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________________ इन्द्र का अवधिज्ञान से देखना] भगवान् महावीर ५४३ शूरवीर और महान् पराक्रमी होगा । ऋषभदत्त के मुख से स्वप्नफल सुन कर देवानन्दा बड़ी प्रसन्न हुई तथा योग्य माहार-विहार भोर अनुकूल माचार से गर्भ का परिपालन करने लगी। इन्द्र का प्रवधिज्ञान से देखना m arn.50 उसी समय देवपति शकेन्द्र ने सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को अवधिज्ञान से देखते हुए श्रमण भगवान् महावीर को देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में उत्पन्न हुए देखा । वे प्रसन्न होकर सिंहासन पर से उठकर पादपीठ से नीचे उतरे और मरिणजटित पादुकाओं को उतार कर बिना सिले एक शाटक-वस्त्र से उत्तरासन (मुह की यतना) किये और अंजलि जोड़े हुए तीर्थकर के सम्मुख सात आठ पैर आगे चले तथा बायें घटने को ऊपर उठाकर एवं दाहिने घटने को भूमि पर टिका कर उन्होंने तीन बार सिर झुकाया और फिर कुछ ऊँचे होकर, दोनों भुजाओं को संकोच कर, दशों अंगुलियाँ मिलाये अंजलि जोड़कर वंदन करते हुए वे बोले"नमस्कार हो अर्हन्त भगवान् ! यावत् सिद्धिगति नाम स्थान प्राप्त को। फिर नमस्कार हो श्रमण भगवान महावीर ! धर्मतीर्थ की आदि करने वाले चरमतीर्थकर को।" इस प्रकार भावी तीर्थंकर को नमस्कार करके इन्द्र पूर्वाभिमुख हो सिंहासन पर बैठ गये।' इन्द्र को चिन्ता और हरिणेगमेषी को प्रादेश इन्द्र ने जब अवधिज्ञान से देवानन्दा की कुक्षि में भगवान महावीर के गर्भरूप से उत्पन्न होने की बात जानी तो उसके मन में यह बिचार उत्पन्न हुआ"अर्हत, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव सदा उग्रकुल मादि विशुद्ध एवं प्रभावशाली वंशों में ही जन्म लेते पाये हैं, कभी अंत, प्रान्त, तुच्छ या भिक्षुक कूल में उत्पन्न नहीं हुए मोर न भविष्य में होंगे। चिरन्तन काल से यही परम्परा रही है कि तीर्थंकर आदि उग्रकुल, भोगकुल प्रभृति प्रभावशाली वीरोचित कुलों में ही उत्पन्न होते हैं । फिर भी प्राक्तन कर्म के उदय से श्रमण भगवान् महावीर देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में उत्पन्न हुए हैं, यह अनहोनी और आश्चर्यजनक बात है । मेरा कर्तव्य है कि तथाविध अन्त आदि कुलों से उनका उग्र आदि विशुद्ध कुल-वंश में साहरण करवाऊँ।" ऐमा सोचकर इन्द्र ने हरिणगमेषी देव को बुलाया और उसे श्रमण भगवान् महावीर को सिद्धार्थ राजा की पत्नी त्रिशला के गर्भ में साहरण करने का आदेश दिया। १ (क) आव० भाष्य ०, गा० ५८,५६ पत्र २५६ (ख) कल्पसूत्र, सू० ६१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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