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________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [हरिणगमेषी द्वारा गर्भापहार हरिणगमेषी द्वारा गर्भापहार । इन्द्र का आदेश पाकर हरिगेगमेषी प्रसन्न हुआ और "तथास्तु देव !" कह कर उसने विशेष प्रकार की क्रिया से कृत्रिम रूप बनाया। उसने ब्राह्मणकुण्ड ग्राम में आकर देवानन्दा को निद्रावश करके बिना किसी प्रकार की बाधा-पीड़ा के महावीर के शरीर को करतल में ग्रहण किया एवं त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में लाकर रख दिया तथा त्रिशला का गर्भ लेकर देवानन्दा की क ख में बदल दिया और उसकी निद्रा का अपहरण कर चला गया। आचारांग सूत्र के भावना अध्ययन में कब और किस तरह गर्भपरिवर्तन किया, इसका उल्लेख इस प्रकार किया गया है : जम्बद्वीप के दक्षिणार्द्ध भरत में, दक्षिण ब्राह्मणकुडपूर सन्निवेश में कोडालसगोत्रीय उसभदत्त ब्राह्मण की जालंधर गोत्र वाली देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में सिंहअर्भक की तरह भगवान् महावीर गर्भरूप से उत्पन्न हुए। उस समय श्रमण भगवान महावीर तीन ज्ञान के धारक थे । श्रमगा भगवान् महावीर को हितानुकम्पी देव ने जीतकल्प समझ कर, वर्षाकाल के तीसरे मास, अर्थात पाँचवें पक्ष में, आश्विन कृष्णा त्रयोदशी को जब चन्द्र का उत्तराफाल्गनी नक्षत्र के साथ योग था, बयासी अहोरात्रियाँ बीतने पर तियासीवीं रात्रि में दक्षिरण ब्राह्मणकुडपुर सन्निवेश से उत्तर क्षत्रिय कुण्डपुर सन्निवेश में ज्ञातक्षत्रिय, काश्यप गोत्रीय सिद्धार्थ की वशिष्ठ गोत्रीया क्षत्रियाणी त्रिशला की कुक्षि में अशुभ पुद्गलों को दूर कर शुभ पुद्गलों के साथ गर्भ रूप में रखा और जो त्रिशला क्षत्रियाणी का गर्भ था उसको दक्षिण-ब्राह्मणकुण्डपुर सन्निवेश में ब्राह्मण ऋषभदत्त की पत्नी देवानन्दा की क ख में स्थापित किया । ___ गर्मापहार-विधि इस प्रकार ८२ रात्रियों तक देवानन्दा के गर्भ में रहने के पश्चात् ८३वीं रात्रि में जिस समय हरिणगमेषी देव द्वारा गर्भ रूप में रहे हए भगवान महावीर का महारानी त्रिशलादेवी की कुक्षि में माहरण किया गया- "हे प्रायष्मन श्रमणे ! उस समय वे भगवान तीन ज्ञान से युक्त थे । मेरा देवानन्दा की कुक्षि से त्रिशलादेवी की कुक्षि में साहरण किया जायगा, इस समय मेरा साहरण किया जा रहा है और देवानन्दा की कुक्षि से मेरा साहरण त्रिशलादेवी की कुक्षि में कर दिया गया है-ये तीनों ही बातें भगवान महावीर जानते थे।"3। १ प्राचारांग सूत्र २ प्राचारोग सूत्र ३ समणे भगवं महावीरे तिनाणोवगए यावि होत्था-साहरिज्जिसामित्ति जाणइ, साहरिज्जमाणे वि जाणइ, साहरिएमित्ति जाण इ समरणाउमो । प्राचारांग सूत्र, ध्रु० २, ५० १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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