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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [च्यवन और गर्भ में आगमन
तीन आरकों के व्यतीत हो जाने पर और दुष्षम-सुषम नामक चौथे प्रारक का बहुत काल व्यतीत हो जाने पर जब कि उस चौथे प्रारक के केवल ७५ वर्ष और साढे आठ मास ही शेष रहे थे, उस समय ग्रीष्म ऋतु के चौथे मास, आठवें पक्ष में आषाढ़ शुक्ला छट्ठ की रात्रि में चन्द्र का उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ योग होने पर भ० महावीर (नन्दन राजा का जीव) महाविजय सिद्धार्थ-पूष्पोत्तर वर पुण्डरीक, दिकस्वस्तिक वद्ध मान नामक महा विमान में सागरोपम की देवआयु पूर्ण कर देवायु, देवस्थिति और देवभव का क्षय होने पर उस दशवें स्वर्ग से च्यवन कर इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र के दक्षिणार्द्ध भरत के दक्षिण ब्राह्मणकुण्ड पुर सन्निवेश में कूडाल गोत्रीय ब्राह्मण ऋषभदत्त की भार्या जालन्धर गोत्रीया ब्राह्मणी देवानन्दा की कुक्षि में, गुफा में प्रवेश करते हुए सिंह के समान गर्भ रूप में उत्पन्न हुए।)
श्रमण भ० महावीर के जीव ने जिस समय दशवें स्वर्ग से च्यवन किया, उस समय वह मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान-इन तीन ज्ञानों से यक्त था। मैं दशवें स्वर्ग से च्यवन करूंगा-यह वे जानते थे । स्वर्ग से च्यवन कर मैं गर्भ में आ गया है, यह भी वे जानते थे, किन्तु मेरा इस समय च्यवन हो रहा है, इस च्यवन-काल को वे नहीं जानते थे, क्योंकि वह च्यवनकाल अत्यन्त सूक्ष्म कहा गया है । वह काल केवल केवलीगम्य ही होता है, छद्मस्थ उसे नहीं जान सकता।
आषाढ़ शुक्ला षष्ठी की अर्द्धरात्रि में भगवान महावीर गर्भ में आये और उसी रात्रि के अन्तिम प्रहर में सुखपूर्वक सोयी हुई देवानन्दा ने अदजागृत और अर्द्ध सुप्त अवस्था में चौदह महान् मंगलकारी शुभ स्वप्न देखे । महास्वप्नों को देखने के पश्चात् तत्काल देवानन्दा उठी । बह परम प्रमुदित हई । उसने उसी समय अपने पति ऋषभदत्त के पास जा कर उन्हें अपने चौदह स्वप्नों का विवरण सुनाया।
देवानन्दा द्वारा स्वप्न-दर्शन की बात सुनकर ऋषभदत्त बोले-"अयि देवानुप्रिये ! तुमने बहुत ही अच्छे स्वप्न देखे हैं । ये स्वप्न शिव और मंगलरूप हैं। विशेष बात यह है कि नौ मास और साढ़े सात रात्रि-दिवस बीतने पर तुम्हें पुण्यशाली पुत्र की प्राप्ति होगी । वह पुत्र शरीर से सुन्दर, सुकुमार, अच्छे लक्षण, व्यञ्जन, सद्गुरणों से युक्त और सर्वप्रिय होगा । जब वह बाल्यकाल पूर्ण कर यवावस्था को प्राप्त होगा तो वेद-वेदाङ्गादि का पारंगत विद्वान, बड़ा १ समणे भगवं महावीरे इमाए प्रोसप्पिणीए"...........""देवाणंदाए माहणीए जालंधर
स्सगुत्ताए मीहुन्भवभूएणं अप्पाणेरणं कुच्छिसि गम्भं वक्ते । २ समणे भगवं महावीरे तिन्नागोवगए यावि हुत्था, चइस्सामिति जारण इ, चुएमित्ति जाणइ,
चयमाणे न जाणइ, मुहुमे रणं से काले पन्नत्ते। प्राचारांग, श्रु० २, अ० १५ ।
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