का समर्थन एवं साम्य नहीं होता। यदि जैन आगम उसे शिष्य बतलाते और बौद्ध व प्राजीवक शास्त्र उसे गुरु लिखते तो यह शंका उचित हो सकती थी, पर वैसी कोई स्थिति नहीं है। जैन शास्त्र की प्रामाणिकता जैन आगमों के एतविषयक वर्णनों को सर्वथा प्रापेक्षात्मक समझ बैठना भी भूल होगा। जैन शास्त्र जहाँ गोशालक एवं आजीवक मत की हीनता व्यक्त करते हैं, वहाँ वे गोशालक को अच्युत स्वगं तक पहुँचा कर मोक्षगामी भी बतलाते हैं, साथ ही उनके अनुयायी भिक्षुत्रों को अच्युत स्वर्ग तक पहुँचने की १ महावीर नो संयम धर्म (सूत्र कृतांग का गुजराती संस्करण), पृ० ३४ । २ पागम पोर त्रिपिटक-एक अनुशीलन, पृ० ४४-४५ । Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [प्राजीवक वेष क्षमता देकर गौरव प्रदान करते हैं ।' एकांगी विरोध की ही दृष्टि होती तो उस में ऐसा कभी संभव नहीं होता । __ प्राजीवक वेष विभिन्न मतावलम्बियों के विभिन्न प्रकार के वेष होते हैं। कोई धात रक्ताम्बर धारण करता है तो कोई पीताम्बर, किन्तु आजीवक के किसी विशेष वेष का उल्लेख नहीं मिलता। बौद्ध शास्त्रों में भी आजीवक भिक्षों को नग्न ही बताया गया है, वहाँ उनके लिये अचेलक शब्द का प्रयोग किया गया है । उसके लिंग-धारण पर महावीर का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है, क्योंकि वह जब नालन्दा की तन्तुवायशाला में भगवान् महावीर से प्रथम बार मिला तब उसके पास वस्त्र थे। पर चातुर्मास के बाद जब भगवान् महावीर नालन्दा से विहार कर गये तब वह भी वस्त्रादि ब्राह्मणों को देकर मुडित हो कर महावीर की खोज में निकला और कोल्लाग सन्निवेश में उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लिया । आजीवकों के प्राचार के सम्बन्ध का वर्णन "मज्झिम निकाय" में मिलता है। वहाँ छत्तीसवें प्रकरण में निर्ग्रन्थ संघ के साधु "सच्चक" के मुख से यह बात निम्न प्रकार से कहलायी गयी है : "वे सब वस्त्रों का परित्याग करते हैं, शिष्टाचारों को दूर रख कर चलते हैं, अपने हाथों में भोजन करते हैं, आदि।" "दीर्घ निकाय" में भी कश्यप के मुख से ऐसा स्पष्ट कहलाया गया है । महावीर का प्रभाव गोशालक की वेष-भूषा और आचार-विचार से यह स्पष्ट प्रमाणित होता है कि उस पर भगवान महावीर के प्राचार का पूर्ण प्रभाव था । "मज्झिम निकाय" में आजीवकों के प्राचार का निम्नांकित परिचय मिलता है : "वे भिक्षा के लिये अपने प्राने अथवा राह देखने सम्बन्धी किसी की बात नहीं सुनते, अपने लिये बनवाया पाहार नहीं लेते, जिस बर्तन में आहार पकाया गया हो, उसमें से उसे नहीं लेते, देहली के बीच रखा हुआ, अोखली में कटा हुआ और चूल्हे पर पकता हुआ भोजन ग्रहण नहीं करते। एक साथ भोजन करने वाले युगल से तथा सगर्भा और दुधमुहे बच्चे वाली स्त्री से आहार नहीं लेते । जहाँ आहार कम हो, जहाँ कुत्ता खड़ा हो और जहाँ मक्खियां भिनभिनाती हों, वहाँ से आहार नहीं लेते। मत्स्य, मांस, मदिरा, मैरेय और खट्टी कांजी को वे स्वीकार नहीं करते....। कोई दिन में एक बार, कोई दो-दो दिन १ भगवती श०, श० १५॥ सू० ५५६, पत्र ५८८ (१) । Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निग्रन्थों के भेद] भगवान् महावीर ७३३ बाद एक बार, कोई सात-सात दिन बाद एक बार और कोई पन्द्रह-पन्द्रह दिन बाद एक बार प्रहार करते हैं। इस प्रकार नाना प्रकार के वे उपवास करते हैं।" __ इस प्रकार का प्राचार निग्रन्थ परम्परा के अतिरिक्त नहीं पाया जाता। इस उल्लेख से गोशालक पर महावीर के प्राचार का स्पष्ट प्रभाव कहे बिना नहीं रहा जा सकता। निग्रन्थों के भेद प्राजीवक ओर निग्रन्थों के प्राचार की आंशिक समानता देखकर कुछ विद्वान् सोचते हैं कि इन दोनों के प्राचार एक हैं, परन्तु वास्तव में दोनों परम्पराओं के प्राचार में मौलिक अन्तर भी है। "मज्झिम निकाय' में जो भिक्षा के नियम बतलाये हैं, संभव है, वे सभी आजीवकों द्वारा नहीं पाले जा कर कुछ विशिष्ट आजीवक भिक्षों द्वारा ही पाले जाते हों। मूल में निग्रन्थ और आजीवकों के प्राचार में पहला भेद सचित्त-अचित्त सम्बन्धी है । जहाँ निग्रन्थ परम्परा में सचित्त का स्पर्श तक भी निषिद्ध माना जाता है, वहाँ आजीवक परम्परा में सचित्त फल, बीज और शीतल जल ग्राह्य बताया गया है । अत: कहा जा सकता है कि जिस प्रकार उनमें उग्र तप करने वाले थे, वैसे शिथिलता का प्रवेश भी चरम सीमा पर पहुंच चुका था। आर्द्रक कुमार के प्रकरण में आजीवक भिक्षुओं के अब्रह्म सेवन का भी उल्लेख है । इसे केवल आक्षेप कहना भूल होगा, क्योंकि जैनागम के अतिरिक्त बौद्ध शास्त्र से भी आजीवकों के प्रब्रह्म-सेवन की पुष्टि होती है ।' वहाँ पर निग्रन्थ ब्रह्मचर्यवास में और प्राजीवक अब्रह्मचर्यवास में गिनाये गये हैं। ____ गोशालक ने बुद्ध, मुक्त और न बद्ध न मुक्त ऐसी तीन अवस्थाएँ बतलायी हैं । वे स्वयं को मुक्त कर्मलेप से परे मानते थे। उनका कहना था कि मुक्त पुरुष स्त्री-सहवास करे तो उसे भय नहीं । इन लेखों से स्पष्ट होता है कि आजीवकों में प्रब्रह्म-सेवन को दोष नहीं माना जाता था। प्राजीवक का सिद्धान्त आजीवक परम्परा के धार्मिक सिद्धान्तों के विषय में कुछ जानकारी जैन १ (क) मज्झिम निकाय, भाग १, पृ० ५१४ । (ख) एन्साइक्लोपीडिया प्राफ रिलीजन एण्ड एथिक्स, डॉ२ हानले, पृ० २६१ । २ मज्झिमम निकाय, संदक सुत्त, पृ० २३६ । ३ (क) महावीर कथा, गोपालदास पटेल, पृ० १७७ । (ख) श्रीचन्द रामपुरिया, तीर्थकर वढं मान, पृ० ८३ । Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [दिगम्बर परम्परा में गोशालक और बौद्ध सूत्रों से प्राप्त होती है । गोशालक ने अपने धार्मिक सिद्धान्त के विषय में भगवान महावीर के समक्ष जो विचार प्रकट किये, उनका विस्तृत वर्णन भगवती सूत्र के पन्द्रहवें शतक में उपलब्ध होता है । इसके अतिरिक्त प्राजीवकों के नियतिवाद का भी विभिन्न सूत्रों में उल्लेख मिलता है। उपासक दशांग सूत्र के छठे और सातवें अध्ययन में नियतिवाद की चर्चा है। वहाँ कहा गया है कि गोशालक मंखलिपुत्र की धर्मप्रज्ञप्ति इसलिये सुन्दर है कि उसमें उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम आदि आवश्यक नहीं, क्योंकि उसके मत में सब भाव नियत हैं और महावीर के मत में सब भाव अनियत होने से उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम की आवश्यकता मानी गई है । बौद्ध सूत्र दीर्घ निकाय में भी इससे मिलता जुलता सिद्धान्त बतलाया गया है, यथाप्राणियों की भ्रष्टता के लिये निकट अथवा दर का कोई कारण नहीं है। वे बिना निमित्त या कारण के ही पवित्र होते हैं। कोई भी अपने या पर के प्रयत्नों पर आधार नहीं रखता । यहाँ कुछ भी पुरुष-प्रयास पर अवलम्बित नहीं है, क्योंकि इस मान्यता में शक्ति, पौरुष अथवा मनुष्य-बल जैसी कोई वस्तु नहीं है।" प्रत्येक सविचार उच्चतर प्राणी, प्रत्येक सेन्द्रिय-वस्तु, अधमतर प्राणी, प्रत्येक प्रजनित वस्तु (प्राणिमात्र) और प्रत्येक सजीव वस्तु-सर्व वनस्पति बलहीन. प्रभावहीन एवं शक्तिहीन है। इनकी भिन्न-भिन्न अवस्थाएं विधिवश या स्वभाववश होती हैं और षडवों में से एक अथवा दसरे की स्थिति के अनसार मनुष्य सुख दुःख के भोक्ता बनते हैं । दिगम्बर परम्परा में गोशालक श्वेताम्बर परम्परा में गोशालक को भगवान महावीर का शिष्य बताया गया है, किन्तु दिगम्बर परम्परा में गोशालक का परिचय अन्य प्रकार से मिलता है। यहाँ पार्श्वनाथ परम्परा के मनि रूप में गोशालक का चित्रण किया गया है । कहा जाता है कि मस्करी गोशालक और पूर्ण काश्यप (ऋषि) महावीर के प्रथम समवशरण में उपस्थित हुए, किन्तु महावीर की देशना नहीं होने से गोशालक रुष्ट होकर चला गया। कोई कहते हैं कि वह गणधर होना चाहता था, किन्तु उसे गणधर पद पर नियुक्त नहीं करने से वह पृथक् हो गया । पृथक हो कर वह सावत्थी में आजीवक सम्प्रदाय का नेता बना और अपने को तीर्थकर कहने लगा । उसने कहा-"ज्ञान से मुक्ति नहीं होती, अज्ञान ही श्रेष्ठ है, उसी से मोक्ष की प्राप्ति होती है। देव या ईश्वर कोई नहीं है। अतः स्वेच्छापूर्वक Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राजीवक और पासत्थ] भगवान् महावीर शून्य का ध्यान करना चाहिये ।"" प्राजीवक और पासत्थ प्राजीवक संप्रदाय का मूल स्रोत श्रमण परम्परा में निहित है ।' आजीवकों और श्रमणों में मुख्य अन्तर इस बात का है कि वे आजीविकोपार्जन करने के लिये अपनी विद्या का प्रयोग करते हैं, जब कि जैन श्रमण इसका सर्वथा निषेध करते हैं।' आजीवक मूलतः पार्श्वनाथ परम्परा से सम्बन्धित माने गये हैं। सूत्र कृतांग में नियतिवादी को "पासत्थ" कहा गया है। इस पर भी कुछ विद्वान् आजीवक को पार्श्वनाथ की परम्परा में मानने का विचार करते हैं। "पासत्थ" का संस्कृत रूप पार्श्वस्थ होता है, पर उसका अर्थ पार्श्वनाथ की परम्परा करना संगत प्रतीत नहीं होता । भगवान् महावीर द्वारा तीर्थस्थापन कर लेने पर शिथिलतावश जो उनके तीर्थ में नहीं आये, उनके लिये चारित्रिक शिथिलता के कारण पार्श्वस्थ शब्द का प्रयोग हो सकता है । संभव है, महावीर के समय में कुछ साधुओं ने पार्श्वनाथ की परम्परा का अतिक्रमण कर स्वच्छन्द विहार करना स्वीकार किया हो । . पर पार्श्व शब्द केवल पार्श्व-परम्परा के साधुओं के लिये ही नहीं, किन्तु जो भी स्नेह-बन्धन में बद्ध हो या ज्ञानादि के बाजू (पार्श्व-सान्निध्य) में रहता हो, वह चाहे महावीर परम्परा का हो या पार्श्वनाथ परम्परा का हो, उसे "पासत्य" कह सकते हैं। टीकाकार ने इसका अर्थ "सदनुष्ठानाद् पार्वे तिष्ठन्तीति पावस्था"५ अच्छे अनुष्ठान के बाजू-पार्श्व में रहने वाले । अथवा "साधुः गुणानां पार्वे तिष्ठति' किया है। १ मयसरि-पूरणारिसिणो उप्पणो पासणाहतिम्मि । सिरिवीर समवसरणे, प्रगहिय झुरिगणा नियत्तेण ।। बहिरिणग्गएरण उत्तं मझं. एयार सांगधारिस्स। रिणग्गइ झुणीण माहो, रिणग्गय विस्सास सीसस्स ।। ण मुणइ जिणकहिय सुर्य, संपइ दिक्वाय गहिय गोयमनो। विप्पो वेयभासी तम्हा, मोक्खं ग णारणाप्रो ।। अण्णाणाम्रो मोक्ख, एवं लोयाण पयडमाणो हु । देवो प्र गत्थि कोई, मुण्णं झाएह इच्छाए ।। ___ [भावसंग्रह, गाथा १७६ से १७८] २ हिस्ट्री एण्ड डोक्टराइन्स प्राफ प्राजीवकाज. पृ० ६८ । ३ उत्तराध्ययन सूत्र, ८।१३, १५७ । ४ सूत्र कृतांग, ११११२ गा० ४ व ५ । ५ सूत्र कृतांग १ श्रु० ३ प्र० ४३० Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [प्राजीवक और पासत्थ ____ "पासत्थ" साधुओं की दो श्रेणियाँ की गई हैं-सर्वतः पार्श्वस्थ और देशतः पार्श्वस्थ , भगवान महावीर के तीर्थ प्रवर्तन के पश्चात भी जो ज्ञानादि रत्नत्रयी से विमुख हो कर मिथ्या दृष्टि का प्रचार करने में लगे रहे, उनको सर्वतः पासत्थ कहा गया है । और जो शय्यातर पिंड, अभिहत पिंड, राजपिंड, नित्यपिंड, अग्रपिंड आदि आहार का उपयोग करते हों वे देशतः पासत्थ कहलाये । उपर्युक्त परिभाषा के अनुसार 'पासत्थ" का अर्थ पार्श्व-परम्परा के साधु ही करना उचित प्रतीत नहीं होता, क्योंकि "पासत्थ" को शास्त्रों में अवन्दनीय कहा है । जैसा कि-"ज भिवख पासत्थं पसंसति, पसंतं वा साइज्जई" के अनुसार उनके लिये वंदन-प्रशंसन भी बजित किया गया है, किन्तु पार्श्वनाथ की परम्परा का साधु वन्दनीय रहा है । भगवती सूत्र में तुगिया नगरी के श्रावकों ने आनन्द आदि पार्श्व परम्परा के स्थविरों का वन्दन-सत्कार आदि भक्तिपूर्वक किया है। वे गांगेय मुनि आदि की तरह भ० महावीर की परम्परा में प्रजित भी नहीं हुए थे। यदि पार्श्वनाथ के सन्तानीय श्रमण आजीवक की तरह "पासत्थ" होते तो जैसे सद्दाल-पुत्त श्रावक ने गोशालक के वन्दन-नमन का परिहार किया, उसी तरह पार्श्वनाथ के साधु तुगिका के श्रावकों द्वारा अवंदनीय माने जाते, पर ऐसा नहीं है। अत: “पासत्थ" का अर्थ पार्श्वस्थ (पार्श्व परम्परा के साधु) करना ठीक नहीं। आजीवक को पासत्थ इसलिये कहा है कि वे ज्ञानादि-त्रय को पार्श्व में रखे रहते हैं। इसलिये पासत्था कहे जाने से प्राजीवक गोशालक को पाव-परम्परा में मानना ठीक नहीं जंचता। जैनागमों से प्राप्त सामग्री के अनुसार गोशालक को महावीर की परम्परा से सम्बन्धित मानना ही अधिक युक्तियुक्त एवं उचित प्रतीत होता है । १ दुविहो खलु पासत्थो, देसे सब्बे य होई नायव्वो। सब्बे तिन्नि विकप्पा, देसे सेज्जायर कुलादी ॥२२६। दंसरण गाणचरित्ते, सत्थो अत्थति तहिं न उज्जमति । एएणं पासत्थो एसो अन्नो वि पज्जायो।।२२। पासो त्ति बंधणं ति य, एगळं बंधहेयो पासा । पासत्थिो पासत्थो, प्राण्णो वि य एस पज्जाप्रो ॥२२६। [प्रभिधान राजेन्द्र, पृ० ६११ (व्य० भा०)] २ सेज्जायर कुलनिस्सिय, ठवरणकल पलोयणा अभिहडेय । पुम्वि पच्छा संथव, निइप्रागपिंड, भोइ पासत्थो ।२३०॥अभि रा० ६११ । ३ तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासंति । भग० सू०, सूत्र १०६ ।। Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीरकालीन धर्म परम्पराएँ] भगवान् महावीर महावीरकालीन धर्म परम्पराएँ भगवान् महावीर के समय में इस देश में किन धर्म - परम्पराओं का किस रूप में अस्तित्व था, इसको जानने के लिये जैन साहित्य और श्रागम पर्याप्त सामग्री प्रस्तुत करते हैं । मूल में धर्म-परम्परा चार भागों में बाँटी गई थी(१) क्रियावादी, (२) प्रक्रियावादी, (३) अज्ञानवादी और ( ४ ) विनयवादी । " स्थानांग और भगवती में इन्हीं को चार समोसरण के नाम से बताया गया है । इनकी शाखा प्रशाखाओं के भेदों-प्रभेदों का शास्त्रों में विशद वर्णन उपलब्ध होता है, जो इस प्रकार है : क्रियावादी के १८०, अक्रियावादी के ८४, अज्ञानवादी के ६७ और विनयवादी के ३२ । इस तरह कुल मिलाकर पाषंडी - व्रतियों के ३६३ भेद होते हैं । १. क्रियावादी क्रियावादी आत्मा के साथ क्रिया का समवाय सम्बन्ध मानते हैं । इनका मत है कि कर्ता के बिना पुण्य-पाप श्रादि क्रियायें नहीं होतीं । वे जीव प्रादि नव पदार्थों को एकान्त अस्ति रूप से मानते हैं । क्रियावाद के १८० भेद इस प्रकार हैं: - ( १ ) जीव, (२) अजीव, (३) पुण्य, (४) पाप, (५) आस्रव, (६) बंध, (७) संवर, (८) निर्जरा और ( 2 ) मोक्ष - ये नव पदार्थ हैं । इनमे से प्रत्येक के स्वतः, परतः और नित्य, अनित्य, काल, ईश्वर, आत्मा, नियति और स्वभाव रूप भेद करने से १८० भेद होते हैं । ७३७ २. प्रक्रियावादी इनकी मान्यता है कि क्रिया- पुण्यादि रूप नहीं है, क्योंकि क्रिया स्थिर पदार्थ को लगती है और उत्पन्न होते ही विनाश होने से संसार में कोई भी स्थिर पदार्थ नहीं है । ये आत्मा को भी नहीं मानते। इनके ८४ प्रकार हैं : [१] जीव, [२] अजीव, [३] प्रस्रव, [४] संवर, [५] निर्जरा, [६] बंध और [७] मोक्ष रूप सप्त पदार्थ, स्व और पर एवं उनके [१] काल, [२] ईश्वर, [३] आत्मा, [४] नियति, [५] स्वभाव और [६] यदृच्छा-इन १ [क] सूत्र कृता०, गा० ३०, ३१, ३२ । [ख] स्था० ४ | ४ | ३४५ सू० । [ग] भग०, ३० श०, १उ०, सू० ८२४ | २ समवायांग, सू० १३७ । Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [प्रज्ञानवादी छः मेदों से गुणन करने पर चौरासी [८४] होते हैं। आत्मा का अस्तित्व स्वीकार नहीं करने से इनके मत में नित्य-अनित्य भेद नहीं माने जाते।' ३. प्रज्ञानवादी इनके मत से ज्ञान में झगड़ा होता है, क्योंकि पूर्ण ज्ञान तो किसी को होता नहीं और अधूरे ज्ञान से भिन्न-भिन्न मतों की उत्पत्ति होती है । अतः ज्ञानोपार्जन व्यर्थ है । अज्ञान से ही जगत् का कल्याण है । ___इनके ६७ भेद बताये गये हैं। जीवादि ६ पदार्थों के [१] सत्व, [२] असत्व, [३] सदसत्व, [४] अवाच्यत्व, [५] सदवाच्यत्व, [६] असदवाच्यत्व और [७] सदसदवाच्यत्व रूप सात भेद करने से ६३ तथा उत्पत्ति के सत्त्वादि चार विकल्प जोड़ने से कुल ६७ भेद होते हैं। ४. विनयवादी विनयपूर्वक चलने वाला विनयवादी कहलाता है । इनके लिंग और शास्त्र पृथक् नहीं होते। ये केवल मोक्ष को मानते हैं। इनके ३२ भेद हैं-[१] सुर [२] राजा [३] यति [४] ज्ञाति [५] स्थविर [६] अधम [७] माता और [८] पिता । इन सब के प्रति मन, वचन, काया से देश-कालानुसार उचित १ इह जीवाइपयाई पुन्नं पावं विणा उविज्जंति । तेसिमहोभायम्मि ठविज्जए सपरसद्द दुगं ।।६४ तस्सवि महो लिहिज्जई काल जहिच्छा य पयदुगसमेयं नियइ स्सहाव ईसर अप्पत्ति इमं पय चउक्कं ॥५॥ [प्रवचन सारोद्धार उत्तरार्द्ध सटीक, पत्र ३४४-२] २ संत १ मसंत २ संतासंत ३ भवत्तब्य ४ सयमवत्तव्यं । ५ प्रसय प्रवत्तब्वं ६ सयवत्तव्वं ७ च सत्तपया ॥ जीवाइ नवपयाणं महोकमेणं इमाई ठविकएं । जह कीरइ महिलावो तह साहिज्जइ निसामेह ॥१०० संतो जीवो को जाणइ महवा किं व तेण नाएणं । सेसपएहिवि भंगा इय जाया सत्त जीवस्स । एवमजीवाईणवि पत्तेयं सत्त मिलिय ते सट्ठी । तह भन्नेऽवि हु भंगा चत्तारि इमे उ इह हुति । संती भावुप्पत्ती को जाणइ कि तीए नायाए । [वही] Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिम्बसार श्रेणिक] भगवान् महावीर ७३६ दान देकर विनय करे।' इस प्रकार ८ को चार से गुणा करने पर ३२ होते हैं। आचारांग में भी चार वादों का उल्लेख है, यथा-"पायावादी, लोयावादी, कम्मावादी, किरियावादी।"२ इसके अतिरिक्त सभाष्य निशीथ चणि में उस समय के निम्नलिखित दर्शन और दार्शनिकों का भी उल्लेख है : [१] आजीवक [२] ईसरमत [३] उलग [४] कपिलमत [५] कबिल [६] कावाल [७] कावालिय [८] चरग [६] तच्चन्निय [१०] परिव्वायग [११] पंडरंग [१२] बोड़ित [१३] भिच्छुग [१४] भिक्खू [१५] रत्तपड़ [१६] वेद [१७] सक्क [१८] सरक्ख [१६] सुतिवादी [२०] सेयवड़ [२१] सेय भिक्खू [२२] शाक्यमत [२३] हदुसरक्ख । ३ बिम्बसार-श्रेरिणक महाराज श्रेणिक अपर नाम बिम्बसार अथवा भम्भासार इतिहास-प्रसिद्ध शिशुनाग वंश के एक महान् यशस्वी और प्रतापी राजा थे। वाहीक प्रदेश के मूल निवासी होने के कारण इनको वाहीक कुल का कहा गया है। मगधाधिपति महाराज श्रेणिक भगवान महावीर के भक्त राजारों में एक प्रमुख महाराजा थे। इनके पिता महाराज प्रसेनजित पार्श्वनाथ परम्परा के उपासक सम्यगदष्टि श्रावक थे। उन दिनों मगध की राजधानी राजगह नगर में थी और मगध राज्य की गणना भारत के शक्तिशाली राज्यों में की जाती थी। श्रेणिक-बिम्बसार जन्म से जैन धर्मावलम्बी होकर भी अपने निर्वासन काल में जैनधर्म के सम्पर्क से हट गये हों ऐसा जैन साहित्य के कुछ कथा-ग्रन्थों में उल्लेख प्राप्त होता है। इसका प्रमाण है। महारानी चेलना से महाराज श्रेणिक का धार्मिक संघर्ष । यदि महाराज श्रेणिक सिंहासनारूढ़ होने के समय सही जैन धर्म के उपासक होते तो महारानी चेलना के साथ उनका धार्मिक संघर्ष नहीं होता। अनाथी मुनि के साथ हुए महाराज श्रेणिक के प्रश्नोत्तर एवं उनके द्वारा अनाथी मुनि को दिये गये भोग-निमन्त्रण से स्पष्ट प्रतीत होता है कि वे उस समय १ सुर १ निवइ २ जइ ३ नाई ४ थविराड ५ बम ६ माई ७ पहसु ८ एएसि मण १ वयण २ काय ३ दाणेहिं ४ चउव्विहो कीरए विणो ।५७। अट्ठवि चउक्कगुरिणया, बत्तीसा हवंति देणइय भेया। सव्वेहि पिडिएहिं, तिन्नि सया हुंति ते सट्ठा ।। [प्रव० सारो० सटीक, उत्तरार्ष, पत्र ३४४ (२), २ प्राचा० सटीक, श्रु० १, प्र० १, उ० १, पत्र २० । ३........निशथी सूत्र० चू० भा० १, पृ० १५।। ४ श्रीमत्पाश्बंजिनाधीशशासनांभोजषट्पदः । सम्यग्दर्शन पुण्यात्मा, सोऽणुव्रतधरोऽभवत् ।। [त्रिष, १० प, ६ स० श्लोक ८] Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [श्रेणिक की धर्मनिष्ठा तक जैन धर्मानुयायी नहीं थे अन्यथा मुनि को भोग के लिये निमंत्रित नहीं करते। प्रनाथी मनि के त्याग, विराग एवं उपदेश से प्रभावित होकर श्रेणिक निर्मल चित्त से जैन धर्म में अनुरक्त हए।' यहीं से श्रेणिक को जैन धर्म का बोध मिला, यह कहा जाय तो अनुचित नहीं होगा। जैनागम-दशाश्रुतस्कन्ध के अनुसार श्रमण भगवान् महावीर जब राजगृह पधारे तब कौटुम्बिक पुरुषों ने आकर श्रेरिणक को भगवान् के शुभागमन का शुभ-संवाद सुनाया। महाराज श्रेणिक इस संवाद को सुनकर बड़े संतुष्ट एवं प्रसन्न हुए और सिंहासन से उठकर जिस दिशा में प्रभ विराजमान थे उस दिशा में सात-पाठ पैर (पद) सामने जाकर उन्होंने प्रभु को वन्दन किया। तदनन्तर वे महारानी चेलना के साथ भगवान् महावीर को वन्दन करने गये और भगवान के उपदेशामत का पान कर बड़े प्रमुदित हुए। उस समय महाराज श्रेणिक एवं महारानी चेलना के अलौकिक सौंदर्य को देखकर कई साधु-साध्वियों ने नियाणा (निदान) कर लिया। महावीर प्रभु ने साधु-साध्यिवों के निदान को जाना और उन्हें निदान के कुफल से परिचित कर पतन से बचा लिया। श्रेणिक और चेलना को देखकर त्यागी वर्ग का चकित होना इस बात को सूचित करता है कि वे साधु-साध्वियों के साक्षात्कार में पहले-पहल उसी समय प्राये हों। श्रमिक की धर्मनिष्ठा महाराज श्रेणिक की निर्ग्रन्थ धर्म पर बड़ी निष्ठा थी। मेघकमार की दीक्षा के प्रसंग में उन्होंने कहा कि निर्ग्रन्थ धर्म सत्य है, श्रेष्ठ है, परिपूर्ण है, मुक्तिमार्ग है, तर्कसिद्ध और उपमा-रहित है। भगवान् महावीर के चरणों में महाराज श्रेणिक की ऐसी प्रगाढ़ भक्ति थी कि उन्होंने एक बार अपने परिवार, सामन्तों और मन्त्रियों के बीच यह घोषणा की-"कोई भी पारिवारिक व्यक्ति भगवान् महावीर के पास यदि दीक्षा ग्रहण करना चाहे तो मैं उसे नहीं रोकगा।"3 इस घोषणा से प्रेरित हो श्रेणिक के जालि, मयालि आदि २३ (तेईस) पुत्र दीक्षित हुए और नन्दा आदि तेईस रानियां भी साध्वियाँ बनीं। केवलज्ञान के प्रथम वर्ष में भगवान महावीर जब राजगृह पधारे तो उस १ धम्माणुरत्तो विमलेण चेमसा ॥ उत्तराध्ययन २० २ शाताधर्म कथा १११ ३ गुणचन्द्र कृत महावीर चरियं, पृ. ३३४ ४ अनुत्तरोववाइय, १११-१० म । २-१-१३ । ५ अंतगड दसा, ७ व., ८ व. Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक की धर्मनिष्ठा भगवान् महावीर ७४१ समय श्रेणिक ने सम्यक्त्व-धर्म तथा अभयकुमार आदि ने श्रावक-धर्म स्वीकार किया। मेषकुमार और नन्दिसेन की दीक्षा भी इसी वर्ष होती है। श्रेणिक के परिवार में त्याग-वैराग्य के प्रति अभिरुचि की अभिवृद्धि उनके देहावसान के पश्चात् भी चलती रही। भगवान महावीर जब चम्पा नगरी पधारे तो श्रेरिणक से पध, महापद्य, भद्र, सुभद्र, पद्मभद्र, पग्रसेन, पद्मगल्म, नलिनीगल्म मानन्द और नन्दन नामक १० पौत्रों ने भी श्रमरण-दीक्षा ग्रहण की और अन्त समय में संलेखना के साथ काल कर क्रमशः सौधर्म प्रादि देवलोकों में वे देवरूप से उत्पन्न हए । इस प्रकार महाराज श्रेणिक की तीसरी पीढ़ी तक श्रमण धर्म की आराधना होती रही। नेमिनाथ के शासनकाल में कृष्ण की तरह भगवान् महावीर के शासन में श्रेणिक की शासन-सेवा व भक्ति उत्कृष्ट कोटि की मानी जाकर वीर-शासन के मूर्धन्य सेवकों में उनकी गणना की जाती है। महाराज श्रेणिक ने अपने शासनकाल में ही उस समय का सर्वश्रेष्ठ सेचनक हाथी और देवता द्वारा प्रदत्त अमूल्य हार चेलना के कणिक से छोटे दो पुत्रों हल्ल और विहल्लकुमार को दिये थे, जिनका मूल्य पूरे मगध राज्य के बराबर आंका जाता था। वीर निर्वाण से १७ वर्ष पूर्व कणिक ने अपने काल, महाकाल आदि दश भाइयों को अपनी पोर मिलाकर महाराज श्रेणिक को कारागृह में बन्द कर दिया और स्वयं मगध के सिंहासन पर प्रासीन हो गया। कूणिक ने अपने पिता श्रेणिक को विविध प्रकार की यातनाएं दीं। एक दिन कणिक की माता चेलना ने जब उसे श्रेणिक द्वारा उसके प्रति किये गये महान् उपकार और अनुपम प्यार की घटना सुनाई तो उसको अपने दुष्कृत्य पर बड़ा पश्चात्ताप हुअा। कूरिणक के हृदय में पिता के प्रति प्रेम उमड़ पड़ा और वह एक कुल्हाड़ी ले पिता के बन्धन काटने के लिये बड़ी तेजी से कारागार की ओर बढ़ा। श्रेणिक ने समझा कि कणिक उन्हें मार डालने के लिये कुल्हाड़ी लेकर पा रहा है। अपने पुत्र को पितृहत्या के घोर पापपूर्ण कलंक से बचाने के लिये महाराज श्रेणिक ने अपनी अंगूठी में रखा कालकुट विष निगल लिया। कणिक के वहां पहुंचने से पहले ही प्राशुविष के प्रभाव से श्रेणिक का प्राणान्त हो गया और पूर्वोपाजित निकाचित कर्मबन्ध के कारण वे प्रथम नरक में उत्पन्न हुए। १ (क) श्रुत्वा तां देशनां भर्तुः, सम्यक्त्वं श्रेणिकोनयत् । श्रावकधर्मत्वभयकुमाराधाः प्रपेदिरे ।। [त्रिष. श., १० प., ६ स०, ३१६ श्लोक] (a) एमाई धम्मकह, सोउं सेरिणय निवाइया भव्वा । समत्तं पडिवन्ना, केइ पुरण देस विरयाइ । [नेमिचन्द्रकृत महावीर चरियम् गा. १२६४] २ तीर्थंकर महावीर दूसरा भाग। Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [राजा चेटक , नेतर विद्वानों ने भी श्रेणिक का जैन होना स्वीकार किया है । डॉ. बी.ए. स्मिथ ने लिखा है-"वह अपने पाप में जैन धर्मावलम्बी प्रतीत होता है। जैन परम्परा उसे संप्रति के समान जैन धर्म का प्रभावक मानती है। श्रेणिक ने महावीर के धर्मशासन की बड़ी प्रभावना की थी । प्रवती होकर भी उन्होंने शासन-सेवा के फलस्वरूप तीर्थकर गोत्र उपाजित किया। प्रथम नारक भूमि से निकलकर वह पानाम नाम के प्रगली चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर रूप से उत्पन्न होंगे। वहां भगवान महावीर की तरह वे भी पंच-महाव्रत रूप सप्रतिक्रमण धर्म की देशना करेंगे। भगवान महावीर के शासन में श्रेणिक और उसके परिवार का धर्मप्रभावना में जितना योग रहा उतना किसी अन्य राजा का नहीं रहा। राबा चेटक श्रेणिक की तरह राजा चेटक भी जैन परम्परा में दृढ़धर्मी उपासक माने गये है, वह भगवान् महावीर के परम भक्त थे। मावश्यक चूणि में इनको व्रतधारी श्राक्क बताया (माना) गया है। महाराजा चेटक की सात कन्याएं थी, वे उस समय के प्रख्यात राजानों को ब्याही गई थीं। इनकी पुत्री प्रभावती वीतभय के राजा उदायन को, पद्मावती अंग देश के राजा दधिवाहन को, मगावती वत्सदेश के राजा शतानीक को, शिवा उज्जैन के राजा चण्डप्रद्योत को, सुज्येष्ठा भगवान् महावीर के भाई नन्दिवर्धन को और बेलना मगधराज बिम्बसार को ब्याही गई थीं। इनमें से सुज्येष्ठा ने भगवान् महावीर के पास दीक्षा ग्रहण की। अटक वैशाली के मणतंत्र के अध्यक्ष थे । वैशाली गणतन्त्र क ७७०७ सदस्य थे जो राजा कहलाते थे। भगवान महावीर के पिता सिद्धार्थ भी इनमें से एक थे। डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन के अनुसार चेटक के दस पुत्र थे, जिनमें से ज्येष्ठ पुत्र सिंह अथवा सिंहभद्र वजिगण का प्रसिद्ध सेनापति था।' महाराज चेटक हैहयवंशी राजा थे। भगवान् महावीर के परम भक्त श्राक्क होने के साथ-साथ अपने समय के महान् योद्धा, कुशल शासक और न्याय के कदर पक्षपाती थे। उन्होंने अपने राज्य, कुटम्ब पोर प्राणों पर संकट मा पड़ने पर भी अन्तिम दम तक प्रन्याय के समक्ष सिर नहीं झुकाया । अपनी शरण में पाये हुए हल्ल एवं विहल्ल कुमार की उन्होंने न केवल रक्षा ही की अपितु १ सो बेडमो सावभो ।मा०, पृ. २४५ । २ जातक अनुकया। ३ तीकर महावीर भाग १ ४ भारतीय इतिहास-एक दृष्टि-पृ० ५६ । Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजातशत्रु कूपिक ] भगवान् महावीर ७४३ उनके न्यायपूर्ण पक्ष का बड़ी निर्भीकता के साथ समर्थन किया। अपनी शरणागतवत्सलता मौर न्यायप्रियता के कारण महाराज चेटक को चम्पाधिपति कूरिणक के प्रक्रमण का विरोध करने के लिए बड़ा भयंकर युद्ध करना पड़ा मौर अन्त में वैशाली पतन से निर्वेद प्राप्त कर उन्होंने अनशन कर समाधिपूर्वक काल कर देवत्व प्राप्त किया । कूरिक के सा चेटक के युद्ध का और वैशाली के पतन आदि का विवरण आगे कूरिण के प्रसंग में दिया जा रहा है । यहां पर अब कुछ ऐतिहासिक तथ्य समक्ष प्रा रहे हैं जिनसे इतिहासप्रसिद्ध कलिंग नरेश चण्डराय, क्षेमराज ( जिनके साथ भीषण युद्ध कर प्रशोक ने कलिंग पर विजय प्राप्त की) और महामेघवाहन खारवेल आदि का महाराज चेटक के वंशधर होने का आभास मिलता है । इन तथ्यों पर इस पुस्तक के दूसरे भाग में यथासंभव विस्तृत विवेचन किया जायगा । आशा की जाती है कि उन तथ्यों से भारत के इतिहास पर अच्छा प्रकाश पड़ेगा और एक लम्बी अवधि का भारत का धूमिल इतिहास सुस्पष्ट हो जायगा । अजातशत्रु कूरिणक I भगवान् महावीर के भक्त राजानों में कूरिणक का भी प्रसुख स्थान है | महाराज श्रेणिक इनके पिता और महारानी चेलना माता थीं। माता ने सिंह का स्वप्न देखा । गर्भकाल में उसको दोहद उत्पन्न हुआ कि श्रेणिक राजा के कलेजे का मांस खाऊं । बौद्ध परम्परानुसार बाहु का रक्तपान करना माना गया है । राजा ने अभयकुमार के बुद्धि कौशल से दोहद की पूर्ति की । गर्भकाल में बालक की ऐसी दुर्भावना देखकर माता को दुःख हुआ । उसने गर्भस्थ बालक को नष्टभ्रष्ट करने का प्रयत्न किया पर बालक का कुछ नहीं बिगड़ा । जन्म के पश्चात् चेलना ने उसको कचरे की ढेरी पर डलवा दिया। एक मुर्गे ने वहां उसकी कनिष्ठा अंगुली काटली जिसके कारण अँगुली में मवाद पड़ गई । अंगुली की पीड़ा से बालक क्रंदन करने लगा। उसकी चीत्कार सुनकर श्रेणिक ने पता लगाया और पुत्र मोह से व्याकुल हो उसे उठाकर फिर महल में लाया गया । बालक की वेदना से खिन्न हो श्रेणिक ने चूस चूसकर अंगुली का मवाद निकाला और उसे स्वस्थ किया । अंगुली के घाव के कारण उसका नाम कूरिणक रक्खा गया । कूरिणक के जन्मान्तर का वैर अभी उपशान्त नहीं हुआ था, अतः बड़े होकर कूणिक के मन में राज्य करने की इच्छा हुई । उसने अन्य दश भाइयों को साथ लेकर अपना राज्याभिषेक कराया और महाराज श्रेणिक को कारावास में डलवा दिया । एक दिन कूरिणक माता के चरण-वंदन को गया तो माता ने उसका चरण Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [मजातशत्रु कूणिक वन्दन स्वीकार नहीं किया । कूणिक ने कारण पूछा तो बोली-"जो अपने उपकारी पिता को कारावास में बंद कर स्वयं राज्य करे ऐसे पुत्र का मुंह देखना भी पाप है।" उपकार की बात सुनकर कणिक का पितृ-प्रेम जागृत हुआ और वह तत्काल हाथ में पर लेकर पिता के बन्धन काटने कारागृह की ओर बढ़ा। श्रेणिक ने परशु हाथ में लिये कूणिक को आते देखकर अनिष्ट की आशंका से सोचा-"यह मुझे मारे इसकी अपेक्षा मैं स्वयं अपना प्राणान्त करलू तो यह मेरा पुत्र पितृहत्या के कलंक से बच जायगा।" यह सोचकर श्रेणिक ने तालपुट विष खाकर तत्काल प्राण त्याग दिये। श्रेणिक की मृत्यु के बाद कणिक को बड़ा अनुताप हुआ। वह मछित हो भूमि पर गिर पड़ा। क्षणभर बाद सचेत हया और प्रार्त स्वर में रुदन करने लगा-"अहो ! मैं कितना अभागा एवं अधन्य हूं कि मेरे निमित्त से देवतुल्य पिता श्रेणिक कालगत हुए। शोकाकुल हो कूरिणक ने राजगृह छोड़कर चम्पा में मगध की राजधानी बसायी और वहीं रहने लगा। कुणिक की रानियों में पद्मावती, धारिणी, और सुभद्रा प्रमुख थीं। प्रावश्यक चरिण में आठ राजकन्याओं से विवाह करने का भी उल्लेख है। पर उनके नाम उपलब्ध नहीं होते। महारानी पद्मावती का पुत्र उदाई था' जो कणिक के बाद मगध के राज-सिंहासन पर बैठा। इसी ने चम्पा से अपनी राजधानी हटाकर पाटलिपुत्र में स्थापित की। चेलना के संग और संस्कारों ने कूणिक के मन में भगवान महावीर के प्रति अटूट भक्ति भरदी थी। प्रावश्यक चूणि, त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र प्रादि जैन ग्रन्थों में महाराज कूणिक का एक दूसरा नाम अशोकचन्द्र भी उपलब्ध होता है । भगवान् महावीर के प्रति उसके हृदय में कितनी प्रगाढ़ भक्ति और अनुपम श्रद्धा थी, इसका अनुमान प्रोपपातिक सत्र के प्रधोलिखित पाठ से सहज ही में लगाया जा सकता है : तस्स णं कोणिमस्स रण्णो एक्के पुरिसे विउलकय-वित्तिए भगवो पवित्तिवाउए भगबनो तद्देवसिप्रं पवित्ति णिवेएइ, तस्स रणं पुरिसस्स बहवे अण्णे १ तस्सणं कुणियस्स रष्णो पउमावई नामं देवी होत्या। [निरयावली, सूत्र ] २ उबवाई सूत्र । ३ उबवाई सत्र २३ । ४ कुणियस्स महिं रायबर कन्नाहिं समं विगाहो कतो। [भाव पूणि उत्त० पत्र १९७] ५ मावश्यक चूर्णि, पत्र १७१ । ६ मावश्यक पूणि, पत्र १७७ । Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजातशत्रु कूरिणक] भगवान् महावीर ७४५ पुरिसा दिण्णभत्तिभत्तवेपणा भगवरो पवित्तिवाउमा भगवो तद्देवसियं पवित्ति णिवेदेति ।" [ौपपातिक सूत्र, सूत्र ८] सत्र के इस पाठ से स्पष्ट है कि कणिक ने भगवान महावीर की दैनिक विहारचर्या आदि की सूचनाएं प्रतिदिन प्राप्त करते रहने की दृष्टि से एक कुशल अधिकारी के अधीन अलग स्वतंत्र रूप से एक विभाग ही खोल रखा था और इस पर वह पर्याप्त धनराशि व्यय करता था। एक समय भगवान महावीर का चम्पा नगरी के उपवन में शुभागमन हमा । प्रवत्ति-वार्ता निवेदक (संवाददाता) से जब भंभसार (बिम्बसार) के पुत्र कूणिक ने यह शुभ समाचार सुना तो वह अत्यन्त हर्षित हुआ । उसके नयन-नीरज खिल उठे । प्रसन्नता की प्रभा से उसका मुखमंडल प्रदीप्त हो गया। वह शीघ्रतापूर्वक राज्य सिंहासन से उठा । उसने पादुकाएं खोली और खङ्ग, छत्र, मुकुट, उपानत् एवं चामर रूप सभी राज्यचिह्न उतार दिये। वह एक साटिक उत्तरासंग किये अंजलिबद्ध होकर भगवान महावीर के पधारने की दिशा में सात-पाठ कदम आगे गया। उसने बायें पैर को संकुचित कर, दायें पैर को मोड़ कर धरती पर रखा। फिर थोड़ा ऊपर उठकर हाथ जोड़, अंजलि को मस्तक पर लगाकर "रणमोत्थरणं" से अभिवादन करते हुए वह बोला-"तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर, जो सिद्ध गति के अभिलाषी और मेरे धर्माचार्य तथा उपदेशक हैं, उन्हें मेरा नमस्कार हो। मैं तत्र विराजित प्रभु को यहीं से वन्दन करता हूं और वे वहीं से मुझे देखते हैं।" इस प्रकार श्रद्धा सहित वन्दन कर राजा पुन: सिंहासनारूढ़ हुमा । उसने संवाददाता को एक लाख आठ हजार रजत मुद्रामों का प्रीतिदान दिया और कहा-"जब भगवान महावीर चम्पा के पूर्णभद्र चैत्य में पधारें तो मुझे पुनः सूचना देना।" प्रातःकाल जब भगवान नगरी में पधारे और संवाददाता ने करिणक को यह हर्षवर्द्धक समाचार सुनाया तो कूणिक ने हर्षातिरेक से तत्काल साढ़े बारह लाख रजत-मुद्राओं का प्रीतिदान किया । तदनन्तर करिणक ने अपने नगर में घोषणा करवा कर नागरिकों को प्रभु के शुभागमन के सुसंवाद से अवगत कराया और अपने समस्त पन्तःपुर, परिजन, पुरजन, अधिकारी-वर्ग एवं चतुरंगिणी सेना के साथ प्रभु-दर्शन के लिये प्रस्थान किया। १ उववाई और महावस्तु । Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [कूणिक द्वारा दूर से ही प्रभु के छत्रादि अतिशय देखकर कूणिक अपने हस्तिरत्न से नीचे उतरा और समस्त राजचिह्न उतार कर प्रभु के समवशरण में पहुंचा। उसने आदक्षिणा-प्रदक्षिणा के साथ बड़ी भक्तिपूर्वक प्रभु को वन्दन किया और त्रिविध उपासना करने लगा ।' भगवान् की अमृततुल्य दिव्यध्वनि को सुनकर कूणिक आनन्दविभोर हो बोला- "भगवन् ! जो धर्म आपने कहा है, वैसा अन्य कोई श्रमण या ब्राह्मण नहीं कह सकता।" तत्पश्चात् करिणक भगवान् महावीर को वन्दन कर अपने परिवार सहित राजप्रासाद की ओर लौट गया। कूणिक प्रारम्भ से ही बड़ा तेजस्वी और शौर्यशाली था। उसने अपने शासनकाल में अनेक शक्तिशाली और दुर्जेय शत्रों को परास्त कर उन पर विजय प्राप्त की, अतः वह अजातशत्रु के नाम से कहा जाने लगा और इतिहास में आज इसी नाम मे विख्यात है। कूरिणक द्वारा वैशाली पर प्राक्रमण · कूणिक का वैशाली गणतन्त्र के शक्तिशाली महाराजा चेटक के साथ बड़ा भीषण युद्ध हुआ । उस युद्ध के कारण हुए भयंकर नरसंहार में मृतकों की संख्या एक करोड़, अस्सी लाख बतायी गयी है। ___ इस यद्ध का उल्लेख गोशालक ने चरम रथ-मसल संग्राम के रूप में किया है। बौद्ध ग्रन्थों में भी इस युद्ध का कुछ विवरण दिया गया है, पर जैन आगम 'भगवती सूत्र' में इसका विस्तारपूर्वक उल्लेख उपलब्ध होता है । यह तो पहले बताया जा चका है कि श्रेणिक की महारानी चेलना महाराज चेटक की पुत्री थी और कणिक महाराज चेटक का दौहित्र । अपने नाना चेटक के साथ करिणक के युद्ध के कारण जैन साहित्य में यह बताया गया है कि श्रेणिक द्वारा जो हाथी एवं हार हल्ल और विहल्ल कुमार को दिये गये थे, उनके कारण वे दोनों राजकुमार बड़े सौभाग्यशाली और समृद्ध समझे जाते थे । हल्ल और विहल्ल कुमार अपनी रानियों के साथ उस हस्ती-रत्न पर प्रारूढ़ हो प्रतिदिन गंगानदी के तट सर जलक्रीड़ा करने जाते । देवप्रदत्त देदीप्यमान हार धारण किये उनको उस सुन्दर गजराज पर बैठे देख कर नागरिक मुक्तकण्ठ से उनकी प्रशंसा करते और कहते कि राज्य-श्री से भी बढ़ कर देवोपम वैभव का उपभोग तो ये दोनों कुमार कर रहे हैं । हल्ल-विहल्ल के सौभाग्य की सराहना सुनकर कूणिक की महारानी १ उववाई सूत्र । Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाली पर पाक्रमण] भगवान् महावीर पद्मावती ने हल्ल-विहल्ल से हार और हाथी हथियाने का कूणिक के सम्मुख हठ किया। प्रारम्भ में तो कणिक ने यह कह कर टालना चाहा कि पिता द्वारा उन्हें प्रदत्त हार तथा हाथी उनसे लेना किसी तरह न्यायसंगत नहीं होगा पर अन्त में नारीहठ के समक्ष कणिक को झकना पड़ा। कूणिक ने हल्ल और विहल्ल कुमार के सामने सेचनक हाथी और देवदिन्न हार उसे देने की बात रखी। हल्ल और विहल्ल ने उत्तर में कहा कि पिताजी द्वारा दिये गये हार और हाथी पर उन दोनों भाइयों का वैधानिक अधिकार है। इस पर भी चम्पा-नरेश लेना चाहते हैं तो उनके बदले में प्राधा राज्य देदें। कूणिक ने अपने भाइयों की न्यायोचित मांग को अस्वीकार कर दिया । इस पर हल्लं और विहल्ल बल-प्रयोग की आशंका से अपने परिवार सहित सेचनक पर सवार हो, हार लेकर वैशाली नगर में अपने नाना चेटक के पास चले गये। हल्ल-विहल्ल के सपरिवार वैशाली चले जाने की सूचना पा कर कूणिक बड़ा क्रुद्ध हुआ। उसने महाराज चेटक के पास दूत भेज कर कहलवाया कि हार एवं हाथी के साथ हल्ल और विहल्ल कुमार को उसके पास भेज दिया जाय। महाराज चेटक ने दूत के साथ कूणिक के पास सन्देश भेजा कि दोनों . कुमार उनके शरणागत हैं। एक क्षत्रिय से कभी यह प्राशा नहीं की जा सकती कि वह अपनी शरण में आये हुए को अन्याय में पिलने के लिये असहाय के रूप में छोड़ दे। चम्पाधीश यदि हार और हाथी चाहते हैं तो उनके बदले में चम्पा का प्राधा राज्य दोनों कुमारों को दे दें । महाराज चेटक के उत्तर से ऋद्ध हो अपनी और अपने दस भाइयों की प्रबल सेनाओं के साथ करिणक ने वैशाली पर आक्रमण कर दिया। महाराज चेटक भी अपनी, काशी तथा कोशल के नौ लिच्छवी और नौ मल्ली गणराजाओं की विशाल वाहिनी के साथ रणांगण में प्रा डटे। अपने भाई काल कुमार को कणिक ने सेनापतिपद पर अभिषिक्त किया। काल कुमार ने गरुडव्यूह की रचना की और महाराज चेटक ने शकटव्यूह की। रणवाद्यों के तुमुलघोष से आकाश को आलोडित करती हुई दोनों सेनाएं मापस में भिड़ गई। दोनों प्रोर के अगणित योद्धा रणक्षेत्र में जूझते हुए धराशायी हो गये, पर दोनों सेनामों की व्यूह रचना अभेद्य बनी रही। Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [कूणिक द्वारा बिना किसी प्रकार की नवीन उपलब्धि के ही युद्ध के प्रथम दिवस का अवसान होने जा रहा है यह देख कर कणिक के सेनापति काल ने कृतान्त की तरह क्रुद्ध हो महाराज चेटक की ओर अपना हाथी बढ़ाया और उन्हें युद्ध के लिये आमन्त्रित किया। विशाल भाल पर त्रिबली के साथ उपेक्षा की मुस्कान लिये चेटक ने भी गजवाहक को अपना गजराज कालकुमार की ओर बढ़ाने का आदेश दिया। दोनों योद्धाओं की आयु में आकाश-पाताल का सा अन्तर था । बुढ़ापे और यौवन की अद्भुत स्पर्धा पर क्षण भर के लिये दोनों ओर की सेनाओं की अपलक दृष्टि जम गई । मातामह का समादर करते हुए काल कुमार ने कहा- "देवार्य ! पहले आप अपने दौहित्र पर प्रहार कीजिये।" घन-गम्भीर स्वर में चेटक ने कहा-"वत्स ! पहले तुम्हें ही प्रहार करना पड़ेगा क्योंकि चेटक की यह अटल प्रतिज्ञा सर्वविदित है कि वह प्रहर्ता पर ही प्रहार करता है।" कालकूमार ने आकर्णान्त कोदण्ड की प्रत्यंचा तान कर चेटक के भाल को लक्ष्य बना अपनी पूरी शक्ति से सर छोड़ा। चेटक ने अद्भुत हस्तलाघव से सब को आश्चर्यचकित करते हुए अपने अर्द्ध चन्द्राकार फल वाले बाण से कालकुमार के तीर को अन्तराल मार्ग (बीच राह) में ही काट डाला। तदनन्तर अपने धनुष की प्रत्यंचा पर सर-संधान करते हुए महाराज चेटक ने काल कुमार को सावधान करते हुए कहा-"कुमार ! अब इस वृद्ध के शर-प्रहार से अपने प्राणों का त्राण चाहते हो तो रणक्षेत्र से मुह मोड़ कर चले जानो अन्यथा मृत्यु का आलिंगन करने के लिए तत्पर बनो।" काल कुमार अपने शैलेन्द्र-शिला सम विशाल वक्षस्थल को फुलाये रणक्षेत्र में डटा रहा। दोनों ओर की सेनाएं श्वास रोके यह सब दृश्य देख रही थी। अनिष्ट की प्राशंका से कूणिक के सैनिकों के हृदय धड़कने लगे। क्योंकि सब इस तथ्य से परिचित थे कि भगवान महावीर के परमभक्त श्रावक होने के कारण चेटक ने यद्यपि यह प्रतिज्ञा कर रखी थी कि वे एक दिन में केवल एक ही बाण चलायेंगे पर उनका वह शरप्रहार भी मृत्यु के समान अमोघ और अचूक होता है। ___ महाराज चेटक ने कुमार काल के भाल को निशाना बनाकर अपने अमोघ शर का प्रहार किया। रक्षा के सब उपाय निष्फल रहे और काल कुमार उस शर के प्रहार से तत्क्षण काल कवलित हो अपने हाथी के होदे पर सदा के लिये सो गये। Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाली पर प्राक्रमरण ] भगवान् महावीर कूरिक के सेनापति के देहावसान के साथ ही दिवस का भी अवसान हो गया, मानो काल कुमार की अकाल मृत्यु से अवसन्न हो अंशुमाली अस्ताचल की प्रोट में हो गए। उस दिन का युद्ध समाप्त हुआ । कूरिणक की सेनाएँ शोकसागर में डूबी हुई और वैशाली की सेनायें हर्ष सागर में हिलोरें लेती हुई अपनेअपने शिविरों की ओर लौट गई । काल कुमार की मृत्यु के पश्चात् उसके महाकाल प्रादि शेष भाई भी प्रतिदिन एक के बाद एक क्रमश: कूरिणक द्वारा सेनापति पद पर अभिषिक्त किये जाकर वैशाली गणराज्य की सेना से युद्ध करने के लिए रग क्षेत्र में जाते रहे और महाराज चेटक द्वारा & ही भाई प्रतिदिन एक एक शर के प्रहार से 8 दिनों में यमधाम पहुँचा दिये गए । ૭૪૨ इन दिनों में ही अपने दुर्द्धर्ष योद्धा दस भाइयों और सेना का संहार देख कर कूरिणक की जयाशा निराशा में परिणत होने लगी । वह अगाध शोक सागर में निमग्न हो गया । अन्त में उसने दैवीशक्ति का सहारा लेने का निश्चय किया । उसने दो दिन उपोषित रह कर शक्रेन्द्र और चमरेन्द्र का चिन्तन किया । पूर्वजन्म की मैत्री और तप के प्रभाव से दोनों इन्द्र कूरिणक के समक्ष उपस्थित हुए । उन्होंने उससे उन्हें याद करने का कारण पूछा । कूणिक ने आशान्वित हो कहा--"यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा कर चेटक को मौत के घाट उतार दीजिए । क्योंकि मैंने यह प्रतिज्ञा की है कि या तो वैशाली को पूर्णतः विनष्ट करके वैशाली की भूमि पर गधों से हल चलवाऊँगा, अन्यथा उत्तुंग शैलशिखर से गिर कर प्राणान्त कर लूंगा । इस चेटक ने अपने अमोघ बाणों से मेरे दस भाइयों को मार डाला है ।" ______" देवराज शक्र ने कहा- "प्रभु महावीर के परम भक्त श्रावक और मेरे स्वधर्मी बन्धु चेटक को मैं मार तो नहीं सकता पर उसके अमोघ बाण से तुम्हारी रक्षा प्रवश्य करूंगा ।" यह कह कर कूरिणक के साथ अपने पूर्वभव की मित्रता का निर्वाह करते हुए. शक ने कूरिक को वज्रोपम एक अभेद्य कवच दिया । चमरेन्द्र पूरण तापस के अपने पूर्वभव में कूरिणक के पूर्वभवीय तापसजीवन का साथी था । उस प्रगाढ़ मैत्री के वशीभूत चमरेन्द्र ने कूरिक को 'महाशिला कंटक' नामक एक भीषण प्रक्षेपणास्त्र और 'रथमूसल' नामक एक प्रलयंकर अस्त्र ( आधुनिक वैज्ञानिक युग के उत्कृष्ट कोटि के टैंकों से भी कहीं afre शक्तिशाली युद्धोपकरण) बनाने व उनके प्रयोग की विधि बताई । Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [महाशिला-कंटक युद्ध __ महाशिला-कंटक युद्ध चमरेन्द्र के निर्देशानुसार कूणिक महाशिलाकंटक नामक महान संहारक अस्त्र (प्रक्षेपणास्त्र) को लेकर उद्वेलित सागर की तरह भीषण, विशाल चतुरंगिणी सेना के साथ रणांगण में उतरा। काशी कोशल के 8 मल्ली और लिच्छवी, इन १८ गणराज्यों की और अपनी दुर्दान्त सेना के साथ महाराज चेटक भी रणक्षेत्र में कूणिक की सेना से लोहा लेने आ डटे। दोनों सेनाओं में बड़ा लोमहर्षक युद्ध हुआ । कूणिक की सहायता के लिए शक्र और चमरेन्द्र भी उनके साथ युद्धस्थल में उपस्थित थे। देखते ही देखते युद्धभूमि दोनों पक्षों के योद्धाओं के रुण्ड मुण्डों से आच्छादित हो गयी। चेटक और १८ गणराज्यों की सेनाओं ने बड़ी वीरता के साथ डट कर कूणिक की सेना के साथ युद्ध किया। चेटक ने अपने हाथी को आगे बढ़ाया, अपने धनुष पर शरसन्धान कर प्रत्यंचा को अपने कान तक खींचा और कृरिणक पर अपना अमोघ तीर चला दिया। पर इस बार वह तीर शक्र द्वारा प्रदत्त कणिक के वज्र कवच से टकरा कर टुकड़े-टुकड़े हो गया। अपने अमोघ बाण को मोघ हुआ देख कर भी सत्यसन्ध चेटक ने उस दिन दूसरा बारण नहीं चलाया । कणिक ने चमरेन्द्र द्वारा विकुर्वित 'महाशिला कंटक' अस्त्र का प्रयोग किया। इस यंत्र के माध्यम से जो तण, काष्ठ, पत्र, लोष्ठ अथवा बालुका-कण वैशाली की सेना पर फेंके जाते उनके प्रहार विस्तीर्ण शिलानों के प्रहारों से भी अति भयंकर होते। कुछ ही समय में वैशाली के लाखों योद्धा धेराशायी हो गये चेक की सेना में इन शिलोपम प्रहारों से भगदड़ मच गई । अठारहों मल्ली और लिच्छवी गणराजाओं की सेनाएं इस प्रलय से बचने के लिये रणक्षेत्र में पीठ दिखा कर भाग गई । __ इस एक दिन के महाशिलाकंटक संग्राम में ८४ लाख योद्धा मारे गये । 'महाशिलाकंटक' नामक नरसंहारक युद्धोपकरण का प्रयोग किये जाने के कारण इस दिन का युद्ध 'महाशिलाकंटक संग्राम' के नाम से विख्यात हुआ । रथमूसल संग्राम दूसरे दिन कणिक 'रथमूसल' नामक प्रलयंकर स्वचालित यंत्र लेकर अपनी सेनाओं के साथ रणक्षेत्र में पहुँचा । __ महाराज चेटक और उनके सहायक १८ गणराज्यों की सेनामों ने बड़ी देर तक कणिक की सेनाओं के साथ प्राणपण से युद्ध किया। चेटक ने भागे बढ़ कर कणिक पर एक बाण का प्रहार किया, पर चमरेन्द्र के प्रायस पट्ट से टकरा Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रथमूसल संग्राम] भगवान् महावीर ७५१ कर वह टूक-टूक हो गया । दृढ़-प्रतिज्ञ चेटक ने उस दिन फिर कोई दूसरा बाण नहीं चलाया। जिस समय युद्ध उग्र रूप धारण कर रहा था उस समय कणिक ने वैशाली की सेनाओं पर 'रथमसल' अस्त्र का प्रयोग किया। प्रलय के दूत के समान दैत्याकार लोहसार का बना स्वचालित रथमसल यन्त्र बिना किसी वाहन, वाहक और आरोही के, अपनी प्रलयकालीन घनघोर मेघ घटानों के समान घर्राहट से धरती को कैंपाता हुमा विद्युतवेग से वैशाली की सेनाओं पर झपटा। उसमें लगे यमदण्ड के समान मूसल स्वतः ही अनवरत प्रहार करने लगे। उसकी गति इतनी तीव्र थी कि वह एक क्षण में चारों ओर सब जगह शत्रुओं का संहार करता हुआ दिखाई दे रहा था। तपस्वी १२ व्रतधारी श्रावक योद्धा नाग का पौत्र वरुण षष्टभक्त का पारण किये बिना ही अष्टम भक्त तप कर चेटक आदि के अनुरोध पर रथमूसल अस्त्र को विनष्ट करने की इच्छा लिये संग्राम में आगे बड़ा । करिणक के सेनापति ने उसे युद्ध के लिये ललकारा। वरुण ने कहा कि वह श्रावक होने के कारण किसी पर पहले प्रहार नहीं करता। इस पर कूणिक की सेना के सेनापति ने वरुण के मर्मस्थल पर तीर का तीक्ष्ण प्रहार किया। मर्माहत होते हुए भी वरुण ने एक ही शरप्रहार से उस सेनापति को मौत के घाट उतार दिया। अपनी मृत्यु सन्निकट जान कर वह युद्धभूमि से दूर चला गया और आलोचनाअनशनादिपूर्वक प्राण त्याग कर प्रथम स्वर्ग में उत्पन्न हुआ। उधर तीव्रगति से चारों ओर घूमते हुए रथमसल यंत्र ने वैशाली की सेना को पीस डाला। यद्ध के मैदान में चारों ओर रुधिर और मांस का कीचड़ ही कीचड़ दृष्टिगोचर हो रहा था । रथमसल अस्त्र द्वारा किये गये प्रलयोपम भीषण नरसंहार व रुधिर, मांस और मज्जा के कर्दम के वीभत्स एवं हृदयद्रावक दृश्य को देखकर मल्लियों और लिच्छवियों के १८ गणराज्यों की सेनाओं के अवशिष्ट सैनिक भयभीत हो प्राण बचाकर अपने २ नगरों की ओर भाग गये। इस एक दिन के रथमूसल संग्राम में ६६ लाख सैनिकों का संहार हुआ। इस दिन के युद्ध में 'रथमूसल' अस्त्र का उपयोग किया गया, इसलिये इस दिन का युद्ध 'रथमूसल संग्राम' के नाम से विख्यात हुआ। ___ सब सैनिकों के मैदान छोड़कर भाग खड़े होने पर और कोई उपाय न देख महाराज चेटक ने भी बचे खुचे अपने योद्धानों के साथ वैशाली में प्रवेश किया और नगर के सब द्वार बन्द कर दिये । Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [रथमूसल संग्राम कूणिक ने अपनी सेनाओं के साथ वैशाली के चारों ओर घेरा डाल दिया। जैन आगम और आगमेतर साहित्य से ऐसा आभास होता है कि करिणक ने काफी लम्बे समय तक वैशाली को घेरे रखा । रात्रि के समय में हल्ल और विहल्ल कुमार अपने अलौकिक सेचनक हाथी पर आरूढ़ हो नगर के बाहर निकल कर कणिक की सेना पर भीषण शस्त्रास्त्रों की वर्षा करते और कुणिक के सैनिकों का संहार करते । उस दिव्य हस्तिरत्न पर आरूढ़ हल्ल विहल्ल का कूरिणक के सैनिक बाल तक बाँका नहीं कर सके। वैशाली के अभेद्य प्राकार को तोड़ने हेतु करिणक ने अनेक प्रकार के उपाय और प्रयास किये, पर उसे किंचित मात्र भी सफलता नहीं मिली। उधर प्रत्येक रात्रि को सेचनक हाथी पर सवार हो हल्ल विहल्ल द्वारा कृरिणक की सेना के संहार करने का क्रम चलता रहा जिसके कारण कणिक की सेना की बड़ी भारी क्षति हुई । कूणिक दिन प्रतिदिन हताश और चिन्तित रहने लगा। अन्ततोगत्वा किसी अदृष्ट शक्ति से कुणिक को वैशाली के भंग करने का उपाय विदित हा कि चम्पा की मागधिका नाम की वारांगना यदि कूलवालक नामक तपस्वी श्रमण को अपने प्रेमपाश में फँसा कर ले आये तो वह कूलवालक श्रमण वैशाली का भंग करवा सकता है । कूणिक ने अनेक प्रलोभन देकर इस कार्य के लिए मागधिका को तैयार किया। चतुर गणिका मागधिका ने परम श्रद्धालु श्राविका का छद्म-वेश बना कर कूलवालक श्रमरण को अपने प्रेमपाश में बाँध लिया और श्रमरण धर्म से भ्रष्ट कर उसे मगधेश्वर कूणिक के पास प्रस्तुत किया । कूणिक अपनी चिर-अभिलषित पाशालता को फलवती होते देख बड़ा प्रसन्न हुआ और कूलवालक के वैशाली में प्रविष्ट होने की प्रतीक्षा करने लगा। . इसी बीच हल्ल विहल्ल द्वारा प्रतिरात्रि की जा रही अपनी सैन्यशक्ति की क्षति के सम्बन्ध में कूरिणक ने अपने मन्त्रियों के साथ मंत्रणा की। मंत्रणा के निष्कर्ष स्वरूप सेचनक के आगमन की राह में एक खाई खोदकर खैर के जाज्ज्वल्यमान अंगारों से उसे भर दिया और उसे लचीली धातु के पत्रों से आच्छादित कर दिया। रात्रि के समय शस्त्रास्त्रों से सन्नद्ध हो हल्ल और विहल्ल सेचनक हाथी पर आरूढ़ हो वैशाली से बाहर आने लगे तो सेचनक अपने विभंग-ज्ञान से उस खाई को अंगारों से भरी जान कर वहीं रुक गया। इस पर हल्ल विहल्ल ने कुपित हो सेचनक पर वाग्बाणों की बौछार करते हुए कहा-“कायर ! तू युद्ध से कतरा कर अड़ गया है। तेरे लिये हमने अपने नगर एवं परिजन को छोड़ा, देवोपम पूज्य नानाजी को घोर संकट में ढकेला, पर आज तू युद्ध से डर कर Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रथमूसल संग्राम] भगवान् महावीर ७५३ स्वामिभक्ति से मुह मोड़ रहा है, तुझ से तो एक कुत्ता ही अच्छा जो मरते दम तक भी स्वामिभक्ति से विमुख नहीं होता।" अपने स्वामी के असह्य वाग्बाणों से सेचनक तिलमिला उठा । मूक पशु बोलता तो क्या उसने अपनी पीठ पर से दोनों कुमारों को उतारा और तत्काल प्रच्छन्न आग में कूद पड़ा। हल्ल और विहल्ल के देखते ही देखते वह धधकती हुई आग में जलकर राख हो गया। हल्ल और विहल्ल को यह देख कर बड़ा पश्चात्ताप हुआ। उन्हें अपने जीवन से घुरणा हो गई। उन्होंने निश्चय किया कि यदि भगवान् महावीर के चरणों को शरण में नहीं पहुँच सके तो वे दोनों अपने जीवन का अन्त कर लेंगे। जिनशासन-रक्षिका देवी ने उन्हें अन्तर्मन से दीक्षित समझ कर तत्काल प्रभ की चरण-शरण में पहुँचा दिया। हल्ल और विहल्ल कुमार ने प्रभ महावीर के पास श्रमण-दीक्षा स्वीकार कर ली । उधर कुलवालक ने नैमित्तिक के रूप में बड़ी सरलता से वैशाली में प्रवेश पा लिया। ___संभव है, उसने वैशाली भंग के लिये नगरी में घूम कर श्रद्धालु नागरिकजनों में भेद डालने और कूणिक को आक्रमण के लिए सुविधा प्रदान करने की भूमिका का निर्माण किया हो। बौद्ध साहित्य में वस्सकार द्वारा वैशाली के सुसंगठित नागरिकों में फूट डालने के उल्लेख की भी पुष्टि होती है । पर आवश्यक नियुक्ति और चणिकार ने वैशाली भंग में कूलवालक द्वारा स्तूप के पतन को कारण माना है, जो इस प्रकार है : _ "कूलवालक ने वैशाली में घूम कर पता लगा लिया कि भगवान मुनिसुव्रत के एक भव्य स्तूप के कारण वैशाली का प्राकार अभेद्य बना हुआ है। दुश्मन के घेरे से ऊबे हुए नागरिकों ने कूलवालक को नैमित्तिक समझकर बड़ी उत्सुकता से पूछा- "विद्वन् ! शत्रु का यह घेरा कब तक हटेगा ?" कुलवालक ने उपयुक्त अवसर देख कर कहा- "यह स्तूप बड़े अशुभ मुहूर्त में बना है। इसी के कारण नगर के चारों ओर घेरा पड़ा हुआ है । यदि इसे तोड़ दिया जाय तो शत्रु का घेरा हट जायगा। कुछ लोगों ने स्तूप को तोड़ना प्रारम्भ किया। कूलवालक ने कूणिक को संकेत से सूचित किया। कुणिक ने अपने सैनिकों को घेरा-समाप्ति का आदेश दिया । स्तूप के ईषत् भंग का तत्काल चमत्कार देखकर नागरिक बड़ी संख्या में Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [रथमूसल संग्राम स्तूप का नामोनिशां तक मिटा देने के लिये टूट पड़े। कुछ ही क्षणों में स्तूप का चिह्न तक नहीं रहा। कलवालक से इष्टसिद्धि का संकेत पा कणिक ने वैशाली पर प्रबल माक्रमण किया । उसे इस बार वैशाली का प्राकार भंग करने में सफलता प्राप्त हो गई। कूणिक ने अपनी सेना के साथ वैशाली में प्रवेश किया और बड़ी निर्दयतापूर्वक वैशाली के वैभवशाली भवनों की ईंट से ईंट बजा दी। वैशाली भंग का समाचार सुनकर महाराज चेटक ने अनशनपूर्वक प्राणत्याग किया और वे देवलोक में देवरूप से उत्पन्न हुए। उधर कणिक ने वैशाली नगर की उजाडी गई भूमि पर गधों से हल फिरवाये और अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण कर सेना के साथ चम्पा की ओर लौट गया। परम प्रामाणिक माने जाने वाले 'भगवती-सूत्र' और 'निरयावलिका' में दिये गये इस युद्ध के विवरणों से यह सिद्ध होता है कि वैशाली के उस युद्ध में माज के वैज्ञानिक युग के प्रक्षेपणास्त्रों और टैंकों से भी प्रति भीषण संहारकारक 'महाशिलाकंटक' और 'रथमसल' अस्त्रों का उपयोग किया गया। इनके सम्बन्ध में भगवती सूत्र के दो मूल पाठकों के विचारार्थ यहाँ दिये जा रहे हैं। गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा : "से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चई महासिलाकंटए संगामे ?" भगवान् महावीर ने गौतम द्वारा प्रश्न करने पर फरमाया-“गोयमा ! महासिलाकंटए णं संगामे वट्टमाणे जे तत्थ आसे वा, हत्थी वा, जोहे वा, सारही वा तणेणवा, पत्तेण वा, कट्ठण वा, सक्कराए वा अभिहम्मइ सव्वे से जाणइ महासिलाए अहं अभिहए, से तेरणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चई महासिलाकटए संगामे ।" [भगवती, श० ७, उ०६] इस एक दिन के महाशिलाकंटक युद्ध में मृतकों की संख्या के सम्बन्ध में गौतम के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् ने फरमाया-"गोयमा ! चउरासीई जणसयसाहस्सियाप्रो बहियारो।" ___ इसी प्रकार गौतम गणधर ने रथमूसल संग्राम के सम्बन्ध में प्रश्न किये"से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ रहमुसले संगामे ?" उत्तर में भगवान महावीर ने फरमाया-"गोयमा ! रहमुसलेणं संगामे ___वट्टमाणे एगे रहे प्रणासए असारहिए, अणारोहए, समुसले, महयामहया Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५५ रथमूसल संग्राम] भगवान् महावीर जणक्खयं, जणवहं, जणप्पमई, जणसंवट्टकप्पं रुहिरकद्दमं करेमाणे सव्वप्रो समंता परिधावित्था, से तेणठेणं जाव रहमुसले संगामे ।" गौतम द्वारा 'रसमूसल संग्राम' में मृतकों की संख्या के सम्बन्ध में किये गये प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रभु महावीर ने कहा-“गोयमा ! छण्णउई जणसयसाहस्सीओ वहियाओ।" भगवती सूत्र के उपर्युक्त उद्धरणों से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रलय के समान शक्ति रखने वाले वे दोनों अस्त्र कितने भयंकर होंगे। उन दो महान शक्तिशाली यद्धास्त्रों को पाकर कणिक अपने आपको विश्वविजयी एवं अजेय समझने लगा, तथा संभव है, इसी कारण उसके हृदय में अधिक महत्त्वाकांक्षाएं जगीं और उसके सिर पर चक्रवर्ती बनने की धुन सवार हुई । उन दिनों भगवान् महावीर चम्पा के पूर्णभद्र चैत्य में विराजमान थे। कणिक भगवान महावीर की सेवा में पहुंचा। सविधि वन्दन के पश्चात उसने भगवान् से पूछा-"भगवन् ! क्या मैं भरत-क्षेत्र के छ खण्डों को जीतकर चक्रवर्ती बन सकता हूं?" भगवान् महावीर ने कहा-"नहीं कूणिक ! तुम चक्रवर्ती नहीं बन सकते। प्रत्येक उत्सर्पिणीकाल और प्रवसर्पिणीकाल में बारह-बारह चक्रवर्ती होते हैं। तदनुसार-प्रवर्तमान अवसर्पिणीकाल के बारह चक्रवर्ती हो चुके हैं, अतः तुम चक्रवर्ती नहीं हो सकते। कूणिक ने पुनः प्रश्न किया-"भगवन् ! चक्रवर्ती की पहचान क्या है ?" भगवान् महावीर ने कहा-"कूणिक ! चक्रवर्ती के यहाँ चक्रादि चौदह रत्न होते हैं।" कूरिणक ने भगवान् महावीर से चक्रवर्ती के चौदह रत्नों के सम्बन्ध में पूरी जानकारी प्राप्त की और प्रभु को वन्दन कर वह अपने राजप्रासाद में सौट माया। कूणिक भली भाँति जानता था कि भगवान् महावीर त्रिकालदर्शी हैं, किन्तु वह वैशाली के युद्ध में महाशिलाकंटक प्रस्त्र और रथमसल यन्त्र का प्रत्यदर्भात चमत्कार देख चुका था, अतः उसके हृदय में यह महम् घर कर गया कि उन दो कल्पान्तकारी यन्त्रों के रहते संसार की कोई भी शक्ति उसे चक्रवर्ती बनने से नहीं रोक सकती। उसने उस समय के श्रेष्ठतम शिल्पियों से चक्रवर्ती के पक्रादि कृत्रिम रत्न बनवाये और प्रष्टम भक्त कर षटखण्ड-विजय के लिये उन अदभुत शक्तिशाली यन्त्रों एवं प्रबल सेना के साथ निकल पड़ा। Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [रथमूसल संग्राम महाशिलाकण्टक प्रस्त्र और रथमसल यन्त्र के कारण उस समय दिग्दिगन्त में कूरिणक की धाक जम चुकी थी, अतः ऐसा अनुमान किया जाता है कि भारतवर्ष और अड़ोस-पड़ोस की कोई राज्यशक्ति कणिक के समक्ष प्रतिरोध करने का साहस नहीं कर सकी । कणिक अनेक देशों को अपने अधीन करता हा तिमिस्र गुफा के द्वार तक पहुंच गया। अष्टम भक्त कर कूणिक ने तिमिस्र गुफा के द्वार पर दण्ड-प्रहार किया। तिमिस्र गुफा के द्वाररक्षक देव ने अदृश्य रहते हुए पूछा- "द्वार पर कौन है ?" कूणिक ने उत्तर दिया-"चक्रवर्ती अशोकचन्द्र ?" देव ने कहा-"चक्रवर्ती तो बारह ही होते हैं और वे हो चुके हैं। कूरिणक ने कहा-“मैं तेरहवां चक्रवर्ती हूं।" इस पर द्वाररक्षक देव ने क्रुद्ध होकर हुंकार की और कूणिक तत्क्षण वहीं भस्मसात् हो गया । मर कर वह छठे नरक में उत्पन्न हुआ। भगवान महावीर का परमभक्त होते हए भी कणिक स्वार्थ और तीव्र लोभ के उदय से मार्गच्युत हो गया और तीव्र आसक्ति के कारण वह दुर्गति का अधिकारी बना। करिणक की सेना कृणिक के भस्मसात् होने के दृश्य को देखकर भयभीत हो चम्पा की ओर लौट गई। __ वस्तुतः कणिक जीवन भर भगवान् महावीर का ही परमभक्त रहा। कूणिक के महावीर-भक्त होने में ऐतिहासिकों के विचार इस प्रकार हैं : डॉ० स्मिथ कहते हैं-"बौद्ध और जैन दोनों ही अजातशत्रु को अपनाअपना अनुयायी होने का दावा करते हैं, पर लगता है, जैनों का दावा अधिक प्राधारयुक्त है।" ___डॉ० राधाकुमुद मुखर्जी के अनुसार-"महावीर और तुद्ध की वर्तमानता में तो अजातशत्रु महावीर का ही अनुयायी था।" उन्होंने यह भी लिखा है"जैसा प्रायः देखा जाता है, जैन अजातशत्र और उदाइभद्द दोनों को अच्छे चरित्र का बतलाते हैं, क्योंकि दोनों जैन धर्म को मानने वाले ये । यही कारण है कि बौद्ध ग्रन्थों में उनके चरित्र पर कालिख पोती गई है। इन सब प्रमाणों से यह निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है कि कूरिणकअजातशत्रु जीवन भर भगवान् महावीर का परमभक्त रहा। १कूणिक का वास्तविक नाम- प्रलोकचन्द्र पा । मंगुली के प्रण के कारण सब उसे कूणिक कहते थे। [प्राप० चूणि] Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराजा उदायन] भगवान् महावीर ७५७ महाराजा उदायन भगवान महावीर के उपासक, परमभक्त अनेकानेक शक्तिशाली छत्रपतियों को गणना में श्रेणिक, कणिक और चेटक की तरह महाराजा उदायन भी अग्रगण्य नरेश माने गये हैं। ___महाराजा उदायन सिन्धु-सौवीर राज्य के शक्तिशाली एवं लोकप्रिय नरेश थे । आपके राज्य में सोलह बड़े-बड़े जनपद एवं ३६३ सुन्दर नगर और इतनी ही बड़ी-बड़ी खदानें थीं। दस छत्र-मुकुटधारी महीपाल और अनेक छोटे-मोटे अवनीपति एवं सार्थवाह आदि महाराज उदायन की सेवा में निरन्तर निरत रहते थे। सिन्धु-सौवीर राज्य की राजधानी वीतिभय नगर था, जो उस समय के नगरों में बड़ा विशाल, सुन्दर और सब प्रकार की समृद्धि से सम्पन्न था । महाराज उदायन की महारानी का नाम प्रभावती और पुत्र का नाम अभीच कुमार था । केशी कुमार नामक इनका भानजा भी उनके पास ही रहता था। उदायन का उस पर बड़ा स्नेह था।' महाराजा उदायन एक महान शक्तिशाली राज्य के एकछत्र अधिपति होते हुए भी बड़े धर्मानुरागी और भगवद्भक्त थे । वे भगवान् महावीर के बारह व्रतधारी श्रावक थे। उनके न्याय-नीतिपूर्ण शासन में प्रजा पूर्णरूपेण सुखी थी। महाराज उदायन की भगवान् महावीर के वचनों पर बड़ी श्रद्धा थी। एक समय महाराजा उदायन अपनी पौषधशाला में पोषध किये हुए जद रात्रि के समय धर्मचिंतन कर रहे थे उस समय उनके मन मे भगवान महावीर के प्रति उत्कृष्ट भक्ति के उद्रेक से इस प्रकार की भावना उत्पन्न हुई-"धन्य है वह नगर, जहां श्रमण भगवान महावीर विराजमान हैं। अहोभाग्य है उन नरेशों और भव्य नागरिकों का जो भगवान के दर्शनों से अपना जीवन सफल करते और उनके पतितपावन चरणारविन्दों में सविधि वन्दन करते हैं, उनकी मनसा, वाचा, कर्मणा सेवा करके कृतकृत्य हो रहे हैं तथा भगवान् की भवभयहारिणी सकल कल्मष विनाशिनी अमृतमयी अमोघ वाणी सुनकर भवसागर से पार हो रहे हैं । मेरे लिए वह सुनहरा दिन कब उदित होगा जब मैं अपने इन नेत्रों से जगद्गुरु श्रमण भगवान महावीर के दर्शन करूंगा, उन्हें सविधि वन्दन करूंगा, पर्युपासना-सेवा करूंगा और उनकी पीयूषवर्षिणी वाणी सुनकर अपने कर्णरन्ध्रों को पवित्र करूंगा। महाराज उदायन की इस प्रकार की उत्कृष्ट अभिलाषा त्रिकालदर्शी सर्वज्ञ प्रभु से कैसे छिपी रह सकती थी ? प्रभु दूसरे ही दिन चम्पा नगरी के पूर्ण १ भववती शतक, श० १२, उ०२। Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [महावीर उदायन भद्र उद्यान से विहार कर क्रमशः वीतभया नगरी के मृगवन नामक उद्यान में पधारं गये । सत्य ही है-उत्कृष्ट अभिलाषा सद्यः फलप्रदायिनी होती है। भगवान् के शुभागमन का सुसंवाद सुनकर उदायन के मानन्द का पारावार नहीं रहा। इच्छा करते ही जिस व्यक्ति के सम्मुख स्वयं कल्पतरु उपस्थित हो जाय उसके प्रानन्द का कोई क्या अनुमान कर सकता है ? उदायन ने प्रभु के आगमन का संवाद सुनते ही सहसा सिंहासन से समुत्थित हो सात पाठ डग उस दिशा की ओर बढ़कर, जिस दिशा में त्रिलोकीनाथ प्रभु विराजमान थे, प्रभु को तीन बार भावविभोर हो सविधि वन्दन किया और तत्क्षण सकल परिजन, पुरजन तथा अधिकारीगण सहित वह प्रभु की सेवा में मगवन उद्यान में पहुँचा। यथाभिलषित सविधि वन्दना, पर्युपासना के पश्चात् उसने प्रभु का हृदयहारी, पुनीत प्रवचन सुना। भगवान् महावीर ने संसार की क्षणभंगुरता एवं प्रसारता, वैराग्य की अभयता-महत्ता तथा मोक्ष-साधन की परम उपादेयता का चित्रण करते हुए ज्ञानादि की ऐसी त्रिवेणी प्रवाहित की कि सभी सभासद चित्रलिखित से रह गये। महाराजा उदायन पर भगवान् के वीतरागतामय उपदेश का ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह संसार के भोगोपभोगों को विषतुल्य हेय समझकर अक्षय शिव-सुख की कामना करता हुया भगवान् से निवेदन करने लगा- "भगवन् ! मेरे अन्तर्चक्ष उन्मीलित हो गये हैं, मुझे यह संसार दावानल के समान दिख रहा है। प्रभो! मैं अपने पुत्र अभीचिकुमार को राज्य सौंपकर श्रीचरणों में दीक्षित होना चाहता हूँ । प्रभो! आप मुझे अपने पावन चरणों में स्थान दीजिये । प्रभु ने फरमाया-"जिस कार्य से सुख प्राप्त हो, उस कल्याणकारी कार्य में प्रमाद मत करो।" महाराजा उदायन परम संतोष का अनुभव करते हुए प्रभु को वन्दन कर नगर की ओर लौटे । मार्ग में उनके मन में विचार आया--- "जिस राज्य को महा दुखानुबन्ध का कारण समझ कर मैं छोड़ रहा हूँ उस राज्य का अधिकारी अगर मैंने अपने पुत्र अभीचिकुमार को बना दिया तो वह अधिक मोही होने से राज्य-भोगों में अन रक्त एवं गृद्ध होकर न मालम कितने अपरिमित समय तक भवभ्रमण करता हुआ जन्म-मरण के असह्य दुःखों का भागी बन जायगा । अतः उसका कल्याण इसी में है कि उसे राज्य न देकर मेरे भानजे केशिकुमार को राज्य दे दूं। तदनुसार राजप्रासाद में आकर महाराज उदायन ने अपने अधीनस्थ सभी राजाओं और सामन्तों को अपना निश्चय सुनाया और अपने भानजे केशिकूमार को अपने विशाल राज्य का अधिकारी बनाकर स्वयं भगवान् महावीर के पास प्रवजित हो गये। पिता द्वारा अपने जन्मसिद्ध पैतृक अधिकार से वंचित किये जाने के Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराजा उदायन] . भगवान् महावीर ७५६ कारण अभीचिकुमार के हृदय पर बड़ा गहरा आघात पहँचा फिर भी कूलोन होने के कारण उसने पिता की आज्ञा का अक्षरशः पालन किया। वह किसी प्रकार के संघर्ष में नहीं उलझा और अपनी चल सम्पत्ति ले सकुटुम्ब मगध-सम्राट कणिक के पास चम्पा नगरी में जा बसा। सम्राट कणिक ने उसे अपने यहां ससम्मान रखा । अभीचिकुमार के मन में पिता द्वारा अपने अधिकार से वंचित रखे जाने की कसक जीवन भर कांटे की तरह चुभती रही। वह भगवान् का श्रद्धालु श्रमणोपासक रहा, पर उसने कभी अपने पिता महाश्रमण उदायन को नमस्कार तक नहीं किया और इस बैर को अन्तर्मन में रखे हुए ही श्रावकधर्म का पालन करते हुए एक मास की संलेषना से आयुष्य पूर्ण कर पिता के प्रति अपनी दुर्भावना की आलोचना बिना किये असुरकुमार देव हो गया। असुरकुमार की आय पूर्ण होने पर वह महाविदेह क्षेत्र में मानवभव प्राप्त कर सिद्ध, बद्ध और मुक्त होगा। __ महाश्रमण उदायन ने दीक्षित होने के पश्चात् एकादश अंगों का अध्ययन किया और कठोर तपस्या से वे अपने कर्म-बन्धनों को काटने में तत्परता से संलग्न हो गये । विविध प्रकार की घोर तपस्याओं से उनका शरीर अस्थिपंजर मात्र रह गया । अन्त-प्रान्तादि प्रतिकूल पाहार से राजषि उदायन के शरीर में भयंकर व्याधि उत्पन्न हो गई । वे वैद्यों के अनुरोध से औषधि-रूप में दधि का सेवन करने लगे। ___एकदा भगवान् की आज्ञा से राजर्षि उदायन एकाकी विचरते हए वीतभय नगर पहुंचे । मंत्री को मालूम हुआ तो उसने दुर्भाव से महाराज केशी के मन को बदलने के लिये कहा कि परीषहों से पराजित हो राजषि उदायन पुनः राज्य लेने के लिये यहाँ आ गये हैं । केशी ने कहा---"कोई बात नहीं, यह राज्य उन्हीं का दिया हुआ है, यदि वे चाहेंगे तो मैं समस्त राज्य उन्हें लौटा दूंगा।" दुष्ट मन्त्री ने अनेक प्रकार से समझाते हुए केशोकुमार से कहा-'राजन् ! यह राजधर्म नहीं है, हाथ में आई राज्यलक्ष्मी का जो निरादर करता है वह कहीं का नहीं रहता । अतः येन केन-प्रकारेण विष प्रयोगादि से उदायन को मौत के घाट उतारने में ही अपना कल्याण है।" मंत्री की धुरिणत राय से केशी भी आखिर सहमत हो गया और उदायन को विपमिश्रित भोजन देने का षड़यंत्र रचा गया। एक ग्वालिन के द्वारा राजर्षि उदायने को विषमिश्रित दधि तीन बार बहराया गया, पर राजर्षि के भक्त एक देव द्वारा तीनों ही बार उस दही का अपहरण कर लिया गया और मुनि उसे नहीं खा सके। किन्तु एक बार देव की असावधानी से मूनि को विषमिश्रित दही गूजरी द्वारा बहरा ही दिया गया । दही के अभाव में मुनि के शरीर में असमाधि रहने लगी थी, अतः उन्होंने दही ले लिया । दही खाने के थोड़ी ही देर बाद विप का प्रभाव होते देख राजपि उदायन सँभल गये और उन्होंने समभाव से संथारा Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् महावीर के कुछ आमरण अनशन धारण कर शुक्ल ध्यान से क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हो केवलज्ञान प्राप्त किया और अर्ध मास की संलेखना से ध्र व, अक्षय, अव्यावाध शाश्वत निर्वाण प्राप्त किया। यही राजर्षि उदायन भगवान महावीर द्वारा अन्तिम मोक्षगामी राजा बताये गये हैं । धन्य है उनकी परम निष्ठा, अविचल श्रद्धा व समता को ! - भगवान महावीर के कुछ अविस्मरणीय संस्मरण पोत्तनपुर नगर की बात है, एक बार भगवान महावीर वहाँ के मनोरम नामक उद्यानस्थ समवशरण में विराजमान थे । पोत्तनपुर के महाराज प्रसन्नचन्द्र प्रभु को वन्दन करने आये और उनका वीतरागपूर्ण उपदेश सुनकर सांसारिक भोगों से विरक्त हो दीक्षित हुए तथा स्थविरों के पास विनयपूर्वक ज्ञानाराधन करते हुए सूत्रार्थ के पाठी हो गये। कुछ काल के बाद पोत्तनपुर से विहार कर भगवान् राजगृह पधारे । मुनि प्रसन्नचन्द्र, जो विहार में भगवान् के साथ थे, राजगृह में भगवान् से कुछ दूर जाकर एकान्त मार्ग पर ध्यानावस्थित हो गये। संयोगवश भगवान् को वन्दन करने के लिये राजा श्रेणिक अपने परिवार व सैन्य सहित उसी मार्ग से गुजरे। उन्होंने राजर्षि प्रसन्नचन्द्र को मार्ग पर एक पैर से ध्यान में खड़े देखा। भक्ति से उन्हें प्रणाम कर वे महावीर प्रभु के पास आये और सविनय वंदन कर बोले"भगवन ! नगरी के बाहर जो राषि उग्र तप के साथ ध्यान कर रहे हैं, वे यदि इस समय काल धर्म को प्राप्त करें तो कौनसी गति में जायें ?" प्रभु मे कहा-"राजन् ! वे सप्तम नरक में जायें ।" प्रभ की वाणी सुनकर श्रेणिक को बड़ा आश्चर्य हया । वे मन ही मन सोचने लगे-क्या ऐसा उग्र तपस्वी भी नरक में जाये, यह संभव हो सकता है ? उन्होंने क्षणभर के बाद पुनः जिज्ञासा करते हुए पूछा-"भगवन् ! वे यदि अभी कालधर्म को प्राप्त करें, तो कहां जायेंगे ?" भगवान् महावीर ने कहा-"सर्वार्थसिद्ध विमान में ।" इस उत्तर को सुनकर श्रेणिक और भी अधिक विस्मित हुए और पूछने लगे-"भगवन ! दोनों समय की बात में इतना अन्तर क्यों ? पहले आपने सप्तम नरक कहा और अब सर्वार्थसिद्ध विमान फरमा रहे हैं ? इस अन्तर का कारण क्या है ?" __ भगवान् महावीर बोले-"राजन् ! प्रथम बार जब तुमने प्रश्न किया था, उस समय ध्यानस्थ मुनि अपने प्रतिपक्षी सामन्तों से मानसिक युद्ध कर रहे थे और बाद के प्रश्नकाल में वे ही अपनी भूल के लिये आलोचना कर उच्च विचारों Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविस्मरणीय संस्मरण] भगवान् महावीर ७६१ की श्रेणी पर आरूढ़ हो गये थे। इसलिये दोनों प्रश्नों के उत्तर में इतना अन्तर दिखाई दे रहा है।" __ श्रेणिक ने उनकी भूल का कारण जानना चाहा तो प्रभु ने कहा-"राजन्! वन्दन को आते समय तुम्हारे दो सेनापतियों ने राजर्षि को ध्यानमग्न देखा। उनमें से एक "सुमुख" ने राजर्षि के तप की प्रशंसा की और कहा-"ऐसे घोर तपस्वी को स्वर्ग या मोक्ष दुर्लभ नहीं है ।” पर दूसरे साथी "दुर्मुख" को उसको यह बात नहीं जंची। वह बोला-"अरे ! तू नहीं जानता, इन्होंने बड़ा पाप किया है। अपने नादान बालक पर राज्य का भार देकर स्वयं साधु रूप से ये ध्यान लगाये खड़े हैं । उधर विरोधी राज्य द्वारा, इनके अबोध शिशु पर, जिस पर कि मंत्री का नियन्त्रण है, आक्रमण हो रहा है । संभव है, बालकुमार को मंत्री राज्यच्युत कर स्वयं राज्याधिकार प्राप्त कर ले या शत्रु-राजा ही उसे बन्दी बना ले । दुमूख की बात ध्यानान्तरिका के समय तपस्वी के कानों में पड़ी और वे ध्यान की स्थिति में अत्यन्त क्षब्ध हो उठे। वे मन ही मन पुत्र की ममता से प्रभावित होकर विरोधी राजा एवं अपने धूर्त मंत्री के साथ घोर युद्ध करने लगे। परिणामों की उस भयंकरता के समय तुमने प्रश्न किया, अतः उन्हें सातवीं नरक का अधिकारी बताया गया, किन्तु कुछ ही काल के बाद राजर्षि ने अपने मुकूट से शत्रु पर आघात करना चाहा और जब सिर पर हाथ रखा तो उन्हें सिर मूडित प्रतीत हुआ। उसी समय ध्यान पाया-“मैं तो मुनि हूं। मुझे राज-ताज के हानि-लाभ से क्या मतलब ?" इस प्रकार प्रात्मालोचन करते हुए जब वे अध्यवसायों की उच्च श्रेणी पर आरूढ़ हो रहे थे तब सर्वार्थसिद्ध विमान की गति बतलाई गई।" इधर जब भगवान श्रेणिक को अपने कथन के रहस्य को समझा रहे थे उसी समय आकाश में दुन्दुभि-नाद सुनाई दिया। श्रेणिक ने पूछा- “भगवन् ! यह दुन्दुभि-नाद कैसा?" प्रभु ने कहा-"वही प्रसन्नचन्द्र मुनि, जो सर्वार्थसिद्ध विमान के योग्य अध्यवसाय पर थे, शुक्ल-ध्यान की विमल श्रेणी पर आरूढ़ हो मोह कर्म के साथ ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का भी क्षय कर केवलज्ञान, केवलदर्शन के अधिकारी बन गये हैं। उसी की महिमा में देवों द्वारा दुन्दुभि बजायी जा रही है ।' श्रेणिक प्रभु की सर्वज्ञता पर मन ही मन प्रमुदित हुए। दूसरी घटना राजगृही नगरी की है। एक बार भगवान महावीर वहाँ के उद्यान में विराजमान थे । उस समय एक मनुष्य भगवान के पास आया और चरणों पर गिर कर बोला-नाथ ! आपका उपदेश भवसागर से पार लगाने में जहाज के समान है । जो आपकी वाणी श्रद्धापूर्वक सुनते और तदनुकूल आचरण करते हैं, वे धन्य हैं।" Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [राजगृही के प्रांगण से प्रभयकुमार "मुझे एक बार आपकी वाणी सुनने का लाभ मिला था और उस एक बार के ही उपदेश ने मेरे जीवन को संकट से बचा लिया है। आज तो हृदय खोलकर मैं आपकी अमृतमयी वाणी के श्रवण का लाभ उठाऊंगा।" इस तरह मन में दढ निश्चय कर उसने प्रभु का उपदेश सुना। उपदेशश्रवण के प्रभाव से उसके मन में वैराग्यभाव उदित हो गया। उसको अपने पूर्वकृत्यों पर अत्यन्त पश्चात्ताप तथा ग्लानि हुई। उसने हाथ जोड़कर प्रभु से निवेदन किया-"भगवन् ! क्या एक चोर और अत्याचारी भी मुनि-धर्म पाने का अधिकारी हो सकता है ? मेरा पूर्व-जीवन कुकृत्यों से काला बना हुआ है । क्या उसको सफाई या निर्मलता के लिए मैं आपकी पुनीत सेवा में स्थान पा सकता हूं?" उसके इस निश्छल वचन को सुनकर भगवान् ने कहा-"रोहिणेय ! अन्त:करण के पश्चात्ताप से पाप की कालिमा धुल जाती है। अतः अब तू श्रमणपद पाने का अधिकारी बन गया है। तेरे मन के वे सारे कलुष, जो अब तक के तुम्हारे कुकृत्यों से वंचित हुए थे, प्रात्मालोचना की भट्टी में जलकर राख हो गये हैं।" प्रभु की वाणी से प्रख्यात चोर रोहिणेय देखते ही देखते साधु बन गया और अपने सत्कृत्यों और तपश्चर्या से बहुत आगे बढ़ गया । ठीक ही है, पारस का संयोग लोहे को भी सोना बना देता है। उसी प्रकार वीतराग प्रभु की वाणी पापी को भी धर्मात्मा बना देती है। निर्मल अन्तःकरण या सात्त्विक प्रकृति वाला व्यक्ति यदि प्रव्रज्या ग्रहण करे, व्रत-विधान का पालन करे, तो यह कोई बड़ी बात नहीं है । किन्तु जब एक जन्मजात कुख्यात चोर प्रभु के प्रताप और उपदेश के प्रभाव से पूज्य पुरुष बन जाय तो निश्चित रूप से यह एक बड़ो और असाधारण बात है। राजगृही के प्रांगण से अभयकुमार राजगृही के महाराज श्रेणिक और उनके परिवार की भगवान् महावीर के प्रति भक्ति उल्लेखनीय रही है। उसमें राज-मंत्री अभयकुमार का बड़ा योगदान रहा। भंभसार-श्रेणिक की नन्दा रानी से "अभय" का जन्म हुआ।' नन्दा "वेन्नातट" के "धनावह" सेठ की पुत्री थी। अभयकुमार श्रेणिक-भंभसार का परममान्य मंत्री भी था। उसने कई बार राजनैतिक संकटों से श्रेणिक की रक्षा की। एक बार उज्जयिनी के राजा १ सेणियस्स रन्नो पुत्ते नंदा ए देवीए प्रत्तए प्रभए नाम कुमारी होत्था । [निरयावलिका, सू० २३] २ भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति, पृ० ३८ । Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजगृही के प्रांगण में प्रभय कुमार ] भगवान् महावीर चंडप्रद्योत ने चौदह राजानों के साथ राजगृह पर आक्रमण किया । अभय ने ही उस समय राज्य का रक्षरण किया था । उसने जहाँ शत्रु का शिविर लगना था, वहाँ पहले ही स्वर्ण मुद्राएं गड़वा दीं। जब चण्डप्रद्योत ने आकर राजगृह को घेरा तो अभय ने उसे सूचना करवाई - "मैं श्रापका हितैषी होकर एक सूचना कर रहा हूं कि आपके साथी राजा श्रेणिक से मिल गये हैं । अतः वे आपको पकड़ कर श्रेणिक को संभलाने वाले हैं। श्रेणिक ने उनको बहुत धनराशि दी है । विश्वास न हो तो आप अपने शिविर की भूमि खुदवा कर देख लें ।" austria ने भूमि खुदवाई तो उसे उस स्थान पर गड़ी हुई स्वर्णमुद्राएं मिलीं । भय खाकर वह ज्यों का त्यों ही उज्जयिनी लौट गया । १ राजगृही में एक बार एक द्रुमक लकड़हारा सुधर्मा स्वामी के पास दीक्षित हुआ। जब वह दीक्षा के लिए नगरी में गया तो लोग उसका उपहास करते हुए बोले - "ये आये हैं बड़े त्यागी पुरुष, कितना बड़ा वैभव छोड़ा है इन्होंने ? " लोगों के इस उपहास वचन से नवदीक्षित मुनि व्यथित हुए । उन्होंने सुधर्मा स्वामी से आकर कहा । द्रुमक मुनि की खेद- निवृत्ति के लिए सुधर्मा स्वामी ने भी अगले ही दिन वहाँ से विहार करने का सोच लिया । ७६३ अभयकुमार को जब इस बात का पता चला तो उसने प्रार्य सुधर्मा को ठहरने के लिए निवेदन किया तथा नगर में आकर एक-एक कोटि स्वर्ण मुद्राओं की तीन राशियां लगवाईं और नगर के लोगों को आमंत्रित किया । उसने नगर में घोषणा करवाई कि जो जीवन भर के लिए स्त्री, अग्नि और पानी का परित्याग करे, वह इन तीन कोटि स्वर्ण मुद्राओं को ले सकता है । स्त्री, अग्नि और पानी छोड़ने के भय से कोई स्वर्ण लेने को नहीं आया, तब अभयकुमार ने कहा - "देखो वह द्रुमक मुनि कितने बड़े त्यागी हैं । उन्होने जीवन भर के लिए स्त्री, अग्नि और सचित्त जल का परित्याग कर दिया है ।" भय की इस बुद्धिमत्ता से द्रुमक मुनि के प्रति लोगों की व्यंग्य-चर्चा समाप्त हो गई । अभयकुमार की धर्मसेवा के ऐसे अनेकों उदाहरण जैन साहित्य में भरे पड़े हैं । भगवान् महावीर जब राजगृह पधारे तो अभयकुमार भी वन्दन के लिए उद्यान में प्राया । देशना के अन्त में अभय ने भगवान् से सविनय पूछा"भगवन् ! आपके शासन में अन्तिम मोक्षगामी राजा कौन होगा ?" ११, श्लो० १८४ । १ (क) त्रिषष्टि शलाका पुरुष, पृ० १० (ख) श्रावश्यक चूरिंग उत्तरार्धं । २ धर्मरत्न प्रकरण --" अभयकुमार कथा ।" Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [रा० के प्रांगण में अभय कु० उत्तर में भगवान् महावीर ने कहा-“वीतभय का राजा उदयन, जो मेरे पास दीक्षित मुनि है, वही अन्तिम मोक्षगामी राजा है।" । अभयकुमार ने सोचा-"मैं यदि राजा बन कर दीक्षा ग्रहण करूंगा तो मेरे लिए मोक्ष का रास्ता ही बन्द हो जायगा । अतः क्यों न मैं कुमारावस्था में ही दीक्षा ग्रहण कर लू।" अभयकुमार वैराग्य-भावना से श्रेणिक के पास आया और अपनी दीक्षा की बात कही। श्रेणिक ने कहा-"वत्स ! दीक्षा ग्रहण का दिन तो मेरा है, तुम्हें तो अभी राज्य-ग्रहण करना चाहिए। अभयकुमार द्वारा विशेष आग्रह किये जाने पर श्रेणिक ने कहा-"जिस दिन मैं तुमको रुष्ट हो कर कहूँ- 'जा मुझे आकर मह नहीं दिखाना, उसी दिन तुम प्रवजित हो जाना।" कालान्तर में फिर भगवान् महावीर राजगृह पधारे । उस समय भीषण शीतकाल था। एक दिन राजा श्रेणिक रानी चेलना के साथ घूमने गये। सायंकाल उपवन से लौटते हुए उन्होंने नदी के किनारे एक मुनि को ध्यानस्थ देखा । रात्रि के समय रानी जगी तो उसे मुनि की याद हो पाई । सहसा उसके मुंह से निकला-“आह ! वे क्या करते होंगे ?" रानी के वचन सुन कर राजा के मन में उसके प्रति अविश्वास हो गया। प्रातःकाल भगवद्-वन्दन को जाते हुए उन्होंने अभयकुमार को आदेश दिया-"चेलना का महल जला दो, यहाँ दुराचार बढ़ता है।" अभयकुमार ने महल से रानियों को निकाल कर उसमें आग लगवा दी। उधर श्रेणिक ने भगवान् के पास रानियों के प्राचार-विषयक जिज्ञासा रखी तो महावीर ने कहा-"राजन् ! तेरी चेलना आदि सारी रानियाँ निष्पाप हैं, शीलवती हैं।" भगवान् के मुख से रानियों के प्रति कहे गये वचन सुन कर राजा अपने आदेश पर पछताने लगा । वह इस आशंका से कि कहीं कोई हानि न हो जाय, सहसा महल की ओर लौट चला। मार्ग में ही अभयकुमार मिल गया। राजा ने पूछा-"महल का क्या किया ?" अभय ने कहा-"प्रापके आदेशानुसार उसे जला दिया।" "अरे मेरे आदेश के बावजूद भी तुम्हें अपनी बुद्धि से काम लेना चाहिये था," खिन्न-हृदय से राजा बोला। यह सुन कर अभय बोला-"राजाज्ञा-भंग का दण्ड प्राण-नाश होता है, मैं इसे अच्छी तरह जानता हूँ।" Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजगृही के प्रांगण में अभय कुमार] भगवान् महावीर ७६५ "फिर भी तुम्हें कुछ रुक कर, समय टाल कर आदेश का पालन करना चाहिये था," व्यथित मन से राजा ने कहा । इस पर अभय ने जवाब दिया--"इस तरह बिना सोचे समझे आदेश ही नहीं देना चाहिये । मैंने तो अपने से बड़ों की आज्ञा के पालन को ही अपना धर्म समझा है और आज तक उसी के अनुकूल प्राचरण भी किया है।" अभय के इस उत्तर-प्रत्युत्तर एवं अपने द्वारा दिये गये दुष्टादेश से राजा अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा । दूसरा होता तो राजा तत्क्षरण उसके सिर को धड़ से अलम कर देता किन्तु पुत्र के ममत्व से वह ऐसा नहीं कर सका । फिर भी उसके मुख से सहसा निकल पड़ा- "जारे अभय ! यहाँ से चला जा । भूल कर भी कभी मुझे अपना मुह मत दिखाना।" अभय तो ऐसा चाहता ही था। अंधा जैसे आँख पाकर गद्गद् हो जाता है, अभय भी उसी तरह परम प्रसन्न हो उठा । वह पित-वचन को शिरोधार्य कर तत्काल वहाँ से चल पड़ा और भगवान के चरणों में जाकर उसने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। राजा श्रेणिक ने जब महल एवं उसके भीतर रहने वालों को सुरक्षित पाया तो उसको फिर एक बार अपने सहसा दिये गये आदेश पर दुःख हुआ। उसे यह समझने में किंचित् भी देर नहीं लगी कि आज के इस आदेश से मैंने अभय जैसे चतुर पुत्र एवं राज्य-कार्य में योग्य व नीतिज्ञ मंत्री को खो दिया है । वह प्राशा के बल पर शीघ्रता से लौट कर पुन: महावीर के पास आया। वहाँ उसने देखा कि अभयकुमार तो दीक्षित हो गया है । अब पछताने के सिवा और क्या होता? अभयकुमार मुनि विशुद्ध मुनिधर्म का पालन कर विजय नामक अनत्तर विमान में अहमिन्द्र बने ।' ऐतिहासिक दृष्टि से निर्वाणकान जैन परम्परा के प्रायः प्राचीन एवं अर्वाचीन सभी प्रकार के ग्रन्थों में इस प्रकार के पुष्ट और प्रबल प्रमाण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं जिनके आधार पर पूर्ण प्रामाणिकता के साथ यह माना जाता है कि भगवान् महावीर का निर्वाण ई० पू० ५२७वें वर्ष में हुमा। माधुनिक ऐतिहासिक शोधकर्ता विद्वानों ने भी इस विषय में विभिन्न दृष्टियों से गहन गवेषणाएं करने का प्रयास किया है। उन विद्वानों में सर्वप्रथम डॉ० हर्मन जैकोबी ने जैन सूत्रों की भूमिका में इस विषय पर चर्चा की है। १ अनुत्तरोपपातिक........ Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ऐति० दृष्टि से निर्वाणकाल भगवान् महावीर और बुद्ध के निर्वाण प्रसंग पर डॉ० जैकोबी ने दो स्थानों पर चर्चा की है पर वे दोनों चर्चाएँ परस्पर विरोधी हैं। पहली चर्चा में डॉ० जैकोबी ने भगवान् महावीर का निर्वाणकाल ई. पू.. ५२६ माना है । इसके प्रमाण में उन्होंने लिखा है- "जैनों की यह सर्वसम्मत मान्यता है कि जन सूत्रों की वाचना वल्लभी में देवद्धि क्षमाश्रमण के तत्वावधान में हई । इस घटना का समय वीर निर्वाण से १८० अथवा ६६३ वर्ष पश्चात का है अर्थात् ई. सन् ४५४ या ४६७ का है, जैसा कि कल्पसूत्र की गाथा १४८ में उल्लिखित है।" यहाँ पर डॉ० जैकोबी ने वीर-निर्वाणकाल ई० पू० ५२६ माना है, क्योंकि ५२६ में.४५४ जोड़ने पर ६८० और ४६७ जोड़ने पर ६६३ वर्ष होते हैं। इसके पश्चात् डॉ० जैकोबी ने दूसरे खण्ड की भूमिका में भगवान महावीर और बुद्ध के निर्वाणकाल के सम्बन्ध में विचार करते हुए भगवान महावीर के निर्वाणकाल पर पुनः दूसरी बार चर्चा की है। उस चर्चा के निष्कर्ष के रूप में उन्होंने अपनी पहली मान्यता के विपरीत अपना यह अभिमत प्रकट किया है कि बुद्ध का निर्वाण ई० पू० ४८४ में हुआ था तथा महावीर का निर्वाण ई० पू० ४७७ में हुआ था। डॉ० जैकोबी ने अपने इस परिवर्तित निर्णय के औचित्य के सम्बन्ध में कोई भी प्रमाण अथवा आधार प्रस्तुत नहीं किया । उनके द्वारा बुद्ध को बड़ा और महावीर को छोटा मानने में प्रमुख तर्क यह रखा गया है कि कणिक का चेटक के साथ जो यद्ध हया उसका जितना विवरण बौद्ध शास्त्रों में मिलता है, उससे अधिक विस्तृत विवरण जैन आगमों में मिलता है । जहाँ बौद्ध शास्त्रों में अजातशत्रु के अमात्य वस्सकार द्वारा बुद्ध के समक्ष वज्जियों पर विजय प्राप्ति के लिए केवल योजना प्रस्तुत करने का उल्लेख है, वहाँ जैन आगमों में करिणक और चेटक के बीच हुए 'महाशिलाकंटक संग्राम', 'रथमूसल संग्राम' और वैशाली के प्राकार-भंग तक स्पष्ट विवरण मिलता है । इस तर्क के आधार पर डॉ० जैकोबी ने कहा है- "इससे यह प्रमाणित होता है कि महावीर बद्ध के बाद कितने ही वर्षों तक जीवित रहे थे।" वास्तव में बौद्ध शास्त्रों में सम्यक् पर्यवेक्षण से डॉ. जेकोबी का यह तर्क बिल्कुल निर्बल और नितान्त पंगु प्रतीत होगा, क्योंकि वस्सकार की कूटनीतिक चाल के माध्यम से वज्जियों पर कणिक की विजय का जैनागमों में दिये गये विवरण से भिन्न प्रकार का विवरण बौद्ध शास्त्रों में उपलब्ध होता है। १ एस. बी. ई. वोल्यूम २२, इन्द्रोडक्टरी, पृ. ३७ । २ 'श्रमरण' वर्ष १३, अंक ६ । Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक दृष्टि से निर्वाणकाल] भगवान् महावीर बौद्ध ग्रन्थ दीर्घनिकाय अट्ठकहा में वस्सकार द्वारा छलछप से बज्जियों में फूट डाल कर कूणिक द्वारा वैशाली पर माक्रमण करने, वज्जियों की पराजय व करिणक की विजय का संक्षेप में पूरा विवरण उल्लिखित है। बौद्ध परम्परा के ग्रन्थों में यह स्पष्ट उल्लेख है कि एकता के सत्र में बंधे हए वज्जियों में फट, द्वेष और भेद उत्पन्न करने के लक्ष्य रख कर वस्सकार बड़े नाटकीय ढंग से वैशाली गया । वह वज्जी गणतन्त्र में अमात्य का पद प्राप्त करने में सफल हमा । वस्सकार ३ वर्ष तक वैशाली में रहा और अपनी कटनीतिक चालों ने वज्जियों में ईा-विद्वेष फैलाकर वज्जियों की प्रजेय शक्ति को खोखला और निर्बल बना दिया। अन्ततोगत्वा, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, वस्सकार के संकेत पा कणिक ने वैशाली पर प्रबल आक्रमण किया और वज्जियों को परास्त कर दिया। केवल 'रथमूसल' और 'महाशिलाकंटक' संग्राम का परिचय बौद्ध साहित्य में नहीं है। वस्तुस्थिति यह है कि राजा कणिक भगवान् महावीर का परम भक्त था। उसने अपने राजपुरुषों द्वारा भगवान् महावीर की दैनिक चर्या के सम्बन्ध में प्रतिदिन की सूचना प्राप्त करने की व्यवस्था कर रखी थी। भगवान महावीर के बाद सुधर्मा स्वामी की परिषद् में भी वह सभक्ति उपस्थित हुमा ।' प्रतः जैनागमों में उसका अधिक विवरण होना और बौद्ध साहित्य में संक्षिप्त निर्देश होना स्वाभाविक है। डॉ० जैकोबी ने महावीर के पूर्व निर्वाण सम्बन्धी बौद्ध शास्त्रों में मिलने वाले तीन प्रकरणों को अयथार्थ प्रमाणित करने का प्रयत्न किया है। किन्तु प्राप्त सामग्री के अनुसार वह ठीक नहीं है । बौद्ध साहित्य में इन तीन प्रकरणों के अतिरिक्त कहीं भी ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता जो महावीर-निर्वाण से पूर्व बुद्ध-निर्वाण को प्रमाणित करता हो, अपितु ऐसे अनेक प्रसंग उपलब्ध होते हैं जो बुद्ध का छोटा होना और महावीर का ज्येष्ठ होना प्रमाणित करते हैं । अत: डॉ० जैकोबी का वह दूसरा निर्णय प्रामाणिक नहीं कहा जा सकता। डॉ० जैकोबी ने अपने दूसरे मन्तव्य में महावीर का निर्वाण ४७७ ई. पू. पौर बुद्ध का निर्वाण ई० पू० ४८४ माना है। पर उन्होंने उस सारे लेख में यह बताने का यत्न नहीं किया कि यही तिथियां मानी जायें, ऐसी अनिवार्यता क्यों पैदा हई ? उन्होंने बताया है कि जैनों की सर्वमान्य परम्परा के अनुसार चन्द्रगुप्त का राज्याभिषेक महावीर के निर्वाण के २१५ वर्ष बाद हुआ था, परन्तु प्राचार्य हेमचन्द्र के मतानुसार यह राज्याभिषेक महावीर के निर्वाण के १५५ वर्ष पश्चात् हुप्रा । इतिहास के विद्वानों ने इसे श्री हेमचन्द्राचार्य की भूल माना १ परिशिष्ट पर्व, सर्ग ४, श्लो० १५-५४ Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ऐतिहासिक दृष्टि है । इस विषय में सर्वाधिक पुष्ट धारणाएँ हैं कि भगवान महावीर जिस दिन निर्वाण को प्राप्त होते हैं उसी दिन उज्जैन में पालक राजा गद्दी पर बैठता है। उसका राज्य ६० वर्ष तक चला, उसके बाद १५५ (एक सौ पचपन) वर्ष तक नन्दों का राज्य और तत्पश्चात् मौर्य राज्य का प्रारम्भ' होता है, अर्थात् महावीर के निर्वाण के २१५ वर्ष पश्चात् चन्द्रगुप्त मौर्य गद्दी पर बैठता है। यह प्रकरण 'तित्थोगाली पइन्नय' का है जो परिशिष्ट पर्व से बहुत प्राचीन माना जाता है। बाबू श्री पूर्णचन्द्र नाहर तथा श्री कृष्णचन्द्र घोष के अनुसार हेमचन्द्राचार्य की गणना में असावधानी से पालक राज्य के ६० वर्ष छूट गये हैं। सम्भव है, जिस श्लोक (३३६) के आधार पर डॉ. जैकोबी ने महावीर निर्वाण के समय को निश्चित किया है उसमें भी वैसी ही असावधानी रही हो। स्वयं हेमचन्द्राचार्य ने अपने समकालीन राजा कुमारपाल का काल बताते समय महावीर निर्वाण का जो समय माना है, वह ई०पू० ५२७ का ही है, न कि ई० पू० ४७७ का । हेमचन्द्राचार्य लिखते हैं कि जब भगवान महावीर के निर्वाण से १६६६ वर्ष बीतेंगे तब चोलुक्य कुल में चन्द्रमा के समान राजा कुमारपाल होगा। अब यह निर्विवाद रूप से माना जाता है कि राजा कुमारपाल ई० सन् ११४३ में हुआ । हेमचन्द्राचार्य के कथन से यह काल महावीर के निर्वाण से १६६६ वर्ष का है। इस प्रकार हेमचन्द्राचार्य ने भी महावीर निर्वाणकाल १६६६-११४२ ई० पू० ५२७ ही माना है। डॉ० जैकोबी की धारणा के बाद ३२ वर्ष के इस सुदीर्घ काल में इतिहास ने बहुत कुछ नई उपलब्धियां की हैं, इसलिए भी डॉ० जैकोबी के निर्णय को अन्तिम रूप से मान लेना यथार्थ नहीं है। १ ज रयरिंग सिद्धिगमो प्ररहा तित्थंकरो महावीरो। तं रयरिणमवन्तिए, अभिसित्तो पालो राया । पालग रणो सट्ठी, पण पण सयं वियाणि दाणम् । मुरियाण सट्ठिसयं, तीसा पुण पूसमित्ताणम् ॥ [तित्थोगाली पइन्नय ६२०-२१] ? Hemchandra must have omitted by oversight to count the period of 60 years of King Palaka after Mahaveera, [Epitome of Jainism Appendix A, P. IV] ३ अस्मिनिर्वाणतो वर्षशातन्यमय षोडश । नव षष्टिश्च यास्यन्ति, यदा तत्र पुरे तदा । कुमारपाल भूपालो, चौलुक्यकुलचन्द्रमाः । भविष्यति महाबाहुः, प्रचण्डाखण्डशासनः ।। [त्रिषष्टि शलाका पु. प., पर्व १०, सर्ग १२, श्लो० ४५-४६] Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से निर्वाणकाल भगवान् महावीर ७६९ डॉ० के० पी० जायसवाल ने भी महावीर निर्वाण को बद्ध से पूर्व माना है । इनका कहना है कि बौद्धागमों में वरिणत महावीर के निर्वाण प्रसंग ऐतिहासिक तथ्यों के निर्धारण में किसी प्रकार उपेक्षा के योग्य नहीं हैं। सामगाम सुत्त में बुद्ध महावीर-निर्वाण के समाचार सुनते हैं और प्रचलित धारणाओं के अनुसार इसके २ वर्ष बाद वे स्वयं निर्वाण प्राप्त करते हैं।' (बौद्धों की दक्षिणी परम्परा के अनुसार महावीर का निर्वाण ई० पू० ५४६ में होता है और बुद्ध निर्वाण ई० पू० ५४४ में ।) डॉ० जायसवाल ने महावीर निर्वाण सम्बन्धी बौद्ध उल्लेखों की अपेक्षा न करने की जो बात कही है वह ठीक है, पर सामगाम सुत्त के आधार पर बुद्ध से २ वर्ष पूर्व महावीर का निर्वाण मानना और महावीर के ४७० वर्ष बाद विक्रमादित्य की मान्यता में १८ वर्ष जोड़कर महावीर और विक्रम के मध्यकाल की अवधि निश्चित करना पुष्ट प्रमारणों पर आधारित नहीं है। उन्होंने सरस्वतीगच्छ की पट्टावली के अनुसार वीर निर्वाण और विक्रम-जन्म के बीच का अन्तर ४७० वर्ष माना है और फिर १८वें वर्ष में विक्रम के राज्यासीन होने पर संवत् का प्रचलन हुआ, इस दृष्टि से वीर निर्वाण से ४७० वर्ष बाद विक्रम संवत्सर मानने की बात को भूल कहा है । किन्तु इतिहासकारों का कथन है कि यह मान्यता किसी भी प्रामाणिक परम्परा पर आधारित नहीं है। प्राचार्य मेरुतुग ने वीर निर्वाण और विक्रमादित्य के बीच ४७० वर्ष का अन्तर माना है। वह अन्तर विक्रम के जन्मकाल से नहीं अपितु शक राज्य की समाप्ति और विक्रम की विजय से सम्बन्धित है। डॉ० राधा कुमुद मुकर्जी ने भी अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ (हिन्दू सभ्यता) में डॉ० जायसवाल की तरह भगवान् महावीर की ज्येष्ठता और पूर्व निर्वाणप्राप्ति का युक्तिपूर्वक समर्थन किया है। पुरातत्व गवेषक मुनि जिन विजयजी ने भी डॉ० जायसवाल के मतानुसार भगवान् महावीर की ज्येष्ठता स्वीकार की है। १ जर्नल आफ बिहार एण्ड उड़ीसा रिसर्च सोसायटी, १-१०३ । २ विक्कम रज्जारंभा परमो सिरि वीर निव्वुइ भणिया । सुन्न मुणि वेय जुत्तो विक्कम कालाउ जिण कालो ॥ विचार श्रेणी पृ. ३-४ The suggestion can hardly be said to rest on any reliable tradition. Merulunga places the death of the last Jian or Teerthankara 470 years before the end of Saka Rule and the victory and not birth of the traditional Vikrama (An Advanced History of India by R. C. Majumdar., H. C. Roy Chaudhari & K. K. Dutta, Page 85.] ४ वीर निर्वाण संवत् और जैन काल गणना-भूमिका पृ० १ Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ऐतिहासिक दृष्टि श्री धर्मानन्द कौशाम्बी का निश्चित मत है कि तत्कालीन सातों धर्माचार्यों में बद्ध सबसे छोटे थे । प्रारम्भ में उनका संघ भी सबसे छोटा था।' कौशाम्बी जी ने कालचक्र की बात को यह कह कर गौरण कर दिया है कि बुद्ध की जन्म तिथि में कुछ कम या अधिक अन्तर पड़ जाता है तो भी उससे उनके जीवन-चरित्र में किसी प्रकार का गौणत्व नहीं पा सकता। इसी प्रकार डॉ० हर्नले ने अपने "हेस्टिगाका एन्साइक्लोपीडिया आफ रिलीजन एण्ड इथिक्स" ग्रन्थ में भी इसकी चर्चा की है। उनके मतानुसार बुद्ध निर्वाण महावीर से ५ वर्ष बाद होता है । तदनुसार वुद्ध का जन्म महावीर से ३ वर्ष पूर्व होता है। मूनि कल्याण विजयजी के अनुसार भगवान महावीर से बद्ध १४ वर्ष ५ मास, १५ दिन पूर्व निर्वाण प्राप्त कर चुके थे, यानी भगवान महावीर से बुद्ध आयु में लगभग २२ बर्ष बड़े थे । बुद्ध का निर्वाण ई० पू० ५४२ (मई) और महावीर का निर्वाण ई० पू० ५२८ (नवम्बर) ३ होता है। भगवान् महावीर का निर्वाण उन्होंने ई० पू० ५२७ माना है, जो परम्परा-सम्मत भी है और प्रमाण-सम्मत भी। श्री विजयेन्द्र सूरि द्वारा लिखित 'तीर्थकर महावीर' में भी विविध प्रमाणों के साथ भगवान महावीर का निर्वाणकाल ई० पू० ५२७ ही प्रमाणित किया गया है। भगवान महावीर के निर्वाणकाल का विचार जिन प्राधारों पर किया गया है, उन सब में साक्षात् व स्पष्ट प्रमाण बौद्ध पिटकों का है । जिन प्रकरणों में निर्वाण की चर्चा है वे क्रमश: मज्झिमनिकाय-सामगामसुत्त, दीर्घनिकायपासादिक सूत्त और दीर्घनिकाय-संगीति पर्याय सूत्त हैं । तीनों प्रकरणों की आत्मा एक है, पर उनके ऊपर का ढाँचा निराला है । इनमें बुद्ध ने प्रानन्द और चुन्द से भगवान महावीर के निर्वाण की बात कही है । कुछ लेखकों ने माना है कि इन प्रकरणों में विरोधाभास है । डॉ० जेकोबी ने उक्त प्रकरणों को इसलिए भी अप्रमाणित माना है कि इनमें से कोई समूल्लेख महापरिनिव्वाण सुत्त में नहीं है जिससे कि बुद्ध के अन्तिम जीवन प्रसंगों का ब्योरा मिलता है । जहाँ तक बुद्ध से भगवान महावीर के पूर्व निर्वाण का प्रश्न है, हमें इन प्रकरणों की १ भगवान् बुद्ध, पृ० ३३-१५५ २ भगवान् बुद्ध-भूमिका, पृ० १२ ३ ईस्वी पूर्व ५२८ के नवम्बर महीने में और ई. पू. ५२७ में केवल २ महीने का ही अन्तर है । अत: महावीर निर्वाण का काल सामान्यतः ई. पू. ५२७ का ही लिखा जाता है । ४ श्रमण वर्ष १३, अंक ६ । Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाणकाल ] भगवान् महावीर वास्तविकता में इसलिये भी संदेह नहीं करना चाहिए कि जैन ग्रागमों में महावीर निर्वारण के सम्बन्ध में इससे कोई विरोधी उल्लेख नहीं मिल रहा है । यदि जैन आगमों में भगवान् महावीर और बुद्ध के निर्वाण की पूर्वापरता के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट उल्लेख होता तो हमें भी इन प्रकरणों की वास्तविकता के सम्बन्ध में सन्देह हो सकता था। फिर बौद्ध शास्त्रों में भी इन तीन प्रकरणों के अतिरिक्त कोई ऐसा प्रकरण होता जो महावीर - निर्वारा से पूर्व वृद्ध-निर्वाण की बात कहता तो भी हमें गम्भीरता से सोचना होता । किन्तु ऐसा कोई बाधक कारण दोनों ओर के साहित्य में नहीं है । ऐसी स्थिति में उन्हें प्रमाण-भूत मानना प्रसंगत प्रतीत नहीं होता । इसमें जो कालावधि का भेद है उसे हम आगे स्पष्ट कर रहे हैं कि भगवान् महावीर के निर्वाण से २२ वर्ष पश्चात् बुद्ध का निर्वाण हुआ । मुनि नगराजजी के अनुसार महावीर की ज्येष्ठता को प्रमाणित करने के लिए और भी अनेक प्रसंग बौद्ध साहित्य में उपलब्ध होते हैं जिनमें बुद्ध स्वयं अपने को तात्कालिक सभी धर्मनायकों में छोटा स्वीकार करते हैं । वे इस प्रकार हैं -- (१) एक बार भगवान् बुद्ध श्रावस्ती में अनाथ पिंडिक के जेत्तवन में विहार कर रहे थे । राजा प्रसेनजित ( कोशल ) भगवान् के पास गया और कुशल पूछकर जिज्ञासा व्यक्त की- “गौतम ! क्या आप भी यह अधिकारपूर्वक कहते हैं कि आपने अनुत्तर सम्यक् संबोधि को प्राप्त कर लिया है ?” ७७१ बुद्ध ने उत्तर दिया- "महाराज ! यदि कोई किसी को सचमुच सम्यक् संबुद्ध कहे तो वह मुझे ही कह सकता है, मैंने ही अनुत्तर सम्यक् संबोधि का साक्षात्कार किया है ।" प्रसेनजित् ने कहा -- गौतम ! दूसरे श्रमरण ब्राह्मण, जो संघ के अधिपति, गणाधिपति, गरणाचार्य, प्रसिद्ध, यशस्वी, तीर्थंकर और बहुजन सम्मत, पूरण काश्यप, मक्खलि गोशाल, निगण्ठ नायपुत्त, सजय वेलट्ठिपुत्त, प्रक्रुद्ध कात्यायन, अजित केशकम्बली आदि से भी ऐसा पूछे जाने पर वे अनुत्तर सम्यक् सम्बोधिप्राप्ति का अधिकारपूर्वक कथन नहीं करते । आप तो अल्पवयस्क व सद्य:प्रव्रजित हैं, फिर यह कैसे कह सकते हैं ? " बुद्ध ने कहा - "क्षत्रिय, सर्प, अग्नि व भिक्षु को अल्पवयस्क समझकर कभी उनका पराभव या अपमान नहीं करना चाहिये ।" (संयुत्तनिकाय, दहर सुत्त पृ० १।१ के आधार से ) उस समय के सब धर्मनायकों में बुद्ध की कनिष्ठता का यह एक प्रबल प्रमाण है । Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [निर्वाणकाल (२) एक बार बुद्ध राजगृह के वेणुवन में विहार कर रहे थे। उस समय एक देव ने आकर सभिय नामक एक परिव्राजक को कुछ प्रश्न सिखाये और कहा कि जो इन प्रश्नों का उत्तर दे, उन्हीं का तू शिष्य होना । सभिय; लण, ब्राह्मण संघनायक, गणनायक, साधुसम्मत पूरण काश्यप, मक्खलि गोशाल, अजितकेश कम्बली, प्रक्रुन्न कात्यायन, संजय वेलठ्ठिपुत्त और निगण्ठ नायपुत्त के पास क्रमशः गया और उनसे प्रश्न पूछे। सभी तीर्थकर उसके प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सके और सभिय के प्रति कोप, द्वेष एवं अप्रसन्नता ही व्यक्त करने लगे । सभिय परिव्राजक इस पर बहुत असंतुष्ट हुआ, उसका मन विविध ऊहापोहों से भर गया। उसने निर्णय किया-"इससे तो अच्छा हो कि गृहस्थ होकर सांसारिक आनन्द लूट ?" सभिय के मन में आया कि श्रमण गौतम भी संघी, गणी, बहुजन-सम्मत हैं, क्यों न मैं उनसे भी प्रश्न पूछू। उसका मन तत्काल ही आशंका से भर मया । उसने सोचा "पूरण काश्यप और निगण्ठ नायपुत्त जैसे धीर. वृद्ध, वयस्क उत्तरावस्था को प्राप्त, वयातीत, स्थविर, अनुभवी, चिर प्रवजित' संघी, गणी, गणाचार्य, प्रसिद्ध, यशस्वी, तीर्थंकर, बहुजन-सम्मानित, श्रमण ब्राह्मण भी मेरे प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सके, उल्टे अप्रसन्नता व्यक्त कर मुझ से ही इनका उत्तर पूछते हैं; तो श्रमण गौतम मेरे प्रश्नों का क्या उत्तर दे सकेंगे? वे तो आयु में कनिष्ठ और प्रव्रज्या में नवीन हैं। फिर भी श्रमण युवक होते हुए भी महद्धिक और तेजस्वी होते हैं, अतः श्रमण गौतम से भी इन प्रश्नों को पूछू।"२ (सुत्तनिपात महावग्ग सभिय सुत्त के आधार से) यहाँ बुद्ध की अपेक्षा सभी धर्मनायकों को जिण्णा, बुद्धा, महल्लका, प्रद्धगता, वयोअनुपत्ता, थेरा, रत्तंभू, चिरपव्वजिता विशेषण दिये हैं। (३) फिर एक समय भगवान् (बुद्ध) राजगृह में जीवक कौमार भृत्य के आम्रवन में १२५० भिक्षुत्रों के साथ विहार कर रहे थे, उस समय पूर्णमासी के उपोसथ के दिन चातुर्मास को कौमुदी से पूर्ण पूर्णिमा की रात को राजा मागध अजातशत्र वैदेही पुत्र आदि राजामात्यों से घिरा हा प्रासाद के ऊपर बैठा हमा' था । राजा ने जिज्ञासा की-"किसका सत्संग करें, जो हमारे चित्त को प्रसन्न करे ?" राजमंत्री ने कहा-"पूरण काश्यप से धर्मचर्चा करें। वे चिरकाल के साधु व वयोवृद्ध हैं।" १ सुत्त निपात, महावग्ग । २ पल्हे पुढो ब्याकरिस्सति ! समणो हि गौतमो दहरो चेव, जातिया नवो च पध्वजायाति [सुत्त निपात, सभिय सुत्त, पृ० १०६] Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाणकाल] भगवान् महावीर ७७३ दूसरे मंत्री ने कहा- मख्खलि गोशाल संघस्वामी हैं।" अन्य ने कहा-'अजित केश कम्बली संघस्वामी हैं।" फिर दसरे मंत्री ने प्रक्रद्ध कात्यायन का और इससे भिन्न मंत्री ने संजय वेलट्टिपुत्त का परिचय दिया। एक मंत्री ने कहा-"निगण्ठ नायपुत्त संघ के स्वामी हैं । उनका सत्संग करें।" सब की बात सुनकर मगध-राज चप रहे । उस समय जीवक कौमार भृत्य से अजातशत्रु ने कहा कि तुम चुप क्यों हो ? उसने कहा-“देव ! भगवान् अर्हत मेरे आम के बगीचे में १२५० भिक्षुत्रों के साथ विहार कर रहे हैं। उनका सत्संग करें । आपके चित्त को प्रसन्नता होगी।" यहाँ पर भी पूरण काश्यप आदि को चिरकाल से साधु मौर वयोवृद्ध कहा गया है। इन तीनों प्रकरणों में महावीर का ज्येष्ठत्व प्रमाणित किया गया है। वह भी केवल वयोमान की दृष्टि से हो नहीं, अपितु ज्ञान, प्रभाव और प्रव्रज्या की दष्टि से भी ज्येष्ठत्व बतलाया गया है। इनमें स्पष्टतः बुद्ध को छोटा स्वीकार किया गया है। इन सब आधारों को देखते हुए महावीर के ज्येष्ठत्व और पूर्व निर्वाण में कोई संदेह नहीं रह जाता। __इस तरह जहाँ तक भगवान महावीर के निर्वाणकाल का प्रश्न है वह पारम्परिक और ऐतिहासिक दोनों दृष्टियों व पधारों से ई० पू० ५२७ सुनिश्चित ठहरता है। इसी विषय में एक अन्य प्रमाण यह भी है कि इतिहास के क्षेत्र में सम्राट चन्द्रगप्त का राज्यारोहण ई० पू० ३२२ माना गया है।' इतिहासकार इतिहास के इस अन्धकारपूर्ण वातावरण में इसे एक प्रकाशस्तंभ मानते हैं। यह समय सर्वमान्य और प्रामाणिक है। इसी को केन्द्रबिन्दु मानकर इतिहास शताब्दियों पूर्व और पश्चात् की घटनाओं का समय-निर्धारण करता है । __जैन परम्परा में मेरुतु ग की-"विचार श्रेणी", तित्वोगाली पइन्तय तथा तीर्थोद्धार प्रकीर्ण प्रादि प्राचीन ग्रन्थों में चन्द्रगुप्त का राज्यारोहण महावीर. - • Dr. Radha Kumud Mukherji, Chandragupta Maurya & bis times, pp. 44-6 (ख) श्री नेम पाण्डे, भारत का वृहत् इतिहास, प्रथम भाग-प्राचीन भारत, चतुर्थ संस्करण, पृ० २४२ । Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७४ जैन धर्म का मालिक इतिहास [निर्वाणकाल निर्वाण के २१५ वर्ष पश्चात माना है। वह राज्यारोहण प्रवन्ती का माना गया है । यह ऐतिहासिक तथ्य है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने पाटलीपुत्र राज्यारोहण के दस वर्ष पश्चात् अपना राज्य स्थापित किया था।' इस प्रकार जैन काल मणना और सामान्य ऐतिहासिक धारणा से महावीर निर्वाण का समय ई० पू० ३१२+२१५= ५२७ होता है। ऐसे अनेक इतिहास के विशेषज्ञों ने भी महावीर-निर्वाण का असंदिग्ध समय ई० पू० ५२७ माना है। महामहोपाध्याय रायबहादुर गौरीशंकर हीराचन्द प्रोझा (श्री जैन सत्य-प्रकाश, वर्ष २, अंक ४,५ प० २१७-८१ व "भारतीय प्राचीन लिपिमाला', पृ० १६३), पं० बलदेव उपाध्याय (धर्म और दर्शन, प० ८६), डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल (तीर्थकर भगवान् महावीर, भाग २, भमिका प०१६), डॉ० हीरालाल जैन (तत्त्व समुच्चय, पृ०६), महामहोपाध्याय पं० विश्वेश्वरनाथ रेऊ (भारत का प्राचीन राजवंश खण्ड २, पृ० ४३६) आदि विद्वान् उपर्युक्त निर्वाणकाल के निर्णय से सहमत प्रतीत होते हैं। इन सबके अतिरिक्त ई० पू० ५२७ में भगवान् महावीर के निर्वाण को असंदिग्ध रूप से प्रमाणित करने वाला सबसे प्रबल और सर्वमान्य प्रमाण यह है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर सभी प्राचीन प्राचार्यों ने एकमत से महावीर निर्वाण के ६०५ वर्ष और ५ मास पश्चात् शक संवत् के प्रारम्भ होने का उल्लेख किया है। यथा : छहिं वासारणसएहिं, पंचहि वासेहिं पंच मासेहिं । मम निव्वाणगयस्सउ उपज्जिसइ सगो राया ।। [महावीर चरियं, (प्राचार्य नेमिचन्द्र) रचनाकाल वि० स० ११४१] पण छस्सयवस्सं पणमासजुदं । गमिय वीरनिव्वुइयो सगरायो ।। ८४८ [त्रिलोकसार, (नेमिचन्द्र) रचनाकाल ११वीं शताब्दी] रिणवाणे वीरजिणे छन्वाससदेसु पंचवरिसेसु । पणमासेसु गदेसु संजादो सगणियो अहवा ।। तिलोय पण्मात्ती, भा० १, महाधिकार ४, गा० १४६६] . (क) The date 313 B.C. for Chandragupta accession, if it is based on correct tradition, may refer to his acquisition of Avanti jo Malva, as the cbropological Datum is found in verse where the Maurya King finds mention in the list of succession of Palak, a king of Avanti. [H.C. Ray Chaudhary-Politi cal History of Ancient India, P. 295.) (ख) The Jain date 313 B.C.if based on correct tradition may refer to acquisition of Avanti, (Malva). (An Advanced History of India, P. 99) - Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाणकाल] भगवान् महावीर ७७२ प्राचार्य यति वृषभ ने उपर्युक्त गाथा से पूर्व की गाथा संख्या १४६६, १४६७ और १४६८ में वीर निर्वारण के पश्चात क्रमशः ४६१ वर्ष, ६७८५ वर्ष तथा ५ मास मौर १४७६३ वर्ष व्यतीत होने पर भी शक राजा के उत्पन्न होने का उल्लेख किया है। अनेक विद्वान् यति वृषभ द्वारा उल्लिखित मतवैभिन्य को देखकर असमंजस में पड़ जाते हैं, पर वास्तव में विचार में पड़ने जैसी कोई बात नहीं है। ४६१ में जिस शक राजा के होने का उल्लेख है वह वीर निर्वाण सं० ४६५ में हो चुका है जैसा कि इसी पुस्तक के १० ४६८ पर उल्लेख है। इससे पाये की २ गाथाएं किन्हीं भावी शक राजामों का संकेत करती हैं, जो क्रमश: वीर निर्वाण संवत् ६७८५ और १४७६३ में होने वाले हैं । उपरिलिखित सब प्रमाणों से यह पूर्णतः सिद्ध होता है कि भगवान् महावीर का निर्वाण शक संवत्सर के प्रारम्भ से ६०५ वर्ष और ५ मास पर्व हुआ। इसमें शंका के लिये कोई अवकाश ही नहीं रहता, क्योंकि भगवान् महावीर के निर्वाणकाल से प्रारम्भ होकर सभी प्राचीन जैन आचार्यों की कालगणना शक संवत्सर से आकर मिल जाती है। वीरनिर्वाण-कालगणना और शक संवत् का शक संवत् के प्रारंभ काल से ही प्रगाढ़ संबन्ध रहा है और इन दोनों काल-गणनामों का आज तक वही सुनिश्चित अन्तर चला पा रहा है । इन सब पुष्ट प्रमाणों के आधार पर वीरनिर्वाण-काल ई० पूर्व ५२७ ही असंदिग्ध एवं सुनिश्चित रूप से प्रमाणित होता है । वीर-निर्वाण संवत् की यही मान्यता इतिहाससिद्ध और सर्वमान्य है। भगवान् महावीर और बुद्ध के निर्वाण का ऐतिहासिक विश्लेषण भगवान् महावीर और बुद्ध समसामयिक थे, अतः इनके निर्वाणकाल का निर्णय करते समय प्रायः सभी विद्वानों ने दोनों महापुरुषों के निर्वाणकाल को एक दूसरे का निर्वाणकाल निश्चित करने में सहायक मान कर साथ-साथ चर्चा की है। इस प्रकार के प्रयास के कारण यह समस्या सुलझाने के स्थान पर और अधिक जटिल बनी है। वास्तविक स्थिति यह है कि भगवान् महावीर का निर्वाणकाल जितना सुनिश्चित, प्रामाणिक और असंदिग्ध है उतना ही बुद्ध का निर्वाणकाल प्राज तक भी अनिश्चित, अप्रामाणिक एवं संदिग्ध बना हुआ है । बुद्ध के निर्वाणकाल के संबन्ध में इतिहास के प्रसिद्ध इतिहासवेत्तानों की आज भिन्न-भिन्न बीस प्रकार की मान्यताएं ऐतिहासिक जगत् में प्रचलित हैं। भारत के लब्धप्रतिष्ठ इतिहासज्ञ रायबहादुर पंडित गौरीशंकर हीराचन्द अोझा ने अपनी पुस्तक 'भारतोय प्राचीन लिपिमाला' में 'बुद्ध निर्वाण संवत्' की चर्चा करते हुए लिखा है : Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भ० महावीर और बुद्ध के "बुद्ध का निर्वाण किस वर्ष में हुआ, इसका यथार्थ निर्णय अब तक नहीं हुा । सीलोन' (सिंहल द्वीप, लंका), ब्रह्मा और स्याम में बुद्ध का निर्वाण ई० संवत से ५४४ वर्ष पूर्व होना माना जाता है और ऐसा ही आसाम के रोजगुरु मानते हैं। चीन वाले ई० सं० पूर्व ६३८ में उसका होना मानते हैं। चीनी यात्री फाहियान ने, जो ई० सन् ४०० में यहां आया था, लिखा है कि इस समय तक निवारण के १४६७ वर्ष व्यतीत हुए हैं। इससे बुद्ध के निर्वाण का समय ई० सन् पूर्व (१४६७-४००)=१०६७ के आस-पास मानना पड़ता है। चीनी यात्री हुएनत्सांग के निर्वाण से १००वें वर्ष में राजा अशोक (ई० सन पूर्व २६६ सें २२७ तक) का राज्य दूर-दूर फैलना बतलाया है । जिससे निर्वाणकाल ई० स० पूर्व चौथी शताब्दी के बीच पाता है । डॉ० बलर ने ई० स० पूर्व ४८३२ और ४७२-१ के बीच ६, प्रोफेसर कर्न ने ई० स० पूर्व ३८८ में, फर्गसन ने ४८१ में, जनरल कनिंगहामा ने ४७८ में, मैक्समूलर'' ने ४७७ में, पडत भगवानलाल इन्दरजी ने ६३८ में (गया के लेख के आधार पर), मिस डफ१२ ने ४७७ में, डॉ० बार्नेट 3 ने ४८३ में डॉ० फ्लीट'४ ने. ४८३ में और वी० ए० स्मिथ१५ ने “ई० स० प्र० ४८७ या ४८६ में निर्वाण होने का अनुमान किया है।" मनि कल्याण विजयजी ने अपनी पुस्तक "वीर निर्वारण संवत और जैन कालगणना" में अपनी प्रोर से प्रबल तर्क रखते हए यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि महात्मा बुद्ध भगवान् महावीर से वय में २२ वर्ष ज्येष्ठ थे और बुद्ध १ कार्पस इन्स्क्रिप्शन्म इण्डिके शन्स (जनरल कनिंगहाम संपादित), जि० १ की भूमिका, २ लि. ". जि. २ युसफुल टेबल्स, पृ० १६५ । ३ वही ४ वी. बु, रे वे. व; जि. १ की भूमिका, पृ० ७५ ५ बी. बु. रे. वे. व ; जि. १, पृ० १५० ६ इंग; जि. ६, पृ० १५४ ।। ७ साइक्लोपीडिया ऑफ इण्डिया जि. १, पृ० ४६२ ८ काम इन्स्क्रिप्शन्म इण्डिकेशन्स जि. १ की भूमिका, पृ० ६ ६ वही १० म. हि. ए. सं. लि; पृ० २६८ . ११ ई. ए. जि. १०, पृ० ३४६ १२ इ. क्रॉ. इं,१०६ १३ बा. ए. ई., पृ० ३७ . १४ ज. रॉ. ए. सो. ई. स. १९०६, पृ० ६६७ १५ स्मि. अ, हि. ई., पृ० ४७, तीसरा संस्करण Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाण का ऐतिहासिक विश्लेषण] भगवान् महावीर ७७७ के निर्वाण से १४ वर्ष, ५ मास और १५ दिन पश्चात भगवान महावीर का' निर्वाण हुआ। इससे बुद्ध निर्वाण ई० स० पूर्व ५१२ में होना पाया जाता है। ख्यातनामा चीनी यात्री हएनत्सांग ई० सन् ६३० में भारत पाया था। उसने अपनी भारत-यात्रा के विवरण में लिखा है ___ "श्री बुद्ध देव ८० वर्ष तक जीवित रहे। उनके निर्वाण की तिथि के बिषय में बहुत से मतभेद हैं । कोई वैशाख की पूर्णिमा को उनकी निर्वाण-तिथि मानता है, सर्वास्तिवादी कार्तिक पूर्णिमा को निर्वाण-तिथि मानते हैं, कोई कहते हैं कि निर्वाण को १२०० वर्ष हो गए। किन्हीं का कथन है कि १५०० वर्ष बीत गए, कोई कहते हैं कि अभी निर्वाणकाल को १०० वर्ष से कुछ अधिक PM मुनि नगराज जी ने भगवान् महावीर और बुद्ध के निर्वाणकाल के सम्बन्ध में बहुत विस्तार से चर्चा करते हुए अनेक तर्क देकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि भगवान महावीर बद्ध से १७ वर्ष ज्येष्ठ थे और बद्ध का निर्वाण महावीर के निर्वागा से २५ वर्ष पश्चात् हुआ। उन्होंने अपने इस अभिमत की पुष्टि में अशोक के एक शिलालेख, बर्मी इत्जाना संवत् की कालगणना में बद्ध के जन्म, गृहत्याग, बोधिलाभ एवं निर्वाण के उल्लेख और अवन्ती नरेश प्रद्योत एवं बद्ध की समवयस्कता सम्बन्धी तिब्बती परम्परा, ये तीन मुख्य प्रमाण दिये हैं। पर इन प्रमारणों के आधार पर भी बद्ध के निर्वाण का कोई एक सुनिश्चित काल नहीं निकलता ।। इस प्रकार बद्ध के निर्वाणकाल के सम्बन्ध में अनेक मनीषी इतिहासवेत्ताओं ने जो उपर्युक्त बीस तरह की भिन्न-भिन्न मान्यताएं रखी हैं उनमें से अधिकांशतः तर्क और अनुमान के बल पर ही आधारित हैं। किसी ठोस, अकाट्य, निष्पक्ष और सर्वमान्य प्रमाण के अभाव में कोई भी मान्यता बलवती नहीं मानी जा सकती। हम यहाँ उन सब विद्वानों की मान्यतानों के विश्लेषण की चर्चा में क जाकर केवल उन तथ्यों और निष्पक्ष ठोस प्रमाणों को रखना ही उचित समझते हैं जिनसे कि बुद्ध के सही-सही निर्वाण समय का पता लगाया जा सकता है । हमें आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पहले की घटना के सम्बन्ध में निर्णय करना है। इसके लिये हमें भारत की प्राचीन धर्म-परम्पराओं के धार्मिक एवं ऐतिहासिक साहित्य का अन्तर्वेधी और तुलनात्मक दृष्टि से पर्यवेक्षण करना होगा। १ भगवान् बुद्ध, पृ० ८६, भूमिका पृ० १२ Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भ० महावीर और बुद्ध के यह तो सर्वविदित है कि उस समय सनातन, जैन और बौद्ध ये तीन प्रमुख धर्म-परम्पराएं मुख्य रूप से थीं जो आज भी प्रचलित हैं । ७७८ बुद्ध के जीवन के सम्बन्ध में जैनागमों में कोई विवरण उपधब्ध नहीं होता । बौद्ध शास्त्रों और साहित्य में बुद्ध के निर्वाण के सम्बन्ध में जो विवरण उपलब्ध होते हैं वे वास्तव में इतने अधिक और परस्पर विरोधी हैं कि उनमें से किसी एक को भी तब तक सही नहीं माना जा सकता जब तक कि उसको पुष्ट करने वाला प्रमाण बौद्धतर अथवा बौद्ध साहित्य में उपलब्ध नहीं हो जाता । ऐसी दशा में हमारे लिये सनातन धर्म के पौराणिक साहित्य में बुद्ध विषयक ऐतिहासिक सामग्री को खोजना आवश्यक हो जाता है । सनातन परम्परा के परम माननीय ग्रन्थ श्रीमद्भागवत पुराण के प्रथम स्कन्ध, अध्याय ६ के श्लोक संख्या २४ में बुद्ध के सम्बन्ध में ऐतिहासिक दृष्टि से एक अत्यन्त महत्वपूर्ण तथ्य उपलब्ध होता है जिसकी ओर संभवतः आज तक किसी इतिहा सज्ञ की सूक्ष्म दृष्टि नहीं गई । वह् श्लोक इस प्रकार है ततः कलौ संप्रवृत्ते, सम्मोहाय सुरद्विषाम् । बुद्धो नाम्नाजनसुतः, कीकटेषु भविष्यति ।। अर्थात् उसके बाद कलियुग आजाने पर मगध देश (बिहार) में देवतानों द्वेषी दैत्यों को मोहित करने के लिए अंजनी ( प्रांजनी) के पुत्ररूप में आपका बुद्धावतार होगा । इस श्लोक में प्रयुक्त नाम्ना जनसुतः यह पाठ किसी लिपिकार द्वारा अशुद्ध लिखा गया है ऐसा गीता प्रेस से प्रकाशित श्रीमद्भागवत, प्रथम खंड के पृष्ठ ३६ पर दिये गये टिप्पण से प्रमाणित होता है । इस श्लोक पर टिप्पण संख्या १ में लिखा है"प्रा० पा० - जिनसुतः” जिन शब्द का अर्थ है - राग-द्वेष से रहित । राग-द्वेष से रहित पुरुष के पुत्रोत्पत्ति का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता । वास्तव में यह शब्द था 'प्रांजनि-सुतः' जिसकी न पर लगी इ की मात्रा ज पर किसी प्राचीन लिपिकार द्वारा लगा दी गई । तदनन्तर किसी विद्वान् लिपिकार ने किसी जिन के पुत्र होने की संभावना को आकाश - कुसुम की तरह असंभव मानकर 'अजनसुतः' लिख दिया । ऐतिहासिक घटनाचक्र के पर्यवेक्षरण से यह प्रमाणित होता है कि वास्तव में इस श्लोक का मूल पाठ 'बुद्धो नाम्नांजनिसुतः था ।' श्रीमद्भागवत और अन्य पुराणों में प्राचीन इतिहास को सुरक्षित रखने के लिये प्राचीन प्रतापी राजानों का किसी घटनाक्रम के प्रसंग में नामोल्लेख किया गया है । Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाण का ऐतिहासिक विश्लेषण] भगवान् महावीर ७७६ वस्तुतः उपर्युक्त श्लोक में महाभारतकार ने बुद्ध के प्रसंग में उस समय के प्रतापी राजा 'अंजन' के नाम का उल्लेख किया है। बौद्ध, जैन, सनातन और भारत की उस समय की अन्य सभी धर्मपरम्पराओं के साहित्यों में बद्ध सम्बन्धी विवरणों में बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोदन लिखा गया है, अतः श्रीमद्भागवत के उपरिलिखित श्लोक के आधार पर. बुद्ध को अंजन का पुत्र मानना तो श्रीमद्भागवतकार की मूल भावना के साथ अन्याय करना होगा, क्योंकि वास्तव में भागवतकार ने बुद्ध को राजा अंजन की सुता प्रांजनी का पुत्र बताया है। ऐसी स्थिति में उपर्युक्त पाठ में अनुस्वार के लोप और 'इ' की मात्रा के विपर्यय वाले पाठ को शुद्ध कर "बद्धो नाम्नांऽऽजनिसुतः" के रूप में पढ़ा जाय तो वह शुद्ध और युक्तिसंगत होगा। किसी लिपिकार द्वारा प्रमादवश अथवा वास्तविक तथ्य के ज्ञान के अभाव में अशुद्ध रूप से लिपिबद्ध किये गये उपयंकित प्रशुद्ध पाठों को शुद्ध कर देने पर एक नितान्त नया ऐतिहासिक तथ्य संसार के समक्ष प्रकट होगा कि महात्मा बुद्ध महाराज अंजन के दौहित्र थे। अंजन-सूता के सुत बुद्ध का श्रीमद्भागवतकार ने अंजनिसुत के रूप में जो परिचय दिया है वह व्याकरण के अनुसार भी बिलकुल ठीक है। जिस प्रकार रामायणकार ने जनक की पुत्री जानकी, मैथिल की पुत्री मैथिली के रूप में सीता का परिचय दिया है ठीक उसी प्रकार श्रीमद्भागवतकार ने भी अंजन की पुत्री का प्रांजनी के रूप में उल्लेख किया है। __ यह सब केवल कल्पना की उड़ान नहीं है अपितु बर्मी बौद्ध परम्परा इस तथ्य का पूर्ण समर्थन करती है। बर्मी वौद्ध परम्परा के अनुसार बुद्ध के नाना (मातामह) महाराज मंजन शाक्य क्षत्रिय थे। उनका राज्य देवदह प्रदेश में था। महाराजा अंजन ने अपने नाम पर ई० सन् पूर्व ६४८ में १७ फरवरी को आदित्यवार के दिन ईत्जाना संवत् चलाया ।' बर्मी भाषा में 'ईजाना' शब्द का प्रर्थ है अंजन । बर्मी बौद्ध परम्परा में बुद्ध के जन्म, गृहत्याग, बोधि-प्राप्ति और निर्वाण का तिथिक्रम ईजाना संवत् की कालगणना में इस प्रकार दिया है : १. बुद्ध का जन्म ईजाना संवत् के ६८वें वर्ष की बैशाखी पूर्णिमा को शुक्रवार के दिन विशाखा नक्षत्र के साथ चन्द्रमा के योग के समय में हुमा। २. बुद्ध ने दीक्षा ईत्याना' संवत् ६६ की आषाढ़ी पूर्णिमा, सोमवार के दिन चन्द्रमा का उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के साथ योग होने के समय में ली। Prabuddha Karnataka, a Kappada Quarterly published by the Mysore University. Vol. XXVII (1945-46) No.1 PP. 92-93. The Date of Nirvana of Lord Mahavira in Mahavira Commemoration Volume, PP. 93-94. २ Ibid Vol. 11 PP.71-72. 3 Life of Gautama, by Bigandet Vol. 1 PP. 62-63 Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म कम्मिलितहास [म] महावीर और बुद्ध के ३. बुद्ध को बोधि-प्राप्ति ईस्ज़ाना सर्वत् १०३ की वैशाख पूर्णिमा को बुधवार के दिन चन्द्रमा का विशाखा नक्षत्र के साथ योग होने के समय में हुई । क की केशास्त्री खिमा को क्षत्र के साथ योग होने के समय में T ७६ ४. कुछ का निर्वारम ईत्तामा संवत् मंगलवार के दिन चन्द्रमा का विशाखा हुआ । एम. गोविन्द पाई ईत्ज़ाना संवत् के कालक्रम को आबद्ध किया है : बुद्ध का जन्म बुद्ध द्वारा गृहत्याग बुद्ध को बोधिलाभ बुद्ध का निर्वाण ने बुद्ध के जीवन संबंधी 'ऊपर वरिंगत किये गये ई० सन् पूर्व के अथोरित काम के रूप में : ई० पू० ५८१, मार्च ३०, शुक्रवार : ई० पू० ५५३ जून १८, सोमवार । : ई० पू० ५४६, अप्रेल ३, बुधवार । : ई० पू० ५०१, अप्रेल १५, मंगलवार 13 इस प्रकार श्रीमद्भागवत और बर्मी बौद्ध परम्परा के उल्लेखों से बुद्ध के मातामह (नाना ) राजा अंजन एक ऐतिहासिक राजा सिद्ध होते हैं तथा बर्मी परम्परा के अनुसार ईत्ज़ाना संवत् के आधार पर उल्लिखित बुद्ध के जीवन की चार मुख्य घटनाओं के कालक्रम से बुद्ध की सर्वमान्य पूर्णा ८० वर्ष की सिद्ध होने के साथ २ यह भी प्रमाणित होता है कि बुद्ध ने २८ वर्ष की अवस्था होते ही ई० पूर्व ५५३ में दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा ग्रहण करने के ८ वर्ष पश्चात् ई० पूर्व ५४६ में जब वे ३५ वर्ष के हुए तब उन्हें बोधि प्राप्ति हुई और ४५ वर्ष तक बौद्ध धर्म का प्रचार करने के पश्चात् ई० पूर्व ५०१ में ८० वर्ष की प्राय पूर्ण करने पर उनका निर्वाण हुआ । Di P बुद्ध के जन्म, बुद्धत्वलाभ और निर्वाणकाल को निसायिक रूप से प्रमारिणत करने वाला दूसरा प्रमाण वायुपुराण का है, जो कि आवश्यक चूि और तिब्बती वौद्ध परम्परा द्वारा कतिपय अंशों में समर्थित है । सनातन, जैन और बौद्ध परम्पराओं के युगपत् पर्यवेक्षण से बुद्ध के जन्म, बोधिलाभ और निर्वाण सम्बन्धी अब तक के विवादास्पद जटिल और पहला बने हुए प्रश्न क सदा सर्वदा के लिये हल निकल आता है । 4 Ibid Vol. 1P. 97 Vol. II PP. 72-73 Ibid Vol. II P. 69 3 Prabuddha Karnataka, a Karnatak Quarterly published by the Mysore University, Volume XXVII (1945-46 ) No. 1PP 92-93 the Date of Nirvana of Lord Mahaveera in Mahaveera Commemoration Volume PP 9994. Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाण का ऐतिहासिक विश्लेषण] भगवान् माहवीर ७८१ इस जटिल समस्या को सुलझाने में सहायक होने वाले वायुपुराण के वे श्लोक इस प्रकार हैं : वृहद्रथेष्वतीतेषु वीतहोत्रेषु वतिषु १६८।। मुनिकः स्वामिनं हत्वा, पुत्रं समभिषेक्ष्यति । मिषतां क्षत्रियाणां हि प्रद्योतो मुनिको बलात् ।।१६६।। स वै प्रणतसामन्तो, भबिष्ये नयजितः । अयोविंशत्समा राजा भविता स नरोत्तम ।।१७०।। अर्थात् वार्हद्रथों (जरासंध के वंशजों) का राज्य समाप्त हो जाने पर वीतहोत्रों के शासनकाल में मुनिक सब क्षत्रियों के देखते-देखते अपने स्वामी की हत्या कर अपने पुत्र को अवन्ती के राज्यसिहासन पर बैठायेगा । हे राजन् ! वह प्रद्योत सामन्तों को अपने वश में कर तेईस वर्ष तक न्याय-विहीन ढंग से राज्य करेगा। अन्तिम श्लोक में जो यह उल्लेख है कि प्रद्योत २३ वर्ष तक राज्य करेगा, यह तथ्य वस्तुत: बुद्ध के साथ भगवान महावीर के जन्म, दीक्षा, कैवल्य अथवा वोधि, निर्वाण तथा पूर्ण प्राय आदि कालमान को निर्णायक एवं प्रामाणिक रूप से निश्चित करने वाला तथ्य है। तिब्बती बौद्ध परम्परा की यह मान्यता है कि जिस दिन बद्ध का जन्म हा उसी दिन चण्डप्रद्योत का भी जन्म हुया और जिस दिन चण्ड प्रद्योत का अवन्ती के गजसिंहासन पर अभिषेक हुआ उसी दिन बल को बोधिलाभ हा। बद्ध की पूर्ण प्राय ८० वर्ष थी, उन्होंने २८ वर्ष की उम्र में गहत्याग किया और ३५ वर्ष की आय में उन्हें बोधि-प्राप्ति हुई-इन ऐतिहासिक तथ्यों को सभी इतिहासकार एकमत से स्वीकार करते हैं । जिस दिने बद्ध को बोधिलाभ हा उस दिन बुद्ध ३५ वर्ष के थे, इस सर्वसम्मत अभिमत के अनुसार बुद्ध और प्रद्योत के समवयस्क होने के कारण यह स्वतः प्रमाणित है कि प्रद्योत ३५ वर्ष की प्राय में अवन्ती का राजा वना । वायपुराण के इस उल्लेख से कि प्रद्योत ने २३ वर्ष तक राज्य किया, यह स्पष्ट है कि प्रद्योत ५८ वर्ष की आयु तक शासनारूढ़ रहा। उसके पश्चात् प्रद्योत का पुत्र पालक अवन्ती का राजा बना। जैन परम्परा के सभी प्रामाणिक प्राचीन ग्रन्थों में यह उल्लेख है कि भगवान महावीर का जिस दिन निर्वाण हा उसी दिन प्रद्योत के पुत्र पालक का उसके पिता की मृत्यु के पश्चात् अवन्ती में राज्याभिषेक हुआ। इस प्रकार सनातन, जैन और बौद्ध इन तीनों मान्यताओं द्वारा परिपुष्ट Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [निर्वाण का ऐतिहासिक विश्लेषण प्रमारणों के समन्वय से यह सिद्ध होता है कि जिस दिन भगवान महावीर ने ७२ वर्ष की प्राय पूर्ण कर निर्वाण प्राप्त किया उस दिन प्रद्योत का ५८ वर्ष की उम्र में देहावसान हुअा और उस दिन बुद्ध ५८ वर्ष के हो चुके थे । बुद्ध की पूरी आयु ८० वर्ष मानी गई है। इससे बुद्ध का जन्मकाल भगवान् महावीर के जन्म से १४ वर्ष पश्चात्, बुद्ध का दीक्षाकाल महावीर को केवलज्ञान की प्राप्ति के आसपास, बोधिप्राप्ति भगवान महावीर की केवली-चर्या के आठवें वर्ष में और बुद्ध का निर्वाणकाल भगवान् महावीर के निर्वाण से २२ वर्ष पश्चात् का सिद्ध होता है। चण्डप्रद्योत भगवान् महावीर से उम्र में छोटे थे इस तथ्य की पुष्टि श्री मज्जिनदासगरिण महत्तर रचित आवश्यक चूर्णी से भी होती है। रिणकार ने लिखा है कि जिम समय भगवान् २८ वर्ष के हुए उस समय उनके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया। तदनन्तर महावीर ने अपने अपरिग्रह के अनुसार प्रव्रजित होने की इच्छा व्यक्त की, पर नन्दीवर्द्धन आदि के अनुरोध पर संयम के साथ विरक्त की तरह दो वर्ष गृहवास में रहने के पश्चात् प्रव्रज्या ग्रहण करना स्वीकार किया। महावीर द्वारा इस प्रकार की स्वीकृति के पश्चात् श्रेणिक और प्रद्योत प्रादि कुमार वहाँ से विदा हो अपने-अपने नगर की ओर लौट गये । इस सम्बन्ध में चूर्णिकार के मूल शब्द इस प्रकार हैं : ....... ताहे सेणियपज्जोयादयो कुमारा पडिगता, ण एस चविकत्ति ।" चूर्णिकार के इस वाक्य पर वायुपुराण और महावीर-निर्वाणकाल के संदर्भ में विचार करने से ज्ञात होता है कि प्रद्योत की आयु महाराज सिद्धार्थ मोर त्रिशला देवी के स्वर्ग गमन के समय १४ वर्ष की थी। तदनुसार ५२७ ई० पूर्व भगवान् महावीर का प्रामाणिक निर्वाणकाल मानने पर महावीर का जन्म ई० पूर्व ५६६ में और बुद्ध का जन्म ई० पूर्व ५८५ होना सिद्ध होता है । इन सब,तथ्यों को एक दूसरे के साथ जोड़ कर विचार करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि भगवान् महावीर का निर्वाण ई० पूर्व ५२७ में हुआ और बद्ध का निर्वाण भगवान महावीर के निर्वाण से २२ वर्ष पश्चात् अर्थात् ई० पूर्व ५०५ में हुआ। अशोक के शिलालेखों में अंकित २५६ के अंक जो विद्वानों द्वारा बद्ध निर्वाण वर्ष के सूचक माने जाते हैं, उनसे भी यही प्रमाणित होता है कि बुद्ध का निर्वाण ईस्वी पूर्व ५०५ में हुआ। इस सम्बन्ध में संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है :-- अशोक द्वारा लिखवाये गये लघु शिलालेख जो कि रूपनाथ, सहसराम और वैराट से मिले हैं, उनमें शिलालेखों के खुदवाने के काल तिथि के स्थान पर केवल २५६ का अंक खुदा हुआ है। इसके सम्बन्ध में अनेक विद्वानों का अभिमत १ जनार्दन भट्ट, प्रशोक के धर्मलेख । Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाण का ऐतिहासिक विश्लेषण] भगवान् महावीर ७८३ है कि ये अंक बुद्ध के निर्वाणकाल के सूचक हो सकते हैं। उसका अनुमान है कि जिस दिन ये शिलालेख लिखवाये गये उस दिन बुद्ध की निर्वाण-प्राप्ति के २५६ वर्ष बीत चुके थे। इतिहास-प्रसिद्ध राजा अशोक का राज्याभिषेक ई० पूर्व २६६ में हमा, इससे सभी इतिहासज्ञ सहमत हैं। अपने राज्याभिषेक के ८ वर्ष पश्चात अशोक ने कलिंग पर विजय प्राप्त को। कलिंग के युद्ध में हए भीषण नरसंहार को देख कर अशोक को युद्ध से बड़ी घृणा हो गई और वह बौद्ध धर्मानुयायी बन गया । अशोक ने उपर्युक्त १ सं० के शिलालेख में यह स्वीकार किया है कि बौद्ध बनने के २३ वर्ष पश्चात तक वह कोई अधिक उद्योग नहीं कर सका । उसके एक वर्ष पश्चात् वह संघ में पाया। संघ उपेत होने के पश्चात अशोक ने अपनी और अपने राज्य की पूरी शक्ति बौद्ध धर्म के प्रचार व प्रसार में लगादी। उसने भारत और भारत के बाहर के राज्यों से बौद्ध धर्म की उन्नति के लिए सन्धियाँ की । बौद्ध संघ को काफी अंशों में अभ्यन्नति करने और अपनी महान धार्मिक उपलब्धियों के पश्चात् उसने स्थान-स्थान पर अपनी धार्मिक आज्ञाओं को शिलाओं पर टंकित करवाया। अनुमान लगाया जा सकता है कि इन कार्यों में कम से कम नौ-दस वर्ष तो अवश्य लगे ही होंगे। तो इस तरह उपर्युक्त शिलालेख अपने राज्याभिषेक से बीसवें वर्ष में अर्थात् ई० सन से २४६ वर्ष पूर्व तैयार करवाये होंगे, जिस दिन कि बुद्ध का निर्वाण हुए २५६ वर्ष बीत चुके थे। इस प्रकार के अनमान और कल्पना के बल पर बद्ध का निर्वाण ई० सन । ५०५ में होना पाया जाता है। . यह अनमान प्रमाण वायपुराण में उल्लिखित प्रद्योत के राज्यकाल के आधार पर प्रमाणित बुद्ध के निर्वाणकाल का समर्थन करता है। इस प्रकार तीन बड़ी धार्मिक परम्परामों में उल्लिखित विभिन्न तथ्यों के आधार पर प्रमारिणत एवं प्रशोक के शिलालेखों से समथित होने के कारण बुद्ध का निर्वाण ई० सन् पूर्व ५०५ ही प्रामाणिक ठहरता है। उक्त तीनों परम्पराओं के प्रामाणिक धार्मिक ग्रन्थों में प्रद्योत को यद्धप्रिय और उग्र स्वभाव वाला बताया है, यह उल्लेखनीय समानता है । प्रद्योत के जन्म के साथ महात्मा बुद्ध का जन्म हुआ और उसके देहावसान के दिन भगवान् महावीर का निर्वाण हुमा, यह कितना अद्भुत संयोग है, जिसने प्रद्योत को एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक राजा के रूप में भारत के इतिहास में अमर बना दिया है। इन सब अकाट्य ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर असंदिग्ध एवं प्रामाणिक रूप से यह कहा जा सकता है कि भगवान महावीर का निर्वाण ई० सन् पूर्व ५२७ में और बुद्ध का निर्वाण ई० सन् पूर्व ५०५ में हुमा। M aya Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [निर्वाणस्थली निर्वाणस्थली डॉ. जैकोबी ने बौद्ध शास्त्रों में वरिणत महावीर-निर्वाणस्थली पाचा को शाक्यभूमि में होना स्वीकार किया है, जहाँ कि अन्तिम दिनों में बुद्ध ने भी प्रवास किया था। पर जैन मान्यता के अनुसार भगवान् महावीर की निर्वाण स्थली पटना जिले के अन्तर्गत राजगृह के समीपस्थ पावा है, जिसे आज भव्य मन्दिरों ने एक जैन तीर्थ बना दिया है। किन्तु इतिहासकार इससे सहमत प्रतीत नहीं होते, क्योंकि भगवान महावीर के निर्वाण-अवसर पर मल्लों और लिच्छवियों के अठारह गण-राजा उपस्थित थे, जिनका उत्तरी विहार की पावा में ही होना संभव अँचता है, कारण कि उधर ही उन लोगों का राज्य था, दक्षिण विहार की पावा तो उनका शत्रु-प्रदेश था। पं० राहल सांकृत्यायन ने भी इसी तथ्य की पुष्टि की है। उनका कहना है कि भगवान महावीर का निर्वाण वस्तुतः गंगा के उत्तरी अंचल में पाई हई पावा में ही हुआ था जो कि वर्तमान गोरखपुर जिले के अन्तर्गत पपूटर नामक ग्राम है । श्री नाथूराम प्रेमी ने भी ऐसी ही संभावना व्यक्त को है। and १ दर्शन दिग्दर्शन, पृ० ४४४, टिप्पण ३ । २ जैन साहित्य और इतिहास, पृ० १८६ । Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - परिशिष्ट -- Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ तीर्थंकर परिचय-पत्र पितृ नाम - तीर्थकर नाम श्वेताम्बर संदर्भ-ग्रंथ दिगम्बर संदर्भ-ग्रंथ | हरिवंश पुराण | उत्तर पुराण | तिलोय पण्णत्ती DOT महांसेन विष्णु १ ऋषभदेव नाभि नाभि नाभि नाभिराय २ अजितनाथ जितशत्रु जितशत्रु जितशत्रु जितशत्रु ३ संभवनाथ जितारी जितारि दृढ़राज्य जितारि ४ अभिनन्दन संवर संवर स्वयंवर संवर ५ सुमतिनाथ मेघ मेघप्रभ मेघरथ मेघप्रभ ६ पंचप्रभ घर धरण धरण ७ सुपार्श्वनाथ प्रतिष्ठ सुप्रतिष्ठ सुप्रतिष्ठ सुप्रतिष्ठ ८ चन्द्रप्रभ महासेन महासेन महासेन ९ सुविधिनाथ सुग्रीव सुग्रीव सुग्रीव सुगीव १. शीतलनाथ दृढ़रथ दृढ़रथ दृढ़रथ दृढ़रथ ११ श्रेयांसनाथ विष्णुराज विष्णु विष्णु १२ वासुपूज्य वसुपूज्य वसुपूज्य वसुपूज्य वसुपूज्य १३ विमलनाथ कृतवर्मा कृतवर्मा कृतवर्मा कृतवर्मा १४ अनन्तनाथ सिंहसेन सिंहसेन सिंहसेन सिंहसेन १५ धर्मनाथ भानु भानुराज भानु भानुनरेन्द्र १६ शान्तिनाथ विश्वसेन विश्वसेन विश्वसेन विश्वसेन १७ कुंथुनाथ सूर सूरसन सूर्यसेन १८ मरनाथ सुदर्शन सुदर्शन १६ मल्लिनाथ कुम्भ कुम्भ २० मुनिसुव्रत सुमित्र सुमित्र सुमित्र सुमित्र २१ नमिनाथ . विजय विजय विजय विजयनरेन्द्र २२ प्ररिष्टनेमि समुद्रविजय समुद्रविजय समुद्रविजय समुद्रविजय २३ पार्श्वनाथ प्रश्वसेन प्रश्वसेन प्रश्वसेन अश्वसेन २४ महावीर सिद्धार्थ सिद्धार्थ सिद्धार्थ सितार्थ ___ * सत्तरिसयद्वार. प्रवचन सारोवार और माव. नि. गा. ३८७ से ३८६ में यही नाम दिये हैं। 1 श्लो० १८२ से २०५ सूर्य सुदर्शन सुदर्शन Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मातृ नाम श्वेताम्बर संदर्भ-ग्रंथ दिगम्बर संदर्भ-ग्रंथ क.म. तीर्थकर नाम -- ममवायांग प्रवचन आवश्यक नि.हरिवंश पुराण उत्तर पुराण तिलोय पण्णाती सुनन्दा १ ऋषभदेव महदेवी मरदेवी मम्देवी महदेवी मरुदेवी मरुदेवी २ अजितनाथ विजया विजया विजया विजया विजयमेना विजया ३ संभवनाथ मना मेना मेगा सेना मुपेगा सुसेना ८ अभिनन्दन सिद्धार्था सिद्धार्था सिद्धार्था मिद्धार्था सिद्धा- मिद्धार्था ५ सुमतिनाथ मंगला मंगला मंगला सुमगला मगला मगला ६ पद्मप्रभ सुमीमा मुमीमा मुमीमा मुसीमा मुसीमा मुसीमा ७ मुपार्श्वनाथ पृथ्वी पृथ्वी पृथ्वी पृथ्वी पृथिवीपेगा पृथिवी ८ चन्द्रप्रभ लक्ष्मणा लदमरगा लक्ष्मणा लक्ष्मणा लक्ष्मगार (लक्ष्मणा) लक्ष्मीमती ६ सुविधिनाथ रामा रामा श्यामा रामा जयरामा रामा १० शीतलनाथ नन्दा नन्दा नन्दा सुनन्दा मनन्दा ११ श्रेयांसनाथ विष्ण विष्ण विष्णु विष्णाश्री वेणुदेवी १२ वासुपूज्य जया जया जया जया जयावती विजया १३ विमलनाथ सामा सामा रामा शर्मा जयश्यामा जयश्यामा १४ अनन्तनाथ मुजशा सुजशा मर्वयशा जय श्यामा सर्वयशा १५ धर्मनाथ मुव्रता मुव्रता सुव्रता मुव्रता মুস মা मुव्रता १६ शान्तिनाथ प्रचिरा अचिरा अचिरा ऐरा रा ऐग (अइराए) १७ कुथुनाथ श्री श्रीमती श्रीकान्ता श्रीमतीदेवी १८ प्ररनाथ देवो देवी देवी मित्रा मित्रसेना मित्रा ११ मल्लिनाथ प्रभावती प्रभावती प्रभावती रक्षिता प्रजावती प्रभावती २० मुनिसुत्रत पद्मावती पद्मावती पद्मावती पद्मावती सामा पद्मा २१ नमिनाथ वप्रा वप्रा वप्रा वप्रा वरिपला वप्रिला २२ अरिष्टनेमि शिवा शिवा शिवा शिवा शिवदेवी शिवदेवी २३ पार्श्वनाथ वामा (वम्मा) वामा वम्मा वर्मा ब्राह्मी बमिला (बामा) २४ महावीर विशला त्रिशला त्रिशला प्रियकारिणी प्रियकारिणी प्रियकारिणी मुजशा श्री Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र.सं. तीर्थंकर नाम १ ऋषभदेव २ अजितनाथ ३ संभवनाथ ४ श्रभिनन्दन ५ सुमतिनाथ ६ पद्मप्रभ ७ सुपार्श्वनाथ ८ चन्द्रप्रभ ६ सुविधिनाथ १० शीतलनाथ ११ श्रेयांसनाथ १२ वासुपूज्य १३ विमलनाथ १४ प्रनन्तनाथ १५ धर्मनाथ १६ शान्तिनाथ १७ कुंथुनाथ १८ अरनाथ १६ मल्लिनाथ २० मुनिसुव्रत २१ नमिनाथ २२ अरिष्टनेमि २३ पार्श्वनाथ २४ महावीर श्वेताम्बर संदर्भ-ग्रंथ सत्तरिय द्वार इक्ष्वाकुभूमि प्रयोध्या श्रावस्ती अयोध्या इक्ष्वाकुभूमि अयोध्या श्रावस्ती विनीता प्रयोध्या कोसलपुर कौशाम्बी कौशाम्बी वारसी वाराणसी चन्द्रपुरी चन्द्रपुरी काकन्दी काकन्दी भद्दिल्लपुर सिंहपुर चम्पा कांपिल्य अयोध्या रत्नपुर गजपुर गजपुर गजपुर मिथिला जन्म-भूमि राजगृह मिथिला सोरियपुर वाणारी कुंडपुर श्रावश्यक नि० हरिवंश पुराण भद्दिल्लपुरी सिंहपुर चम्पा कंपिलपुर अयोध्या रत्नपुर गजपुरम् गजपुरम् गजपुरम् मिथिला राजगृही मिथिला सौर्यपुरम् वाराणसी कुण्डलपुर अयोध्या श्रयोध्या श्रावस्ती अयोध्या प्रयोध्या कौशाम्बी काशी चन्द्रपुरी काकन्दी चम्पापुरी कंपिल्यपुर अयोध्यानगरी रत्नपुर हस्तिनापुर हस्तिनापुर हस्तिनापुर मिथिला भद्दिल्लापुरी भद्रपुर सिंहनादपुर सिंहपुर चम्पा दिगम्बर संदर्भ-ग्रंथ कुशाग्रनगर मिथिला उत्तर पुराण तिलोय पण्णत्ती अयोध्या प्रयोध्या अयोध्या साकेत श्रावस्ती श्रावस्ती अयोध्या साकेतपुरी अयोध्या साकेतपुरी कौशाम्बी कौशाम्बी वाराणसी चन्द्रपुरी काकन्दी ७८ काम्पिल्यपुर अयोध्या राजगृह मिथिला सूर्यपुरनगर द्वारावती वाराणसी वाराणसी कुण्डपुर कुण्डपुर वाराणसी चन्द्रपुरी काकन्दी भद्दलपुर सिंहपुरी चम्पानगरी कंपिलापुरी प्रयोध्यापुरी रत्नपुर रत्नपुर हस्तिनापुर हस्तिनापुर हस्तिनापुर हस्तिनापुर हस्तिनापुर हस्तिनापुर मिथिलानगरी मिथलापुरी राजगृह मिथलापुरी शोरीपुर वाराणसी कुंडलपुर Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६० च्यवन-तिथि क्र.सं. तीर्थंकर नाम श्वेताम्बर संदर्भ-ग्रंथ | दिगम्बर संदर्भ-ग्रंथ सत्त द्वार १४गा. ५६ से ६३/ उत्तर पुराण ऋषभदेव अजितनाथ संभवनाथ अभिनन्दन सुमतिनाथ पद्मप्रभ सुपार्श्वनाथ चन्द्रप्रभ सुविधिनाथ शीतलनाथ श्रेयांसनाथ वासुपूज्य विमलनाथ अनन्तनाथ धर्मनाथ शान्तिनाथ कुथुनाथ प्ररनाथ मल्लिनाथ मुनिसुव्रत नमिनाथ प्ररिष्टनेमि पार्श्वनाथ प्राषाढ़ कृ० ४ वैशाख शु० १३ फाल्गुन शु०८ वैशाख शु० ४ श्रावण शु० २ माघ कृ. ६ भाद्रपद कृ० ८ चैत्र कृ० ५ फाल्गुन कृ०६ वैशाख कृ०६ ज्येष्ठ कृ० ६ ज्येष्ठ शु०६ वैशाख शु० १२ श्रावण कृ०७ वैशाख शु० ७ भाद्रपद कृ०७ श्रावरण कृ०६ फाल्गुन शु० २ फाल्गुन शु० ४ श्रावण शु० १५ प्राश्विन शु० १५ कार्तिक कृ० १२ चैत्र कृ. ४ ज्येष्ठ कृ० १५ फाल्गुन शु० ८ वैशाख शु०६ श्रावण शु० २ माघ कृ० ६ भाद्रपद शु०६ चैत्र कृ० ५ फाल्गुन कृ०६ चैत्र कृ०८ ज्येष्ठ कृ० ६ आषाढ़ कृ०६ ज्येष्ठ कृ० १० कार्तिक कृ० १ वैशाख शु० १३ भाद्रपद कृ०७ श्रावण कृ० १० फाल्गुन कृ० ३ चैत्र शु० १ श्रावण कृ० २ आश्विन कृ० २ कातिक शु०६ वैशाख कृ०२ विशाखा प्राषाढ़ शु०६ महावीर प्राषाढ़ शु० ६ Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च्यवन-नक्षत्र क्र.सं. नाम तीर्थंकर श्वेताम्बर दिगम्बर ऋषभदेव अजितनाथ संभवनाथ अभिनन्दन सुमतिनाथ पद्मप्रभ सुपार्श्वनाथ चन्द्रप्रभ सुविधिनाथ शीतलनाथ श्रेयांसनाथ वासुपूज्य विमलनाथ अनन्तनाथ धर्मनाथ शान्तिनाथ कुथुनाथ अरनाथ मल्लिनाथ मुनिसुव्रत नमिनाथ अरिष्टनेमि पार्श्वनाथ महावीर उत्तराषाढ़ा रोहिणी मृगशिरा पुनर्वसु मघा चित्रा विशाखा अनुराधा मूल पूर्वाषाढ़ा श्रवण शतभिषा उत्तराभाद्रपद रेवती उत्तराषाढ़ा रोहिणी मृगशिरा पुनर्वसु मधा चित्रा विशाखा अनुराधा पूर्वाषाढ़ा श्रवण शतभिषा उत्तराभाद्रपद रेवती रेवती पुष्य भरणी भरणी कृत्तिका रेवती कृत्तिका रेवती अश्विनी श्रवण अश्विनी अश्विनी श्रवण अश्विनी उत्तराषाढ़ा विशाखा उत्तराषाढ़ा विशाखा उत्तराफाल्गुनी Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६२ क्र.सं १ २ Xxx w ४ ५ ८ नाम तीर्थंकर ऋषभदेव अजितनाथ संभवनाथ श्रभिनन्दन सुमतिनाथ पद्मप्रभ सुपार्श्वनाथ चन्द्रप्रभ सुविधिनाथ शीतलनाथ श्रेयांसनाथ वासुपूज्य विमलनाथ अनन्तनाथ धर्मनाथ * शान्तिनाथ कुंथुनाथ अरनाथ मल्लिनाथ च्यवन-स्थल मुनिसुव्रत नमिनाथ श्वेताम्बर संदर्भ-ग्रंथ सत० द्वार १२ गाथा ५४–५६ सर्वार्थसिद्ध विजय विमान सातवाँ ग्रैवेयक जयंत विमान जयंत विमान नौवाँ ग्रंवेयक छठा ग्रैवेयक वैजयंत विमान प्रानत स्वर्ग प्राणत स्वर्ग E १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ १८ १६ २० २१ २२ अरिष्टनेमि जयन्त २३ पार्श्वनाथ प्रारणत स्वर्ग (इन्द्र) प्रारणत कल्प २४ महावीर पुष्पोत्तर विमान पुष्पोत्तर विमान * श्री धर्मनाथ ने स्वर्ग की मध्यम प्रायु श्रौर शेष तीर्थंकरों ने उत्कृष्ट प्रायु भोगी । अच्युत स्वर्गं प्रारणत स्वर्ग सहस्रार प्रारणत विजय विमान सर्वार्थसिद्ध सर्वार्थसिद्ध सर्वार्थसिद्ध जयंत विमान अपराजित विमान प्रारणत स्वर्ग अपराजित विमान प्रारणत स्वर्ग प्रारणत स्वर्ग उत्तर पुराण दिगम्बर संदर्भ-ग्रंथ सर्वार्थ सिद्ध विजय विमान सुदर्शन विमान प्रथम ग्रैवेयक विजय विमान वैजयन्त ऊर्ध्वं ग्रैवेयक प्रीतिकर विमान मध्य ग्रैवेयक वैजयन्त प्रारणत स्वर्ग श्रारण १५व स्वर्गं प्रच्युत स्वर्ग महाशुक विमान सहस्रार स्वर्ग पुष्पोत्तर विमान सर्वार्थसिद्ध सर्वार्थसिद्ध सर्वार्थसिद्ध प्रारणत अपराजित तिलोय पण्णत्ती गाथा ५२२-२५ सर्वार्थसिद्ध विजय से प्रोग्रैवेयक विजय से जयन्त ऊर्ध्वं ग्रैवेयक मध्य ग्रैवेयक वैजयंत विमान प्रारण युगल श्रारण युगल पुष्पोत्तर विमान पुष्पोत्तर विमान सर्वार्थसिद्ध सर्वार्थसिद्ध सर्वार्थसिद्ध जयंत अपराजित अपराजित विमान अपराजित विमान महाशुक्र शतारकल्प से आनत विमान अपराजित विमान अपराजित Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६३ जन्म-तिथि - - श्वेताम्बर संदर्भ-ग्रंथ क्र.सं. नाम तीर्थंकर सत्त० २१ द्वा. |गा. ७८ से ८१ दिगम्बर संदर्भ-ग्रंथ | तिलोय पण्णत्ती गा. १६६-१८० 3 गा . ५२६-५४९ हरिवंश पुराण उत्तर पुराणगा. ५२६-५४६ KM १ ऋषभदेव २ अजितनाथ ३ संभवनाथ ४ अभिनन्दन ५ सुमतिनाथ ६ पद्मप्रभ ७ सुपार्श्वनाथ ८ चन्द्रप्रभ ६ सुविधिनाथ १० शीतलनाथ श्रेयांसनाथ १२ वासुपूज्य १३ विमलनाथ १४ अनन्तनाथ १५ धर्मनाथ १६ शान्तिनाथ १७ कुन्थुनाथ १८ अरनाथ १६ मल्लिनाथ २० मुनिसुव्रत २१ नमिनाथ २२ अरिष्टनेमि २३ पार्श्वनाथ चैत्र कृ. ८ चैत्र कृ. ६ चैत्र कृ. ६ चैत्र कृ. ६ माघ शु. ८ माघ शु. १० माघ शु. ६ माघ शु. १० माघ शु. १० मार्ग. शु. १४ फाल्गुन शु. ८ मार्ग. शु. १५ कार्तिक शु. १५ मंगसिर शु. १५ माघ शु. २ माघ शु. १२ माघ शु. १२ माघ शु. १२ वैशाख शु. ८ चैत्र शु. ११ श्रावण शु. ११ चैत्र शु. ११ श्रा. शु. ११ कार्तिक कृ. १२ कार्तिक कृ. १३ कार्तिक कृ. १३ पासोज कृ. १३ । ज्येष्ठ शु. १२ ज्येष्ठ शु. १२ ज्येष्ठ शु. १२ ज्येष्ठ शु. १२ पौष कृ. १२ पौष कृ. ११ पौष कृ. ११ पौष कृ. ११ मार्गशी. कृ. ५ मार्गशी. शु. १ मार्गशीर्ष शु. १ मार्गशी. शु. १ माघ कृ. १२ माघ कृ. १२ माघ कृ. १२ माघ कृ. १२ फाल्गुन कृ. १२ फाल्गुन कृ. ११ फाल्गुन कृ. ११ फाल्गुन शु. ११ फाल्गुन कृ. १४ फाल्गुन कृ. १४ फाल्गुन कृ. १४ फाल्गुन शु. १४ माघ शु. ३ माघ शु. १४ माघ शु. ४* माघ शु. १४ वैशाख कृ. १३ ज्येष्ठ कृ. १२ ज्येष्ठ कृ. १२ ज्येष्ठ कृ. १२ माघ शु. ३ माघ शु. १३ माघ शु. १३ माघ शु. १३ ज्येष्ठ कृ. १३ ज्येष्ठ कृ. १४ ज्येष्ठ कृ. १४ ज्येष्ठ शु. १२ वैशाख कृ. १४ वैशाख शु. १ वैशाख शु. १ वैशाख शु. १ मार्गशी. शु. १० मार्गशी. शु. १४ मार्गशी. शु. १४ मार्गशी. शु. १४ मार्गशी. शु. ११ मार्गशी. शु. ११ मार्गशी. शु. ११ मार्गशी. शु. ११ ज्येष्ठ कृ. ८ आश्विन शु. १२. x प्राश्विन शु. १२ श्रावक कृ. ८ आषाढ़ कृ. १० प्राषाढ़ कृ. १० प्राषाढ़ शु. १० श्रावक शु. ५ . वैशाख शु. १३ श्रावक शु. ६ वैशाख शु. १३ पौष कृ. १० पौष कृ. ११ पौष कृ. ११ पौष कृ. ११ पर्व ७३ ___ श्लो. ६. चैत्र शु. १३ चैत्र शु. १३ चैत्र शु. १३ चैत्र शु. १३ २४ महावीर *कुछ प्रतियों के अनुसार माघ शु. १४ । x श्री मुनिसुव्रतस्वामी की जन्मतिथि उत्तर पुराण में दी ही नहीं है। Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६४ जन्म-नक्षत्र - क्र०सं० नाम तीर्थंकर श्वेताम्बर दिगम्बर उत्तराषाढ़ा रोहिणी मृगशिरा पुष्य मघा चित्रा विशाखा अनुराधा मूल पूर्वाषाढ़ा श्रवण शतभिषा उत्तराभाद्रपद उत्तरापाढ़ा रोहिणी ज्येष्ठा पुनर्वसु मघा चित्रा विशाखा अनुराधा ऋषभदेव अजितनाथ संभवनाथ अभिनन्दन सुमतिनाथ पद्मप्रभ सुपार्श्वनाथ चन्द्रप्रभ सुविधिनाव तमलाप अख्विाब वासुपूज्य विमलनाथ अनन्तनाथ धर्मनाथ शान्तिनाथ कुंथुनाथ मरनाथ मल्लिनाय मुनिसुव्रत नमिनाथ परिष्टनेमि पार्श्वनाय महावीर मूल रेवती पुष्य भरणी कृत्तिका रेवती अश्विनी . श्रवण अश्विनी चित्रा विशाखा उत्तराफाल्गुनी पूर्वाषाढ़ा श्रवण विशाखा पूर्वाभाद्रपद रेवती पुष्य . भरणी कृत्तिका रोहिणी मश्विनी श्रवण अश्विनी वित्रा विशाखा उत्तराफाल्गुनी - Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६५ वर्ण श्वेताम्बर सन्दर्भ-ग्रंथ दिगम्बर संदर्भ-ग्रंथ क्र.सं. तीर्थकर नाम प्रवचन०द्वार हरिवश | तिलोय सत्त० द्वा. ४६ प्राव० नि० पुरागा | पण्णत्ती उत्तर पुराण १ ऋषभदेव सुवर्ण तपे सोने की तपे मोने की तपे सोने तरह गोर' तरह गौर की तरह वर्ण वर्ण गौर वर्ण सुवर्ण के स्वर्ण के समान पीत समान २ अजितनाथ सुवर्ण के समान पीत " " , , ३ संभवनाथ ४ अभिनन्दन " . , .... , , . चन्द्रमा के समान ५ मुमतिनाथ ६ पद्मप्रभ लाल ला ७ सुपार्श्वनाथ तपे सोने की तरह गौर वणं ८ चंद्रप्रभ गौर श्वेत & सुविधिनाथ " " तपाये स्वर्ण के समान लाल लाल लाल वर्ण मूगे के समान लाल कमल रक्त वर्ण के समान तपे सोने की तपे हुए सोने हरित वर्ण हरित वर्ण . चन्द्रमा के तरह गौर की तरह समान वर्ण गौर वर्ण गौर श्वेत चंद्र गौर गौर श्वेत कुन्द पुष्प चन्द्र गौर .., चंद्र गौर शंख के - समान तपे सोने की तपे हुए सोने सुवर्ण सुवर्ण के सुवर्ण के तरह गौर की तरह समान पीत समान । वर्ण गौर वर्ण " " " " " " सुवर्ण के समान लाल लाल लाल वर्ण मूगे के समान कुकुम के रक्त वर्ण के समान तपे सोने की तपे हुए सोने सुवर्ण सुवर्ण के सुवर्ण के तरह गौर की तरह समान पीत समान वर्ण गौर वर्ण १० शीतलनाथ तपे सोने की तरह गौर वर्ण " , ११ श्रेयांसनाथ १२ वासुपूज्य लाल १३ विमलनाथ तपे सोने की तरह गौर वर्ण Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६६ ३० समान समान श्वेताम्बर संदर्भ-ग्रंथ विगम्बर संवर्भ-ग्रंथ ___ क्र.सं. तीर्थकर नाम न द्वार सत्त० द्वा. ४६ माव० नि० हार हरिवंश । तिलोय पुराण । पण्णत्ती उत्तर पुराण १४ अनंतनाथ तपे सोने की तपे सोने की तपे हुए सोने सुवर्ण सुवर्ण के सुवर्ण के तरह गौर तरह गौर की तरह वर्ण वर्ण गौर वर्ण १५ धर्मनाथ " " " " " " " " १६ शान्तिनाथ " , " " " १७ कु थुनाथ " " , , , , , , , १८ प्ररनाथ , , , , , , , , १६ मल्लिनाथ प्रियंगु (नीले) प्रियंगु (नीले) प्रियंगु नील , स्वर्ण के समान २० मुनिसुव्रत काला काला नीलवर्ण नीलवर्ण नीलवर्ण (मयूर के कंठ के समान) २१ नमिनाथ तपे सोने की तपे सोने की तपे हुए सोने सुवर्ण सुवर्ण के सुवर्ण के तरह गौर तरह गौर की तरह समान समान वर्ण वर्ण गौर वर्ण २२ मरिष्टनेमि काला (श्याम) काला (श्याम) काला नीलवर्ण नीलवर्ण नीलवर्ण ____२३ पार्श्वनाथ प्रियंगु (नीले) प्रियंगु(नीले) प्रियंगु नील श्यामल हरितवर्ण हरित २४ महावीर तपे सोने की तपे सोने की तपे हुए सोने सुवर्ण सुवर्ण के . तरह गौर तरह गौर की तरह समान पीले वर्ण वर्ण गौर वर्ण काला - Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६७ लक्षण - क्र.सं. तीर्थकर नाम स्वेताम्बर संवर्भ-पंथ दिगम्बर संदर्भ-ग्रंथ |प्रवचन० द्वार २६/ सत्त० द्वा. ४२ | तिलोय पण्णत्ती गा. ३७६-८० गाथा १२१-१२२ - गा.६०४-६०५ वृषभ बेल गज प्रश्व बन्दर चकवा १ ऋषभदेव २ अजितनाथ ३ संभवनाथ ४ अभिनन्दन ५ सुमतिनाथ ६ पद्मप्रभ ७ सुपार्श्वनाथ चन्द्रप्रभ ६ सुविधिनाथ १० शीतलनाथ ११ श्रेयांसनाथ १२ वासुपूज्य १३ विमलनाथ १४ अनन्तनाथ १५ धर्मनाथ १६ शान्तिनाथ १७ कुंथुनाथ १८ परनाथ वृषभ गज गज तुरय (प्रश्व) प्रश्व वानर वानर कुचु (कोच) कमल रक्त कमल स्वस्तिक स्वस्तिक चन्द्र चन्द्र मगर मगर श्रीवत्स श्रीवत्स गण्डय खड़ी (गेंडा) गेंडा महिष महिष वराह श्येन श्येन वज्र वज्र हरिण छाग छाग नंद्यावर्त नंद्यावर्त वराह कमल नंद्यावर्त प्रद्ध चन्द्र मगर स्वस्तिक गेंडा भैंसा शूकर सेही वज्र हरिस छाग तगर कुसुम (मत्स्य ) कलश हरिण कलश १९ मल्लिनाथ २० मुनिसुव्रत २१ नमिनाथ कलश कूर्म नीलोत्पल कर्म नीलोत्पल शंख २२ परिष्टनेमि २३ पार्श्वनाथ २४ महावीर शंख मर्प सिंह उत्पल (नील कमल) शंख सर्प सर्प सिंह सिंह पृ० २१६ Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६८ शरीर-मान क्र.सं. तीर्थकर नाम श्वेताम्बर संदर्भ-ग्रंथ दिसम्बर संदर्भ-प्रथ | गाथा ४६ । समवायांग हरिवंश पुराण | उत्तर पुराण प्राव०नि० / सप्ततिशत ४५०. " . ४०० " ४०० " २०० १ ऋषभदेव २ अजितनाथ ३ संभवनाथ ४ अभिनन्दन ५ सुमतिनाथ ६ पद्मप्रभ ७ सुपार्श्वनाथ .८ चन्द्रप्रभ ६ सुविधिनाथ १० शीतलनाथ .११ श्रेयांसनाथ १२ वासुपूज्य १३ विमलनाथ १४ अनन्तनाथ १५ धर्मनाथ १६ शान्तिनाथ १७ कुंथुनाथ १८ अरनाथ १६ मल्लिनाथ २० मुनिसुव्रत २१ नमिनाथ २२ अरिष्टनेमि ...२३ पार्श्वनाथ ७० ६० " ८० ५०० धनुष ५०० धनुष ५०० धनुष ५०० धनुष ५०० धनुष ५०० धनुष ४५० " ४५० " ४५० " ४००, ४००, . ४०० , ४०० " ३५० " ३५०, ३५० " ३५० , ३५० , ३५० " ३०० " ३०० " ३०० " ३०० , ३०० , ३०० , २५० , २५० . २५० " २५० ॥ २५० , २५० ,, २०० " २०० " २०० २०० १५० " १५० ।। १५० .. १५० , १५० .. १०० " १०० " १०० , १०० , १०० " १०० ६० " ६० " ८० , ८० , ८० " ८० , ८० , ८० " ७० " ७० " ७० " ६०, ६० " ५० ५० " ० " ४५ ५ ४५ ., __४५ , ४५ " ४५ " ४० , ४० " ४० , ४० ,, ४० ,, ___३५ . ३५ " ३५ , ३५ ,, ३० " २५ " २५ " २५ , २५ , २५, २५ ,, २० , २० , २० .. २० , २० , २० ,, १५ , १५ , १५ ॥ १५ , १५ . १५ " १० , १०, १०, १०, १० , १० " ६ हाथ ६ हाथ हाथ ६ हाथ हाथ (रत्नी ) ७ हाथ ७ हाथ ७ हाथ ७ हाथ ७ हाथ ७ हाथ (रत्नी ) ६० ८० हाथ ३५ ३५, 30 ३० ३० २४ महावीर Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६६ कौमार्य जीवन - श्वेताम्बर संदर्भ-ग्रंथ । दिगम्बर संदर्भ-ग्रंथ क्र.सं.) तीर्थकर नाम [प्रावश्यक नि सत्तरि० द्वार ४५ हरिवंश पुराण तिलोय पण्णत्ती . - गा. २६९-३२२)गा.१३५ से १३७ ३३० से ३३१ |गा. ५८३-५८५ पर १ ऋषभदेव २० लाख पूर्व २० लाख पूर्व २० लाख पूर्व २० लाख पूर्व २० लाख पूर्व २ अजितनाथ १८ लाख पूर्व १८ लाख पूर्व १८ लाख पूर्व १८ लाख पूर्व १८ लाख पूर्व ३ संभवनाथ १५ लाख पूर्व १५ लाख पूर्व १५ लाख पूर्व १५ लाख पूर्व १५ लाख पूर्व ४ अभिनन्दन १२५०००० पूर्व १२५०००० पूर्व १२५०००० पूर्व १२५०००० पूर्व १२५०००० पूर्व ५ सुमतिनाथ १० लाज पूर्व १० लाख पूर्व १० लाख पूर्व १० लाख पूर्व १० लाख पूर्व ६ पद्मप्रभ ७५०००० पूर्व ७५०००० पूर्व ७५०००० पूर्व . ७५०००० पूर्व ७५०००० पूर्व ७ सुपार्श्वनाथ ५००००० पूर्व ५००००० पूर्व ५००००० पूर्व ५००००० पूर्व ५००००० पूर्व ८ चन्द्रप्रभ २५०००० पूर्व २५०००० पूर्व २५०००० पूर्व २५०००० पूर्व २५०००० पूर्व ६ सुविधिनाथ ५०००० पूर्व ५०००० पूर्व ५०००० पूर्व ५०००० पूर्व ५०००० पूर्व १० शीतलनाथ २५ हजार पूर्व २५ हजार पूर्व २५ हजार पूर्व २५ हजार पूर्व २५ हजार पूर्व ११ श्रेयांसनाथ २१ लाख वर्ष २१ लाख वर्ष २१ लाख वर्ष २१ लाड दर्प २१ लाख वर्ष १२ वासुपूज्य १८ लाख वर्ष १८ लाख वर्ष १८ लाख वर्ष १८ लाख वर्ष १८ लाख वर्ष १३ विमलनाथ १५ लाख वर्ष १५ लाख वर्ष १५ लाख वर्ष १५ लाख वर्ष १५ लाख वर्ष अनन्तनाथ ७५०००० वर्ष ७५०००० वर्प ७५०००० वर्ष ७५०००० वर्ष ७५०००० वर्ष १५ धर्मनाथ २५०००० वर्ष २५०००० वर्ष २५०००० वर्ष २५०००० वर्ष २५०००० वर्ष १६ शान्तिनाथ २५००० वर्ष २५००० वर्ष २५००० वर्ष २५००० वर्प २५००० वर्ष १७ कुथुनाथ २३७५० वर्ष २३७५० वर्ष २३७५० वर्ष २३७५० वर्ष - २३७५० वर्ष १८ मरनाथ २१००० वर्ष २१००० वर्ष २१००० वर्ष २१००० वर्ष २१००० वर्ष १६ मल्लिनाथ १०० वर्ष १०० वर्ष १०० वर्ष २०० वर्ष १०० वर्ष २० मुनिसुव्रत ७५०० वर्ष ७५०० वर्ष ७५०० वर्ष ७५०० वर्ष ____७५०० वर्ष २१ नमिनाथ २५०० वर्ष २५०० वर्ष २५०० वर्ष __२५०० वर्ष २५०० वर्ष २२ अरिष्टनेमि ३०० वर्ष ३०० वर्ष ३०० वर्ष ३०० वर्ष ३०० वर्ष २३ पार्श्वनाथ ३० वर्ष ३० वर्ष ३० वर्ष ३० वर्ष ३० वर्ष __ २४ महावीर ३० वर्ष ३० वर्ष ३० वर्ष ३० वर्ष ३० वर्ष पृ० ७३१-७३२ पृ० २१० से २१६ Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज्य काल श्वेताम्बर संदर्भ-ग्रंथ दिगम्बर संदर्भ-ग्रंथ | आवश्यक सत्तरिसय ५५ हरिवंश पुराण | तिलोय पण्णत्ती __नि. गा. गाथा पृ० ७३१ से | पृ० २१७ से | उत्तर पुराण २६६-३२२ । १३८-१४१ । ७३२ । २१९ १ ऋषभदेव २ अजितनाथ ३ संभवनाथ ४ अभिनन्दन ५ सुमतिनाथ ६ पद्मप्रभ ६३ लाख ६३ लाख ६३ लाख ६३ लाख पूर्व पूर्व पूर्व पूर्व ५३ लाख ५३ लाख ५३ लाख ५३ लाख ५३ लाख पूर्व १ पूर्वांग पूर्व १ पूर्वांग पूर्व १ पूर्वांग पूर्व १ पूर्वक पूर्व १ पूर्वांग ४४ लाख ४४ लाख ४४ लाख ४४ लाख ४४ लाख पूर्व ४ पूर्वांग पूर्व ४ पूर्वांग पूर्व ४ पूर्वांग पूर्व ४ पूर्वांग पूर्व ४ पूर्वांग ३६ लाख ३६ लाख ३६ लाख ३६ लाख ३६५०००० ५० हजार ५० हजार ५० हजार ५० हजार पूर्व ८ पूर्वांग पूर्व ८ पूर्वांग पूर्व ८ पूर्वांग पूर्व ८ पूर्वांग २६ लाख २६ लाख २६ लाख २६ लाख २६ लाख पूर्व १२ पूर्वांग पूर्व १२ पूर्वांग पूर्व १२ पूर्वांग पूर्व १२ पूर्वांग पूर्व १२ पूर्वांग २१ लाख २१ लाख २१ लाख २१ लाख २१ लाख ५० हजार ५० हजार ५० हजार ५० हजार ५० हजार पूर्व १६ अंग पूर्व १६ अंग पूर्व १६ पूर्वांग पूर्व १६ पूर्वांग पूर्व १६ । पूर्वांग कम १४ लाख १४ लाख १४ लाख १४ लाख १४ लाख पूर्व २० अंग पूर्व २० अंग पूर्व २० पूर्वांग पूर्व २० पूर्वांग पूर्व २० पूर्वांग कम ६ लाख ६ लाख ६ लाख ६ लाख ६ लाख ५० हजार ५० हजार ५० हजार ५० हजार ५० हजार पूर्व २४ अंग पूर्व २४ अंग पूर्व २४ पूर्वांग पूर्व २४ पूर्वांग पूर्व २४ पूर्वांग ५० हजार ५० हजार ५० हजार ५० हजार ५० हजार पूर्व २८ अंग पूर्व २८ अंग पूर्व २८ पूर्वांग पूर्व २८ पूर्वांग पूर्व २८ पूर्वांग ५० हजार ५० हजार ५० हजार ५० हजार ५० हजार पूर्व पूर्व पूर्व पूर्व पूर्व ४२ लाख ४२ लाख ५० लाख ४२ लाख ४२ लाख वर्ष ७ सुपार्श्वनाथ ८ चन्द्रप्रभ & सुविधिनाथ १० शीतलनाथ ११ श्रेयांसनाथ वर्ष वर्ष वर्ष* *एवं पचखपक्षाब्धिमितसंवत्सरावधौ, राज्यकालेऽयमन्येधुर्वसन्तपरिवर्तनम् ॥ उत्तर पु., अ. ५७ श्लो. ४३ Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०१ क्र.सं. तीर्थकर नाम श्वेताम्बर संवर्भ-ग्रंथ दिगम्बर संदर्भ-ग्रंथ आवश्यक सत्तरिसय ५५ | हरिवंश पुराण | तिलोय पण्णत्ती नि. गा. गाथा | १० ७३१ से | पृ० २१७ से | उत्तर पुराण २६६-३२२ । १३८-१४१ । ७३२. २१९ वर्ष वर्ष वर्ष वर्ष वर्ष वर्ष वर्ष १२ वासुपूज्य* अभाव प्रभाव प्रभाव प्रभाव प्रभाव १३ विमलनाथ ३० लाख ३० लाख ३० लाख ३० लाख ३० लाख वर्ष वर्ष १४ अनन्तनाथ १५ लाख १५ लाख १५ लाख १५ लाख १५ लाख वर्ष - १५ धर्मनाथ ५ लाख ५ लाख ५ लाख ५ लाख ५००००० वर्ष वर्ष वर्ष वर्ष १६ शान्तिनाथ २५ हजार २५ हजार २५ हजार २५ हजार २५ हजार वर्ष मांडलिक वर्ष मांडलिक वर्ष मांडलिक वर्ष मांडलिक वर्ष मांडलिक २५ ह. वर्ष २५ हजार २५ ह. वर्ष २५ ह. वर्ष २५ ह. वर्ष चक्रवर्ती चक्रवर्ती चक्रवर्ती चक्रवर्ती चक्रवर्ती १७ कुंथुनाथ २३७५० वर्ष २३७५० वर्ष २३७५० वर्ष २३७५० वर्ष २३७५० वर्ष मांडलिक मांडलिक मांडलिकमांडलिक मांडलिक इतना ही इतना ही इतना ही इतना ही इतना ही चक्रवर्ती चक्रवर्ती चक्रवर्ती चक्रवर्ती चक्रवर्ती १८ अरनाथ २१००० वर्ष २१००० वर्ष २१००० वर्ष २१००० वर्ष २१००० वर्ष मांडलिक मांडलिक मांडलिक मांडलिक मांडलिक इतना ही इतना ही इतना ही इतना ही २१००० वर्ष चक्रवर्ती चक्रवर्ती चक्रवर्ती चक्रवर्ती चक्रवर्ती १६ मल्लिनाथ* प्रभाव प्रभाव प्रभाव प्रभाव प्रभाव २० मुनिसुव्रत १५००० वर्ष १५००० वर्ष १५००० वर्ष १५००० वर्ष १५००० वर्ष २१ नमिनाथ ५००० वर्ष ५००० वर्ष ५००० वर्ष ५००० वर्ष ५००० वर्ष २२ अरिष्टनेमि* प्रभाव प्रभाव प्रभाव प्रभाव प्रभाव २३ पार्श्वनाथ* अभाव प्रभाव प्रभाव प्रभाव २४ महावीर* प्रभाव प्रभाव प्रभाव प्रभाव अभाव प्रभाव *तारांकित ५ तीर्थकरों ने राज्य का उपभोग ही नहीं किया Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०२ क्र सं तीर्थंकर नाम १ २ ३ ऋषभदेव अजितनाथ संभवनाथ अभिनन्दन ४ ५ सुमतिनाथ こ पद्मप्रभ ७ सुपार्श्वनाथ ८ चन्द्रप्रभ ६ सुविधिनाथ १० शीतलनाथ श्रेयांसनाथ ११ १२ वासुपूज्य १३ विमलनाथ १४ १५ वर्मनाथ १६ अनन्तनाथ शान्तिनाथ श्वेताम्बर संदर्भ-ग्रंथ मत्त द्वार ५६. गावा १४५ मे १४७ चैत्र कृ. माघ शु. मार्गशीर्ष शु. १५ माघ शु. १२ वैशाख शु. कार्तिक कृ. १३ ज्येष्ठ शु. १३ प कृ. १३ मार्गशीर्ष कृ. ६ माघ कृ. १२ फाल्गुन कृ. १३ फाल्गुन कृ. ३० माघ शु. ४ वैशाख कृ. १४ माघ शु. १३ ज्येष्ठ कृ. १४ दीक्षा तिथि वैशाख कृ. ५ मार्गशीर्ष शु. ११ मार्गशीर्ष कृ. ११ ज्येष्ठ शु. १२ हरिण पुराण नाथा २२६-२३६ श्रावण कृ. श्रावण शु. ६ पौप कृ. ११ मार्गशीर्ष कृ. १०* चैत्र क्र. ६ माघ शु. ६ मार्गशीर्ष शु. १५ माघ शु. १२ मार्गशीर्ष कृ. १० कार्तिक कृ. १३ ज्येष्ठ कृ. १२ पौष कृ. ११ मार्गशीर्ष शु. १ माघ कृ. १२ फाल्गुन कृ. १३ फाल्गुन कृ. १४ माघ शु. ४ ज्येष्ठ कृ. १२ १७ कुथुनाथ १८ अरनाथ १६ मल्लिनाथ २० मुनिसुव्रत २१ नमिनाथ २२ अरिष्टनेमि २३ पार्श्वनाथ २४ महावीर * सत्तरिसय द्वार में चैत्र शु. १० उल्लेखित है । माघ शु. १३ ज्येष्ठ कृ. १३ वैशाख शु. १ मार्गशीष शु. १० मार्गशीर्ष शु. ११ वैशाख कृ. ६ आषाढ़ कृ. १० श्रावण शु. ४ पौष कृ. ११. मार्गशीर्ष कृ. १० दिगम्बर संदर्भ-ग्रंथ तिलोय पण्णत्ती गाथा ६४४-६६७ चैत्र कृ. ६ माघ शु. मार्गशीर्ष शु. १५ माघ शु. १२ वैशाख शु. ६ कार्तिक कृ. १३ ज्येष्ठ शु. १२ पौष कृ. ११ पौष शु. ११ माघ कृ. १२ फाल्गुन कृ. ११ फाल्गुन कृ. १४ - माघ शु. ४ ज्येष्ठ कृ. १२ भाद्रपद शु. १३ ज्येष्ठ कृ. १४ वैशाख शु. १ मार्गशीर्ष शु. १० मार्गशीपं शु. ११ वैशाख कृ. १० प्रापाढ़ कृ. १० श्रावण शु. ६ माघ शु. ११ मार्गशीर्ष कृ. १० उत्तर पुराण चैत्र कृ. माघ शु. ६ मोघ शु. १२ वैशाख शु. ६ कार्तिक कृ. १३ ज्येष्ठ शु. १२ पीप क्र. ११ मार्गशीर्ष शु. १ माघ कृ. १२ फाल्गुन कृ. ११ फाल्गुन कृ. १४ माघ शु. ४ ज्येष्ठ कृ. १२ माघ शु. १३ ज्येष्ठ कृ. १४ वैशाख शु. १ मार्गशीर्ष शु. १० मार्गशीर्ष शु. ११ वैशाख कृ. १० श्रापाढ़ कृ. १० ― पोप कृ. ११ मार्गशीर्ष कृ. १० Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र.सं. तीर्थंकर नाम १ ऋषभदेव २ अजितनाथ ३ संभवनाथ ४ अभिनन्दन ५ सुमतिनाथ ६ पद्मप्रभ ७ सुपार्श्वनाथ ८ चन्द्रप्रभ ६ सुविधिनाथ १० शीतलनाथ श्रेयांसनाथ ११ १२ वासुपूज्य १३ विमलनाथ १४ ग्रनन्तनाथ १५ धर्मनाथ १६ शान्तिनाथ १७ कुंथुनाथ १८ प्रेरनाथ १९ मल्लिनाथ २० मुनिसुव्रत २१ नमिनाथ २२ प्ररिष्टनेमि २३ पार्श्वनाथ २४ महावीर तीर्थकरों के दीक्षा नक्षत्र श्वेताम्बर उत्तराषाढ़ा रोहिणी श्रभिजित मृगशीरा मधा चित्रा विशाखा अनुराधा मूल पूर्वाषाढ़ा श्रवण शतभिषा उत्तराभाद्रपद रेवती पुष्य भरणी कृत्तिका रेवती अश्विनी श्रवरण अश्विनी चित्रा विशाखा उत्तराफाल्गुनी दिगम्बर उत्तरापाढ़ा रोहिणी ज्येष्ठा पुनर्वसु मघा चित्रा विशाखा अनुराधा अनुराधा मूल श्रवरण विशाखा उत्तराभाद्रपद रेवती पुष्य भरणी कृतिका रेवती अश्विनी श्रवण अश्विनी चित्रा विशाखा उत्तरा ८०३ Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०४ क्र.सं. तोर्थंकर नाम १ २ ३ ४ ऋषभदेव अजितनाथ संभवनाथ अभिनन्दन ५ सुमतिनाथ ६ पद्मप्रभ ७ सुपार्श्वनाथ ८ चन्द्रप्रभ ६ सुविधिनाथ १० शीतलनाथ ११ श्रेयांसनाथ १२ वासुपूज्य १३ विमलनाथ १४. अनन्तनाथ १५ धर्मनाथ १६ शान्तिनाथ १७ कुंथुनाथ १८ अरनाथ १६ मल्लिनाथ श्वेताम्बर संदर्भ ग्रंथ सत्तरिय गाथा १५३-५५ प्रत्रचन सारोद्धार गाथा ३८३ से ३८४ दीक्षा साथी ४००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० ६०० १००० १००० १००० १००० १००० १००० ४००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० ६०० १००० १००० १००० १००० १००० १००० २० मुनिसुव्रत २१ नमिनाथ २२ अरिष्टनेमि २३ पार्श्वनाथ २४ महावीर * गन्ता मुनिसहस्रेण निर्वाणं सर्ववांछितम् ।। ३०० पुरुष ३०० एकाकी ' एकाकी समवायांग हरिवंश पुराण समवाय २५ ४००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० ६०० १००० १००० १००० १००० १००० १००० ३०० पुरुष ३०० पुरुष ३०० पुरुष १००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० ३०० एकाकी गाथा ३५०-३५१ ४००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० ܘܘܘܐ ܘܘܐ १००० ६०६ १००० १००० १००० १००० १००० १००० बिगम्बर संदर्भ ग्रंथ तिलोय पण्णत्ती गा. ६६८ से ६६६ ܘܘܕ ३०० पुरुष १००० १००० ४००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० ܘܘܘܐ ܘܘ ܘ ܐ १००० १००० १००० ६७६ १००० १००० १००० १००० १००० १००० उत्तर पुराण ३०० पुरुष ४००० १००० १००० १००० १००० १००० १००० ܐܘܘܘ १००० १००० १००० ३०० पुरुष ३०० पुरुष ३०० एकाकी एकाकी १०००* १००० १००० ६७६ १००० १००० १००० १००० १००० १००० ३०० १००० ܘܘܘܐ १००० - उत्तर पुराण, पर्व ७६, श्लोक ५१२ Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र.सं. तीर्थंकर नाम सम गा. २६, प्र० सा० ४३ द्वा० १ ऋषभदेव २ अजितनाथ ३ संभवनाथ ४ अभिनन्दन ५ सुमतिनाथ ६ पदमप्रभ बेला ७ सुपार्श्वनाथ बेला ८ चन्द्रप्रभ बेला ६ सुविधिनाथ बेला १० शीतलनाथ बेला ११ श्रेयांसनाथ बेला १२ वासुपूज्य १३ विमलनाथ बेला २० मुनिसुव्रत २१ नमिनाथ २२ अरिष्टनेमि २३ पार्श्वनाथ १४ अनन्तनाथ बेला १५ धर्मनाथ बेला १६ शान्तिनाथ बेला १७ कुंथुनाथ १८ अरनाथ १६ मल्लिनाथ २४ महावीर चतुर्थ-भक्त श्वेताम्बर संदर्भ ग्रंथ बेला (छट्टभक्त) बेला बेला बेला बेला वेला बेला बेला नित्यभक्त बेला वेला बेला बेला बेला बेला बेला चतुर्थ भक्त चतुर्थ-भक्त बेला बेला बेला बेला बेला बेला तीन प्रथम लप " बेला बेला तीन उपवास ( अष्टम- तप) वेला बेला बेला तीन उपवास (अष्टम-तप ) बेला आवश्यक नि० उपवास बेला बेला बेला तीन सत्त. द्वार ६३ गाथा १४६ उपवास बेला बेला बेला बेला बेला छमास अनसन षष्ठ उपवास बेला (छट्टभक्त) प्रष्टम भक्त बेला तेला बेला तेला नित्यभक्त तेला तेला बेला तेला बेला तेला बेला तेला बेला बेला तेला बेला बेला तेला बेला बेला तेला बेला एक उपवास एक उपवास बेला बेला तीन उपवास बेला बिला तीन उपवास बेला तीन उपवास बेला तीन उपवास बेला तीन उपवास तेला तीन उपवास तेला षष्ठ भक्त बेला बेला बेला बेला बेला बेला बेला बेला वेला बेला बेला बेला बेला तीन उपवास तीन उपवास बेला बेला बेला तीन दिगम्बर संदर्भ ग्रंथ हरिवंश पुराण | तिलोय पण्णत्ती गाथा २१६ | गाथा ६४४ उत्तर पुराण से २२० से ६६७ उपवास बेला बेला बेला बेला बेला बेला बेला बेला एक उपवास बेला बेला बेला बेला बेला बेला तीन उपवास बेला तीन उपवास बेला तीन उपवास वेला षष्ठभक्त तेला ८०५ तीन उपवास तेला Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०६ प्रथम पारणा-वासा श्रेयांस श्वेताम्बर संदर्भ प्रथ : दिगम्बर संदर्भ प्रय क्र.सं. तीर्थकर नाम | | मावश्यक नि० | सत्त० द्वार ७७ । समवायांग | उत्तर पुराण | हरिवंश पुराण |. ... गा. ३२३ से ३२६/गा.१६३१६५/ गा. ७६-७७पर्व ४८ से ६६ ७२४ १ ऋषभदेव श्रेयांस श्रेयांस श्रेयांस श्रेयांस २ अजितनाथ ब्रह्मदत्त ब्रह्मदत्त ब्रह्मदत्त ब्रह्माराजा ब्रह्मदत्त ३ संभवनाथ सुरेन्द्रदत्त सुरेन्द्रदत्त सुरेन्द्रदत्त सुरेन्द्रदत्त सुरेन्द्रदत्त ४ अभिनन्दन · इन्द्रदत्त इन्द्रदत्त इन्द्रदत्त इन्द्रदत्तराजा इन्द्रदत्त ५१ सुमतिनाथ पप पग । पप पपराजा परक . ६ पद्मप्रभ सोमदेव सोमदेव सोमदेव सोमदत्तराजा सोमदत्त सुपार्श्वनाथ महेन्द्र महेन्द्र महेन्द्र महेन्द्रदत्तराजा महादत्त ___ ८ चन्द्रप्रभ सोमदत्त सोमदः सोमदत्त सोमदत्तराजा सोमदेव सुविधिनाथ पुष्य पुष्य पुष्य . पुष्यमित्रराजा पुष्पक १० शीतलनाथ पुनर्वसु पुनर्वसु पुनर्वसु पुनर्वसुराजा पुनर्वसु ११ श्रेयांसनाथ पूर्णनंद पूर्णनंद नंदराजा 'सुनन्द १२ वासुपूज्य सुनन्द सुनन्द सुनन्द सुन्दरराजा जय १३ विमलनाथ जय । जय . कनकप्रभु विशाख १४ अनन्तनाथ विजय विजय. विजय विशाखराजा धर्मसिंह १५ धर्मनाथ धसिंह धर्मसिंह धर्मसिंह धन्य सुमित्र . १६ शान्तिनाथ सुमित्र सुमित्र सुमित्र सुमित्रराजा धर्ममित्र १७ कुंथुनाथ व्याघ्रसिंह व्याघ्रसिंह वग्गसिंह धर्ममित्रराजा अपराजित . (वग्गसीह) १८ मरनाथ . अपराजित अपराजित अपराजित अपराजितराजा नन्दिषेण १६ मल्लिनाथ . विश्वसेन विश्वसेन विश्वसेन नन्दीषेण वृषभदत्त २० मुनिसुव्रत ब्रह्मदत्त ब्रह्मदत्त ऋषभसेन वृषभषेन दत्त २१ नमिनाथ, दिन दिन दन्तराजा वरदत्त २२ अरिष्टनेमि वरदत्त वरदिन वरदत्त वरदत्त नृपति २३ . पार्श्वनाथ धन्य धन्य । धन्य धन्यराजा धन्य २४. महावीर बहूल बहूल . . बहूल . कूल बकुल नंद जय दिन्न Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र.सं. तीर्थंकर नाम १ ऋषभदेव २ अजितनाथ ३ संभवनाथ ४ अभिनन्दन ८. चन्द्रप्रभ ६ सुविधिनाथ १० शीतलनाथ ११ श्रेयांसनाथ १२. वासुपूज्य १३ . विमलनाथ ५ सुमतिनाथ विजयपुर ६ पद्मप्रभ ७ सुपार्श्वनाथ १४. अनन्तनाथ - १५ धर्मनाथ श्वेताम्बर संदर्भ ग्रंथ प्रव. नियुक्ति | सत्त० द्वार ७६ समवायांग ३२३ से ३२६ गा० १६० १६१ हस्तिनापुर अयोध्या श्रावस्ती साकेतपुर २२ अरिष्टनेमि २३ पार्श्वनाथ २४ महावीर ब्रह्मस्थल पाटलिखंड पद्मखंड श्रेयः पुर रिष्ठपुर सिद्धार्थ पुर महापुर धान्यकड वर्द्ध मानपुर सौमनस मंदिरपुर प्रथम पारणा स्थल चक्रपुर राजपुर मिथिला हस्तिनापुर अयोध्या श्रावस्ती अयोध्या विजयपुर ब्रह्मस्थल पाटलिखंड १६ शान्तिनाथ १७ कुथुनाथ १८ अरनाथ १६ मल्लिनाथ २० मुनिसुव्रत राजगृह राजगृह २१ नमिनाथ वीरपुर वीरपुर द्वारावती द्वारावती कोपकट कोपकट कोल्लाक ग्राम कोल्लाक ग्राम पद्मखंड श्रेयः पुर रिष्ठपुर सिद्धार्थं पुन महापुर धान्यकड वर्द्धमानपुर सौमनस मंदिरपुर चक्रपुर राजपुर मिथिला 6.6-361 हस्तिनापुर अयोध्या श्रावस्ती साकेतपुर विजयपुर ब्रह्मस्थल पाटलिखड पद्मखंड श्रेयः पुर रिष्ठपुर सिद्धार्थ पुर महापुर धान्यकड वर्द्ध मानपुर सौमनस मंदिरपुर चक्रपुर राजपुर मिथिला हस्तिनापुर साकेतपुरी श्रावस्ती साकेत दिगम्बर संदर्भ ग्रंथ उत्तर पुराण | हरिवंश पु० पृ० पर्व ४८ से ६६ ७२४ (अयोध्या) सौमनस नगर वर्द्धमान नगर सोमखेट नगर नलिन नगर शैलपुर नगर अरिष्ठ नगर सिद्धार्थ नगर महानगर नन्दनपुर साकेतपुर पाटलिपुत्र मंदिरपुर हस्तिनापुर चक्रपुरनगर मिथिलानगर * राजगृह वीरपुर द्वारावती कोपकट गुल्मखेट कोल्लाक ग्राम कूलग्राम राजगृह नगर वीरपुर द्वारावती ८०३ हस्तिनापुर अयोध्या श्रावस्ती विनीता विजयपुर मंगलपुर. पाटलिखंड पद्मखंड श्वेतपुर अरिष्ठपुर सिद्धार्थ पुर महापुर धान्य बटपुर वृद्ध मानपुर सौमनसपुर मंदिरपुर हस्तिनापुर चक्रपुर मिथिला राजगृह वीरपुर द्वारवती काम्यकृत कु Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छमस्थ-काल श्वेताम्बर संदर्भ प्रथ दिगम्बर संदर्भ ग्रंथ क्र.सं. तीर्थंकर नाम | सत्त० ८४ दा. | प्रा० नि० हरिवंश पुराण तिलोय पण्णत्ती उत्तर पुराण गा. १७२-१७४/ २३८-२४० श्लो.३३७-३४० गा. ६७५-६७८ ऋषभदेव २ अजितनाथ ३ संभवनाथ ४ अभिनन्दन ५ सुमतिनाथ ६ पद्मप्रभ ७ सुपार्श्वनाथ ८ चन्द्रप्रभ & सुविधिनाथ १० शीतलनाथ ११ श्रेयांसनाथ १०१२ वासुपूज्य १३ विमलनाथ अनन्तनाथ १५ धर्मनाथ १६ शान्तिनाथ १७ कुथुनाथ १८ अरनाथ • १६ मल्लिनाथ २० मुनिसुव्रत २१ नमिनाथ २२ अरिष्टनेमि २३ पार्श्वनाथ २४ महावीर एक हजार वर्ष एक हजार वर्ष एक हजार वर्ष एक हजार वर्ष एक हजार वर्ष बारह वर्ष बारह वर्ष बारह वर्ष वारह वर्ष बारह वर्ष चौदह वर्ष चौदह वर्ष . चौदह वर्ष चौदह वर्ष चौदह वर्ष अठारह वर्ष अठारह वर्ष अठारह वर्ष अठारह वर्ष अठारह वर्ष बीस वर्ष बीस वर्ष बीस वर्ष बीस वर्ष बीस वर्ष छ महिना छ महिना छ मास छ मास छ मास नो महिना नो महिना नो वर्ष नो वर्ष नो वर्ष तीन महिना तीन महिना तीन मास तीन मास तीन मास चार महिना चार महिना चार मास चार वर्ष चार वर्ष तीन महिना तीन महिना तीन मास तीन वर्ष तीन वर्ष दो महिना दो महिना दो मास दो वर्ष दो वर्ष एक महिना . एक महिना एक मास । एक वर्ष एक वर्ष दो महिना दो महिना तीन मास तीन वर्ष तीन वर्ष तीन वर्ष तीन वर्प दो मास दो वर्ष दो वर्ष दो वर्ष दो वर्ष एक मास एक वर्ष एक वर्ष एक वर्ष एक वर्ष . सोलह वर्ष सोलह वर्ष . सोलह वर्ष सोलह वर्ष सोलह वर्ष सोलह वर्ष । सोलह वर्ष सोलह वर्ष तीन वर्ष तीन वर्ष सोलह वर्ष । सोलह वर्ष सोलह वर्ष *एक अहोरात्र एक अहोरात्र छ दिन छ दिन छ दिन ग्यारह महिना ग्यारह महिना ग्यारह मास ___ ग्यारह मास ___ ग्यारह मास नव महिना नव मास नव वर्ष नव मास नव वर्ष चौवन दिन चौवन दिन छप्पन दिन छप्पन दिन छप्पन दिन चौरासी दिन चौरासी दिन चार मास चार मास चार मास साढ़े बारह वर्ष साढ़े बारह वर्ष बारह वर्ष बारह वर्ष बारह वर्ष पन्द्रह दिन - - * चेव दिवसं पम्वइये तस्सेव दिवसस्स पुवावरलकालसमयंसि""केवलवर नाणदसणे समुप्पन्ने । -शाता., श्रु. १, प्र. ८, सूत्र ८४ Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र.सं. नाम तीर्थंकर ३ संभवनाथ ४ अभिनन्दन ५ सुमतिनाथ ६ पद्मप्रभ ७ सुपार्श्वनाथ ५ चन्द्रप्रभ ६ सुविधिनाथ १० ११ १ ऋषभदेव फा. कृ. ११ उत्तरा. २ अजितनाथ पौ. शु. ११ रोहिणी १२ वासुपूज्य १३ विमलनाथ आव० नि० . फा. कृ. ७ अनु. का. शु. ३ मूल शीतलनाथ पौ. कृ. १४पू. षा. श्रेयांसनाथ माघ कृ. ३० श्रव. १४ अनन्तनाथ १५ धर्मनाथ १६ शान्तिनाथ १७ कुंथुनाथ श्वेताम्बर संदर्भ - प्रथ २३ पार्श्वनाथ २४ महावीर का. कृ. ५ मृग. पौ. शु. १४ अभि. चं. शु. ११ मघा चं. शु. १५ चित्रा फा. कृ. ६ विशा. माघ शु. २ शत. पो शु. ६ उ.भा. बँ. कृ. १४रेवती केवलज्ञान-तिथि पौ. शु. १५ पुष्य पौ.शु.६ भरगी चं. शु. ३ कृत्ति. माघ शु. २ पो. शु. ६ वैशाखकृ. १४ पौष शु. १५ पौष शु. ६ चैत्र शु. ३ कार्तिकशु. १२ १८ अरनाथ का. शु. १२रेव. १६ मल्लिनाथ मार्ग. शु. ११ प्राश्वि. मार्गशीर्ष शु. ११ २० मुनिसुव्रत फा. कु. १२ववरण फाल्गुन कृ. १२ २१ नमिनाथ मार्ग शु. ११ प्रश्वि. मार्गशीर्ष शु. ११ २२ अरिष्टनेमि प्राश्वि. कृ. ३० श्रासोज शु. ३० चित्रा चं. कृ. ४विशा. चैत्र कृ. ४ वै. शु ११ हस्तो० वैशाख शु. १० गा. २६३ से २७४ सत्त० द्वार८७ गा. १७६-८३ तिलोय पण्णत्ती | चौ. महा. गाथा ६७६ से ७०१ फाल्गुन कृ. ११ फाल्गुन कृ. ११ फाल्गुन कृ. ११ फाल्गुन कृ. ११ पौष शु. ११ कार्तिक कृ. ५ पौष शु. १४ चैत्र शु. ११ चैत्र शु. १५ फा. कृ. ६ फाल्गुन कृ. ७ कार्तिक शु. ३ पौष कृ. १४ माघ कृ. ३० पौष शु. १४ कार्तिक कृ. ५. कार्तिक शु. पौष शु. १५ वैशाख शु. १० फाल्गुन कृ. ७ फाल्गुन कृ. ७ कार्तिक शु. ३ पौष कृ. १४ माघ कृ. ३० माघ शु. २ पौष शु. १० चैत्र कृ. ३० पौष शु. १५ पौष शु. ११ चैत्र शु. ३ शु. १२ फाल्गुन कृ. १२ फाल्गुन कृ. ६ दिगम्बर संदर्भ-ग्रंथ हरिवंश पुराण ४२५ पृ. चैत्र शु. ३ प्रासोज शु. १ चैत्र कृ. ४ वैशाख शु. १० पृ. २२७-२३० पौष शु. १४ कार्तिक कृ. ५ पौष शु. १५ चैत्र शु. १० चैत्र शु. १० फाल्गुन कृ. ७ फाल्गुन कृ. ७ कार्तिक शु. ३ पौष कृ. १४ माघ कृ. ३० माघ शु. २ पौष कृ. १० चैत्र कृ. ३० पौष शु. १५ पौष शु. ११ चैत्र शु. ३ कार्तिक शु. १२ ८०६ फाल्गुन कृ. ११ फाल्गुन कृ. ६ चैत्र शु. ३ प्राश्वि. शु. १ उत्तर पुराण पौष शु. ११ कार्तिक कृ. ४ पौष शु. १४ चैत्र शु. ११ चैत्र शु. १५ फाल्गुन कृ. ६ फाल्गुन कृ. ७ कार्तिक शु. २ पौष कृ. १४ माघ कृ. ३० माघ शु. २ माघ शु. ६ चैत्र कृ. ३० पौष शु. १५ पौष शु. १० चैत्र शु. ३ कार्तिकशु १२ मार्ग शु. ११ वैशाख कृ. ६ मार्ग. शु. ११. प्रासोज कृ. ३० चैत्र कृ. १३ चैत्र कृ. ४ वैशाख शु. १० वैशाख शु. १० Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकरों के केवलज्ञान-नक्षत्र - । नाम तीर्थंकर श्वेताम्बर । दिगम्बर उत्तराषाढ़ा रोहिणी ज्येष्ठा पुनर्वसु उत्तराषाढ़ा रोहिणी मृगशिरा अभिजित मघा चित्रा विशाखा अनुराधा चित्रा विशाखा अनुराधा मूल मूल ऋषभदेव अजितनाथ संभवनाथ अभिनन्दन सुमतिनाथ पद्मप्रभ सुपार्श्वनाथ चन्द्रप्रभ सुविधिनाथ शीतलनाथ श्रेयांसनाथ वासुपूज्य विमलनाथ अनन्तनाथ धर्मनाथ शान्तिनाथ कुंथुनाथ परनाथ मल्लिनाथ मुनिसुव्रत नमिनाथ परिष्टनेमि पार्श्वनाथ महावीर पूर्वाषाढ़ा श्रवण विशाखा उत्तराषाढ़ा रेवती पूर्वाषाढ़ा श्रवण शतभिषा उत्तरभाद्रपद रेवती पुष्य, भरणी कृत्तिका रेवती अश्विनी श्रवण अश्विनी चित्रा विशाखा उत्तराफाल्गुनी पुष्य भरणी कृत्तिका रेवती । अश्विनी श्रवण अश्विनी चित्रा . विशाखा मघा - Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र.सं. नाम तीर्थंकर १ ऋषभदेव २ प्रजितनाथ ३. संभवनाथ ४ अभिनन्दन ५ सुमतिनाथ ६ पद्मप्रभ ७ सुपार्श्वनाथ ८ चन्द्रप्रभ ६ सुविधिनाथ १० शीतलनाथ ११ श्रेयांसनाथ . १२ वासुपूज्य १३ विमलनाथ १४ अनन्तनाथ १५ धर्मनाथ १६ १७ कुंथुनाथ शान्तिनाथ १८ अरनाथ १९ मल्लिनाथ २० मुनिसुव्रत २१ नमिनाथ २२ अरिष्टनेमि २३ पार्श्वनाथ २४ महावीर केवलज्ञान-स्थल श्वेताम्बर संदर्भ-ग्रन्थ सप्ततिशतस्थान: गा. १८४-१९५ पुरिमताल नगरी ( शकटमुख उद्यान) अयोध्यानगरी श्रावस्ती अयोध्या अयोध्या कौशाम्बी वाराणसी चन्द्रपुरी काकन्दी भद्दिलपुरी सिंहपुर चम्पा कंपिलपुर -अयोध्या रत्नपुर गजपुरम् गजपुरम् गजपुरम् मिथिला राजगृही मिथिला उज्जयन्त वाराणसी जूमिका नग ऋजु बालिका नदी पृष्ठ ४५ दिगम्बर संदर्भ ग्रन्थ उत्तर पुराण पुरिमताल सहेतुकव अग्रउद्यान सहेतुकवन सहेतुकबन सर्व कवन पुष्पकवन मनोहरउद्यान मनोहरउद्यान सहेतुकवन सहेतुकवन रत्नपुर ( शालवन) सहस्राम्रवन सहेतुकवन ( हस्तिनापुर ) चैत्रवनउद्यान (मिथिला) रैवतक अश्ववन (वाराणसी) ऋजुकूला नदी (मनोहरवन ) तिलोय पण्णत्ती गाथा. ६७६-७०१ पुरिमताल नगर सहेतुकवन सहेतुकवन उग्रवन सहेतुकवन मनोहरउद्यान सहेतुकवन सर्वार्थवन पुष्पवन सहेतुकवन मनोहरउद्यान मनोहरउद्यान सहेतुकवन सहेतुकंवन श्वेतवन (मिथिला) मनोहरउद्यान नीलवन ( राजगृह) सहेतुकवन सहेतुकवन सहेतुकवन प्राम्रवन नीलवन चित्रवन ऊर्जयंतगिरि • शक्रपुर ऋजुला नदी पृ. २२७-२३० ८११ Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___८१२ तीर्थरों के चैत्य-वृक्ष श्वेताम्बर क्र.सं. तीर्थकर नाम ऊंचाई समवा. गा. ३३-३७ हरिवंश पृ. ७१६-७२१ १ ऋषभदेव ३ गव्यूति वट न्यग्रोध के नीचे ज्ञानोत्पत्ति शक्तिपर्ण २ अजितनाथ सप्तपर्ण शरीर की ऊंचाई से बारह गुना शाल पियय प्रियंगु গুদাম शिरीष नागवृक्ष माली पिलक्खु तिन्दुक पाटल ३ संभवनाथ ४ अभिनन्दन ५ सुमतिनाथ ६ पद्मप्रभ ७ सुपार्श्वनाथ चन्द्रप्रभ : ६ सुविधिनाथ १. शीतलनाथ ११ श्रेयांसनाथ १२ वासुपूज्य १३ विमलनाथ १४ अनन्तनाथ १५ धर्मनाथ १६ शान्तिनाथ १७ कुंथुनाथ १८ प्ररनाथ १६ मल्लिनाथ २० मुनिसुव्रत २१ नमिनाथ २२ अरिष्टनेमि २३ पार्श्वनाथ २४ महावीर . . . . . . . . . . . . . . . . . . . शाल सरल प्रियंगु प्रियंगु शिरीष नागवृक्ष शाली प्लक्ष तिन्दुक पाटला जामुन पीपल दधिपर्ण नन्दिवृक्ष पिलक्खु प्राम्र अशोक चम्पक बकुल मेढासींगी धव शाल अश्वत्थ दषिपर्ण नन्दिवृक्ष पिलक्खु प्राम्र अशोक चम्पक बकुल बेतस " ३२ धनुष धातकी साल - Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र.सं. नाम तीर्थंकर १ ऋषभदेव २ अजितनाथ ३ संभवनाथ ४ अभिनन्दन ५ सुमतिनाथ ६ पद्मप्रभ ७ सुपार्श्वनाथ ८ चन्द्रप्रभ 8 सुविधिनाथ १० शीतलनाथ १.१ श्रेयांसनाथ १२ वासुपूज्य १३ विमलनाथ १४ अनन्तनाथ धर्मनाथ शान्तिनाथ १५ १६ १७ कुंथुनाथ १८ अरनाथ १६ मल्लिनाथ २० मुनिसुव्रत २१ नमिनाथ २२ अरिष्टनेमि * २३ पार्श्वनाथ २४ महावीर भाव० नि० मा. २६६ से ६८ ५४ ६५. १०२ ११६ १०० १०७ ६५ ६३ ८५ ८१ ७२ ६६ ५७ ५० ४३ ३६ ३५ ३३ २८ १८ १७ ११ १० ११ गणधर समुदाय समवायांग ५४ ६० १०२ ११६ १०० १०७ ६५ ६३ ८६ ८३ ६६ ६२ ५६ ५४ ૪૬ ६० ३७ mus ३३ २८ | ११ प्रवचन सारोद्वार द्वार १५ ८४ ६५ १०२ ११६ १०० १०७ ६५ ६३ ८५ ८१ ७६ ६६ ५७ ५० ४३ ३६ ३५ ३३ २८ १५ १७ ११ १० ११ हरिवंश पुराण तिलोय पण्णत्ती उत्तर गा. ३४१ गा. ३५० से ६३ पुराण से ४५ ६४ ६० १०५ १०३ ११६ १११ ६५ ६३ ८८ ८१ ७७ ६६ ५५ ༣༠ ४३ ३६ ३५ ३० २८ १५ १७ ११ १० ११ * (क) कल्पसूत्र में भगवान् भरिष्टनेमि के गरणधरों की संख्या १८ दी गई है । (ख) प्ररिष्टनेमेरेकादश नेमिनाथस्याष्टादशेति केचिन्मन्यन्ते । प्रदे०, पृ० ८६, भाग – १ ८४ ६० १०५ १०३ ११६ १११ ६५ ६३ ८५ ८१ ७७ ६६ ५५ ५० ४३ ३६ ३५ ३० २८ १५ १७ ११ १० ११ ८१३ ८४ ६० १०५ १०३ ११६ ११० ६५ ८५ ८७ ७७ ६६ ५५ ५७ ४३ ३६ ३५ ३० २८ १५ १७ ११ ܨ ११ Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१४ प्रथम-शिष्य दिगम्बर संरभ-प्रन्च श्वेताम्बर संदर्भ-प्रन्य क्र.सं. नाम तीर्थकर प्रचवन सारोद्धार सत्तरि. समवायांग ८द्वार गा. | गा. ३६.४१ द्वा., १०३ द्वा. ३०४-३०६ गा. २१४-२१५ हरिवंश गा. | तिलोय प.म ३४६-३४६ पुंडरीक सिंहसेन उषभसेन सिंहसेन चारु वचनाभ वृषभसेन केसरीसेन ..चारुदत्त. वृषभसेन सिंहसेन चारुदत्त वज्रनाभ चमर वजचमर बली वज्रचमर चमर वचनाभ चमरगरणी सुज्ज-सुद्योत विदर्भ दिन्न सुव्रत विदर्भ चमर बलदत्त उषभसेन सिंहसेन चारु वज्रनाभ चमर प्रद्योत विदर्भ दिन पहव वराह प्रमुनंद कोस्तूभ सुभोम मन्दर यश अरिष्ठ चक्रायुध संब वराह वराह नाग विदर्भ अनगार कुच्छुभ सुभूम १. ऋषभदेव २ अजितनाथ ३ संभवनाथ ४ अभिनन्दन ५ सुमतिनाथ ६ पद्मप्रभ ७ सुपार्श्वनाथ ८ चन्द्रप्रभ & सुविधिनाथ १० शीतलनाथ ११. श्रेयांसनाथ १२ वासुपूज्य १३ विमलनाथ १४ अनन्तनाथ १५ धर्मनाथ. १६ शान्तिनाथ १७ कुयुनाथ १५. परनाथ१६ मल्लिनाथ २० मुनिसुव्रत २१ नमिनाय २२: अरिष्टनेमि २३ पार्श्वनाथ २४ महावीर सुधर्म मन्दर प्रानन्द गोस्तूभ सुधर्मा मन्दर यश . अरिष्ठ चक्राभ सयंभू यश अरिष्ठ मन्दरार्य जय अरिष्ठसेन चक्रायुष स्वयंभू धर्म मन्दिर 'जय . अरिष्ठ सेन चक्रायुष स्वयंभू चक्रायुध संब कुंभ इन्द्र भिसय मल्ली सुभ बरवत्त प्रजदिन्न इन्द्रभूति भिसग मल्ली शुभ वरदत्त प्रार्यदत्त इन्द्रभूति विषाख मल्ली सोमक वरदत्त स्वयंभू इन्द्रभूति विशाल मल्ली सुप्रभ वरदत्त स्वयंभू :इन्द्रभूति वरदत्त इन्द्रभूति Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१५ प्रथम शिष्या ..... क्र.सं. तीर्थकर नाम श्वेताम्बर संदर्भ-ग्रंथ ... | सत्त.द्वा...... | प्रव.सा.गा. समवायांग १०४ मा. दिगम्बर संदर्भ-ग्रंथ | तिलोय प. 'गा. ११७८ | उत्तर पुराण | ३०७-६ |२१६-२१७॥ ११८० १ ऋषभदेव ब्राह्मी ब्राह्मी ब्राह्मी ... ब्राह्मी . ब्राह्मी नाही . २. अजितनाथ फलगू . फलगू (फग्गू) फग्गुणी ... प्रकुब्जा, प्रकुब्जा प्रकुम्जा . ३ संभवनाथ , श्यामा सामा.., . श्यामा ... धर्मश्री. .. धर्मश्री .. धर्माया : ४ अभिनन्दन अजीता. . . . अजिया मजीता .. मेरूसेना . . मेरूषेणा .... मरूषणा: ५ सुमतिनाथ कासवी . कासवी कासवी अनन्ता अनन्ता अनन्तमती - रति रति रति ... रतिसेना . रतिषेणा रात्रिषेणा ७ सुपार्श्वनाथ सोमा । सोमा सोमा मीना मीना मीना ८ चन्द्रप्रभ सुमना सुमणा सुमणा . वरुणा . वरुणा वरुणा सुविधिनाथ वारूणी वारूणी . वारूणी घोषा .. १० शीतलनाथ सुलसा सुजसा सुजसा धरणा , ... धरणा धरणा ११ श्रेयांसनाथ धारणी धारिणी धारिणी चारणा चारणा . धारणा १२ वासुपूज्य धरणी - धरिणी . धरणी वरसेना ...... वरसेना सेना . १३ विमलनाथ धरणीधरा. धरा धरा पद्या . . पा . पया.... १४ अनन्तनाथ पा. पा पना सर्वश्री . सर्वश्री सर्वश्री. १५ धर्मनाथ शिंवा प्रज्जासिवा मज्जासिवा सव्रता, सुव्रता सुव्रता १६ शान्तिनाथ सुयी (श्रुती) सुहा . सुई . हरिसेना . हरिषेणा हरिषेणा १७ कुयुनाय . मंजुया दामणी दामिणी भाविता भाविता भाविता भावितात्मा .१८ परनाथ रखी रक्खी , रक्खिमा कुतुसेना. कुंथुसेना यक्षिला १६ मल्लिनाथ बंधुमती बंधुमती बंधुमती. मधुसेना मधुसेना . बंपुषेणा . २० मुनिसुव्रत पुष्पवती पुष्पवती.... पुष्पवती पूर्वदत्ता .. पूर्वदत्ता पुष्पदन्ता २१ नमिनाथ प्रमिला . अनिला मनिला. मागिणी . मागिणी मंगिनी २२ परिष्टनेमि जखिणी जक्खदिन्ना जक्खादिना यक्षी , यक्षिणी पक्षी.. (जक्षिणी) २३ पार्श्वनाथ पुष्पचूला पुष्पचूला पुष्पचूला सुलोका : 'सुलोका सुलोचना २४ महावीर चन्दना चन्दना चन्दनवाला चन्दना चन्दना चन्दना पृ० २६८ . Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१६ क्र.सं. तीर्थंकर नाम १ ऋषभदेव २ अजितनाथ ३ संभवनाथ ४ अभिनन्दन ५ सुमतिनाथ ६ पद्मप्रभ ७ सुपार्श्वनाथ ८ चन्द्रप्रभ ६ सुविधिनाथ १० शीतलनाथ ११ श्रेयांसनाथ १२ वासुपूज्य १३ विमलनाथ १४ १५. धर्मनाथ १६ शान्तिनाथ १७ कुंथुनाथ १८ अरनाथ १६ २० मुनिसुव्रत २१ नमिनाथ २२ प्ररिष्टनेमि २३ पार्श्वनाथ २४ महावीर अनन्तनाथ मल्लिनाथ साधु-संख्या श्वेताम्बर संदर्भ-ग्रंथ आवश्यक प्रवचन सार. सत्त. द्वार. नियुं. गा. गाथा ११२ गा. २५६-२५६ | ३३१-३३४ २३२-२३४ ८४००० ८४००० ८४००० १००००० १००००० १००००० २००००० २००००० २००००० ३००००० ३००००० ३००००० ३२०००० ३२०००० ३२०००० ३३०००० ३३०००० ३३०००० ३००००० ३००००० ३००००० २५०००० २५०००० २५०००० २००००० २००००० २००००० १००००० १००००० १००००० ८४००० ८४००० ८४००० ܘ ܘ ܘ ܪܥ ७२००० ६८००० ६८००० ६६००० ६६००० ६४००० ६४००० ६२००० ६२००० ६०००० ६०००० ५०००० ५०००० ४०००० ४०००० ३०००० ३०००० २०००० २०००० १८००० १८००० १६००० १६००० १४००० १४००० हरिवंश | तिलोय प. गा. पुराण गा. ३५२-३५६ १०६७ ८४००० ८४००० ८४०८४ १००००० १००००० १००००० २००००० २००००० २००००० ३००००० ३००००० ३००००० ३२०००० ३२०००० ३२०००० ३३०००० ३३०००० ३३०००० ३००००० ३००००० ३००००० २५०००० २५०००० २५०००० २००००० २००००० २००००० १००००० १००००० १००००० ८४००० ८४००० ८४००० ७२००० ६८००० ६६००० ६४००० ६२००० ६०००० ५०००० ५०००० ४०००० ४०००० दिगम्बर संदर्भ-प्रथ १०६२ से उत्तर पुराण ७२००० ७२००० ७२००० ६८००० ६८००० ६८००० ६६००० ६६००० ६६००० ६४००० ६४००० ६४००० ६२००० ६२००० ६२००० ६०००० ६०००० ६०००० ५०००० ५०००० ४०००० ४०००० ३०००० ३०००० ३०००० २०००० २०००० २०००० १८००० १८००० १६००० १६००० १४००० १४००० ३०००० २०००० १८००० १८००० १६००० १६००० १४००० १४००० Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१७ साध्वी-संख्या श्वेताम्बर संदर्भ-प्रय ।। दिगम्बर संदर्भ-प्रय क्र.सं. नाम तीर्थंकर तिलोय पण्णत्ती प्र. सा. द्वा. १७ सत्त. वा. ११३ हरिवंश गा. ३३५-३६ | गा. २३५-२३६ गा. ४३२-४४० | गा. ११६६ से | उत्तर पुराण । ११७६ १ ऋषभदेव ३००००० ३००००० ३५०००० ३५०००० ३५०००० २ अजितनाथ ३३०००० ३३०००० ३२०००० ३२०००० ३२०००० ३ संभवनाथ ३३६००० . ३३६००० ३३०००० ३३०००० ३२०००० . ४ अभिनन्दन ६३०००० ६३०००० ३३०००० ३३०६०० ३३०६०० ५ सुमतिनाथ ५३०००० ५३०००० ३३०००० ३३०००० ३३०००० ६ पमप्रभ ४२०००० ४२०००० ४२०००० ४२०००० ७ सुपार्श्वनाथ ४३०००० ४३०००० ३३०००० ३३०००० ३३०००० र चन्द्रप्रभ ३८०००० ३८०००० ३८०००० ३८०००० ३८०००० ६ सुविधिनाथ १२०००० १२०००० ३८०००० ३८०००० ३८०००० १० शीतलनाथ १००००६ १०० ३८०००० ३८०००० ३८०००० ११ श्रेयांसनाथ १०३००० १०३००० १२०००० १३०००० १२०००० १२ वासुपूज्य १००००० १००००० १०६००० १०६००० १०६००० १३ विमलनाथ १००८०० १००८०० १०३००० १०३००० १०३००० १४ अनन्तनाथ ६२००० ६२००० १०८००० १०८००० १०८००० १५ धर्मनाथ ६२४०० ६२४०० ६२४०० ६२४०० ६२४०० १६ शान्तिनाथ . ६१६०० ६१६०० ६०३०० ६०३०० ६०३०० १७ कुंथुनाथ .. ६०६०० ६०६०० ६०३५० ६०३५० ६०३५० १८ अरनाथ ६०००० ६०००० ६०००० ६०००० ६०००० १६ मल्लिनाथ ५५००० ५५००० ५५००० ५५००० २० मुनिसुव्रत ५०००० ५०००० ५०००० . ५०००० २१. नमिनाथ ४१००० ४१००० ४५००० ४५००० ४५००० २२ अरिष्टनेमि ४०००० ४०००० ४०००० ४०००० २३ पार्श्वनाथ ३८००० ३८००० ३८००० ३६००० २४ महावीर ३६००० ३५००० ३६००० ३६००० ५५००० ० ० ० ० ० ० ० ० Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१६ क्र.सं. तीर्थंकर नाम १ ऋषभदेव २ अजितनाथ ३ संभवनाथ ४ अभिनन्दन ५ सुमतिनाथ पद्मप्रभ ६ ७ सुपार्श्वनाथ ६ चन्द्रप्रभ ६ सुविधिनाथ १० शीतलनाथ ११ श्रेयांसनाथ १२ वासुपूज्य १३ विमलनाथ १४ १५ धर्मनाथ १६ शान्तिनाथ १७ कु थुनाथ १५ अरनाथ १६ मल्लिनाथ २० मुनिसुव्रत २१ नमिनाथ २२ श्ररिष्टनेमि २३ पार्श्वनाथ २४ महावीर अनन्तनाथ श्रावक संख्या श्वेताम्बर संदर्भ-प्रघ प्र. सा. द्वा. २४. गा. ३६४-६७ आ० नि० सत्त. द्वा. ११४ गा. २४०-२४२ ३०५००० ३०५००० ३०५००० २६८००० २६८००० २६८००० २६३००० २६३००० २६३००० २८८००० २८८००० २८८००० २८१००० २८१००० २८१००० २७६००० २७६००० २७६००० २५७००० २५७००० २५७००० २५०००० २५०००० २५०००० २२६००० २२६००० २२६००० २८६००० २८६००० २८६००० २७६००० २७६००० २७६००० - २१५००० २१५००० २१५००० २०८००० २०८००० २०८०७० २०६००० २०६००० २०६००० . २०४००० २०४००० २०४००० - २६०००० २६०००० २६०००० १७६००० १७६००० १७६००० १८४००० १८४००० १८४००० १८३००० १८३००० १८३००० १७२००० १७२००० १७२००० १७०००० १७०००० १७१००० १६६००० १६४००० १६४००० १५६००० १५६००० १७०००० १६६००० -१६४००० १५६००० हिर.. पु. गा. ४४१ ३००००० ३००००० ३००००० ३००००० ३००००० ३००००० ३००००० ३००००० २००००० "" 19 " 22 "2 99 99 १००००० " " ... 11 29 19 दिगम्बर संदर्भ-ग्रंथ तिलोय पण्णत्ती गा. १९८१ उत्तर पुराण से १९८२ " ३००००० ३००००० ३००००० ३००००० ३००००० ३००००० ३००००० ३००००० ३००००० ३००००० ३०००००. ३००००० ३००००० ३००००० 200000 ३००००० २०००.०० २००००० २००००० .२००००० २००००० २००००० - २००००० २००००० २००००० २००००० १६०००० १००००० १००००० १००००० १००००० १००००० १००००० " " 19 19 १. 5 55 35 " १००००० १" 19 ** 77 " :: Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' ८१६ श्राविका-संख्या क्र.सं.] तीर्थंकर नाम श्वेताम्बर संदर्भ ग्रंथ : दिगम्बर संदर्भ ग्रंथ प्रा.सा द्वा.२५ सत्त. द्वा. समवायांग हरिवंश पुराण तिलोय पं. - | ११५ गा. | उत्तर पुराण गा. ३६८-७२ २४३-२४६ . . गा . १ ऋषभदेव २ अजितनाथ ३ संभवनाथ ४ अभिनन्दन ५ सुमतिनाथ ६ पद्मप्रभ । ७ सुपार्श्वनाथ ८ चन्द्रप्रभ ६ सुविधिनाथ १० शीतलनाथ ११ श्रेयांसनाथ १२ वासुपूज्य १३ विमलनाथ १४ अनन्तनाथ १५ धर्मनाथ १६ शान्तिनाथ १७ कुथुनाथ १८ अरनाथ १६ मल्लिनाथ २० मुनिसुव्रत २१ नमिनाथ २२ अरिष्टनेमि २३ पार्श्वनाथ २४ महावीर ५५४००० ५५४० ००, ५५४००० ५०००००. ५००००० ५००००० ५४५००० ५४५००० ५४५००० " " .५००००० ६३६००० ६३६००० ६३६००० . " ५००००० ५२७००० ५२७००० ५२७००० ५००००० ५१६००० ५१६००० ५१६००० ५००००० ५०५००० ५०५००० ५०५००० ५००००० ४६३००० ४६३००० ४६३००० ५००००० ४६१०००. ४६१००० ४६१००० ५००००० ४७१००० ४७१००० ४७१००० ४००००० ४००००० ५००००० ४५८००० ४५८००० ४५८००० ३००००० ४४८००० ४४८००० ४४८००० ४००००० ४३६००० ४३६००० ४३६००० ४००००० ४२४००० ४२४००० ४२४००० ४००००० ४१४००० ४१४००० ४१४००० ४००००० ४१३००० ४१३००० ४१३००० ४००००० ३६३००० ३६३००० ३६३००० ४००००० ३८१००० ३८१००० ३८१००० ३००००० ३००००० ३००००० ३७२००० ३७२००० ३७२००० ३००००० ३७०००० ३७०००० ३७०००० ३००००० ३५०००० ३५०००० ३५०००० ३००००० ३४८००० ३४८००० ३४८००० ३००००० ३३६००० ३३६००० ३३६००० ३००००० ३३९० ३००००० ३१८००० ३१८००० ३१८००० ३००००० - Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० क्र.सं. तीर्थंकर नाम प्रवचन द्वा. १ ऋषभदेव * २ अजितनाथ ३ संभवनाथ ४ अभिनन्दन ५ सुमतिनाथ ६ पद्मप्रभु ७ सुपार्श्वनाथ ८ चन्द्रप्रभ ६ सुविधिनाथ १० शीतलनाथ श्रेयांसनाथ ११ १२ वासुपूज्य विमलनाथ १३ १४ अनन्तनाथ १५ धर्मनाथ १६ शान्तिनाथ १७ कुंथुनाथ १८ अरनाथ १६ मल्लिनाथ २० मुनिसुव्रत २१ नमिनाथ २२ प्ररिष्टनेमि * २३ पार्श्वनाथ * २४ महावीर * का उल्लेख है । दी हुई है । केवल-ज्ञांनी श्वेताम्बर संदर्भ-ग्रंथ सत्त. द्वा. २१६ गा. ११६ गा. ३५१-३५४ | २४७-२४८ २०००० २०००० ज्ञाता २०००० 93 "" " १५००० १५००० १५००० १४००० १४००० १४००० १३००० १३००० १३००० १२००० १२००० १२००० ११००० ११००० ११००० १०००० १०००० १०००० ७५०० ७५०० ७५०० ७००० ७००० ७००० ६५०० ६५०० ६५०० ६००० ६००० ६००० ५५०० ५५०० ५००० ५००० ४५०० ४५०० ४३०० ४३०० ३२०० ३२०० २८०० २८०० २२०० २२०० १८०० १८०० १६०० १६०० १५०० १५०० १००० १००० ७०० ७०० ५५०० ५००० ४५०० ४३०० ३२०० २८०० ३२०० १८०० १६०० १५०० १००० ७०० दिगम्बर संदर्भ-ग्रंथ तिलोय हरिवंश पुराण गा.. पण्णत्ती गा. उत्तर पुराण | ३५८ से ४३१ | ११००-११६१ २०००० २०००० "" १५००० १६००० १३००० १२८०० ११३०० १०००० ७५०० ७००० ६५०० ६००० ५५०० ५००० ४५०० ४३०० ३२०० २८०० २६५० १८०० १६०० १५०० १००० ७०० 97 १५००० १६००० १३००० १२००० ११००० १८००० ७५०० ७००० ६५०० ६००० ५५०० ५००० ४५०० ४३०० ३२०० २८०० २२०० १८०० १६०० १५०० १००० ७०० 1 २०००० " १५००० १६००० १३००० १२००० ११००० १०००० ७००० ७००० ६५००. ६००० ५५०० ५००५ ४५०० ४३०० ३२०० २८०० २२०० १८०० १६०० १५०० * जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति कालाधिकार में भगवान् ऋषभदेव की ४०००० प्रायिकानों के सिद्ध होने ܘܘܘܐ कल्प सूत्र में भगवान् भरिष्टनेमि की ३०००, भगवान् पार्श्वनाथ की २००० और भगवान् महावीर की १४०० साध्वियों के मुक्त होने का उल्लेख है । उपरिवरिंत सूचिपट्ट में श्वेताम्बर संदर्भ ग्रन्थों के अनुसार केवल पुरुष केवलियों की संख्या ७०० Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२१ मनापर्यवज्ञानी . - श्वेताम्बर संभ प्रय | दिगम्बर संदर्भ प्रप तीर्थकर नाम प्र. द्वा. २२ । सत्त. द्वा. हरि. पुराण| तिलोय प. " गाथा | समवायांग ११७ गा. मा. ३५८ से | गा. ११०१ | उत्तर पुराण ३५५-३५६ | २५०-२५४ ४३१ से ११६१ १ ऋषभदेव १२७५० १२७५० १२७५० १२७५० १२७५० १२७५० २ अजितनाथ १२५०० १२५०० १२५०० १२४०० १२४५० १२४५० ३ संभवनाथ १२१५० १२१५० १२१५० १२००० . १२१५० १२१५० ४ अभिनन्दन ११६५० ११६५० ११६५० ११६५० २१६५० ११६५० ५ सुमतिनाथ १०४५० १०४५० १०४५० १०४०० १०४०० १०४०० ६ पद्मप्रभ १०३०० १०३०० १०६०० १०३०० १०३०० ७ सुपार्श्वनाथ ६१५० ६१५० ६१५० ६६०० ६१५० ६१५० ८ चन्द्रप्रभ ८००० ८००० ८००० ८००० ८००० ८००० & सुविधिनाथ ७५०० ७५०० ७५०० ६५०० ७५०० ७५०० १० शीतलनाथ ७५०० ७५०० ७५०० ७५०० ७५०० ७५०० ११ श्रेयांसनाथ ६००० ६००० . ६००० ६००० ६००० १२ वासुपूज्य ६००० १३ विमलनाथ ५५०० ६००० ५५०० १४ अनन्तनाथ ५००० ५००० ५००० ५००० ५००० ५००० १५ धर्मनाथ ४५०० ४५०० ४५०० ४५०० ४५०० ४५०० १६ शान्तिनाथ ४००० ४००० ४००० ४००० १७ कुंथुनाथ ३३४० ८१०० ३३४० ३३५० ३३५० १८ अरनाथ २५५१ २५५१ २५५१ २०५५ २०५५ १६ मल्लिनाथ १७५० १७५० २२०० १७५० २०. मुनिसुव्रत १५०० १५०० १५०० १५०० १५०० १५०० २१ नमिनाथ १२६० १२५० १२५० १२५० १२५० २२ अरिष्टनेमि १००० - १००० ६०० ६०० २३ पार्श्वनाथ ७५० ७५० ७५० ७५० २४ महावीर ५०० ५०० ५०० ५०० ४००० २०५५ १००० Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२२ अवधि ज्ञानी श्वेताम्बर संदर्भ-ग्रंथ क्र.सं.] तीर्थंकर नाम | प्रवचन द्वा. | सत्त.रि.द्वा । २० गा. | ११८ गा. समवायांग 1३४८-३५० २५५-२५७ दिगम्बर संदर्भ-ग्रंथ हरिवंश तिलोय पण्णत्ती उत्तर (महा) पुराण गाथा | गा. ११०० से | ३५८-४३१ ११६१ । ६००० ६४०० १६०० ६००० १४०० ६००० ६४०० १६०० १८०० ११००० ६००० ६४०० १६०० १८०० ११००० १०००० ६००० ६४०० ६६०० १८०० ६००० ६४०० १६०० ६८०० ११०००. १०००० १००० १८०० ११००० ० ११९ ० ० ० १० ० ० १०००० ० ० ६००० १००० ८००० ८००० ८००० १०००० १०००. ८००० ८४०० . ७२०० ८४०० ८४०० ७२०० ७२०० ८४०० ७२०० ६००० ५४०० १ ऋषभदेव २ अजितनाथ ३ संभवनाथ ४ अभिनन्दन ५ सुमतिनाथ ६ पद्मप्रभ ७ सुपार्श्वनाथ चन्द्रप्रभ ६ सुविधिनाथ १० शीतलनाथ ११ श्रेयांसनाथ . १२ वासुपूज्य १३ विमलनाथ १४ अनन्तनाथ १५ धर्मनाथ १६ शान्तिनाथ. १७ कुथुनाथ १८ अरनाथ १६ मल्लिनाथ २० मुनिसुव्रत । २१ नमिनाथ २२ अरिष्टनेमि २३ पार्श्वनाथ २४ महावीर ४८०० ४३०० ३६०० ५४०० ४८०० ४३०० ३६०० ३००० । - ५४०० ४८०० ४३०० ३६०० ३००० २५०० २८०० २२०० ६००० ६००० ८००० ८००० ८४०० ८४०० ७२०० ७२०० ६००० ५४०० ५४०० ४८०० ४८०० ४३०० ४३०० ३६०० ३६०० ३००० ३००० ६१०० २६०० २८०० . ५६०० २२०० १८०० १८०० ३६०० १६०० १५०० १४०० . १४०० १३०० १३०० पृ० ७३५ से ७३६ २५०० ५४०० ४८०० ४३०० ३६०० ३००० २५०० २६०० २२०० १८०० १६०० १५०० १४०० १३०० ० ३००० २५०० २६०० २२०० १८०० १६०० १५०० १४०० ० २२०० १८०० ० १६०० १५०० १५०० १६०० १५०० १४०० १३०० पृ० २८७ से २६६ १३०० १३०० - Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२३ वैक्रियलब्धि-धारी - क्र.सं. तीर्थंकर नाम गा. ११००/ उत्तर पुराण -- १४००० श्वेताम्बर संदर्भ-ग्रंथ दिगम्बर संवर्भ-ग्रंथ हरिवंश तिलोयप्रवचन., द्वारा २१८ सत्तरिसय द्वा. १२०/ हापुराण पण्णत्ती गाथा २६१-२६३ | गाथा २६१-२६३ __श्लो. ३५८ से ११६१ २०६०० २०६०० २०६०० २०६०० . २०६०० २०४०० २०४०० २०४५० २०४०० २०४०० १६८०० १६८०० १९८०० १६८०० १९८०० १६००० १६००० १६००० १६००० १६००० १८४०० १८४०० १८४०० १८४०० १८४०० १६८०० १६८०० १६३०० १६८०० • १५३०० १५३०० १५१५० १५३०० १५३०० १४००० १०४०० १४००० १३००० १३००० १३००० १३००० १३००० १२००० १२००० १२००० १२००० १२००० ११००० ११००० ११००० ११००० १०००० १०००० १०००० १०००० १०००० ६००० .६००० ८००० ८००० ८००० ८००० ८००० ७००० ७००० ७००० ७००० ६००० ६००० ६००० ६००० ५१०० ५१०० ५१०० ५१०० ७३०० ७३०० ४३०० ४३०० ४३०० २६०० २६०० २६०० २६०० २००० २००० २२०० २२०० १५०० १५०० १५०० १५०० ११०० ११०० ११०० ११०० ११०० १००० .१००० १००० ६०० ६०० पृ. ७३५-७३६ पृ. २८७-२६६ १ ऋषभदेव २ अजितनाथ ३ संभवनाथ ४ अभिनन्दन ५ सुमतिनाथ ६ पद्मप्रभ । ७ सुपार्श्वनाथ ८ चन्द्रप्रभ & सुविधिनाथ १० शीतलनाथ ११ श्रेयांसनाथ १२ वासुपूज्य १३ विमलनाथ १४ अनन्तनाथ १५ धर्मनाथ १६ शान्तिनाथ १७ कुंथुनाथ १८ अरनाथ १६ मल्लिनाथ २० मुनिसुव्रत २१ नमिनाथ २२ मरिष्टनेमि २३ पार्श्वनाथ २४ महावीर ११००० ६००० ६०००, ० ० ० १४०० .२२०० ० ७०० 9 ० Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२४ पूर्वधारी - श्वेताम्बर संदर्भ-ग्रंथ दिगम्बर संदर्भ-ग्रंथ क्र.सं. तीर्थंकर नाम | प्रवचन द्वा. सत्त. द्वा. | हरिवंश तिलोय पण्णती| २३ गा. | समवायांग ११६ गा. | पुराण गाथा गा. ११०० से | उत्तर पुराण ३६०-३६३ २५८-२६०/३५८-४३१। ११६१ । १ ऋषभदेव ४७५० ४७५० ४७५० ।४७५० ४७५० ४७५० २ अजितनाथ ३७२० ३७२० २७२०. ३७५० ३७५० ३७५० ३ संभवनाथ २१५० २१५० २१५० २१५० २१५० २१५० ४ अभिनन्दन १५०० १५०० २५०० २५०० २५०० ५ . सुमतिनाथ २४०० २४०० २४०० २४०० २४०० २४०० ६ पद्मप्रभ २३०० २३०० २३०० २३०० २३०० २३०० ७ सुपार्श्वनाथ २०३० २०३० २०३० २०३० २०३० २०३० ८ चन्द्रप्रभ २००० २००० २००० २००० ४००० २००० ६ सुविधिनाथ १५०० १५०० ५००० १५०० (श्रुत केवली) १० शीतलनाथ १४०० १४०० १४०० १४०० १४०० ११ श्रेयांसनाथ १३०० १३०० १३०० १३०० १३०० १२ वासुपूज्य १२०० १२०० १२०० १२०० १२०० १३ विमलनाथ ११०० ११०० ११०० ११०० ११०० ११०० १४ अनन्तनाथ १००० १००० १००० १००० १००० १००० १५ धर्मनाथ १००. ६०० ६०० ६०० १०० १६ शान्तिनाथ ८०० ६३० ८०० ८०० ८०० ८०० १७ कुयुनाथ ६७० ७०० ७०० १८ अरनाथ ६१० ६०० १६ मल्लिनाथ ५६८ ७५० २० मुनिसुव्रत ५०० ५०० ५०० ५०० ५०० २१ नमिनाथ ४५० ४५० ४५० २२ अरिष्टनेमि ४०० ४०० ४०० ४०० ४०० २३ पार्श्वनाथ ३५० ३५० ३५० ३५० ३५० ३५० २४ महावीर ३००. ३०० ३०. पृ. ७३५-७३६ पृ. २८७-२६६ १४०० २०० ० ६७० ६१० ० ० ५५० ४५० ४५० ३०० ३०० ३०० Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२५ वादी ७६०० श्वेताम्बर संवर्भ-ग्रंथ दिगम्बर संदर्भ-ग्रंथ क्र.सं.| तीर्थकर नाम नाम प्रवचन.द्वा । सत्त. द्वा. हरिवंश पुराणतिलोय प. १६ गा. | समवायांग | १२१ गा. | श्लो. ३५८ | गा. ११०० | उत्तर पुराण ३४४-३४७ । २६४-२६६ । ४३१ । से ११६१ । १ ऋषभदेव १२६५० १२६५० . १२६५० १२७५० १२७५० १२७५० २ अजितनाथ १२४०० १२४०० १२४०० १२४०० १२४०० १२४०० ३ संभवनाथ १२००० १२००० १२००० १२१०० १२००० १२००० ४ अभिनन्दन ११००० ११००० ११००० ११६५० ६००० ११००० ५ सुमतिनाथ १०६५० १०६५० १०४५० १०४५० १०४५० १०४५० ६ पद्मप्रभ ६६०० ६६०० ६६०० १६०० ६६०० ७ सुपार्श्वनाथ ८४०० ८६०० ८४०० ८००० ८६०० ८६०० ८ चन्द्रप्रभ ७६०० ७६०० ७६०० ७६०० ७००० ६ सुविधिनाथ ६००० ७६०० ६६०० ६६०० १० शीतलनाथ ५८०० ५८०० ५८०० ५७०० ५७०० ५८००* ११ श्रेयांसनाथ ५००० ५००० ५००० ५००० ५००० १२ वासुपूज्य ४७०० ४७०० ४२०.० ४२०० ४२०० १३ विमलनाथ ३२०० ३२०० ३६०० ३६०० १४ अनन्तनाथ ३२०० ३२०० ३.२०० ३२०० ३२०० ३२०० १५. धर्मनाथ २८०० २८०० २८०० २८०० २८०० २८०० १६ शान्तिनाथ २४०० २४०० २४०० २४०० १७ कुंथुनाथ २००० २००० २००० २००० २००० २०५० १८ अरनाथ १६०० १६०० १६०० १६०० १६ मल्लिनाथ १४०० १४०० १४०० २२०० १४०० १४०० २० मुनिसुव्रत १२०० १२०० . १२०० १२०० १२०० १२०० २१ नमिनाथ १००० १००० १००० २२ अरिष्टनेमि ८०० ८०० ८०० ८०० ८०० ..२३ पार्श्वनाथ ६०० २४ महावीर ४०० ४०० ४०० ४०० पृ. ७३५ से पृ. २८७ से ७३६ २६६ *शून्य द्वद्धिपञ्चोक्त वादि मुख्यांचितक्रमः ।। उत्तर पुराण, पर्व ५६ श्लो० ५३ ४२०० २४०० ० ० ४०० - Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =२६ क्र.सं. तीर्थंकर नाम १ ऋषभदेव अजितनाथ २ ३ संभवनाथ ४ अभिनन्दन ५. सुमतिनाथ ६ पद्मप्रभ ७ सुपार्श्वनाथ 5 चन्द्रप्रभ 8 सुविधिनाथ १० शीतलनाथ ११ श्रेयांसनाथ १२ वासुपूज्य १३ विमलनाथ १४ अनन्तनाथ १५ धर्मनाथ १६ शान्तिनाथ साधक जीवन श्वेताम्बर संदर्भ ग्रंथ श्रावश्यक नियुक्ति गा. २६४-२६८ १ लाख पूर्व १ लाख पूर्व एक पूर्वांग कम १ लाख पूर्व ४ पूर्वांग कम १ लाख पूर्व ८ पूर्वांग कम १ लाख पूर्व १२ पूर्वांग कम १ लाख पूर्व १६ पूर्वांग कम १ लाख पूर्व २० पूर्वांग कम १ लाख पूर्व २४ पूर्वांग कम १७ कुंथुनाथ १८ अरनाथ १६ मल्लिनाथ ५४ हजार नौ सौ वर्ष २० मुनिसुव्रत साढ़े सात हजार वर्ष २१ नमिनाथ ढाई हजार वर्ष २२ अरिष्टनेमि सात सौ वर्ष २३ पार्श्वनाथ सत्तर वर्ष २४ महावीर ४२ वर्ष सत्त. १४५ गाथा २६६-३०१ १ लाख पूर्व १ लाख पूर्व १ पूर्वांग कम १ लाख पूर्व ४ पूर्वांग कम १ लाख पूर्व ८ पूर्वांग कम १ लाख पूर्व १२ पूर्वांग कम १ लाख पूर्व १६ पूर्वांग कम १ लाख पूर्व २० पूर्वंग कम १ लाख पूर्व २४ पूर्वंग कम १ लाख पूर्व २८ पूर्वांग कम २५००० पूर्व २१००००० वर्ष ५४ लाख वर्ष १५ लाख बर्ष साढ़े सात लाख वर्ष १५ लाख वर्ष साढ़े सात लाख वर्ष ढाई लाख वर्ष ढाई लाख वर्ष २५ हजार वर्ष २५ हजार वर्ष २३ हजार सात सौ पचास वर्ष २३ हजार ७५० वर्ष २१ हजार वर्ष २१ हजार वर्ष ५४ हजार नौ सौ वर्ष साढ़े सात हजार वर्ष ढाई हजार वर्ष सात सौ वर्ष सत्तर वर्ष १ लाख पूर्व २८ पूर्वग कम २५ हजार पूर्व २१ लाख वर्ष ५४ लाख वर्ष ४२ वर्ष दिगम्बर संदर्भ ग्रंथ हरिवंश पुराण पृ० ७३२ १ लाख पूर्व १ लाख पूर्व १ पूर्वांग कम १ लाख पूर्व ४ पूर्वांग कम १ लाख पूर्व ८पूर्वांग कम १ लाख पूर्व १२ पूर्वाग कम १ लाख पूर्व १६ पूर्वांग कम १ लाख पूर्व २० पूर्वांग कम १ लाख पूर्व २४ पूर्वांग कम १ लाख पूर्व २८ पूर्वांग कम २५ हजार पूर्व २१ लाख वर्ष ५४ लाख वर्ष १५ लाख वर्ष साढ़े सात लाख वर्ष ढाई लाख वर्ष २५ हजार वर्ष २७३५० वर्ष २१ हजार वर्ष ५४६०० वर्ष साढ़े सात हजार वर्ष ढाई हजार वर्ष सात सौ वर्ष सत्तर वर्ष ४२ वर्ष Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२७ आयु प्रमाण - . । ३२५-३२७/३०२-३०३३८५-३८७/ :: :: : श्वेताम्बर संवर्भ-ग्रंथ दिगम्बर संदर्भ-ग्रंथ क्र.सं.] तीर्थकर नाम | आव. नि. सत्त. द्वा. ४६/ हरि. पुराण ति. प. गाथा | गाथा । |गा. ३१२ से गा. ५७६ से | उत्तर पुराण ० ३१६ । ५८२ १ ऋषभदेव ८४ लाख पू. ८४ लाख पू. ८४ लाख पू. ८४ लाख पू. ८४ लाख पू. ८४ लाख पू. २ अजितनाथ ७२ " " ७२ , , ७२ " : ७२ " " ७२ " , ७२ " " ३ संभवनाथ ६० " " ६० " " ६० " " ६० " " ६० " " ६० " " ४ अभिनन्दन ५० " " ५० " " ५० " " ५० " , ५० " .. ५०. " " ५ सुमतिनाथ ४० , , ४० , , ४० , , ४० , , ४० , , ४० , , ६ पद्मप्रभ ____३० , " ३०, ३० " " ३० " , ३० , " ३० " " ७ सुपार्श्वनाथ २० " ,. २० " , २० , , २० " " २० " " २० " " ८ चन्द्रप्रभ १० " .. १०" " १०" "१० " " १० " ६ सुविधिनाथ २" " ": २ " " २ १० शीतलनाथ ११ श्रेयांसनाथ ८४ लाख व. ८४ लाख व. ८४ लाख ब. ८४ लाख व. ८४ लाख व. ८४ लाख व. १२ वासुपूज्य ७२ " " ७२" " ७२" " ७२" " ७२" " ७२ " " १३ विमलनाथ ,, , ६० ,, ,, ६० १४ अनन्तनाथ , ३० , , ३० " , ३० " ,, ३० " " ३० " " ३० , " १५ धर्मनाथ १०" " १० ," १०,, १०, " १०" १६ शान्तिनाथ १, , १ , , १ " " १" " १ , , , , १७ कुथुनाथ ६५ ह. वर्ष ६५ ह. वर्ष ९५ ह. वर्ष ६५ ह. वर्ष ६५ ह. वर्ष ६५ ह. वर्ष १८ परनाथ ८४ ," ८४ " " ८४ , " ८४ " " ८४",८४००० वर्ष १६ मल्लिनाथ " ५५ ,, , ५५,०००वर्ष २० मुनिसुव्रत ३० ,, ३० " " ३० , " ३० " ,, ३० : " ३०,०००वर्ष २१ नमिनाथ " १० " , १० , " १० . " १० , ५, १०,०००वर्ष २२ अरिष्टनेमि १, , , , , , " १, , १,००० वर्ष २३ पार्श्वनाथ १०० वर्ष १०० वर्ष १०० वर्ष १०० वर्ष १०० वर्ष १०० वर्ष २४ महावीर ७२ वर्ष ७२ वर्ष ७२वर्ष ७२ वर्ष ७२ वर्ष ७२ वर्ष :: . : : : Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२८ तीर्थकरों के माता-पिता की गति क्रमांक तीर्थकर नाम | माता का नाम माता की गति | पिता का नाम / पिता की गति सेना मेघ घर कृतवर्मा १ ऋषभदेव मरदेवी सिद्ध नाभि नागकुमार २ अजितनाथ विजया जितशत्रु . दूसरे देवलोक इशान में ३ संभवनाथ जितारि ४ अभिनन्दन सिद्धार्थी संवर ५ सुमतिनाथ मंगला ६ पद्मप्रभ सुसीमा ७ सुपार्श्वनाथ पृथिवी प्रतिष्ठ ८ चन्द्रप्रभ लक्षणा महासेन ६ सुविधिनाथ रामा तृतीय सनत्कुमार सुग्रीव तीसरे देवलोक सनत्कुमार में देवलोक में शीतलनाथ नन्दा दृढ़रथ ११ श्रेयांसनाथ विष्णुदेवी विष्णु १२ वासुपूज्य जया वसुपूज्य १३ विमलनाथ श्यामा १४ अनन्तनाथ सुयशा सिंहसेन १५ धर्मनाथ सुव्रता भानु १६ शान्तिनाथ अचिरा विश्वसेन १७ कुंथुनाथ श्री चौथे माहेन्द्र देवलोक में चौथे देवलोक माहेन्द्र में १८ अरनाथ देवी सुदशन १६ मल्लिनाथ प्रभावती २० मुनिसुव्रत पद्मावती सुमित्र २१ । नमिनाथ वप्रा विजय २२ मरिष्टनेमि* शिवा समुद्रविजय २३ पाश्वनाथ वामा अश्वसेन २४ महावीर १ त्रिशला १ सिद्धार्थ प्राचारांग सूत्र में इन दोनों का बारहवें स्वर्ग में जाने का उल्लेख है २ देवानन्दा २ सिख २ ऋषभदत्त (१) जितशत्रु शिवं प्राप, सुमित्रस्त्रिदिवं गतः ।।। (२) महावीर के प्रथम माता-पिता के मुक्त होने का"..."सत्तरिसय द्वार मादि में उल्लेख है। तीर्थंकरों के पिता एवं माता की गति के सम्बन्ध में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर परम्परा में मूल भेद । तो यह है कि दिगम्बर परम्परा स्त्री-मुक्ति नहीं मानती। Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर नाम १ ऋषभदेव २ अजितनाथ ३ संभवनाथ ४ अभिनन्दन ५ सुमतिनाथ ६ पद्मप्रभ ७ सुपार्श्वनाथ ५ चन्द्रप्रभु ९ सुविधिनाथ १० शीतलनाथ ११ श्रेयांसनाथ १२ वासुपूज्य १३ विमलनाथ १४ अनन्तनाथ १५ धर्मनाथ १६ शान्तिनाथ १७ कुंथुनाथ १८ अरनाथ १६ मल्लिनाथ २० मुनिसुव्रत २१ नमिनाथ २२ अरिष्टनेमि २३ पार्श्वनाथ २४ महावीर प्रवचन द्वार ४५ गा. ४५६ ६ उपवास मासिक तप 95 39 " "" "" 34 " "" "" " RA: "" "" "" 99 "" "" निर्वाण- तप श्वेताम्बर संदर्भ ग्रंथ "" 99 "9 95 "" "" 39 "" "" "" 95 "3 99 "" " "" 39 19 "" 99 " " "" २ उपवास सत्त १५३ द्वार गा. ३१७ ६ उपवास मासिक तप "" 95 11 "" 56 99 " " ५५ "" "3 " RFR " "" す "" 33 1:3 "3 " " "" "" 19 "" " " 22 23 " " "" 95 93 ;" 99 "9 19 "" 99 99 २ उपवास दिगम्बर संदर्भ-ग्रंथ उत्तर पुराण चौदह दिन मासिक तप 99 35 "" 33 99 34 34 CR * "" ... 99 "" " "" '""" "y " 19 99 "3 97 "" "S 4:4 P 9 9 9 19 RC R 12 7 RSRC=== "" "" 17 "" "" "" 99 ८२६ Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३० निर्वाण-तिथि - - श्वेताम्बर संदर्भ-ग्रंथ दिगम्बर संदर्भ-ग्रंथ तीर्थकर नाम | सत्त द्वा. १४७ | हरिवंश पुराण | तिलोय प. गा. प्रवच० गा. ३०६-३१० गा. २६६-२७५/ ११८४-१२०८/ उत्तर पुराण १ ऋषभदेव माघ कृ. १४ माघ कृ. १३ माघ कृ. १४ माघ कृ. १४ माघ कृ. १४ २ अजितनाथ चैत्र शु. ५ चैत्र शु. ५ चैत्र शु. ५ चैत्र शु. ५ चैत्र शु. ५ ३ संभवनाथ चैत्र शु. ६ चैत्र शु. ५ चैत्र शु. ६ चैत्र शु. ६ चैत्र शु. ६ ४ अभिनन्दन वैशाख शु. ७ वैशाख शु. ८ वैशाख शु. ७ वैशाख शु. ७ वैशाख शु. ६ ५ सुमतिनाथ चैत्र शु. १० चैत्र शु. ६ चैत्र शु. १० चैत्र शु. १० चैत्र शु. ११ . ६ पद्मप्रभ फाल्गुन कृ. ४ मार्गशीर्ष कृ. ११ फाल्गुन कृ. ४ फाल्गुन कृ. ५ फाल्गुन कृ. ४ ७ सुपार्श्वनाथ फाल्गुन कृ. ६ फाल्गुन कृ. ७ फाल्गुन कृ. ६ फाल्गुन कृ. ६ फाल्गुन कृ. ७ ८ चन्द्रप्रभ भादवा शु. ७ भादवा कृ. ७ भादवा शु. ७ भादवा शु. ७ फाल्गुन शु. ७ ६ सुविधिनाथ भादवा शु.८ भादवा शु. ६ भादवा शु. ८ प्रासोज शु. ८ भादवा शु. ८ १० शीतलनाथ आश्विन शु. ५ वैशाख कृ. २ आश्विन शु. ५ कार्तिक शु. ५ आश्विन शु. ८ ११ श्रेयांसनाथ श्रावण शु. १५ श्रावण कृ. ३ । श्रावण शु. १५ श्रावण शु. १५ श्रावण शु. १५ १२ वासुपूज्य फाल्गुन शु. ५ प्राषाढ़ शु. १४ फाल्गुन शु. ५ फाल्गुन कृ. ५ भाद्रपद शु. १४ १३ विमलनाथ आषाढ़ कृ.८ आषाढ़ कृ. ७ आषाढ़ कृ.८ प्राषाढ़ शु. ८ प्राषाढ़ कृ. ८ १४ अनन्तनाथ · चैत्र कृ. ३० चैत्र शु. ५ चैत्र कृ. ३० चैत्र कृ. ३० चैत्र कृ. ३० १५ धर्मनाथ ज्येष्ठ शु. ४ ज्येष्ठ शु. ५ ज्येष्ठ शु. ४ ज्येष्ठ कृ. १४ ज्येष्ठ शु. ४ १६ शान्तिनाथ ज्येष्ठ कृ. १४ ज्येष्ठ कृ. १३ ज्येष्ठ कृ. १४ ज्येष्ठ कृ. १४ ज्येष्ठ कृ. १४ १७ कुथुनाथ वैशाख शु. १ वैशाख कृ. १ वैशाख शु. १ वैशाख शु. १ वैशाख शु. १ १८ अरनाथ चैत्र कृ. १५ मार्गशीर्ष शु. १० चैत्र कृ. ३० चैत्र कृ. ३० चैत्र कृ. ३० १६ मल्लिनाथ फाल्गुन शु. १० फाल्गुन शु० १२ फाल्गुन शु. ५ फाल्गुन कृ. ५ फाल्गुन शु. ५ २० मुनिसुव्रत फाल्गुन कृ. १२ ज्येष्ठ कृ. ६ फाल्गुन कृ. १२ फाल्गुन कृ. १२ फाल्गुन कृ. १२ २१ नमिनाथ वैशाख कृ. १४ वैशाख कृ. १० । वैशाख कृ. १४ वैशाख कृ. १४ बैशाख कृ. १४ २२ अरिष्टनेमि आषाढ़ शु. ८ आषाढ़ शु. ८ आषाढ़ शु.८ आषाढ़ कृ.८ प्राषाढ़ शु. ७ २३ पार्श्वनाथ श्रावण शु. ५ श्रावण शु. ८ श्रावण शु. ७ श्रावण शु. ७ श्रावण शु. ७ २४ महावीर कार्तिक कृ. १४ कार्तिक कृ. ३० कार्तिक कृ. १४ कार्तिक कृ. १४ पृ. ७२५ से ७२६ पृ. २६६ से ३०२ Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र.सं. नाम तीर्थंकर १ ऋषभदेव २ अजितनाथ ३ संभवनाथ ४ ५ ६ पद्मप्रभ ७ ५ चन्द्रप्रभ ६ सुविधिनाथ १० शीतलनाथ ११ श्रेत्रनाथ अभिनन्दन सुमतिनाथ सुपार्श्वनाथ १२ वासुपूज्य १३ विमलनाथ १४ अनन्तनाथ १५ धर्मनाथ १६ १७ कुथुनाथ १८ अरनाथ १६ मल्लिनाथ २० मुनिसुव्रत २१ नमिनाथ शान्तिनाथ २२ अरिष्टनेमि २३ पार्श्वनाथ २४ महावीर तीर्थंकरों के निर्वाण नक्षत्र श्वेताम्बर परम्परा अभिजित मृगशिरा श्रार्द्रा पुष्य पुनर्वसु चित्रा अनुराधा ज्येष्ठा भूल पूर्वाषाढ़ा धनिष्ठा उत्तरा भाद्रपद रेवती रेवती पुष्य भरणी कृत्तिका रेवती भरणी श्रवरण प्रश्विनी चित्रा विशाखा स्वाति दिगम्बर परम्परा उत्तराषाढ़ा भरणी ज्येष्ठा पुनर्वसु मघा चित्रा अनुराधा ज्येष्ठा मूल पूर्वाषाढ़ा धनिष्ठा अश्विनी पूर्वाभाद्रप रेवती पुष्य भरणी कृत्तिका रेवती भरणी श्रवरण. अश्विनी चित्रा विशाखा स्वाति ८३१ Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३२ निर्वाणस्थली श्वेताम्बर संदर्भ ग्रंथ दिगम्बर संदर्भ ग्रंथ क्र.सं. तीर्थकर नाम पवचन द्वार. ३४| सत्त. १५० द्वा. हरिवंश पुराण तिलोयपण्णत्ती श्लो. १८२ से | उत्तर पुराण गा. ११८४ से गा. ३६२ गा. ३१५ २०५ १२०८ अष्टापद प्रष्टापद कैलाश सम्मेदशिखर सम्मेदशिखर सम्मेदाचल कैलाश सम्मेदाचल कैलाश सम्मेदशिखर १ ऋषभदेव २ अजितनाथ ३ संभवनाथ ४ अभिनन्दन ५ सुमतिनाथ ६ पद्मप्रभ ७ सुपार्श्वनाथ ८ चन्द्रप्रभ ६ सुविधिनाथ १० शीतलनाथ ११ श्रेयांसनाथ १२ वासुपूज्य चंपा चंपा चम्पापुरी मन्दरगिरि चम्पापुरी मनोहरोद्यान सम्मेदशिखर सम्मेदशिखर सम्मेदशिखर सम्मेदशिखर सम्मेदशिखर विमलनाथ १४ अनन्तनाथ १५ धर्मनाथ १६ शान्तिनाथ १७ कुंथुनाथ १८ भरनाथ १६ मल्लिनाथ २० मुनिसुव्रत २१ नमिनाथ २२ अरिष्टनेमि " . उज्जयंत गिरि २३ पार्श्वनाथ २४ महावीर उज्जयंत गिरि रेवताचल, उज्जयंत गिरि (रैवतक) गिरनार सम्मेदशिखर सम्मेदशिखर सम्मेदशिखर सम्मेदाचल पावापुरी पावापुरी पावापुरी पृ. ७१९ से ७२० सम्मेदशिखर पावापुरी पृ. २६९ से ३०२ - Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३३ निर्वाण साथी भावनि १००० . श्वेताम्बर संदर्भ-पंच दिगम्बर संदर्भ-प्रप क्र.सं. नाम तीर्थकर प्रवचन ३३|.. सत्त.द्वार हरिवंश | तिलोय पण्णत्ती द्वार गाथा गा० ३०६ । | १५४ गाथा पुराण श्लो. गापा ११८५ उत्तर पुराण ३८८-३६१ |३१८-३२०२५३-२८५ से १२०० १ ऋषभदेव १०००० १०००० १०००० १०००० अनेक २ प्रजितनाय १००० ३ संभवनाथ १००० ४ अभिनन्दन अनेक ५ सुमतिनाथ १००० ६ पद्मप्रभ ३०८ ३०८ ३८०० ३२४ १००० ७ सुपार्श्वनाथ ५०० १००० ८ चन्द्रप्रभ १००० १००० १००० ९ सुविधिनाथ १. शीतलनाथ ११ श्रेयांसनाथ १२ वासुपूज्य ६०० ६०० १३ विमलनाथ ६००० ६००० ६०० ८६०० १४ अनन्तनाथ ७००० ७००० ७००० ७००० ७००० ६१०० १५ धर्मनाथ ८०० ८०१ ८०१ ८०९ १६ शान्तिनाथ ६०० ६०० १७ कुंथुनाथ १००० १००० १००० १००० १८ परनाथ १६ मल्लिनाथ ५००० २० मुनिसुव्रत १००० १००० १००० २१ नमिनाथ २२ परिष्टनेमि ५३६ २३ पार्श्वनाथ ३३ २४ महावीर १ १ एकाकी २३ एकेले १० ७२६ १० २९६ .. से ७२७ से ३०२ ० ० १००० ___५०० १००० ५०. १००० ५०० " १ गन्ता मुनिसहस्रण निर्वाणं सर्वाछितम् । [उत्तर पुराण. पर्व ७६, श्लो. ५१२] Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ sY क्र.सं. नाम तीर्थंकर १ ऋषभदेव २ प्रजितनाथ ३ संभवनाथ ४ अभिनन्दन ५ सुमतिनाथ ६ पद्मप्रभ ७ सुपार्श्वनाथ ५ चन्द्रप्रभ ९ सुविधिनाथ १० शीतलनाथ श्रेयांसनाथ ११ १२ वासुपूज्य १३ विमलनाथ १४ अनन्तनाथ १५ धर्मनाथ १६ शान्तिनाथ १७ कुन्थुनाथ १८ धरनाथ १६ मल्लिनाथ २० मुनिसुव्रत २१ नमिनाथ २२ अरिष्टनेमि २३ पार्श्वनाथ २४ महावीर श्वेताम्बर संदर्भग्रंथ समवायांग वज्रनाभ विमल विमल वाहन धर्मसिंह सुमित्र धर्ममित्र सुन्दर बाहु दीर्घबाहु युगबाहु लष्टबाहु दिन पूर्वभा माम इन्द्रदत्त सुन्दर माहिन्द्र सिंहरथ मेघरथ रूमी (रुप्पी) सुदर्शन नंदन सिंहगिरि प्रदोन शत्रु शंख सुदर्शन नन्दन सत्त. द्वार ७ गा. ४४-४६ वज्रनाभ विमल वाहन विपुल बल महाबल प्रतिबल अपराजित नंदिसेन 1 पद्म महापद्म पद्म नलिनीगुल्म पद्मोत्तर पद्मसेन पद्मरथ दृढ़रथ मेघरथ सिंहावह धनपति वैश्रमण श्रीवर्मा सिद्धार्थ सुप्रतिष्ठ प्रानंद नंदन दिगम्बर संदर्भ-ग्रंथ हरिवंशपुराण श्लो. १५०-१५५ बज्रनाभि विमल विपुल वाहन महाबल प्रतिबल अपराजित नंदिषेण पद्म महापद्म पद्मगुल्म नलिन गुल्म पद्मोत्तर पद्मासन पद्म दशरथ मेघरथ सिंहरथ धनपति वैश्रमण श्रीधमं सिद्धार्थ सुप्रतिष्ठ श्रानंद नंदन पृ० ७१७ से ७१८ उत्तर पुराव विमल बा बिमला महाबल रतिषेण अपराजित नंदिषेण पद्मनाभ महापद्म पद्मगुल्म नलिन प्रभ पद्मोत्तर पद्मसेन पद्मरथ दशरथ मेघरथ सिंहरथ धनपति वैश्रमण हरिवर्मा सिद्धार्थ सुप्रतिष्ठ ग्रानन्द नन्द Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकरों का अन्तरालकाल वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं द्वारा सम्मत १. ऋषभदेव २. मजितनाथ ३. संभवनाथ ४. अभिनन्दन ५. सुमतिनाथ ६. पद्मप्रभ ७. सुपार्श्वनाथ ८. चन्द्रप्रभ ६. सुविधिनाथ १०. शीतलनाथ ११. श्रेयांसनाथ तीसरे पारे के निवासी पक्ष अर्थात् ३ वर्ष साढ़े पाठ मास शेष रहे तब मुक्ति पधारे पचास लाख करोड़ सागर तीस लाख करोड़ सागर दश लाख करोड़ मागर नव लाख करोड़ सागर नम्बे हजार करोड़ सागर नव हजार करोड़ सागर नव सौ करोड़ सागर नब्बे करोड़ सागर नव करोड़ सागर छियासठ लाख छन्बीस हजार एक मो मागर कम एक करोड़ सागर चौवन सागर तीस सागर नव सागर चार सागर पौन पल्योपम कम तीन मागर . अर्द पल्य एक हजार करोड़ वर्ष कम पाव पल्य एक हजार करोड़ वर्ष चौवन लाख वर्ष छः लाख वर्ष पांच लाख वर्ष तिरासी हजार सात सौ पचास वर्ष दो सौ पचास वर्ष बाद महावीर सिद्ध हुए १२. वासुपूज्य १३. विमलनाथ १४. अनन्तनाथ १५ धर्मनाथ १६. शान्तिनाथ १७. कुंथुनाथ १८. अरनाथ १९. मल्लिनाथ २०. मुनिसुव्रत २१. नमिनाथ २२. अरिष्टनेमि २३. पाश्वनाथ २४. महावीर Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३६ तीथंकर और धर्म विच्छेद १. सुविधिनाथ मौर शीतलनाथ के अन्तरालकाल में पाव पल्योपम तक तीर्थ (धर्म) का विच्छेद । गुणभद्र ने शीतलनाथ के तीर्थ के अन्तिम भाग में काल दोष से धर्म का नाश माना है । २. भगवान् शीतलनाथ और श्रेयांसनाथ के प्रन्तरालकाल में ? पाव पल्योपम तक तीर्थ विच्छेद | ३. भगवान् श्रेयांसनाथ और वासुपूज्य के अन्तरालकाल में (पल्योपमै सम्बन्धिनस्त्रियचतुर्भागा ) पौन पल्योयम तीर्थ विच्छेद | ४. भगवान् वासुपूज्य चौर विमलनाथ के अन्तरालकाल में ? पाव पल्योपम तक तीर्थ विच्छेद | ५. भगवान् विमलनाथ और अनन्तनाथ के अन्तरालकाल में पोन पत्योपम तक तीर्थ विच्छेद रहा ! जैसे कि पत्योपम सम्बन्धिनस्त्रियचतुर्भागास्तीर्थ विच्छेदः । ६. भगवान् प्रनन्तनाथ और धर्मनाथ के अन्तरालकाल में पाव पल्योपम तक तीर्थ विच्छेद | ७. धर्मनाथ और शान्तिनाथ के अन्तरालकाल में ? पाव पल्योपम तक तीर्थ विच्छेद । तिलोय पण्णत्ती में सुविधिनाथ से सात तीर्थों में धर्म की विच्छित्ति पानी गयी है । इन सात तीर्थों में क्रम से पाव पल्य, अर्ध पल्य, पौन पल्य, पल्य, पौन पल्य, श्रर्व पल्य प्रौर पाव पल्य कुल ४ पल्य धर्म तीर्थ का विच्छेद रहा। उस समय धर्म रूप सूर्य अस्त हो गया था । (तिलोय ४) १२७८ ७६० ३१३ गुरणभद्र के उत्तरपुराण के अनुसार उस समय मलय देश के राजा मेघरथ का मंत्री सत्यकीर्ति जैन धर्मानुयायी था। राजा द्वारा दान कैसा हो यह जिज्ञासा करने पर शास्त्रदान, अभयदान और त्यागी मुनियों को अन्नदान की श्रेष्ठता बतलाई । राजा कुछ अन्य दान करना चाहता था, उसको मंत्री की बात से संतोष नहीं हुआ । उस समय भूति शर्मा ब्राह्मण के पुत्र मुंडशालायन ने कहा- महाराज ! ये तीन दान तो मुनि या दरिद्र मनुष्य के लिये हैं। बड़ी इच्छा वाले राजानों के तो दूसरे उत्तमदान हैं । शापानुग्रह- समर्थ ब्राह्मण को पृथ्वी एवं सुवर्णादि का दान दीजिये । ऋषि-प्रणीत शास्त्रों में भी इसकी महिमा बतायी है। उसने राजा को प्रसन्न कर अपना भक्त बना लिया। मंत्री के बहुत समझाने पर भी राजा को उसकी बात पसंद नहीं भायी। उसने मुंडशालायन द्वारा बतलाये कन्यादान, हस्तिदान, सुवर्ण दान, अश्वदान, गोदान, दासीदान, तिलदान, रथदान, भूमिदान और गृहदान इन १० दानों का प्रचार किया ।' संभव है राज्याश्रित विरोधी प्रचार और दान के प्रलोभनों से नवे जैन नहीं बने हों और प्राचीन लोगों ने शनैःशनैः धर्म परिवर्तन कर लिया हो । [ उत्तर० पर्व ७६ पृ० ६६ से ३८ | श्लो० ६४ से ६६ तक ] Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगामी उत्सर्पिणीकाल के चौबीस तीर्थकर ( श्रेणिक का जीव ) * ( सुपार्श्व का जीव ) * उदायी* १. महापद्म २. सुरदेव ३. सुपार्श्व ४. स्वयंप्रभ ५. सर्वानुभूति ६. देवश्रुति ७. उदय ८. पेढालपुत्र ε. पोट्टल १०. शतकीर्ति ११. मुनिसुव्रत १२. अमम १३. सर्व भावित १४. निष्कषाय १५. निष्पुलाक १६. निर्मम १७. चित्रगुप्त १८. समाधि १६. संवर २०. प्रनिवृत्ति २१. विजय २२. विमल २३. देवोपपात २४. अनन्त विजय ( पोट्टिल अरणगार ) * (वायु) * (कार्तिक) (शंख) * (नंद) ( सुनन्द ) शतक * देवकी कृष्ण सात्यकि बलदेव (कृष्ण के बड़े भाई नहीं ) रोहिणी सुलसा* रेवती* शताली भयाली कृष्ण द्वपायन नारद अम्बड़ दारुमृत स्वातिबुद्ध * तारांकित पुण्यात्माओं ने भगवान् महावीर के शासनकाल में तीर्थंकर नाम-कर्म का उपार्जन किया, यथा :- "समरणस्स भगवउ महावीरस्स तित्यंसि नवह जीवहि तित्थकर - नामगोयकम्मे निवित्तिए तंजहा सेणिएणं सुपासेणं, उदाइरणा, पुट्टलेणं अणगारेणं, दढाउरणा, संखेणं, सयएणं सुलसाए, साथियाए रेवईए ।" [ स्थानांग, ठाणा ६, ( प्रभयदेव सूरि ) पत्र ५२०, ५२१ ] ८३७ Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्तियों के नाम व उनका काल १. भरत २. सगर ३. मघवा (प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के समय में) (द्वि० तीर्थंकर अजितनाथ के समय में) (पन्द्रहवें तीर्थकर धर्मनाथजी और १६वें तीर्थकर शान्तिनाथजी के अन्तराल काल में) ४. सनत्कुमार १. शान्तिनाथ ६. कुन्युनाथ .. परनाथ ८. सुभूम (सोलहवें तीर्थकर) (सत्रहवें तीर्थकर) (अठारहवें तीर्थकर) (अठारहवें तीर्थकर व ७वें चक्रवर्ती प्ररनाथ व १६वें ती० मल्लिनाथ के अन्तरालकाल में) (२०वें तीर्थकर मुनिसुव्रत के समय में) (इक्कीसवें तीर्थंकर नमिनाथ के समय में) (नमिनाथ पौर परिष्टनेमि के अन्तरालकाल में) (परिष्टनेमि और पार्श्वनाथ के अन्तरालकाल में) ९. पप १०. हरिषेण ११. जयसेन १२. ब्रह्मदत्त अवसर्विणीकाल के बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेव बलदेव वासुदेव प्रतिवासुदेव तीर्थकरकाल १) विजय (१) त्रिपृष्ठ (१) अश्वग्रीव भ. श्रेयांसनाथ के तीर्य-काल में १) प्रचल ' (२) विपृष्ठ (२) तारक भ. वासुपूज्य " ॥. " । 1) सुधर्म (३) स्वयम्भू (३) मेरक भ. विमलनाथ , , , १) सुप्रभ (४) तुरुषोत्तम (४) मधुकैटभ भ. अनन्तनाथ " , " १) सुदर्शन (५) पुरुषसिंह (५) निशुम्भ म. धर्मनाय , , , 1) नन्दी (६) पुरुष पुण्डरीक (६) बलि भ. परनाथ और मल्लिनाय के अन्तराल काल में }) नन्दिमित्र (७) दत्त (७) प्रह्लाद* 1) राम (८) नारायण (८) रावण भ. मुनिसुव्रत भौर भ. नमिनाप के अन्तराल काल में १) पप (९) कृष्ण (९) जरासंघ भ. नेमिनाथ के शासनकाल में तिलोय पण्णती में प्रह्लाद के स्थान पर प्रहरण नाम उल्लिखित है। - - Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४१ तिलोयपण्णत्ती में कुलकर तिलोयपण्णत्ती में १४ कुलकरों का वर्णन करते हुए प्राचार्य ने उस समय के मानवों की अपने-अपने समय में आई हुई समस्याओं का कुलकरों द्वारा किस प्रकार हल हुमा, इसका बड़े विस्तार के साथ सुन्दर ढंग से वर्णन किया है। वह संक्षेप में यहाँ दिया जा रहा है : जब उस समय के मानवों ने सर्वप्रथम आकाश में चन्द्र और सूर्य को देखा तो किसी प्राकस्मिक घोर विपत्ति की प्राशंका से वे बड़े त्रस्त हुए । तब प्रथम कुलकर प्रतिश्रुति ने निर्णय करते हुए लोगों को कहा कि अनादिकाल से ये चन्द्र और सूर्य नित्य उगते एवं अस्त होते हैं पर इतने दिन तेजांग जाति के प्रकाशपूर्ण कल्पवृक्षों के कारण दिखाई नहीं देते थे। अब उन कल्पवृक्षों का प्रकाश कालक्रम से मन्द पड़ गया है, अतः ये प्रकट दृष्टिगोचर होते हैं । इनकी ओर से किसी को भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है। प्रथम मनु प्रतिश्रुति के देहावसान के कुछ काल पश्चात् सन्मति नामक द्वितीय मनु उत्पन्न हुए। उनके समय में 'तेजांग' जाति के कल्पवृक्ष नष्टप्राय हो गये । अतः सूर्यास्त के पश्चात् अदृष्टपूर्व अन्धकार और चमचमाते तारामण्डल को देखकर लोग बड़े दुःखित हुए। 'सन्मति' कुलकर ने भी लोगों को निर्भय करते हुए उन्हें यह समझाकर प्राश्वस्त किया कि प्रकाश फैलाने वाले कल्पवृक्षों के सर्वथा नष्ट हो चुकने से सूर्य के अस्त हो जाने पर अन्धकार हो जाता है और तारामण्डल, जो पहले उन वृक्षों के प्रकाश के कारण दृष्टिगोचर नहीं होता था, अब दिखने लगा है । वास्तविक तथ्य यह है कि सूर्य, चन्द्र और तारे अपने मण्डल में मेरु पर्वत की नित्य ही प्रदक्षिणा करते रहते हैं। इसमें भय करने की कोई बात नहीं है। कालान्तर में तृतीय कुलकर 'क्षेमंकर' के समय से व्याघ्रादि पशु समय के प्रभाव से कर स्वभाव के होने लगे तो लोग बड़े त्रस्त हुए। 'क्षेमंकर' ने उन लोगों को व्याघ्रादि पशुत्रों का विश्वास न करने की और समूह बनाकर निर्भय रहने की सलाह दी। इसी तरह चौथे कुलकर 'क्षेमंघर' ने अपने समय के लोगों को सिंहादि हिंसक जानवरों से बचने के लिये दण्डादि रखकर बचाव करने की शिक्षा दी। पाँचवें कुलकर 'सीमंकर' के समय में कल्पवृक्ष मल्प मात्रा में फल देने लगे। प्रतः स्वामित्व के प्रश्न को लेकर उन लोगों में परस्पर झगड़े होने लगे तो 'सीमंकर' ने सीमा प्रादि की समुचित व्यवस्था कर उन लोगों को संघर्ष से बचाया। ___इन पांचों कुलकरों ने भोग-युग के समाप्त होने और कर्म-युग के प्रागमन की पूर्व सूचना देते हुए अपने-अपने समय के मानव समुदाय को प्रागे पाने वाले कर्म युग के अनुकूल जीवन बनाने की शिक्षा दी। अपराधियों के लिये ये 'हाकार' नीति का प्रयोग करते रहे। Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४२ छठे कुलकर 'सीमंधर' ने अपने समय के कल्पवृक्षों के स्वामित्व के प्रश्न को लेकर लोगों में परस्पर होने वाले झगड़ों को शान्त कर वृक्षों को चिह्नित कर सीमाएं नियत कर दीं। 'विमल वाहन' नामक सातवें कुलकर अथवा मनु ने लोगों के गमनागमन प्रादि की समस्याओं का समाधान करने हेतु उन्हें हाथी प्रादि पशुप्रों को पालतू बनाकर उन पर सवारी करने की शिक्षा दी। पाठवें मनु 'चक्षुष्मान्' के समय में भोगभूमिज युगल अपनी बाल-युगल संतान को देखकर बड़े भयभीत होते । चक्षुष्मान उन्हें समझाते कि ये तुम्हारे पुत्र-पुत्री हैं, इनके पूर्ण चन्द्रोपम मुखों को देखो। मनु के इस उपदेश से वे स्पष्ट रूप से अपने बाल-युगल को देखते और बच्चों का मुंह देखते ही मृत्यु को प्राप्त हो विलीन हो जाते । नवम मनु 'यशस्वी' ने युगलों को अपनी सन्तान के नामकरण महोत्सव करने की शिक्षा दी। उस समय के युगल अपनी युगल-संतति का नामकरण-संस्कार कर थोड़े समय बाद कालकर विलीन हो जाते थे। दशम कुलकर 'अभिचन्द' ने कुलों की व्यवस्था करने के साथ-साथ बालकों के रुदन को रोकने, उन्हें खिलाने, बोलना सिखाने, पालन-पोषण करने प्रादि की युगलियों को शिक्षा दी। ये युगल थोड़े दिन बच्चों का पोषण कर मृत्यु को प्राप्त करते । ___छठे से दशवें ५ कुलकर 'हा' और 'मा' दोनों दण्ड-नीतियों का उपयोग करते थे। ग्यारहवें 'चन्द्राभ' नामक मनु के समय में प्रति शीत, तुषार और तीव्र वायु से दुखित हो भोग भूमिज मनुष्य तुषार से प्राच्छन्न चन्द्रादिक ज्योतिष समूह को भी नहीं देख पाने के कारण भयभीत हो गये। मनु 'चन्द्राभ' ने उन्हें समझाया कि अब भोग-युग की समाप्ति होने पर कर्म-युग निकट आ रहा है। यह शीत और तुषार सूर्य की किरणों से नष्ट होंगे। बारहवें कुलकर 'मरुदेव' के समय में बादल गड़गड़ाहट और बिजली की चमक के साथ बरसने लगे । कीचड़युक्त जल-प्रवाह वाली नदियां प्रवाहित होने लगी। उस समय का मानव-समाज इन सत्य और अभूतपूर्व घटनामों को देखकर बड़ा भय-भ्रान्त हुमा । 'मरुदेव' ने उन लोगों को काल-विभाग के सम्बन्ध में समझाते हुए कहा कि अब कर्म-भूमि (कर्मक्षेत्र) तुम्हारे सनिकट मा चुकी है। अतः निडर होकर कर्म करो। 'मरुदेव' ने नावों से नदियां पार करने, पहाड़ों पर सीढ़ियां बनाकर चढ़ने एवं वर्षा प्रादि से बचने के लिये छाता प्रादि रखने की शिक्षा दी। Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवें मनु 'प्रसेनजित' के समय में जरायु से वेष्टित युगल बालकों के जन्म से उस समय के मानव बड़े भयभीत हुए । 'प्रसेनजित' ने जरायु हटाने और बालकों का समुचित रूप से पालन करनेकी उन लोगों को शिक्षा दी । ८४३ चौदहवें मनु 'नाभिराय' के समय में बालकों का नाभि नाल बहुत लम्बा होता था । उन्होंने लोगों को उसके काटने की शिक्षा दी। इनके समय में कल्पवृक्ष नष्ट हो गये प्रौर सहज ही उत्पन्न विविध प्रौषधियां, धान्यादिक और मीठे फल दृष्टिगोचर होने लगे । नाभिराय ने भूखे व भयाकुल लोगों को स्वतः उत्पन्न शालि, जौ, वल्ल, तुबर, तिल और उड़द प्रादि के भक्षण से क्षुधा की ज्वाला शान्त करने की शिक्षा दी । [तिलोयपण्णत्ती, महाधिकार ४, गा० ४२१- ५०६, पृ० १६७ - २०६] Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४४ पंचम आरक (दिगम्बर मान्यता) तिलोयपण्णत्ती के अनुसार एक-एक हजार वर्ष से एक-एक कल्वी और पांच-पांच सौ वर्षों से एक-एक उपकल्पी होता है। कल्की अपने-अपने शासनकाल में मुनियों से भी अग्रपिंड मांगते हैं । मुनिगण उस काल के कल्की को समझाने का पूरा प्रयास करते हैं कि अग्रपिंड देना उनके श्रमण-आचार के विपरीत और उनके लिये अकल्पनीय है, पर अन्ततोगत्वा कल्कियों के दुराग्रह के कारण उस समय के मुनि अग्रपिंड दे निराहार रह जाते हैं । उन मुनियों में से किसी एक मुनि को अवधिज्ञान हो जाता है । कल्की भी क्रमशः समय-समय पर असुर द्वारा मार दिये जाते हैं। प्रत्येक कल्की के समय में चातुर्वर्ण्य संघ भी बडी स्वल्प संख्या में रह जाता है । इस प्रकार धर्म, आयु, शारीरिक अवगाहना आदि की हीनता के साथ-साथ पंचम पारे की समाप्ति के कुछ पूर्व इक्कीसवां कल्की होगा । उसके समय में वीरांगज नामक मुनि, सर्वश्री नामक प्रायिका, अग्निदत्त (अग्निल) श्रावक और पंगुश्री श्राविका होंगे। कल्की अनेक जनपदों पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् अपने मंत्री से पूछेगा-"क्या मेरे राज्य में ऐसा भी कोई व्यक्ति है जो मेरे वश में नहीं है ?" कल्की यह सुनते ही तत्काल अपने अधिकारियों को मुनि से अग्रपिण्ड लेने का आदेश देगा। वीरांगज मुनि राज्याधिकारियों को अग्रपिण्ड देकर स्थानक की मोर लौट पड़ेंगे। उन्हें उस समय अवधिज्ञान प्राप्त हो जायगा और वे अग्निल श्रावक, पंगुश्री श्राविका और सर्वश्री आर्यिका को बुलाकर कहेंगे - "प्रब दुष्षमकाल का अन्त पा चुका है । तुम्हारी और मेरी अब केवल तीन दिन की प्रायु शेष है। इस समय जो यह राजा है, यह अन्तिम कल्की है । अतः प्रसन्नतापूर्वक हमें चतुर्विध आहार और परिग्रह आदि का त्याग कर माजीवन संन्यास ग्रहण कर लेना चाहिये ।" वे चारों तत्काल माहार, परिग्रह प्रादि का त्याग कर संन्यास सहित कार्तिक कृष्णा, अमावस्या को स्वाति नक्षत्र में समाधि-मरण को प्राप्त होंगे और सौधर्म कल्प में देवरूप से उत्पन्न होंगे। उसी दिन मध्याह्न में कुपित हुए असुर द्वारा कल्की मार दिया जायगा और सूर्यास्तवेला में भरत क्षेत्र से उसकी सत्ता विलुप्त हो जायगी । कल्की नरक में उत्पन्न होगा। उस दिवस के ठीक तीन वर्ष और साढ़े आठ मास पश्चात् महाविषम दुष्षमादुष्षम नामक छठा प्रारक प्रारम्भ होगा। [तिलोयपण्णत्ती, ४१५१६-१५३५] Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दार्थानुक्रमणिका - तीर्थंकरों से अर्थ (वाणी) सुनकर गणधरों द्वारा प्रथित सूत्र । अकल्पनीय . - सदोष अग्राह्य वस्तु । अचाती-कर्म - पात्मिक गुणों की हानि नहीं करने वाले प्रायु, नाम, गोत्र और - वेदनीय नामक पार कर्म । अतिशय - सर्वोत्कृष्ट विशिष्ट गुण। अन्तराय-कर्म - लाभ प्रादि में बाधा पहुंचाने वाला कर्म । अनुत्तरोपपातिक - अनुत्तर-विमान में जाने वाले जीव । अपूर्वकरण गुणस्थान - पाठवें गुणस्थान में स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी और गुणसंक्रमण मादि अपूर्व क्रियाएं होती हैं। अत: उसे प्रपूर्वकरण कहते हैं। अभिग्रह - गुप्त प्रतिमा। प्रवाह - पांच इन्द्रियों एवं मन से ग्रहण किया जाने वाला मति ज्ञान का एक भेद । मवपिरलोकाल - कालचक्र का दस कोटाकोटि सागर की स्थिति वाला वह प्रभाग, जिसमें पुद्गलों के वर्ण, गन्ध, रूप, रस, स्पर्श एवं प्राणियों की आयु, अवगाहना, संहनन, संस्थान, बल-वीर्य प्रादि का क्रमिक अपकर्ष होता है। अयोगी-भाव - योगरहित बौदहवें गुणस्थान में होने वाली प्रात्मपरिणति । माचाम्लबत - वह तपस्या, जिसमें सखा भोजन दिन में एक बार प्रचित जल के साथ ग्रहण किया जाता है। पारा-अपना-मारक - प्रवसपिणी एवं उत्सपिणी के छः-यः काल-विभाग । उत्सपिनी-काल - अपकर्षान्मुख अवपिणीकाल के प्रतिलोम (उल्टे) क्रम से - उत्कर्षोन्मुख दस कोटाकोटि सागरोपम की स्थिति बाला काल । पान - द्वादमांगो में वरिणत विषय को स्पष्ट करने हेतु श्रुतकेवली अथवा पूर्वपर बाचार्यों द्वारा रचित पागम । -- भोग-युग के मानव को सभी प्रकार की आवश्यक सामग्री देने गाने वृक्ष। Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४६ सापक श्रेणी कुलकर केवलज्ञान गच्छ गायापति धाती-कर्म च्यवन छपस्थ - क्रोध, मान, माया, लोभ मादि मोह-कर्म की प्रकृतियों को कमिक क्षय करने की पद्धति । - दस कोड़ाकोड़ी सागर के एक प्रवसर्पिणीकाल बौर बस कोड़ा. कोड़ी सागर के एक उत्सर्पिणीकाल को मिलाने पर बीस कोड़ा कोड़ी सागर का एक कालचक्र कहलाता है। - कुल की व्यवस्था करने वाला विशिष्ट पुरुष । - ज्ञानावरणीय कर्म को पूर्णरूपेण भय करने पर बिना मन पौर इन्द्रियों की सहायता के केवल प्रात्मसाक्षात्कार से सम्पूर्ण संसार के समस्त पदार्थों की तीनों काल की सभी पर्यायों को हस्तामलक के समान युगपद जानने वाला सर्वोत्कृष्ट पूर्णज्ञान । - एक प्राचार्य का श्रमण परिवार। - एक अत्यन्त वैभवशाली सम्पन्न परिवार का गृहस्वामी । - पात्मिक गुणों की हानि करने वाले ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय नामक चार कर्म । - देव-गति की प्रायु पूर्ण कर प्राणी का अन्य गति में जाना। - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय नामक चार छद्म (घाती) कर्मों के प्रावरणों से प्राच्छादित प्रात्मा । - मति-ज्ञान का वह भेद, जिसके द्वारा प्राणी को अपने एक से लेकर नौ पूर्व-भवों तक का ज्ञान हो जाता है । -- एक मान्यता यह भी है कि जातिस्मरण ज्ञान से प्राणी को अपने - ६०० पूर्व भवों तक का स्मरण हो सकता है । - राग-द्वेष पर पूर्ण रूप से विजय प्राप्त करने वाली प्रात्मा। - देवों का प्रिय । एक स्नेह पूर्ण सम्बोधन । - गणधरों द्वारा प्रथित बारह अंग शास्त्र । - प्रगाढ चिक्करण कर्म-बन्ध, जिसका फल अनिवार्य रूप से भोगना ही पड़ता है। - विविध अवस्थामों में परिणमन (परिवर्तन) करते हुए मूल द्रव्य रूप से विद्यमान रहना। - क्षुधा प्रादि कष्ट, जो साधुओं द्वारा सहन किये जायें। - एक योजन (४ कोस) लम्बे, चौड़े और गहरे कुए को एक दिन से लेकर सात दिन तक की आयु वाले उत्तरकुरु के यौगलिक शिशुओं के सूक्ष्मातिसूक्ष्म केश-खण्डों से (प्रत्येक केश के प्रसंख्यात नातिस्मरण-जान जिन .. देवानुप्रिय द्वादशांगी निकाचित-कर्म परिणामी-नित्य परिषह-परीवह पस्योपम Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४६ पौषष पौष शाला प्रक्रिमण माडलिक-राजा युग खण्ड कर) इस प्रकार कूट-कूट कर ठसाठस भर दिया जाय कि यदि उस पर से चक्रवर्ती की पूरी सेना निकल जाय तो भी वह अंश मात्र लचक न पाये, न उसमें जल प्रवेश कर सके और न अग्नि ही जला सके । उसमें से एक-एक केश-खण्ड को सौ-सौ वर्षों के अन्तर से निकालने पर जितने समय में वह कूमां केश-खण्डों से पूर्णरूपेण रिक्त हो, उतने असंख्यात वर्षों का एक पल्योपम होता है। - सत्तर लाख, छप्पन हजार करोड़ वर्ष का एक पूर्व । - एक दिन व एक रात तक के लिये चारों प्रकार के प्राहार व अशुभ-प्रवृत्तियों का त्याग धारण करना। - वह स्थान जहाँ पर पौषध प्रादि धर्म-क्रिया की जाय । - अशुभ योगों को त्याग कर शुभ योगों में जाना । - एक मण्डल का अधिपति । - कृत या सत्ययुग १७,२८,००० वर्ष - त्रेतायुग १२,९६,००० वर्ष - द्वापरयुग ८,६४,००० वर्ष - कलियुग ४,३२,००० वर्ष कुल ४३,२०,००० वर्ष ऐसा माना जाता है कि युगों की उत्तरोत्तर घटती हुई अवधि के अनुसार शारीरिक और नैतिक शक्ति भी मनुष्यों में बराबर गिरती गई है। सम्भवत: इसीलिये कृतयुग को स्वर्णयुग और कलियुग को लोहयुग कहते हैं । [संस्कृत-हिन्दी कोष : वामन शिवराम प्राप्टे कृत, पेज ८३६, सन् १९६६, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली द्वारा प्रकाशित] [संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी, पेज ८५४, एम. मोन्योर विलियम कृत, १९७० एडीशन] [युगचतुष्टय सम्बन्धी विस्तृत विवेचन 'शब्द कल्पद्रुम', चतुर्थ काण्ड, पृष्ठ ४३-४४ पर भी देखें - भूमि प्रादि के प्रमार्जन हेतु काम में प्राने वाला जैन श्रमणों का एक उपकरण-विशेष । - ब्रह्म नाम के पांचवें देवलोक के छः प्रतरों (मंजिलों) में से तीसरे परिष्ट नामक प्रतर के पास दक्षिण दिशा में स्थित प्रसनाड़ी के मन्दर पाठों दिशा-बिदिशामों की पाठ-कृष्ण, राजियों में तथा मध्यभाग में स्थित (१) पर्चि, (२) पर्चिमाल, (३) वैरोचन. रजोहरण लोकान्तिक Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५. वर्षीदान विद्याधर शुक्लध्यान शैलेशी अवस्था (४) प्रभंकर, (५) चन्द्राभ, (६) सूर्याभ, (७) शुक्राभ, (८) सुप्रतिष्ठ और (९) रिष्टाभ नामक नौ लोकान्तिक विमानों में रहने वाले देवों में से मुख्य ९ देव, जो शाश्वत परम्परा के अनुसार तीर्थंकरों द्वारा दीक्षा ग्रहण करने से एक वर्ष पूर्व उनसे दीक्षा ग्रहण करने एवं संसार का कल्याण करने की प्रार्थना करने के लिये उनके पास पाते हैं । ये देव एक भवावतारी होने के कारण लोकान्तिक और विषय-वासना से प्राय: विमुक्त होने के कारण देवर्षि भी कहलाते हैं। - दीक्षा-ग्रहण से पूर्व प्रतिदिन एक वर्ष तक तीर्थंकरों द्वारा दिया जाने वाला दान । - विशिष्ट प्रकार की विद्याओं से युक्त मानव जाति का व्यक्ति-विशेष। - राग-द्वेष की अत्यन्त मन्द स्थिति में होने वाला चतुर्थ ध्यान । - चौदहवें गुणस्थान में मन, वचन एवं काय-योग का निरोध होने पर शैलेन्द्र-मेरु-पर्वत के समान निष्कम्प-निश्चल ध्यान की पराकाष्ठा पर पहुंची हुई स्थिति । - सम्यक्रूपेण यथार्थ तत्त्व-श्रद्धान । - दीक्षा, प्रायु एवं ज्ञान की दृष्टि से स्थिरता प्राप्त व्यक्ति । स्थविर तीन प्रकार के होते हैं-(१) प्रवज्यास्थविर, जिनका २० वर्ष का दीक्षाकाल हो, (२) वय-स्थविर, जिनकी प्रायु ६० वर्ष या इससे अधिक हो गई हो तथा (३) श्रुत-स्थविर, जिन साधुत्रों ने स्थानांग, समवायांग प्रादि शास्त्रों का विधिवत् ज्ञान प्राप्त कर लिया हो। - दस कोटाकोटि पल्य का एक सागर या सागरोपम कहलाता है । सम्यक्त्व स्थविर सागर-सागरोपम Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५१ शब्दानुक्रमणिका [क] तीर्थकर, प्राचार्य, मुनि, राजा, श्रावकादि अजितसेन-३८४ मंगति-५०८, ५०६ अर्जुन-३५२, ३५४, ३५५, ३५६, ३५८ अंगिरस-३२६ ३६०, ४२७, ६३७ अंजन-७७८, ७७६, ७८० अर्जुनमाली-६२५ अंजिक-४३१ प्रतिबल-७५ अंजु-५२२ प्रतिभद्रा-६९८ अइमुत्त श्रमण-३४१ अतिमुक्तक-३४१ अकम्पित-६७६, ६६५, ६६८ अदीनशत्रु-२७० अक्रूर-४३५ अनंगसुंदरी-५२७, ५२६ प्रक्षोभ-३३०, ४२५, ४३४ अनन्तनाथ-२२४, २२५, २२६ अग्निकुमार-४१२ मनाथपिडिक-७७१ अग्निदेव-७४ अनाथी-७३६ अग्निद्योत-५३६, ५४० अनावृष्टि-३५४, ३५५, ३५६, ४२५ अग्निभूति-७४, ५३६, ५४०, ६१६, ६७५ अनिरुद्ध-४२५ ६६४,६६६ अनिहत ऋपु-३८४ अग्निमित्र-७४ अनीकसेन-३८४ अग्निसह-५४० अनुपम-७५ अग्नीध्र-१४ अन्धकवृष्णि-३३०, ३३१, ४२५, ४३२ अचल-७४, २१२, २१३, २१४, २४६, अपराजित-२६, ७४, १९६, २४६ ३३०, ४२५,४३४ अपराजिता-५२१ अचलभ्राता-६७३, ६६५, ६६८ अफलातून-५३३ अचला-५२२ अचिरा-२३६ अभयकुमार-६१७, ६२५, ६२६, ६२६, ६३२ अच्छंदक-५७६, ५८० ७४३, ७६२, ७६३, ७६४ अच्छरा-५२२ मभयदेवसूरि-५३६, ६१७, ६४४, ६४५ अच्युतदेव-४७८ ७१६ प्रज-३२२ भभिचन्द्र-४, ६, ७, २५२, ३१८, ३३० अजयमान-२६ ४३४ अजातशत्रु-५००,७४३, ७४६, ७५६, ७५७ प्रभीच, प्रभीचिकुमार-७५७, ७५८, ७५६ ७६६, ७७२ प्रभिनव श्रेष्ठी-६०४ प्रजितकेशकम्बल-५० , ७७१, ७७३ अजितनाथ-१४६, १५१, १५२, १५३, १५४ अभिनन्दन-१७२, १७३, १७५ १५५, १५६, १५७, १५८, २१८ मभिमन्यु-४०६ ७०८,७१३ प्रमरपति-२८५ Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ आदिनाथ-४२, ४७, ४८, ११७, १३२, ४२६ प्रानन्दन-२८ प्रानन्द-२८, ४८०, ५६८, ५६, ६३२, ६३४, ६३५, ६६८, ६६९, ६७३, ७२८, ७३५, ७७० प्रार्द्रक-६२६, ७३३ आर्यघोष-४६५ प्रालारकालाम, पालारकलाम-५०१, ५०६ अमरसेन-२८५ प्रमल-२६ अमितवाहन-४५८ प्रमोलक ऋषि-६६४ प्रम्बह-६६१ प्रयंपुल गाथापति-६३४ प्रयधणू-३१८ परनाथ-२४५, २४६ परविन्दकुमार-२४६ परिंजय-३० अरिदमन-१४६ अरिष्टनेमि-३१३, ३१५, ३१८, ३४६, ३४७, ३५४, ३५५, ३५८, ३५६, ३६१, ३६२, ३६३, ३६४, ३६५, ३७०, ३७३, ३७७, ३७८, ३८०, ३८३, ३८४, ३८५, ३८६, ३८७, ३८८, ३६४, ३६५, ३६७, ४०१, ४०७, ४०८,४११ मचिमाली-५२२ पर्वबाह-३२६ महन्नक-२६२, २६४ प्रवर-२६ भव्यक्त-६७६ प्रशोक-७७६, ७७७,७८३ अशोकचन्द्र-७४४, ७५६ अश्व-४३२ प्रश्वग्रीव-२१२, २१४, ४३२, ५३६, ५३७ प्रश्वबाहु-४३२ अश्वसेन-२३०, ४८१,४८६, ४६३ अश्वसेना-३४० प्रसित-३५४ भलिका-४५८ इन्दरजी, भगवानलाल पंडित-७७६ इन्द्रगिरि-३१७ इन्द्रदत्त-१७० इन्द्रभूति गौतम-५४५, ६१३, ६१६, ६५५ ६५६, ६६५, ६६६, ६७३, ६६२, ६६५, ६६६ इन्द्र शर्मा-५७६ इन्द्र सारिण-७,८ इर्जा केल-५३३ इला-५२० इलादेवी-५१६ ईजाना संवत्-७७७, ७७६ (उ) उग्रसेन-३३३, ३४३, ३४४, ३४८, ३४६, ३५४, ३६१, ३६६, ३७०, ३८२ उत्तम-७ उत्तमा-५२१ उत्पल-५८६ उत्पला-५२१ उदक-६६६, ६६७ उदयन, उदायन-६२०, ६२३, ६२४, ६२७, ६३७, ७४२, ७५७, ७६०, ७६४ उदाई-७४४ उदायी कुरियायन-७३०,७३, उपोतन सूरि-६१७ प्रजनी-७७८, ७७९ प्राग्नीध्र-१३२ पातपा-५२२ Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्रकराम - ५०१, ५०५ उद्दालक- ४७६ उन्मुक - ४१० उपक- ७३० उपनन्द-५८७ उपयालि-४२६ उपालि- ६२६ उलूग - ७३६ उषंगु - २४७ ऋतुधामा-८ ऋभु -८ ऋषभ, ऋषभदेव - ३, ६, ७, ९, ११, १३, १७, २०, २१, २२, २३, २४, २५, २६, २७, २८, ३०, ३१, ३२, ३३, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ४२, ४३, ४४, ४५, ४६, ४७, ४८, ४९, ५०, ५१, ५२, ५३, ५४, ५५, ५६, ५७, ५६, ६०, ६७, ७१, ७३, ७४, १२०, १२१, १२३, १२५, १२७, १२८, १२, १३०, १३२, १३३, १३४, १३५, १३६, १३८, १३६, १४०. १४१, १४२, १४७, ३६८, ५०२, ५४८, ६८३, ६८४, ७०८, ७११ ऋषभदत्त - ५४२, ५४३, ६१६ ऋषभसेन- ७३, ७४ ऋषिदत्त - ७४ ऋषिभद्र - ६२६ (ए) एकत- ३२६ एच० सी० राय चौधरी- ४३०, ७६६, ७७४ एम० गोविन्द पाई- -७८० (ऐं) ऐणेयक - ६३७ (श्रो) प्रभा, गौरीशंकर हीराचन्द - ७७४, ७७५ श्रोतमि - ७, ८ (क) ३३३, ३४०, ३४३ ३५६, ३८५, ५४६, कंस - ३३१ कटक - ४३८, ४५३, कटकवती - ४५३, ४५४ ३५२, कटपूतना - ६०६ कणेसुदत्त - ४३८, ४५३ कण्व - ३२६ कनककेतु -- ४६५ कनकप्रभा - ५२१ कनका - ५२१ कनकोज्ज्वल-- ५४० कनिंघम - ७७६ कपिल - २६, ११७, ३२६, ४०४, ४०५, ५४७ कपिला - ३४०, ६२६ कमठ-४७८, ४८१, ४८७, ४८८, ४६१ ४६३ कमलप्रभा - ५२१ कमलश्री - २४६ कमला - ५२१ कम्बल - ५८४ कम्पित-४२५ करकंडु -५०७ कर्ण- ३५६ कर्न प्रो०- ७७६ कल्याण विजय मुनि - ५५७, ६७३, ७२६, ७७०, ७७६ कविल - ७३६ कश्यप - ७३२ कांफ्यूसी - कान्त - २६ कामताप्रसाद - १३६ कामदेव - २६, ७५, ६५७, कारपेंटियर - ७१६ कालकाचार्य - ६६० १-५३२ कालकुमार - ३४३, ८५३ ३५६, ७४७, ७४८, ७४६ ३४४, ३४७, ३५३, कालमुख - ३३६ कालशौकरिक- ६२५, ६२६ Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५४ कुभ-७४ कालश्री-५१६ कृतवर्मा-२२१, ३५४ कालहस्ती-५६१ के. के. दत्ता-७६६ कालिदास-५५६ केतुमती-३४०, ५२१ काली । ५१६, ५२०, ५२१, के. पी. जायसवाल-७६८ कालीदेवी ६३३ केशव-७२१, ७२२ कालोदायी-६६३, ६६५, ६७१, ६७२ केशिकुमार | ५२७, ५२८, ५२६, ५३०, कावाल-७३६ केशीमिश्रण | ५३१, ६५०, ६५१, ६५२, कावालिया---७३६ ६५३, ६५४, ७०८, ७५७, काश्यप-२०, ३०, ७५८, ७५६ किंकत-६२५ कौमारभृत्य-७७२ किरणदेव-४७८ कौशाम्बी, धर्मानन्द-४२६, ४६७, ५००, किरातराज-६७०, ६७१ कौशिक-५३६, ५४०, ५८१,६०२ किस्स संकिच्च-७३० कौशल-२६ कीर्ति-५१६ कोष्टा-४३१, ४३२, ४३३, ४३७ कीर्तिकल-२६ कोष्टु-४३५ कुंजरबल-२६ क्षीरकदम्ब ३१८, ३१६, ३२०, ३२१, ३२३, कुडकोलिक-६२८ कुथुनाथ-२४२, २४३, २४४ क्षीरगिरि-४७६ क्षेमंकर-६, ७, २३६, २३७ कुरिणम-३१८ क्षेमंधर-६, ७, कुन्ती-४०२, ४०६ क्षेमराज-७४३ कुब्जा-३३४ कुमारपाल-७६८ कुरुमति-४७० खण्डा-४४६, ४५०, ४५४ कुलिशबाह-४७८ खरक-६०६ कूरिणक ] ६३२, ६३३, ७४१, ७५२, खेचरेन्द्र-४७६ कौरिणक। ७५३, ७५४, ७५५, ७५६, खेमक-६३३ ७६६, ७६७ कूपक-४२५ खेमिल-५८४ कूपनय-५८६ ख्यातकीति-२६ कुलवालक-७५२, ७५३, ७५४ कृष्ण, श्रीकृष्ण-३४२, ३४३, ३४८, ३४६, गंधारी-४६ ३५२, ३५३, ३५४, ३५७. ३५८, गंभीर-२६, ४२५. ३७०, ३७२, ३७७, ३८०, ३८१, गजसुकुमाल-३६३, ३६७ ३८२, ३६१, ३६४, ३६५, ३६७. ३६६, ४००, ४०२, ४०३.४०४. गन्धदेवी-५१६ ४०५ ४०६. ४०७. ४०८, ४०६, गन्धर्वदत्ता-३४० ४१०, ४१३, ४१४, ४१५, ५४७, गर्दभाल-६३० गवेषण-४३२ कृष्णाचन्द्र घोष-७६८ कृष्णराजि-५२२ गांगली-६५७ कृष्णा -५२२, ६३४ गांगेय-६६२ Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५१ गाग्योयण-४७६ चण्डकौशिक-५८०,५८३ गालव ऋषि-४७६, चण्डप्रद्योत-६२६, ७४२, ७६३, ७८१,७८३ गुणचन्द्र-४८१, ५३६, ५४७, ५५५, चण्डराय-७४३ गुणपुंज-४६३ चतुरानन-१३८ गुणभद्र-४८०, ४६१, ५३६ चन्दनबाला-५४७, ७०२ गुप्त-७४ चन्दना-६०७, ६३३, ६६५, ७०५, ७०६, गुप्तफल्गु-७४ ७०७ गूढ़दंत-६२६ चन्द्रगुप्त-६८६, ७६७, ७७३ ग्रेवेयक देव ४७८ चन्द्रचूड़-७५ गोपालदास जीवाभाई पटेल-७३१, ७३३ चन्द्रछांग-२६८, गोबर-६६६ चन्द्रजसा-५ गोबहुल-७१६, ७२५ चन्द्रदेव, ५२४ गोभद्र-६२२ चन्द्रप्रभ स्वामी-२०२, २०५ गोशालक-५४६,५९५, ५८६, ५८७, ५८८, चन्द्रप्रभा शिविका-२०६, ५६६ ५८६,५६०, ५६१, ५६३, ५६४, चन्द्रप्रभा-५२० ५६५, ५६७, ६३४, ६३६, ६३७, चन्द्रसेन-२६ ६३८, ६३६, ६४०, ६४१, ६४२, ६४६, ७१३, ७१६, ७२०, ७२६, चन्द्राभ-६, ७, ३३७ ७२७, ७२८, ७२६, ७३०, ७३१, चमर-५४८ ७३२, ७३३, ७३४, ७३६, ७४६, । चमरेन्द्र-५१८, ५१६, ६०४, ६०५ ७७१, ७७२ चम्पकमाला-४६६ 'गौतम-५०८, ५०६, ५१०,५१२,५१३, ५१५, ५१६, ५१९, ५२१, ६१३, चाक्षुष-७, ८ ६१५, ६१६, ६१६, ६२५, ६२६, चाणूर-३४२ ६३०, ६३१, ६३२, ६३४, ६६४, चारुकृष्ण-३६३ ६६५, ६६६, ६६७, ६६८, ६६६, चार्ल शार्पटियर, डॉ.-४७६ ६७४, ६७६, ६८३,६८४, ६८५, ६६२, ६६३, ६६८, ७०८,७१७, चित्त-४५६, ४५७, ४५८,४६३,४६४, ७२८, ७५४, ७५५, ७७२ ४६५, गौरी-४६ चित्तहर-३० गौरीशंकर हीराचन्द प्रोझा-७७४,७७५ चित्रक-४३२, ४३३, ४३५ चित्रचूल-२३६. धनरथ-२३७ चित्ररथ- ४३२, ४३३, ४३७ घासीलालजी-६३२ चित्रांग-२६ घोर मांगिरस-४२६ चुन्द-५०६, ७७० घोष आर्य-४६५ चुलना-४३६, ४४२ चक्रायुध-२४० चुलनी-४३८, ४५४ चक्री-२२६ चुल्लशतक-६२५ चक्षुष्मान-४, ६ चुल्लिनी पिता-६२४ Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५६ चेटक महाराजा - ५३५, ५५६ ५६०, ६२०, ७४२, ७४३, ७४६, ७५१, ७५४, ७५७, ७६६ चेदिराज - ३२४ चेलना - ७३९, ७४६, ७६४, चौथा - २७२, २७३, २७४ (ज) जंधाचाररण - ४१८ जगदीशचन्द्र जैन - ६१७ जगन्नन्द - २०५ जगन्नाथ तीर्थंकर - ४७६ जटिल ब्राह्मण - ५४० जनक - ४७६, ७७६ जनार्दन भट्ट - ७८२ जमालि - ५५७, ६३२, ६४६, ७१४, ७१५, ७१६, ७१७, ७१८ जम्बू- ६८६ जय - २६, ३०६, ३५४, ४६६ जयदेव - ३० जयद्रथ - ३५६ जयन्ती - १३३, ५८६, ६२०, ६२१, ६६८ जयसेन - ३५४, ३५६, ४८६, ५२६ जयादेवी- २१७ जरथुष्ट - ५३३ जराकुमार- ३५४, ४०७, ४१४, ४१५, ४२६ जरासंध - ३३२, ३३३, ३३७, ३३६, ३४३ ३४५, ३४६, ३४७, ३४९, ३५०, ३५२, ३५३, ३५५, ३५६, ३५७, ३५८, ७८१ जसमती-४५७ जानकी - ७७६ जाम्बवती - ३, ७, ४११, ४२६ जायसवाल - ७६६ जालि - ४२६, ६२६, ७४० जितशत्रु - १४७, १४८, १४९, १५१, २७३, २७५, २७६, २७७, २७८, ५१६, ५३८, ५६५, ६२४, ६२७, ६७३ जितारि - १६८, १६६, ३१३ जिनदत्त - ६०४ जिनदास - ६, २४५, ६३४, ७००, ७१३, ७८२ जिनदेव - ६७० जिनपालित - ६३३ जिन विजयमुनि - ७६९ जिनसेन- ६, १४, २०, ३०, ६७, ७४, १२४, २१७, ४८०, ५५१, ५५६ जिम्भर - १३६ जिरेमियां - ५३३ जीर्ण सेठ-६०४ जीवक-७७२ जीवयशा - ३३२, ३३३, ३४१, ३४३, ३५६ जीवानन्द - ११, १३ ज्ञातपुत्र - ५६१ ज्योतिप्रसाद - ४७५, ५०७, ७४२ ज्योत्स्नाभा - ५२२ टॉड कर्नल - ४२६ टोडरमल - ४३० डफ मिस - ७७६ तच्चन्निय - ७३६ तथ्यवादी - ६०७ तापस-७ (ट) (3) ढंक - ७१६ ढंढरण मुनि - ३६, ४००, ४०१ ढंढरणा रानी - ३६८ (त) (ठ) तामस - ७, ८ तिष्यगुप्त - ७१४, ७१८, ७१६. तेजसेन - ३५४ तेजस्वी- ७४ त्रित - ३२६ Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५७ त्रिपृष्ठ-२१२, २१३, २१४, २१५, ५३७, ५४०, ५८४ त्रिशला-५३५, ५३६, ५४५, ५४६, ५५०, ५५१, ५५६, ५६०, ५६५, ७८२ थवर-२६ थावच्चापुत्र-४१६, ४२०, ४२१ दक्षसावरिण--७, ८ दत्त-२६, ६२३, ६६८ दत्ता के० के०-७६६ दधिमुख-३३८ दधिवाहन-७०२, ७० ३, ७०७, ७४२ दन्तवक्त्र-३३७, ३३८, ३३६ दमघोष-३३७, ३३८ दर्शनविजय-५२६ दशार्ण-२६ दशारर्णभद्र-६५८ दानशेखरसरि-६४४ दारुक-४०३, ४२५ दिन्न आर्य-५०१ दिलीप-५५६ दीर्घ-४३८, ४४१, ४४४, ४४८, ४५१, ४५३ दीर्घदंत-६२६ दीर्घबाहु-२६, ३२६ दीर्घसेन-६२६ दुःप्रसह-६८५, ६८९ दुर्जय-२६ दुर्द्धर्ष-२६ दुर्मुख-४२५, ५०७, ७६१ दुर्योधन-३५२, ३५३, ३५६ दुःशासन-३५६ दुइज्जतक-५७३ देव-६६८ देवक-३४० देवकी-३४०, ३४१, ३४२, ३८१, ३८२, ३८४, ३८५, ३८६, ३८७, ३८८, ३६०, ३६२, ३६३, ३६४, ३६५, ४३३, ५४६ देवभद्रसरि-४८०, ४८२, ४८६, ४८६ देवमीढ़ ष-४३२, ४३३, ४३५, ४३८ देवद्धि क्षमा श्रमरण-७६६ देवशर्मा--७४, ६६२ देवसावगिग-८ देवसेन-३८४ देवानंदा-५३८, ५४५, ५४६, ६१६ देवाग्नि-७४ . दृढ़नेमि-३५४, ४२६, ४३४ दृढ़रथ-३०, ७४, २०८, २२७, २३७, २४० द्रुम-६२६ द्रुमसेन-६२६ द्रुमक मुनि-७६३ द्रौपदी-४०१, ४०२, ४०३, ४०४, ४२६, ४२७,५४६ द्वित-३२६ द्विपृष्ठ-२१६ द्विमुख-५०७ द्वैपायन-४०७, ४१० धनदेव-७४, ६६७, ७०० धनपति-२४५ धनमित्र-६६६ धनवाहिक-७५ घनश्री-३४० धनावह-४५०, ४५२, ७०४, ७०७,७६२. धनु-४३६, ४४२, ४४३, ४४४, ४४८, ४५० धनुकुमार-३१४ धनुपूर्ण-४४० धनुष-३२६ धन्ना-१०, ११, ६०७, ६२३ धन्य-४६० धन्यकुमार मुनि-६२७ Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५८ धन्या- ६२४ श्रम्मिल - ६६७ घर - १६६, १६७, ३६१ घररण-- ३३०, ४२५, ४३४, घरणेन्द्र - ४६, ४५६, ४६१, ४६२, ५२४ धर्मघोष - ११, २१५, २४६, ४२६, धर्मनाथ - २२७, २२६, २३३, २३४ धर्मभृत - ४३२ धर्म सारण- ७, ८ धर्मसिंह, २२८ धर्मसेन - २६ धर्मानन्द कौशाम्बी - ४२६, ४६७, ५०० ७६६ धारिणी - १३, २४६, ४२५, ७०२, ७०३, ७४४ घी - ५१६ ध्रुव- २६ धृतराष्ट्र-३५६ धृतिघर - ६३३ घेनुसेन - ५२७ (न) नइरसेरणा - ५२१ नकुल- ३५४, ४२७ नगराज मुनि - ७७१, ७७७ नगेन्द्रनाथ बसु - ४२६ नचिकेता - ५०४ नन्द - २६, २१२, २८५, ३४२, ५४१, ५८७ ६८९ नन्दन - ७४, ५३८, ५४१, ६२५, ६३३ नन्दमती - ६२६ नन्दमित्र - २८५ नन्दवच्छ-७३० नन्दा - ४५२, ४६३, ६०६, ६२६, ६१८, ७४०, ७६२ नन्दिनी - ५०१ नन्दिवर्धन- ५६७, ५६६, ७४२, ७८२ नन्दिषेरण - ५६३, ६१८, ६१६, ६२६, ७४१ नन्दी - ७५ नन्दीमित्र - ७५ नन्दीषेरण - ३३०, ३३१ नन्दोत्तरा- ६२६ }-re नमि. नमिनाथ नमिया - ५२१ नमि राजर्षि - ३०६, ३६७ नमि राजा ४६६ नमूची - ४५६, ४६१, ४६२ नयसार - ३४१, ५३६, ५४०, ५४१ नरगिरी - ३१७ नरदेव - ३० नरवर्मा - ४८३ -४६, ७५, ३०७, ३०६ नरवाहन - ६८६ नरोत्तम - २६ नलकूबर- ३८३ नवमिया - ५२२ नहषेण - ३१८ नाग-७५१ नागजित - ५०७ नागदत्त-- ३० नागदत्ता शिविका - २२८ नागबल-- ४६६ नागराज - ४६६, ४६७ नागसेन - ५८४ नागाति -५०७ नागिल - ६८५ नाट्योन्मत्त विद्याधर-४४६, ४४७ नाथूराम प्रेमी - ७५४ नाभि, नाभिराज ४, ६, ७, ६, २२, ३३, ३४, १३२, १३३, १३५, १३६, १३७. १३८, १३६ नारद - ३१८, ३१६, ३२०, ३२३, ४०२ नारायण - ३२६ निगष्ठ नायपुत्त ७७१, ७७२ Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरंभा - ५२० निशुंभा - ५२० निसढ़-४१० नील- ४३१ नीलयशा - ३४० नेम नारद - ३४०, ४०१ नेमिचन्द - ६१६, ६१७, ७४१, ७७४ नेमि, नेमिनाथ २१८, ३१४, ३६५, ३६६३७८, ३८१ - ३८३, ३६०, ३९२, ३६७-४०१, ४०८, ४१५, ४१७, ४२३, ४२५, ४२७, ४२६, ४८१, ४८७, ४६६, ५६५, ७४१ (प) पंडरंग - ७३६ पंथक - ४२३, ४२४ पतंजलि - ६४७, ७०६, ७२० पद्म - १६५, ७४१ पद्मकीर्ति - ४८१, ४८६, ४५६, ४६१, ४६३ पद्मनाभ - ३०, ४०१, ४०२, ४०३, ४०४, ४०५, ७४२ पद्मप्रभ - १६६, १६७, १६६ पद्मभद्र- ७४१ पद्मरथ - २२४ पद्मश्री - ३४० पद्मसेन- २२१, ७४१ पद्मा - ३४०, ४७६, ४६६, ५२१ पद्मावती - २८, ३४०, ४६२, ५२४. ७४२, ७४४, ७४७ पद्मोत्तर - २०८, २१७, ४७६ - पनुगानय - ५२७ पयोद - ४३१ पराख्य-७४ परासर- ४०७ परिव्वायग - ७३६ परीक्षित - ४०६ पर्वत - ३१८, ३२०, ३२१, ३२२, ३२३ पल्लीपति - ३१३ पाइथागोरस - ५०५, ५३३ पाई, एम० गोविन्द - ७८० पाणिनी - ६४७, ७२०, ७२५, ७२६ पाण्डव - ४१३, ४१४, ४२६, ४२७ पाण्डु - ३३७.३३६, ४०६ पातंजलि - ६४७ पार्श्वनाथ - ४२८, ४३८, ४७५-४७८, ४८०, ४८१, ४५२, ४८३, ४८४-५१०, ५१३, ५१४, ५१६, ५१७, ५१६, ५२१, ५२२ - ५३१, ५३३, ५३५, ५६५, ५६६, ५८८, ५६३, ५१८, ६१७, ६५०, ६५१, ६६६, ७०८, ७१०, ७१३, ७३१, ७३५, ७३६, ७३६ पारासर- ३६६ पालक - ६८६, ७६८, ७८१ पालित - ६३३ पिंगल - ६३० पितृदत्त-: .3 पितृसेन कृष्णा - ६३३ पिप्पलाद - ५०३ पिशल - ६१७ पिहद्धय - ३२६ पिहिताश्रव - १९६, ५०६ - ५६० पीठ- १३ पुंडरीक-७४ पुण्यपाल-६७७, ६७८ पुण्य मानी - ४५२, ४५४ पुण्यविजय- ४५ 'पुद्गल - ६२४ पुनर्वसु- २०६ पुरुरव:- ५४० पुरुषसिंह - २२६, ५८८ पुरुषसेन - ४२६, ६२६ पुष्प - २०५ पुष्पचूल - ४४०, ४४१, ४४६ पुष्पचूलके - ४३८, ४५३ पुष्प चूला - ५०१, ५१७, ५१८, ५१६ पुष्पचूलिका- ५१६ ८५६ Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६० पुष्पदन्त-२०५, ४८१, ४८६ पुष्पयुत-२६ पुष्पवती-४४०, ४४२, ४४६, ४४७, ४५४, ४५७, ५२१ पुष्य-५८४, ५८५ पुष्यमित्र-५३६, ५४०, ६८६ पूज निका-४७३ पूज्यपाद आचार्य-५५६ पूरण-३३०, ४२५, ४३५, ५४८, ६०४, प्रभावती-३४०, ४८३, ४८५, ४८१,४७, ४६४, ७४२, ७५७ प्रभास-६७३, ६९५, ६६८ प्रसन्नचंद्र-७६०, ७६१ प्रसेनजित-४, ६, ४८३, ४८४, ४८५, ४९६, ५२५, ७३६, ७७१ प्राणतदेव-४७८ प्राणनाथ विद्यालंकार-४२६ प्रियंग सुन्दरी-३४० प्रियकारिणी-५६० प्रियदर्शना-३४०, ६२०, ७१५, ७१६ प्रियमती-२३७ प्रियमित्र-५३८, ५४१ प्रियव्रत-१३२ प्रिया-५१६, ५१७ पूर्ण काश्यप-७३४, ७७१, ७७२ पूर्णचन्द्र नाहर- ७६८ पूर्ण सेन-६२६ पूर्णा-५२१ पृथु-४३२ पृथुकीर्ति-४३३ पृथ्वीरानी-१९७ पृथ्वीपति-३१७ पेढाल-६६६ पोंडा--३४० पोट्टिल-५३६, ५४० पोट्टिलाचार्य-५३८, ६५६ प्रक्रुद्ध कात्यायन-५०४, ७७१, ७७२ प्रगल्भा-५६३ प्रजापति-७४, १३८, ३१८ प्रज्ञप्ति-४६ प्रतिबुद्ध-२६१ प्रतिश्रुति-६ प्रतिष्ठसेन-१६६ प्रदेशी-५२८, ५३१, ५८४ प्रद्युम्न-३४७, ३५१, ३६२, ३७५, ३८२, फर्गुसन-७७६ फर्लाग-४७५ फल्गुश्री-६८५ फाहियान-७७६ फूहर्र-४२६ फ्लीट-७७६ बकुलमति-२३१ बडेसा-५२१ बंधुमती-३४०, ४४३, ४५४, बप्प-५००, ५०३ बरुपा-७२६, ७३१ बल-३०, ६१८ बलदेव-३४४, ३५१, ३७२, ४१३, ४१४-४१६, ४२५ बलदेव उपाध्याय-७७४ बलभद्र-३७०, ३८१, ३८२ बलमित्र-२८५, ६८६ बलराम-३४०, ३४२, ३४३, ३४५-३४८, ३५२, ३५४, ३५८, ३५६, ३६० प्रभंकरा-५२२ प्रभंगा-५२२ प्रभंजन-३० प्रभव-६७५ प्रभाकर-२६ Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६१ ३६३, ३६५, ३७०, ३६१, ४०६, ४०६,४१८, ४३४ बलीन्द्र-५१८, ५२० बसु, नगेन्द्रनाथ-४२६ बहुपुत्रिका-५१३, ५१५, ५२१ बहुबाहु-४३२ बहुरूपा-५२१ बहुल-५७१, ५८६, ७२७ बहुला-५६६ बार्नेट-७७६ बाहु-१३ बाहुबली-२८, २९, ४७, ११७, १२१. १२४ बिम्बसार-७३६, ७४२, ७४५, ७६२ ।। बुद्ध-४२६, ४६८ - ५००, ५०२, ५०५, ५०६, ५३२, ५३५, ७३०, ७५६, ७६६, ७६७, ७६९-७८२, ७५३ बुद्धकीर्ति-५०६ बुदघोष-७२०, ७२६ भद्रबल-७५ भद्रबाहु-५२४, ५४५, ५६१, ६१०, ६८९ भद्रमित्रा-३४० भद्रयश-४६६ भद्रा-२१३, २२६, ६२२, ६२६, ६२७, ७१६ भद्रावलि-७५ भरत-२८, २९, ३८,४३, ४५, ६७, ६८, ७३, ७६ - १२२, १२४ - १२७, १३३,१३५,१३६,१३७ भागदत्त-७५ भागफल्गु-७४ भानु-२१, २२७, ३२६, ३४५, ३५४ भानुमित्र-२८५, ६८६ भामर-३४५, ३५४ भारद्वाज-५०४, ५३६, ५४०, ६३७ भार्या-५२१ भावदेव-४८६ भिक्खू-७३६ भिच्छुग-७३६ भीम-३५२, ३५४, ३५६,४२७,४३५ भीरुक-३५४ भुजमा-५२१ भूतदत्ता-६२६ भूतदिन-४५८ भूता-५१७, ५१८ भूतानंद-५२१, ६०४, ६०५ भूरिश्रवा-३५६ भृगु-४७६ भोगवृष्णि-३३०, ४३४ भोजराज-३४८ भौत्य-८ बुटिकर-२६ बुद्धिल-४४८, ४४६ बूलर-७७६ बेहल्ल-६२६ बेहास-६२६ बोरित-७३६ ब्रह्म-४३८, ४३६, ४४४, ४५२, ४५३, ब्रह्मदत्त-२६६, ४३८ - ४५७, ४६३, ४७४ ब्रह्मदत्ता-४८१ ब्रह्मसावरिण-७, ८ ब्रह्मसेरण-२६ ब्रह्मा-१३८ ब्राह्मी-२८, ३०, ४१, ७३, ११७, ११८, ११६, १२४, १२८, ४८१ (भ) भगदत्त-३५६, ४५३ भगवानलाल इन्दरजी, पं०-७७६ भद्र-६३३, ७४१ मंकाई-६२५ मंख-७२१, ७२२, ७२३, ७२५ मंखलि-४६४, ४६५, ५०५, ५८५, ६३६, ७१६, ७२१, ७२२, ७२३, ७२५ Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६२ मंडिक - ६३७ मंडित - ६५, ६६७, ७०१, ७०२ मघवा - २२६ मजूमदार - ७६ε मणिभद्र - ६०८ मरिणशेखर-३१४ मत्स्य - ३१८ मदनवेगा-३४० मदनप्र-५२० मदुक - ६६३, ६६४ मनु- ६, ७, ८, १३६ मनोरमा - २३७ मयालि - ४२६, मरीचि - ११६, मरुदेव - ४, ६, ७ मरुदेवा-६२६ मरुदेवी - ६, १३, १४, ७१, ७२, १३२, १३३, १३६, ६ε१ मरुभूति - ४७८, ४८० मरुया- ६२६ मल्लदिन्न - २७० मल्लराम - ६३७ - मल्लिनाथ - २१८, २४, २५५, २८६, २८७, २८५, २८६ मल्लीकुमारी - २६०, २६२, २६८, २६६, २७३, २८३ मल्ली भगवती - २६०, २६१, २६२, २६६, २६६, २७०, २७१, २७४, २७७, २७८, २५०, २५१, २५२, २८४, २८५, ५४६, ५६६ महसेन- २६ ६२६, ७४० ११७, ५३६ महाकच्छ-४६, ७४, ७५, महाकच्छा-५२१ महाकाल -- ७४६ महाकाली - ६३३ महागिरि - ३१७ महादेवी-२४५ महाद्युति- ३५४ महाद्रुमसेन - ६२६ महानुभाव - ७५ महानेमि - ३५४, ३५५, ३५६, ३६१ महापद्म - २०५, ६३३, ७४१ महापीठ - १३ महाबल - ७५, १७२, २४६, महाभद्र - ६३३ महामू तिल - ६०१ महामरुता - ६२६ महामेघवाहन - खारवेल - ७४३ महारथ-७५ महावीर भगवान् ४२८, ४७५-४७७, ४८७, ४६८, ५००, ५०३,५०५, ५०६, ५०६. ५१२, ५१५, ५१६, ५१८५२१, ५३०, ५५१, ५५७, ५५८, ५६१-५७६, ५७८-५८०, ५८२, ५८३, ५८६, ५०, ५६१, ५६६. ५६६, ६०१, ६०४, ६०६, ६०६. ६१०-६१५, ६१८, ६२, ६३०, ६३४, ६३६, ६३८, ६४०, ६४२, ६४५, ६४६, ६५५, ६५८, ६५६, ६६०, ६६५. ६७०, ६७२, ६७४, ६७५, ६७६, ६७७, ६७८, ६११, ६६२, ६६३, ६६४, ६६५, ७००, ७०२, ७०८-७११, ७१३-७१६, ७२६, ७२८, ७३१, ७३२, ७३४, ७३५, ७३६, ७३७, ७३६ ७४३, ७४५, ७५४-७५८, ७६०-७७१, ७७३-७७७, ७८१-७८४ महाशतक - ६२८, ६७४, ६७५ महाशाल - ६५७ महाशिलाकंटक युद्ध-७४६, ७५४, ७५६, ७६६, ७६७ महासिंहसेन- ६२६ महासुदरी - ४६ महासेन - २०२, २८५, ३५४, ६२६ महासेनकृष्णा - ६३३, ६३४ महीजय - ३५४, ३५६ महीघर - ११, १२, ७४, ४६५ महेन्द्र - २००, ४६५. महेन्द्रकुमार - ७०६ महेन्द्रदत्त - ७५, ३१८ महेन्द्रसिंह - २३० Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६३ मागध-२६ मागधिका-७५२ मातलि-३५५, ३५६, ३५८, ३६१ माद्री-४३२ माधव-४३५ मान-२६ माहेन्द्र-७४ मित्र-७४ मित्रफल्गु-७४ मित्रश्री-७१८ मुकुन्द-५२७ मुण्डक-४३०, ५०४ मुनिक-७८१ मुनिचन्द्र-५८८, ५८६ मुनिसुव्रत-२६८, २९, ३००, ३०७, ३१७, ३६८,४०४,४८२, ७५३ मुष्टिक-३४३ मूल-३१८ मूलदत्ता-४२६ मूलश्री-४२६ मूला-६०७,७०४, ७०५, मृगावती-५४७, ६०७, ६२०, ६२६, ६४४, ७०७,७४२ मेघ-१९३, १९४, ३५४, ५६१, ६१८, ७४० . मेघमाली-४८६,४९१, ४६२ मेषरथ-२३७, २३८ मेघातिथि-३२६ मेतार्य-६७३, ६६५, ६६८ मेर-७४ मेरुतुग-७६६, ७७३ मेरुसारिण-८ मैक्समूलर-७७६ मैथिल-७७६ मैथिली-७७६ मोन्योर विलियम-७ मौर्य-७०० मौर्यपुत्र-६६५, ६९७,७००, ७०१, ७०२ यक्षिणी-३८२ यज्ञ-७४ यज्ञगुप्त-७४ यज्ञदत्त-७४ यज्ञदेव-७४ यज्ञमित्र-७४ यदु-३२६, ४३१, ४३३, ४३४, ४३५, ४३७ यवन-४८३, ४२५ यशःकीति-२६ यशस्कर-२६ यशस्वी-४, ६, ७, ५६० यशोदा-५६४, ५६५ यशोधर-२६ यशोधरा-४६६ यशोमती-२४०, ३१४ यशोमान-६ याज्ञवल्क्य-४७६ युगन्धर-२०२ युगवाहु-३०६ युधाजित-४३२, ४३३, ४३५ युधिष्ठिर-३५४, ३५६, ४२६ रंभा-५२० रईप्रिया-५२१ रत्तवती-३४० रत्नप्रभविजय-७०१, ७०२ रत्नमाला-२३७ रलवती-४६,४५०, ४५४ रत्नसंचया-२३७ रत्नावली-४७६ रथनेमि-३७८, ३७६, ३८०, ३८३, ३८४, ४३४ रथमर्दन-४०७ रथमूसल संग्राम-७४६, ७५०, ७५१, ७५४, ७५५, ७५६, ७६७ Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६४ रोहक-६२८, ६२६ रोहिणी-४६, ३३७, ३३६, ३४०, ३५२, ३८१, ३८२, ३८५, ४१३, ५२१, ५२२, ५४६ रोहिणेय-७६२ रोच्य-८ रोच्यदेव सावरिण-७ रविसेन-४८० रसदेवी-५१६ रसवणिक-३३१, ३३३ राजशेखर-५१३ राजीमती-३६६ - ३७३, ३७४-३८४, ४३४, ४६६ राजेन्द्रसूरि-५२६ राधाकुमुद मुखर्जी-७५६, ७६६, ७७३ राधाकृष्णन्-४२६, ५०३ राम-३००, ३४६. रामकृष्णा -६३३ रामधारी सिंह-१३५ रामरक्खिया-५२२ रामा-५२२ रामादेवी-२०५ राय चौधरी, एच० सी०-४३०, ७६६, ७७३ राष्ट्र-२६ राष्ट्रकूट-५१५ राहुल सांकृत्यायन-७८४ रुक्मनाभ-३६१ रुक्मिणी-३६५, ३६६, ३६७, ३६८, ३८२, लक्ष्मण-३०० लक्ष्मी-५१६ लक्ष्मीवल्लभ-४८० ललितश्री-३४० लष्टदंत-६२६ लाप्रोत्से-५३२ लीलावती-४६५ लेव-६६६ लोकेश-१३८ लोहार्गला-५६५ लोहित्याचार्य-५२६, ५२७ रुक्मी -३५२, ३५६ रुधिर-३३७, ३३८, ३३६, ३५६ रुद्रसारिण-७,८ रूपकान्ता-५२१ रूपकावती-५२१ रूपनाथ-७८२ रूपप्रभा-५२१ रूपवती-५२१ रूपा-५२१ रूपासा-५२१ रुप्पी-२६८, २६९ रेवती-६४३, ६४४, ६७४, ६७५, ६६५ रेभ्य-३२६ रवत-७, ८, ४३५ रोह-६३७ वच-७५ ववदन्त-२११ वजनाभ-१३, २१७, ४७८ वजवाहु-३२६ वनसेन-१३ - वज्रायुध-२३६, २३७ वटेश्वर-४३० वत्स-२६ वनमाला-४३० वप्रा-३०७ वरदत्त-२६, ३८१, ५२६, ६२५ वरधनु-४३६, ४४२, ४४३, ४४४, ४४८, ४५०, ४५२ वराह-२६ वरिम-३१८ वरुण-७४, ७५१ वरुणा-४८१, ६६८ Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिक्रम -६८६, ७६६ वर्द्धमान-५०३, ५६१, ५६३, ५६४, ५६५, ५६६, ५७१, ६५० विक्रमादित्य मिला-४८१ विक्रान्त-२६ वल्लभ-३३५, ३३६ विजय-२६, ७४, ३०७, ३०८,४२०, ४२१, ... ४६६,५८५, ७२६ वशिष्ट-४६५ विजयगुप्त-७४ वसंतकुमार चट्टोपाध्याय-५५६ विजयन्त-२६ वसु-२६, २४२, ३१८, ३१६, ३२०, ३२१, विजयमित्र-७४ ३२२, ३२३, ३२४, ३२५, ३२६, ३२७, ३२८, ३२६, ४३६, ५२२, विजयश्री-७४ ६६८, ७१८ विजयश्रुति-७५ वसुगिरी-३१७ विजयसेन-१७५, ३५४ वसुदत्ता-५२२ विजयसेना-३४० . वसुदेव-७४, ३३०-३४२, ३५१, ३५२, विजयादेवी-१४७, १४८, ५६३, ६०७, ३६१, ३६१, ३६२, ३६४, ४१३, ६६७,७०० ४२६,४३३-४३८ विजयेन्द्र सूरि-५५७, ६४८, ७७० वसुन्धर-७४ विदेशी मुनि-५२७ वसुन्धरा-५२२ विदेहदिन्ना-५६० वसुन्धरी-४८१ विद्युन्मती-५८७ वसुभूति-६६६ विनयनंदन-१७७ वसुमती-५२१, ७०२, ७०३, ७०४ विनमि-४६, ७५ वसुमित्र-७४ विनय विजय-४६५ वसुमित्रा-५२२ विपुलवाहन-१६८ वसुवर्मा-२६ विपृथु-४३२ वसुसेन-७४ विमल-२६ वस्सकार ७५३, ७६६, ७६७ विमलचन्द्र-१७२, ७१६ वस्सपालक-६०२ विमलनाथ-२२१, २२३, २२४ वातरशना-१३३ विमलवाहन-४, ५, ६, ७, १४२, २२७, वादिराज-४८१,४८६, ४६० ६८५ वामस-४७५ विमलसूरि-५५५ वामा-४८१, ४८३, ४६४ विमला-५२१ वाय शर्मा-७४ विमेलक-५६४ वारनेट प्रो०-४२६ वारिषेण-४२६, ४६६, ६२६ विविधकर-२६ वारुणि-४६६, ६६६ विशाखभूति-५३६ वाल्थेर शूविंग-६४७ विशाखा-४४६, ४५०, ४५४ वासुदेवशरण अग्रवाल-७२६, ७७४ विशाल-३१८ वासुपूज्य-२१७, २१८, २१९, २२०, ४८०, विशाला शिविका-४६० ५६५ विश्व-२६ Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६६ प्रतिनी-४३४ शंख-२६,३१३,३१४, ३१८,५६७,५६८, शक-६८६, ७७४ शकुनि-३५२, ३५६ शक्र-६६० शतक-६१६ शतानीक-६०७, ६२०, ७०२,७०३, ७०७, ७४२ विश्वकर्मा-२६ विश्वगर्भ-४३५ विश्वनन्दी-५४० विश्वभूति-५३६, ५४० विश्वकसेन-८ विश्वसेन-२६, २३६, ४८१ विश्वेश्वरनाथ रेऊ-७७४ विष्णु-२११, ४२५ विहल्लकुमार-७४१, ७४२, ७४६, ७४७, ७५२, ७५३ वी. ए. स्मिथ-७४२, ७५६, ७७६ वीतशोक-४८० वीर-२६, ३२६, ४३४ वीरक-३१५, ३१६ वीरकृष्णा-६३४ वृजिनिवान-४३७ वृषभयति-७७५ वृषभदेव-२०, १३६, १३८ वृषभसेन-७४ वृष्णि -४३२, ४३५ वृहद्ध्वज-३५४ वृहस्पति-३२६ वेद-७३६ वेदव्यास-४३१, ४३३, ४७० वेहल्ल-६३४ वेहास-६३२ वैजयन्त-१९३ वैदर्भीकुमार-४२६ वैदेहीपुत्र-७७२ वैर-७५ वैराट-७८२ वरोट्या-४६२ वैवस्वत-७,८ वैशम्पायन-३२६ वैश्रवण-२५२, ३८३, ४५२ व्यक्त-६९५, ६६६ व्याघ्रसिंह-२४३ शत्रुदमन-७४ शत्रुसेन-३८४ शम्बर-४६३ शम्बल-५८४ शल्य-३५६ शाण्डिल्यायन-४५७ शान्तिचन्द्र गणि-६८८ शांतिनाथ-२३६, २३६, २४२ शांतिमती-४६५ शाम्ब-३४७, ३५१, ३६२, ३७५, ४०७, ४०८, ४०६, ४१०, ४२६ शाल-६५७ शालिभद्र-६२२ शालिहोत्र-६२६ शिव-१३५, ६५४, ७१६ शिवभद्रकुमार-६५४ शिव राजर्षि-६५४, ६५५ शिवादेवी-३६२, ३७२, ३८१, ३८२, ५२२, ७२१, ७४२ शिशुपाल-३५२, ३५७ शीतलनाथ-२०८, २११, ३१५ शीलांक-२१८, २३८, ३५५, ४८६, ६१२, शुभा-५२० शुक-४२३, ४२४ शुक्र-५०६, ५२४ शुद्धदंत-६२६ Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरदत्त-४८, ४९ सात्यकि-३५४, ३५६ साधुसेन-७४ सामली-३४० सारणकुमार-३५७, ३८४, ४१०, ४२५ सारथि-४१७ सारिण-७, ८ सिंह-२६, ६२६ सिंहभद्र-७४२ सिंहरथ-२२७, ३३२, ३३३ सिंहसेन-२२४, ६२६ सिंहावह-२४२ सिकन्दर-४६६ सिद्धसेन-५२४ सिद्धार्थ-३०७, ४०८, ४१५, ४१७, ४१६ ५३६, ५४३, ५४४, ५४६, ५५० ५५५,५५८, ५६०, ५६४, ५७१ ५७३, ५७६, ५८०, ५८५, ५८६ ५६४,५६६,५६७, ६००,६०१ ६०६, ७४२, ७८२ सिद्धार्था-१७२ सीता-३००, ७७६ सीमंकर-६, ७ सीमंधर-६,७ मीहा-६४२, ६४३ सुकच्छ-७५ सुकरात-५३३ सुकाली-६३३ मुकृष्णा-६३३ सुखर-३० सुग्रीव-२०५, २०६ सुगुप्त-६०६, ६०७ सुघोष-२६, ३४५ सुघोषा-५२१ सुजाता-६२६ सुजाति-३० सुजेष्ठा-७४२ सुदर्शन-२२६. २४५, २४६, ३०७, ४२३ . ५१६,५१७,६६८ सुदर्शना-१७५, ४७८, ५२१, ६४६, सुधर्मा-२६, ४३२, ५६२, ६८६, ६६५ ६६७, ७६३, ७६७ सुनक्षत्र-५४६, ६२८, ६४१ सुनन्द-२६, ५०१, ५८५ सुनन्दा-२८, २१८, ४६२, ४६३ सुनाम-३० सुनेमि-३५४ सुन्दरी-२८, ३०, ११७, ११८, ११६, १२० सुपार्श्व-५६८ सुपार्श्वक-४३२ सुपार्श्वनाथ-१६६ सुप्रतिष्ठ-५०६, ६२२ सुप्रभ-२२६, ३०८ सुबाहु-१३, ७४, ३२६, ४३२ ८, ४५२ सुभगा-५२१ सुभद्रा-४०६, ५१३, ५१४, ६२३, ६२६ ६३३, ७२४, ७२५, ७४४ सुभानु-३२६ सुमंगला-२८, २६, १६४, २१७ सुमति-६, ७, ३० सुमतिनाथ-१७५, १६४ सुमना-६२६ सुमनोभद्र-६२२ सुमरिया-६२६ मुमागध-६०१ सुमित्र-१४६, २४०, २८५, २६८ सुमुख-४२५, ६८५, ७६१ सुमुह-३१५ सुयश-२६ सुयशा-२२४ सुरदत्त-७४ सुरश्रेष्ठ-२६८ सुरादेव-६२४ शुद्धोदन-५३५, ७७६ शुभदत्त-४६४, ४६५, ५०१, ५२६ शुभमति-३० Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शूर-४३३, ४३५, ४३७, ४३८ शूलपाणि-५७५ शैलक-४२३, ४२५ जलविचारी-२६ शैलोदायी-६६५ श्यामा-२२१, ६२४ श्यामाक-६११ श्री-५१६ श्रीकान्ता-४४७, ४५४ श्रीदेवी-५१६, ५१८ श्रीनेत्र पाण्डे-७७३ श्रेणिक-७४०, ७५७ प्रेयांस-४८ संगम-२६, ५४७, ५९६, ६००, ६०१ सत्यनेमि-३५४, ४२६, ४३४ सत्यभामा-३४३, ३४५, ३६६, ३६७, ३६८ ३६६, ४३४ सत्ययश-७४ सत्यवान-७४ सत्वत-४३५ सत्यवेद-७४ सत्यश्री-६८५ सद्दालपुत्र-६२८, ७३६ सनतकुमार-२३०, २३१, २३२, २३३ ४५६, ४६२, ४६३, ५३६ ५४० समिय-७७२ समयसुन्दर-७११ समरकेतु-३१३ समरवीर-५६२ समरसिंह-४६६ समुद्र-४२५ समुद्रविजय-२२६, ३१५, ३३०, ३३२, ३३७ ३३६, ३४२, ३४६, ३५२, ३५४ ३५६, ३६१, ३६२, ३६६, ३७२ ३७४, ४२६, ४३३, ४३४ समुद्रसूरि-५२७, ५२६, ५३१ सरक्ख-७३६ सरस्वती-५२१ सर्वगुप्त-७४ सर्वदेव-७४ सर्वप्रिय-७४ सर्वसह-७४ सर्वानुभूति-५४६, ६४१, ६४६ सहदेव-३४४, ३५४, ३५६, ३६१, ४२७ सहसराम-७८२ सहस्रद-४३१ सहस्रायुध-२३७ सहस्रारदेव-३७८ सागर-२६, ३३०, ४२५, ४३४ संजती-३१८ संजय-३०, ३५४ संजय वेल ट्ठिपुत्त-७७१, ७७३ संदीपन-३४७ संप्रति-७४२ संभवनाथ-१६८, १६६, १७२ संभूत-४५८, ४६१, ४६२ संमति-४६५ संवर-७४. २४२ सकलकीति-४६८ सक्क-७३६ सगर-३२४, ४२६ सच्च-४५८ सच्चक-७३२ सती-५२२ सतेरा-५२० सत्यदेव-७४ सत्यरक्षिता-३४० Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरादेवी-५१६ सुराष्ट्र-२६ सुरूपा-५२१ सुरेन्द्र -१७० . सुलक्षण-२६ सुलक्षणा-२०२ सोमिल-३६४, ३६६, ३६८, ५०६ - ५१३. ६५८ - ६६०, ६६५ सोयामरिण-५२० सौधर्मदेव-५४० सौरी-३२६, ४३४ स्कन्दक-६३०, ६३१ स्टेनकोनो-६४७, ६४८ स्तिमित-३३०, ४२५, ४३४ सस्ताघ-२०८ स्थावर-५३६, ५४० स्रष्टा-१३६ स्वफल्क-४३२, ४३५ स्वयंप्रभ सूरि-५२८ स्वयंबुद्ध-३०६ स्वयंभू–७, १३६, २२२, २२३ स्वर्गबाहु-४७८ - ४८१ स्वातिदत्त-६०८ स्वायंभुव-७, ८, १४, ७४, १३२ स्वारोचिष्-७,८ सुलसा-३८४, ३८६, ३८८, ३८६, ६१६, ६६५ सुवर्मा-२६ सुवसु-३२६ सुविधि-११ सुविधिनाथ-२०५, २०७, २०८, ५४८ सुविशाल-७५ सुव्रता-२२७, ४२७, ५१४, ५१५, ५२१. ५२२ सुसीमा-१६६ सुसुमार-२६ सुषेण-२६ सुसेना-१६८ सुश्रुत-६४५ सुस्सरा-५२१ सुस्थितदेव-३४५, ४०२, ४०३, ४०५ सुहस्ती-६४२, ६४३. सूर-२६ सूरप्रभा-५२२ सूरिकान्त-५२८ सूरिकान्ता-५२८ सूर्यदेव-५२४ सेन-२६ सेनादेवी-१६८ सेयभिक्खु-७३६ सेयवड़-७३६ सोम-४६५, ५१० सोमदत्त-७४ सोमदेव-१९७ सोमप्रभ-४७, ५१, ५५ सोमश्री-३४०, ३६४ सोमा-३६४, ३६६, ५१५, ५८६ हंस-३५२, ३५३ हदुसरक्ख-७३६ हयसेन-४८१ हरि-३१६, ३१७, ५४७, ५४८ हरिणगमेषी-३४१, ३८८, ३८६, ३६४, ५४३, ५४४, ५४५, ५४६ हरिदत्त-५२६, ५२७ हरिशेखर-४६६ हरिश्चन्द्र-४८० हरिषेण-२६, ३०६, ३१०, ३१८ हरिसन-४२६ हर्मन जैकोबी-४७५, ४६८, ४६६, ५०२, ५५०, ५५६, ६४७, ६४८, ७१३, - ७६५ - ७६८, ७८४ हर्यश्व-४३५ Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७० हलघर-७४, ३५२, ४१९ हलायुध-४१८ हल्ल-६२६, ६३४, ७४१, ७४२, ७४६, ७४७, ७५२, ७५३ हस्तिपाल-६७६, ६६०, ६६३ हार्नेल-५५७, ५५८, ५५६, ७३३, ७७० हालाहला-६३५, ६३७, ६३६, ६४१ हिमगिरि-३१७ हिमवन्त-४२५ हिमवान्-३३० हिरण्यगर्म-२१, १३८, १३६ हिरण्यनाभ-३५४, ३५६, ३६१ हीरालाल जैन-७७४ हीरालाल रसिकलाल कापड़िया-६४७ हेमचन्द्र-१२२, २१७, २१८, २२५, ३१६, ४८०, ४६०, ४६३ ५३६, ५५५, ५८६,६१२,६६०, ७००, ७०२, ७०४,७६८ हेमविजय गरिण-४८६ ह्री-५१६, ५१८, ५२१ व नत्सांग-४६६, ७७७ [ख] ग्राम, नगर, प्रान्त, स्थानादि (प्र) (मा) अंग-२६, ४६८, ५२८, ५३५, ५५७, ५८७, आगरा-४३० ६३३, ६४०, ७४२ प्रानन्दपुर-३६२ अंगमन्दिर चैत्य-६३७ प्रानर्त-३८४ अंडवइल्ला अटकप्रदेश-१२६ आभीर-४६८ प्रच्छ-६४० आमलकप्पा-५०२ अजय नदी-५६२ ग्रामलकल्पा-५१६, ७१८ अनुराधापुर-५२७ प्राम्लकल्पा-५३५ अन्तरवेदी प्रदेश-६१७ आम्रशाल वन-५१०, ७१८ अफगानिस्तान-४६६ आलम्भिया नगरी-५६५, ६०४, ६२४, अंबाध-६४० ६२६, ६३७, ६६४ अमरकंका नगरी-४०१, ४०३, ४०५, ५४७ आवर्त-५६१ अयोध्यापुरी-५५, १७३, १६३, २२४, ४८६ पाश्रमपद उद्यान-४६०, ४६३, ४६५ अरक्खुरी नगरी-५२२ प्रासाम-७७६ अरिजयपुर-३३८ अरिष्टपुर-२०६, ३३७, ३४० इन्द्रपुर-३१८ अरिष्टा नगरी-२२४ इन्द्रप्रस्थ नगर-४०१ अवन्ति, अवन्ती-४६८, ५२८, ५३५, ७७४, इलावर्द्धन नगर-३१८ ७७७,७८१ अष्टापद-१२६, १३०, १६४, १६५ ईरान-५३३ अस्थिग्राम-५७५, ५७६, ५६६, ६६४ अहिच्छत्र-४६१ उज्जयंत पर्वत-३७७, ३८०, ४२७, ४२८ Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७१ उज्जन-उज्जयिनी-५२७, ५२६, ७४२, कालिंजर पर्वत-४५८, ४७२ ७६२, ७६३, ७६८ काशी-२६६, ४३८, ४३६, ४५८, ४५६, ४६८, ५२८, ५३५, ६४०, ६६०, उद्दण्डपुर-६३७ ७४७, ७५० उन्नाग-५६६ काश्मीर-४६८ उत्तर कुरु-३७६ कियारिशी-४६९ उत्तर वाचाला-५८० कीरप्रदेश-६१७ उत्तरी कोशल-५३५ कुरिणम-३१८ उत्तरी विहार-७८४ कुणाला-२६८ कुण्डग्राम-२६१, ५६७, ६०१ ऋजु बालुका नदी-६११, ६१२ कुण्डनपुर-५५६ कुण्डपुर-५४४, ५५७, ५५८ (मो) कुण्डिणी-३१८ प्रोस्लो-६४८ कुण्डियायन-६३७ कुमारक-सनिवेश-५८८, ५८६ कुम्भकारापण-६३७ कंडाग सन्निवेश-५६५ करु-२६,४६८ कच्छ-४६, ७४, ४६८ कुरुदेश-२७० कदम्ब वन-४०८ कुमारग्राम-५७०, ६०६ कदली समागम-५९३ कुशस्थल नगर-४८३, ४८४,४८५ कपिलवस्तु-५०१, ५३५ कुशीनारा-५३५ कम्पिलपुर-२२१, २७२, ४६५, ५२२, कसट्ट-३८४ ६२८, ६६१, ६६२ कूर्म ग्राम-५६६ कम्बोज-३५४ कुसुमपुर-३४३ कम्मशाला-५६४ कूविय सन्निवेश-५६३ कयंगला-५६०, ६३०, १३१ केरल-३५४ कर्नाटक-४६८, ६१७ कोंकण-४६८, ५२८ कलंबुका-५६१ कोटिग्राम-५५८ कलिंग-२६, ३८४, ४८३, ४६८, ५०७, कोटिवर्ष-६७० ५२८, ५३५, ७४३, ७८३ कोपकटक-४६०, ४६६ काकन्दी नगरी-२०५, ६२७, ६२८, ६३३ कोपारि प्रदेश-४६६ कादम्बरी गुफा-४०८, ४०६ कोल्य गणराज्य-५३५ काम महावन चैत्य-६३७ कोल्लयर-३१८ काम्पिल्यनगर-४३८, ४३६,४१, ४४२, कोल्लाग सन्निवेश-५५७, ५७१, ५७३, ४४८ ४५१, ४५३, ४५५, ४५६, ५८६, ६६८, ७२७, ७३२ । ४६५, ४७० कोष्ठक उद्यान-६३४, ६३६, ६५०, ७१५ कालाय सनिवेश-५८७ कोष्ठक ग्राम-४२, ४४३ Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७२ कोष्ठक चैत्य-६२४, ६३६, ६४२, ७१७ कोशल-३६१, ४६८, ५२८, ५३५, ६१७, ६४०, ६६०, ६७०, ६६०, ७४७, ७५० चक्रपुर-२४३ चन्द्रपुरी-२०२ चन्द्रावतरण-६२०, ६३७ चमरचञ्चा -६०५ चम्पानगरी-७०,२१७, २६७, २९८,३१६, ४०४, ४३८,४५३, ५४७, ५८७, ६०८, ६२३. ६३२, ६३३, ६३७, ६५७, ६५८, ६६४,७०२, ७०३, ७१७, ७२४, ७४१, ७४४, ७४५, . ७४७, ७५२, ७५४-७५७, ७५९ चरग-७३६ चीन-५३२, ७७६ चुल्ल हिमवन्त-६६६ चेदि देश-३२०, ३२५ चोरपल्ली-४४७ . चोराक सन्निवेश-५८६, ५६० चोराचौरी-५८९ कोशला-६६८ कोशाम्बी-१९६,३०७,३१५, ४४८, ४४६, ४५०, ५२२, ६०४, ६०६, ६०७, ६२०, ६२२, ६२६, ६२७, ६३२, ६४६, ७०२-७०४,७०७ कोशाम्बी वन-४०७, ४१४ कोत्स-६४० क्षत्रियकुण्डग्राम-५३६, ५५६-५५८, ५६८, ५६६, ६१६ क्षितिप्रतिष्ठनगर-१०, ४९५ . क्षीरवणं वन-४७६ क्षेमपुरी-१६८, ५६५ (ग) गंगा नदी-३८४, ४०५, ४४१, ५८४, ५८५, ६५४, ६६२, ६८७, ७४६, ७८४ गंडकी नदी-५६८ गजपुर-३१८ गन्धमादन पर्वत-३४५ गया-७७६ गान्धार-३५३, ५०७ ग्रामक सनिवेश-५९४ गिरी-५२७ गुजरात-५४८, ६१७ गुरगशील उद्यान, चैत्य, वन-५०८, ५०६, ५१३, ५१६, ६१७, ६२२, ६३२, ६५६, ६६३, ६६४, ६७१, ६७३, ६७४, ६७६, ६६६-६६६ गुल्मखेट नगर-४६१ गोकुल-३४२, ३४७, ३५७ गोरखपुर-२०, ५८६, ७८४ गोल्ल प्रदेश-६१७ . . गोष्ठ-३७८ गौड़-६१७ गोभूमि-५९६ छत्र पलाश-६३० छत्रा नगरी-५३८ छम्मारिण-६०८ बनिय प्राम-६०८, ६१२ अभियाग्राम-६११ जम्बूद्वीप-२३०, ४०१, ४०४, ५१६, ५५६, ६५५, ६७५, ६७६ जम्बूसंड-४३०, ६२५ जयपुर-४३०, ६२५ जीर्ण उद्यान-६११ जेत्तवन-७७१ ज्ञातृखण्ड उद्यान-५६६ ढबक प्रदेश-६१७ तंबाय सनिवेश-५६५ Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताइय देश- ६१७ ताम्रलिप्त नगर-४६६ तिंदुक उद्यान - ६५० तु गिक सन्निवेश- ६१८ तुं गिका-- ६३२ तु गिया गिरि - ४१८ तुरंगिया नगरी - ७३६ तेलंग- ५१८ तोसलि गाँव- ६०१ (x) दक्षिण बिहार - ७८४ दशार्णपुर-६५८ दूति पलाश उद्यान, चैत्य - ६५८, ६६२, .. ६६८, ६६६ देवदह प्रदेश- ७७६ द्रविड़ - ३५४, ४६८ हक़ भूमि-५३६ द्वारवती नगरी-३६५, ३६७ द्वारिका - २१६, २२२, ३४५-३४७, ३५०, ३५२, ३५३, ३६२/ ३६३, ३६९, ३७१. ३८४-३८६, ३८६. ३६०, ३६४, ३६५, ३६८, ४००, ४०६ - ४१४, ४१७, ४१६, ४२०, ४२२, ४२५, ४२६, ४३० (घ) धातकी खण्ड - २२०, ४०१, ४०२, ४०४ धान्यपुर - ३६६ (न) नन्दन उद्यान - ४२०, ४२५ नन्दपाटक- ५८७ नन्दिग्राम - ६०६ नन्दीपुर - ६७१ नयसार ग्राम - ५३६, ५४० नलिन गुल्म - २११, ६३३, ७४१ नांगला - ५६१ नागपुर -५२१ नालन्दा - ५८५, ५८६, ६६६, ६६७, ६६८, ६७३, ६६४, ७२६, ७२७, ७३२ नीलाशोक उद्यान - ४२४ नेपाल - ४६८, ५०५. पंजाब - २७१ पटना- ७८४ (प) पत्तकालय - ५८६ पद्मगुल्म - ६३३, ७४१ पनव-पशिया- १२६ पपुहर- ७८४ पलाशनगर- ५०६ पल्लव क्षेत्र - ४६८ पांचाल जनपद - २७१, २७२, २७३, २७४, ४३८, ४७०, ४७९, ४६८, ५०७, ५२८, ६६१, ६७१ पाटलिण्ड-२०० पाटलिपुत्र- ७४४, ७७४ पाठ- ६४० पालक गांव- ६०७ पावापुरी - ५३५, ६१२, ६७६, ७८४ पिप्पलिवन - ५३५ पुण्डरीक पर्वत - ४२५ पुण्डरी किणी - २३७ पुराण पुर- ४७ε पुरिमताल नगर - ६१, ४६३, ५६६ पुलहाश्रम - १३३ पुष्कर द्वीप - २११, २१७ ८७३ पुष्कलावती विजय - १३, १७५, २०५ पूर्णकलश ग्राम - ५६३ पूर्णभद्र उद्यान - ४०४, ६२३, ६३२, ६३३, ६५७, ७१७, ७४५, ७५५, ७५७ पृष्ठ चम्पा - ५६०, ६५७, ६६४ पैदाल उद्यान- ५६६ पोतनपुर - २१२, ७६० पोलास चैत्य - ५६६ Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७४ पोलासपुर - ३८७, ६२८ पौण्ड - ४६८ प्रतिष्ठानपुर-५३६ (फ) ( बं) बंग - ४६८, ५२८, ५३५, ६४० बर्बर - ३५४ फिलिस्तीन - ५३३ बल्ल नगर-४६६ . बहली देश - १२१, १२६ बहुशाल - ५५७, बालुका- ६०१ बिहार - ४६६ ब्रह्मस्थल - १६७ ब्राह्मणकुण्ड ग्राम - ५४२, ५४४, ५५७, ५५८, ५८७, ६१६, ६३२ ५६५, ६१६, ६३२ (भ) भद्दरणा सन्निवेश - ५६५ भद्रिका नगरी - ५६५ भद्दिया नगरी - ६६४ भद्दिलपुर - २०८, २२७, ३१८, ३८४, ३८६, ३८८, ३८६ भद्दिला नगरी - ५६३ भरत क्षेत्र ४३, ४४, ७६ ७७, ८१, ८२. ८४, ८५, ६०, ६१, ६३, ६५, ६७, £5, ६६, १०३, १०५, १०७, १०६, २३०, २३१, ४०१, ४०२, ४०४, ५३२, ६७६, ६८२, ६८३, ६८५-६८६ भारत, भारतवर्ष - ४२, ४३, ४४, ११३. १२६, १३३, १३६-१३८, २११, २१७, ४०७, ४२४, ४२८, ४५४, ४५५, ४७४, ४८१, ५३२, ५३३, ५५६, ६७६, ६८५, ७५६, ७७५, ७७७, ७८३ भोगपुर-६०६ (म) मंगलावती - २०२, २१७, २३६ मंडि कुक्षि चैत्य - ६३७ मंदिरपुर- २४० मगध - ३६१, ३६६, ४६८, ५२८, ५३५, ५५६, ५५७, ५६५, ६२८, ६४०, ६५६, ६६३, ६७१, ६७४, ६६६, ७३६, ७४४, ७७८ मगधपुर-४५० मणिभद्र चैत्य - ६७३ मत्तकुंज उद्यान - ४६६ मथुरा - ३२६, ३३३, ३४०-३४४, ३४६, ३६१, ४०६, ४१३, ४१५, ४२६, ५२२, ६७१ मध्य एशिया - ४६६ मध्यम पावा - ६०६, ६१२, ६१६, ६१७ मनोरम उद्यान - ७६० मयंग नदी - ४५८ मरहट्ट देश - ६१७ मरुदेश- ६१७ मलय देश- ५६३, ६४० मलभ गाँव - ६०१ मल्ल गरगराज्य - ५३५, ६६०, ७४७ महापुरी नगरी - २२१ महाराष्ट्र - ५२८, ६१७ महा विदेह - १० महासेन वन- ६१६ मागध तीर्थ - ५०, ८१, ८२, ४०२ मान भूमि, ४६६ मालव - ४६८, ६१७, ६४० मालुक कच्छ-- ६४२ माल्यवान् पर्वत- ३४५ माहेश्वरी नगरी - ३१८ मिथिला- २५६, २६२, २६६-२७२, २७४ २७७, २८२, २५४, २८६, ३०७, ३०६, ३१८, ३६७, ४६६, ६०४, ६२७, ६३३, ६३४, ६४६, ६७१, ६७३, ६६४, ६६८ Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुजफ्फर नगर - ५५८ मूका नगरी - ११६ मृगवन- ७५८ मृत्तिकावती नगरी - ३४० मेढिय ग्राम - ६०६, ६०८, ६४२, ६४३, ६४६ मेवाड़ - ४६८ मोका नगरी - ६५६ मोराक सन्निवेश- ५७३, ५७६, ५८० मोरीय गरण - ५३५ मोसलि ग्राम-६०१ मोहन जोदड़ो - १३५ मौजिदेश-६ - ६४० मौर्य राज्य - ७६८ (घ) यमुना नदी - ३४२, ३८४ यूनान - १२६, ५३३ (र) रत्नपुर- २२७ रथनेउर -४६ रांची-४६६ राजगृह - २६८, २६६, ३४३, ३४५, ४५०४५२, ४६५, ५०१, ५०५, ५०८, ५०६, ५१३, ५१६,५१६, ५२२, ५८५, ५८६, ५६४, ५६६, ६०४, ६१७, ६१६, ६२२. ६२३, ६२५, ६२६, ६२८, ६३०, ६३२, ६३७, ६५६, ६५७, ६६२, ६६४, ६६५, ६७१, ६७३-६७६, ६१४, ६६७, ६८,७१८, ७२६, २७, ७३६, ७४०, ७४४, ७६०-७६३, ७७२, ७८४ राजपुर- २४६ राढदेश- ५६२ रूप्यकूला नदी - ५८० रेवत, रैवताचल- ३४५, ३६६, ३८०, ३८३, रैवतक पर्वत - ३८०, ४१० (ल) लंका - ५२७, ७७६ लवरण समुद्र - ८१, ८६,८८, १००, १०५, १०६, २५१, ३६३, ४०२, ४०५, ४०६, ६६६ वज्जिगरण - ७४२ वज्जी देश- ५५८ लवरण सागर -४०३ लवणोदधि--४०३ लाट देश - ६१७, ६४० लाढ देश- ५६२, ५६६ लिच्छवी गणराज्य - ५०७, ५३५, ७४७ ८७५ (2) वज्र - ६४० वज्र भूमि - ५६२ वत्स - ४६८, ५३५, ६२०, ६३२, ६४०, ६६८, ७४२ वनियां वसाढ - ५५८ वर्द्धमान पर - २२५/ वल्लभी - ७६६ वसन्तपुर- ११, ४४७, ५६५ - वारणवासी - ३१८ वारिणयगांवम } ५६८, ६२२, ६२४, ६२८, ६३१, ६३२, ६५६, ६५८, ६६०, ६६२, ६६८, ६६४ वाराणसी - १६६, ४५२, ४५३, ४५८, ४५६, ४:१७, ४८१, ४८५, ४६०, ४६१, ४६३, ५०२, ५१०, ५१३, ५२१, ५२२, ६०४ वासुकुड-५५८ वाहीक प्रदेश- ७३९ विजयपुर - १६५ विदर्भ ४६८, ५०७, ६१७ विदेह - २६, ४६६, ५५६, ५५७, ६१६, ६३३, ६५६, ६५८, ६७१, ६७३, ६७४ विनीता - १६, ३४, ४५, ७७-८०. १०२, १०३, १०५ - ११०, १४७, १४६. १५५, १५६ Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७६ विन्द्यपर्वत - ३४४ विपुलाचल - ६३१, ६३२ विभेल सन्निवेश- ५१५ वेणुवन - ७७२ वेत्रवती नदी - ४५८ वेनातट-७६२ वीतभय नगरी - ६२३, ६४७, ७४२, ७५७, संभुत्तर - ६४० ७५८, ७५६, ७६४ समरकन्द - ४εε वीतशोका नगरी - २५१, २५३ समरोद्यान - ६०४ सम्मेद (त) शिखर - २०७, २३३, २४४, २४८, ३०६, ५०२ वैताढ्य गिरि-८५-८६, १७, १००, ३३७, सरयू नदी - ५०६ ३५१. ३६१, ६८६, ६८७ वैभार गिरि- ६२३, ६७५ वैशाली - ५०७, ५३५, ५५६, ५५७, ५५८, ५५६, ५६०, ५६४, ५६७, ५६८, ६०४, ६२०, ६२७, ६२८, ६३४, ६३७, ६६२, ६६३, ६६६, ६७०, ६६४, ७४२, ७४६, ७४७, ७४६, ७५०, ७५१ ७५२, ७५३, ७५४, ७६६, ७६७ व्रज-३४२ व्रजगांव - ६०२, ६०४ (श) शंखवन उद्यान - ६२४ शक राज्य- ७६६ शकटमुख उद्यान - ६१, ७२, ५६६ शुक्तिमती ( नदी. नगरी ) - ३२५, ३२६ शत्रु जय - ४२७ शाक्य, शाक क्षेत्र - ४६८, ५००, ५०३, ५०५, ७८४ शाल कोष्ठक चैत्य - ६४२, ६४३ शालिग्राम- १५८, १६२ शालि शीर्ष - ५६४, ५६५ शिवपुरी - ४६१ शुभ्रभूमि - ५१२, ५६६ शैलकपुर - ४२३, ४२४ शैलराज रंवत - ३४५ शौर्यपुर, सौरिपुर- ३२, ३३२, ३४०, ३४४, ३४६, ३६१, ४३०, ६७१ श्रावस्ती, सावत्थी - १७०, ५०८, ५०६, श्वेतपुर - २०६ श्वेताम्बिका - ५२८, ५३०, ५८४, ६०४ ५२२, ५२८, ५०, ५६१, ५६८, ६०४, ६३४, ६३७, ६३६, ६४०, ६४२, ६४६, ६५०. ६५४, ६६०, ६६४, ७२५, ७३४. (2.) सरवरण- ७१६, ७२५ सरस्वती - ३५०, ३६२ सर्वार्थ सिद्ध-- १३, २३६, २४२ सलिलावती - २४ε सहस्राम्र उद्यान - १५५, १५६, ३७७, ३८०, ३६४, ३६५, ४२७, ६२७, ६५४, ६५५, ६६१ साकेत - १५५, ६६०, ६७० साकेतपुर–१७३, २६१, ५२२, ६७०, ६७१ साकेता- ४८० सानुलट्ठिय सन्निवेश- ५६८ सिंहपुर - ३३२ सिंहपुरी नगरी - २११ सिंहल - ८७ सिद्धार्थपुर - २१२, ५६६, ५६७, ६०२ सिनी पल्ली - ३५०, ३६२ सिन्धु - ८४-८८, ६६, ३५३, ५२८, ६१७, ६८७, ७५७ सिलिन्ध सन्निवेश- ७२१ सीलोन-७७६ सुगाम - ३३६ सुच्छेत्ता ग्राम - ६०१, ६०७ सुदर्शनपुर-३० सुन्सुमार - ६०४-६०६ सुमंगल ६०७ सुमंदिरपुर- २३७ सुमेरु पर्वत - ४७ Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१७ स्याम-७७६ स्वर्ण खल-५८६ स्वर्ण भूमि-१२६ सुयोग-६०१ सुरपुर नगर-४६५ सुरभिपुर-५८४ सुवर्ण कूला नदी-५८० सुसीमा नगरी-२०८, २४५ सूरसेन-५२८, ६७१ सेयविया नगरी-५८१ सोझ-३१८ सौगन्धिका नगरी-४२३ सौमनस नगर-२२८ सौमनस पर्वत-३४५ सौराष्ट्र-३४५, ४२५, ४२७, ४६८ सौवीर-३२६, ५२८, ५५७ स्केन्डिनेविया-४२६ स्थूणाक सनिवेश-५८४ हरिवास-३१६ हलेदुग-५६१ हस्तकल्प नगर-४२७ हस्तिनापुर-५३, ५५, २३०, २३६, २४०, २४२, २४५, २६०, २६०, ३१३, ३६१, ४०२,४०६, ४३८, ४५३, ४५६, ४६१, ५२२. ६४६, ६५४, हस्तियाम उद्यान-६६६ हस्तिशीर्ष गाँव-६०१ हेमवन्त गिरि-१३५ [ग सूत्र ग्रन्थादि अंगुत्तरनिकाय --५०३, ५०४ अंतगड़, अन्तकृत दशांगसूत्र-३८४, ३८६, ३६०, ३६३, ४११, ६२५, ६२६, ६३४, ७४० अगस्त्य ऋषि कृत चूरिण-२० अग्निपुराण-१३७ अथर्ववेद-४३० अणुत्तरोववाई.-६२२, ६२६, ६२८, ६४० मभयदेवीया वृत्ति -७३० अभिधान चिन्तामरिण-५५६ अभिधान राजेन्द्र कोश-६१, ६८, ६६, ५२६, ६६०, ७१४, ७३६ अशोक के धर्मलेख-७८२ आचासंग सूत्र-५४१, ५४२, ५४४, ५५५, ५५८, ५६०, ५६१, ५६१, ५६८, ५६६, ५७०, ५७२, ५७३. ५७५. ५६२, ५६३, ६४१, ६४५, ७११ प्राजकल-१३५ आदि पुराण-५, ४२, १३६, ४८०, ५५५ प्राप्टे संस्कृत-इंग्लिश डिक्सनरी-५६६ मावश्यक चूणि-६, ६, २०, २३, २७, ३७. ४६, ४७, ४८, ६८, ७२, ७३, १२२, १२३, १२७, १५०, १९४, २२८. २६८, ३०७, ३१५, ४८२, ५३३, ५६२, ५६३, ५६४, ५६७, ५६८, ५६६, ५७१, ५७२, ५७४-५७६, ५७६, ५८०, ५८४, ५८५-५६६,६०१,६०२, ६०६, ६०८, ६२६, ६२७, ७००, ७१४, ७४४, ७५६. ७६३ अावश्यक नियुक्ति-३, ४, ५, ६, १०, १३, १४, २१, २३, २४, ३१, ३६, ३७, ४५, ४६, ६७, ६६, ७३, प्राकखेय सुत्त-५०६ प्रांगम और त्रिपिटक-७३१ Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७८ ७४, ११४, ११५, ११६, १७३, एन्सियेन्ट जोग्राफी प्रॉफ इण्डिया-५५८ २४१, ३०८, ४२८, ५४७, ५५७, एपिटोम प्रॉफ जैनिज्म-७६८ ५६५, ५७५, ५८३, ६०६, ६१३, एस. बी. ई. वोल्यूम-७६६ ६३४, ६६६, ६६६ प्रावश्यक मलयगिरि वृत्ति-१२, २४, ४८, ऐन्द्र व्याकरण-५६४ ।। ७४, ११७, १२२, १२४, ५३३, (प्रो) ५७५, ५७७, ६०३, ६०६ प्रौपपातिक सूत्र-६१६, ६३२, ६४५, ६६२, ७४५ इंडियन एन्टीक्वेरी-५००, ५०३ इंडियन फिलोसोफी-५०३ इंडियोलोजिकल स्टडीज-७१६ ईशान संहिता-१३२ उत्तर पुराण-४८०, ४८१. ४८३, ४८६, ४८८, ४६१, ५३६ उत्तराध्ययन चूरिंग-६६१ उत्तराध्ययन सूत्र-३१५, ३३०, ३७०, ३७२, ३७७, ३८२, ३८३, ४६३, ५३०, ५४८, ६५०, ६५८, ७०६, ७३५ उपकेश गच्छ-चरितावली-५२५, ५२६ उपकेश गच्छ-पट्टावली-५२७, ५२६ ।। उपासक दशांग सूत्र-६२८, ६५७, ६६६, ६७५, ७३४ उववाई सूत्र-७०, ७४४, ७४५, ७४६ कठोपनिषद्-४७६ कल्पचरिण-७२८ कल्पमूत्र--१३, १४, २०, ४५, ६१, ६७ ४२८, ४६३, ४६४, ५०१, ५२३, ५४३, ५४५, ५५१, ५५६, ५६०, ५६१, ६०६, ६१०, ६६०, ६६१, ६६२, ६६४ कल्प किरणावली-३० कल्पसूत्र मुबोधिनी टीका-३०, ३८, ४१. ४६५, ५७५ कहावली-२१, २३ काप्स इन्स्क्रिप्शन्स इंडिकेशन्स-७७६ कालमाधवीय नागर खण्ड-१३२ कुवळय माळा-६१७ कूर्म पुराण-१३७ केदार पट्टिक-७१९ केम्ब्रिज हिस्ट्री प्रॉफ इण्डिया-५०३ ऋग्वेद-४२६ ऋषिभापित सुत्त-४२६ खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली-५४ (ग) गीता-४७७ गौतम धर्मसूत्र-५३४ एकविंशतिस्थान प्रकरण-५६६ एन एड्वान्स्ड हिस्ट्री ऑफ इंडिया-७६६ ७७४ एनसाइक्लोपीडिया ऑफ इंडिया-७७६ एनसाइक्लोपीडिया प्रॉफ रिलिजन एण्ड एथिक्स-७३३ चउबन्न महापुरिस चरियं-१४६, १६७, १६६, १७२, १९६, १६६, २०२. २१८, २२४, २२७, २२८, २३८, २३६, २४२, २४५, २६२, २९७. Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७६ २६७, ३०७, ३१७, ३३२, ३४०, त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र-५१, ५४, ५६, ३४१. ३४३, ३४८, ३५०, ३५१, ७२. ११७, ११८, १२२, १६२, ३५५, ३६०, ३६६, ३६१-३६३, १६७, १७२, १७४, १६६, २०२, ४०७, ४१०, ४१८, ४१६, ४२६, २०५, २०८, २११-२१३, २१५, ४५८,४६१-४६३, ४६९-४७२. २२१, २२४, २२५, २२८, ३१६, ४७६, ४८८, ४६१, ४६२, ६१२, ३४५, ३४६, ३५१, ३५२, ३५५, ६३२, ६६४, ७०७ ३५६,३६०,३६२, ३६८, ३७०, चन्द्रगुप्त मौर्य एण्ड हिज टाइम्स-७७३ ३७६, ३७८, ३८०, ३८२, ३६३. ४०४-४०७, ४०६,४११,४१८, चातुर्याम-५०० ४१६, ४२६, ४२७, ४६१, ४६२, (छ) ४७०, ४७२, ४७६, ४८०, ४८२, छान्दोग्योपनिषद-४७७ ४८४-४६०, ५३७, ५३८, ५४९, ५५१, ५५४, ५६०, ५६१, ५६३, ५७१, ५७४, ५७६, ५८५, ५८६, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति-३, ७, ६, १८, १९, ४१, ५८६,५६४, ६०८, ६१७, ६१६, ४५, १२८, १३२, ५५५, ६८२, ६८८ ६२०, ६२२, ६२३, ६३२, ६५८, जर्नल प्रॉफ बिहार एण्ड उड़ीसा रिसर्च ६७६,६८५, ६६४, ७००, ७३६, सोसायटी-७६६ ७४१,७६३, ७६८ जातक अट्ठकथा-७४२ दर्शन दिग्दर्शन-७८४ जीवन विज्ञान-५४८ दर्शनमार--५०६, ५० जैन दर्शन-७०४ दश भक्ति--५५६. ५६० जैन परम्परा नो इतिहास-५२६ दशवकालिक सत्र २८३.६८५. ७१३ जैन साहित्य और इतिहास-७८४ दशाश्रत स्कन्ध --७४० जैन साहित्य का इतिहास-४३० दाद लहू देर जैनाज (जर्मन) ६४७ दीर्घनिकाय--५००, ५०६. ७२६, ७३०, जैन सूत्र (एस. बी. ई.)-५०६ ७६२, ७३३, ७६७, ७७० ज्ञाताधर्म कथांग सूत्र--१०, २८०, २८१, दी उनराध्ययन सूत्र इन्ट्रोडक्शन--४७६ २८६, २८७, ४०१-४०४, ४०६, दी फिलासाफीज आफ इण्डिया-१३६ . ४०७, ४२७, ५१८, ५२०, ७४० दी वन्डर देट वाज इण्डिया-४७५ दी सेक्रेट बुक्स अॉफ दी ईस्ट-४७५, ५०२, तत्त्वार्थ मूत्र-१० दैवी भागवत--- तित्थोगाली पइन्नय-७६८, ७७३ तिलोय पण्पत्ति-५, ८, १६२, १६८, १७३, दुःख विपाव-६६१ १७४, २२३, ४८०, ४८१, ४८६, ४६३, ४६४, ५६६, ६१६, ७७४ धम्मपद-१३५, ७२० तीर्थंकर महावीर-५८६, ५६५, ६४८, धर्म और दर्शन-७७४ ७४१, ७४२ धर्मरत्न प्रकरण-७६३ तीर्थकर वर्द्धमान-७३३ तीर्थोद्धार प्रकीर्ण-७७३ नन्दीश्वर भक्ति-६४ त्रिपिटक-७२० नय सूत्र-६४७ त्रिलोकसार-७७४ नारद पुराण-११३ Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C नासदीय सूक्त - ४७६ निरियावलिका - ५०७, ५०६, ५१३, ५१६. ६३३, ७४४, ७५४, ७६२ नियुक्ति दीपिका- २३ निशीथ चरिण - ६१७, ७३६ (प) पउम चरियं - ६, ३००, ३१५, ३५५ पद्म चरित्र - ४८०, ४८६ पद्म पुराण- ३००, ५६६ परिशिष्ट पर्व - ७६७, ७६८ पाहय लच्छी नाममाला-५८ पाणिनी कालीन भारतवर्ष - ७२६ पातञ्जल महाभाष्य - ७२० पातञ्जल योग सूत्र - ७०६ पार्श्वचरित्र - ४४, ४६८, ४६६ पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म - ४६८, ५००, ५०५, ५०६ पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास - ५२६, ५३० पार्श्वनाथ चरित्र - ४८३, ४६८, ४६६ पासनाह नरि-४८१, ४५२, ४६८, ४६१, ४६२ पासादिक सुत्त- ५०६ पोलिटिकल हिस्ट्री आफ एन्सियेष्ट इण्डिया १७७४ प्रबद्ध कर्नाटका - २७६,७८० प्रभावक चरित्र - ५६ प्रभास पुराण - ४३० प्रवचन सारोद्धार - १७४, २२३, ४२८, ५०२, ७३८, ७३६ प्रश्न व्याकररण सूत्र - ७२, ७३, २६८ प्राकृत भाषाओं का व्याकरण - ६१७ प्राकृत साहित्य का इतिहास - ६१७ प्राचीन भारत - ७०३ (ब) बाल्मीकीय रामायण - ५०२ बिलोंग्स ग्राफ दी बौद्ध-५०४ बुद्धिष्ट इण्डिया - ५३५ ब्रह्माण्ड पुराण- ७३, १३७ ब्रह्मावर्त पुराण- १३३ (भ) भगवती सूत्र - ५५७, ५८५, ५८६, ५६७, ६०५, ६१६, ६२०, ६२२, ६२५, ६२८, ६२६, ६३१, ६३२, ६३७, ६३८, ६४०, ६४३, ६४५, ६४६. ६५५, ६५८, ६६०, ६६२. ६६५, ६६८, ६७१-६७२ ६७५६८५ ६८७, ७१०. ७१७, ७२०, ७३०, ७३२, ७३६, ७३७, ७४६, ७५४, ७५५, ७५७ भगवती सूत्र अभयदेवीया टीका- ६४५ भगवान बुद्ध - 390.19139 भगवान् महावीर- ६७३ भरतेश्वर बाहुबली वृत्ति - ६२२, ६३४, ७६२ भारत का वहुत इतिहास - ७७३ भारतीय इतिहास एक दृष्टि- ४७५ ७४२ भारतीय इतिहास में जैन धर्म का योगदान ५०७ भारतीय प्राचीन लिपि माला- ७७५. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान ४199 भाव प्रकाश निवद्-- ६४६ भाव संग्रह - ७२५ मज्झिमनिकाय - ५०० ७२० ७२६, ७३०, ७३२७३३ ७०० मत्स्य पुराण-८ मनुस्मृति - ७, २१ १२८, ५३३.५३४ महापरिनिव्वाण सुत्त - ५५८, ७७० महा पुराण-६, १४, २०, ३०, ४७, ५७, ५८. ११७- ११६, १२४, १३६, ४८१.४८२, ४५६, ४८६ ४२६, '४३०. महाभारत - ३२४ -- ३२६, ४३१, ४३७, ४७० महावंश - ५२७ महावीर कथा - ७३३ महावीर चरियं - ५४७, ५४६, ५५०, ५६०, ६१२, ६१६, ६१ ७, ६२०, ६२६, ६६०, ६६१, ७२५, ७४०, ७४१. ७७४ महावीर तो संयम धर्म ७३१ महासिंहनाद सुत्त - ५०० Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्कण्डेय पुराण - ८, १३६ मूलाचार-७१४ मोक्षमार्ग प्रकाश - ४३० मोन्योर - मोन्योर विलिय संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी-७ (थ) यजुर्वेद - ४३० यजुर्वेद संहिता - ४३० (र) रघुवंश महाकाव्य - ५५६ रत्नकरण्ड श्रावकाचार - ५०६ राज वार्तिक- ५०४ राय प्रसेणी सूत्र - ५३० रिव्यू ग्राफ फिलोसफी एण्ड रिलीजन - ६४७ (12) लाइफ श्राफ गौतम - ७७६ लिंग पुराण- १३८ लोक प्रकाश- ५६६ (ब) aण्डर देट वाज इण्डिया - ४७५ वशिष्ठ स्मृति - ५३४ ११३, २३८ २३६, ३१६, ३१८-३२१, ३२४, ३२६, ३४२, ५४७ वाजसनेयि माध्यंदिन शुक्ल यजुर्वेद संहिता४३० वायु पुराण - १३७, ७८१-७८३ वाराह पुराण- १३७ वाल्मीकि रामायण - ५०२ विचार श्रेणि- ७६६, ७७३ वसुदेव हिण्डी - ५१, विनय पिटक - ७३० विपाक सूत्र - ६२३, ६६१ विविध तीर्थकल्प - ६८६, ६६० विशेषावश्यक भाष्य - ३८, ६४६, ७११, ७१२, ७१५- ७१८ विष्णु पुराण - १३२, १३३, १३८. वीर निर्धारण संवत् और जैनं काल गणना७६९ वीर विहार मीमांसा - ६०८ वैजयन्ती कोष - ४८७, ६४६ 1" वृहत्कल्प - ६१७, ६२४ वृहदारण्यक उपनिषद् - ५०२, ५०४ व्याख्या प्रज्ञप्ति - ६१७ (14) शब्दरत्न समन्वय कोष -४५७, ५६६ शिव पुराण - १३५ श्रमरण भगवान् महावीर - ७०१,७०२ श्रीमद्भागवत - ८, २०, ११३, १२०, १३३१३५, ३३१, ४१४, ४३२, ५४६. ७७८, ७७६, ७८० षट्खण्डागम - ६१५ षड्दर्शन प्रकरण - ५१३ (2) सुख विपाक - ६६१ सुत्तनिपात - ७७२ ८६१ (22) संयत्त निकाय - ७७१ सत्तरिसय द्वार - १६८, १७३, १७४, ११८, २२३, २८५, २६६, ३०८, सप्ततिशत स्थान- ७१३ समवायांग- ६, ३८, ६४, ६६, १६२, १७२, २४१, २६०, ४११, ४६४, ६१६, ६१, ६६४, ६६५, ७०१, ७३७ समागम सुत्त - ७६६ सरस्वती गच्छ की पट्टावली - ७६६ साइनो इण्डियन स्टडीज- ५५८ सामन्न फल सुत्त की टीका- ७२६ सिरिपासनाह चरिउ - ४८२, ४६८, ४८६ सुत्तागम - ३ सुमंगल विलासिनी - ७२६ सूत्र कृतांग- ६६६, ६६७, ७३१, ७३५, ७३७ सेक्रेड बुक्स माफ दी ईस्ट- ४७५, ५०२, ५५६ सौभाग्य पंचम्यादि धर्मकथा संग्रह - ६६२ स्कन्ध पुराण- १३८ स्थानांग सूत्र - ३, ६, ५०, १३०, १८७, ६४४, ६४५, ६८५, ६१४, ७०८, ७१०, ७१४, ७३७ Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८२ स्थानांग सूत्र की टीका-६४, ६४५ हिन्दी विश्वकोष हिरण्यगर्भ सूक्त-४७६ हरिभद्रीय प्रावश्यक-७१६ हिस्टोरिकल बिगिनिंग प्रॉफ जैनिज्म-४७७ हरिवंश व्यास (व्यास)-४३१-४३४, ४३६ हिस्ट्री प्रॉफ इण्डिया (एडवान्स्ड)-७६६ हिस्ट्री प्रॉफ कैनानिकल लिटरेचर प्रॉफ हरिवंश पुराण (जिनसेन) ४५, ५१-५३, जनाज-६४७ ७४, १६२, १७२, १७४, २२३, हिस्ट्री एण्ड डोक्टराइन्स ऑफ प्राजीवकाज३४१, ५५६, ७३५ [५] मत, सम्प्रदाय, वंश, गोत्रादि (अ) प्रक्रियावादी-७३७ मज्ञानवादी-७३७, ७३८ (मा) आजीवक-५०२, ६५६, ७२०, ७२६, ७२८-७३६, ७३६. गोशालकमती-५०२ गौतम गोत्र-३१५, ४८२ चरग-७३६ चौलुक्य कुल-७६८ इम्यकुल-४२० इक्ष्वाकु वंश-२३, ४८२, ५६० तच्चनिय-७३६ तिब्बती परम्परा-७७७ तिम्बती बौद्ध परम्परा-७८०, ७५१ ईसरमत-७३६ उपवंश-४८२ उपभोमवंश-४२२ उलूम-७३६ दशाह-३४३, ३४४, ३४६, ३४८, दिगम्बर परंपरा-१४, २०. ३०, ५१, १२, ६१, ६५, ७२, २१८, •४८७, ४६३, ५३६, ५४०, ५४५, ५५५, ५५६, ५६०, ५६५, ६१४, ६६६, ७३४,७७४ कपिल मत-७३६ कम्मावादी-७३६ कविल-७३६ कावाल-७३९ कावालिय-७३६ काश्यप गोत्र-४८२ क्रियावादी-७३७, ७३६ निम्रन्थ सम्प्रदाय-४६९, ५०० ५०२, ५०३ पासस्थ-७३५, ७३६ Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८३ बज्जि-७६६, ७६७ विनयवादी-७३७, ७३८ वीतहोत्र-७८१ बर्मी बौद्ध परम्परा-७७९,७८० बहुरत सम्प्रदाय-७१७ बुलिगण-५३५ बौद्ध-१३५, १३६, ४७५, ४६८, ५००, ५०४, ५०५, ५२७, ७३०, ७३३, ७३४, ७४३, ७५३, ७६६, ७६७, ७६६, ७७०, ७७६-७८१,७८३, ७८४ __ (म) मल्ल-७८४ मुण्डक सम्प्रदाय-५०४ शाक्य मत-७३६ शिशुनाग वंश-७३६ श्वेताम्बर परम्परा-५१, ४८७, ५३९, ५४०, ५५५, ५६०,५६५, ७३४, ७७४ यदुवंश-४०७, ४२६ यादववंश-४३१, ४३३, ४३७ लिंगजीवी मत-७२६ लिच्छवी-७५१,७८४ लोयावादी-७३६ सुतिवादी-७२६ (ह) हरिवंश-१३०, ३१५, ३१७, ३१८, ३२६, ५४७,५४८ Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ ग्रन्थों की सूची ग्रन्थ का नाम अंतगड़ दशा ग्रन्थकार अथवा टीकाकार का नाम १. अमोलक ऋषिजी महाराज २. प्रा० हस्तीमलजी महाराज व्यास श्री घासीलालजी महाराज प्रा० हेमचन्द्र राजेन्द्र सूरि अमरसिंह श्रीचन्द रामपुरिया जनार्दन भट्ट मुनि श्री नगराजजी सम्पा. पुप्फ भिक्खु अग्निपुराण प्रगुत्तरोववाइय अभिधान चिन्तामणि अभिधान राजेन्द्र कोष-भाग १-७ अमरकोष परिहन्त अरिष्टनेमि और वासुदेव श्रीकृष्ण प्रशोक के धर्म लेख मागम और त्रिपिटक-एक अनुशीलन प्राचारांगसूत्र टीका माचारांग सूत्र, भाग १ व २ आचारांग सूत्र टोका पादिपुराण प्राप्टे को संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी प्रार्य मंजश्री प्रावश्यक-चरिण दोनों भाग आवश्यक नियुक्ति पावश्यक-नियुक्तिदीपिका पावश्यक मलयवृत्ति, भाग १-३ मावश्यक हारिभद्रीय इण्डियन एण्टीक्वेरी, वोल्यूम ६ इण्डियन फिलोसोफी, वोल्यूम १ ईशान संहिता उत्तर पुराण प्राचार्य जिनसेन प्राचार्य जिनदास गणि मलय गिरि माणिक्य शेखर मलयगिरि डॉ० राधाकृष्णन् प्राचार्य गुणभद्र, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी सं० घासीलालजी महाराज अभयदेव सूरि उत्तराध्ययन सूत्र उपासकदशा (टीका) उववाई (टोका) ऋग्वेद ऋग्वेद-संहिता ऋषभदेव-एक अनुशीलन एकविंशतिस्थान प्रकरण एन एड्वास हिस्ट्री ग्राफ इण्डिया देवेन्द्र मुनि शास्त्री प्रार. सी. मजूमदार, एच. सी. राय राय चौधरी और के. के. दत्ता Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८५ ग्रन्थ का नाम ग्रन्थकार अथवा टीकाकार का नाम डॉ. हार्नले प्रा० घासीलालजी Faiub मुनि श्री पुण्य विजयजी श्री देवेन्द्र मुनि वसंतकुमार एन्साइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एण्ड एथिक्स एन्शियेन्ट जोग्राफी प्रॉफ इण्डिया एपिटोम प्रॉफ जैनिज्म, एपेंडिक्स ए. पी. ४ ओपपातिक सूत्र कम्पेरेटिव स्टडीज दी परिनिव्वान सुत्त एण्ड इट्स चाइनीज वर्शन कल्प-समर्थन कल्पसूत्र-अंग्रेजी अनुवाद कल्पसूत्र (गुजराती) कल्पसूत्र, हिन्दी अ० कल्पसूत्र किरणावली कल्पसूत्र सुबोधा कल्पसूत्र (बंगला) कालमाषवीय मागर खण्ड कूर्मपुराण केबिज हिस्ट्री प्रॉफ इण्डिया, भाग १ गौतम धर्मसूत्र चन्द्रगुप्त मौर्य एण्ड हिज टाइम चउप्पन्न महापुरिस चरियं जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति जर्नल ऑफ बिहार एण्ड उड़ीसा रिसर्च सोसायटी ज्ञाताधर्मकथा-सूत्र जातक अट्ठकहा जैन-दर्शन जैन धर्म का संक्षिप्त इतिहास जैन धर्म नो प्राचीन इतिहास जैन परम्परा नो इतिहास भाग १ व २ जैन सूत्र (एस. बी. ई.), भाग १ तित्थोगालीपइन्नय तिलोय-पण्णत्ति, भाग १ व २ त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र, पर्व १-१० तीर्थकर महावीर, भाग १ व २ तीर्थकर वर्धमान वर्शन दिग्दर्शन वर्शनसार डॉ० राधाकुमुद मुखर्जी प्राचार्य शीलांक प्रा० अमोलक ऋषिजी. श्री घासीलालजी महाराज महेन्द्र कुमार कामता प्रसाद पं० हीरालाल त्रिपुटी महाराज प्राचार्य यतिवृषभ प्रा० हेमचन्द्र विजयेन्द्र सूरि श्रीचन्द रामपुरिया देवसेनाचार्य Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८६ ग्रन्थकार अथवा टीकाकार का नाम आचार्य पूज्यपाद प्राचार्य बुद्धघोष मुनि पुष्य विजयजी प्रा. हेमचन्द्र सिद्धसेन सूरि वासुदेवशरण अग्रवाल ग्रन्थ का नाम वशवकालिक अगस्त्य चूणि दशभक्ति बी फिलोसफी प्रॉफ इडिया धम्मपद पटुकहा धर्मरत्न प्रकाश नन्दीश्वर भक्ति नारद पुराण निरयावलिका निशीथसूत्र चूरिण पउम-चरियं परिशिष्ट पर्व प्रवचन सारोद्वार वृत्ति, पूर्व और उत्तर भाग प्रश्न व्याकरण प्राकृत साहित्य का इतिहास पाणिनिकालीन भारत पातंजल महाभाष्य पार्श्वनाथ पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म पाश्वनाथ चरित्र पारवनायं चरित्र पासनाह चरियं पोलिटिकल. हिस्ट्री प्रॉफ एन्शियेण्ट इण्डिया ब्रह्माण्ड पुराण बालकाण (वाल्मीकीय रामायण) बिलोंग्स ऑफ बुखा, भाग २ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास, भाग ११२ भगवती सूत्र, हिन्दी प्र० भगवती सूत्र प्रभयवेधीया वृत्ति भगवान महावीर भगवान् महावीर (अंग्रेजी में) १२ जिल्लं भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध भरतेरवरवाहबली-वृत्ति भागवत श्रीमद भारत का. वृहत् इतिहास श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री धर्मानन्द कौशाम्बी सकलकीर्ति अभवदेवसूरि पद्मकीर्ति एच. सी. राय चौधरी मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी प्रागमोदय समिति मुनि कल्याण विजयजी रत्नप्रभ विजयजी कामता प्रसाद जैन ध्यास Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८७ ग्रन्थकार अथवा टीकाकार का प्रन्थ का नाम भारतीय इतिहास-एक दृष्टि भारतीय प्राचीन लिपिमाला रायबहादुर पं० गौरीशंकर हीराचन्द प्रोझा प्राचार्य जिनसेन व्यास पं० गोपाल दास प्रा० नेमिचन्द्र ग्रा० मुगभद्र सर एम. मोन्योर दामोदर सातवलेकर संस्करण पतंजलि भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान भाव संग्रह मज्झिम निकाय मनुस्मृति महापुराण महाभारत, १ से १८ पर्व महावीर कथा महावीर चरित्र महावीर चरियं महावीर नो संयम धर्म मूलाचर मोन्योर मोन्योर संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी यजुर्वेद योगसूत्र रत्नकरण्ड श्रावकाचार रायपसेरणो लिंगपुराण लोक-प्रकाश वशिष्ठ स्मृति वसुदेव हिण्डी प्रथम खण वसुदेव हिण्डी, द्वितीय खण्ड वृहत्कल्प भाव्य ' बाणसनेयि माध्यंदिन शुक्ल यजुर्वर संहिता वायुपुराण वाराहपुराण विचार श्रेणी विपाकसूत्र विविध तीर्थकल्प विशेषावश्यक भाष्य विशेषावश्यक बृहद् वृत्ति विष्ण -पुराण बोर विहार मीमांसा संघदास गणि हेमचन्द्र सूरि व्यास Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 554 ग्रन्थ का नाम जीर निर्धारण संवत् और जैन कालगणना वैजयन्ती कोष शिवपुराण घट् खण्डागम सत्तरिसय प्रकररण समवायांगसूत्र समवायांग वृत्ति स्कन्ध- पुराण स्थानांगसूत्र स्थानगसूत्र- टीका साइनो इण्डियन स्टडीज, बोल्यूम १ जुलाई १९४५ सुतनिपात सामने सुमंगल विलासिनी (दीर्घकाय अटुकहा ) सूत्र कृतांग सेक्रेड युक्त प्रॉफ बी ईस्ट हरिवंशपुराण हरिवंशपुराण हिस्टोरिकल बिगिनिंग्स प्रॉफ जैनिज्म हिस्ट्री एण्ड डोक्टाइन्स ग्रॉफ आजीवकाज ग्रन्थकार अथवा टीकाकार का नाममुनि कल्याण विजयजी सोमतिलक सूरि पं० घासीलालजी द्वारा सम्पादित अमोलक ऋषिजी धर्मादेष्टा फूलचन्दजी मह प्राचार्य जिनसेन व्यास ए. एल. बाशम Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Interna 卐 m परस्परोपग्रहो जीवानाम् 麗 9999 Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक जैन इतिहास समिति सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल चौड़ा रास्ता, जयपुर - 302 003 बापू बाजार, जयपुर-3 फोन : 565997 DDDDDDDDDDDD