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भगवान् श्री धर्मनाथ
भगवान् अनन्तनाथ के पश्चात् पन्द्रहवें तीर्थंकर श्री धर्मनाथ हुए।
पूर्वभव एक समय धातकीखण्ड के पूर्व-विदेह में स्थित भद्दिलपुर के महाराज सिंहरथ प्रबल पराक्रमी और विशाल साम्राज्य के अधिपति होकर भी धर्म में बड़े दृढ़प्रतिज्ञ थे। नित्यानन्द की खोज में उन्होंने संसार के सभी सुखों को नीरस समझकर निस्पृह-भाव से इन्द्रिय-सुखों का परित्याग कर विमलवाहन मुनि के पास दुर्लभतम चारित्रधर्म को स्वीकार किया एवं तप-संयम की साधना करते हुए तीर्थकर-नामकर्म की योग्यता प्राप्त की।
समता को उन्होंने योग की माता और तितिक्षा को जीवन-सहचरी सखी माना । दीर्घकाल की साधना के बाद समाधिपूर्वक आयु पूर्ण कर वे वैजयन्त विमान में अहमिन्द्र रूप से उत्पन्न हुए । यही सिंहरथ का जीव आगे चलकर धर्मनाथ तीर्थंकर हुआ।
सिंहरथ का जीव वैजयन्त विमान से च्यवन कर वैशाख शुक्ला सप्तमी' को पुष्य नक्षत्र में रत्नपुर के महाप्रतापी महाराज भानु की महारानी सुव्रता के गर्भ में उत्पन्न हुआ । महारानी सुव्रता तीर्थंकर के जन्म-सूचक चौदह महामंगलकारी शुभ-स्वप्न देखकर हर्षविभोर हो गई।
गर्भकाल पूर्ण होने पर माघ शुक्ला तृतीया को पुष्य नक्षत्र के योग में माता सुव्रता ने सुखपूर्वक पुत्ररत्न को जन्म दिया। देवेन्द्रों और महाराज भानु ने बड़े ही हर्षोल्लास के साथ भगवान् धर्मनाथ का जन्म-महोत्सव मनाया।
नामकरण
बारहवें दिन सब लोग नामकरण के लिये एकत्रित हुए। महाराज भानु ने सबको संबोधित करते हुए कहा-"बालक के गर्भ में रहते माता को धर्म-साधन के उत्तम दोहद उत्पन्न होते रहे और उसकी भावना सदा धर्ममय
१ अण्णया वइसाइ सुद्धपंचमीए पूसजोगम्मि.......वेजयन्त विमाणाम्रो पविऊण सुव्वयाए
कुच्छिसि समुप्पणो....... [चउ० म० पु० च०, पृ० १३३]
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