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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
रही, श्रतः बालक का नाम धर्मनाथ रखा जाता है ।""
विवाह प्रौर राज्य
देव कुमारों के साथ क्रीड़ा करते हुए प्रभु ने शैशवकाल पूर्ण किया । फिर पिता की चिरकालीन अभिलाषा को पूर्ण करने और भोग्य-कर्म को चुकाने के लिये श्रापने पाणिग्रहण किया ।
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दो लाख पचास हजार वर्ष के बाद पिता के अनुरोध से प्रापने राज्यभार ग्रहण किया और पांच लाख वर्ष तक भली भांति पृथ्वी का पालन करने के पश्चात् प्राप भोग्य - कर्म को हल्का हुआ जानकर दीक्षा ग्रहण करने को तत्पर हुए ।
दीक्षा और पाररणा
लोकान्तिक देवों ने प्रार्थना की- "भगवन् ! वर्म - तीर्थ को प्रवृत्त कीजिये ।"
[विवाह और राज्य
उनकी विज्ञप्ति से वर्ष भर तक दान देकर नागदत्ता शिविका से प्रभु नगर के बाहर उद्यान में पहुँचे और एक हजार राजाओं के साथ बेले की तपस्या से माघ शुक्ला त्रयोदशी को पुष्य नक्षत्र में सम्पूर्ण पापों का परित्याग कर आपने दीक्षा ग्रहण की ।
दूसरे दिन सौमनस नगर में जाकर धर्मसिद्ध राजा के यहां प्रभु ने परमान्न से प्रथम पाररणा किया । देवों ने पंच-दिव्य बरसा कर दान की महिमा प्रकट की ।
केवलज्ञान
विभिन्न प्रकार के तप-नियमों के साथ परीषहों को सहते हुए प्रभु दो वर्ष तक छद्मस्थचर्या से विचरे, फिर दीक्षा-स्थान में पहुंचे और दधिपर्ण वृक्ष के नीचे ध्यानावस्थित हो गये । शुक्लध्यान से क्षपक श्रेणी का आरोहण करते हुए पौष शुक्ला पूर्णिमा के दिन भगवान् धर्मनाथ ने पुष्य नक्षत्र में ज्ञानावरणादि घाति कर्मों का सर्वथा क्षय कर केवलज्ञान, केवलदर्शन की प्राप्ति की ।
१ (क) गर्भस्थेऽस्मिन् धर्मविधी, यन्मातुर्दोहदोऽभवत् ।
तेनास्य धर्म इत्याख्यामकार्षीत् भानुभूपतिः ।। त्रि० ४ | ५ | ४९ ॥
(ख) “भगवम्मि गब्भत्थे' प्रतीव जगणीए धम्मकरणदोहलो प्रासि त्ति तो धम्मो ति नाम कयं तिहुरणगुरुरणो । च० महा पु० च० पृ० १३३ (ग) श्रम्मा पितरो सावग धम्मे भुज्जो चुक्के खलंति, उववण्णे दढव्वतारिण ||
[श्रा. चू., पूर्व. भा. पृ. ११]
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