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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[परिनिर्वाण अवधिज्ञानी - चार हजार तीन सौ [४,३००] चौदह पूर्वधारी __ नौ सौ [६००] वैक्रिय लब्धिधारी पाठ हजार [८,०००] वादी
- • तीन हजार दो सौ [३,२००] साधु
छियासठ हजार [६६,०००] साध्वी
बासठ हजार [६२,०००] श्रावक
दो लाख छः हजार [२,०६,०००] श्राविका
चार लाख चौदह हजार [४,१४,०००]
राज्य-शासन पर धर्म-प्रभाव चौदहवें तीर्थंकर भगवान् अनन्तनाथ के समय में भी पुरुषोत्तम नाम के वासुदेव और सुप्रभ नाम के बलदेव हुए।
। भगवान् के निर्मल ज्ञान की महिमा से प्रभावित होकर पुरुषोत्तम भी अपने ज्येष्ठ भ्राता के साथ इनके वन्दन को गया और भगवान की प्रमतमयी वाणी से अपने मन को निर्मल कर उसने सम्यक्त्व-धर्म की प्राप्ति की।
बलदेव सुप्रभ ने श्रावक-धर्म ग्रहण किया और भाई की मृत्यु के पश्चात् संसार की मोह-माया से विरक्त हो मुनि-धर्म ग्रहण कर अन्त में मुक्ति-पद प्राप्त किया।
परिनिर्वाण .. तीन वर्ष कम सात लाख वर्ष तक केवली पर्याय में विचर कर जब मोक्षकाल निकट समझा तब प्रभु ने एक हजार साधनों के साथ एक मास का अनशन किया और चैत्र शुक्ला पंचमी को रेवती नक्षत्र में तीस लाख वर्ष की आयु पूर्ण कर, सकल कर्मों को क्षय कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए।
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