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________________ अ. धर्मनाथ के शासन के तेजस्वी रत्न] भगवान् श्री धर्मनाथ २२६ __ केवली बनकर देवासुर-मनुजों की विशाल सभा में देशना देते हुए प्रभु ने कहा- "मानवो! बाहरी शत्रुओं से लड़ना छोड़कर अपने अन्तर के विकारों से युद्ध करो । तन, धन और इन्द्रियों का दास बनकर आत्मगुण की हानि करने वाला नादान हैं। नाशवान् पदार्थों में प्रीति कर अनन्तकाल से भटक रहे हो, अब भी अपने स्वरूप को समझो और भोगों से विरत हो सहजानन्द के भागी बनो।" प्रभु का इस प्रकार का उपदेश सुनकर हजारों नर-नारियों ने चारित्र. धर्म स्वीकार किया। वासुदेव पुरुषसिंह और बलदेव सुदर्शन भी भगवान् के उपदेश से सम्यग-दृष्टि बने । चतुर्विध संघ की स्थापना कर प्रभु भाव-तीर्थंकर कहलाये । भगवान् धर्मनाथ के शासन के तेजस्वी रत्न भगवान् धर्मनाथ के केवलज्ञान की महिमा सुनकर वासुदेव पुरुषसिंह और बलदेव सुदर्शन भी प्रभावित हुए। प्रतिवासुदेव निशुभ को मार कर पुरुषसिंह त्रिखण्डाधिपति बन चुका था । भगवान् के अश्वपुर नगर में पधारने पर बलदेव सुदर्शन और पुरुषसिंह भी वंदन को गये। प्रभु की वाणी सुनकर बलदेव व्रतधारी श्रावक बने और पुरुषसिंह वासुदेव सम्यग्दृष्टि । - महारंभी होने से पुरुषसिंह मर कर छठी नरक भूमि में गया और बलदेव भातवियोग से विरक्त होकर संयमी बन गये। तप-संयम की सम्यग् आराधना कर वे मुक्ति के अधिकारी बने । यह भगवान धर्मनाथ के उपदेश का ही फल था । वासुदेव की तरह भगवान् के शासन में चक्रवर्ती भी उनकी उपासना करते । चक्री मघवा और सनत्कुमार जैसे बल रूप और ऐश्वर्य-सम्पन्न सम्राट भी त्याग-मार्ग की शरण लेकर मोक्ष-मार्ग के अधिकारी हो गये। ये दोनों चक्रवर्ती पन्द्रहवें तीर्थंकर भगवान धर्मनाथ और सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ के अन्तराल-काल में अर्थात भगवान धर्मनाथ के शासनकाल में हए । उनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है :-- भगवान् धर्मनाथ के पश्चात् तीसरे चक्रवर्ती मघवा हुए । सावत्यी नगरी के महाराज समुद्रविजय की पतिव्रता देवो भद्रा से मघवा का जन्म हुआ, माता ने चौदह शुभ-स्वप्नों में इन्द्र के समान पराक्रमी पुत्र के होने की बात जानकर बालक का नाम मघवा रखा। - समुद्रविजय के बाद वे राज्य का संचालन करने लगे । प्रायुधशाला में चक्ररत्न के उत्पन्न होने पर षट्खण्ड की साधना कर चक्रवर्ती बने । भोग की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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