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र्भापहार-विधि
भगवान् महावीर
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देवकृत साहरण का कार्य च्यवन काल के समान अत्यन्त सूक्ष्म नहीं होता, अतः तीन ज्ञान के धनी भ० महावीर साहरण की भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीनों ही क्रियाओं को जानते थे । कल्पसूत्र में जो उल्लेख है कि "इस समय मेरा साहरण किया जा रहा है, यह भ० महावीर नहीं जानते थे", वह उल्लेख ठीक नहीं है । कल्पसूत्र के टीकाकार विनय विजयजी ने "साहरिज्जमाणे वि जारगइ" इस प्रकार के प्राचीन प्रति के पाठ को प्रामाणिक माना है।
भगवती सत्र में हरिणगमेषी द्वारा जिस प्रकार गर्भ-परिवर्तन किया जाता है, उसकी चर्चा की गई है । इन्द्रभूति गौतम ने जिज्ञासा करते हए भगवान महावीर से पूछा-"प्रभो ! हरिणैगमेषी देव जो गर्भ का परिवर्तन करता है, वह गर्भ से गर्भ का परिवर्तन करता है या गर्भ से लेकर योनि द्वारा परिवर्तन करता है अथवा योनिद्वार से निकाल कर गर्भ में परिवर्तन करता है या योनि से योनि में परिवर्तन करता है ?"
उत्तर में कहा गया-“गौतम ! गर्भाशय से लेकर हरिणगमेषी दूसरे गर्भ में नहीं रखता किन्तु योनि द्वारा निकाल कर बाधा-पीड़ा न हो, इस तरह गर्भ को हाथ में लिए दूसरे गर्भाशय में स्थापित करता है। गर्भपरिवर्तन में माता को पीड़ा इस कारण नहीं होती कि हरिरणेगमेषी देव में इस प्रकार की लब्धि है कि वह गर्भ को सक्ष्म रूप से नख या रोमकप से भी भीतर प्रविष्ट कर सकता है।" जैसा कि कल्पसूत्र में कहा है :
"हरिणैगमेषी ने देवानन्दा ब्राह्मणी के पास पाकर पहले श्रमण भगवान महावीर को प्रणाम किया और फिर देवानन्दा को परिवार सहित निद्राधीन कर अशुभ पुद्गलों का अपहरण किया और शुभ पुद्गलों का प्रक्षेप कर प्रभु की अनुज्ञा से श्रमण भगवान् महावीर को बाधा-पीड़ा रहित दिव्य प्रभाव से करतल में लेकर त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में गर्भ रूप से साहरण किया।"
[कल्पसूत्र, सू० २७] गर्भापहार असंभव नहीं, पाश्चर्य है वास्तव में ऐसी घटना अद्भुत होने के कारण आश्चर्यजनक हो सकती है, पर असंभव नहीं। प्राचार्य भद्रबाहु ने भी कहा है-"गर्भपरिवर्तन जैसी घटना लोक में प्राश्चर्यभूत है जो अनन्त अवसर्पिणी काल और अनन्त उत्सपिणी काल व्यतीत होने पर कभी-कभी होती है।"
दिगम्बर परम्परा ने गर्भापहरण के प्रकरण को विवादास्पद समझ कर मूल से ही छोड़ दिया है । पर श्वेताम्बर परम्परा के मूल सूत्रों और टीका चूणि प्रादि में इसका स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध होता है । श्वेताम्बर प्राचार्यों का कहना
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